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अनेकान्त
[वर्ष ५
सुत प्राणा हि मातरः ।।८-५४ ।।
लुटा दी जाती है तब माम्राज्यका त्याग कोई बड़ी बात नहीं "माताके प्राण उनके पुत्र होते हैं।"
है। इसी कारण प्राचार्यने यह अमर सत्य बात बताई इसीसे अपनी संततिके प्रति माताओंका स्नेह अप्रतिम 'किं न मुचन्ति रागिणः' । ऐसी स्थितिमे तार्किक चूडा. रहता है और अपने प्राण रूप संततिके संरक्षण के निमित्त मणि महाकवि श्री सोमदेवकी उज्वल शिक्षा हृदय पटल वे उपरी प्राणां तककी परवाह नही करती।
पर अंकित किए जाने योग्य है:जिप नारी जातिका बहुलताकी अपेक्षा कुछ ऊपर एतदेव द्वयं तस्मात्कार्यं स्त्रीपु हितपिभिः । दिग्दर्शन कराया गया है, वह एक तत्त्वदर्शी महामाकी आहारवत्प्रवृत्तिा निवृत्तिरथवा परा ।। दृष्टिका वर्णन है। ब्रह्मचर्यकी उच्च श्रेणीपर समारूढ
(यशस्तिलक चम्पू उत्तरार्ध पृ०६०) महामा लोग ऐसे ही विचारोंके द्वारा अपनी प्रारमाको अर्थात-अपनी भलाई चाहने वालोंको ये दो बातें पतिन दुगचारके मार्गसे बचाते है तथा दिव्य सिद्वियां करना चाहिये। या तो श्राहारकी भांति (मयांदा पूर्वक) प्राप्त करते हैं। किन्तु गगी, भोगी तथा विनामी पुरुषोकी स्त्रियोंने प्रवृत्ति करनी चाहिये, अथवा निहारके समान उनसे कथा और भावना निगली रहती है।
निवृत्ति करनी चाहिये ।। विषयासक्तिका दुष्परिणाम
स्त्रियांके विषयमें जो लोग सुख समझते हैं उसके इस विषयाप कमें मग्न होकर लोग बडे बडे अनर्थ सम्बन्धमे प्राचार्य महाराज कहते हैंकरनेमे विमुग्व नहीं होते । महाराज सन्यंधरकी
अविचारितरम्यं हि गमामंपर्कजं सुग्वम ।१-७४ विषयासक्ति और उसका दुष्परिणाम राज्य त्याग श्रादिको अर्थात-ग्मणीक संबधये उत्पन्न होनेवाला सुग्ब तब ध्यानमें रखकर प्राचार्य श्री बादीमिह लिखते हैं- तक ही रमणीय है जब तक कि उसके सम्बन्ध विचार
अधिविगगः करोयं गज्यं प्राज्यममूनपि । नहीं किया जाना ताविक दृष्टिमै विचार करनेपर वह त्वद्वंचिता हि मुश्चन्ति किन मुञ्चन्ति गगिगा:।१-७.1 दुखरूप है और अामाके स्वरूप लाभमें जबरदस्त
अर्थात्--स्त्रीविषयक अनुगग बडा कठोर है, उसके अंतराय है। कारण ठगाए गए मनुष्य विशाल साम्राज्य तथा अपने
जिग्न प्रकार उपरोक्त विचार परणिसे पुरुष अपने प्राण तकको भी छोड़ देते हैं। ऐसी कौनसी चीज है जिसे उज्वल चरित्रकी रक्षा करता हुथा ब्रह्मचर्यव्रत पालन करने से विलासी पुरुष नही छोड़ देते है।
विचलित नहीं होता, उसी प्रकार पुरुषोके विषयमे तथा महाराज सत्यंधरके सिवाय ग्रंथोने अनेक विलामी
विषय जन्य सुखकी निस्यारताका विचार करते राजाओं तथा अन्य पुरुषांकी म्रियों के प्रति श्रामक्तिके हुए महिला भा दुराचारा तथा
हुए महिलां भी दुराचारी तथा पापी पुरुषों के आक्रमण से दर्दशाका खासा चियगा किया गया कि
अपने शील रत्न की रक्षा किया करती है। अधिपति अत्यन्त तेजस्ती रावण की विश्वव्यापी अर्काति
वेगग्य तथा महान दुर्गनिका कारण भी स्वीके प्रति अनुचित
युद्ध भूमिमें शरीर त्याग करनेके कुछ क्षण पूर्व थासक्ति था। दर जानेकी कोई जरूरत नहीं है जब हम महाराज सायंधरके हृदय में जो विगगता उत्पन्न हुई अपने ही युगमे कई ऐसे विलासी नरेशोंको भी देखते है
थी, उस समयके मनोभावांका ग्रंथकारने बड़े मार्मिक शब्दों
था, उस समयक मनाभावाका जिनको बनिता-विलासके कारण अपने राज्यको भी छोडना में
यीन में विवेचन किया है । सत्यंधर सोचते हैंपड़ा। इसी प्रकार पूर्वके सम्राट अष्टम एडवर्ड और भाजके * या मिर्जन्मानविदाप । यद्यपि स्त्रियः। व्य क ाफ विंडसरने अपनी द्विपति-परिग्यका प्रेयसीके तथापेकान्ततस्तामा विद्यते नाद्य सभवः ।। प्रति अन्यायक्तिवश जबरदस्त साम्राज्य को छोड दिया, मतीत्वेग महत्वन वृत्नेन विनयेन च । किन्तु अपने रागभावको नहीं छोड़ा। इससे यह भाव विवेकेन स्त्रिय काश्चिद् भूषयन्ति धग लम् ।। स्पष्ट होजाता है कि जब अपनी जीवननिधि भोगाक्तिवश
ज्ञानार्गव पृष्ठ १५१-१५२