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________________ पउमचरिय और पद्मचरित [प्राकृत और संस्कृत जैन-रामायणांकी तुलना ] (ले०–श्री पं० नाथूरामजी प्रेमी) परिचय गुरु इन्द्र थे। चार्य रविषेणका पद्मचरित' ( पद्मपुराण) नाइलकुलका उल्लेख नन्दिसूत्र-पट्टावलीम मिलता है। श्रासंस्कृतका बहुत ही प्रसिद्ध ग्रन्थ है श्रीर उसका भूतदिन प्राचार्यको भी-जो श्रार्य नागार्जुनके शिष्य थेहिन्दी अनुवाद तो उत्तर भारतके जैनामें घर घर पढ़ा जाता नाइलकुलवशनंदिकर' विशेषण दिया गया है। जैनागम की है. परन्तु विमलमूरिके परमचरियको बहुत ही कम लोग नागार्जुनी वाचनाके कती यही माने जाते हैं । मुनि जानते हैं, क्या के एक तो वह प्राकृनमे है और दृपर श्रीकल्याण विजयजी प्रार्य स्कन्दिल और नागार्जुनको लगभग उसका कोई अनुवाद नहीं हुआ। समकालीन मानते हैं और धार्य स्कन्दिलका समय वि०सं० विषेणने पद्मचरितकी रचना महावीर भगवान के ३५६ के लगभग है । पुष्पिकाम विमलमृरिको पूर्वधर निर्वाणके १२०३ वर्ष छह महीने बाद अर्थात् वि० सं० ७३४ के लगभग' और विमलसूरिने बीर नि० सं० ५३० रविषेणने न तो अपने किसी संघ या गण-गछका कोई या वि० सं०६० के लगभग की थी। इस हिमाबसे उल्लेख किया है और न स्थानादिकी ही कोई चर्चा की है। पउमचरिय पद्मचरितमे ६७४ वर्ष पहले की रचना है। परन्तु मेनान्त नामसे अनुमान होता है कि शायद वे सेनसपके जिस तरह पउमचरिय प्राकृत जैन-कथा-पाहियका सबसे हीं, यद्यपि नामोंमे संघका निर्णय मदेव ठीक नहीं होता। प्राचीन ग्रन्थ है, उसी तरह पद्मपुराण संस्कृत जैन-कथा इनकी गुरुपरम्पराके पूरे नाम इन्द्रमन, दिवाकरमन, अर्हलपेन साहित्यका सबसे पहला ग्रन्थ है। और लक्ष्मणनन होगे, ऐसा जान पडता है। विमलसूरि राहू नामक प्राचार्यके प्रशिष्य और उद्योतनमरिने अपनी कुवलयमालाम-जो वि०सं०८३५ विजयाचार्य के शिष्य थे" । विजय नाइलकुलके थे । इसी की रचना है-विमलसूरिके 'विमलांक' (प उमचरिय ) तरह रविषेण अर्हन्मुनि के प्रशिष्य और लक्ष्मणमेनके [क और 'हरिवंश' इन दो ग्रन्थोंकी तथा रविषेणके पद्मचरितकी शिष्य थे। अर्हन्मुनिके गुरु. दिवाकर यति और उनके ६ यामादिन्द्र गुगंदिवाकग्यनि: शि' योऽम्य चाईन्मनिः । १ माणिकचन्द्र-जन-ग्रन्थमाला. बम्बई, बाग प्रकाशित । नम्मालचमगामेनमन्मनिरद:शिष्यो विस्तम्मृतः ।। ६६ ।। २ जैनधर्मप्रसारक मभा, भावनगर, द्वारा प्रकाशित । ३ द्विशताभ्यधिके ममामले ममतानचतुर्थवर्षयुक्ते । दग्बो, 'वीर-निर्वाण-मवत् और जैन-कालगणना' नागरी जिनभास्करबर्द्धमानसि चरितं पद्ममनेरिदं निबद्धम् ॥१८॥ प्रचारिणी पत्रिका, भाग १०-११ ४ पंचव वाममया दुममा नीम परममंजुत्ता। ८ जारिमय विमलं को विमलं को नारिस लाइ अत्थं । वीरे मिद्धिमुवगए तो निबद्ध इमं चरियं ॥ १०३ ।। अमयमय व सरमं सरसं चिय पाइय जस्स ।। ३६ ।। ५ राह नामारियो स समय-परममयडियसम्भायो। बुदयणमहम्मदइयं इरिवंमुष्पनिका पढमं ।। विजयो य तस्म म मा नाइलकुलवंमनंदियरो ।। ५१७॥ चंदामि बंदियं पिहु हरिवम चेव विमलपयं ॥ ३८ ॥ सीमेण तस्म रदयं गवरियं तु मरियमलग। जहि कर रमणिज्ज वर ग-पउमाण चरियवित्थारे । सो कणं पुधगा नागयण-मोरि चरियाई || १४८| कहब ग मलाइणिज्जे ते कई गो जडिय चिमणे ।। १ ।।
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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