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जीव-स्वरूप-जिज्ञासा
प्रश्नावली
[बहुत अर्सेसे मेरी यह प्रश्नावली पडी हुई है। कुछ विद्वानोंके सामने इसे पहले रणखा भी था, परन्तु पूरा सन्तोषजनक उत्तर नहीं मिल सका। अतः कई मित्रोंके अनुरोधसे अाज इसे प्रकाशित करके सभी विद्वानोंके सामने रक्खा जाता है। प्राशा है चिट्ठजन यथेष्ट समाधान करनेकी ज़रूर कृपा करेंगे।]
(१) चैतन्यगुणविशिष्ट सक्षणतिरक्ष्म अखण्ड पुद्गल-
पिण्ड (काय) को यदि 'जीव' कहा जाय तो इसमें
क्या हानि है-युक्तिसे कौनसी बाधा आती है ? (२) जीव यदि पोद्गलिक नई है तो उममे सौम्य स्यौ
ल्य अथवा मंकोच-विस्तार, क्रिया और प्रदेश-रि
स्पन्द कैसे बन सकता है ? (३) जीवके अपोद्गलिक होनेपर अात्मामे पदार्थो का प्रति
विमित होना-दर्पगतलवत् झलकना-भी केमे बन सकता है ? क्योकि प्रतिबिम्बका ग्राहक पुद्गल ही होता है.----उमीम प्रतिबिम्बग्रहणकी अथवा छाया
को अपनेम अंकित करनेकी योग्यता पाई जाती है। (४) तत्त्वार्थमूत्रादिमे सौदम्य-स्थौल्यको पदुगलकी पर्याय
माना गया है और जीवम मंकोच-विस्तार होनेमे मौम्य-स्थौल्प स्पष्ट है, तथा 'अात्मप्रवाद' पूर्व में जीव का नाम 'पद्गल' भी दिया है, जैसा कि उक्त पूर्व का वर्णन करते हुए 'धवला' मिद्वान्नटीकाके प्रथम खण्डम 'उक्तं च' रूपसे जो दो गाथाएँ दी है उनके निम्न अंश तथा वहीं 'पोग्गल' शब्दके प्राकृतम
ही दिये हुए निम्न अर्थसे प्रकट है :"जीवो कत्ता य वत्ता य पाणी भोत्ता य पोग्गलो।" "बिहमंठाणं बहुविहदेहेहि पूरदि गलदित्ति पोग्गलो।"
श्वेताम्बरीके भगवतीसूत्रम भी जीवको पुद्गल नाम दिया है; कोशोमे भी "देहे चात्मनि पुद्गलः” रूपसे पगल का श्रात्मा अर्थ भी दिया है । बौद्धोंके यहाँ तो आमतौरपर पद्गल नामका प्रयोग पाया जाता है । तब जीवको पौद्गलिक क्यो न माना जाय? * देखो, अनेकान्त वर्ष १ पृ० ३६३ ।
(५) जीवको परंज्योति' तथा ज्योतिस्वरूप' कहा गया है
और ध्यानद्वारा उमका अनुभव भी 'प्रकाशमय' बतलाया गया है-अन्तःकरण के द्वारा वह प्रत्यक्ष भी होता है। ये सब बातें भी उसके पौद्गलिक होने को सूचित करती हैं-उद्योत और प्रकाश पद्गलका ही गुण माना गया है । ऐसी हालतमें भी जीवको
पौद्गलिक क्यों न माना जाय ? (६) अमूनिकका लक्षण पंचाध्यायीके "मूर्त स्यादिन्द्रिय
ग्राह्य तदग्राह्यममूनिमत्” (२-७) इम वाक्यके अनुमार यदि यही माना जाय कि जो इन्द्रियगोचर न हो वह श्रमूर्तिक, तो जीवके गौद्गलिक होते हुए भी उसके अमूर्तिक होने में कोई बाधा नही पानी । असंख्य पद्गलोक प्रचयरूप होकर भी कार्माणवर्गणा जसे इंद्रियगोचर नहीं है और इसलिये श्रमूर्तिक है, ऐसा कहा जामकता है। इसमे क्या बाधा याती है? यदि निराकार होना ही अमूर्तिकका लक्षण हो तो
उसे वरविषाणवत् अवस्तु क्यों न समझा जाय ? (७) पुद्गलके यदि दो भेद किये जॉय-एक चैतन्य
गुणविशिष्ट और दूसग चैतन्य-गुगारहित, चैतन्यगुण विशिष्ट पुद्गलोको केवल 'वर्णवन्तः' वह भी 'चक्षुरगोचरवर्णवन्तः' माना जाय और दूसराको 'स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः' माना जाय और उन्दीमें रूगादिकी रसादिके साथ व्याप्ति स्वीकार कीजायतो इसमें क्या हानि है ? ऐसा होनेपर प्रथम भेदरूप जीवाको तत्वार्थसारके कथनानुसार (८-३२) 'उर्ध्वगौरवधर्माणः' और द्वितीय भेदरूप पुद्गलोको 'अधोगौरवधर्माणः' कहना भी तब निरापद् हो सकता है। अन्यथा, अपौद्गलिकमें गौरवका होना नहीं