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अनेकान्त
[वर्ष५
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तरस खाकर तुरन्त ईसाई धर्म में दीक्षित होनेकी शर्त पर यदि ऐसे निन्दनीय व्यवहार मुसलमान, सिक्ख या आर्यउसकी सहायता करना स्वीकार कर लिया। ये हैं, दया- समाजके साथ किये जाते तो क्या 7 लोग जैनसमाज धर्म पालने वालोकी करतूतोंके नमूने !!
के समान योही पानीके घुट पीकर शान्त हो जाते ? हर्गिज संगठनका तो जैनसमाजमें सर्वथा अभाव है, और नहीं । वे अातताइयोको उनकी कमीनी हर्कतोके लिये ऐसा यही एक प्रबल कारण है जिससे इसे अनेको बार सामा- मज़ा चम्बाते कि उन्हे छटीका दूध याद अाजाता और जिक और धार्मिक अपमान सहन करने पड़ते हैं। कहींस भविष्यमे फिर कभी ऐसी हरकते करने की हिम्मत ही न विधर्मियो-द्वाग जैनमन्दिरसे मूतिया उठा कर फेंक दिये करते। कारण स्पष्ट है । इन सम्प्रदायोम जीवन है, मंगजानेके समाचार पाते हैं, कहींसे विमान पर जूता फेके ठन है, अपने समाज और धर्म पर मर-मिटनेकी हविस जानेके, कही स्त्रियोकी बेइजती किये जानेके, तो कहीसे है; इसी लिए उनकी श्रोर कई उंगली उठानेका माहस पूज्य प्राचार्य महाराज पर अण्डे और पत्थर फेंके जाने के!! नही कर सकता। इसके विपरीत जैन समाज साहस-झीन, इम प्रकारके अत्याचारोका नपुंसक प्रतिकार जैन ममाज- दब्बू और कायर बन रहा है। यदि अब भी इसकी अाब्वे द्वारा एकाध प्रस्ताव पास करके तथा अधिकारियोको तार. नही खुलनी नो समयकी चलनी चक्कीमे पिस कर इसका चिट्ठी भेजने के रूपमे कर दिया जाना है। छट्टी हुई !!! कचमर निकल जायगा !!
मङ्गलाचरण पर मेरा अभिमत अनेकान्त वर्ष ५ के जुलाई-अगस्तके अंकमें प्रकाशित 'तत्वार्थसूत्रका मंगलाचरण' शीर्षक लेख ४ बहुत दिलचस्पीके साथ एक बार नहीं, दो बार पढ़ा और साथमें अनेक प्रथों के साथ विचार भी किया।
पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्यने 'मोक्षमार्गस्य नेतारं' आदि श्लोकको पूज्यपाद स्वामीकी कृति बताने
वाली जो युक्तियां दीं, वे साधारण दृष्टिस काफी आकर्षक हैं, किन्तु न्यायाचार्य पं. दरबारीलालजीने उन ए युक्तियोंकी त्रुटियोंका समीचीनरूपमें साधार उद्भावन किया है।
मंगलाचरणके कर्तृत्वके बारेमें अनेक विद्वान दुल-मुल-यकीन तबियत वाले नजर आते थे, किन्तु इस लेखकी जोरदार तथा असर करने वाली दलीलोने साधार निश्चितमार्ग बता दिया कि वह मंगल ४ श्लोक भगवान उमास्वामीकी ही कृति है, और अन्यकी क्यों नहीं है।
यह विचार कर बड़ा आनंद होता है कि श्रीमान दानवीर पं० जुगलकिशोरजी मुख्नार जैसे अनुभवी, समाजसेवी विद्वानके संपर्कको पाकर अनेक विद्वान जैनधर्मकी आधुनिक युगकी जरूरतके अनुसार सेवा करनेके योग्य बनते जा रहे हैं। थोड़े ही समय में ऐसे सुन्दर सारपूर्ण तथा युक्ति-बहुल आकर्षक रचनाओंको करने की क्षमता पं० दरबारीलालजी में माननीय मुख्तार साहबके सुयोगसे प्राप्त हो गई और उसका उचित दिशासे अच्छा विकास हो रहा है, इससे तो यह विश्वास होता है, कि वीरसेवामदिरके द्वारा दि. जैन समाजको तथा विद्वन्मण्डलको अपूर्व लाभ होगा।
उस सुन्दर रचनाके लिये मैं लेखक-उनके सुयोग्य सहायक अनेकान्तके सम्पादकजीको हार्दिक धन्यवाक देता हैं।
__ सुमेरचंद्र दिवाकर, सिवनी १ मुख्तार माहबके लिए 'दानवीर' शब्दका मैंने जानबूझकर प्रयोग किया, क्योंकि वे इस पदके अत्यन्त उपयुक्त पात्र हैं. कारण उनने अपने जीवन भरी गाढ़ी कमाईको जिनवाणी माताक ! वामे लगा दी। दानवीरताका अर्थ देय द्रव्यकी विपुलतास ही समन्वय नहीं रखता है । द्रव्यका किस कार्यमे विनियोग किया जाता है, उसकी ओर लक्ष्य दिया जाना चाहिये । शास्त्रोमे अल्प किन्तु उपयुक्त दानके दाताओका महिमापूर्ण शब्दोमे स्मरण किया गया है। हम दृष्टिम मुख्तार मादबको दानवीर कहना अत्युक्ति नहीं है, ऐसी मेरी समझ है।