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अनेकान्त
सिद्धिचन्द्र रूपमें दूसरे कामदेव थे । अकबर छुटपन से ही उनको चाहते थे और महलमें भी उनके जाने की रोक-टोक न थी । भानुचंद्र की शिष्यतामें सिद्धि चन्द्र ने नैष्ठिक ब्रह्मचर्यव्रत धारण करके संन्यास लिया । वे अयन्त मेधावी और सचरित्र थे । अपने तपोमय जीवनसे उन्होंने सम्राट अकबर तथा जहांगीर को भी बहुत प्रभावित किया। उन्होंने बहुत निकट मे wears व्यक्तित्वका निरीक्षण किया था । उनका एक श्लोक ही सम्राट् जलालुद्दीन अकबर के विशाल व्यवसायी स्वभाव और गुणोंका सर्वोत्तम परिचय देने के लिये पर्याप्त है
काद्ज्ञानं न तद्वैर्यं न तद्बलम | शाहिना युवराजेन यत्र नैवोद्यमः कृतः ||१|५६|| अर्थात कोई भी कला, ज्ञान, साहस और बलका ऐसा कार्य नहीं था जिसका अभ्यास किशोरावस्था में युवराज अकबरने न किया हो। जिस इतिहासग्रंथ में reat after यह अनुपम गाथा न हो वह इति हास फीका कहा जायगा। अकबरनामा और आइने
[ वर्ष ५
अर्थात् 'मतिमानोंम श्रेष्ट वह अबुल फजल समस्त साहित्यरूपी समुद्रको पार कर चुका था । साहित्य में कुछ भी ऐसा नहीं था जो उसने देखा या सुना न हो ।'
मिद्धिचंद्र वे ही हैं जिन्हें अकबर ने 'खुष्कम' की उपाधि से विभूषित किया था और जिन्होंने अपने गुरु भानुचन्द्र के साथ कादम्बरीपर सर्व विदित टीका लिखी है। इनके गुरुने अकबरको सूर्यसहस्रनाम का अध्यापन कराया था, जब पारसीधर्मसे प्रभावित हो कर करके मनमें लोकको चैतन्यके प्रदाता भगवान सूर्य के प्रति श्रद्धा उत्पन्न होगई थी ।
जैन साहित्य में से इस प्रकार के अन्य जितने भी काव्य मिल सके इतिहासके लिये वे अमूल्य होंगे । विदित हुआ है कि श्री नाथूरामजी प्रेमी कविवर बनारसीदास - विरचित हिन्दी आत्मचरित प्रकाशित कर रहे हैं जो अकबर - जहांगीर शाहजहांके राज्यकालसे सम्बन्ध रखता है और उस समयकी सामाजिक व धार्मिक अवस्थापर बहुत प्रकाश डालता है । इस प्रकार जैनसाहित्य में ऐतिहासिक साधनकी प्रभूत सामग्री है, जो क्रमशः प्रकाशमे आ रही है। अपभ्रंश साहित्य के जो अनेक ग्रन्थ श्रीहीरालाल जैन, प्रो० उपाध्ये और प्रो० वैद्यक सत्प्रयत्नोंसे प्रकाशमे आ रहे हैं उनमें भारतीय भाषाओं विशेषतः हिन्दी के विकास पर अपरिमित प्रकाश पड़ता है तथा आनुषंगिक रीतिसे देश-दशाका भी परिचय प्राप्त होता है ।
कवरी सदृश महाप्रन्थोंके रचयिता अबुल फजल के उदार मस्तिष्क बारेमें सिद्धिचंद्रने जिन स्तुतिभरे शब्दों का प्रयोग किया है उनसे प्रकट होता है कि कोई समशील विद्वान दूसरे आत्मसदृश विद्वानको पहचानकर कुछ कह रहा हैनिःशेषवाडमयांभोधेः पारदृश्वा विदांवरः || १९६७ नास्ति तद्वामये तेन न दृष्टं यच न श्रुतम् ॥ १७१
चैत्र शुक्ल २, बिक्रमाब्द २०००
नागौर, जयपुर और मेरके कुछ हस्तलिखित ग्रन्थोंकी सूची
भण्डार,
नागौर, जयपुर और आमेर में हस्तलिखित जैनग्रन्थोंक बड़े बड़े भण्डार हैं । नागोरका एक भट्टारकीय शास्त्रजो पचास वर्ष बन्द था, अभी खुला है इसके उद्घाटन के अवसर पर वीर सेवामन्दिरसे प० परमानन्द जीशास्त्री को भेजा गया था । जो नागौर से जयपुर श्रामेर होते हुए वापिस आए हैं। उन्हें अपने इस प्रवासमे हन स्थानोंके जिन शास्त्र भण्डारीको देखनेका जितना श्रवमर मिल सका है उसके अनुसार उन्होने उन हस्तलिखित ग्रन्थीकी एक सूची तैयार की है जो गतवर्ष और इस वर्ष की अनेकान्त - किरण मे प्रकाशित ग्रन्थसृचियोम नहीं आए हैं और जिसे भण्डारक्रमसे नीचे दिया जाता है। इन स्थानीके भण्डारोम विपुल ग्रन्थराशि भरी पड़ी है, जिसका विशेष परिचय तभी दिया जा सकता है जब इन स्थानोंके सभी शास्त्र भण्डारोको पूरी तौर से देखनेका अवसर मिले | नागार के महारकजाने अपने शास्त्र भडारको पूरी तौरसे देखने नही दिया, इसका बहुत अफसोस रहा ! आशा है वे या तो स्वयं अपने शास्त्र भण्डार की एक विस्तृत प्रामाणिक सूची शीघ्र प्रकाशित करेगे और या दूसरोको वैसी सूची तैयार कर लेनेक लिये श्रामंत्रित करेगे । इन शास्त्र भण्डारीका विशेष परिचय फिर किसी समय दिया जायगा । -सम्पादक