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किरण ८६]
महाकवि स्वयंभु और त्रिभुवन स्वयंभु
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: होते हैं। क्योंकि यह पद एकवचनान्त नही, बहुवचनान्त वन स्वयंभुको ही हम जानते हैं । उक्त दो पत्नियोमेसे ये है। (द्विवचन अपभ्रंशमे होता नहीं।)
किसके पुत्र थे, इसका कोई उल्लेख नहीं मिला। संभव है ___इन सब प्रमाणीके होते हुए चनुर्मुग्व और स्वयंभुको कि पूर्वोक्त दोके सिवाय कोई तीसरी ही उनकी माता हो। एक नही माना जा सकता। प्रो. एच. डी. वेलणकर नीचे लिखे श्लिष्ट पद्यसे अनुमान होता है कि त्रिभुवन और प्रो. हीरालाल जैनने भी चतुर्मुखको स्वयंभुसे पृथक् स्वयंभुकी माता और स्वयंभुदेवकी तृतीय पानीका नाम और उनका पूर्ववर्ती माना है।
शायद 'सुअब्बा' होस्वयंभुदेव अपभ्रशभाषाके प्राचार्य भी थे । भागे सत्यवि सुआपंजरसुअव्व पढि अक्खराइं सिक्खति। बतलाया गया है कि अपभ्रशका छन्दशास और व्याकरण कइराअस्म सुप्रो सुअव-मुइ-गब्भमभूओ।। शास्त्र भी उन्होंने निर्माण किया था। छन्दच्दामणि विजय- अपभ्र शमे सुन शब्दमे सुत (पुत्र) और शुक शेपित या जयपरिशंप और कवि जि-धवल उनके विरून थे। (मुअ-तोता) दोनोंका ही बोध होता है। इस पद्यमें कहा
उनके पिताका नाम मारुतदेव और माताका पधिनी है कि मारे ही मुत पीजरेके सुबोके समान पड़े हुए ही था । मारुतदेव भी कवि थे । स्वयंभु-छन्दमे 'तहा य मा- अक्षर सीखते हैं, परन्तु कविराजका सुत (त्रिभुवन ) श्रत उरदेवस्म' कहकर उनका एक दोहा उदाहरणस्वरूप दिया इव श्रुतिगभभूत है। अर्थात् जिस तरह श्रुति (वेद) गया है' । स्वयंभु गृहस्थ थे, साधु या मुनि नहीं, जैसाकि से शास्त्र उत्पन्न हुप उमी तरह दूसरे पक्षमे त्रिभुवन सुनउनके ग्रंथोंकी कुछ प्रतियोम लिबा मिलता है। ऐसा जान व्वसुइगम्भसंभूत्र है, अर्थात् मुअब्बाके शुचिगर्भसे उत्पन्न पड़ता है कि उनकी कई पत्नियां थी जिनमेसे दोका नाम पउमचरिउमें मिलता है-एक नो प्राइच्चबा' (आदि
- कविराज स्वयंभु शरीरमे बहुत पतले और ऊँचे थे। न्याम्बा) जिसने अयोध्याकाण्ड और दूसरी सामिअब्बा,
उनकी नाक चपटी और दांत विरल थे। जिसने विद्याधरकाण्ड लिग्वाया था। संभवत: ये दोनों ही
स्वयंभुदेवने अपने वंश गोत्र श्रादिका कोई उल्लेख मुशिक्षिता थी।
नही किया। इसी तरह अन्य जैन ग्रंथकर्ताओंके समान
अपने गुरु या सम्प्रदायकी भी कोई चर्चा नहीं की। परन्तु स्वयभुदेवके अनेक पुत्र थे जिममेमे सबसे छोटे त्रिभु
पुष्पदन्तके महापुराणके टिप्पणमे उन्हें पापुलीमघीय बत. पंचमी-कथा ( गायकुमार चरिउ ) हे दी. मालपेणके भी
लाया है। इस लिए चे यापनीय सम्प्रदायके अनुयायी
, महापगण और नागकुमारचरित है । इमी नरह चनुमुख
जान एडते हैं। पर उन्होंने पउमचरिउके प्रारम्भमे लिखा श्रीर स्वयं के उक्त तीनो कथानकापर ग्रंथ हने चाहिए। है कि यह राम-कथा वर्द्धमान भगवानके मुख कुहम्मे वि. म्वयमुक दाना उपलब्ध ही है. अरि पचमाचारतका निर्गन होकर इन्द्रभूति गणधर और मुधर्मास्वामी श्रादिके उक्त पद्यम उल्लख किया गया है । त्रिभुवन स्वयं भुन द्वारा चली आई है और रविपेणाचार्यके प्रसादसे मुझे प्राप्त अपने पिता ताना ग्रन्थाको मैंभाला है । अर्थात् उनमे हई है। तब क्या रविषेण भी यापनीय मंघके थे? कुछ अंश अग्नी तरफम जोड़कर पूरा किया है।
स्वयभुदेव पहले धनंजयके आश्रित रहं जबकि उन्होंने धनगलका पंचमी कथा' प्रकाशिनाचुकी है। पउमचरिउकी रचना की और पीछे धवलइयाके जब कि १ स्वयंभू छन्दका इट्रोडक्शन पेज ७१-७४, गयल एशिया- रिठ्ठणे मिचरिउ बनाया । इसलिए उन्होंने पहले ग्रंथ
टिक मामाइटी बबईका जनन, जिल्द २, १६३५ में धनजयका और दूसरेमे धवलइयाका प्रत्येक सन्धिके २ नागपुर यूनीवर्सिटीका जर्नल, दिमम्बर. १६३५ । अंतमे उल्लेख किया है। ३ लहउ मिन भमंतण ग्णाअग्चदेण ।
६ अहतगुण्ण पईहरगनं, छिब्बग्गाम पविग्लनं । सो मिजंत मिजद वि नह भरइ भतरण || ४-६
७ मयंभु पद्वडीबद्वकर्मा भारलीमधीयः । --म० ए० पृ०६। ४-५ देखो पउमचरिउ सन्धि ४२ श्रार २० के पद्य । ८ देखो मधि १, कडवक २।