________________
किरण ८-१]
जैनसंस्कृतिका हृदय
३१६
धारण करनेकी आज्ञा है वह अधिकाधिक सद्गुणों लेकर घरसे अलग हुआ है, और ऋषभदेव तथा में प्रवृत्ति करनेकी या सद्गुण-पोपक प्रवृत्तिके लिये नेमिनाथके आदर्शोको जीवित रखना चाहता है। बल पैदा करने की प्राथमिक शर्त मात्र है। हिमा, -देशमें गरीबी और बेकारीकी कोई सीमा असत्य, चोरी, परिग्रह आदि दोपोसे बिना बचे नहीं है। खेती बार। ओर उद्योगधंधे अपने अस्तित्वके सद्गुणों में प्रवृत्ति हो ही नहीं सकती, और मद्गुण- लिए बुद्धि, धन, परिश्रम और साहसकी अपेक्षा कर पोषक प्रवृत्तिको बिना जीवनम स्थान दिये हिंसा रहे है। अतएव गृहस्थोंका यह धर्म हो जाता है कि
आदिसे बचे रहना भी मर्वथा असम्भव है। इस वे संपत्तिका उपयोग तथा विनियोग राष्ट्र के लिए करें। देशमें जो लोग दूसरे निवृत्ति पंथोकी तरह जैन पंथ वे गांधीजीके ट्रस्टीशिपके सिद्धान्तको अमल में लावें। में भी एक मात्र निवृत्तिको कान्तिक माधनाकी बुद्धिसंपन्न और साहसियोका धर्म है कि वे नम्र बात करते हैं वे उक्त सत्य भूल जाते हैं। जो बनकर ऐसे ही कामोमें लग जाग जो राष्ट्र के लिये व्यक्ति सार्वभौम महाव्रतीको धारण करनेकी शक्ति विधायक हैं। कांग्रेसका जो विधायक कार्यक्रम नही रखता उसके लिये जैन परम्राने अणुव्रतोंकी कांग्रेसकी ओरसे रखा गया है इसलिए वह उपेक्षमृष्टि करके धीरे धीरे निवृत्तिकी और आग बढनका णीय नहीं है। असलमे वह कार्यक्रम जैन संस्कृतिका मार्ग भी रखा है। ऐसे गृहस्थोंके लिए हिमा आदि एक जीवन्त अङ्ग हे। दलितों और अस्पृश्योंको भाई दापोंसे अंशनः बचनेका विधान किया है। उसका की तरह बिना अपनाए कौन यह कह सकेगा कि मैं मतलब यही है कि गृहस्थ पहले दोषोंसे बचनेका जैन हूँ ? खादी और ऐसे दूसरे उद्योग जो अधिकसे अभ्याम करे । पर साथ ही यह आदेश है कि जिस अधिक अहिसाके नज़दीक हैं और एकमात्र आत्मौपम्य जिस दोपको वे दूर करें उस उम दोपके विरोधी एवं अपरिग्रह धर्मके पोपक हैं उनको उत्तेजना बिना सद्गुग्गोंको जीवनमे स्थान देते जांय । हिंसाको दर दिएकीन कह सकेगा कि मैं अहिंसाका उपासक हैं। करना हो तो प्रेम और आत्मौपम्यके सदगणको अतण्व उपसंहारमे इतना ही कहना चाहता हूँ कि जैन जीवनमे व्यक्त करना होगा । सत्य विना बोले और लोग, निग्थेक आडम्बरों और शक्तिके अपव्ययकारी सत्य वोलनका चल बिना पाये अमन्यमे निवृत्ति कैसे प्रसंगोंमे अपनी संस्कृति सुरक्षित है, यह भ्रम छोड़ होगी ? परिग्रह और लोभरो वचना हो तो मन्तोष कर उसके हृदयकी रक्षाका प्रयत्न करें, जिसमें हिन्दु और त्याग जैसी पीपक प्रवृत्तिओमें अपने आपको और मुमलमानोंका ही क्या, सभी कौमोंका मेल भी खपाना ही होगा। इस बातको ध्यानमे रखकर जैन निहित है। मंस्कृतिपर यदि आज विचार किया जाय तो आज संस्कृतिमात्रका संकेत लोभ और मोहको घटाने कलकी कमाटीमें जैनोंके लिये नीचे लिग्बी बातें व निर्मूल करनका है, न कि प्रवृत्तिको निर्मूल करने फलित होती हैं:
का । वही प्रवृत्ति त्याज्य है जो आसक्तिके बिना कभी १-देशमे निरक्षरता, वहम और आलस्य व्याप्त
संभव ही नहीं, जैसे कामाचार व वैयक्तिक परिग्रह है। जहां दग्यो वहां फूट ही फट है। शराब और
आदि । जो प्रवृत्तियाँ ममाजका धारण, पोपण, दूसरी नशीली चीजे जड़ पकड़ बैठी हैं। दुकाल,
विकसन करने वाली हैं वे आसक्तिपूर्वक और आसक्ति अतिवृष्टि, परराज्य और युद्धके कारण मानव-जीवन
के मित्राय भी मम्भन हैं। अतएव मंम्कति आसक्ति का एकमात्र आधार पशुधन नामशेष हो रहा है।
के त्यागमात्रका संकेत करती है। जैन मंस्कृति यदि अतएव इस सम्बन्धमें विधायक प्रवृत्तियोंकी भोर
संस्कृति सामान्यका अपवाद बने नो वह विकत बन मारे त्यागीवर्गका ध्यान जाना चाहिये, जो वर्ग कुटुम्ब
कर अन्नमें मिट जा मकती है। के बन्धनोंमे बरी है, महाबीरका अान्मौ.म्यका उद्देश्य (विश्ववाणीके जैनसंस्कृति अङ्कस'-)