SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 17
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त [वर्ष ५ भवनोंमे अत्यन्त सुन्दर लाग्यो अकृत्रिम जिनचैयालय बने घण्टाकर्णकल्प, कामचाण्डालीकल्प, पद्मावतीस्तोत्र, हप बतलाए गये हैं। जिनकी जैनलोग सदा अपने पूजा- कृष्मांडिनीस्तोत्र, ज्वालिनी स्तोत्र विद्यानुशासन आदि । पाठोंमे वंदना करते रहे हैं। यह साहित्य जैनवाङ्गमयमें कहीं बाहरसे आकर यां गोमुख, २ महायक्ष, ३ निमुख, ४ यक्षेश्वर, ५ तुम्बुर, ही दाखिल नही हो गया है. स्वयं भगवान महावीरके ६ पुष्प, ७ वरनंदि.८ श्याम, अजित, १० ब्रह्म, ११ ईश्वर, प्रमुख गणधर गौत्तमने इन सबही बातोको 'विद्यानुवाद' १२ कुमार, १३ कार्तिकेय, (४ चतुमुख), १४ पाताल, नामके दशवं पूर्वमे संकलित किया था। उसी परम्पराके १५ किन्नर, १६ किंपुरुष (गरुड), १७ गन्धर्व, १८ रवंद्र, प्राधारपर जैनाचार्योंने इस माहित्यका निर्माण किया है। १६ कुबेर, २० वरुण, २९भ्रकुटि, २२ सर्ववाहन (गोमेद), इन ग्रन्थों में इनकी विद्याओं और उनकी साधनाके २३ धरणेन्द्र और २४ मातंग नाम वाले यक्षोको क्रमश: अर्थ अनेक यन्त्र-मन्न श्रादिकी चर्चा की गई है। पद-पद ऋषभ श्रादि नौबीस नीर्थक का शासन-देवता माना गया पर इनकी स्तुत और नमस्कृति की गई है। है। और 1 चक्रेश्वरी, २ रोहिणी. ३ प्रज्ञप्ति, ४ वज्रग्खला, वार-उपरान्त कालम अकलंकादि जैनाचार्योने संकटके ५ पुरुषदत्ता, ६ मनोवेगा (मोहिनी), ७ काली, ८ ज्वाला समय इन्ही देव-देवियांकी पाराधना करके बर्हन्तशामनकी मालिनी, ६ महाकाली (भ्र कुटि), १० मानवी (चामुंडा), रक्षा की है इतना ही नहीं जिनशासनके रक्षक देवता ११ गौरी (गोमेदिका), ५२ गांधारी (विद्युन्मालिनी), होने के कारण ही जैनागम पूजापाठ और प्रातामन्याम १३ वैोटी, १४ अनन्तमती (विज भिणी) १५ मानमी, अन्तबिम्ब प्रनिष्टा एव महाभिषक श्रादि उमाके ममय ५६महामानसी, १७ जया (विजया). १८ अजिना(तारादेवी), इन यत यक्षणियाँ श्री ही श्रादि देवयां तथा इन्द्र, १६अपराजिना, २० बहुरूपिणी २१ चामुण्डा, २२ कृष्मां अग्नि, यम नैऋत्य वगण, मम्न बेर ईशान, नाग और डिनी २३ पद्मावती और २४ सिद्धायिका नामवाली यक्ष.. मोम इन दशा दिशाओंके संत्रपालांनी पका पाराधना णियोंको क्रमशः तीर्थक की शासन-देविया कहा गया है। करनेका विधान भी किया गया है। इसके अलावा नीर्थजैन अनुश्र ते अनुसार यह यक्ष यक्षणिया निरी जैन करोंकी मूर्तियां बनाने के समय इनकी भी मनिय बनानेका शासनकी रक्षिका ही नही हैं. यह ऋद्धि-सिद्धिप्रदायक उल्लेख किया गया है।" जिन-तिमाश्रीक दाहिनी ओर अनेक विद्यानोंकी अध्यक्षा भी हैं। इनकी यदि विधिपूर्वक यक्ष तथा बाई और यत्क्षणी नीचेके भागमे नवग्रह श्रार यन्त्र-मन्त्र द्वारा साधना की जाय तो ये स्तम्भन, वशीकरण, पीठके मध्यभागमे क्षेत्रपालकी प्राकृतिया बनाने के लिये उरचाटन, शान्तिकरण श्रादि अनेक शक्तियाको देनेवाली कहा गया है। कई जगह जिनप्रतिमाकं दो तरफ यक्ष होती है। इन यक्ष-यक्षणियो, ही, श्री श्री देवियों और और यक्षणी दो चामरधारी, दो सिंह. दो हाथी और नागों के प्रति श्रमणसंस्कृतिको मानने वाले लोगों में कितनी सिंहासनके बीचमे धर्मचक्र उसके दोनों ओर दो सुन्दर श्रद्धा और भक्ति रही है, इसका पता जैनवाक्मयके यन्त्र हिरण और उस चक्रके नीचे अर्हन्तका चिह्न बनाने के लिये मन्त्र वाले उस विपुल माहिन्यस लग सकता है, जो बहुधा कल्प और स्तोत्रोंके रूपमे लिखा गया है जैसे ३ ( अ ) पं०भुजबल। शास्त्र, 'जनमिदान्न भास्कर भाग र ज्वालिनी-कल्प भैरव-पद्मावतीकल्प चश्वरीकल्प किरगा ३, पृ० १३५---१४६ ( श्रा) पं० जुगलकिशोर. अनेकान्न-वर्ष । पृ ४२१-५३२ १ त्रिलोकमार २,६८५,१०१६, प्रनिष्ठा गट ७० 5.50है. र प्रतिष्ठामागेदार ३-१२७-१७६ । २ प्रतिष्ठामारोद्धार ३.१२६-१६६, अभिधानाचन्तामांगा ५ यक्षादयो जिना मनकाम्नवनिध्या । १,४२-४६. अमरकोष १,१२-२३ । वीरमेवामन्दिर मरसावा प्रात । वास्तुमारप्रकरगा जयपर,पृ० १६८ प्रातष्ठया प्रतिष्ठेयाम्ततंन्येषा प्राताविधिकच्यते ॥ ६.४२ Digambar Jain Iconograpy-by Jus प्रतिष्ठामारोद्धार Burges, 1904 P.3-6, इरिवंशपराण २२,६२-६८, ६- - मोमसेन भट्टारक---र्वाग्मकाचार ६.३१, ३२ विद्यानुशासन-तृतीय उद्देश श्लोक ८-३७ । जयपुर प्रति । प्रतिष्ठामागेद्वार १.६४
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy