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अछूतकी प्रतिज्ञा
[लेखक-श्री 'भगवत्' जैन]
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था, शायद अपने प्राणों के बराबर ! उसको साथ पति-शील व्यवसाय तब शायद नही था!
लेकर 'खाना' खाना उसके प्यारकी एक जाहिरा उसकी गति थी-बीमार व्यक्तिकी नाड़ीकी तरह
नज़ोर थी ! जिसदिन खानेके वक्त जागरा न क्षीण ! पर, तब मुख अधिक था, चॉचल्य कम ।
होतो अकेले हो ग्याना पड़ता, उस दिन उसका पेट ही और मवसे बढ़कर जो बात थी, वह यह कि तब '
न भरता ! रुचि जो न रहती खानेकी पोर ! हो लोगोंको सन्तोष था, अधिककी 'लालसा' नही! सकता है, अटूट
हो सकता है, अटूट-दाम्पत्तिक-प्रेम छिपा हो, इसमें ! दुनियाभरकी पूजी मेरे ही घरमें हो, यह ज़िद हॉ, तो उस दिन जागरा आई-चित्तौड़गढ़, नही थी। जिसके पास जितना था, वह उतनम ही वस्त्र बेचने, रोजको तरह ! पर, रारोबकी चीज़ ? खुश था !..
मुश्किल हो मे तो बिकती है ! उसके भाग्यमें जो वह भी गॉवमे रेंगे-वस्त्र लाती और बाजारमें
तिर कार, परेशानी अर चिन्ता लिखी रहती है ! बेचती ! ओर जो लाभ होता वह उसे आनन्दित
सिरपर पोटली रग्वे, वह घूमती-फिरती रहीकरता, क्योंकि उसका मन भी अमन्तोपी न था! म
खरीदारकी तलाशमें ! दसियों दुकानदारोंने वस्त्र वह काली जरूर थी, बदशकल और भोडी भी थी
खलवाए, देखे और फिर या तो-'पसन्द नहीं
खुलवाए, दख अ ही! लेकिन हृदयको मुन्दर थी, साफ थी; भोली थी! आण-कहकर या 'दाम ज्यादह मागता हो !'पर, लोग उससे बचते थे ! इसलिए नहीं कि वह
का लॉछन लगाकर नकारात्मक सिर हिला दिया! गरीब थी, मैले कपड़े पहिने रहती थी, बल्कि इस- तामग प्रहर भी मरकने लगा-धीर-धारे, रात लिए कि वह अछूत थी, नीच थी! उस छना, ऊँरता की तरफ ! जागरा कुछ चिन्तित-सी होने लगी! को बदनाम करना था, अतः पाप था!
आगे बढ़ी!नाम था उसका-जागरा ! चित्तोड़ के पास
सामने सोम्य-प्रकृति धनकुवेरसागरकी दुकान चाण्डालो ने एक गाँव बसा लिया था ! उमीमे रहती
थी! • पोटली उतारी गई, वस्त्र खोले गए ! और थी-बह ! पतिका नाम था-कुरंग ! शरीरका काला
माभाग्य, कि वे पसन्द आगप! दामों में भी सौदा तो वह था ही, पर मन भी उसका सफेद नही था! पट गया ! रात-दिन जोव-हत्या, पाप, छुरी, फल, खून-इन्ही जागराको भूग्व सता रही थी ! आज मुंह-अँधेरे सबमे रहते-रहते वह जो इन्सानसे हैवान बन चुका ही, थोड़ा-सा खाना जो उसने खाया है। फिर कुछ था, अपने आपेको खोकर !
खाया-पिया नहीं ! सुबह भी अगर भर-पेट खाया वह लाख निदयी था सही, फिर भी 'एफके होता, तब भी एक बात थी! खा कहाँ पाई शहर लिए' उमके पाम दया थी ! दया जो सार्वधर्म है, आने की जल्दी में ? और उस पर बोझ रक्व घूमना उससे शून्य रह कैसे सकता है कोई ? और उसकी दिन-भर ! बोझ अकेला पोटलीका होता, तबभी दया-पात्र थी-जागरा ! जागरा को वह प्यार करता गनीमत थी, बेचनेकी चिन्ता जो मिरपर सवार थी,