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________________ अनेकान्त [ वर्ष ५ शाककंदलवाटेन श्यामज: श्रीधर क्वचिन्ः । वनसालकृनास्वादनालि केरै विराजितः ॥ १५ ॥ कोटिमिः शुकचंचूनां तथा शाखामृगाननैः । संदिग्धकुसुमै पुनः पृथुभिर्दाडिमीवनैः ॥ १६ ॥ वसपालीकरावृष्टमातुलिंगीफलांभसा । लिप्ताः कुंकुमपुष्पाणां प्रकरैरुपशोभिताः ॥ १७ ॥ फलस्वादपयःपानसुखमंसुप्तमार्गगाः । वनदेवीप्रपाकारा द्राक्षाणां यत्र मंडपाः ॥ १८ ॥ इत्यादि पद्मचरित, दू० पूर्व विश्ववाणीका ‘जैनसंस्कृति अंक' [भारतकी प्रसिद्ध हिन्दी पत्रिका 'विश्रवाणी' के सुसम्पादक भाई विश्वम्भरनाथजीने, जैन-संस्कृतिक सम्बन्धमें अपना जो विचार इसी अप्रैल मासकी विश्ववाणीमें व्यक किया है और साथ ही विश्ववाणीका एक 'जैनसंस्कृति अंक' भी निकालनेका विचार प्रस्तुत किया है. वह सब अनेकान्त के पाठकों के जानने योग्य है। अत: उसे नीचे प्रकट किया जाता है। मैं सम्पादकजी के इस सद्विचारका अभिनन्दन करता हश्रा जैन विद्वानोंसे अनुरोध करता है कि वे उनकी इस सतयोजना को सफल बनाने में लेखादिद्वारा अपना पूरा सहयोग प्रदान करें। -सम्पादक "भारत य ममान जेनसंस्कृतको लेकर ग्रान अनेकों एक महान् अग मानकर उमपर गपणा और अन्वेषण ग़लतफहमिया फैला हुई हैं। लोगोम यह न। ममाया हया करना चाहिये। है कि जैनोक अहिमाने हा भारतको गारत किया जैनधर्म हमने पहले यह मोचा था कि मई १६४२ का और जैनमस्कृतिका भारताय मभ्यता के निर्माण में कोई विश्ववाणी' का अंक बोव और जैनसंस्कृति के नाम हाथ नही पोर जैनममा न भारतीय ममात्रका एक ऐमा निकाला जाय, किन्तु हमने यह देखा कि इस तरह न ना अंग रहा है जिनपर भारतको कोई अभिमान नहीं हो सका हम मन्नाप हागा और न हम जैनसस्कृति के माथ ममुचित श्रादि तरह नरहका मिथ्या बाने पढ़े लिखे लोगों के दि नामें न्याय कर पायंगे। इस विचारमे हमने यह निश्चय किया है घर किर हुए हैं। सौभाग्यमे हातहामके अनुसार वाम्त- कि 'विश्ववाणी' का मईका अंक "चौद्ध मंस्कृति" अंक विकता ऐमी नहीं है | जनदार्शनिको और अध्यात्मिक होगा ओर अागामी पयु पण पर्वा हम विश्ववाणी' का एक नेतायाने जात ईमाम दो शताब्दी पूर्व मध्य शिया, पूग अंक जैनमस्कृति' पर निकाले, निमार जैनधर्म, जैननिकटपूर्व, फिलस्तीन इथियोपिया और मिश्र तक अपने संस्कृति, जैन दर्शन, जैनकर्मयोग, जेनतीर्थदर, जैनम्थापत्य, मट कायम करके बहोमे जैनधर्मका प्रनार किया था। जैसे जैनकला, जैनमादित्य विदेशीम जैनधर्म ग्रादि अादि जैसे पुरातत्ववेत्ता इनिहामपरसे अतीतका अावरण हटात विष पर पूग पूग प्रकाश डाला जाय। जान है वैसे वैसे जैनमंस्कृतिक सम्बन्धमे नई नई बाते देश के समस्त जैन और अजैन विद्वानोंमे हमारी नम्र दुनिया के सामने आती जाती हैं। यह भी हर्पका विषय है प्रार्थना है कि वे हमे इम काममें मदद द । जिन भाईयो कि मन्दिरजीके तहग्वानोमे निकलकर जैनदर्शनकी पुस्तके का इम सम्बन्धमे दमने अब तक व्यक्तिगत निमन्त्रण नई प्रकाश पा रही हैं और जैनसस्कृति के व्यापक स्वरूपका दिया वह अपरिचित होने के कारण दी। अभी तीन चार परिचय धीरे धीरे लोगोको मिलता जा रहा है। जैनपुरानत्व महीनेका मभय है और यदि हमें मबका महयोग मिला नो के अनुसन्धानका काम केवल जैनोका कर्तव्य नहीं है, दम पयुषण पूर्वपर एक शानदार और श्रादर्श जैनमस्कृति प्रत्येक भारतीय विद्वानको जैनमंस्कृतिको भारतीय संस्कृतिका अंक' निकालने में सफल हो सकेंगे।"
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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