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________________ किरण १०-११ ] पउमरियका अन्तःपरीक्षण ३४३ (३) इस ग्रंथके १०२ वे उद्देयमे कल्पों तथा नव- है--कल्पमूत्र में उनकी भार्या, पुत्री तथा दोहती तक प्रैवेधकोंके अनन्तर श्रादित्यादि अनुदिशीका उल्लेख निम्न के नामांका उल्लेख है । यह दूसरी बात है कि आवश्यक प्रकारसे पाया जाता है: नियुक्ति (गाथा नं० २२१, २२२) मे भी जिसका निर्माणवाराणं पुरण उवरि नवगेवेजाइं मगभिगमाई। काल विक्रमकी छठी शताब्दीमे पूर्वका नही है , ताण वि अद्दिमाई पुरओ आइच्चपमुहाई ॥१४॥ वीरभगवानको कुमार श्रमणोंमें परिगणित किया है परन्तु अनुदिशोंकी यह मान्यता भी बास तौरपर दिगम्बर । यह एक प्रकारमै दिगम्बर मान्यताका ही स्वीकार जान पड़ता है। सम्प्रदायस सम्बन्ध रग्बनी है--दिगम्बर सम्प्रदायके षट्- ५ (५) इस ग्रन्थके ८३ चे उद्देसमें राजा भरत की ग्वण्डागम, धवला, तिलाय परणनी, लोकविभाग और दीनाका वर्णन करते हुए एक गाथा निम्न प्रकारमे दी हैबिलोकमार जैसे सभी ग्रंथान अनुदिशाका विधान है, जब अरणमएणको गाणं भरहो काउग तत्थऽलंकारं । कि श्वेताम्बरीप श्रागमाम इनका कहीं भी उल्लेख नहीं है। निम्मम मंगरहिओ लंचइ धीरो णिपयकम ॥५॥ सुनांचे उणध्याय मुनिश्री धामारामजन तत्वार्थमूत्र इसमें वस्तुत वस्त्र तथा अलंकाका व्याग करके भरत जैनागमसमन्वय नामक जो ग्रन्थ दिन्दी अनुवादादि के महागजके सम्पूर्ण परिग्रहमे रहित होने और केश लीच माथ प्रकाशित किया है उसमें पृ० १११ पर यह स्पष्ट करने का उल्लेख है परन्तु 'चाउगा वत्थतं. कारं' के स्थान बीमार किया है कि 'यागम ग्रंथोने नव अणुदिशोका पर यहां 'काऊण तत्थ-लंकारं' ऐसा जो पाठ दिया अस्तित्व नही माना है। है वह किसी गलती अथवा पबिर्तनका परिणाम जान परता (४) इस ग्रन्थके द्वितीय उसमें वीर भगवानके है अन्यथा अलंकार धारण करके--शृंगार करके--नि:शेष न्मादिक्का क्थन करते हुए उनके विवाहित हानेका कोई संगमे रहित होनेकी बात सम्पङ्गत जान पदनी है। साथ ही उल्लेख नहीं किया, मयुन इसके यह साफ लिग्वा है कि तत्थ' शब्द और भी निरर्थक जान पड़ता है। अतः यह जब वे बारभावको छोड़कर नील वर्पके हो गये नब वैराग्य उल्लेख अपने मूल में दिगम्बर मान्यताकी भोर संकेतको (संवेग) को प्राप्त करके उन्होंने दीक्षा (ज्या) ले ली । लिये लिये हुए है। इसके सिवाय २० व उददसमें उनकी गणना वासुपूज्य, (ग) कुछ भिन्न प्रकारकीमलि अरिटनेमि और पावके माथ उन कुम र श्रमणमि--- (1) इम ग्रंथम भगवान ऋषभदेवकी माता मरुदेवी बालब्रह्मचारी श्रीनाथ रोम---की है जो भोग न भोगकर को पाने वाले स्वप्नोंको संख्या १५ गिनाई है. जबकि कमाकाल में ही धासे निकल कर दीक्षित हुए हैं+ । वीर श्वेताम्बर सम्प्रदायमे वह धीर दिगम्बर सम्प्रदाय १६ प्रभु विवाहित न होनेकी यह मान्यना भी ग्वास तौरपर बतलाई गई हैं। इसमें दिगम्बर मान्यतानुम्पार सिंहासन दिगम्बर सम्प्रदायसे सम्बन्ध रखती है, क्योंकि दिगम्बर नामके एक स्वप्नकी कमी है। और श्वेताम्बर मान्यतानुसार ग्रंथोमे नही भी उनके विवाहका विधान नहीं है--सर्वत्र विमान' और 'भवन' दानामसे कोई एक होना चाहिये । एक स्वरये उन्हें अविवाहित घोषित किया है, जबकि (२) ग्रन्थके १०५ व उद्देसक निम्न पद्यम महाश्वेताम्बर ग्रन्याम श्रआमतौरपर उन्हें विवाहित बतलाया भारत श्रीर रामायणका अन्तरकाल ६४००० वर्ष बतलाया • उम्मकबालभावो तीमवारमो जिगो जाग्रो ॥२८॥ है यथाःअह अन्नया कयाई मवेगवगे जिणो मुणियदोसो। चट्टिसहस्साई वरिसाणं अन्तरं समक्खायं । लोग लिय परिकिरणो पयज्जमबागश्री वीरो ॥२६॥ तित्यपरे हि महायस भारत गमायगाणंतु ॥१६॥ + भली अग्टुिणगी पामो बीगे य वासुपज्जो य ॥५७।। इम अन्तरकालका समर्थन दोनों परम्पराओंमें किसी गए कुमारसीहा गेहायो निगाया जिणवरिंदा । से भी नहीं होता, खुद ग्रन्थकार द्वारा वर्णित तीर्थकरीके मसा विहु गयागो पुढई भोत्तुग णिक्वंता ॥५८|| .. देखो, अनेकान्त वर्ष ३, कि० १२ पृ०६७८
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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