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दीवाली और कवि [ पं० काशीराम शर्मा 'प्रफुल्लिन' ]
- - कविने कहा-'समस्या मेरी सुलझ न पाती, सोच रहा हूँ ! हे स्वतन्त्र लिखने में, फिर भी मन-ही-मन हा ! लोच रहा हूँ !! हाथ काँपता, भाव टूटते; क्या शब्दोंके जोड़ लगाऊँ ? दीवाली आई है, कैसे भावोंके मै दीप जलाऊँ ?
बाहर-भीतर इधर-उधर है सूखापन, सूना, अधियाला ! काला-काला भूत, भयङ्कर वर्तमान है, आने वालासमय विकट, संकटमय जीवन, कैसे कोमल प्राण बचाऊँ?'
दीवाली आई है, कैसे भावोंके मैं दीप जलाऊँ ? लेखकसे पूछा-'कुछ लिक्खा, दीपमालिका जो आई है ?बोले-'कागजका दीवाला, सचमुच कंगाली छाई हे ! ४३४ कानूनी भझामें कैसे कागजके घोड़े, दौड़ाऊँ ? दीवाली आई है, कैसे भावोंके मैं दीप जलाऊँ?
उपदेशक-भजनीक बिचारा चिल्लाता है जोर-जोरसे'समय भयावह आता देखो ! दीख रहा है सभी ओरसे !! चिन्तित हैं सब लोग-देशके, रोतोको क्या और रुलाऊँ ?'
दीवाली आई है कैसे भावोंके मैं दीप जलाऊँ ? इष्ट-मित्र-समुदाय दुग्वी, इस मॅहगाईको कोस रहा है ! भार होरहा जीना-मरना, नहीं ठिकाने होश रहा है !! उचित मूल्यमे कहो कहाँ से आवश्यक सब चीज़ मॅगाऊँ ? दीवाली आई है, कैसे भावोंके मैं दीप जलाऊँ ?
र्दशा, शेष क्लेश है, बीमागने मत्व निकाला ! बेकारीने दीन-देशमें कर डाला सर्वत्र दिवाला !! पराधीनतासे मुंह काला : क्या अन्तरको खोल दिखाऊँ ?
दीवाली आई है कैसे भावोंके मैं दीप जलाऊँ? तेल नहीं, फल-फल नहीं हैं, नहीं यहाँ शुभ खील-पताशे ! खुल्लम-खुल्ला 'जूबा-मट्टा' दीवालीके खेल-तमाशे !!
दीवानोंकी दीवाली में क्यों कविताकी खाक उड़ाऊँ ? . दीवाली आई है, कैसे भावोंके मैं दीप जलाऊँ ?
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