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अनेकान्त
[ वर्षे ५
इसे स्पष्ट स्वीकार किया है, फिर भी यह अर्थ सीधा नहीं, पाँचवे, देवागम स्वय प्रक्लंककी दृष्टिमे सीधा अर्थ पूर्वपद्यक अनुसन्धानसे दूसरा ही निकलता है भगवस्तोत्र ("भगवतां स्तवः") है और भगवत्स्तोत्र सारा
और उस दूसरे- अपने द्वारा प्रस्तुत किये गये सीधे- ही मंगलरूप होता है तब अक्लंकके विषयमें यह कहना अर्थको देकर प्रकारान्तरसे यह सूचित किया है कि विद्यानंद कि वे 'देवागम आदि पदोंको मंगलार्थक मानकर देवागमने सीधा अर्थ न करके जो गलती खाई है उसीका यह परि. स्तवके सम्बन्धमें मंगलशून्य होनेकी आशंकाका निराकरण णाम है कि वे उक्त मंगलश्लोकको तत्वार्थसूत्रका मंगलाचरण कर रहे हैं निर्रथक जान पड़ता है। बतता रहे हैं। प्रस्तु, शास्त्रीजीने प्रशतीके उक्त वाक्यका छठे देवागम प्राप्तमीमांसाके नामके साथ मूलत: एक जो सीधा अर्थ प्रस्तुत किया है वह इस प्रकार है
परीक्षाग्रन्थ है, जिसमें प्राप्त परीक्ष्य है और वह परीक्षाके "देवागम आदि मंगलपूर्वक किया गया जो स्तव अनंतर ही स्तुतिका विषय बनाया जासकता है-पहले नहीं: अर्थात् जिसमें देवागम नभोयान श्रादि मंगलसूचक पद चुनींचे देवागम द्वारा परीक्षाको समाप्त करके स्वामी समन्तविद्यमान हैं ऐसा जो स्तव उस देव गमस्तबके विषयभूत भद्रने युक्त्यनुशासनमें उन परमश्राप्त वीरभगवानको अपनी परमप्राप्तके गुणातिशयकी परीक्षाको स्वीकार करने वाले स्तुतिका विषय बनाया है जिन्हें देवागमकी प्रथम कारिकामे ग्रन्थकार..."
प्रयुक्त हुए 'नातस्त्वमसि नो महान्' जैसे शब्दोंके द्वारा इस अर्थके द्वारा शास्त्रीजीने जहाँ यह सुझानेका प्रयत्न परीक्षाके पहले 'महान्' प्रतिपादन नहीं किया था, जैसा कि किया है कि समन्तभद्र के सामने दूसरा ऐसा कोई शास्त्र युत्तयनुशासनकी प्रथम कारिकामें प्रयुक्त स्तुतिगोचरत्वं नहीं था जिसके 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' जैसे मंगलाचरणमें निनीषवः स्मो वयमद्यवीरं' जैसे शब्दोंमे प्रकट है. जिनमें पाये हुए प्राप्तके गुणोकी इस 'देवागम' ग्रन्थमें परीक्षा की 'अद्य' परीक्षावसानसमयका द्योतक है और चौथी कारिकामें गई हो बल्कि स्वयं यह देवागमग्रन्थ प्राप्तकी परीक्षाको 'महानितीय प्रतिवक्तुमीशाः' जैसे शब्दोंके द्वारा उन्हें स्पष्टतया लिये हुए होने तथा स्तव कहा जानेसे उस 'स्तव' शब्दका 'महान्' भी घोषित किया है। यह सब स्थिति तीक्ष्णदृष्टि भी वाच्य है जो 'मंगलपुरस्सरस्तव' पदमें प्रयुक्त हुश्रा है। अकलंकदेवकी आँखोंसे ओझल नही थी, तब अकलंकके वहाँ बादको 'अतः' शब्दके प्रयोग द्वारा निष्कर्ष निकालते लिये यह संगत ही मालूम नहीं होता कि वे ऐसे परीक्षाहुए यह भी फलित करना चाहा है कि-"अकलंकदेव ग्रन्थमं प्राप्तके स्तवनादिरूप किमी मंगलाचरणकी श्राकांक्षा देवागम श्रादि पदोंको मंगलार्थक मानकर देवागमस्तवको अथवा अाशंका करें और उसे न देख कर प्रथम पद्यमें पडे मंगलशून्य होनेकी आशंकाका निराकरण कर रहे हैं।" हुए 'देवागम' 'नभोयान' जैसे शब्दोंके द्वारा उसकी पूर्ति परन्तु शास्त्रीजीकी ये दोनो ही बात समुचित प्रतीत नहीं करनेका प्रयत्न करें। होती। क्योंकि प्रथम तो जब तक प्राप्तका कोई गुणस्तोत्र
- श्रीविद्यानन्द प्राचार्य ने भी युक्त्यनुशास्नकी टीकामे 'अद्य' सामने न हो तब तक प्राप्तके उन गुणोकी परीक्षामें प्रवृत्ति
शब्दका वाच्य 'अस्मिन् काले परीक्षावसानसमये' दिया है। ही नहीं होती।
और प्रथम कारिकाकी प्रस्तावनामे स्पष्टरूपसे यह स्वीकार दसरे, वह श्रद्धा भी चरितार्थ नही होती जिसे अकलंक किया है कि 'प्राप्तमीमामा (दवागम) के द्वाग व्यवस्थापित ने परीक्षामें एक आवश्यक प्रयोजनक तौरपर स्वाकार किया। श्राप्तकी स्तुतिरूपमें यह ग्रन्थ उसके अनन्तर रचा गया है।
तीपरे, प्रकलंकके 'शास्त्रन्यायानुसारितया तथैवोपन्यासात' ये दोनों पद व्यर्थ जान पड़ते हैं।
"श्रीमत्समन्तभद्रस्वामिभिरातमीमामायामन्ययोगव्यवचौथे, देवागमके प्रारम्भमें ऐसा कोई मंगलाचरण भी च्छेदाद् व्यवस्थापितेन भगवता श्रीमताहनाऽन्त्यतीर्थकरनहीं जिसमें वर्णित प्राहके स्वरूपको लेकर ही अगली परमदेवेन मा परीक्ष्य विचिकीर्पयो भवन्तः ? इति ते पृष्टा कारिकाओंमें उसकी परीक्षाको गई हो।
इव प्राहुः..."।