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किरण ३-४]
समाजके दो गण्यमान्य सज्जनोंका वियोग
किया था। उसके योग-विषयक दो एक लेखोंका रसास्वादन वह अटल है-किसी तरह भी टाला नही टल सकता। 'अनेकान्त' के पाठक भी कर चुके हैं। ऐसे सुयोग्य जवान ऐसे घोर संकटके समय में अपने मित्र को किन शब्दोंमें पुत्र का बुढापेमे उठ जाना सचमुच बूढ़ेके कॉपने हुए सान्त्वना दूं यह कुछ भी समझ नहीं पड़ता। संसारमें हाथोंसे लाठीका गिर जाना है, जिसे फिर कोई पकड़ाने होने वाली ऐसी निन्यकी घटनाओका साक्षात् अनुभव ही वाला नहीं है। एक समय था जब हेमचन्द छोटा बच्चा था उन्हें इस दुःख-संकटसे पार लॅघा सकता है, धैर्य बधा
और प्रेमीजी बहुत अस्वस्थ होगये थे-उन्हें अपने जीनेकी सकता है और उनकी प्रात्माम विवेकको जागृत करके श्राशा नही रही थी। उस समय उन्होंने एक वसीयतनामा उन्ह कल्याणक मार्गपर लगा सकता है। ऐसे अवसर पर लिखा था, जिसमे हेमचन्दकी शिक्षा-दीक्षाका भार मेरे किसी ऋषि-मुनिका निम्न वाक्य बड़ा काम देता हैऊपर रखा गया था। उनका वह संकटका समय उस वक्त दुखी दुःखाधिकानपश्येत् सुखी पश्य सुखाधिकान् । टल गया था और वे स्वयं ही अपने मनोनुकूल हेमचन्द यात्मान हर्ष-शोका-या शत्र यामव नार्पयत् ॥ की शिक्षा-दीक्षा करने और उसे सब योग्य नाने में समर्थ
दुखित हृदय-- होगये थे, परन्तु आज जो संकट उनपर उपस्थित हुआ है
जुगलकिशोर मुख्तार
समाजके दो गण्यमान्य सज्जनोंका वियोग
(१) श्रीजिनवाणी-भक्त ला० मुसद्दीलालजोअमृतसर बापने पत्रो द्वारा भी अनेक व्यक्तियोपर व्यक्त किया था। जैन पमाज के पफ मान्य उदारदानी महानुभाव थे। अापने प्रायः (२) वैरिएर चम्पतरायजी जैनसमाजके उन प्रसिद्ध सभी जैन संस्थानोको आर्थिक सहायता प्रदान की है। कार्यकर्ताप्रोममे हैं जिन्होंने अपने जीवनको समाज और इतना ही नहीं, किन्तु अनेक विद्यार्थियोको स्कालशिप साहित्यसेवामे लगाया है। आपने विदेशों में जैनधर्मके देकर उन्हें विद्याध्ययन करनेमे पूर्ण सहयोग व सहायता प्रचारका बडा कार्य किया है और गिरिराज सम्मेद शिखर पहुंचाई है। इसके सिवाय अापने हजारो रुपयोंके जैन के केमको संचालन करनेमे बडी ही तत्परतासे कार्य किया ग्रन्थ भारतीय जैन संस्थाप्रोके अतिरिक्त नैपाल, रगृन,
ल, रगृन, है। अखिल भारतवर्षीय दि. जैन परिपके कायम करनेमें
। यूरुप, अमेरिका, आष्टेलिया, अफ्रीका और जापान श्रादि
भी आपका पुग-पूरा हाथ रहा है। भा० दि. जैन महादेशोंको ११६ पार्सलों द्वारा भिजवाए हैं। इससे आपकी
सभाके भी श्राप सभापति रह चुके हैं। इस तरह आपकी जिनवाणी भक्तिका अच्छा परिचय मिल जाता है । ग्वेद है
समाज-मेवाएं प्रशंसनीय है । खेद है कि श्रापका ता. २जून कि आपका ना० २४ अप्रैलको ८४ वर्षकी अवस्था में
सन् १६४२ को करांची दुपहरके समय स्वर्गवास होगया स्वर्गवास हो गया है। आप कुछ अर्सेसे बीमार चल रहे
है। आपके वियोगमे दि. जैनसमाजको भारी हानि पहुंची थे । आपने अपने जीवनकालमें अपनी सारी सम्पत्तिका
है जिसकी पूर्ति होना बहुत मुश्किल है । मुना है कि मृत्यु वसीयत द्वारा ट्रस्ट करा दिया था, जिसमे अब आगे भी आपकी श्रोरसे बराबर जैनसाहित्यादिकी सेवा होती
से पहले श्राप अपनी सब सम्पत्तिका विदेशीम जैनधर्मके रहेगी। आप जैसे सच्चे सेवकके उठ जानेये निःसन्देह
प्रचारार्थ दृष्ट कर गए हैं, जिसका विशेष विवरण अभी तक जैन समाजको भारी धक्का पहुंचा है। हार्दिक भावना है
प्रकाशित नहीं हुआ है। हम स्वर्गीय श्रामाके लिए
परलोकमें शान्तिकी भावना करते हुए कुटुम्बीजनोके इस कि आपके आत्माको परलोकमे सुखशान्तिकी प्राप्ति हो और
दुःखमे समवेदना प्रकट करते हैं। आपकी विदेह क्षेत्रमें उत्पन्न होकर केवलियों श्रुतकेवलियों के चरण-शरणमें रहनेकी वह अन्तिम इच्छा पूर्ण हो जिसे
-जुगलकिशोर मुख्तार