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________________ किरण १-२] पउमचरिय और पद्मचरिन ३६ (जटिलमुनिके वरांगचरिनकी भी) प्रशंसा की है। इसम पउमरियके प्रत्येक उद्देसके अन्तिम पद्यमें विमल' मालूम होता है कि उनके सामने ये दोनों ही ग्रन्थ मौजूद और पद्मचरितके अन्तिम पद्यमें 'रवि' शब्द अवश्य आता थे। हरिवंशको उन्होने 'प्रथम' कहा है जिसका अर्थ है। अर्थान् एक 'विपलाई' है और दूसरा 'रव्यङ्क' । संभवत. यह है कि हरिवंशकी उत्पत्तिके सम्बन्धमै सबसे ५पमचरितमे जगह जगह प्राकृत भार्यात्रोंका शब्दशः पहले उन्होंने लिखा। संस्कृत अनुवाद दिखलाई देना है। ऐसे कुछ पद्य इस लेख प्राचार्य जिनमन (पुन्नाटबंधीय) ने भी अपने हरिवंश- के परिशिष्टमै नमुनेके तौरपर दे दिये गये हैं और उसी पुगण (वि.सं.८४०) मे-जी उद्योतनसरिके पांच वर्ष तरहके मैंकडो और भी दिये जा सकते हैं। बाद ही की कृति है-विषेणके पद्मचरितकी प्रशंसा की है। पल्लवित कहनेका कारण यह है कि मृलमें नहीं प्राकृतका पल्लवित छायानवाद स्त्री-रूपवर्णन नगर-उद्यानवर्णन आदि प्रसंग दो चार दोनों ग्रन्थकांडोंने अपने अपने अन्धमे रचनाकाल पोमे ही कह दिये गये हैं वहां अनुवादमें ज्योदे-दने पद्य दिया है उसमे यह स्पष्ट है कि पउमचरिब पद्मपुगणमे लिखे गये हैं। इसके भी कुछ नमूने अन्तम दे दिये गये हैं। पुराना है और दोनो ग्रन्धोका की तरह मिलान करने पउमचारियके काने चौथे उदेसमे ब्राह्मणोंकी पत्ति मालूम होता है कि पद्मपुराणके कतके सामने पउमचरिय बतलाते हुए कहा है कि जब भरत चक्रवर्तीको मालूम अवश्य मौजूद था। पद्मपुराण एक नरहने प्राकृत पउम- हुअा कि वीर भगवानके अवमानके बाद ये लोग कुतीर्थी चरियका ही पल्लवित किया हश्रा संस्कृत छायानुवाद है। पापण्डी हो जायेगे और झूठे शास्त्र बनाकर यज्ञामे पशुओं पउमचरिय अनुष्टप श्लोकोके प्रमाण से दस हजार है और की हिंसा करेंगे, तब उन्होने उन्हे शीघ्र ही नगरसे निकाल ग्मचारत अठारह हजार । अर्थात प्राकृत संस्कृन लगभग देनेकी प्राज्ञा दे दी और इस कारण जब लोग उन्हें मारने पान दोगुना है । प्राकृत ग्रन्थकी रचना यायां छन्दमे की लगे दब ऋषभदेव भगवानने भरतको यह कहकर का कि गई है और संस्कृनकी प्राथ. अनुष्टप छन्दमे, इसलिए हे पुत्र, इन्हें मा हण, मा हणमत मारो मत मारो, तबसे पद्मपुराणमे पद्य तो शायद दो गुनेने भी अधिक होंगे। उन्हें 'माहण' कहने लगे। शायानुवाद कहनेके कुछ कारण ___ संस्कृत ब्राह्मण' शब्द प्राकृतमे 'माहण' (बाह्मण) हो दोनोंका कथानक बिल्कुल एक है और नाम भी जाता है। इसलिए प्राकृतम नो उमकी ठीक उपपत्ति उक्त स्प बतलाई जा सकती है परन्तु संस्कृतमे वह ठीक नही • पर्वो या उददेसी नक नाम दोनों के प्राय: एकये बैठनी। क्योंकि संस्कृत 'ब्राह्मण' शब्दमेमे 'मत मारों' जैसी कोई बान बीच-तानकर भी नहीं निकाली जा सकती। ३ हराएक पर्व या उददेमके अन्त में दोनीने छन्द बदल संस्कृत 'पद्मपुगण के कोंके सामने यह कठिनाई अवश्य दिये हैं। आई होगी. परन्तु वे लाचार थे। क्योंकि मूल कथा तो वाटमपीय निनने यो शभापति धवलने बदली नहीं जा सकती, और संस्कृतके अनुसार उपपत्ति विणके बाद टिलमानका उलंब किया है, हममे बिठानेकी स्वतन्त्रता कमे ली जाय ' इमलिए अनुवाद अनुमान होता है कि जटा-मिग्नन्दिका वगगचरित शायद करके ही उनको मन्तुष्ट होना पहागविग के पद्मचरितके बादका हो। यस्मान्मा हननं पुत्र कापारिति निवाग्निः । ६ उमच ग्यिकी, वि.म. BHEEन जयमिहदेवक राज्य- ऋपमेण नतो याना 'माहना' इति ते थ तिम् ॥४-१२२ कालम, भडोनम लिली गई एक नाइयत्रीय प्रनि उपलब्ध इस प्रसंगमे यही जान पडता है कि प्राकृत ग्रन्थमे ही है। दिवा जमलमग्क ग्रन्या-भगडारकी सी. प्र. संस्कृत ग्रन्थकी रचना हुई है। 2 नरोदयोन्योता प्रन्या परिवर्तिता। ४ मा हगामु पुत्त जं उम्भजिगरग वारियों भरी। मनि' काव्यमयी लोक ग्वेग्वि वि. प्रिंया ॥ ३४ ॥ नंग इमं मया मित्र युन्नान य 'माहरणा' लोग ||४-८४॥
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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