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किरण १०-११ ]
अपराधी
चोटने कर दिया-हम्यमय चोरीका उद्घाटन ! लौटा । पर, चैन नही था उसे ! एक विचित्र वेदना
'मणि' मोरनीन उगल दी! और भागीक और उसे दबोचे दे रही थी।
अंगारदेवने यह देखा तो दग रह गया : लज्जामे घंटो पड़ा रोता रहा! फिर उठा और दर्बारमे नम्नक उपर न उठा। मरिण मामने पड़ी जगमग कर जाकर मणि महाराजको वापिस दे दी। उन्होंने पूछा-- रही थी। जैमे मुनिका निदोपता प्रमाणित होनस 'क्यो ?' वह खुश हो, या अंगारदेवको भक्तिपर-मूर्खतापर हँस बोले-'इस मणिने अब मुझे अपनी 'मणि' की म्ही हो।
याद दिला दी है। पहिल उसे आत्म-संतोपके लिए वीतरागी यानम्थ थे।
अपनाना मंग कर्तव्य है !! मोम्य-अबि
पर, महाराज खाक न समझे।-अंगारद लौट अंगारंदवने माग उठा ली। और चला घरकी आप! चित्त उनका कुछ हल्का होता जा रहा था। पार पर स पड़ रहे थे, जेम-वोमे बीमार हो। मेंहपर गहरी दामी न थी। हर कदमपर सोचना जाता था---'धरती फट जाय
और में उममें समा जाउ । मुंह दिग्वाने तक की जगह दमर प्रभात-- जा नहीं है अब
__ महाराज गन्धर्वसेनने एक सम्बाद सुना-अंगार
देव परम पूज्य, माधु-ज्ञानसागरक पद-सन्निकट बंटे, पश्चातापकी ज्वालामं भलमा टुआ अंगाग्दव घर दीक्षा ले रहे हैं।
श्राशा-गीत
क्या अपने को पान मगा" विकट उलेमनीमे उलझा है, लेकिन क्या मुलझा न मगा,
क्या अपने को पा न सकृगा? खो चटा है मै निजत्वको, मृत्यू-निराशाने घंग है । शेप न इतना ज्ञान मुद्दा अब. कौन पगया, क्या मेरा है, अगर प्रयत्न कम नो क्या मैं, मोई-ज्योनि जगा न मगा?
क्या अपने को पा न सकूँगा। माना, सब-कुछ लुटा-गंवाकर, बन बैठा हूँ आज अकिंचन । अपनी भूलोक कारण ही. उलझा है कांटीम जीवन !! लेकिन क्या मैं उन्हीं दिनांको, फिर वापिस लौटा नमकृगा?
क्या अपने को पा न म गा" मरी-पान्माके भीतर भी, रहता है अमरत्व अपरिमित । मृत्यु पराजय मान चुकी है, अनः आन्मा रहता जीवित '. अमर- अान्माम फिर माची, कैस जीवन ला न मगा?
क्या अपनको पान मगा' पूजकरी में पृज्य बन सक, जब इतनी क्षमता रग्बनाई। अचरज तो यह है कि अभी नक, क्या इस पदम दूर रहा है ? फिर रुकावट क्या पड़ती है, जो 'भगवत कहला न सकगा?
क्या अपनका पा न म गा"
श्री भगवन जैन