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वह मनुष्य नहीं देवता था
मुलतानवासी दिगम्बरजैन-ओसवालोके नररत्न था। सामाजिक सुधारमें अग्रसर होकर कुछ निधन श्रीमान ला० जिनदासजी संघवी द्वि० ज्येष्ठ वदी भाइयों के विवाह केवल २५) पच्चीस रुपयेके खर्च में १३ गुरुवार ता० ११जून १६४२ को सायं साढ़ेतीन बजे करा दिये, जिनमें समस्त रीति रिवाज भी कराये । अपनी ऐहिक लीला समाधिपूर्वक समेट कर देवपुरी मुलतानमें बाहर आने वाले भाइयोका आतिथ्य को चल बसे हैं, यह जानकर किसे खेद नही होगा! सत्कार मुख्य रूपमे जिनदासजी ही करते थे। वे
ला० जिनदासजी मानवाकारमे एक देव थे, अपनी दुकानके निकाले हुए धर्मादेसे भी अधिक मूर्तिमान परोपकार और सेवाकी मूति थे, सच्चरित्रके एवं उपयोगी गुप्त दान किया करते थे। जो कोईभी
आदर्श थे, नगरमान्य न्यायाधीश थे, शरीरम कृश आड़ा मामला आता जिनदासजी अपनी प्रखरबुद्धिसे किन्तु श्रात्मवल-मनोबलके धनी, अनुपम साहसी एवं उमे झट सुलझा देते थे। विकट अवसर पर भी उन्हें धैर्यकी प्रतिमा थे तथा अतिथ्यसेवाक प्रमुख पाठक तत्काल समुचित उपाय सूझ पाता था। एक बार एक थे। उनकी चतुमुखी प्रतिभा साधारण शिक्षा पानपर बरातमें बन्नूम लौटते ममय कारणवश वे डेरा भी प्रत्येक विषयमें श्रागे दौड़ती थी, उनकी रसनामें इस्माइलखानम पीछे अकेले रह गये। दरियाखांके अद्भत वाणीरस था-मानो सरस्वतीने अपने हाथोस उस स्टेशन पर पैदल पहुँचते समय रात्रिक प्रारम्भ समय परत्र लिख दिया हो। साथ ही सफल व्यापारीथे,सतत् में दो लुटेरे पठान उन्हे आ मिले । सीमाप्रान्तमे उन उद्योगी और उत्साही थे, अच्छे समाज सुधारक थे, दिनों कांग्रेसी मंत्रिमंडल था, जिनदासजीने जेबसे धर्मके आश्रय थे, निरभिमानी आर निरीह सेवक थे, कागज पैसिल निकालते हुए कहा 'हम गांधी पुलिस सादा रहन-सहनके प्रेमी थे, विश्व मैत्री-गुणिप्रमोद- हैं, तुम रातको घर से बाहर क्यों निफले, अपने नाम दयालुता उनमें साकार विद्यमान थी, और इन्हीं बताओ' यह सुन डरकर वे लुटेरे पठान भाग गये। सब गुणोंसे वे सर्वप्रिय थे।
धर्माचारमें, सदाचारमे, नैतिक व्यवहारमें वे सौटंच योंतो आपकी आयु ५० वर्षसे भी अधिक संख्या सोने के समान खरे थे, और मुलतान जैनसमाजके पार कर चुकी थी किन्तु आपका मानसिक उत्साह युवा स्तम्भ थे। उनके दृष्टिम ओझल होजाने पर आज पुरुषोंको भी लज्जित करता था ।रुग्ण-शय्या पर लेटे हए यहां अन्धकार होगया है !!
आपने कई दिन जो मृत्युक साथ वीरतापूर्ण युद्ध आप अपने पीछे तीन सुयोग्य पुत्र, पौत्र, दौहित्र किया वह दर्शनीय था। यद्यपि उममें अंतिम विजय आदि बडा परिवार छोड गये हैं. आपने अपनी आपको न मिली किन्तु श्रापकी वीरता प्रशंसनीय रही। सावचेत दशामें अपने हाथ लिखकर दान किया है।
ला० जिनदामजी जीवन भर परोपकारमे लगे रुग्ण-शय्यापर पड़े आपको आध्यात्मिकचचोंके सिवाय रहे। किसीका कष्ट निवारण करनेके लिये वे अपनी और कोई बात न सुहातीथी, तदनुकूल ही यथासम्भव भूख,प्यास,थकावट तथाव्यापार आदिको भी भूल जाते प्रबन्ध कर दिया गया था। आध्यात्मिक ग्समें लीन रह थे, अनाथ विधवाओं, दरिद्रोंको गुप्त महायता दिया कर आपने शरीर-पीड़ासे कभी प्राह तक न की। करते थे जिसका परिचय उनके पुत्रोंको भी नहीं होता यदि ला०जिनदासजी सरीखे महात्मा सज्जन नरथा । अपने जीवनमें उन्होंने मैकड़ों दीवानी फैसले तय रत्न प्रत्येक नगरमें मिल सके तो निःसंदेह यह पृथ्वीकरके सैकड़ों परिवारोंको बरबादीसे बचाया है। अभी तल स्वर्ग बन जावे हमें आपके वियोगसे बहुत दुःख है। चारपाई पर पड़े पड़े भी दो झगडोका फैसला किया मुलतान ]
-अजितकुमार जैन शास्त्री