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________________ ३६० अनेकान्त घर पवित्र करनेका सौभाग्य मुझे मिल सका । पुण्यकर मकना - पुण्य कर्म की ही तो बात है । अवश्य ही आज मेरा पुण्योदय है । गौरवका विषय है। सचमुच आज भाग्यवान हूँ मै। कई मिनट खड़े रहे, पवित्रपुण्य बर्द्धक भावनाओं में उलझे हुए। जब ज्ञान-सिन्धु दृष्टि ओझल हो गये, भावनाओं का क्रम भंग हुआ, तब वे लौटे ! दूकान पर ए, यह विचारकर कि-- लाओ पहिले मणिको फिट करदे अधूरा काम पड़ा है। फिर तसल्ली से रमाई जी मेगे ।' पर यह क्या ? अंगारदेवने इधर-उधर, यहाँ-वहाँ सब जगह की खोज का, ढूँड़ी ढकोरी । पर, गायब ! मणि लापता ! और अचरज तो यह कि बाकी सब चीजें ज्यों की त्यों । जैसे चारने दूसरी चीजे छूना, व्यर्थ ही समझा हा ! अंगारदेवका हृदय धक्से रह गया । यह हुआ क्या ? चोरी ! भीषण चोरी !! दिन-दहाड़े लूट !!! माथे पर पसीने की बूँदे झलक उठी ! भूख-प्यास खुशी - उमंग सब नदारद ! जैसे खून जमता-सा जा रहा धीरे-धीरे वह सिर थामकर बट गये वही ! चक्कर जो आ रहे थे ! पैरोमे बल जो नहीं रहा था, खड़े होने लायक ! आँखो के आगे पतंगे से उड़ने लगे थे ! पद्मराग-मणि !!! विशाल धनकी मोहक वस्तु ! सोचने लगे--' गई कहाँ ? अभी-अभी तो यहाँ रक्खी ही थी। कोई आया भी तो नहीं। और मैं तो यही खड़ा रहा हूँ--निकट ही, यही थी इसमें शक नही ! और नीमरा कोई आया नही, फिर ?... 1 वर्ष ५ शुबहा भी हो। और मैंने ली नही । तब मुनि - - ? मुनि ही तो ? और कौन ? वे ले सकते हैं ? क्या मुनि चुरा ले गए होगे ? मणि, पद्मराग-र्माणि ! अगर मुनिन मणिचुराई हो ..? और नहीं चुराई तो ले कौन गया उसे ? गई कहाँ ?" वह घबरा उठे --'अब करे क्या ?" विचार आगे बढ़े - 'मैं और मुनि, इन्ही दोके बीच मेसे मणि खोई जा रही है ! कैसे मजे की बात है ? बेशकमती वस्तु ! तीसरा कोई आया ही कहाँ ? जो किसीपर शक क्षण भर रुका, जैस समाधानकी शक्ति संग्रहकी हो ! प्रश्न जटिल जो था सामने ! सोचने लगा फिर-'धन ऐसी ही वस्तु है ! विरागी विराग छोड़ दे तो अचरज क्या ? फिर थोड़ा लोभ तो था नहीं, पद्म राग-मणि ! ज़रूर मुनिकी नीयत बद हुई। और वही घुरा ले गए उसे नहीं गई कहाँ ? कोई आया भी तो नही उनके सिवा !" अंगारदेवका मन क्रोधसे भर उठा । - - 'कैसा मुनि ? चोर ! - टाकू ! लुटेरा !!!" (4) परम शान्त मुनि ज्ञान-मागर हो चुके थे-ध्यानम्थ, जब क्रोध में तने, धनके वियोग में पागल अंगारदेव उनके पास पहुँचे । 'कहाँ है, मेरी मणि ? दुष्ट । चोर, उठाई गीरा ।" शर्म नहीं आती तुझे ? क्या यही तेरी तपस्या है ? मैने खाना दिया और तू चुरा लाया सम्पत्ति ! छलिया वही का ' बोल, रहने दे इस ढोंग को ! अब, देवली तेरी बगुलाभक्ति !' पर मुनि चुप, ध्यानमग्न । अंगारदेवका का उमड़ा-बोलता नहीं, कहाँ है मेरी मणि ? निकाल दे सीधी तरह बन याद रखना मैगा थोड़े इस तरह !" मुनि मौन ! अंगारदेवका खून खौल उठा । 'आपा खो बैठे ! हाथका लम्बा बेत फैककर उन्हीं तपोधनको लक्ष्यवर माग, जिन्हें जरा-सी देर पहिले शिर झुकाकर अपने को धन्य समझा था ! अब जो भक्ति के बीच धनकी दीवार खड़ी हो चुकी थी । लेकिन निशाना बैटा--गलत ! बैन मुनिके परोपकारी-शरीर में न लगकर लगा समीप खड़ी हुई 'मोरनी' के गले पर ! और उस .चानक लगने वाली
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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