Book Title: Acharangabhasyam
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आचरागभाजन - -- --- APOOR CORPOR90 -- -- -- - - -- -- विशुद्धं विशदात्मानं, परमात्मानमात्मना। सन्निधिं सहजं नीत्वा, तनोम्याचारमद्भुतम्।। - -- --- -- भाष्यकार -- वाचना प्रमुख गणाधिपति तुलसी आचार्य महाप्रज्ञ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर ने जिस धर्म का प्रतिपादन किया, वह विशुद्ध रूप में आध्यात्मिक धर्म है। उसका आरम्भबिन्दु है आत्मा का संज्ञान और चरम-बिन्दु है आत्मोपलब्धि या आत्म-साक्षात्कार। पर्यावरण की दृष्टि से प्रस्तुत आगम का अध्ययन अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। समता और आत्म-तुला--ये दोनों पर्यावरण के प्रदूषण से बचाव करने के महत्त्वपूर्ण साधन हैं। पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस--जीवों के ये छह निकाय हैं। महावीर ने कहा--इनके अस्तित्व को अस्वीकार करने का अर्थ होगा अपने अस्तित्व का अस्वीकार। इनके अस्तित्व को मिटाकर कोई भी व्यक्ति अपने अस्तित्व को बचा नहीं सकता। इनके अस्तित्व के प्रति प्रमत्त रहकर कोई भी व्यक्ति अपने अस्तित्व के प्रति जागरूक नहीं रह सकता। हिंसा का मुख्य साधन है-परिग्रह । आधुनिक अर्थशास्त्रीय अवधरणा ने हिंसा को प्रोत्साहन दिया है। अर्थशास्त्रीय अभिमत है- अर्थ के प्रति राग उत्पन्न करो। महावीर कहते हैं--पदार्थ के प्रति विराग उत्पन्न करो। महावीर ने असंग्रह का जो सिद्धान्त दिया वह जनसंख्या के आधार पर नहीं दिया। उन्होंने मानवीय मनोवृत्ति और संग्रह के परिणामों को ध्यान में रखकर असंग्रह अथवा इच्छा-संयम का सिद्धान्त प्रतिपादित किया। महावीर ने कहा-यही महान् भय है कि मनुष्य पदार्थ की परिक्रमा कर रहा है। उसके साथ ममत्व 'यह मेरा है।'-इस मनोवृत्ति को गाढ कर रहा है। यही दु:ख का मूल है।' _ 'हिंसा परिणाम है। उसका मूल हेतु है-परिग्रह। परिग्रह की समस्या को सुलझाओ, हिंसा की समस्या स्वतः सुलझ जाएगी।' हिंसा के पत्र-पुष्प पर ही प्रहार मत करो, उसकी जड पर भी प्रहार करो । जितना मेरापन कम, उतनी हिंसा कम। जितना मेरापन अधिक, उतनी हिंसा अधिक। यह सूत्र अहिंसा का महाभाष्य है। प्रस्तुत आगम में केवल अहिंसा का ही नहीं, परिग्रह और अपरिग्रह के विषय में सिद्धान्त स्थापित किए गए हैं और मूलस्पर्शी दृष्टि को विकसित करने का निर्देशन दिया गया है। Education intonational Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगभाष्यम् मूलपाठ, संस्कृत भाष्य, हिन्दी अनुवाद, तुलनात्मक टिप्पण, सूत्र-भाष्यानुसारी) विषय विवरण, वर्गीकृत विषय-सूची तथा विविध परिशिष्टों से समलंकृत ( भाष्यकार आचार्य महाप्रज्ञ अनुवादक मुनि दुलहराज प्रकाशक जैन विश्वभारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय) लाडनूं (राजस्थान) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक: जैन विश्वभारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय) लाडनूं, राजस्थान प्रथम संस्करण : दिसम्बर, १९९४ पृष्ठ संख्या : ६०० मूल्य : 5000 मुद्रक : मित्र परिषद् कलकत्ता के आर्थिक सौजन्य से स्थापित जैन विश्व भारती प्रेस, लाडनूं (राजस्थान) Jain Education international Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ACHARANGABHASHYAM STEXT, SANSKRIT COMMENTARY, HINDI TRANSLATION, COMPARATIVE Notes, TOPICS IN TEXT AND COMMENTARY, CLASSIFIED LIST OF TOPICS AND VARIOUS APPENDIXESS Commentator : ACHARYA MAHAPRAJNA Translator : MUNI DULAHARAJ Publishers JAIN VISHVA BHARATI INSTITUTE (Deemed University) LADNUN Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Publishers : Jain Vishra Bharati Institute (Deemed University) Ladnun First Edition : December, 1994 By Munificence : Published by the kind munificence of Govt. of India, National Archives of India, Janpath, New Delhi-110001. Page : 600 Price 5000 Printers : Jain Vishva Bharati Press Ladnun (Raj.) Jain Education international Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तस्तोष अनिर्वचनीय होता है उस माली का जो अपने हाथों से उप्त और सिंचित द्रुम-निकुंज को पल्लवित, पुष्पित और फलित हुआ देखता है, उस कलाकार का जो अपनी तूलिका से निराकार को साकार हुआ देखता है और उस कल्पनाकार का जो अपनी कल्पना को अपने प्रयत्नों से प्राणवान् बना देखता है । चिरकाल से मेरा मन इस कल्पना से भरा था कि जैन आगमों का शोधपूर्ण संपादन हो और मेरे जीवन के बहुश्रमी क्षण उसमें लगे । संकल्प फलवान् बना । मुझे केन्द्र मानकर मेरा धर्म-परिवार उस कार्य में संलग्न हो गया और कार्य को निष्ठा तक पहुंचाने में पूर्ण श्रम किया । कुछ वर्ष पूर्व मेरे मन में कल्पना उठी कि आचारांग सूत्र पर संस्कृत में भाष्य लिखा जाए। मेरे उत्तराधिकारी आचार्य महाप्रज्ञ ने इस कल्पना को साकार कर, भाष्य की विच्छिन्न परम्परा का संधान कर, मेरे तोष में वृद्धि की । अन्तस्तोष अतः मेरे इस अन्तस्तोष में मैं उन सबको समभागी बनाना चाहता हूं, जो इस प्रवृत्ति में संविभागी रहे हैं। संक्षेप में वह संविभाग इस प्रकार है : आचारांग के भाष्यकार : आचार्य महाप्रज्ञ सहयोगी : महाश्रमण मुनि मुदितकुमार मुनि दुलहराज मुनि महेन्द्रकुमार संस्कृत छाया सहयोगी मुनि श्रीचन्द्र 'कमल' मुनि राजेन्द्रकुमार परिशिष्ट सहयोगी मुनि राजेन्द्रकुमार मुनि धर्मेशकुमार साध्वी विमलप्रज्ञा संविभाग हमारा धर्म है । जिन-जिन ने इस गुरुतर प्रवृत्ति में उन्मुक्त भाव से अपना संविभाग समर्पित किया है, उन सबको मैं आशीर्वाद देता हूं और कामना करता हूं कि उनका भविष्य इस महान् कार्य का भविष्य बने । साध्वी सिद्धप्रज्ञा साध्वी अमृतयशा साध्वी दर्शनविभा समणी उज्ज्वल प्रज्ञा गणाधिपति तुलसी Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education international Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुति जैन धर्म वर्तमान युग में प्रासंगिक है ? यह प्रश्न अनेक बार पूछा जाता है। इसका उत्तर बहुत सीधा है। यदि समता, अहिंसा और अपरिग्रह प्रासंगिक हैं तो जैन धर्म भी प्रासंगिक है। यदि उनकी प्रासंगिकता नहीं है तो जैन धर्म को प्रासंगिकता की वेदी पर प्रतिष्ठित नहीं किया जा सकता। महावीर ने जिस धर्म का प्रतिपादन किया, वह विशुद्ध रूप में आध्यात्मिक धर्म है। उसका प्रारम्भ-बिन्दु है आत्मा का संज्ञान और उसका चरम-बिन्दु है आत्मोपलब्धि या आत्मा का साक्षात्कार । चेतन (आत्मा अथवा जीव) और अचेतन-दोनों के अस्तित्व की स्वीकृति ने जैनदर्शन का अनेकांतवादी दृष्टिकोण अपनाने का अवसर दिया। आत्मा का ज्ञान तब तक परिपूर्ण नहीं होता, जब तक अचेतन को नहीं जान लिया जाता और अचेतन का ज्ञान आत्मा को जाने बिना परिपूर्ण नहीं हो सकता। इसलिए आत्मा (चेतन) और अनात्मा (अचेतन)-दोनों की समग्रता का ज्ञान आवश्यक है। प्रस्तुत आगम के प्रथम अध्ययन में आत्मा की कर्मकृत विभिन्न अवस्थाओं को समझने का दृष्टिकोण दिया है। पर्यावरण की दृष्टि से उसका अध्ययन बहुत महत्त्वपूर्ण है। समता और आत्मतुला-ये दोनों पर्यावरण के प्रदूषण से बचाव करने के महत्त्वपूर्ण साधन हैं । पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस-जीवों के ये छह निकाय हैं। महावीर ने कहा--इनके अस्तित्व को अस्वीकार करने का अर्थ होगा अपने अस्तित्व का अस्वीकार । इनके अस्तित्व को मिटाकर कोई भी व्यक्ति अपने अस्तित्व को बचा नहीं सकता। इनके अस्तित्व के प्रति प्रमत्त रहकर कोई भी व्यक्ति अपने अस्तित्व के प्रति जागरूक नहीं रह सकता। हिंसा स्वयं प्रमाद है अथवा प्रमाद की निष्पत्ति है। अहिंसा अपने अस्तित्व के प्रति जागरूक होना है। साथ-साथ दूसरे जीवों के अस्तित्व के प्रति जागरूक होना भी है। यह जागरूकता आत्मतुला के सिद्धांत से विकसित होती है। इसीलिए महावीर ने कहा-आत्मतुला का अन्वेषण करो-एयं तुलनन्नेसि ।' अहिंसा का सिद्धांत हिंसा के साधन को समझे बिना समग्रता से नहीं समझा जा सकता । इसीलिए प्रस्तुत आगम में परिग्रह और अपरिग्रह का विशद विवरण उपलब्ध है। हिंसा का मुख्य साधन है-परिग्रह। आधुनिक अर्थशास्त्रीय अवधारणा ने हिंसा को प्रोत्साहन दिया है। अर्थशास्त्रीय अभिमत है-अर्थ के प्रति राग उत्पन्न करो । महावीर कहते हैं-पदार्थ के प्रति विराग उत्पन्न करो। समाज के विकास का आधार है-रागात्मक प्रवृत्ति । इस सत्यांश को पूर्ण सत्य मान लेने के कारण ही हिंसा और आतंक को फैलने का अवसर मिला है। समाज का आधार विरागात्मक प्रवृत्ति भी है, इस सत्यांश को समाज के साथ जोड़ने पर एक नया दृष्टिकोण विकसित होता है। केवल रागात्मक प्रवृत्ति समाज को स्पर्धा और हिंसा की ओर ले जाती है। केवल विरागात्मक प्रवृत्ति से समाज की आवश्यकताएं पूर्ण नहीं होतीं, इसलिए रागात्मक और विरागात्मक-दोनों के सन्तुलन से ही समाज की व्यवस्था को नया रूप दिया जा सकता है और हिंसा की बाढ़ को रोका जा सकता है। वैज्ञानिक युग ने विकास की नई अवधारणाएं दीं। पुराने चितन को नकारने की मनोवृत्ति विकसित हुई । परिस्थिति चने भी विकास की अवधारणा को बदलने में सहयोग दिया है । आजका विश्व इच्छा-नियन्त्रण, संग्रह-नियन्त्रण के सिद्धांत को अपना कर विशाल आबादी को रोटी, कपड़ा और मकान नहीं दे सकता। इसलिए संयम, सीमाकरण का सिद्धांत पुराना हो चुका है। नई समस्या को सुलझाने के लिए आवश्यक हो गया है नया चिन्तन और नया सिद्धांत । उसी के आधार पर बड़े-बड़े कारखाने चल रहे हैं और आर्थिक विकास की बड़ी-बड़ी योजनाएं पन्नों पर उतर रही हैं । महावीर ने असंग्रह का सिद्धांत दिया। वह जनसंख्या के आधार पर नहीं दिया। उन्होंने मानवीय मनोवृत्ति और संग्रह के परिणामों को ध्यान में रखकर असंग्रह अथवा इच्छा-संयम का सिद्धांत प्रतिपादित किया था। बढ़ती हुई जनसंख्या की प्राथमिक आवश्यकताओं को पूरा करने का जो प्रश्न है, उससे महावीर का कोई विरोध नहीं है। उनका विरोध बढ़ती हुई आकांक्षा की मनोवृत्ति से है । वर्तमान समाज में उस मनोवृत्ति के वे परिणाम दिखाई दे रहे हैं, जिनकी घोषणा प्रस्तुत आगम कर रहा है १. आयारो, ११४८ । Jain Education international Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुति 'सुख का अर्थो संग्रह में प्रवृत्त होता है । जो सुख का अर्थी होता है, वह बार-बार सुख की कामना करता है। इस प्रकार वह अपने द्वारा कृत कामना को व्यथा से मूढ होकर विपर्यास को प्राप्त होता है । सुख का अर्थी होकर दुःख को प्राप्त होता है।" भूख से कोई न मरे, इस व्यवस्था में वर्तमान युग सफल हुआ है, किन्तु मुट्ठी भर लोगों का संग्रह असंख्य लोगों को गरीबी का जीवन जीने के लिए विवश कर रहा है। दूसरी समस्या यह है- अति सम्पन्न लोग मानसिक तनाव, भय और आतंक का जीवन जी रहे हैं । ऐसा मार्ग खोजने में अभी सफलता नहीं मिली है, जिससे सबकी प्राथमिक आवश्यकताएं भी पूरी हों और अतिसंग्रह से उत्पन्न होने वाली समस्याएं भी मानवीय चेतना को क्रूर न बनाएं । व्यक्तिगत स्वामित्व को सीमित किए बिना वह मार्ग कभी भी खोजा नहीं जा सकेगा । पदार्थ सीमित है । उपभोक्ता की आवश्यकता असीम है, लालसा उससे भी अधिक है। इनके समीकरण का कोई भी गणित हमारे पास नहीं है। इसीलिए सचाई को ध्यान में रखकर महावीर ने कहा-यही महाभय है कि मनुष्य केवल पदार्थ की परिक्रमा कर रहा है। वह मानसिक स्वास्थ्य और उपभोक्तावादी मनोवृत्ति में सामंजस्य स्थापित करता है। हिंसा की समस्या का मूल है पदार्थ के साथ-साथ 'यह मेरा है'--इस मनोवृत्ति का जुड़ाव । पदार्थ किसी का नहीं है, यह सचाई है। इस सचाई को झुठलाने के प्रयत्न में से हिंसा उपजती है । महावीर ने कहा---'हिंसा के पत्र-पुष्प पर ही प्रहार मत करो, उसकी जड़ पर भी प्रहार करो।' जितना मेरापन कम, उतनी हिंसा कम । जितना मेरापन अधिक उतनी हिंसा अधिक । यह सूत्र अहिंसा का महाभाष्य है । अनेक विद्वान् आचारांग के सदेश को अहिंसा का संदेश मानते हैं । इस मान्यता का कारण इसका पहला प्रवचन है। उसमें निःशस्त्रीकरण का विस्तृत निरूपण है। अग्रिम प्रवचनों में परिग्रह और अपरिग्रह के बारे में सिद्धांत स्थापित किए गए हैं। उन्हें हमने गौण रूप में स्वीकारा है। हमारी प्रथम दृष्टि पत्र-पुष्प और फल तक ही जाती है, मूल तक नहीं जाती। मूलस्पर्शी दृष्टि के बिना समस्या का स्थायी समाधान नहीं हो सकता। हम अहिंसा का विकास कर हिंसा की समस्या को सुलझाना चाहते हैं। यह अग्रस्पर्शी दृष्टि का दर्शन है। मूलस्पर्शी दृष्टि का दर्शन इससे भिन्न है । उसका सूत्र है-परिग्रह की समस्या को सुलझाओ, हिंसा की समस्या सुलझेगी। प्रवृत्ति की उपस्थिति में परिणाम को नहीं मिटाया जा सकता। हिंसा परिणाम है। उसका हेतु है परिग्रह । इस सचाई के प्रति सचेत करने के लिए ही महावीर ने बार-बार कहा-पुरुष ! तू सत्य को जान । परम सत्य है-आत्मा चैतन्यमय है और पदार्थ अचेतन है । आत्मा का सर्वस्व चैतन्य है, जड़ता नहीं।' आचारांग की इस स्थापना ने आचारशास्त्र को एक नया कोण दिया और शांति की दिशा में चिन्तन को आगे बढ़ाया कि पश्यक बनो, हर घटना को देखो और पदार्थ-उपभोगका दृष्टिकोण बदलो। जैसे सत्य को न खोजने वाला पदार्थ का उपभोग करता है, वैसे ही पदार्थ का उपभोग मत करो, किन्तु उपभोग की प्रणाली को बदलो। तात्पर्य की भाषा में जीवनशैली को बदलो। इस सचाई के साक्षात्कार को आत्मा या परमात्मा के साक्षात्कार से कम मूल्य नहीं दिया जा सकता। आगम सम्पादन का काम विक्रम संवत् २०११ में प्रारम्भ हुआ। दशवकालिक, उत्तराध्ययन आदि के टिप्पण हिन्दी में लिखे गए । गुरुदेव ने एक बार कहा-आचारांग का भाष्य संस्कृत में लिखा जाए । इस प्रेरणा ने नई दिशा की ओर प्रस्थान करा दिया । भाष्य संस्कृत में तैयार हो गया। उसके निर्माण में गुरुदेव की प्रेरणा और उनका वरदहस्त निरन्तर साथ रहा। इस भाष्य की लिपि करने में महाश्रमण मुनि मुदितकुमार और मुनि महेन्द्रकुमार संलग्न रहे । कुछ वर्षों तक यह कार्य अवरुद्ध-सा रहा । मुनि दुलहराजजी ने इस कार्य को अपने हाथ में लिया। अनेक प्रश्न और सुझाव सामने रखे । उनके आधार पर भाष्य का आकार बढ़ा और प्रकार में भी वृद्धि हुई । संस्कृत छाया, प्रूफ आदि के संशोधन में मुनि राजेन्द्रजी का भी काफी योग रहा। आचारांगभाष्य में महत्त्वपूर्ण बारह परिशिष्ट संलग्न हैं । इनके निर्माण में अनेक साधु-साध्वियों का श्रम रहा है। प्रस्तुत ग्रन्थ का अंग्रेजी भाषा में अनुवाद डा० नथमल टांटिया, डायरेक्टर अनेकांत शोधपीठ, जैन विश्व भारती, लाडनूं द्वारा हो रहा है । इस कार्य में संलग्न हैं मुनि दुलहराजजी तथा मुनि धर्मेशकुमारजी। यह शीघ्र ही प्रकाश में आने वाला है। ___ इस प्रकार अनेक अंगुलियों का स्पर्श पाकर प्रस्तुत ग्रंथ प्रकाशन की स्थिति में आया । उन सबके प्रति मंगल भावना । पूज्य गुरुदेव के प्रति कृतज्ञतापूर्ण भावांजलि । आचार्य महाप्रज्ञ अध्यात्म-साधना केन्द्र छतरपुर रोड, मेहरोली नई दिल्ली, २२ अक्टूबर ९४ १. आयारो, २११५१। २. वही, ५॥३२॥ Jain Education international Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PREFACE People often ask about the relevance of Jainism in moderr times. The answer is very simple. If the principles of equality, non-violence and non-possessiveness are relevant today, why not Jainism which so eminently stood for them. If the former were denied any relevance, the latter would have no chance to occupy the altar of relevance. The religion preached by Mahāvira was purely spiritual, with self-knowledge as the starting point and self-realisation as the final end. As an upholder of dualism of self and not-self, Jainism propounded non-absolutism. Knowledge of the self is not complete without the knowledge of the not-self, nor is the latter achieved without the former. The knowledge of both in their completeness is therefore a vital necessity. The first chapter of Āchárānga facilitates the understanding of different states of soul, induced by karma, which are very important from the standpoint of environmentalism. The principle of equality and comparison of the wcal and woe of others with those of oneself are powerful remedies for the pollution of environment. The denial of the existence of the six classes of beings, the five immobile (earthbodied, etc) and the mobile (two-sensed, etc.) ones, will be tantamount to the denial of the existence of the self, said Mahāvīra. One cannot safeguard one's own existence by obliterating the existence of others. One cannot be aware of one's own existence by denying the existence of others. Violence itself is a sort of non-awareness, or the result of the latter. Non-violence consists in the awareness of one's own existence along with the existence of others. This awareness is developed by comparing the weal and woe of others with those of oneself. This is why Mahāvīra preached the principle of comparison of self with others. The principle of non-violence cannot be adequately comprehended without knowing the ways and means to violence. This is the reason for an elaborate description of possessiveness and non-possessive. ness in the scripture under study, The principal cause of violence is possessiveness. Modern economics encourages violence by prescribing attachment to wealth. Mahāvīra on the contrary preached non-attachment to property. Attachment-dominated enterprises are opined as the foundation of social development. Acceptance of this partial opinion as a complete truth has resulted in the spread of violence and terrorism. Detachment-dominated activities also can provide base for social welfare. Requisitioned for social welfare, this latter base gives rise to a new angle of vision, whereas the exclusively attachment-dominated attitude promotes competition and violence, the exclusively detachment-dominated attitude falls short of fulfilling the social needs. The society therefore can be efficiently governed by what is the mean between the two extreme attitudes for fostering balanced harmony and peace, and avoiding the devastation caused by violence. The scientific age gave a new concept of development. The psyche of rejecting the old pattern of ideas grew up. The cycle of events also assisted the emergence of new concepts of development. The world of today cannot provide food, clothes and shelter to a rapidly growing population through the ideology that puts break on the free will of the people and their faculty of possessiveness. So the old ideology is now an antiquated museum of ideas. Fresh problems needed fresh thinking and emergence of new principles for their solution. Big industries and economic programmes are flourishing on the foundations of new ideology. Mahāvīra gave the philosophy of non-acquisition which was not based on the needs of a growing population. He propounded the philosophy of non-acquisition and restraining one's will keeping in view Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Preface the human psyche and the results of accumulation of wealth. Mahāvira was not opposed to meeting the primary needs of the rapidly growing population, but his opposition was to the ideology of unrestrained ambitions. The scripture under study proclaims the effects of ambitious mentality of modern society. The seeker of happiness indulges in acquisition of wealth. In search of happiness he repeats indulgence. Deluded by suffering produced by himself, he gets bewildered on attaining suffering in place of happiness. He seeks pleasure but gets sufferings. Modern society has largely succedeed in eliminating death by starvation, but accumulation of wealth by a handful of people has compelled a large majority to live in poverty. Excessively rich people also have their own problem in that they have to pass their time in perpetual mental tension, fear and terror. Humanity has not yet succeeded in finding a way of life that could satisfy the primary needs of all and simultaneously mitigate the inhuman cruelty, a by-product of excessive acquisition of wealth. It will perhaps never be feasible to find out the way without delimiting personal ownership. Availability of goods is limited. Consumers' demands are unlimited and their desires are vaster still. We have no arithmetic that can induce balance. This is why Mahāvīra, keeping the truth in view, proclaimed that what is most dreadful is that man has focused his attention exclusively on acquisition of goods. Modern man equates his mental health with consumerism. The root cause of the problem of violence is of tying up the sense of mineness with things. The truth however is that things do not belong to anybody. The attempt at denying this truth breeds violence. Declared Mahāvira: do not rest satisfied with striking only at foliage and flowers of violence but also strike hard at the very root of it. Violence varies proportionately with the sense of mineness. The deeper the sense of mineness, the intenser the outburst of violence. This sutra is a super-commentary on the concept of violence. The message of the Achärānga is generally identified by the majority of scholars as the measage of non-violence. This view has originated from the subject-matter of the first chapter which details abandonment of the weapons of violence. The subsequent chapters, however, deal with the doctrine of possessiveness and non possessiveness, which have been relegated to a secondary position by those scholars. Our initial attention goes exclusively to the foliage, flowers and fruits ignoring the root. An issue cannot be finally decided without going to the very root of it. We wish to solve the problem of violence by concentrating on the pursuit of non-violence. But this is only an approach that focuses exclusively on outside surface. The approach that focuses on the root is quite different, which is embodied in the dictum : solve the problem of possessiveness, the problem of violence will then automatically find its own solution. The effect cannot be got rid of so long as the cause is in function. Violence is an effect, possessiveness is its cause. It was only in order to bring home this truth that Mahāvīra again and again declared "Know the truth. The supreme truth is : the souls are conscious entities, things are not conscious. The essence of soul is consciousness, not materiality." This philosophy of the Achārānga Lave a new turn to the science of ethics and advanced thought in the direction of peace, announcing "Be a seer. Look at every event and bring about a change in your attitude to sensual objects. Do not enjoy objects like the person who does not seek truth. But bring about a radical change in your attitude to sensual objects." In other words, bring about a complete change in your life-style. The value of the realisation of this truth is in no way inferior to the realisation of the self. The programme of editing the scripture started in 1954 of the Christian era. Annotations were prepared in Hindi of the Daśavaikālika, Uttarādhyāyana etc. His Holiness Shree Gurudeva once suggested, inter alia, the composition of a critical commentary on the Achārānga in Sanskrit. His suggestion gave me a new direction. The Sanskrit commentary was prepared. The benign inspiration of Shree Gurudeva was my constant companion in this project. Mahashraman Muni Mudit Kumara and Muni Mahendra Kumara kept engaged in preparing the manuscript of the commentary. The work practically remained suspended for several years. Muni Dulaharaj took over the initiative. Many queries and suggestions came up. Consequently there was increase in the volume and change in the methodology Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Preface of the work. Muni Rajendraji contributed a lot to the Sanskrit version of the text and its proof-reading. Many monks and nuns contributed in preparing twelve valuable appendices for the volume. An English translation of the voluminous Sanskrit Commentary has been prepared by Dr. Nathmal Tatia, Director, Anekant Sodhpith. Jain Vishva Bharati, Ladnun, in collaboration with Muni Dulaharajji and Dharmesh Muni which is expected to be published shortly. Many hands collaborated to bring this publication to the present shape. To all of them I offer my blessings and good wishes. To His Holiness Shree Gurudeva I offer my grateful obeisance and seek his blessings all the time. Acharya Mahaprajna Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education international Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका १. आगमों का वर्गीकरण जैन साहित्य का प्राचीनतम भाग आगम है । समवायांग में आगम के दो रूप प्राप्त होते हैं-(१) द्वादशांग गणिपिटक' और (२) चतुर्दश पूर्व । नन्दी में श्रुत-ज्ञान (आगम) के दो विभाग मिलते हैं-(१) अङ्ग-प्रविष्ट और (२) अङ्ग-बाह्य ।' आगम-साहित्य में साधु-साध्वियों के अध्ययन-विषयक जितने उल्लेख प्राप्त होते हैं, वे सब अङ्गों और पूर्वो से सम्बन्धित हैं, जैसे (१) सामायिक आदि ग्यारह अङ्गों को पढ़ने वाले सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ (अंतगडदसाओ, ११२१) । यह उल्लेख भगवान् अरिष्टनेमि के शिष्य गौतम के विषय में प्राप्त है। सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ (अंतगडदसाओ, २३१)। यह उल्लेख भगवान् अरिष्टनेमि की शिष्या पद्मावती के विषय में प्राप्त है। सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाइं अहिज्जइ (अंतगडदसाओ, ८१६)। यह उल्लेख भगवान् महावीर की शिष्या काली के विषय में प्राप्त है। सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ (अंतगडदसाओ, ६।९५)। यह उल्लेख भगवान् महावीर के शिष्य अतिमुक्तकुमार के विषय में प्राप्त है। (२) बारह अङ्गों को पढ़ने वालेबारसंगी (अंतगडदसाओ, ४१५) । यह उल्लेख भगवान् अरिष्टनेमि के शिष्य जालीकुमार के विषय में प्राप्त है। (३) चौदह पूर्वो को पढ़ने वाले चोद्दस पुन्वाइं अहिज्जइ (अंतगडदसाओ, ३।११६)। यह उल्लेख भगवान् अरिष्टनेमि के शिष्य सुमुखकुमार के विषय में प्राप्त है। सामाइयमाइयाइं चोद्दस पुव्वाई अहिज्जइ (अंतगडदसाओ, ३।१३)। यह उल्लेख भगवान् अरिष्टनेमि के शिष्य अणीयसकुमार के विषय में प्राप्त है। भगवान् पार्श्व के साढ़े तीन सौ चतुर्दशपूर्वी मुनि थे।' भगवान् महावीर के तीन सौ चतुर्दशपूर्वी मुनि थे। समवायांग और अनुयोगद्वार में अङ्ग-प्रविष्ट और अङ्ग-बाह्य का विभाग नहीं है। सर्व प्रथम यह विभाग नन्दी में मिलता है । अङ्ग-बाह्य की रचना अर्वाचीन स्थविरों ने की है। नन्दी की रचना से पूर्व अनेक अङ्ग-बाह्य ग्रन्थ रचे जा चुके थे और वे चतुर्दशपूर्वी या दशपूर्वी स्थविरों द्वारा रचे गए थे। इसलिए उन्हें आगम की कोटि में रखा गया। उसके फलस्वरूप आगम के दो विभाग किए गए-(१) अङ्ग-प्रविष्ट और (२) अङ्ग-बाह्य । यह विभाग अनुयोगद्वार (वीर निर्वाण छठी शताब्दी) तक नहीं हुआ था । यह सबसे पहले नन्दी (वीर-निर्वाण दसवीं शताब्दी) में हुआ है। नन्दी की रचना तक आगम के तीन वर्गीकरण हो जाते हैं-(१) पूर्व, (२) अङ्ग-प्रविष्ट और (३) अङ्ग-बाह्य । आज 'अङ्ग-प्रविष्ट' और 'अङ्ग-बाह्य' उपलब्ध होते हैं, किन्तु पूर्व उपलब्ध नहीं हैं। उनकी अनुपलब्धि ऐतिहासिक दृष्टि से विमर्शनीय २. पूर्व जैन परम्परा के अनुसार श्रुत-ज्ञान (शब्द-ज्ञान) का अक्षयकोष 'पूर्व' है। इसके अर्थ और रचना के विषय में सब एकमत १. समवाओ, प्रकीर्णक समवाय, सू०५८ । ४. समवाओ, प्रकीर्णक समवाय, सू० १४ । २. वही, १४।२। ५. वही, सू० १२। ३. नन्दी, सू०४३। Jain Education international Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ आचारांगभाष्यम् नहीं हैं। प्राचीन आचार्यों के मतानुसार 'पूर्व' द्वादशांगी से पहले रचे गए थे, इसलिए इनका नाम 'पूर्व' रखा गया ।' आधुनिक विद्वानों का अभिमत यह है कि 'पूर्व' भगवान् पार्श्व की परम्परा की श्रुत-राशि है । यह भगवान् महावीर से पूर्ववर्ती है, इसलिए इसे 'पूर्व' कहा गया है। दोनों अभिमतों में से किसी को भी मान्य किया जाए, किन्तु इस फलित में कोई अन्तर नहीं आता कि पूर्वो की रचना द्वादशांगी से पहले हुई थी या द्वादशांगी पूर्वो की उत्तरकालीन रचना है । वर्तमान में जो द्वादशांगी का रूप प्राप्त है, उसमें 'पूर्व' समाए हुए हैं। बारहवां अङ्ग दृष्टिवाद है । उसका एक विभाग है पूर्वगत। चौदह पूर्व इसी 'पूर्वगत' के अन्तर्गत किए गए हैं। भगवान् महावीर ने प्रारम्भ में पूर्वगत का अर्थ 'प्रतिपादित' किया था और गौतम आदि गणधरों ने भी प्रारम्भ में पूर्वगत-श्रुत की रचना की थी। इस अभिमत से यह फलित होता है कि चौदह पूर्व और बारहवां अङ्ग-ये दोनों भिन्न नहीं हैं। पूर्वगत-श्रुत बहुत गहन था। सर्व साधारण के लिए वह सुलभ नहीं था। अङ्गों की रचना अल्पमेधा व्यक्तियों के लिए की गई। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने बताया है कि 'दृष्टिवाद' में समस्त शब्द-ज्ञान का अवतार हो जाता है। फिर भी ग्यारह अङ्गों की रचना अल्पमेधा पुरुषों तथा स्त्रियों के लिए की गई ।' ग्यारह अङ्गों को वे ही साधु पढ़ते थे, जिनकी प्रतिभा प्रखर नहीं होती थी। प्रतिभा सम्पन्न मुनि पूर्वो का अध्ययन करते थे। आगम-विच्छेद के क्रम से भी यही फलित होता है कि ग्यारह अङ्ग दृष्टिवाद या पूर्वी से सरल या भिन्न-क्रम में रहे हैं । दिगम्बर परम्परा के अनुसार वीर-निर्वाण के बासठ वर्ष बाद केवली नहीं रहे । उसके बाद सौ वर्ष तक श्रुत-केवली (चतुर्दश-पूर्वी) रहे। उसके पश्चात् एक सौ तिरासी वर्ष तक दशपूर्वी रहे। इनके पश्चात् दो सौ बीस वर्ष तक ग्यारह अङ्गधर रहे। उक्त चर्चा से यह स्पष्ट है कि जब तक आचार आदि अङ्गों की रचना नहीं हुई थी, तब तक महावीर की श्रुत-राशि 'चौदह पूर्व' या 'दृष्टिवाद' के नाम से अभिहित होती थी और जब आचार आदि ग्यारह अङ्गों की रचना हो गई, तब दृष्टिवाद को बारहवें अङ्ग के रूप में स्थापित किया गया । यद्यपि बारह अङ्गों को पढ़ने वाले और चौदह पूर्वो को पढ़ने वाले-ये भिन्न-भिन्न उल्लेख मिलते हैं, फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि चौदह पूर्वो के अध्येता बारह अङ्गों के अध्येता नहीं थे और बारह अङ्गों के अध्येता चतुर्दश-पूर्वी नहीं थे। गौतम स्वामी को 'द्वादशांगवित्' कहा गया है। वे चतुर्दश-पूर्वी और अङ्गधर दोनों थे। यह कहने का प्रकार-भेद रहा है कि श्रुतकेवली को कहीं 'द्वादशांगवित्' और कहीं 'चतुर्दश-पूर्वी' कहा गया। ग्यारह अङ्ग पूर्वो से उद्धृत या संकलित हैं । इसलिए जो चतुर्दश-पूर्वी होता है, वह स्वाभाविक रूप से ही द्वादशांगवित् होता है। बारहवें अङ्ग में चौदह पूर्व समाविष्ट हैं । इसलिए जो द्वादशांगवित् होता है, वह स्वभावत: ही चतुर्दश-पूर्वी होता है। अतः हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि आगम के प्राचीन वर्गीकरण दो ही हैं-(१) चौदह पूर्व और (२) ग्यारह अङ्ग । द्वादशांगी का स्वतंत्र स्थान नहीं है। यह पूर्वो और अङ्गों का संयुक्त नाम है। कुछ आधुनिक विद्वानों ने पूर्वो को भगवान् पार्श्व-कालीन और अङ्गों को भगवान् महावीर-कालीन माना है, पर यह अभिमत संगत नहीं है । पूर्वो और अङ्गों की परम्परा भगवान् अरिष्टनेमि और भगवान् पार्श्व के युग में भी रही है । अङ्ग अल्पमेधा व्यक्तियों के लिए रचे गए, यह पहले बताया जा चुका है। भगवान् पार्श्व के युग में सब मुनियों का प्रतिभा-स्तर समान था, यह कैसे माना जा सकता है ? प्रतिभा का तारतम्य अपने-अपने युग में सदा रहा है। मनोवैज्ञानिक और व्यावहारिक-दृष्टि से विचार करने पर भी हम इसी बिन्दु पर पहुंचते हैं कि अङ्गों की अपेक्षा भगवान् पावं के शासन में भी रही है। इसलिए इस अभिमत की पुष्टि में कोई साक्ष्य प्राप्त नहीं है कि भगवान् पार्श्व के युग में केवल पूर्व ही थे, अङ्ग नहीं। सामान्य-ज्ञान से यही तथ्य निष्पन्न होता है कि भगवान महावीर के शासन में पूर्वो और अङ्गों का युग की भाव, भाषा, शैली और अपेक्षा के अनुसार नवीनीकरण हुआ। 'पूर्व' पार्श्व की परम्परा से लिए गए और 'अङ्ग' महावीर की परम्परा में रचे गए, इस अभिमत के समर्थन में संभवतः कल्पना ही प्रधान रही है। ३. अङ्ग-प्रविष्ट और अङ्ग-बाह्य भगवान महावीर के अस्तित्व-काल में गौतम आदि गणधरों ने पूर्वो और अङ्गों की रचना की, यह सर्व-विश्रुत है। क्या १. समवायांग वृत्ति, पत्र १०१ : प्रथमं पूर्व तस्य सर्वप्रवचनात् ३. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा ५५४ : पूर्व क्रियमाणत्वात् । जइवि य भूतावाए, सब्वस्स बओगयस्स ओयारो। २. नन्दी, मलयगिरिवृत्ति, पत्र २४० : अन्ये तु व्याचक्षते निज्जहणा तहावि हु, दुम्मेहे पप्प इत्थी य॥ पूर्व पूर्वगतसूत्रार्थमहन भाषते, गणधरा अपि पूर्व पूर्वगतसूत्रं ४. जयधवला, प्रस्तावना पृ० ४९ । विरचयन्ति, पश्चादाचारादिकम् । ५. देखिए भूमिका का प्रारंभिक अंश । ६. उत्तरज्झयणाणि, २३७ । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका १५ अन्य मुनियों ने आगम-ग्रन्थों की रचना नहीं की-यह प्रश्न सहज ही उठता है। भगवान् महावीर के चौदह हजार शिष्य थे।' उनमें सात सौ केवली थे, चार सौ वादी थे। उन्होंने ग्रन्थों की रचना नहीं की, ऐसा सम्भव नहीं लगता । नन्दी में बताया गया है कि भगवान महावीर के शिष्यों ने चौदह हजार प्रकीर्णक बनाए थे। ये पूर्वो और अङ्गों से अतिरिक्त थे। उस समय अङ्ग-प्रविष्ट और अङ्ग-बाह्य ऐसा वर्गीकरण हुआ, यह प्रमाणित करने के लिए कोई साक्ष्य प्राप्त नहीं है । भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् अर्वाचीन आचार्यों ने ग्रन्थ रचे, तब संभव है उन्हें आगम की कोटि में रखने या न रखने की चर्चा चली और उनके प्रामाण्य और अप्रामाण्य का प्रश्न भी उठा । चर्चा के बाद चतुर्दश-पूर्वी और दस-पूर्वी स्थविरों द्वारा रचित ग्रन्थों को आगम की कोटि में रखने का निर्णय हुआ किन्तु उन्हें स्वत: प्रमाण नहीं माना गया। उनका प्रामाण्य परतः था। वे द्वादशांगी से अविरुद्ध हैं, इस कसौटी से कसकर उन्हें आगम की संज्ञा दी गई। उनका परतः प्रामाण्य था, इसीलिए उन्हें अङ्ग-प्रविष्ट की कोटि से भिन्न रखने की आवश्यकता प्रतीत हई। इस स्थिति के संदर्भ में आगम की अङ्ग-बाह्य कोटि का उद्भव हुआ। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने अङ्ग-प्रविष्ट और अङ्ग-बाह्य के भेद-निरूपण में तीन हेतु प्रस्तुत किए हैं१. जो गणधर-कृत होता है, २. जो गणधर द्वारा प्रश्न किए जाने पर तीर्थङ्कर द्वारा प्रतिपादित होता है, ३. जो ध्रुव-शाश्वत सत्यों से सम्बन्धित होता है, सुदीर्घकालीन होता हैवही श्रुत अङ्ग-प्रविष्ट होता है। इसके विपरीत (१) जो स्थविर-कृत होता है, (२) जो प्रश्न पूछे बिना तीर्थङ्कर द्वारा प्रतिपादित होता है, (३) जो चल होता है-तात्कालिक या सामयिक होता है-उस श्रुत का नाम अङ्ग-बाह्य है। अङ्ग-प्रविष्ट और अङ्ग-बाह्य में भेद करने का मुख्य हेतु वक्ता का भेद है। जिस आगम के वक्ता भगवान महावीर हैं और जिसके संकलयिता गणधर हैं, वह श्रुत-पुरुष के मूल अङ्गों के रूप में स्वीकृत होता है, इसलिए उसे अङ्ग-प्रविष्ट कहा गया है। सर्वार्थसिद्धि के अनुसार वक्ता तीन प्रकार के होते हैं -(१) तीर्थङ्कर, (२) श्रुत-केवली (चतुर्दश-पूर्वी) और (३) आरातीय। आरातीय आचार्यों के द्वारा रचित आगम ही अङ्ग-बाह्य माने गए हैं। आचार्य अकलंक के शब्दों में आरातीय आचार्य-कृत आगम अङ्गप्रतिपादित अर्थ से प्रतिबिम्बित होते हैं इसीलिए वे अङ्ग-बाह्य कहलाते हैं ।' अङ्ग-बाह्य आगम श्रुत-पुरुष के प्रत्यंग या उपांग स्थानीय ४. अङ्ग द्वादशांगी में संगभित बारह आगमों को अङ्ग कहा गया है। अङ्ग शब्द संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं के साहित्य में प्राप्त होता है । वैदिक साहित्य में वेदाध्ययन के सहायक-ग्रन्थों को अङ्ग कहा गया है । उनकी संख्या छह है १. शिक्षा-शब्दों के उच्चारण-विधान का प्रतिपादक ग्रन्थ । २. कल्प-वेद-विहित कर्मों का क्रमपूर्वक व्यवस्थित प्रतिपादन करने वाला शास्त्र । ३. व्याकरण-पद-स्वरूप और पदार्थ-निश्चय का निमित्त-शास्त्र । ४. निरुक्त-पदों की व्युत्पत्ति का निरूपण करने वाला शास्त्र । ५. छन्द -मंत्रोच्चारण के लिए स्वर-विज्ञान का प्रतिपादक शास्त्र । ६. ज्योतिष-यज्ञ-याग आदि कार्यों के लिए समय-शुद्धि का प्रतिपादक शास्त्र । वैदिक साहित्य में वेद-पुरुष की कल्पना की गई है। उसके अनुसार शिक्षा वेद की नासिका है, कल्प हाथ, व्याकरण मुख, निरुक्त श्रोत्र, छन्द पैर और ज्योतिष नेत्र हैं । इसीलिए ये वेद-शरीर के अङ्ग कहलाते हैं।' पालि-साहित्य में भी 'अङ्ग' शब्द का उपयोग किया गया है। एक स्थान में बुद्ध-वचनों को नवांग और दूसरे स्थान में द्वादशांग कहा गया है। १. समवाओ १४॥४॥ ४. तरवार्थभाष्य, १२० : वक्तविशेषाद् दैविध्यम् । २. नन्दी, सू० ७८ : चोद्दसपइन्नगसहस्साणि भगवओ ५. सर्वार्थ सिद्धि, १२० : त्रयो वक्तारः-सर्वज्ञस्तीर्थकरः, वद्धमाणस्स। इतरो वा श्रुतकेवली आरातीयश्चेति । ३. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा ५५२: ६. तत्त्वार्थराजवातिक, १२०: आरातीयाचार्यकृताङ्गार्थगणहर-थेरकयं वा, आएसा मुक्क-वागरणओ वा । प्रत्यासन्नरूपमङ्गबाह्यम् । धुव-चल विसेसओ वा, अंगाणंगेसु नाणतं ॥ ७. पाणिनीय शिक्षा, ४१,१२ । Jain Education international Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगभाध्यम नवांग १. सुत्त --भगवान् बुद्ध के गद्यमय उपदेश । २. गेग्य-गद्य-पद्य मिश्रित अंश । ३. बेय्याकरण-व्याख्यापरक ग्रन्थ । ४. गाथा-पद्य में रचित ग्रन्थ । ५. उदान-बुद्ध के मुख से निकले हुए भावमय प्रीति-उद्गार । ६. इतिवृत्तक-छोटे-छोटे व्याख्यान जिनका प्रारम्भ 'बुद्ध ने ऐसे कहा' से होता है। ७. जातक-बुद्ध की पूर्व-जन्म-सम्बन्धी कथाएं। . ८. अन्भुतधम्म- अद्भुत वस्तुओं या योगज-विभूतियों का निरूपण करने वाले ग्रन्थ । ९. वेदल्ल-वे उपदेश जो प्रश्नोत्तर की शैली में लिखे गए हैं।' द्वादशांग (१) सूत्र, (२) गेय, (३) व्याकरण, (४) गाथा, (५) उदान, (६) अवदान, (७) इतिवृत्तक, (८) निदान, (९) वैपुल्य, (१०) जातक, (११) उपदेश-धर्म और (१२) अद्भुत-धर्म।' जैनागम बारह अंगों में विभक्त हैं-(१) आचार, (२) सूत्रकृत, (३) स्थान, (४) समवाय, (५) भगवती, (६) ज्ञाताधर्मकथा, (७) उपासकदशा, (८) अन्तकृद्दशा, (९) अनुत्तरोपपातिक, (१०) प्रश्नव्याकरण, (११) विपाक और (१२) दृष्टिवाद । 'अङ्ग' शब्द का प्रयोग भारतीय दर्शन की तीनों प्रमुख धाराओं में हुआ है। वैदिक और बौद्ध साहित्य में मुख्य ग्रन्थ वेद और पिटक हैं । उनके साथ 'अङ्ग' शब्द का कोई योग नहीं है । जैन साहित्य में मुख्य ग्रन्थों का वर्गीकरण गणिपिटक है । उसके साथ 'अङ्ग' शब्द का योग हुआ है । गणिपिटक के बारह अङ्ग हैं-'दुवालसंगे गणिपिडगे।" जैन-परम्परा में श्रुत-पुरुष की कल्पना भी प्राप्त होती है। आचार आदि बारह आगम श्रुत-पुरुष के अङ्गस्थानीय हैं । संभवतः इसीलिए उन्हें बारह अङ्ग कहा गया। इस प्रकार द्वादशांग गणिपिटक और श्रुत-पुरुष दोनों का विशेषण बनता है। ५. प्रथम अङ्ग द्वादशांगी में आचारांग का पहला स्थान है। इस विषय में दो विचारधाराएं प्राप्त होती है। एक धारा के अनुसार आचारांग पहला अङ्ग स्थापनाक्रम की दृष्टि से है, रचना-क्रम की दृष्टि से वह बारहवां अङ्ग है। दूसरी धारा के अनुसार रचनाक्रम और स्थापना-क्रम-दोनों दृष्टियों से आचारांग पहला अङ्ग है। आचार्य मलयगिरि तथा अभयदेवसूरि दोनों ने ही उक्त दोनों विचारधाराओं का उल्लेख किया है। ये धाराएं उनसे पहले ही प्रचलित थीं। अङ्ग पूर्वो से निढ हैं, इस अभिमत के आलोक में देखा जाए तो यही धारा संगत लगती है कि आचारांग स्थापना-क्रम की दृष्टि से पहला अङ्ग है, किन्तु रचना-क्रम की दृष्टि से नहीं । नियुक्तिकार ने 'आचार' को प्रथम अङ्ग माना है। उनके अनुसार तीर्थङ्कर सर्व प्रथम 'आचार' का और फिर क्रमशः शेष अङ्गों का प्रतिपादन करते हैं।' गणधर भी उसी क्रम से अङ्गों की रचना करते हैं।' नियुक्तिकार ने आचारांग की प्रथमता का कारण भी प्रस्तुत किया है। उन्होंने लिखा है-आचारांग में मोक्ष के उपाय (चरण-करण या आचार) का प्रतिपादन किया गया है १. सद्धर्मपुंडरीक सूत्र, पृ० ३४ । (ख) वही, मलयगिरि वृत्ति, पत्र २४० : गणधराः पुनः २. बौद्ध संस्कृत ग्रन्थ 'अभिसमयालंकार' की टीका, पृ० ३५ : सूत्ररचनां विदधतः आचारादिक्रमेण विदधति सूत्रं गेयं व्याकरणं, गाथोदानावदानकम् । स्थापयन्ति वा। इतिवृत्तकं निदानं, वैपुल्यं च सजातकम् । ७.(क) समवायांग वृत्ति, पत्र १०१ : प्रथममङ्ग स्थापनाउपदेशाद्भुतौ धर्मो, द्वादशांगमिदं वचः ॥ मधिकृत्य, रचनापेक्षया तु द्वादशमङ्गम् । ३. समवाओ, प्रकीर्णक समवाय, सूत्र ८८ । (ख) वही, पत्र १२१ : गणधराः पुनः श्रुतरचनां विदधाना ४. मूलाराधना, ४१५९९ विजयोदया : श्रुतं पुरुषः मुखचरणा आचारादिक्रमेण रचयन्ति स्थापयन्ति च । द्यङ्गस्थानीयत्वादंगशब्देनोच्यते। ८. आचारांग नियुक्ति, गाथा : ५. समवाओ, प्रकीर्णक समवाय, सूत्र ८९ : से गं अंगट्ठयाए सम्वेसि आयारो, तित्थस्स पवत्तणे पढमयाए । पढमे अंगे। सेसाई अंगाई, एक्कारस आणुपुव्वीए। ६. (क) नंदी, मलयगिरि वृत्ति, पत्र २११: स्थापनामधिकृत्य ९. वही, गाथा ८ वृत्ति : गणधरा अप्यनयवानुपूर्व्या सूत्रतया प्रथममङ्गम् । ग्रन्थन्ति । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका १७ और यही प्रवचन का सार है । इसलिए द्वादशांगी में आचारांग का प्रथम स्थान है।' इससे प्रतीत होता है कि नियुक्तिकार इस धारा के समर्थक रहे हैं कि रचना की दृष्टि से आचारांग का प्रथम स्थान है। किन्तु ग्यारह अङ्गों को पूर्वो से निषूढ माना जाए, उस स्थिति में नियुक्ति-सम्मत धारा की संगति नहीं बैठती। संभव है, नियुक्तिकार ने अङ्गों के नि!हण की प्रक्रिया का यह क्रम मान्य किया हो कि सर्व प्रथम आचारांग का नि!हण और स्थापन होता है तथा तत्पश्चात् सूत्रकृत आदि अङ्गों का । इस सम्भावना को स्वीकार कर लेने पर दोनों धाराओं की बाह्य दूरी रहने पर भी आंतरिक दूरी समाप्त हो जाती है। ६.श्रुतस्कंध समवायांग में आचारांग के दो श्रुतस्कन्ध बतलाए गए हैं। इससे यह प्रमाणित होता है कि समवायांग में प्राप्त द्वादशांगी का विवरण भी आयार-चूला की रचना का उत्तरवर्ती है। प्रारम्भ में आचारांग के दो स्कन्ध नहीं थे। आचार्य भद्रबाहु ने आयारचूला की रचना की, उसके पश्चात् दो स्कन्धों की व्यवस्था की गई। मूलभूत प्रथम अंग का नाम आचारांग अथवा 'ब्रह्मचर्याध्ययन' है। समवायांग में इसके अध्ययनों को 'नव ब्रह्मचर्य' कहा गया है।' आचारांग नियुक्ति में इसे 'नव ब्रह्मचर्याध्ययनात्मक' कहा गया है।" द्वितीय श्रुतस्कन्ध के दो नाम हैं --आयारग्ग (आचाराग्र) और आयार-चूला (आचार-चूला) । नियुक्तिकार ने आचारांग के दस पर्यायवाची नाम बतलाए हैं१. आयार-यह आचरणीय का प्रतिपादक है, इसलिए आचार है। २. आचाल-यह निविड बंधन को आचालित करता है, इसलिए आचाल है। ३. आगाल - यह चेतना को सम धरातल में अवस्थित करता है, इसलिए आगाल है। ४. आगर-यह आत्मिक-शुद्धि के रत्नों का उत्पादक है, इसलिए आगर है। ५. आसास-यह संत्रस्त चेतना को आश्वासन देने में क्षम है, इसलिए आश्वास है। ६. आयरिस - इसमें 'इति-कर्त्तव्यता' देखी जा सकती है, इसलिए यह आदर्श है। ७. अंग-यह अन्तस्तल में स्थित अहिंसा आदि को व्यक्त करता है, इसलिए अङ्ग है। ८. आईण्ण-इसमें आचीर्ण-धर्म का भी प्रतिपादन है, इसलिए यह आचीर्ण है। ९. आजाइ --- इससे ज्ञान आदि आचारों की प्रसूति होती है, इसलिए आजाति है । १०. आमोक्ख-यह बंधन-मुक्ति का साधन है, इसलिए आमोक्ष है। ७. मुख्य-विभाग आचारांग के नौ अध्ययन हैं । समवायांग' और आचारांग नियुक्ति में इन अध्ययनों के जो नाम प्राप्त होते हैं, उनमें थोडा भेद हैसमवायांग आचारांग नियुक्ति सत्थपरिण्णा सत्थपरिण्णा लोगविजय लोगविजय सीओसणिज्ज सोओसणिज्ज सम्मत्त सम्मत्त आवंती लोगसार धुत धुय विमोहायण उवहाणसुय महपरिणा १. आचारांग नियुक्ति, गाथा ९: आयारो अंगाणं, पढम अंग दुवालसहंपि । इत्थ य मोक्खो वाओ, एस य सारो पवयणस्स ।। २. समवाओ, प्रकीर्णक समवाय, सूत्र ८९ : दो सुयक्खंधा । ३. वही, ९।३: णव बंभचेरा पण्णत्ता। ४. आचारांग नियुक्ति, गाया ११ णव बंभचेरमहओ। महापरिण्णा विमोक्ख उवहाणसुय ५. आचारांग नियुक्ति, गाथा ७: आयारो आचालो, आगालो आगरो य आसासो। आयरिसो अंगति य, आईण्णाऽऽजाइ आमोक्खा। ६. समवाओ, ९।३। ७. आचारांग नियुक्ति, गाथा ३१-३२। Jain Education international Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ आचारांगभाष्यम् इनमें नाम-भेद और क्रम-भेद दोनों हैं । पांचवें अध्ययन का मूल नाम 'लोगसार' ही है। आवंती नाम आदि-पद के कारण हुआ है । अनुयोगद्वार में यह उदाहरण रूप में उल्लिखित है। नियुक्तिकार ने भी आवंती को आदान-पद नाम और लोकसार को गौण नाम माना है। ८. अवान्तर-विभाग समवायांग में आचारांग के ८५ उद्देशन-काल बतलाए गए हैं। यह दोनों श्रुतस्कंधों की संयुक्त संख्या है। एक अध्ययन का उद्देशन-काल एक होता है, वैसे ही एक उद्देशक का भी उद्देशन-काल एक ही होता है। उद्देशक अध्ययन का अवान्तर-विभाग होता है। आचार के उद्देशकों की संख्या इस प्रकार हैअध्ययन उद्देशक अध्ययन उद्देशक ९. पद-परिमाण और वर्तमान आकार आचारांग नियुक्ति के अनुसार आचारांग की पद-संख्या अट्ठारह हजार है। समवायांग तथा नन्दी में आचारांग के दो श्रुतस्कंध बतला कर फिर अट्ठारह हजार पदों की संख्या बतलाई गई है । किन्तु यह पद-संख्या नव ब्रह्मचर्य अध्ययनों की है । नियुक्तिकार ने इसका स्पष्ट उल्लेख किया है। अभयदेव सूरि ने समवायांग के संश्लिष्ट पाठ का विश्लेषण किया है। उन्होंने लिखा है-'दो श्रुतस्कन्ध हैं, यह आचारचूला सहित आचार का प्रतिपादन है। उसके अट्ठारह हजार पद हैं । यह पद-परिमाण केवल नव ब्रह्मचर्याध्ययनात्मक आचार का है। सम्प्रति उपलब्ध आचारांग में अट्ठारह हजार पद प्राप्त नहीं हैं । परम्परा से ऐसा माना जाता है कि रचना-काल में आचारांग का पद-परिमाण इतना था, किन्तु काल-क्रम से उसके ग्रन्थ-भाग का विच्छेद हो गया, इसलिए वर्तमान में पद-परिमाण भी कम हो गया है । दिगम्बर परम्परा के अनुसार नक्षत्राचार्य, जयपाल, पाण्डुस्वामी, ध्रुवसेन और कंसाचार्य--ये पांच आचार्य एकादशांगधर और चौदह पूर्वो के एक देश के धारक हुए हैं। समुद्र, यशोभद्र, यशोबाहु और लोहार्य-ये चार आचार्य आचारांग के धारक तथा शेष अंगों और पूर्वो के एक देश के धारक हुए हैं। इनके पश्चात् अर्थात् वीर-निर्वाण ६८३ के पश्चात् आचारांगधर का विच्छेद हो गया । फलतः आचारांग का विच्छेद हो गया। आचारांग का विच्छेद मान लेने पर भी इस तथ्य की स्वीकृति की गई है कि उत्तरवर्ती आचार्य सभी अंगों और पूर्वो के एक देश (अवशिष्ट-भाग) के धारक हुए हैं। ___श्वेताम्बर परम्परा में भी विष्णु मुनि के देहावसान के साथ आचारांग का विच्छेद माना गया है।' तित्थोगाली में भी आगम-विच्छेद की चर्चा प्राप्त है। उसके अनुसार आचारांग का विच्छेद वीर-निर्वाण १३०० (ई०७७३) में बताया गया है। इन परम्पराओं से इतना ही सारांश प्राप्त किया जा सकता है कि आचारांग निर्माण-काल में जितना था, उतना आज नहीं है तथा वह सर्वथा विच्छिन्न भी नहीं है। उसका कुछ विच्छेद आचारांगधर आचार्यों के अभाव में हुआ है तथा कुछ विच्छेद विस्मृतिवश व प्रतियों के प्रामाणिक संस्करणों के नष्ट होने से भी हुआ है। इतना सुनिश्चित है कि शीलांकसूरि (वि० ८वीं शती) को आचारांग का जो अंश प्राप्त था, उसका विच्छेद नहीं हुआ है। अत: तित्थोगाली का विवरण प्रामाणिक नहीं लगता। १. अनुयोगद्वार, सू० १३० : (वृत्ति पत्र १३०) : से कि ५. समवायांग वृत्ति, पत्र १०१ : यद् द्वौ श्रुतस्कन्धावित्यादि ते आयाणपएणं ? (धम्मो मंगलं, चूलिया) आवंती। तदाचारस्य प्रमाणं भणितं, यत् पुनरष्टादश पदसहस्राणि तत्र आवंतीत्याचारस्य पंचमाध्ययनं, तत्र हादावेव तन्नवब्रह्मचर्याध्ययनात्मकस्य प्रथमश्रुतस्कन्धस्य प्रमाणम् । 'आवन्ती केयावन्ती'त्यालापको विद्यत इत्यादानपदेनतन्नाम । ६. धवला (षट्खण्डागम) भाग ४, पृ० ६६ । २. आचारांग नियुक्ति, गाथा २३८ : आयाणपएणावंति, ७. वही, भाग १, पृ० ६७ : तदो सव्वेसिमंगं पुम्वाण मेगगोण्णनामेण लोगसारुत्ति । बेसो आइरिय-परंपराए आगच्छमाणो धरसेणाइरियं संपत्तो। ८. अभिधान राजेन्द्र, भाग २, पृ० ३४६ । ३. समवाओ, प्रकीर्णक समवाय, सू० ८९ । ९. व्यवहारभाष्य ३१७०४ : ४. आचारांग नियुक्ति, गाथा ११ : तित्थोगाली एत्थं वत्तव्वा होइ आणुपुव्वीए । णवबंभचेरमइओ, अट्ठारसपयसहस्सिओ वेओ। जे तस्स उ अंगस्स, वुच्छेदो जहि विणिविट्ठो॥ Jain Education international Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका १६ आचारांग का 'महापरिज्ञा' अध्ययन विच्छिन्न हो चुका है-यह श्वेताम्बर आचार्यों का अभिमत है। उस अध्ययन का विच्छेद वज्रस्वामी (वि. पहली शताब्दी) के पश्चात् तथा शीलांकसूरि (वि० आठवीं शताब्दी) से पूर्व हुआ है। वज्रस्वामी ने महापरिज्ञा अध्ययन से गगनगामिनी-विद्या उद्धृत की थी। इससे स्पष्ट है कि उनके समय में वह अध्ययन प्राप्त था। शीलांकसरि ने उसके विच्छेद होने का उल्लेख किया है।' नियुक्तिकार ने महापरिज्ञा अध्ययन के विषय का उल्लेख किया है तथा उसकी नियुक्ति भी की है। इससे लगता है कि चचित अध्ययन उनके सामने था। चूणिकार के सामने भी महापरिज्ञा अध्ययन रहा है। उन्होंने वृत्तिकार शीलांकसूरि की तरह इसके विच्छेद होने का उल्लेख नहीं किया है। उन्होंने चर्चित अध्ययन के असमनुज्ञात होने का उल्लेख किया है। यह अध्ययन असमनुज्ञात क्यों और कब हुआ, इसकी चूर्णिकार ने कोई चर्चा नहीं की है। एक अनुश्रुति यह है कि 'महापरिज्ञा' अध्ययन में अनेक मंत्र और विद्याओं का वर्णन था। काल-लब्धि के संदर्भ में उसे पढ़ाने का परिणाम अच्छा नहीं लगा । इसलिए तात्कालिक आचार्यों ने उसे असमनुज्ञात ठहरा दिया-उसका पढ़ना-पढ़ाना निषिद्ध कर दिया। किन्तु निर्यक्तिकार के संदर्भ में हम इस विषय पर विचार करते हैं तो उक्त अनुश्रुति का उससे समर्थन नहीं होता । नियुक्तिकार के अनुसार आचार-चला के सात अध्ययन (सप्तकक) महापरिज्ञा के सात उद्देशकों से नियूंढ़ किए गए हैं। इस उल्लेख के आधार पर सहज ही अनुमान किया जा सकता है कि जो विषय महापरिज्ञा से उद्धृत सात अध्ययनों (सप्तककों) में है, वही विषय महापरिज्ञा अध्ययन में रहा है। ऐसी संभावना भी की जा सकती है कि महापरिज्ञा से उद्धृत सात अध्ययनों के प्रचलन के बाद उसकी आवश्यकता न रही हो, फलतः वह असमनुज्ञात हो गया हो और क्रमशः विच्छिन्न हो गया हो । अभी तक हमें अनुश्रुति और अनुमान के अतिरिक्त प्रस्तुत अध्ययन के विच्छेद का पुष्ट प्रमाण प्राप्त नहीं है। १०. विषय-वस्तु समवायांग और नन्दी में आचारांग का विवरण प्रस्तुत किया गया है । उसके अनुसार प्रस्तुत सूत्र आचार, गोचर, विनय, वैनयिक (विनय-फल), स्थान (उत्थितासन, निषण्णासन और शयितासन,) गमन, चंक्रमण, भोजन आदि की मात्रा, स्वाध्याय आदि में योग-नियंजन, भाषा, समिति, गुप्ति, शय्या, उपधि, भक्त-पान, उद्गम-उत्थान, एषणा आदि की विशुद्धि, शुद्धाशुद्ध-ग्रहण का विवेक, व्रत, नियम, तप, उपधान आदि का प्रतिपादक है। आचार्य उमास्वाति ने आचारांग के प्रत्येक अध्ययन का विषय संक्षेप में प्रतिपादित किया है। वह क्रमश: इस प्रकार है१. षड्जीवकाय यतना ६. कर्मों को क्षीण करने का उपाय २. लौकिक संतान का गौरव-त्याग ७. वैयावृत्त्य का उद्योग ३. शीत-ऊष्ण आदि परीषहों पर विजय ८. तपस्या की विधि ४. अप्रकम्पनीय-सम्यक्त्व ९. स्त्री-संग-त्याग ५. संसार से उद्वेग नियुक्तिकार ने नव ब्रह्मचर्य अध्ययनों के विषय इस प्रकार बतलाए हैं१. सत्थपरिणा जीव संयम। २. लोगविजय बंध और मुक्ति का प्रबोध । ३. सीओसणिज्ज सुख-दुःख-तितिक्षा। १. (क) आवश्यकनियुक्ति, गाथा ६७९, मलयगिरि वृत्ति, पत्र ३. आचारांग नियुक्ति, गाथा ३४ । ३९० ४. वही, गाथा २५२-२५८। देखें-आचारांग वृत्ति, जेणुद्धरिया विज्जा, आगासगमा महापरिन्नाओ। द्वितीय श्रुतस्कन्ध का अंतिम पत्र । वंदामि अज्जवइरं, अपच्छिमो जो सुयधराणं ॥ ५. आचारांग चूणि, पृष्ठ २४४ : महापरिण्णा ण पढिज्जा (ख) प्रभावक चरित, वज्रप्रबन्ध, श्लोक १४८ : ___ असमणुण्णाया। महापरिज्ञाध्ययनाद, आचारांगान्तरस्थितात् । ६. आचारांग नियुक्ति, गाथा २९० : श्री वज्रणोद्धृता दिद्या, तदा गगनगामिनी ॥ सत्तिक्कगाणि सत्तवि निज्जूढाई महापरिन्नाओ। २. आचारांग वृत्ति, पत्र २३५ : अधुना सप्तमाध्ययनस्य ७. (क) समवाओ, प्रकीर्णक समवाय, सू०८९ । महापरिज्ञाख्यस्यावसरः, तच्च व्यवच्छिन्नमितिकृत्वाऽति (ख) नंदी, सू० ८०। लंध्याष्टमस्य सम्बन्धो वाच्यः । ८. प्रशमरति प्रकरण, ११४-११७ । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगभाष्यम् ४. सम्मत्त सम्यक्-दृष्टिकोण । ५. लोगसार असार का परित्याग और लोक में सारभूत रत्नत्रयी की आराधना । ६. धुय अनासक्ति। ७. महापरिणा मोह से उत्पन्न परीषहों और उपसगों का सम्यक् सहन । ८. विमोक्ख निर्याण (अंतक्रिया) की सम्यक्-साधना। ९. उवहाणसुय भगवान् महावीर द्वारा आचरित आचार का प्रतिपादन ।' आचार्य अकलङ्ग के अनुसार आचारांग का समग्र विषय चर्या-विधान' तथा अपराजित सूरि के अनुसार रत्नत्रयी के आचरण का प्रतिपादन है।' जैन परम्परा में 'आचार' शब्द व्यापक अर्थ में व्यवहृत होता है । आचारांग की व्याख्या के प्रसंग में आचार के पांच प्रकार बतलाए गए हैं-(१) ज्ञानाचार, (२) दर्शनाचार, (३) चरित्राचार, (४) तपाचार और (५) वीर्याचार । प्रस्तुत आगम में इन पांचों आचारों का निरूपण है। दार्शनिक-तथ्य सत्त्व-दर्शन की दृष्टि से आचारांग एक महत्त्वपूर्ण आगम है। आचार्य सिद्धसेन ने जैन दर्शन के मूलभूत छह सत्य गिनाए (१) आत्मा है। (४) भोक्ता है। (२) वह अविनाशी है। (५) निर्वाण है। (३) कर्ता है। (६) निर्वाण के उपाय हैं । इनका आचारांग में पूर्ण विस्तार मिलता है। 'आत्मा है'-यह पहला सत्य है। आचारांग का प्रारम्भ इसी सत्य की व्याख्या से हुआ है । इसी व्याख्या के साथ आत्मा के अविनाशित्व का उल्लेख हुआ है । 'पुरुष तू ही तेरा मित्र है" 'यह शल्य तू ने ही किया है"-ये वाक्य आत्मा के कर्तृत्व के उद्बोधक हैं। इसमें 'अनुसंवेदन' का प्रयोग हुआ है। यह क्रिया की प्रतिक्रिया (भोक्तृत्व) का सूचक है। आचारांग में निर्वाण को 'अनन्य-परम' कहा गया है । वहां सब उपाधियां समाप्त हो जाती हैं, इसलिए उससे अन्य कोई परम नहीं है। निर्वाण के उपायभूत सम्यग्-दर्शन, सम्यग्-ज्ञान और सम्यग्-चारित्र का स्थान-स्थान पर प्रतिपादन हुआ है। इन दृष्टियों से आचारांग को जैन दर्शन का आधारभूत ग्रन्थ कहा जा सकता है। श्रद्धा और स्वतंत्र-दृष्टि आचारांग श्रद्धा का समुद्र है। 'सड्ढी आणाए मेहावी", 'आणाए मामगं धम्म" आदि वाक्यों में अपने आराध्य के प्रति आत्मार्पण की भावना प्रस्फुटित होती है । आचारांग में श्रद्धा के स्वतंत्र-दृष्टिकोण का स्थान असुरक्षित नहीं है। सत्य की उपलब्धि के तीन साधन बतलाए गए हैं सहसम्मति, परव्याकरण और श्रुतानुश्रुत ।" इन तीन साधनों में पहला साधन है-स्वस्मृति-अपनी बुद्धि के द्वारा सत्य का अवबोध करना । 'मइम पास"-इस शब्द १. आचारांग नियुक्ति, गाथा ३३-३४ : ५. सम्मति प्रकरण, ३३५५ : जिअसंजमो अ लोगो जह बज्झइ जह य तं पजहियव्वं । अत्थि अविणास-धम्मी, करेइ वेएइ अत्थि निव्वाणं । सुहदुक्खतितिक्खाविय सम्मत्तं लोगसारो य॥ अत्थि य मोक्खोवाओ, छ सम्मत्तस्स ठाणाई॥ निस्संगया य छठे मोहसमुत्था परीसहुवसग्गा । ६. आयारो, १२ निज्जाणं अट्ठमए नवमे य जिणेण एवंति ॥ ७. वही, १।४। २. तत्त्वार्थराजवार्तिक, १२० : आचारे चर्याविधानं ८. वही, ३१६२ : पुरिसा ! तुममेव तुम मित्तं । शुद्धयष्टकपंचसमितित्रिगुप्तिविकल्पं कथ्यते । ९. वही, २१८७: तुमं चेव तं सल्लमाहट्ट । ३. मूलाराधना, आश्वास २, श्लोक १३०, विजयोदया : १०. वही, २१०३३ रत्नत्रयाचरणनिरूपणपरतया प्रथममंगमाचारं शब्दे- ११. वही, ३१५७ । नोच्यते। १२. वही, ३८०। ४. समवाभो, प्रकीर्णक समवाय, सूत्र ८९ : से समासओ १३. वही, ६।४८ । पंचविहे पण्णते, तं जहा-णाणायारे दसणायारे चरित्तायारे १४. वही, १३ : सह-सम्मइयाए, पर-वागरणेणं, अण्णेसि वा तवायारे वीरियायारे। ____ अंतिए सोच्चा। १५. वही, ३।१२। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ भूमिका का प्रयोग भी दृष्टि की स्वतंत्रता को अवकाश देता है । वृत्तिकार ने इसका अर्थ किया है 'न केवलं अहमेव कथयामि त्वमेव पश्य'केवल मैं ही नहीं कहता हूं, तू स्वयं भी देख । इस प्रकार आचारांग में श्रद्धा और स्वतंत्र-दृष्टि का सुन्दर संगम हुआ है। केवल श्रद्धा और केवल स्वतंत्र-दृष्टि-ये दोनों अतियां हैं। इनसे अच्छे परिणाम की उपलब्धि नहीं हो सकती। श्रद्धा और स्वतंत्र-दष्टि का समन्वय ही सत्य-संधान का समुचित मार्ग है। कषोपल आचारांग सबसे प्राचीन सूत्र है, इसलिए यह उत्तरवर्ती सूत्रों के लिए 'कषोपल' के समान है। इसमें वर्णित आचार मूलभूत है। वह भगवान् महावीर के मौलिक आचार के सर्वाधिक निकट है। उत्तरवर्ती सूत्रों में वर्णित आचार उसका परिवर्धन या विकास है। आचारांग-चूला में भी आचार का परिवर्धन या विकास हुआ है । जो तथ्य मूल आचारांग में नहीं हैं, वे आचार-चूला में प्राप्त होते हैं, तब सहज ही प्रश्न खड़ा होता है कि उनका आधार क्या है ? दो शताब्दी से पूर्ववर्ती साहित्य में जो तथ्य नहीं हैं, वे दो शताब्दी बाद लिखे गए साहित्य में कहां से आए? इसका समाधान देने के लिए हमारे पास पर्याप्त साधन नहीं हैं, फिर भी इस विषय में इतना कहा जा सकता है कि सामयिक परिस्थितियों को ध्यान में रख कर वर्तमान आचार्यों ने उत्सर्ग और अपवाद के सिद्धान्त की स्थापना और उसके आधार पर विधि-विधानों का निर्माण किया था। आचार-चूला उसी शृङ्खला की प्रथम कड़ी है। जैन-आचार की समीक्षा करते समय इस तथ्य की विस्मृति नहीं होनी चाहिए कि आचारांग में वर्णित आचार मौलिक है और महावीर-कालीन है तथा जो आचार आचारांग में वणित नहीं है, वह उत्तरवर्ती है तथा उसकी प्रारम्भ-तिथि अन्वेषणीय है। समसामयिक विचार आचारांग में वैदिक, औपनिषदिक और बौद्ध विचारधाराओं के संदर्भ में अनेक तथ्यों का प्रतिपादन हुआ है । वैदिकसाधना को हम अरण्य-साधना कह सकते हैं। वैदिक-धारणा के अनुसार धर्म की साधना के लिए मनुष्य को अरण्य मे रहना आवश्यक है। वैदिक ऋषि तत्त्वचिन्ता के लिए भी अरण्य मे रहते थे। आरण्यक-साहित्य उसी अरण्यवास की निष्पत्ति है। भगवान महावीर ने अरण्यवास की अनिवार्यता मान्य नहीं की। उन्होंने कहा-'साधना गांव में भी हो सकती है और अरण्य में भी हो सकती है।" 'धर्म का उपदेश जैसे बड़े लोगों को दिया जा सकता है, वैसे ही छोटे लोगों को दिया जा सकता है।" उच्च-वर्ग को ही धर्म सुनने का अधिकार है, शुद्र को धर्म सुनने का अधिकार नहीं है, इस सिद्धान्त के प्रतिवाद में ही भगवान् महावीर ने उक्त विचार का प्रतिपादन किया था। न कोई व्यक्ति हीन है और न कोई व्यक्ति उच्च है"-इस विचार का प्रतिपादन जातिवाद के विरुद्ध किया गया था। इस प्रकार उपनिषद्, गीता और बौद्ध-साहित्य के संदर्भ में आचारांग का तुलनात्मक अध्ययन करने पर विचारधारा के अनेक मौलिक स्रोत हमें प्राप्त हो सकते हैं । ११. रचनाकार और रचना-काल परम्परा से यह जाना जाता है कि आचारांग की रचना गणधर सुधर्मा स्वामी ने की और तीर्थ-प्रवर्तन के समय में ही की। ऐतिहासिक तथा भाषाशास्त्रीय दृष्टि से विचार करने पर भी ऐसा प्रतीत होता है कि आचारांग उपलब्ध आगमों में सबसे प्राचीन है। इसकी रचना-शैली अन्य आगमों से भिन्न है । डॉ. हर्मन जेकोबी ने इसकी तुलना ब्राह्मण सूत्रों की शैली से की है। उनके अनुसार ब्राह्मण सूत्रों के वाक्य परस्पर सम्बन्धित हैं, किन्तु आचारांग के वाक्य परस्पर सम्बन्धित नहीं हैं। उन्होंने लिखा है'आचारांग के वाक्य उस समय के प्रसिद्ध धार्मिक ग्रन्थों से उद्धृत किए गए हैं, ऐसा लगता है। मेरा यह अनुमान गद्य के मध्य आने वाले पद्यों या पदों के सन्दर्भ में पूर्ण सत्य है। क्योंकि उन पद्यों या पदों की सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन तथा दशवकालिक के पदों से तुलना होती है।" १. आयारो, ८.१४ : गामे व अदुवा रण्णे,"धम्ममायाणह 4. The Sacred Books of the East, Vol. XXII, पवेदितं माहणेण मईमया। Introduction, Page 48 : They do not read like २. वही, २।१७४: a logical discussion, but like a Sermon made जहा पुण्णस्स कत्थइ, तहा तुच्छस्स कत्थई । up by quotations from some then well-known जहा तुच्छस्स कत्थइ, तहा पुण्णस्स कत्थइ। sacred books. In fact the fragments of verses ३. वही, २०४९ : णो होणे, णो अइरित्ते । and whole verses which are liberally inter Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ आचारांगभाष्यम डॉ. जेकोबी का अभिमत निराधार नहीं है। द्वादशांगी पूर्वो से निर्मूढ है तथा दशवकालिक का निर्वृहण भी पूर्वो से किया गया है। इसलिए बहुत सम्भव है कि इन सबके समान पदों का नि!हण-स्थल एक हो। आचारांग में वाक्य परस्पर सम्बन्धित नहीं हैं, इस अभिमत में आंशिक सच्चाई भी है और वह इसलिए है कि वर्तमान में आचारांग का खण्डित रूप प्राप्त है। अखण्ड रूप में जो सम्बन्ध-शृंखला प्राप्त हो सकती है, वह खण्डित रूप में नहीं हो सकती। ___ इसका तीसरा कारण व्याख्या-पद्धति का भेद भी है। आगम-साहित्य के व्याख्यान की दो पद्धतियां हैं-छिन्नच्छेदनयिक और अच्छिन्नच्छेदनयिक। प्रथम पद्धति के अनुसार प्रत्येक वाक्य तथा श्लोक अपने आपमें परिपूर्ण होता है। पूर्व या अग्रिम वाक्य तथा श्लोक से उसकी सम्बन्ध-योजना नहीं की जाती। द्वितीय पद्धति के अनुसार प्रत्येक वाक्य तथा श्लोक की पूर्व या अग्रिम वाक्य तथा श्लोक के साथ सम्बन्ध-योजना की जाती है। आचारांग की व्याख्या छिन्नच्छेदनयिक पद्धति से करने पर वाक्यों की विसम्बद्धता प्रतीत होती है। यदि अच्छिन्नच्छेदनयिक पद्धति से उसकी व्याख्या की जाए तो उसमें सर्वत्र विसम्बद्धता प्रतीत नहीं होगी। १२. आचारांग का महत्त्व आचारांग आचार का प्रतिपादक सूत्र है, इसलिए यह सब अंगों का सार माना गया है। नियुक्तिकार ने नियुक्ति गाथा १६ में स्वयं जिज्ञासा की --'अंगाणं कि सारो ?' अंगों का सार क्या है ? इसके उत्तर की भाषा में उन्होंने लिखा है -'आयारो।' अर्थात् अंगों का सार आचार है। आचारांग में मोक्ष का उपाय बताया गया है, इसलिए यह समूचे प्रवचन का सार है।' आचारांग के अध्ययन से श्रमण-धर्म ज्ञात होता है, इसलिए आचारधर पहला गणिस्थान (आचार्य होने का प्रथम कारण) कहलाता है। आचारांग मुनि-जीवन का आधारभूत आगम है, इसलिए इसका अध्ययन सर्वप्रथम किया जाता था। नौ ब्रह्मचर्य अध्ययनों का वाचन किए बिना उत्तम या ऊपर के आगमों का वाचन करने पर चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का विधान किया गया है।' आचारांग पढ़ने के बाद ही धर्मानुयोग, गणितानुयोग और द्रव्यानुयोग पढ़े जाते थे। नव दीक्षित मुनि की उपस्थापना आचारांग के शस्त्र-परिज्ञा अध्ययन द्वारा की जाती थी। वह पिण्डकल्पी (भिक्षा लाने योग्य) भी आचारांग के अध्ययन से होता था। आचारांग का अध्ययन किए बिना सूत्रकृत आदि अंगों का अध्ययन विहित नहीं था।' उक्त उद्धरणों से आचारांग का महत्त्वख्यापन होता है। १३. रचना-शैली सूत्रकृतांग चूणि में सूत्र-रचना की चार शैलियों का निर्देश मिलता है --(१) गद्य , (२) पद्य , (३) कथ्य और (४) गेय ।' spersed in the prose texts go far to prove the correctness of my conjecture; for many of these 'disjecta membra' are very similar to verses or Padas of verses occuring in the Sutrakritanga, Uttaradhyayana and Dasavai kalika Sutras. १. आचारांग नियुक्ति, गाथा ९ । २. वही, गाथा १०: आयारम्मि अहीए, जं नाओ होइ समणधम्मो उ । तम्हा आयारधरो, भण्णइ पढमं गणिढाणं ॥ ३. निशीथ, १९४१ : जे भिक्खु णव बंभचेराइं अवाएता उत्तम सुयं वाएइ, वाएंतं वा सातिज्जति।। ४. निशीथ चणि निशीथ सूत्र, चतुर्थ विभाग), पृ० २५३ : अहवा-बंभचेरादी आयारं अवाएत्ता धम्माणुओ इसि भासियादि वाएति, अहवा-सूरपण्णत्तियाइ गणियाणुओगं वाएति, अहवा-दिट्ठिवातं दवियाणुओगं वाएति, अहवाजदा चरणाणुओगो वातित्तो तदा धम्माणुयोगं अवाएत्ता गणियाणुयोगं वाएति, एवं उक्कमो चारणियाए सव्वो वि भासियम्वो। ५. व्यवहारभाष्य, ३।१७४-१७५ । ६. निशीथ चूणि (निशीथ सूत्र, चतुर्य विभाग), पृ० २५२ : अंगं जहा आयारो तं अवाएत्ता सुयगडंगं बाएति । ७. सूत्रकृतांग चूणि, पृ०७ : तं चउव्विधं, तंजहा–गद्यं पद्यं कथ्यं गेयं । गद्यं-चूणिग्रंथः ब्रह्मचर्यादि, पद्यं गाथासोलसगादि, कथनीयं कथ्यं जहा उत्तरज्झयणाणि इसिभासिताणि णायाणि य, गेयं णाम सरसंचारेण जधा काविलिज्जे 'अधुवे असासयंमि संसारंमि दुक्खपउराए।' Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ भूमिका (१) गद्य-चूणि ग्रन्थ, जैसे-ब्रह्मचर्य अध्ययन । (२) पद्य-जैसे-गाथाषोडशक (सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कंध का १६ वां अध्ययन)। (३) कथ्य-कथनीय, जैसे-उत्तराध्ययन ऋषिभाषित, ज्ञाता । (४) गेय-स्वरयुक्त, जैसे- कापिलीय (उत्तराध्ययन का ८ वां अध्ययन) । दशवकालिक नियुक्ति में ग्रथित और प्रकीर्णक --- इन दो शैलियों की चर्चा मिलती है। ग्रथित शैली का अर्थ है 'रचनाशैली' और प्रकीर्णक का अर्थ है 'कथाशैली'।' अथित शैली के चार प्रकार बतलाए गए हैं-(१) गद्य , (२) पद्य , (३) गेय और (४) चौर्ण । दशर्शकालिक नियुक्ति में जो प्रकीर्णक है, वही सूत्रकृतांग चूणि में कथ्य है। सूत्रकृतांग चूणि में ब्रह्मचर्याध्ययन (प्रथम आचारांग) को गद्य की कोटि में रखा है और उसे चूणि ग्रंथ माना है। किन्तु दशवकालिक चूणि में ब्रह्मचर्याध्ययन को चौर्ण पद माना है। हरिभद्र का यही अभिमत है।' आचारांग की रचना गद्य-शैली की नहीं है, इसलिए दशवकालिक चूणि का अभिमत संगत लगता है। नियुक्तिकार ने चौर्ण-पद की व्याख्या इस प्रकार की है-'जो अर्थ-बहुल, महार्थ, हेतु, निपात और उपसर्ग से गंभीर, बहुपाद, अव्यवच्छिन्न (विराम रहित), गम और नय से विशुद्ध होता है, वह चौर्णपद है। चौर्ण की परिभाषा में आया हुआ 'बहुपाद' शब्द यहां बहुत महत्त्वपूर्ण है। जिस रचना में कोई पाद नहीं होता वह गद्य और जिसमें गद्य भाग के साथ-साथ बहुतपाद (चरण) होते हैं, वह चौर्ण है । संक्षेप में गद्य को 'अपाद' और चौर्ण को 'बहुपाद' कहा जा सकता है। आचारांग में सैकड़ों पाद हैं, इसलिए वह चौर्णशैली की रचना है। यह आश्चर्य की बात है कि समवायांग तथा नन्दी में आचारांग के संख्येय वेष्टकों और संख्येय श्लोकों का उल्लेख है तथा घूणि और वृत्ति साहित्य में इसे चौर्णपद की कोटि में रखा गया है, फिर भी इसके प्रकीर्ण पादों की ओर जैन विद्वानों ने ध्यान नहीं दिया । आचारांग में गद्य भाग के साथ-साथ विपुल मात्रा में पद्य भाग हैं-इस रहस्य के उद्घाटन का श्रेय डॉ० शुब्रिग को है। उन्होंने स्व-संपादित आचारांग में पद्य भाग का पृथक् अंकन किया है। प्रस्तुत ग्रन्थ में पद्यांशों तथा पद्यों का पृथक् परिशिष्ट दिया गया है। आचारांग के ८ वें अध्ययन के ७ वें उद्देशक तक की रचना चौर्णशैली में है और ८ वां उद्देशक तथा ९ वां अध्ययन पद्यात्मक है । आचारचूला के १५ अध्ययन मुख्यतया गद्यात्मक हैं, कहीं-कहीं पद या संग्रह-गाथाएं प्राप्त हैं। १६ वां अध्ययन पद्यात्मक है। १४. व्याख्या-ग्रन्थ आचारांग के उपलब्ध व्याख्या ग्रन्थों में सर्वाधिक प्राचीन नियुक्ति है। इसके कर्ता द्वितीय भद्रबाहु (वि० पांचवीं-छट्ठी शताब्दी) हैं। दूसरा स्थान चुणि का है। नियुक्ति पद्यमय है और चूणि गद्यमय । परम्परा से इसके कर्ता जिनदास महत्तर माने जाते हैं। किन्तु ऐतिहासिक शोध के आधार पर इसकी पुष्टि नहीं हुई है । अंग शब्द का निक्षेप करते हुए चूणिकार ने द्रव्य-अंग की व्याख्या के लिए चउरंगिज्ज (उत्तराध्ययन का तृतीय अध्ययन) की भांति-ऐसा उल्लेख किया है। इस वाक्यांश से उत्तराध्ययन और आचारांग की चूणि के एक कर्ता होने की कल्पना की जा सकती है। यदि आचारांग और उत्तराध्ययन के चूर्णिकार एक हों तो उनका परिचय १. दशवकालिक नियुक्ति, गाथा १६९ : जहा बंभचेराणि । नोमाउगंपि दुविहं, गहियं च पइन्नयं च बोद्धव्वं । ५. दशवकालिक हारिभद्रीय टीका, पत्र८८ : चौर्ण पदं ब्रह्मगहियं चउप्पयारं, पइन्नगं होइ गविहं । चर्याध्ययनपद वत् । २. दशवकालिक हारिभद्रीय वृत्ति, पत्र ८७ : प्रथितं रचितं ६. दशवैकालिक नियुक्ति, गाथा १७४ : बद्धमित्यनन्तरम्, अतोऽन्यत्प्रकीर्णक-प्रकीर्णककथो अत्थ बहुलं महत्थं, हेउनिवाओवसरगगंभीरं । पयोगिज्ञानपदमित्यर्थः। बहुपायमवोच्छिन्नं, गमणयसुद्धं च चुण्णपयं ॥ ३. दशवकालिक नियुक्ति, गाथा १७० : ७. समवाओ, प्रकीर्णक समवाय, सूत्र ८९ । गज्ज पज्जं गेयं, चुण्णं च चउन्विहं तु गहियपयं । ८. नंदी, सूत्र ८० : संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा। तिसमुट्ठाणं सव्वं, इइ बेंति सलक्खणा कइणो। ९. देखें-परिशिष्ट २, पृष्ठ ४५७-४६७ । ४. दशवकालिक चूणि, पृ० ७८ : इदाणि चुण्णपदं मण्णइ, १०. आचारांग चूणि, पृ० ४ : दव्वंगं जहा चउरंगिज्जे । Jain Education international Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ आचारांगभाष्यम् उत्तराध्ययन चूणि के अनुसार 'गोपालिक महत्तर शिष्य' के रूप में मिलता है।' आचारांग का तीसरा व्याख्या-ग्रन्थ 'टोका' है। चूर्णि और वृत्ति-ये दोनों नियुक्ति के आधार पर चलते हैं। नियुक्ति का शब्द-शरीर संक्षिप्त है, किन्तु दिशा-सूचन और ऐतिहासिक दृष्टि से वह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। चूर्णि का शब्द-शरीर टीका की अपेक्षा संक्षिप्त है, किन्तु अर्थाभिव्यक्ति और ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत मूल्यवान् है । टीका का शब्द-शरीर उपलब्ध व्याख्या-ग्रंथों से सबसे बड़ा है । इसके कर्ता शीलाङ्कसूरि हैं । उन्होंने अपना दूसरा नाम 'तत्त्वादित्य' बतलाया है। आचारांग की पुष्पिका के अनुसार उन्होंने आचारांग (प्रथम श्रुतस्कन्ध) की टीका गुप्त सम्वत् ७७२, भाद्र शुक्ला पंचमी के दिन 'गम्भूता' (उत्तर गुजरात में पाटण का पार्श्ववतीं 'गांभू' नामक गांव) में पूर्ण की थी। शीलाङ्कसूरि का अस्तित्व-काल ई० ८वीं शती माना जाता है। दीपिका-रचयिता-अंचल गच्छ के मेरुतुंगसूरि के शिष्य माणिक्यशेखरसूरि । दीपिका-रचयिता-खरतर गच्छ के जिनसमुद्रसूरि के पट्टधर जिनहंससूरि । अवचूरि-रचयिता-हर्षकल्लोल के शिष्य लक्ष्मीकल्लोल । रचना वि० सं० १६०६ (?) । बालावबोध-रचयिता-पावचन्द्रसूरि । पद्यानुवाद और वार्तिक-इन दोनों के कर्ता श्रीमज्जयाचार्य (विक्रम की २० वीं शती) हैं । पद्यानुवाद-आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध को राजस्थानी में पद्यात्मक व्याख्या है। वार्तिक आचार-चूला पर लिखा गया है। उसके चर्चास्पद विषयों के स्पष्टीकरण के लिए प्रस्तुत वार्तिक बहुत महत्त्वपूर्ण है। ऊपर की पंक्तियों में हमने व्याख्या-ग्रंथों की चर्चा की है। प्रस्तुत शीर्षक में अनुपलब्ध व्याख्या ग्रंथों पर दृष्टि डाल लेना आवश्यक है। आर्य गन्धहस्ती ने आचारांग के प्रथम अध्ययन 'शस्त्र-परिज्ञा' की टीका में उसी का संक्षिप्त सार संकलित किया है। आचारांग टीका में उन्होंने लिखा है शस्त्रपरिज्ञाविवरणमतिबहुगहनं च गन्धहस्तिकृतम् । तस्मात् सुखबोधार्थ गृह्णाम्यहमञ्जसा सारम् ॥३॥ (आचारांग वृत्ति, पत्र १) शस्त्रपरिज्ञाविवरणमतिगहनमितीव किल वृतं पूज्यः। श्रीगन्धहस्तिमिविवृणोमि ततोऽहमवशिष्टम् ॥२॥ (आचारांग वृत्ति, पत्र ७४) हिमवंत थेरावली के अनुसार आर्य गंधहस्ती ने बारह अङ्गों पर विवरण लिखा था। आचारांग सूत्र का विवरण विक्रम संवत् के दो सौ वर्ष बाद लिखा गया। ऊपर उद्धृत आचारांग वृत्ति के श्लोकों से इस अभिमत की पुष्टि नहीं होती कि आर्य गन्धहस्ती ने समग्र आचारांग पर विवरण लिखा था । आचारांग भाष्य आचारांग के व्याख्या ग्रन्थों में इसका अपना विशिष्ट स्थान है । अनेक वर्षों से मेरे मन में एक कल्पना थी कि आगम पर भाष्य लिखा जाए । मेरी भावना आचार्य महाप्रज्ञ तक पहुंची और इन्होंने सरल संस्कृत भाषा में आचारांग भाष्य का प्रणयन कर दिया। इन्होंने चूणि और वृत्ति से हटकर अनेक शब्दों, पदों और सूत्रों का सर्वथा नया अर्थ किया है । वह अर्थ स्व-कल्पित नहीं, किंतु सूत्रगत गहराई में पैठने की सूक्ष्म मेधा से प्राप्त है। यह आचारशास्त्र का शलाकाग्रन्थ आचार की यथार्थता का बोध देगा और आगम-परम्परा में अपना वैशिष्ट्य स्थापित करेगा। -गणाधिपति तुलसी १. उत्तराध्ययन चूणि, पृ० २-३ । ४. जीतकल्पसूत्र, प्रस्तावना, पृ० ११-१५: पुष्पिकागत २. आचारांग वृत्ति, पत्र २८८: ब्रह्मचर्याख्यश्रुतस्कन्धस्य रचना-संवत् भिन्न-भिन्न आदों में भिन्न-भिन्न प्रकार का नितिकुलीनशीलाचार्येण तत्वादित्यापरनाम्ना बाहरि- मिलता है । देखिए–'जैन आगम साहित्य मां गुजरात', साधुसहायेन कृता टीका परिसमाप्ता। पृ० १७६। ३. वही, पत्र २८८ : ५. प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ० १९८ । द्वासप्तत्यधिकेषु हि शतेषु गतेषु गुप्तानाम् । संवत्सरेषु मासि च, भाद्रपदे शुक्लपञ्चम्याम् ॥ शीलाचार्येणकृता, गम्भूतायां स्थितेन टोकषा। सम्यगुपयुज्य शोध्यं, मात्सर्यविनाकृतरायः ॥ Jain Education international Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रम २९५ ३५३ ४०५ • सूत्र-भाष्यानुसारी विषय विवरण • उपोद्घात १. सत्थपरिण्णा (शस्त्रपरिज्ञा) २. लोगविजओ (लोकविचय) ३. सीओसणिज्ज (शीतोष्णीय) ४. सम्मत्तं (सम्यक्त्व) ५. लोगसारो (लोकसार) ६. धुयं (धुत) ८. विमोक्खो (विमोक्ष) ९. उवहाणसुयं (उपधानश्रुत) • परिशिष्ट १. सूत्रानुक्रम २. (क) अध्ययनगत पद्यांश तथा पद्य (ख) ८1८ तथा ९वें अध्ययन का पदानुक्रम ३. विशेष शब्दार्थ ४. परिभाषापद ५. टिप्पणों में उल्लिखित विशेष विवरण ६. देशीशब्द ७. धातु और धातुपद ८. तुलना ९. आचारांग चूणि में उद्धृत श्लोक १०. आचारांग वृत्ति में उद्धृत श्लोक ११. सूक्त और सुभाषित १२. संधानपद • प्रयुक्त ग्रन्थ-सूची • वर्गीकृत विषय-सूची ४४९ ४५७ ४६२ ४७६ . . CHदर .. ५२४ ५३० ५३१ ५३५ आचारांगभाष्य का ग्रन्थान अनुष्टुप् श्लोक परिमाण-४०२५ Jain Education international Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education international Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल सूत्र तथा भाष्यगत विषय-विवरण पहला अध्ययन सूत्र १-४. आत्मा का अस्तित्व • पूर्व जन्म और पुनर्जन्म का निषेध • पूर्वजन्म और पुनर्जन्म का संज्ञान • आत्मा औपपातिक-पुनर्जन्मधर्मा है या नहीं ? • पूर्वजन्म-पुनर्जन्म के संज्ञान के तीन हेतु ० पूर्वजन्म की स्मृति के निमित्त--- ० मोहनीय का उपशम ० अध्यवसायशुद्धि • ईहापोहमार्गणगवेषणा • तदावरणीयकर्म का क्षयोपशम • जाति-स्मृति की इयत्ता • जाति-स्मृति सबको क्यों नहीं? • संज्ञा-ज्ञानसंज्ञा अनुभवसंज्ञा • 'सोऽहं' आत्मा का लक्षण ० दिग्-अवबोध ५. चार वाद-आत्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद,क्रियावाद ६. आस्तव • क्रिया से कर्मबन्ध, कर्मबन्ध से भव-संचरण ० क्रिया के नौ प्रकार ० क्रिया का अपर नाम आस्रव ७. संवर ० कर्म समारम्भ की परिज्ञा ० परिज्ञा का बोध ८. परिजातकर्मा • पूर्वजन्म की स्मृति से परिज्ञातकर्मा की दिशा में प्रस्थान • क्या कर्म-त्याग संभव है ? । • करणीय-अकरणीय का विवेक • संयमपूर्वक किया गया कर्म अकर्म कहलाता है ९-१०. प्रवृत्ति के स्रोत • सात मौलिक मनोवृत्तियां जिजीविषा, प्रशंसा, मानन, पूजन, जन्म-मरण, मोचन, दुःख का प्रतिघात । ११-१२. संवर की साधना • सभी कर्म-समारम्भ परिज्ञातव्य • कर्म का अर्थ प्रवृत्ति ० परिज्ञातकर्मा-गीता और महावीर के अनुसार ० मुनि और पण्डित की एकवाच्यता १३-१४. अज्ञान • हिंसा में कौन प्रवृत्त होता है ? • चार प्रकार के पुरुष हिंसा में प्रवृत्त होते हैं। १५-२७. पृथ्वीकायिक जीवों को हिंसा १५. पृथ्वीकायिक हिंसा के दो कारण -मरणभय तथा विषयाकुलता १६. पृथ्वी जीवों का अस्तित्व स्वतंत्र प्रत्येकशरीरी जीव • पृथ्वी की सजीवता : महावीर का नया पक्ष • प्रस्तुत अध्ययन में मनुष्य की विवक्षा न कर पहले पृथ्वी आदि प्राणियों की विवक्षा क्यों ? १७-१८. गृहत्यागी भी पृथ्वीजीवों की हिसा से विरत नहीं, यह महान् आश्चर्य। १९. पृथ्वी-जीवों की हिंसा करने वाला अन्यान्य जीवों का भी हिंसक • शस्त्र की परिभाषा तथा भेद • द्रव्यशस्त्र के तीन प्रकार २३. हिंसा से अहित और अबोधि । २४. हिंसा और उसके परिणाम को जानने वाला ही संयम के प्रति उत्थित । ० आदानीय का अर्थ संयम २५. हिंसा ग्रन्थि है, मोह है, मृत्यु है, नरक है। २६. सुख-सुविधा में मूच्छित व्यक्ति हिंसा में प्रवृत्त २७. पृथ्वी-जीवों की हिंसा करने वाला अन्य जीवों का भी हिंसक। २८-३०. पृथ्वीकायिक जीव का जीवत्व और वेदना-बोध २८. इनके जीवत्व में अतीन्द्रिय ज्ञान ही प्रमाण • जीवत्व संसिद्धि में पूर्वाचार्यों की युक्तियां • जीवत्व संसिद्धि में भूवैज्ञानिकों का मत • पृथ्वी के जीव में चैतन्य ही नहीं, उसमें ... श्वासोच्छवास, करण, वेदना, शरीर की अवगाहना, दृश्यता, भोगित्व, आश्रव आदि, जरा और शोक, उन्माद, संज्ञा, ज्ञान, आहारार्थिता, पर्यव, इन्द्रियज्ञान से अज्ञेयता, कषाय, लेश्याइन सोलह तथ्यों का अस्तित्व है। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ • आभामंडल का अस्तित्व • पृथ्वीजीव न सुनते हैं, न देखते हैं, न सूंघते हैं. न चलते हैं, फिर उनमें वेदना-बोध कैसे ? ० वेदना-बोध का पहला दृष्टांत २९-३०. वेदना-बोध के प्रतिपादक दो दृष्टांत ३१-३४. हिंसा-विवेक ३२. पृथ्वी-जीवों की हिंसा से विरति का मुख्य कारण ३३. प्रवृत्ति के तीन विकल्प-करना, कराना और अनुमोदन करना ३४. कौन मुनि परिज्ञातकर्मा ? ३५-३७. लक्ष्य के प्रति समर्पण ३५. अनगार कौन ? . सूक्ष्म जीवों की अहिंसा का आचरण कौन करता ३६. जिस श्रद्धा से अभिनिष्क्रमण करे, उसी को बनाए रखे। • विस्रोतसिका का परिहार । ... ३७. जो महापथ-अहिंसा के प्रति समर्पित हैं, वे ही - वीर हैं। ३८-५३. जलकायिक जीवों का अस्तित्व और अभयदान ३८. प्रत्यक्षज्ञानियों के प्रतिपादन से जलकायिक जीवों के अस्तित्व के स्वीकरण का कथन ० उन जीवों को भय उत्पन्न न करने का निर्देश ३९. अप्कायिक जीवों के अस्तित्व का अस्वीकार स्वयं के अस्तित्व का अस्वीकार • शिष्य का प्रश्न-अप्कायिक जीवों का अस्तित्व कैसे? ० नियुक्तिकार का सयुक्ति समाधान • जल-जीवत्व संसिद्धि में वैज्ञानिक अभिमत • जल-जीवत्व की संसिद्धि में १६ तत्त्व। ४०-५०. जलकायिक जीवों की हिंसा ५१-५३. जलकायिक जीव का जीवत्व और वेदना-बोध ५४-६५. हिंसा-विवेक ५४-५५. पानी की सजीवता को कोई दर्शन नहीं मानता। 'पानी में जीव' यह मान्यता है • अर्हत् शासन में पानी सचेतन है। ० वैज्ञानिकों का मत 'पानी में जीव' पर आधारित ५६-५७. जलकायिक जीवों के शस्त्र • नियुक्ति द्वारा निर्दिष्ट शस्त्र . . चूणि द्वारा निर्दिष्ट शस्त्र • महातप प्रपात का गर्म पानी सचेतन । ठंडा होने पर अचेतन । ५८. जल का प्रयोग अदत्तादान कैसे? आचारांगभाष्यम् ५९. अन्य दार्शनिकों की जलारम्भ विषयक विभिन्न मर्यादाएं। ६०-६१. अन्यतीथिकों की जलहिंसा की प्रवृत्ति और स्व शास्त्रों की सम्मति • निकरण शब्द के पर्याय ६२-६५. हिंसा-विवेक ६६-६८. अग्निकायिक जीवों का अस्तित्व ६६. अग्नि-जीवों के प्रत्यय के लिए नियुक्ति की युक्तियां ० वृत्ति तथा वैज्ञानिक मन्तव्य ० कर्मशास्त्रीय तथ्य ६७.० दीर्घलोक क्या ? कैसे? • दीर्घलोक का शस्त्र-अशस्त्र ६८. अग्निकायिक जीवों के द्रष्टा का स्वरूप ६९-८४. अग्निकायिक जीवों की हिंसा ६९. हिसा के दो कारण ७०. हिंसा न करने का संकल्प . मेधावी कौन ? ७१-७२. अनगार भी अग्नि-जीवों को हिंसा ७३. अग्निकायिक जीवों के शस्त्र ८२-८४. अग्निकायिक जीवों की हिंसा तथा उनका जीवत्व और वेदना-बोध ८५-८९. हिंसा-विवेक ८५. पृथ्वी के आश्रय में रहने वाले त्रस-स्थावर जीव । ८६-८९. अग्नि कर्म-समारंभ से मुक्त-अमुक्त । . षड्जीवनिकाय में तेजस्काय के पश्चात् वायुकाय का क्रम है। प्रस्तुत अध्ययन में तेजस्काय के बाद वनस्पतिकाय का वर्णन है । क्यों ? इसका समाधान ९०-९२. अनगार ० अहिंसा-व्रती का संकल्प ९१. हिंसा-विरति और सभी जीवों को अभय ९२. भिक्षु जो गृह-निर्माण करते हैं, वे अनगार नहीं ९३-९८. गृहत्यागी के वेष में गहवासी ९३. गुण और आवर्त्त ९४. गुण कहां होते हैं ? ९५. इन्द्रिय-विषय-जनित आसक्ति ० इन्द्रियों में चक्षु और श्रोत्र की प्रधानता • समाज की संघटना में आंख और कान की मुख्यता। ९६. इन्द्रिय विषय का लोक मूत्मिक ९७. अनाज्ञा में कौन ? ९८. गृहत्यागी भी गृहवासी ९९-१००. वनस्पतिकायिक जीवों की हिंसा Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलसूत्र तथा भाप्यगत विषय-विवरण १७४. पाप-कर्म कौन नहीं करता ? १७५. पाप-कर्म का अन्वेषण १७६-१७७. हिंसा-विवेक दूसरा अध्ययन १-३. आसक्ति १. गुण और मूलस्थान, विषय और लोभ की परस्परता २-३. विषयार्थी का परिताप और उसकी मनोदशा तथा प्रवृत्ति १०१. वनस्पतिकाय के शस्त्र ११०-११२. वनस्पतिकायिक जीव का जीवत्व और वेदना-बोध ११३. वनस्पति के जीवों की मनुष्य से तुलना __• चूर्णि तथा वृत्ति के विशेष तथ्य ११४-११७. हिंसा-विवेक | ११८-१२०. संसार ११८. त्रस जीवों के प्रकार ११९. त्रसकाय ही संसार १२०. मंद और अज्ञानी को भी त्रस-संसार ज्ञात १२१-१२२. सभी जीव सुखाकांक्षी। • 'सात' पद के एकार्थक • हिंसा-विरति के दो साधक तथ्य-सात इष्ट, असात अनिष्ट । ० प्राण, भूत, जीव और सत्त्व की व्याख्या १२३-१३६. त्रसकायिक जीवों की हिंसा १२३. त्रसकाय के लक्षण • जो त्रस्त होते हैं, वे त्रस । १३७-१३९. त्रसकायिक जीव का जीवत्व और वेदना-बोध १४०-१४४. हिंसा-विवेक • प्राणिवध का प्रयोजन। चूणि और वृत्ति में उल्लिखित प्राणिवध की परंपराएं। ० प्रतिशोध, प्रतिकार और आशंका से किया जाने वाला प्राणिवध । १४५-१४९. आत्म-तुला १४५. क्या वायुकाय की हिंसा का निवारण शक्य है ? १४६. हिंसा-विरति के आलंबन-सूत्र १४७. अध्यात्म-पद के विभिन्न अर्थ । • प्रिय और अप्रिय का संवेदन है अध्यात्म । • हिंसा-विरति का आलम्बन-सूत्र १४८. आत्म-तुला का अवबोध हिंसा-विरति का आलम्बन ४-२६. अशरण भावना और अप्रमाद ४. अल्प आयुष्य का विचय-सूत्र ० मरण के विषय में विज्ञान और आगम का अभिमत ५. अवस्था के तीन प्रकार । मध्यम अवस्था में इन्द्रिय हानि। ६. इन्द्रियों की मूढता कब? ७-८. अशरणानुप्रेक्षा सम्बन्धी विचय-सूत्र ९. अहोविहार के लिए प्रस्थान ११-१३. अप्रमाद का आलम्बन १३-१४. गुण और मूलस्थान में प्रवृत्त पुरुष हिंसा-रत .....१५. अर्थार्जन का मानसिक हेतु अथवा मनोवैज्ञानिक अह संबद्ध अभिप्रेरणा १६-१७. अशरण-अनुप्रेक्षा के आलम्बन-सूत्र १८. सन्निधि-सन्निचय क्यों ? १९. रोगों की उत्पत्ति उपभोग में बाधक २०-२१. अशरण-सूत्र २२. सुख-दुःख अपना-अपना २३. अहोविहार के लिए प्रथम तथा द्वितीय वय उपयुक्त २४. क्षण को जानो। क्षण क्या ? २५-२६. इन्द्रिय-प्रज्ञान के पूर्ण रहते अहोविहार के लिए प्रस्थान करने का निर्देश २७-३५. अरति की निवृत्ति २७. मेधावी अरति का निवर्तक २८. अरति-निवारण का फल २९. पुनः गृही कौन बनता है ? ३०. पुनः गृही बनने के दो कारण ३१. परिग्रह और काम की एकसूत्रता ३२. कामभोग में रक्त कौन ? ३३. मोह और विषयासक्ति का पोर्वापर्य ३४. न गार्हस्थ्य और न संयम ३५. विमुक्त कौन ? सूत्र १४९. वायुकाय की हिंसा के प्रसंगों के निवारण का निर्देश १५०-१६०. वायुकायिक जीवों की हिंसा १५२. वायुकाय के शस्त्र ० अचित्तवायु के पांच प्रकार ० विभिन्न ग्रन्थों में वायुकाय के शस्त्र तथा सचित्त अचित्त वायु का कथन । १६१-१६३. वायुकायिक जीव का जीवत्व और वेदना-बोध १६४-१६८. हिंसा-विवेक १६९-१७५. मुनि को संबोध १६९. वायुकाय की हिंसा कौन करते हैं ? Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ३६-३९. अनगार ३६. अलोभ से लोभ को पराभूत करना • अलोभ और लोभ--दोनों चित्तधर्म ० अकर्मा प्रवृत्ति-चक्र से मुक्त ३८-३९. अनगार वह होता है ४०-४५. दंड-प्रयोग ४०. धृति रहित पुरुष का मनस्ताप ४१. अनेक प्रकार के बल ४२-४४. दंड-प्रयोग के विभिन्न प्रयोजन ४५. बल-प्राप्ति के चार हेतु ४६-४८. हिंसा-विवेक ० दंड-समारम्भ न करने का निर्देश • आर्य-मार्ग और कुशल को निर्देश ४९-५६. समत्व ४९. सम्मान की वांछा भी परिग्रह • उसकी विमुक्ति का विचय-सूत्र • उच्चगोत्र और नीचगोत्र की समीक्षा ५०. गोत्रवाद की निरर्थकता ५१. समता का अनुभव ५२. नीचगोत्र का अनुभव दुःख क्यों ? ५३. कर्म-विपाक का निदर्शन-कोई अंधा, कोई बहरा ५५. प्रमाद से नानारूप योनियों की प्राप्ति ५६. कर्म-विपाक के अज्ञान से भव-भ्रमण ५७-७४. परिग्रह और उसके दोष ५७-५८. ममत्व-ग्रन्थि की सुदृढ़ता ५९. परिग्रही व्यक्ति में न तप, न दम और न नियम ६०. परिग्रही सुखार्थी होकर भी दुःखी ६१. ध्रुवचारी अपरिग्रह के मार्ग पर ६२. अप्रमत्तता का आलम्बन-सूत्र-मृत्यु के प्रति सजगता ६३-६४. सब प्राणी जीना चाहते हैं ६५. परिग्रह के लिए हिंसा और निग्रह • धन की बहुलता के तीन साधन ६६-६७. धन के प्रति मूर्छा ६८. धन की तीन अवस्थाएं । तीसरी अवस्था-विनाश की अपरिहार्यता ६९. अर्जन दुःख का हेतु ७१. क्रूरकर्मा परिग्रही मनुष्य की पारगमन में असमर्थता ७२. अनात्मविद् परिग्रह का परिहार करने में असमर्थ • आदानीय शब्द की मीमांसा ७३. द्रष्टा व्यपदेश से अतीत ७४. अद्रष्टा व्यपदेश के घेरे में आचारांगभाष्यम ७५-१०३. भोग और भोगी के दोष ७५. भोग से रोग ७६. रोग के कारण तिरस्कार ७७. त्राण और शरण का अर्थ ७८. सुख-दुःख अपना-अपना ७९. कामभोग का परिणाम ८०-८५. अर्थार्जन और अर्थ-बिनाश की मीमांसा ८६. आशा और छंद का त्याग ८७. शल्य का सृजन और उद्धरण ८८. जिससे होता है उससे नहीं भी होता ८९. मोहावृत मनुष्य का अज्ञान ९०. स्त्रियों से प्रत्यथित कौन ? ९१. स्त्रियां आयतन कैसे? ९२. अनायतन में आयतन का अभिनिवेश ९३. मूढ व्यक्ति धर्म का अज्ञाता ९४. महामोह-कामभोग में प्रमत्त मत बनो ९५. कुशल प्रमत्त न हो ९६-९७. अप्रमाद की साधना के चार आलम्बन-सूत्र ९८-९९. विषयाभिलाषा की भयंकरता १००. काममुक्त हिंसा से विरत १०१-१०३. अदान में समता का निर्देश १०४-१२०. आहार की अनासक्ति १०४. पचन-पाचन किसलिए? १०५. संग्रह करना है मूल मनोवृत्ति १०६. सन्निधि-सचय है संधि १०७-१०६. सन्निधि तथा संनिचित आहार है आमगंध १०९. अनगार क्रय-विक्रय में व्याप्त न हो ११०. आहार की अन्वेषणा और अपरिग्रह की संरक्षणा के लिए भिक्षु के ज्ञातव्य ग्यारह गुण ० चणि की 'अप्रतिज्ञ' शब्द की अर्थ-परम्परा १११. ग्रहण में राग-द्वेष का वर्जन ११२. अनगार किन वस्तुओं की याचना करे ? ११३. आहार की मात्रा का परिज्ञान ११४-११५. आहार के लाभ और अलाभ में समभाव • मद और शोक का स्वरूप ० चूर्णिकार के अनुसार शोक-निवृत्ति का आलम्बन ११६-११७. आहार का संग्रह और ममत्व न करने का निर्देश ११८. अध्यात्म तत्त्वदर्शी पदार्थों का परिभोग अन्यथा करे ० अध्यात्म-साधक-गृहस्थ के लिए निर्देश ११९-१२०. पदार्थ सम्बन्धी अपरिग्रह मार्ग का स्वरूप । • पश्यक की परिभाषा और उसका स्वरूप Jain Education international Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलसूत्र तथा माध्यगत विषय-विवरण २९ १२१-१३९. काम की अनासक्ति : काम-मुक्ति १२१. कामनाओं की अनतिक्रमणता ० परिग्रह का मूल : काम १२२-१२३. कामनाओं के दुरतिक्रमण के दो हेतु १२४. कामकामी पुरुष की मनःस्थिति का चित्रण १२५. अपायविचय ध्यान की प्रक्रिया ० कामातिक्रमण का पहला उपाय-विपश्यना ० विपश्यना का स्वरूप १२६. काम-मुक्ति का दूसरा उपाय-अनुपरिवर्तनानुप्रेक्षा १२७. काम-मुक्ति का तीसरा उपाय-संधि-दर्शन २ संधि शब्द के विभिन्न अर्थ १२८. पराक्रम से काम-मुक्ति १२९. काम-मुक्ति का चौथा उपाय-निर्वेद १३०. अशुचित्वानुप्रेक्षा ० पुरुष के नो और स्त्री के बारह स्रोत १३१. काम-विपाक के दर्शन से काम-मुक्ति १३२. परिज्ञापूर्वक काम का परिहार ० काम-मुक्ति का विचार-विचयात्मक आलम्बन १३३. कामासक्ति की ओर मानसिक दौड़ १३४. पुरुष कामकामी होता है। ० प्रवृत्ति और वृत्ति १३५. कामात पुरुष वैरवृद्धि का कर्ता १३६. काम का आसेवन तृप्ति बढ़ाता है या अतृप्ति ? १३७. अमर की भांति आचरण किसका? १३८-१३९. आर्त कौन ? क्रन्दन क्यों ? १४०-१५०.काम-चिकित्सा १४०-१४४. काम-चिकित्सा में वनस्पति आदि जीवों का हनन १४५-१४६. हिसानुबंधी काम-चिकित्सा कराने वाला बाल १४७. अनगार के लिए हिसानुबंधी चिकित्सा का निषेध १४८. सावद्य चिकित्सा और संयम १४९. पापकर्म का परिहार १५०. एक जीवनिकाय की हिंसा अर्थात् छहों जीव-निकायों की हिंसा • एक का अतिमात-सब का अतिपात १५१-१५९. परिग्रह का परित्याग १५१. पुरुष हिंसा क्यों करता है ? समाधान १५२. प्रमाद से गति-चक्र १५३. हिंसा और परिग्रह में प्राणी व्यथित १५४. हिंसा और परिग्रह का अनिकरण है परिज्ञा १५५. परिज्ञा से कर्मोपशांति १५६. परिग्रह का त्याग कौन कर सकता है ? . ० चक्रवर्ती भरत का उदाहरण • बुद्धिगत परिग्रह और पदार्थगत परिग्रह १५७. दृष्टपथ कौन ? १५९. लोक और लोकसंज्ञा १६०-१६५. अनासक्त का व्यवहार : कर्म-शरीर का प्रकंपन १६०-१६२. कर्म-शरीर के प्रकंपन के ध्यानात्मक उपाय । १६०. वीर अरति और रति को सहन नहीं करता। ० मन की विशिष्ट अवस्थाएं अरति और रति • अप्रमाद की साधना का रहस्य १६१. साधक शब्द और स्पर्श को सहन करे । • श्मशान प्रतिमा • अपायविचय का उपाय १६२. प्रमोद का अपकर्षण १६३. मौन की प्राप्ति और कर्म-शरीर का प्रकंपन १६४. कर्म-शरीर के धुनन का उपाय : आहार-संयम १६६-१७०. संयम की सम्पन्नता और विपन्नता १६६. संयम से विपन्न कौन ? १६७. चरित्रहीन यथार्थ का निरूपण नहीं करता १६८. चरित्रवान् यथार्थ के निरूपण में समर्थ १६९. लोकसंयोग का अतिक्रमण १७०. नायक कौन ? १७१-१७३. बंध-मोक्ष १७१. दुःख की परिज्ञा • परिज्ञा के चार चरण १७२. कर्म की परिज्ञा १७३. कर्म-परिज्ञा का उपाय ० अनन्यदर्शी और अनन्याराम १७४-१५६. धर्मकथा १७४. धर्मकथा में विपन्न और अविपन्न का भेद नहीं ० अपरिग्रह का सिद्धांत धनी और अधनी-सबके लिए हितावह १७५. धर्मकथा में अन्य सिद्धांत का अनादर वयं १७६. विचार का आग्रह भी परिग्रह ० धर्मकथा कौन ? कैसे? ० धर्मकथा करने में विवेक की अनिवार्यता ० चार प्रकार के विवेक का पालन १७७. धर्मकथा करते समय दर्शन और पुरुष का विवेक १७८. धर्मकथा करने में श्रेष्ठ कौन ? १७९. सर्वपरिज्ञाचारिता का निर्देश १८०. हिंसा-कर्म से अलिप्त कौन ? • अहिंसा का हृदय ० निर्लेपतावाद का कथन १८१. अहिंसा का मर्मज्ञ कौन ? • अनुद्घातन का चूर्णिगत अर्थ Jain Education international Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२. सर्वपरिज्ञाचारी न बद्ध होता है और न मुक्त • प्रस्तुत सूत्र के चूर्णिगत और वृत्तिगत अर्थ १८३. बन्ध और मुक्ति के विधि-निषेध का ज्ञान १८४. परिग्रह और हिंसा का कार्यकारणभाव १८५. परिग्रह के अपाय और अपरिग्रह के गुण को देखने वाले के कोई उपाधि नहीं १८६. बाल कौन ? • इन्द्रिय-विषयों का आसेवन वास्तव में दुःख तीसरा अध्ययन १-२५. सुप्त और जागृत १. सुप्त और जागृत के दो-दो प्रकार . अमुनि सोता है, मुनि जागता है • ज्ञानयोग की फलश्रुति २. दुःख की मीमांसा और उसका परिणाम ३. हिंसा-विरति का आलम्बन सूत्र • अहिंसा और अपरिग्रह के संदर्भ में समता की व्याख्या ४. आत्मवान्, ज्ञानवान् आदि की व्यापक सन्दर्भ में व्याख्या • भेदविज्ञान का वाचक सूत्र ५. मुनि, धर्मविद् और ऋजु कौन ? ६. संग है आवर्त और स्रोत • स्रोत शब्द के अनेक अर्थ ७. निर्ग्रन्थ कौन ? ८. वीर कौन ? ९. सुप्त अमित्र, जागृत मित्र १०. सुप्त : धर्म का अज्ञाता ११-१२. भावसुप्त पुरुष के अपाय १३. दुःख का उत्पादक है आरम्भ १४. पुनर्जन्म के दो कारण -माया और प्रमाद १५. मृत्यु से मुक्त होता है ऋजु १६-१७. क्षेत्रज्ञ की परिभाषा और स्वरूप ० संयम और असंयम-दोनों का ज्ञान अन्योन्याश्रित १८. कर्ममुक्त का व्यपदेश नहीं होता १९. कर्म से उपाधि २०. कर्म-निरीक्षण का निर्देश २१. हिंसा का मूल २२. कर्म-प्रतिलेखन २३. वीत राग की पहचान आचारांगभाज्यम् २४-२५. लोकसंज्ञा का परित्याग और जागरण की दिशा में प्रस्थान २६-४१. परम-बोध २६. जन्म-मरण को देखने का निर्देश ० पौर्वापर्य की स्मृति का लोप क्यों ? २७. कर्म-बन्ध और कर्म-बिपाक का अन्वेषण २८. त्रिविद्य परम का ज्ञाता होता है। ० परम की व्याख्या ० त्रिविद्य कौन ? २९. पाश का विमोचन ३०. हिंसाजीवी सर्वत्र भयभीत ३१. संचय का मूल कारण ओर उसका परिणाम ३२. आमोद-प्रमोद के लिए प्राणीवध • वर-परम्परा की अभिवृद्धि ३३. हिंसा में आतंक देखना पाप-निवृत्ति का आलम्बन ३४. अग्र और मूल का विवेक • राग-द्वेष मूल और कर्म अग्न ३५-३७. आत्मदर्शी कौन ? आत्मदर्शन का परिणाम ३८. ज्ञानी पुरुष की जीवनचर्या के सात सूत्र ३९. पापकर्म का क्षय दीर्घकाल-सापेक्ष ४०. 'सत्य' पद के १२ अर्थ • प्रकरणगत सत्य शब्द के दो अर्थ ० कर्म-क्षय के लिए धृति की अपेक्षा ४१. पापकर्म के क्षय का उपाय ४२-४३. पुरुष की अनेकचित्तता ४२. प्रमत्त और लोभी का चित्त • चलनी को पानी से भरना • लाभ और लोभ • लाभ से इच्छा की अपूर्ति ४३. अनेक चित्त वाले व्यक्ति के धनोपार्जन के प्रकार ४४-५०. संयमाचरण ४४. संयम-साधना में संलग्न व्यक्ति का कर्तव्य ४५. अनन्य-आत्मा में रमण करने के दो हेतु ४६-४७. आत्मरमण के दो लक्षण-अहिंसा और ब्रह्मचर्य ४८. पाप का अनादर कौन करता है ? ४९. लघुभूतकामी की व्याख्या और प्रवृत्ति ५०. निमज्जन और उन्मज्जन ५१-७०. अध्यात्म ५१-५३. हिंसा-विरति के दो हेतु ५४. पाप-कर्म न करने के दो हेतु ५५. चित्त की प्रसन्नता का हेतु समता का आचरण • समता है निविचारता Jain Education international Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल सूत्र तथा भाष्यगत विषय-विवरण ५६. अनन्यपरम के प्रति अप्रमत्त रहने का निर्देश जीवन-यात्रा के लिए परिमित भोजन का विवेक ५७. रूप अर्थात् पदार्थ के प्रति विरक्ति • वैराग्य का निर्वचन . ५८. विराग का आलम्बन-आगति और गति का ज्ञान ५९-६०. अतीत और अनागत की सम्बन्ध-योजना के विभिन्न मत ६१. अरति और रति के रेचन का उपाय ६२. मित्र कहां-भीतर या बाहर ? ६३. जो उच्चालयिक वह दूरालयिक ६४. दुःख-मुक्ति का उपाय --आत्म-निग्रह ६५. आत्म-निग्रह का साधन ६६. मृत्यु का अन्त कैसे? ६७. श्रेय का साक्षात्दर्शी कौन ? ६८. प्रमाद का हेतु ६९. रागझंझा और द्वेषझंझा का उत्पादक ७०. लोक के दृष्ट-प्रपंच से मुक्त कौन ? ७१-८७. कषाय-विरति ७१. लोक के दृष्ट-प्रपंच से मुक्त होने की प्रक्रिया ७२. पश्यक का दर्शन : कषाय विरेचन • उपरतशस्त्र की परिभाषा ७३. आदान का निषेध : कर्म का भेदन ७४. एक को जानना है सबको जानना ० एक वस्तु का स्वभाव समस्त वस्तुओं का स्वभाव ० जो सबको नहीं जानता, वह एक 'आकार' अक्षर को भी नहीं जानता • मलधारि हेमचन्द्रसूरी का अभिमत ७५. प्रमत्त को भय, अप्रमत्त को भय नहीं ७६. एक कषाय का नाश, सभी कषायों का नाश • कषाय-वमन के दो प्रकार ७७. कषाय का क्षपण-वमन ७८. लोक-संयोग का त्याग और महायान पर प्रस्थान • संयम-पर्याय और तेजोलेश्या का सम्बन्ध • संयम-पर्याय के साथ तेजोलेश्या का संवर्धन ७९. क्षपणक्रिया का स्वरूप ८०.क्षपकश्रेणी में आरूढ होने के इच्छक अनगार की दो अर्हताएं ८१. अप्रमत्तता से अभय • अकषायी को दुःख नहीं ८२. शस्त्र उत्तरोत्तर तीक्ष्ण, अशस्त्र एकरूप ८३. दुःख के मूल कारणों का निर्देश • एक कारण से दूसरे कारण की संयुति ८४. दुःख के कारणों का क्रमशः नाश ८५. पश्यक का दर्शन ५६. आदान के संवरण से कर्म-भेदन । ८७. द्रष्टा के उपाधि नहीं चौथा अध्ययन १-११. सम्यग्वाद : अहिंसा-सूत्र १. अर्हत् द्वारा प्रतिपादित अहिंसा-सूत्र • प्राण, भूत, जीव और सत्त्व का निर्वचन ० अहिंसा-सूत्र के पांच आदेश २. अहिंसा धर्म शुद्ध, नित्य और शाश्वत • धर्म का मूल स्रोत आत्मज्ञता, बुद्धि नहीं • आत्मवित् सर्वविद् ३. धर्म के प्रतिपादन का उद्देश्य सार्वभौम और उसके दस विकल्प ४. 'सव्वे पाणा ण हतब्वा'-सम्यग्दर्शन का वाचक ० रोचक-सम्यग्दर्शन और कारक-सम्यग्दर्शन ५. अहिंसा व्रत को आजीवन पालन करने का निर्देश और उसका कारण ६-७. अहिंसा व्रत की अनुपालना में दो बाधाएं __• दृष्ट शब्द का विशेष अर्थ ८. अहिंसा या अध्यात्म का आधारभूत तत्त्व ९. अहिंसा-सूत्र की कालिकता और वैज्ञानिकता १०. गतिचक्र का हेतु-हिंसा में लीनता ११. प्रमत्त व्यक्ति धर्म से बाहर • प्रमाद और हिंसा तथा अप्रमाद और अहिंसा की अनुस्यूति १२-२६. सम्यग्ज्ञान : अहिंसा सिद्धांत की परीक्षा १२. जो आस्रव हैं वे परिस्रव हैं, जो परिस्रव हैं वे आस्रव हैं • चार विकल्प • कर्म-बंध और कर्म-निर्जरण के रहस्य . कर्मवाद के रहस्यों की अवगति की फलश्रुति १३. धर्म-बोध किनको? १४. अहिंसा को स्वीकार करने वाले कौन-कौन ? • आर्त्त के प्रकार १५. भाव-परिवर्तन की यथार्थता १६. संबोधि के दो आलम्बन-सूत्र १७. अधोलोक के कष्टों के संवेदन का हेतु १८. संवेदन की तरतमता और उसका हेतु १९. हिंसा-फल का प्रतिपादन सर्वसम्मत या नहीं? २०. हिंसा का समर्थन करने वाले दार्शनिकों का मत Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ आचारांगमाध्यम २१. हिंसा का प्रवर्तक वचन अनार्यवचन ० आर्य-अनार्य का अर्थ-बोध २२-२४. आर्यों द्वारा प्रतिपादित तथ्य २५-२६. दार्शनिकों से प्रश्न-क्या आपको दुःख प्रिय है या अप्रिय ? ० अहिंसा परायण मुनि का उत्तर २७-३९. सम्यग् तप २७. अहिंसा से विमुख जगत् की उपेक्षा . उपेक्षा का अर्थ-बोध २८. धर्म का ज्ञाता मृतार्च ___० देहासक्ति से विमुक्तता और ऋजुता धर्मविद् होने की कसौटी २९. दुःख का मूल हिंसा ३०-३१. दुःख-मुक्ति का उपाय-परिज्ञा ३२. कर्मक्षय का उपाय-अन्यत्वानुप्रेक्षा, एकत्वानुप्रेक्षा ० कषाय-आत्मा के अपकर्षण का क्रम ३३. कर्म-शरीर के नाश के लिए अग्नि का दृष्टांत ३४. क्रोध के अपनयन का उपाय' ३५. क्रोध से दुःख की सृष्टि ३६-३७. क्रोध से उत्पन्न कष्ट और रोग ३८. अनिदान-बन्धनमुक्त कौन ? ३९. त्रिविद्य पुरुष प्रतिसंज्वलन न करे ४०-५३. सम्यग-चारित्र ४०. संयम-जीवन की तीन भूमिकाएं • आपीडन, प्रपीडन और निष्पीडन की व्याख्या ४१. उपशांत के कर्मक्षय का कालमान ४२. महावीर के मार्ग की दुरनुचरता ४३. कामासक्ति के प्रतिकार का उपाय ४४. समुच्छय और ब्रह्मचर्य का अर्थ-बोध ४५. जितेन्द्रियता की साधना के बाधक तत्त्व ४६. आदि, अन्त और मध्य की मीमांसा ४७-४८. आरम्भ से उपरत कौन ? ४९. विषयाशंसा से प्रेरित मनुष्य की दशा ५०. निष्कर्मदर्शी बनने का उपाय • आचार्य अमृतचन्द्र का कथन ५१. कर्म की अवन्ध्यता • कर्म का अर्थ और धारणा ५२. सम्यक्त्व का फल ५३. द्रष्टा निरुपाधिक होता है पांचवां अध्ययन १-१८. काम १. अर्थहिंसा और अनर्थहिंसा २. हिंसा के तीन प्रयोजन - ० काम की दुस्त्यजता • चार पुरुषार्थ ३. मदनकाम प्रधान पुरुष सुख से दूर • 'मार' शब्द के विभिन्न अर्थ ४. कामी पुरुष की मनोदशा ५. कामासक्त व्यक्ति जीवन की अनित्यता से अजान ६-८. मोहासक्ति से भवचक्र ९. संशय को जानना संसार को जानना है १०. इन्द्रियजयी मैथुन से विरत ११. मंदमति की दोहरी मूर्खता १२. भोग धर्म से बाह्य हैं १३. शरीर की आसक्ति से विषयासक्ति १४. आसक्तिचक्र में फंसे मनुष्य के दुःख की परम्परा १५. तीन प्रकार के मनुष्य- अल्पेच्छ, महेच्छ तथा इच्छारहित १६. विषयाकांक्षा से अशरण को शरण मानना १७. एकलविहार के अयोग्य की चर्या १८. जन्म-मरण के आवर्त में चक्कर १९-३०. अप्रमाद का मार्ग १९. अनारंजीवी कौन ? २०. अनारंभजीवी को होता है 'संधि' का साक्षात्कार • 'संधि' पद का अर्थ-बोध • प्राचीन ग्रन्थों के सन्दर्भ में 'संधि' पद की मीमांसा • अतीन्द्रियज्ञान की रश्मियों का निर्गमन 'संधि' ० 'करण' पद का अर्थ ० सुश्रुतसंहिता में २१० संधियां और १.७ मर्म-स्थल • मर्म-स्थल की परिभाषा २१. ध्यान-सूत्र २२-२३. अप्रमाद का मार्ग ० उत्थित होकर प्रमाद न करने का कारण • जलकुंभी का उदाहरण • प्रमाद और अप्रमाद दशा में उदीरणा और संक्रमण क्या? कैसे? २४. सुख-दुख अपना-अपना २५. नाना अध्यवसाय, नाना सुख-दुःख २६. अनारंभजीवी और सूक्ष्म जीवलोक २७. सम्यक्-पर्याय कौन ? २८. तपस्वी और संयमी रोग से आक्रांत क्यों ? • संयम और रोग की भिन्न हेतुकता Jain Education international Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल सूत्र तथा भाष्यगत विषय-विवरण २९. रोग और आतंक से उत्पन्न कष्ट को सहन करने का आलम्बन-सूत्र • शरीर की विपरिणामधर्मिता का चिंतन ३०. सहज विरत के लिए साधना के मार्ग का कोई निर्देश नहीं। • शरीर की संधि को देखना देहातीत होना है ३१-३८. परिग्रह ३१. मूर्छा है परिग्रह ३२. परिग्रह महान् भय का हेतु ० लोकवृत्त को देखने का निर्देश ३३. पदार्थ अज्ञानी के लिए आसक्तिकारक ३४. परिग्रह-संयम का निर्देश ३५. ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की अनुस्यूति . ब्रह्मचर्य के तीन अर्थ ३६. आत्मा ही बन्ध और प्रमोक्ष की कर्ता ३७. अपरिग्रहजनित परीषहों को जीवनपर्यन्त सहने का निर्देश • प्रमत्त की सिद्धि नहीं ३८. मौन अर्थात् अपरिग्रह के ज्ञान का अनुपालन ३९-६१. अपरिग्रह और काम-निर्वेद ३९. अपरिग्रह और अमूर्छा का तादात्म्य ४०. समता धर्म के अनुपालन का निर्देश ० समता का स्वरूप • सामायिक के तीन प्रकार ४१. त्रिपदी की समन्वित आराधना के विषय में भगवान् का कथन और शक्ति के गोपन का निषेध ४२. शक्ति का नानात्व : मनुष्यों का नानात्व ४३. भिक्षु और गृहस्थ के तीन-तीन लक्षण ४४. परिणामों की विचित्रता और शील के अनुपालन का उपदेश • 'यतमान' पद का अर्थ-बोध • 'शील' शब्द के अनेक अर्थ • लोकसार अर्थात् अपरिग्रह की फलश्रुति-अकाम और अझंझ। ४५. 'शक्ति का गोपन मत करो'--के विषय में शिष्य का प्रश्न और भगवान् का 'सारपद' की प्राप्ति का निर्देश ४६-४७. आत्मयुद्ध के सन्दर्भ में परिज्ञा और विवेक का प्रतिपादन ४८-४९. धर्म-च्युत का जन्म-मरण ५०. संविद्धपथ-मुनि का चिंतन ५१. अहिंसा और संयम का मूल ५२. सुख अपना-अपना ५३. यश की कामना का निषेध ५४. साधक एकात्ममुख हो ० विदिशा क्या? ५५. वसुमान के लिए पाप अकरणीय • सर्वसमन्वागतप्रज्ञा का निर्देश ५६. पापकर्म के अन्वेषण का निषेध ५७. सम्यक्त्व और संयम का अविनाभाव ५८. संयम की साधना के लिए कौन योग्य? कौन अयोग्य ? ५९. ज्ञान और कर्म-शरीर का प्रकंपन ६०. समत्वदर्शी का आहार ६१. तीर्ण, मुक्त और विरत कौन ? ६२-६८. अव्यक्त का एकाकी विहार ६२. अव्यक्त मुनि के एकलविहार में होने वाले अपाय ० व्यक्त और अव्यक्त कौन ? ६३. एकाकी साधना का उपद्रव ६४. अव्यक्त अहंकार और मोह से मूढ ६५. अव्यक्त परीषह और उपसर्गों को सहना नहीं जानता ६६. अव्यक्त अवस्था में एकाकी विहार के संकल्प का निषेध ६७. महावीर का दर्शन ६८. साधक की इस दर्शन में तल्लीनता ६९-७०. ईपिथ ६९. ईर्यापथ की विधि ७०. ईर्यापथ का कर्तव्य ७१-७४. कर्म का बन्ध और विवेक ७१. गुणसमित व्यक्ति के कर्मबन्ध होता है या नहीं ? ० कर्मबन्ध की विचित्रता ७२. ऐहिकभवानुबन्धी कर्मबन्ध ७३-७४. आकुट्टीकृत कर्म का विलय ७५-८८. ब्रह्मचर्य ७५. इन्द्रियजय की साधना के छह उपाय ७६-७७. स्त्रीजन और मोह ७८-८४. सनिमित्त और अनिमित्त कामोदय के प्रकार और उसकी चिकित्सा के उपाय ८५-८६. काममुक्ति के आलम्बन-सूत्र ० इन्द्रियसुख और दण्ड की व्याप्ति • काम कलहकर और आसंगकर ८७. ब्रह्मचारी के कर्त्तव्य और अकर्तव्य का निर्देश ८८. काम-विरति की उपादेयता Jain Education international Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगभाष्यम १२२. जन्म-मरण के वृत्तमार्ग का अतिक्रमण १२३-१४०. परम आत्मा • कर्मोपाधि निरपेक्ष आत्मा के स्वरूप का दिग्दर्शन और व्याख्या! ८९-९२. आचार्य • आचार्य की सरोवर से तुलना, साधना और गुणों का वर्णन ९३-९५ श्रद्धा ९३. शंकाशील को आत्म-समाधि नहीं ९४. दो प्रकार के शिष्य और उनकी मनोवृत्ति ९५. सत्य और निःशंक है वीतराग का वचन ९६-९८ माध्यस्थ्य ९६. सम्यग असम्यग् का विवेक निश्चयनय और व्यवहार नय के परिप्रेक्ष्य में ९७. सत्य की उपलब्धि मध्यस्थभाव से ९८. संधि का आचरण कैसे ? ९९-१०३. अहिंसा ९९. गुरुकुल-निवास के लाभ १००. "हिंसा निर्दोष है'—यह बाल-कथन है १०१-१०३. अहिंसा का स्वरूप-कथन । आत्मा का अद्वैत । कृत-कर्म का अनुसंवेदन १०४-१०६. आत्मा १०४. ज्ञाता और ज्ञान-दोनों आत्मा ० ज्ञान आत्मा में ही। चूर्णिकार का वाच्य । १०५. आत्मा और ज्ञान का अभेद ० आत्मा ध्रुव, ज्ञान के परिणाम उत्पन्न-व्यय-युक्त १०६. आत्मवादी सम्यग्यर्याय–सत्य का पारगामी १०७-११५. पथ-दर्शन १०७. आज्ञा में अनुद्यमी और अनाज्ञा में उद्यमी १०८. कुमार्ग का निषेध १०९-११०. महावीर का दर्शन और साधक का कर्तव्य १११. परीषहों और उपसर्गों से अपराजित ही निरालम्बी होने में समर्थ ११२. मोक्षलक्षी बहिर्लेश्य न हो ११३. प्रवाद से प्रवाद को जानने का निर्देश ११४. प्रवाद की परीक्षा के तीन साधन ११५. अर्हत् के निर्देश का पालन ११६-१२२. सत्य का अनुशीलन ११६. अर्हत् सिद्धांत के निरीक्षण के तीन साधन ११७. आत्म-रमण की परिज्ञा और आगम के अनुसार पराक्रम करने का निर्देश ११८. स्रोत के प्रकार ११९. आवर्त से विरमण १२०. स्रोत का साक्षात्कार १२१. इन्द्रिय-विषय राग और द्वेष के हेतु कब ? ० स्रोत जन्म-मरण के कारण छठा अध्ययन १-४. ज्ञान का आख्यान १-२. आख्याता का स्वरूप ३. मुक्ति-मार्ग को सुनने वालों की चार अर्हताएं ४. मुक्ति-मार्ग को सुनकर पराक्रम करने वाले ५-७. अनात्मप्रज्ञ का अवसाद ५. अनात्मप्रज्ञ का मनस्ताप ६. कूर्म का दृष्टांत ० साधुत्व की प्राप्ति की दुर्लभता ७. अनात्मज्ञ गृहवास से मुक्त नहीं होते ८-२३. अचिकित्सा धुत ८. विभिन्न रोगों से ग्रस्त व्यक्तियों का निर्देश ० सोलह रोगों का कथन ९. अंध कौन ? . १०-११. अनात्मप्रज्ञ व्यक्तियों का बार-बार कष्टों का ___ अनुभव १२. विभिन्न प्रकार के प्राणी १३. चिकित्सा के लिए प्राणी-वध १४. प्राणीवध महाभय का कारण १५. दुःख से भय १६. कामना-आसक्ति से जन्म-मरण और रोग की वेदना १७. कामासक्त-शरीर की निर्बलता और व्यथा १८. आर्त अत्यन्त दुःखी और धृष्ट १९-२०. प्राणी-परितापकारक चिकित्सा की विधियां रोग के उन्मूलन में असमर्थ ० जीवहिंसाकारक चिकित्सा से कर्मोपशमन नहीं, कर्मों का उपचय २१. हिंसक चिकित्सा का निषेध २२. हिंसामूलक चिकित्सा महाभय की उत्पादक २३. हिंसामूलक चिकित्सा का निषेध २४-२९. स्वजन-परित्याग धुत २४. धुतवाद का प्रतिज्ञा-सूत्र २५. जन्मकाल की विभिन्न अवस्थाओं का वर्णन २६-२८. अभिनिष्क्रमण के समय होने वाली अवस्थाओं का वर्णन २९. आत्मानुसंधान का ज्ञान ३०-३९. काम्य-परित्याग धुत ३०. वसु-वीतरागसंयम और अनुवसु-सरागसंयम की Jain Education international Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल सूत्र तथा भाष्यगत विषय विवरण चर्चा तथा कुशील मुनि की संयम पालना में असमर्थता ३१. अर्हत शासन को छोड़ गृहस्थ या अन्यलिंगी ३२. परीषह-सहन का क्रमशः अभ्यास और उसकी प्रक्रिया ३३. काम से संयमत होने वाले को मृत्यु का अपाय दर्शन ३४. काम का स्वरूप और उसको तैरने का उपाय ३५. अप्रमाद - सूत्र • प्रणिधान के चार विकल्प ३६. वस्त्र आदि के प्रति अनासक्त मुनि की दृढता २७. महामुनि कौन ? ३८-३९. संग परित्याग के लिए एकत्वानुप्रेक्षा का विधान एकत्वानुप्रेक्षा: कर्म-प्रकंपन की प्रक्रिया 0 ४०-५१. अचेल धुत ४०. अचेलचर्या का स्वरूप ४१. अचेल मुनि की परीषह - तितिक्षा ४२-४३. अन मुनि की स्पर्शात्मक परीषद्वतिक्षा और उसका आलम्बन - सूत्र ४४. एकजातीय और अन्यजातीय परीषह-सहन का निर्देश ४५. अचेल मुनि और लज्जा परीषद् • पांच प्रकार के पुरुष ४६. विस्रोतसिका के परिहार का निर्देश ४७. धर्मक्षेत्र में वस्तुतः नग्न कौन ? ० नग्न साधना का प्रयोजन ४८. मुनि जीवन की साधना यावज्जीवन ४९. उत्तरवाद है अचेलधर्म की साधना ५०-५१ उत्तरवाद की अनुपालना करने वाला कौन ? ५२-५८. एकलचर्या ५२. गणचर्या और एकचर्या के योग्य कौन ? ५३. गच्छनित और गच्छन्तर्गत मुनि की एपणा-विधिः ५४. एकचर्या वाला मुनि अप्रतिबद्ध विहारी २५-५०. स्मशान प्रतिमा और परीष 'सुम' और 'दुमि' की मीमांसा ५९-६६. उपकरण - परित्याग धुत ५९. विधूतकल्प की व्याख्या ६०. अचेल अवस्था के गुण ६१-६२. अचेल मुनि के परीषह ० ६३. ० अचेल मुनि को लाघव की उपलब्धि • उपकरणलाघव और भावलाघव की परस्परता ६४. अल मुनि के तप ६५. ० अचेल मुनि सचेल को हीन न समझे • अचेलत्व के लाभ ६६. अचेलत्व अशक्य अनुष्ठान नहीं ६७-६९. शरीर लाघव धुत ६७. प्रज्ञानवान् मूर्ति के शरीर लाव ६८. श्रेणी को विश्रेणी ६९. तीर्ण, मुक्त और विरत ७०-७३. संयम धुत ७०-७१. अरति पर विजय पाने का उपाय ७२. संयमरति असंदीनद्वीपतुल्य ७३. संयम धुत की साधना का फलित ७४-७५. विनय धुत • विनययान् शिष्य ही एकाकिप्रतिमा और अपेलत्व के योग्य • विहगपोत का दृष्टान्त ७६-९८. गौरव-परित्याग धुत ७६-७७ दिन और रात में दी जाने वाली वाचना के विषय में भूमिगत प्राचीन परंपरा का उल्लेख तथा ज्ञान-मद के परिहार का निर्देश ७८. अहं तथा रस-गौरव और सात गौरव से आने बाली उडता ७९. प्रव्रजित मुनि की औदयिक भाव में होने वाली मनःस्थिति ० शास्ता के प्रति परुष वचन बोलने के चार हेतु ८०. शीलवान् को अशील कहने का अहं ३५ ८१. दोहरी मूर्खता ८२. सन्मार्ग से च्युत मुनि द्वारा दूसरों में शंका उत्पन्न करना ८३. गौरवत्रयी से संयम - विमुखता ८४. मुनित्व से पुनः गृहस्थ ८५. निष्क्रमण दुर्निष्क्रमण ८६. संयमच्युतमुनि साधारण लोगों से भी निदनीय ८७. अहं का हेतु - अल्पज्ञता या बहुज्ञता ? या दोनों ? ८८-९०. गौरवत्रयी वाले मुनि का व्यवहार ९१. गौरवत्रयी से पराभूत शिष्य को आचार्य का अनुशासन ९२. गौरवत्रयी से आस्रव में निमज्जन ९३. वीरवृत्ति से प्रव्रज्या लेने वाले का चिन्तन ९४. सहवृत से अभिनिष्क्रमण और शृगालवृत्ति से आचरण का निमित्त गौरवत्रयी ९५. व्रतों के लूषक कौन ? Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगभाष्यम् ९६. व्रत-च्युत मुनियों की अवहेलना ९७. मुनियों की प्रशंसा के चार हेतु ० गौरवत्रिक के कारण अप्रशंसा के चार हेतु ९८. प्रव्रज्या में विहरण करने की अर्हता के चार बिन्दु ९-१६. विवेक ९. तत्त्वचर्या के प्रसंग में हेतुवाद का निर्देश १०. आत्मसामर्थ्य को तोल कर वाद करने का परामर्श • 'गुप्ति' पद की व्यावहारिक दृष्टि से व्याख्या ११-१३. सभी वादियों में हिंसा सम्मत ० हिंसाजनक वाद का परिहार और स्वधर्म में प्रतिष्ठापन १४. धर्म गांव में या अरण्य में इस प्रश्न का समाधान १५. प्रव्रज्या-ग्रहण के लिए तीनों यामों की प्रासंगिकता १६. अनिदान कौन ? १७-२०. अहिंसा १७-१८. कर्म-समारंभ के विषय में भगवान् का निर्देश ० अहिंसा के लिए समर्पित व्यक्ति ही कर्म-समारंभ ९९. तितिक्षा धुत • तितिक्षा परम धर्म • अनुलोम और प्रतिलोम उपसर्गों को सहना १००-१०५. धर्मोपदेश धुत १००. धर्मोपदेशक की अर्हता १०१. धर्मोपदेश अहिंसा के विकास के लिए १०२. किन व्यक्तियों को किस प्रकार का धर्मोपदेश धर्म का स्वरूप-कथन १०३. धर्मोपदेश में विवेक १०४. 'विवेकपूर्वक धर्म-कथन' की विस्तार से व्याख्या १०५. धर्मोपदेष्टा किसी की आशातना न करे १०६-११३. कषाय-परित्याग धुत १०६. धर्मकथा-मर्मज्ञ का परिव्रजन कैसे? १०७. शांति की प्राप्ति के दो साधन १०८. संग को देखो १०९. इच्छाकाम और मदनकाम की वृद्धि के निमित्त ११०. स्वजन आदि का बधन अशांति का हेतु १११. कषायों का अनुबंध आरंभ से ० क्रोध आदि का कर्ता और विकर्ता कौन ? ११२. त्रोटक कौन? • मृत्यु के क्षण में शांतचित्त रहने का निर्देश ११३. पारगामी और फलकावतष्टी मुनि के लक्षण न जीने की आशंसा और न मरने की आशंसा आठवां अध्ययन १.२. असमनुज्ञ का विमोक्ष १. असमनुज्ञ तथा समनुज्ञ की पारस्परिकता २. असमनुज्ञ भिक्षु का निमंत्रण • दर्शन की विशुद्धि के लिए असमनुज्ञ के साथ आदान-प्रदान का निषेध ३८. असम्यग् आचार ३-४. असमनुज्ञ के साथ आदान-प्रदान के निषेध का कारण ५. विविध एकांगी वादों का निरूपण ६. 'मेरे धर्म में सिद्धि' का निरूपण ७. एकांगीवाद अहेतुक ८. एकांगीवादियों का धर्म न सुआख्यात और न सुनिरूपित १९. भिक्षु होकर भी हिंसा में रत २०. अभय साधक ही दंड-समारंभ से विरत २१-२९. अनाचरणीय का विमोक्ष २१-२४. अनाचरणीय का सेवन न करने का निर्देश २५. कृत आहार आदि स्वीकार न करने पर कर्मकरों द्वारा प्रदत्त कष्ट २६-२७. कष्ट की स्थिति में मुनि का कर्तव्य २८. असमनुज्ञ मुनि के साथ आदर के व्यवहार का निर्देश २९. समनुज्ञ मुनि के साथ कैसा व्यवहार ? ३०-३१. प्रव्रज्या मध्यम वय में प्रव्रज्या-ग्रहण का विशेष निर्देश ३२-३४. अपरिग्रह ३२. अपरिग्रह के मर्मवेत्ता ३३. अहिंसा और अपरिग्रह ही व्याप्ति ३४. अपरिग्रह की आराधना का हेतु ३५-४०. मुनि के आहार का प्रयोजन ३५. संयम-शरीर को धारण करने के लिए आहार ३६. आहार के बिना इन्द्रियशक्ति की क्षीणता ० आहार-प्रायोग्य पुद्गलों का आकर्षण ३७. दया का पालन करने के लिए आहार ३८. सन्निधान शस्त्र का ज्ञाता और दया ३९-४०. नियमित जीवन जीने वाले भिक्षु की विशेषताएं 1१-४२. अग्नि-सेवन का प्रतिषेध शीतस्पर्श से बचने के लिए मुनि अग्निकाय का कदापि सेवन न करे Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल सूत्र तथा भाष्यगत विषय-विवरण ४३-५६. उपकरण-विमोक्ष ४३. वस्त्रों की अपेक्षा से चार प्रकार के मुनि ४४. यथा-एषणीय वस्त्रों की याचना का निर्देश ४५. यथा-परिगृहीत वस्त्रों के विषय में निर्देश ४६. नो धोएज्जा नो रएज्जा....... ४७. वस्त्रों को न छिपाना ४८. अवमचेल कौन ? ४९. वस्त्रधारी भिक्षु की सामग्री ५०. वस्त्र-विषयक प्राचीन परंपरा ५१. सान्तरोत्तर की प्राचीन परंपरा • वृत्ति की व्याख्या ५२. एक शाटक कब ? कैसे? ५३. अचेल का तात्पर्य ५४-५५. वस्त्र-लाघव और उससे होने वाला तप ५६. वस्त्र विषयक समता का निर्देश ५७-६१. शरीर-विमोक्ष ५७. स्त्री-परीषह से स्पृष्ट मुनि का कर्तव्य ५८. स्त्री-परीषह सहने में अशक्त मुनि को विहित __ मार्ग से प्राण-त्याग करने का निर्देश • फांसी से प्राण-त्याग की प्राचीन परंपरा ५९. असहनीय स्थिति में फांसी लगा कर मरना अप्रतिषिद्ध ६०. कारणिक मृत्यु भी अन्तक्रिया में साधक ६१. कालमोह के अपनयन के लिए स्वीकृत मृत्यु सुखकर...... ६२-७४. उपकरण-विमोक्ष ६२. दो वस्त्र, एक पात्र की परंपरा ६३-६४. यथा-एषणीय तथा यथा-परिगृहीत वस्त्र की याचना ६५. न धोए, न रंगे ६६. वस्त्र न छिपाए ६७. अवमचेल कौन ? ६८. वस्त्रधारी भिक्षु की सामग्री ६९. वस्त्र-विसर्जन कब ? कैसे ? ७०. एक शाटक ७१. अचेल का तात्पर्य ७२-७३. वस्त्र-लाघव तथा उससे होने वाला तप ७४. वस्त्र-विषयक समता का निर्देश ७५. ग्लान द्वारा भक्त-परिहार ० भिक्षु असमर्थ होने पर भी गृहस्थ द्वारा लाया भोजन न ले ७६-८४. सेवा का कम्प ७६. परस्पर सेवा करने की प्राचीन परंपरा ७७. सेवा के निमित्त भिक्षु के प्रतिज्ञा-विकल्प ७८. वस्त्र का क्रमिक विसर्जन और अभिग्रह ७९. अभिग्रहधारी मुनि के तप का निर्देश ८०. समता की साधना का निर्देश ५१. वस्त्र-विषयक सामाचारी के पालन का निर्देश तथा उसकी फलश्रुति ८२-८४. वह मृत्यु अन्तक्रियाकारक और कल्याणकारी ८५-९६. उपकरण-विमोक्ष ८५. एक वस्त्र, एक पात्र ८६-८७. यथा-एषणीय और यथा-परिगृहीत की याचना ८८. न धोना, न रंगना ८९. वस्त्र को न छिपाए ९०. अवमचेलिक कौन ? ९१. वस्त्रधारी भिक्षु की सामग्री ९२. वस्त्र-विसर्जन कब ? कैसे? ९३. वस्त्र-रहित होने का निर्देश ९४-९५. वस्त्र-रहित का लाघव और तप - ९६. समता का पालन ९७-१००. एकत्व भावना ९७. 'मैं अकेला हूं', 'मेरा कोई नहीं'--एकत्व का चिन्तन ९८. एकत्व के चिन्तन से लाघव की उपलब्धि ९९-१००. एकत्वानुप्रेक्षा की तपोमय गरिमा और उसके यथार्थ पालन का निर्देश १०१-१०४. अनास्वाद-लाघव १०१. अनास्वाद वृत्ति का निरूपण १०२. स्वाद-विसर्जन १०३-१०४. अनास्वादवृत्ति से स्वाद-अवमौदर्य तप तथा समत्व लाभ १०५. संलेखना संलेखना के चार अंग और उनका विशद निरूपण १०६-११०. इंगिनीमरण अनशन १०६. इंगिनीमरण का वाचक इत्वरिक • इत्वरिक शब्द का विमर्श । इंगिनीमरण की प्रक्रिया १०७. इंगिनीमरण अनशन स्वीकार करने वाले भिक्षु की विशिष्ट अवस्थाएं १०८. इंगिनीमरण काल-मृत्यु का उपक्रम १०९, अन्तःक्रिया का बोधक .११०. प्राण-विमोह की साधना १११-११५. उपकरण-विमोक्ष १११. अचेल व्यक्ति का चिन्तन और कटिबंध धारण करने की उत्सुकता ,... Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ १२. सर्व अल रहने में समर्थ व्यक्ति के लिए कटिबंध का निषेध ११३-११४. अचेल का लाघव और तप ११५. अचलत्व का पालन और समता ११६- १२४. वैयावृत्य का कल्प ११६. भोजन के आदान-प्रदान की प्रतिज्ञा ११७-१२३. आहार के आदान-प्रदान के विविध विकल्प तथा उपकार और निर्जरा की दृष्टि से सेवा करने का प्रतिपादन १२४. आहार का संवर्तन और समाधि मरण के लिए उत्थान १२५-१३०. प्रायोपगमन अनशन १२५. प्रायोपगमन अनशन की विधि १२६. प्रायोपगमन अनशन का अधिकारी १२७-१३०. इस मरण से मरने वाले की साधना का फलित इंगिनीमरण अनशन गाथा १. समाधिमरण कब ? उसकी अर्हता के तीन बिन्दु २. बाह्य और आंतरिक बंधन के हेतुओं को अवगति • जीवित रहने से अधिक लाभ या शरीर विमोक्ष से ? ● किस समाधिमरण के योग्य है मेरा सामर्थ्यइसकी समीक्षा ० • पर्यालोचनपूर्वक प्रवृत्ति की अल्पता ३. कषाय का कृशीकरण और आहार का अल्पीकरण ४. जीवन और मरण में अनासक्त ५. मध्यस्थ और निर्जराप्रेक्षी बनकर समाधि का पालन • आंतरिक और बाह्य व्युत्सर्ग ६. संलेखनाकालीन आकस्मिक बाधा के समय भिक्षु का कर्त्तव्य भक्त-प्रत्याख्यान ७. स्थानशुद्धि का निर्देश । अनशन के स्थान में स्वयं या प्रातिचारक भिक्षुओं के साथ ० स्थंडिल प्रतिलेखना की प्राचीन परंपरा ८. भूख, प्यास तथा अन्य परीषहों को सहने की शक्ति के विकास का निर्देश ९-१०. प्राणियों के विघात को सहने का आलंबन-सूत्र ११. द्रव्यग्रन्थ और भावग्रन्थ • भक्तप्रत्याख्यान अनशन की अपेक्षा इंगिनीमरण अनशन प्रशस्ततर, कष्टतर आदि आचारांग भाष्यम् १२. इंगिनीमरण अनशन में चतुविध आहार का परित्याग तथा आत्मवर्ज प्रतिचार का निषेध १३-१८. इंगिनीमरण अनशन में मुनि की चर्या तथा निषद्या विषय चूर्णि की परंपरा और परीषद् सहन का निर्देश प्रायोपगमन १९. प्रायोपगमन अनशन की श्रेष्ठता, स्थान से विचलन का प्रतिषेध तथा साधक की स्थिति का चित्रण २०. इंगिनीमरण अनशन की अपेक्षा यह अनशन प्रधान और उत्तम ● जिस आसन में अनशन स्वीकार उसी में निश्चल रहने का निर्देश २१. प्रायोपगमन अनशन को स्वीकार करने वाले की चर्या तथा इस अनशन की मुद्राओं का निर्देश और अनशन का पार पाने के लिए आलंबन - सूत्र का प्रतिपादन २२-२३. अनशन स्वीकर्त्ता को स्थिर रहने का निर्देश • अनशन में होने वाले उपद्रवों से सावधानता • इच्छालोभ का निराकरण २४. दिव्य भोग के निमन्त्रण को ठुकरा देने का निर्देश तथा दिव्य माया के प्रति न झुकने का आग्रह २५. अनशनपूर्वक जीवन की समाप्ति कल्याणकारक नौवां अध्ययन (पहला उद्देशक ) १- २३. भगवान् की चर्या १. प्रव्रज्या के पश्चात् तत्काल विहार हेमन्त ऋतु में मुगसिर कृष्णा दसमी के दिन दीक्षा २. दीक्षा के समय एक शाटक • भगवान् की धर्मानुगामिता • ग्रीष्म में एक शाटक या अचेल की परंपरा का उल्लेख ३. भगवान् का शरीर अद्भुत गंधयुक्त । द्रव्यकृत परिमल की विशेषता । परिमल के लिए भ्रमरों का उत्पात | अभिनिष्क्रमण के चार मास तक ४. तेरह मास पश्चात् भगवान् अ बने ५. भगवान् की अनिमेषदृष्टि ध्यान की सूचना • तियंभित्ति ध्यान की प्रक्रिया ६. एकान्त में ध्यानलीन और वहां स्त्रियों का उपद्रव Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल सूत्र तया भाष्यगत विषय-विवरण ७. संकुल स्थानों में भी एकाग्रता से ध्यान । पूछने पर भी मौन । ध्यान से विचलन नहीं । ८. न वरदान न शाप । तटस्थभाव । ९. कौतुकपूर्ण प्रवृत्तियों का परिहार १०. माध्यस्थ्यभाव का अनुशीलन • अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्गों में स्मृति का __ अनियोजन। ११. भगवान् की गृहवासी साधना का आकलन १२-१३. छहों जीवनिकायों की हिंसा से उपरति का कारण १४. जीव सर्वयोनिक १५. पाप-कर्म के प्रत्याख्यान का कारण १६. क्रियावाद और अक्रियावाद की समीक्षा कर ऋषभ द्वारा प्रतिपादित कर्मक्षय की क्रिया का स्वीकार १७. प्राणवध तथा सर्वकर्मावहा स्त्रियों का परिहार १८. भगवान् की आहारचर्या । आधाकृत का सर्वथा परिहार १९. भगवान् की उपकरणचर्या । परवस्त्र तथा परपात्र का वर्जन । अवमान संखडि का परिहार २०. अशन-पान के मात्राज्ञ । रसपरित्याग तप का आसेवन । कायक्लेश तप का आचरण २१. गमन में अहिंसा के प्रति जागरूकता। ० अल्पभाषिता । २२. भगवान् की शिशिर ऋतु में गमन-चर्या । २३. संकल्पमुक्त होकर विधि का आचरण । दूसरा उद्देशक १. भगवान् द्वारा सेवित शयन और आसन २-४. भगवान के विभिन्न आवास-स्थल । उत्कृष्ट तेरह वर्ष का साधना-काल ५. निद्रासुख के प्रति अप्रतिज्ञ ६. निद्रा पर विजय का उपक्रम ७. आवास-स्थलों में उत्पन्न उपसर्ग और भगवान् की ध्यानलीनता ८. कुचर तथा ग्रामरक्षकों द्वारा कृत उपसर्ग ० काम-संबंधी उपसर्ग ९-१०. इहलौकिक और पारलौकिक उपसर्गों को सहन करने का आलंबन-सूत्र तथा रति और अरति को पराभूत करने का उपाय ११-१२. पृच्छा करने पर मौन । मौन से आक्रोश • भगवान् प्रतिकार के संकल्प से रहित ० स्थान का त्याग करने पर भी ध्यान का त्याग नहीं ३६ ० शून्य या एकांत स्थान में भी उपसर्ग १३-१५. शिशिर ऋतु में अत्यंत शीत को सहना तथा हिमवात में अप्रकंपित रहना • शिशिर ऋतु में अन्य भिक्षुओं की चर्या और उनके शीत-प्रतिकार के साधन । भगवान् का प्रगाढ सर्दी में भी रात को मंडप से बाहर गमन-आगमन । शीत सहने का प्रकार १६. संकल्पमुक्त होकर विधि का प्रतिपालन तीसरा उद्देशक १. निषद्या में तृणस्पर्श का परीषह २-८. लाढ देश की वज्रभूमि और सुम्हभूमि में भगवान् का विहार । वहां की भौगोलिक और क्षेत्रीय स्थिति तथा वहां के लोगों का रहन-सहन, शील-सदाचार, सभ्यता-संस्कृति का संक्षिप्त वर्णन । भगवान् के उपसर्ग । ९-१०. प्रहारों की बौछार और लोगों की प्रसन्नता ११. भगवान् के शरीर से मांस काटना, शरीर पर थूकना आदि कष्ट तथा भगवान् का काय-व्युत्सर्ग का सफल प्रयोग १२. ध्यानस्थित भगवान् को ऊपर से नीचे गिराना, आसन से स्खलित करना । व्युत्मुष्टकाय भगवान् का समभाव । १३. संवर का कवच और कष्टों का अधिसहन १४. संकल्पमुक्त होकर विधि का आचरण चौथा उद्देशक १. रोग से अस्पृष्ट होने पर भी अवमौदर्य तप । चिकात्सा न कराने का संकल्प । अचिकित्सा कायव्युत्सर्ग का प्रयोग। पंचकर्म चिकित्सा का परिहार। २. संशोधन, वमन, विरेचन आदि का सर्वथा परिहार ३. शरीर चिकित्सा का निषेध, मोहचिकित्सा के उपायों की अनुपालना । • मोहचिकित्सा के दो अंग-अबहुवादित्व और कायक्लेश । ४-६. मोहचिकित्सा का तीसरा अंग-आतप सहन और रूक्ष भोजन से जीवन-यापन • आठ मास तक ओदन, कुल्माष और मंथु का भोजन । ० जागरण का प्रयोग। ० पर्युषित अन्न का ग्रहण । ७. तप-समाधि में संलग्नता Jain Education international Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० आचारांगभाष्यम् ८. नवकोटि परिशुद्ध भिक्षा से जीवन-यापन ९. आहार संबंधी तीन एषणाएं और उनमें भगवान् की चर्या १०-१२. आजीविका-विच्छेद के प्रति सजग १३. भोजन के प्रति अनौत्सुक्य १४. भगवान् की ध्यानमुद्रा और ध्यान १५. भगवान् के ध्यान का उद्देश्य १६. भगवान् का आयतयोग । तपस्या में माया नहीं १७. संकल्पमुक्त होकर विधि की अनुपालना Jain Education international Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपोद्घातः अथातः आचारांगविमर्शः। प्रारंभ हो रहा है आचारांग का विमर्श । १. अस्ति आत्मा।' १. आत्मा है। २. अस्ति पुद्गलः । २. पुद्गल है। ३. अस्ति तयोरनादिः संयोगः । ३. उन दोनों का संयोग अनादि है। ४. पुद्गलसंयुक्तः आत्मा औपपातिकः ।। ४. पुद्गल-संयुक्त आत्मा औपपातिक (पुनर्जन्मधर्मा) है। ५. अस्ति तस्यानुसंचरणम् ।" ५. वह अनुसंचरण करती है। ६. अस्ति अनुसंचरणस्य हेतुः ।' ६. अनुसंचरण का हेतु है। ७. अस्ति अनेकरूपा योनिः ।" ७. योनि के अनेक रूप हैं। ८. अस्ति दुःखम् । ८. दुख है। ९. अस्ति दुःखस्य हेतुः।' ९. दुःख का हेतु है। १०. अस्ति दुःखस्य निरोधः । १०. दुःख का निरोध है। ११. अस्ति निरोधस्य मार्गः ।" ११. निरोध का मार्ग है। १२. अस्ति आत्मनो नानात्वम् । १२. आत्मा का नानात्व है। सन्ति अनन्ता आत्मानः। ते सर्वेऽपि सन्ति आत्माएं अनन्त हैं। उन सबका अस्तित्व पृथक्-पृथक् है । पृथक्सत्त्वाः, सर्वेषां स्वतन्त्रमस्तित्वमिति यावत् । तेन तात्पर्य की भाषा में सबका अस्तित्व स्वतंत्र है। वे किसी एक सन्ति कश्चिद् एकस्य ईश्वरस्यांशभूताः, न च कस्यचिद् ईश्वर की अंशभूत नहीं हैं और किसी ब्रह्म की प्रपंचभूत नहीं हैं। ब्रह्मणः प्रपञ्चभूताः । 'जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं'- 'सुख और दुःख व्यक्ति का अपना अपना होता है'-बार-बार यह वारं वारं अस्य उद्घोषोऽस्ति आत्मनः स्वातन्त्र्यस्य घोष आत्मा की स्वतंत्रता की उद्घोषणा करता है। उद्घोषणा ।१२ 'तुमंसि नाम सच्चेव जं हंतव्वं ति मन्नसि'"-- 'जिसे तू हननयोग्य मानता है, वह तू ही है'-इस सूत्र में इत्यस्मिन् सूत्रे आत्मन एकत्वमिष्टमस्ति । तथा 'जे एगं आत्मा का एकत्व इष्ट है और 'जो एक को जानता है, वह सबको जाणइ से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ'१४ जानता है और जो सबको जानता है, वह एक को जानता है'-इस अस्मिन्नपि एकमेव तत्त्वं अभिप्रेतमस्ति । अस्ति सर्व सूत्र में भी एक ही तत्त्व अभिप्रेत है । यह सारा विस्तार उसी का तस्यैव प्रपञ्चः । तत् कथमात्मनो नानात्वं वास्तविकम् ? है, तब आत्मा का नानात्व कसे वास्तविक हो सकता है ? एकता कथञ्चैकत्वस्य नानात्वस्य च विरोधः परिहार्यः। और नानात्व का विरोध कैसे मिटाया जा सकता है ? वयं नयेन विरोधपरिहारं कूर्मः। अत्र द्वौ नयौ हम नय-पद्धति के द्वारा विरोध का परिहार कर सकते हैं । प्रयोक्तव्यौ----संग्रहो व्यवहारश्च । अस्ति पदार्थेषु । इस प्रसंग में संग्रह और व्यवहार-इन दो नयों का प्रयोग करना सामान्यो धर्मः। तमपेक्ष्य संग्रहनयः प्रवर्तते। अस्ति चाहिए । पदार्थों में सामान्य धर्म हैं। उनकी अपेक्षा से संग्रहनय की पदार्थेषु विशिष्टो धर्मः । तमपेक्ष्य व्यवहारनयः प्रवर्तते। प्रवृत्ति होती है । पदार्थों में विशेष धर्म हैं। उनकी अपेक्षा से व्यवहारनय की प्रवृत्ति होती है। १. आयारो, १४॥ २. वही, ३।४। ३. वही, ३१८३॥ ४. वही, १।४। ५. वही, ११४। ६. वही १८ २१५५॥ ७. वही, १८ ८. वही, १०८। ९. वही, १८ १०. वही, ४॥५१॥ ११. वही, २।१७१-१७३। १२. वही, २२२२, ७८,५२४,५२ । १३. वही, ४१०१। १४. वही, ३.७४ । Jain Education international Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 1 प्रत्येकं पदार्थ सामान्यविशेषात्मको विद्यते । सामान्यधर्माणामपेक्षया तस्यैकत्वमभिप्रेतम् । अयं संग्रहनयस्य विषयः । विशिष्टधर्मान् अपेक्ष्य तस्य नानात्वमपीष्टम् । अयं व्यवहारनयस्य विषयः । एकत्वे नानात्वे च नास्ति सर्वथा विरोधः अत्र विरोधोऽविरोधश्व द्वावपि सापेक्षौ निरपेक्षमस्ति पदार्थस्य अस्तित्वम् । तत्र नास्ति एकत्वं वा नानात्वं वा एकत्वं नानात्वं च संख्यामथितो धर्मः अयं सापेक्ष एव भवति । यत्र अभेदव तिरभेदोपचारो वा भवति तत्र एकत्वधर्मः प्रधानीभवति नानात्वधर्मश्च उपसर्जनीभवति । यत्र भेदवृत्तिः तत्र नानात्वधर्म प्रधानीभवति एकत्वधर्मश्च उपसर्जनीभवति । अनयोः प्रधान गौणभावयो: विवक्षातो भेदमापनस्यापि पदार्थस्य क्वचित् कदाचिद् एकत्वं प्रतिपादितं भवति । तस्य अभेदमापन्नस्यापि क्वचित् कदाचिद नानात्वं प्रतिपादितं भवति । इत्येकत्वनानावयोः नास्ति अपरिहार्यो विरोधः किन्तु सापेक्षोऽयम् । " 1 आत्मा संसारदशायां प्राणभूत जीव सरवपदैरभिधेयोस्ति समभिरू नयेन एतेषु भिद्यमानेष्वपि द्रव्यास्तिकनयदृष्ट्या नास्ति कोपि भेदः । अत एवोक्तम्'णो हीणे णो अरिते ।" आत्मनोऽस्तित्वमस्ति स्वतन्त्रम् अत एवास्ति तस्य कर्तृत्वम् । स न ईश्वरप्रेरितः प्रवर्तते निवर्तते च । किन्तु स्वसंकल्पेनैव प्रवर्तते निवर्तते च । अत एव निर्दिष्टं भगवता पुरिसा ! परमचक्खू ! विपर क्कमा ।" 1 पराक्रमस्य सार्थकता तदानीमेव यदा बन्धमोक्षयोः शक्तिः स्वसन्निहिता भवेत् । अस्य प्रश्नस्य समाधानं कृतं सूत्रकारेण वथा- 'बंध-पमोक्खो तुम्भ अग्भत्य ।" यदि आत्मातिरिक्तः कश्चित् पदार्थों बढो मुक्तो वा भवति यथा सांख्यदर्शने प्रकृतिः, तदा नात्मनः कर्तृ त्वं स्यात् । आचारांगस्य हृदयमिदं संसारी आत्मा नास्त्यसंगः, अत एव स निरन्तरं कर्मभिर्बध्यते । स कर्मभिः बध्यते अत एव तस्य कर्मशरीरं भवति सहवति । स कर्मशरीरेण संयुक्तः सन् नवानि नवानि स्थूलशरीराणि अथवा औदारिकादिशरीराणि निर्माति स एव सम स्वानुभूत्या कर्मशरीरस्य वियोजनं कृत्वा मुक्तो भवति । यदुक्तं 'ण संगे', 'ण काळ", "ण रहे" इति सर्व १. आयारो, २०४९ । २. वही, ५। ३४ । ३. वही, ५।३६ । ܙ आचारांग माध्यम् प्रत्येक पदार्थ सामान्य विशेषात्मक है। सामान्य धर्मो की अपेक्षा से उसकी एकता अभिप्रेत है। यह संग्रहनय का विषय है । विशेष धर्मों की अपेक्षा से उसका नानात्व भी इष्ट है। यह व्यवहारनय का विषय है। एकत्व और नानात्व में सर्वथा विरोध नहीं है। यहां विरोध और अविरोध दोनों सापेक्ष हैं । निरपेक्ष है पदार्थ का अस्तित्व । उसमें एकत्व या नानात्व कुछ भी नहीं होता । एकत्व और नानात्व संख्या पर आश्रित धर्म है। यह सापेक्ष ही होता है। जहां अभेदवृत्ति या अभेदोपचार होता है वहां एकत्व धर्म प्रधान हो जाता है और नानात्व धर्म गौण। जहां भेदवृत्ति होती है वहां नानात्व धर्म प्रधान हो जाता है और एकत्व धर्म गौण । इन प्रधान और गौण भावों की विवक्षा से भेद को प्राप्त पदार्थ का भी कहींकभी एकत्व प्रतिपादित होता है और अभेद को प्राप्त पदार्थ का भी कहीं - कभी नानात्व प्रतिपादित होता है । इस प्रकार एकत्व और नानात्व में अपरिहार्य विरोध नहीं है, किन्तु यह सापेक्ष विरोध है । संसारी आत्मा प्राण भूत जीव और सत्त्व इन पदों से अभिहित होती है। समभिनय की दृष्टि से इनमें किनता होने पर भी द्रव्यादिक नय की दृष्टि से इनमें कोई भेद नहीं है, इसीलिए कहा गया है न कोई आत्मा हीन है और न कोई आत्मा अतिरिक्त ।' आत्मा का अस्तित्व स्वतंत्र है, इसीलिए उसका अपना कर्तृत्व है । वह ईश्वर से प्रेरित होकर प्रवृत्त और निवृत्त नहीं होती, किंतु अपने संकल्प से ही प्रवृत्त और निवृत्त होती है। इसीलिए भगवान् ने कहा - 'परम चक्षुष्मान् पुरुष ! तू पराक्रम कर ।' पराक्रम की सार्थकता तभी होती है जब बन्ध और मोक्ष की शक्ति अपने में निहित हो । सूत्रकार ने इस प्रश्न का समाधान किया है-बंध और मोक्ष तुम्हारी आत्मा में ही है । यदि आत्मा के अतिरिक्त कोई पदार्थ बद्ध या मुक्त होता है, जैसे सांख्य दर्शन में प्रकृति, तब आत्मा का कर्तृत्व नहीं रहता । आचारांग का हृदय यह है - संसारी आत्मा असंग नहीं है, इसीलिए वह कर्मों से निरंतर बद्ध होती है । वह कर्मों से बद्ध होती है, इसीलिए कर्म - शरीर उसका सहवर्ती होता है यह कर्म शरीर के साथ संयुक्त होकर नए-नए स्थूल शरीर अथवा औदारिक आदि शरीरों का निर्माण करती है। वही आत्मा समत्व की अनुभूति से कर्म शरीर का वियोजन कर मुक्त हो जाती है जैसे कहा है वह लेपयुक्त नहीं है, यह शरीरधारी नहीं है, वह जन्म-धर्मा नहीं है यह सब ४. वही, ५।३४ ॥ ५. वही, ५।१३२ । ६. वही, ५।१३३ । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपोद्घातः मुक्तात्मानमधिकृत्य प्रतिपादितमस्ति । संसारी आत्मा मुक्त आत्मा को लक्षित कर प्रतिपादित किया गया है। संसारी शरीरवानपि भवति, जन्मधर्मापि भवति, संगवानपि आत्मा शरीरवान् भी है, जन्म-धर्मा भी है और लेपयुक्त भी है। भवति च । आत्मा चेतनः, पुद्गलश्च अचेतनः । आत्मा अमूर्तः, आत्मा चेतन है और पुदगल अचेतन । आत्मा अमूर्त है और पुद्गलश्च मूर्ती रूपरसगन्धस्पर्शयुक्तत्वात् । पुद्गलस्य- पुद्गल रूप-रस-गन्ध और स्पर्श से युक्त होने के कारण मूर्त । अस्तित्वं नास्ति व्यावहारिकम् । यथा आत्मनोऽस्तित्वं पुद्गल का अस्तित्व व्यावहारिक नहीं है। जैसे आत्मा का अस्तित्व पारमार्थिक तथा पुद्गलस्यापि। अनयोविषयविषयि पारमार्थिक है वैसे ही पुद्गल का अस्तित्व भी पारमार्थिक है। इन संबन्धो ज्ञातृशेयसंबन्धो वा अस्ति पर्यायात्मकः न तू दोनों (आत्मा और पुद्गल) में विषय-विषयी या ज्ञातृ-ज्ञेय संबंध द्रव्यात्मकः । वयं पुद्गल जानीमः तदापि तदस्ति, न द्रव्यात्मक नहीं, पर्यायात्मक है। हम पुद्गल को जानते हैं तब भी जानीमः तदापि तदस्ति । अस्तित्वमस्ति स्वभावापेक्षं, उसका अस्तित्व है और नहीं जानते हैं तब भी उसका अस्तित्व है। न तु ज्ञानापेक्षम् । अस्तित्व स्वभाव-सापेक्ष है, ज्ञान-सापेक्ष नहीं । कथं स्यात् चेतनाचेतनयोः विरुद्धधर्मणोऽस्तित्वम् ? चेतन और अचेतन-दोनों विरोधी धर्म वाले हैं। इस अत्र वयं ब्रूमः-पदार्थाः न सन्ति सर्वथा परस्परं अवस्था में उन दोनों का अस्तित्व कैसे हो सकता है ? इस प्रश्न विरुद्धाः, न च सन्ति सर्वथा अविरुद्धाः । तेषां विरोधोऽ- पर हमारा वक्तव्य यह है—पदार्थ परस्पर न तो सर्वथा विरोधी हैं विरोधश्च सापेक्ष एव। अस्तित्वं सर्वेषां पदार्थानां और न सर्वथा अविरोधी । उनका विरोध और अविरोध सापेक्ष ही समानो धर्मः । तदपेक्षया नास्ति चेतनाचेतनयोः कश्चिद् है। 'अस्तित्व' यह सब पदार्थों का समान धर्म है। इसकी अपेक्षा विरोधः । चैतन्यं आत्मनि एवेति विशिष्टो गुणः । रूप- से चेतन और अचेतन में कोई विरोध नहीं है । 'चैतन्य' आत्मा में रसगन्धस्पर्शाः पुद्गले एवेति सन्ति विशिष्टाः गुणाः। ही होता है, यह उसका विशिष्ट गुण है। रूप, रस, गंध और यथा विशिष्टधर्मापेक्षया विरोध उद्भावयितुं शक्यः तथा स्पर्श पुद्गल में ही होते हैं, इसलिए ये उसके विशिष्ट गुण हैं । जैसे सामान्यगृणापेक्षया अविरोधोऽपि उद्भावनीयो भवति। विशेष धर्म की अपेक्षा से विरोध का उद्भावन किया जा सकता एवं भेदाभेदस्वभावे वस्तूनि नाध्यास'-कल्पना भवति । है, वैसे ही सामान्य गुण की अपेक्षा से अविरोध का भी उद्भावन करणीया। किया जा सकता है। इस प्रकार भेदाभेद स्वभाव वाली वस्तु में अध्यास (भ्रान्त प्रतीति) की कल्पना नहीं करनी चाहिए। जीवशरीरयोः जीवपुद्गलयोर्वा कथंचिद् अभेदः जीव और शरीर अथवा जीव और पुद्गल में कथंचिद् अभेद स्वीकरणीय एव । अभेदस्यास्य अध्यासेन सार्ध भेदो वर्तत स्वीकार करना ही होगा। यह अभेद अध्यास से भिन्न है। अध्यास एव । अध्यासस्वीकरणे पुदगलस्य अस्तित्वं सवंर्थव को स्वीकृत करने पर हमें पुद्गल का अस्तित्व सर्वथा अस्वीकार अस्वीकरणीयं स्यात् । अध्यासस्य स्थाने यदा व्यवहारः करना होगा। 'अध्यास' के स्थान पर यदि हम 'व्यवहार' को स्वीक्रियते तदा निश्चयव्यवहारयो)दस्य प्रतिपादनं स्वीकार करें तो 'निश्चय' और 'व्यवहार' का भेद-प्रतिपादन अपेक्षितं स्यात् । निश्चयनयेन नास्ति जीवशरीरयोर अपेक्षित होता है । निश्चयनय के अनुसार जीव और शरीर में अभेद भेदः । व्यवहारनयेन तु अस्त्येव सः। अत्र पुनर्भेदाऽभेद नहीं है। व्यवहारनय के अनुसार जीव और शरीर में अभेद है ही। योरनयोः स्वरूपं स्पष्टमवगन्तव्यम् । अस्मिन् प्रसंगे हमें भेद और अभेद का स्वरूप भी स्पष्ट समझ लेना चाहिए। इस सांख्यदर्शने प्रतिपादितः प्रकृतिपुरुषयोः संबन्धः प्रसंग में सांख्य दर्शन में प्रतिपादित प्रकृति और पुरुष का सम्बन्ध विचारणीयः। वेदान्तदर्शने वा प्रतिपादितं ब्रह्मणः मननीय है। वेदांत दर्शन में प्रतिपादित ब्रह्म की सत्यता और सत्यत्वं जगतः सर्वथा मिथ्यात्वं चापि विवेचनीयम्। जगत् की सर्वथा अयथार्थता भी विवेचनीय है। निश्चय और नास्ति निश्चयव्यवहारयोः सर्वथा भेदः। उभावपि व्यवहार में सर्वथा भेद नहीं है। दोनों सापेक्ष हैं। निश्चयनय सापेक्षौ । निश्चयनयेन जीवशरीरयोः ऐकान्तिकः अभेदो की दृष्टि से जीव और शरीर में ऐकान्तिक अभेद स्वीकार नहीं न स्वीकरणीयः । एवमैकान्तिको भेदोऽपि व्यवहारनयेन किया जा सकता। इसी प्रकार व्यवहारनय की दृष्टि से जीव और नैव अभ्युपगन्तव्यः । इयमनेकान्तपद्धतिरेव अध्यास- शरीर में ऐकान्तिक भेद भी स्वीकार नहीं किया जा सकता। व्यवहारयोर्भेदनिरूपणे आश्रयणीया। अध्यास और व्यवहार के भेद-निरूपण में इस अनेकान्त पद्धति का ही आश्रय लेना अपेक्षित है। १. अध्यासो नाम अस्मिस्तबुद्धिः, अयथार्थानुभवः । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगभाष्यम् केवलमात्मनः सत्तायामचेतनस्य प्रत्यक्षदृष्टा हेतु- यदि एकमात्र आत्मा का अस्तित्व स्वीकार किया जाए तो सिद्धा वा सत्ता कथं निवारयितुं शक्या? नैते पौद्ग- अचेतन का अस्तित्व, जो प्रत्यक्ष-दृष्ट और हेतु-सिद्ध है, का लिकाः पदार्थाः मनःप्रत्ययसंभवाः । यदि सर्वेपि पौदग- निवारण कैसे किया जा सकता है ? ये पौद्गलिक पदार्थ मानसिकलिकाः पदार्थाः मानसप्रत्ययजन्मानो भवेयुः तदा प्रत्यय से उत्पन्न नहीं हैं। यदि सभी पौद्गलिक पदार्थ मानसिकआत्माऽपि न मानसप्रत्ययसंभव इति कः कथं वक्तं प्रत्यय से उत्पन्न हों तो आत्मा भी मानसिक-प्रत्यय से उत्पन्न नहीं शक्नुयात् ? विषयस्य अनस्तित्वे विषयिणो अस्तित्वं है, यह कौन-कैसे कह सकता है ? विषय के अनस्तित्व में विषयी कथं समर्थनीयम् ? 'एते पदार्थाः' इति ज्ञानं नास्ति सत्यं के अस्तित्व का समर्थन कैसे किया जा सकता है ? 'ये पदार्थ हैं'.--- तदा अहमस्मीति ज्ञानमस्ति सत्यं, अत्र कि साक्ष्यम् ? यह ज्ञान यदि यथार्थ नहीं है तो 'मैं हूं' इस ज्ञान की सत्यता का अचेतनतत्त्वं चेतनतत्त्वस्य सष्टिरिति स्वीकारे चेतनतस्व ___ साक्ष्य क्या है ? अचेतन तत्त्व चेतन तत्त्व की सृष्टि है, इस बात को अचेतनतत्त्वस्य सृष्टिरिति स्वीकार निरसित कोऽस्ति स्वीकार करें तो चेतन तत्त्व अचेतन तत्त्व की सृष्टि है, इस स्वीकृति तर्कः ? तस्मात् चेतनाचेतनयोः द्वयोरप्यस्ति स्वतन्त्रं को निरस्त करने के लिए कौन सा तर्क है ? इसलिए चेतन और अस्तित्वम् । नेतज्जगत् केवलं चेतनतत्वमयं अचेतन- अचेतन-दोनों का अस्तित्व स्वतंत्र है। यह जगत् न केवल चेतन तत्त्वमयं वा। न चेतनाद् अचेतनोत्पत्तिः, न च तत्वमय है और न केवल अचेतन तत्वमय । न चेतन से अचेतन अचेतनात चेतनोत्पत्तिश्च । यदुक्तं स्थानांगे...'ण एवं उत्पन्न हुआ है और न अचेतन से चेतन । जैसा कि स्थानांग में भूतं वा भव्वं वा भविस्सति वा जं जीवा अजीवा कहा गया है-न ऐसा कभी हुआ है, न ऐसा हो रहा है और न भविस्संति, अजीवा वा जीवा भविस्संति ---एवंप्पेगा ऐसा कभी होगा कि जीव अजीव हो जाए और अजीव जीव हो लोगट्टिती पण्णत्ता।" जाए। यह एक लोकस्थिति है। अस्ति पुद्गलस्य स्वतंत्रमस्तित्वम् । अस्ति च तस्य पुद्गल का अस्तित्व स्वतंत्र है। आत्मा के साथ उसका योग आत्मना सह योगः, अत एवात्मा संगवान् भवति । है, इसीलिए आत्मा संगयुक्त-लेपयुक्त होती है। यदि पुद्गल का यदि पूदगलस्य स्वतंत्रमस्तित्वं न स्यात् तहि संगस्य स्वतंत्र अस्तित्व न हो तो संग की कल्पना भी दुर्लभ हो जाती है। कल्पनापि दुर्लभा भवति । मर्कट: स्वकृते सन्ताने बद्धो मकड़ी अपने द्वारा निर्मित जाल में फंस जाती है, उसका हेतु है भवति, तस्य हेतुरस्ति अज्ञानम् । किन्तु सर्वज्ञः आत्मा अज्ञान । किन्तु आत्मा सर्वज्ञ है, सर्वथा असंग या निलेप है, फिर वह सर्वथा असंगः सन् संगवान् भवतीति नास्ति हेतुगम्यम् । संगवान् या लेपयुक्त होती है, यह हेतुगम्य नहीं है। यदि यह प्रश्न यद्येष प्रश्नः, तदा कथं बद्ध आत्मेति सम्मतमाचारांगे?२ है तो फिर 'आत्मा बद्ध है'-यह आचारांग में कैसे सम्मत हुआ ? अत्रास्ति वक्तव्यम्-जैनानां नास्ति कश्चिद् आत्मा इस विषय में हमारा वक्तव्य यह है-जैन दर्शन के अनुसार कोई आदितो मुक्तोऽसंगो वा। असंगः संगवान् भवतीति भी आत्मा प्रारंभ से मुक्त या असंग नहीं है। असंग संगवान् होता नास्ति सम्मतं, किन्तु संगवानेव विशिष्ट प्रयोगेण संग- है, यह सम्मत नहीं है। किन्तु संगवान् ही विशेष प्रयोग के द्वारा मुक्तो भवति । यदि संगोऽनादिकालीनस्तदा कथं तस्य । संगमुक्त होता है। यदि संग अनादिकालीन है तो उसका वियोग वियोग: ? इति सत्यम् । आत्मपुद्गलयोः संबन्धः । कैसे संभव है ? यह सत्य है। आत्मा और पुद्गल का संबंध प्रवाह प्रवाहपतितो अनादिकालीनः । तेन प्रवाहस्य निरोधे की दृष्टि से अनादिकालीन है । इसलिए प्रवाह का निरोध होने पर तस्यापि निरोधो भवति । उसका भी निरोध हो जाता है। बन्धहेतोरज्ञानं अपरिज्ञा। तस्य ज्ञानं च परिज्ञा। बंध के हेतु का अज्ञान अपरिज्ञा है और उसका ज्ञान परिज्ञा बन्धस्य निरोधार्थ प्रयत्नः परिज्ञा। तदर्य अप्रयत्नो है। बंध के निरोध के लिए प्रयत्न करना परिज्ञा है और उसके अपरिज्ञा च । परिज्ञया बन्धस्य स्वरूपावधारणं, तस्य लिए प्रयत्न न करना अपरिज्ञा है। परिज्ञा के द्वारा बंध के स्वरूप प्रवाहनिरोधश्च जायते । तदर्थ आचारांगस्य प्रवृत्तिः । का अवधारण और उसके प्रवाह का निरोध होता है। उसके लिए ही आचारांग की प्रवृत्ति है। अत्र बद्धमुक्तयोः द्विविधयोरपि आत्मनो निरूपणं आचारांग में बद्ध और मुक्त-दोनों प्रकार की आत्माओं का विद्यते । यो जन्म-मरणचक्रमत्येति स मुक्तो भवति-- निरूपण है । जो आत्मा जन्म-मरण के चक्र का अतिक्रमण करती 'अच्चेइ जाइमरणस्स वट्टमग्गं वक्खाय-रए। 'सब्बे है वह मुक्त हो जाती है । 'सब स्वर लौट आते हैं। इस सूत्र से सरा नियति ' अत: 'से ण सद्दे, ण रूबे, ण गंधे, ण रसे, प्रारंभ कर 'वह न शब्द है, न रूप है, न गंध है, न रस है और न १. अंगसुत्ताणि १, ठाणं, १०१। २. आयारो, ३।१९, ५७२ । ३. वही, ५२१२२ । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपोद्घातः ण फासे - इतिपर्यन्तं मुक्तात्मनां निरूपणमस्ति । स्व- स्पर्श है'-यहां तक मुक्त आत्माओं का निरूपण है। 'अपने प्रमाद प्रमादेन अनेकरूपाणां योनीनां सन्धानं, विरूपरूपाणां के द्वारा अनेक रूपों वाली योनियों में जन्म लेना, विभिन्न स्पों स्पर्शानां प्रतिसंवेदनं, जन्ममरणयोरनुपरिवर्तनं च अस्ति (कष्टों) का प्रतिसंवेदन करना और जन्म-मरण का अनुपरिवर्तन बद्धानां आत्मनां निरूपणम्, यथा .... सहपमाएणं अणेग- करना'-यह बद्ध आत्माओं का निरूपण है। रूवाओ जोणीओ संधाति, विरूवरूवे फासे पडिसंवेदेइ । 'से अबुज्झमाणे हतोवहते जाइमरणं अणुपरियट्टमाणे ।' संसारिणो जीवाः सन्ति कर्मभिर्बद्धा अत एव ते संसारी जीव कर्मों से बंधे हुए होते हैं, इसीलिए वे कर्म करते कर्माणि कुर्वन्ति, तेषां फलमनुभवन्ति च । हैं और उनके फल का अनुभव करते हैं। ___ आत्मनः कर्मणश्च अनादिकालीनो योगोऽस्ति जन्म- आत्मा और कर्म का अनादिकालीन योग जन्म-मरण का मरणयोश्चक्रम् । एतदस्ति निश्चयनयेन अनात्मिकम्। चक्र है । यह निश्चयनय की दृष्टि से अनात्मिक है, आत्मा का यदनात्मिकं तद् अध्यात्मचक्षषा पश्यतोऽस्ति दुःखम्। स्वभाव नहीं है । जो-जो अनात्मिक होता है वह अध्यात्म चक्षु से प्रस्तुतागमे दुःखं हेयं सुखमुपादेयमिति निरूपितमस्ति ।। देखने वाले के लिए दुःख होता है। प्रस्तुत आगम में दुःख हेय और आचारशास्त्रस्य प्रधानोऽयं विषयः । ज्ञेयस्य निरूपण- सुख उपादेय है-यह निरूपित है। यह आचारशास्त्र का प्रधान मत्रास्ति प्रासंगिकम् । दुःखस्य चक्रमिदं -- विषय है। इसमें ज्ञेय का निरूपण प्रासंगिक है। दुःख का चक्र इस प्रकार है--- जे कोहदंसी से माणदंसी। जो क्रोधदर्शी है, वह मानदर्शी है । जे माणदंसी से मायदंसी। जो मानदर्शी है, वह मायादर्शी है । जे मायदंसी से लोभदंसी। जो मायादर्शी है, वह लोभदर्शी है । जे लोभदंसी से पेज्जदंसी। जो लोभदर्शी है, वह प्रेयदर्शी है। जे पेज्जदंसी से दोसदंसी। जो प्रेयदर्शी है, वह द्वेषदर्शी है। जे दोसदंसी से मोहदंसी। जो द्वेषदर्शी है, वह मोहदी है। जे मोहदंसी से गब्भदंसी। जो मोहदर्शी है, वह गर्भदर्शी है । जे गब्भदंसी से जम्मदंसी। जो गर्भदर्शी है, वह जन्मदर्शी है। जे जम्मदंसी से मारदंसी। जो जन्मदर्शी है, वह मृत्युदर्शी है। जे मारदंसी से निरयदंसी। जो मृत्युदर्शी है, वह नरकदर्शी है। जे निरयदंसी से तिरियदंसी। जो नरकदर्शी है, वह तिर्यञ्चदर्शी है । जे तिरियदंसी से दुक्खदंसी। जो तिर्यञ्चदर्शी है, वह दुःखदर्शी है। अस्य हेयत्वम् .से मेहावी अभिनिवदृज्जा कोहं च, इसकी हेयता का प्रतिपादन इस प्रकार है- मेधावी क्रोध, माणं च, मायं च, लोहं च, पेज्जं च, दोसं च, मोहं च, मान, माया, लोभ, प्रेय, द्वेष, मोह, गर्भ, जन्म, मृत्यु, नरक, गब्भं च, जम्मं च, मारं च, नरगं च, तिरियं च, दुक्खं तिर्यञ्च और दु.ख को छिन्न करे।" च। कषायमूलं दुःखम् । उन्मूलिते कषायबीजे दुःखं स्वत दुःख का मूल कषाय है । कषाय के बीज का उन्मूलन होने एव उन्मूलितं भवति । अतः क्रोधादिमोहपर्यवसानस्य पर दुःख स्वयं उन्मूलित हो जाता है। इसलिए क्रोध से प्रारंभ कर उन्मूलनार्थ यत्नो विधेयः । तन्कृते कषाये समता प्रादु- मोह तक के उन्मूलन के लिए प्रयत्न करना चाहिए । कषाय के कृश भवति । सा समतैव आचारांगस्य हृदयम् । अन्यानि । होने पर समता प्रादुर्भूत होती है। वह समता ही आचारांग का सर्वाणि आचारतत्त्वानि तामाश्रित्यव सन्ति सप्राणानि ।। हृदय है । दूसरे सारे आचार के तत्त्व इसी का आश्रय लेकर प्राणवान् बनते हैं। १. आयारो, २१२३-१४० । ४. वही, ५।१०३। ६. वही, ३१८३। २. बही, २॥५५॥ ५. वही, ३।२। ७. वही, ३८४ ३. वही, २०५६ । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समताया द्वैविध्यम्' समता द्विविधा स्वनिश्रिता परनिश्रिता च । रागद्वेषयोपशमनेन अनुकूल प्रतिकूल परिस्थित्योः संतुलितानुभूतिः स्वनिश्रिता समता । सर्वे प्राणिनः सन्ति सुखैषिण: दुःखविरोधिनश्च नातः कोऽपि हन्तव्य इति परनिचिता समता। स्वनिधितसमताया: सिद्ध भगवता कषायोप शान्तेरुपदेशः कृतः । परनिधितसमताया: सिद्धर्ष प्राणातिपातादेः विरमणं निर्दिष्टम्। संविज्ञाते अस्मिन् समताईविध्ये पूर्णमाचारांग संविज्ञातं भवति । कर्म - परिज्ञा । हिंसाया मूलमस्ति कर्म अतः पूर्व कर्मेवास्ति विवेचनीयम् । कर्मणो द्वघर्थता विद्यते - (१) कर्मप्रवृत्तिः, (२) कर्म-प्रवृत्तिजनितः कर्मप्रायोग्यपुद्गलानां संश्लेषः । 1 'अकरणिज्जं पावं कम्म" इत्यनेन स्पष्टं भवति प्रवृत्यात्मकं कर्म द्विविधम् पुण्यं पापं च पुण्यं कर्म निरवद्या प्रवृत्तिः । तदस्ति आचरणीयम् । पाप कर्म सावद्या प्रवृत्तिः, तदस्ति अनाचरणीयम् । किमस्ति पुण्यं कर्म, किमस्ति च पापं कर्म ? अस्मिन् विषये भगवता भगवया परिणा परिक्षा प्रवेदिता-तरथ खलु पवेश्या" सम्यक्त्वं, विवेक, परिक्षा चेति समानार्थकाः । विवेकपूर्वक प्रवृत्तिनिवृत्तिएव परिज्ञापदस्यार्थः । जीवाजीवभेदज्ञानपूर्वकं प्रवृत्तिनिवृत्तिर्वा 'परिक्षा' इत्यर्थः । सर्वाः प्रवृत्तयो निवृत्तयएवं परिशया नियम्यन्ते । सत्प्रवृत्ति असन्निवृत्ति च अधिकृत्य परिज्ञोपदिश्यते पदे पदे आचारोपनिषदि समारम्भे हिंसायां वा प्रवर्त मानस्य नास्त्येव समारम्भपरिक्षा समारम्भे हिंसायां वा अप्रवर्तमानस्य समारम्भपरिज्ञा परिपाकं गता मनसा बाचा कर्मणा वा हिंसायां प्रवर्तमानस्य न परिज्ञोदमः । विधा हिंसायां अप्रवर्तमानस्य च पूर्णपरिज्ञोदय इति तात्पर्यम् । 1 अपरिज्ञा सदसदविवेकरुपा अविद्या। अपरिज्ञातकर्मा जन्ममरणच कमनुपरिवर्तयति । परिशातकर्मा तस्य विच्छेदं करोति । परिज्ञया प्रवर्तमानो न हिंसया लिप्यते-से सम्यतो सम्वपरिष्णवारी 'ण लिप्पई छणपण वीरे ।" इति सुस्पष्टं भवति-यत्र परिज्ञया प्रवर्तते तत् कर्मास्ति पुण्यं यत्र च अपरिज्ञया प्रवर्तते १. आयारो, १।१७४ । २. वही, १९ ॥ ३. वही, ११८ ॥ ४. वही, १३१२ । समता के दो प्रकार समता दो प्रकार की है-स्वनिश्रित और परनिश्रित । राग और द्वेष के उपशमन के द्वारा अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में सन्तुलित अनुभूति करना स्वनिश्रित समता है । सब प्राणी सुख के इच्छुक और दुःख के विरोधी है, इसलिए कोई भी वध के योग्य नहीं है, यह आत्मतुला परनिश्रित समता है। स्वनिश्रित समता की सिद्धि के लिए भगवान् ने कषाय के उपशमन का उपदेश दिया । परनिश्रित समता की सिद्धि के लिए प्राणातिपात आदि से विरमण का निर्देश किया। समता के इन दोनों प्रकारों को भलीभांति जान लेने पर पूर्ण आचारांग भलीभांति ज्ञात हो जाता है । आचारांगभाष्यम् कर्म - परिज्ञा हिंसा का मूल है-कर्म इसलिए पहले उसी का विवेचन किया जा रहा है। कर्म के दो अर्थ है– (१) प्रवृत्ति (२) प्रवृत्ति जनित कर्म प्रायोग्य पुद्गलों का संश्लेषण । 'पाप कर्म अकरणीय है' — इससे स्पष्ट होता है कि कर्म दो प्रकार का होता है—पुण्य और पाप पुण्य प्रवृत्त्यात्मक कर्म का अर्थ है निरवद्य प्रवृत्ति। वह आचरण के योग्य है । पाप कर्म का अर्थ है सावद्य प्रवृत्ति । वह अनाचरणीय है । पुण्य कर्म क्या है और पाप कर्म क्या है ? इस विषय में भगवान् ने परिज्ञा का निरूपण किया है। सम्यक्त्व, विवेक और परिज्ञां-ये एकार्थक हैं। 'परिज्ञा' पद का अर्थ है विवेकपूर्वक प्रवृत्ति और निवृत्ति । जीव और अजीव (चेतन और जड़) के भेदज्ञान पूर्वक प्रवृत्ति या निवृत्ति परिक्षा है। सभी प्रवृत्तियां और निवृत्तियां परिज्ञा के द्वारा नियंत्रित होती है। आचार के उपनिषद् में सत् की प्रवृत्ति और असत् से निवृत्ति को अधिकृत कर स्थान-स्थान पर परिज्ञा का उपदेश दिया गया है। समारम्भ या हिंसा में प्रवृत्त व्यक्ति के समारम्भ-परिज्ञा नहीं होती। समारम्भ या हिंसा में प्रवृत्ति न करने वाले व्यक्ति के समारम्भ-परिज्ञा परिपक्व होती है। मन, वचन या शरीर से हिंसा में प्रवृत्त व्यक्ति के परिज्ञा का उदय नहीं होता । त्रिविध हिंसा में प्रवृत्ति न करने वाले के पूर्ण परिज्ञा का उदय होता है, यह इसका तात्पर्य है । अपरिज्ञा सत् असत् के विवेक से शून्य अविद्या है। कर्म की परिज्ञा नहीं करने वाला व्यक्ति जन्म-मरण के चक्र का अनुपरिवर्तन करता है। परिज्ञातकर्मा उसका विच्छेद करता है। परिज्ञा से प्रवृत्ति करने वाला हिंसा से लिप्त नहीं होता। यह सब जोर से समग्र परिज्ञा (विवेक) के द्वारा चलता है।' 'वीर पुरुष हिंसास्थान से लिप्त नहीं होता। इससे स्पष्ट होता है कि जहाँ व्यक्ति ५. वही, २।१७९ । ६. वही, २।१५० । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपोद्घातः तत् कर्मास्ति पापम् । पुद्गलसंश्लेषात्मक कर्मापीह सम्मतमस्ति । 'कर्मणा उपाधिः जायते' अत्र कर्मपदस्य प्रयोगः पौदगलिककर्मणा संबध्नाति–'कम्मुणा उवाही जायइ।" ___अस्य प्रतिपक्षे 'अकम्मस्स ववहारो न विज्जइ'' इतिनिर्दिष्टमस्ति। अनेन जीवेन अपरिज्ञया प्रमादेन वा बहनि पापकर्माणि प्रकृतानि--- 'बहं च खलु पावकम्म । पगडं।' हिंसादिभिः पापकर्मभिः कर्मणां बंधो भवतीति परिज्ञया तेभ्यो निवतितव्यम् ....' इति कम्मं परिणाय सव्वसो से ण हिंसति । संजमति णो पगब्भति ।' उपरतो मेधावी सर्वाणि पापकर्माणि क्षपयति-'एत्थोवरए मेहावी सव्वं पावकम्मं झोसेति ।'५ परिज्ञा से प्रवृत्ति करता है वह कर्म पुण्य है और जहां अपरिज्ञा से प्रवृत्ति करता है वह कर्म पाप है। पुद्गलों का संश्लेषणात्मक कर्म भी आचारांग में सम्मत है। कर्म से उपाधि होती है। यहां 'कर्म' पद का प्रयोग पौद्गलिक कर्म से सम्बन्ध रखता है। इसके प्रतिपक्ष में 'कर्ममुक्त आत्मा के लिए कोई व्यवहार नहीं होता-नाम और गोत्र का व्यपदेश नहीं होता'-ऐसा निर्देश किया गया है । इस जीव ने अपरिज्ञा या प्रमाद के द्वारा बहुत पाप कर्म किए हैं। हिंसा आदि पाप कर्मों से कर्मों का बन्ध होता है, यह जानकर परिज्ञा के द्वारा उनसे निवृत्त होना चाहिए। इस प्रकार कर्म को पूर्णरूप से जानकर वह किसी की हिंसा नहीं करता। वह इन्द्रियों का संयम करता है, उनका उच्छृखल व्यवहार नहीं करता। असंयम से उपरत मेधावी पुरुष सब पाप कर्मों का क्षय कर देता है। सुखदुःखयोविवेकः सुख-दुःख का विवेक सर्वेषां प्राणिनां जीवितं सुखं च प्रियमस्ति, वधः सब प्राणियों को जीवन और सुख प्रिय है, वध और दुख दुःखं च अप्रियमस्तीति' स्वाभाविकी मनोवृत्तिः निरू- अप्रिय है । यह स्वाभाविक मनोवृत्ति का निरूपण है। सुख-दुःख पिता । सुखदुःखयोः मनोवैज्ञानिकः पक्षश्चायम् । असा- का यह मनोवैज्ञानिक पक्ष है। यह भी अहिंसा का व्यावहारिक वपि समस्ति अहिंसाया व्यावहारिक आधारः । अत एव आधार है । इसीलिए बार-बार कहा गया-'तू जीवों के कर्म-बन्ध वारं वारं उक्तम्- 'भूएहि जाण पडिलेह सातं'', 'दुक्खं और कर्म-विपाक को जान और कर्म-क्षय को देख ।' 'वर्तमान च जाण अदुवागमेस्सं, 'दुक्ख लोयस्स जाणित्ता", अथवा भविष्य में होने वाले दु.खों को जान ।' 'णिज्झाइत्ता पडिलेहित्ता पत्तेयं परिणिव्वाण', 'सव्वेसि . 'पुरुष लोक के दुःख को जानकर उसके हेतुभूत कषाय का पाणाणं सव्वेसि भूयाणं सव्वेसि जीवाणं सव्वेसि परित्याग करे।' सत्ताणं अस्सायं अपरिणिव्वाणं महब्भयं दुक्खं ति 'तुम प्रत्येक प्राणी की शान्ति को जानो और देखो।' बेमि।११ 'सब प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों के लिए अशान्ति अप्रिय, महाभयंकर और दुःख है।' अनयोराध्यात्मिकः पक्षः-प्राणिनां सुखं प्रियमस्ति, इन (सुख और दुःख) का आध्यात्मिक पक्ष इस प्रकार हैअतस्तस्य वियोगो न कार्यः । दुःखं च अप्रियमस्ति, प्राणियों को सुख प्रिय है इसलिए उसका वियोग नहीं करना नातस्तस्य संयोगः कार्यः । इष्टवियोगे अनिष्टसंयोगे च चाहिए और दुःख अप्रिय है इसलिए उसका संयोग नहीं करना आर्तध्यानं भवति । ते प्राणिनो न आर्तध्याने निमज्ज- चाहिए । इष्ट का वियोग और अनिष्ट का संयोग होने पर आतनीयाः। ध्यान होता है। उन प्राणियों को आर्त्तध्यान में निमग्न नहीं करना चाहिए। अध्यात्मदृष्टया निश्चयनयदृष्टया वा किमस्ति आध्यात्मिक या नैश्चयिक दृष्टि से दुःख क्या है, यह एक दुःखमिति स्वाभाविकी जिज्ञासा। एनां लक्ष्यीकृत्य स्वाभाविक जिज्ञासा है। इसे लक्षित कर भगवान ने कहा-कर्मभगवता प्रोक्तम्-कर्मबन्धोऽस्ति दुःखम् । तत एव जीवो बन्ध दुःख है। उसी के कारण जीव दुःखों के आवर्त का अनुपरिदुःखानामावर्त्तमनुपरिवर्तयति-'असमियदुक्खे दुक्खी १. आयारो, ३।१९। ५. वही, ३४१। ९. वही, ३७७ ॥ २. वही, ३।१८। ६. वही, २०६३,६४ । १०. वही, ११२१ ३. वही, ३३३९ । ७. वही, २॥५२॥ ११. वही, १११२२। ४. वही, ५३५१ । ८. वही, ४॥३५॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगभाष्यम् दुक्खाणमेव आवट्ठे अणुपरियट्टइ।" अत एवोक्तम्- वर्तन करता है । इसीलिए कहा है-दुःख के अग्र और मूल का दुःखस्य अग्रं मूलं च जानीहि-'अग्गं च मूलं च विगिच विवेक करो। धीरे। कषायमूलानि दुःखानि इत्युक्तमेव । सूत्रकारेण दुःखों का मूल है कषाय'—यह पहले कहा जा चुका है। आरम्भोऽपि दुःखोत्पत्तिहेतुरुक्तः-'आरंभजं दुक्ख मिणति सूत्रकार ने आरंभ-हिंसा को भी दुःख की उत्पत्ति का हेतु बतलाया णच्चा। दुःखस्य कुशलाः परिज्ञामुदाहरन्ति–'ते है। जैसे--'दुःख हिंसा से उत्पन्न है ।' 'कुशल पुरुष दुःख की परिज्ञा सव्वे पावाइया दुक्खस्स कुसला परिण्णमुदाहरंति ।। का प्रतिपादन करते हैं।' दुःखक्षय के लिए कर्म शरीर का प्रकंपन दुःखक्षयाय आवश्यकमस्ति कर्मशरीरस्य प्रकम्पनम् आवश्यक है। धूणे सरीरं, कसेहि अप्पाणं, जरेहि अप्पाणं ।" 'मुणी मोणं समादाय धुणे कम्म-सरीरगं।" तस्य इमे उपायाः कर्म-शरीर को क्षीण करने के ये उपाय हैंप्रथमः-अप्रमाद:-'एवं से अप्पमाएणं, विवेगं किट्टति पहला उपाय है-अप्रमाद-प्रमाद से किए हुए कम-बंध का विलय वेयवी।''धीरे मुहत्तमवि णो पमायए।" अप्रमाद से होता है-- सूत्रकार ने ऐसा कहा है।' 'धीर पुरुष मुहूर्त्तमात्र भी प्रमाद न करे ।' द्वितीयः-आत्मसंप्रेक्षा-'एगमप्पाणं संपेहाए।" दूसरा उपाय है-आत्म-संप्रेक्षा-'एक आत्मा की ही संप्रेक्षा करे।' तृतीयः-एकत्वानुप्रेक्षा-'एगो अहमसि, न मे अस्थि तीसरा उपाय है-एकत्व-अनुप्रेक्षा-'मैं अकेला हूं, मेरा कोई नहीं, कोइ, न याहमवि कस्सइ, एवं से एगागिणमेव मैं भी किसी का नहीं हूं। इस प्रकार वह भिक्षु अप्पाणं समभिजाणिज्जा ।' 'ण महं अत्थित्ति अपनी आत्मा को एकाकी ही अनुभव करे।' इति एगोहमंसि ।' 'मेरा कोई नहीं है, इसलिए मैं अकेला हूं।' चतुर्थः----अशरणानुप्रेक्षा-'नालं ते तव ताणाए वा, चौथा उपाय है-अशरण-अनुप्रेक्षा—'हे पुरुष ! वे स्वजन तुम्हें सरणाए वा । तुम पि तेसिं नालं ताणाए वा, श्राण या शरण देने में समर्थ नहीं हैं। तुम भी सरणाए वा ।" उन्हें त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं हो।' पञ्चमः—अनित्यानुप्रेक्षा-'आहारोवचया देहा, पांचवां उपाय है-अनित्य-अनुप्रेक्षा-'शरीर आहार से उपचित परिसह-पभंगुरा ।3 'से पुव्वं पेयं पच्छा पेयं होते हैं और वे कष्ट से भग्न हो जाते हैं।' भेउर-धम्म, विद्धंसण-धम्म, अधुवं, अणितियं, 'तुम इस शरीर को देखो । यह पहले या पीछे एक असासयं, चयावचइयं, विपरिणाम-धम्म पासह दिन अवश्य ही छूट जाएगा। विनाश और विध्वंस एवं रूवं ।१४ इसका स्वभाव है। यह अध्रुव, अनित्य और अशाश्वत है। इसका उपचय और अपचय होता है। इसकी विविध अवस्थाएं होती हैं।' षष्ठः-शरीरसंप्रेक्षा-'जे इमस्स विग्गहस्स अयं छठा उपाय है-शरीर-संप्रेक्षा-'इस औदारिक शरीर का यह खणेत्ति मन्नेसी।'१५ वर्तमान क्षण है, इस प्रकार जो अन्वेषण करता है, वह सदा अप्रमत्त होता है।' सप्तमः-लोकविपश्यना-'आयतचक्खू लोगविपस्सी, सातवां उपाय है-लोक-विपश्यना—'संयतचक्षु व्यक्ति लोकदर्शी लोगस्स अहो भागं जाणइ, उडढं भागं जाणइ, होता है। वह लोक के मधो भाग को जानता है, १. आयारो, २०७४ । ६. वही, २।१६३ । ११. वही, ६।३८ । २. वही, ३३४ । ७. वही ५१७४। १२. वही, २।८। ३. वही, ४१२९ । ८. वही, २॥११॥ १३. वही, ८.३५ । ४. वही, ४॥३०॥ ९. वही, ४१३२। १४. वही, २२९ । ५. वही, ४॥३२॥ १०. वही, ८।९७।। १५. वही, ५।२१। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपोद्घातः तिरियं भागं जाणइ।" अष्टमः-पश्यकशक्तविकास:----'अण्णहा णं पासए परिहरेज्जा।'३ 'से हु एगे संविद्धपहे मुणी, अण्णहा लोगमुवेहमाणे । नवमः-प्रतिपक्षभावना-'लोभं अलोभेण दुगंछ- माणे।" दशमः—अकर्मसाधना-'एस अकम्मे जाणति- पासति । एकादश:---अशौचानुप्रेक्षा-'जहा अंतो तहा बाहि, जहा बाहिं तहा अंतो।" 'अंतो अंतो पूतिदेहतराणि पासति पुढोवि सवंताई।'' द्वादशः- अनन्यदशनम्-'ज अणण्णदसा, स अणण्णा- रामे, जे अणण्णारामे, से अणण्णदंसी।" त्रयोदशः-आतंकदर्शनम्-'आयंकदंसी ण करेति पावं।" चतुर्दश:-निष्कर्मदर्शनम्-'पलिच्छिदिया णं णिक्क- म्मदंसी। ऊर्ध्वभाग को जानता है और तिरछे भाग को जानता है।' आठवां उपाय है-द्रष्टाशक्ति का विकास-'अध्यात्म तत्त्वदर्शी पुरुष वस्तुओं का परिभोग अन्यथा करे-जैसे अध्यात्म के तत्त्व को नहीं जानने वाला करता है, वैसे न करे ।' 'केवल वही अपने पथ पर आरूढ़ रहता है जो लोक को भिन्न दृष्टि से देखता है लोक-प्रवाह की दृष्टि से नहीं देखता।' नौवां उपाय है-प्रतिपक्षभावना का विकास-'अलोभ से लोभ को पराजित कर देना।' दसवां उपाय है-अकर्म साधना-'वह अकर्म होकर जानता देखता है।' ग्यारहवां उपाय है---अशौच-अनुप्रेक्षा-'यह शरीर जैसा भीतर है, वैसा बाहर है और जैसा बाहर है वैसा भीतर है।' 'इस अशुचि शरीर के भीतर से भीतर पहुंच कर शरीर-धातुओं को देखता है और झरते हुए विविध स्रोतों को भी देखता है।' बारहवां उपाय है-अनन्यदर्शन--'जो अनन्य को देखता है, वह अनन्य में रमण करता है और जो अनन्य में रमण करता है, वह अनन्य को देखता है।' तेरहवां उपाय है-आतंकदर्शन-हिंसा में आतंक देखनेवाला पुरुष परम को जानकर पाप नहीं करता।' चौदहवां उपाय है-निष्कर्मदर्शन--'संयम और तप के द्वारा राग-द्वेष को छिन्न कर पुरुष निष्कामदर्शी---- आत्मदर्शी हो जाता है।' पन्द्रहवां उपाय है-परमदर्शन-तीन विद्याओं का ज्ञाता परम को जानता है।' 'लोक में परम को देखना"।' सोलहवां उपाय है आत्म-समाधि-'जैसे अग्नि जीर्ण काष्ठ को शीघ्र जला देती है, वैसे ही समाहित आत्मा वाला तथा अनासक्त पुरुष कर्म-शरीर को प्रकंपित, कृश और जीर्ण कर देता है।' सतरहवां उपाय है-निरुद्ध-आयुष्क-संप्रेक्षा---'यह आयु सीमित है, इसकी संप्रेक्षा कर।' अठारहवां उपाय है-प्रकंपन-दर्शन-'तू देख, यह लोक चारों ओर प्रकंपित हो रहा है।' ११. वही, ३३३३ । १२. वही, ३१३८ । १३. वही, ४।३३। १४. वही, ४१३४॥ १५. वही, ४।३७ । पञ्चदशः-परमदर्शनम्-'तम्हा तिविज्जो परमंति णच्चा । 'लोयंसी परमदंसी।१२ षोडश:-आत्मसमाधि:--'जहा जुण्णाई कट्ठाई हव्व वाहो पमत्थति, एवं अत्तसमाहिए अणिहे।३ सप्तदशः-निरुद्धायुष्कसंप्रेक्षा-'इमं णिरुद्धाउयं संपेहाए ।१४ अष्टादश:-प्रकम्पनदर्शनम्--'लोयं च पास विप्फंद- माणं ।'५ १. आयारो, २।१२५॥ ६. वही, २।१२९ । २. वही, २।११८ । ७. वही, २।१३०। ३. वही, ५५०॥ ८. वही, २०१७३। ४. वही, २॥३६॥ ९. वही, ३३३ । ५. वही, २।३७ । १०. वही, ३।३५ । Jain Education international Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगभाष्यम् एकोनविंशः-परिज्ञा-'जं आउट्टिकयं कम्म, तं उन्नीसवां उपाय है---परिज्ञा-'अविधिपूर्वक प्रवृत्ति करते हुए जो परिणाए विवेगमेति ।" कर्म-बंध होता है, उसका विलय परिज्ञा के द्वारा होता है।' विश:--आत्मनिग्रहः इन्द्रियजयो वा-'अत्ताणमेव बीसवां उपाय है.-आत्म-निग्रह अथवा इन्द्रिय-जय--'आत्मा का अभिणिगिज्झ।२ ही निग्रह करो।' एकविंशः-समत्वदर्शनम्-'समत्तदंसी ण करेति इकीसवां उपाय है-समत्वदर्शन--'समत्वदर्शी पुरुष पाप नहीं पावं ।" करता।' 'सर्वे आत्मानः सन्ति समाः'- इति सिद्धान्तं केन्द्री 'सभी आत्माएं समान हैं'-इस सिद्धांत को केन्द्र में रखकर कृत्य आचारस्य अनेके विधिनिषेधाः प्रवर्तन्ते, यथा आचारशास्त्र के अनेक विधि-निषेध प्रवृत्त होते हैं जैसे-- अहिंसा-'समयं लोगस्स जाणित्ता, एत्थ सत्थोवरए। अहिंसा के विषय में 'सब आत्माएं समान हैं, यह जानकर पुरुष समूचे जीव-लोक की हिंसा से उपरत हो जाए।' आचारांगे पंचमहाव्रतानां क्रमबद्धा व्यवस्था न आचारांग में महाव्रतों की क्रमबद्ध व्यवस्था उपलब्ध नहीं है। लभ्यते, तथापि अहिंसाया इव सत्यस्य, अचौर्यस्य, फिर भी अहिंसा की भांति सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह ब्रह्मचर्यस्य, अपरिग्रहस्य च महत्वपूर्ण स्थानमस्ति- का महत्त्वपूर्ण स्थान है । जैसे-- सत्यम् –'सच्चसि धिति कुब्बह ।'५ 'पूरिसा! सच्चमेव वह । पुरिसा सच्चमव सत्य के विषय मेंसमभिजाणाहि। सच्चस्स आणाए उवहिए 'पुरुष ! तू सत्य में धृति कर।' से मेहावी मारं तरति ।" 'पुरुष ! तू सत्य का ही अनुशीलन कर।' 'जो सत्य की आज्ञा में उपस्थित है, वह मेधावी मृत्यु अथवा कामनाओं को तर जाता है।' अचौर्यम-'अदुवा अदिण्णादाणं ।“ 'अदुवा अदिन्न- अचौर्य के विषय में.. माइयंति।" 'पर प्राणी का प्राण-वियोजन करना अदत्तादान है।' 'अथवा वे अदत्त का ग्रहण करते हैं।' ब्रह्मचर्यम्-'जे गुणे से मूलट्ठाणे, जे मूलट्ठाणे से गुणे।" ब्रह्मचर्य के विषय में'णालं पास ।' 'अलं ते एएहिं । १२ 'एयं पास 'जो विषय है, वह आधार है । जो आधार है वह विषय है।' मुणी ! महब्भयं । 'तू देख, ये भोग तृप्ति देने में समर्थ नहीं हैं।' 'फिर भोगों से तुम्हारा क्या प्रयोजन ?' 'ज्ञानिन् ! तू देख, कामभोग महाभयंकर हैं।' अपरिग्रह:--'जे ममाइय-मति जहाति, से जहाति अपरिगद के विषय मेंममाइयं । १४ 'से ह दिट्रपहे मणी, जस्स णत्थि 'जो परिग्रह की बुद्धि का त्याग करता है, वही परिग्रह को ममाइयं ।१५ त्याग सकता है।' "जिसके पास परिग्रह नहीं है, उसी ने पथ को देखा है।' समतायाः भूमिका बाह्यविषयपरित्यागसम्बद्धा एव समता की भूमिका बाह्य विषयों के परित्याग से ही संबद्ध नास्ति, किन्तु सा संबध्नाति अन्तश्चेतनाम् । तस्याः । नहीं है, किन्तु उसका संबंध अन्तश्चेतना से है । समता की सिद्धि सिद्धय नैके निर्देशा उपलभ्यन्ते के लिए अनेक उपाय प्राप्त होते हैं१. आहारविषये समत्वप्रयोगः-'पंतं लूहं सेवंति १. आहार के विषय में समता का प्रयोग–'समत्वदर्शी वीर पुरुष १. आयारो, ५१७३। २. वही. ३३६४। ३. वही, ३२८ । ४. वही, ३।३। ५. वही, ३।४०। ६. वही, ३॥६५॥ ७. वही, ३॥६६॥ ८. वही, ११५८। ९. वही, ८४। १०. वही, २।१। ११. वही, २२९७ । १२. वही, २१९८। १३. वही, २१९९; द्रष्टव्यानि ५७५-८८ सूत्राणि । १४. वही, २।१५६ । १५. वही, २३१५७ । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपोद्घातः वीरा समत्तदंसिणो।" प्रान्त और रूक्ष आहार आदि का सेवन करते हैं।' २. लाभालाभयोः समत्वम्-'लाभो त्ति न मज्जे- २. लाभ-अलाभ में समता-'आहार का लाभ होने पर मद न ज्जा।२ 'अलाभो त्ति ण सोयए।" करे।' 'आहार का लाभ न होने पर शोक न करे।' ३. प्रियाप्रिययोः समत्वम् -'सुभि अदुवा दुभि। ३. प्रिय-अप्रिय में समता--'मनोज्ञ या अमनोज्ञ शब्दों को समभाव 'का अरई ? के आणंदे ? एत्थंपि अग्गहे चरे । से सहन करे।' सव्वं हासं परिच्चज्ज, आलीणगुत्तो परिव्वए।'५ 'साधक के लिए क्या अरति और क्या आनन्द ? वह अरति और आनन्द के विकल्प को ग्रहण न करे। वह हास्य आदि सभी प्रमादों को त्याग, इन्द्रिय-विजय कर तथा मन-वचन-काया का संवरण कर परिव्रजन करे।' जीवनस्य नानाव्यवहारपक्षेषु समत्वमाचरन् पुरुषः जीवन के अनेक व्यावहारिक पक्षों में समता का आचरण अध्यात्म-प्रसादं प्राप्नोति-समयं तत्वेहाए, अप्पाणं करता हुमा व्यक्ति अध्यात्म-प्रसाद-चित्त की प्रसन्नता को प्राप्त विप्पसायए।" होता है। --'पुरुष जीवन में समता का आचरण कर अपने चित्त को प्रसन्न करता है।' समत्वं वस्तुतः समाधिः निविचारावस्था वा। समता का वास्तविक अर्थ है--समाधि, निर्विचार अवस्था । तस्यामवस्थायामेव अन्तरात्मा प्रसीदति ।' उसी अवस्था में अन्तरात्मा में प्रसन्नता फूटती है। प्रस्तुतागमे पदार्थस्यार्थे 'रूप' शब्दस्य प्रयोगो प्रस्तुत आगम में पदार्थ के अर्थ में 'रूप' शब्द का प्रयोग दश्यते-'विरागं रूवेहि गच्छेज्जा, महया खुडुएहि मिलता है।-'पुरुष छोटे या बड़े-सभी प्रकार के रूपों-पदार्थों वा।" अस्मिन्नर्थे 'दृष्ट' शब्दस्य प्रयोगोऽपि विद्यते के प्रति वैराग्य धारण करे।' 'दिळेंहिं णिव्वेयं गच्छेज्जा।" पदार्थ के अर्थ में 'दृष्ट' शब्द का भी प्रयोग प्राप्त है-'पुरुष दृष्ट-पदार्थों या विषयों के प्रति विरक्त रहे।' वैराग्यनिर्वेदावपि समतायाः सहचरावेव। समता वैराग्य और निवेद-ये दोनों भी समता के सहचारी हैं। सम्यक्त्वं वा आध्यात्मिको धर्म:-'समियाए धम्मे, समता का अर्थ है सम्यक्त्व अथवा आध्यात्मिक धर्म। 'तीर्थंकरों आरिएहिं पवेदिते ।" एवं धर्ममादृत्य जीवा दुःखाद् ने समता में धर्म कहा है।' इस समता धर्म को स्वीकार कर जीव जन्ममरणचक्राद् वा मोक्षं लभन्ते। समताधर्मोऽयं दुःख और जन्म-मरण के चक्र से छूट जाते हैं। यह समता धर्म दो संवरनिर्जराभ्यां विभक्तोऽस्ति । संवरेण दुःखहेतूनां भागों में विभक्त है-संवर और निर्जरा। संवर धर्म से दुःख के निरोधो भवति । निर्जरया च दुःखं क्षीणं भवति । अनया हेतुओं का निरोध होता है और निर्जरा धर्म से दुःख का क्षय होता प्रणाल्या दुःखमोक्षः प्रजायते-'आयाणं णिसिद्धा है । इसी प्रणाली से दुःख का मोक्ष होता है--'जो कर्म के सगडब्भि ।" उपादान-राग-द्वेष को रोकता है, वही अपने किए हुए कर्मों का भेदन कर पाता है।' भगवता महावीरेण आवरणानि अभिभूय पश्यकत्वं भगवान् महावीर आवरण-घात्यकों का क्षय कर द्रष्टालब्धम् । सति पश्यकत्वे यद् दृष्टं तदुपदर्शितम् । अत भाव को प्राप्त हुए । द्रष्टा होने के पश्चात् जो कुछ उन्होंने देखाएव एतद् दर्शनं पश्यकस्य दर्शनं विद्यते-'एयं पासगस्स अनुभव किया उसका उन्होंने उपदेश दिया। इसीलिए यह जैन दसणं उवरयसत्थस्स पलियंतकरस्स । १२ दर्शन द्रष्टा का दर्शन है-यह अहिंसक और निरावरण द्रष्टा का दर्शन है। १. आयारो, २१६४ व्रष्टव्यं-८/१०१ सूत्रम् । २. वही, २११४ ३. वही, २१११५॥ ४. वही, ६५५ ५. वही, ३३६१॥ १. वही, ३।५५। ७. तुलना-पातंजलयोगदर्शन १९४७ । ८. आयारो, ३१५७ । ९. वही, ४।६। १०. वही, ८।३१ । ११. वही, ३८६ । १२. वही, ३८५। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ आचारांगभाष्यम् आचारांग प्राधान्येन आचारप्रतिपादक शास्त्र- आचारांग मुख्यतः आचार का प्रतिपादक शास्त्र है। इसलिए मस्ति । तेन अस्मिन् द्रव्यमीमांसा नास्ति प्रधाना। इसमें द्रव्य मीमांसा प्रधान नहीं है। फिर भी आचारशास्त्र तथापि आचारस्य आधारभूता तत्त्वद्वयी-जीवः के आधारभूत दो तत्वों-जीव और पुद्गल का यथास्थान पुद्गलश्च यथास्थानमस्ति निर्दिष्टा। जीवशब्दस्य निर्देश प्राप्त होता है । प्रस्तुत आगम में 'जीव' शब्द का प्रयोग प्रयोगः अनेकवारं दृश्यते । जैनद्रव्यमीमांसायां अजीव- अनेक बार हुआ है । जैन द्रव्य-मीमांसा में अजीब द्रव्य के पांच द्रव्यं पञ्चधा विभक्तमस्ति-धर्मास्तिकायः, अधर्मास्ति- प्रकार निर्दिष्ट हैं-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय कायः, आकाशास्तिकायः, पुदगलास्तिकायः, कालश्च। पुद्गलास्तिकाय और काल । प्रस्तुत विषय में केवल पुद्गलास्तिकाय प्रस्तुतविषये केवलं पुद्गलास्तिकायस्यैव संबन्धः। का ही संबंध है। आचारांगे 'पुद्गल' पदं नास्ति क्वचित् प्रयुक्तम्। आचारांग में 'पुद्गल' शब्द का प्रयोग कहीं प्राप्त नहीं है, किन्तु तस्य गुणात्मक निरूपणमुपलभ्यते -'जस्सिमे सद्दा किन्तु उसके गुणात्मकरूप का वर्णन प्राप्त होता है, जैसे ....'जो पुरुष य रूवा य गंधा य रसा य फासा य अभिसमन्नागया। इन शब्द, रूप, गंध, रस और स्पों को भली भांति जान लेता है, भवंति, से आयवं नाणवं वेयवं धम्मवं बंभव । 'से ण । उनमें राग-द्वेष नहीं करता, वह आत्मवान्, ज्ञानवान् वेदवान्, स, ण रूवे, ण गंधे, ण रसे, ण फासे।" धर्मवान् और ब्रह्मवान् होता है।' 'आत्मा न शब्द है, न रूप है, न गन्ध है, न रस है और न स्पर्श है।' जीवपुद्गलयोः मुर्ताऽमूर्त विभागोऽपि प्रदर्शितोऽस्ति प्रस्तुत सूत्र में जीव और पुदगल के मूतं और अमूतं ये दो —'अरूवी सत्ता।" दिठेहि णिव्वेयं गच्छेज्जा।'५ विभाग भी प्रदर्शित हैं---'जीव अमूर्त है।' 'जो दृष्ट- अजीव हैं, उनमें विरक्त रहे। वैदिकसाहित्येऽपि मूर्ताऽमूर्तविभागो लभ्यते।' वैदिक साहित्य में भी मूर्त और अमूर्त का विभाग प्राप्त सांख्यदर्शने आत्मा अमूर्तः प्रकृतिश्च मूर्तः। आकाशश्च होता है । सांख्य दर्शन में आत्मा को अमूर्त और प्रकृति को मूर्त प्रकृतिविकार एव, ततः स मूर्त एव । बौद्धदर्शने तत्त्वानि माना है। 'आकाश' प्रकृति का ही विकार है, अतः वह मूतं ही है। अव्याकृतानि । तेन नास्ति तत्र मूर्ताऽमूर्तयोविभागः । बौद्ध दर्शन में सभी तत्त्व अव्याकृत हैं। इसलिए मूर्त और अमूर्त का विभाग वहां नहीं है। प्रस्तुतागमे दर्शनस्य मूलबीजानामन्वेषणा कतु प्रस्तुत आगम में दर्शन के मूल बीजों को खोजा जा सकता शक्या, किन्तु अस्याधारेण तस्य रूपरेखा निर्धारयितुं न है, किन्तु इसके आधार पर उसकी रूपरेखा निर्धारित नहीं की जा शक्या इत्यस्माकं अभिमतम् । सकती है, यह हमारा अभिमत है। १. आयारो, १३५४, ५५,१२२, ४११,२०,२२,२३.२६; ६।१०३,१०४,१०५, ८।१७,२१,२२,२३,२४ । २. वही, ३।४। ३. वही, ५।१४०। ४. वही, ५२१३८ । ५. वही, ४१६ ।। ६. (क) बृहदारण्यक २।३।१-'द्वे वा व ब्रह्मणो रूपे, मूर्तञ्चेवामूर्तञ्च ।' (ख) शतपथब्राह्मण १४१५।३।१–'द्व एव ब्रह्मणो रूपे, मूर्तञ्चवामूर्तञ्च ।' (ग) विष्णुपुराण १।२२।५३-'रूपे ब्रह्मणो रूपे, मूर्तञ्चामूर्तमेव च ॥' Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमं अज्झयणं सत्थपरिण्णा पहला अध्ययन शस्त्रपरिज्ञा [उद्देशक ७ सूत्र १७७] Jain Education international Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुखम् प्रस्तुताध्ययनस्य नामास्ति 'शस्त्रपरिज्ञा'।' अस्य प्रस्तुत अध्ययन का नाम है 'शस्त्रपरिज्ञा।' इसका प्रतिपाद्य प्रतिपाद्यो विषयो 'जीवसंयमः' ।। स च अहिंसा । उक्तं विषय है जीव-संयम और वह है अहिंसा । दशवकालिक सूत्र में कहा च दशवकालिकसूत्रे-'अहिंसा निउणं दिट्ठा, सव्वभूएसु है-'महावीर ने सूक्ष्म रूप से देखा है, सब जीवों के प्रति संयम संजमो।" रखना अहिंसा है।' नियुक्तिकृता अस्य चत्वारोऽर्थाधिकाराः प्रति- नियुक्तिकार ने इसके चार अर्थाधिकारों का प्रतिपादन किया पादिताः१. जीवः । १. जीव । २. षड्जीवकायप्ररूपणा । २. षड्जीवकाय-प्ररूपणा। ३. बन्धः । ३. बन्ध । ४. विरतिः । ४. विरति । एते अर्थाधिकाराः जैनदर्शनस्य आचारशास्त्रीय ये अर्थाधिकार जैन दर्शन के आचारशास्त्रीय दृष्टिकोण को दष्टिकोणमुपस्थापयन्ति । आचार:-परिज्ञा विरतिः प्रस्थापित करते हैं। आचार का अर्थ है-परिज्ञा, विरति अथवा संयमो वा। स च सप्तदशविधः। तत्र नवविधः संयमः संयम । संयम सतरह प्रकार का है। उसमें नौ प्रकार का संयम षडजीवनिकायमाश्रित एव । स च जीवास्तित्वावबोधे षड्जीवनिकाय से संबंधित है। वह संयम जीव का अस्तित्व-बोध सति भवति । तेन संयमस्याधारभूताश्चत्वारो वादा उप- होने पर होता है । इस विमर्श से संयम के आधारभूत चार वादों का नताः-आत्मवादः, लोकवादः, कर्मवादः, क्रियावादश्च ।। प्रतिपादन हुआ- आत्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद और क्रियावाद । जीवस्यास्तित्वं तत्र प्रतिपक्षभूतस्याजीवस्य अस्तित्वं । जीव का प्रतिपक्षी है अजीव । जीव का अस्तित्व अजीव के अस्तित्व विना न हि सिद्धयति । के बिना सिद्ध नहीं होता। तेन आत्मवादवल्लोकवादोऽपि संयमस्याधारभूतो- इसलिए आत्मवाद की भांति लोकवाद भी संयम का आधारऽस्ति ।' सप्तदशविधे संयमे दशमः संयमः अजीवकाय- भूत तत्त्व है। सतरह प्रकार के संयम में दसवां प्रकार है-अजीवसंयम एव । कर्मवादो बन्धं समाश्रितः। बन्धस्य हेतु: काय संयम । कर्मवाद का आधार है बंध । बन्ध का हेतु हैक्रियावादः। क्रियावाद। आचारांगं ब्रह्मचर्यस्य प्रतिपादकमस्ति । ब्रह्मचर्यम् आचारांग सूत्र ब्रह्मचर्य का प्रतिपादक है। ब्रह्मचर्य का अर्थ —आत्मविद्या तदाश्रितमाचरणं वा । एतस्मिन् अध्यात्म है-आत्मविद्या या आत्मविद्याश्रित आचरण। इस अध्यात्मशास्त्र शास्त्र विरतिरेव आचाररूपेण स्वीकृतास्ति ।। में विरति को ही आचाररूप में स्वीकृत किया गया है। ___ कर्मसमारम्भपरिज्ञा विरतिः । विरतिमूलकस्य कर्मसमारम्भ की परिज्ञा-विवेक करना विरति है। विरतिआचारस्य इयमेव निष्पत्तिः-मुनिना कर्मसमारम्भ मूलक आचार की यही निष्पत्ति है-मुनि को कर्मसमारम्भ की परिज्ञा कर्तव्या। परिज्ञा करनी चाहिए। १. आचारांग नियुक्ति, गाथा ३१ । पंचिदियसंजमे अजीवकायसंजमे पेहासंजमे उपहासंजमे २. वही, गाथा ३३ । अवहट्टसंजमे पमज्जणासंजमे मणसंजमे वइसंजमे कायसंजमे । ३. दसवेआलियं, ६८। ६. आयारो, ११५। ४. आचारांग नियुक्ति, गाथा ३५ : ७. द्रष्टव्यं-आयारो ११५ का टिप्पण । जीवो छक्कायपरूवणा य तेसि वहे य बंधोत्ति । ८. आयारो, १६। विरईए अहिगारो, सत्यपरिणाए णायध्वो ॥ ९. अंगसुत्ताणि १, समवाओ, ९४३ : नव बंभचेरा पण्णता, तं ५. अंगसुत्ताणि १, समवाओ १७१२: जहा-संगहणी गाहासत्तरसबिहे संजमे पण्णत्ते, तं जहा-पुढवीकायसंजमे सत्थपरिण्णा लोगविजओ, सीओसणिज्ज सम्मत्तं । आउकायसंजमे तेउकायसंजमे बाउकायसंजमे वणस्सइ आवंती धुतं विमोहायणं, उवहाणसुयं महपरिण्णा ॥ कायसंजमे बेइंदियसंजमे तेइंदियसंजमे चरिदियसंजमे १०. आयारो, १७॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगभाष्यम् उपनिषत्सु जीवास्तित्वविषये चचितमस्ति, किन्तु प्रस्तुताध्ययने निरूपित: षड्जोवनिकायसिद्धांत: सर्वथा मौलिकः । त्रसकायजीवानामन्यत्रापि प्रतिपादनं लभ्यते, क्वचित् क्वचित् वनस्पतिकायजीवानामपि, किन्तु शेष- जीवनिकायानां प्रतिपादन सर्वथा मौलिकमस्ति । सूत्रकृतांगादिषु' तत उत्तरवर्तिषु आगमेष्वपि एषेव षड़जीवनिकायव्यवस्था समादतास्ति । ___ स्थावरजीवकायानां वेदनानिरूपणमपि सर्वथा मौलिकमस्ति । मनुष्य शरीरेण सह बनस्पतिशरीरस्य तुलनापि ध्यानमाकर्षति विदुषाम् । शस्त्रसिद्धांतोऽपि गवेपणाया महत्तां सूचयति । नियुक्तिकृता यथा शस्त्रस्य विस्तरः कृत: जोवत्वसिद्धय च हेतुवादस्य पद्धति- रालंबिता, तत्रापि सहज ध्यानमाकृष्टं भवति। एवमेतदध्ययनं अनेकाभिर्दृष्टिभिरत्यन्तं महत्त्वपूर्णमस्ति। उपनिषदों में जीव के अस्तित्व के विषय में चर्चा हुई है, किन्तु प्रस्तुत अध्ययन में निरूपित षड्जीवनिकाय का सिद्धांत सर्वथा मौलिक है। त्रसजीवों का प्रतिपादन अन्यत्र भी प्राप्त होता है और कहीं-कहीं वनस्पतिकाय जीवों की चर्चा भी मिलती है, किन्तु शेष जीवनिकायों का प्रतिपादन सर्वथा मौलिक है। सूत्रकृतांग आदि तथा उसके उत्तरवर्ती आगमों में भी षड्जीवनिकाय की यही व्यवस्था स्वीकृत हुई है। स्थावर जीव-निकायों का वेदना-निरूपण भी सर्वथा मौलिक है । मनुष्य-शरीर के साथ वनस्पति-शरीर की तुलना भी विद्वानों का ध्यान आकृष्ट करती है। इन जीवनिकायों के शस्त्र का सिद्धांत भी गवेषणा की महत्ता सूचित करता है। नियुक्तिकार ने जिस प्रकार शस्त्र का विस्तार से प्रतिपादन किया है और जीवत्व-सिद्धि के लिए हेतुवाद की पद्धति का आलम्बन लिया है, उस ओर भी ध्यान सहज आकृष्ट होता है। इस प्रकार यह अध्ययन अनेक दृष्टियों से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। १. अंगसुत्ताणि १, सूयगडो १।९।८,९ । २. दसवे आलियं, अध्ययन ४ । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमं अज्झयणं : सत्थपरिणा पहला अध्ययन : शस्त्रपरिज्ञा पढमो उद्देसो : पहला उद्देशक १. सुयं मे आउस ! तेणं भगवया एवमक्खायं-इहमेगेसि नो सण्णा भवइ, तं जहा-पुरस्थिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमसि, दाहिणाओ वा दिसाओ आगओं अहमंसि, पच्चस्थिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, उत्तराओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, उड़ाओ वा दिसाओ आगो अहमंसि, अहे वा दिसामो आगओ अहमंसि, अण्णयरीओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, अणुदिसाओ वा आगओ अहमंसि । सं०-श्रुतं मया आयुष्मन् ! तेन भगवता एवमाख्यातम्-इह एकेषां नो संज्ञा भवति, तद् यथा--पौरस्त्याया वा दिशाया आगतोऽहमस्मि, दक्षिणस्या वा दिशाया आगतोऽहमस्मि, पाश्चात्याया वा दिशाया आगतोऽहमस्मि, उत्तरस्या वा दिशाया आगतोऽहमस्मि ऊ या वा दिशाया आगतोऽहमस्मि, अधो वा दिशाया गतोऽहमस्मि, अन्यतरस्या वा दिशाया आगतोऽहमस्मि. अनुदिशाया वा आगतोऽहमस्मि । आयुष्मन् ! मैंने सुना है। भगवान ने यह कहा-इस जगत् में कुछ मनुष्यों को यह संज्ञा नहीं होती, जैसे-मैं पूर्व दिशा से आया हूं, अथवा मैं दक्षिण दिशा से आया हूं, अथवा मैं पश्चिम दिशा से आया हूं, अथवा मैं उत्तर दिशा से आया हूं, मथवा मैं अव दिशा से आया हं, अथवा मैं अधो दिशा से आया हूं, अथवा मैं किसी अन्य दिशा से आया हूं, अथवा मैं अनुदिशा से आया है। २. एवमेगेसि णो णातं भवति-अस्थि मे आया ओववाइए, णस्थि मे आया ओववाइए, के अहं आसी? केवाइओ चुओ इह पेच्चा भविस्सामि? सं०–एवं एकेषां नो ज्ञातं भवति-अस्ति मे आत्मा औपपातिकः, नास्ति मे आत्मा औपपातिकः, कोऽहं बासम् ? को वा इतश्च्युतः इह प्रेत्य भविष्यामि ? इसी प्रकार कुछ मनुष्यों को यह ज्ञात नहीं होता-मेरी आत्मा पुनर्जन्म लेने वाली है, अथवा मेरी आत्मा पुनर्जन्म नहीं लेने वाली है, मैं (पिछले जन्म में) कौन था? मैं यहां से च्युत होकर अगले जन्म में क्या होऊंगा? ३. सेज्ज पुण जाणेज्जा-सहसम्मुइयाए, परवागरणणं, अण्णेसि वा अंतिए सोच्चा, तं जहा-पुरस्थिमाओ वा दिसामो आगओ अहमंसि, दक्षिणाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, पच्चत्थिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, उत्तरामो वा दिसाओ आगओ अहमसि, उड्डाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, अहे वा दिसाओ आगओ अहमंसि, अण्णयरीओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, अणुदिसाओ वा आगओ अहमंसि। सं०–स यत् पुनः जानीयात् --स्वस्मृत्या, परव्याकरणेन, अन्येषां वा अन्तिके श्रुत्वा, तद् यथा-पौरस्त्याया वा दिशाया आगतोऽहमस्मि, दक्षिणस्या वा दिशाया आगतोऽहमस्मि, पाश्चात्याया वा दिशाया आगतोऽहमस्मि, उत्तरस्या वा दिशाया भागतोऽहमस्मि, ऊर्ध्वाया वा दिशाया आगतोऽहमस्मि, अधो वा दिशाया आगतोऽहमस्मि, अन्यतरस्या वा दिशाया आगतोऽहमस्मि, अनुदिशाया वा आगतोऽहमस्मि । कोई मनुष्य १. स्व-स्मृति से, २. पर---आप्त के निरूपण से अथवा ३. अन्य (आप्त के अतिरिक्त) विशिष्ट ज्ञानी के पास सुनकर यह जान लेता है, जैसे-मैं पूर्व दिशा से आया हूं, अथवा मैं दक्षिण दिशा से आया हूं, अथवा मैं पश्चिम दिशा से आया हूं, अथवा मैं उत्तर दिशा से आया हूं, अथवा मैं ऊर्ध्व दिशा से आया हूं, अथवा मैं अधो दिशा से आया हूं, अथवा मैं किसी अन्य दिशा से आया हूं, अथवा मैं अनुदिशा से आया हूं। ४. एवमेगेसि जं जातं भवइ-अस्थि मे आया ओववाइए। जो इमाओ दिसाओ अणुदिसाओ वा अणसंचरइ, सवाओ विसाओ सव्वाओ मणुदिसाओ जो आगओ अणसंचरइ सोहं । निरूपण से अथवा दिशा से आया हशा से आया हूँ। Jain Education international Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ आचारांगभाष्यम् सं०-एवमेकेषां यज्ज्ञातं भवति-अस्ति मे आत्मा औपपातिकः । यः अस्या दिशाया अनुदिशाया वा अनुसंचरति, सर्वस्या दिशायाः सर्वस्या अनुदिशाया यः आगतः अनुसंचरति सोऽहम् । इसी प्रकार कुछ मनुष्यों को यह ज्ञात होता है-मेरी आत्मा पुनर्जन्मधर्मा है । जो इन दिशाओं और अनुदिशाओं में अनुसंचरण करती है, जो सब दिशाओं और सब अनुदिशाओं से आकर अनुसंचरण करती है, वह मैं हूं। भाष्यकर्तुः मंगलाचरणम् भाष्यकर्ता का मंगलाचरण बिशुद्ध विशदात्मानं, परमात्मानमात्मना । मैं विशुद्ध और विशद आत्म-स्वरूप परमात्मा का अपने आत्मभाव सन्निधि सहजं नीत्वा, तनोम्याचारमद्भुतम् ॥ से सहज सान्निध्य प्राप्त कर विरल आचारांग के भाष्य की रचना कर रहा हूं। भाष्यम् १-४-सुधर्मा गणधरः जम्बुस्वामिनं एवमाह- गणधर सुधर्मा ने जम्बूस्वामी से कहा-'आयुष्मन् ! मैंने आयष्मन ! मया साक्षाद् भगवतः सकाशात् श्रुतम्। भगवान् से साक्षात् सुना है। मैं जो कुछ कह रहा हूं, वह मेरी यद ब्रवीमि तन्न स्वमनीषिकाप्रकल्पितं किन्तु तत् तेन बुद्धि से प्रकल्पित नहीं है किन्तु भगवान् महावीर ने स्वयं ही भगवता महावीरेण स्वयमेवमाख्यातम् उसका प्रतिपादन किया हैअस्ति जन्म । अस्ति मृत्युः । नात्र कस्यचित् कश्चित जन्म होता है और मृत्यु होती है। इसमें किसी को कोई संदेहः । प्रत्यक्षमिदं घटते सर्वेषाम् । यो जातः स पूर्वमपि ____ संदेह नहीं है । यह सबके सामने घटित होने वाली घटना है। जो मतोऽस्ति । यो मतः स मरणोत्तरं जन्म प्राप्स्यति । इदं । जन्मा है वह पहले मरा भी है। जो मरा है वह मरण के बाद नास्ति प्रत्यक्षम् । तेनात्र परोक्षे विषये सन्देहस्यावकाशः । जन्म लेगा, यह प्रत्यक्ष नहीं है। इसलिए इस परोक्ष विषय में अम संदेहं समाश्रित्य केचित् प्रत्यक्षवादिनः जन्म मृत्यु संदेह का अवकाश है। इस संदेह के आधार पर कुछ प्रत्यक्षवादी च अभूतपूर्वमेव मन्वते--नातः पूर्व जन्म जातम्, जन्मनः । जन्म और मृत्यु को अभूतपूर्व ही मानते हैं। वे कहते हैं-इस जन्म अभावे मृत्योरपि का कथा। से पूर्व कोई जन्म नहीं हुआ और जन्म के अभाव में मृत्यु का प्रश्न ही नहीं उठता। केचित तत्त्वदर्शिन: जन्म मृत्युञ्च साक्षात्कर्तुमभ्या- कुछ तत्त्वदर्शी पुरुषों ने जन्म और मृत्यु से साक्षात्कार करने समकृषत । सतताभ्यासेन ते साक्षात्कारभूमिकामारूढा का अभ्यास किया। निरन्तर अभ्यास से वे साक्षात्कार की भूमिका अभवन । तैलब्धमिदम-जन्मनो मृत्योश्च प्रवाहश्चिरन्त- तक पहुंचे। उन्होंने यह पाया कि जन्म और मृत्यु का प्रबाह नोऽस्ति। तस्यानभूत्यनन्तरं तेरुद्घोषणा कृता-अस्ति चिरन्तन है । उसकी अनुभूति के बाद उन्होंने यह उद्घोषणा की पूर्वजन्मनः पुनर्जन्मनश्च केषाञ्चित् संज्ञानम् । केषा- कि कुछ मनुष्यों को पूर्वजन्म और पुनर्जन्म का संज्ञान होता है। ञ्चिदिदं संज्ञानं नास्ति। कुछ को इनका संज्ञान नहीं होता। उक्तञ्च वृत्ती-तत्रासंज्ञिनां नैषोऽवबोधोऽस्ति । आचार्य शीलांक ने वृत्ति में कहा है-अमनस्क प्राणियों को संज्ञिनामपि केषाञ्चिद् भवति, केषाञ्चिन्नेति, यथा- यह अवबोध नहीं होता । समनस्क प्राणियों में भी सबको यह अवबोध अहममण्या दिशः समागतो इहेति ।' सूत्रकारः अस्माद् नहीं होता--कुछ को होता है, कुछ को नहीं होता कि मैं यहां अमुक बिन्दोरेव स्वप्रवचनं प्रारभते दिशा से आया हूं। सूत्रकार इसी बिन्दु से अपना प्रवचन प्रारंभ करते हैं'पौरस्त्यायाः दिशः आगतोऽहमस्मि, 'मैं पूर्व दिशा से आया हूं, दाक्षिणात्यायाः दिशः आगतोऽहमस्मि, अथवा मैं दक्षिण दिशा से आया हूं, पाश्चात्यायाः दिशः आगतोऽहमस्मि, अथवा मैं पश्चिम दिशा से आया हूं, औदीच्यायाः दिशः आगतोऽहमस्मि, अथवा मैं उत्तर दिशा से आया हूं, ऊर्ध्वतो दिशः आगतोऽहमस्मि, अथवा मैं ऊर्ध्व दिशा से आया हूं, अधो वा दिश: आगतोऽहमस्मि, अथवा मैं अधो दिशा से आया हूं, अन्यतरस्याः दिशः आगतोऽहमस्मि, अथवा मैं किसी अन्य दिशा से आया हूं, अनुदिशो वा आगतोऽहमस्मि ।' अथवा मैं अनुदिशा (विदिशा) से आया हूं।' १. आचारांग वृत्ति, पत्र १४ । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१. शस्त्रपरिज्ञा, उ०१. सूत्र १-४ १६ ___ एष पूर्वजन्म-पुनर्जन्म-प्रश्नः न केवलमात्मवादिनः पूर्वजन्म और पुनर्जन्म का यह प्रश्न न केवल आत्मवादी के कृते किन्तु प्रत्येक मतिमतः कृते सर्वाधिको महत्त्व- लिए अपितु प्रत्येक बुद्धिवादी के लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। पूर्णोऽस्ति । अस्योपेक्षां कृत्वा वयं जीवनमृत्युविषयकं इसकी उपेक्षा कर हम जीवन-मृत्यु सम्बन्धी सत्य से आंख सत्यमपलपामः । अम प्रश्न विना दर्शनस्य जन्मापि कूतो मूंद लेते हैं । इस प्रश्न के बिना दर्शन का जन्म भी कहां से हो? भवेत् ? किमात्मा शरीरात् पृथक्कर्तुं शक्यः ? यदि क्या आत्मा को शरीर से पृथक् किया जा सकता है ? यदि यह नास्ति शक्यः, तदा पूर्वजन्म-पुनर्जन्मकथा न वास्त- शक्य नहीं है तो पूर्वजन्म और पुनर्जन्म का कथन वास्तविक नहीं विकी। यदि स शरीरात् पृथक्कत शक्यस्तदानीमेव तस्य है। यदि उसको शरीर से पृथक् किया जा सकता है तभी उसका शरीरेण सह अभेदो नास्तीति प्रत्येतुं शक्यम्। शरीर के साथ अभेद सम्बन्ध नहीं है, यह प्रतीति की जा सकती है। ___अस्ति मे आत्मा औपपातिकः ? नास्ति मे आत्मा मेरी आत्मा पुनर्जन्म लेने वाली है। मेरी आत्मा पुनर्जन्म लेने औपपातिक: ?' पूर्वजन्मनि कोऽहमासम् ? इतश्च्युत्वा वाली नहीं है । मैं पूर्वजन्म में कौन था? यहां से च्युत होकर परलोक परलोके कोऽहं भविष्यामि ? इति संज्ञापि सर्वषां न हि में मैं क्या होऊंगा-यह संज्ञान भी सब मनुष्यों को नहीं होता। मैं भवति । 'कोऽहमासम्' इति पूर्वजन्मसंज्ञाया विचय- कौन था'-यह पूर्वजन्म के संज्ञान का विचयसूत्र है-चिन्तन, मनन सूत्रम् । 'परलोके कोऽहं भविष्यामि' इति भाविजन्म- और विश्लेषण करने वाला सूत्र है। 'परलोक में मैं क्या होऊंगा?' संज्ञाया विचयसूत्रम् । यह भावी-जन्म के संज्ञान का विचयसूत्र है। किमेषा संज्ञा शक्यास्ति ? इतिजिज्ञासायां भगवता क्या यह संज्ञान किया जा सकता है ? इस जिज्ञासा के उत्तर महावीरेण प्रतिपादितम्-पूर्वजन्मनः पुनर्जन्मनश्च में भगवान महावीर ने प्रतिपादन किया कि पूर्वजन्म और पुनर्जन्म संज्ञानं कर्तुं शक्यमस्ति । एतच्छक्यताप्रतिपादने त्रयो का संज्ञान किया जा सकता है। इस शक्यता के प्रतिपादन में तीन हेतवः सन्ति निर्दिष्टाः हेतुओं का निर्देश किया गया है१. स्वस्मृतिः ।। १. स्वस्मृति। २. परव्याकरणम् । २. परव्याकरण। ३. अन्येषामन्तिके श्रवणम् । ३. दूसरों के पास सुनना। स्वस्मृतिः स्वस्मृति ___एष प्रथमो हेतुः । केचिच्छिशवः बाल्यावस्थायामेव स्वस्मृति यह प्रथम हेतु है। कुछ बच्चों को बाल्यावस्था में पर्वजन्मनः सहज स्मृति प्राप्ता भवन्ति । इदानीन्तनः ही पूर्वजन्म की सहज स्मृति प्राप्त होती है। आधनिक परामनोपरामनोवैज्ञानिकः पूर्वजन्मन: सहजस्मृतेरनेकासां वैज्ञानिकों ने पूर्वजन्म की सहज स्मृति से सम्बन्धित अनेक घटनाओं घटनानां संग्रहः कृतो लभ्यते। जैनसाहित्येऽपि का संग्रह किया है। जैन साहित्य में भी इससे सम्बन्धित अनेक एतत्सम्बन्धिनोऽनेके उल्लेखा उपलभ्यन्ते । उल्लेख मिलते हैं। सुश्रुतसंहितायां निर्दिष्टमस्ति-पूर्वजन्मनि शास्त्रा- सुश्रुत संहिता में यह निर्दिष्ट है कि पूर्वजन्म में जो व्यक्ति भ्यासेन भावितान्त:करणाः जनाः पूर्वजातिस्मरा शास्त्रों के अभ्यास से अपना अन्तःकरण भावित कर लेते हैं. उन्हें १. दिगम्बरसाहित्ये 'उपपाद' इति प्रयोगो दृश्यते। (जै. चूणिकृता एतच्चतुविधमपि ज्ञानं आत्मप्रत्यक्षत्वेन सि. को. भाग १, पृष्ठ ४५५) जन्मप्रसंगे उपपावस्य अर्थ निर्दिष्टम् -'एसा चउन्विहा वि सहसंमुइया आतपच्चक्खा प्रति सामीप्यमस्ति। भवति ।' २. (क) सहसम्मुइयाए-अत्र 'सह' पदं स्ववाचकमस्ति, अत्र प्रसंगं विचारयामस्तदा स्वस्मृतिरथवा जातिस्मृतिरेव यथा शक्रस्तुती 'सहसंबुद्धाणं' इति स्वसंबुद्धानाम् । अधिक उपयुक्तास्ति । चूणिकृतापि संज्ञाशब्देन आभिनि(ख) नियुक्तिकृता सहसन्मतिरिति पाठो व्याख्यातः । तस्या बोधिकज्ञानं प्रतिपादितम्-सण्णागहण आभिनिबोहियअर्थोस्ति ज्ञानम् । तद् अवधिमनःपर्यवकेवलानि जाति नाणं सूचितं भवति । (आचारांग चूणि, पृष्ठ १२) स्मरणञ्चेति चतुविधं निर्दिष्टं, यथा अवधिज्ञानस्य प्रासङ्गिकता पुनरपि प्रतिष्ठिता भवेत्, इत्य य सह संमइअत्ति जं एअं तत्थ जाणणा होई । किन्तु मनःपर्यायकेवले तु नात्र प्रकृते भवतः । ओहीमणपज्जवनाणकेवले जाइसरणे य॥ (आचारांग नियुक्ति, गाथा ६५) Jain Education international Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगभाष्यम् भवन्ति ।' पूर्वजन्म की स्मृति होती है। परव्याकरणम् परव्याकरण एष द्वितीयो हेतुः। परेण केनचिदाप्तेन सह यह दूसरा हेतु है। किसी आप्त के साथ व्याकरण-प्रश्नोव्याकरणं-प्रश्नोत्तरपूर्वकं मननं कृत्वा कश्चित् तत् संज्ञानं तर पूर्वक मनन कर कोई उस ज्ञान को प्राप्त करता है। प्राचीन लभते । प्राचीनव्याख्यायां 'पर' शब्द उत्कृष्टतावाच- ____ व्याख्या के अनुसार 'पर' शब्द उत्कृष्टता का वाचक है। धर्म के कोऽस्ति । धर्मक्षेत्रे तीर्थकरा उत्कृष्टाः वर्तन्ते । अत एव क्षेत्र में तीर्थकर उत्कृष्ट होते हैं। इसलिए 'परव्याकरण' का हार्द परव्याकरणस्य हृदयमस्ति तीर्थकरव्याकरणम्। है-तीर्थंकर द्वारा व्याख्यात। नियुक्ति में इस अर्थ का समर्थन नियुक्त्यामसावर्थः समथितोऽस्ति-परवइवागरणं पुण मिलता है-'परवचन-व्याकरण ही जिन-व्याकरण है, क्योंकि जिन जिणवागरणं जिणा परं नत्थि ।'२ से उत्कृष्ट कोई नहीं है।' ___ अस्मिन् विषये मेघकुमारस्य जातिस्मरणज्ञानोल्लेखः इस विषय में मेघकुमार के जातिस्मृति ज्ञान का उल्लेख संगतोऽस्ति । गौतमस्वामिन उदाहरणमपि चूणौ वृत्तौ करना संगत है। चूणि और वृत्ति में गौतम स्वामी के उदाहरण का च उकितमस्ति । गौतमस्वामिना भगवान् वर्द्धमान- भी उल्लेख किया गया है। गौतम ने भगवान् बर्द्धमान महावीर से स्वामी पृष्टो-'भगवन् ! किमिति मे केवलज्ञानं पूछा-भगवन् ! मुझे केवलज्ञान क्यों नहीं हो रहा है ? भगवान् नोत्पद्यते ? भगवता व्याकृतम्-भो गौतम ! भवतो ने कहा -गौतम ! इसका कारण है मेरे प्रति तुम्हारा अत्यधिक ममोपरि अतीव स्नेहोऽस्ति, तद्वशात् ।' तेनोक्तम्--- अनुराग । गौतम ने कहा-भगवन् ! ऐसा ही है, ऐसा ही है । 'भगवन् ! एवमेवम् । किन्निमित्तः पुनरसौ मम भगव- भगवान के प्रति मेरा यह स्नेह किस कारण से है ? । दुपरि स्नेहः ?' ततो भगवता तस्य बहुषु भवान्तरेषु पूर्वसम्बन्धः भगवान् ने तब उसके साथ अनेक जन्मों का पूर्व-सम्बन्ध समावेदितः-'चिरसंसिट्ठोसि मे गोयमा ! चिरपरि- बतलाते हुए कहा-'गौतम ! तुम्हारा मेरे साथ लम्बे समय तक चिओसि मे गोयमेत्येवमादि । तच्च तीर्थकृव्याकरण- संसर्ग रहा है । तुम मेरे चिर-परिचित हो ?' आदि । तीर्थंकर की माकर्ण्य गौतमस्वामिनो विशिष्टदिगागमनादि- उस वाणी को सुनकर गौतम स्वामी को विशिष्ट दिशागमन-मैं विज्ञानमभूत् । किस दिशा से, कहां से आया हूं-आदि का ज्ञान प्राप्त हुआ। अन्येषामन्तिके श्रवणम् दूसरों के पास सुनना ___ एष तृतीयो हेतुः। न व्याकरणं कृतं, किन्तु केनचिद् यह तीसरा हेतु है। बिना पूछे किसी अतिशयज्ञानी के द्वारा अतिशयज्ञानिना स्वत एव निरूपितं श्रुत्वा कश्चित् तत् स्वतः ही निरूपित तथ्य को सुनकर कोई पूर्वजन्म का संज्ञान प्राप्त संज्ञानं लभते । प्राचीनव्याख्यायां अन्यपदेन तीर्थंकर- कर लेता है । प्राचीन व्याख्या के अनुसार 'अन्य' पद से तीर्थंकर के व्यतिरिक्ताः सर्वेऽपि विशिष्टज्ञानिनो गहीताः । अत्रास्ति अतिरिक्त सभी विशिष्ट ज्ञानियों का ग्रहण किया गया है। इस निर्यक्तिप्रवचनम्-अण्णेसि सोच्चंतिय जिणेहिं सम्वो विषय में नियुक्ति की व्याख्या इस प्रकार है-'अन्य के पास सुनकर परो अण्णो। चूणिकृता निर्युक्तेरथं विवृण्वता नामो- -तीर्थंकरों से अतिरिक्त सभी अन्य हैं।' चूर्णिकार नियुक्ति के अर्थ ल्लेखपूर्वकं व्याख्यातमस्ति-तित्थगरवइरित्तो जो अण्णो का विस्तार करते हुए नामोल्लेख पूर्वक बताते हैं कि तीर्थकर से केवली वा, ओहिणाणी वा, मणपज्जवनाणी वा, चोहस- अतिरिक्त जो अन्य केवली, अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, चतुर्दशपूर्वी, पुव्वी वा, दसपुव्वी वा, णवपुव्वी वा, एवं जाव आयार- दसपूर्वी, नवपूर्वी, आठपूर्वी आदि से लेकर आचारधर, सामायिकधर, धरो वा, सामाइयधरो वा, सावओ वो, अण्णतरो वा । श्रावक या कोई सम्बग्दृष्टि-ये सभी व्यक्ति 'अन्य' के अन्तर्गत सम्मदिट्ठी। आते हैं। केषाञ्चिद् जन्मजाता पूर्वजन्मस्मृति: न हि भवति, कुछ मनु यों को पूर्वजन्म की स्मृति जन्मजात नहीं होती, किन्तु किञ्चिन्निमित्तमासाद्य तेषां पूर्वजन्मस्मृतिर्जायते। लेकिन किसी निमित्त के मिलने पर उनको पूर्वजन्म की स्मृति हो १. सुश्रुतसंहिता, शारीरस्थान २१५७ : ३. अंगसुत्ताणि २, भगवई, १४१७७ । भावितः पूर्वदेहेषु, सततं शास्त्रबुद्धयः । ४. आचारांग वृत्ति, पत्र २० । भवन्ति सत्त्वभूयिष्ठाः, पूर्वजातिस्मराः नराः ॥ ५. आचारांग नियुक्ति, गाथा ६६ । २. आचारांग नियुक्ति, गाथा ६६ । ६. आचारांग चूणि, पृष्ठ १३ । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १. शस्त्रपरिज्ञा, उ० १. सूत्र १-४ तस्वा इमानि कारणानि निर्दिष्टानि सन्ति१. मोहनीयस्य उपशमः । २ अध्यवसानशुद्धि (लेश्याविशुद्धिः ) । ३. ईहापोहमार्गणगवेषणाकरणम् । १. उवसंतमोहणिज्जं नमिपव्वज्जायां' मोहनीयस्योपशम उट्टङ्कितोऽस्ति 'उवसंत मोहणिज्जो, सरई पोराणियं जाई ।' २. साडी मृगापुत्रेण साधुं दृष्ट्वा जातिस्मृतिर्लब्धा तत्र मोहनीयस्योपशमस्य अध्यवसानशुद्वेश्व युगपदुल्लेखोऽस्ति' । अह तत्थ अइच्छंतं, पासई समणसंजयं । तवनियम संजमधरं, सीलड्ढं गुणआगरं ॥ तं हुई मियापु दिए अणिमिसाए उ । हमनेर एवं विपुवं मए पुरा ॥ साहुस्स दरिसणे तस्स, अज्झवसाणम्मि सोहणे । मोहंगयस्स संतस जाईसरणं समुप्यन्तं ॥ एवं हरिकेशबलेनापि विमर्शं कुर्वता जातिस्मृतिः लब्धा 'चित्रसंभूति' अध्ययनस्य पृष्ठभूमावपि जातिस्मृतेः उल्लेखोऽस्ति । * भृगुपुरोहितस्य द्वावपि पुत्रौ मुनि दृष्ट्वा जातिस्मृति लब्धवन्तो दृष्टवन्तौ च पूर्वचरितौ तपः संयमी ।" जातिस्मृत्या धर्म प्रति सहजं बद्धासंवेगयोः संवर्धन भवति इत्यनुभवपूर्वकं भगवता महावीरेण अनेकान् जनान् पूर्वजातिः स्मारिता । मेघकुमारो मुनिप्रव्रज्यां विहातुं प्रवृत्तः तदानीं भगवता तस्य पूर्ववतितृतीयजन्मन: स्मृतिः कारिता । मेघकुमारस्यापि शुभैः परिणामैः प्रशस्तं रध्यवसानं विशुद्धयमाना भिश्याभिः तदावरणीयानां कर्मणां क्षयोपशमेन ईहापोहमार्गणगवेषणां १. उत्तरज्झयणाणि, ९.१ । २. वही, १९।५-७ । ३. सुखबोधा, पत्र १७४ : एवं भावेमाणो तक्खणसंजायजाइ संभरणो सुमरियविमाणवासो"। ४. उत्तरज्मयणाणि, अध्ययन १३ । जाती है । उसके ये कारण निर्दिष्ट हैं१. मोहनीय कर्म का उपशम २. अध्यवसानमुद्धि (लेखा-विडि ३. ईहापोहमार्गणागवेषणाकरण । १. उपशान्तमोहनीय 'नमपश्यना' में मोहनीय के उपशम का उल्लेख किया गया है 'उसका मोह उपशान्त था जिससे उसे पूर्वजन्म की स्मृति २१ हुई ।' २. अध्यवसानशुद्धि मुगापुत्र ने साधु को देखकर जातिस्मृति प्राप्त की। वहां मोहनीय के उपशम और अध्यवसान-शुद्धि का एक साथ उल्लेख है । 'उसने वहां जाते हुए एक संयत श्रमण को देखा, जो तप, नियम और संयम को धारण करने वाला, शील से समृद्ध और गुणों का आकर था।' मृगापुत्र ने उसे अनिमेषदृष्टि से देखा और मन ही मन सोचा- मैं मानता हूं कि ऐसा रूप मैंने पहले कहीं देखा है । साधु के दर्शन और अध्यवसाय पवित्र होने पर 'मैंने ऐसा कहीं देखा है' इस विषय में यह सम्मोहित हो गया पित्तवृत्ति सघनरूप में एकाग्र हो गई और विकल्प शान्त हो गए। इस अवस्था में उसे पूर्वजन्म की स्मृति हो आई ।' इस प्रकार हरिकेशस ने भी विमर्श करते हुए जातिस्मृति प्राप्त की । 'विभूति' अध्ययन की पृष्ठभूमि में भी जातिस्मृति का उल्लेख है। भृगुपुरोहित के दोनों पुत्र मुनि को देखकर जातिस्मृति को उपलब्ध हुए और उन्होंने पूर्व आचरित तप, संयम को देखा | जातिस्मृति से धर्म के प्रति बढ़ा और संवेग में सहज वृद्धि होती है। इस अनुभव के आधार पर भगवान महावीर ने अनेक व्यक्तियों को पूर्वजन्म का स्मरण कराया। मेघकुमार मुनि - प्रव्रज्या को छोड़ने के लिए तैयार हो गया तब भगवान् ने उसे तीसरे पूर्वजन्म की स्मृति कराई। मेघकुमार को भी ईहा अपोह मार्गणा गवेषणा करते हुए शुभ परिणामों, प्रशस्त अध्यवसायों, विशुद्ध होती हुई लेश्याओं तथा तदावरणीय (जातिस्मृति के आवारक) कर्मों का क्षयोपशम होने ५. वही, १४।५ : सरितु पोराणिय तस्थ जाई, तहा सुचिणं तवसंजनं च । ६. अंगा नावामा ११५६ एवं लु मेहा! तुम इस तच्चे आईए भवमा... Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ आचारांगभाष्यम् कुर्वतः संज्ञिपूर्व जातिस्मरणं समुत्पन्नं ।' सुदर्शनष्ठि - से संज्ञिपूर्व (समनस्क जन्मों को जाननेवाला) जातिस्मृति ज्ञान उत्पन्न नोऽपि अनेनैव क्रमेण जातिस्मरणं समुत्पन्नम् । हुआ। सुदर्शन सेठ को भी इसी क्रम से जातिस्मरण ज्ञान प्राप्त हुआ। ३. इहापोहमग्गणगवेसणं-अस्मिन् विषये 'ईहापोह- ३. ईहा-अपोह-मार्गणा-गवेषणा :-इस प्रसंग में ईहा, अपोह, मार्गणगवेषणा' इमानि चत्वारि पदानि जातिस्मृतेः मार्गणा और गवेषणा—ये चार पद 'जातिस्मृति' की प्रक्रिया प्रक्रियामुद्भावयन्ति । यथा मेघकुमारेण मेरुप्रभहस्तिनो को प्रकट करते हैं। नामाऽऽकणितम् । तत्र तस्येहा प्रवृत्ता। तं हस्तिनं ज्ञातुं जैसे ही मेधकुमार ने मेरुप्रभ हाथी का नाम सुना, वहां चित्ते किञ्चिदान्दोलनं प्रवृत्तम्। ततोऽनन्तरमपोहो उसकी ईहा (पूर्व स्मृति के लिए प्रारंभिक मानसिक चेष्टा) प्रवृत्त जात:--'किमासमहं हस्ती?' इमां तर्कणां कुर्वाण: स हुई। उस हाथी को जानने के लिए चित्त में कुछ आन्दोलन शुरू हुआ। मार्गणायां प्रविष्टः । आत्मनोऽतीतमन्वेष्टुं स्वानुभूता- उसके बाद अपोह हुआ—'क्या मैं हाथी था ?' यह तर्कणा (मीमांसा) तीतसीमायां प्रवेशं कृतवान् । अतीतं ध्यायता ध्यायता करते हुए वह मार्गणा में प्रविष्ट हुमा। अपने अतीत का अन्वेषण करने तेन गवेषणा प्रारब्धा। यथा गौः आहारान्वेषणायां के लिए वह अपने द्वारा अनुभूत अतीत की सीमा में प्रवेश कर गया। प्रवृत्ता पूर्वोपलब्धमाहारस्थानं प्राप्नोति तथा गवेषणां अतीत का चिन्तन करते-करते उसने गवेषणा प्रारम्भ की। जैसे कुर्वाणेन मेघकुमारेण एकाग्राध्यवसायेन हस्तिजन्मनः आहार की अन्वेषणा में प्रवृत्त गाय पूर्वप्राप्त आहार के स्थान को स्मृतिरुपलब्धा। प्राप्त कर लेती है वैसे ही गवेषणा करते हुए मेघकुमार को एकाग्र अध्यवसाय से हाथी के रूप में अपने जन्म की स्मृति उपलब्ध हो गई। तवावरणिज्जकम्मखओवसमेण-जातिस्मरणं द्विविध तदावरणीय कर्म के क्षयोपशम के द्वारा जाति-स्मरण ज्ञान भवति–सनिमित्तकं अनिमित्तकञ्च । केषाञ्चित् तदा- दो प्रकार का होता है-सनिमित्तक और अनिमित्तक । कुछ मनुष्यों वरणीयकर्मणां क्षयोपशमेन जायते, तद् अनिमित्तकम्। को तदावरणीय (जातिस्मृति को आवृत करने वाले) कर्मों का केषांचिद बाह्य निमित्तमुपलभमानानामेतत् प्रादुर्भवति, क्षयोपशम होने से जाति-स्मरण ज्ञान होता है, वह अनिमित्तक है। तत् सनिमित्तकम् । कुछ मनुष्यों को बाह्य निमित्त उपलब्ध होने पर वह प्राप्त होता है, वह सनिमित्तक है। इद जातिस्मरण मतिज्ञानस्यैव एकः प्रकारोऽस्ति। यह जाति-स्मरण मतिज्ञान का ही एक प्रकार है। इससे अनेन उत्कर्षतः पूर्ववर्तीनि नवसंज्ञिजन्मानि ज्ञातुं उत्कटत: पर्ववर्ती नौ ममनस्क जन्म जाने जा सकते हैं। शक्यानि । आचारांग वृत्ति के अनुसार जातिस्मृति ज्ञान से संख्येय जन्म आचारांगवृत्त्यनुसारेण संख्येयान् भवान् जातिस्मरो जाने जा सकते हैं। ज्ञातुमर्हति । सन्नीपुग्वे-यानि पूर्वजन्मानि ज्ञायन्ते तानि संजीपूर्व-जिन पूर्वजन्मों का ज्ञान किया जाता है वे समनस्क समनस्कजन्मानि एव । पूर्वजन्मसु यानि यानि अमनस्क- जन्म ही होते हैं। पूर्वजन्मों में जो अमनस्क जन्म होते हैं, उनको नहीं जन्मानि लब्धानि तानि ज्ञातुं न शक्यानि । अस्य सूचना जाना जा सकता। इसकी सूचना 'संजीपूर्व' इस विशेषण से मिलती है। 'सन्नीपुव्वे' इति विशेषणेन कृतास्ति । सर्वेषां पूर्वजन्मस्मृतिर्नोपलभ्यते। अस्मिन् विषये सबको पूर्वजन्म की स्मृति नहीं होती। इस विषय में तंदुलवेयालिय तंदुलवेयालियप्रकीर्णके एतत्कारणं निर्दिष्टमस्ति- प्रकीर्णक में यह कारण निदिष्ट है-'जन्म और मृत्यु के समय जो जायमाणस्स जं दुक्खं, मरमाणस्स वा पुणो। दुःख होता है उस दुःख से सम्मूढ होने के कारण व्यक्ति को पूर्वजन्म तेण दुक्खेण संमूढो, जाई सरइ नऽप्पणो ॥ की स्मृति नहीं रहती।' १. अंगसुत्ताणि ३: नायाधम्मकहाओ,, ११९० : तए णं तस्स मेहस्स अणगारस्स समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए एवम→ सोच्चा निसम्म सुभेहिं परिणामेहिं पसत्थेहिं अज्झवसाणेहि लेसाहि विसुज्झमाणीहि तयावरणिज्जाणं कमाणं खओवसमेणं ईहापूहमग्गणगवेसणं करेमाणस्स सण्णिपुग्वे जाईसरणे समुप्पण्णे, एयम सम्म अभिसमेइ । २. अंगसुत्ताणि २, भगवई, ११।११५-१७१ । ३. सेनप्रश्न, उल्लास ३, प्रश्न ३४१ : पुष्वभवा सो पिच्छई इक्क दो तिन्नि जाव नवगं वा। उरि तस्स अविसओ सहावओ जाइसरणस्स । ४. आचारांग वृत्ति, पत्र १९ : जातिस्मरणस्तु नियमतः संख्येयानिति । ५. तंदुलवेयालियं, ३९ । Jain Education international Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १. शस्त्रपरिज्ञा, उ० १. सूत्र १४ मूर्द्धायां स्मृतेर्लोपो भवति, अतः पूर्वजन्मस्मृतिः न जायते, तथा विशिष्टनिमित्तं विना विद्यमानानामपि पूर्वजन्मसंस्काराणां साक्षात्कारो न जायते । एतदपि स्मृतेरभवने कारणम् । सणा-संज्ञानम् - संज्ञा । सा च द्विविधा - अनुभव - संज्ञा ज्ञानसंज्ञा च मतिः श्रुतं अवधिः मनः पर्यव केवलञ्च एतज्ज्ञानपञ्चकं ज्ञानसंज्ञा । अत एव चूर्णि कृता 'मई सण्णा णाणं एत्था" तथा सम्पत्ति वा बुद्धित्ति वा नाति वा विणणं ति वा एगट्ठा। ज्ञानवाचकानां शब्दानामेकार्यकत्वमत्र प्रदर्शितम् । अनुभवसंज्ञा संवेदनामिका भवति । निर्मुक्तिकृता स्पष्टं निर्दिष्टम् 'अणुभयणा कम्बसंजुत्ता' - अनुभवनसंज्ञा स्वकृतकर्मोदया दिसमुत्था भवति । सा नात्र अधिकृताऽस्ति । अत्रास्ति ज्ञानसंज्ञाया एव अधिकारः । सोऽहम् – यस्य पूर्वजन्मनः स्मृतिर्भवति स स्वरूप त्रैकालिक मस्तित्वं प्रति प्रगाढामास्थां लभते । 'सोsहं' इतिपदेन तस्याभिव्यक्तिः कृताऽस्ति । यस्यास्तित्वं वर्तमानसीमामतिक्रम्य अतीतं व्याप्नोति तस्य अस्तित्वं त्रैकालिकमिति स्वभावत एव उपपद्यते। लब्धजातिस्मृतिर्मनुष्यः अतीतगतं स्वास्तित्वं स्मरति, तस्य सूत्रे साक्षादुल्लेखः कृतोऽस्ति 'जो हमाओ दिखाओ दिखाओ वा अणुसंचर, सम्याओ दिसाओ सम्बाओ अदिसाओ जो आगओ अनुसंचर सोहं' चूर्णिकारेण इदं पदमाश्रित्य आत्मलक्षणमीमांसाऽपि कृतास्ति । जिज्ञासितं केनचिद् - अस्ति आत्मा, किन्तु तस्य लक्षणं नास्ति निर्दिष्टम्। आचार्येण उत्तरितम् इह निरहंकारे शरीरे यस्यायं अहंकारो, यथा - ' अहं करोमि', 'मया कृतं', 'अहं करिष्यामि' - एषः अहंकारोऽस्ति आत्मनो लक्षणम् । दिग् आकाशविशेष एव । सा च नामस्थापनाद्रव्यभावतापक्षेत्र प्रज्ञापकभेदात् सप्तधा । * भावदिशा अष्टादश । प्रज्ञापकदिशा अपि तावत्य एव । अत्र १. आचारांग भूषि, पृष्ठ ९ । २. वही, पृष्ठ १२ । ३. वही, पृष्ठ १४ जइ वा कोई भणेज्जा भणितं महारएणं- अप्पा अस्थि व तरस लक्षणं उवदिटर्ड, मम्भणितं सोऽहमिति इह निरहंकारे सरीरे जस्स इमोsहंकारो, तं जहा – अहं करेमि मया कथं अहं २३ मूर्च्छा में स्मृति लुप्त हो जाती है, इसलिए पूर्वजन्म की स्मृति नहीं रहती तथा विशिष्ट निमित्त के बिना पूर्वजन्म के विद्यमान संस्कारों का भी साक्षात्कार नहीं होता । यह भी स्मृति के न होने का कारण है । संज्ञा :- संज्ञा का अर्थ है-जानना । वह दो प्रकार की होती है—अनुभवसंज्ञा और ज्ञानसंज्ञा मति श्रुत, अवधि, मनः पर्यव और केवल ये पांचों ज्ञान ज्ञानसंज्ञा कहलाते हैं, इसलिए चूर्णिकार ने कहा हैमति संज्ञा और ज्ञान एकार्थक है' 'संज्ञा बुद्धि ज्ञान और हैं।' विज्ञान एकार्थक हैं ।' यहां ज्ञानवाचक शब्दों की एकार्थकता दिखलाई गई है। अनुभवसंज्ञा संवेदनात्मक होती है। नियुक्तिकार ने स्पष्ट निर्देश किया है 'अनुभव कर्मसंयुक्त होता है।' अनुभवसंज्ञा स्वकृतकर्मों के उदय आदि से उत्पन्न होती है। यहां यह प्रासंगिक नहीं है। यहां ज्ञानसंज्ञा का ही प्रकरण है । वह मैं - जिसे 'वह मैं' इस रूप में जन्म की स्मृति होती है उसके मन में अपने त्रैकालिक अस्तित्व के प्रति प्रगाढ आस्था पैदा हो जाती है । 'सोहं' - इस पद से उसकी अभिव्यक्ति की गई है। जिसका अस्तित्व वर्तमान की सीमा का अतिक्रमण कर अतीत तक व्याप्त हो जाता है, उसका अस्तित्व त्रैकालिक होता है, यह स्वाभाविक स्वीकृति है । जातिस्मृति ज्ञान से संपन्न मनुष्य अपने अतीतकालीन अस्तित्व का स्मरण कर लेता है, उसका सूत्र में साक्षात् उल्लेख किया गया है - 'जो इन दिशाओं और अनुविनाओं (विदिशाओं में अनुसंचरण करता है, जो सब दिशाओं और अनुदिशाओं से आकर अनुसंचरण करता है, वह मैं हूं ।' चूर्णिकार ने इस पद का आश्रय लेकर आत्मा के लक्षणों की मीमांसा की है। किसी ने जिज्ञासा की आत्मा है, किन्तु उसका लक्षण निर्दिष्ट नहीं है। आचार्य ने उत्तर दिया- इस निरहंकार शरीर में जिसका यह अहंकार है, जैसे- मैं करता हूं, मैंने किया है, मैं करूंगा - यह अहंकार आत्मा का लक्षण है । आकाश विशेष को ही दिशा कहा जाता है । वह नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव, ताप, क्षेत्र और प्रज्ञापक के भेद से सात प्रकार की है । भाव दिशाएं अठारह हैं। प्रज्ञापक दिशाएं भी उतनी ही हैं । करिस्सामि एवं तस्स लक्खणं जो अहंकारों, मणितं अप्पलक्खणं । ४. आचारांग नियुक्ति, गाथा ४० : नामं ठवणा दबिए खित्ते तावे य पण्णवगभावे । एसा दिसानियेवो सत्तविहो होइ गयो। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ आचारांगभाष्यम् प्रज्ञापकदिशाः सन्ति विवक्षिता इति नियुक्तिकारः।' नियुक्तिकार के अनुसार यहां प्रज्ञापक दिशाएं विवक्षित हैं । किन्तु क्षेत्र किन्तु क्षेत्रदिशि चापि जीवा विद्यन्ते । तत्र चतसृषु दिशा में भी जीव होते हैं। चार दिशाओं में जीव, जीव-देश और दिक्षु सन्ति जीवाः, जीवदेशाः, जीवप्रदेशाश्च । जीव-प्रदेश होते हैं । ऊंची और नीची-इन दो दिशाओं में तथा ऊवधिःदिग्द्वये विदिक्षु च नो सन्ति जीवाः, केवलं विदिशाओं में जीव नहीं होते, केवल जीव-देश और जीव-प्रदेश होते जीवदेशाः जीवप्रदेशाश्च इति भगवती।' अनुदिशाः- हैं-यह भगवती सूत्र का कथन है । अनुदिशा का अर्थ है-विदिशा। विदिशाः। 'अन्यतरस्या' इतिपदेन क्षेत्रादिदिशः 'अन्यतरस्या' इस पद से क्षेत्रादि दिशाएं सूचित होती हैं। सूचिताः सन्ति। ५. से आयावाई, लोगावाई, कम्मावाई, किरियाबाई । सं०--स आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी, क्रियावादी। जो अनुसंचरण को जान लेता है वही आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी और क्रियावादी है। भाष्यम ५-आगमयुगेऽपि अनेके वादा: प्रचलिता आगम युग में भी अनेक वाद प्रचलित थे। प्रस्तुत आगम के आसन । प्रस्तुतागमस्य अष्टमाध्ययने तेषां उल्लेखोऽस्ति। आठवें अध्ययन में उनका उल्लेख है। कुछ आत्मवादी थे और कुछ केचिदात्मवादिन आसन, केचन चानात्मवादिनः । तर्केण अनात्मवादी। दोनों ने अपने-अपने अभिप्रेत पक्ष को तर्क के बल पर स्वाभिप्रेतं पक्षं ते स्थापयाञ्चक्रुः । भगवता महावीरेण स्थापित किया था । भगवान् महावीर ने अनुभव अथवा साक्षात्कार को अनुभवः साक्षात्कारो वा मुख्यत्वेन प्रतिष्ठापितः। प्रधानता दी। वे जानते थे कि तर्क के द्वारा स्थापित पक्ष प्रतितर्क से इतिविदितमासीत् तस्य यत् तर्केण स्थापितः पक्षः उत्थापित भी होता है, किन्तु साक्षात्कार किया हुआ तत्त्व सैकड़ों तर्को प्रतितर्केण उत्थापितोऽपि भवति, किन्तु साक्षात्कृतं तत्त्वं से भी खंडित नहीं होता। इसलिए भगवान् ने साक्षात्कार के मार्ग को तर्कशतेनापि न खण्डितं भवति । अतो भगवता मुख्यता दी। जिसको पूर्वजन्म की स्मृति हो जाती है, वह वस्तूवत्त्या साक्षात्कारस्य मार्गः प्रधानीकृतः। यस्य पूर्वजन्मनः आत्मवादी होता है। उसको आत्मा के अस्तित्व में शंका नहीं रहती। स्मतिर्जायते स वस्तूवृत्त्या निःशङ्कआत्मवादी भवति। आत्मा के कालिक अस्तित्व की स्वीकृति होने पर लोकवाद, कर्मवाद आत्मनः कालिकेऽस्तित्वे लोकवादस्य, कर्मवादस्य, और क्रियावाद का स्वीकार होना स्वाभाविक है। क्रियावादस्य च स्वीकारः स्वाभाविको भवति ।। ___ जातिस्मृतेर्मुख्यं फलं असतो निवृत्तिः सति च प्रवृत्तिः जाति-स्मृति का मुख्यफल असत् से निवृत्ति और सत् में प्रवृत्ति तथा श्रद्धायाः प्रगाढता। 'दुगुणाणीय सड्डसंवेगे" तथा श्रद्धा की प्रगाढता है । 'दुगुणाणीय सङ्घसंवेगे' पाठ में यही तथ्य इतिपाठे एतदेव तथ्यं प्रतिपादितमस्ति । प्रतिपादित किया गया है। आयावाई-आत्मवादस्य निरूपणं पञ्चमाध्ययने . आत्मवादी-आत्मवाद का निरूपण पांचवें अध्ययन में किया कृतमस्ति। गया है। १. (क) आचारांग नियुक्ति, गाथा ६०-६२ : विदिगादिष, तासामेकप्रदेशिकत्वाच्चतुष्प्रदेशिकरवामणुया तिरिया काया तहऽग्गबीया चउक्कगा चउरो। च्चेति । (आचारांग वृत्ति, पत्र १४) देवा नेरइया वा अट्ठारस होंति भावदिसा ।। ३. आचारांग वृत्ति, पत्र १४ : अयं च दिक्संयोगकलापः पण्णवगदिसट्ठारस भावदिसाओऽवि तत्तिया चेव । 'अण्णयरीओ बिसाओ आगओ अहमंसी' त्यनेन परिगृहीतः । इक्किक्कं विधेज्जा हवंति अट्ठारसट्ठारा॥ ४. द्रष्टव्यम्-आयारो, ८५। पण्णवगदिसाए पुण अहिगारो एत्थ होइ णायब्वो। ५. अंगसुत्ताणि २, भगवई, ११।१७२ : तए णं से सुदंसणे सेट्ठी जीवाण पुग्गलाण य एयासु गयागई अत्थि ॥ समणेणं भगवया महावीरेणं संभारियपुव्वभवे दुगुणाणीय (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १४ : इह दिग्ग्रहणात् प्रज्ञापक सङ्घसंवेगे......। दिशश्चतस्रः पूर्वादिका ऊवधिोदिशौ च परिगृह्यन्ते, भावदिशस्त्वष्टादशापि, अनुदिग्ग्रहणात्तु प्रज्ञापक ६. आयारो, ५१०४-१०६ : जे आया से विण्णाया, जे विदिशो द्वादशेति। विण्णाया से आया। जेण विजाणति से आया। २. (क) अंगसुत्ताणि २, भगवई, १०५,६ । तं पडुच्च पडिसंखाय। (ख) वृत्तावपि क्षेत्रदिक्षु जीवानामस्तित्वस्य उल्लेखो एस आयावादी समियाए-परियाए विवाहिते। लभ्यते-क्षेत्रदिशि तु चतसृष्वेव महादिक्षु सम्भवो, न ५।१२३-१४० सूत्राण्यपि द्रष्टव्यानि । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ अ० १. शस्त्रपरिज्ञा, उ० १. सूत्र ५ __ लोगावाई-प्रस्तुतागमे लोकशब्दस्य अनेकवारं लोकवादी–प्रस्तुत आगम में 'लोक' शब्द का प्रयोग अनेक अनेकार्थेषु प्रयोगो जातः । शरीर-विषय-कषाय-जीव- बार अनेक अर्थों में हुआ है। शरीर, विषय, कषाय, जीव, जगत और जगत-जनसमूहादीनामर्थे'स प्रयुक्तोऽस्ति, तेन यथाप्रसंग- जनसमूह आदि अर्थों में यह प्रयुक्त हुआ है। इसलिए प्रसंग के अनुसार मेव अस्यार्थः संपादनीयो भवति । प्रस्तुतप्रकरणे लोक- ही इसका अर्थ करना होता है। प्रस्तुत प्रकरण में 'लोक' शब्द का अर्थ शब्दस्य 'पौद्गलिकं जगत्' इत्यर्थः प्रासंगिकः प्रतीयते। 'पौदगलिक जगत्' प्रासंगिक लगता है। आत्मा अमूर्त है, इसलिए वह आत्मा अमूर्तोऽस्ति, तेन नास्माभिः स लोक्यते । अजीव- हमें दिखाई नहीं देती। अजीव द्रव्यों में एक पुद्गल द्रव्य ही मूर्त है द्रव्येषु केवलं पुद्गल एव मूर्तिमान् अस्ति, तेन लोक- इसलिए 'लोक' शब्द से यहां उसकी ही अपेक्षा है। भगवती में भी शब्देन अत्र स एव अपेक्षितोऽस्ति । भगवत्यामपि 'लोक' शब्द का निर्वचन इसी अपेक्षा से किया गया है। 'लोक लोकशब्दस्य निर्वचनं अनयापेक्षया एव कृतमस्ति । पंचास्तिकायमय है', 'लोक जीव-अजीवमय है', आदि लोकविषयक पञ्चास्तिकायमयो लोकः, जीवाजीवमयो लोकः, परिभाषाएं आगमों में मिलती हैं, किन्तु यहां वे अपेक्षित नहीं हैं, ऐसा इत्यादयः परिभाषा आगमेषु उपलभ्यन्ते, किन्तु अत्र ता प्रतीत होता है। नापेक्षिताः सन्तीति प्रतीयते। चर्णिकारेण लोकशब्दस्य योऽर्थः कृतः सोऽपि सङ्गत: चूर्णिकार ने 'लोक' शब्द का जो अर्थ किया है वह भी संगत प्रतीयते-लोगवादी णाम जह चेव अहं अस्थि एवं प्रतीत होता है। 'लोकवादी'---जैसे मैं हूं, इसी तरह अन्य प्राणी भी अन्नेवि देहिणो सन्ति, लोग अब्भंतरे एव जीवा, जीवा- हैं । लोक के भीतर ही जीवों का अस्तित्व है, जीव-अजीव लोक समुदय जीवा लोग समुदओ इति भणितो लोगवादी। हैं, इस प्रकार माननेवाला लोकवादी कहा गया है। कम्मावाई-जातिस्मृत्या आत्मन: पुद्गलस्य च कर्मवादी-~जातिस्मृति से आत्मा और पुद्गल का संबंध-बोध सम्बन्धबोधोऽपि जायते । आत्मनः पुनर्जन्मग्रहणं, दिशासु भी होता है। आत्मा का पुनः जन्म-ग्रहण तथा दिशाओं और अनुअनुदिशासु वा अनुसंचरणं पुद्गलयोगादेव जायते। दिशाओं में अनुसंचरण पुद्गल के योग से ही होता है । जीवों का शरीर अस्ति जीवानां सूक्ष्मतरं शरीरम् । तस्मिन् स्वयमात्मना सूक्ष्मतर है। उसमें स्वयं आत्मा के द्वारा अपने अध्यवसाय से आकृष्ट स्वकीयेन अध्यवसायेन आकृष्टाः शुभा अशुभा वा पुद्गलाः शुभ-अशुभ पुद्गल संचित रहते हैं । वे पुद्गल आत्मा की अपनी प्रवृत्ति सञ्चिताः सन्ति । ते पुद्गलाः स्वकर्मणा (स्वप्रवृत्त्या) (कर्म) के द्वारा आकृष्ट होते हैं, इसलिए वे 'कर्म' नाम से अभिहित आकृष्टाः सन्ति, अतस्ते कर्म इति नाम्ना संज्ञायन्ते । होते हैं । उनका आधारभूत शरीर भी 'कार्मण शरीर'- इस नाम से तेषामाधारभूतं शरीरमपि 'कर्म' नाम्ना संज्ञातमस्ति। जाना जाता है। ___मुख्यत्वेन कर्म इति प्रवृत्तिः। कर्मणाकृष्टाः पुदगला मुख्यतः कर्म का अर्थ 'प्रवृत्ति' है। कर्म से आकृष्ट पुद्गल भी अपि कर्मशब्देन उपचरिताः। कर्मवादपदेन त एवात्र कर्म शब्द से उपचरित होते हैं । 'कर्मवाद' पद से यहां उन्हीं की विवक्षा विवक्षिताः सन्ति । कर्मवादे कृतप्रतिक्रियासिद्धान्तः की गई है। कर्मवाद में कृत की प्रतिक्रिया का सिद्धांत सम्मत है। सम्मतोऽस्ति। 'अणुसंवेयणमप्पाणणं'' इतिसूत्रेण 'अपना किया हुआ कर्म अपने को ही भुगतना होता है'-इस सूत्र से एतद् बोद्ध शक्यम्। यह जाना जा सकता है। किरियावाई-आत्मनः कर्मणश्च सम्बन्धः क्रियात एव क्रियावादी-आत्मा और कर्म का सम्बन्ध क्रिया के द्वारा ही भवति । यावदात्मनि रागद्वेषजनितानि प्रकम्पनानि होता है । जब तक आत्मा में रागद्वेषजनित प्रकम्पन विद्यमान हैं, तब विद्यन्ते, तावत् स कर्मपरमाणुभिः सम्बन्धं करोति, अतः तक उसका कर्म परमाणुओं के साथ सम्बन्ध होता रहता है, इसलिए कर्मवादः क्रियावादमुपजीवति । प्रस्तुतागमे क्रियावादस्य कर्मवाद क्रियावाद का उपजीवी है। प्रस्तुत आगम में क्रियावाद का विस्तृत विवरणं दृश्यते । लब्धजातिस्मृतिर्जीवः पूर्वजन्म- विस्तृत विवरण दृष्टिगोचर होता है। जाति-स्मृति ज्ञान से सम्पन्न घटनाक्रमेण स्पष्टमिदं व्यवस्यति-अस्ति आत्मा, अस्ति जीव पूर्वजन्म के घटनाक्रम से यह स्पष्ट जान लेता है-आत्मा है, १. आयारो, २११२५॥ ६. वही, २।१९०। २. वही, २११५९ । ७. अंगसुत्ताणि २, भगवई, श२५५ : अजीवेहि लोक्कइ ३. आयारो, 'लोगविजओ' बीअं अज्झयणं; तथा पलोक्कइ, जो लोक्कइ से लोए ? आचारांग नियुक्ति, गाथा १७५ । ८. आजारांग चूणि, पृष्ठ १४ ॥ ४. वही, ३।३। ९. आयारो, ५११०३। ५. वही, ३॥५॥ Jain Education international Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ आचारांग माध्यम् पुद्गलः, अस्ति तयोरनुबन्धः अस्ति तयोश्चानुबन्धहेतुः । पुद्गल है, उन दोनों का अनुबन्ध है और उनके अनुबन्ध का हेतु भी है । ६. अकरिस्सं चहं, कारवेसुं चहं, करओ पावि समणुष्णे भविस्सामि । सं०का चाहं अचीकर चाहं कुर्वतश्वापि समनुज्ञो भविष्यामि । J मैंने क्रिया की थी, करवाई थी और करने वाले का अनुमोदन किया था। मैं क्रिया करता हूं, करवाता हूं और करने वाले का अनुमोदन करता हूं। मैं क्रिया करूंगा, करवाऊंगा और करने वाले का अनुमोदन करूंगा । भाष्यम् ६ - अस्ति क्रिया, तेनास्ति कर्मबन्ध:, अस्ति कर्मबन्ध:, तेनास्ति दिशासु अनुदिशासु वा अनुसंचरणम् - अस्या अनुभूतेः प्रगाढतायां लब्धजातिस्मरो जीवो यच्चिन्तयति तस्य निर्देश: प्रस्तुतसूत्रे कृतोऽस्ति । कृतकारितानुमतिभेदात् क्रिया त्रिधा भवति । कालत्रयभेदात् सा नवधा जायते । प्रस्तुतसूत्रे संक्षिप्त शैल्या नवानामपि क्रियाणां समाहारोस्ति । प्रथमद्वितीययोः तथा नवमविकल्पस्य साक्षान्निर्देशोऽस्ति । शेषविकल्पाः इत्थं भावनीया: ३. करओ यावि समणुष्णे अभविस्सं चह ४. करेमि चह ५. कारवैमि चह 1 ६. करओ यावि समणुण्णे भवामि चह, ७. करिस्सामि चहं, ८. कारविस्सामि च । क्रिया कर्मपुद्गलानास्रवति, तेन अस्या अपरं नाम आस्रवो विद्यते । स एव वस्तुतः दिशासु अनुदिशासु वा अनुसंचरणस्य हेतुरस्ति जातिस्मृत्या अनुसंचरणहेतुबोधोऽपि जायते । माध्यम् ७ सांख्यदर्शने पुरुषशब्दस्य वाच्योस्ति आत्मा प्रस्तुतागमेऽपि अनेकेषु स्थानेषु पुरुषशब्दस्य आत्मनोऽयं प्रयोगः कृतोस्ति । लब्धजातिस्मरस्य पुरुषस्य चिन्तनक्रमोऽपि परिवर्तितो भवति । स श्रद्धा सिक्तं संवेगं समासाद्य संकल्पते – मया एताः क्रिया अथवा एते कर्म समारम्भाः परिज्ञातव्याः परिज्ञा ज्ञानं ज्ञानपूर्विका विरतिर्वा । अत एव सा द्विविधा भवति - ज्ञपरिज्ञा १. एयावंति और सव्वावंति ये दोनों मागधदेशी भाषा के शब्द 'एवाति' का अर्थ है इतने और 'सख्यायंति' का अर्थ है - सब । - एआवंती सव्वावतीति एतौ द्वौ शब्दौ मागधदेशी भाषाप्रसिद्धया एतावन्तः सर्वेऽपीत्येतत् पर्यायौ ( आचारांग वृत्ति, पत्र २५ ) । "क्रिया है इसलिए कर्म है। कर्म है इसलिए दिशाओं या अनुदिशाओं में अनुसंचरण होता है' – इस अनुभूति की प्रगाढता में जातिस्मृति ज्ञान से सम्पन्न जीव जो चिन्तन करता है उसका निर्देश प्रस्तुत सूत्र में किया गया है। कृत, कारित और अनुमति के भेद से क्रिया तीन प्रकार की होती है । कालत्रय के भेद से उसके नौ विकल्प बन जाते हैं । प्रस्तुत सूत्र में संक्षिप्त शैली से नो क्रियाओं का समाहार किया गया है। प्रथम, द्वितीय तथा नौवें विकल्प का स्पष्ट निर्देश हुआ है। शेष विकल्प इस प्रकार जान लेने चाहिए -- ३. मैंने करने वाले का अनुमोदन किया था । ४. मैं क्रिया करता हूँ । ५. मैं क्रिया करवाता हूं । ६. मैं करने वाले का अनुमोदन करता हूं । ७. मैं क्रिया करूंगा । ८. मैं क्रिया कराऊंगा । ७. एयाति सव्वाति' लोगंसि कम्म-समारंभा परिजाणियव्वा भवंति । सं० -- एतावन्तः सर्वे लोके कर्मसमारम्भाः परिज्ञातव्याः भवन्ति । लोक में होने वाले ये सब कर्म समारम्भ परिज्ञातव्य होते हैं-जानने और त्यागने योग्य होते हैं । क्रिया कर्मपुद्गलों का आवण करती है, इसलिए इसका दूसरा नाम आश्रव है। वही वास्तव में दिशाओं एवं अनुदिशाओं में अनुसंचरण का हेतु है जातिस्मृति ज्ञान से अनुसंचरण का हेतु भी ज्ञात हो जाता है । सांख्य दर्शन में 'पुरुष' शब्द का वाच्य है-आत्मा । प्रस्तुत आगम में भी अनेक स्थानों में 'पुरुष' शब्द का आत्मा के अर्थ में प्रयोग किया गया है। जातिस्मृति ज्ञान से सम्पन्न व्यक्ति का चिन्तन-श्रम भी बदल जाता है । वह श्रद्धासिक्त संवेग को प्राप्तकर संकल्प करता हैमुझे इन कामों अथवा कर्मसमारम्भों की परिक्षा करती है। परिक्षा के दो अर्थ है-ज्ञान अथवा ज्ञानपूर्वक विरति परिशा दो प्रकार की होती है-ज्ञपरिज्ञा और प्रत्याख्यानपरिज्ञा । इसका फलित यह होता है - २. बौद्धसाहित्ये परिजा एवं परिभाषिता अस्ति'अनाश्रयवियोगाप्ते भवानविकलीकृते। हेतुद्वयसमुद्घातात्, परिक्षा धात्वतिक्रमात् ॥ ' ( अभिधम्मको ५४६८) Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १. शस्त्रपरिज्ञा, उ०१. सूत्र ६-८ २७ प्रत्याख्यानपरिज्ञा च। अस्याः फलितं भवति-पूर्वं पहले कर्मसमारम्भों को जानना चाहिए फिर उनका प्रत्याख्यान कर्मसमारम्भा ज्ञेयास्ततश्च ते प्रत्याख्यातव्याः। करना चाहिए। ८. अपरिण्णाय-कम्मे खलु अयं पुरिसे, जो इमाओ दिसाओ वा अण दिसाओ वा अणसंचरइ, सव्वाओ दिसाओ सव्वाओ अणुदिसाओ सहेति, अणेगरूवाओ जोणीओ संधेइ, विरूवरूवे फासे य पडिसंवेदेइ । सं०-अपरिजातकर्मा खलु अयं पुरुषः य इमा दिशा वा अनुदिशा वा अनुसंचरति सर्वा दिशाः सर्वा अनुदिशाः सहैति । अनेकरूपा योनी: संधते । विरूपरूपान् स्पर्शाश्च प्रतिसंवेदयति । यह पुरुष, जो क्रिया को नहीं जानता और नहीं त्यागता, वही इन दिशाओं या अनुदिशाओं में अनुसंचरण करता है, अपने कृत-कर्मों के साथ सब दिशाओं और सब अनुदिशाओं में जाता है. अनेक प्रकार की योनियों का संधान करता है और नाना प्रकार के स्पर्शों (आघातों) का प्रतिसंवेदन करता है, अनुभव करता है। भाष्यम् -लब्धजातिस्मरः पुरुषः पूर्ववतिजन्म- जातिस्मृति-सम्पन्न पुरुष पूर्ववर्ती जन्म की घटनाओं के आधार घटनाभिः इति निश्चयं गच्छति-दिशासु अनुदिशासू वा पर इस निश्चय पर पहुंच जाता है-दिशाओं या अनुदिशाओं में अनुसंचरणं, तासू कर्मणा सह अयनम्-अनुगमनम्, अनुसंचरण करना, उनमें कर्म के साथ अनुगमन करना, अनेक प्रकार अनेकरूपासु योनिषु जन्माऽनुसंधानं, नानाप्रकाराणां की योनियों में जन्म का अनुसंधान (पुनः पुनः ग्रहण) तथा विविध स्पर्शानामिति कष्टानां प्रतिसंवेदनञ्च कर्मणः अपरि- प्रकार के स्पर्शो (कष्टों) का प्रतिसंवेदन (अनुभव) कर्म का परिज्ञान न ज्ञानेनैव जायते । एतत्सर्वं ज्ञात्वा स परिज्ञातकर्मा भवितुं करने के कारण ही होता है। यह सब जानकर वह परिज्ञातकर्मा बनने प्रयतते। के लिए प्रयत्नशील होता है। अत्रास्ति महान् प्रश्न:-कि कर्मणः परित्यागः कर्तुं इस संदर्भ में एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न उपस्थित होता है क्या शक्यः ? शरीरधारणं जीवनयात्रानिर्वहणं च कर्मायत्त- कर्म (प्रवृत्ति) का परित्याग किया जा सकता है ? शरीर-धारण और मस्ति । अकर्मा कथं जीवितुमर्हति ? अत्र कर्मणः प्रत्या- जीवन-यात्रा का निर्वहन कर्म के अधीन है । कर्ममुक्त व्यक्ति जीवन कैसे ख्यानस्य तात्पर्यमस्ति-असंयममयस्य कर्मणः प्रत्याख्या- जी सकता है ? यहां कर्म के प्रत्याख्यान से तात्पर्य है—असंयममय कर्म नम । 'णो णिहेज्ज वीरिय" इति स्वयं भगवता महावीरेण (प्रवृत्ति) का प्रत्याख्यान । 'वीर्य (आत्मशक्ति) का गोपन मत करो'स्वानुभवपूर्वक प्रतिपादितमस्ति । अत्र वीर्यं कर्मणानु- यह स्वयं भगवान् महावीर ने अपने अनुभव के आधार पर प्रतिपादित बद्धमस्ति । 'संजमति णो पगम्भति'२--अस्मिन् सूत्रेऽपि किया है। यहां वीर्य कर्म से अनुबद्ध है। 'साधक इन्द्रियों का संयम संयममयस्य कर्मणो निर्देशोऽस्ति । 'वण्णाएसी णारभे कंचणं करता है, उनका उच्छृखल व्यवहार नहीं करता।' इस सूत्र में संयममय सब्बलोए -अत्रापि यशसः कृते कर्मसमारम्भस्य कर्म का निर्देश है । 'मुनि यश का इच्छुक होकर किसी भी क्षेत्र में निषेधोऽस्ति, न सर्वथा कर्मणो निषेधः । 'अकरणिज्जं कुछ भी न करे'। यहां भी यश के लिए कर्म-समारम्भ का निषेध है, पावकम्मं— इतिसूत्रे स्पष्ट निर्देशोऽस्ति-पापं कर्म सर्वथा कर्म का निषेध नहीं है । 'पाप कर्म (हिंसा का आचरण, विषय अकरणीयमस्ति, न तु सर्वथा कर्मणोऽकरणीयत्वं का सेवन) अकरणीय है'-इस सूत्र में स्पष्ट निर्देश है कि पाप कर्म निर्दिष्टम् । . अकरणीय है । कर्म सर्वथा अकरणीय है, ऐसा निर्देश नहीं है। कर्मसमारम्भपरिज्ञाया निर्देशाः कर्मणो विशुद्धः कर्म-समारम्भ की परिज्ञा के निर्देश कर्म की विशुद्धि के निर्देश निर्देशाः सन्ति । पश्यकोऽपि पदार्थानां परिभोगं करोति। हैं । तत्त्वदर्शी भी पदार्थों का परिभोग करता है। वह कर्म से परे नहीं स कर्मणो नास्ति व्यतिरिक्तः । अत एव निर्दिष्टमस्ति- होता। इसलिए निर्देश दिया गया है-'तत्त्वदर्शी पुरुष पदार्थ का 'अण्णहा णं पासए परिहरेज्जा"-'पश्यक: अन्यथा परि- परिभोग भिन्न प्रकार से करे'-जैसे साधारण मनुष्य असयत प्रवृत्ति से भजीत'-यथा साधारणो जनः असंयतेन कर्मणा पदार्थों का परिभोग करता है, संयमी व्यक्ति वैसे नहीं करता, किन्तु पदार्थान् परिभुङ्क्त तथा संयमी न परिभुङ्क्त, किन्तु वह संयत प्रवृत्ति से उनका परिभोग करता है । संयमपूर्वक किया जाने स संयतेन कर्मणा तान् परिभुङ्क्त । संयमपूर्वकं कृतं वाला कर्म अकर्म कहलाता है। उस दृष्टिकोण से ही कर्म-समारम्भ की कर्म अकर्म इत्युच्यते । तेन दृष्टिकोणेनैव कर्मसमारम्भस्य परिज्ञा का निर्देश किया गया है। इसका फलित यह है—मुनि को १. आयारो, ५४१॥ ४. वही, ५५५। २. वही, ५१५१ । ५. वही, २।११८। ३. वही, ॥५३ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ आचारांगभाष्यम् परिज्ञाया निर्देशः कृतोऽस्ति । अस्य फलितमिदं भवति- असंयममय कर्म (प्रवृत्ति) का परित्याग करना चाहिए। मुनिना असंयममयं कर्म परिहर्तव्यम् । ६. तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया। सं०-तत्र खलु भगवता परिज्ञा प्रवेदिता । इस विषय (कर्म-समारम्भ) में भगवान् ने परिज्ञा-विवेक का निरूपण किया है। १०. इमस्स चेव जीवियस्स, परिवंदण-माणण-पृयणाए, जाई-मरण-मोयणाए, दुक्खपडिघायहेउं । सं०-अस्मै चैव जीविताय, परिवंदन-मानन-पूजनाय, जाति-मरण-मोचनाय, दुःखप्रतिघातहेतुम् । वर्तमान जीवन के लिए, प्रशंसा, सम्मान और पूजा के लिए, जन्म, मरण और मोचन के लिए, दुःख-प्रतिकार के लिए, (मनुष्य कर्म-समारम्भ करता है)। भाष्यम् ९-१०-लब्धजातिस्मरेण पुरुषेण स्वानुभूत- जातिस्मृति-सम्पन्न पुरुष अपनी अनुभूत घटनाओं के आधार घटनाभि: यज्ज्ञातं तस्य यथार्थतां समर्थयता भगवता पर जो जानता है, उसकी यथार्थता का समर्थन करते हुए भगवान् ने परिज्ञा प्रवेदिता। परिज्ञा-विवेकः । अपरिज्ञातकर्मा परिज्ञा का निरूपण किया है। परिज्ञा का अर्थ है--विवेक । अपरिज्ञातखलु पुरुषो दिशासु वा अनुदिशासु वा अनुसंचरणं कर्मा-कर्म-समारम्भ का ज्ञान और प्रत्याख्यान न करने वाला पुरुष करोति, एतद् वास्तविकम् । परन्तु कर्मसमारम्भस्य दिशाओं और अनुदिशाओं में अनुसंचरण करता है, यह कथन वास्तविक अपरिज्ञा विद्यते, तस्य कारणानि अन्वेषणीयानि । तानि है। किन्तु कर्म-समारम्भ की जो अपरिज्ञा विद्यमान है, उसके हेतु च इमानि--- अन्वेषणीय हैं । वे ये हैं--- १. जिजीविषा-प्राणिषु अनेका एषणा विद्यन्ते । तासु १. जिजीविषा -प्राणियों में अनेक प्रकार की एषणाएं होती जीवनस्यैषणा प्रबलतमास्ति, अस्ति च प्रथमा। इदं हैं। उनमें जीने की इच्छा अत्यधिक प्रबल और प्रथम है। यह सत्य सत्यमनुभूतिभितेषु पदेषु प्रतिपादितमस्ति, यथा-'सव्वे अनुभूतिगभित पदों में प्रतिपादित किया गया है, जैसे-'सब प्राणियों पाणा पियाउआ......"पियजीविणो जीविउकामा ।' 'ससि को आयुष्य प्रिय है ......"उन्हें जीवन प्रिय है । वे जीवित रहना चाहते जीवियं पियं ।।२ जीवितुकामो मनुष्यः परिग्रहसञ्चयं हैं।' 'सबको जीवन प्रिय है।' जीने का इच्छुक मनुष्य परिग्रह का करोति. क्रराणि कर्माणि हिंसामपि च करोति । एवं संचय करता है, क्रूर कर्म और हिंसा भी करता है। इस प्रकार जिजीविषा कर्मणः स्रोतोभावमापद्यते। अयं भवति जिजीविषा कर्म का स्रोत है। यह दुःख का आवर्त है। दुःखावतः। २. प्रशंसा–'परिवंदण' इतिपदस्य प्रशंसेति अर्थो २. प्रशंसा–वृत्तिकार ने 'परिवन्दण' पद का अर्थ 'प्रशंसा' विहितोऽस्ति वत्तिकृता । किन्तु वस्तुवृत्त्या पाठपरि- किया है । किन्तु वस्तुतः पाठ-परिवर्तन के कारण अर्थ का परिवर्तन वर्तनपूर्वकमर्थपरिवर्तनं जातमस्ति। अत्र 'जीवियस्स हुआ है। यहां 'जीवियस्स परिबहण' पाठ संगत है। चूर्णि में इस परिबहण' इतिपाठ उपयुक्तोऽस्ति । चूणौं अस्य पाठस्य पाठ का आधार भी उपलब्ध है। आयुर्वेद के ग्रन्थों में प्रतिपादित आधारभूमिरपि उपलब्धास्ति। आयुर्वेदोक्तबृंहणीया- 'बृहणीय आहार के साथ इसका संबंध है। इसका तात्पर्य है-जीवन १. आयारो, २०६३ । ० इति से परस्स अट्ठाए कूराई कम्माई बाले पकुब्वमाणे २. वही, २०६४ । तेण दुक्खेण मूढे विप्परियासुवेइ । ३. वही, २०६५-६९ तं परिगिज्झ दुपयं चउप्पयं अभिमुंजियाणं ४. वही, २७४ : बाले पुण णिहे कामसमणुण्णे असमियदुक्खे संसिंचियाणं तिविहेणं जा वि से तत्थ मत्ता भवइ-अप्पा दुक्खी दुक्खाणमेव आवटें अणुपरियट्टइ। वा बहुगा वा। ५. आचारांग वृत्ति, पत्र २४ : परिवंदनं संस्तवः प्रशंसा। • से तत्थ गढिए चिट्ठइ, भोयणाए। ६. आचारांग चूणि, पृष्ठ १६ : परिवंदणं नाम छत्ती अवि• तओ से एगया विपरीसिठं संभूयं महोवगरणं भवइ । लिओ होहामि, वण्णो वा मे भविस्सइ, तेण णेहमाईणि • तं पि से एगया दायाया विभयंति, अवत्तहारो वा से अवह करोति, मल्लजुद्धे वा संगामे वा संसारादि बलकरं भोत्तूणं रति, रायाणो वा से विलुपंति, णस्सति वा से, विणस्सति णित्थरिस्सामि तेण सत्ते हणति । वा से, अगारवाहेण वा से डाइ। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १. शस्त्रपरिज्ञा, उ० १. सूत्र ६,१० २६ हारेण अस्य सम्बन्धोऽस्ति । अस्य तात्पर्यम्-जीवितस्य की परिपुष्टि के लिए प्राणी हिंसात्मक प्रवृत्तियों में प्रवृत्त होते हैं। परिबंहणार्थं प्राणिनो हिंसाकर्मसु प्रवर्तन्ते । लिपिदोषेण लिपिदोष के कारण 'हकार' के स्थान पर 'दकार' हो गया, जिससे हकार-दकारयोविपर्ययो जातः, तेनार्थपरिवर्तनमपि अर्थ-परिवर्तन भी घटित हुआ। यदि आलोच्यमान पाठ को स्वीकार जातम् । यदि समालोच्यमानं पाठं स्वीकुर्मः तदा किया जाए तो जिजीविषा स्वतन्त्र हेतु नहीं रहेगा, किन्तु 'जीवन का जिजीविषा स्वतन्त्रो हेतुर्न स्यात्, किन्तु जीवितस्य परिहण'-यह एक ही हेतु होगा । चूर्णिकार ने जीवन के लिए तथा परिव्हणमिति एक एव हेतुर्भवेत् । चणिकृता 'जीवियस्य' 'परिबहण'-इन दो हेतुओं का पृथक्-पृथक् प्रतिपादन किया है। तथा 'परिबह्ण' मितिहेतुद्वयं पार्थक्येन प्रतिपादितमस्ति । ३. माननम् -मानन मितिपदस्य दिशाद्वयेऽर्थो ३. मानन–'मानन' पद का अर्थ दो दृष्टियों से अन्वेषणीय है। गवेषणीयः । यः सम्मानं करोति तदर्थं हिंसाकर्मणि जो सम्मान करता है वह व्यक्ति सम्मान-संपादित करने के लिए प्रवृत्तिः, यश्च सम्मानं न करोति तं प्रतीत्य पुरुषः हिंसात्मक प्रवृत्ति करता है। जो सम्मान नहीं करता, उस व्यक्ति को हिंसाकर्मणि प्रवर्तते । यथा कश्चिदीश्वरः स्वकीयप्रजायाः लक्ष्य कर असम्मानित व्यक्ति हिंसात्मक प्रवृत्ति में प्रवृत्त होता है। सकाशे अभ्युत्थानादीनि न लभते, तदानीं तस्या बन्ध- जैसे- यदि प्रजा अपने राजा का अभ्युत्थान आदि के द्वारा सम्मान वध-सर्वस्वहरणादीनि करोति। नहीं करती है तो राजा उस प्रजा का वध, बंधन, सर्वस्व-अपहरण आदि करता है । ये सारी हिंसात्मक प्रवृत्तियां हैं । ४. पूजनम् --यथा सम्मानार्थं हिंसाकर्मप्रवृत्तिरुद्दिष्टा ४. पूजन-जैसे सम्मान के लिए हिंसात्मक प्रवृत्ति बतलाई गई तथा पूजार्थमपि हिंसाकर्मणि प्रवृत्तिर्जायते । अभ्युत्था- है वैसे ही पूजा के निमित्त भी हिंसात्मक प्रवृत्ति होती है। मानन और नादिकरणं माननं तथा अर्चनातिलकादिकरण पूजन- पूजन-इन दोनों में अन्तर है। अभ्युत्थान आदि करना मानन तथा मित्यनयोर्भेदः । अर्चना करना, तिलक आदि करना पूजन है। ___५. जाति-मरणे-जातिशब्दस्य अर्थद्वयं सम्भावित- ५. जाति-मरण-'जाति' शब्द के दो अर्थ सम्भव हैं। जाति मस्ति। सादृश्यलक्षणा जातिर्जन्म वा। अत्र जन्मैव का एक अर्थ है-एक समुदाय, जो समानता के आधार पर बनता है। प्रासङ्गिक विद्यते । मरणम्-मृत्युः । जन्ममरणनिमित्तः जाति का लक्षण है-सदृशता । जाति का दूसरा अर्थ है-जन्म । कर्मसमारम्भः स्पष्टं दृश्यते लोके । यहां जन्म ही प्रासङ्गिक है । मरण का अर्थ है-मृत्यु । संसार में जन्म मरण के निमित्त होने वाला कर्म-समारम्भ स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है । ६. मोचनम्-मोचनम्-मुक्तिः स्वतन्त्रता वा । बन्ध- ६. मोचन-मोचन का अर्थ है-मुक्ति या स्वतन्त्रता। मनुष्य मोक्षाय स्वतन्त्रताय वा मनुष्यः नानाविधान् कर्मसमा- बन्धन से मुक्त होने के लिए अथवा स्वतन्त्रता के लिए नाना प्रकार के रम्भान करोतीत्यनेकासू परम्परासु विदितमेव । 'जाई- कर्म-समारम्भ करता है, यह अनेक परम्पराओं से ज्ञात होता है। मरण-मोयणाए' इतिपाठस्य संयुक्तोऽपि अर्थ: कर्त्त 'जाईमरणमोयणाए'--इस पाठ का संयुक्त अर्थ भी किया जा सकता शक्यः । केचिद् हिंसावादिनो जन्म-मरण-मुक्तयेऽपि है-कुछ हिंसावादी जन्म-मरण से मुक्ति पाने के लिए भी हिंसा-कर्म हिंसाकर्मणि प्रवृत्ता दृश्यन्ते । में प्रवृत्त देखे जाते हैं। __अत्र चणिसम्मतः पाठः 'भोयणाए' अधि- इस संदर्भ में चूणि द्वारा स्वीकृत पाठ 'भोयणाए' अधिक संगत संगच्छते। भोजनार्थं मनुष्याः कृष्यादिकर्मषु प्रवर्तमाना है। मनुष्य भोजन के लिए कृषि आदि कर्मों में प्रवृत्त होते हैं। मनोभवन्ति । आहारान्वेषणं एका मौलिकी मनोवृत्तिरिति वैज्ञानिकों ने भी आहार की गवेषणा को एक मौलिक मनोवृत्ति माना सम्मतमस्ति मनोवैज्ञानिकानामपि । फ्रायडमहोदयेन है। फ्रायड ने दो ही मनोवृत्तियां स्वीकार की हैं—जीवन और मृत्यु । द्व एव मनोवृत्ती सम्मते-जीवनं मृत्युश्च ।' उत्तर- उत्तरवर्ती मनोवैज्ञानिकों ने मनोवृत्तियों का विस्तार किया है। 1. McDougall, W : Introduction to Social Psycho___logy, London, Metheun & co. 2 Freud-"The erotic instincts. which are always trying to collect living substance in to ever larger unities and the death instincts which act against that tendency and try to bring living matter back into an inorganic condition. The co-operation and opposition of these two forces produce the phenomena of life to which death puts an end." (Great Books of the western world. Vol-54 Editor-in-Chief-Robert Maynard Hutching, PP-851) Jain Education international Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० आचारांगभाष्यम् वर्तिभिः मनोवैज्ञानिकर्मनोवत्तीनां विस्तारः कृतः । प्रस्तुतसूत्रे सप्तमौलिकमनोवत्तयो निर्दिष्टाः सन्ति । प्रस्तुत सूत्र में सात मौलिक मनोवृत्तियों का निर्देश किया गया मास्लोमहोदयः आदरसम्मानस्याकांक्षामपि मौलिक- है। मनोवैज्ञानिक मास्लो ने आदर-सम्मान की आकांक्षा को भी मौलिक मनोवृत्तिरूपेण स्वीकरोति । मनोवृत्ति के रूप में स्वीकार करते हैं। ७. दुःखप्रतिघातहेतुम् --शारीरमानसदुःखनिरसनाय ७. दुःख-प्रतिकार के लिए-शारीरिक और मानसिक दुःखों नानाविधस्य कर्मणः समारम्भो जायते । एतन् के निवारण के लिए नाना प्रकार के कर्मों-प्रवृत्तियों का समारम्भ महत्प्रवृत्तिस्रोतोऽस्ति । होता है । यह प्रवृत्ति का महान् स्रोत है। प्रस्तुतसूत्रे हिंसायाः स्रोतोभूतानां प्रेरकतत्त्वानां प्रस्तुत सूत्र में हिंसा के जनक प्रेरक-तत्त्वों की विशद संकलना गंभीरतमा सङ्कलना विद्यते । ११. एयावंति सव्वावंति लोगंसि कम्म-समारंभा परिजाणियव्वा भवंति। सं०-एयावन्तः सर्वे लोके कर्मसमारम्भाः परिज्ञातव्याः भवन्ति । लोक में होने वाले ये सब कर्म-समारम्भ परिज्ञातव्य होते हैं-जानने और त्यागने योग्य होते हैं। भाष्यम् ११-पक्षरूपेणैतत्सूत्रं पूर्व निर्दिष्टमस्ति सूत्र १/७ में इस सूत्र का पक्षरूप में निर्देश किया गया है। (१७)। इदानीं तदेव निगमनरूपेण निर्दिश्यते । अज्ञात- अब वही सूत्र निगमनरूप से निर्दिष्ट किया जा रहा है । कर्म-समारम्भ कर्मसमारम्भस्रोतसां न कर्मपरिज्ञा भवति, अत एव पूर्व के स्रोतों को जाने बिना कर्म-परिज्ञा (कर्म-प्रत्याख्यान) नहीं होती, कर्मस्रोतांसि उल्लिखितानि । प्रस्तुतसूत्रे च तज्ज्ञानपूर्वकं इसलिए पहले कर्म-समारम्भ के स्रोतों का उल्लेख किया गया है। कर्मसमारम्भपरिज्ञायाः निर्देशः, तेन नात्र पुनरुक्तिरा- प्रस्तुत सूत्र में कर्म-समारम्भ की ज्ञानपूर्वक परिज्ञा (प्रत्याख्यान) का शंकनीया। निर्देश है, अतः यहां पुनरुक्ति की आशंका नहीं करनी चाहिए। १२. जस्सेते लोगसि कम्म-समारंभा परिणाया भवंति, से हु मुणी परिण्णाय-कम्मे ।-त्ति बेमि । सं०-यस्यैते लोके कर्मसमारंभाः परिज्ञाता भवंति स खलु मुनिः परिज्ञातकर्मा ।- इति ब्रवीमि । लोक में होने वाले ये कर्म-समारंभ जिसके परिज्ञात होते हैं, वही परिज्ञातकर्मा—कर्मत्यागी मुनि होता है। ऐसा मैं कहता हूं। जा . भाष्यम् १२-कर्मशब्दस्य अनेके अर्था भवन्ति । अत्र कर्म शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। प्रस्तुत प्रसंग में इसका अर्थ प्रस्ततोऽर्थोऽस्ति क्रिया। यस्य कर्मसमारम्भाः प्रत्याख्याता है-क्रिया। जिसके कर्म-समारम्भ प्रत्याख्यात होते हैं, वह परिज्ञातभवन्ति, स परिज्ञातकर्मा मुनिर्भवति । गीतायां काम- कर्मा-कर्मत्यागी मुनि होता है । गीता में काम-संकल्प-वजित समारंभों संकल्पवजितानां समारम्भाणां प्रशस्तता प्रतिपादिता- की प्रशस्तता प्रतिपादित की गई है-- यस्य सर्वे समारंभाः, कामसंकल्पवजिताः । 'जिसके संपूर्ण कर्म-समारम्भ कामना और संकल्प से रहित ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं, तमाहुः पण्डितं बुधाः ॥ होते हैं, तथा जिसके समस्त कर्म (प्रवृत्ति) ज्ञानरूप अग्नि के द्वारा भस्म हो गए हैं, उसको ज्ञानी लोग पंडित कहते हैं।' भगवतो महावीरस्य एष नयोऽत्र वर्तते-यथा यथा इस विषय में भगवान् महावीर की दृष्टि यह है-जैसे-जैसे कषायांशस्य अल्पता जायते, तथा तथा कर्मण: शोधनं कषाय का अंश अल्प होता है वैसे-वैसे कर्म का शोधन और निरोध निरोधश्च संभवति । यः समारंभ: कामसंकल्पवजितो होता चला जाता है। जो समारम्भ काम और संकल्प से रहित होता भवति. स कषायांशस्याल्पतयैव भवति इति द्वयोः है वह कषायांश की अल्पता से ही होता है। इसलिए इन दोनों प्रवचनयोर्नास्ति कश्चिद् भेदः । आचारांग और गीता के प्रतिपादनों में कोई अन्तर नहीं है। मुणी-मुनिरितिपदं ज्ञानार्थवाचकं विद्यते-मुणेइ मुनि-'मुनि' यह पद ज्ञान के अर्थ का वाचक है । जो त्रिकाला1. Maslow, A.H. 'Motivation and Personality'. २. गीता, ४१९ । N.Y. Harper. Jain Education international Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ अ० १. स्त्रपरिज्ञा, उ० १,२. सूत्र ११-१३ जगं तिकालावत्थं तेण मुणी।' गीतायां एष पण्डित- वस्थित जगत् को जानता है वह मुनि है (मुण धातु का अर्थ जानना शब्देनाभिहितोऽस्ति । है)। गीता में इसे पण्डित शब्द से अभिहित किया गया है। परिण्णायकम्मे–ज्ञानी पूरुषः कर्मसमारम्भस्य परि- परिज्ञातकर्मा–ज्ञानी पुरुष कर्म-समारम्भ के परिणाम को णामं ज्ञात्वैव ततो विरमति, अत एव स परिज्ञातकर्मा जान लेने के बाद ही उससे विरत होता है, इसलिए वह 'परिज्ञातइत्युच्यते। चूणौं स्पष्टमिदम्-परिण्णायकम्मो णाम कर्मा' कहलाता है । चूणि में यह स्पष्ट निर्दिष्ट है कि परिज्ञातकर्मा वह जाणिऊण विरतो। है जो ज्ञानपूर्वक विरत होता है। ___ इति ब्रवीमि भगवान् महावीरः गणधरान् प्रति ऐसा मैं कहता हूं-इस वाक्यांश का तात्पर्य है-भगवान् वक्ति अथवा सुधर्मा जम्बूस्वामिनं प्रति वक्ति-यद् महावीर अपने गणधरों को संबोधित कर कहते हैं अथवा सुधर्मास्वामी अनुभूतं मया तत् सर्वेषां हिताय ब्रवीमि । जम्बूस्वामी को संबोधित कर कहते हैं-मैंने जो साक्षात् अनुभव किया है, उसका मैं सभी प्राणियों के हित के लिए प्रतिपादन कर रहा हूं। बीओ उद्देसो : दूसरा उद्देशक १३. अट्टे लोए परिजुण्णे, दुस्संबोहे अविजाणए। आतंः लोकः परिजीर्णः दुःसंबोधः अविज्ञायकः । लोक-मनुष्य पीड़ित है, वह परिजीर्ण है। वह सत्य को सरलता से समझ नहीं पाता, अतः अज्ञानी बना रहता है। भाष्यम १३—कीदक पुरुषो हिंसायां प्रवर्तते इति- किस प्रकार का पुरुष हिंसा में प्रवृत्त होता है, इस जिज्ञासा के जिज्ञासायां सत्यां भगवता प्रतिपादितम्-अस्मिन् जगति संदर्भ में भगवान् ने प्रतिपादन किया- इस संसार में आर्त, परिजीर्ण, आर्तः परिजीर्णः दुःसंबोधः अविज्ञायकश्च पुरुषः हिंसायां दुःसंबोध और अविज्ञायक पुरुष हिंसा में प्रवृत्त होता है। प्रवर्तते। आ _विषयकषायादिमनोदोषैः पीडितः । आर्त का अर्थ है-विषय, कषाय आदि मानसिक दोषों से सचित्तादिद्रव्यरसंप्राप्तः प्राप्तवियूक्तर्वा य आत्तः स पीडित । उसके दो प्रकार हैं-द्रव्य आर्त और भाव आर्त । सचित्त द्रव्यातः । क्रोधादिभिरभिभूतो भावार्तः।। आदि द्रव्यों के न मिलने से अथवा प्राप्त द्रव्यों का वियोग होने पर जो आर्त बनता है, वह द्रव्य आत्तं है । क्रोध आदि से अभिभूत व्यक्ति भाव मात्तं कहलाता है। परिजीर्णः-अभावग्रस्त:-पदार्थमभिलषमानोऽपि परिजीर्ण का अर्थ है अभावग्रस्त अर्थात पदार्थ को पाने की तल्लाभशून्यः । अभिलाषा रखता हुआ भी उससे वंचित रहने वाला। दुस्संबोधः-यः प्रयत्नशतेनापि बोदधं न शक्यते । दुःसंबोध का अर्थ है-सैकड़ों प्रयत्न करने पर भी बोध प्राप्त करने में असमर्थ मनुष्य । अविज्ञायकः-तत्त्वानभिज्ञः। अविज्ञायक का अर्थ है-तत्त्व से अनभिज्ञ । पण कार्यकारणभावोऽपि दश्यः-आतः परिजीर्णो इनमें कार्य-कारण भाव भी है जो आर्त होता है, वह परिभवति । परिजीर्णः मन्दविज्ञानत्वाद् दुस्संबोधो भवति। जीर्ण होता है । परिजीर्ण मन्दज्ञान के कारण दुःसंबोध होता है। ३. बृहत्कल्पभाष्य, गाथा १२५१, वृत्ति । १. आधारांग पूणि, पृष्ठ १७ । २. वही, पृष्ठ १७ । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ आचारांगभाष्यम् दुस्संबोधस्तत्वज्ञानाभावे अविज्ञायको भवति ।' दुःसंबोध तत्त्वज्ञान के अभाव में अविज्ञायक बना रहता है। १४. अस्सि लोए पव्व हिए। सं०-अस्मिन् लोके प्रव्यथितः । अज्ञानी मनुष्य इस लोक में व्यथा का अनुभव कर रहा है। भाष्यम् १४-उक्तलक्षणपुरुषोऽस्मिन् लोके व्यथामनु- उपर्युक्त लक्षण संपन्न पुरुष इस लोक में व्यथा का अनुभव भवति । स यदभिलषति तद् हिंसामृते नाप्नोति, तेन स करता है । हिंसा के बिना उसको अभीप्सित प्राप्त नहीं होता। इसलिए हिंसाकर्मणि प्रवर्तते। वह हिंसात्मक प्रवृत्ति में प्रवृत्त होता है । १५. तत्थ तत्थ पुढो पास, आतुरा परितार्वेति । सं०-तत्र तत्र पृथक् पश्य, आतुराः परितापयन्ति । तू देख, पृथक् पृथक् भावों से आतुर मनुष्य स्थान-स्थान पर पृथ्वीकायिक प्राणियों को परिताप दे रहे हैं। भाष्यम् १५–भगवान् शिष्यं आमन्त्र्य वक्ति-त्वं भगवान् शिष्य को संबोधित कर कहते हैं-तू स्वयं देख ! स्वयं पश्य । तेषु तेषु कार्येषु गृहादिनिमित्तं पृथक् पृथक् आर्त, परिजीर्ण आदि भिन्न-भिन्न भावों से आतुर पुरुष ही गृह आदि आर्त्तादिभावैरातूराः पुरुषा एव सन्ति हिंसायां के निमित्त अनेक कार्य करते हुए हिंसा में प्रवृत्त होते हैं। मृत्यु के भय प्रवर्तमानाः। मरणभयातुरा 'जीवो जीवस्य जीवन' से आतुर मनुष्य 'एक जीव का जीवन दूसरे जीव पर आश्रित है'-यह मिति सिद्धान्तं सम्मुखीकृत्य पृथ्वीजीवान् परितापयन्ति, मानकर पृथ्वीकायिक जीवों को परिताप देते हैं और विषयों की विषयाभिलाषातुराश्च विषयसेवनार्थम् । अभिलाषा से आतुर मनुष्य विषय-सेवन के लिए पृथ्वीकायिक जीवों को परिताप देते हैं, उनका हनन करते हैं। १६. संति पाणा पुढो सिया। सं०-संति प्राणाः पृथक् श्रिताः । पृथ्वीकायिक प्राणी पृथक्-पृथक् शरीरों में आश्रित हैं। भाष्यम् १६-तावत् हिंसाज्ञानं कर्तुं दुश्शकं यावज्जीव- जब तक जीव का बोध नहीं होता, तब तक हिंसा का ज्ञान बोधो न स्यात् । अहिंसाविषयेऽपि एष एव सिद्धान्तस्तेनादौ करना शक्य नहीं है । यही सिद्धांत अहिंसा के विषय में है। इसलिए जीवनिर्णयः कर्तव्यः । भगवता महावीरेण षड्जीव- सबसे पहले जीव के विषय में ज्ञान करना चाहिए। भगवान् महावीर निकायाः प्रज्ञप्ता:-पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयस्त्रसाश्च । ने छह जीव-निकायों ---पृथ्वी, अप, तेजस्, वायु, वनस्पति और त्रसप्रस्तुतोद्देशके पृथ्वीकायिकजीवानां हिंसापरिज्ञा की प्ररूपणा की है। प्रस्तुत उद्देशक में पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा की निर्दिष्टास्ति । पृथिव्यामपि प्राणिनः सन्ति, एषास्ति परिज्ञा का निर्देश किया गया है । 'पृथ्वी में भी जीव है'--यह प्रतिज्ञा प्रतिज्ञा। 'पृथ्वी सजीवा वर्तते' नाभिमतमासी- (पक्ष-स्थापना) है। 'पृथ्वी सजीव है' यह अन्यतीपिकों का अभिमत दिदमन्येषां तीथिकानाम् । एष नवीन एव पक्ष: नहीं था। भगवान महावीर ने इस नये पक्ष की स्थापना की। १. शीलांकवत्तौ 'अस्सि लोए' इतिपाठस्य अर्थः-अस्मिन दुस्संबोधत्वाच्च अविज्ञायको भवति । अस्मिन् पृथ्वीकायपृथ्वीकायलोके:- इति कृतोऽस्ति (आ. व. पत्र ३२) । लोके प्रव्यथिते सर्वारम्भस्य तदाश्रयत्वात् आतुरास्तत्र तत्र एतं सम्मुखीकृत्य यदि चिन्तयामस्तदा प्रथमत्रवति 'लोक' इमं पृथ्वीकायलोकं परितापयन्ति । पदस्यापि 'पृथ्वीकायलोक' इत्यर्थः कर्तुं शक्यः । ततः । असो व्याख्यानयोऽपि समीचीनः प्रतिभाति । यदीम अपि सत्रे (१३,१४) एवं व्याख्यातव्ये भवतः-अयं पृथ्वी व्याख्यानयं स्वीकुर्मस्तवा 'संति पाणा पुढोसिया' (११६) कायलोकः कर्मणा आतः. औदयिकमावेन परिजीर्णो इत्यस्य द्वितीयोऽर्थः पृथक् श्रिताः प्राणिनः इति अधिभवति । वृत्ती लिखितमस्ति-यावानातः स सर्वोऽपि संगच्छते। परियनो नाम परिपेलबो निस्सारः (आ. व. पत्र ३२) २. बसवेआलियं, ४।३। नया आतत्वात् परिजीर्णत्वाच्चासौ लोक: दुस्संबोधः Jain Education international Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १. शस्त्रपरिज्ञा, उ० २. सूत्र १६-१६ स्थापितोऽभूत् । 'पुढो सिया' इति पृथक श्रिताः प्राणिनः 'पुढो सिया' अर्थात् पृथ्वीकायिक प्राणी पृथक्-पृथक् शरीरों में आश्रित सन्ति । पृथगिति भिन्न भिन्नशरीरेषु, श्रिताः-सम्बद्धाः, हैं। यहां पृथक् का अर्थ है-भिन्न-भिन्न शरीरों में तथा श्रित का अर्थ प्रत्येकशरीरिण इति यावत् ।' पुढोसिया- पृथ्वीश्रिताः है— संबद्ध । पृथ्वीकायिक प्राणी 'प्रत्येकशरीरी' होते हैं। अर्थात् प्राणिनः सन्ति इत्यर्थोऽपि वृत्तौ सम्मतोऽस्ति । प्रत्येक जीव का पृथक्-पृथक् शरीर होता है। वृत्ति में 'पुढोसिया' का यह अर्थ भी सम्मत है-पृथ्वी के आश्रित प्राणी हैं। प्रस्तुताध्ययने मनुष्यस्य विवक्षामकृत्वा पूर्व प्रस्तुत अध्ययन में मनुष्य की विवक्षा न कर पहले पृथ्वी आदि पृथिव्यादिप्राणिनां विवक्षा किमर्थं इतिजिज्ञासायामेतद् प्राणियों की विवक्षा क्यों की गई? इस जिज्ञासा के उत्तर में यह कहा वाच्यमस्ति-आचाराङ्गस्य केन्द्रीयं तत्त्वमस्ति आत्मा। गया है-आचारांग का केन्द्रीय तत्त्व मात्मा है। इसका मुख्य प्रस्थान अस्य मुख्यं प्रस्थानमस्ति सर्वेषामात्मनां समता । यादृश (प्रतिपाद्य) है सभी आत्माओं की समता। जैसी आत्मा पृथ्वीकायिक आत्मा पृथ्वीकायिकजीवानां वर्तते तादृश एव आत्मा जीवों की है वैसी ही आत्मा मनुष्य की है। आत्मा के स्वरूप में कोई अस्ति मनुष्यस्य । आत्मनः स्वरूपे नास्ति कोऽपि भी भेद नहीं है । भेद है केवल उनके ज्ञानावरण आदि कर्मों के तारतम्य भेदः, केवलमस्ति तेषु ज्ञानावरणादीनां तारतम्यकृतो का। भेदः । १७. लज्जमाणा पुढो पास । सं०-लज्जमानान् पृथक् पश्य । तू देख, प्रत्येक संयमी साधक हिंसा से विरत हो संयम का जीवन जी रहा है। भाष्यम् १७-हिंसा असंयम इतिकृत्वा ये लज्जन्ते- हिंसा असंयम है, ऐसा मानकर जो लज्जित होते हैं अर्थात् हिंसातो विरमन्ति तान् त्वं प्रत्येकं पश्य । केचिद् गृह- हिंसा से विरत होते हैं उन एक-एक को तुम देखो । गृहत्याग करके त्यागं कृत्वा पृथ्वीकायिकजीवानां हिंसातो विरमन्ति, न कुछेक साधक ही पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा से विरत होते हैं, सब तु सर्वे । एतदेवाग्रिमसूत्रे सूचितमस्ति । नहीं । अग्रिम सूत्रों में यही सूचित किया गया है। १८. अणगारा मोत्ति एगे पवयमाणा। सं०-अनगाराः स्म इत्येके प्रवदन्तः । और तू देख, कुछ साधु 'हम गृहत्यागी हैं'-यह निरूपित करते हुए भी गृहवासी जैसा आचरण करते हैं-पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करते हैं। भाष्यम् १८-केचिद् 'वयं अनगाराः स्म' इति कुछ संन्यासी 'हम गृहत्यागी हैं'-यह कहते हुए भी पृथ्वीकायिक प्रवदन्तोऽपि पृथ्वीकायिकजीवानां हिंसातो विरता न जीवों की हिंसा से विरत नहीं होते। इस प्रसंग में सूत्रकार ने आश्चर्य भवन्ति । अत्र सूत्रकारेण आश्चर्यव्यञ्जना कृता-यदि की अभिव्यञ्जना की है-यदि गृहस्थ पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा से गृहस्थाः पृथ्वीकायिकजीवानां हिंसातो न विरमन्ति न विरत नहीं होते हैं तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है, किन्तु यदि तदाश्चर्यकारणम्, किन्तु अनगारा अपि ततो न विरता अनगार उससे विरत नहीं होते हैं तो महान् आश्चर्य है । उनको संयमएतन् महदाश्चर्यम् । तैस्तु संयममयकर्मणोपि यथाशक्यं पूर्ण प्रवृत्ति की भी यथाशक्य गुप्ति करनी चाहिए। गुप्तिः साधनीया। १६. जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहिं पुढवि-कम्म-समारंभेणं पुढवि-सत्थं समारंभेमाणे अण्णे वणेगरूवे पाणे विहिंसति । १. अंगसुत्ताणि २, भगवई १९१५ : सिय भंते ! जाव चत्तारि पंच पुढविक्काइया, एगयओ साधारणसरीरं बंधंति, बंधित्ता तओ पच्छा आहारेति वा परिणामेंति वा सरीरं वा बंधंति ? नो इण? सम४। पुढविक्काइया पत्तयाहारा पत्तेय परिणामा पत्तेयं सरीरं बंधंति, बंधित्ता तओ पच्छा आहारेंति वा परिणामेंति वा सरीरं वा बंधति । २. द्रष्टव्यानि समताप्रतिपादकानि सूत्राणि-आयारो, १२८, ३०, ५१-५३, ८२-८४, ११०-११३, १३७-१३९, १६१ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ आचारांगभाष्यम् सं०-यदिदं विरूपरूपः शस्त्रः पृथिवीकर्मसमारंभेण पृथिवीशस्त्रं समारभमाणः अन्यानप्यनेकरूपान् प्राणान् विहिंसति । वह नाना प्रकार के शस्त्रों से पृथ्वी सम्बन्धी क्रिया में व्याप्त होकर पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करता है, वह केवल उन पृथ्वीकायिक जीवों की ही हिंसा नहीं करता, किन्तु नाना प्रकार के अन्य जीवों को भी हिंसा करता है। भाष्यम् १९–स पृथिवीशस्त्रं समारभमाण अन्यानपि जो नाना प्रकार के शस्त्रों से पृथ्वीकायिक जीवों का समारम्भ यो नानाविधैः शस्त्रैः पृथ्वीकायिकजीवानां समारम्भं करता है वह पृथ्वी के जीवों की हिंसा करता हुआ पृथ्वी के आश्रित करोति, तदाश्रितान् जीवान् हिनस्ति । भणितञ्च- अन्य जीवों की भी हिंसा करता है । कहा हैपुढविकायं विहिसंतो, हिंसई उ तयस्सिए। पृथ्वीकाय की हिंसा करता हुआ मनुष्य उसके आश्रित अनेक तसे य विविहे पाणे, चक्खुसे य अचक्खसे ।' प्रकार के चाक्षुष (दृश्य) तथा अचाक्षुष (अदृश्य) बस और स्थावर प्राणियों की हिंसा करता है। शस्यते येन तत् शस्त्रम्। पृथ्वीसन्दर्भे हलकुद्दाल- जिससे हिंसा की जाती है वह शस्त्र है। पृथ्वी के सन्दर्भ में खनित्रादयः। हल, कुदाली, फावड़ा आदि शस्त्र हैं । पृथ्वीकर्मसमारम्भ:-पृथिव्यां कर्म-खननं विलेखनं पृथ्वीकर्म अर्थात् पृथ्वी-विषयक क्रिया-खोदना अथवा वा, तस्य समारम्भः-व्यापारः प्रवृत्तिर्वा । कुरेदना । उसका समारम्भ अर्थात् खोदने का प्रयोग करना, प्रवृत्ति करना। पृथ्वीकर्मसमारम्भ का संयुक्त अर्थ है -पृथ्वी को खोदने आदि की प्रवृत्ति करना। पृथ्वीशस्त्रम्-पृथ्वी एव शस्त्रमिति पृथ्वीशस्त्रम्, पृथ्वीशस्त्र---इस शब्द का विग्रह दो प्रकार से होता हैतत् समारभमाण:-हिंसन्निति । पृथिव्याः शस्त्रं पृथ्वी- कोप हसान्नात । प्राथव्याः शस्त्र पृथ्वा- (१) पृथ्वी ही शस्त्र है वह पृथ्वीशस्त्र है। उसका समारम्भ अर्थात् शस्त्रम्, तत् समारभमाण:-प्रयुञ्जान इति । हिंसा । (२) पृथ्वी का शस्त्र पृथ्वीशस्त्र है। उसका समारम्भ अर्थात् प्रयोग। अत्र शस्त्रपदं विमर्शमर्हति । शस्त्रं द्विविधं भवति- यहां 'शस्त्र' पद विमर्शनीय है । शस्त्र दो प्रकार का होता हैद्रव्यशस्त्र भावशस्त्रञ्च । मारकं वस्तु द्रव्यशस्त्रं, द्रव्य शस्त्र और भावशस्त्र । सभी मारक पदार्थ द्रव्यशस्त्र हैं और असंयमश्च भावशस्त्रम्। उक्तं च स्थानांगे असंयम भावशस्त्र है । स्थानांग सूत्र में कहा हैसत्थमग्गो विसं लोणं, सिणेहो खारमंबिलं । अग्नि, विष, लवण, स्नेह, क्षार तथा अम्ल -ये द्रव्यशस्त्र हैं दुप्पउत्तो मणो वाया, काओ भावो य अविरती ॥ तथा दुष्प्रयुक्त मन, वचन और काया तथा अविरति-ये भावशस्त्र हैं। वक्ष्यमाणेषु द्रव्यशस्त्रेषु सर्वत्रापि भावशस्त्रमूहनी- आगे कहे जाने वाले द्रव्यशस्त्रों के साथ सर्वत्र भावशस्त्र की भी यम् । द्रव्यशस्त्रं त्रिधा विभक्तम् तर्कणा कर लेनी चाहिए । द्रव्यशस्त्र के तीन प्रकार हैं :-- १. स्वकायशस्त्रम्-यथा कृष्णमृत्तिका पीतमृत्ति- १. स्वकायशस्त्र :-जैसे—काली मिट्टी पीली मिट्टी का शस्त्र कायाः। होता है। २. परकायशस्त्रम्-यथा अग्निः । २. परकायशस्त्र : ---जैसे- अग्नि (मिट्टी का शस्त्र होता है)। ३. तदुभयशस्त्रम् –यथा मृत्तिकामिश्रितं जलम् । ३. तदुभय :-जैसे-मिट्टी मिश्रित जल (दूसरी मिट्टी का शस्त्र होता है)। २०. तत्य खलु भगवया परिण्णा पवेइया। सं०-तत्र खलु भगवता परिज्ञा प्रवेदिता । इस विषय में भगवान महावीर ने परिज्ञा (विवेक) का निरूपण किया है। १. बसवेआलियं ६॥२७॥ किंची सकायसत्थं किंची परकाय तवुभयं किंचि । २. आचारांग चूणि, पृष्ठ २२ : पुढविसत्थंति पुढविमेव सत्थं एवं तु दवसत्थं, भावे उ असंजमो सत्थं ॥ अप्पणो परेसि च, हलादीणि वा पुढविसत्थाणि । ३. आचारांग नियुक्ति, गाथा ९६ । ४. ठाणं, १०९३। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १. शस्त्रपरिज्ञा, उ० २. सूत्र २०-२५. २१. इमस्स चैव जीवियरस, परिवरण माणण-पूरणाए, जाई- मरण- मो.नाए, दुक्खपविधाय [सं०] चैव जीविताय परिवदनमामन-पूजनाम, जाति मरण-मोचनाय दुःखप्रतिपातहेतुम् । वर्तमान जीवन के लिए, प्रशंसा, सम्मान और पूजा के लिए, जन्म, मरण और मोचन के लिए, दुःख - प्रतिकार के लिए । भाष्यम् २०.२१ – द्रष्टव्यम् - ९,१० सूत्रद्वयम् । देखें- ९,१० वां सूत्र । २२. से सयमेव पुढवि-सत्थं समारंभइ, अण्णेहि वा पुढवि-सत्थं समारंभावेइ, अण्णे वा पुढवि-सत्थं समारंभंते समणुजाणइ । सं० स स्वयमेव पृथिवीर समारभते, अन्येव पृथिवीशस्त्रं समारम्भयति अन्यान् वा पृथिवीशस्त्रं समारभमाणान् समनुजानीते । कोई साधक स्वयं पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करता है, दूसरों से करवाता है या करने वालों का अनुमोदन करता है । २३. तं से अहियाए तं से अबोहीए। भाष्यम् २२.२३ – निर्ग्रन्थप्रवचनप्रतिपन्नोऽपि गृहस्थः पृथ्वीकायिकजीवानां हिंसात: सर्वथा विरति कर्तुं न शक्नोति, किन्तु यो मुनिः भूत्वापि कृतकारितानुमतिभिः पृथ्वीकायिकजीवान् समारभते तत्तस्य अहिताय भवति, तत्तस्य अबोध्यं भवति - स चिरेणापि बोधि ज्ञानदर्शनचारित्रात्मिका' रत्नत्रयीं न लभते महदहितमेतत् । २४. से सेमाणे, आयाणीयं समुट्टाए । सं० तत् तस्य अहिताय, तत् तस्य अबोध्यै 1 वह हिंसा उसके अहित के लिए होती है, वह हिंसा उसकी अबोधि के लिए होती है । भाष्यम् २४ - यो मुनिः पृथ्वीका विकजीवानां समा रम्भं तत्परिणामं वा सम्यक् संबुध्यते स आदानीयम्संयमं प्रति सम्यग् उत्यितो भवति । , आदानीयम् - मुनेः संयम एव आदानीयम् - ग्राह्य भवति तेन अनेकार्यकस्याप्यस्य पदस्यात्र 'संयम' एवार्थः संगच्छते । 1 - , सं०-- स तत् संबुध्यमानः आदानीयं समुत्थाय । वह उस हिंसा के परिणाम को समीचीन दृष्टि से समझकर संयम की साधना में सावधान हो जाता है । भाष्यम् २५ - हिंसायाः परिणाममजानतः अहिंसायां प्रवृत्तिनं भवति । तेन संबोधरूपायोऽपि सूत्रकारेण १. अंग सुत्ताणि १, ठाणं ३।१७६ । " निर्ग्रन्थ प्रवचन को स्वीकार कर लेने पर भी गृहस्थ पृथ्वीकाविक जीवों की हिंसा से सर्वथा विरत नहीं हो सकता। किन्तु जो व्यक्ति मुनि होकर भी कृत, कारित और अनुमति से पृथ्वीकायिक जीवों का समारम्भ करता है, वह उसके अहित के लिए होता है। वह उसकी अबोधि के लिए होता है । वह चिरकाल तक भी बोधि-- ज्ञान-दर्शनचारित्रात्मक रत्नत्रयीको प्राप्त नहीं होता, यह महान् अहित है । ३५ मुनि पृथ्वीकायिक जीवों के समारम्भ और उसके परिणाम को सम्यक् प्रकार से जान लेता है, वह मादानीय अर्थात् संयम के प्रति सम्यक् रूप से उत्थित सावधान हो जाता है । - २५. सोच्चा खलु भगवओ अणगाराणं वा अंतिए इहमेगेसि णातं भवति एस खलु गंधे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णरए । सं० - श्रुत्वा खलु भगवतः अनगाराणां वा अन्तिके इहैकेषां ज्ञातं भवति - एषा खलु ग्रन्थः, एषा खलु मोहः, एषा खलु मारः, एषा खलु नरकः । भगवान् वा गृहत्यागी मुनियों के समीप सुनकर कुछ मनुष्यों को यह ज्ञात हो जाता है यह (पृथ्वीकाधिक जीवों की हिंसा पन्थि है, यह मोह है, यह मृत्यु है, यह नरक है। आदानीयः मुनि के लिए संयम ही आदानीय ग्राह्य है । आदानीय पद के अनेक अर्थ हैं, किन्तु प्रस्तुत प्रसंग में उसका अर्थ 'संयम' ही संगत लगता है । हिंसा के परिणामों को नहीं जानने वाला व्यक्ति अहिंसा में प्रवृत्त नहीं हो सकता, इसलिए सूत्रकार ने संबोध का उपाय भी Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगभाष्यम् दर्शितः । साक्षात भगवतोऽर्हत: समीपे अन्येषां मुनीनां प्रदर्शित किया है। साक्षात् अर्हत् भगवान से था अन्य मुनियों से सुन वा अन्तिके श्रुत्वा इतिज्ञातं भवति-एषा संबोधिरुदेति लेने पर यह ज्ञात होता है-यह संबोधि जागृत होती है कि यह हिंसा --एषा हिंसा प्राणिनश्चित्तं ग्रथ्नाति तेनास्ति ग्रन्थिः , प्राणी के चित्त को ग्रथित करती है, इसलिए ग्रंथि है। यह मूढता को एषा मूढतां नयति तेनास्ति मोहः, एषा मृत्यु नयति तेन प्राप्त कराती है, इसलिए मोह है । यह मृत्यु की ओर ले जाती है, मारः, एषा विपुलां वेदनां नयति तेन नरकः । इसलिए मार है तथा यह विपुल वेदना को उपलब्ध कराती है, इसलिए नरक है। २६. इच्चत्थं गढिए लोए। सं०-इत्यत्र ग्रथितो लोकः । फिर भी सुख-सुविधा में मूच्छित व्यक्ति पृथ्वीकायिक जीव-निकाय की हिंसा करता है। भाष्यम् २६-यदि हिंसा ग्रन्थिर्मोहो मारो नरकश्च यदि हिंसा ग्रन्थि, मोह, मार और नरक है तो हिंसा की विद्यते तदानीं को हिंस्यात् ? अस्य संशयस्य समाधानार्थं प्रवृत्ति करेगा ही कौन ? इस संशय के समाधान में सूत्रकार कहते हैंसुत्रकारो वक्ति-इत्यत्र' सुखसुविधायां मूच्छितो लोको सुख-सुविधा में मूच्छित प्राणी पृथ्वीकायिक और पृथ्वी के आश्रित जीवान हिनस्ति पृथ्वीकायिकान् तदाश्रितजीवांश्च, जीवों की हिंसा करता है । जैसेयथा२७. जमिणं विरूवरूवेहि सत्यहि पुढवि-कम्म-समारंभेणं पुढवि-सत्थं समारंभेमाणे अण्णे वणेगरूवे पाणे विहिंसइ। सं०-यदिदं विरूपरूपः शस्त्रः पृथिवीकर्मसमारंभेण पृथिवीशस्त्रं समारभमाणः अन्यानप्यनेकरूपान् प्राणान् विहिंसति । वह नाना प्रकार के शस्त्रों से पृथ्वी सम्बन्धी क्रिया में व्याप्त होकर पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करता है तथा वह केवल उन पृथ्वीकायिक जीवों की ही हिंसा नहीं करता, किन्तु नाना प्रकार के अन्य जीवों की भी हिंसा करता है। भाष्यम् २७–द्रष्टव्यम्-१७ सूत्रम् । देखें-१७वां सूत्र । २८. से बेमि-अप्पेगे अंधमन्भे, अप्पेगे अंधमच्छे । सं०-तद् ब्रवीमि-अप्येकः अन्धमाभिन्द्याद्, अप्येकः अन्धमाच्छिद्यात् । मैं कहता हूं-पृथ्वीकायिक जीव जन्मना इन्द्रिय-विकल--अंध, बधिर, मूक, पंगु और अवयवहीन मनुष्य की भांति अव्यक्त चेतना वाले होते हैं। शस्त्र से भेदन-छेदन करने पर जैसे जन्मना इंद्रिय-विकल अंधे मनुष्य को कष्टानुभूति होती है, वैसे ही पृथ्वीकायिक जीवों को होती है। भाष्यम २८-स्यादारेकः-कि पृथिव्यां सन्ति शंका हो सकती है क्या पृथ्वी में जीव हैं ? यद्यपि सूक्ष्म जीवाः ? सक्षमतत्त्वावबोधार्थं अतीन्द्रियज्ञानमेव प्रमाणं, तत्त्व के अवबोध के लिए अतीन्द्रियज्ञान ही प्रमाण होता है, फिर भी तथापि पूर्वाचार्यरत्र काश्चिद् युक्तयः सन्ति प्रदर्शिता:- पूर्वाचार्यों ने इस विषय में कुछ युक्तियां प्रदर्शित की हैं। वे कहते हैंसमानजातीयलतोदभेदादिकमर्शोमांसांकुरवत् चेतना- जैसे-मस्से में मांसांकुर फूटते हैं वैसे ही पर्वत में समानजातीय शिला चिह्नमस्त्येव । कुन्दकुन्दाचार्येण 'पंचास्तिकाये' का उद्भेद होता है । यह चेतना का ही चिह्न है । आचार्य कुन्दकुन्द ने एकेन्द्रियाणां जीवत्वनिश्चयार्थं एष तर्कः प्रस्तुत:-येन पंचास्तिकाय में एकेन्द्रिय प्राणियों का जीवत्व सिद्ध करने के लिए यह प्रकारेण अंडान्तीनानां गर्भस्थानां मूच्छितानां च तर्क प्रस्तुत किया है--जिस प्रकार अण्डे में अन्तर्लीन और गर्भ में स्थित जीवत्वं बुद्धिपूर्वकव्यापारादर्शनेऽपि निश्चीयते, तेन जीवों तथा मूच्छित प्राणियों में बुद्धिपूर्वक प्रवृत्ति नहीं देखी जाती, १. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २३ : इति एत्थं पुढविकाए माननपूजनाथं दुःखप्रतिघातहेतुं च गृद्धो-मूच्छितो आहारोवगरणविभूसणहेऊ मुच्छिओ गढिओ गिद्धोत्ति लोकः-प्राणिगणः। वा एगलैं। २. दशवकालिक हारिभद्रीया वृत्ति, पत्र १३९ : समान(ख) आचारांग वृत्ति, पत्र ३४ : इच्चत्यमित्यादि, जातीयांकुरोत्पत्युपलम्भात् देवदत्तमांसांकुरवत् । इत्येवमयं आहारभूषणोपकरणार्थ तथा परिवन्धम Jain Education international Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ अ० १. शस्त्रपरिज्ञा, उ० २. सूत्र २६-२८ प्रकारेणैव एकेन्द्रियाणां अपि जीवत्वं संसाधनीयम्। फिर भी उनमें जीवत्व का निश्चय किया जाता है। उसी प्रकार से ही एकेन्द्रियाणां अंडमध्यादिवर्तिपञ्चेन्द्रियाणां च बुद्धि- एक इन्द्रिय वाले जीवों का भी जोवत्व सिद्ध होता है । एक इन्द्रिय पूर्वकव्यापारादर्शनस्य समानत्वाद् ।' वाले प्राणियों तथा अण्डे आदि के मध्यवर्ती स्थित पंचेन्द्रिय प्राणियों में बुद्धिपूर्वक प्रवृत्ति दृष्टिगोचर नहीं होती। इस बुद्धिपूर्वक प्रवृत्ति का अदर्शन दोनों में समान है। इदानींतना भूवैज्ञानिका अपि मन्वते-शिलाखण्ड- आधुनिक भूवैज्ञानिक भी मानते हैं-शिलाखण्ड, पर्वत आदि पर्वतादयोऽपि हीयन्ते वर्धन्ते च । तेषु क्लान्तिश्चया- में भी हानि और वृद्धि होती है । उनमें क्लान्ति, चयापचय और पचयो मृत्युश्च ---एतानि त्रीण्यपि चैतन्यलक्षणानि मृत्यु-चैतन्य के ये तीनों लक्षण पाए जाते हैं । विद्यन्ते। अस्ति तेषु अव्यक्तचेतना, अतस्ते व्यक्तचैतन्यप्राणि- उनमें चेतना अव्यक्त होती है, इसलिए उनको व्यक्त चेतना वन न सन्ति सहजबोध्याः । भगवता महावीरेण वाले प्राणी की तरह सहजतया जाना नहीं जा सकता। भगवान पृथिव्यां न केवलं चैतन्यमेव प्रतिपादितं किन्तु तद्विषये महावीर ने पृथ्वी में केवल चेतना का ही प्रतिपादन नहीं किया है,. अनेकानि तथ्यान्यपि प्रकटितानि किन्तु इस विषय में अनेक तथ्य भी प्रकट किये हैं(१) श्वासोच्छवासः-गौतमेन पृष्टं-'भगवन् ! (१) श्वासोच्छ्वास-गौतम ने पूछा-भगवन् ! पृथ्वीकायिक पृथ्वीकायिकजीवानां उच्छ्वासनिःश्वासं वयं न पश्यामो जीवों का उच्छ्वास-नि.श्वास न हमें दीखता है और न हम उस विषय न च तविषये जानीमो वा। किं ते उच्छ्वसन्ति में जानते हैं । क्या वे उच्छ्वास-निःश्वास की क्रिया करते हैं ? निःश्वसन्ति वा? भगवता प्रोक्तं-गौतम ! ते नियाघातेन षड्दिशा- भगवान् ने कहा- गौतम ! वे व्याघात न होने पर छहों तोऽपि उच्छवसन्ति निःश्वसन्ति, व्याघातं प्रतीत्य स्यात् दिशाओं से उच्छ्वसन-निःश्वसन करते हैं तथा व्याघात होने पर तीन त्रिदिशः स्याच्चतुर्दिशः स्यात् पञ्चदिशः ।' या चार या पांच दिशाओं से । (२) करणम्-गौतमेन पृष्टं--भगवन् ! एकेन्द्रिय- (२) करण- गौतम ने पूछा--भगवन् ! एकेन्द्रिय जीवों के जीवानां कति करणानि भवन्ति ? कितने करण होते है ? भगवता प्रोक्तं-तेषां द्विविधं करणं भवति- भगवान् ने कहा- उनके दो प्रकार का करण होता हैकायकरणं कर्मकरणञ्च । कायकरण और कर्मकरण ।। क्रियन्ते प्रवृत्तयः संवेदनानि ज्ञानानि वा जिससे प्रवृत्ति, संवेदन और ज्ञान संपादित होता है, वह करण येन तत करणम । तच्च क्वचिच्छरीरं, क्वचित् कर्म, है। कहीं करण का प्रयोग शरीर के अर्थ में, कहीं कर्म, कहीं इन्द्रियां क्वचिदिन्द्रियाणि, क्वचिदतीन्द्रियज्ञानस्य निमित्तभूतानि कहीं अतीन्द्रिय ज्ञान के निमित्तभूत चैतन्य-केन्द्र और कहीं संवेदन-केन्द्र चैतन्यकेन्द्राणि, क्वचिच्च संवेदनकेन्द्राणि । के अर्थ में होता है । (३) वेदना-गौतमेन पृष्टं--भगवन् ! पृथ्वी- (३) वेदना--गौतम ने पूछा-भगवन् ! वया पृथ्वीकायिक कायिकजीवाः किं करणतो वेदनां वेदयन्ति अथवा जीव करण से वेदना का वेदन करते हैं या अकरण से ? अकरणतः ? १.पंचास्तिकाय, गाथा ११३ : अंडसु पवड्ढेता गम्भत्था माणुसा य मुच्छगया। जारिसया तारिसया जीवा एगेंदिया णेया॥ २. अंगसुत्ताणि २, भगवई २।२,५: जे इमे भंते ! बेइंदिया तेइंदिया चरिदिया पंचविया जीवा एएसि णं आणामं वा पाणामं वा उस्सासं वा निस्सासं वा जाणामो पासामो। जे इमे पुढवीकाइया जाव वणफ्फइकाइया-एगिदिया जीवा एएसि णं आणाम वा पाणामं वा उस्सासं बा निस्सासं वा नयाणामो न पासामो। एएणं भंते ! जीवा आणमंति वा ? पाणमंति वा? ऊससंति वा ? नीससंति वा..."हंता गोयमा ! एए वि णं जीवा आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा। एएणं भंते ! जीवा कइदिसं आणमंति वा? पाणमंति वा ? ऊससंति वा? नीससंति वा? गोयमा ! निव्वाधाएणं छदिसि, वाघायं पडुच्च सिय तिदिसि सिय चउदिसि सिय पंचदिसि । ३. अंगसुत्ताणि २, भगवई ६७ : एगिदियाणं दुविहे-कायकरणे य कम्मकरणे य । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगभाष्यम् भगवता प्रोक्तं ते शुभाशभेन करणेन वेदनां भगवान् ने कहा-वे शुभ-अशुभ करण से वेदना का वेदन वेदयन्ति, नो अकरणतः ।। ___ करते हैं, अकरण से नहीं। गौतमः--भगवन् ! असंज्ञिनः प्राणिनः पृथ्वी- गौतम-भगवन् ! पृथ्वीकायिक आदि असंज्ञी प्राणी अन्ध, कायिकादय अन्धा मूढाः तमःप्रविष्टाः सन्तः अमनस्क- मूढ और अन्धकार में निमग्न होने के कारण अमनस्कहेतुक वेदना का हेतुकां वेदनां वेदयन्ति । किमिदं सत्यम् ? वेदन करते हैं। क्या यह सत्य है ? भगवान्–गौतम ! एतत् सत्यमस्ति । भगवान्–गौतम ! यह सत्य है। (४) शरीरावगाहना---गौतमः-भगवन् ! पृथ्वी- (४) शरीरावगाहना--गौतम-भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों कायिक जीवानां कियती महती शरीरावगाहना भवति? के शरीर को अवगाहना (परिपाण) कितनी बड़ी होती है ? भगवान गौतम ! चातुरंतचक्रवर्तिन एका काचित भगवान्-गौतम ! चातुरन्त चक्रवर्ती की स्थिर हस्ताग्र (हथेली स्थिराग्रहस्ता औरस्यबलसमन्वागता तरुणी एकं पृथ्वी- तथा अंगुलियों) वाली तथा शारीरिक शक्ति से सम्पन्न कोई एक युवती कायखण्डं गृहीत्वा तीक्ष्णायां वज्रमय्यां श्लक्षणकरण्यां तीक्ष्ण बज्रमयी चिकनी खरल में तीक्ष्ण बज्रमय वर्तक (बट्टे) से तीक्ष्णेन वज्रमयेन वर्तकेन (शिलापुत्रकेन) एकविंशति- पृथ्वीकाय के एक टुकड़े को इक्कीस बार पीसती है। तब भी कुछ वारं पिनष्टि । तदानीमपि केचित् संघट्टिता भवन्ति पृथ्वीकायिक जीव संघट्टित होते हैं और कुछ नहीं, कुछ परितापित होते केचिच्च नो, केचित् परितापिता भवन्ति केचिच्च नो, हैं और कुछ नहीं, कुछ भयभीत होते हैं और कुछ नहीं, कुछ स्पृष्ट केचिदुपद्रता भवन्ति केचिच्च नो, केचित् स्पृष्टा भवन्ति होते हैं और कुछ नहीं। इतनी सूक्ष्म अवगाहना होती है पृथ्वीकायिक केचिच्च नो। इयती सूक्ष्मशरीरावगाहना तेषां पृथ्वी- जीवों के शरीर की । कायिकजीवानाम् । (५) दृश्यता-पृथ्वीकायिकजीवाः सूक्ष्मशरीराव- (५) दृश्यता-पृथ्वीकायिक जीवों के शरीर को अवगाहना गाहनावन्तः सन्ति, तेन नैकद्वयादिजीवानां शरीराणि सूक्ष्म होती है, इसलिए एक-दो जीवों के शरीर दीखते नहीं हैं । किन्तु दष्टानि भवन्ति, किन्तु तेषामसंख्यजीवानां पिण्डीभूतानि उन असंख्य जीवों के पिण्डीभूत शरीरों को ही हम देख सकते हैं । शरीराणि वयं द्रष्टुं शक्नुमः । (६) भोगित्वम्-गौतमः-पृथ्वीकायिकजीवा किं (६) भोगित्व-गौतम ने पूछा-भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव कामिनो भोगिनो वा? कामी होते हैं या भोगी? १. अंगसुत्ताणि २, भगवई ६।१३ : पुढवीकाइयाणं एवामेव पुच्छा, नवरं-इच्चेएणं सुभासुभेणं करणेणं पुढविक्काइया करणओ वेमायाए वेदणं वेदेति, नो अकरणओ। २. वही, भगवई ७।१५० : जे इमे भंते ! असणिणो पाणा, .. तं जहा-पुढविकाइया जाव वणस्सइकाइया, छट्ठा य एगतिया ता-एए णं अंधा, मूढा, तमंपविट्ठा, तमपडलमोहजाल-पडिच्छन्ना अकामनिकरणं वेदणं वेतीति वत्त वं सिया? हंता गोयमा ! जे इमे असण्णिणो पाणा जाव वेदणं वेतीति वत्तव्वं सिया। ३. वही, भगवई १९:३४ : पुढविकाइयस्स णं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! से जहानामए रणो चाउरंतचक्कबट्टिस्स वण्णगपेसिया तरुणी बलवं जुगवं जुवाणी अप्पायंका थिरग्गहत्था दढपाणि-पाय-पास- पितरोरुपरिणता तलजमलजुयलपरिघनिमबाहू उरस्सबलसमण्णागया लंघण-पवण-जइणवायाम-समत्था छेया दक्खा पत्तट्ठा कुसला मेहावी निउणा निउणसिप्पोवगया तिक्खाए वइरामईए सहकरणीए तिक्खेणं वइरामएणं बट्टावरएणं एगं महं पुढविकाइयं जतुगोलासमाणं गहाय पडिसाहरिय-पडिसाहरिय पडिसंखिविय-पडिसंखिविय जाव इणामेवत्ति कट्ट तिसत्तक्खुत्तो ओप्पीसेज्जा, तत्थ णं गोयमा ! अत्थेगतिया पुढविक्काइया आलिद्धा अत्थेगतिया पुढविक्काइया नो आलिद्धा, अत्थेगतिया संघट्टिया अत्यंगतिया नो संघट्टिया, अत्थेगतिया परियाविया अत्थेगतिया नो परियाविया, अत्यंगतिया उद्दविया अत्थेगतिया नो उद्दविया, अत्थेगतिया पिट्ठा अत्थेगतिया नो पिट्ठा, पुढविक्काइयस्स णं गोयमा ! एमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता। ४. आचारांग नियुक्ति, गाथा ८२,८३ : इक्कस दुण्ह तिण्ह व संखिज्जाण व न पासिउं सक्का । दोसंति सरीराइं पुढविजीयाणं असंखाणं ॥ एएहि सरीरेहि पच्चक्खं ते परूविया हुंति । सेसा आणागिझा चक्खु फासं न जं इंति ॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १. शस्त्रपरिज्ञा, उ० २. सूत्र २८ भगवान्-नो कामिनः, किन्तु स्पर्शनेन्द्रियं प्रतीत्य भगवान-गौतम ! वे कामो नहीं होते, किन्तु स्पर्शनेन्द्रिय की केवलं भोगिनः । अपेक्षा से केवल भोगी होते हैं। (७) आश्रवादि-गौतमः-किमेतत् सत्यम् --- (७) आश्रव आदि-गौतम ---भंते ! क्या यह सत्य है कि कदाचित् पृथ्वीकायिकजीवा महाश्रवा महाक्रिया महा- पृथ्वीकायिक जीव कभी महाआस्रव बाले, महाक्रिया वाले, महावेदना वेदना महानिर्जरा भवन्ति, कदाचिच्च अल्पाश्रवा वाले और महानिर्जरा वाले होते हैं तथा कभी अल्पआस्रव वाले, अल्पअल्पक्रिया अल्पवेदना अल्पनिर्जरा भवन्ति ? क्रिया वाले, अल्पवेदना वाले और अल्पनिर्जरा वाले होते है ? भगवान् - गौतम ! अस्ति सत्यमिदम् ।' भगवान् - गौतम ! यह सत्य है। (८) जरा, शोकः-गौतमः—पृथ्वीकायिकजीवानां किं (८) जरा और शोक-गौतम-भंते ! क्या पृथ्वीकायिक जरा भवति शोकश्च ? __जीवों के जरा और शोक होते हैं ? भगवान गौतम ! पृथ्वीकायिकजीवाः शारीरिकी भगवान --गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव शारीरिक वेदना का वेदनां वेदन्ति, तेन तेषां जरा भवति । ते मानसिकी वेदन करते हैं, इसलिए उनके जरा होती है। वे मानसिक वेदना का वेदनां न वेदयन्ति, तेन तेषां शोको न भवति । वेदन नहीं करते, इसलिए उनके शोक नहीं होता। (९) उन्मादः-गौतमः -भगवन् ! उन्मादः (९) उन्माद-गौतम -- भगवन् ! उन्माद कितने प्रकार का कतिधा ? होता है ? भगवान गौतम ! द्विविध उन्माद:-यक्षावेश- भगवान गौतम ! उन्माद दो प्रकार का होता हैजनितः मोहोदयजनितश्च । यक्षावेशजनित और मोहोदयजनित । गौतमः---भगवन् ! पृथ्वीकायिकजीवेषु उन्मादो गौतम--भगवन ! पृथ्वीकायिक जीवों में उन्माद होता है भवति न वा? या नहीं? भगवान् ---गौतम ! तेषु द्विविधोऽपि उन्मादो भगवान् गौतम ! उनमें दोनों प्रकार का उन्माद होता है। भवति । प्रेतादिभिरशुभपुद्गलप्रक्षेपजनितः-यक्षावेश- प्रेत आदि के द्वारा अशुभ पुद्गलों के प्रक्षेपण से होने वाला उन्माद जनितः, मोहकर्मविपाकजनितश्च मोहोदयजनितः। यक्षावेशजनित और मोहकमं के विपाक से होने वाला उन्माद मोहोदय जनित कहलाता है। इदानीमपि प्रेताभिभूतानां हीरकाणां तथाविध वर्तमान में भी देखा जाता है कि प्रेत से अभिभूत हीरों के १ अंगसुत्ताणि २, भगवई ७।१३८-१४२ : जीवा णं भंते ! हंता सिया। कि कामी ? भोगी? ३. वही, भगवई, १६।३०-३१-पुढविकाइयाणं भंते ! कि गोयमा ! जीवा कामी वि, भोगी वि । जरा? सोगे? से केणठेणं भंते एवं बुच्चइ-जीवा कामी वि? भोगी वि? गोयमा ! पुढविकाइयाणं जरा, न सोगे। गोयमा ! सोइंदिय-क्खिदियाई पडुच्च कामी, घाणिदिय से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चइ - पुढविकाईयाणं जरा नो जिभिदिय-फासिदियाई पडुच्च भोगी। से तेणठेणं सोगे? गोयमा ! एवं वुच्चइ-जीवा कामी वि , भोगी वि। गोयमा ! पुढविकाइया णं सारीरं वेदणं वेति, नो माणसं वेदणं वेति । से तेणठेणं गोयमा ! एवं बुच्चइपुढविक्काइयाणं-पुच्छा । पुढविकाइयाणं जरा, नो सोगे। गोयमा ! पुढविक्काइया नो कामी, भोगी। ४. अंगसुत्ताणि २, भगवई १४।१६-२० : कतिविहे गं भंते ! से केण?णं जाव भोगी ? उम्मादे पण्णते ? गोयमा ! दुविहे उम्मादे पण्णते, तं गोयमा ! फासिदिय पडुच्च । से तेणठेणं जाव भोगी। जहा-जक्खाएसे य, मोहणिज्जस्स य कम्मस्स उदएणं । २. वही, भगवई १९।५५-५६ सिय भंते ! पुढविक्काइया तत्थ णं जे से जक्खाएसे से णं सुहवेयणतराए चेव सुहविमोयणमहासवा महाकिरिया महावेयणा महानिज्जरा? तराए चेव । तत्थ णं जे से मोहणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं हंता सिया। से णं दुहवेयणतराए चेव दुहविमोयणतराए चेव ।............ सिय भंते ! पुढविक्काइया अप्पासवा अप्पकिरिया अप्प से तेणठेणं जाव...."पुढविकक्काइयाणं जाव मणुस्साणं वेयणा अप्पनिज्जरा? Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग भाष्यम् ४० उन्मादः परिदृश्यते । कानिचिद् भवनान्यपि यक्षावेश धारण करने वाले व्यक्ति में वैसा उन्माद पैदा होता है। यक्षावेशग्रस्त प्रस्तानि दृश्यन्ते ।" कुछ भवन भी देखने को मिलते हैं। (१०) संज्ञा - गौतम :- भगवन् ! कति संज्ञा वर्तन्ते ? भगवान् गौतम ! दश संज्ञा वर्तन्ते आहार-भयमैथुन परिग्रह क्रोधमान माया-लोभ लोक ओघ संज्ञाः । - - गीतम:- पृथ्वी कायिकजीवानां कति संज्ञा भवन्ति ? भगवान् गौतम ! तेषां दशापि संज्ञा भवन्ति ।' 7 । तेषां तथाविधक्षयोपशमभावतः कश्चिदव्यक्तोऽक्षरलामो भवति यद्वशादक्षरानुषक्तं श्रुतज्ञानमुपजायते । इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यम् । तथाहि तेषामप्याहाराद्यभिलाष उपजायते । अभिलाषश्च प्रार्थना, सा च यदीदमहं प्राप्नोमि ततो भव्यं भवतीत्याद्यक्षरानुविद्धैव ततस्ते षामपि काचिदव्यक्ताक्षरलब्धिरवश्यं प्रतिपत्तव्या । भगवान् गौतम ! उनमें दसों संज्ञाएं होती है। (११) पृथ्वी कायिकजीवेषु मतिः श्रुतमिति (११) ज्ञान पृथ्वीकायिक जीवों में मति और श्रुत-यह द्विविधोऽपि अव्यक्तो बोधो भवति । तेषु मनुष्यादीनां दोनों प्रकार का अव्यक्त बोध होता है उनमें मनुष्य आदि की भाषा भाषामनोज नितप्रकम्पनानां ग्रहणशक्तिरपि विद्यते और मनोनित प्रकम्पनों को पकड़ने की शक्ति भी होती है। यद्यपि यद्यपि तेषामेकेन्द्रियादीनां परोपदेशश्रवणासम्भवस्तथापि उन एकेन्द्रिय आदि जीवों के लिए दूसरों का वचन सुनना असंभव है, । फिर भी उनके अक्षर-लाभ के अनुरूप क्षयोपशम के कारण कोई अव्यक्त अक्षरलाभ होता है । इसके फलस्वरूप अक्षर सम्बन्धी श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है। इस प्रकार उनमें ज्ञान को स्वीकार किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त उनमें आहार आदि की अभिलाषा पैदा होती है। अभिलाषा का अर्थ है - मांग। जैसे – यदि यह मुझे मिल जाए तो अच्छा हो। यह मांग अक्षरात्मक ही होती है। इसलिए उनमें भी कुछ अव्यक्त अक्षरलब्धि अवश्य मानी जा सकती है। 1 पृथ्वीकायिकजीवेषु केवलमव्यक्तमेव अतीवाल्पतरं मनो द्रष्टव्यम्, यद्वशाद् आहारादिसंज्ञा अव्यक्तरूपा प्रादुर्भवन्ति ।" मत्तमूच्छितविषभावितपुरुषज्ञानवद् एकेन्द्रियाणां सर्वजघन्यविज्ञानं भवति । (१२) आहारा गीतम: भगवन् ! पृथ्वीकायिक- जीवाः किवता कालेन आहाराविनो भवन्ति ? भगवान् गौतम ! ते अनुसमयं अविरहितं आहाराथिनो भवन्ति । आहारपुद्गलानां पुराणान् वर्णादिगुणान् विपरिणमय्य अन्यानपूर्वान् वर्णादिगुणानुत्पाद्य तान् सर्वात्मना आहरन्ति । (१३) पर्यवाः - गौतमः -- भगवन् ! पृथ्वीकायिकजीवेषु कति पर्यवा भवन्ति ? १. संदेश (गुजराती पत्र) २४ जुलाई १९८३ पृ० ८ २. नवभारत टाइम्स वार्षिक अंक - पराविद्या के रहस्य १९७६, पृ० ४३ । ३. अंगाथि २, गवई ७१६१ कति मं भंते । सयाओ पताओ ? गोमा ! दस सण्णाओ पण्णत्ताओ, तं जहा- आहारसण्णा, पण मेहुण्या परिहसण्या, कोहसण्या, माणसण्णा, मायासण्णा, लोभसण्णा, लोगसण्णा, ओहसण्णा । (१०) संज्ञा - गौतम ने पूछा-भगवन् ! संज्ञाएं कितनी है ? भगवान् गौतम ! संज्ञाएं दस हैं-आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा, परिवहसंज्ञा कोयसंज्ञा मानसंज्ञा, शमासंज्ञा, सोभसंज्ञा, लोकसंज्ञा और ओघसंज्ञा । हैं ? गौतम भगवन् । पृथ्वीकायिक जीवों में कितनी बंज्ञाएं होतो 1 पृथ्वी कायिक जीवों में केवल अव्यक्त और अतीव अल्पतर मन होता है, जिससे आहार आदि संज्ञाएं अव्यक्त रूप में प्रादुर्भूत होती हैं। मत्त, मूच्छित तथा विष से प्रभावित पुरुष के ज्ञान की तरह एकेन्द्रिय जीवों में जघन्यतम ज्ञान होता है । (१२) आहार गौतम भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों में कितने समय के अन्तराल से आहार की अभिलाषा उत्पन्न होती है ? भगवान् गौतम ! उनमें प्रतिक्षण, निरन्तर आहार की अभिलाषा होती है । वे आहार के पुद्गलों के पहले वाले वर्ण आदि गुणों का विपरिणमन कर अन्य नए वर्ग आदि गुणों को उत्पन्न कर उन्हें सर्वात्मना आत्मसात् कर लेते हैं। --- ! (१२) पर्यव गौतम भगवन् । पृथ्वीकाविक जीवों में कितने पर्यन होते हैं ? ४. अंगसुत्ताणि २, भगवई ८।१०७ : पुढविक्काइया णं भंते ! कि नाणी ? अण्णाणी ? गोयमा ! नो नाणी, अण्णाणी । जे अण्णाणी ते नियमा दुअण्णाणी - मइअण्णाणी, सुयअण्णाणी य । ५. नन्दी, मलयगिरि वृत्ति, पत्र १८८ । ६. नन्दी, मलयगिरि वृत्ति, पत्र १८० । ७. नन्दी चूर्णि पृष्ठ ४६ ॥ ८. पन्नवण्णा २८।२८-३२ । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १. शस्त्रपरिज्ञा, उ० २. सूत्र २८ ४१ भगवान्-गौतम ! तेष्वनन्ता पर्यवा भवन्ति । ते भगवान्-गौतम ! उनमें अनन्त पर्यव होते हैं। वे परस्पर परस्परमपि वर्णादिविषये ज्ञानदर्शनविषये च षट्स्थान- वर्ण आदि के विषय में और ज्ञान-दर्शन के विषय में षट्स्थानपतित पतिता' भवन्ति । होते हैं। (१४) इन्द्रियज्ञानेन अज्ञेयत्वम् यथा वृक्षे सूक्ष्मः स्नेह- (१५) इन्द्रियज्ञान से अज्ञेयता-वृक्ष में सूक्ष्म स्नेहगुण होता गुणो विद्यते तेनैव तस्याहारेण शरीरोपचयो जायते, है। उसी के आहार से वृक्ष के शरीर का उपचय होता है, किन्तु अव्यक्त किन्तु अव्यक्तत्वेन तन्नैव लक्ष्यते। तथैव पृथिव्यामप्यस्ति होने के कारण वह परिलक्षित नहीं होता। वैसे ही पृथ्वी में भी सूक्ष्मस्नेहः, किन्तु सूक्ष्मत्वेन स नैव दृश्यते। सूक्ष्मस्नेह होता है, किन्तु सूक्ष्मता के कारण वह दिखाई नहीं देता। (१५) कषायः ----पृथ्वीकायिकजीवेषु क्रोधादयोऽपि (१५) कषाय--पृथ्वीकायिक जीवों में क्रोध आदि भाव भी भवन्ति, किन्तु ते भावाः सूक्ष्माः सन्ति, तेनेन्द्रियज्ञानि- होते हैं किन्तु वे सूक्ष्म होने के कारण इंद्रिय-ज्ञानियों से उपलक्षित नहीं नोऽनुपलक्ष्याः । यथा मनुष्याः क्रोधोदये सति आक्रो- होते । जैसे-क्रोध का उदय होने पर मनुष्य आक्रोश करते हैं, त्रिवली शन्ति, त्रिवली भ्रकुटि वा कुर्वन्ति, तथा क्रोधोदये सति करते हैं या भृकुटि तानते हैं, उस प्रकार पृथ्वीकायिक जीव क्रोध का पृथ्वीकायिकजीवास्तं प्रदर्शयितुं न प्रत्यलाः। उदय होने पर उसे प्रदर्शित करने में समर्थ नहीं होते। (१६) लेश्या-पृथ्वीकायिकजीवेषु चतस्रो लेश्या (१७) लेश्या-पृथ्वीकायिक जीवों में चार लेश्याएं होती हैंभवन्ति--कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या और तेजोलेश्या। इससे ज्ञात होता तेजोलेश्या । अनेन ज्ञायते तेषु मनसो विकासो नास्ति, है कि उनमें मन का विकास नहीं है, फिर भी उनमें भावों का तथापि भावानामस्तित्वं विद्यते। सत्सु भावेषु आभा- अस्तित्व है । भावों का अस्तित्व होने के कारण उनमें आभामण्डल मण्डलस्यापि विद्यमानता। भी होता है। प्रश्नः समुत्थितः- 'भगवन् ! पृथ्वीकायिकजीवा न गौतम ने प्रश्न उपस्थित किया-भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव शृण्वन्ति, न पश्यन्ति, न जिघ्रन्ति, न गच्छन्ति । तेषां न सुनते हैं, न देखते हैं, न सूंघते हैं और न गति करते हैं। हम कैसे वेदना भवतीति वयं कथं प्रतीमः ?' विश्वास करें कि उनको वेदना होती है ? भगवता अस्मिन् विषये प्रस्तुतसूत्रे त्रयो दृष्टान्ताः इस विषय में भगवान् ने प्रस्तुत सूत्र में तीन दृष्टांतों का प्रज्ञप्ताः । निरूपण किया है। प्रथमो दृष्टान्तः पहला दृष्टांत१. यथा कश्चित् पुरुषः अन्धं-इन्द्रियविकलं पुरुषं १. जैसे कोई पुरुष अन्ध अर्थात् इन्द्रिय-विकल पुरुष का भेदनआभिन्द्यादाच्छिन्द्याच्च । किं स वेदनां नानुभवति ? स छेदन करता है, क्या उसे वेदना का अनुभव नहीं होता? वह इन्द्रियवैकल्याद् वेदनां व्यजितुमशक्नुवन्नपि तामनु- इन्द्रिय-विकलता के कारण वेदना को व्यक्त करने में असमर्थ होते हुए भवति । तथैव वेदनाभिव्यञ्जनायामक्षमा अपि पृथ्वी- भी उसका अनुभव करता ही है । उसी प्रकार वेदना को प्रकट करने में कायिकजीवास्तामनुभवन्त्येव । अस्मिन् सूत्रे चूर्णिकारेण अक्षम होते हुए भी पृथ्वीकायिक जीव उसका अनुभव अवश्य करते हैं । 'अग' पदमपि व्याख्यातम्–स पुरुषो न केवलं इन्द्रिय- इस सूत्र में चूर्णिकार ने 'अग' पद को भी व्याख्यात किया है वह विकलः, अपि तु गतिविकलोऽपि, यथा मृगापुत्रः पाषाण- पुरुष न केवल इन्द्रिय-विकल होता है, अपितु गति-विकल भी होता है। खण्डकल्पोऽपि वेदनामन्वभवत्' तथा पृथ्वीकायिकजीवा जैसे मृगापुत्र पत्थर के टुकड़े के समान था, फिर भी वह वेदना का अपि । ___ अनुभव करता था, वैसे ही पृथ्वीकायिक जीव वेदना का अनुभव करते हैं। १. षट्स्थानपतिता २. पन्नवणा ५१५२-२३ । हीन अधिक ३. निशीथभाष्य, गाथा ४२६४ । १. अनन्तभाग हीन १. अनन्तभाग अधिक ४. निशीथभाष्य, गाथा ४२६५ : २. असंख्यातभाग हीन २. असंख्यातभाग अधिक कोहाई परिणामा तहा, एगिदियाण जंतूणं । ३. संख्यातभाग हीन ३. संख्यातभाग अधिक पावल्लं तेसु कज्जेसु, कारेउं जे अपच्चला ॥ ४. संख्यातगुण होन ४. संख्यातगुण अधिक ५. अंगसुत्ताणि २, भगवई १९।६। ५. असंख्यातगुण हीन ५. असंख्यातगुण अधिक ६. अंगसुत्ताणि ३, विवागसुयं-११।२६-४१ । ६. अनन्तगुण हीन ६. अनन्तगुण अधिक ७. आचारांग चूणि, पृष्ठ २३ । (भगवई, २५॥३५०) न्द्रियविक स द्रय-विक Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ आचारांगभाष्यम २६. अप्पगे पायमन्भे, अप्पग पायमच्छ, अप्पेगे गुप्फमब्भे, अप्पेगे गुप्फमच्छे, अप्पेगे जंघमन्भे, अप्पेगे जंघमच्छे, अप्पेगे जाणुमन्भे, अप्पेगे जाणुमच्छे, अप्पेगे ऊरुमन्भे, अप्पेगे ऊरुमच्छे, अप्पेगे कडिमन्भे, अप्पेगे कडिमच्छे, अप्पेगे णाभिमब्भे, अप्पेगे णाभिमच्छ, अप्पेगे उयरमन्भे, अप्पेगे उयरमच्छ, अप्पेगे पासमब्भे, अप्पेगे पासमच्छे, अप्पेगे पिट्ठमब्भे, अप्पेगे पिट्टमच्छे, अप्पेगे उरमन्भे, अप्पेगे उरमच्छ, अप्पेगे हिययमब्भे, अप्पेगे हिययमच्छे, अप्पेगे थणमन्भे, अप्पेगे थणमच्छे, अप्पेगे खंधमन्भे, अप्पेगे खंधमच्छे, अप्पेगे बाहुनब्भे, अप्पेगे बाहुमच्छे, अप्पेगे हत्यमन्भे, अप्पेगे हत्थमच्छ, अप्पेगे अंगुलिमब्भे, अप्पेगे अंशुलिनच्छे, अप्पेगे णहमन्भे, अप्पेगे णहमच्छ, अप्पेगे गीवमन्भे, अप्पेगे गोवमच्छे, अप्पेगे हणयमब्भे, अप्पेगे हणयमच्छे, अप्पेगे हो?मन्भे, अप्पेगे हो?मच्छे, अप्पेगे दंतमन्भे, अप्पेगे दंतमच्छे, अप्पेगे जिब्भमब्भे, अप्पेगे जिभमच्छे, अप्पेगे तालुमन्भे, अप्पेगे तालुमच्छे, अप्पेगे गलमन्भे, अप्पेगे गलमच्छे, अप्पेगे गंडमब्भे, अप्पेगे गंडमच्छे, अप्पेगे कण्णमब्भे, अप्पेगे कण्णमच्छे, अप्पेगे णासमब्भे, अप्पेगे णासमच्छे, अप्पेगे अच्छिमब्भे, अप्पेगे अच्छिमच्छे, अप्पेगे भमुहमब्भे, अप्पेगे भमुहमच्छ, अप्पेगे गिडालमब्भे, अप्पेगे गिडालमच्छे, अप्पेगे सोसमन्भे, अप्पेगे सोसमच्छे । सं०-अप्येकः पादमाभिन्द्याद, अप्येकः पादमाच्छिन्द्यात्, अप्येक गुल्फमाभिन्द्याद्, अध्येक: गुल्फमाच्छिन्द्यात्, अप्येकः जङ्घामाभिन्द्याद्. अयेक: जङ्घामाच्छिन्द्यात्, अप्येक: जानुमाभिन्द्याद्, अप्येकः जानुमाच्छिन्द्यात्, अप्येकः ऊरुमाभिन्द्याद्, अप्येकः ऊरुमाच्छिन्द्यात्, अप्येकः कटिमाभिन्द्याद्, अप्येक: कटिमाच्छिन्द्यात्, अप्पेकः माभिमाभिन्द्याद् , अप्येक. नाभिमाच्छिन्द्यात्, अप्येक: उदरमाभिन्द्याद्, अप्येक: उदरमाच्छिन्द्यात्, अप्येकः पार्श्वमाभिन्द्याद्, अप्येक. पार्श्वमाच्छिन्द्यात्, अप्येकः पृष्ठमाभिन्द्याद्, अप्येक. पृष्ठमाच्छिन्द्यात्, अप्येकः उर आभिन्द्याद्, अप्येक उर आच्छिन्द्यात्, अप्येकः हृदयमाभिन्द्याद्, अप्येक हृदयमाच्छिन्द्यात्, अप्येकः स्तनमाभिन्द्याद्, अप्येकः स्तनमाच्छिन्द्यात् अप्येकः स्कन्धमाभिन्द्याद्, अप्येक स्कन्धमाच्छिन्द्यात्, अप्येकः बाहुमाभिन्द्याद्, अप्येक: बाहुमाच्छिन्द्यात्, अप्येकः हस्तमाभिन्द्याद, अप्येकः हस्तमाच्छिन्द्यात, अप्येकः अंगुलिमाभिन्द्याद, अप्येकः अगुलिमाच्छिन्द्यात्, अप्येकः नखमाभिन्द्याद, अप्येकः नख माच्छिन्द्यात्, अप्येकः ग्रीवामाभिन्द्याद, अप्येकः ग्रीवामाच्छिन्द्यात्, अप्येकः हनुकामाभिन्द्याद्, अप्येकः हनुकामाच्छिन्द्यात्, अप्येकः ओष्ठमाभिन्द्याद, अप्येकः ओष्ठमाच्छिन्द्यात, अप्येकः दन्तमाभिन्द्याद्, अप्येकः दन्तमाच्छिन्द्यात्, अप्येकः जिह्वामाभिन्द्याद्, अप्येकः जिह्वामाच्छिन्द्यात्, अप्येकः तालु आभिन्द्याद्, अप्येकः तालु आच्छिन्द्यात, अप्येक: गलमाभिन्द्याद्, अप्येकः गलमाच्छिन्द्यात्, अप्येक: गण्डमाभिन्द्याद, अप्येकः गण्डमाच्छिन्द्यात्, अप्येकः कर्णमाभिन्द्याद्, अप्येकः कर्णमाच्छिन्द्यात्, अप्येक: नासामाभिन्द्याद्, अप्येक: नासामाच्छिन्द्यात्, अप्येकः अक्षि आभिन्द्याद, अप्येकः अक्षि आच्छिन्द्यात्, अप्येकः ध्रुवमाभिन्द्याद्, अप्येकः ध्रुवमाच्छिन्द्यात्, अप्येकः ललाटमाभिन्द्याद्, अप्येक: ललाटमाच्छिन्द्यात्, अप्येकः शीर्षमाभिन्द्याद्, अप्येकः शीर्षमाच्छिन्द्यात् । (इन्द्रिय-सम्पन्न मनुष्य के) पैर, टखने, जंघा, घुटने, पिंडली, कटि, नाभि, उदर, पार्श्व, पीठ, छाती, हृदय, स्तन, कंधे, भुजा, हाथ, अंगुली, नख, ग्रीवा, ठुड्डी, होठ, दांत, जीभ, तालु, गले, कपोल, कान, नाक, आंख. भौंह, ललाट और सिर का शस्त्र से भेदन-छेदन करने पर उसे ऐसी कष्टानुभूति होती है, जिसे प्रकट करने में वह अक्षम होता है। वैसे ही पृथ्वीकायिक जीव को कष्टानुभूति होती है। भाष्यम् २९-द्वितीयो दृष्टान्तः दूसरा दृष्टांतयथा कस्यचित् इन्द्रियसम्पन्नस्य परिस्पष्टचेतनावतः जैसे किसी इन्द्रिय-सम्पन्न व्यक्त चेतना वाले पुरुष के पैर, पुरुषस्य पाद-गुल्फ-जंघा-जानु-ऊरु-कटि-नाभि-उदर- टखने, जंघा, घुटने, पिंडली, कटि, नाभि, उदर, पार्श्व, पीठ, छाती, हृदय, पार्श्व-पृष्ठ-उरस्-हृदय-स्तन-स्कन्ध-बाहु-हस्त-अंगुलि- स्तन, कन्धे, भुजा, हाथ, अंगुली, नख, ग्रीवा, ठुड्डी, होठ, दांत, जीभ, Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १. शस्त्रपरिज्ञा, उ० २. सूत्र २६-३० नख-ग्रीवा-हनु-ओष्ठ-दन्त-जिह्वा-तालु-गल-गण्ड-कर्ण- तालु, गले कपोल, कान, नाक, आंख, भौंह, ललाट और सिर-इन नासा-अक्षि-भ्र-ललाट-शीर्षाणि इति द्वात्रिंशत्सु बत्तीस अवयवों का एक साथ भेदन-छेदन करने पर उसे जैसे वेदना का अवयवेष युगपद् भिद्यमानेषु छिद्यमानेषु तस्य यथा अव्यक्त अनुभव होता है वैसे ही पृथ्वीकायिक जीवों को भी वेदना का अव्यक्तो वेदनानुभवो जायते तथा पृथ्वीकायिकजीवा- अव्यक्त अनुभव होता है। नामपि अव्यक्तो वेदनानुभवो विद्यते। ३०. अप्पेगे संपमारए, अप्पेगे उद्दवए। सं०-अप्येकः संप्रमारयेद्, अर्यक: उद्भवेत् । मनुष्य को मूच्छित करने या उसका प्राण-वियोजन करने पर उसे कष्टानुभूति होती है, वैसे ही पृथ्वीकायिक जीव को होती है। भाष्यम् ३०-तृतीयो दृष्टान्तः तीसरा दृष्टांतयथा कश्चित् पुरुषः कञ्चित् पुरुषं मूर्छामापादयति जैसे कोई पुरुष किसी व्यक्ति को मूच्छित करता है और किसी प्राणवधं नयति च । स मूच्छितावस्थायां म्रियमाणा- का प्राणवध करता है । वह मूच्छित पुरुष तथा वह मरने वाला व्यक्ति वस्थायां च यथा अव्यक्तां वेदनामनुभवति, तथा जैसे अव्यक्त वेदना का अनुभव करता है, वैसे ही स्त्यानधिनिद्रा के स्त्याधिनिद्रोदयादव्यक्तचेतनाः पृथ्वीकायिकजीवा उदय से अव्यक्त चेतना वाले पृथ्वीकायिक जीव अव्यक्त वेदना का अव्यक्तवेदनामनुभवन्ति । अनुभव करते हैं। __संप्रमारणं--मूर्छा। यथा पारदस्य मारणक्रिया संप्रमारण का अर्थ है -- मूर्छा । जैसे पारे की मारण क्रिया की जायते । उक्तञ्च जाती है। कहा है-- मूछों गतो मृतो वा निदर्शनं पारदोऽत्र रसः।' मूर्छा को प्राप्त या मृत पारद रस यहां निदर्शन बनता है। तथा चोक्तम्-- कहा भी हैमूच्छितो हरति व्याधीन्, मृतो जीवयते परान् । मूच्छित पारा व्याधियों को दूर करता है। मृत पारा दूसरों रोगापकारी मग्नानां, पारदानाच्च पारदः ॥ को जिलाता है। यह रोग का अपकारी-शत्रु है और जो रोग में डूबे हुए हैं, उन्हें रोग से पार लगाने वाला है, इसलिए यह 'पारद' कहलाता है। उद्भवणम्-मरणदशाप्रापणम् । उद्भवण का अर्थ है-मरण अवस्या को प्राप्त कराना। भगवत्यामपि पृथ्वीकायिकजीवानां वेदना भगवती में भी पृथ्वीकायिक जीवों की वेदना दृष्टांत से स्पष्ट निदर्शिताऽस्ति-- की गई है___ गौतमः-भगवन् ! पृथ्वीकायिकजीवा आक्रान्ताः गौतम-भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों को आक्रान्त करने पर सन्तः कीदृशीं वेदनां प्रत्यनुभवन्ति ? उन्हें किस प्रकार की वेदना का अनुभव होता है ? भगवान् --गौतम ! यथा कश्चिज्जराजर्जरितपुरुषः भगवान गौतम ! कोई हृष्ट-पुष्ट शरीर वाला तरुण पुरुष केनचिद् हृष्टपुष्टवपुषा तरुणपुरुषेण पाणियुगलेन मूनि किसी जराजर्जरित पुरुष के सिर को दोनों हाथों से आहत करता है अभिहतः सन् कीदृशीं वेदनां प्रत्यनुभवति ? तब वह वृद्ध पुरुष कैसी वेदना का अनुभव करता है ? गौतमः--भगवन् ! अनिष्टाम् । गौतम-भगवन् ! वह वृद्ध पुरुष अनिष्ट वेदना का अनुभव करता है। भगवान् गौतम ! पृथ्वीकायिकजीवा आक्रान्ताः भगवान् गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव आक्रांत होने पर उस सन्तः ततोऽपि अनिष्टतरां वेदनां प्रत्यनुभवन्ति । वृद्ध पुरुष से भी अधिक अनिष्टतर वेदना का अनुभव करते हैं । १. भामिनीविलास, १८२ । जुवाणे अप्पातंके थिरग्गहत्थे दढपाणि-पाय-पास-पिट्ठेतरो२. अंगसुत्ताणि २. भगवई. १९।३५ : पुढविकाइए णं भंते ! रुपरिणते तलजमलजुयल-परिघनिभबाहू चम्मेट्ठग-वृहणअक्कते समाणे केरिसियं वेदणं पच्चणुब्भवमाणे विहरह? मुट्ठिय-समाहत-निचितगत्तकाए उरस्सबलसमण्णागए गोयमा ! से जहानामए–केइ परिसे तरुणे बलवं जुगवं लंघण-पवण-जइण-वायाम-समत्थे छए दक्खे पत्तठे कुसले Jain Education international Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगभाष्यम् ३१. एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिष्णाता भवति । सं०-अत्र शस्त्रं समारभमाणस्य इत्येते आरम्भा अपरिज्ञाता भवन्ति । जो पृथ्वीकायिक जीव पर शस्त्र का समारंभ करता है, उसके ये आरंभ (तत्सम्बन्धी तथा तदाश्रित जीव-हिंसा की प्रवृत्तियां) अप्रत्याख्यात होते हैं। ३२. एत्थ सत्यं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिष्णाता भवति । सं०-अत्र शस्त्रं असमारभमाणस्य इत्येते आरंभाः परिज्ञाता भवन्ति । जो पृथ्वीकायिक जीव पर शस्त्र का समारंभ नहीं करता उसके ये आरंभ प्रत्याख्यात होते हैं। भाष्यम् ३१.३२-पृथ्वीकायिकजीवानां जीवत्वं . जो व्यक्ति पृथ्वीकायिक जीवों के जीवत्व और वेदना को जाने वेदनाञ्च अविदित्वा यस्तेषां समारंभे प्रवर्तते, तस्य बिना उनके समारम्भ में प्रवृत्त होता है, उसके पृथ्वीकायिक सम्बन्धी पृथ्वीकायिकविषयका एते सर्वेऽप्यारंभा अप्रत्याख्याता ये सभी आरम्भ अप्रत्याख्यात होते हैं । भवन्ति। पृथ्वीकाधिकजीवानां जीवत्वं वेदनाञ्च विदित्वा जो पृथ्वीकायिक जीवों के जीवत्व और वेदना को जानकर चस्तान न समारभते, तस्यैते सर्वेऽप्यारम्भाः प्रत्याख्याता उनका समारम्भ नहीं करता, उसके ये सभी आरम्भ प्रत्याख्यात होते भवन्ति । ___भगवतो महावीरस्य शासने दीक्षितो मुनिः पृथ्वी- भगवान् महावीर के शासन में दीक्षित मुनि पृथ्वीकायिक जीवों कायिकजीवानां हिंसातो विरमति, तस्य कारणं तेषां की हिंसा से विरत होता है, क्योंकि उसमें उन जीवों की सजीवता और जीवानां सजीवताया वेदनायाश्च स्पष्टावबोध एव उनको होने वाली बेदना का स्पष्ट अवबोध है। मन्तव्यः । ३३. तं परिण्णाय मेहावी नेव सयं पुढवि-सत्थं समारंभेज्जा, नेवणेहिं पुढवि-सत्थं समारंभावेज्जा, नेवण्णे पुढवि-सत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा । सं०-तं परिज्ञाय मेधावी नैव स्वयं पृथ्वीशस्त्रं समारभेत, नैव अन्यः पृथ्वीशस्त्र समारम्भयेत्, नैव अन्यान् पृथ्वीशस्त्रं समारभमाणान् समनुजानीत। यह जानकर मेधावी मनुष्य स्वयं पृथ्वी-शस्त्र का समारंभ न करे, दूसरों से उसका समारम्भ न करवाए और उसका समारंभ करने वाले दूसरों का अनुमोदन न करे। भाष्यम् ३३ --प्रवृत्तेः अनेके विकल्पा भवन्ति । तत्र प्रवृत्ति के अनेक विकल्प होते हैं। जैन परम्परा में तीन विकल्प जैनानां त्रयो विकल्पाः सम्मताः सन्ति—करणं कारापणं सम्मत हैं-करना, करवाना और अनुमोदन करना । इसलिए प्रस्तुत अनुमोदनं च । तेनात्र कृतकारितानुमतिभिः पृथ्वीकाय- प्रसंग में करना, करवाना तथा अनुमोदन करना-इन तीनों प्रकार से वधात विरमणं कार्यमिति निर्देशः । पृथ्वीकायिक जीवों के वध से विरत रहने का निर्देश है। ३४. जस्सेते पुढवि-कम्म-समारंभा परिपणाता भवंति, से ह मुणी परिण्णात-कम्मे ।-त्ति बेमि। सं०-यस्यैते पृथ्वीकर्मसमारम्भाः परिज्ञाता भवन्ति, स खलु मुनिः परिज्ञातकर्मा । -इति ब्रवीमि । जिसके पृथ्वी सम्बन्धी कर्म-समारम्भ परिजात होते हैं, वही मुनि परिजातकर्मा होता है। ऐसा मैं कहता हूं। मेहावी निउणे निउणसिप्पोवगए एगं पुरिसं जुण्णं जराजज्जरियदेहं आउरं झूसियं पिवासियं दुब्बलं किलंतं जमलपाणिणा मुद्धाणंसि अभिहणेज्जा, से णं गोयमा ! पुरिसे तेणं पुरिसेणं जमलपाणिणा मुद्धाणंसि अभिहए समाणे केरिसियं वेदणं पच्चणुन्भवमाणे विहरति ? अणिठें समणाउसो! तस्स गं गोयमा ! पुरिसस्स बेदणाहितो पुढविकाइए अक्कंते समाणे एत्तो अणिद्वतरियं चेव अकंततरिय अप्पियतरियं असुहतरियं अमणुण्णतरियं अमणामतरिय चेव वेदणं पच्चणुब्भवमाणे विहरह। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ अ० १. शस्त्रपरिज्ञा, उ० २,३. सूत्र ३१-३६ भाष्यम् ३४-'पढमं नाणं तओ क्या".--इतिसिद्धान्त- 'पहले ज्ञान फिर दया'-इस सिद्धांत का अनुसरण पर सबसे मनुसत्य पूर्वं पृथ्वीकर्मसमारम्भः ज्ञपरिज्ञया ज्ञातव्यः, पहले ज्ञ-परिज्ञा से पृथ्वीकर्मसमारंभ को जानना चाहिए, फिर ततश्च प्रत्याख्यानपरिज्ञया प्रत्याख्यातव्यः । यस्य पृथ्वी- प्रत्याख्यानपरिज्ञा से पृथ्वीकर्मसभारंभ का प्रत्याख्यान करना चाहिए। कर्मसमारम्भः परिज्ञात: प्रत्याख्यातश्च भवति स मुनिः जिसके पृथ्वीकर्मसमारम्भ परिज्ञात और प्रत्याख्यात होता है वही परिज्ञातकर्मा उच्यते।' मुनि परिज्ञातकर्मा (कर्मत्यागी) कहलाता है। तइओ उद्देसो : तीसरा उद्देशक ३५. से बेमि-से जहावि अणगारे उज्जुकडे, णियागपडिवरणे, अमायं कुव्वमाणे वियाहिए। सं०-तद् ब्रवीमि-स यथापि अनगारः ऋजुकृतः, नियागप्रतिपन्नः, अमायां कुर्वाणः व्याहृतः । मैं कहता हूं-जिस प्रकार पृथ्वीकायिक जीवों को हिंसा का परिहार करने वाला अनगार होता है, वैसे ही अप्कायिक जीवों की हिंसा का परिहार करने वाला भी अनगार होता है। जो संयम करता है, जो मुक्ति के मार्ग पर चलता है, जो माया नहीं करता (शक्ति का संगोपन नहीं करता) वह अनगार होता है। भाष्यम् ३५-प्रस्तुताध्ययने गहत्यागिन: अहिंसायाः प्रस्तुत अध्ययन में गृहत्यागी (अनगार) की अहिंसा का सूक्ष्म सूक्ष्मविवेचनमस्ति, तेनावानगारस्य स्वरूपदर्शनं सहज- विवेचन हुआ है, इसलिए यहां अनगार का स्वरूप-दर्शन (लक्षण) सहज लब्धं जातम् । कश्चानगारो भवति ? सूत्रकारो वक्त- उपलब्ध हो जाता है। अनगार कौन होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में अस्मिन विषये अथाहं ब्रवीमि, यथा पृथ्वीकायिक जीव- सूत्रकार कहते हैं-जिस प्रकार वह पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा का हिंसां परिहरति तथा य अप्कायिकजीवहिंसामपि परिहार करता है, वैसे ही जो अप्कायिक जीवों की हिंसा का भी परिहरन विहरति सोऽनगारः। एतद् 'अपि' पदेन परिहार कर विहरण करता है, वह अनगार होता है। 'अपि' पद से सूचितमस्ति । इसकी सूचना मिलती है। ऋजः-संयमः। यश्च संयमं करोति, नियागः- ऋजु का अर्थ है-संयम । नियाग का अर्थ है-मोक्षमार्ग। मोक्षमार्गः तं च प्रतिपद्यते, मायाशल्यं च न करोति जो संयम की साधना करता है, मोक्षमार्ग को स्वोकार करता है और सोऽनगारो व्याहृतः । अस्य हार्दमिदं यस्य सर्वभूतसंयमे मायाशल्य नहीं करता, उसे अनगार कहा गया है। इसका हार्द यह मोक्षे च आस्था विद्यते, यश्च स्वशक्तेः संगोपनं न है-जिसका सब प्राणियों के प्रति संयम और मोक्ष में आस्था होती है करोति, स एव सूक्ष्मजीवानामहिंसामाचरितुं और जो अपनी शक्ति का गोपन नहीं करता, वही सूक्ष्म जीवों की संकल्पते।' अहिंसा के आचरण का संकल्प करता है। ३६. जाए सद्धाए णिक्खंतो, तमेव अणुपालिया। विजहित्तु विसोत्तियं । सं०-यया श्रद्धया निष्क्रान्तः तामेव अनुपालयेद् । विहाय विस्रोतसिकाम् । वह जिस श्रद्धा से अभिनिष्क्रमण करे, उसी श्रद्धा को बनाए रखे। चित्त की चंचलता के स्रोत में न बहे । १. दसवे आलियं, ४।१०। २. साध्य की प्राप्ति के तीन सूत्र हैं-१. आचरण की ऋजुता, २. साध्य-निष्ठा, ३. साध्य प्राप्ति के लिए उचित प्रयत्न । सूत्रकारों ने इन्हीं तीन सूत्रों से अनगार की कसौटी को है। ऋजुता धर्म का मूल आधार है। वक्र मनुष्य धार्मिक नहीं हो सकता। धर्म शुद्ध आस्मा में रहता है । वह शुद्ध है जो ऋजु है। बता उसे करनी होती है, जो सत्य को उलटना चाहता है। जो सत्य को यथार्थ रूप में प्रकट करना चाहता है, वह शरीर, भाव और भाषा से ऋजु होगा। उसकी करनी और कथनी में संवादिता होगी। इसी आधार पर भगवान् ने सत्य के चार प्रकार प्रतिपादित किए हैं१. शरीर को ऋजुता, २. भाव को ऋजुता, ३. भाषा की ऋजुता, ४. प्रवृत्ति में संवादिता । (स्थानांग ४।१०२)। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ आचारांगभाष्यम् - भाष्यम् ३६-अप्कायिकजीवानां हिंसापरित्यागो अप्कायिक जीवों की हिंसा का परित्याग दुष्कर है। इस वस्तुदुष्करोऽस्ति । इदं वस्तुसत्यं परिलक्ष्यीकृत्य सूत्रकार सत्य को परिलक्षित कर सूत्रकार कहते हैं-जिस श्रद्धा से अभिनिष्क्रमण उपदिशति यया श्रद्धया निष्क्रान्तः तामेवानुपालयेत् । करे, उसी श्रद्धा को बनाए रखे। ___अस्य तात्पर्यमिदं-प्रव्रज्यासमये मुनिः वर्धमान- इसका तात्पर्य यह है--प्रव्रज्या के समय मुनि के परिणाम परिणामो भवति । स दीर्घकालपर्यन्तमपि तादृशीमेव वर्धमान होते हैं । वह लम्बे समय तक उसी परिणामधारा को सुरक्षित परिणामधारां सुरक्षेत्, न तु हीयमानपरिणामो भवेत् । रखे, परिणामों में न्यूनता न लाए। यदि परिणामों में उत्कृष्ट वृद्धि हो यदि उत्कृष्टा परिणामवृद्धिः स्यात् तद् वरं, किन्तु तो और अच्छा है, किन्तु परिणामों में हानि तो उपयुक्त है ही नहीं। परिणामहानिस्तु नैव युक्तास्ति । यदि लाभो नास्ति, यदि लाभ न भी हो तो कोई बात नहीं, किन्तु मूल की हानि तो उचित तावत् मूलस्य हानिस्तु नोचिता। नहीं होती। विस्रोतसिका-चेतसश्चंचलता शंका च। विस्रोतसिका' का अर्थ है- चित्त की चंचलता और शंका । अहिंसाया मार्गेऽनेकाः शङ्काः अनेके चातरौद्रध्यान- अहिंसा के मार्ग में अनेक शंकाएं और अनेक आतं-रौद्र ध्यान के प्रसंग प्रसंगा आयान्ति । ते च श्रद्धाहाने: प्रसंगाः। ते आते रहते हैं । वे श्रद्धा की हानि के प्रसंग हैं । वे छोड़ने योग्य हैं । यही विहातव्या इति मार्गदर्शनम् । मार्गदर्शन दिया गया है। ३७. पणया वीरा महावीहिं। सं० -प्रणता वीरा महावीथिम् । वीर पुरुष महापथ के प्रति प्रणत (समर्पित) होते हैं। भाष्यम् ३७-अहिंसा महती वीथिविद्यते। तां अहिंसा एक महान मार्ग है। हर कोई उस महान् मार्ग के प्रति महावीथि प्रति ये केऽपि प्रणता न भवन्ति, किन्तु ये समर्पित नहीं होता, किन्तु जो पराक्रमशाली वीर हैं, वे ही उस महान् पराक्रमशालिनो वीरा: सन्ति त एव तं महापथं प्रति पथ के प्रति प्रणत-समर्पित होते हैं । प्रणता: --समर्पिता भवन्ति । ___अस्य तात्पर्य मिदं-अहिंसा न तु कातराणां इसका तात्पर्य यह है-अहिंसा कायरों का मार्ग नहीं है, किन्तु मार्गः, किन्तु पन्था अयं पराक्रमशालिनाम् । यह पराक्रमशालियों का मार्ग है। ३८. लोगं च आणाए अभिसमेच्चा अकुतोभयं । सं०-लोकं च आज्ञया अभिसमेत्य अकुतोभयम् । मुनि जलकायिक लोक को आज्ञा से जानकर उसे अकुतोभय बना दे। भाष्यम् ३८--येषामकायिकजीवानां हिंसापरि- जिन अप्कायिक जीवों की हिंसा के परित्याग के लिए उपदेश त्यागाय प्रवचनमस्ति, ते न सन्ति मनुष्याणां प्रत्यक्षं, है, वे जीव मनुष्यों के प्रत्यक्ष नहीं हैं। अतः उन जीवों के जीवत्व की १. आचारांग चूणि, पृष्ठ २५,२६ : सवतीति सोत्तिया, समर्पित हो जाता है-पृष्ठरज्जु के माध्यम से प्राणधारा विसोत्तिया दवे णदी निक्कादिसु वा अणुलोमवाहिणी को मस्तिष्क की ओर प्रवाहित कर देता है। उसके हिंसा सोत्तिया, इतरी विसोतिया, भावतो अणुसोत्तं, नाणदसण के संस्कार समाप्त हो जाते हैं। चरित्ततवविणयसमाहाणं अणुसोत्तं, तग्विवरीयं कोहादि, अह जो आचरण देश-काल से सीमित होता है, वह पथ है। अट्टरोद्दज्ञाणिया भावविसोत्तिया, अहवा संका विसोत्तिया, समता देशकाल की सीमा से अतीत आचरण है । वह प्रत्येक कि आउक्काओ जीवो ण जीवोत्ति ? देश और प्रत्येक काल में आचरणीय है। इसलिए वह २. अहिंसा मोक्ष का पथ है। यह सर्वत्र, सर्वदा और सबके महापथ है। लिए है. इसलिए यह महापय है। जो इसके प्रति समर्पित समता कोई सम्प्रदाय नहीं है। वह स्वयं धर्म है। हुए हैं और होंगे, उन सबको मोक्ष प्राप्त होगा। शान्ति की आराधना करने वाले जितने पुरुष हुए हैं, वे महापथ का अर्थ कुण्डलिनी-प्राणधारा भी है। सब इस पथ पर चले हैं, चलते हैं और चलेंगे। फिर भी पराक्रमी साधक ऊर्ध्वगमन के लिए इस प्राणधारा के प्रति यह संकीर्ण नहीं होता। इसलिए यह महापय है। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१. शस्त्रपरिज्ञा, उ० ३. सूत्र ३७-३६ अतः तेषां जीवत्वप्रतिष्ठापनाय परोक्षबुद्धीनां सिद्धि के लिए तथा परोक्षबुद्धि वाले मनुष्यों को उनका सम्यग अवबोध सम्यगवबोधाय सूत्रकारो ब्रूते-सन्ति अप्कायिकजीवाः। हो, इसलिए सूत्रकार कहते हैं-अप्कायिक जीवों का अस्तित्व है। प्रत्यक्षज्ञानिनस्तान साक्षादवबुध्यन्ते। यदि भवन्तस्तान् प्रत्यक्षज्ञानी उनको साक्षात जानते हैं। यदि आप उन्हें नहीं जानते हैं नावबुध्यन्ते, तदा प्रत्यक्षज्ञानिनामाज्ञया ते अवबोद्धव्याः, तो उन प्रत्यक्षज्ञानियों की आज्ञा (वचन) से उनको जानें और जानने के अवबोधानन्तरञ्च तेषां जीवानां न कुतोऽपि पश्चात उन जीवों को किसी भी प्रकार से भय उत्पन्न न करें। भयमापादनीयम् । ३६. से बेमि-णेव सयं लोग अब्भाइक्खेज्जा, व अत्ताणं अब्भाइक्खेज्जा । जे लोयं अब्भाइक्खइ, से अत्ताणं अब्भा इक्खइ । जे अत्ताणं अब्भाइक्खइ, से लोयं अब्भाइक्खइ । सं0-तद् ब्रवीमि-नैव स्वयं लोक अभ्याख्यायात् । नैव आत्मानं अभ्याख्यायात् । यः लोकमभ्याख्याति स आत्मानमभ्याख्याति । यः आत्मानमभ्याख्याति स लोकमभ्याख्याति । मैं कहता हूं-वह जलकायिक लोक के अस्तित्व को अस्वीकार न करे और न अपनी आत्मा के अस्तित्व को अस्वीकार करे। जो जलकायिक लोक के अस्तित्व को अस्वीकार करता है वह अपनी आत्मा के अस्तित्व को अस्वीकार करता है। जो अपनी आत्मा के अस्तित्व को अस्वीकार करता है वह जलकायिक लोक के अस्तित्व को अस्वीकार करता है। भाष्यम् ३९-अप्कायिकजीवाः सन्ति सूक्ष्माः, अप्कायिक जीव सूक्ष्म हैं, इसलिए उनकी प्रतीति के लिए सूत्रअतस्तत्प्रत्ययार्थ सूत्रकार आत्मतुलानिदर्शनपूर्वकं कार आत्मतुला का निदर्शन देकर कहते हैं -मनुष्य न अप्कायिक जीवप्रवक्ति-नैव अप्कायिकजीवलोकस्य' अभ्याख्यानं लोक को अस्वीकार करे और न अपने आपको अस्वीकार करे । क्यों न कुर्यात्, न चात्मनोऽभ्याख्यानं कुर्यात् । किमर्थं न कुर्याद, करे, इस आशंका का समाधान यह है-अप्कायिक लोक को न इत्याशंकायाः समाधानमिदं-अप्कायिकलोकस्य स्वीकारना, अपने आपको न स्वीकारना है। उसका कारण है कि यह अभ्याख्यानं आत्मनोऽभ्याख्यानमस्ति । तत्र कारणमिदं- आत्मा अप्कायिक जीवलोक में अनन्त बार उत्पन्न हो चुकी है। अयमात्मा अप्कायिकजीवलोकेऽनन्तश उत्पन्नपूर्वोऽस्ति। अप्कायिक जीवों के अस्तित्व का अपलाप अपने अस्तित्व का अपलाप तस्याऽपलाप आत्मनोऽपलापः स्वत एव सञ्जातः। है-यह स्वतः प्राप्त हो जाता है। शिष्येण पृष्टं -भगवन् ! अप्कायिकजीवा शिष्य ने पूछा-भगवन् ! अप्कायिक जीव अत्यन्त दुर्बोध हैं, अत्यन्तं दुर्गाताः । ते न शृण्वन्ति, न पश्यन्ति, न वे न सुनते हैं, न देखते हैं, न सूंघते हैं, न रस का आस्वाद करते हैं जिघ्रन्ति, न रसं वेदयन्ति, न च ते सुखदुःखमनुभवन्तो और न वे सुख-दुःख का अनुभव करते हुए प्रतीत होते हैं। उनमें न दृश्यन्ते, तेषां न प्राणस्पन्दनं, न चोच्छ्वासनिःश्वासौ प्राण का स्पन्दन दृष्टिगोचर होता है और न ही उच्छ्वास-निःश्वास की दृश्येते, कथं पुनस्ते जीवाः ? क्रिया दिखाई देती है। फिर उनमें जीवत्व कैसे हो सकता है ? एतत्समाधानार्थ निर्यक्तिकारेण हेतुरपि इसके समाधान के लिए नियुक्तिकार ने हेतु का भी प्रयोग प्रयोजितः-. किया हैजह हस्थिस्स सरीरं कललावत्यरस अहुणोववन्नस्स । होइ उदगंडगस्स य एसुवमा सव्वजीवाणं॥ यथाऽधुनोत्पन्नस्य कललावस्थस्य हस्तिन उदक- जैसे तत्काल उत्पन्न फलल अवस्था में स्थित हाथी का शरीर प्रधानाण्डकस्य च शरीरं द्रवं सचेतनं दृष्टम् । एव- तथा जल प्रधान अंडे का शरीर द्रव होने पर भी सचेतन देखा जाता मप्कायिकजीवा अपि सचेतनाः सन्ति । प्रयोगश्चायम् -- है वैसे ही अप्कायिक जीव भी सचेतन होते हैं। हेतु का प्रयोग इस प्रकार हैप्रतिज्ञा-सचेतना आपः । प्रतिज्ञा-जल सचेतन है। १. लोग-'लोक्यते इति लोकः' इति व्युत्पत्तिमनुभिरय २. आचारांग नियुक्ति, गाथा ११०। लोकशब्दस्य नानाप्रकरणेषु प्रयोगो दृश्यते। अत एव ३. कलल-गर्भ का प्रारम्भिक रूप जब वह केवल कुछ कोषों तस्यार्थः प्रकरणानुसारी कार्यः। अप्कायप्रकरणे अप्कायिक का गोला मात्र रहता है। जीवलोकः, तेजस्कायप्रकरणे तेजस्कायजीवलोक इत्यादि । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ आचारांगभाष्यम् हेतु:- शस्त्रानुपहतत्वे सति द्रवत्वात् । हेतु-क्योंकि वह द्रव है और शस्त्र से उपहत नहीं है। व्याप्ति:-यद् यच्छस्त्रानुपहतं द्रवं, तत्सचेतनमेव । व्याप्ति--जो-जो द्रव शस्त्र से अनुपहत होता है, वह सचेतन उदाहरणं - १. हस्तिशरीरोपादानभूतकललवद् । होता है। २. असंजातावयवस्य अनभिव्यक्तचञ्च्वादिप्रविभागस्य उदाहरण-(१) हाथी के शरीर के उपादानभूत कलल की अण्डकस्य मध्यस्थितकललवच्च । तरह । (२) अनुत्पन्न अवयव वाले और अव्यक्त चोंच आदि विभाग वाले अंडे के मध्यस्थित कलल की तरह। वैज्ञानिकदृष्ट्यापि विमर्शनीयोऽयं प्रश्नः। प्राणवायं वैज्ञानिक दृष्टि से भी यह प्रश्न विमर्शनीय है । वैज्ञानिक लोग (आक्सीजन) विना जलस्प नोत्पत्तिरिष्यते वैज्ञानिकैः। प्राणवायु (आक्सीजन) के बिना जल की उत्पत्ति नहीं मानते । यह इयं प्राणवायोरनिवार्यता कि जलस्य जीवत्वं न प्राणवायू की अनिवार्यता क्या जल के जीवत्व का समर्थन नहीं करती ? समर्थयति ? श्वासोच्छवासादारभ्य लेश्यापर्यन्तं पृथ्वीकायिकवत श्वासोच्छ्वास से लेश्या तक के विषयों का समवतार पृथ्वी कायिक स्वयमत्रावतारणीयम् । की भांति अप्कायिक में कर लेना चाहिए। ४०. लज्जमाणा पुढो पास । सं०-लज्जमानान् पृथक् पश्य । तु देख, प्रत्येक संयमी साधक हिंसा से विरत हो संयम का जीवन जी रहा है। ४१. अणगारा मोत्ति एगे पवयमाणा। सं०-अनगाराः स्म इत्येके प्रवदन्तः । और तू देख, कुछ साधु 'हम गृहत्यागी हैं'–यह निरूपित करते हुए भी गृहवासी जैसा आचरण करते हैं-जलकायिक जीवों की हिंसा करते हैं। ४२. जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहिं उदय-कम्म-समारंभेणं उदय-सत्थं समारंभमाणे अण्णे वणेगरूवे पाणे विहिंसति । सं०-यदिदं विरूपरूपः शस्त्रः उदककर्मसमारम्भेण, उदकशस्त्रं समारभमाणः अन्यानप्यनेकरूपान् प्राणान् विहिंसति । वह नाना प्रकार के शस्त्रों से जल-सम्बन्धी क्रिया में व्यापृत होकर जलकायिक जीवों की हिंसा करता है। वह केवल उन जलकायिक जीवों को ही हिंसा नहीं करता, किन्तु नाना प्रकार के अन्य जीवों की भी हिंसा करता है। ४३. तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेदिता। सं०-तत्र खलु भगवता परिज्ञा प्रवेदिता । इस विषय में भगवान महावीर ने परिज्ञा (विवेक) का निरूपण किया है। ४४. इमस्स चेव जीवियस्स, परिवंदण-माणण-पूयणाए, जाई-मरण-मोयणाए, दुक्खपडिघायहे । सं०-अस्मै चैव जीविताय, परिवन्दन-मानन-पूजनाय, जाति-मरण-मोचनाय, दुःखप्रतिघातहेतुम् । वर्तमान जीवन के लिए, प्रशंसा, सम्मान और पूजा के लिए, जन्म, मरण और मोचन के लिए, दुःख-प्रतिकार के लिए ४५. से सयमेव उदय-सत्थं समारंभति, अण्णेहि वा उदय-सत्थं समारंभावेति, अण्णे वा उदय-सत्थं समारंभंते समण जाणति। सं०–स स्वयमेव उदकशस्त्रं समारभते, अन्यैर्वा उदकशस्त्रं समारम्भयति, अन्यान् वा उदकशस्त्रं समारभमाणान् समनुजानीते । वह स्वयं जलकायिक जीवों की हिंसा करता है, दूसरों से करवाता है तथा करने वाले दूसरों का अनुमोदन करता है। १. द्रष्टव्यम्-पृष्ठ ३७-४१ । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ अ० १. शस्त्रपरिज्ञा, उ० ३. सूत्र ४०-५३ ४६. तं से अहियाए, तं से अबोहीए। सं०-तत् तस्य अहिताय, तत् तस्य अबोध्यै । वह हिंसा उसके अहित के लिए होती है। वह हिंसा उसकी अबोधि के लिए होती है। ४७. से तं संबुज्झमाणे, आयाणीयं समुट्ठाए। सं०–स तत् संबुध्यमानः, आदानीयं समुत्थाय । वह उस हिंसा के परिणाम को समीचीन दृष्टि से समझकर संयम की साधना में सावधान हो जाता है । ४८. सोच्चा खलु भगवओ अणगाराणं वा अंतिए इहमेगेसि णायं भवति-एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णरए। सं०- श्रुत्वा खलु भगवत: अनगाराणां वा अंतिके इहै केषां ज्ञातं भवति-एषा खलु ग्रन्थः, एषा खलु मोहः, एषा खलु मारः, एषा खलु नरकः । भगवान या गृहत्यागी मुनियों के समीप सुनकर कुछ मनुष्यों को यह ज्ञात हो जाता है-यह (जलकायिक जीवों की हिंसा) प्रन्थि है, यह मोह है, यह मार है, यह नरक है। ४९. इच्चत्थं गढिए लोए। सं०-इत्यत्र ग्रथितो लोकः । फिर भी सुख-सुविधा में मूच्छित मनुष्य जलकायिक जीव-निकाय की हिंसा करता है। , ५०. जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहि उदय-कम्म-समारंभेणं उदयसत्थं समारंभमाणे अण्णे वणेगरूवे पाणे विहिसति । सं०-यदिदं विरूपरूपः शस्त्रः उदककर्मसमारम्भेण उदकशस्त्रं समारभमाणः अन्यानप्यनेकरूपान् प्राणान् विहिंसति । वह नाना प्रकार के शस्त्रों से जल-सम्बन्धी क्रिया में व्याप्त होकर जलकायिक जीवों की हिंसा करता है। वह केवल उन जलकायिक जीवों की ही हिंसा नहीं करता, किन्तु नाना प्रकार के अन्य जीवों की भी हिसा करता है। ५१. से बेमि-अप्पेगे अंधमन्भे, अप्पेगे अंधमच्छे । सं०-तद् ब्रवीमि ---अप्येकः अन्धमाभिन्द्याद्, अध्येकः अन्धमाच्छिन्द्यात् । मैं कहता हूं जलकायिक जीव जन्मना इन्द्रियविकल-अंध, बधिर, मूक, पंगु और अवयवहीन मनुष्य की भांति अव्यक्त चेतना वाला होता है। शस्त्र से छेदन-भेदन करने पर जैसे जन्मना इन्द्रिय-विकल मनुष्य को कष्टानुभूति होती है, वैसे ही जलकायिक जीव को होती है। ५२. अप्पेगे पायमन्भे, अप्पेगे पायमच्छे । . सं० --अप्येकः पादमाभिन्द्याद, अप्येकः पादमाच्छिन्द्यात् । . इन्द्रिय-सम्पन्न मनुष्य के पैर आदि (द्रष्टव्यं १।२८) का शस्त्र से छेदन-भेदन करने पर उसे अक्षम कष्टानुभूति होती है, वैसे ही जलकायिक जीव को होती है। ५३. अप्पेगे संपमारए, अप्पेगे उद्दवए। सं०-अप्येक: संप्रमारयेद्, अप्येकः उद्भवेत् । मनुष्य को मूच्छित करने या उसका प्राण-वियोजन करने पर उसे कष्टानुभूति होती है, वैसे ही जलकायिक जीव को होती है। भाष्यम् ४०-५३----एतानि सूत्राणि पूर्ववद् (१७-३०) द्रष्टव्यानि। पूर्ववत् देखें-सूत्र १७-३० । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगभाष्यम ५४. से बेमि-संति पाणा उदय-निस्सिया जीवा अणेगा। सं० -तद् ब्रवीमि–सन्ति प्राणा उदकनिश्रिताः जीवा अनेके । मैं कहता हूं-जल के आश्रय में अनेक प्राणधारी जीव हैं। ५५. इहं च खलु भो! अणगाराणं उदय-जीवा वियाहिया। सं०-इह च खलु भो ! अनगाराणां उदकजीवाः व्याहृताः । हे पुरुष ! इस अनगार-दर्शन (अर्हत्-दर्शन) में जल स्वयं जीवरूप में निरूपित है। भाष्यम ५४,५५-तस्मिन् समये न केनापि दार्शनिकन उस समय कोई भी दार्शनिक 'जल सजीव है' ऐसा स्वीकार जलं सजीव मिति स्वीकृतम् । 'जले जीवा भवन्ति' इति- नहीं करता था। 'जल में जीव होते हैं' यह मत प्रचलित था। इसे मतमासीत । एतत स्पष्टीकर्त प्रवचन मिदम् । जिनप्रवचने स्पष्ट करने के लिए यह सारा प्रवचन है। जिन-प्रवचन में जल स्वयं जलं स्वयं सचेतनं प्रतिपादितम् । जलाश्रिता अनेके जीवा सचेतन प्रतिपादित हुआ है। जल के आश्रित अनेक जीव होते हैं । वे भवन्ति । न ते अप्कायिका जीवाः, किन्तु ते जले अकायिक जीव नहीं हैं, किन्तु वे जल में उत्पन्न होने वाले त्रसकायिक समपन्नास्त्रसकायिकाः जीवाः सन्ति । आधुनिकैर्जले जीव हैं। आधुनिक वैज्ञानिकों ने जल में जीवों की गणना की है। जीवानां गणना कृता । तेऽपि सन्ति जलाश्रिता एव, न वे भी जलाश्रित जीव ही हैं, जलकायिक जीव नहीं हैं। तु जलकायिकाः।' ५६. सत्थं चेत्थ अणुवीइ पासा। सं0-शस्त्रं चात्र अनुवीचि पश्य । हे पुरुष ! इन जलकायिक जीवों के शस्त्र को विवेकपूर्वक देख । भाष्यम् ५६ --'अप्काथिकजीवानां शस्त्राणि- 'अप्कायिक जीवों के शस्त्र अर्थात निर्जीव करने के साधनों को निर्जीवकरणसाधनानि विवेकपूर्वकं त्वं पश्य' इति तू विवेक पूर्वक देख'--यह निर्देश शिष्यों की मति को प्रबुद्ध करने के शिष्यमतिप्रबोधाय निर्देशः कृतः। तदा शिष्येण पृष्टं- लिए किया गया है । तब शिष्य ने प्रश्न पूछा-'वे शस्त्र कौनसे हैं ?' कानि तानि शस्त्राणि ? इति जिज्ञासायामुत्तरितम्- इस जिज्ञासा के उत्तर में बताया गया है -- ५७. पुढो सत्थं पवेइयं । सं०-पृथक् शस्त्र प्रवेदितम् । जलकायिक जीवों के शस्त्र अनेक हैं। भाष्यम् ५७-अप्काथिकजीवानां प्राणघाताय अप्कायिक जीवों को निष्प्राण करने वाले अनेक शस्त्र बतलाए अनेकानि शस्त्राणि सन्ति प्रवेदितानि । निर्युक्तौ तेषां गये हैं । नियुक्ति में उनका नामोल्लेखपूर्वक निरूपण हैनामोल्लेखपूर्वकमस्ति निरूपणम्'उस्सिचण-गालण-धोवणे य उवगरणमत्तभंडे य । उत्सेचन, गालन, उपकरण-अमत्र-भण्ड का धावन, बादर बायरआउक्काए एयं तु समासओ सत्यं ।' अप्काय-यह संक्षेप में शस्त्रों का निरूपण है। १. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २७ : संति विज्जति पायसो उदए सव्वलोए पतीता पूतरगादि तसा विज्जति तदस्सिता, ण उदगं जीवा जहा सक्काणं, अण्णेसि णवि उदगं जीवा, णवि अस्सिता जीवा जे पूतरगादि, ते खित्तसंभवा, ण आउक्कायसंभवा। (ख) जल-निश्रित जीवों और जलकायिक जीवों के सम्बन्धसूचक चार विकल्प होते हैं १. सजीव जल और जल-निश्रित जीवों का अस्तित्व । २. सजीव जल, किन्तु जल-निश्रित जीवों का अभाव । ३. निर्जीव जल, किन्तु जल-निश्रित जीवों का अस्तित्व । ४. निर्जीव जल और जल-निश्रित जीवों का अभाव । जल तीन प्रकार का होता है-सजीव, निर्जीव और मिश्र । (आचारांग चूणि, पृष्ठ २७) २. आचारांग नियुक्ति, गाथा ११३ । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण अ० १. शस्त्रपरिज्ञा, उ० ३. सूत्र ५४-५६ १. उत्सेचनम् --कृपादे: कोशादिनोत्क्षेपणम् ।' १. उत्सेचन-कुए आदि से बाल्टी आदि के द्वारा पानी निकालना। २. गालनम् --धनमसणवस्त्रेण ।' २. गालन-सघन और स्निग्ध वस्त्र से जल छानना। ३. धावनम्-वस्त्रपात्रादीनां प्रक्षालनम् । ३. धावन-वस्त्र, पात्र आदि का प्रक्षालन ।। ४. स्वकायशस्त्रम् -- नद्या जलं तडागजलस्य। ४. स्वकायशस्त्र-नदी का पानी तालाब के पानी का शस्त्र । ५. परकायशस्त्रम् -- मृत्तिकास्नेहक्षाराग्निप्रभृतयः । ५. परकायशस्त्र--मिट्टी, तेल, क्षार और अग्नि आदि । ६. तदुभयशस्त्रम्-जलमिथिता मृत्तिका जलस्य । ६. तदुभयशस्त्र-जल मिश्रित मिट्टी जल का शस्त्र । चणिकारेणान्यानि शस्त्राण्यपि निर्दिष्टानि-वर्ण- चूर्णिकार ने अन्य शस्त्रों का भी निर्देश किया है-वर्ण, रस, रसगंधस्पर्शाः शस्त्रम् । यथा-वण्णओ उण्होदगं अग्गि- गंध और स्पर्श शस्त्र हैं। जैसे-अग्नि-पुद्गलों के अनुप्रविष्ट होने से पूग्गलाणगतं इसित्ति कविलं भवति, गंधतो धमगंधि य, गरम पानी वर्ण से थोड़ा कपिल (पीला-मिश्रित लाल) हो जाता है। जत्थ गंधो तत्थ रसोवि, विरसं वा रसएणं, फरिसओ गंध से वह धूमगन्ध वाला बन जाता है। जहां गंध होती है वहां रस उण्हं, किचि उण्हभूयपि न अचेयणं जहा अगव्वत्तो दंडो। भी होता है । रस से वह पानी विरस बन जाता है । स्पर्श से वह उष्ण होता है । जल थोड़ा गर्म होने पर भी अचेतन नहीं होता। जिसमें 'अनुवृत्तदंड' (उकाला) न आया हो, जो पूरा उबला हुआ न हो वह सजीव ही होता है। सभावेण महातवोतीरोदगं सचेयणं, जया सीतलीभूतं महातप' नामक प्रपात के तट का गरम पानी स्वभाव से हो तदा सभावपरिच्चाएण अचेयणं । सचेतन होता है। जब वह ठंडा होता है तब वह अपने स्वभाव को छोड़कर अचेतन बन जाता है। लवणमहरअंबउदगाणं अण्णोणं सत्थं । दुखिभगंध च लोना, मीठा और अम्ल पानी परस्पर एक दूसरे के शस्त्र होते पाएणं अचित्तं भवति । ___ हैं । दुर्गन्ध युक्त पानी प्रायः अचित्त होता है। भगवत्यां अस्मिन् प्रस्रवणे उष्णयोनिकजीवाना- भगवती में यह उल्लेख प्राप्त होता है कि इस प्रपात में उष्णमुत्पत्तेरुल्लेखोस्ति । किन्तु तस्य जलस्य शीतावस्थायां योनिक जीवों की उत्पत्ति होती है। किन्तु उस जल के शीतल हो अचित्तत्वस्य नास्ति उल्लेखः । जाने पर वह अचित्त हो जाता है, ऐसा उल्लेख नहीं है। ५८. अदुवा अदिण्णादाणं । सं०-अथवा अदत्तादानम् । अथवा वह अदत्तादान है। भाष्यम ५८-तस्मिन् समये परिव्राजका अदत्तजल- उस समय परिव्राजक अदत जल का उपभोग नहीं करते थे। स्योपभोगं नाकार्षः। ते जलाशयस्वामिनोऽनुमति वे जलाशय के स्वामी से अनुमति लेकर उस का उपभोग करते थे। वे गहीत्वा तस्योपभोग कर्तार आसन् । तेऽन्वभवन्, वयं अनुभव करते थे 'हम अदत्तादान के भागी नहीं हैं। इस विषय में जैन नादत्तादानभागिनः। अस्मिन् विषये जैनश्रमणास्तर्क श्रमणों ने यह तर्कणा की कि क्या अप्कायिक जीवों ने भी अपने प्राणों प्रायच्छन्-किमप्कायिकजीवैरपि स्वप्राणापहारानुमतिः के अपहरण की अनुमति दी है ? यदि नहीं तो सचित्त जल के उपभोग प्रदत्ता? यदि न प्रदत्ता, तदानीं सचित्तस्य जलस्योप- से होने वाला उनका प्राणापहरण क्या अदत्तादान नहीं है ? इस तर्क भोगेन तेषां प्राणापहार: कि नादत्तादानम् ? एतं तर्क को सूत्रकार स्वयं बतलाते हैं--सचित्त जल का उपभोग अदत्तादान है। सूत्रकारः साक्षात् प्रवक्ति-सचित्तस्य जलस्योपभोगः मुनि के लिए वह उचित नहीं है। अदत्तादानं विद्यते । मुनेः कृते तन्नोचितम् । ५६. कप्पइ णे, कप्पइ णे पाउ, अदुवा विभूसाए । सं०-कल्पते नः, कल्पते नः पातुं, अथवा विभूषायै । १.२. अनयोविधिरस्ति गवेषणाया विषयः । जोणिया जीवा य पोग्गला य उदगत्ताए वक्कमति विउपक३. आचारांग चूणि, पृष्ठ २७,२८ । मंति चयंति उववज्जति । ४. अंगसुत्ताणि २, भगवई २।११३ : तत्य णं बहवे उसिण- ५. अंगसुत्ताणि ३, ओवाइयं, सूत्र १११-११७ । . Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ आजीवक - हम अपने सिद्धांत के अनुसार पीने के लिए जल ले सकते हैं । बौद्ध- हम अपने सिद्धांत के अनुसार पीने और नहाने (विभूषा) भाष्यम् १९ - यद्यपि आजीवकादितीथिका अष्कायिकजीवानामस्तित्वं न स्वीकृतवन्तः तथापि तेषां जलारम्भ विषये विभिन्ना मर्यादा आसन् । प्रस्तुतसूत्रे तासामस्ति निरूपणम् । आजीवकानां शैवानाञ्चाभ्युपगमोऽयं वयं केवलं पातुमेव जलं गृह्णीमः नान्यप्रयोजनाय । ६०. पुढो सहि विउति । अत्र बौद्ध भिक्षु पीने के लिए और स्नान करने के लिए भी पानी बौद्धाः पातुमपि स्नातुमपि च तदाददुः । विभूषापदेन स्नानं हस्त-पाद-मुख वस्त्रादिप्रक्षालनं च लेते थे यहां 'विभूषा' का अर्थ है-स्नान करना, हाथ-मुंह और ग्रहीतव्यम् । वस्त्र आदि का प्रक्षालन करना । भाष्यम् ६० पूर्वोक्तास्तीथिका जलस्य जीवत्वं नाभ्युपगतवन्तः तेन तेषां सचित्तजलस्योपभोगे नादत्ता दानस्य सिद्धान्त: सम्मतः । न च ते सचित्तजलस्य हिसातो विरताः । इमां स्थिति लक्ष्यीकृत्य सूत्रकारः प्रवक्तिते तीथिका नानाप्रकारैः शस्त्रे जलकायिक जीवानां विकुट्टनं प्राणवियोजनं कुर्वन्ति । अथवेदं व्याख्यातव्यमेवं ते तीथिका पृथक् पृथक् स्वकीयशास्त्राणां सम्मति प्रदर्श्य जलकायिकजीवानां हिंसायां प्रवर्तन्ते । [सं०] पृथ शस्त्रे विट्टयन्ति । वे नाना प्रकार के शस्त्रों द्वारा जलकायिक जीवों की हिंसा करते हैं । दोनों के लिए जल ले सकते हैं। भाष्यम् ६१ - यद्यपि ते तीर्थिका जलस्य परिमितारम्भस्य स्वशास्त्रसम्मतां घोषणां कुर्वन्ति तथापि ते न जलकायिकजीवानां निकरणाय हिंसां तिरस्कर्तुं ततो विरता भवितं समर्थाः । अत्र 'निकरण' पदस्य तिरस्कार:, निर्गमनं निस्तरणं, हेतुः क्रियाया अभाव: इत्यादीनि अभिधेयानि सन्ति । " यद्यपि आजीवक आदि तीविक (दार्शनिक कायिक जीवों के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते थे, फिर भी उनकी जन को काम में लेने के विषय में विभिन्न मर्यादाएं थीं। प्रस्तुत ग्रुप में उनकी कुछेक मर्यादाओं का निरूपण है । आजीवक ओर शैवों का यह मत है हम केवल पीने के लिए जल लेते हैं, दूसरे प्रयोजन के लिए नहीं। ६१. एस्थवि तेसि णो णिकरणाए । सं० – अत्रापि तेषां नो निकरणाय । सिद्धांत का प्रामाण्य देकर जलकायिक जीवों की हिंसा करने वाले साधु हिंसा से सर्वथा विरत नहीं हो पाते । पूर्वोक्त दार्शनिकों ने जल के जीवत्व को स्वीकार नहीं किया, इसलिए उनके सचित जल के उपभोग में अदत्तादान का सिद्धांत सम्मत नहीं था । वे सचित्त जल की हिंसा से विरत नहीं थे । इस स्थिति को परिलक्षित कर मूत्रकार कहते हैं वे तीर्थिक नाना प्रकार के जाति जीवों का प्राण-नियोजन करते है अथवा इसकी व्याख्या इस प्रकार भी की जा सकती है वे तीर्थिक अपने भिन्नभिन्न शास्त्रों की सम्मति प्रदर्शित कर जलकाधिक जीवों की हिंसा में 1 प्रवृत्त होते हैं। आचारांगभाष्यम् यद्यपि वे तीर्थिक अपने शास्त्रों द्वारा सम्मत जल के परिमित आरम्भ - हिंसा की घोषणा करते हैं, फिर भी वे जलकायिक जीवों का निकरण - हिंसा का परिहार करने, उससे विरत होने में समर्थ नहीं होते । तिरस्कार, निर्वाचन, निस्तरण हेतु किया का अभाव आदि 'निकरण' शब्द के पर्यायवाची हैं । ६२. एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिण्णाया भवंति । सं० - अत्र शस्त्रं समारभमाणस्य इत्येते आरंभा अपरिज्ञाता भवन्ति । जो जलकायिक जीव पर शस्त्र का समारम्भ करता है, वह इन आरंभों तत्सम्बन्धी व तदाश्रित जीव-हिंसा की प्रवृत्तियों से बच नहीं पाता । १. (क) अंगसुताणि २, भगवई, ७।१५० - १५४, वृत्ति पत्र, ३१२ । (ख) तुलना, आयारो २।१५३ । , Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०] १. शस्त्रपरिता उ० ३.४. सूत्र ६०-६६ ६३. एस्थ सत्यं असमारंभमाणरस इच्चेते आरंभा परिण्णाया भवंति । सं० ० - अत्र शस्त्रं असमारभमाणस्य इत्येते आरंभा: परिज्ञाता भवन्ति । जो जलकायिक जीव पर शस्त्र का समारम्भ नहीं करता, वह इन आरंभों से मुक्त हो जाता है । ६४. तं परिण्णाय मेहावी व सयं उदय सत्यं समारंभेज्जा, शेवरनेहि उदय-सत्यं समारंभावेज्जा, उदय सत्यं समामतेवि अपने ण समणुजाज्जा सं० परिवार मेघावी नैव स्वयं उदकवस्त्रं समारभेत व अन्यैः उदशरथं समारम्भवेत् उदकशस्त्रं समारभमाणान् अन्यान् न समनुजानीत | यह जानकर मेधावी मनुष्य स्वयं जलशस्त्र का समारम्भ न करे, दूसरों से उसका समारम्भ न करवाए तथा उसका समारम्भ करने वाले दूसरों का अनुमोदन न करे । ६५. जस्सेते उदय-सर-समारंभा पण्णिाया भवंति से हु मुणी परिण्णात कम्मे । त्ति बेमि सं० - यस्यैते उदकशस्त्रसमारंभाः परिज्ञाताः भवन्ति, स खलु मुनिः परिज्ञातकर्मा । - इति ब्रवीमि । जिसके जलर सम्बन्धी कर्म समारम्भ परिवात होते हैं, वही मुनि परिवात-कर्मा ( कर्म त्यागी) होता है। ऐसा मैं कहता हूँ। पूर्ववत् देखें -सूत्र ३१-३४ । भाष्यम् ६२-६५ – एतानि सूत्राणि पूर्ववत् ( ३१-३४) इष्टव्यानि । चउत्थो उद्देसो : चौथा उद्देशक ६६. से बेमिव सयं लोग अग्भाइववेज्जा अभाइक्खइ । जे अत्ताणं अब्भाइक्खइ, से लोगं अब्भाइक्खइ । तद् ब्रवीमि नैव स्वयं लोकं अभ्याख्यायात्, नैव आत्मानं अभ्याख्यायात् । यः लोकं अभ्याख्याति, स आत्मानं अभ्याख्याति । यः आत्मानं अभ्याख्याति, स लोकं अभ्याख्याति । ५३ व अलाणं अम्भाइववेज्जा । जे लोगं अम्माइक्खड, से अतार्ण मैं कहता हूं वह स्वयं अग्निकायिक लोक के अस्तित्व को अस्वीकार न करे और न अपनी आत्मा के अस्तित्व को अस्वीकार करे । जो अग्निकायिक लोक के अस्तित्व को अस्वीकार करता है, वह अपनी आत्मा के अस्तित्व को अस्वीकार करता है । जो अपनी आत्मा के अस्तित्व को अस्वीकार करता है, वह अग्निकायिक लोक के अस्तित्व को अस्वीकार करता है । भाष्यम् ६६ - अत्र लोकशब्देनाग्नि कायलोको' ग्रहणीयः । यद्यप्यग्निकायिकजीवाः सूक्ष्मत्वान्नैव दृष्टा भवन्ति तथापि तत्प्रत्यवार्थ निर्बुक्तिकारण केचन हेतव उपन्यस्ताः जह देहपरिणामो रत्ति खज्जोयगस्स सा उबमा । जरियस्स य जह उम्हा, तओवमा तेउजीवाणं ॥ यथा खद्योतस्व देहपरिणामो रात्रौ प्रकाशरूपेण द्योतते एवमग्नावपि जीवप्रयोगविशेषाविर्भाविता प्रकाशशक्तिरनुमीयते । यथा ज्वरोष्मा जीवं नातिवर्तते तथा ऊष्मवत्त्वेनाग्निरपि जीव इत्यनुमीयते । १. आचारांग चूर्ण, पृष्ठ २९ : लोगो अग्गिलोगो । यहां लोक शब्द से अग्निकाय लोक का ग्रहण करना चाहिए । यद्यपि अग्निकायिक जीव सूक्ष्म होने के कारण दिखते नहीं है, फिर भी उनकी प्रतीति के लिए निर्मुक्तिकार ने कुछ हेतु प्रस्तुत किए हैं जैसे खद्योत (जुगनू) के शरीर की तेजस परिणति रात्रि में प्रकाशमय होकर प्रदीप्त होती है, उसी प्रकार अग्नि में भी जीव के प्रयोगविशेषसे आविर्भूत प्रकाश-शक्ति का अनुमान किया जाता है। जैसे ज्वर की ऊष्मा जीव में ही पायी जाती है, उसी प्रकार ऊष्मावान होने के कारण अग्नि भी जीव है, ऐसा अनुमान किया जाता है । २. आचारांग निर्मुक्ति, गाया ११९ । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगभाष्यम् वृत्तावपि'-सचेतनोऽग्निर्यथा योग्याहारेण वृद्धि- वृत्ति में भी कहा गया है कि अग्नि सचेतन है, क्योंकि उसमें दर्शनात्, तदभावे च तदभावदर्शनात् । उचित आहार-इंधन से वृद्धि और इंधन के अभाव में हानि देखी जाती है। ___ आधुनिका अपि मन्यन्ते-प्राणवायुमगृहीत्वा आधुनिक वैज्ञानिकों का भी यही मानना है कि प्राणवायु नाग्नेरुद्दीपनं जायते। (ऑक्सीजन) के बिना अग्नि प्रज्वलित नहीं होती। आतापक-उद्योतकनामकर्मणोरुदयेनासौ शेषजीव- नामकर्म की आतापक तथा उद्योतक प्रकृतियों के उदय मे शेष कायेभ्यो विशिष्टो दृश्यते । जीवकायों की अपेक्षा इसमें विशेषता दृष्टिगोचर होती है। शेषं पूर्ववद् (सूत्र ३९) द्रष्टव्यम्। शेष पूर्वसूत्र ३९ की भांति । ६७. जे दोहलोग-सत्थस्स खेयण्णे, से असत्थस्स खेयण्णे । जे असत्थस्स खेयण्णे, से दीहलोग-सत्थस्स खेयण्णे । सं०-यः दीर्घलोकशस्त्रस्य क्षेत्रज्ञः, सोऽशस्त्रस्य क्षेत्रज्ञः । यः अशस्त्रस्य क्षेत्रज्ञः, स दीर्घलोकशस्त्रस्य क्षेत्रज्ञः । जो दीर्घलोक के शस्त्र को जानता है, वह संयम को जानता है। जो संयम को जानता है, वह दीर्घलोक के शस्त्र को जानता है। भाध्यम ६७--दीर्घलोकः-वनस्पतिः । दीर्घशरीरत्वाद दीर्घलोक का अर्थ है--बनस्पति जगत । बनस्पति जगत् को दीर्घ लोक ा . द्रव्यपरिमाणेनानन्तत्वाद, दीर्घकायस्थितिकत्वाच्च 'दीर्घलोक' कहने के तीन कारण हैं - (१) शरीर की दीर्घता (२) द्रव्यवनस्पतिः 'दीर्घलोक' इतिपदेनाभिहितः। चूणौ वृत्तौ परिमाण को अनन्तता तथा (३) कायस्थिति की दीर्घता (उसी काय में चैषोऽर्थो लभ्यते, किन्तु दशवैकालिकसन्दर्भ दीर्घलोक बार-बार जन्म-मरण करना)। यही अर्थ चणि और वृत्ति में मिलता इति प्रथिव्यादिप्राणिजगत् । अग्निस्तस्य शस्त्र विद्यते। है, किन्तु दशकालिक सूत्र के संदर्भ में 'दीर्घलोक' का अर्थ है-पृथ्वी अस्मिन विषये यः क्षेत्रज्ञो-ज्ञानी विद्यते, स एव आदि प्राणी जगत् । अग्नि उसका शस्त्र है। इस विषय में जो क्षेत्रज्ञ अशस्त्रस्य-संयमस्य विषयेऽस्ति ज्ञानी । स एवाग्निकाय- अर्थात् ज्ञानी है, वही अशस्त्र--संयम के विषय में ज्ञानी है। इसका जीवहिंसातो विरमतीत्यस्य तात्पर्यम् । इदमेवमपि वक्तुं तात्पर्य यह है कि वही ज्ञानी व्यक्ति अग्निकाय की जीवहिंसा से विरत शक्यम् -योऽशस्त्रविषये ज्ञानी भवति, स एव दीर्घलोक- होता है। इसको इस प्रकार भी कहा जा सकता है जो अशस्त्र के शस्त्रविषये ज्ञानी भवति । विषय में ज्ञानी होता है वही दीर्घलोक के शस्त्र के विषय में ज्ञानी होता है। ६८. वीरेहिं एवं अभिभूय दिळं, संजतेहिं सया जतेहि सया अप्पमतेहिं । सं०-वीरः एतद अभिभूय दृष्टं, संयतैः सदा यतैः सदा अप्रमत्तः । उन मुनियों ने ज्ञान और दर्शन के आवरण का विलय कर इस अग्निकायिक जीवों के अस्तित्व को देखा है जो वीर हैं, जो संयमी हैं, जो सदा यत हैं और जो सदा अप्रमत्त हैं। भाष्यम् ६८–वीरैरभिभूय-शुक्लध्यानेन ज्ञान- वीरों-तीर्थकरों ने शुक्लध्यान के द्वारा ज्ञान और दर्शन के दर्शनयोरावरणमपाकृत्य अग्निकायिकजीवविषये प्रति- आवरण को दूर कर अग्निकायिक जीवों के विषय में किए जाने वाले पाद्यमानमेतत् साक्षात्कृतम् । अत्र किमभिभूय इति स्पष्ट- इस प्रतिपादन का साक्षात्कार किया है। सूत्र में यह स्पष्ट निर्देश नहीं १. आचारांग वृत्ति, पत्र ४५ । चत्तारि घाइकम्माणि अभिभूत, परीसहा उवसग्गे य २. दसवे आलियं, ६।३४; भूयाणमेसमाधाओ हव्ववाहो न संसओ। अभिभूय, अहवा जहा आइच्चो गहणखत्तताराणं प्रभं ३. प्रस्तुतसूत्रस्य रचना गतप्रत्यागतलक्षणा विद्यते । अभिभूय भाति तथा छउमत्थियनाणाणं अभिभूय सदेवमणु४. अभिभूय - सूत्रकृताङ्ग 'अभिभूय जाणी' इति पाठोऽपि यासुराए परिसाए मज्झयारे परितिथिए अभिभूय ....." प्रस्तुतार्थ समर्थयति (सूत्रकृतांग १।६।५)। (आचारांग चूणि, पृष्ठ २९,३०)। प्रस्तुतागमेऽपि 'अभिभूय अदक्खू' इति पाठो दृश्यते पातञ्जलयोगदर्शनानुसारेण व्युत्थानसंस्काराणामभिभवे सति (५।१११) । तत्रापि एषा एव भावना। निरोधसंस्काराणां प्रादुर्भावो जायते । (पातञ्जलयोगदर्शन, चूणिकृता 'अभिभूय' पदस्य अनेके अर्थाः कृता: विभूतिपाद, सूत्र ८)। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १. शस्त्रपरिज्ञा, उ० ४. सूत्र ६७-७० निर्देशो नास्ति, किन्तु दृष्टमितिपदेन ज्ञानदर्शनयोः है कि क्या 'अभिभूत' कर, किन्तु 'दृष्ट' शब्द से ज्ञान-दर्शन के आवरण आवरणमभिभूयेति स्वतः प्राप्तम् । को अभिभूत कर, यह स्वतः प्राप्त हो जाता है। वीरा:-आवरणानि अभिभवितुं पराक्रमशालिनः। वीर का अर्थ है--आवरणों को अभिभूत करने में पराक्रम कर वाले। संयता:-इन्द्रियमनसोविषयेभ्यः उपरताः। संयत का अर्थ है-इन्द्रिय और मन के विषयों से उपरत । सदा यता:-क्रोधादीनां निग्रहपरत्वेन संयम प्रति सदा यत का अर्थ है-क्रोध आदि के निग्रह में तत्पर होकर तन्मयतां प्राप्ताः। संयम के प्रति तन्मयता रखने वाले । सदा अप्रमत्ता:-चैतन्यं प्रति सततं जागरूकाः। सदा अप्रमत का अर्थ है-चैतन्य के प्रति सतत जागरूक । आवरणाभिभवस्यैतानि चत्वारि साधनानि विद्यन्ते आवरण-विलय के ये चार साधन हैं--पराक्रम, संयम, यम -पराक्रमः, संयमः, यमः अप्रमादश्च ।। और अप्रमाद । ये संयता यता अप्रमत्ताश्च भवन्ति, त एव वीराः। वे ही वीर होते हैं जो संयत, यत और अप्रमत्त होते हैं। ऐसे तादशैर्वीरैरेवावरणाभिभवः कर्तुं शक्यः । वीरों के द्वारा ही आवरण का अभिभव-विलय शक्य है। ६६. जे पमत्ते गुणट्रिए, से ह दंडे पच्चति । सं०-यः प्रमत्तः गुणार्थी स खलु दण्ड. प्रोच्यते । जो प्रमत्त है, गुणार्थी है, वह दण्ड कहलाता है। भाष्यम् ६९-सति प्रमादे आवरणाभिभवोऽशक्य प्रमाद होने पर आवरण का अभिभव अशक्य होता है, इतिसमर्थयितुं सूत्रकारः प्रवक्ति-यः प्रमत्तः गुणार्थी-- इसका समर्थन करते हुए सूत्रकार कहते हैं - जो प्रमत्त और गुणार्थी विषयार्थी वर्तते, स खलु 'दण्डः' प्रोच्यते । स खलु अर्थात् विषयार्थी होता है, वह 'दण्ड' कहलाता है। वह तेजस्कायिक तेजस्कायिकजीवान दण्डयन वस्तुत आत्मानं दण्डयति, जीवों को दण्डित करता हुआ वस्तुत: अपने आपको दण्डित करता है। तेन स 'दण्डः' इत्युक्तः। सूत्रकृताङ्गे' एततुल्यप्रकरणे इसलिए उसे 'दण्ड' कहा गया है। सूत्रकृताङ्ग में इसके तुल्य प्रकरण में 'आयदंड' एषः प्रयोगोऽपि लभ्यते। 'आत्मदंड' ऐसा प्रयोग भी मिलता है। एतेन फलितं भवति यत् प्रमत्तो विषयार्थी च इससे फलित होता है कि प्रमत्त और विषयार्थी मनुष्य हिंसा में हिंसायां प्रवर्तते। प्रमादो विषयाथिता च हिंसाया: प्रवृत्त होता है। हिंसा के दो कारण हैं- प्रमाद और विषयार्थिता। कारणद्वयम् । एताभ्यामेव मनोवाकायदण्डा भवन्ति। इन दोनों से ही मन, वचन और शरीर के दण्ड निष्पन्न होते हैं। ७०. तं परिणाय मेहावी इयाणि णो जमहं पुत्वमकासी पमाएणं । सं० ---तं परिज्ञाय मेधावी इदानीं नो यमहं पूर्वमकार्ष प्रमादेन । यह जानकर मेधावी पुरुष संकल्प करे--'वह अब नहीं करूंगा, जो मैंने प्रमादवश पहले किया था।' भाष्यम् ७०-प्रमादो हिंसायाः कारणमिति परिज्ञाय प्रमाद हिंसा का कारण है, यह जानकर मेधावी मुनि दृढ मेधावी मनिः सुदृढसंकल्पपूर्वकमात्मानमनुशास्ति-- संकल्प करते हुए अपने आप पर अनुशासन करता है—'अब मैं संयत 'इदानीमहं संयतो जातः, तेन असंयतावस्थायां प्रमादेन हो गया हूं, इसलिए असंयत अवस्था में प्रमाद से मैंने जो अग्निकायिक यमग्निकायिकजीवानां समारम्भमकार्ष तं इदानीम- जीवों का समारम्भ किया था उसे अब अप्रमाद की अवस्था में नहीं प्रमादावस्थायां न करिष्यामि ।' करूंगा।' मेधावी-यो ज्ञपरिज्ञया वस्तुतत्त्वं ज्ञात्वा मेधावी-- जो ज्ञपरिज्ञा से वस्तुतत्व को जानकर और प्रत्याप्रत्याख्यानपरिज्ञया प्रत्याख्याय च मर्यादायामवस्थितो ख्यानपरिज्ञा से परित्याग कर मर्यादा में अवस्थित होता है, वह मेधावी भवति, स मेधावी। कहलाता है। १. अंगसुत्ताणि १, सूयगडो १७२,८ । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगभाष्यम् ७१. लज्जमाणा पुढो पास । सं०-लज्जमानान् पृथक् पश्य । तू देख, प्रत्येक संयमी साधक हिंसा से विरत हो संयम का जीवन जी रहा है। ७२. अणगारा मोत्ति एगे पवयमाणा। सं०-अनगाराः स्म इत्येके प्रवदन्तः । और तू देख. कुछ साधु 'हम गृहत्यागी हैं' यह निरूपित करते हुए भी गृहवासी जैसा आचरण करते हैं—अग्निकायिक जीवों की हिंसा करते हैं। भाष्यम् ७१,७२-सूत्रद्वयमिदं पूर्ववद् (सू० १७-१८) पूर्ववत् देखें-१७-१८ सूत्र । ज्ञातव्यम् । ७३. जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहि अगणि-कम्म-समारंभेणं अगणि-सत्थं समारंभमाणे, अण्णे वणेगर वे पाणे विहिंसति । सं०--यदिदं विरूपरूपः शस्त्र: अग्निकर्मसमारम्भेण अग्निशस्त्रं समारभमाणः अन्यानप्यनेकरूपान् प्राणान् विहिंसति । वह नाना प्रकार के शस्त्रों से अग्नि सम्बन्धी क्रिया में व्याप्त होकर अग्निकायिक जीवों की हिंसा करता है। वह केवल उन अग्निकायिक जीवों को ही हिंसा नहीं करता, किन्तु नाना प्रकार के अन्य जीवों की भी हिंसा करता है। . भाष्यम् ७३ - नियुक्तिकारेणाग्निकायिकजीवानां नियुक्तिकार ने अग्निकायिक जीवों के शस्त्रभूत (शस्त्रतुल्य) शस्त्रभूतानां वस्तूनां निरूपणं कृतमस्ति वस्तुओं का निरूपण किया है१. मृत्तिका बालुका वा। १. मिट्टी या बालु। २. जलम् । २. जल । ३. आर्द्रवनस्पतिः । ३. गीली वनस्पति । ४. त्रसाः प्राणिनः। ४. त्रस प्राणी। ५. स्वकायशस्त्रम् -पत्राग्निस्तृणाग्नेः। पत्राग्नि ५. स्वकायशस्त्र-पत्तों की अग्नि तृण को अग्नि का शस्त्र __ संयोगात् तृणाग्निः अचित्तो भवति । होती है। पत्राग्नि के संयोग से तृणाग्नि अचित्त हो जाती है। ६. परकायशस्त्रम् -जलादि । आदिग्रहणात् 'कार्बन- ६. परकायशस्त्र-जल आदि। आदि शब्द से कार्बन-डाइडाई-आक्साइड' प्रभृतयः । आक्साइड आदि गृहीत हैं। ७. तदुभयशस्त्रम् - तुषकरीषादिमिश्रितोऽग्निः ७. तदुभयशस्त्र-भूसी और सूखे गोबर आदि से मिश्रित अग्नि अपराग्नेः । दूसरी अग्नि का शस्त्र होती है । ७४. तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया। सं०-तत्र खलु भगवता परिज्ञा प्रवेदिता । इस विषय में भगवान् ने परिज्ञा का निरूपण किया है । ७५. इमस्स चेव जीवियस्स, परिवंदण-माणण-पूयणाए, जाई-मरण-मोयणाए, दुक्खपडिघायहे। सं०-अस्मै चैव जीविताय, परिवन्दन-मानन-पूजनाय, जाति-मरण-मोचनाय, दुःखप्रतिघातहेतुम् । वर्तमान जीवन के लिए, प्रशंसा, सम्मान और पूजा के लिए, जन्म, मरण और मोचन के लिए, दुःख-प्रतिकार के लिए१. आचारांग नियुक्ति, गाथा १२३,१२४ : पुढवी आउक्काए उल्ला य वणस्सई तसा पाणा। बायरतेउक्काय एवं तु समासओ सत्थं ॥ किचि सकायसत्थं किचि परकाय तदुभयं किंची। एयं तु दव्वसत्थं भावे य असंजमो॥ Jain Education international Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १. शस्त्रपरिज्ञा, उ० ४. सूत्र ७१-८४ ७६. से सयमेव अगणि-सत्थं समारंभइ, अण्णेहिं वा अगणि-सत्थं समारंभावेइ, अण्णे वा अगणि-सत्थं समारंभमाणे समणुजाणइ। सं०-स स्वयमेव अग्निशस्त्रं समारभते, अन्यः वा अग्निशस्त्र समारम्भयति, अन्यान् वा अग्निशस्त्रं समारभमाणान् समनुजानीते । कोई साधक स्वयं अग्निकायिक जीवों की हिंसा करता है, दूसरों से करवाता है या करने वाले दूसरों का अनुमोदन करता है। ७७. तं से अहियाए, तं से अबोहोए। सं०--तत् तस्य अहिताय, तत् तस्य अबोध्य । वह हिंसा उसके अहित के लिए होती है। वह हिसा उसको अबोधि के लिए होती है। ७८. से तं संबुज्झमाणे, आयाणीयं समुट्टाए । सं०--स तत संबुध्यमानः, आदानीयं समुत्थाय । वह हिंसा के परिणाम को समीचीन दृष्टि से समझ कर संयम को साधना में सावधान हो जाता है। ७६. सोच्चा खलु भगवओ अणगाराणं वा अंतिए इहमेगेहिं णायं भवति-एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णरए। सं०-श्रुत्वा चलू भगवतः अनगाराणा वा अन्तिके इहैकेषां ज्ञातं भवति-एषा खलु ग्रंथः, एषा खलु मोहः, एषा खलु मारः, एषा खलु नरकः । भगवान् या गृहत्यागी मुनियों के समीप सुनकर कुछ मनुष्यों को यह ज्ञात हो जाता है-यह (अग्निकायिक जीवों की हिसा) प्रथि है, यह मोह है, यह मृत्यु है, यह नरक है। ८०. इच्चत्थं गढिए लोए। सं०-इत्यत्र ग्रथितो लोकः । फिर भी सुख-सुविधा में मूच्छित मनुष्य अग्निकायिक जीव-निकाय की हिंसा करता है। ८१. जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहि अगणि-कम्म-समारंभेणं अगणि-सत्थं समारंभमाणे अण्णे वणेगरूवे पाणे विसति। सं०-यदिदं विरूपरूपैः शस्त्रः अग्निकर्मसमारम्भेण अग्निशस्त्रं समारभमाणः अन्यानप्यनेकरूपान् प्राणान् विहिंसति । वह नाना प्रकार के शस्त्रों से अग्नि सम्बन्धी क्रिया में व्याप्त होकर अग्निकायिक जीवों की हिंसा करता है। वह केवल उन अग्निकायिक जीवों की ही हिंसा नहीं करता, किन्तु नाना प्रकार के अन्य जीवों की भी हिंसा करता है। ८२. से बेमि--अप्पेगे अंधमब्भे, अप्पेगे अंधमच्छे। सं०-तद् ब्रवीमि --अप्येक: अन्धमाभिन्द्याद्, अप्येकः अन्धमाच्छिन्द्यात् । मैं कहता हूं-अग्निकायिक जीव जन्मना इन्द्रियविकल-अंध, बधिर, मूक, पंगु और अवयवहीन मनुष्य की भांति अव्यक्त चेतना वाला होता है। शस्त्र से छेदन-भेवन करने पर जैसे जन्मना इन्द्रिय-विकल मनुष्य को कष्टानुभूति होती है, वैसे ही अग्निकायिक जीव को होती है। ८३. अप्पेगे पायमन्भे, अप्पेगे पायमच्छे । सं०-अप्येकः पादमाभिन्द्याद्, अप्येकः पादमाच्छिन्द्यात् । इन्द्रिय-सम्पन्न मनुष्य के पैर आदि (द्रष्टव्यं १।२९) का शस्त्र से छेदन-भेदन करने पर उसे अक्षम कष्टानुभूति होती है, वैसे ही अग्निकायिक जीव को होती है। ८४. अप्पेगे संपमारए, अप्पेगे उद्दवए । सं०-अप्येकः संप्रमारयेद्, अप्येकः उद्भवेत् । मनष्य को मच्छित करने या उसका प्राण-वियोजन करने पर उसे कष्टानुभूति होती है, वैसे ही अग्निकायिक जीव को होती है। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ आचारांगभाष्यम् भाष्यम् ७४-८४ --एतानि सूत्राणि पूर्ववत् (२०-३०) पूर्ववत् देखें-सूत्र २०-३० । ज्ञातव्यानि। ८५. से बेमि-संति पाणा पुढवि-णिस्सिया, तण-णिस्सिया, पत्त-णिस्सिया, कट्ट-णिस्सिया, गोमय-णिस्सिया, कयवर णिस्सिया। संति संपातिमा पाणा, आहच्च संपयंति य। अणि च खलु पुट्ठा, एगे संघायमावज्जति । जे तत्थ संघायमावज्जंति, ते तत्थ परियावज्जति । जे तत्थ परियावज्जंति, ते तत्थ उहायंति। सं०-तद् ब्रवीमि--सन्ति प्राणाः पृथिवीनिश्रिताः, तृणनिश्रिताः, पत्रनिश्रिताः, काष्ठनिश्रिताः, गोमयनिश्रिताः, कचवरनिश्रिताः । संति संपातिमाः प्राणाः, आहत्य संपतन्ति च । अग्नि च खलु स्पृष्टाः, एके संघातमापद्यन्ते । ये तत्र संघातमापद्यन्ते, ते तत्र पर्यापद्यन्ते । ये तत्र पर्यापद्यन्ते, ते तत्र अवद्रान्ति । मैं कहता हूं-पृथ्वी, तृण, पत्र, काष्ठ, गोबर और कचरे के आश्रय में प्राणी रहते हैं। संपातिम (उड़ने वाले) प्राणी भी होते हैं। वे ऊपर से आकर नीचे गिर जाते हैं। कुछ प्राणी अग्नि का स्पर्श पाकर संघात को प्राप्त हो जाते हैं। जो प्राणी अग्नि का स्पर्श पाकर संघात को प्राप्त हो जाते हैं वे उसकी ऊष्मा से वहां मूच्छित हो जाते हैं। जो उसकी ऊष्मा से मूच्छित हो जाते हैं वे वहां मर जाते हैं। भाष्यम ८५-अस्मिन् जगत्यनेके प्राणिनः सन्ति इस जगत् में अनेक प्रकार के प्राणी हैं। वे विभिन्न आश्रयपृथ्वीनिश्रिताः---त्रसाः स्थावराश्च । तत्र त्रसा:-कुन्थु- स्थानों में रहते हैं । पृथ्वी के आश्रय में त्रस और स्थावर-दोनों प्रकार पिपीलिकादयः सर्पमण्डू कादयश्च । स्थावरा:-वृक्षगुल्म- के प्राणी रहते हैंलतातृणादयः । तृण-पत्रनिश्रिताः-पतङ्गेलिकादयः। त्रस—कुंथु, पिपीलिका, सर्प, मेंढक भादि । काष्ठनिश्रिताः-घुणपिपीलिकाण्डादयः। गोमय- स्थावर-वृक्ष, गुल्म, लता, तृण आदि । निश्रिताः--कुंथुपनकादयः। कचवरनिश्रिता:-कृमि- तृण-पत्र के आश्रय में रहने वाले प्राणी-पतंगा, इल्ली आदि । कीटपतंगादयः। संपातिमा:-मक्षिकाभ्रमरपतंगमशक- काष्ठ के आश्रय में रहने वाले प्राणी-घुण, चींटी, अंडे आदि । पक्षिवातादयः। गोबर के आश्रय में रहने वाले प्राणी-कुंथ, फफुन्दी आदि । कचरे के आश्रय में रहने वाले प्राणी-कृमि, कीट, पतंगा आदि । संपातिम प्राणी-मक्खी, भ्रमर, पतंगा, मच्छर, पक्षी, वायु मादि। ते आहत्य-आगत्याग्नौ संपतन्ति । तस्य स्पर्श वे सभी प्रकार के प्राणी आकर अग्नि में गिरते हैं । उसके स्पर्श प्राप्य एके जीवाः संघातमापद्यन्ते-गात्रसंकोचनं को पाकर कुछ जीव संघात को प्राप्त हो जाते हैं उनका शरीर प्राप्नुवन्ति । ये संघातमापद्यन्ते ते पर्यापद्यन्ते-मूच्छिता सिकुड़ जाता है। जो संघात को प्राप्त होते हैं, वे मूच्छित हो जाते हैं। भवन्ति । ते मूच्छिताः सन्तः अवद्रान्ति-म्रियन्ते। वे मूच्छित होकर मर जाते हैं। ८६. एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिणाया भवति । सं०-अत्र शस्त्रं समारभमाणस्य इत्येते आरम्भा अपरिज्ञाता भवन्ति । जो अग्निकायिक जीव पर शस्त्र का समारम्भ (प्रयोग) करता है, वह इन आरम्भों-तत्सम्बन्धी व तदाश्रित जीव-हिंसा की प्रवृत्तियों से बच नहीं पाता। ७. एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिणाया भवंति । सं.---अत्र शस्त्रं असमारभमाणस्य इत्येते आरम्भाः परिज्ञाता भवन्ति । जो अग्निकायिक जीव पर शस्त्र का समारम्भ नहीं करता, वह इन आरम्भों से मुक्त हो जाता है । परिणाय मेहावी नेव सयं अगणि-सत्थं समारंभेज्जा, नेवण्णेहि अगणि-सत्थं समारंभावेज्जा, अगणि-सत्थं समारंभमाणे अण्णे न समणजाणेज्जा। १. आचारांग वृत्ति, पत्र ५० : पत्रतृणधूलिसमुदायः कचवरः। Jain Education international Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १. शस्त्रपरिज्ञा, उ०४.५. सूत्र ८५-८९ ५६ सं०-तं परिज्ञाय मेधावी नैव स्वयं अग्निशस्त्रं समारभेत, नैव अन्यैः अग्निशस्त्रं समारम्भयेद्, अग्निशस्त्र समारभमाणान् अन्यान न समनुजानीत । यह जानकर मेधावी मनुष्य स्वयं अग्निशस्त्र का समारम्भ न करे, दूसरों से उसका समारम्भ न करवाए तथा उसका समारम्भ करने वाले दूसरों का अनुमोदन न करे। ८६. जस्सेते अगणि-कम्म-समारंभा परिण्णाया भवंति, से हु मुणी परिण्णाय-कम्मे । -त्ति बेमि । सं०-यस्यते अग्निकर्मसमारम्भाः परिज्ञाताः भवन्ति, स खलु मुनि. परिजातकर्मा । - इति ब्रवीमि । जिसके अग्नि सम्बन्धी कर्म-समारम्भ परिज्ञात होते हैं, वही मुनि परिजातकर्मा (कर्म-त्यागी) होता है। ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् ८६-८९-एतानि सूत्राणि पूर्ववत् (३१-३४) पूर्ववत् देखें-सूत्र ३१-३४ । ज्ञातव्यानि। पंचमो उद्देसो : पांचवां उद्देशक षड़जीवनिकायक्रमे तेजस्कायानन्तरं वायुकाय: षडजीवनिकाय के क्रम में तेजस्काय के पश्चात् वायुकाय का प्रतिपाद्यते।' अत्र क्रमप्राप्तो वायुकायप्रक्रमः, तथाप्यत्र प्रतिपादन होता है। यहां वायुकाय का विषय क्रम-प्राप्त है, फिर भी तं विहाय वनस्पतेरुद्देशः पूर्व नियोजितः । अत्रावश्यं यहां उसको छोड़कर वनस्पति का पहले प्रतिपादन किया गया है। इसमें केनचित् कारणेन भाव्यम् । चूणिकारेण प्रदर्शितमिदं- कोई कारण अवश्य होना चाहिए। चूर्णिकार ने इसका कारण प्रदर्शित अचाक्षुषत्वाद् दुःश्रद्धेयो वायुः, तमश्रद्दधान : शिष्यो मा करते हुए लिखा है-वायु आंखों से दिखाई नहीं देता, इसलिए वह विप्रतिपद्येत, तेनोत्क्रमः कृतः । किन्तु विमर्शयोग्योऽयं दुःश्रद्धेय है । उस पर श्रद्धा न करने वाला शिष्य विपरीत मत न बना हेतुः। ले, इसलिए क्रम-परिवर्तन किया गया है। चूर्णिकार का यह हेतु विमर्शनीय है। वायुरचाक्षुष: सन्नपि नास्ति दुःश्रद्धेयः। प्रस्तुता- वायु अचाक्षुष होते हुए भी दुःश्रद्धेय नहीं है। प्रस्तुत अध्ययन ध्ययने वायोः प्रतिपादनमिष्टं नास्ति, किन्तु वायोः में वायु का प्रतिपादन इष्ट नहीं है, किन्तु वायु की सजीवता का प्रतिसजीवताप्रतिपादन मिष्टम् । अस्यां विचारणायां पादन अभिप्रेत है। इस सजीवता की विचारणा में पृथ्वी आदि की पृथिव्यादीनां जीवत्वमपि दुःश्रद्धेयम् । अत्र वयं कारणं सजीवता भो दुःश्रद्धेय है । यदि हम कारण की खोज करें तो वायु की मृगयामहे तदा वायोर्गतिमत्त्वमेवोत्क्रमस्य हेतुर्विभाव्यते। गतिमत्ता ही क्रम-व्यत्यय का कारण प्रतीत होती है । चार स्थावरकायों चत्वारः स्थावरकायाः संलग्नरूपेण प्रतिपादिताः। का संलग्नरूप से प्रतिपादन किया गया है। उसके बाद त्रसकाय का तदनन्तरं त्रसकायस्य प्रतिपादनम् । वायुरपि त्रस- प्रतिपादन है। वायु भी त्रसकाय के अन्तर्गत है, इसलिए त्रसकाय के कायान्तर्गतः, तेन त्रसकायनिरूपणानन्तरं वायुकायस्य निरूपण के पश्चात वायुकाय का निरूपण किया गया है। निरूपणं विहितम् । ___ स्थानाङ्गे तत्त्वार्थसूत्रे च अग्नेरपि त्रसत्वं विवक्षित, स्थानाङ्ग और तत्त्वार्थ सूत्र में अग्नि को भी त्रसकाय माना किन्तु यथा वायुस्तिर्यगगतिमान विद्यते तथा ग्निर्नास्ति। गया है, किन्तु वायु जिस प्रकार तिरछी गति वाला है वैसे अग्नि नहीं तेन तेजस्काय: स्थावरशृखलायामेव निर्दिष्टः । है, इसलिए तेजस्काय का निर्देश स्थावर की शृंखला में ही किया गया है। १. आयारो, ९।१।१२। २. आचारांग चूणि, पृष्ठ ३१ । ३. अंगसुत्साणि १, ठाणं, ३३३२६ : तिविहा तसा पण्णत्ता, तं जहा-तेउकाइया, वाउकाइया, उराला तसा पाणा। ४. तत्त्वार्य, २।१४ : तेजोवायू द्वीन्द्रियादयश्च त्रसाः। Jain Education international Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० आचारांगभाष्यम १०.तं णो करिस्सामि समुट्ठाए। सं0-तं नो करिष्यामि समुत्थाय । अहिंसा-व्रती संकल्प करे-मैं अहिंसा धर्म में दीक्षित होकर वह-हिंसा नहीं करूगा । भाष्यम् ९० --मुनिः प्रव्रज्यासमये षड्जीवनिकाय- प्रव्रज्या के समय मुनि षड्जीवनिकाय के संयम के लिए संयमाय समुत्थितो भवति, अत एव स इमं संकल्पं पुनः समुत्थित (तत्पर) होता है, इसलिए वह बार-बार इस संकल्प का पुनः अभ्यस्यति-'इदानीमहं मुनिर्जातः षड्जीवनिकाय- अभ्यास करता है-'अब मैं मुनि हो गया हूं, षड्जीवनिकाय के संयम संयमाय समुत्थितः । तेन गहस्थावस्थायां वनस्पति- के लिए उठ चुका हूं, इसलिए गृहस्थावस्था में मैंने जो वनस्पति जीवों जीवानां यं समारंभमकार्ष, तमिदानीं नो करिष्ये। का आरम्भ किया है, उसे अब नहीं करूंगा। ६१. मंता मइमं अभयं विदित्ता। सं०-मत्वा मतिमान् अभयं विदित्वा । मतिमान् पुरुष जीवों के अस्तित्व का मनन कर और सब जीव अभय चाहते हैं-इस आत्म-तुला को समझकर किसी को भी हिंसा नहीं करता। भाष्यम् ९१--वनस्पतिकायसमारम्भस्य परित्यागो वनस्पतिकाय के समारंभ का परित्याग अज्ञानमूलक नहीं है। नाज्ञानमूलकः, किन्तु तस्मिन्नस्ति जीवास्तित्वमिति उसमें जीव का अस्तित्व है, इस चिन्तन के साथ मतिमान् पुरुष उसके मननपूर्वकमेव मतिमान् तस्य समारम्भं परिजानाति । समारम्भ का परित्याग करता है। दूसरा कारण है-वे वनस्पतिकाय द्वितीयं कारणं, ते वनस्पतिजीवा अल्पविकसिताः के जीव अल्पविकसित होते हुए भी ऐसी अभिलाषा करते हैं कि उन्हें सन्तोऽपि इत्यभिलषन्ति-न कश्चित् तेषु मृत्युभयमापा- कोई मृत्युभय से भीत न करे। उनकी इस प्रकार की अभयवृत्ति को दयेत् इति तेषामभयवृत्ति विदित्वा मुनिस्तत्समारम्भं जानकर मुनि उनके समारम्भ का परित्याग करता है । परिजानाति । अभयं-णिकारेण सातं, सुखं, परिनिर्वाणं, अभयं- ___ अभय-चूर्णिकार ने सात, सुख, परिनिर्वाण और अभय--- इत्येषामेकार्थकता प्रतिपादिता । इनको एकार्थक माना है। १२. तं जे णो करए एसोवरए, एत्थोवरए एस अणगारेत्ति पवच्चइ । सं०-तं यो नो करोति एष उपरतः, अत्रोपरतः एषः अनगारः इति प्रोच्यते । जो हिंसा नहीं करता, वह व्रती होता है । इस वनस्पति-लोक की हिंसा के विषय में जो व्रती होता है, वही अनगार कहलाता है। भाष्यम् ९२--यो मुनिरभयं विदित्वा वनस्पतिकाय- जो मुनि अभय को जानकर वनस्पतिकाय का समारम्भ नहीं समारम्भं न करोति, स एष उपरत इत्युच्यते । वनस्पति- करता, वह उपरत कहलाता है। वनस्पतिकाय के समारम्भ से ही कायसमारंभादेव गहस्था अगारं निर्मान्ति । केचन गृहस्थ गृह-निर्माण करते हैं। कुछ भिक्षु भी उस समय वनस्पति का भिक्षवोऽपि तदानीं वनस्पति छित्त्वा कुटीनिर्माणं छेदन कर कुटी का निर्माण करते थे। इस स्थिति को लक्षितकर सूत्रकार कुर्वाणा आसन् । स्थितिमेतां लक्ष्यीकृत्य सूत्रकारेणोक्तम् ने कहा-जो वनस्पति का समारम्भ करता है वह गृहस्थ ही है, उसे -'यो वनस्पतिसमारम्भं करोति, सोऽगारी एव, कथं अनगार कैसे कहा जा सकता है ? अनगार वही हो सकता है जो इस सोऽनगार इतिवक्तं शक्यः ? स एवाऽनगारो भवितुमर्हति वनस्पतिलोक में अग-वृक्षों अर्थात् समस्त वनस्पति के समारम्भ से योऽत्र-वनस्पतिलोके अगानां-वृक्षाणां उपलक्षणाद् उपरत होता है और अगार-निर्माण की प्रवृत्ति में व्याप्त नहीं होता। वनस्पतीनां समारम्भादुपरतोऽस्ति, न च अगारनिर्माणकर्मणि व्याप्तो भवति । १. विनयपिटके 'पाचित्तिय पालि' एकादसं पाचित्तियं (२) सच्चं भगवां त्ति। पत्ति - अथ खो भगवा एतस्मि निदाने एतस्मि पकरणे २. उत्तराध्ययन चूणि, पृष्ठ २६ : न गच्छंतीत्यगाः-वृक्षाः भिक्खुसङ्ग सन्निपातायेत्वा आलवके भिक्खू पटिपुच्छि इत्यर्थः। अगैः कृतमगारं गहमित्यर्थः, नास्य अगारं विद्यत सच्चं किर तुम्हे, भिक्खवे रुक्खं छिन्वथापि छेवोपोथासीत्ति ? इत्यनगारः। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१. शस्त्रपरिज्ञा, उ० ५. सू०६०-६५ ६३. जे गुणे से आवटे, जे आवट्टे से गुणे। सं०-यः गुणः स आवतः, य आवर्नः स गुणः । जो विषय है वह आवत है। जो आवर्त है वह विषय है। भाष्यम् ९३-यो वनस्पतिकायसमारम्भादूपरतो न जो वनस्पतिकाय के समारम्भ से उपरत नहीं होता, वह वास्तव भवति, स वस्तुतोऽगारमेवावसतीति अस्मिन्नेवालापके में गृहवासी ही है, यह इसी आलापक के सूत्र ९८ में बतलाया जायेगा । वक्ष्यमाणमस्ति (सूत्र ९८)। स गुणानास्वादमानो गुणेषु वह गुणों का आस्वाद लेता हुआ गुणों में प्रवृत्त होता है- इस स्थापना प्रवर्तत इति स्थापनां स्पष्ट यितुं सूत्रकार: प्रवक्ति- को स्पष्ट करने के लिए सूत्रकार कहते हैं-शब्द आदि इन्द्रिय-विषय गुणाः-शब्दादयः इन्द्रियविषयाः । ये गुणास्त गुण हैं। जो गुण हैं वे आवर्त हैं अर्थात् नाना प्रकार के भावों के संक्रमण आवर्ताः-नानाविधभावसंक्रमणहेतवः सन्ति । ते च के हेतु हैं । वे गुण प्रायः वनस्पति के समारम्भ से पैदा होने वाले हैं, प्रायो वनस्पतिसमारम्भजाः, यथा- वीणाभवनपुष्पफल- जैसे वीणा, भवन, फूल, फल, तूलिका (रुई से भरा गद्दा) आदि। ये तूलिकादयः क्रमशो दृष्टान्ताः ज्ञेयाः । क्रमशः इन्द्रिय विषयों के लिए वनस्पति समारम्भ के दृष्टांत हैं। यो वनस्पतिसमारम्भे वर्तते, स गुणे वर्तते । यो गुणे जो वनस्पति के समारम्भ में प्रवृत्ति करता है, वह गुण में वर्तते, स आवर्ते वर्तते। य आवर्ते वर्तते, सोऽगारवासी प्रवृत्ति करता है। जो गुण में प्रवृत्ति करता है, वह आवर्त में प्रवृत्ति एव, नानगारो भवितुमर्हति । करता है। जो आवर्त में प्रवृत्ति करता है वह गृहस्थ ही है, अनगार नहीं हो सकता। अस्य सूत्रस्य संरचना गत-प्रत्यागतशैल्या वर्तते । इस सूत्र की रचना गत-प्रत्यागत शैली में है। १४. उड्ढं अहं तिरियं पाईणं पासमाणे रूवाइं पासति, सुणमाणे सद्दाइं सुणेति । सं०-ऊर्ध्वं अवः तिर्यक् प्राचीनं पश्यन रूपाणि पश्यति, शृण्वन् शब्दान शृणोति । ऊंचे, नीचे और तिरछे स्थानों में तथा पूर्व आदि दिशाओं में देखने वाला रूपों को देखता है, सुनने वाला शब्दों को सुनता है। भाष्यम ९४.-'गूणाः क्व वर्तन्ते' इति जिज्ञासायां 'गुण कहां होते हैं ?' इस जिज्ञासा का यह समाधान दिया कृतं समाधानमिदम्-दिशां विहाय नैतन्निरूपयितुं गया है-दिशा को छोड़कर इसका निरूपण नहीं किया जा सकता, शक्यमिति सूत्रकारो वक्ति-सर्वासु दिशासु गुणा इसलिए सूत्रकार कहते हैं-सब दिशाओं में गुण होते हैं। मनुष्य ऊपर वर्तन्ते। मनुष्य ऊवं पश्यन्नपि रूपाणि पश्यति, देखता हुआ भी रूपों को देखता है, सुनता हुआ शब्दों को सुनता है। शृण्वंश्च शब्दान् शृणोति । एवं अधस्तिर्यमाच्यादि- इसी प्रकार नीची, तिरछी और पूर्व आदि दिशाओं में भी रूपों को दिशास्वपि रूपाणि पश्यति, शब्दांश्च शृणोति । इन्द्रिय- देखता है और शब्दों को सुनता है। इन्द्रिय-विषयों में रूप और शब्द विषयेषु रूपशब्दौ एव मुख्यौ स्तः । प्राधान्येन ही मुख्य हैं । साहित्य में भी मुख्यतः दृश्य एवं श्रव्य-काव्यों को ही साहित्येऽपि दृश्यथव्यकाव्ययोरेव स्वीकरणमस्ति। स्वीकार किया गया है। ६५. उड्ढं अहं तिरियं पाईणं मुच्छमाणे रूवेसु मुच्छति, सद्देसु आवि । सं०-ऊर्ध्वं अधः तिर्यक प्राचीनं मूर्च्छन् रूपेषु मूर्च्छति, शब्देषु चापि । ऊंचे, नीचे और तिरछे स्थानों में तथा पूर्व आदि दिशाओं में विद्यमान वस्तुओं में मूच्छित होने वाला रूपों में मूच्छित होता है, शब्दों में मूच्छित होता है। भाष्यम् ९५-पूर्वसूत्रे इन्द्रियविषयग्रहणमात्रमेव प्रति- पूर्वसूत्र में इन्द्रियविषयों का ग्रहणमात्र प्रतिपादित किया गया पादितम् । प्रस्तुतसूत्रे तज्जनितां मूच्छीँ प्रतिपादयति है। प्रस्तुत सूत्र में सूत्रकार उससे होने वाली मूर्छा का प्रतिपादन सूत्रकारः । इन्द्रियविषयग्रहणमात्रं नास्ति दोषावहं, किन्तु करते हैं। इन्द्रिय-विषयों का ग्रहणमात्र दोषयुक्त नहीं है, किन्तु उसमें तस्मिन् चित्तं मुह्यति, तदस्ति सदोषम् । अत एवोक्त- चित्त मूढ बनता है, वह दोषपूर्ण है। इसीलिए कहा गया है- मूच्छित मस्ति-मूच्छितचित्तो मनुष्य ऊर्वादिदिशासु रूपेषु चित्त वाला मनुष्य ऊर्ध्व आदि दिशाओं में रूपों और शब्दों में मूच्छित मूर्च्छति शब्देषु चापि। होता है। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगभाष्यम् प्राणिनां इन्द्रियगणस्य माध्यमेन बाह्यजगत: सम्पर्को प्राणियों का बाह्य जगत् के साथ संपर्क इन्द्रियों के माध्यम से भवति । तत्र चक्षुश्रोत्रयोरेव प्राधान्यम् । भाषात्मकः होता है। संपर्क-सूत्र में आंख और कान की ही प्रधानता है । भाषा के सम्पर्क: समाज सूत्रयति । अभाषकाणां नास्ति समाजः। आधार पर होने वाला संपर्क समाज की संरचना करता है । अभाषक तेषां भवति समजः । अत उच्यते- 'समजस्तु पशूनां स्यात, प्राणियों का 'समाज' नहीं होता, 'समज' होता है ! इसीलिए कहा समाजस्त्वन्यदेहिनाम् ।' चक्षुषा प्रत्यक्षं दृष्टा भवन्ति है-'पशुओं का समज होता है, अन्य प्राणियों का समाज ।' आंखों पदार्थाः। अत एव सामाजिकसंघटनायां एते द्वे एव से पदार्थ प्रत्यक्षरूप में देखे जाते हैं। इसलिए समाज की संघटना में मुख्यत्वं भजतः । सूत्रकारेणापि अनयोविषयाणां उल्लेखः आंख और कान-ये दो ही मुख्य होते हैं। सूत्रकार ने भी प्रस्तुत कृतः। आलापक में इन दोनों इन्द्रियों के विषयों का उल्लेख किया है। आचारचूलायामस्य विषयस्य समर्थनपरा: पञ्च- आचारचूला में इस विषय के समर्थन में पांच गाथाएं उपलब्ध गाथा उपलभ्यन्ते ।' होती हैं। मू -रागद्वेषपरिणामः । मूर्छा का अर्थ है-राग द्वेष का परिणाम । ६६. एस लोए वियाहिए। सं०-एष लोको व्याहृतः। इसे लोक (आसक्ति का जगत्) कहा जाता है। भाष्यम् ९६ - एष इन्द्रियविषयलोको मुच्छत्मिक: इस इन्द्रियविषयलोक को मूत्मिक कहा गया है। मोह से व्याहृतः । मूर्छा मोहाक्षिप्तचेतसां नृणां सहजा भवति। आक्षिप्त चित्तवाले मनुष्यों के मूर्छा सहज होती है। उसके उद्दीपन इन्द्रियविषयाः तस्या उद्दीपने निमित्ततां भजन्ति । भिन्ना में इंद्रिय-विषय निमित्त बनते हैं। मूर्छा भिन्न है इंद्रिय-विषय मुर्छा भिन्नाश्चेन्द्रियविषयाः। सत्यपि भेदे सम्बन्ध- भिन्न हैं। दोनों में भेद होने पर भी दोनों एक-दूसरे के संबंध हेतुत्वादभेदोपचारेण इन्द्रियविषयलोकः मूत्मिको के हेतु बनते हैं, इसलिए अभेदोपचार से इंद्रियविषयलोक को मूर्छात्मक लोक इतिवक्तुं युक्तम् । लोक कहना उपयुक्त है। ६७. एत्थ अगुत्ते अणाणाए। सं०-अत्र अगुप्तः अनाज्ञायाम् । जो पुरुष इस लोक में अगुप्त होता है, वह आज्ञा में नहीं है। भाष्यम् ९७-एषु वनस्पतिजनितेषु कामगूणेषु यो जो मनुष्य इन वनस्पति-जनित कामगुणों में अगुप्त है, वह मनुष्योऽगुप्तोऽस्ति, सोऽनाज्ञायां वर्तते । अनाज्ञा में है। अगुप्तः-रागद्वेषवशंगतः । अगुप्त का अर्थ है-रागद्वेष के वशीभूत । आज्ञा-सूक्ष्मतत्त्वावबोधः अथवा अतीन्द्रियतत्त्व- आज्ञा का अर्थ है-सूक्ष्म तत्त्वों का ज्ञान अथवा अतीन्द्रिय ज्ञान १. अंगसुत्ताणि १, आयारचूला, १५७२-७६ : २. अंगसुत्ताणि १, ठाणं २१४३२-४३४ : ण सक्का ण सो सद्दा, सोयविसयमागता । दुविहा मुच्छा पण्णत्ता, तं जहा-पेज्जवत्तिया चेव, दोसरागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए॥ वत्तिया चेव। णो सक्का रूवमदहूं, चक्खुविसयमागयं । पेज्जवत्तिया मुच्छा दुविहा पण्णता, तं जहा-माया चेव, रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए । लोमे चेव । णो सक्का ण गंधमग्घाउं, णासाविसयमागयं । बोसवत्तिया मुच्छा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-कोहे चेब, रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए । माणे चेव । णो सक्का रसमणासाउं, जोहाविसयमागयं । ३. चूणों 'एस असंजतलोए वियाहिए' इति व्याख्यातम् । रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए॥ (आचारांग चूणि, पृष्ठ ३४) णो सक्का ण संवेदे, फासविसयमागयं । रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खु परिवज्जए॥ Jain Education international Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १. शस्त्रपरिज्ञा, उ०५. सूत्र ६७-१०१ प्रतिपादकं जिनवचनमागम इति यावत् । न आज्ञा- के प्रतिपादक जिनवचन-आगम । आज्ञा का न होना अनाज्ञा है। जो अनाज्ञा। यः कामगुणवशवर्ती सन् वनस्पतिजीवान् कामगुणों का वशवर्ती होकर वनस्पति जीवों की हिंसा करता है, वह हिनस्ति सोऽनाज्ञायां वर्तते, अतीन्द्रियविषयानभिज्ञोऽ- अनाज्ञा में है, वह अतीन्द्रिय विषयों से अनभिज्ञ है। स्तीति यावत् । १८. पुणो-पुणो गुणासाए, वंकसमायारे, पमत्ते गारमावसे । सं०-पुनः पुनः गुणास्वादः, वक्रसमाचारः, प्रमत्तोऽगारमावसति । जो बार-बार विषयों का आस्वाद करता है, जिसका आचरण वक्र-असंयममय होता है और जो प्रमत्त होता है, वह गृहत्यागी होकर भी गृहवासी होता है। भाष्यम् ९८--यः पुनः पुनर्गणान् --इन्द्रियविषयान जो बार-बार गुणों अर्थात् इंद्रिय विषयों का आस्वाद लेता है, आस्वदते, असंयम समाचरति, प्रमत्तो भवति, स पुरुषो असंयम का आचरण करता है, प्रमत्त होता है, वह पुरुष गृहत्यागी गृहत्यागी भूत्वाऽपि वस्तुतः अगारमावसति । होकर भी वस्तुतः गृहवासी है। __वक्रः-असंयमः। आगमपरिभाषायां ऋजू:--संयमो वक्र का अर्थ है- असंयम । आगम की परिभाषा में ऋजु का मोक्षो वा, वक्र:-असंयमः संसारो वा। अर्थ है-संयम या मोक्ष और वक्र का अर्थ है-असंयम या संसार । वनस्पतिरसास्वादे गद्धस्य गहत्यागिनः कथं भावतः जो अनगार वनस्पति के रसास्वादन में आसक्त होता है, वह अगारवासित्वं भवतीति निशीथभाष्ये निदर्शितमस्ति। वास्तव में गृहवासी होता है, यह तथ्य निशीथभाष्य में स्पष्टरूप से प्रतिपादित है। ६६. लज्जमाणा पुढो पास । सं०-लज्जमानान् पृथक् पश्य । तू देख, प्रत्येक संयमी साधक हिंसा से विरत हो संयम का जीवन जी रहा है। १००. अणगारा मोत्ति एगे पवयमाणा। सं०-अनगाराः स्मः इति एके प्रवदन्तः । और तू देख, कुछ साधु 'हम गृहत्यागी हैं'-यह निरूपित करते हुए भी गृहवासी जैसा आचरण करते हैं-बनस्पतिकायिक जीवों की हिंसा करते हैं। भाष्यम् ९९-१००-सूत्रद्वयं पूर्ववत् (१७-१८) पूर्ववत् देखें-सूत्र १७-१८ । ज्ञातव्यम् । १०१. जमिण विरूवरूवेहि सत्थेहिं वणस्सइ-कम्म-समारंभेणं वणस्सइ-सत्थं समारंभमाणे अण्णे वणेगरूवे पाणे विहिंसति । १. निशीथभाष्य, गाया ४७९१-४७९२ : कायं परिच्चयंतो, सेसे काए वए य सो चयति । णाणी णाणुवदेसे, अवट्टमाणो उ अन्नाणी ॥ दसणचरणा मूढस्स णत्थि समता वा पत्थि सम्मं तु। विरतोलक्खणचरणं, तदभावे णत्थि वा तं तु ॥ चौं-'पलंबे गेण्हतेण वणस्सतिकाओ परिच्चत्तो, वणस्सतिकायपरिच्चागेण, सेसा वि काया परिच्चत्ता, एवं छक्कायपरिच्चागे पढमवयं परिच्चत्तं, तस्स य परिच्चागे, सेस वया वि परिच्चत्ता । एवं अवती भवति । जहा अण्णाणी गाणभावतो णाणुवदेसे ण वट्टति, एवं णाणी वि णाणुबदेसे अवतो णिच्छयतो णाणफलाभावाओ अण्णाणी चेव। णाणाभावे मूढो भवति, मूढस्स य दंसणचरणा ण भवंति । अधवा-जेण जीवेसु समता णरिथ, पलंबगहणातो, तेण सम्मत्तं णस्थि। विरतिलक्खणं चारित्तं भणियं, तं च पलंबे गेण्हतस्स लक्खणं ण भवति, 'तवमावे' ति लक्खणाभावे चारितं त्थि ।' Jain Education international Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगभाष्यम् सं०-यदिदं विरूपरूपैः शस्त्र: वनस्पतिकर्मसमारंभेण वनस्पतिशस्त्रं समारभमाणः अन्यानप्यनेकरूपान् प्राणान् विहिंसति । वह नाना प्रकार के शस्त्रों से वनस्पति-सम्बन्धी क्रिया में व्याप्त होकर वनस्पतिकायिक जीवों की हिंसा करता है। वह केवल उन वनस्पतिकायिक जीवों की ही हिंसा नहीं करता, किन्तु नाना प्रकार के अन्य जीवों की भी हिंसा करता है। भाष्यम् १०१-निर्यक्तौ' वनस्पतिकायशस्त्राणि एवं नियुक्ति में वनस्पतिकाय के शस्त्र इस प्रकार प्रतिपादित हुए हैंप्रतिपादितानि १. कल्पनी, कुठारी, दात्रं, दात्रिका, कुद्दालक, वासी, १. कैची, कुठारी, हंसिया, छोटी हंसिया, कुदाली, वसूला और परशुश्च । फरसा। २. हस्तपादमुखादयः। २. हाथ, पैर, मुंह आदि। ३. स्वकायशस्त्रम्-लकुटादयः । ३. स्वकायशस्त्र-लाठी आदि । ४. परकायशस्त्रम्-पाषाणाग्न्यादयः । ४. परकायशस्त्र—पाषाण, अग्नि आदि । ५. तदुभयशस्त्रम् -कुठारादयः । ५. तदुभयशस्त्र-कुठार आदि । ६. भावशस्त्रम् - असंयमः । ६. भावशस्त्र-असंयम । १०२. तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेदिता। सं०-तत्र खलु भगवता परिज्ञा प्रवेदिता । इस विषय में भगवान् ने परिज्ञा (विवेक) का निरूपण किया है। १०३. इमस्स चेव जीवियस्स, परिवंदण-माणण-पूयणाए, जाती-मरण-मोयणाए, दुक्खपडिधायहे। सं०-अस्मै चैव जीविताय, परिवंदन-मानन-पूजनाय, जाति-मरण मोचनाय, दुःखप्रतिघातहेतुम् । वर्तमान जीवन के लिए, प्रशंसा, सम्मान और पूजा के लिए, जन्म, मरण और मोचन के लिए, दुःख-प्रतिकार के लिए। १०४. से सयमेव वणस्सइ-सत्थं समारंभइ, अण्णेहि वा वणस्सइ-सत्थं समारंभावेइ, अण्णे वा वणस्सइ-सत्थं समारंभमाणे समणुजाणइ। सं०–स स्वयमेव वनस्पतिशस्त्रं समारभते, अन्यः वा वनस्पतिशस्त्रं समारम्भयति, अन्यान् वा वनस्पतिशस्त्रं समारभमाणान् समनुजानीते। कोई साधक स्वयं वनस्पतिकायिक जीवों की हिंसा करता है, दूसरों से करवाता है या करने वाले दूसरों का अनुमोदन करता है। १०५. तं से अहियाए, तं से अबोहीए। _ सं०-तत् तस्य अहिताय, तत् तस्य अबोध्य । वह हिंसा उसके भहित के लिए होती है, वह हिंसा उसकी अबोधि के लिए होती है। १०६. से तं संबुज्झमाणे, आयाणीयं समुट्ठाए। सं०-स तत् संबुध्यमानः आदानीयं समुत्थाय । वह उस हिंसा के परिणाम को समीचीन दृष्टि से समझकर संयम की साधना में सावधान हो जाता है। १. आचारांग नियुक्ति, गाथा १४९-१५० : कप्पणिकुहाणिअसियगदत्तियकुद्दालवासिपरसू अ। सत्यं वणस्सईए हत्था पाया मुहं अग्गी ॥ किंची सकायसत्थं किंची परकाय तदुभयं किंची। एयं तु दण्वसत्थं भावे य असंजमो सत्थं ॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १. शस्त्रपरिज्ञा, उ० ५. सूत्र १०२-११३ १०७. सोच्चा भगवओ अणगाराणं वा अतिए इहमेगेसि णायं भवति-एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णिरए। सं०--श्रुत्वा भगवतः अनगाराणां वा अंतिके इहेकेषां ज्ञातं भवति--एषा खलु ग्रन्थः, एषा खलु मोहः, एषा खलु मारः, एषा खलु नरकः । भगवान् या गृहत्यागी मुनियों के समीप सुनकर कुछ मनुष्यों को यह ज्ञात हो जाता है-यह (वनस्पतिकायिक जीवां की हिसा) ग्रन्थि है, यह मोह है, यह मृत्यु है, यह नरक है । १०८. इच्चत्थं गढिए लोए। सं०-इत्यत्र ग्रथितो लोकः । फिर भी सुख-सुविधा में मूच्छित मनुष्य वनस्पतिकायिक जीव-निकाय को हिंसा करता है। १०६. जमिणं विरूबरूवेहि सत्थेहि वणस्सइ-कम्म-समारंभेणं वणस्सइ-सत्थं समारंभेमाणे अण्णे वणेगरूवे पाणे विहिसति । सं०-यदिदं विरूपरूपः शस्त्रः वनस्पतिकर्मसमारंभेण वनस्पतिशस्त्रं समारभमाणः अन्यानप्यनेकरूपान् प्राणान् विहिंसति । वह नाना प्रकार के शस्त्रों से वनस्पति सम्बन्धी क्रिया में व्याप्त होकर वनस्पतिकायिक जीवों की हिंसा करता है। वह केवल उन वनस्पतिकायिक जीवों को ही हिंसा नहीं करता, किन्तु नाना प्रकार के अन्य जीवों को भी हिंसा करता है। ११०. से बेमि-अप्पेगे अंधमन्भे, अप्पेगे अंधमच्छे। सं०-तद् ब्रवीमि-अप्येकः अन्धमाभिन्द्याद्, अप्येकः अन्धमाच्छिन्द्याद् । मैं कहता हूं-वनस्पतिकायिक जीव जन्मना इन्द्रियविकल-अंध, बधिर, मूक, पंगु और अवयवहीन मनुष्य की भांति अव्यक्त चेतमा वाला होता है। शस्त्र से छेवन-भेवन करने पर जैसे जन्मना इन्द्रिय-विकल मनुष्य को कष्टानुभूति होती है, वैसे ही वनस्पतिकायिक जीव को होती है। १११. अप्पेगे पायमन्भे, अप्पेगे पायमल्छ । सं०-अप्येकः पादमाभिन्द्याद्, अप्येकः पादमाच्छिन्द्यात् । इन्द्रिय-सम्पन्न मनुष्य के पैर आदि (द्रष्टव्यं १।२९) का शस्त्र से छेदन-भेदन करने पर उसे अक्षम कष्टानुभूति होती है, वैसे ही वनस्पतिकायिक जीव को होती है। ११२. अप्पेगे संपमारए, अप्पेगे उद्दवए । सं0-अप्येकः संप्रमारयेद्, अप्येकः उद्भवेत् । मनुष्य को मूच्छित करने या उसका प्राण-वियोजन करने पर उसे कष्टानुभूति होती है, वैसे ही वनस्पतिकायिक जोब को होती है। भाष्यम् १०२-११२-एतानि सूत्राणि पूर्ववद् (२०-३०) पूर्ववत् देखें-सूत्र २०-३० । ज्ञातव्यानि । ११३. से बेमि-इमपि जाइधम्मयं, एयंपि जाइधम्मयं । इमंपि बुड्डिधम्मयं, एयंपि बुद्धिधम्मयं । इमंपि चित्तमंतयं, एयंपि चित्तमंतयं । इमंपि छिन्नं मिलाति, एयंपि छिन्नं मिलाति । इमंपि आहारगं, एयंपि आहारगं । इमंपि अणिच्चयं, एयंपि अणिच्चयं । इमंपि असासयं, एयपि असासयं । इमंपि चयावच इयं, एयंपि चयावचइयं । इमंपि विपरिणाम. धम्मयं, एयंपि विपरिणामधम्मयं । सं०-तद् ब्रवीमि- इदमपि जातिधर्मक, एतदपि जातिधर्मकम् । इदमपि वृद्धिधर्मक, एताप वृद्धिधर्मकम् । इदमपि चित्तवत्कं, एतदपि चित्तवत्कम् । इदमपि छिन्नं म्लायति, एतदपि छिन्नं म्लायति । इदमपि बाहारकं, एतदपि आहारकम् । इदमपि अनित्यक, Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगभाष्यम् एतदपि अनित्यकम् । इदमपि अशाश्वतं, एतदपि अशाश्वतम् । इदमपि चयापचयिकं, एतदपि चयापचयिकम् । इदमपि विपरिणामधर्मकं, एतदपि विपरिणामधर्मकम् । मैं कहता हूं-यह मनुष्य-शरीर भी जन्मता है, यह वनस्पति भी जन्मती है। यह मनुष्य-शरीर भी बढता है, यह वनस्पति भी बढती है। यह मनुष्य-शरीर भी चैतन्ययुक्त है, यह वनस्पति भी चैतन्ययुक्त है। यह मनुष्य-शरीर भी छिन्न होने पर म्लान होता है, यह वनस्पति भी छिन्न होने पर म्लान होती है । यह मनुष्य-शरीर भी आहार करता है, यह बनस्पति भी आहार करती है। यह मनुष्य-शरीर भी अनित्य है, यह वनस्पति भी अनित्य है। यह मनुष्य-शरीर भी अशाश्वत है, यह वनस्पति भी अशाश्वत है। यह मनुष्य-शरीर भी उपचित और अपचित होता है, यह वनस्पति भी उपचित और अपचित होती है। यह मनुष्य-शरीर भी विविध अवस्थाओं को प्राप्त होता है, यह वनस्पति भी विविध अवस्थाओं को प्राप्त होती है। भाष्यम ११३-स्थावरकायेषु बनस्पतिकायिकजीवा स्थावरकायिक जीवों में बनस्पतिकायिक जीवों की चेतना व्यक्तचैतन्यलक्षणा वर्तन्ते । पृथिव्यादिषु चैतन्यं अत्यधिक स्पष्ट होती है। पृथ्वी आदि में वनस्पति की तरह चैतन्य वनस्पतिवद् व्यक्तं नास्ति । तेन न तेषां मनुष्यशरीरेण स्पष्ट नहीं होता। इसलिए मानव शरीर के साथ उनकी तुलना नहीं सह तुलना कृता। वनस्पतिजीवानां तुलना सर्वाङ्गीण- की गई है। मनुष्य शरीर के साथ वनस्पति जीवों की तुलना सर्वाङ्गीण रूपेण जायते । जन्म-वृद्धि-भोजन-चयापचय-मरण-रोग- रूप से होती है। जन्म, वृद्धि, भोजन, चयापचय, मरण, रोग, बाल बालाद्यवस्था-चैतन्यप्रभृतानि लक्षणानि प्रत्यक्षीभूतानि आदि अवस्था और चैतन्य आदि साक्षात् दृश्यमान लक्षणों का यहा अत्र विवृतानि। विवरण दिया गया है१. यथा मनुष्यशरीरं जन्मधर्मकं विद्यते, तथा १. जैसे मनुष्य का शरीर जन्म-धर्मा है, वैसे ही वनस्पति का वनस्पतिशरीरमपि जन्मधर्मकम् । शरीर भी जन्म-धर्मा है। २. यथा मनुष्यशरीरं वर्धते, तथा वनस्पतिशरीर- २. जैसे मनुष्य का शरीर बढता है, वैसे ही वनस्पति का शरीर मपि । भी बढ़ता है। ३. यथा मनुष्यशरीरं चित्तवत्-ज्ञानेनानुगतं, तथा ३. जैसे मनुष्य का शरीर चित्तवान्–ज्ञानयुक्त होता है वैसे ही वनस्पतिशरीरमपि । धात्रीप्रपून्नाटादीनां स्वाप- वनस्पति का शरीर भी ज्ञानयुक्त होता है। आंवले के पेड़, विबोधसद्भावो दृश्यते ।' | चकवंड (चक्रमर्द) के पौधे आदि में नींद और जागरण का अस्तित्व दृष्टिगोचर होता है। अस्मिन् विषये आधुनिकवैज्ञानिकानां मतं बोद्ध इस विषय में आधुनिक वैज्ञानिकों का मत जानने के लिए 'सीक्रेट लाइफ ऑफ दी प्लान्टस्' इतिनामा ग्रन्थः 'सीक्रेट लाइफ ऑफ द प्लांटस्' यह ग्रंथ देखना चाहिए। द्रष्टव्यः । ४. यथा मनुष्यशरीरस्य हस्ताद्यवयवाः छिन्नाः सन्तः ४. जैसे मानव शरीर के हाथ आदि अवयव छिन्न होने पर म्लान म्लायन्ति-क्रमशः निर्जीवतां गच्छन्ति, तथा होते हैं- क्रमशः निर्जीव हो जाते हैं, वैसे ही वनस्पति के भी वनस्पतेरपि शाखापुष्पपत्राद्यवयवाः छिन्नाः सन्तः शाखा, फूल, पत्ते आदि अवयव छिन्न होने पर म्लान होते म्लायन्ति-मूलशरीरात् पृथग्भूतानामवयवानां हैं-मूल शरीर से पृथक् हुए अवयवों का आभामण्डल क्रमशः आभामण्डलं क्रमश: क्षीणतां गच्छति, तस्मिन् क्षीणे क्षीण होता चला जाता है। उसके क्षीण होने पर मृत्यु हो मृत्युर्जायते। जाती है। ५. यथा मनुष्यशरीरं आहरति, तथा वनस्पति शरीर- ५. जैसे मनुष्य का शरीर आहार लेता है वैसे ही वनस्पति का मपि भूजलाद्याहरति । द्वयोरपि पाचनं प्रकाश- शरीर भी पृथ्वी, जल आदि का आहार ग्रहण करता है । दोनों सापेक्षं वर्तते। में पाचनक्रिया प्रकाश-सापेक्ष है। १. वृत्तिकारेण अन्या अपि युक्तयः उपनताः-'तथाऽधोनिखात सुरागण्डूषसेकाद् बकुलस्य स्पृष्टप्ररोहिकादीनाञ्च द्रविणराशेः स्वप्ररोहणावेष्टनं प्रावड्जलधरनिनादशिशिर हस्तादिसंस्पर्शात् संकोचादिका परिस्फुटा क्रियोपलब्धिः, न वायुसंस्पर्शाद अंकुरोभेदः, तथा मदमदनसङ्गस्खलद्गति चैतदभिहिततरुसम्बन्धि क्रियाजालं ज्ञानमन्तरेण घटते, विधर्णमानलोललोचनविलासिनीसन्न पुरसुकुमारचरणताड तस्मात् सिद्ध चित्तवत्त्वं वनस्पतेरिति ॥' नावशोकतरोः पल्लवकुसुमोद्गमः, . तथा सुरभि (आचारांग वृत्ति, पत्र ५९) Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १. शस्त्रपरिज्ञा, उ० ५. सूत्र ११४-११५ ६. यथा मनुष्यशरीरं अनित्यं -हानिवृद्धियुक्तं वर्तते, तथा वनस्पतिशरीरमपि।। ७. यथा मनुष्यशरीरं अशाश्वत-मरणधर्मकं विद्यते, तथा वनस्पतिशरीरमपि । ८. यथा मनुष्यशरीरं चयापचयिक विद्यते--प्रतिक्षणं कोटिशः कोशिका उत्पद्यन्ते विपद्यन्ते च, तथ। वनस्पतिशरीरमपि चयापचयिकम् । तस्मिन्नपि कोशिकानामुत्पादो व्ययो वा दृश्यते । ९. यथा मनूष्यशरीरं विपरिणामधर्मक विद्यते तथा वनस्पतिशरीरमपि । विपरिणामः ६. जैसे मनुष्य का शरीर अनित्य अर्थात् हानि-वृद्धि युक्त होता है, वैसे ही बनस्पति का शरीर भी अनित्य है, हानि-वृद्धि युक्त है। ७. जैसे मनुष्य का शरीर अशाश्वत अर्थात् मरणधर्मा है, वैसे ही वनस्पति का शरीर भी अशाश्वत है, मरणधर्मा है। ८. जैसे मनुष्य का शरीर चयापचय-धर्मा है अर्थात् उसमें प्रतिक्षण करोड़ों कोशिकाएं उत्पन्न होती है, नष्ट होती हैं, वैसे ही वनस्पति का शरीर भी चयापचय-धर्मा है। उसमें भी कोशिकाओं की उत्पत्ति और विनाश देखा जाता है । ९. जैसे मनुष्य का शरीर विपरिणामधर्मा है, वैसे ही वनस्पति का शरीर भी विपरिणामधर्मा होता है। विपरिणाम के तीन अर्थ १. निषेकादिबालाद्यवस्थान्तरसंक्रमणम् । १. निषेक (गर्भ-निषेचन), बाल, युवा आदि अवस्थाओं में संक्रमण । २. रोगोद्भवः । २. रोग की उत्पत्ति। ३. रसायनस्नेहाद्युपयोगाद् विशिष्टकान्तिबलोप- .. ३. रसायन, स्नेह आदि के उपयोग से विशिष्ट कांति, बल चयादिरूपः। का उपचय आदि। चर्णिकारेण सूचितमिदं एवं अन्येऽपि स्वप्नदोहद- चूर्णिकार ने यह सूचित किया है-इस प्रकार स्वप्न, दोहद रोगादिलक्षणाः पर्यायाः वाच्याः ।' वृत्तिकारेण वनस्पते: (गर्भकाल में होने वाली इच्छा) रोग आदि अन्य लक्षण भी वनस्पति स्वप्नविषये न किञ्चिदुल्लिखितम् । दोहदविषये में पाए जाते हैं । वृत्तिकार ने वनस्पति के स्वप्न के विषय में कुछ भी इत्युल्लेखो लभ्यते-दोहदप्रदानेन तत्पूा वा पुष्पफला- उल्लेख नहीं किया है। दोहद के विषय में यह उल्लेख मिलता हैदीनामुपचयो जायते । इदानींतनी धान्यादिवृद्धिः स्पष्टं वृक्षों में इच्छा उत्पन्न करने अथवा उनमें उत्पन्न इच्छा को सिंचन देने परिदृश्यमानास्ति । वनस्पतेः स्वप्नदोहदविषयः इदानी- अथवा उनके दोहद की पूर्ति करने से फूल, फल आदि का उपचय होता मपि गहनगवेषणामपेक्षते । है। वर्तमान में इस विधि से धान्य आदि की वृद्धि स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। वनस्पति के स्वप्न तथा दोहद के विषय में अभी भी सघन गवेषणा अपेक्षित है। ११४. एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिणाया भवंति । सं०-अत्र शस्त्रं समारभमाणस्य इत्येते आरम्भा अपरिज्ञाता भवन्ति । जो वनस्पतिकायिक जीव पर शस्त्र का समारम्भ (प्रयोग) करता है, वह इन आरंभों तत्संबंधी व तदाश्रित जीवहिंसा की प्रवृत्तियों से बच नहीं पाता। ११५. एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिणाया भवति । सं....अत्र शस्त्रं असमारभमाणस्य इत्येते आरम्भाः परिज्ञाता भवन्ति । जो वनस्पतिकायिक जीव पर शस्त्र का समारम्भ नहीं करता, वह इन आरंभों से बच जाता है। १. आचारांग चूणि, पृष्ठ ३५ । २. (क) आचारांग वृत्ति, पत्र ६० । (ख) आप्टे, 'दोहद': The desire of plants at budding-time, (as, for instance, of the Asoka to be kicked by young ladies, of the Bakula to be sprinkled by mouthfuls of liquor etc.) महील्हा दोहदसेकशक्तेराकालिक कोरकमुगिरन्ति (नैषधचरितम् ३।२१)। Jain Education international Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगभाष्यम् ११६. त परिणाय मेहावी व सयं वणस्सइ-सत्थं समारंभेज्जा, वण्णेहिं वणस्सइ-सत्थं समारंभावेज्जा, णेवणे वणस्सइ-सत्यं समारंभंते समणुजाणेज्जा । सं०-तं परिज्ञाय मेधावी नैव स्वयं वनस्पतिशस्त्रं समारभेत, नैव अन्यैः वनस्पतिशस्त्रं समारम्भयेत्, नैव अन्यान् वनस्पतिशस्त्रं समारभमाणान् समनुजानीत । यह जानकर मेधावी मनुष्य स्वयं वनस्पतिशस्त्र का समारम्भ न करे, दूसरों से उसका समारम्भ न करवाए, उसका समारम्भ करने वाले दूसरों का अनुमोदन न करे। ११७. जस्सेते वणस्सइ-सत्थ-समारंभा परिणाया भवंति, से ह मणी परिण्णाय-कम्मे ।-त्ति बेमि। सं०-यस्यैते बनस्पतिशस्त्रसमारंभाः परिज्ञाताः भवन्ति, स खलु मुनिः परिज्ञातकर्मा । -इति ब्रवीमि । जिसके वनस्पति सम्बन्धी शस्त्र-समारम्भ परिजात होते हैं, वही मुनि परिजातकर्मा (कर्म-त्यागी) होता है। ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् ११४-११७-एतानि सूत्राणि पूर्ववद् (३१-३४) पूर्ववत् देखें-सूत्र ३१-३४ । ज्ञातव्यानि । छट्ठो उद्देसो : छठा उद्देशक ११८. से बेमि–संतिमे तसा पाणा, तं जहा-अंडया पोयया जराउया रसया संसेयया संमुच्छिमा उम्भिया ओववाइया। सं०-अथ ब्रवीमि-सन्तीमे त्रसा: प्राणाः, तद् यथा-अण्डजाः, पोतजा: जरायुजाः, रसजा:, संस्वेदजाः, संमूच्छिमाः उद्भिदः औपपातिका: । मैं कहता हूं-ये प्राणी त्रस हैं, जैसे-अंडज, पोतज, जरायुज , रसज, संस्वेदज, सम्मूच्छिम, उद्भिज्ज और औपपातिक। भाष्यम् ११८-प्रस्तुतसूत्रे त्रसजीवानां संग्रहः प्रस्तुत सूत्र में त्रसजीवों का संग्रह किया गया है । वे तीन कृतोऽस्ति । ते त्रिविधा भवन्ति-१. सम्मूर्च्छनजाः, २. प्रकार के हैं-१. सम्मूर्छनज, २. गर्भज, ३. औपपातिक । रसज , गर्भजाः, ३. औपपातिकाश्च । रसजाः, संस्वेदजाः, उद्धि- संस्वेदज और उद्भिद्-ये तीन सम्मूर्छनज हैं। सम्मूर्छन का अर्थ दश्चते सम्मूर्च्छनजाः। सम्मूर्छन -गर्भाधानं विना है-गर्भाधान के बिना ही यत्र-तत्र आहार ग्रहण कर शरीर का निर्माण यत्र तत्रैव आहारं गहीत्वा शरीरसम्पादनं, तस्माज्जाता: करना । इस विधि से उत्पन्न होने वाले प्राणी 'सम्मूर्छनज' कहलाते सम्मूर्छनजाः । अण्डजाः, पोतजा:, जरायुजाश्चैते गर्भजाः। हैं । अण्डज, पोतज और जरायुज-ये गर्भज हैं। उपपातः--वैक्रियशरीरेण उपपतनं-जन्मग्रहणं, तत्र उपपात-वैक्रिय शरीर से उपपतन अर्थात् जन्म ग्रहण करना। १. अण्डज-अण्डों से उत्पन्न होने वाले मयूर आदि । पोतज-पोत का अर्थ है शिशु। जो शिशुरूप में उत्पन्न होते हैं, जिन पर कोई आवरण लिपटा हुआ नहीं होता, वे पोतज कहलाते हैं। हाथी, चर्म जलौका आदि पोतज प्राणी हैं। जरायुज-जरायु का अर्थ गर्भ-वेष्टन या वह झिल्ली है, जो शिशु को आवृत किए रहती है । जन्म के समय में जो जरायु-वेष्टित दशा में उत्पन्न होते हैं, वे जरायुज कहलाते हैं। भैंस, गाय आदि । रसज-छाछ, वही आदि रसों में उत्पन्न होने वाले सूक्ष्म शरीरी जीव । संस्वे बज-पसीने से उत्पन्न होने वाले खटमल, यूका (जू) आदि जीव। औपपातिक-उपपात का अर्थ है-अचानक घटित होने वाली घटना । देवता और नारकीय जीव एक मुहूर्त के भीतर ही पूर्ण युवा बन जाते हैं, इसीलिए इन्हें औपपातिक--अकस्मात् उत्पन्न होने वाले कहा जाता है । (आचारांग वृत्ति, पत्र ६२) Jain Education international Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०] १. शस्त्रपरिज्ञा ३०५६. सूत्र ११६-१२२ भवा औपपातिका देवा नारकाश्च । ११. एस संसारेति पवृच्छति । सं०- एष संसार इति प्रोच्यते । यह जसलोक संसार कहलाता है ।" भाष्यम् ११९ - सकायजीवा एव संसरणशीला गतिमन्तश्च । अतः तत्सम्बन्धी लोकः संसार इत्युच्यते । १२०. मंदस्स अवियाणओ । सं० - मन्दस्य अविजानतः । यह संसार मंद और अज्ञानी को भी विदित होता है । भाष्यम् १२० - मन्दः – अल्पमतियुक्तः । मन्दमतियुक्तत्वात् स सूक्ष्मसत्यानभिज्ञः । तथापि तस्य मन्दमतेरजानिनश्चापि एष त्रसात्मकसंसारः सुविदितो भवति स्थावरजीवकाय वज्जीवत्वस्य तद्वेदनायाश्च कश्चित् सन्देहः समुत्पद्यते । । नात्र भाष्यम् १२१ परिनिर्वाणं सुखम् । 'सातंति वा सुहंति वा अभयंति वा परिणिव्वाणंति वा एगट्ठा' इति चूर्णि: । ' अत्र इष्टपदं अध्याहार्यम् । प्रत्येकस्य प्राणिनः परिनिर्वाणमिष्टमस्ति इतिनिध्याय-- संप्रेक्ष्य, प्रतिलेख्यसम्यन् विमृश्य, हिसातो विरमणं कार्यम् । १२१. साइल पडिलेहिता पत्तेयं परिणिव्यानं । सं० निष्यय प्रतिलेख्य प्रत्येक परिनिर्वाणम् । प्रत्येक प्राणी को सुख इष्ट है, यह देखकर और जानकर तुम हिंसा से विरत होओ। ६६ उपपात से जन्म लेने वाले देव और नारक औपपातिक कहलाते हैं । सकाय के जीव ही संसरणशील और गतिमान् होते हैं, इसलिए उनसे संबंधित लोक को संसार कहा जाता है । १. लोक को संसार कहने के दो हेतु हो सकते हैं- परि भ्रमणात्मक जगत्, गत्यात्मक जगत् । इस अष्टविध योनिसंग्रह में जो परिभ्रमण करते हैं, इसलिए वह संसार है। मंद का अर्थ है - अल्पबुद्धि वाला। मंद मतिवाला व्यक्ति सूक्ष्म सत्य से अजान होता है । फिर भी यह त्रसात्मक संसार मंदमति और अज्ञानी को भी सुविदित होता है । स्थावर जीवकाय की तरह इसके जीवत्व और वेदना के विषय में कोई संदेह उत्पन्न नहीं होता । परिनिर्वाण का अर्थ है - सुख । चूर्णिकार के अनुसार सात, सुख, अभय और परिनिर्वाण – ये एकार्थक हैं । १२२. सव्वेसि पाणणं सव्वेसि भूयाणं सव्वेसि जीवाणं सव्र्व्वेस सत्ताणं अस्सायं अपरिणिव्वाणं महत्भयं दुक्खं ति बेमि । सं० सर्वेषां प्राणानां सर्वेषां भूतानां सर्वेषां जीवानां सर्वेषां सत्त्वानां असतं अपरिनिर्वाणं महाभयं दुःखं इति ब्रवीमि । सब प्राणी, भूत, जीव और सत्यों के लिए अपरिनिर्वाण (अशांति) अप्रिय, महाभयंकर और दुःख है ऐसा मैं कहता है। यहां 'इष्ट' पद अध्याहार्य है। प्रत्येक प्राणी को परिनिर्वाण इष्ट होता है, यह देखकर और सम्यग् विचार कर हिंसा से विरत होना चाहिए। भाष्यम् १२२ – सर्व प्राणभूतजीवसत्त्वानामपरिसब प्राण, भूत, जीव और सत्वों को अपरिनिर्वाण - अशांति निर्वाणमनिष्टमस्तीति निध्याय-संप्रेक्ष्य, हिंसातो विर- इष्ट नहीं होती, यह देखकर हिंसा से विरत होना चाहिए । मणं कार्यम् । , असा, अपरिनिर्वाण, महाभयं दुःखं इति एकार्यका साक्षात् सूत्र एवं निर्दिष्टाः । असात, अपरिनिर्वाण, महाभय और दु:ख-ये एकार्थक हैं। सूत्र में इनका स्पष्ट निर्देश है । इस योनि-संग्रह में उत्पन्न जीव हो गतिमान् होते है, अतः वह संसार है। २. आचारांग चूणि, पृष्ठ ३६ । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० आचारांगभाष्यम् प्राण-आन-प्राण लेता है, इसलिए प्राण कहलाता है। भूत-था, है और होगा, इसलिए भूत कहलाता है। प्राणः-यस्माद् अनिति प्राणिति तेन प्राण इत्युच्यते । भूतः- यस्माद् भूतः भवति भविष्यति च तस्माद् भूत इत्युच्यते । जीवः--यस्मात् जीवत्वमायुष्कञ्च कर्मोपजीवति तस्मात् जीव इत्युच्यते। ___ सत्त्वः-सत्त्वं-सत्ता। यस्मात शूभाशुभैः कर्मभिः सत्त्वमस्ति यस्य, तस्मात् सत्त्व इत्युच्यते।' जीव-जो जीवत्व और आयुष्यकर्म का उपजीवी है, वह जीव कहलाता है। सत्व-सत्व का अर्थ है-सत्ता । आत्मा की शुभ-अशुभ कर्म से दैहिक अथवा वैभाविक सत्ता निर्मित होती है, इसलिए वह सत्त्व कहलाता है। १२३. तसंति पाणा पदिसोदिसासु य । सं०-त्रस्यन्ति प्राणाः प्रदिशादिशासु च । दुःख से अभिभूत प्राणी दिशाओं और विदिशाओं में सब ओर से भयभीत रहते हैं। भाष्यम् १२३ --अस्ति येषु जीवेषु आगतिगतिविज्ञानं जिन जीवों में आगति-गति-आने-जाने का ज्ञान है, वे त्रस हैं। ते त्रसाः। तथा ये त्रस्यन्ति, उद्विजन्ति, संकुचन्ति, और जो संत्रस्त होते हैं, उद्विग्न होते हैं, संकुचित होते हैं, डरते हैं तथा बिभ्यति च, एतास् त्रासाद्यवस्था इतस्तत: पलायनं त्रास आदि अवस्थाओं में जो इधर-उधर पलायन करते हैं, यह भी कुर्वन्ति, एतदपि त्रसजीवानां लक्षणम् ।' त्रसजीवों का एक लक्षण है। प्रस्तुत पुत्रस्य ऐदंपर्यमिदं... त्रसा: प्राणा दिशासु अनु- प्रस्तुत सूत्र का तात्पर्य यह है कि त्रस प्राणी दिशाओं और दिशासु च गतिं कुर्वन्ति तथा सर्वाभ्यो दिशाभ्योऽनु- विदिशाओं में गति करते हैं तथा सब दिशाओं और विदिशाओं में भयदिशाभ्यश्च भयभीता भवन्ति । चर्णावस्मिन् प्रसंगे भीत होते हैं। चूर्णिकार ने इस प्रसंग में रेशम के कीड़े का दृष्टांत कोशीकारकीट निदर्शनमुपढौकितमस्ति । यथा कोशी- प्रस्तुत किया है। जैसे-रेशम का कीड़ा चारों ओर से भयभीत होकर कारः सर्वतो भीत एव कोशनिर्माणं करोति। ही कोश का निर्माण करता है। १२४. तत्थ-तत्थ पुडो पास, आउरा परितावेति । सं०-तत्र तत्र पृथक् पश्य, आतुराः परितापयन्ति । तू देख, आतुर मनुष्य स्थान-स्थान पर त्रसकायिक प्राणियों को परिताप दे रहे हैं। १२५. संति पाणा पुढो सिया। सं०-सन्ति प्राणा: पृथक् श्रिताः । प्रसकायिक प्राणी पृथक् पृथक् शरीरों में आश्रित हैं। १२६. लज्जमाणा पुढो पास। सं०-लज्जमानान् पृथक् पश्य । तू देख, प्रत्येक संयमी साधक हिंसा से विरत हो संयम का जीवन जी रहा है। १. अंगसुत्ताणि २, भगवई २।१५ : गोयमा ! जम्हा आणमइ वा, पाणमइ वा, उस्ससइ वा, नीससइ वा तम्हा पाणे त्ति वत्तव्यं सिया। जम्हा भूते भवति भविस्सति य तम्हा भूए त्ति वत्तब्वं सिया। जम्हा जीवे जीवति, जीवत्तं आउयं च कम्म उवजीवति तम्हा जीवे त्ति वत्तव्वं सिया जम्हा सत्ते सुमासुभेहिं कम्मेहि तम्हा सत्ते ति बत्तव्वं सिया। २. दसवेआलियं, ४।सूत्र ९ : जेसि केसिंचि पाणाणं अभिक्कंतं पडिक्कतं, संकुचियं पसारियं रुयं भंतं तसियं पलाइयं आगइगइविन्नाया। Jain Education international Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १. शस्त्रपरिज्ञा, उ० ६. सूत्र १२३-१३४ ७१ १२७. अणगारा मोत्ति एगे पवयमाणा। सं०---अनगाराः स्मः इति एके प्रवदन्तः । और तू देख, कुछ साधु 'हम गृहत्यागी हैं'- यह निरूपित करते हुए भी गहवासी जैसा आचरण करते हैं-त्रसकायिक जीवों की हिंसा करते हैं। भाष्यम् १२४-१२७–एतानि सूत्राणि पूर्ववद् (१५-१८) पूर्ववत् देखें-सूत्र १५-१८ । द्रष्टव्यानि। १२८. जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहि तसकाय-समारंभेणं तसकाय-सत्थं समारंभमाणे अण्णे बणेगरूवे पाणे विहिसति । सं०-यदिदं विरूपरूपैः शस्त्रः त्रसकायसमारम्भेण त्रसकायणस्त्रं समारभमाणः अन्यानप्यनेकरूपान् प्राणान् विहिंसति । वह नाना प्रकार के शस्त्रों से त्रस-सम्बन्धी क्रिया में व्याप्त होकर त्रसकायिक जीवों की हिंसा करता है। वह केवल उन त्रसकायिक जीवों को ही हिंसा नहीं करता, किन्तु नाना प्रकार के अन्य जीवों को भी हिंसा करता है। भाष्यम् १२८-सकायस्य शस्त्राणि विदितान्येव । त्रसकाय के शस्त्र ज्ञात ही हैं। १२६. तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया । सं0-तत्र खलु भगवता परिज्ञा प्रवेदिता । इस विषय में भगवान् ने परिज्ञा (विवेक) का निरूपण किया है। १३०. इमस्स चेव जीवियस्स, परिवंदण-माणण-पूयणाए, जाई-मरण-मोयणाए, दुक्खपडिघायहेउ । सं०-अस्मै चैव जीविताय, परिवन्दन-मानन-पूजनाय, जाति-मरण-मोचनाय, दुःखप्रतिघातहेतुम् । वर्तमान जीवन के लिए, प्रशंसा, सम्मान और पूजा के लिए, जन्म, मरण और मोचन के लिए, दुःख-प्रतिकार के लिए१३१. से सयमेव तसकाय-सत्थं समारंभति, अण्णेहिं वा तसकाय-सत्थं समारंभावेइ, अण्णे वा तसकाय-सत्थं समारंभमाणे समणुजाणइ। सं०-स स्वयमेव त्रसकायशस्त्रं समारभते, अन्यैः वा त्रसकायशस्त्र समारम्भयति, अन्यान् वा त्रसकायशस्त्रं समारभमाणान समनुजानीते। वह स्वयं प्रसकायिक जीवों को हिंसा करता है, दूसरों से करवाता है तथा करने वाले दूसरों का अनुमोदन करता है। १३२. तं से अहियाए, तं से अबोहीए। सं०-तत् तस्य अहिताय, तत् तस्य अबोध्यै । वह हिंसा उसके अहित के लिए होती है। वह हिंसा उसकी अबोधि के लिए होती है। १३३. से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाए। सं०- स तत् संबुध्यमानः, आदानीयं समुत्थाय । वह उस हिंसा के परिणाम को समीचीन दृष्टि से समझकर संयम की साधना में सावधान हो जाता है । १३४. सोच्चा भगवओ अणगाराणं वा अतिए इहमेगेसि णाय भवइ-एस खलु गथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णरए। सं०--श्रुत्वा भगवतः अनगाराणां वा अन्तिके इहैकेषां ज्ञातं भवति-एषा खलु ग्रंथः, एषा खलु मोहः, एषा खलु मारः, एषा खलु नरकः । भगवान् या गृहत्यागी मुनियों के समीप सुनकर कुछ मनुष्यों को यह ज्ञात हो जाता है-यह (त्रसकायिक जीवों की हिंसा) प्रन्थि है, यह मोह है, यह मृत्यु है, यह नरक है। Jain Education international Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ आचारांगभाष्यम् १३५. इच्चत्यं गढिए लोए। सं०-इत्यत्र ग्रथितो लोकः । फिर भी सुख-सुविधा में मूच्छित मनुष्य त्रसकायिक जीवनिकाय की हिंसा करता है। १३६. जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहिं तसकाय-समारंभेणं तसकाय-सत्थं समारंभमाणे अण्णे वणेगरूवे पाणे विहिंसति । सं०-यदिदं विरूपरूपः शस्त्रैः त्रसकायसमारम्भेण त्रसकायशस्त्रं समारभमाण : अन्यानप्यनेकरूपान् प्राणान् विहिंसति । वह नाना प्रकार के शस्त्रों से त्रस-सम्बन्धी क्रिया में व्याप्त होकर त्रसकायिक जीवों की हिंसा करता है। वह केवल उन त्रसकायिक जीवों की ही हिंसा नहीं करता, किन्तु नाना प्रकार के अन्य जीवों की भी हिंसा करता है। १३७. से बेमि-अप्पेगे अधमन्भे, अप्पेगे अंधमच्छे । सं०-तद ब्रवीमि अप्येकः अन्धमाभिन्द्याद्, अप्येकः अन्धमाच्छिन्द्यात् । मैं कहता हूं-कुछ त्रसकायिक जीव जन्मना इन्द्रियविकल-अंध, बधिर, मूक, पंगु और अवयवहीन मनुष्य की भांति अव्यक्त चेतना बाले होते हैं । शस्त्र से छेदन-भेदन करने पर जैसे जन्मना इन्द्रिय-विकल मनुष्य को कष्टानुभूति होती है, वैसे ही कुछ त्रसकायिक जीवों को होती है। १३८. अप्पेगे पायमन्भे, अप्पेगे पायमच्छे । सं०-अप्येकः पादमाभिन्द्याद, अप्येकः पादमाच्छिन्द्यात् । इन्द्रिय-सम्पान मनुष्य के पैर आदि (द्रष्टव्यं १।२९) का शस्त्र से छेदन-भेदन करने पर उसे अक्षम कष्टानुभूति होती है, वैसे ही कुछ त्रसकायिक जीवों को होती है। १३६. अप्पेगे संपमारए, अप्पेगे उहवए। सं०-अप्येकः संप्रमारयेद, अप्येकः उद्भवेत् । मनुष्य को मूच्छित करने या उसका प्राण-वियोजन करने पर उसे कष्टानुभूति होती है, वैसे ही कुछ त्रसकायिक जीवों को होती भाष्यम् १२९-१३९-एतानि सूत्राणि पूर्ववद् (२०-३०) द्रष्टव्यानि । पूर्ववत देखें-सूत्र २०-३० । १४०. से बेमि-अप्पेगे अच्चाए वहंति, अप्पेगे अजिणाए वहंति, अप्पेगे मंसाए वहंति, अप्पेगे सोणियाए वहंति, अप्पेगे हिययाए वहंति, अप्पेगे पित्ताए वहंति, अप्पेगे वसाए वहंति, अप्पेगे पिच्छाए वहंति, अप्पेगे पुच्छाए वहंति, अप्पेगे बालाए वहंति, अप्पेगे सिंगाए वहंति, अप्पेगे विसाणाए वहंति, अप्पेगे दंताए वहंति, अप्पेगे दाढाए वहंति, अप्पेगे नहाए वहंति, अप्पेगे ण्हारुणोए वहंति, अप्पेगे अट्ठीए वहंति, अप्पेगे अद्धिमिजाए वहंति, अप्पेगे अट्ठाए वहंति, अप्पेगे अणट्टाए वहंति, अप्पेगे हिसिसु मेत्ति वा वहंति, अप्पेगे हिंसंति मेत्ति वा वहंति, अप्पेगे हिंसिस्संति मेत्ति वा वहंति । सं०-तद् ब्रवीमि अप्येके अर्चाय घ्नन्ति, अप्येके अजिनाय घ्नन्ति, अप्येके मांसाय घ्नन्ति, अप्येके शोणिताय घ्नन्ति, अप्येके हृदयाय घ्नन्ति, अप्येके पित्ताय घ्नन्ति, अप्येके वसाय घ्नन्ति, अप्येके पिच्छाय घ्नन्ति, अप्येके पुच्छाय घ्नन्ति, अप्येके बालाय घ्नन्ति, अप्येके शृङ्गाय घ्नन्ति, अप्येके विषाणाय घ्नन्ति, अप्येके दंताय घ्नन्ति, अप्येके दाढाय घ्नन्ति, अप्येके नखाय घ्नन्ति, अप्येके स्नायवे घ्नन्ति, अप्येके अस्थने घ्नन्ति, अप्येके अस्थिमज्जाय घ्नन्ति, अप्येके अर्थाय घ्नन्ति, अप्येके अनर्थाय घ्नन्ति, अप्येके अहिंसिषुः मे इति वा घ्नन्ति, अप्येके हिंसन्ति मे इति वा घ्नन्ति, अप्येके हिंसिष्यन्ति मे इति वा घ्नन्ति । मैं कहता हूं-कुछ व्यक्ति शरीर के लिए प्राणियों का वध करते हैं। कुछ लोग चर्म, मांस, रक्त, हृदय, पित्त, चर्बी, पंख, पूंछ, केश, सींग, विषाण (हस्तिदंत), दांत, दाढ, नख, स्नायु, अस्थि और अस्थिमज्जा के लिए प्राणियों का वध करते हैं। कुछ व्यक्ति Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१. शस्त्रपरिज्ञा, उ०६. सूत्र १३५-१४२ ७३ प्रयोजनवश प्राणियों का वध करते हैं। कुछ व्यक्ति बिना प्रयोजन ही प्राणियों का वध करते हैं । कुछ व्यक्ति इन्होंने मेरे स्वजन-वर्ग की हिंसा की थी--यह स्मृति कर प्राणियों का वध करते हैं। कुछ व्यक्ति ये मेरे स्वजन-वर्ग की हिंसा कर रहे हैं—यह सोचकर प्राणियों का वध करते हैं। कुछ व्यक्ति ये मेरी या मेरे स्वजन-वर्ग की हिंसा करेंगे इस सम्भावना से प्राणियों का वध करते हैं। भाष्यम् १४०---प्रस्तुतसूत्रे त्रसकायिकजीववधानां प्रस्तुत सूत्र में त्रसकायिकजीवों के वध के प्रयोजनों का निर्देश प्रयोजनानि निर्दिष्टानि। एतानि समाजे प्रचलित- किया गया है। ये प्रयोजन समाज में प्रचलित तत्कालीन परम्पराओं परम्पराणां सूचकानि सन्ति। के सूचक हैं। अर्चा -शरीरम् । चणौं वत्तौ च कासांचित परम्पराणां अर्चा का अर्थ है-शरीर। चूणि और वृत्ति में कुछेक परंउल्लेखोऽपि लभ्यते-भुक्तविष: हस्तिनं मारयित्वा पराओं का उल्लेख भी मिलता है। हाथी को मार कर यदि उसके तच्छरीरे प्रक्षिप्तो विषमुक्तो भवति। सलक्षणं पुरुषम- मृत-कलेवर में विष खाए हुए व्यक्ति को रखा जाए तो वह व्यक्ति क्षतं व्यापाद्य विद्यामंत्रसाधनानि कुर्वन्ति । केचन बलि- विषमुक्त हो जाता है । कुछ व्यक्ति लक्षण-संपन्न पुरुष को, क्षत-विक्षत निमित्तमजादीन् व्यापादयन्ति । किए बिना, मारकर विद्या, मन्त्र आदि की साधना करते हैं। कुछ लोग बलि के निमित्त बकरे आदि को मारते हैं। अजिनम्-चर्म । सिंहव्याघ्रमृगादीन् एतदर्थ व्यापाद- अजिन का अर्थ है-चर्म । कुछ लोग चर्म के लिए सिंह, बाघ, यन्ति । हिरण आदि को मारते हैं। केचन मांस-शोणित-हृदय-पित्त-वसा-पिच्छ-पुच्छ- कुछ लोग मांस, रक्त, हृदय, पित्त, चर्बी, पांख , पूंछ, केश, बाल-शृङ्ग-विषाण-दन्त-दंष्ट्रा- नख - स्नायु - अस्थि- सींग, विषाण, दांत, दाढ, नख, स्नायु, अस्थि और अस्थिमज्जा आदि अस्थिमज्जा-इत्याद्यवयवानामर्थमनेकजीवान् व्यापाद- अवयवों के लिए अनेक जीवों का वध करते हैं। यन्ति । अत्र विषाणपदेन हस्तिदन्तानां निर्देशः ।। यहां 'विषाण' शब्द हाथी के दांतों के अर्थ में निर्दिष्ट है । केवलं प्रयोजनवशंवदा एक जना हिंसायां न प्रवर्तन्ते, लोग प्रयोजनवश ही हिंसा में प्रवृत्त नहीं होते, किन्तु बिना किन्तु निष्प्रयोजना अपि तत्र प्रवृत्ता दृश्यन्ते । अत एव प्रयोजन भी हिंसा में प्रवृत्त होते हैं। इसीलिए प्रस्तुत सूत्र का यह अंश एष सूत्रांश:-'केचिदर्थाय जीवान घ्नन्ति, केचिच्च है--'कुछ प्रयोजन के लिए जीवों का हनन करते हैं और कुछ बिना प्रयोजनं विनापि ।' प्रयोजन भी।' प्रतिशोधप्रतिकाराशंकापरतन्त्रा हिंसायां प्रवर्तन्ते । प्रतिशोध, प्रतिकार और आशंका के वशीभूत होकर लोग हिंसा एतत्सूचयति तृतीयांशः, यथा में प्रवृत्त होते हैं । यह सूत्र के तीसरे अंश से सूचित होता है, जैसे१. 'अनेन मम कश्चिद सम्बन्धी विघातितः, अतोऽम १. 'इसने मेरे किसी सम्बन्धी को मारा है, इसलिए मैं इसको हनिष्यामि ।' मारूंगा'-यह प्रतिशोध से की जाने वाली हिंसा है। २. 'असौ हिनस्ति, अतोऽसौ मया हन्तव्यः । २. 'यह मेरे स्वजन-वर्ग को मार रहा है, इसलिए मुझे इसको मार डालना चाहिए'--यह प्रतिकार के लिए की जाने वाली हिंसा है। ३. 'असौ जीवितः सन् मां हनिष्यतीत्यसौ मया ३. 'यह जीवित रहा तो मुझे मारेगा, इसलिए मुझे इसको हन्तव्यः।' मार देना चाहिए'-यह इस आशंका से की जाने वाली हिंसा है। १४१. एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिणाया भवति । सं०-अत्र शस्त्रं समारभमाणस्य इत्येते आरम्भा अपरिज्ञाताः भवन्ति । जो त्रसकायिक जीव पर शस्त्र का समारंभ (प्रयोग) करता है, वह इन आरम्भों-तत्सम्बन्धी व तदाश्रित जीव-हिंसा की प्रवृत्तियों से बच नहीं पाता। १४२. एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिणाया भवंति। सं०-अत्र शस्त्र असमारभमाणस्य इत्येते आरम्भाः परिज्ञाताः भवन्ति । जो त्रसकायिक जीव पर शस्त्र का समारंभ नहीं करता, वह इन आरंभों से बच जाता है। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगभाव्यम् १४३ तं परिण्णाय मेहावी व सयं तसकाय सत्यं समारंभेज्जा, जेवणेहि तसकाय-सत्यं समारंभावेज्जा ठेवण्णे तसकायसत्यं समारंभंते समणुजाज्जा । सं० ७४ तं परिज्ञाय मेधावी नैव स्वयं त्रसकायशस्त्रं समारभेत नैवान्यैः सकायशस्त्रं समारम्भयेत् नैवान्यान् सकायशस्त्र समारभमाणान समनुजानीत । यह जानकर मेधावी मनुष्य स्वयं त्रसकायशस्त्र का समारंभ न करे, दूसरों से उसका समारम्भ न करवाए, उसका समारम्भ करने वाले दूसरों का अनुमोदन न करे। १४४. जस्सेते तसकाय सत्य-समारंभा परिण्णाया भवंति से हु मुणी परिष्णाय कम्मे । त्ति बेमि । - सं० – यस्यैते त्रसका यशस्त्रसमारम्भाः परिज्ञाताः भवन्ति, स खलु मुनिः परिज्ञातकर्मा । जिसके यस सम्बन्धी शस्त्र-समारंभ परिजात होते हैं, वही मुनि परिजातकर्मा ( कर्म त्यागी) होता है। ऐसा मैं कहता हूँ। पूर्ववत् देखें -सूत्र ३१-३४ । भाष्यम् १४१-१४४ -- एतानि सूत्राणि पूर्ववद् (३१-३४) ज्ञातव्यानि । १४५. पहू एजस्स दुगंछणाए । सं० --- प्रभुः एजस्य जुगुप्साये । अहिंसक पुरुष वाकाविक जीवों की हिंसा से निवृत्त होने में समर्थ हो जाता है। सत्तमो उद्देसो : सातवां उद्देशक भाष्यम् १४४ - वायुः प्राणिनां प्रवृत्ती सर्वत्र व्याप्तोऽस्ति । अतः सहजमेवेयं जिज्ञासा जाता कि वायुकायजीवानां वधनिवारणं शक्यम् ? एतां जिज्ञासां समाधातुं सूत्रकारः प्रवक्ति एतच्छक्यमस्ति । पुरुषो वायोर्वधनिवारणं कर्तुं प्रभुरस्ति ।" एज:-- एजते इति एज: वायुः । दुगंछणा - जुगुप्सा । जुगुप्सा, संयमः, अकरणं, वर्जना, विवर्तनं, निवृत्तिरित्येकार्थाः । १४६. आकसी अहियं ति ना जहां कहीं प्राणियों की प्रवृत्ति होती है वहां वायु व्याप्त है। इसलिए सहज ही जिज्ञासा हुई कि क्या वायुकाय के जीवों की हिसा का निवारण शक्य है ? इस जिज्ञासा के समाधान में सूत्रकार कहते हैं - यह शक्य है । पुरुष वायु की हिंसा का निवारण करने में समर्थ है । - इति ब्रवीमि । एज एजते का अर्थ है— कम्पित होना । वायु निरंतर प्रकंपित रहती है इसलिए एज का अर्थ है वायु । - जुगुप्सा । जुगुप्सा, संयम, अकरण, एकार्थक हैं। दुगंछणा - इसका अर्थ है सं०. आतङ्कदर्शी अहितमिति ज्ञात्वा । जो पुरुष हिंसा में आतंक देखता है, अहित देखता है, वही उससे निवृत होता है। वर्जना विवर्तन और निवृत्ति · भाव्यम् १४६ - आलम्बनसूत्रमिदम् । आतङ्कदर्शनमहितज्ञानञ्च हिंसा विरमणस्यालम्बने भवतः । आतङ्क:- शारीरं मानसं वा दुःखम् । यो हिंसाकरणे आतंक पश्यति स आतदर्शी सहजमेव हिंसातो विरमति । १. आचारांग चूर्णि पृष्ठ ३८ : 'दुगुंछणा नाम संजमणा अकरणा वज्जणा विउट्टणा णियत्तित्ति वा एगट्ठा ।' यह आलम्बन सूत्र है । आतंकदर्शन और अहित का ज्ञानये दोनों हिंसा विरति के आलम्बन हैं । आतंक का अर्थ है - शारीरिक या मानसिक दुःख । जो हिंसा करने में आतंक देखता है यह आतंकदर्शी सहज ही हिंसा से विरत हो जाता है। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १. शस्त्रपरिज्ञा, उ०६-७. सूत्र १४३-१४७ ७५ हिंसाकर्मणि प्रतीयमानं हितमन्ततोऽहितं भवति, हिंसा की प्रवृत्ति में प्रतीत होने वाला हित अंत में अहित ही दुश्चीर्णानि कर्माणि दुश्चीर्णानि फलानि भवन्ति, इति होता है। बुरे आचरण से उपाजित कर्मों का बुरा फल होता है। अहितबोधे सति सहजं भवति हिंसाविरमणम् । इस अहित का बोध होने पर हिंसा से सहज ही विरति हो जाती है । १४७. जे अज्झत्थं जाणइ, से बहिया जाणइ । जे बहिया जाणइ, से अज्झत्थं जाणइ। सं०-यः अध्यात्म जानाति, स बहिर्जानाति । यः बहिर्जानाति, स अध्यात्म जानाति । जो अध्यात्म को जानता है, वह बाह्य को जानता है । जो बाह्य को जानता है, वह अध्यात्म को जानता है।' भाष्यम् १४७---इदमप्यालम्बनसूत्रम्। अध्यात्म- यह भी आलम्बन सूत्र है। विभिन्न संदर्भो में 'अध्यात्म' पद पदस्य सन्दर्भगता अनेके अर्थाः जायन्ते के अनेक अर्थ होते हैं१. आत्मानमधिकृत्य प्रवृत्तं अध्यात्मम् । १. अन्तरात्मा में होने वाली प्रवृत्ति अध्यात्म है । २. मनसः परवति चैतन्यं अध्यात्मम् । २. मन से परे का चैतन्य अध्यात्म है। ३. कायवाङ मनसां भेदेऽपि यत् चेतनायाः सादृश्य ३. शरीर, वाणी और मन की भिन्नता होने पर भी चेतना की तद् अध्यात्मम् । जो सदृशता है, वह है अध्यात्म । ४. संवेदनं अध्यात्मम् । ४. संवेदन अध्यात्म है। ५. वीतरागचेतना अध्यात्मम् । ५. वीतरागचेतना अध्यात्म है । अत्र अध्यात्मपदस्यार्थं : प्रियाप्रिययोः संवेदनं विद्यते। प्रस्तुत प्रसंग में 'अध्यात्म' पद का अर्थ है-प्रिय और अप्रिय यः अध्यात्म जानाति स बाह्य जानाति--स्वात्माति- का संवेदन । जो अध्यात्म को जानता है, वह बाह्य को जानता हैरिक्तान शेषसर्वप्राणिनो जानाति । तात्पर्यमिदं-यथा अपनी आत्मा के अतिरिक्त, अपने आपके अतिरिक्त, शेष सब प्राणियों स्वात्मनः प्रियाप्रियपरिस्थिती सुखदुःखानुभूतिः जायते को जानता है। तात्पर्य यह है-जैसे स्वयं को प्रिय और अप्रिय तथा बाह्यजीवजगतोऽपि । परिस्थिति में सुख-दुःख की अनुभूति होती है वैसे ही बाह्य जीव जगत् को भी सुख-दुःख की अनुभूति होती है। गतप्रत्यागतशैल्या संदृब्धमिदं सूत्रम्-यो बाह्य यह सूत्र गत-प्रत्यागत शैली में रचा गया है जो बाह्य को जानाति सोऽध्यात्म जानाति । जानता है वह अध्यात्म को जानता है। १. प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या अनेक नयों से की जा सकती है, संवेदन परोक्ष है । निमित्तों के मिलने पर जो अपने जैसे में घटित होता है, वही दूसरों में घटित होता है (१) वस्तु का आन्तरिक स्वरूप सूक्ष्म और बाह्य स्वरूप और जो दूसरों में घटित होता है, वही अपने में स्थूल होता है । स्यूल को जानना सरल और सूक्ष्म घटित होता है। को जानना कठिन होता है। सूक्ष्म को जानने वाला (३) ज्ञान सूर्य की भांति स्व-पर-प्रकाशी है। जैसे सूर्य स्थूल को स्पष्टतया जान लेता है। स्थूल को जानने स्वयं प्रकाशित है और दूसरों को प्रकाशित करता वाला सूक्ष्म को उसके माध्यम से ही जान पाता है। है, वैसे ही ज्ञान स्वयं प्रकाशित है तथा दूसरे तत्वों आत्मा आन्तरिक तत्त्व है। उसका चेतन-स्वरूप को भी प्रकाशित करता है। ज्ञान का कार्य है ज्ञेय स्पष्टतया ज्ञात नहीं होता। किन्तु शरीर में उसकी को जानना। ज्ञान स्वप्रकाशी है, इसलिए वह जो क्रिया प्रकट होती है, वह स्थूल है, बाह्य है । अध्यात्म को जानता है-अपने आपको जानता है। उसके माध्यम से जाना जा सकता है कि अचेतन वह परप्रकाशी भी है, इसलिए बाह्य को जानता शरीर चेतना की क्रिया नहीं कर सकता। यह जो है-अपनी आत्मा से भिन्न समग्र ज्ञेय को जानता चेतना की क्रिया प्रकट हो रही है, वह इसके भीतर है। बाह्य जगत् और अन्तर्जगत् को जानने वाला अवस्थित चेतन तत्त्व की क्रिया है। जान एक ही है। इसीलिए सूत्रकार ने कहा है जो (२) व्यक्ति को सुख-दुःख का संवेबन प्रत्यक्ष होता है, अध्यात्म को जानता है, वह बाह्य को जानता है इसलिए सुख-दुःख स्वसंवेदन प्रत्यक्ष है। दूसरे के और जो बाह्य को जानता है, वह अध्यात्म को सुख-दुःख का संवेदन स्वसंवेदन के आधार पर जाना जानता है। जा सकता है। इसलिए दूसरों के सुख-दुःख का Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगभाष्यम १४८. एयं तुलमण्णेसि । सं०-एतां तुला अन्विष्य । इस तुला का अन्वेषण कर । है। भाष्यम् १४८-एतां पूर्वसूत्रप्रतिपादितां तुलामन्वेषय। पूर्वसूत्र में प्रतिपादित इस तुला का अन्वेषण कर---जैसे यथा मम दुःखं प्रियं नास्ति तथाऽन्येषामपि सर्वेषां मुझे दुःख प्रिय नहीं है वैसे अन्य सभी जीवों को भी दुःख प्रिय नहीं जीवानां दुःखं प्रियं नास्ति, इत्यात्मतुलाबोधोऽपि है। यह आत्मतुला का अवबोध भी हिंसा-विरति का मालम्बन बनता हिंसाविरतेरालम्बनं भवति । १४९. इह संतिगया दविया, णावखंति वीजिउं।' सं०-इह शान्तिगताः द्रव्याः नावकांक्षन्ति वीजितुम् । इस निर्ग्रन्थ-शासन में दीक्षित मुनि शांत और संयम के योग्य होते हैं, इसलिए वे बीजन-हवा लेने की इच्छा नहीं करते। भाष्यम् १४९-वीजनस्य निदर्शनपूर्वकं वायुकायिक- सूत्रकार वीजन के निदर्शन से वायुकायिक जीवों की हिंसा के जीवानां हिंसायाः प्रसंगं तन्निवारणञ्च प्रतिपादयति सूत्र- प्रसंग और उसके निवारण को प्रतिपादित करते हैं। जिन शासन में कारः । इह-जिनशासने प्रवजिता मुनयः वीजितुं नेच्छ- प्रव्रजित मुनि वीजन (पंखे से हवा लेने) की इच्छा नहीं करते । उसके न्ति । तस्य हेतुद्वयम्-ते भवन्ति शान्ति प्राप्ता द्रव्याश्च। दो हेतु हैं-दे शान्ति को प्राप्त और द्रव्य-संयम के योग्य होते हैं। शान्ति:-कषायोपशमः । शान्ति प्राप्ताः-शांति- शान्ति का अर्थ है-कषाय का उपशमन । शांति को प्राप्त गताः । मुनि शान्तिगत कहलाते हैं। द्रव्याः-योग्याः संयमस्य । रागद्वेषमुक्ता देहासक्ते- द्रव्य का अर्थ है-संयम के योग्य । रागद्वेष से मुक्त अथवा मक्ता वा। अथवा द्रविताः करुणान्तिःकरणाः। देहासक्ति से मुक्त। अथवा जिनका अन्तःकरण करुणा से भीगा हुआ है, एतादशा निदाघेऽपि शान्तिमनुभवन्ति, अतस्ते नोत्सहन्ते वे द्रवित या द्रव्य कहलाते हैं। इस प्रकार के मुनि गर्मी में भी शान्ति वायुकायिकजीवानां प्राणव्यपरोपणं कृत्वा शान्तिम- का अनुभव करते हैं। इसलिए वे (वीजन मादि से) वायुकायिक वाप्तुम् । जीवों की हिंसा कर शान्ति प्राप्त करने के लिए उत्साहित नहीं होते। १५०. लज्जमाणा पुढो पास । सं०-सज्जमानान पृथक् पश्य । तू देख, प्रत्येक संयमी साधक हिंसा से विरत हो संयम का जीवन जी रहा है। १५१. अणगारा मोत्ति एगे पवयमाणा। सं0-अनगारा: स्म इति एके प्रवदन्तः । और तू देख, कुछ साधक 'हम गृहत्यागी हैं'—यह निरूपित करते हुए भी गृहवासी जैसा आचरण करते हैं--वायुकायिक जीवों की हिंसा करते है। भाष्यम् १५०-१५१-पूर्ववत् १७-१८ सूत्रे द्रष्टव्ये। पूर्ववत् देखें-सूत्र १७-१८। १५२. जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहि वाउकम्म-समारंभेणं वाउ-सत्थं समारंभमाणे अण्णे वणेगरूवे पाणे विहिंसति । १. अन्वेषय इत्यर्थः। की समानता । (सूत्र १४८) २. अहिंसा के तीन आलम्बन है जैसे अपने को सुख प्रिय और दुःख अप्रिय है, वैसे (१) आतंक-दर्शन-हिंसा से होने वाले आतंक का ही दूसरों को सुख प्रिय और दुःख अप्रिय है। जैसे दर्शन ' (सूत्र १४६) दूसरों को सुख प्रिय और दुःख अप्रिय है, वैसे ही (२) अहित-बोध-हिंसा से होने वाले अहित का बोध । (सूत्र १४७) अपने को सुख प्रिय और दुःख अप्रिय है। (३) आत्म-तुला--सब जीवों में सुख-दुःख के अनुभव ३. तुलना-दसवेआलियं, ६।३७ । Jain Education international Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १ शस्त्रपरिज्ञा, उ० ७. १. वायुमुत्पादयितारो चामर पत्र - चेलकर्णादयः । सं० -- यदिदं विरूपरूपैः शस्त्रः वायुकर्मसमारम्भेण वायुशस्त्रं समारभमाणः अन्यानप्यनेकरूपान् प्राणान् विहिंसति । वह नाना प्रकार के शस्त्रों से वायु सम्बन्धी क्रिया में व्यापृत होकर वायुकायिक जीवों की हिंसा करता है। वह केवल उन वायुकायिक जीवों की ही हिंसा नहीं करता, किन्तु नाना प्रकार के अन्य जीवों की भी हिंसा करता है । भाष्यम् १५२ – निर्युक्ता विमानि वायुकायशस्त्राणि नियुक्ति में वायुकाय के ये शस्त्र प्रतिपादित हैं प्रतिपादितानि सूत्र १४-१५५ २. अभिधारणा - प्रस्विन्नो वातागमनमार्गे साऽभिधारणा । ३. चन्दनोशीरादीनां गन्धाः । ४. अग्निः - तस्य ज्वाला प्रतापश्च । ५. स्वकायशस्त्रम - प्रतिपक्षवातः गीत उष्णो वा । पञ्चापि स्थावरकायाः परिणता अपरिणता अपि भवन्तीति स्थानांगे निर्दिष्टमस्ति । तत्र पञ्चविधः अचित्तवायुरपि प्रतिपादितोस्ति' १. कान्तःपादादिना समुत्थितो वायु आक्रान्तः । २. मातः दूत्यादिना संप्रेरितो वायुः ध्मातः । ३. पीडितः जलार्द्रवस्त्रादीनां निष्पीडनेन व्यजन तालवृन्त-सूर्य यद् बहिरवतिष्ठते समुत्थितो वायुः पीडितः । गतः । ४. शरीरानुगतः उद्गारोच्छ्वासादि शरीरानु५. सम्मूमिः व्यजनादिजन्यः । निशीयभाष्ये चूर्णी च वायुकायस्य अन्योन्य शस्त्रत्वं प्रतिपादितमस्ति । वृहत्कल्पभाष्ये क्षेत्रकालापेक्षया वायोः सचित्ताचित्तत्वं विवृतमस्ति । इत्यं शस्त्रस्य सचित्तापित्तयोश्च विषये यह व्याख्यातमस्ति तच्च साध्यवसायमव सातव्यम् । - १५३. तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया । सं० – तत्र खलु भगवता परिज्ञा प्रवेदिता । इस विषय में भगवान ने परिक्षा (विवेक) का निरूपण किया है। १५४. इमस्स चैव जीवियस्स, परिवंदण माणण-पूषणाए, जाई- मरण-मोवणाए, दुक्खपडिघायहेडं । [सं०] अस्यैव जीविताय परिवन्दन-मानन-पूजनाय जाति-मरण-मोचनाय दुःखप्रतिघात हेतुम् । वर्तमान जीवन के लिए, प्रशंसा, सम्मान और पूजा के लिए, जन्म, मरण और मोचन के लिए दुःख-प्रतिकार के लिए १. आचारांग नियुक्ति, गाया १७० : १. वायु को उत्पन्न करने वाले व्यजन - पंखा, तालवृन्तताड़ का पंखा, खाज, चामर, पत्र तथा वस्त्र का छोर आदि । २. अभिधारणा - पसीने से लथपथ व्यक्ति का हवा के आगमन के मार्ग पर बैठना या खड़े रहना । ३. चन्दन, खस आदि गंधद्रव्यों की सुगंध । ४. अग्नि उसकी ज्वाला तथा गर्मी । ५. स्वकायशस्त्र - ठंडा या गर्म प्रतिपक्ष-वायु । स्थानांग के अनुसार पांचों स्थावर जीवनिकाय परिणत और अपरिचत दोनों प्रकार के होते हैं। उसी बागम में अचित वायु के पांच प्रकार प्रतिपादित हैं- १. आक्रान्त - पैरों को पीट-पीट कर चलने से उत्पन्न वायु । २. ध्मात धौंकनी भादि से उत्पन्न वायु | ३. पीडित – गीले कपड़ों के निचोड़ने आदि से उत्पन्न वायु । विणे व तालव सुप्यसियपत्त वेलकरणे व अभिधारणा य बाहिं गंधग्गी वाउ सत्थाई ॥ १, ठाणं २०१३३ १३७। २. ३. वही, ठाणं ५।१८३ | पंचविधा अचित्ता वाउकाइया ४. शरीरात डकार, उच्छ्वास आदि । ५. संमूच्छिम -- पंखा झलने आदि से उत्पन्न वायु । निशीथ भाष्य तथा चूर्णि में एक वायु दूसरी वायु का शस्त्र है ऐसा प्रतिपादन है। कल्पभाग्य में क्षेत्र और काल की अपेक्षा से पति अति वायु का विवेचन प्राप्त होता है। इस प्रकार शस्त्र के विषय में तथा सचित्त, अति के विषय में बहुत विवेचन हुआ है। उसकी जानकारी धैर्य और प्रयत्न साध्य है । ७७ १५५. से सयमेव वाउ-सत्थं समारंभति, अण्णेहि वा वाउ-सत्थं समारंभावेति, अण्णे वा वाउ-सत्थं समारंभंते समणुजाणइ । पण्णत्ता, तं जहा- अक्कंते, घंते, पीलिए, सरीराणुगते, संमुद्दिमे । ४. निशीथ भाष्य चूर्णि भाग १, पृष्ठ ८५, ८६ । ५. बृहत्कल्पभाष्य, गाथा ९७३ ९८० । · Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगभाष्यम सं०--स स्वयमेव बायुशस्त्रं समारभते, अन्यैः वा वायुशस्त्रं समारम्भयति, अन्यान् वा वायुशस्त्रं समारभमाणान् समनुजानीते। कोई साधक स्वयं वायुकायिक जीवों की हिंसा करता है, दूसरों से करवाता है या करने वाले दूसरों का अनुमोदन करता है । १५६. तं से अहियाए, तं से अबोहीए। सं०–तत् तस्य अहिताय, तत् तस्य अबोध्य । वह हिंसा उसके अहित के लिए होती है । वह हिंसा उसकी अबोधि के लिए होती है। १५७. से तं संबुज्झमाणे, आयाणीयं समुट्ठाए। सं०-स तत् संबुध्यमानः, आदानीयं समुत्थाय । वह उस हिंसा के परिणाम को समीचीन दृष्टि से समझकर संयम की साधना में सावधान हो जाता है। १५८. सोच्चा भगवओ अणगाराणं वा अंतिए इहमेगेसि णायं भवइ-एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णिरए। सं०-श्रुत्वा भगवतः अनगाराणां वा अन्तिके इहैकेषां ज्ञातं भवति-एषा ख लु ग्रन्थः, एषा खलु मोहः, एषा खलु मार , एषा खलु नरकः । भगवान् या गृहत्यागी मुनियों के समीप सुनकर कुछ मनुष्यों को यह ज्ञात हो जाता है—यह (वायुकायिक जीवों की हिंसा) प्रन्थि है, यह मोह है, यह मृत्यु है, यह नरक है। १५६. इच्चत्थं गढिए लोए। सं०-इत्यत्र ग्रथितः लोकः । फिर भी सुख-सुविधा में मूच्छित मनुष्य वायुकायिक जीव-निकाय की हिंसा करता है। १६०. जमिणं विरूवरूवेहि सत्यहि वाउकम्म-समारंभेणं वाउ-सत्थं समारंभमाणे अण्णे वणेगरूवे पाणे विहिंसति । सं०-यदिदं विरूपरूपः शस्त्रः वायुकर्मसमारम्भेण वायुशस्त्रं समारभमाणः अन्यानप्यनेकरूपान् प्राणान् विहिंसति । वह नाना प्रकार के शस्त्रों से वायु-सम्बन्धी क्रिया में व्याप्त होकर वायुकायिक जीवों की हिंसा करता है। वह केवल उन वायुकायिक जीवों की ही हिंसा नहीं करता, किन्तु नाना प्रकार के अन्य जीवों की भी हिंसा करता है । १६१. से बेमि-अप्पेगे अंधमब्भे, अप्पेगे अंधमच्छे। सं०-तद् ब्रवीमि-अप्येकः अन्धमाभिन्द्याद्, अप्येकः अन्धमाच्छिन्द्यात् । मैं कहता हूं-वायुकायिक जीव जन्मना इन्द्रियविकल-अंध, बधिर, मूक, पंगु और अवयवहीन मनुष्य की भांति अव्यक्त चेतना वाला होता है । शस्त्र से छेदन-भेदन करने पर जैसे जन्मना इन्द्रिय-विकल मनुष्य को कष्टानुभूति होती है, वैसे ही वायुकायिक जीव को होती है। १६२. अप्पेगे पायमन्भे, अप्पेगे पायमच्छे । सं०-अप्येकः पादमाभिन्द्या, अप्येकः पादमाच्छिन्द्यात् । इन्द्रिय-सम्पन्न मनुष्य के पर आदि (द्रष्टव्यं ११२९) का शस्त्र से छेदन-भेदन करने पर उसे अक्षम कष्टानुभूति होती है, वैसे ही वायुकायिक जीव को होती है। १६३. अप्पेगे संपमारए, अप्पेगे उद्दवए। सं०-अयेकः संप्रमारयेद्, अप्येकः उद्भवेत् । मनुष्य को मूच्छित करने या उसका प्राण-वियोजन करने पर उसे कष्टानुभूति होती है, वैसे ही वायुकायिक जीव को होती है। भाष्यम् १५३-१६३-एतानि सूत्राणि पूर्ववद् (२०-३०) पूर्ववत् देखें--सूत्र २०-३० । द्रष्टव्यानि। Jain Education international Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ अ० १. शस्त्रपरिज्ञा, उ० ७. सूत्र १५६-१६६ १६४. से बेमि-संति संपाइमा पाणा, आहच्च संपयंति य । फरिसं च खलु पुट्टा, एगे संघायमावज्जति । जे तत्थ संघायमावज्जंति, ते तत्थ परियावज्जति । जे तत्थ परियावज्जंति, ते तत्थ उद्दायति । सं०. तद् ब्रवीमि-संति संपातिमाः प्राणाः, आहत्य संपतन्ति च । स्पर्श च खलु स्पृष्टाः, एके संघातमापद्यन्ते । ये तत्र संघातमापद्यन्ते, ते तत्र पर्यापद्यन्ते । ये तत्र पर्यापद्यन्ते, ते तत्र अवद्रान्ति । मैं कहता हूं-संपातिम (उड़ने वाले) प्राणी भी होते हैं। वे ऊपर से आकर नीचे गिर जाते हैं। कुछ प्राणी वायु का स्पर्श पाकर संघात को प्राप्त हो जाते हैं । जो प्राणी वायु का स्पर्श पाकर संघात को प्राप्त हो जाते हैं वे उसके स्पर्श से वहां मूच्छित हो जाते हैं । जो उसके स्पर्श से मूच्छित हो जाते हैं वे वहां मर जाते हैं। भाष्यम् १६४-शेष ८५ सूत्रवत्, केवलं अग्निस्थाने शेष ८५ सूत्र की भांति । केवल इतना-सा अन्तर है कि अग्नि के वायोः स्पर्श प्राप्ता इति भावनीयम् । स्थान पर 'वायु का स्पर्श प्राप्त कर' ऐसा जानना चाहिए । १६५. एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिणाया भवंति । सं०--अत्र शस्त्रं समारभमाणस्य इत्येते आरम्भा अपरिज्ञाता भवन्ति । जो वायुकायिक जीव पर शस्त्र का समारंभ (प्रयोग) करता है, वह इन आरम्भों-तत्सम्बन्धी व तदाश्रित जीव-हिंसा की प्रवृत्तियों से बच नहीं पाता है। १६६. एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिणाया भवंति।। सं०-अत्र शस्त्र असमारभमाणस्य इत्येते आरम्भाः परिज्ञाता भवन्ति । जो वायुकायिक जीव पर शस्त्र का समारम्भ नहीं करता, वह इन आरम्भों से मुक्त हो जाता है। १६७. तं परिणाय मेहावी व सयं वाउ-सत्थं समारंभेज्जा, णेवणेहि वाउ-सत्थं समारंभावेज्जा, णेवण्णे वाउ-सत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा । सं०--तं परिज्ञाय मेधावी नैव स्वयं वायुशस्त्रं समारभेत, नवान्यैः वायुशस्त्रं समारम्भयेत्, नैवान्यान् वायुशस्त्रं समारभमाणान् समनुजानीत। यह जानकर मेधावी मनुष्य स्वयं वायुशस्त्र का समारंभ न करे, दूसरों से उसका समारम्भ न करवाए तथा उसका समारम्भ करने वाले दूसरों का अनुमोदन न करे। १६८. जस्सेते वाउ-सत्थ-समारंभा परिण्णाया भवंति, से हु मुणो परिणाय-कम्मे ।-त्ति बेमि । सं०-यस्यैते वायुशस्त्रसमारम्भाः परिज्ञाताः भवन्ति, स खलु मुनिः परिज्ञातकर्मा। - इति ब्रवीमि । जिसके वायु सम्बन्धी कर्म-समारम्भ परिजात होते है, वही मुनि परिजातकर्मा (कर्मत्यागी) होता है। -ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् १६५-१६८ --एतानि सूत्राणि पूर्ववद्(३१-३४) पूर्ववत् देखें -सूत्र ३१-३४ । द्रष्टव्यानि । १६९. एत्थं पि जाणे उवादीयमाणा। सं०–अत्रापि जानीहि उपादीयमानान् । इस प्रसंग में तुम जानो, कुछ साधु इन्द्रिय-विषयों से आक्रान्त होते हैं। भाष्यम् १६९–वायुकायिकहिंसां के कुर्वन्ति ? इति- वायुकाय की हिंसा कौन करते हैं-इस जिज्ञासा के उत्तर में जिज्ञासायां निरूपितमिदं-अस्मिन् विषये त्वं जानीयाः, कहा गया है-इस विषय में तुम यह जानो कि जो इन्द्रिय-विषयों से ये इन्द्रियविषयरुपादीयमानाः-आक्रम्यमाणाः सन्ति आक्रान्त हैं, पराभूत हैं, वे ही वायुकाय की हिंसा में प्रवृत्त होते हैं । वे १. आप्टे, उपादा-to Seize, to attack. Jain Education international Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० आचारांगभाष्यम् त एव वायुकायहिंसायां प्रवर्तन्ते । ते के सन्तीति प्रश्न- कौन हैं ? इस प्रश्न का उत्तर आगे के सूत्रों में प्राप्त हैस्योत्तरं वक्ष्यमाणसूत्रेषु वर्तते१७०. जे आयारे न रमति । सं०-ये आचारे न रमन्ते । जो आचार में रमण नहीं करते । भाष्यम् १७०--आचारः-कर्मसमारम्भपरिज्ञा । ये आचार का अर्थ है-कर्म-समारंभ की परिज्ञा-विवेक । जो आचारे न रमन्ते ते साताकुलमनसः वायुकायिकहिंसां आचार में रमण नहीं करते वे सुविधा के लिए आकुल-व्याकुल व्यक्ति कुर्वन्ति । वायुकायिक जीवों की हिंसा करते हैं। १७१. आरंभमाणा विणयं वयंति । सं०-आरभमाणाः विनयं वदन्ति । जो स्वयं आरंभ करते हुए (दूसरों को) आचार का उपदेश देते है। भाष्यम् १७१--विनयः-आचारोऽनुशासनं वा। ये विनय का अर्थ है आचार अथवा अनुशासन । वायुकायजीवानामारम्भसमारम्भं कुर्वाणा अपि विनयं जो स्वयं वायुकाय के जीवों का आरंभ-समारंभ करते हुए भी वदन्ति इति आश्चर्यम् । ये स्वयं वायुकायिकहिंसां विनय का उपदेश देते हैं, यह आश्चर्य की बात है। जो स्वयं वायुकुर्वन्ति तेषां विनयस्य प्रतिपादनं कथं सार्थकं भवेत् ? कायिक जीवों की हिंसा करते हैं, उनका विनय के विषय का प्रतिपादन कैसे सार्थक हो सकता है ? १७२. छंदोवणीया अज्झोववण्णा । सं०-छन्दोपनीताः अध्युपपन्नाः । जो स्वच्छन्दचारी और विषयासक्त होते है। भाष्यम् १७२-छन्दः-साधारणः अभिषङ्गः। छन्द का अर्थ है-विषयों के प्रति सामान्य आसक्ति । अध्युपपन्नाः--विषयेषु तीव्राभिनिवेशमापन्नाः । अध्युपपन्न का अर्थ है-विषयों में तीव्र आसक्ति रखने वाला। ये छन्दोपनीता अध्युपपन्नाश्च सन्ति ते वायुकायिक- जो स्वच्छन्दचारी तथा विषयों में तीव्र आसक्ति रखते हैं हिंसां कुर्वन्ति। वे वायुकायिक जीवों की हिंसा करते हैं। १७३. आरभसत्ता पकरेंति संगं । सं०-आरम्भसक्ताः प्रकुर्वन्ति सङ्गम् । जो आरम्भ में आसक्त होकर नई-नई आसक्तियों और नये-नये बन्धना को उत्पन्न करते हैं। भाष्यम् १७३--ये आरम्भसक्ताः संग प्रकुर्वन्ति। जो आरंभ में आसक्त होकर संग करते हैं । सङ्गः-रागद्वेषौ बन्धनं वा। संग का अर्थ है-रागद्वेष या बन्धन । 'एत्थं पि जाणे उवादीयमाणा' (सूत्र १६९) इति 'एत्थ पि जाणे उवादीयमाणा' (१६९)- इस सूत्र से प्रस्तुत सूत्र सुत्रात आरभ्य प्रस्तुतसूत्रपर्यन्तं यत् प्रतिपादित तस्य तक जो प्रतिपादित किया गया है, उसका प्रतिपक्ष भी यहां जान लेना प्रतिपक्षोऽप्यत्र भावनीयः, यथा चूणी'-- चाहिए । जैसे चूर्णि में कहा गया है'एत्थवि जाण अणुवाइयमाणा ।' _ 'इस विषय में तुम जानो–जो इन्द्रिय-विषयों से आक्रान्त नहीं होते।' १. आचारांग चूणि, पृष्ठ ४१-४२ । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० १. शस्त्रपरिज्ञा, उ० ७. सूत्र १७०-१७७ 'जे आयारे रमंति ।' 'अणारंभमाणा विणयं वदंति ।' 'पसत्थछंदोवणीता तत्थेव अज्झोववण्णा ।' 'आरंभ असता णो पगति संग ।' १७४. से वसुमं सम्य-समन्नागव-पण्णाने अप्पानेर्ण अकरणिज्जं पावं कम्म । सं० - स वसुमान् सर्वसमन्वागतप्रज्ञानेन आत्मना अकरणीयं पापं कर्म । संयमी के लिए सर्वसमन्वागत प्रज्ञायुक्त आत्मा से पापकर्म अकरणीय है । भाष्यम् १७४ - प्रज्ञानम् - प्रज्ञा । सर्वसमन्वागतमिति सर्वविषयग्राहि सत्यविषयग्राहि वा वसुमान् संयमी तादृशस्व साधकस्य सर्वसमन्वागतप्रज्ञानेन आत्मना पापं कर्म अकरणीयं भवति । यस्मिन् सर्वविषयग्राहिणी सत्वविषयग्राहिणी वा प्रज्ञा उदिता भवति स एव पापं कर्म अकरणीयं मन्यते । १७५ तं णो असि । सं० - तत् न अन्विष्येत् । संयमी उस पापकर्म का अन्वेषण न करे । भाष्यम् १७५ - पूर्वस्मिन् सूत्रे पाप कर्म अकरणीयं' इति निर्दिष्टम् । प्रस्तुतसूत्रे तत् पापं कर्म नान्वेषणीयं इति निर्देशः कृतः । पापकर्मणः अन्वेषणं कर्मविपाक सम्भवं विद्यते । तेन पापकर्मणो विनोदाय प्रयत्नमानेन पुरुषेण भावविशुद्धेः प्रयोगः कर्त्तव्यः । सा भावविशुद्धि: पापकर्मान्वेषणस्य हेतुभूतां कर्मप्रकृति विपाकाक्षमां करिष्यति । 'जो आचार में रमण करते हैं ।' 'जो आरंभ - समारंभ से उपरत होकर विनय का उपदेश देते हैं ।' 'जो प्रशस्त छंद को प्राप्त और उसी में अध्युपपन्न होते हैं ।' 'जो आरंभ में अनासक्त रहते हुए संग नहीं करते ।' १. प्रवृत्ति का मुख्य स्रोत अन्तःकरण है। वह प्रज्ञा से संचासित होता है। उसके नियामक तत्व दो है मोह और निर्मोह मोह से नियंत्रित प्रज्ञा असत्य होती है— धर्म के विपरीत होती है। निर्मोह से नियंत्रित प्रज्ञा सत्य होती है-धर्म के अनुकूल होती है जिसकी प्रज्ञा सत्य होती है, वह शरीर, वाणी और भाव से ऋजु तथा कथनी और 1 ८१ 1 प्रज्ञान का अर्थ है - प्रज्ञा । सर्वसमन्वागत का अर्थ है - सब विषयों को ग्रहण करने वाला अथवा सत्य विषय को ग्रहण करने वाला प्रज्ञान वसुमान् का अर्थ है-संयमी वैसे साधक के लिए सर्वसमन्यागत प्रज्ञावाली आत्मा से पापकर्म करणीय होता है। जिसमें सर्वविषयग्राही या सत्यविषयग्राही प्रता का उदय होता है, वही पापकर्म को अकरणीय मानता है । १७६. तं परिणाय मेहावी शेव सयं छन्नीय निकाय सत्य समारंभेज्जा, जेवणेहि सम्जीव णिकाय सत्यं समारंभावेम्जा, णेवणे जीव-निकाय सत्यं समारंभंते समजानेजा । इससे पूर्व के सूत्र में पापकर्म अकरणीय है' ऐसा निर्दिष्ट है। प्रस्तुत सूत्र में 'उस पापकर्म का अन्वेषण न करे ऐसा निर्देश है। पापकर्म का अन्वेषण कर्म विपाक से संभव होता है। इसलिए जो मनुष्य पापकर्म को दूर करना चाहता है, उसे भावविशुद्धि का प्रयोग करना चाहिए। वह भावविशुद्धि पापकर्म के अन्वेषण में हेतुभूत कर्मप्रकृति के विपाक को अक्षम बना डालती है । सं० तं परिज्ञाय मेघावी मैव स्वयं षड्जीवनिकायाशस्त्रं समारभेत नेवाः षड्जीवनिकायशस्त्रं समारम्भयेनैवान्यान् पजीवनिकाय समारभमाणान् समनुजानीत | 7 यह जानकर मेधावी मनुष्य स्वयं छह जीवनिकायशस्त्र का समारम्भ न करे, दूसरों से उसका समारम्भ न करवाए तथा उसका समारम्भ करने वाले दूसरों का अनुमोदन न करे । १७७. जस्सेते छन्नीवणिकाय सत्य-समारंभा परिण्णाया भवंति से हु मुणी परिष्णाय कम्मे । —त्ति बेमि । करनी में समान होता है। इस प्रकार की सत्यप्रज्ञा से संचालित अन्तःकरण ही हिंसा और विषय से विरत हो सकता है । कोई भी साधक केवल बाह्याचार से हिंसा और विषय से विरत नहीं हो सकता । पूर्ण सत्यप्रज्ञायुक्त अन्तःकरण से ही वह उनसे विरत हो सकता है। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ - सं० यस्ते पजीवनिकायास्त्रसमारम्भाः परिज्ञाताः भवन्ति स खलु मुनिः परिज्ञातकर्मा । इति ब्रवीमि । जिसके यह जीवनिकाय सम्बन्धी शस्त्र समारम्भ परिवात होते हैं, वही मुनि परिजातकर्मा ( कर्म-रागी) होता है। - ऐसा मैं कहता हूं । माध्यम् १७६-१७७ – पूर्ववद् द्रष्टव्ये (३३-३४) सूत्रे । अत्र पजीवनिकाय शस्त्रसमारम्भा इति विशेषः । आचारांगभाष्यम् पूर्व के ३३, ३४ सूत्रों में पृथ्वीकायशस्त्र समारंभ की बात आई है। यहां छह जीवनिकाय का शस्त्र - समारंभ परिज्ञात है। इतनासा यहां अन्तर है । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीअं अज्झयणं लोगविजओ दूसरा अध्ययन लोकविचय [उद्देशक ६ : सूत्र १८६] Jain Education international Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education international Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुखम् प्रस्तुताध्ययनस्य नामास्ति लोकविचयः। चूणि- प्रस्तुत अध्ययन का नाम है-'लोकविचय'। चूर्णिकार ने 'लोक' कारेण 'लोक' पदस्यार्थः कषायलोक इति कृतः ।' 'लोक' पद का अर्थ 'कषायलोक' किया है । 'लोक' पद के अनेक अर्थ होते हैं। पदस्य अनेके अर्था विद्यन्ते । तेन नासंगतोऽयमर्थः। इसलिए चूर्णिकार द्वारा कृत यह अर्थ असंगत नहीं है। प्रस्तुत अध्ययन प्रस्तुताध्ययनस्य अनुशीलनत: लोभविचय' इतिनामापि के अनुशीलन से यह सहज स्फुरित होता है कि इस अध्ययन का नाम सहज स्फूरति । प्रथमाध्ययने अहिंसा प्रतिपादितास्ति। 'लोभविचय' भी हो सकता है । पहले अध्ययन में अहिंसा का प्रतिअस्मिन् अपरिग्रहस्य प्रतिपादनं स्वाभाविकं वर्तते। पादन हुमा है। इस अध्ययन में अपरिग्रह का प्रतिपादन होना स्वाभा'ममायमाणाणं 'परिगिज्म' इति पदाभ्यामपि 'लोभ- विक है । 'ममायमाणाणं' तथा 'परिगिज्म'-इन दो पदों से भी विचय' पदस्य सम्भावनायाः पुष्टिर्जायते । स्थानांगेऽप्यु- 'लोभविचय' पद की संभावना पुष्ट होती है। स्थानांग में भी कहा क्तमस्ति आरम्भपरिग्रहाभ्यां जीवा धर्मश्रवणादिकं न है-आरम्भ और परिग्रह से जीव धर्म-श्रवण आदि को प्राप्त नहीं लभन्ते, अनारम्भापरिग्रहाभ्यां च ते प्राप्नुवन्ति तत्। करते । अनारम्भ और अपरिग्रह से वे उसे उपलब्ध होते हैं। निर्यक्तिकारेण 'विजय' पदं व्याख्यातम् । अस्य नियुक्तिकार ने 'विजय' पद की व्याख्या की है। इस पद का पदस्य 'विचय' इतिरूपमपि संगतमस्ति । विचयस्य 'विचय' रूप भी संगत है। प्राकृत भाषा में "विचय' का 'विजय' 'विजय' इतिरूपं प्राकृते संभवति, यथा-आज्ञाविचयस्य रूप बन जाता है, जैसे-आज्ञाविचय का प्राकृतरूप है 'आणाविजय' 'आणाविजय" इत्यादि। प्रस्तुताध्ययनस्य षडद्देशका आदि । प्रस्तुत अध्ययन के छह उद्देशक हैं। नियुक्तिकार ने उनके वर्तन्ते । नियुक्तिकारेण तेषां विषयनिर्देश: कृतः, विषयों का निर्देश इस प्रकार किया है, जैसेयथा१. स्वजने अभिष्वंगो न कार्यः । १. स्वजन में आसक्ति नहीं करनी चाहिए। २. संयमे अदृढत्वं न कार्यम, विषयकषायादौ च २. संयम में शिथिलता नहीं करनी चाहिए । विषय, कषाय आदि अदृढत्वं कार्यम् । में शिथिलता करनी चाहिए। ३. जात्यादीनां मदो न कार्यः, जात्यादिहीनेन वा ३. जाति आदि का मद नहीं करना चाहिए। जाति आदि से हीन शोको न कार्यः तथा अर्थस्य असारता व्यक्ति को शोक नहीं करना चाहिए तथा अर्थ-धन की प्रतिपत्तव्या। असारता स्वीकार करनी चाहिए। ४. भोगेषु अभिष्वंगो न कार्यः । ४. भोगों में आसक्ति नहीं करनी चाहिए। ५. संयमयात्रा निर्वाहाय कनिश्रया विहर्तव्यम् । ५. संयम-यात्रा के निर्वाह के लिए लोकनिया (गहस्थ के आश्रय) ___ में विहरण करना चाहिए । ६. सर्वत्र ममत्वपरित्यागः कार्यः । ६. सर्वत्र ममत्व का वर्जन करना चाहिए। एतानि सर्वाण्यपि अपरिग्रहस्य विषयवस्तूनि । ये सारे अपरिग्रह के विषय हैं । प्रस्तुताध्ययने परिग्रहस्य विषये महत्त्वपूर्णानि प्रस्तुत अध्ययन में परिग्रह के विषय में महत्त्वपूर्ण सूत्र प्रतिसूत्राणि वर्तन्ते पादित हैं१. आचारांग चूणि, पृष्ठ ४२ : कसायलोगविजयो कायव्यो। ६. अंगसुत्ताणि १, ठाणं, ४१६५ । २. आयारो. २०५७ । ७. आचारांग नियुक्ति, गाथा १७२ : ३. वही, २०५८ । सपणे य अदढत्तं बीयगंमि माणो अ अत्थसारो अ। ४. अंगसुत्ताणि १, ठाणं, २१४१,५२ भोगेसु लोगनिस्साइ लोगे अममिज्जया चेव ॥ ५. आचारांग नियुक्ति, गाथा १७५ : लोगस्स य निक्खेवो, अट्ठविहो छम्बिहो उ विजयस्स । भावे कसायलोगो अहिगारो तस्स विजएणं ॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगभाष्यम् 'जे ममाइय-मति जहाति, से जहाति ममाइयं ।” 'जो परिग्रह की बुद्धि का त्याग करता है, वही परिग्रह को त्याग सकता है।' 'एत्थ तवो वा, दमो वा, णियमो वा दिस्सति ।" 'परिग्रही पुरुष में न तप होता है, न शांति होती है और न नियम ।' 'परिगहाओ अप्पाणं अवसक्केज्जा। 'साधक परिग्रह से अपने आपको दूर रखे।' अस्मिन्नध्ययने 'लोगविपस्सी' इतिपाठः विशेष इस अध्ययन में 'लोगविपस्सी' यह पद विशेष ध्यान आकृष्ट ध्यानमाकर्षति । अनेन पदेन विपश्यनाध्यानस्य प्रक्रिया करता है । इस पद से 'विपश्यना ध्यान' की प्रक्रिया सूचित की गई सूचिता अस्ति । 'आयतचक्नु' इतिपदेन अनिमेष- है। 'आयतचक्खू' इस पद के द्वारा 'अनिमेषप्रेक्षा' अथवा 'नाटक' प्रेक्षायाः त्राटकस्य वा ध्यानविधिनिर्दिष्टः। ध्यान की विधि निर्दिष्ट की गई है। भगवतो महावीरस्य साधनायाः सारमस्ति अप्रमादः। भगवान् महावीर की साधना का सार है-अप्रमाद । इस तस्मिन् विषये अन्तर्वेधी निर्देशोऽस्मिन् लभ्यते विषय का अन्तर्वेधी निर्देश प्रस्तुत अध्ययन में प्राप्त होता है'उदाहु वीरे-अप्पमादो महामोहे।" महावीर ने कहा-'साधक विषय-विकार में प्रमत्त न हो ।' 'अलं कुसलस्स पमाएणं।" 'कुशल प्रमाद न करे।' भगवान् महावीर आत्मकर्तृत्वस्य स्वातन्त्र्यस्य च भगवान् महावीर आत्मकतृत्व और स्वतंत्रता के महान् प्रवक्ता महान प्रवक्ता आसीत । अत एव भगवतो दर्शने पश्यकस्य थे। इसीलिए भगवान् द्वारा निर्दिष्ट दर्शन में पश्यक या द्रष्टा का द्रष्टा विशिष्टं महत्त्वम् । प्रोक्तं भगवता-त्वं पश्य न विशिष्ट महत्व है। भगवान् ने कहा-'तुम स्वयं देखो, केवल मानो केवलं मन्यस्व।" ही मत ।' अध्यात्मसाधनाक्षेत्रे प्रतिपक्षभावनाया: सिद्धान्त: अध्यात्म साधना के क्षेत्र में प्रतिपक्ष भावना का सिद्धांत अस्ति अनुभवभूमिकायां सम्मतः। जैनमनोविज्ञाने सन्ति अनुभव की भूमिका में सम्मत है। जैन मनोविज्ञान के अनुसार मौलिक चतस्रो मौलिक्यो मनोवृत्तयः-क्रोधः, मानः, माया, मनोवृत्तियां चार हैं--क्रोध, मान, माया और लोभ । प्रतिपक्ष भावना लोभश्च । आसां परिष्कार: प्रतिपक्षभावनया कतु के द्वारा इनका परिष्कार सरलता से किया जा सकता है। लोभ की सशकः। लोभः सर्वाधिको जटिलः । न चासौ लाभेन मनोवृत्ति सबसे अधिक जटिल है। यह लाभ से उपशांत नहीं होती। उपशमयितं शक्यः । मनुष्ये यथा लोभस्य मनोवृत्तिस्तथा मनुष्य में जैसे लोभ की मनोवृत्ति है वैसे अलोभ का भाव भी उसमें विद्यमान अलोभस्य भावोऽपि तस्मिन् विद्यमानोऽस्ति । कर्म- है। कर्मसिद्धांत के अनुसार मोहनीय कर्म के औदयिक भाव से लोभ सिद्धान्तानसारेण मोहनीयकर्मणः औदयिकभावसंभवो उत्पन्न होता है और उसके क्षायोपशमिक भाव से अलोभ उत्पन्न होता लोभः, मोहनीयकर्मणः क्षायोपशमिकभावजनितश्च है । प्रत्येक प्राणी में जैसे मोहनीयकर्म का औदयिक भाव होता है, वैसे अलोभः । प्रत्येकस्मिन् प्राणिनि यथा। मोहनीयकर्मणः ही उसमें क्षायोपशमिक भाव भी होता है। प्रमाद की अवस्था में औयिको भावो विद्यते तथा क्षायोपशमिको भावोऽपि क्षायोपशमिक भाव निष्क्रिय होता है और औदयिक भाव सक्रिय । वियते सति प्रमादे क्षायोपशमिको भावो निष्क्रियो अप्रमाद की अवस्था में क्षायोपशमिक भाव सक्रिय होता है और भवति, औदयिकभावश्च सक्रियो भवति । सति अप्रमादे मौदयिक भान निष्क्रिय । आकाश-दर्शन और नक्षत्र-दर्शन के लिए च क्षायोपशमिको भावः सक्रियो भवति, औदयिकभावश्च पानी पर छाए हुए सेवाल को हाथ से हटाना जरूरी होता है । हाथ निष्क्रियो भवति । शैवालं विनेतं हस्ते व्याप्रियमाणं का प्रयत्न बंद होने पर सेवाल पुनः पानी पर एकाकार रूप में छा आकाशदर्शनं नक्षत्रदर्शनं च संभवति । विरते च हस्ते जाता है और आकाश-दर्शन अवरुद्ध हो जाता है। शैवालः एकाकारो भवति, अवरुणद्धि चाकाशदर्शनम् । भगवत: प्रवचनस्य प्रथमो निष्कर्षोस्ति अप्रमादस्य भगवान् महावीर के प्रवचन का पहला निष्कर्ष है-अप्रमाद विकास:, तात्पर्यार्थ क्षायोपशमिकभावस्य प्रयोगः। का विकास, तात्पर्यार्थ में क्षायोपशमिक भाव का प्रयोग। १. आयारो, २।१५६ ॥ २. वही, २०५९। ३. वही, २१११७॥ ४. वही, २२१२५॥ ५. वही, २१९४॥ ६. वही, २२९५ ७. वही, २१९७,९९। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुखम् 'द्वितीयो निष्कर्ष :- स्वात्मगतस्य अलोभस्य अनुभवेन लोभस्य परिष्कारः उन्मूलनञ्च । केन्द्रीय तत्त्वमस्ति - 'अपरिग्रहा प्रस्तुताध्ययनस्य भविष्यामः ।" अस्य संकल्पस्य सुरक्षाये शरीरस्य वस्तुनश्च ममत्वत्यागः अत्र प्रसाधितोऽस्ति ।' आचारांगस्य मुख्पविषयोऽस्ति आचारः तत्रापि मुनेराचार:, सोऽपि सोऽपि निर्वाणसाधनायें प्रतिपादित आचारः । तथापि प्रस्तुताध्ययने अनेकानि जीवनसूत्राणि उपलभ्यन्ते । तानि सन्ति समाजव्यवस्थायें व्यक्तिगत जीवनाय चापि महान्ति उपयोगीनि । इन्द्रियाणां हानौ जरा सम्मुखीना भवतीति सिद्धान्तः अद्यापि सम्मतोऽस्ति । अकृतं करिष्यामीति विकाससूत्रं मन्यन्ते समाजविदः अर्थशास्त्रिणश्च, किन्तु अस्य मन्तव्यस्थ एकiगिता तदानी प्रकटीभवति यदा तद् मन्यमानो जन रोगेण जरसा वा ग्रस्तः मरणासन्नावस्थायां वा असहायो भवति, न क्वचित् त्राणं वा शरणं वा पश्यति । एवं प्रस्तुताध्ययने जीवनस्यापि सत्यानां अनावरणमस्ति जातम् । पुनः पुनरस्मिन् सत्यसिन्धी निमज्जन मेव अति उपायः सत्यमुक्ताया उपलब्धः ।। १. आयारो, २।३७ । २. वही, २।३१ । ३. वही, २।१२७-१३९ । दूसरा निष्कर्ष है - अपने भीतर विद्यमान अलोभ के अनुभव से लोभवृत्ति का परिष्कार और उन्मूलन । प्रस्तुत अध्ययन का केन्द्रीय तत्त्व है- 'हम अपरिग्रही बनेंगे'यह संकल्प । इस संकल्प की सुरक्षा के लिए शरीर और पदार्थ ममत्व का त्याग यहां बतलाया गया है । ८७ आचारांग का मुख्य विषय है-आचार । वह भी मुनि का आचार। वह भी निर्वाण की साधना के लिए प्रतिपादित आचार । फिर भी प्रस्तुत अध्ययन में अनेक जीवन-सूत्र उपलब्ध होते हैं। वे सूत्र समाज व्यवस्था तथा व्यक्तिगत जीवन के लिए भी बहुत उपयोगी हैं। इन्द्रिय-शक्ति की क्षीणता होने पर वार्धक्य सम्मुख हो जाता है— यह सिद्धांत आज भी सम्मत है । 'मैं वह काम करूंगा जो आज तक किसी ने नहीं किया इस सूत्र को समाजमारी तथा अर्थशास्त्री विकास का सूत्र मानते हैं। किंतु इस मत की एकांगिता तब प्रगट होती है जब इस सूत्र को मानने वाला व्यक्ति रोग या बुढापे से ग्रस्त होता है। तथा मरणासन्न अवस्था में असहाय होता है, वहीं त्राण या शरण नहीं देखता । ४. वही, २०४५ ५. वही, ३।१५-१७ । इस प्रकार प्रस्तुत अध्ययन में जीवन-सत्यों की भी स्फुट अभिव्यक्ति हुई है। इस सत्य-सिंधु में बार-बार दुबकियां लगाना ही सत्य - मुक्ताओं की प्राप्ति का उपाय है । - स्यम्यनम् । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीअं अज्झयणं : लोगविजओ दूसरा अध्ययन : लोकविचय पढभो उद्देसो : पहला उद्देशक १. जे गुणे से मूलट्ठाणे, जे मूलट्ठाणे से गुणे । सं०-यः गुणः स मूलस्थानं, यन्मूलस्थानं स गुणः । जो विषय है, वह आधार (लोभ) है, जो आधार (लोभ) है, वह विषय है। भाष्यम् १-प्रस्तुताध्ययने लोकस्य-- कषायाङ्ग- प्रस्तुत अध्ययन में लोक-कषाय के अंगभूत लोभ या परिग्रह भूतस्य लोभस्य परिग्रहस्य वा विचयः कर्तव्योऽस्ति। का विचय करणीय है। इन्द्रियों के विषय मुख्यतया लोभ के हेतु हैं। तत्र इन्द्रियविषयाः प्राधान्येन लोभहेतवः । तेनेदं प्रेक्षा- इसलिए इस प्रेक्षा-सूत्र का निर्देश किया गया है-जो गुण है, वह मूलसूत्रं निर्दिष्टम्----यो गुणः स मूलस्थानम् । गुणः- स्थान है। गुण का अर्थ है-इन्द्रिय-विषय । मूलस्थान का अर्थ हैइन्द्रियविषयः । मूलस्थानम्-आधारः ।' इन्द्रियविषया आधार । इन्द्रिय-विषय ही लोभ के उदय के हेतु होते हैं। इसलिए एव लोभोदयस्य हेतवः सन्ति । तेनाभेदोपचारोऽसौ..... अभेदोपचार से कहा गया है-जो गुण है, वह मूलस्थान है, जो मूलयो गुणः स मूलस्थानं, यन्मूलस्थानं स गुणः।' स्थान है, वह गुण है। एवं विषयलोभयोः कार्यकारणभावेनाभेदः इस प्रकार कार्य-कारण भाव के आधार पर विषय भोर लोभ सचितः। विषयपरित्यागेन विना लोभपरित्यागो न का अभेद सूचित किया गया है। विषय का परित्याग किए बिना लोभ सम्भवति इति वस्तुधर्मस्य विचयोऽत्र प्रस्तुतः। का परित्याग संभव नहीं होता, इस वस्तु-धर्म का विचय (विश्लेषण) यहां प्रस्तुत किया गया है। गतप्रत्यागतशैल्या रचितं सूत्रमिदम् । यह सूत्र गतघ्रत्यागतशैली से रचा गया है । २. इति से गुणठी महता परियावेणं वसे पमत्ते-माया मे, पिया मे, भाया मे, भइणी मे, भज्जा मे, पुत्ता मे, धूया मे, सुण्हा मे, सहि-सहण-संगंथ-संथया मे, विवित्तोवगरण-परियटण-भोयण-अच्छायणं मे, इच्चत्थं गढिए लोए-बसे पमत्त। सं०-इति स गुणार्थी महता परितापेन वसति प्रमत्तः-माता मे, पिता मे, भ्राता मे, भगिनी मे, भार्या मे, पुत्रा मे, दुहिता मे, स्नुषा मे, सखिस्वजनसंग्रन्थसंस्तुताः मे, विविक्तोपकरणपरिवर्तनभोजनाच्छादनं मे, इत्यथं ग्रथितः लोकः-वसति प्रमत्तः । इस प्रकार विषयार्थी पुरुष महान् परिताप से प्रमत्त होकर वास करता है। मेरी माता, मेरा पिता, मेरा भाई, मेरी बहिन, मेरी पत्नी, मेरे पुत्र, मेरी पुत्री, मेरी वधू, मेरा मित्र, मेरा स्वजन, मेरे स्वजन का स्वजन, मेरा सहवासी, मेरे प्रचुर उपकरण, परिवर्तन वृद्धि या चक्रवृद्धि), भोजन, वस्त्र--इनमें आसक्त पुरुष प्रमत्त होकर इन परिग्रह-स्थानों में वास करता है। १. आचारांग चूणि, पृष्ठ ४४ : मूलं प्रतिष्ठा आधारो य एगट्ठा। होता है-इष्ट और अनिष्ट । इष्टगुण के प्रति राग और २. (क) गुणमूलस्थानानां अर्थतः एकत्वं प्रतिपादितमस्ति चूणों अनिष्ट-गुण के प्रति द्वेष होता है। इस प्रकार गुणों से -अस्थतो भंगविकल्पा भवंति, 'जे गुणे से मूले, जे कषाय बढता है और कषाय से संसार बढता है-जन्ममूले से गुणे ?' आमं, एवं 'जे गुणे से ठाणे, जे ठाणे से मरण की परंपरा बढती है। इस कारण-कार्य की परम्परा गुणे ?' आमं, अहवा 'जे मूले से ठाणे, जे ठाणे से मूले ?' में गुण संसार का मूल आधार बन जाता है। इसीलिए आमं, अहवा बे गुणेसु वट्टइ से मूले वट्टति, ते चेव विकल्पा, गुण और मूलस्थान (संसार) में एकता आरोपित की गई एवं एतेसिं गुणादीणं वंजणओ नाणत्तं, अस्थओ अनाणतं । (ख) गुण का अर्थ है-इन्द्रिय-विषय । वह दो प्रकार का Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है. आचारांगभाष्यम् भाष्यम् २-इन्द्रियविषयाः लोभोदयं प्रेरयन्ति । इन्द्रियों के विषय लोभ के उदय में प्रेरक बनते हैं। लोभ की लोभस्य विद्यमानतायामेव इन्द्रियविषयेषु प्रियाप्रिय- विद्यमानता में ही इन्द्रिय-विषयों के प्रति प्रिय-अप्रिय भाव उत्पन्न होता भावः सञ्जायते इतिहेतुना स गुणार्थी पुरुषः महता है, इसलिए वह विषयार्थी पुरुष महान् परिताप--भोगाभिलाषा से परितापेन --भोगाभिलाषेण नानाविधेष परिग्रहस्थानेषु प्रमत्त होकर नाना प्रकार के परिग्रह-स्थानों में वास करता है। वसति प्रमत्तो भूत्वा । परितापश्च ममकारजनित इतिवस्तुसत्यं स्पष्टयति 'परिताप ममकार से उत्पन्न होता है'-इस वस्तु-सत्य को सूत्रकार:-मात्रादिषु तथा नानाप्रकारोपकरणादिषु स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं-मनुष्य माता-पिता आदि स्वजनों ममत्वं कुर्वाणस्तेष ग्रथितो लोक: प्रमत्तो भूत्वा नाना- तथा नाना प्रकार के उपकरणों में ममत्व करता हआ उनमें आसक्त विधेषु परिग्रहस्थानेषु वसति । हो जाता है। फिर वह प्रमत्त होकर नाना प्रकार के परिग्रह-स्थानों में वास करता है। सखा -सहजातकं मित्रम् । सखा का अर्थ है--साथ में जन्मा हुआ मित्र । संग्रन्थः-स्वजनस्य स्वजनः । संग्रन्थ का अर्थ है-स्वजन का स्वजन । संस्तुतः-सहवासी। संस्तुत का अर्थ है-सहवासी । परिवर्तनम् -वृद्धिश्चक्रवृद्धिर्वा ।' परिवर्तन का अर्थ है-वृद्धि ब्याज या चक्रवृद्धि--ब्याज पर ब्याज । ३. अहो य राओ य परितप्पमाणे, कालाकाल-समुद्राई, संजोगट्ठो अट्टालोभी, आलुपे सहसक्कारे, विणि विचित्ते, एत्थ सत्थे पुणो-पुणो। सं०-अहनि च रात्री च परितप्यमानः, कालाकालसमुत्थायी, संयोगार्थी अर्थलोभी, आलुम्पः सहसाकारः, विनिविष्टचित्तः, अत्र शस्त्र पुनः पुनः । वह रात-दिन परितप्त रहता है, काल या अकाल में (अर्थार्जन का) प्रयत्न करता है, संयोग का अर्थी होकर अर्थ-लोलुप, चोर या लुटेरा हो जाता है। उसका चित्त परिवार या विषय-सेवन में ही लगा रहता है। वह पुनः पुनः शस्त्र बनता है। भाष्यम् ३---लोभवशंवदः पुरुषः मात्रादिनिमित्तं लोभ के वशीभूत होकर पुरुष माता-पिता आदि स्वजनों के तथा अर्थस्योपार्जनरक्षणादिनिमित्तञ्च अहोरात्रं निमित्त तथा धन के उपार्जन और उसकी रक्षा आदि के निमित्त दिनकायिकवाचिकमानसिकेन परितापेन परितप्यमान- रात कायिक, वाचिक और मानसिक परिताप से संतप्त रहता है। वह स्तिष्ठति । स काले अकाले वा अर्थसंग्रहं प्रति मम्मण- समय-असमय का विवेक किए बिना धन का संग्रह करने के लिए वत प्रवर्तते । स मनोज्ञानामिन्दियविषयाणां राज्यवैभवा- 'मम्मण' सेठ की तरह लगा रहता है। वह मनोज्ञ इन्द्रिय-विषयों तथा दोनाञ्च संयोगमर्थयते । स अर्थलोलपो भत्वा चौर्यादिकं रज्य और वैभव आदि की प्राप्ति के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहता करोति। सहसाकारी-अविमश्यकारी, असमीक्षित- है। वह अर्थलोलुप होकर चोरी आदि करता है। वह सहसाकारी पूर्वापरदोष: महान्तमनर्थ सम्पादयति । तस्य चित्तं अर्थात् बिना सोचे-विचारे काम करने वाला, पहले पीछे होने वाले परिवारे विषये वा विनिविष्टं भवति । एतादृशः पुरुषः दा मादा पसप दोषों की समीक्षा न करने वाला पुरुष महान् अनर्थ को जन्म देता है। पुनः पुनः जीवनिकायानां कृते शस्त्रं-उपघातकारी उसका चित्त परिवार या इन्द्रिय-विषयों में संलग्न रहता है। ऐसा भवति । पुरुष जीवनिकायों के लिए बार-बार शस्त्र बनता है -संहारक बनता ४. अप्पं च खलु आउं इहमेगेसि माणवाणं, तं जहा-सोय-परिणाणेहि परिहायमाणेहि, चक्खु-परिणाणेहि परिहायमाणेहि, घाण-परिणाणेहि परिहायमाणेहिं, रस-परिणाणेहि परिहायमाणेहि, फास-परिणाणेहि १. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ ४९ : परियट्टणं-दुगुणं तिगुणं उपलभ्यते-राजद्रव्याणामन्यद्रव्येणादानं परिवर्तनम् । एवमादी। (घ) आप्टे, चक्रवृद्धिः -Interest upon interest, (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र ९१ : द्विगुणत्रिगुणादिभेदभिन्नम् । Compound interest (ग) कौटिलीयार्थशास्त्रे (२७३६) परिवर्तनस्य एष अर्थ Jain Education international Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० २. लोकविचय, उ० १. सूत्र ३-५ परिहायमाहिं। सं०-अल्पं च खलु आयुः इहैकेषां मानवानां, तद् यथा-श्रोत्रपरिज्ञानैः परिहीयमानः, चक्षुष्परिज्ञानैः परिहीयमानः, घ्राणपरिज्ञानः परिहीयमानः, रसपरिज्ञानैः परिहीयमानः, स्पर्शपरिज्ञानैः परिहीयमानः । इस संसार में कुछ मनुष्यों का आयुष्य अल्प होता है, जैसे-श्रोत्र-परिज्ञान के परिहीन हो जाने पर, चक्षु-परिज्ञान के परिहीन हो जाने पर, घ्राण-परिज्ञान के परिहीन हो जाने पर, रस-परिज्ञान के परिहीन हो जाने पर, स्पर्श-परिज्ञान के परिहीन हो जाने पर (वे अल्प आयु में ही मर जाते हैं)। भाष्यम् ४–केचिन्मनुष्या दीर्घायुषो भवन्ति, कुछ मनुष्य दीर्घायु होते हैं, कुछ अल्पायु । जब हम अल्प केचिच्चाल्पायुषः । यदा वयं अल्पायुष्कदशां विचारयामः आयुष्य की स्थिति पर विचार करते हैं तब परिग्रह-प्रधान प्रयत्नों की तदा परिग्रहप्रधानानां प्रयत्नानां व्यर्थतायाः अनुभवो व्यर्थता का अनुभव होता है । प्रस्तुत सूत्र अल्पायुष्य का विचयसूत्र है । जायते । अल्पायुष्कविचयसूत्रमिदम् । श्रोत्रादीन्द्रियपञ्च- श्रोत्र आदि पांच इन्द्रियों को ग्रहण (ज्ञान) शक्ति जब क्षीण होनी शुरू कस्य परिज्ञानं यदा हीयमानं भवति तदा अकालेऽपि हो जाती है तब अकाल में भी आयुष्य क्षीण हो जाता है। आयुषः क्षयो जायते।। वैज्ञानिका' मन्यन्ते--मस्तिष्कीयकोशिकानां क्षये वैज्ञानिक मानते हैं कि मस्तिष्कीय कोशिकाओं के क्षीण होने जाते मनुष्योम्रियते। इन्द्रियाणां केन्द्रबिन्दवः सन्ति पर मनुष्य मरता है । इन्द्रियों के केन्द्र-बिन्दु पृष्ठ-मस्तिष्क में होते हैं । पृष्ठमस्तिष्के । सूत्रकारस्य तात्पर्यमिदं भवेत् -- इन्द्रियाणां सूत्रकार का तात्पर्य यह होना चाहिए कि इन्द्रियों का प्रज्ञान उनके प्रज्ञानं तेषां केन्द्रबिन्दूनां हीनतायां सत्यां हीनं जायते । केन्द्र-बिंदुओं के क्षीण होने पर क्षीण होता है। उस स्थिति में असमय तस्यामवस्थायां असमयेऽपि मृत्युर्घटते। श्रोत्रादीना- में भी मृत्यु घटित हो जाती है। श्रोत्र आदि इन्द्रियों में लाखों स्ना यु मिन्द्रियाणां लक्षशः स्नायवः सन्ति । तेषामभिघातेन होते हैं । उनके अभिघात से तत्काल मृत्यु हो सकती है। सद्यो मृत्युः सम्भाव्यते। ५. अभिक्कंतं च खलु वयं संपेहाए। सं०-अभिक्रान्तं च खलु वयः संप्रेक्ष्य । अवस्था जरा की ओर जा रही है यह देखकर पुरुष चिन्ताग्रस्त हो जाता है। १. अस्मिन् विषये-'लेबोरेटरी आफ रिएनीमेटोलोजी' संस्थाना वर्ष की उम्र से घटने लगती है और घ्राण-शक्ति साठ वर्ष ध्यक्षस्य डा० ब्लादिमीरनेगोवस्कीमहोदयस्य सिद्धान्तः की उम्र से। श्रवण-शक्ति का क्षय तो बीस वर्ष की उम्र द्रष्टव्यः। (धर्मयुग, १३ दिसम्बर, १९८१ पृष्ठ १५) से ही प्रारंभ हो जाता है। मनमोहनसरलमहोदयस्य लेखः। बीस वर्ष की उम्र से ही पेट के पाचक रस कम होने २. प्रस्तुतसूत्रेण तुलनीयम् -डा० कार्लसन का कथन है कि लगते हैं और साठ वर्ष की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते उनका यद्यपि गणित से मानव की आयु एक सौ पचास वर्ष आती उत्पादन आधा हो जाता है। पचास वर्ष की उम्र में है, तथापि चिकित्सा विशेषज्ञों को मोटे तौर पर सौ वर्ष 'पेपसिन' और 'ट्रिपसिन' का उत्पादन बहत ही घट जाता की आयु तो स्वीकार कर ही लेनी चाहिए। है। ये चीजें पाचन-शक्ति को ठीक रखने के लिए ___ मानव जीवन के इस काल में उसकी विभिन्न शक्तियां अत्यावश्यक है। वस्तुतः इन्हीं को कमी से हाजमें की भी एक क्रम से क्षीण होती हैं। सबसे पहला लक्षण आंख तकलीफें उम्र के साथ बढ़ती हैं। पर प्रकट होता है। आंख के लेंस के लचीलेपन की कमी मानव मस्तिष्क की ग्रहणशक्ति बाईस वर्ष की उम्र में दसवें वर्ष में ही प्रारंभ हो जाती है और साठ वर्ष की सबसे अधिक होती है और उसके बाद वह घटती है, आयु तक पहुंचते-पहुंचते वह समाप्त हो जाती है। आंख पर अत्यन्त अल्प गति से। चालीस वर्ष की उम्र के बाद की शक्ति के क्षय के दूसरे लक्षण हैं--दृष्टि के प्रसार में घटने का क्रम कुछ बढ़ जाता है। अस्सी वर्ष की उम्र तक कमी, किसी चीज का साफ साफ नजर न आना तथा पहुंचने पर वह फिर उतनी रह जाती है जितनी की बारह हल्के प्रकाश में दिखलायी न पड़ना। ये लक्षण चालीस वर्ष की उम्र में थी। ('जवानी के बिना यह देह शव है' वर्ष की उम्र में प्रारंभ होते हैं। इसी प्रकार मानव को -रतनलाल जोशी, कादम्बिनी सितंबर १९८५) दूसरी शक्तियां भी कम होती है। स्वाद की तेजी पचास Jain Education international Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९३ आचारांगभाष्यम भाष्यम् ५–वयस्त्रिविधं-प्रथमं मध्यमं पश्चिमञ्च ।' अवस्था तीन प्रकार की होती है-प्रथम, मध्यम और पश्चिमप्रथमं वयः मध्यममभिधावति, मध्यमञ्च पश्चिमम् । अन्तिम । प्रथम अवस्था मध्यम अवस्था की ओर दौड़ती है और मध्यम मध्यमावस्थायामिन्द्रियाणां शक्तेहानिक्रमः प्रारब्धो अवस्था अन्तिम अवस्था की ओर । मध्यम अवस्था में इन्द्रियों की शक्ति भवति' इतिसम्प्रेक्षया अपि ममत्वविसर्जनं प्रति क्षीण होने लगती है। इस तथ्य की अनुप्रेक्षा करने से भी ममत्वदृष्टिरुत्पद्यते । विसर्जन की दृष्टि उत्पन्न होती है । अभिक्रान्तं वयः-तृतीयं वयः। अभिक्रान्त वय का अर्थ है-तीसरी अवस्था । ६. तओ से एगया मृढभावं जणयंति। सं०-ततः तस्य एकदा मूढभावं जनयन्ति । उसके पश्चात् एकदा--जीवन के उत्तरार्द्ध में इन्द्रियां मूढता उत्पन्न कर देती हैं। भाष्यम् ६.-ततः एकदा-मध्यमावस्थायाःप्रवर्धमाने उसके बाद मध्यम अवस्था के उत्तरार्द्ध में या पश्चिम अवस्था चरणे पश्चिमावस्थायां वा मनुष्यस्य इन्द्रियाणि मूढभावं (अंतिम अवस्था) में मनुष्य की इन्द्रियां मूढभाव को पैदा करती हैं, जनयन्ति, यथा-मनुष्यो न शृणोति उच्चैर्वा शृणोति । जैसे—मनुष्य सुनता नहीं है या ऊंचा सुनता है। इसी प्रकार शेष एवं शेषेन्द्रियविषयेऽपि वक्तव्यता। अस्य वैकल्पिकोऽर्थः- इन्द्रियों की शक्ति भी क्षीण हो जाती है। इसका वैकल्पिक अर्थ यह यथा यथा इन्द्रियाणि हीयमानानि भवन्ति, तथा तथा है—जैसे-जैसे इन्द्रियों की शक्ति क्षीण होती है, वैसे-वैसे पुरुष उन परुषः तदविषयेष आसक्तो भवति । एवं वृद्धत्वे प्रायो इन्द्रिय-विषयों के प्रति अधिक आसक्त होता जाता है। बुढ़ापे में प्रायः जनानां स्वभावः मूर्छामाप्नोति । लोगों का स्वभाव मूर्छाग्रस्त हो जाता है, अत्यधिक आसक्त बन जाता ७. जेहिं वा सद्धि संवसति ते वा णं एगया णियगा तं पुदिव परिवयंति, सो वा ते णियगे पच्छा परिवएज्जा। सं०-यः वा सार्द्ध संवसति ते वा एकदा निजकाः तं पूर्व परिवदन्ति, स वा तान् निजकान् पश्चात् परिवदेत् । वह जिनके साथ रहता है, वे आत्मीय जन एकदा उसके तिरस्कार की पहल करते हैं। बाद में वह भी उनका तिरस्कार करने लग जाता है। भाष्यम् ६ --इदानीं अशरणानुप्रेक्षासम्बन्धी नि विचय- प्रस्तुत प्रकरण में अशरण अनुप्रेक्षा संबंधी विचय-सूत्र कहे सूत्राणि । पुरुष: यैः सह ममत्वबन्धं करोति, तेष्वपि जा रहे हैं। पुरुष जिनके साथ ममत्व-बंधन करता है, उनमें भी अनेक बहवः स्वार्थपरायणा भवन्ति । यैः सह संवासोऽस्ति, व्यक्ति स्वार्थ-परायण होते हैं। वह जिनके साथ रहता है, वे निजी तेऽपि निजका जना एकदेति वृद्धावस्थायां, पूर्वमिति व्यक्ति भी वृद्धावस्था में अथवा अपना स्वार्थ-सिद्ध न होने पर पहले स्वार्थासिद्धौ सत्यां तं परिवदन्ति परिभवन्तीत्यर्थः। उसका तिरस्कार करते हैं। अथवा अपना तिरस्कार होने पर, बाद में अथवा पश्चादिति स्वपरिभवानन्तरं सोऽपि तान् वह भी उन आत्मीय लोगों का तिरस्कार करता है। यह पारस्परिक निजकान् जनान् परिभवेत् । एषः पारस्परिक: परि- तिरस्कार भी ममत्व-विसर्जन का आलम्बन-सूत्र बनता है। भवोऽपि ममत्व विसर्जनस्य आलम्बनसूत्रं भवति । ८. नालं ते तव ताणाए वा, सरणाए वा । तुम पि तेसि नालं ताणाए वा, सरणाए वा । १. द्रष्टव्यम्---आयारो ८।१५ भाष्यं टिप्पणं च । २. सामान्यतः मनुष्य की आयु सौ वर्ष की होती है। वह बस दशाओं में विभक्त है। चौथी दशा (४० वर्ष) तक शरीर की आभा और बल पूर्ण विकसित रहते हैं। उसके बाद उनकी हानि शुरू हो जाती है। पचास वर्ष की अवस्था में चक्षु तथा अन्य इन्द्रियों की शक्ति भी क्षीण होने लग जाती है। चूणि में इसका स्पष्ट उल्लेख है-बरिससयायुगस्स पुरिसस्स आयुगं तिधा करेति, ताओ पुण दस बसाओ, एक्केको वओ साहिया तिन्नि दसा, खणे खणे बट्टमाणस्स छायाबलपमाणातिविसेसा भवंति जाव चउत्थी दसा, तेण परं परिहाणी, भणियं च - 'पंचासगस्स चक्खं हायती मज्झिमं वयं । अभिक्कंतं सपेहाए, ततो से एति मूढतं ॥' तओ पढमवयाओ अतीतो मज्झिमस्स एगदेसे पंचमीदसाए वट्टमाणस्स इंदियाणि परिहायति । (आचारांग चूणि, पृष्ठ ५१) Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ०२. लोकविचय, उ०१. सूत्र ६-११ सं०-नालं ते तव त्राणाय वा, शरणाय वा । त्वमपि तेषां नालं त्राणाय वा, शरणाय वा । हे पुरुष ! वे स्वजन तुम्हें त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं हैं । तुम भी उन्हें त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं हो। भाष्यम् -केचिज्जना वृद्धमपि पुरुषं न परिवदन्ति, कुछ लोग बूढे व्यक्ति का भी तिरस्कार नहीं करते, फिर भी वे तथापि ते जरारोगादिकष्टेभ्यो मृत्योर्वा तं संरक्षितुं बुढापा, रोग आदि कष्टों से या मृत्यु से उसकी रक्षा करने में असमर्थ न क्षमन्ते इत्यालम्बनं प्रस्तुते' सूत्रकार:-'नालं ते तव होते हैं। सूत्रकार इस आलम्बन को प्रस्तुत कर रहे हैं-वे स्वजन त्राणाय वा शरणाय वा । त्वमपि तेषां नालं त्राणाय वा तुम्हें त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं हैं। तुम भी उन्हें त्राण या शरणाय वा।' शरण देने में समर्थ नहीं हो। ६. से ण हस्साए, ण किड्डाए, ण रतीए, ण विभूसाए । सं०-स न हास्याय, न क्रीडाय, न रत्यै, न विभूषायै । वह वृद्ध मनुष्य न हास्य-विनोद के योग्य, न क्रीड़ा के योग्य, न रति-सेवन के योग्य और न शृंगार के योग्य रहता है। भाष्यम् ९-वार्द्धक्यदशाया अनुचिन्तनमपि ममत्व- बुढापे की स्थिति का अनुचितन भी ममत्व-विच्छेद का आलंबन विच्छेदस्य आलम्बनं भवति- वृद्धः पुरुषः न हसितुं बनता है-वृद्ध पुरुष न हंस सकता है, न कूदफांद, तैराकी और दौड़ शक्नोति, न लवनप्लवनधावना दिक्रीडां कर्तुं आदि क्रीडाएं कर सकता है, न वह विषय का आस्वाद लेने के योग्य शक्नोति, न विषयरतेरपि योग्यो भवति, न च विभूषा- रहता है और न ही उसके लिए विभूषा करना उचित होता है । करणमपि तस्य उचितं भवति । १०. इच्चेवं समुट्ठिए अहोविहाराए । सं०-इत्येवं समुत्थितः महोविहाराय । इस प्रकार वृद्धावस्था में होने वाली दशा को जानकर पुरुष अहोविहार-संयम के लिए समुद्यत होता है। भाष्यम् १०-साधारणमनुष्यस्य सहजाया मनोवृत्तेः इस अध्ययन के प्रथम तीन सूत्रों में जनसाधारण की सहज निरूपणं आद्यसूत्रत्रये कृतम् । तदनन्तरं निरूपितानि मनोवृत्ति का निरूपण किया गया है। उसके बाद विचय-सूत्र निरूपित विचयसूत्राणि । तेषामालम्बनेन संजाते मनोवृत्तेः परि- हुए हैं । उनके आलम्बन से मनोवृत्ति का परिवर्तन होने पर कोई पुरुष वर्तने कश्चित् पुरुषः अहोविहाराय समुत्थितो भवति । अहोविहार के लिए समुद्यत होता है। अहोविहारः-विहारः यात्रा। विषयपरिग्रहादि- अहोविहार-विहार का अर्थ है-यात्रा। विषय, परिग्रह बन्धनबद्धानां जीवनयात्रा सर्वप्रतीतास्ति, किन्तु विषय- आदि के बंधनों से बंधे हुए प्राणियों की जीवन-यात्रा सर्व प्रतीत है । परिग्रहादेः बन्धनं छित्त्वा ये जीवनयात्रायां प्रस्थिता किंतु जो व्यक्ति विषय, परिग्रह आदि के बंधन को तोड़कर जीवनभवन्ति तेषां विहारः साधारणजनानामाश्चर्यकारी। यात्रा में प्रस्थान करते हैं, उनकी यात्रा साधारण लोगों के लिए अत एव संयम: 'अहोविहारः' इतिपदेन सम्बोधितः । आश्चर्यकारी होती है। इसीलिए संयम को 'अहोविहार' पद से संबोधित किया गया है। ११. अंतरं च खलु इमं संपेहाए-धीरे मुहुत्तमवि णो पमायए। सं०-अन्तरं च खलु इदं संप्रेक्ष्य-धीरः मुहूर्तमपि नो प्रमाद्येत् । इस अन्तरात्मा की संप्रेक्षा कर धीर पुरुष मुहूर्तभर भी प्रमाद न करे । भाष्यम् ११-अन्तरमिति अन्तरात्मा । इमं अन्तरा- अन्तर का अर्थ है-अन्तरात्मा। इस अन्तरात्मा की संप्रेक्षा १. क्रियापदमिदम् । किन्तु अत्र अन्तर्शब्दस्य 'अन्तरात्मा' इत्यर्थः अधिक २. चूणों (पृष्ठ ५४) 'अन्तर' शब्दस्य द्वावयौं दृश्यते-- प्रसजति। आप्टे कृत 'संस्कृत-इंग्लिस-शब्दकोशे' अन्तर१. विरहः, २. छिनम् । शब्दस्य एतद्विषयका अनेकेऽर्था उपलभ्यन्तेवृत्तौ (पत्र ९७) अस्यार्थः कृतोऽस्ति-अवसरः। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ - त्मानं सम्प्रेक्ष्य धीरः मुहूर्तमपि न प्रमाद्येत् — गुणे मूलस्थाने च न प्रवर्तेत अन्तरात्मनः संप्रेक्षा मनुष्यजीवने एव इति चिन्तनं अप्रमादस्यालम्बनं भवति । १२. वयो अच्छे जोवणं व सं० वयः अत्येति यौवनं वा । अवस्था और यौवन बीत रहे हैं। भाष्यम् १२ - वयो यौवनञ्च अत्येति-मृत्युं जरां चाभिधावति । प्राणी प्रतिक्षणं अवीचिमरणेन म्रिय माणोस्ति यौवनमपि प्रतिक्षणं हीयमानं विद्यते सति आयुषि यौवने च धर्माराधना संभवति । जराजीणं शरीरं न तां कर्तुमर्हति । अप्रमादस्यालम्बनमिदम् । / । १३. जीविए इह जे पमता । सं० - जीविते इह ये प्रमत्ताः । जो इस जीवन में प्रमत्त हैं । भाष्यम् १३ इह जीविते ये प्रमत्ता भवन्ति गुणे मूलस्थाने च प्रवर्तन्ते, त एवं हिंसामाचरन्तीति संबध्नाति सूत्रमिदं अग्रिमसूत्रेण । भाष्यम् १४ -- स इति गुणे मूलस्थाने व प्रवृत्तः पुरुषः हन्ता देता भेत्ता लुम्पिता विलुम्पिता उद्घोता उत्त्रास यिता भवति । लुम्पिता -प्रहर्ता । विलुम्पिता - ग्रामादिघातकः । ' उद्योता - प्राणवधकः । १४. से हंता छेत्ता भेत्ता लुंपित्ता विलुंपित्ता उद्देवित्ता उत्तासइत्ता । सं०-सहन्ता देता घेता सुचिता विधिता उहोता उरवासयिता । वह हनन, छेदन, भेदन, प्रहार, ग्रामघात, प्राणवध और उत्त्रास करने वाला होता है । आचारांगभाष्यम् कर धीर पुरुष मुहूर्त भर भी प्रमाद न करे अर्थात् गुण (विषय) और मूलस्थान ( सोध) में प्रवृत्ति न करे। 'अन्तरात्मा की संप्रेक्षा मनुष्य जीवन में ही हो सकती है, यह चिंतन अप्रमाद का थालम्बन बनता है । 'अन्तरं -- Soul, heart, mind, the inmost or secret nature, the Supreme Soul' 'सन्धि' सम्यस्यापि एष एव अर्थ: विभाव्यते (आपारो ३०५१) । अवस्था और यौवन बीत रहे हैं-मृत्यु और बुढ़ापे की तरफ दौड़ रहे हैं । प्राणी प्रतिक्षण भवीचिमरण के द्वारा मर रहा है । यौवन को भी प्रतिक्षण हानि हो रही है। आयुष्य और यौवन होने पर ही धर्म की आराधना हो सकती है। बुढ़ापे से जीर्ण-शीर्ण शरीर धर्माराधना करने में समर्थ नहीं होता। यह अप्रमाद का आलंबन-सूत्र है । इस जीवन में जो प्रमत्त होते हैं अर्थात् गुण और मूलस्थान में प्रवृत्ति करते हैं, वे ही हिंसा का आचरण करते हैं - इस प्रकार यह सूत्र अग्रिम सूत्र से संबद्ध होता है । गुण और मूलस्थान में प्रवृत वह पुरुष हनन, छेदन, भेदन, प्रहार, ग्रामघात, प्रागवध और उत्पास करने वाला होता है। १५. अकडं करिस्सामित्ति मण्णमाणे । सं० - अकृतं करिष्यामीति मन्यमानः । हुए मैं वह करूंगा, जो आज तक किसी ने नहीं किया - यह मानते भाष्यम् १५ प्रस्तुतसूत्रे अर्थार्जनस्य मानसिको प्रस्तुत सूत्र में अर्थार्जन का मानसिक हेतु प्रदर्शित किया गया हेतुरुपदर्शित: - अकृतं करिष्यामीति मन्यमानः पुरुषः है। मैं वह करूंगा जो आज तक किसी ने नहीं किया - ऐसा मानकर १. आचारांग पूर्ण पृष्ठ ५४ पिता सादिहि मारणे पहारे य, लुंपणासद्दो पहारे वट्टति । विलोपो नामातिघातो । लुंपिता का अर्थ है प्रहार करने वाला । विलुंपिता का अर्थ है-ग्रामघात करने वाला । उद्घोता का अर्थ है - प्राणवध करने वाला । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० २. लोकविचय, उ० १. सूत्र १२-१९ महते अर्थार्जनाय प्रवर्तते। मनोवैज्ञानिकभाषायां एषा व्यक्ति विपुल अर्थार्जन के लिए प्रवृत्त होता है। मनोविज्ञान की भाषा अहं-सम्बद्धाभिप्रेरणा वर्तते ।' में यह 'अहं'-सम्बद्ध अभिप्रेरणा है । १६. जेहिं वा सद्धि संवसति ते वा गं एगया णियगा तं पुटिव पोसेंति, सो वा ते नियगे पच्छा पोसेज्जा। सं०-यैः वा सार्द्ध संवसति ते वा एकदा निजकाः तं पूर्वं पोषयन्ति, स वा तान् निजकान् पश्चात् पोषयेत् । वह जिनके साथ रहता है, वे आत्मीयजन एकदा (शैशव या अर्थाभाव में) उसके पोषण की पहल करते हैं। बाद में वह भी उनका पोषण करता है। १७. नालं ते तब ताणाए वा, सरणाए वा । तुमंपि तेसि नालं ताणाए वा, सरणाए वा । सं०-नालं ते तव त्राणाय वा, शरणाय वा । त्वमपि तेषां नालं त्राणाय वा, शरणाय वा। ऐसा होने पर भी हे पुरुष ! वे तुम्हें त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं हैं । तुम भी उन्हें त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं हो। भाष्यम् १६-१७-अशरणानुप्रेक्षाया आलम्बनभूतं सूत्र- अशरण अनुप्रेक्षा के आलंबनभूत दोनों सूत्र पूर्ववत् ७,८ की द्वयं पूर्ववद् द्रष्टव्यम् (७,८)। केवलं अयं विशेष: ... भांति द्रष्टव्य हैं । केवल इतना अन्तर है कि पूर्व अर्थात् शैशव या पूर्वमिति शैशवे विपन्नावस्थायां वा ते निजका: तं विपन्न अवस्था में वे आत्मीयजन उसका पोषण करते हैं । पश्चात् अर्थात् पोषयन्ति, पश्चादिति अर्थप्राप्तौ सत्यां स निजकान अर्थ की प्राप्ति होने पर वह आत्मीयजनों का पोषण करता है। पोषयेत् । १८. उवाइय-सेसेण वा सन्निहि-सन्निचओ कज्जइ, इहमेगेसि असंजयाणं भोयणाए। -सं०-उपादितशेषेण वा सन्निधि-सन्निचयः क्रियते, इहैकेषां असंयतानां भोजनाय । मनुष्य उपभोग के बाद बचे हुए धन से कुछ असंयत व्यक्तियों (पुत्र आदि) के भोजन के लिए सन्निधि और सन्निचय करता है। भाष्यम् १८-ममत्वग्रन्थिबद्धः पुरुषः अर्थमर्जयति, ममत्व की ग्रंथि से बंधा हुमा पुरुष अर्थ का अर्जन करता है स्वयमुपभुङ्क्ते । उपभुक्तशेषेण सन्निधि-सन्निचयं करोति और स्वयं उस अर्थ का उपभोग करता है। उपभोग के बाद बचे हुए एकेषामसंयतानां भोजनाय। अत्र असंयतशब्देन धन से कुछ असंयत व्यक्तियों के भोजन के लिए सन्निधि और सन्निचय पुत्रादयः सन्ति विवक्षिताः । करता है । यहां असंयत शब्द से पुत्र आदि विवक्षित हैं। सन्निधिः --ओदनादीनां शीघ्रविनाशिद्रव्याणां सन्निधि का अर्थ है-ओदन (पके हुए चावल) आदि शीघ्र संग्रहः । विनाशी पदार्थों का संग्रह। सन्निचयः-धान्यघृतादीनां किञ्चित्कालस्थायि- सन्निचय का अर्थ है-अनाज, घृत आदि कुछ समय तक द्रव्याणां संग्रहः । रखी जा सकने वाली वस्तुओं का संग्रह । १६. तओ से एगया रोग-समुप्पाया समुप्पज्जंति । सं०-ततः तस्य एकदा रोगसमुत्पादाः समुत्पद्यन्ते । उसके पश्चात् अर्थ-संचय होने पर भी कदाचित् मनुष्य के शरीर में रोग उत्पन्न हो जाते हैं। भाष्यम् १९-केचित्पुरुषा अर्थमुपार्जयन्ति किन्तु न कुछ पुरुष अर्थ का उपार्जन करते हैं किंतु उसका उपभोग तस्योपभोगं कर्तुं समर्था भवन्ति । तस्य कारणमस्ति करने में समर्थ नहीं होते । उसका कारण है-रोगों की उत्पत्ति । यही रोगाणां समुत्पादः। एतदेव सत्यमस्मिन् सूत्रे प्रति- सत्य इस सूत्र में प्रतिपादित है। पादितमस्ति । २. द्रष्टव्यम्-आयारो २।१०४,१०५। . 9. Self-actualization Motives (maslow, Motiva tion and Personality, Harper, New York, 1954) Jain Education international Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगभाष्यम् २०. जेहिं वा सद्धि संवसति ते वा णं एगया णियगा तं पुब्धि परिहरंति, सो वा ते णियगे पच्छा परिहरेज्जा। सं0-~-यैः वा सार्द्ध संवसति ते वा एकदा निजकाः तं पूर्व परिहरन्ति, स वा तान् निजकान् पश्चात् परिहरेत् । वह जिनके साथ रहता है, वे आत्मीय जन एकदा उसको छोड़ने की पहल करते हैं। बाद में वह भी उन्हें छोड़ देता है। भाष्यम् २०---रोगावस्थायां यैः सार्द्ध संवसति ते रोग की अवस्था में जिनके साथ वह रहता है, वे स्वजन भी स्वजना अपि तं पूर्व परिहरन्ति अथवा सेवाद्यभावे उसको छोड़ने की पहल करते हैं अथवा सेवा आदि के अभाव में ग्लानि ग्लानिपरिगत: स तान् परिहरति । को प्राप्त होकर वह उनको छोड़ देता है। २१. नालं ते तव ताणाए वा, सरणाए वा । तुमंपि तेसि नालं ताणाए वा, सरणाए वा। सं०-नालं ते तव त्राणाय वा, शरणाय वा । त्वमपि तेषां नालं त्राणाय वा, शरणाय वा । हे पुरुष ! वे तुम्हें त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं हैं। तुम भी उन्हें त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं हो। भाष्यम् २१- केचित् स्वजनाः स्नेहवशाद् रोगाभि- कुछ स्वजन रोग से अभिभूत व्यक्ति को भी स्नेहवश नहीं भूतमपि जनं न परित्यजन्ति, तथापि ते तं रोगमुक्तं छोड़ते, फिर भी वे उसको रोग-मुक्त नहीं कर सकते। कत न प्रभवन्ति इत्यालम्बनसूत्रम् इसका आलम्बनसूत्र हैनालं ते तव त्राणाय वा शरणाय वा । वे तुम्हारे त्राण या शरण के लिए समर्थ नहीं हैं। स्वमपि तेषां नालं त्राणाय वा शरणाय वा । तुम भी उनके त्राण या शरण के लिए समर्थ नहीं हो। २२. जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं । सं०-ज्ञात्वा दुःखं प्रत्येकं सातम् । दुःख और सुख व्यक्ति का अपना-अपना होता है, यह जानकर भाष्यम २२-दुःखं सुखञ्च प्रत्येकं भवति । न च दु:ख और सुख अपना-अपना होता है। कोई भी किसी के सुख कश्चित् कस्यचित् सुखं दुःखं वा आदातुं समर्थो भवति या दुःख को बंटाने में समर्थ नहीं होता---यह जानकर तू अपनी --इति ज्ञात्वा आत्मनः अत्राणतां वा अशरणतां वा अत्राणता या अशरणता का अनुभव कर । अनुभव। २३. अणभिक्कंतं च खलु वयं संपेहाए। सं०-अनभिक्रान्तं च खलु वयः संप्रेक्ष्य । अवस्था अतिक्रान्त नहीं हुई है, यह देखकर भाष्यम् २३-विषया: लोभमुद्दीपयन्ति, लोभश्च इंद्रिय-विषय लोभ को उद्दीप्त करते हैं तथा लोभ मनुष्य को मनुष्यं अर्थार्जनं प्रति प्रेरयति पारिवारिकममत्वं प्रति अर्थार्जन और पारिवारिक ममत्व की ओर प्रेरित करता है। अर्थ का च । अजितेऽपि अर्थे प्रवृद्धऽपि च ममत्वे नास्ति त्राणं अर्जन और ममत्व की प्रगाढ़ता होने पर भी कोई त्राण या शरण नहीं होता। वा शरणं वा । तेन 'अहोविहाराय' समुत्थानं कार्यम्।' इसलिए व्यक्ति को 'अहोविहार'-संयम के लिए समुद्यत होना चाहिए। तत्र अनभिक्रान्तं वयो हेतुरिति संप्रेक्षा कार्या। विष्वपि उसे सोचना चाहिए कि संयम-ग्रहण के लिए अभी अवस्था-यौवन और वयस्सु प्रव्रज्याग्रहणमस्ति सम्मतम् । तथापि अनभि- शक्ति अतिक्रांत नहीं हुई है । यद्यपि तीनों अवस्थाओं में प्रव्रज्या का ग्रहण क्रान्ते वयसि-प्रथमे द्वितीये वा वयसि प्रव्रज्याग्रहणं सम्मत है फिर भी अनभिक्रांत अर्थात् प्रथम या द्वितीय अवस्था में सुकरं, इति निर्दिष्टमिहसूत्रे । प्रव्रज्या का ग्रहण सुकर होता है, यह निर्देश इस सूत्र में दिया गया है। अस्यामवस्थायां परिवाद-पोषण-परिहार-सम्बद्धाः इस अवस्था में तिरस्कार, परिवार का पोषण तथा उसे छोड़ने १. द्रष्टव्यम्-२।१० भाष्यम् । २. द्रष्टव्यम् ---२१५ भाष्यम् । ३. आयारो, ८१५: जामा तिण्णि उदाहिया, जेसु इमे आरिया संबुज्ममाणा समुट्ठिया। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०२. लोकविचय, उ०१-२. सूत्र २०-२७ ९७ समस्याः नायान्ति।' तेन अनभिक्रान्तवयसो वैशिष्ट्य- सम्बंधी समस्याएं नहीं आतीं, इसलिए अभिक्रांत वय की अपेक्षा अनमस्ति । भिक्रांत वय की विशिष्टता है। २४. खणं जाणाहि पंडिए! सं०-क्षणं जानीहि पंडित! हे पंडित ! तू क्षण को जान । भाष्यम् २४.---हे पण्डित ! क्षणं जानीहि । अनभि- हे पण्डित ! तू 'क्षण' को जान । अनभिक्रांत अवस्था (प्रथम क्रान्तं वयः अहोविहारस्य क्षणो भवति । इन्द्रिय- और द्वितीय अवस्था) अहोविहार का 'क्षण' होती है। इंद्रियक्षमता क्षमता अपि क्षणः अस्ति । क्षेत्रकालनक्षत्राद्यनुकूलता भी 'क्षण' है । क्षेत्र, काल, नक्षत्र आदि की अनुकूलता और कर्म का कर्मक्षयोपशमोऽपि च क्षणोऽस्ति । त्वं समग्रदृष्ट्या क्षयोपशम भी 'क्षण' है । तू समग्रदृष्टि से 'क्षण' का पर्यालोचन कर। क्षणस्य पर्यालोचनं कुरु। २५. जाव सोय-पण्णाणा अपरिहीणा, जाव णेत्त-पण्णाणा अपरिहीणा, जाव घाण-पण्णाणा अपरिहीणा, जाव जीह पण्णाणा अपरिहीणा, जाव फास-पण्णाणा अपरिहीणा । सं०-यावत् श्रोत्रप्रज्ञानानि अपरिहीनानि, यावत् नेत्रप्रज्ञानानि अपरिहीनानि, यावत् घ्राणप्रज्ञानानि अपरिहीनानि, यावत् जिह्वाप्रज्ञानानि अपरिहीनानि, यावत् स्पर्शप्रज्ञानानि अपरिहीनानि । जब तक श्रोत्र का प्रज्ञान पूर्ण है, जब तक नेत्र का प्रज्ञान पूर्ण है, जब तक घ्राण का प्रज्ञान पूर्ण है, जब तक जिह्वा का प्रज्ञान पूर्ण है, जब तक स्पर्श का प्रज्ञान पूर्ण है२६. इच्चेतेहि विरूवरूवेहिं पण्णाणेहिं अपरिहीणेहिं आयर्से सम्म समणुबासिज्जासि ।-त्ति बेमि । सं.-इत्येतैः विरूपरूपः प्रज्ञानः अपरिहीनः आत्मार्थं सम्यक् समनुवासयेः । -इति ब्रवीमि। इन नानारूप प्रज्ञानों के पूर्ण रहते हुए आत्महित का तू सम्यक् अनुशीलन कर। ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् २५-२६ ---क्षणमेव विशिनष्टि सूत्रकार:--- सूत्रकार क्षण की ही विशेषता बतला रहे हैं-जब तक श्रोत्र, यावत् श्रोत्र-नेत्र-घ्राण-जिह्वा-स्पर्श-प्रज्ञानानि अपरिही- नेत्र, घ्राण, जिह्वा और स्पर्शन-इन पांचों इंद्रियों की ज्ञानशक्ति नानि तावदात्मार्थं सम्यक समनुवासये:-अहोविहारेण क्षीण नहीं हुई है, तब तक आत्मा को सम्यक अनुवासित कर अर्थात् आत्मानं भावयेः। अहोविहार--संयम से अपने आपको भाबित कर । बीओ उद्देसो : दूसरा उद्देशक २७. अरई आउट्टे से मेहावी। सं०-अरतिमावर्तेत स मेधावी । जो अरति का निवर्तन करता है, वह मेधावी होता है। भाष्यम् २७-रति: अरतिश्च सापेक्षौ शब्दौ। य रति और अरति-ये दोनों सापेक्ष शब्द हैं । जो अहोविहारअहोविहारं प्रतिपद्यापि तत्र न रमते स मेधावी न हि संयम को स्वीकार करने के बाद भी उसमें रमण नहीं करता वह १. द्रष्टव्यम-क्रमश: २१७,१६,२० भाष्यम् । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगभाष्यम् भवति । अत एव उपदिशति सूत्रकारः-- य अरति मेधावी नहीं होता। इसीलिए सूत्रकार कहते हैं--जो अरति का आवर्तेत-निवर्तेत, स मेधावी भवति ।' निवर्तन करता है, वह मेधावी होता है। २८. खणंसि मुक्के। सं०-क्षणे मुक्तः । वह क्षणभर में मुक्त हो जाता है । भाष्यम् २८----अरतिनिवर्तनस्य फलमिदम् —अहो- अरति के निवर्तन का यह फल है.-अहोविहार में रमण करने विहारे रममाण: सर्वकामेभ्य: बन्धनेभ्यश्च क्षणमात्रेण वाला साधक भरत चक्रवर्ती की तरह क्षणमात्र में सभी कामनाओं और भरतवन् मुक्तो भवति । बंधनों से मुक्त हो जाता है । २६. अणाणाए पुट्ठा वि एगे णियति । सं०-अनाज्ञायां स्पृष्टाः अपि एके निवर्तन्ते । अनाज्ञा में वर्तमान कुछ साधु कामना से स्पृष्ट होकर वापस घर में भी चले जाते हैं। भाष्यम् २९-आत्मभावः आत्मज्ञानं वा आज्ञा, आज्ञा का अर्थ है आत्मभाव, आत्मज्ञान या अर्हतों का उपदेश । अईतां उपदेशो वा। अनात्मभावः अनाज्ञा । तस्यां अनाज्ञा अर्थात् अनात्मभाव । अनात्मभाव में रमण करने वाले स्वच्छंदवर्तमानाः स्वच्छन्दविहारिण: एके कामनादिस्पृष्टाः विहारी कुछेक मुनि कामनाओं के वशवर्ती होकर पुनः गृहवासी बन निवर्तन्ते-पुनरपि गृहवासिनो भवन्ति । जाते हैं। ३०. मंदा मोहेण पाउडा । सं०-मन्दाः मोहेन प्रावृताः । मन्दमति मनुष्य मोह से अतिशय रूप में आवृत होते हैं। भाष्यम् ३० -पुनर्गहगमनस्य कारणद्वयं निर्दिष्टम प्रस्तुत सूत्र में प्रव्रज्या को छोड़कर पुनः गृहवास में जाने के दो मन्दत्वं मोहप्रावरणञ्च। ये मन्दा भवन्ति, मोहेन- कारण निर्दिष्ट हैं--मति की मंदता और मोह का सघन आवरण । जो प्रावता भवन्ति, ते अहोविहारं प्रतिपद्यापि पुनस्ततो मंद होते हैं और मोह से सघनरूप में आवृत होते हैं वे अहोविहार निवर्तन्ते । बुद्धेः मन्दतायां अपायस्यावबोधो न जायते। (संयम) को स्वीकार करके भी उसे छोड़ देते हैं। बुद्धि की मंदता में तेन मळ द्विगणा भवति । सत्यपि मोहे यदि चिन्तनं अपाय (दोष) का अवबोध नही होता। उससे मूर्छा दुगुनी हो जाती प्रग स्यात तदा मोहोपशान्तिरपि सुकरा भवति । है। मोह के होने पर भी यदि चिंतन उचित हो तो मोह की उपशांति सहजता से की जा सकती है। ३१. अपरिग्गहा भविस्सामो समुट्ठाए, लद्धे कामेहिगाहंति। सं०-- अपरिग्रहाः भविष्यामः समुत्थाय, लब्धान् कामान् अभिगाहन्ते । कुछ पुरष हम अपरिग्रही होंगे---इस संकल्प से प्रवजित हो जाते हैं, फिर प्राप्त कामों में निमग्न हो जाते हैं। १. संयम में रति और असंयम में अरति करने से चैतन्य और आनन्द का विकास होता है। संयम में अरति और असंयम में रति करने से उसका ह्रास होता है, इसलिए साधक को यह निर्देश दिया है कि वह संयम में होने वाली अरति का निवर्तन करे। २. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ ५८ : अणाणा जहा अभि लसिता अहितपबित्ती। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १०२ : आज्ञा-हिताहितप्राप्ति परिहाररूपतया सर्वज्ञोपदेशः, तद् विपर्ययः अनाजा। (ग) आप्टे, आज्ञा-to know, understand, per ceive etc. Jain Education international Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० २. लोकविचय, उ० २. सूत्र २८-३५ भाष्यम् ३१- अहोविहाराय समुत्थानं 'अपरिग्रहा 'हम अपरिग्रही होंगे'-इस संकल्प के साथ व्यक्ति अहोविहार भविष्यामः' इति संकल्पपूर्वकं भवति । किन्तु ये अपरि- --प्रव्रज्या के लिए तत्पर होते हैं, किंतु जो अपरिग्रह व्रत की सिद्धि ग्रहस्य सिद्धि न कुर्वन्ति ते लब्धान् कामान् अभिगाहन्ते नहीं करते, उसके रहस्य को आत्मसात् नहीं करते, वे प्राप्त कामों में -तत्र निमज्जन्ति, न च तेषां तीरे गन्तुं प्रयता भवन्ति । निमग्न हो जाते हैं । वे कामनाओं का पार पाने के लिए प्रयत्न नहीं प्रस्तुतसूत्रे परिग्रहकामयोरेकसूत्रता प्रदर्शिता । करते। प्रस्तुत सूत्र में परिग्रह और कामनाओं की एकसूत्रता पारस्परिकता दिखाई गई है। ३२. अणाणाए मुणिणो पडिलेहंति । सं•-अनाज्ञायां मुनयः प्रतिलिखन्ति । अनाज्ञा में वर्तमान मुनि विषयों की ओर देखते हैं। भाष्यम् ३२-ये मुनयः अनाज्ञायां वर्तन्ते-नात्मनि रमन्ते, न च अर्हतामुपदेशमनुसरन्ति, ते प्रतिलिखन्ति'- कामभोगे चित्तं निवेशयन्ति ।' या वर्तन्ते-नात्मनि मतों के उपदेश का अनुसरण है। २-ये मुनयः अनाजाया प्रतिलिखन्ति'- और नागों में चित्त को स्थापित जो मुनि अनाज्ञा में वर्तन करते हैं, आत्म-रमण नहीं करते और न अहंतों के उपदेश का अनुसरण करते हैं, वे प्रतिलेखन करते ३३. एत्थ मोहे पुणो पुणो सण्णा । सं०---अत्र मोहे पुनः पुनः सन्नाः । उन्हें विषयों के प्रति मोह हो जाता है और वे पुनः पुनः उनके दलदल में निमग्न रहते हैं। भाष्यम् ३३-येषां चित्तं कामभोगे निविष्टं भवति, जिनका चित्त कामभोगों में निविष्ट हो जाता है और जो बारये पुनः पुनः विषयान् स्मरन्ति, तेषां मोहः-विषया- बार विषयों का स्मरण करते हैं, उनमें विषयों के प्रति आसक्ति हो भिष्वङ्गः संजायते। मोहमूढास्ते तत्र सन्नाः-निमग्ना जाती है । वे मोह से मूढ होकर उन विषयों में डूब जाते हैं। भवन्ति। ट भवति, ३४. णो हव्वाए णो पाराए। सं०-नो अर्वाचे नो पाराय । वे न इस तीर पर आ सकते हैं और न उस पार जा सकते हैं। भाष्यम् ३४-हवं-गार्हस्थ्यम्, पारं-संयम इति चूर्णिकार ने 'हव्व' का अर्थ-गार्हस्थ्य और 'पार' का अर्थचणिकारः । तेषां मोहपङ्के निमग्नानां न गार्हस्थ्यं संयम किया है । मोह के दलदल में फंसे हुए उन मनुष्यों में न तो भवति न चानगारत्वम् । ते पंकावसन्नहस्तिवत् नार- गृहस्थता होती है और न अनगारता। वे दलदल में फंसे हुए हाथी की मागन्तुमर्हन्ति न च पारम् । भांति न इस तीर पर आ सकते हैं और न उस पार जा सकते हैं। ३५. विमुक्का ह ते जणा, जे जणा पारगामिणो। सं०-विमुक्ताः खलु ते जनाः, ये जनाः पारगामिनः । वे लोग विमुक्त होते हैं, जो लोग पारगामी होते हैं। भाष्यम् ३५-ये जनाः पारगामिनः सन्ति ते काम- जो लोग पारगामी होते हैं वे कामभोगों से विमुक्त अर्थात् भोगेभ्यो विमुक्ताः-सर्वतः अप्रमत्ताः भवन्ति । सर्वथा अप्रमत्त होते हैं। १. आप्टे, लिख्-to touch. २. आचारांग पूणि, पृष्ठ ५८ : पडिलेहणा कामभोगणिविट्ठचित्तसं। ३. तुलना-ध्यायतो विषयान् पंसः सङ्गस्तेषूपजायते । (गीता २१६२) ४. आधारांग चूणि, पृष्ठ ५९ । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० क्रियमाणं कृतमिति सिद्धान्तयुक्त्या समये समये विमुच्यमानाः विमुक्ता इति निर्दिश्यन्ते । पारम् - संयमः । तस्याराधनपराः पारगामिनः । ३६. लोभं अलोभेण दुगंछमाणे, लद्धे कामे नाभिगाहइ । सं०-लोभ अलोभेन जुगुप्समानः लब्धान् कामान् नाभिगाहते । जो पुरुष अलोभ से लोभ को पराजित कर देता है, वह प्राप्त कामों में निमग्न नहीं होता । माध्यम् १६ धान् कामान् अभिगाहते इति पूर्व ( सू० ३१) उक्तम् लब्धान् कामान् नाभिगाहते' इति कथं सम्भवेत् ? अस्य समाधानं सूत्रकारः करोति यः पुरुषः लोभं अलोभेन प्रतिकुर्वन्नस्ति स लब्धान् कामान् नाभिगाहते। लोभोऽपि चित्तधर्मः भावो वा । अलोभोऽपि वित्तधर्मः । यथा यथा अलोभात्मकश्चित्तधर्मः अभ्यस्तो भवति तथा तथा लोभात्मकश्चित्तधर्मो हीनो भवति । अनेन अभ्यासक्रमेण लोभः अलोभेन अभिभूयते । 1 भाष्यम् २७ गृहादभिनिष्क्रमणकारिणः सर्वे तुल्या नहि भवन्ति तेषु कश्चित् लोभस्य उन्मूलनं कृत्वा अभिनिष्क्रान्तो भवति, स अकर्मा सन् ध्यानस्थः ज्ञान दर्शनावरणकर्ममुक्तो वा जानाति पश्यति, विषयाणां परिग्रहस्य च विपाकान् साक्षात्करोतीति तात्पर्यम् । व्याख्याया अपरो नयः कर्मणः प्रवृत्तेर्वा हेतुरस्ति लोभः । यो लोभ विनीय अभिनिष्कामति स अकर्मा प्रवृत्तिचक्रस्य अपनयनं कृत्वा ज्ञाता द्रष्टा भवति वैभाविक कर्तृत्वं च तनूकरोति । ३८. पडिलेहाए णावकंखति । आचारांगभाष्यम् 'क्रियमाण कृत' इस सिद्धांत की युक्ति से वे साधक प्रतिक्षण विमुच्यमान होने के कारण विमुक्त कहलाते है। पार का अर्थ है - संयम । उसकी आराधना में संलग्न व्यक्ति पारगामी कहलाते हैं । ३७. विणइत्तु लोभं निक्खम्म, एस अकम्मे जाणति- पासति । सं०-- विनीय लोभं निष्क्रम्य, एष अकर्मा जानाति पश्यति । जो लोभ को छोड़कर प्रवजित होता है, वह अकर्मा होकर जानता देखता है। माध्यम् २८ एकः कश्चित् सकर्मा-साकांक्षः सन् अभिनिष्क्रान्तः, स तथाविधक्षयोपशमवशाद् विषयाणां परिग्रहस्य च विपाकप्रतिलेखया- तत्पर्यालोचनया तान् नावकाङ्क्षति । उपलब्ध कामों में निमग्न होता है - ऐसा पहले ( सूत्र ३१ में ) कहा गया है। 'उपलब्ध कामों में निमग्न हो यह कैसे संभव हो सकता है ? सूत्रकार इसका समाधान इस प्रकार करते हैं - जो पुरुष अलोभ के द्वारा लोभ का प्रतिकार करता है, वह उपलब्ध कामों में निमग्न नहीं होता । लोभ भी चित्त का धर्म या भाव है। अलोभ भो चित्त का धर्म है। जैसे-जैसे लोभात्मक चितधर्म का अभ्यास होता है वैसे-वैसे लोभात्मक चित्तधर्म क्षीण होता जाता है। इस अभ्यास-क्रम से लोभ अलोभ के द्वारा पराजित हो जाता है। घर से अभिनिष्क्रमण करने वाले सभी साधक समान नहीं होते उनमें कोई साधक लोभ का उन्मूलन कर अभिनिष्क्रमण करता है । वह अकर्मा अर्थात् ध्यानस्थ अथवा ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मों से मुक्त होकर जानता देखता है। इसका तात्पर्य है कि वह विषय और परिग्रह के विपाकों का साक्षात्कार कर लेता है । सं०- प्रतिलेखया नावकांक्षति । पर्यालोचन के द्वारा कोई सकर्मा साधक विषयों की आकांक्षा नहीं करता । दूसरी दृष्टि से इसकी व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है-कर्म अथवा प्रवृत्ति का हेतु है-सोम जो सोभ को दूर कर अभिनिष्क्रमण करता है, यह 'अकर्मा' व्यक्ति प्रवृत्ति चक्र से मुत होकर ज्ञाता द्रष्टा होता है और वह वैभाविक कर्तुरेव को क्षीण कर देता है। कोई एक व्यक्ति सकर्मा- मन में किसी आकांक्षा को लिए अभिषिकांत होता है, यह मोहनीय कर्म के विशिष्ट क्षयोपशम के कारण विषयों और परिग्रह के विपाक का पर्यालोचन करता है और उनकी आकांक्षा से मुक्त हो जाता है । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० २. लोकविचय, उ० २. सूत्र ३६-४१ १०१ ३६. एस अणगारेत्ति पवुच्चति । सं०- एष अनगार इति प्रोच्यते । वह अनगार कहलाता है। भाष्यम ३९-यः लोभ अलोभेन प्रतिकरोति, विष- जो लोभ को अलोभ से पराभूत करता है और जो विषयो यान् परिग्रहञ्च नाभिलषति, स एष अनगार इत्युच्यते। और परिग्रह की अभिलाषा नहीं करता, वह अनगार कहलाता है। ४०. अहो य राओ य परितप्पमाणे, कालाकालसमझाई, संजोगट्टी अदालोभी, आलुपे सहसक्कारे, विणिविचित्ते, एत्थ सत्थे पुणो-पुणो। सं०-अहनि च रात्रौ च परितप्यमानः, कालाकालसमुत्थायी, संयोगार्थी अर्थलोभी, आलुम्पः सहसाकारः, विनिविष्टचित्तः, अत्र शस्त्रं पुनः पुनः । वह रात-दिन परितप्त रहता है, काल या अकाल में अर्थार्जन का प्रयत्न करता है, संयोग का अर्थी होकर अर्थ-लोलुप, चोर या लुटेरा हो जाता है । उसका चित्त परिवार या विषय-सेवन में ही लगा रहता है। वह पुनः पुनः शस्त्र-संहारक बनता है। भाष्यम् ४०-पूर्वालापके (सूत्र ३) धृतिमत: पुरुषस्य पूर्व आलापक (सूत्र ३) में धृतिमान् पुरुष का निरूपण किया है। निरूपणं कृतम् । प्रस्तुतालापके धृतिरहितस्य पुरुषस्य प्रस्तुन आलापक में धृति-रहित पुरुष का निरूपण किया जा रहा है। निरूपणं क्रियते। धृतिविरहित: पुरुष: लोभं विषयान् धृतिविहीन पुरुष लोभ, विषयों और परिग्रह का परिहार नहीं करता, परिग्रहञ्च न परिहरति, तेन स परितापादिकमनु- इसलिए वह परिताप आदि का अनुभव करता है। भवति । ४१. से आय-बले, से णाइ-बले, से मित्त-बले, से पेच्च-बले, से देव-बले, से राय-बले, से चोर-बले, से अतिहि-बले, से किवण-बले, से समण-बले। सं०-स आत्मबलः, स ज्ञातिबलः, स मित्रबलः, स प्रेत्यबलः, स देवबलः, स राजबलः, स चौरबलः, स अतिथिबलः, स कृपणबलः, स श्रमणबलः । वह शरीरबल, ज्ञातिबल, मित्रबल, पारलौकिकबल, देवबल, राजबल, चोरबल, अतिथिबल, कृपणबल और श्रमणबल से युक्त बनना चाहता है। भाष्यम् ४१ -मनुष्यः जीवनयात्रार्थमनेकेषां बलानां मनुष्य अपनी जीवन-यात्रा के लिए अनेक प्रकार के बलों का संग्रहं करोति । संग्रह करता है। ___ आत्मबलः--आत्मन:-शरीरस्य बलं अस्ति यस्य आत्मबल-आत्मा का अर्थ है-शरीर । जो शरीर बल से स आत्मबलः । लोभाविलः पुरुषः भोगार्थं आत्मन:- संपन्न है वह आत्मबल होता है। लोभ से कलुषित पुरुष भोगों के लिए शरीरस्य वृद्धये मद्यं मांसञ्च सेवते। शरीर को पुष्ट करने के प्रयोजन से मद्य और मांस का सेवन करता है । जातिबलः मित्रबलश्च --स्वजने मित्रे च बलवति अहं ज्ञातिबल, मित्रबल-'स्वजनों और मित्रों के बलवान होने पर बलवान भविष्यामि इति चिन्तया स ज्ञातिबलं, मित्र- मैं बलवान होऊंगा'-इस चिंतन से वह ज्ञातिबल और मित्रबल को बलञ्च अभिलषति । अभिलाषा करता है। प्रेत्यबल: देवबलश्च-परलोकार्थं देवप्रसन्नतार्थञ्च प्रेत्यबल, देवबल-परलोक के लिए और देवों की प्रसन्नता के पशुबलिं करोति । लिए वह पशुबलि करता है। राजबल:-आजीविकायै जयाय वा राजानं सेवते । राजबल-आजीविका या विजय के लिए राजा की सेवा करता है। चौरबल:-चौरभागं प्राप्स्यामीति चौरानुपचरति। चोरबल-चोरी का हिस्सा प्राप्त होगा, इस दृष्टि से चोरों का सहयोग करता है। Jain Education international Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ अतिथिबलः कृपणबलः श्रमणबलश्च-धनयशोधर्मार्थं अतिथि'-कृपण -श्रमणेभ्यः दानं ददाति । आचारांगभाष्यम् अतिथि बल) (धन, यश और धर्म के लिए क्रमशः अतिथि, कृपण बल प्रमण बल कृपण और श्रमणों को दान देता है। ४२. इच्चेतेहिं विरूवरूवेहिं कज्जेहिं दंड-समायाणं । सं०-इत्येतैः विरूपरूपः कार्यैः दण्डसमादानम् । इन नानाविध कार्यों के लिए वह दंड-हिंसा का प्रयोग करता है। भाष्यम् ४२–इत्येतैः पूर्वसूत्रोक्तैः नानाविधैः पूर्व सूत्र में बतलाए गए नाना प्रकार के प्रयोजनों से मनुष्य प्रयोजनैः दण्डसमादानं क्रियते मनुष्येण । दण्ड का समादान--हिंसा का प्रयोग करता है। दण्डो घातो मारणमित्येकार्थाः । दण्ड, घात, मारण-ये एकार्थक शब्द हैं। ४३. सपेहाए भया कज्जति । सं०-स्वप्रेक्षया भयात् क्रियते। कोई व्यक्ति अपने चितन से और कोई भय से हिंसा का प्रयोग करता है। ४४. पाव-मोक्खोत्ति मण्णमाणे । सं०-पापमोक्षः इति मन्यमानः । कोई यज्ञ, बलि आदि से पाप को मुक्ति मानता हुआ हिंसा का प्रयोग करता है। ४५. अदुवा आसंसाए। सं०--अथवा आशंसया। अथवा कोई अप्राप्त को पाने की अभिलाषा से हिंसा का प्रयोग करता है। भाष्यम् ४३-४५-बलाथ दण्डसमादानं क्रियते इति बल-प्राप्ति के लिए हिंसा का प्रयोग किया जाता है, यह प्रयोजनमादिष्टम्। बलप्राप्तेः हेतुचतुष्टयमिदानी प्रयोजन बताया जा चुका है। अब बल-प्राप्ति के चार हेतु और बताए आदिश्यते जा रहे हैं१. स्वप्रेक्षा-स्वपर्यालोचना। १. स्वप्रेक्षा-स्व-पर्यालोचन । २. भयम् । २. भय । ३. पापमोक्षः । ३. पापमुक्ति। ४. आशंसा---अभिलाषा । ४. आशंसा अर्थात् अभिलाषा । ४६. तं परिणाय मेहावी व सयं एएहिं कज्जेहिं दंडं समारंभेज्जा, णेवणं एएहिं कज्जेहिं दंडं समारंभावेज्जा, णेवण्णं एहि कज्जेहिं दंडं समारंभंतं समणुजाणेज्जा। सं०-तत् परिज्ञाय मेधावी नैव स्वयं एतैः कार्यैः दण्डं समारभेत, नैवान्यं एत: कार्य: दण्डं समारम्भयेत्, नैवान्यं एतः कार्य: दण्डं समारभमाणं समनुजानीत । यह जानकर मेधावी पुरुष इन प्रयोजनों से स्वयं हिंसा का प्रयोग न करे, दूसरे से उसका प्रयोग न करवाए और उसका प्रयोग करने वाले दूसरे का अनुमोदन न करे। १. आचारांग वृत्ति, पत्र १०४ : तिथिपर्वोत्सवाः सर्वे, त्यक्ता येन महात्मना । अतिथि तं विजानीयाच्छेषमभ्यागतं विदुः॥ २. आचारांग चूणि, पृष्ठ ६१ : किविणा विगलसरीरा। ३. वही, पृष्ठ ६१ : समणा चरगाति । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० २. लोकविचय, उ० २,३. सूत्र ४२-४६ दण्डसमादानस्य भाष्यम् ४६ पूर्ववर्तिसूत्रत्रये प्रयोजनानि सूचितानि । प्रस्तुतसूत्रे दण्डसमारम्भं कृतकारितानुमतिभिः न कुर्याद् इति निर्देशः अयं निर्देश मेधाविनं लक्ष्यीकृत्य कृतः । यस्य मेधा अहिंसायाः मूल्यांकन कर्तुं क्षमा तस्मै एष निर्देश: संगच्छते । 1 ४७. एस मग्गे आरिएहि पवेइए। सं०- एष मार्ग: आर्यः प्रवेदितः । यह मार्ग आर्यों द्वारा प्रवेदित है। सं० भाष्यम् ४७ -- एष अलोभस्य अपरिग्रहस्य ममत्वमुक्तेर्वा मार्गः आः प्रवेदितः । आर्य' इति आचार्यः । ४८. हेल्थ कुसले गोवलिपिज्जासि । ति बेमि - यथात्र कुशलः नोपलिम्पेत् । इति ब्रवीमि जिससे कुशल पुरुष इसमें लिप्त न हो। – ऐसा मैं कहता हूं । इतिहेतुमुद्दिश्य भाष्यम् ४० एष मार्गः आयें आर्यों ने इस मार्ग का उपदेश इसलिए दिया है जिससे कि पदिष्टः यथा कुशलः अस्मिन् परिग्रहे नोपलिप्तो कुशल पुरुष इस परिग्रह में लिप्त न हो। पेत् । १०३ पूर्ववर्ती तीन सूत्रों में दण्ड समादान के प्रयोजन सूचित किए प्रस्तुत सूत्र में यह निर्देश है कि पुरुष कृत, कारित और इन तीनों से हिंसा न करे यह निमेधावी को लक्ष्य कर किया गया है। जिस व्यक्ति की मेधा अहिंसा का मूल्यांकन करने में सक्षम है, उसके लिए यह निर्देश संगत लगता है । गए हैं। अनुमति भाष्यम् ४९ - अर्थसंग्रहः पदार्थसंग्रहश्च प्रत्यक्ष परिग्रहः । किन्तु सूक्ष्मेक्षिकया सम्मानवाञ्छापि परिग्रह एव । तस्य विमुक्तये विचयसूत्रमिदम् असौ संसारी : अनेकवारं उच्चगोत्रो जातः अनेकवारञ्च नीच - पुरुष : गोत्रो जातः । अनेन पुरुषेण अनेकवार उच्चत्वं नीच त्वञ्च प्राप्तम् । तेनासी नो हीनः न चातिरिक्त अथवा उच्चनीचगोत्रयोः नास्ति हीनमतिरिक्तं वा । तेन उच्चगोत्रं न स्पृहणीयम् । तइओ उद्देसो तीसरा उद्देशक ४६. से असई उच्चागोए असई णीयागोए । णो हीणे, णो अइरिते, णो पीहए। सं०-- सः असकृद् उच्चगोत्रः, असकृद् नीचगोत्रः । नो हीनः, नो अतिरिक्तः, नो स्पृहयेत् । उत्कर्ष प्राप्तः, १. प्रस्तुतागमस्य रचनाकाले आर्यशब्दः अनार्यशब्दश्च अपकर्षं गतः । २. आचारांग वृति पत्र १०७ नोऽपीहए— अपि सम्भावने अलोभ, अपरिग्रह अथवा ममत्वमुक्ति का यह मार्ग आर्यों द्वारा प्रवेदित है । आर्य का अर्थ है - आचार्य | वह पुरुष अनेक बार उच्चगोत्र और अनेक बार नीचगोत्र का अनुभव कर चुका है। अतः न कोई हीन है और न कोई अतिरिक्त । इसलिए वह उच्चगोत्र की हम करे। अर्थ का संग्रह और पदार्थ का संग्रह प्रत्यक्ष परिग्रह है, किंतु सूक्ष्मदृष्टि से सम्मान की वाञ्छा भी परिग्रह ही है । उसकी विमुक्ति के लिए यह विचयसूत्र है - यह संसारी पुरुष अनेक बार उच्चगोत्र वाला बना है और अनेक बार नीचगोत्र वाला । यह पुरुष अनेक बार उच्चता और नीचता को प्राप्त हुआ है इसलिए यह न हीन है और न अतिरिक्त अथवा उच्च और नीच गोत्र - दोनों में कोई भी हीन या अतिरिक्त नहीं है। इसलिए उच्चगोत्र की स्पृहा नहीं करनी चाहिए । स च भिन्नक्रमो जात्यादीनां मदस्थानानामन्यतमदपि 'नो ईहेतापि' नाभिलवेदपि अथवा नो स्पृहयेत्-नावकांक्षेदिति । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ आचारांगभाष्यम् उच्चगोत्रः-उच्च-सत्कारसम्मानार्ह गोत्रं यस्य स उच्चगोत्र-उच्च अर्थात् सत्कार और सम्मान के योग्य गोत्र उच्चगोत्रः । अतो विपरीतः नीचगोत्रः। है जिसका, वह उच्चगोत्र है। इसके विपरीत नीचगोत्र है। एतत् सूत्रं द्रव्याथिकनयेन व्याख्येयम् । द्रव्याथिक- इस सूत्र की व्याख्या द्रव्याथिक नय से करनी चाहिए। नयेन निश्चय नयेन वा नास्ति कश्चिदात्मा हीनोऽति- द्रव्यार्थिक नय अथवा निश्चय नय से कोई भी आत्मा हीन या अति. रिक्तो वा । पर्यायाथिकनयेन प्राणिनः हीना अतिरिक्ता रिक्त नहीं है। पर्यायार्थिक नय से प्राणी हीन या अतिरिक्त भी होते वापि भवन्ति । ५०. इति संखाय के गोयावादी? के माणावादी ? कसि वा एगे गिज्झे? सं०-इति संख्याय को गोत्रवादी ? को मानवादी ? कस्मिन् वाए कः गृध्येत् ? वास्तविकता को जान लेने पर कौन गोत्रवादी होगा? कौन मानवादी होगा? और कौन किसी एक स्थान में आसक्त होगा? भाष्यम ५०-मया अन्यैरपि च जीवैरनेकवारं 'मैंने और दूसरे जीवों ने भी अनेक बार उच्चता और हीनता उच्चत्वं हीनत्वं वा अनुभूतम, इतिसंख्याय-ज्ञात्वा को का अनुभव किया है' यह जान लेने पर कौन गोत्रवादी होगा? गोत्रवादी स्यात् ? कश्च मानवादी ? कस्मिन् वा एको कौन मानवादी होगा? और कौन किसी एक स्थान में गृद्ध होगा, गृध्येत्-इच्छां प्रयोजयेत् ? आसक्त होगा? जाति-कूल-बल-रूप-तप:-श्रुत-लाभैश्वर्यैरुपेतस्य जाति, कुल, बल, रूप, तपस्या, श्रुत, लाभ और ऐश्वर्य से युक्त गोत्रवादो भवति । स्वगुणपरिकल्पनाजनितो मानवादः व्यक्ति के गोत्रवाद होता है और अपने गुणों की परिकल्पना से उत्पन्न भवति । सर्वं अनूभूतपूर्वम् । तेन उच्चत्वलाभे को मानवाद होता है। इन सबका पहले अनुभव किया जा चुका है । विस्मयं कुर्यात् नीचत्वलाभे च उद्वेगं कुर्यात् ? इसलिए कौन व्यक्ति उच्चता के प्राप्त होने पर विस्मय और निम्नता के प्राप्त होने परउ द्वेग करेगा? ५१. तम्हा पंडिए णो हरिसे, णो कुज्झे। सं०-तस्मात् पंडितः नो हृष्येत्, नो क्रुध्येत् । इसलिए पंडित पुरुष न हर्षित हो और न कुपित हो । भाष्यम ५१-तस्मात् पंडितः समतामनुभवेत । इसलिए पण्डित पुरुष समता का अनुभव करे । उच्चगोत्रउच्चगोत्रस्य-सम्मानादीनां लाभे सति नो हृष्येत्, सम्मान आदि के प्राप्त होने पर हर्ष न करे और नीचगोत्र-अपमान नीचगोत्रस्य-अवमाननादीनां प्राप्तौ सत्यां न क्रुध्येत् । आदि के प्राप्त होने पर क्रोध न करे। ५२. भूएहि जाण पडिलेह सातं । सं0--भूतेषु जानीहि प्रतिलिख सातम् । तू जीवों में होने वाले कर्म-बन्ध और कर्म-विपाक को जान और कर्म-क्षय की समीक्षा कर । भाष्यम ५२-नीचगोत्रस्यानुभवोऽस्ति दुःखम् । कि नीचगोत्र का अनुभव दुःख है। दुःख का हेतु क्या है-इस हेतूकं दुःखमितिगवेषणायां सर्वप्रथमं जीवाभिगमः गवेषणा में सबसे पहले जीवों का ज्ञान करना चाहिए और उसके बाद करणीयः। ततश्च स कथं कर्म बध्नाति कथञ्च कर्मणो जीव किस प्रकार कर्म का बंधन करता है और कर्म का विपाक कैसे विपाको जायते इत्यभिगमः कार्यः । होता है, यह जानना चाहिए। सातं-क्षयः। कर्मणः क्षयः कथं स्याद् इति सात का अर्थ है---क्षय । कर्म का क्षय कैसे हो-यह अन्वेषण अन्वेष्टव्यम् । करना चाहिए। चूणौ वृत्तौ च 'सातं' सुखमित्यपि लभ्यते ।' चूणि और वृत्ति में 'सात' का अर्थ सुख भी मिलता है। १. 'शात' 'सातं'-एते द्वे अपि पदे क्षयार्थे उपलभ्येते। २. (क) आचारांग चूणि, पृ० ६४ : पडिलेहिहि-गवेसाहि आप्टे, सातः-destroyed | शातः-cut down | सातं-सहं, तम्यिवक्खतो असातं, तं पडिलेहेहि, कस्स कि Jain Education international Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०२. लोकविचय, उ० ३. सूत्र ५०-५५ १०५ ५३. समिते एयाणुपस्सी। सं०-समितः एतदनुदर्शी। सम्यग्दर्शी पुरुष इसको देखता है । भाष्यम् ५३--समित:-इष्टानिष्टगवेषणया समधि- समित अर्थात् इष्ट और अनिष्ट की गवेषणा के द्वारा तत्व को गततत्वः पुरुषः एतत् कर्मविपाकमनुपश्यति जानने वाला सम्यग्दर्शी पुरुष इस कर्म-विपाक को देखता है५४. तं जहा-अंधत्तं बहिरत्तं मूयत्तं काणत्तं कुंटतं खुज्जत्तं वडभत्तं सामत्तं सबलत्तं । सं०-तद् यथा-अन्धत्वं बधिरत्वं मूकत्वं काणत्वं कुण्ट त्वं कुब्जत्वं वडभत्वं श्यामत्वं शबलत्वम् । जैसे—कोई अंधा है और कोई बहरा, कोई गूंगा है और कोई काना, कोई लूला है और कोई बौना, कोई कुबड़ा है और कोई कोढी तथा कोई श्वेत कुष्ठ वाला है।। भाष्यम् ५४---कर्मविपाकस्य निदर्शनमिदम्, यथा--- यह कर्म-विपाक का निदर्शन है, जैसे-कहीं अन्धापन, क्वचिद् अन्धत्वं, बधिरत्वं, मूकत्वं, काणत्वं, कुण्टत्वं- बहरापन, गूंगापन, काणापन, लूलापन, कुबड़ापन और बौनापन है। कुणित्वं, कुब्जत्वं -वामनत्वम् । कुब्जशब्दस्य अर्थद्वयं 'कुन्ज' शब्द के दो अर्थ प्राप्त होते हैं-पृष्ठग्रंथि का बाहर निकलना लभ्यते---विनिर्गतपृष्ठग्रन्थिः ह्रस्वश्च । चूणों 'खुज्जो- और ठिगना । चूणि में 'खुज्ज' वामन के अर्थ में व्याख्यात है । वृत्ति वामणो' इति व्याख्यातमस्ति ।' वृत्तौ कुब्जत्वं वामन- में कुब्जत्व वामन का लक्षण है। यहां वामन शब्द खर्व के अर्थ में है। लक्षणमिति । अत्र बामनशब्देन खर्वत्वं सूचितमस्ति । खर्व का अर्थ है-बौना । 'वडभ' शब्द के संदर्भ में कुब्ज शब्द का यही 'खर्वः' इति बौना। वडभशब्दस्य सन्दर्भ कुब्जस्य अर्थ संगत लगता है। संस्थान के प्रकरण में कुब्ज-संस्थान का ऐसा एष एव अर्थः संगतोऽस्ति। संस्थानप्रकरणे कुब्ज- ही अर्थ प्राप्त होता है-'अधस्तनकाय का वाचक है 'मडभ' । पर, हाथ, संस्थानस्य ईदश एव अर्थो लभ्यते खुज्जोत्ति। अधस्तन- मस्तक और ग्रीवा-ये अधस्तनकाय हैं । ये अवयव शास्त्रोक्त शरीरकायमडभम्, इह अधस्तनकायशब्देन पादपाणि- लक्षणों के प्रमाण के अनुसार नहीं होते तथा शेष अवयव प्रमाणोपेत होते शिरोग्रीवमुच्यते, तद् यत्र शरीरलक्षणोक्तप्रमाणव्यभि- हैं, उसे 'कुब्ज' कहा जाता है।' वडभत्व का अर्थ है--पृष्ठग्रंथि का बाहर चारि, यत् पुनः शेषं तद् यथोक्तप्रमाणं तत्कुब्ज मिति ।" निकलना । श्यामत्व का अर्थ है-कोढ का रोग तथा शबलत्व का अर्थ वडभत्वं--विनिर्गतपृष्ठग्रन्थित्वं, श्यामत्वं-कुष्ठित्वं', है-सफेदकोढ । शबलत्वं-श्वेतकुष्ठित्वम् ।। ५५. सहपमाएणं अणेगरूवाओ जोणीओ संधाति, विरूवरूवे फासे पडिसंवेदेइ। सं०-स्वप्रमादेन अनेकरूपाः योनी: संदधाति, विरूपरूपान् स्पर्शान् प्रतिसंवेदयते । पुरुष अपने ही प्रमाद से नानारूप योनियों में जाता है और विविध प्रकार के आघातों का अनुभव करता है। भाष्यम् ५५-कर्मविपाकगवेषणां कुर्वाणः एतदपि कर्मविपाक की गवेषणा करने वाला इस सचाई को भी देखता सत्यमनुपश्यति- मनुष्यः स्वप्रमादेन अनेकरूपाः योनी: है-मनुष्य अपने प्रमाद से नानारूप योनियों का संधान करता है और सन्धत्ते । नानाविधान स्पर्शान्-आघातान् प्रतिसंवेदयते। विविध प्रकार के माघातों का अनुभव करता है। पियं? कि अणिठं ? जं जस्स अप्पितं तं ण कायव्वं । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र ११८ : प्रत्युपेक्ष्य-पर्यालोच्य विचार्य कुशाग्रीयया शेमुष्या जानीहि-अवगच्छ, कि जानीहि ? सातं सुखं तद् विपरीतमसातमपि जानीहि, कि च कारणं सातासातयोः ? एतज्जानीहि, किं चाभिलषन्त्यविगानेन प्राणिन इति । १. आचारांग चूणि, पृष्ठ ६५ । २. आचारांग वृत्ति, पत्र १०८ । ३ अभिधानचिन्तामणि, ३।१३०, ६।६५ । ४. स्थानांग वृत्ति, पत्र ३३९ । ५ आचारांग चूणि, पृष्ठ ६५ : सामो--कुट्ठी। ६. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ ६५ : सबलत्तं-सिति । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १०८ : शबलत्वं श्वित्रलक्षणम् । ७. अत्रापि 'सह' पदं स्ववाचकं दृश्यते । द्रष्टव्यम्-आयारो, १॥३॥ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगभाष्यम ५६. से अबुज्झमाणे हतोवहते जाइ-मरणं अणुपरियट्टमाणे। सं०-स अबुध्यमानः हतोपहतः जातिमरणं अनुपरिवर्तमानः । कर्म-विपाक को नहीं जानता हुआ वह हत और उपहत होता है तथा बार-बार जन्म और मरण करता है। भाष्यम् ५६--परिग्रहमद, तद्धेतुकां हिंसा, ताभ्यां परिग्रह का मद और परिग्रह के लिए की जाने वाली हिंसाजायमानान् कर्मविपाकांश्च अनवबुध्यमानः स पुरुषः इन दोनों से होने वाले कर्म-विपाकों को नहीं जानता हुआ वह पुरुष हत उपहतश्च भवति पराभवेन रोगादिना वा। स च तिरस्कार या रोग आदि से हत-उपहत होता है । उस प्रकार के कर्म तथाविधं कर्म अर्जयित्वा जन्म मरणञ्च अनुपरिवर्तते। का अर्जन कर वह बार-बार जन्म और मरण करता है। ५७. जीवियं पुढो पियं इहमेगेसि माणवाणं, खेत्त-वत्थु ममायमाणाणं । सं०-जीवितं पृथु प्रियं इहैकेषां मानवानां क्षेत्रवास्तु ममायमानानाम् । भूमि और घर में ममत्व रखने वाले कुछ पुरुषों को विपुल जीवन प्रिय होता है । भाष्यम् ५७-अस्ति इच्छाया नानात्वम् । एके इच्छा नाना प्रकार की होती है। कुछ मनुष्य केवल वैभव की मानवाः केवलं विभवमेव इच्छन्ति । तादृशं विस्तीर्ण- ही चाह रखते हैं। उनको वैसा विस्तीर्ण वैभवशाली जीवन ही प्रिय विभवमेव जीवनं तेषां प्रियं भवति । ते क्षेत्रे वास्तुनि होता है । वे क्षेत्र और वास्तु में ममत्व रखते हैं । च ममत्वं कुर्वन्ति । पुढो-विस्तीर्णम् । पुढो का अर्थ है-विस्तीर्ण । क्षेत्रं-अनाच्छादितभूमिः । क्षेत्र का अर्थ है-अनाच्छादित भूमि, खुली भूमि । वास्तु -आच्छादितभूमिः गृहमिति । वास्तु का अर्थ है--आच्छादित भूमि अर्थात् घर । ५८. आरतं विरतं मणिकुंडलं सह हिरण्णेण, इत्थियाओ परिगिज्म तत्थेव रत्ता। सं०-आरक्तं विरक्त मणिकुंडल सह हिरण्येन स्त्रीः परिगृह्य तत्रैव रक्ताः । वे रंग-बिरंगे वस्त्र तथा मणि, कुण्डल, हिरण्य और स्त्रियों का परिग्रह कर उनमें ही अनुरक्त हो जाते हैं। भाष्यम् ५८ --ते आरक्त'--कुसुम्भादिना रक्त, वे आरक्त-कुसुम्भा भादि से रंगे हुए वस्त्र, विरक्त-विविध विरक्तं--नानारागेन रक्तं वस्त्र मणि कुण्डलं हिरण्यं रंगों से रंगे हुए वस्त्र, मणि, कुण्डल, हिरण्य और स्त्रियों का परिग्रह स्त्रीश्च परिगृह्य तत्रैव रज्यन्ति । कर उनमें ही अनुरक्त हो जाते है। मनुष्यः वस्त्राणां शरीररक्षाय, मणिकुण्डलयोः मनुष्य शरीररक्षा के लिए वस्त्रों का, अलंकरण के लिए मणिभषाय, हिरण्यस्य जीवनयापनाय, स्त्रीणाञ्च परिवार- कुंडल आदि का, जीवनयापन के लिए हिरण्य-सिक्के, सोना आदि वद्धये परिग्रहं करोति । उपयोगिता यदा आसक्तौ का और परिवार की वृद्धि के लिए स्त्रियों का परिग्रहण करता है। परिणता भवति तदा ममत्वग्रन्थिः सुदृढो भवति । जब यह उपयोगिता आसक्ति में परिणत हो जाती है तब ममत्व की सूत्रकारेण एतत् सत्यमिहोपदर्शितम् । गांठ घुल जाती है । सूत्रकार ने यहां इसी सत्य को अभिव्यक्त किया है। ५९. ण एत्थ तवो वा, दमो वा, णियमो वा विस्सति । सं०--नात्र तपो वा, दमो वा, नियमो वा दृश्यते । परिग्रही पुरुष में न तप होता है, न बम और न नियम । भाष्यम् ५९–अत्र परिग्रहे परिग्रहानुरक्ते वा पुरुष परिग्रह-प्रधान वातावरण अथवा परिग्रह में अनुरक्त पुरुष में न तपो वा दमो वा नियमो वा दृश्यते। परिग्रहानु- न तप दृष्टिगोचर होता है, न दम और न नियम । परिग्रह के अनुबंध बन्धेन निरन्तरं मनःसंतापो जायते। संतप्ते मनसि से निरन्तर मानसिक संताप बना रहता है। मन के संतप्त होने पर १. आप्टे, रक्तकं-A Red Garment. Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० २. लोकविजय, ०३. सूत्र ५६-६२ तपःप्रभृतीनां का कथा ? तपः - - स्वादविजयः आसनविजयादि । बमः - इन्द्रियविजयः कषायविजयश्च । नियमः ख्यानम् ।' परिमितकालाय भोगोपभोगवस्तूनां प्रत्या भाष्यम् ६० अज्ञानी पुरुषः सम्पूर्ण निर्व्यापात विभवपूर्ण जीवन जीवितुकामः लालप्यते पुनः पुनः सुखं प्रार्थयते किन्तु परिग्रहासक्तिमूढः सन् विपर्यास मुपैति सुखार्थी सन् दुःखमाप्नोति । * ६०. संपुर्ण वाले जीविकामे लालप्पमाणे मूढे विप्परियासुवेद । सं० - संपूर्णां बालः जीवितुकामः लालप्यमानः मूढः विपर्यासमुपैति । अज्ञानी पुरुष व्याघात रहित वैभवपूर्ण जीवन जीने की कामना करता है। वह बार-बार सुख की कामना करता है किन्तु वह मूढ होकर विपर्यास को प्राप्त होता है । भाष्यम् ६१ - ये जनाः परिग्रहमूर्द्धायाः परिणाम ज्ञात्वा वचारिणः शाश्वतं प्रति गतिशीलाः भवन्ति इदं अशाश्वतं विभवपूर्ण विपर्यासपूर्ण वा जीवनं नाव कांक्षन्ति परिग्रहमूर्द्धाया फलमस्ति जन्ममरणं - । नानायोनिषु परिभ्रमणं अन्धत्वादिनानावस्थाया अनुभवनञ्च । एतत्परिज्ञाय अमूच्छितचित्तः पुरुषः बुडे संक्रमणे वरेत् । संक्रमणं - सेतुः । अत्र तस्य तात्पर्यमस्ति अपरिग्रहः । ६२. णत्थि कालस्स नागमो । ६१. इणमेवावति, जे जणा ध्रुवचारिणो जाती मरणं परिणाय, चरे संकमणे बढे । सं० - इदमेव नायकांक्षति ये जनाः ध्रुवचारिणः । जातिमरणं परिज्ञाय चरेत् संक्रमणे दृढे ।। जो पुरुष शाश्वत की ओर गतिशील हैं, वे इस विपर्यासपूर्ण जीवन को जीने की इच्छा नहीं करते । जन्म-मरण को जानकर वह मोक्ष के दृढ सेतु अपरिग्रह पर चले । सं० - नास्ति कालस्य अनागमः । मृत्यु के लिए कोई भी क्षण अनवसर नहीं है। भाष्यम् ६२ -- अध्रुवं विहाय ध्रुवं प्रति गमनस्य हेतुरुपदर्श्यते - पुरुषः विभवपूर्णं जीवनमभिलषति, किन्तु तत् कियच्चिरं तिष्ठति ? नास्ति कालस्य कोऽपि अनागम:एतादृशः कोऽपि क्षणो नास्ति यस्मिन् मृत्युर्नागच्छेत् । दिनेऽपि राजावपि बाल्येऽपि यौवनेऽपि सर्वास्वप्यव १. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, ८९ : दिवा रजनी या पक्षी मासस्ततुरगं था। इतिकालपरित्या प्रत्याख्यानं मवेनियमः ॥ १०७ तप आदि की बात ही कैसे संभव हो सकती है ? तप का अर्थ है - स्वादविजय, आसनविजय आदि । दम का अर्थ है - इंद्रियविजय और कषायविजय । नियम का अर्थ है- परिमित समय के लिए भोग-उपभोग की वस्तुओं का प्रत्याख्यान । अज्ञानी पुरुष निर्विघ्न वैभवपूर्ण जीवन जीने की इच्छा करता है और वह बार-बार सुख की अत्यधिक कामना करता रहता है, किंतु परिग्रह की आसक्ति से मूढ होकर यह विपर्यास को प्राप्त होता है सुख का अर्थी होकर दुःख को प्राप्त होता है । जो लोग परिग्रह को मूर्च्छा के परिणाम को जानकर ध्रुवचारी शाश्वत की ओर गतिशील होते हैं, ये इस अशाश्वत वैभवपूर्ण और विपर्यासपूर्ण जीवन की आकांक्षा नहीं करते । परिग्रह की मूर्च्छा का फल है जन्म-मरण - नाना योनियों में परिभ्रमण और अन्धता आदि नाना अवस्थाओं का अनुभव यह जानकर अमृति चित्त वाला पुरुष दृढ संक्रमण से पले संक्रमण का अर्थ है यहां उसका तात्पर्य है अपरिग्रह । अशाश्वत को छोड़कर शाश्वत की ओर गति करने के हेतु का उपदर्शन किया जा रहा है - पुरुषं वैभवपूर्ण जीवन की अभिलाषा करता है, किंतु वह जीवन कितने समय तक ठहरता है ? काल का कोई अनागम नहीं है- ऐसा कोई भी क्षण नहीं है जिसमें मोत न आ के दिन में भी रात में भी, बचपन में भी और जवानी में भी, 1 २. द्रष्टव्यम् - आयारो, २।१५१ । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ आचारांगभाष्यम् स्थासु मृत्योरागमस्य अस्ति अवकाशः। तेन सभी अवस्थाओं में मौत के आने का अवकाश है। इसलिए ध्रुवध्रुवचारित्वमभीष्टम् । ध्रुवचारी अप्रमत्तो भवति, चारित्व-शाश्वत के प्रति गमन इष्ट है। वास्तव में जो ध्रुवचारी अप्रमत्तो वा ध्रुवचारी भवति । होता है वह अप्रमत्त होता है-मृत्यु के प्रति जागरूक होता है अथवा जो अप्रमत्त होता है वह ध्रुवचारी होता है। ६३. सव्वे पाणा पियाउया सुहसाया दुक्खपडिकूला अप्पियवहा पियजीविणो जीविउकामा । सं०-सर्वे प्राणाः प्रियायुषः सुखस्वादाः दुःखप्रातकूलाः अप्रियवधाः प्रियजीविनः जीवितुकामाः । सब प्राणियों को आयुष्य प्रिय है। वे सुख का आस्वाद करना चाहते हैं, उन्हें दुःख प्रतिकूल है । उन्हें वध अप्रिय है, जीवन प्रिय है । वे जीवित रहना चाहते हैं। ६४. सव्वेसि जीवियं पियं । सं०-सर्वेषां जीवितं प्रियम् । सब प्राणियों को जीवन प्रिय है। पशुओं के जी के लिए हिंसा तय: हिंसापूर्व ६५. तं परिगिज्झ दुपयं चउप्पयं अभिजुजियाणं संसिंचियाणं तिविहेणं जा वि से तत्थ मत्ता भवइ-अप्पा वा बहुगा वा। सं०-तत् परिगृह्य द्विपदं चतुष्पदं अभियुज्य संसिच्य त्रिविधेन यापि तस्य तत्र मात्रा भवति--अल्पा वा बहुका वा। परिग्रह में आसक्त पुरुष द्विपद (कर्मकर) और चतुष्पद (पशु) का परिग्रह कर, उन्हें बलात् सेवा में नियोजित कर वह अर्थ का संवर्धन करता है । त्रिविध प्रयत्न से उसके पास अर्थ की अल्प या बहुत मात्रा हो जाती है। भाष्यम् ६३-६५–परिग्रहार्थं हिंसा क्रियमाणास्ति। परिग्रह के लिए हिंसा की जाती है । अनेक मनुष्यों और अनेकेषां मनुष्याणां पशूनाञ्च जीवनस्य निग्रहोऽपि पशुओं के जीवन का निग्रह भी किया जाता है। परिग्रह का संचय क्रियमाणोऽस्ति । परिग्रहस्य संचयः हिंसापूर्वको भव- हिंसापूर्वक होता है, यही प्रस्तुत तीन सूत्रों (६३-६५) में बताया तीति प्रदर्श्यते सूत्रत्रयेण । सर्वेषां प्राणिनां आयू : प्रिय- गया है । सब प्राणियों को आयुष्य प्रिय है । उनको सुख का आस्वाद मस्ति, अनुकलोऽस्ति सुखास्वादः, दुःखमस्ति प्रतिकलं, अनुकूल लगता है । दुःख उन्हें प्रतिकूल लगता है। उन्हें वध अप्रिय वधः अप्रियः, कामभोगसम्पन्नमस्ति च जीवनं प्रियम । है, कामभोगों से युक्त जीवन प्रिय है। वे निरुपक्रम (अकालमृत्युते सन्ति निरुपक्रमं जीवितुकामा:।' रहित) जीवन जीना चाहते हैं। सर्वेषां प्राणिनां स्वतन्त्रं जीवनं प्रियमस्ति। केऽपि सभी प्राणियों को स्वतंत्र जीवन प्रिय है। कोई किसी की कस्यचिदधीनतां नेच्छन्ति, तथापि परिग्रहासक्तः पुरुषः अधीनता में रहना नहीं चाहता, फिर भी परिग्रह में आसक्त पुरुष तेषां प्राणिनां द्विपदानां चतुष्पदानाञ्च जीवनं परिगृह्य द्विपद- नौकर-चाकर तथा चतुष्पद-पशुओं को अपने अधीन रखकर, -स्वायत्तीकृत्य, तान् अभियोगेन–बलात् सेवायां उन्हें बलात् सेवा में नियोजित कर, अर्थ का संचय करता है। . नियोज्य अर्थ सञ्चिनोति । त्रिविधेन--स्व-पर-तदुभयप्रयत्नेन अथवा मानसिक- पुरुष तीन प्रकार से अर्थ का अर्जन करता है-वह स्वयं धनवाचिक-कायिकप्रयत्नेन तस्य पावें अल्पा वा बह्वी वा संग्रह करने का प्रयत्न करता है, दूसरों का सहयोग लेकर अर्थार्जन करता है अथवा स्व-पर के प्रयत्न से वह धन-संचय करता है । अथवा १. 'सुख प्रिय है और दुःख अप्रिय'-यहां यह चर्चा परिग्रह प्रिय और दुःख अप्रिय है। अर्थार्जन के क्षेत्र में सामाजिक के प्रकरण में की गई है। परिग्रह का संचय करने वाला स्तर पर शोषण और अनैतिकता चलती है, वह इसी सत्य अपना दुःख दूर करने और सुख प्राप्त करने का प्रयत्न की विस्मृति का परिणाम है। भगवान् ने बार-बार इस करता है । वह दूसरों के सुख की हानि न हो, इसका ध्यान सत्य की याद दिलाकर व्यवहार को आत्मतुला की भूमिका नहीं रखता। वह इस सत्य को भुला देता है-जैसे मुझे पर प्रतिष्ठित करने का दिशा-निर्देश दिया है। सुख प्रिय और दुःख अप्रिय है, वैसे ही दूसरों को भी सुख Jain Education international Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० २. लोकविचय, उ०३. सूत्र ६३-६६ १०६ अर्थमात्रा' भवति, यथा-सहस्रपतिः लक्षपतिः कोटि- वह मानसिक, वाचिक या शारीरिक प्रयत्नों के द्वारा अर्थ-संचय करने पतिरिति। में प्रयत्नशील होता है। उन प्रयत्नों के फलस्वरूप उसके पास अल्प या बहुत धन-संचय हो जाता है। कोई सहस्रपति, कोई लक्षाधिपति और कोई कोट्याधीश बन जाता है । ६६. से तत्थ गढिए चिट्टइ, भोयणाए। सं०–स तत्र ग्रथितः तिष्ठति भोजनाय । वह उस अर्थ-राशि में आसक्त रहता है और भोग के लिए उसकी अपेक्षा रखता है। भाष्यम् ६६--स पुरुषः तस्मिन् सञ्चिते अर्थराशौ वह पुरुष उस संचित अर्थ-राशि में आसक्त रहता है । सुखगद्ध : तिष्ठति । स भोगाय अर्थमपेक्षते । तदर्थमेव च तत्र सुविधा के उपभोग के लिए उसे धन की अपेक्षा रहती है, इसीलिए वह मुच्छितो भवति । उसमें मूच्छित हो जाता है। ६७. तओ से एगया विपरिसिढ़ संभूयं महोवगरणं भवइ । सं०---ततः तस्य एकदा विपरिशिष्टं संभूतं महोपकरणं भवति । भोग के बाद बची हुई प्रचर अर्थ-राशि से उसके पास विपुल अर्थ-राशि हो जाती है। भाष्यम् ६७-ततः भोगार्थं अर्थ रक्षां कुर्वतः फिर सुख-सुविधा के उपभोग के लिए धन को बचाते-बचाते कदाचित् विपरिशिष्टं धनं संभूतं भवति, संभूतत्वाच्च उसके पास धन का संचय होता जाता है और वह संचित धन-राशि महोपकरणं भवति--अर्थस्य महान् राशिरिति । धीरे-धीरे विपुल बन जाती है । ६८. तं पिसे एगया दायाया विभयंति, अदत्तहारो वा से अवहरति, रायाणो वा से विलुपंति, णस्सति वा से, विणस्सति वा से, अगारदाहेण वा से डज्झइ। सं० -तदपि तस्य एकदा दायादाः विभजन्ते, अदत्तहारो वा तस्य अपहरति, राजानो वा तस्य विलुम्पन्ति, नश्यति वा तस्य, विनश्यति वा तस्य, अगारदाहेन वा तस्य दह्यते । एक समय ऐसा आता है कि उस संचित धनराशि से दायाद हिस्सा बंटा लेते हैं, या चोर उसका अपहरण कर लेते हैं, या राजा उसे छीन लेते हैं, या वह नष्ट-विनष्ट हो जाती है, या गृहदाह के साथ जल जाती है। भाष्यम् ६८-सन्निचितोऽर्थ: अनेकेषु आकांक्षां जन- संचित धन-राशि अनेक लोगों में आकांक्षा पैदा करती है यह यति इति वस्तुसत्यम् । तस्य तिस्रोऽवस्था भवन्ति- वस्तुसत्य है। धन की तीन अवस्थाएं होती हैं-अर्जन, भोग और अर्जनं भोगो विनाशश्च । तत्र तृतीयावस्थाया अपरि- विनाश । यहां तीसरी अवस्था-विनाश की अनिवार्यता दिखाई गई हार्यत्वमिहास्ति दर्शितम् ---तं विपरिशिष्टमर्थं कदाचित् है। भागीदार उस बचे हुए धन का हिस्सा बंटा लेते हैं । अथवा चोर दायादा विभजन्ति, अदत्तहारो वा अपहरति, राजानो उसका अपहरण कर लेते हैं । अथवा राजा उसे छीन लेते हैं। अथवा वा अवच्छिन्दन्ति, स्वतः एव नश्यति वा विनश्यति वा, वह स्वत: नष्ट-विनष्ट हो जाता है । अथवा गृहदाह के साथ वह जल अगारदाहेन वा दह्यते। कर नष्ट हो जाता है। ६६. इति से परस्स अट्ठाए कूराई कम्माई बाले पकुव्वमाणे तेण दुक्खेण मूढे विप्परियासुवेइ। सं०---इति स परस्य अर्थाय क्रूराणि कर्माणि बालः प्रकुर्वाण: तेन दुःखेन मूढः विपर्यासमुपैति । इस प्रकार अज्ञानी पुरुष दूसरे के लिए क्रूरकर्म करता हुआ उस दुःख में मूढ होकर विपर्यास को प्राप्त होता है। १. प्रस्तुतसूत्रस्य चूणौ 'तत्थ' इति पदं नास्ति व्याख्यातम् अर्थमात्रा इत्युल्लिखितम (वृत्ति पत्र, १११)। (पृ०६८)। ८१ सूत्रेऽपि नास्ति व्याख्यातम् (पृ० ७२) । २. आचारांग चूणि, पृष्ठ ६९ : जस्सति चउप्पयादि सयमेव, वृत्तावस्ति । अत्र 'अस्थमत्ता' इति पाठस्य सम्भावनापि ......"विणस्सति जं विणा परिभोगेण कालेण विणस्सइ । सहनतया जायते । वृत्तिकारेणापि सोपस्कारत्वात् सूत्राणां ......"अहवा णावाए भिण्णाए सव्वं विणस्सइ दुक्खेण महर प्रकुर्वाण र के लिए Jain Education international Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० आचारांगभाष्यम् भाष्यम् ६९-अज्ञानी पुरुषो धनमर्जयन् मुख्यतया अज्ञानी पुरुष धन का अर्जन करता हुआ मुख्यतया पर अर्थात परस्येति परिवारस्यार्थ क्रूराणि कर्माणि प्रकुरुते । तेन परिवार के लिए क्रूरकर्म करता है । क्रूरकर्म करना दुराचरण है । स्वकृतेन क्रूरकर्मादिदुराचरितेन दुःखहेतुत्वात् दुःखेन वह दुःख का हेतु है । अपने द्वारा किए गए क्रूरकर्म से अजित दुःख से मूढः सन् विपर्यासमुपैति--सुखार्थी सन् दुःखं प्राप्नोति ।' मूढ होकर वह व्यक्ति विपर्यास को प्राप्त होता है -सुख का अर्थी होकर दुःख को प्राप्त होता है । ७०. मुणिणा हु एवं पवेइयं । सं०--मुनिना खलु एतत् प्रवेदितम् । यह मुनि ने कहा है। भाष्यम् ७०-एतत् सत्यं मुनिना-परमज्ञानिना यह सत्य मुनि-परमज्ञानी भगवान् महावीर ने कहा है। भगवता महावीरेण प्रवेदितम् । ७१. अणोहंतरा एते, नो य ओहं तरित्तए । अतीरंगमा एते, नो य तीरं गमित्तए । अपारंगमा एते, नो य पारं गमित्तए। सं०-अनोघन्तराः एते, नो च ओघ तरितुम् । अतीरङ्गमाः एते, नो च तीरं गन्तुम् । अपारङ्गमाः एते, नो च पारं गन्तुम् । ये अनोघंतर हैं-ओघ को तैरने में समर्थ नहीं हैं। ये अतीरंगम हैं--तोर तक पहुंचने में समर्थ नहीं हैं। ये अपारंगम हैं-पार तक पहुंचने में समर्थ नहीं हैं। भाष्यम् ७१-एते क्रूरकर्माणः परिग्रहिणो मनुष्या ये क्रूरकर्म करने वाले परिग्रही मनुष्य भनोघंतर होते हैं-दुःख अनोख़तरा भवन्ति, न च समर्था भवन्ति ओघं तरितुम्। के प्रवाह को तरने में समर्थ नहीं होते। ये अतीरंगम होते हैंएते अतीरंगमा भवन्ति, न च समर्था भवन्ति तीरं दुःख के तट तक पहुंचने में समर्थ नहीं होते । ये अपारंगम होते हैं-पार गन्तुम । एते अपारंगमा भवन्ति, न च समर्था भवन्ति तक पहुंचने में समर्थ नहीं होते। पारं गन्तुम् । परिग्रहस्य क्रूरतायाश्च अस्ति कश्चिद् आन्तरिक: परिग्रह और क्रूरता में कोई आंतरिक संबंध है। जैसे-जैसे संबंधः। यथा यथा परिग्रहो वर्धते तथा तथा मृदुताया: परिग्रह बढता है, वैसे-वैसे मृदुता का ह्रास होता है और क्रूरता बढती ह्रासः करतायाश्च वृद्धिः भवतीति साक्ष्यमस्ति मानव- जाती है । इसका साक्षी है मानवजाति का इतिहास । दुःखमुक्ति का जातेरितिहासः । दुःखमुक्तेरुपायोऽस्ति मृदुता। क्रूरता उपाय है-मृदुता। क्रूरता सामाजिक सम्बन्धों को समस्या-संकुल सामाजिकसंबंधान् समस्यासंकुलान् कृत्वा मनुष्यं बनाकर मनुष्य को अपारंगम बना देती है-वह पार नहीं पहुंचा पाती। अपारंगमं करोति । ओघः-दुःखस्य प्रवाहः । ओघ का अर्थ है-दुःख का प्रवाह । तीरम्-दुःखस्य तटम् । तीर का अर्थ है-दुःख का तट । पारम्-परवर्तितटम् । पार का अर्थ है-परवर्ती तट । १. आचारांग वृत्ति, पत्र ११२ : रागद्वषाभिभूतत्वात्, कार्याकार्यपराङ मुखः। एष मूढ इति ज्ञेयो, विपरीतविधायकः ॥ २. आम का फल जैसे आम कहलाता है, वैसे ही आम का बीज भी आम कहलाता है। इसी प्रकार प्रतिकूल संवेदन जैसे दुःख कहलाता है, वैसे ही प्रतिकूल संवेदन का हेतुभूत कर्म भी दुःख कहलाता है। जो दार्शनिक कार्य और कारण को पृथक्-पृथक् देखते हैं, वे दुःख के मूल को समाप्त नहीं कर पाते। फलतः वह मूल बार बार फलित होता है-मनुष्य को मूढ बनाता है। __ जो क्रूरकर्म करता है, वह मूढ होता है और जो मूढ होता है वह विपर्यास को प्राप्त होता है-यह कार्य-कारण को शृंखला है। ३. आचारांग वृत्ति, पत्र ११२: तरतेश्छान्दसत्वात् खश खित्त्वान्मुमागमः। Jain Education international Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० २. लोकविचय, उ० ३. सूत्र ७०-७३ ७२. आवाणिज्जं च आयाय, तम्मि ठाणे ण चिट्ठइ वितहं गप्पखेयण्णे, तम्मि ठाणम्मि चिट्ठइ । सं० - आदानीयं च आदाय तस्मिन् स्थाने न तिष्ठति । वितथं प्राप्य अक्षेत्रज्ञः तस्मिन् स्थाने तिष्ठति । अनात्मज्ञ पुरुष आदानीय (अपरिग्रह) को प्राप्त कर उस स्थान में स्थित नहीं होता। वह वितथ (परिग्रह) को प्राप्त कर उस स्थान में स्थित होता है। भाष्यम् ७२ - प्रस्तुतागमे 'आयाणिज्ज' पदस्य प्रयोगो नैकवारं दृश्यते।' 'आयाणीय' इति पदमपि बहुधा प्रयुक्तमस्ति । अनयोः पदयोः अनेके अर्था वर्तन्ते, यथासंयमः । पंचविधः आचार: । आदेयः अथवा ज्ञानादीनि । ग्राह्य सम्यग्दर्शनादि आदानीयं श्रुतम् । आदानीयं आदातव्यं भोगांगं द्विपदचतुष्पदधनधान्यहिरण्यादि आदानीय आदेयवचनः । आदीयते इत्यादानीय कर्म । " अत्र प्रकरणवशात् तद् अपरिग्रहे वर्तते । अक्षेत्रज्ञः -- अनात्मज्ञः पुरुषः आदानीयं - अपरिग्रहं आदाय तस्मिन् स्थाने अपरिग्रहस्य स्थाने न तिष्ठति । वितथमिति परिग्रहं प्राप्य तस्मिन् स्थाने परिग्रहस्य स्थाने तिष्ठति । अनात्मवित् पुरुषः परिग्रहस्य पदार्थस्य वा मूर्च्छा परिहर्तुं न तीरयति यदा कदा यथाकथंचित् आदानीयं आदायापि आत्मन: पुद्गलस्य च भेदविज्ञानानुदया वस्थायां भेदविज्ञानलब्धे अपरिग्रहस्थाने न स्थातुमर्ह तोति सुनिश्चितमिदम् । ७३. उद्देसो पासगस्स पत्थि । सं० – उद्देश : पश्य कस्य नास्ति । इष्टा के लिए कोई उद्देश व्यपदेश नहीं है । भाष्यम् ७३ - यः वस्तुसत्यं पश्यति स पश्यकः । तस्य उद्देशो नास्ति उद्देशः व्यपदेशः, यथा सुखी दु:खी, क्रोधी, मानी, मायी, लोभी, धनी, निर्धन इति । पश्यकः एतावृशमुद्देशमतिक्रम्य सततमात्मस्वतामनु भवति विकल्पजनितञ्च दुःखमतिवर्तते । " १. आयारो, २०७२; ४।४४; ६ ५१ । २. वही, १२४, ४७, ७८, १०६, १३३,१५७; २।१४८ । ३. आचारांग चूर्ण, पृष्ठ २२ । ४. वही, पृष्ठ ७० । ५. वही, पृष्ठ १५० । ६. आचारांग वृत्ति, पत्र ३४ । , प्रस्तुत आगम में 'आयाणिज्ज' तथा 'आयाणीय' पद का प्रयोग अनेक बार हुआ है। इन दोनों शब्दों के अनेक अर्थ हैं, जैसे- संयम पांच प्रकार का आचार, आदेय अथवा ज्ञान आदि, ग्राह्य सम्यग्दर्शन आदि, श्रुत, द्विपद, चतुष्पद, धन, धान्य, हिरण्य आदि आदेय भोगांग, आदेववचन तथा कर्म प्रस्तुत प्रकरण में उसका अर्थ है - अपरिह १११ अक्षेत्रज्ञ - अनात्मज्ञ पुरुष आदानीय-अपरिग्रह को प्राप्त कर उस स्थान – अपरिग्रह के स्थान में स्थित नहीं होता । वह वितथपरिग्रह को प्राप्त कर उस स्थान परिह के स्थान में स्थित होता है । अनात्मविद मनुष्य परिग्रह तथा पदार्थ की मुच्छी का परिहार करने में समर्थ नहीं होता। जब कभी तथा जैसे-जैसे अपरिग्रह प्राप्त कर लेने पर भी उसमें आत्मा और पुद्गल का भेदविज्ञान उचित नहीं होता, ऐसी स्थिति में वह भेदविज्ञान से प्राप्त होने वाले अपरिग्रह के स्थान में स्थित नहीं हो पाता, यह सुनिश्चित है । जो वस्तु सत्य को देखता है वह द्रष्टा होता है। उसका उद्देश नहीं होता उद्देश का अर्थ है-पदेश जैसे सुखी, दुःखी, फोधी, मानी, मायी, लोभी, धनी, निर्धन आदि। द्रष्टा इस प्रकार के व्यपदेश का अतिक्रमण कर सदा आत्मस्थता का अनुभव करता है और विकल्पजनित दुःख का अतिक्रमण कर देता है । ७. वही, पत्र ११२ । ८. वही, पत्र ११२ । ९. वही, पत्र १७५ । १०. वही, पत्र २२० । ११. व्रष्टव्यम् - आयारो २।१८५ । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ आचारांगभाष्यम् ७४. बाले पुण णिहे कामसमणुण्णे असमियदुक्खे दुक्खी दुक्खाणमेव आवट्ट अणुपरियट्टइ। --त्ति बेमि । सं० --बालः पुनः स्निहः कामसमनोज्ञः अशमितदुःखः दुःखी दुःखानामेव आवतं अनुपरिवर्तते । - इति ब्रवीमि । अज्ञानी पुरुष स्नेहवान् और काम-प्रार्थी होकर दुःख का शमन नहीं कर पाता। वह दुःखी बना हुआ दुःखों के आवर्त में अनुपरिवर्तन करता है। -ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् ७४-यः पुनः बालो भवति, पश्यको न जो अज्ञानी होता है, द्रष्टा नहीं होता, वह स्नेहिल पुरुष काम भवति, स स्नेहवान् कामसमनोज्ञः--कामं प्रार्थयमानः की प्रार्थना करता हुआ विषय और परिग्रह से समुत्पन्न दुःख का विषयपरिग्रहसमुत्थं दुःखं नोपशमितुमर्हति । अशमित- उपशम नहीं कर सकता। वह दुःख का उपशमन न करने के कारण दुःखः स शारीरमानसाभ्यां दु:खाभ्यां दुःखी भूत्वा शारीरिक और मानसिक दुःखों से दुःखी होकर दुःखों के आवर्त में ही दुःखानामेव आवर्त्तमनुपरिवर्तते । बार-बार घूमता रहता है। बालस्य पुनः सूखी, दु:खी, क्रोधी-एवं विध उद्देशो अज्ञानी पुरुष के लिए सुखी, दुःखी, क्रोधी-आदि का व्यपदेश भवति । होता है। चउत्थो उद्देसो : चौथा उद्देशक ७५. तओ से एगया रोग-समुप्पाया समुप्पज्जंति । सं०-ततः तस्य एकदा रोगसमुत्पादाः समुत्पद्यन्ते । उसके पश्चात् कदाचित् मनुष्य के शरीर में रोग उत्पन्न हो जाते हैं । भाष्यम् ७५ - अर्थ: कामस्य साधनमस्ति । अर्थवान् धन काम का साधन है। धनवान पुरुष कामों का सेवन करता पुरुष: कामान् सेवते । ततः कामासेवनात एकदेति है। काम का आसेवन रोगों की उत्पत्ति का कारण बन सकता है। सम्भाव्यते रोगाणां समुत्पत्तिः। भगन्दरो वातादि- चूर्णिकार के अनुसार काम के आसेवन से भगंदर, वात आदि रोग तथा रोगाश्च उत्पद्यन्ते इति चूर्णिकारः । धातुक्षयभगन्द- वृत्तिकार के अनुसार धातुक्षय, भगंदर आदि रोग उत्पन्न होते हैं। रादयो रोगा: समुत्पद्यन्ते इति वृत्तिकारः। चरकेऽपि चरक में भी इस तथ्य की संवादिता प्राप्त होती है। अस्य संवादित्वं लभ्यते । ७६. जेहिं वा सद्धिं संवसति ते वा णं एगया णियया पुग्विं परिवयंति, सो वा ते णियगे पच्छा परिवएज्जा। सं०-यः वा सार्द्ध संवसति ते वा एकदा निजकाः पूर्वं परिवदन्ति, स वा तान् निजकान् पश्चाद् परिवदेत् । वह जिनके साथ रहता है, वे आत्मीयजन एकदा उसके तिरस्कार की पहल करते हैं। बाद में वह भी उनका तिरस्कार करने लग जाता है। भाष्यम् ७६-यैः सह संवासोऽस्ति तेऽपि निजका जिनके साथ सहवास होता है वे आत्मीयजन कभी नीरोग जना एकदा पूर्वमिति नीरोगावस्थायां सर्वकर्मक्षमा- अवस्था और सम्पूर्ण कार्यक्षम अवस्था में राजकुल, सभा या उद्यान को वस्थायाञ्च राजकुलं सभां उद्यानं वा गच्छन्तं तं अनु- जाते हुए उस व्यक्ति का अनुगमन करते हैं, उसके साथ-साथ जाते हैं। गच्छन्ति । रोगावस्थायां कर्माऽक्षमावस्थायाञ्च ते तं वही व्यक्ति जब रोग से आक्रांत और कार्य करने में अक्षम हो जाता है परिभवन्ति । पश्चादिति स्वपरिभवानन्तरं सोऽपि तान् तब वे आत्मीयजन उसका तिरस्कार करते हैं। अपने तिरस्कार के बाद निजकान् परिभवति । वह भी उन आत्मीयजनों का तिरस्कार करने लग जाता है। १. द्रष्टव्यम्--आयारो २।१८६ । ३. आचारांग वृत्ति, पत्र ११३ : कामा दुःखात्मका एव, नत्र २. आचारांग चणि, पृष्ठ ७१: अहवा अतिकामासत्तस्स इहेब चासक्तस्य धातुक्षयभगन्दरादयो रोगाः समत्पद्यन्ते। भगंदरो अंतविहिमाति रोगा ...... वाताति उप्पज्जन्ति । ४. तुलमा-आचारांगभाष्यम्, श६। Jain Education international Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०२. लोकविचय, उ० ३-४. सू०७४-८१ ११३ ७७. नालं ते तव ताणाए वा, सरणाए वा । तुमंपि तेसिं नालं ताणाए वा, सरणाए वा । सं०-नालं ते तव त्राणाय वा, शरणाय वा । त्वमपि तेषां नालं त्राणाय वा, शरणाय वा। हे पुरुष ! वे स्वजन तुम्हें त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं हैं। तुम भी उन्हें त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं हो। भाष्यम् ७७ --त्राणम् --क्रिया', चिकित्सा' इत्यर्थः। त्राण का अर्थ है-क्रिया, चिकित्सा। शरण अर्थात् व्याधि का शरणमपि व्याधरुपशम: । केचिज्जना रुग्णमपि पुरुष उपशमन । कुछ लोग रुग्ण व्यक्ति का भी तिरस्कार नहीं करते, फिर न परिवदन्ति, तथापि नालं ते तव त्राणाय वा शरणाय भी वे तुम्हारे त्राण या शरण के लिए सक्षम नहीं हैं। तुम भी उनके वा । त्वमपि तेषां नालं त्राणाय वा शरणाय वा। त्राण या शरण के लिए सक्षम नहीं हो। ७८. जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं । सं०-ज्ञात्वा दुःखं प्रत्येकं सातम् । दुःख और सुख अपना-अपना होता है-यह जानकर । भाष्यम् ७८ -- अर्थार्जनकामासेवनाभ्यामजितं दुःखं अर्थार्जन और काम के आसेवन से उपार्जित दुःख अपना-अपना प्रत्येकं भवति–कर्तुरेव भवति, न येषां कृते कृतं तेषु होता है---करने वाले का ही होता है । जिनके लिए किया जाता है उनमें संक्रामति । एवं सातमपि प्रत्येकं भवति इति ज्ञात्वा वह संक्रांत नहीं होता। इसी प्रकार सुख भी अपना-अपना होता है, अर्थार्जने कामसेवने च नासक्तिरासेवनीया। यह जानकर अर्थार्जन और कामसेवन में आसक्ति नहीं करनी चाहिए। ७६. भोगामेव अणुसोयंति। सं०-भोगानेव अनुशोचन्ति । कुछ मनुष्य भोग के विषय में ही सोचते रहते हैं। भाष्यम् ७९----कामभोगेभ्यः रोगोत्पत्तिर्भवति. कामभोगों से रोग की उत्पत्ति होती है, अत्राणता और अत्राणता अशरणता च भवति, व्यक्तिगतञ्च सुख-दुःखं अशरणता होती है और सुख-दुःख व्यक्तिगत होता है-यह जानकर भवति इति ज्ञात्वापि केचिन्मनुष्याः भोगान् एव भी कुछ मनुष्य भोगों का ही अनुचितन करते हैं। यह मूर्छा की ही अनुशोचन्ति । इत्यस्ति मूर्छाविलसितम् । लीला है। ८०. इहमेगेसि माणवाणं । सं०-इहै केषां मा वानाम् । यहां कुछ मनुष्यों के लिए अर्थ ही प्रधान है। भाष्यम् ८० -एकेषां मानवानां 'अर्थो हि सर्वेषां कुछ लोग 'अर्थ ही सब पुरुषार्थों का मूल है', ऐसा मानते हैं । परुषार्थानां मुलं भवति' इति मतिर्भवति । यथा--- चाणक्य का भी यही मत है-धर्म और काम का मूल अर्थ है। इस अर्थमलौ हि धर्मकामौ इति चाणक्यः । इति चिन्तनेन चिंतन से मनुष्य अर्थ का अर्जन करते हैं। ते अर्थमर्जयन्ति । ८१. तिविहेण जावि से तत्थ मत्ता भवइ-अप्पा वा बहुगा वा। सं०-त्रिविधेन यापि तस्य तत्र मात्रा भवति–अल्पा वा बहुका वा । अपने, पराए या दोनों के सम्मिलित प्रयत्न से उनके पास अर्थ की अल्प या बहुत मात्रा हो जाती है। १. आचारांग चूणि, पृष्ठ ७२ : इह रोगा अधिकृता, तत्थ सम्म रोगिस्स किरियं ताणं। २. आप्टे, क्रिया-Medical Treatment. . ३. आचारांग चूणि, पृष्ठ ७२ : वाहिउवसमो सरणं । ४. कौटलीयार्थशास्त्रम्, १।२।३ : अर्थमूलौ हि धर्मकामाविति Jain Education international Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ आचारांगभाष्यम् भाष्यम् ८१-अत्र २।६५ सूत्रस्य भाष्यांशः पुन- यहां २/६५वें सूत्र का भाष्यांश जोड़ देना चाहिए-तीन प्रकार रावर्तनीयः-त्रिविधेन-स्व-पर-तदुभयप्रयत्नेन अथवा से--स्व-पर और तदुभय के प्रयत्न से अथवा मानसिक, वाचिक और मानसिक-वाचिक-कायिकप्रयत्नेन तस्य पार्श्वे अल्पा वा शारीरिक प्रयत्न से उसके पास अल्प या बहुत अर्थ की मात्रा हो जाती बह्वी वा अर्थमात्रा भवति, यथा-सहस्रपतिः, लक्षपतिः, है, जैसे- सहस्रपति, लक्षपति और कोटिपति । कोटिपतिरिति । ८२. से तत्थ गढिए चिट्ठति, भोयणाए। सं०-स तत्र ग्रथितः तिष्ठति, भोजनाय । वह उस अर्थ-राशि में आसक्त रहता है और भोग के लिए उसकी अपेक्षा रखता है। ८३. ततो से एगया विपरिसिठं संभूयं महोवगरणं भवति । सं.-ततः तस्य एकदा विपरिशिष्टं संभूतं महोपकरणं भवति । भोग के बाद बची हुई प्रचुर अर्थराशि से उसके पास विपुल अर्थराशि हो जाती है। ८४.तं पि से एगया दायाया विभयंति, अदत्तहारो वा से अवहरति, रायाणो वा से विलुपंति, णस्सइ वा से, विणस्सइ वा से, अगारडाहेण वा से डज्झइ। सं०-तदपि तस्य एकदा दायादाः विभजन्ते, अदत्तहारो वा तस्य अपहरति, राजानो वा तस्य विलुम्पन्ति, नश्यति वा तस्य, विनश्यति वा तस्य, अगारदाहेन वा तस्य दह्यते । एक समय ऐसा आता है कि उस संचित अर्थराशि से दायाद हिस्सा बंटा लेते हैं, या चोर उसका अपहरण कर लेते हैं, या राजा उसे छीन लेते हैं, या वह नष्ट-विनष्ट हो जाती है, या गृहदाह के साथ वह जल जाती है। ८५. इति से परस्स अट्टाए कूराई कम्माइं बाले पकुव्वमाणे तेण दुक्खेण मूढे विप्परियासुवेइ । सं०-इति स परस्य अर्थाय क्रुराणि कर्माणि बालः प्रकुर्वाणः तेन दुःखेन मूढः विपर्यासमुपैति । इस प्रकार अज्ञानी पुरुष दूसरे के लिए क्रूरकर्म करता हुआ उस दुःख से मूढ होकर विपर्यास को प्राप्त होता है। भाष्यम् ८२-८५–एतानि सूत्राणि पूर्ववद् पूर्ववत् देखें-सूत्र ६६-६९ । (६६-६९) द्रष्टव्यानि। ८६. आसं च छंदं च विगिंच धीरे। सं०-आशा च छंदञ्च वेविक्ष्व' धीर!। हे धीर ! तू आशा और छंद को छोड़ । भाष्यम् ८६-विपर्यासनिवृत्तये हे धीर! त्वं हे धीर! तू विपर्यास को मिटाने के लिए आशा और छंद का आशां छन्दञ्च वेविश्व-परित्यज। परित्याग कर । आशा-भोगाभिलाषः। आशा का अर्थ है-भोग की अभिलाषा । छन्दः-इन्द्रियसुखवृत्तिः । छन्द का अर्थ है-इन्द्रिय-सुखों की पराधीनता । छन्दो णाम पराणुवत्ती, अणासंसंतोवि कोपि चूणि के अनुसार छन्द का अर्थ है दूसरे के अधीन रहना । कोई पराणुवत्तीए अकुसलं आरभति इति चूणौं ।' व्यक्ति आशंसा न होने पर भी दूसरे की अधीनता के कारण अकुशल (अशुभयोग) की प्रवृत्ति करता है। १. (क) विज नक पृथग्भावे इति धातोः रूपम् । (ख) विचन् पृथग्भावे इति धातोः रूपं 'विश्व' भविष्यति । २. आप्टे, छन्द-Pleasure. ३. आचारांग चूणि, पृष्ठ ७२ । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० २. लोकविचय, उ० ४. सूत्र ८१-११ ८७. तुमं चेव तं सल्लमाहट्टु । सं० - त्वमेव तत् शल्यमाहृत्य । उस शल्य का सृजन तूने ही किया है। 1 भाष्यम् ८०– सायम् कर्म तद्विपाकश्च आशा छन्दोऽपि च शल्यमेव । ततः कर्म, ततश्च दुःखम् । एतत् शल्यं त्वमेव आहर्ता, अतस्त्वमेव तस्योद्धरणे प्रभुरसि । ८८. जेण सिया तेण णो सिया । सं० येन स्यात् तेन नो स्यात् । जिससे होता है उससे नहीं भी होता । भाष्यम् - येन अर्थजातेन पदार्थेन वा भोगोपभोगः सुखोपलब्धिर्वा स्यात् तेन नापि स्यात्, विचित्र त्वात् कर्मपरिणतेः रोगार्त्तत्वाच्छरीरस्य, अन्येषामपि च तथाविधानां विघ्नानां सम्भवात् । 7 भाष्यम् ८९ इदं वस्तुसत्यमस्ति किन्तु ये जना मोहप्रावृता भवन्ति ते तदपि नावबुध्यन्ते मोहो रागद्वेषात्मकः । स च द्विविधो भवति - दर्शनमोहः चारित्रमोहश्च । ८६. इणमेव णावबुज्भंति, जे जणा मोहपाउडा । सं० - इदमेव नावबुध्यन्ते ये जनाः मोहप्रावृताः । मोह से अतिशय आवृत मनुष्य इस पौद्गलिक सुख की अनेकान्तिकता को भी नहीं समझ पाते । ६०. थीभि लोए पव्वहिए । सं०—स्त्रीभि: लोकः प्रव्यथितः । यह 'लोक स्त्रियों के द्वारा वशीकृत है। भाष्यम् ९० --- आशया छन्दसा चाभिभूतः, कामसत्येन पीडित, भोगस्य सुखानुभूति प्रति अनैकान्तिकता च अनवबुध्यमानो लोकः स्त्रीभिः प्रव्यथितो भवति । ११. ते भो वयंति एवाई आयतणाई । सं० -- ते भो ! वदन्ति - एतानि आयतनानि । हे शिष्य ! वे कहते हैं-ये स्त्रियां आयतन हैं । भाग्यम् ९१ - 'भो' इति शिष्यामन्त्रणार्थम् । ते स्त्रीभिः प्रव्यथिता जनाः वदन्ति एतानि आयतनानि सन्ति- एताः स्त्रियः भोगस्य स्थानानि विद्यन्ते । उत्तरायणाणि, ९।५३ : सल्लं कामा, बिसं कामा.......। १. शल्य का अर्थ है कर्म और उसका विपाक । आशा और छन्द भी शल्य ही हैं। उनसे कर्म और कर्म से दुःख उत्पन्न होता है । इस शल्य का सृजन तूने ही किया है, इसलिए तू ही उसे निकालने में समर्थ है । ११५ जिस अर्थराशि से या पदार्थ से भोगों का उपभोग या सुख की उपलब्धि होती है, उनसे नहीं भी होती। इसका कारण है-कर्मपरिणति की विचित्रता, शरीर की रुग्णता और उसी प्रकार के अन्य विघ्नों की संभाव्यता । यह वस्तु सत्य है, किन्तु जो लोग मोह से सघन रूप में आवृत होते हैं वे इसे भी नहीं समझ पाते मोह राग-द्वेवात्मक होता है। वह दो प्रकार का होता है--दर्शनमोह और चारित्रमोह । जो व्यक्ति आशा और छन्द से पराभूत, कामशल्य से पीड़ित और भोगों की सुखानुभूति की अनेकांतिकता (अनिश्चितता) को नहीं समता वह स्त्रियों से प्रव्यथित होता है, उनका वशवर्ती बन जाता है । 'भो'- यह शिष्य के सम्बोधन का वाचक है। वे स्त्रियों से प्रव्यथित ( वशीकृत) लोग कहते हैं ये आयतन है ये स्त्रियां भोग - सामग्री हैं । आयतन दो प्रकार का होता है- प्रशस्त और Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगमाष्यम् आयतनं द्विविधं भवति-प्रशस्तं अप्रशस्तञ्च । प्रशस्तं अप्रशस्त । ज्ञान आदि प्रशस्त आयतन हैं । विषय और स्त्रियां अप्रशस्त ज्ञानादि, अप्रशस्तं विषया: स्त्रियश्च । यः प्रशस्तभावा- आयतन हैं । जो प्रशस्त भाव के मायतन से शून्य होता है वह अनायतन यतनशून्यो भवति स अनायतनान्यपि आयतनानि करोति। को भी आयतन बना देता है। स्त्रियां वस्तुतः भोग की आयतन नहीं स्त्रियो न सन्ति वस्तुतो भोगायतनानि ।। हैं, भोग-सामग्री नहीं हैं। १२. से दुक्खाए मोहाए माराए णरगाए णरग-तिरिक्खाए । सं०---तद् दु:खाय मोहाय माराय नरकाय नरकतिरश्चे। यह उसके दुःख, मोह, मृत्यु, नरक और तियंच गति के लिए होता है। भाष्यम् ९२-एतद् अनायतने आयतनाभिमतं अनायतन को आयतन मानना उसके दुःख, मोह, मृत्यु, नरक तस्य दु:खाय, मोहाय, माराय, नरकाय, नरकतिर्यग्गत्य और तिथंच गति के लिए होता है। च भवति । कार्याकार्यस्य अविवेको मोहः । विषयासक्तो करणीय और अकरणीय का अविवेक मोह है। विषयों में कार्यमकार्यं न जानाति । आसक्त मनुष्य करणीय और अकरणीय को नहीं जानता। विषयेष अतिप्रसक्तः इष्टां स्त्रियमलभमानः विषयों में अति आसक्त मनुष्य अपनी मनोगत स्त्री के प्राप्त न आत्महत्यामपि करोति । तेन विषयासक्तिमत्यूरेव होने पर आत्महत्या भी कर लेता है । इसलिए विषयों की आसक्ति भवति । मृत्यु ही है। विषयासक्तो मनुष्यो नरके उत्पद्यते । तत उद्- विषयासक्त मनुष्य नरक में उत्पन्न होता है। वहां से निकल वर्तनं कृत्वा तिर्यग्गतावत्पद्यते । एवं नरकतिर्यग्गतो कर वह तिर्यच गति में जन्म लेता है । इस प्रकार वह बार-बार नरक पुनर्पनरनुपरिवर्तमानो भवति । और तिथंच गति में परिभ्रमण करता रहता है। ९३. सततं मूढे धम्म णाभिजाणइ । सं०-सततं मूढः धर्म नाभिजानाति । सतत मूढ मनुष्य धर्म को नहीं जानता। भाष्यम् ९३-नानागतिषु जन्ममरणचक्रमनुभवन् विभिन्न गतियों में जन्म-मरण करता हुआ मनुष्य निरंतर सततं मढ:---मुच्छौं परिगतः पुरुषः धर्म नाभिजानाति । मूच्छित बना रहता है। मूच्छित मनुष्य धर्म को नहीं जान पातामा मचायां न धर्माभिज्ञानम । धर्माभिज्ञानं विना न मूच्छों- में धर्म की पहचान नहीं होती। धर्म को जाने बिना मूर्छा का परिहार परिहारः । इदानीं कथञ्चिद् मूभिङ्गो जातः । तेन नहीं होता। वर्तमान जन्म में कुछ मूर्छा टूटी है, इसीलिए अब अप्रमत्त अप्रमत्तेन भाव्यमित्युपदेश: रहना चाहिए। इस उपदेश के संदर्भ में १४. उदाह वीरे----अप्पमादो महामोहे। सं०-उदाह वीरः-अप्रमादः महामोहे । महावीर ने कहा-साधक विषय-विकारों में प्रमत्त न हो। भाष्यम् ९४-वीरः तीर्थंकरः महावीरो वा वीर अर्थात् तीर्थकर अथवा महावीर ने कहा-महामोह में उदाहृतवान्-महामोहे अप्रमादः कार्यः ।। __ प्रमत्त मत बनो। ___ महामोहः-स्त्री-पु-नपुंसक-वेदाः विषयाभिलाषो महामोह का अर्थ है-(१) स्त्रीवेद-स्त्री के प्रति होने वाला बा। विकार, (२) पुरुषवेद-पुरुष के प्रति होने वाला विकार, (३) नपुंसकवेद-नपुंसक के प्रलि होने वाला विकार । अथवा महामोह का अर्थ है-विषय-सेवन की अभिलाषा। Jain Education international Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० २. लोकविचय, उ० ४. सूत्र ९२-९७ ६५. अलं कुसलस्स पमाएणं । सं०-अलं कुशलस्य प्रमादेन । कुशल प्रमाद न करे भाष्यम् ९५-कुशलस्य प्रमादेन कि प्रयोजनम् ? कुशल का प्रसाद से क्या प्रयोजन ? इसका आशय यह है कि अस्याशयमिदं-कुशलः वीतरागः वीतरागसाधनायां वा जो वीतराग है या वीतराग की साधना में प्रवृत्त है, वह कुशल प्रवृत्तः पुरुषः । वीतरागे कुतः प्रमादस्य चर्चा ? प्रमादस्य कहलाता है। वीतराग व्यक्ति में प्रमाद का प्रसंग ही कहां प्रमाद का कारणमस्ति मोहः । तस्य प्रलयं कृत्वव पुरुषो वीतरागो कारण है-मोह। उसका सर्वथा क्षीण करके ही व्यक्ति वीतराग भवति । न च तस्मिन् क्वचिदपि कदाचिदपि विषया- बनता है। उसमें कहीं और कभी भी विषयाभिलाषा नहीं जागती। भिलाषः प्रस्फुरति । यश्च वीतरागसाधनायां प्रवृत्तः स जो वीतराग की साधना में प्रवृत्त है, वह कभी महामोह की दशा कदाचिद् महामोहदशां प्राप्नुयात् । तं लक्ष्यीकृत्य निर्दिष्टं को प्राप्त हो सकता है । उसको लक्ष्य कर भगवान् ने कहा-तू कुशल भगवता-त्वं कुशलोऽसि । वीतरागदशां अधिजिगमिषु- है। तू वीतराग-दशा को प्राप्त करना चाहता है। फिर प्रमाद से तेरा रसि । तव प्रमादेन कि प्रयोजनम् ? त्वया सततं क्या प्रयोजन ? तुझे सतत अप्रमत्त रहना चाहिए । अप्रमत्तेन भाव्यम् । ६६. संति-मरणं संपेहाए, भेउरधम्म संपेहाए। सं०-शान्तिमरणं संप्रेक्ष्य, भिदुरधर्म संप्रेक्ष्य । शांति और मरण की संप्रेक्षा करने तथा अनित्य शरीर की संप्रेक्षा करने पर अप्रमाद की वृद्धि होती है। भाष्यम ९६-नाभ्यासेन विना अप्रमादस्य आसेवनं अभ्यास के बिना प्रमाद की साधना और अप्रमाद का परिहार प्रमादस्य च परिहार: कर्त शक्यः । तेन तदालम्बनसूत्र नहीं किया जा सकता। इसलिए उसका आलंबन-सूत्र निर्दिष्ट किया निदिश्यते-शांतिसंप्रेक्षा, मरणसंप्रेक्षा, अनित्यसंप्रेक्षा- जा रहा है। शांति-संप्रेक्षा, मरण-संप्रेक्षा और अनित्य-संप्रेक्षा--ये एतानि त्रीणि सन्ति अप्रमादस्य आलम्बनानि । अप्रमाद की साधना के तीन आलंबन हैं। ___ शांतिः-निर्वाणम् । मरणम् -संसारः । अथवा शांतिः- शांति का अर्थ है--निर्वाण और मरण का अर्थ है-संसार । अव्याबाधा प्रवृत्तिः। मरणम् --सव्याबाधा प्रवृत्तिः । अथवा बाधा रहित प्रवृत्ति शांति है और बाधा सहित प्रवत्ति मरण भिदुरधर्ममिति अनित्यं शरीरम्।। है। भिदुरधर्म का अर्थ है-शरीर की अनित्यता। शांतेर्मरणस्य अनित्यतायाश्च पौन:पुन्येन प्रेक्षया शांति, मरण और अनित्यता की बार-बार प्रेक्षा करने से प्रमादो निवर्तते अप्रमादश्च प्रवर्धते । प्रमाद की निवृत्ति और अप्रमाद की वृद्धि होती है। ६७. णालं पास। सं०-नालं पश्य । तू देख ! ये भोग तृप्ति देने में समर्थ नहीं हैं । भाष्यम् ९७-इदमपि अप्रमादस्य आलम्बनसूत्रम्-- यह भी अप्रमाद का आलम्बन-सूत्र है-मतिमन् ! तू देख, मतिमन ! त्वं पश्य, एते कामभोगा भुज्यमाना अपि भोगे जाने वाले ये कामभोग भी पर्याप्त नहीं हैं, तृप्ति देने वाले नहीं अलमिति पर्याप्ता न भवन्ति, न तृप्तये भवन्ति । हैं। इनके भोग से उत्तरोत्तर अतृप्ति बढती है। कहा भी हैअतृप्तिश्च उत्तरोत्तरं प्रवर्धते । भणितं चनाग्निस्तृप्यति काष्ठानां, नापगानां महोदधिः। जैसे अग्नि इंधन से, महासमुद्र नदियों से और यमराज सभी नान्तकृत् सर्वभूतानां, न पुंसां वामलोचना ।' प्राणियों को मारकर भी तृप्त नहीं होता, वैसे ही स्त्री पुरुषों से तृप्त नहीं होती। १. आचारांग चूणि, पृष्ठ ७५ में उद्धृत श्लोक । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ आचारांगभाष्यम ६८. अलं ते एएहि। सं.-अलं ते एतः। फिर इनसे तुम्हारा क्या प्रयोजन ? माष्यम् ९८–एते कामभोगा अतृप्तिमुद्दीपयन्ति। ये कामभोग अतृप्ति को उत्तेजित करते हैं। इसलिए तुम्हार तेन तव एतैः अलम्-कि प्रयोजनम् ? इनसे क्या प्रयोजन ? &६. एयं पास मुणी ! महाभयं । सं०-एतत् पश्य मुने ! महाभयम् । शानिन् ! तू देख, यह महाभयंकर है। भाष्यम् ९९ हे मुने-ज्ञानिन् ! त्वं पश्य, एष हे ज्ञानिन् ! तू देख, यह विषयों की अभिलाषा महाभयंकर विषयाभिलाष: महाभयम् । एष विषयाभिलाषः प्रियः है। यह विषयाभिलाषा प्रिय और मृदु उद्दीपनों से उद्दीप्त होती है और मदुभिश्च उद्दीपनरुद्दीप्तो भवति वेदनाञ्च जनयति, वेदना को उत्पन्न करती है, इसलिए यह महाभयंकर है। कहा भी तेनासो महाभयः । भणितं चएतो व उण्हतरीया अण्णा का वेयणा गणिज्जंती ? इससे अधिक उष्णतर अर्थात् तीव्रतर अन्य कौनसी वेदना होगी जंकामवाहिगहितो डज्मति किर चंदकिरणेहिं ।' कि कामरूपी व्याधि से ग्रस्त व्यक्ति चन्द्रमा की शीतल किरणों से भी जल जाता है ! पौर्णमास्याश्चंद्रमसः मनुष्याणां भावेन अस्ति कश्चित् आज के वैज्ञानिक भी यह मानते हैं कि पूर्णिमा के चन्द्रमा का सम्बन्ध इति वैज्ञानिकानामपि साम्प्रतमभिमतमस्ति। मनुष्यों के भावों के साथ कुछ न कुछ संबंध अवश्य है। १००. णाइवाएज्ज कंचणं । सं०-नातिपातयेत् कञ्चन । पुरुष किसी भी जीव का अतिपात न करे। भाष्यम् १००-कामासक्त: हिंसायां प्रवर्तते । काम काम में आसक्त मनुष्य हिंसा में प्रवृत्त होता है । काम-विरति विरतेरनन्तरं हिंसाविरतेरुपदेशः-कमपि जीवं नाति- के पश्चात् हिंसा की विरति का उपदेश दिया गया है कि काममुक्त पातयेत् काममुक्तः पुरुषः ।' पुरुष किसी भी जीव का अतिपात न करे । १०१. एस वीरे पसंसिए, जे ण णिविज्जति आदाणाए। सं०-एष वीरः प्रशंसितः यो न निर्विन्ते अदानाय । वह वीर प्रशंसित होता है, जो अदान से खिन्म नहीं होता। भाष्यम् १०१-यस्य नास्ति परिग्रहः स जीवनधार जिसके पास परिग्रह नहीं है, वह अपने जीवन-निर्वाह के लिए णार्थं भोजनादिदानेन लभ्यते। दानञ्च दातुरिच्छा- भोजन आदि दान के द्वारा प्राप्त करता है । दान दाता की इच्छा पर श्रितम । कश्चिद् दाता न दित्सुरथवा नोचिता दान- निर्भर होता है। कोई दाता देना नहीं चाहता अथवा उचित दान सामग्री सामग्री, तदानीमदानं स्यात् । तस्यामदानावस्थायां प्राप्त नहीं है, तब अदान की स्थिति पैदा होती है अर्थात् उस व्यक्ति १. आचारांग चूणि, पृष्ठ ७५ में उद्धृत गाथा । बहुत मूल्यवान् है । २. भोग और हिंसा एक ही रेखा के दो बिन्दु हैं । ऐसा कोई ३. चूणों (पृ० ७५) 'अदाणाए' इति पाठो व्याख्यातः---'जे भोगी नहीं है जो भोग का सेवन करता है. और उसके ण णिविज्जति अदाणाए' णिग्वेदो णाम अप्पणिवा, लिए हिंसा नहीं करता । जहां हिंसा है वहां भोग हो भी अलब्भमाणा णिव्विदति अप्पाणं-कि मम एताए सकता है और नहीं भी होता । जहां भोग है वहां हिंसा दुल्लभलाभाए पव्वज्जाए गहियाए ? निश्चित है । अतः भोग के संदर्भ में अहिंसा का उपदेश वृत्तो (पत्र ११६) । 'आदानाय' इति पाठो व्याख्यातोऽस्ति। घार Jain Education international Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०२. लोकविचय, उ०४-५. सूत्र ९८-१०४ ११६ यो न खिद्यते स एष वीरः प्रशंसितः । को कुछ नहीं मिलता। ऐसी अदान की स्थिति में भी जो खिन्न नहीं होता वह वीर पुरुष प्रशंसित होता है। १०२. ण मे देति ण कुप्पिज्जा, थोवं लधंन खिसए। पडिसेहिओ परिणमिज्जा । सं०-न मे ददाति न कुप्येत्, स्तोक लब्ध्वा न खिस्येत् । प्रतिषिद्धः परिणमेत् । यह मुझे भिक्षा नहीं देता-यह सोचकर उस पर क्रोध न करे। थोडा प्राप्त होने पर निन्दा न करे। गृहस्वामी प्रतिषेध करे तो वहां से चला जाए। भाष्यम् १०२- अदानावस्थायां यदाचरितव्यं तस्य अदान की स्थिति में साधक को जो आचरण करना चाहिए, निर्देशः क्रियते-'न मे ददाति' इति न कुप्येत्, कश्चित् उसका निर्देश यह है--'वह मुझे भिक्षा नहीं देता'—यह सोचकर उस स्तोकं ददाति, तस्य न निदां कुर्यात् । प्रतिषिद्धः ततः पर क्रोध न करे। कोई दाता थोड़ा देता है तो उसकी निन्दा न करे । परिणमेत्-निवर्तेत।' गृहस्वामी प्रतिषेध करे तो वहां से लौट जाए। ___ अदानं स्तोकदानं प्रतिषेधश्च-एताः तिस्रोऽप्यवस्थाः दान न देना, थोड़ा देना अथवा दान देने से प्रतिषेध करनामनोविचलनस्य हेतुतां प्रपद्यन्ते । समाहितात्मा मुनिः दान की ये तीनों अवस्थाएं मन को विचलित करने में कारणभूत बनती एतासु अवस्थासु समत्वं भजते। वस्तुतः समत्वमुपाश्रित हैं । समाहित आत्मा वाला मुनि इन अवस्थाओं में समता रखता है। एव वीरो भवति अथवा वीर एव समत्वमाचरितु- वास्तव में समत्व को उपासना करने वाला ही वीर होता है अथवा जो मर्हति। वीर होता है वही समत्व का आचरण कर सकता है। १०३. एयं मोणं समणुवासेज्जासि । -त्ति बेमि । सं०-एतत् मौनं समनुवासयेः। -इति ब्रवीमि । मुनि इस ज्ञान का सम्यक् अनुपालन करे। -ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् १०३..-एतत् पूर्वनिर्दिष्टं मौनं त्वं समनु- पूर्व सूत्रों में निर्दिष्ट जो मौन है उसका तू सम्यक् अनुपालन वासयेः। यो मन्यते स मुनिः । मुनेर्भावः मौनम् । ज्ञानं कर । जो जानता है वह मुनि है । मुनि का भाव है-मौन । इसका तात्पर्यार्थ है-ज्ञान अथवा संयम। सूत्रा में निर्दिष्ट जो मौन । निः । मुनेर्भावः मौनम् । ज्ञानं संयमो वा इति पंचमो उद्देसो : पांचवां उद्देशक १०४. जमिण विरूवरूवेहि सत्थेहि लोगस्स कम्म-समारंभा कज्जति, तं जहा-अप्पणो से पुत्ताणं ध्याणं सुण्हाणं णातीणं धातीणं राईणं दासाणं दासीणं कम्मकराणं कम्मकरीणं आएसाए, पुढो पहेणाए, सामासाए, पायरासाए। सं०-यदिदं विरूपरूपः शस्त्र: लोकस्य कर्मसमारम्भाः क्रियन्ते, तद् यथा-आत्मने पुत्रेभ्यः दुहितृभ्यः स्नुषाभ्यः ज्ञातिभ्यः धात्रीभ्यः राजभ्यः दासेभ्यः दासीभ्यः कर्मकरेभ्यः कर्मकरीभ्यः आदेशाय, पृथक् प्रहेणकाय, श्यामाशाय, प्रातराशाय । प्रकरणसङ्गत्या अदानमिति उपयुक्तमस्ति । अत्र अदान है। राग-द्वेषयुक्त भाव से लिया हुआ और किया हुआ मेव दीर्धीकरणाद् आदानमिति मन्तव्यम् । भोजन भोग बन जाता है। त्याग या संयम की साधना १. जीवन यापन के लिए भोजन आवश्यक है। मुनि गृहस्थ करने वाला मुनि भोजन लेने के अवसर पर क्रोध, निन्दा के घर से उसे प्राप्त करता है। वह (भोजन) भोग भी आदि आवेशपूर्ण व्यवहार न करे। मन को शांत और बन सकता है और त्याग भी बन सकता है। रागष-मुक्त संतुलित रखे। भाव से लिया हआ और किया हुआ भोजन त्याग होता For Private & Personal use only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० आचारांगभाष्यम असंयमी पुरुष अपने लिए, पुत्र, पुत्री, वध, ज्ञाति, धाय, राजा, दास, दासी, नौकर, नौकरानी के निमित्त आतिथ्य, उपहार, सायंकालीन भोजन और प्रातःकालीन भोजन के लिए नाना प्रकार के शस्त्रों से कर्म-समारंभ-अग्नि का समारंभ करते हैं। भाष्यम् १०४—मनुष्येण विरूपरूपैः-नानाप्रकारैः मनुष्य अपने लिए, पुत्र, पुत्री, वधू, शाती, धाय, राजा, दास, शस्त्रैः लोकस्य'---अग्नेः सम्बन्धिनः पाककर्मसमारम्भाः दासी, नौकर, नौकरानी के निमित्त आतिथ्य, उपहार, सायंकालीन क्रियन्ते, तद् यथा-आत्मनः, पूत्राणां, दुहितणां, भोजन तथा प्रातःकालीन भोजन के निष्पादन में नाना प्रकार के शस्त्रों स्नुषाणां, ज्ञातीनां, धात्रीणां, राज्ञां, दासानां, दासीनां, से अग्नि का समारंभ कर पकाने की प्रवृत्ति करता है। कर्मकराणां, कर्मकरीणां निमित्तं आदेशाय, पृथक् प्रहेणकाय, श्यामाशाय, प्रातराशाय । आदेशः-आतिथ्यं यज्ञो वा'। आदेश का अर्थ है-आतिथ्य अथवा यज्ञ । प्रहेणकम्-उत्सवे दीयमानं मिष्टान्नम्। प्रहेणक का अर्थ है-उत्सव में उपहार स्वरूप दी जाने वाली मिठाई। श्यामाशः-श्यामा रात्री। सायंकालीनं भोजनं श्यामाश-श्यामा का अर्थ है-- रात्री । श्यामाश का अर्थ हैसायमाशः इति यावत् । सायंकालीन भोजन । इसे सायमाश भी कहा जा सकता है। १०५. सन्निहि-सन्निचओ कज्जइ इहमेगेसि माणवाणं भोयणाए। सं०-सन्निधि-सन्निचयः क्रियते इहैकेषां मानवानां भोजनाय । वे कुछ लोगों के भोजन के लिए सन्निधि और सन्निचय करते हैं। भाष्यम् १०५-एतेषां पुत्रादीनां निमित्तं केषाञ्चिद् मनुष्य पुत्र आदि के निमित्त तथा कुछ अन्य लोगों के भोजन अन्येषां मानवानां भोजनाय सन्निधि-सन्निचयोऽपि के लिए भी सन्निधि तथा सन्निचय करता है। क्रियते । संग्रहस्य मनोवृत्तिः मूलमनोवृत्तिरस्ति। परिवारः संग्रह की मनोवृत्ति मूलमनोवृत्ति है । परिवार उस वृत्ति की तस्या वृत्तेः प्रयोगभूमिर्भवति। मनुष्यः परिवारस्य प्रयोगभूमि है । मनुष्य परिवार की समृद्धि के लिए महानतम संग्रह समृद्धये महान्तं संग्रहं करोति इति । करता है, यह इसका तात्पर्य है । १०६. समुदिए अणगारे आरिए आरियपणे आरियदंसी अयं संधीति अदक्ख । सं0-.-समुत्थितः अनगारः आर्यः आर्यप्रज्ञः आर्यदर्शी अयं सन्धिः इति अद्राक्षीत् । आर्य, आर्यप्रज्ञ, आर्यदर्शी और संयम में तत्पर अनगार ने 'यह विवर है'-ऐसी अनुभूति की है। भाष्यम् १०६-अहिंसायाः स्वादविजयस्य च अहिंसा और स्वाद-विजय की साधना के लिए तत्पर मार्य, साधनाय समुत्थित आर्य आर्यप्रज्ञ आर्यदर्शी अनगार अयं आर्यप्रज्ञ, आर्यदर्शी अनगार ने यह–सन्निधि-सन्निचय संधि हैसन्निधि-सन्निचयः सन्धिरिति अद्राक्षीत । ऐसा अनुभव किया है। १. अत्र लोकपदं अग्निसूचकमस्ति । इदं पदं ११३९ सूत्रे ७७) । वृत्तौ 'आएस' पवस्य अर्थः आतिथेयः कृतोस्ति-- जलस्य सूचकं तथा ११६६ सूत्रे अग्निसूचकं विद्यते । अत्र आदिश्यते परिजनो यस्मिन्नागते तदातिथेयाय"......... पाकप्रकरणे अस्य अग्निसूचकत्वं स्वाभाविकम् । (आचारांग वृत्ति, पत्र ११८) । तत्कालीनयज्ञप्रधानपरंपरायां २. आप्टे, आदिश्-A Sacrifice offered to a parti आदेशपदस्य यज्ञवाचकत्वमपि नास्ति असंगतम् । cular deity. ३. आप्टे, प्रहेणकम्--Sweetmeats distributed at चणिकारेणापि यज्ञस्य उल्लेखः कृतः- अप्पणो चेव कोइ festivals. चूर्णी-पहेणंति वा उक्खित्तभत्तंति वा एगट्ठा यागं करेंति । (आ. चू. पृ.७७) (आचारांग चूणि, पृष्ठ ७५)। किन्तु आवेशस्य अर्थः भिन्नः कृतोऽस्ति-आदिसति आएसं ४. द्रष्टव्यम् --आयारो, २।१८। वा करेति, जं भणितं--पाहुणओ (आचारांग चूर्णि, पृष्ठ Jain Education international Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० २. लोकविचय, उ०५. सूत्र १०५-१०९ अत्र सन्धिपदं विवरवाची दृश्यते । नानापिण्डरतस्यानगारस्य एकत्र पर्याप्ताहारस्य दानं सन्धिर्भवति आसक्तिवृद्ध्यै विवरं भवति । तदानीं केचन भिक्षव एकपिण्डरता आसन् । भगवता महावोरेण आहारगृद्धिप्रमोक्षाय नानापिण्ड ग्रहणस्य व्यवस्था कृता । भाष्यम् १०७ - तादृशं सन्निधि - सन्निचयीकृतमाहारं स्वयं नाददीत नादापयेत् न च आददानं समनुजानी यात् । १०७. से जाइए, णाइआवए, ण समणुजाणइ । सं०-स नाददीत न आदापयेत् न समनुजानीत | वह आसक्ति बढाने वाले आहार को स्वयं ग्रहण न करे, दूसरों से ग्रहण न करवाए और ग्रहण । भाष्यम १०८ पुषादिनिमित्तं यद् विशिष्टभोजनं निष्पादितं स्थापितञ्च तस्य ग्रहणं आमगन्धो विद्यते तेन स मुनिः सर्वं आमगन्ध' - भोजनासक्ति परिग्रहभूतां परिजानीयात्, तथा भोजने अनासक्तः अपरिग्रहीभूतः परिव्रजेत्। १०८. सवामधं परिणाय, निरामगंधो परिव्वए । सं० सर्वामगन्धं परिज्ञाय निरामगंध: परिव्रजेत् । वह सब प्रकार की भोजन की आसक्ति का परित्याग कर अनासक्त रहता हुआ परिव्रजन करे। १२१ यहां 'संधि' शब्द विवरवाची है । अनेक घरों से आहार लेने वाला अनगार यदि एक ही पर से पर्याप्त आहार देता है तो यह संधि है, क्योंकि यह आसक्ति की वृद्धि के लिए 'विवर' है, छिद्र है । 1 , भाष्यम् १०९ - ममत्वमुक्तः अनगारः क्रयविक्रययोः अदृश्यमानो भवति न तत्र प्रवर्तते स आहारार्य किमपि वस्तुजातं न क्रीणाति न क्रापयति, न च क्रीणन्तं समनुजानाति । ऋपविधौ परिग्रहसम्बद्ध तेन अपरि१. निशी दोषपूर्णाहारग्रहणेन चारित्रं आमं अविषमवं भवति इत्युक्तमस्ति 1 उस समय कुछ भिक्षु एक ही घर के आहार में रत रहते थे । भगवान महावीर ने आहार की आसक्ति कम करने लिए अनेक घरों से आहार ग्रहण करने की व्यवस्था की । उम्मोसादीया भावतो अस्संजमो य आमविही अन्नो वि व माएसो जो बाससतं न पुरेति ॥ 'आहाकम्बादि उसामोसा आदिसद्दाओ एसणदोसा उपायणा य दोसा, भणियं च 'सव्वामगंधं परिणाय णिरामगंधी परिव्वए ।' जओ तेहि उग्गमादिदोसे हि पेप्यमाणेहि चारितं अविपक्कं अन्न भणति । असंजमो वि आमविधीए चेव भवति, जतो चरणस्सोवपापकारी कि जो परिसरातापुरितो बरससतं १०६. अदित्समाणे कय-दिक्कए से ण किणे, ण किनावए, किणंत ण समणुजाण । सं०] अश्यमानः क्रयविक्रययोःसन श्रीणीयात् नापयेत् क्रीणन्तं समानीत | - वह क्रय और विक्रय में व्यावृत न हो-स्वयं क्रय न करे, दूसरों से न करवाए और करने वाले का अनुमोदन न करे । अनगार उस प्रकार के सन्निधि और सन्निचित किए हुए बहार को स्वयं न से, दूसरों से न सिवाए और न लेने वाले का अनुमोदन करे। करने वाले का अनुमोदन न करे । । पुत्र आदि के निमित्त जो विशिष्ट भोजन बनाया जाता है, स्थापित किया जाता है, उसको ग्रहण करना 'आमगंध' है इसलिए वह मुनि सभी प्रकार के आमगंध - भोजन की आसक्ति को परिग्रहभूत मानकर उसका परित्याग करे और भोजन में अनासक्त अर्थात अपरिग्रही होकर परिवन करे। जो अनगार ममत्व से मुक्त है, वह क्रय-विक्रय से दूर रहता है, यह उसमें प्रवृत्त नहीं होता। वह आहार के लिए किसी भी वस्तु का स्वयं रूप नहीं करता, ग दूसरे से करवाता है और न रूप करने वाले का अनुमोदन करता है। कप और विक्रम दोनों परिग्रह अतरेता अंतरे मरेतो आमो भण्णति ।' (निशीय भाष्य चूर्णि भाग ३, गा० ४७१६, पृष्ठ ४८५ ) 3 २. १०४ १०८ पर्यन्तं सूत्रेषु कश्चित् सम्बन्धो न परिसभ्यते । सन्धिशब्दस्य निश्चितोऽपि नोपलभ्यते । चण भिक्षाकालः तथा वैकल्पिकरूपेण 'भावसन्धि:' इति अर्थद्वयं दृश्यते । (चूणि, पृष्ठ ७७-७८) १०७ सूत्रे - 'नादद्याद्' इत्युल्लेखोsस्ति, किन्तु कि नादद्याविति नास्ति पूर्वायातम् । ''अणेणितं नारदा' इति व्याख्यातकिन्तु कुत आयतमिवम् ? एतेषां प्रश्नानां सन्दर्भे निर्दिष्टसूत्राणामर्थः चिन्तनीयः प्रतिभाति । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ आचारांगमाध्यम् ग्रहस्यानगारस्य तत्र प्रवृत्तिरनिष्टा इति स्वभावा से संबंधित हैं, इसलिए अपरिग्रही अनगार के लिए क्रय-विक्रय की पतितम् । प्रवृत्ति अनिष्टकर होती है, यह इससे स्वयं फलित होता है। ११०. से भिक्खु काणे बलष्णे मायणे यष्णे खणपणे विनयण्णे समयण्णे भावणे, परिग्यहं अममायमाणे कालेाई, अपडणे । सं०---स भिक्षुः कालज्ञः बलज्ञः मात्रज्ञः क्षेत्रज्ञः क्षणकज्ञः विनयज्ञः समयज्ञ: भावज्ञः परिग्रहं अममायमानः, काले उत्थायी, अप्रतिज्ञः । वह भिक्षु कालज्ञ, बलज्ञ, मात्रज्ञ, क्षेत्रज्ञ, क्षणज्ञ, विनयज्ञ, समयज्ञ, भावज्ञ, परिग्रह पर ममत्व नहीं करने वाला, काल में उत्थान करने वाला और अप्रतिज्ञ होता है। भाष्यम् ११० स भिक्षु आहारान्वेषणवेलायां अपरिग्रहं संरक्षन् अनेकेषां वस्तुबोधानामधिकारी भवतीति प्रस्तुतसूत्रे प्रदर्शितमस्ति । यथा । 1 १. स कालज्ञो भवति यस्मिन् काले यत् कर्त्तव्यं तत् जानाति यो वा यत्र भिक्षाकालः तमपि जानाति काले भिक्षामटतः प्रयत्नः सफलो भवति, अकाले च विफलः । उक्तमस्ति दशर्वकालिके - अकाले चरसि free का न पहिसि अयाणं च किलामेसि सन्नियेसं च परिहसि ॥' २. स वलज्ञो भवति - अतिपरिश्रान्तः आहारं भोक्तुं न शक्नोति, तेन स्वबलं दृष्ट्वा आहारोपलब्धये अटति । ३. स मात्रज्ञो भवति साधारणे काले एषा मात्रा - द्वौ भागौ आहारस्य, एको भागो जलस्य, एकश्च भागो पवनार्थम् । ऋतुभवा मात्रा - सर्वत आहारस्य नैका मात्रा भवति, किन्तु भिन्ना भिन्ना । वस्तुसम्बद्धा मात्रा - वस्तु वस्तु अपेक्ष्य मात्रा भवति । यथा संतुलिते भोजने मात्राया विवेको दृश्यते ४. स क्षेत्रज्ञो भवति आहारोपलब्धे रुपयुक्तं क्षेत्र जानाति । 'कि ५. स क्षणज्ञो भवति - आसन्ने भिक्षाक्षणे वक्तव्यं किं वा न वक्तव्यम्' इति जानाति । 1 ६. स विनयशो भवति अतिभूमि न गच्छति, इन्द्रियाणि यथाभागं नियोजयति, आभरणानि च न चिरं निरीक्षते । गुप्तस्वानानि १. दसवेआलियं, ५२३५ । -- वह भिक्षु आहार की अन्वेषणा के समय अपने अपरिग्रह व्रत का संरक्षण करने के लिए अनेक वस्तु तथ्यों का जानकार होता है यह प्रस्तुत सूत्र का प्रतिपाद्य है । जैसे १. वह भिक्षु कालज्ञ होता है-जिस काल में जो करना होता है, उसे जानता है जिस क्षेत्र में जो भिक्षा काल है उसको भी जानता है । भिक्षा काल में भिक्षा के लिए जाने वाला मुनि अपने प्रयत्न में सफल होता है और अकाल में भिक्षा के लिए जाने वाला मुनि विफल होता है । दशर्वकालिक सूत्र में कहा है --- 'भिक्षो ! तुम अकाल में जाते हो, काल की प्रतिलेखना नहीं करते, इसलिए तुम अपने आपको क्लान्त करते हो और सन्निवेश (ग्राम) की निन्दा करते हो ।' २. वह होता है जो घूमते-घूमते अत्यधिक चक जाता है, वह आहार कर नहीं सकता, इसलिए वह अपने बल को तोलकर आहार की उपलब्धि के लिए परिव्रजन करता है। ३. वह भिक्षु मात्रज्ञ होता है-सामान्यतः आहार की मात्रा यह है -- दो भाग आहार के लिए, एक भाग पानी के लिए और एक भाग पवन के लिए। ऋतु सम्बद्ध मात्रा - विभिन्न ऋतुओं में आहार की मात्रा एक समान नहीं रहती । वह प्रत्येक ऋतु में भिन्न-भिन्न हो जाती है । वस्तु संबद्ध मात्रा -- भिन्न-भिन्न वस्तु की मात्रा भिन्न-भिन्न होती है जैसे संतुलित भोजन की तालिका में मात्रा का विवेक दृष्टिगोचर होता है। - ४. वह भिक्षु क्षेत्रज्ञ होता है-आहार प्राप्ति के उपयुक्त क्षेत्र का जानकार होता है । ५. वह भिक्षु क्षणज्ञ होता है- भिक्षा का क्षण - अवसर उपस्थित होने पर वह जानता है कि क्या बोलना चाहिए और क्या नहीं बोलना चाहिए। ६. वह भिक्षु विनयज्ञ होता है अर्थात् आचार तथा अनुशासन का ज्ञाता होता है। वह भिक्षा के लिए घर में प्रवेश कर अतिभूमि-अननुज्ञात भूमि में नहीं जाता (जहां जाना निषिद्ध हो, वहां नहीं २. विनयः - आचारः अनुशिष्टिर्वा । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० २. लोकविचय, उ० ५. सूत्र ११० ७. स समयज्ञो भवति समयः सिद्धान्तः स भिक्षुः आत्मपरतदुभयसमयं जानाति असमयज्ञः न दातु प्रश्नान् समाधातुमर्हति । - ८. स भावज्ञो भवति - दातुः प्रियमप्रियं वा भावं जानाति । ९. स परिग्रहं अममीकुर्वन् भवति परिग्रहेआहारादिपदार्थजाते न ममत्वं करोति । ' । १०. स सति काले उत्थायी भवति - आत्मनः पराक्रमकाले उत्थानं करोति कालज्ञपदे भिक्षाकाल संकेतितः, अत्र पराक्रमकालः विवक्षितोऽस्ति कालश बलजपदयोर्ज्ञानं विवक्षितं, अत्र च करणम्' । 1 ११. स अप्रतिजो भवति नात्मनः आहारादिकं हात किन्तु सामुदायिकम् । 3 प्रतिज्ञया चूणों एवं व्याख्यातमस्ति 'अपठिष्णो' णाम अहं एगो उबभुजेहामि अण्णेवि एतं गुरुमादी भोक्खंति पाति वा, या परिणाए गिन्हइ, ण आयवडियाए, तेण अपणो, अहवा अडिण्णायेसु कुलेसु गिण्हइ, ण य एवं परिणं करिता गच्छति जहाँ अमृगकुलाणि गच्छी हामि सो अपडिण्णो, जो विकरणो एमागी सोऽवि नाणा दीनं अट्ठाए गेहति ।' १. आचारांग चूर्णि पृष्ठ ७९: परिग्गहो नाम अतिरिक्तं संजमोवकरणातो जं भंडयं, भणितं च---- -जं जुज्जती उवगारे उवगरणं तंसि होति उवगरणं, इह तु आहाराधिकारे वट्टमाणे जत्तियं अणेस रुचि बच्वं तं संजमस्स उधातोतिका निहि पछि भवतित्ति, एसजिि अतिमत्ताए ण घित्तव्वं, मत्ताजुसंपि ण एतं मय गुरुमाईणं एतं । २. (क) चूवृत्तीच पुनवक्तिप्रस्नः एवं चचितोऽस्ति सति य उट्ठाण - कम्म-बल-वीरिय- पुरिसगार परक्कमे आह-जति उट्ठाणबलाण एगट्ठा तं तेण बलग्रहणा उट्ठाणग्रहणाय पुणरुतं एसणिज्जंति, भण्णति--अव्विरीयकारणा ण पुणरुतं, तत्थ नाणं इहं करणं, कालो बलं खित्तं अवि १२३ जाता ) । वह इन्द्रियों को अपने-अपने विषय में नियोजित करता है । गुप्त स्थानों तथा आभूषणों को घूर कर नहीं देखता, चिरकाल तक नहीं देखता । ७. वह भिक्षु समयज्ञ होता है। समय का अर्थ है सिद्धान्त । स्वयं के दूसरों के तथा दोनों के सिद्धान्तों का जानकर होता 1 वह है । जो असमयज्ञ होता है वह दान देने वाले के प्रश्नों का समाधान करने में समर्थ नहीं होता। ८. वह भिक्षु भावज्ञ होता है वह दाता के प्रिय और अप्रिय भावों को जानने वाला होता है। ९. वह भिक्षु परिग्रह में 'मेरापन नहीं रखता अर्थात् परिग्रहआहार आदि पदार्थों में ममत्व नहीं करता । १०. वह भिक्षु कालोत्थायी होता है- वह उपयुक्त काल में उपयुक्त पराक्रम करता है। यह अपने पराक्रम काल में उत्थानपुरुषार्थ करता है। 'काम' पद में मिक्षाकाल का संकेत दिया गया है। यहां पराक्रम काल विवक्षित है। 'कालज्ञ' और बलज्ञ'- इन दो पदों में ज्ञान की विवक्षा है ( भिक्षु को काल का तथा बल का ज्ञान होना चाहिए), यहां करण अर्थात् क्रियान्विति विवक्षित है। (अर्थात् भिक्षु को काल जानकर उपयुक्त पराक्रम करना चाहिए ) । ११. वह भिक्षु प्रति होता है वह केवल अपने लिए ही आहार आदि नहीं लेता, वह सामुदायिक - सभी के लिए आहार लाता है। चूर्णि में इसकी व्याख्या इस प्रकार है-वह भिक्षु इस प्रतिज्ञा से बाहार आदि ग्रहण करता है कि मैं भी भोजन करूंगा और गुरु आदि अन्य मुनिजन भी इसको ग्रहण करेंगे। वह केवल अपने उद्देश्य से ही ग्रहण नहीं करता, इसलिए वह अप्रतिज्ञ होता है । अथवा वह अप्रतिज्ञात कुलों से भिक्षा ग्रहण करता है। वह ऐसा संकल्प लेकर नहीं जाता कि में अमुक-अमुक कुलों में ही भिक्षा के लिए जाऊंगा। वह अप्रतिश होता है । जो अकेला होता है वह भी ज्ञान आदि के प्रयोजन से भिक्षा ग्रहण करता है । वरीयं परियव्यं तेन च पुणरतं (भूणि, पृष्ठ ७९) । 'काला ट्ठाई' यस्मिन् काले कर्तव्यं तत्तस्मिन्नेवानुष्ठातुं शीलमस्येति कालानुष्ठायी कालानतिपातकर्तव्यद्यलो, ननु चास्यार्थस्य 'से भिक्खू कालन्ने' इत्यनेनंव गतार्थत्वात् किमर्थं पुनरभिधीयते इति ? नंष दोषः, तत्र हि ज्ञपरिज्ञेव केवलाऽभिहिता, कर्तव्यका जानाति इह पुनरासेवना परिज्ञा कर्त्तव्यका कार्यं विधत्त इति । ( वृत्ति, पत्र १२० ) (ख) आचारांग गि, पृष्ठ ८अ पिडीत वा जाब कालेऽणुकाए अपडिष्णो' एतेसि एमाहियारिए हि हि एक्कार विडेओ माओ ३. आचारांग चूणि, पृष्ठ ७९-८० । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ आचारांगभाष्यमम् १११. दुहओ छेत्ता नियाइ। सं०-द्वितः छित्त्वा निर्याति । वह दोनों को छिन्न कर नियमित जीवन जीता है। भाष्यम् १११-स भिक्षः राग द्वेषञ्च उभयमपि वह भिक्षु राग और द्वेष दोनों का छेदन कर नियमित जीवन छित्त्वा नियतं याति-नियमितं जीवनं जीवति । जीता है । अनेषणीय के ग्रहण में प्रिय और अप्रिय भाव ही निमित्त अनेषणीयग्रहणे प्रियाप्रियभावावेव निमित्तं भवतः। बनते हैं, इसलिए दोनों के वर्जन की बात कही गयी है। तेन द्वयोरपि वर्जनदिक सूचिता। ११२. वत्थं पडिग्गह, कंबलं पायछणं, उग्गहं च कडासणं । एतेसु चेव जाएज्जा। सं०-वस्त्रं प्रतिग्रहं कम्बलं पादप्रोञ्छनं अवग्रहं च कटासनम् । एतेषु चैव याचेत । वह वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादपोंछन, अवग्रह और कटासन-इनकी हो याचना करे । भाष्यम् ११२--स भिक्षुः वस्त्रं, प्रतिग्रहः', कम्बलं, वह भिक्षु वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादपोंछन, अवग्रह और कटासन पादप्रोञ्छनं, अवग्रहः, कटासनञ्च-एतेषु' जीवन- -जीवन-निर्वाह के साधनभूत इन पदार्थों की ही याचना करे तथा निर्वाहसाधनभूतेषु वस्तुषु याचनां कुर्यात् । अन्यपदार्थ- अन्यान्य पदार्थों की याचना की प्रवृत्ति का निरोध करे। सम्बद्धा याचनाप्रवृत्ति निरुन्ध्यात् । अवग्रहः-स्थानम् । अवग्रह का अर्थ है-स्थान । ११३. लद्ध आहारे अणगारे मायं जाणेज्जा, से जहेयं भगवया पवेइयं । सं०-लब्धे आहारे अनगारः मात्रां जानीयात्, तद् यथेदं भगवता प्रवेदितम् । आहार प्राप्त होने पर मुनि मात्रा को जाने, भगवान् ने जैसे इसका निर्देश किया है। भाष्यम् ११३--अनगारः लब्धे आहारे मात्र अनगार आहार को प्राप्त कर उसको खाने की मात्रा को जाने । जानीयात् । सा कियती भवति? इति जिज्ञासायां खाने की वह मात्रा कितनी होनी चाहिए- इस जिज्ञासा के समाधान सूत्रकारो निदिशति--यथा इयं भगवता प्रवेदिता। में सूत्रकार कहते हैं-'भगवान् ने जैसे इसका निर्देश किया है।' अत्रापि मात्रायाः स्पष्ट निर्देशो नास्ति । भगवत्यामस्या इस कथन में भी आहार की मात्रा का स्पष्ट निर्देश नहीं है। भगवती निर्देश एवमुपलभ्यते - सूत्र में इसका निर्देश इस प्रकार मिलता है० अट्र कुक्कूडिअंडगपमाणमेत्ते कवले आहारमाहारे- ० मुर्गी के अण्डे जितने आठ कवल का आहार करने वाला माणे अप्पाहारे, अल्पाहारी होता है। ० दुवालस कुक्कुडिअंडगपमाणमेत्ते कवले आहार- ० मुर्गी के अण्डे जितने बारह कवल का आहार करने वाला माहारेमाणे अवड्डोमोयरिए, अपार्ध (आधे से कुछ कम) अवमौदर्य करने वाला होता • सोलस कुक्कुडिअंडगपमाणमेत्ते कवले आहारमाहारे माणे दुभागप्पत्ते, • चउव्वीसं कुक्कुडिअंडगपमाणमेत्ते कवले आहार माहारेमाणे ओमोदरिए, ० बत्तीस कुक्कुडिअंडगपमाणमेत्ते कवले आहारमाहारे- ___माणे पमाणपत्ते, ० मुर्गी के अंडे जितने सोलह कवल का आहार करने वाला आधा ____ आहार करने वाला होता है। • मुर्गी के अंडे जितने चौबीस कवल का आहार करने वाला अवमौदर्य --कुछ कम खाने वाला होता है । . मुर्गी के अंडे जितने बत्तीस कवल का आहार करने वाला पूरे प्रमाण से आहार करने वाला होता है। - - १. एत्तो बत्थेसणपातेसणाओ निज्जूढाओ (आ०चू०पृ० ८०)। २. एत्तो सुत्ता सेज्जा णिज्जूढा (वही, पृ०८०)। ३. 'एतेषु' इति पदस्य आधारः ॥१८,३९ सूत्रयोर्द्रष्टव्यः । ४. अंगसुत्ताणि २, भगवई ७५२४ । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ अ० २. लोकविचय, उ० ५. सूत्र १११-११७ ० एत्तो एक्कण वि घासेणं ऊणगं आहारमाहारेमाणे समणे निग्गंथे नो पकामरसभोईति वत्तव्वं सिया ।' इससे एक कवल भी कम आहार करने वाला श्रमण निर्ग्रन्थ प्रकामरसभोजी नहीं कहलाता । ११४. लाभो त्ति ण मज्जेज्जा। सं०-लाभ इति न मायेत् । आहार का लाभ होने पर मद न करे। ११५. अलाभो त्ति ण सोयए। सं०---अलाभ इति न शोचेत । आहार का लाभ न होने पर शोक न करे। भाष्यम् ११४-११५-आहारस्य लाभे सति मदो न आहार का लाभ होने पर अनगार मद न करे और उसका कर्तव्यः । तस्याऽलाभे च शोको न कर्तव्यः । लाभा- अलाभ होने पर शोक न करे । लाभ और अलाभ में वह समता रखे। लाभयोः समतामनुभवेत् । 'अहं पर्याप्तमाहारं लभे, 'मुझे पर्याप्त आहार मिलता है, दूसरों को नहीं मिलता'-यह मद का शेषा न लभन्ते'-एष मदस्य आकारः । 'अहं मंदभाग्यः स्वरूप है। 'मैं मंद-भाग्य हूं, मुझे पर्याप्त आहार नहीं मिलता'-यह पर्याप्तमाहारं न लभे'-इति शोकस्य आकारः। शोक- शोक का स्वरूप है। शोक की निवृत्ति के लिए चूणिकार ने एक निवृत्तये चूर्णिकारेण एकमालम्बनसूत्रं निर्दिष्टमस्ति- आलम्बन-सूत्र निर्दिष्ट किया है'लभ्यते लभ्यते साधु, साधु एव न लभ्यते । 'यदि आहार मिलता ही मिलता है तो बहुत अच्छी बात है। अलब्धे तपसो वृद्धिलब्धे देहस्य धारणा ॥२ यदि नहीं मिलता है तो भी अच्छी बात है। क्योंकि आहार के न मिलने पर सहज ही तप की वृद्धि होती है और यदि मिलता है तो शारीर-धारण या प्राण-धारण सहज हो जाता है।' ११६. बहुं पि लधु ण णिहे। सं०-बहु अपि लछवा न निदध्यात् । वस्तु का प्रचुर मात्रा में लाभ होने पर भी उसका संग्रह न करे। भाष्यम् ११६ --अनगारः प्रचुरमात्रायां सुलभे प्रचुर मात्रा में आहार की प्राप्ति सुलभ होने पर भी अनगार आहारजाते तन्न निदध्यात्--न स्थापयितुमिच्छेत् । उसका संग्रह न करे, उसको एकत्रित कर न रखे । वस्त्र-पात्र आदि के वस्त्रपात्रादिविषयेऽपि एष एव नियमः । विषय में भी यही नियम है। ११७. परिग्गहाओ अप्पाणं अवसबकेज्ज।। सं०--परिग्रहात् आत्मानं अपष्वष्केत । परिग्रह से अपने-आपको दूर रखे। भाष्यम् ११७-आहारवस्त्रादीनां पदार्थानां प्राप्ता- आहार, वस्त्र आदि पदार्थों की प्राप्ति होने पर भी अनगार वपि अनगारः परिग्रहं न कुर्यात् । 'एतं आहारं अहं उनका परिग्रह न करे । 'यह आहार मैं स्वयं खाऊंगा, दूसरों को नहीं स्वयमेव परिभोक्ष्ये, अन्यस्मै न दास्यामि' एतादृशो दूंगा, ऐसा ममत्व भाव परिग्रह होता है । आहार आदि सारे पदार्थ ममत्वाभिप्रायः परिग्रहो भवति । आचार्यसत्कमिदं आचार्य की निश्रा--आश्रय में हैं, ऐसा सोचकर अनगार स्वयं को परिग्रह १. भोजन की मात्रा का निश्चित माप नहीं किया जा सकता। उसका संबंध भूख से है। न सबकी भूख समान होती है और न सबकी भोजन की मात्रा, फिर भी आनुपातिक वृष्टि से भगवान ने भोजन की मात्रा बत्तीस कौर बतलाई और उससे कुछ कम खाने का निर्देश दिया। २. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ ८१ । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १२१: ....."लब्धे तु प्राणधारणम् । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ आहारादिवस्तुजातम् इति सामालोच्य परिग्रहाद् अपष्वष्केत- अपसर्पयेत् पदार्थजाते मुच्छ ममत्वं वा न कुर्यात्।' ११८. अण्णा णं पासए परिहरेज्जा । सं० - अन्यथा पश्यकः परिधरेत । अध्यात्म तत्त्वदर्शी वस्तुओं का परिभोग अन्यथा करे - जैसे अध्यात्म के तत्व को नहीं जानने वाला मनुष्य करता है, वैसे न करे । भाष्यम् ११८ अनगार: आत्मानं परमतत्त्वञ्च पश्यति, तेन स पश्यको भवति । तादृशः स आहारादि वस्तुजातानां अन्यथा परिभोगं कुर्यात् गृहस्थवत् परिग्रहबुद्धया तेषां परिभोगं न कुर्यात् एतद् वस्तु जातं धर्मोपकरणं आचार्यसत्कञ्च इति सम्प्रधार्य तस्य परिभोगं कुर्यात् न तस्मिन् मूच्छा ममत्वं वा कुर्यात् । आत्मानं से दूर रखे, पदार्थ के प्रति मूर्च्छा या ममत्व न करे । 'अन्यथा परिभोग नियमः' अध्यात्म साधनायामुपस्थितस्य गृहस्थस्यापि अनुसरणीयो भवति । यथा अध्यात्म रहस्यमजानानो गृहस्थ पदार्थानां मूच्छतिरेकेण उप भोगं करोति तद् अध्यात्मरहस्यविद् गृहस्थः तथा न कुर्यात् । सति मूर्च्छातिरेके गाडकर्मणां बन्धो भवति । मूर्च्छतिनुत्वे कर्मणां बन्धोऽपि शिथिलो भवति । " ११९. एस मग्गे आरिएहि पवेइए। सं० - एष मार्गः आयें प्रवेदितः । यह मार्ग तीर्थंकरों के द्वारा प्रतिपादित है । ११९ एवं आहारादिपदार्थजातविषयकः अपरिग्रहमार्गः आर्यैः प्रवेदितः । अत्र आर्यपदेन साक्षाद् भगवतो महावीरस्य ग्रहणं, परम्परया अन्येषामपि तीर्थंकराणाम् । १२०. जहेत्थ कुसले गोवल पिज्जासि त्ति बेमि । सं० - यथात्र कुशलः नोपलिम्पेत् इति ब्रवीमि । जैसे कुशल पुरुष इस में लिप्त न हो, ऐसा मैं कहता हूं। १. धर्मोपकरण के बिना जीवन का निर्वाह नहीं होता । इसलिए उसका ग्रहण किया जाता है, फिर भी मुनि का यह चितन बना रहना चाहिए कि नौका के बिना समुद्र को पार नहीं किया जा सकता। समुद्र का पार पाने के लिए नौका आवश्यक है, किन्तु समुद्रयात्री उसमें आसक्त नहीं होता, वैसे ही जीवन चलाने के लिए आवश्यक धर्मोपकरण में मुनि को आसक्त नहीं होना चाहिए । २. वस्तु का अपरिभोग और परिभोग ये दो अवस्थाएं हैं। वस्तु का अपरिभोग एक निश्चित सीमा में ही हो सकता आचारांगभाष्यम अनगार आत्मा और परमतत्त्व को देखता है, इसलिए वह द्रष्टा होता है। पश्वक ऐसा वह अनवार आहार आदि पदार्थों का परिभोग अन्य प्रकार से करे —— गृहस्थ की भांति परिग्रह की बुद्धि से उनका परिभोग न करे ये पदार्थ धर्मोपकरण हैं तथा आचार्य की निश्रा में हैं' - ऐसा सोचकर उनका परिभोग करे, उनमें न मूर्च्छा करे और न ममत्व रखे । में अन्य प्रकार से परिभोग करने का यह नियम अध्यात्म-साधना उपस्थित गृहस्थ के लिए भी अनुसरणीय है । जैसे अध्यात्म के रहस्य का जानकार गृहस्थ पदार्थों का उपभोग मूर्च्छा के अतिरेक से करता है, उस प्रकार से अध्यात्म के रहस्य को जानने वाला गृहस्थ न करे । मूर्च्छा का अतिरेक होने पर गाढ कर्मों का बंध होता है । मूर्च्छा की अल्पता में कर्मों का बंध भी शिथिल होता है । आहार आदि पदार्थों से संबंधित अपरिग्रह का यह मार्ग आयो द्वारा प्रतिपादित है । यहां आर्यपद से साक्षात् भगवान् महावीर का ग्रहण किया है और परम्परा से अन्यान्य तीर्थकरों का भी । है जहां जीवन है, शरीर है, वहां वस्तु का उपभोग परि भोग करना ही होता है। एक तत्वदर्शी मनुष्य भी उसका उपभोग - परिभोग करता है और तत्त्व को नहीं जानने वाला भी। किन्तु इन दोनों के उद्देश्य, भावना और विधि में मौलिक अन्तर होता है भावना उद्देश्य विधि १. तरव को नहीं जानने वाला | पौद्गलिक सुख | आसक्त | असंयत २. तत्वदर्शी आत्म-विकास के अनासक्त संयत लिए शरीर धारण Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० २. लोकविचय, उ० ५. सूत्र ११८-१२३ १२७ भाष्यम् १२०...अत्र मार्गपदेन अपरिग्रहमार्गो विव- प्रस्तुत प्रसंग में 'मार्ग' पद से अपरिग्रह का मार्ग विवक्षित है। क्षितोऽस्ति । केवलं पदार्थसंग्रह एव न परिग्रहः, किन्तु केवल पदार्थ का संग्रह ही परिग्रह नहीं है, किन्तु पदार्थों के प्रति होने पदार्थेषु जायमाना मूर्छाऽपि परिग्रहोऽस्ति । मूर्छायां वाली मूर्छा भी परिग्रह है। जब मूर्छा कृश हो जाती है तब व्यक्ति प्रतनुतां गतायां पुरुष: लाभे सति न माद्यति, अलाभे लाभ होने पर भी मद नहीं करता, अलाभ की स्थिति में शोक नहीं सति न शोचति, बहुलाभे सति न सन्निधि-सन्निचयं करता तथा बहुत लाभ होने पर सन्निधि-सन्निचय नहीं करता । वह करोति । स पश्यको भवति । तस्य सकलोऽपि व्यवहारो द्रष्टा होता है। उसका सारा व्यवहार भी मूर्छाग्रस्त व्यक्ति से भिन्न मूच्र्छावतः पुरुषात भिन्नो भवति । तेन निगमने प्रोक्तं- होता है। इसलिए उपसंहार में कहा गया-जैसे इस मार्ग में कुशल यथा अस्मिन् मार्गे कुशलोऽनगारः परिग्रहलेपेन आत्मानं अनगार परिग्रह के लेप से अपने-आपको लिप्त न करे, ऐसा मैं कहता नोपलिम्पेद् इति ब्रवीमि । १२१. कामा दुरतिक्कमा। सं०—कामाः दुरतिक्रमाः । काम दुलंघ्य हैं। भाष्यम् १२१-परिग्रहस्य मूलं कामः । स च परिग्रह का मूल है काम-कामना । वह दो प्रकार का हैद्विविधः१. इच्छाकामः-स्वर्णादिपदार्थप्राप्ते: कामना । १. इच्छाकाम-स्वर्ण आदि पदार्थों को प्राप्त करने की कामना। २. मदनकामः-शब्दादीनामिन्द्रियविषयाणां कामना। २. मदनकाम-शब्द आदि इन्द्रिय-विषयों की कामना । कामसंज्ञा सुचिरसंस्कारसमुद्भवा । तेन एते कामाः कामसंज्ञा चिरसंचित संस्कारों से उत्पन्न होती है, इसलिए इन दुरतिक्रमाः भवन्ति । कामानामतिक्रमणं प्रतिस्रोतो- कामनाओं का अतिक्रमण करना कष्टसाध्य होता है। कामनाओं का गमनमस्ति । इन्द्रियाणि च अनुस्रोतोवाहीनि सन्ति । अतिक्रमण करना प्रतिस्रोत में चलना है । इन्द्रियां अनुस्रोतगामिनी तेन कामानामतिक्रमणं कतं दुःशकमस्ति । हैं । इसलिए कामनाओं का अतिक्रमण करना दुःशक्य है। १२२. जीवियं दुप्पडिवूहणं । सं०-जीवितं दुष्प्रतिबृंहणम् । जीवन को बढाया नहीं जा सकता-छिन्न आयुष्य को सांधा नहीं जा सकता। भाष्यम् १२२---जीवितं स्वल्पम्, अनल्पाश्च कामाः। जीवन स्वल्प है, कामनाए अधिक हैं । इस छोटे से जीवन में स्वल्पे जीवने न तेषां पूर्ति: संभवति । कामाश्च यथा उनकी संपूर्ति संभव नहीं है । जैसे-जैसे कामनाओं की पूत्ति की जाती यथा सेव्यन्ते तथा तथा प्रवर्धन्ते, किन्तु तथा जीवितस्य है, वैसे-वैसे वे बढती जाती हैं। किन्तु उसी अनुपात में जीवन को उपबृंहणमस्ति दुष्करम् । कामानां दुरतिक्रमणे अयं बढाना दुष्कर है। कामनाओं के दुरतिक्रमण का यह पहला हेतु है। प्रथमो हेतुः । १२३. कामकामी खलु अयं पुरिसे। सं०-कामकामी खलु अयं पुरुषः । यह पुरुष कामकामी है-मनोज्ञ शब्द और रूप की कामना करने वाला है। भाष्यम् १२३-पुरुषः स्वभावत एव कामान् काम- पुरुष स्वभाव से ही कामभोगों की कामना करता है । 'काम' यते । कामश्च मौलिकी मनोवृत्तिरिति सा दुस्त्यजा। मौलिक मनोवृत्ति है, इसलिए उसको छोड़ना कठिन होता है। कामानां दुरतिक्रमणे अयं द्वितीयो हेतुः । कामनाओं के दुरतिक्रमण का यह दूसरा हेतु है। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ आचारांगभाध्यम् १२४. से सोयति जुरति तिप्पति पिडति परितप्पति । सं०-स शोचति खिद्यते तेपते पीड्यते परितप्यते । कामकामी पुरुष शोक करता है, खिन्न होता है, कुपित होता है, आंसू बहाता है, पीड़ा और परिताप का अनुभव करता है । - बाब भाष्यम् १२४-कामानां प्रकृतिमुपदर्य इदानीं कामनाओं की प्रकृति को बताकर अब सूत्रकार अपायविचयअपायविचयध्यानस्य प्रक्रियां दर्शयति सूत्रकारः । ध्यान की प्रक्रिया बता रहे हैं। कामाः अतितान्ताः न भवन्ति तस्यामवस्थायामसौ जब कामनाओं की संपूर्ति नहीं होती, उस स्थिति में मनुष्य पुरुषः यत् करोति तस्य चित्रणम्---- क्या-क्या करता है, उसका चित्रण प्रस्तुत सूत्र में हैसोयति-शोचति-शोकाकुलः उपहृतमनःसंकल्पो वह पुरुष शोक करता है, शोकाकुल होता है अथवा उसका मन बा भवति । संकल्प-विकल्पों से भर जाता है। ___ जुरति' इष्टार्थस्यालाभे वियोगे वा खिद्यते क्रुध्यति वह इष्ट वस्तु की प्राप्ति न होने पर या उसका वियोग हो जाने वा। पर खिन्न होता है, कुपित होता है। तिप्पति-तेपते---अश्रुविमोचनं करोति । वह आंसू बहाता है, रोता है । पिड्डुति -पीड्यते-- कामानुस्मृत्या पीडामनुभवति । वह कामभोगों की स्मृति कर पीड़ा का अनुभव करता है। परितप्पति-परितप्यते-कामातुरः पुरुषः बाह्य वह कामातुर पुरुष बाहर और भीतर में कायिक, वाचिक और वातावरणे अन्तःकरणे च कायिकं वाचिक मानसिकं मानसिक-इन तीनों प्रकार के ताप का अनुभव करता है। क्रोध आदि त्रिविधमपि तापमनुभवति । क्रोधादिजनित: संतापः से उत्पन्न संताप कादाचित्क होता है, किन्तु कामजनित संताप दीर्घकादाचित्को भवति, किन्तु कामजनित: संतापः कालिक होता है। दीर्घकालिको भवति । शोकः, खेदः, क्रोधः, अश्रपातः, पीडा, परिताप: शोक, खेद, क्रोध, अश्रुपात, पीड़ा और परिताप-ये कामाएते कामासक्ते: अपायाः सन्ति, अतः अपायहेतुनां सक्ति से उत्पन्न अपाय हैं, दोष हैं। इसलिए अपाय के हेतभूत इन कामानां परिहाराय उपायः अन्वेष्टव्यो भवति। कामभोगों के परिहार के लिए उपाय खोजना आवश्यक है। १२५. आयतचक्ख लोग-विपस्सी लोगस्स अहो भागं जाणइ, उडढं भागं जाणइ, तिरियं भागं जाणइ । सं० ---आयतचक्षुः लोकविपश्यी लोकस्य अधो भागं जानाति, ऊध्वं भागं जानाति, तिर्यञ्चं भागं जानाति । संयतचक्षु पुरुष लोकदर्शी होता है । वह लोक के अधोभाग को जानता है, ऊवभाग को जानता है और तिरछे भाग को जानता है । भाष्यम् १२५.--अस्मिन् सूत्रे अपायविचयध्यानस्य प्रस्तुत सूत्र में अपायविचयध्यान की प्रक्रिया प्रदर्शित है । काम प्रक्रिया प्रदर्शितास्ति । कामातिक्रमणस्य उपायोऽस्ति अर्थात् कामभोगों के अतिक्रमण का उपाय है-विपश्यना अथवा ज्ञाताविपश्यना ज्ञातृभावो वा । आयतचक्षुः-संयतचक्षुः भाव । आयतचक्षु का अर्थ है-संयतचक्षु, अनिमेषदृष्टि । लोक का अनिमेषदष्टिरिति यावत् । लोक:-शरीरम् । तस्य अर्थ है-शरीर और उसको देखने वाला लोकविपश्यो कहलाता है। १. प्राकृते खिद्-क्रुधोः 'जूर' इत्यादेशो भवति । ब्रह्माण्डसंज्ञके देहे स्थानानि स्युर्बहूनि च । (हेमचन्द्राचार्य, प्राकृत व्याकरणम् ८४१३२,१३५) मयोक्तानि प्रधानानि ज्ञातव्यानीह शास्त्रके ॥३७॥ २. आचारांग चणि, पृष्ठ ८३: तस्स अवाया"....'जता य तेसि (ख) तंत्रसंग्रह, भाग २, पृष्ठ ३०९, श्लोक २९ : कामाणं इहमेव दोसा। ब्रह्माण्डलक्षणं सर्व, देहमध्ये व्यवस्थितम् । ३. (क) वही, पृष्ठ ८३ : उभयलोगअवायदंसी .....। साकाराश्च विनश्यन्ति, निराकारो न नश्यति ॥ (ख) धवला, पुस्तक १३, खण्ड ५, भाग ४, सूत्र २६) (ग) चरकसंहिता, शारीरस्थान ५॥३---पुरुषोऽयं लोकसंजितः गाथा ३९, पृष्ठ ७२। इत्युवाच भगवान् पुनर्वसुरात्रेयः । यावन्तो हि लोके ४. आप्टे, आयत-Curbed, Restrained | (मूर्तिमंतः) भावविशेषाः तावन्तः पुरुषे, यावन्तः पुरुषे ५. (क) शिवसंहिता, २।५,३७ : ब्रह्माण्डसंज्ञके देहे यथादेशं व्यवस्थितः । तावन्तो लोके इति । मेकशृङ्ग सुधारश्मिर्वहिरष्टकलायुतः॥५॥ Jain Education international Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९ अ० २. लोकविचय, उ० ५. सूत्र १२४-१२६ विपश्यी लोकविपश्यी। विपश्यनाध्यानार्थं शरीरस्य विपश्यना ध्यान के लिए शरीर के तीन भाग किये जाते हैंत्रयो भागाःक्रियन्तेनाभिप्रदेश: लोकस्य तिर्यग्भागः, नाभि का प्रदेश-लोक का तिर्यग्भाग । ततो निम्नः प्रदेशः लोकस्य अधोभागः, नाभि से नीचे का भाग-लोक का अधोभाग । तत उपरितनः प्रदेशः लोकस्य ऊर्ध्वभागः । नाभि से ऊपर का भाग-लोक का ऊर्श्वभाग । यः अनिमेषचक्षुर्भूत्वा शरीरस्य विपश्यनां करोति जो साधक अनिमेषदृष्टि से शरीर की विपश्यना करता हैतस्य त्रीनपि भागान् केवलं जानाति पश्यति, न शरीर के तीनों भागों को केवल जानता है, देखता है, उनके विषय तदविषये कामपि संवेदनां करोति स कामानतिक्रमितुं में कोई संवेदन नहीं करता वह 'काम' का अतिक्रमण करने में समर्थ समर्थो भवति।' होता है। १२६. गढिए अणुपरियट्टमाणे। सं०-प्रथितः अनुपरिवर्तमानः । काम में आसक्त पुरुष अनुपरिवर्तन कर रहा है। १. (क) चित्त को काम-वासना से मुक्त करने का पहला दीदर्शी साधक मनुष्य के उन भावों को जानता है, आलम्बन है-लोक-दर्शन। जो अधोगति के हेतु बनते हैं, उन भावों को जानता है, लोक का अर्थ है-भोग्यवस्तु या विषय । शरीर भोग्य जो ऊर्ध्वगति के हेतु बनते हैं और उन भावों को जानता वस्तु है। उसके तीन भाग हैं है, जो तिर्यग् (मध्य) गति के हेतु बनते हैं। • अधोभाग-नामि से नीचे। (घ) इसकी त्राटक-परक व्याख्या भी की जा सकती है• ऊर्ध्वभाग–नाभि से ऊपर । आंखों को विस्फारित और अनिमेष कर उन्हें किसी • तिर्यग्भाग–नाभि-स्थान । एक बिंदु पर स्थिर करना त्राटक है। इसकी साधना सिद्ध प्रकारान्तर से उसके तीन भाग ये हैं होने पर ऊर्च, मध्य और मधः-ये तीनों लोक जाने जा • अधोभाग-आंख का गड्ढा, गले का गड्ढा, मुख के सकते हैं। इन तीनों लोकों को जानने के लिए इन तीनों बीच का भाग । पर ही त्राटक किया जा सकता है। • ऊर्ध्वभाग-घटना, छाती, ललाट, उभरे हुए भाग। भगवान् महावीर ऊवलोक, अधोलोक और मध्यलोक • तिर्यग्भाग-समतल भाग । में ध्यान लगाकर समाधिस्थ हो जाते थे साधक देखे-शरीर के अधोभाग में स्रोत है, ऊर्ध्वभाग में (आयारो, ९४११४)। स्रोत है और मध्यभाग में स्रोत है-नाभि है। इससे ध्यान की तीन पद्धतियां फलित होती हैंदेखें-आयारो, २११८ । १. आकाश-दर्शन, __ शरीर को समग्रदृष्टि से देखने की साधना-पद्धति बहुत २. तिर्यग् भित्ति-दर्शन, महत्त्वपूर्ण रही है। प्रस्तुत सूत्र में उसी शरीर-विपश्यना ३. भूगर्भ-दर्शन। का निर्देश है। उसे समझने के लिए 'विसुद्धिमग्ग' का छट्ठा आकाश-दर्शन के समय भगवान ऊर्ध्वलोक में विद्यमान परिच्छेद पठनीय है। तत्त्वों का ध्यान करते थे। तिर्यग् भित्ति-दर्शन के समय वे (देखें-विसुद्धिमन्ग, भाग १ पृष्ठ १६०-१७५)। मध्यलोक में विद्यमान तत्त्वों का ध्यान करते थे। भूगर्भ(ख) प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या का दूसरा नय है दर्शन के समय वे अधोलोक में विद्यमान तत्वों का ध्यान दीर्घदर्शी साधक देखता है-लोक का अधोभाग विषय करते थे। ध्यानविचार में लोक-चितन को आलम्बन वासना में आसक्त होकर शोक आदि से पीड़ित है। बताया गया है। ऊवलोकवर्ती वस्तुओं का चितन उत्साह लोक का ऊवभाग भी विषय-वासना में आसक्त होकर का आलम्बन है। अधोलोकवर्ती वस्तुओं का चिंतन पराशोक आदि से पीड़ित है। क्रम का आलम्बन है। तिर्यग्लोकवर्ती वस्तुओं का चिंतन लोक का मध्यभाग भी विषय-वासना में आसक्त होकर चेष्टा का आलम्बन है । लोक-भावना में भी तीनों लोकों शोक आदि से पीड़ित है। का चिन्तन किया जाता है। (ग) प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या का तीसरा नय है (नमस्कार स्वाध्याय, पृष्ठ २४९) Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० । भाष्यम् १२६ – प्रथितः —बद्धः । कामैर्ग्रथितः पुरुषः अनुपरिवर्तमानो भवति अनुपरिवर्तनानुप्रेक्षा काममुक्तेः द्वितीय उपायविषयः कामस्य आसेवनेन तस्येच्छा न शाम्यति । किन्तु कामी पुरुष वारं वारं तमनुपरिवर्तते । 'काम अकामेन शाम्यति न तु तस्यासेवनेन' इत्यनुभूतेर्जागरणमस्ति काममुक्तेः समर्थ मालम्बनम् । १२७. संधि विदित्ता इह मच्चिएहि । सं० सन्धि विदित्वा इह मर्त्येषु । पुरुष मरणधर्मा मनुष्य के शरीर की संधि को जानकर कामासक्ति से मुक्त हो । भाष्यम् १२७ - आगमेषु 'सन्धि' शब्दस्य प्रयोगो नानार्थवाची दृश्यते । प्रस्तुतागमे षट्स्थानेषु आलोच्य पदमुपलभ्यते - १. 'समुट्ठिए अणगारे आरिए आरियपणे आरियदंसी अयं संधीति अवक्यू" अत्र सन्धिरिति विवरम् । । २. संधि विदित्ता इह मच्चिएहि ।" अत्र सन्धिपदं अस्थिजोडवाचकमस्ति । ३. 'संधि लोगस्स जाणित्ता ।" अत्र सन्धिपदं अभिप्रायवाचकमस्ति । प्रस्तुतसूत्रेण सह 'समयं लोगस्स जाणिता, ""पुरु लोयस्स जाणित्ता " सूत्रे अपि भावनीये । ति अवक्खु ।" अत्र (१) अतीन्द्रिय ४. 'एत्थोवरए तं शोसमाणे 'अयं संधी' सन्धिपदस्य द्वा प्रासङ्गिको स्तः चैतन्योदयहेतुभूतं कर्मविवरं सन्धिः । (२) अप्रमादाध्यवसायसन्धानभूतं शरीरवतिकरणं चैतन्यकेन्द्र चक्रमिति यावत् । २. समायरस एनापतय- रयस्स इह विप्यनुक्कर, offee मग्गे विरयस्स त्ति बेमि । " - ६. 'हे गए संधी सोसिए, एवमन्यत् संधी बृज्योसिए भवति ..........". अत्र सन्धिविवरं ज्ञानदर्शनचारित्राराधना वा । १. आवारी, २१०६ २. बही, २।१२७ ३. वही, ३१५१ ४. वही, ३।३ आचारांगभाष्यम् । प्रथित का अर्थ है - बद्ध काम में आसक्त पुरुष अनुपरिवर्तन करता रहता है, उत्तरोत्तर कामों के पीछे चक्कर लगाता रहता है । अनुपरिवर्तना की अनुप्रेक्षा करना काममुक्ति का दूसरा उपाय-विजय है। 'काम' के आसेवन से कामेच्छा शान्त नहीं होती, किन्तु कामी पुरुष बार-बार 'काम' के पीछे दौड़ता रहता है । 'काम अकाम से उपशांत होता है, काम के आसेवन से नहीं' -- इस अनुभूति का जागरण काममुक्ति का सशक्त आलंबन है । आगमों में 'संधि' शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में हुआ है। प्रस्तुत आगम में संधि शब्द छह स्थानों में उपलब्ध होता है १. भार्य, आर्यप्रज्ञ, आर्यदर्शी और संयम में तत्पर अनगार ने 'यह संधि है' ऐसी अनुभूति की है। यहां संधि का अर्थ है-विवर २. पुरुष मरणधर्मा मनुष्य के शरीर की संधि को जानकर यहां संधि का अर्थ है - हड्डियों की जोड़ । -- ३. सभी प्राणी जीना चाहते हैं, इस संधि को जानकर यहां संधि का अर्थ है अभिप्राय । प्रस्तुत सूत्र के साथ-साथ 'सब आत्माएं समान हैं' तथा 'लोक के दुःख को जानकर' - ये दोनों सूत्र भी ज्ञातव्य हैं। ४. इस शासन में स्थित मुनि ने शरीर को संपत कर यह 'संधि' है ऐसा देखा है। यहां संधि शब्द के दो प्रासंगिक है(१) अतीन्द्रिय चेतना के उदय में हेतुभूत कर्म-विवर । (२) अप्रमत्त अध्यवसाय की निरंतरता को बनाए रखने वाले शरीरवर्ती करण चैतन्य- केन्द्र अथवा चक्र | ५. 'जो संधि को देखता है, एक आयतन ( वीतरागता ) में लीन है, ऐहिक ममत्व से मुक्त है, हिंसा से विरत है, उसके लिए कोई मार्ग नहीं है ऐसा मैं कहता हूँ। ६. जैसे मैंने यहां संधि की आराधना की है, वैसी संधि की आराधना अन्यत्र दुर्लभ है। यहां संधि का अर्थ है-विवर अथवा ज्ञान दर्शन - चारित्र की समन्वित आराधना । ५. वही, ३।७७ ६. वही, ५२० ७. वही, ५३० ८. वही, ५४१ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'चदशन अ० २. लोकविचय, उ० ५. सूत्र १२७-१२६ विसुद्धिमग्गे' सन्धिदर्शनं वैराग्यस्य आलम्बनरूपेण 'विसुद्धिमग्ग' ग्रन्थ में संधि को देखना वैराग्य का आलम्बन सम्मतमस्ति । माना गया है। . प्रस्तुतप्रकरणे मर्येषु-मनुष्यशरीरेषु सन्धिदर्शनं प्रस्तुत प्रकरण में मनुष्य के शरीर में संधि को देखना कामकामवासनाविमुक्तेरस्ति तृतीय उपायविचयः।' वासना की मुक्ति का तीसरा उपाय-विचय है। १२८. एस वीरे पसंसिए, जे बद्ध पडिमोयए। सं०-एषः वोरः प्रशंसितः यो बद्धान् प्रतिमोचयेत् । वही वीर प्रशंसित होता है जो काम-वासना से बद्ध को मुक्त करता है। भाष्यम् १२८-काममुक्तिः पराक्रमेण भवति । तेन पराक्रम से ही काममुक्ति साधी जा सकती है। इसलिए इस अस्मिन् साधनापथे यः संयमवीर्येण वीरो भवति, स एव साधना-पथ में जो अनगार संयमवीर्य से वीर होता है, वही प्रशंसनीय प्रशंसनीयो भवति, काममुक्तौ सफलतां लभते इति होता है, अर्थात् वही काममुक्ति में सफल हो सकता है। उस व्यक्ति का तात्पर्यम । तस्य वीरत्वं प्रस्फूटीभवति यः कामबन्धनेन वीरत्व प्रस्फुटित होता है जो स्वयं को कामवासना के बंधनों से मुक्त बद्धं स्वं ततो विमुक्तं कृत्वा अन्यानपि बद्धान् करता है और दूसरे जो कामवासना में बंधे हुए हैं, उनको भी मुक्त प्रतिमोचयेत् । करता है। १२६. जहा अंतो तहा बाहिं, जहा बाहिं तहा अंतो। सं०-यथा अन्तः तथा बहिः, यथा बहिः तथा अन्तः । यह शरीर जैसा भीतर है, वैसा बाहर है, जैसा बाहर है, वैसा भीतर है। भाष्यम् १२९-कामबन्धनविमुक्तेः चतुर्थ उपाय- काम-बंधन की विमुक्ति का चौथा उपाय-विचय है-निर्वेद । विचयोऽस्ति निर्वेदः-शरीरं प्रति वैराग्यकरणम् । इसका अर्थ है-शरीर के प्रति विरक्ति । शरीर का यह स्वरूप है कि शरीरस्य प्रकृतिरियं-यथा तद् अन्तः शोणितादिधातुमयं जैसा वह भीतर में रक्त आदि धातुमय और अपवित्र है, वैसा ही वह अशूचि विद्यते तथा बहिरपि, यथा बहिः शोणितादि- बाहर में है। जैसा वह बाहर में रक्त आदि धातुमय और अपवित्र है, धातुमयं अशुचि विद्यते तथा अन्तरपि । वैसा ही वह भीतर में है। १. विसुद्धिमग्ग, भाग १, पृष्ठ १६५ :-सन्धि-दर्शन-शरीर की संधियों (जोड़ों) का स्वरूप-दर्शन कर उसके यथार्थ रूप को समझना । शरीर अस्थियों का ढांचा-मात्र है, उसे देखकर उससे विरक्त होना। शरीर में एक सौ अस्सी सन्धियां मानी जाती हैं। चौदह महासन्धियां हैं-तीन दाएं हाथ की सन्धियां-कंधा, कुहनी और पहुंचा। तीन बाएं हाथ की सन्धियां। तीन दाएं पैर की सन्धियांकमर, घुटना और गुल्फ। तीन बाएं पैर को सन्धियां । एक गर्दन को सन्धि । एक कमर की सन्धि । २. (क) सुश्रुतसंहितायां सन्धिसंख्या इत्यं निर्दिष्टास्ति 'संख्यातस्तु दशोतरे द्वे शते, तेषां शाखास्वष्टषष्टिः, एकोनषष्टिः कोष्ठ, ग्रीवां प्रत्यूध्वं व्यशीतिः।' __ (सुश्रुतसंहिता, शारीरस्थानम्, ५।२७) (ख) सुश्रुतसंहिता, २२८: अस्थ्नां तु सन्धयो ह्य ते केवलाः परिकीर्तिताः। पेशीस्मायुशतानां तु सन्धिसंख्या न विद्यते ॥ ३. (क) द्रष्टव्या-आयारो, २११८ सूत्रस्य व्याख्या। (ख) तुलना-अथर्ववेद २।३० : यदन्तरं तद् बाह्य', यद् बाह्य तदन्तरम् । (ग) इसका वैकल्पिक अनुवाद इस प्रकार भी किया जा सकता है साधक जैसा अन्तस् में वैसा बाहर में, जैसा बाहर में वैसा अंतस में रहे । __ कुछ दार्शनिक अन्तस् की शुद्धि पर बल देते थे और कुछ बाहर की शुद्धि पर। भगवान् एकांगी दृष्टिकोण को स्वीकार नहीं करते थे। उन्होंने दोनों को एक साथ देखा और कहा- केवल अंतस् की शुद्धि ही पर्याप्त नहीं है। बाहरी व्यवहार भी शुद्ध होना चाहिए। वह अंतस् का प्रतिफल है। केवल बाहरी व्यवहार का शुद्ध होना भी पर्याप्त नहीं है । अंतस की शुद्धि के बिना वह कोरा दमन बन जाता है । इसलिए अंतस् भी शुद्ध होना चाहिए। अंतस और बाहर दोनों की शुद्धि ही धार्मिक जीवन की पूर्णता है। Jain Education international Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ आचारांगभाष्यम् १३०. अंतो अंतो पूतिदेहंतराणि, पासति पुढोवि सवंताई। सं०-अन्तः अन्तः पूतिदेहान्तराणि पश्यति पृथगपि स्रवन्ति । पुरुष इस अशुचि शरीर के भीतर से भीतर पहुंच कर शरीर-धातुओं को देखता है और मरते हुए विविध स्रोतों को भी देखता है । भाष्यम् १३०-साधक : शरीरस्य अशुचित्वानुप्रेक्षां साधक शरीर की अनुप्रेक्षा करते-करते जैसे-जैसे शरीर के कुर्वन अंतो अंतो-यथा यथा अन्तः प्रविशति, तथा भीतर प्रवेश करता है, वैसे-वैसे वह अशुचिमय शरीर में झरते हुए तथा पूतिदेहस्य अन्तराणि-विवराणि पृथक् पृथक् विविध स्रोतों को देखता है। वे छिद्र पुरुष में नौ और स्त्री में बारह स्रवन्ति पश्यति । तानि च पुरुषे नव भवन्ति, स्त्रीषु च होते हैं। उन छिद्रों की अशुचिता को देखकर देहासक्ति से छुटकारा द्वादश । तेषां अशुचित्वदर्शनेन देहासक्तेविमुक्तिः ततश्च मिलता है और फिर कामासक्ति क्षीण होती जाती है। कामासक्तिः क्षीणा भवति। वृत्तौ अशुच्यनुप्रेक्षालम्बनभूते द्वे गाथे उद्घते स्त:'- वृत्तिकार ने अशुचि अनुप्रेक्षा की आलंबनभूत दो गाथाएं उद्धृत की हैंमंसट्ठी-हिर-हारवणद्ध-कललमय-मेय-मज्जासु। यह शरीर मांस, अस्थि, रुधिर युक्त तथा स्नायुओं से बंधा पुण्णंमि चम्मकोसे, दुग्गंधे असुइबीमच्छे । हुआ, कललमय, मेद और मज्जा से परिपूर्ण एक चर्मकोश है। यह दुर्गन्धमय तथा अशुचि होने के कारण बीभत्स है। संचारिम-जंत-गलंत-वच्च-मुत्तंत-सेअ-पुण्णंमि । यह शरीररूपी यंत्र निरंतर संचलित और सबित होने वाले देहे हुज्जा कि रागकारणं असुइहेउम्मि? मल-मूत्र तथा प्रस्वेद से युक्त है। इस अशुचिरूप देह में राग या आसक्ति का क्या कारण हो सकता है ? १३१. पंडिए पडिलेहाए। सं०-पंडितः प्रतिलिखेत् । पंडित पुरुष काम के विपाक को देखे। भाष्यम् १३१-पंडितः शरीरस्य असारतां अशुचित्वं तत्त्वज्ञ पुरुष शरीर की असारता, अशुचिता तथा कामभोगों के कामभोगस्य विपाकांश्च अनुप्रेक्ष्य प्रतिलेखनां कुर्यात्- परिणामों की अनुप्रेक्षा कर प्रतिलेखना करे-उस अनुप्रेक्षा का हृदय से तां अनुप्रेक्षां हृदयेन स्पृशेत्, तस्याः धारणां स्वमस्तिष्के स्पर्श करे अथवा उस अनुप्रेक्षा की धारणा को अपने मस्तिष्क में उकेर उत्कीर्णां वा कुर्यात् । प्रतिलेखनापूर्वकं ये कामाः परित्यक्ताः, न ते प्रतिलेखनापूर्वक अर्थात् हृदय की अनुभूति पूर्वक जो कामभोग पूनरुपादातव्याः इति विचारविचयात्मकमालम्बनम् । परित्यक्त होते हैं उनका पुनः ग्रहण नहीं होना चाहिए। यह विचार विचयात्मक मालम्बन है। १३२. से मइमं परिण्णाय, मा य हु लालं पच्चासी।। सं०-स मतिमान् परिज्ञाय मा च खलु लाला प्रत्याशीः । वह मतिमान् पुरुष काम को जानकर और त्याग कर लार को न चाटे । भाष्यम् १३२-स मतिमान् द्विविधायाः परिज्ञायाः उस मतिमान् पुरुष ने दोनों प्रकार की परिज्ञाओं का प्रयोग प्रयोगं कृत्वा कामान् परिहृतवान् । परिज्ञा-विवेकः। कर कामभोगों को छोड़ा है। परिज्ञा का अर्थ है-विवेक । परिज्ञा दो सा द्विविधा-ज्ञ-परिज्ञा प्रत्याख्यान-परिज्ञा च। ज्ञ- प्रकार की होती है । ज्ञ-परिज्ञा और प्रत्याख्यान-परिज्ञा । ज्ञ-परिज्ञा से परिज्ञया कामानां विपाकान् ज्ञात्वा प्रत्याख्यान-परिज्ञया कामभोगों के विपाकों को जानकर, प्रत्याख्यान-परिज्ञा से उसने उनका च तेन ते परिहृताः । तस्य कृते उपदेशसूत्रमिदम्-'मा परित्याग किया है। उसके लिए यह उपदेश-सूत्र है 'तुम लार को १. आचारांग वृत्ति, पत्र १२४ । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० २. लोकविचय, उ० ५. सूत्र १३०-१३४ त्वं लालां प्रत्याशी:-कामान् वान्त्वा न तान् पुनरापिबेः' मत चाटो'। इसका तात्पर्य है-कामभोगों का वमन कर उनको पुनः इति विचारविचयात्मकमालम्बनम् । स्वीकार मत करो। यह भी विचार-विचयात्मक आलम्बन है। १३३. मा तेसु तिरिच्छमप्पाणमावातए । सं०-मा तेषु तिरश्चीनमात्मानमापादयः । तुम अपने-आपको काम के मध्य मत फंसाओ। भाष्यम् १३३-अस्ति मनुष्ये कामः, अस्ति च शरीरे मनुष्य में काम-भावना है और शरीर में काम-आसेवन के कामासेवनस्य विवराणि। यावद् देहासक्तिः तावत् विवर हैं। जब तक देहासक्ति होती है, तब तक मनुष्य उन विवरों के मनुष्यः तेषु मूच्छितो भवति । शरीरं क्वचिदपि स्थितं प्रति मूच्छित होता है। शरीर कहीं भी स्थित हो फिर भी मन बारस्यात तथापि मनः वारं वारं तत्रैव धावति । एतां बार उन विवरों के प्रति दौड़ता है । इस स्थिति को जानकर भगवान् स्थितिं विज्ञाय भगवता इति उपदेशसूत्रं प्रोक्तम्-तेषु ने यह उपदेश-सूत्र कहा-तुम उन छिद्रों के बीच अपने आपको मत देहविवरेषु आत्मानं मा तिरश्चीनं-मध्यगतं आपादयेः। फंसाओ। १३४. कामंकमे खलु अयं पुरिसे, बहमाई, कडेण मूढे पुणोतं करेइ लोभं। सं०-कामंकमः खलु अयं पुरुषः बहुमायी, कृतेन मूढः पुनः तं करोति लोभम् । पुरुष कामकामी होता है । वह कामना की पूर्ति के लिए बहुतों को ठगता है। वह अपने ही कृत कार्यों से मूढ होकर पुनः ललचाता है। भाष्यम् १३४-कामान् इच्छामदनरूपान् कमते- काम दो प्रकार के हैं-इच्छाकाम और मदनकाम । जो काम अभिलषति स कामंकमः इत्युच्यते । एतादृशः पुरुषः की अभिलाषा करता है वह कामंकम कहलाता है। ऐसा व्यक्ति अपनी स्वकामनापूर्तये बहीं मायां करोति इति बहुमायो कामनाओं की पूर्ति के लिए बहुत माया करता है, इसलिए वह बहभवति । स च पदार्थेषु लुभ्यति । किमर्थं लुभ्यति मायावी होता है । वह पदार्थों में लुब्ध होता है । वह लुन्ध क्यों होता इति जिज्ञासायां सूत्रकारः अनुवृत्तेः सिद्धान्तं दर्शयति- है, इस जिज्ञासा को समाहित करने के लिए सूत्रकार अनुवृत्ति के मनष्यः यत्कार्यं करोति तस्य वत्तिर्जायते। सा वृत्तिः सिद्धांत का निरूपण करते हैं-मनुष्य जो कार्य करता है उसकी वृत्ति अनवत्ता भवति--पूनः पुन: प्रकटिता भवति । तात्पर्य- अर्थात संस्कार मन में अंकित होता है। वह संस्कार बार-बार प्रकट मिदम्-मनुष्यः वृत्तिबद्धः सन् लोभादिषु प्रवर्तते। होता है । यह अनुवृत्ति का सिद्धांत है। इसका तात्पर्य यह है कि मनुष्य संस्कार से प्रतिबद्ध होकर लोभ आदि वृत्तियों में प्रवृत्त होता है। १. तिर्यगेव तिरश्चीनम् । तिर्यगशब्दस्य वक्रः सर्पाकारः मध्यः इत्यादयोऽनेके अर्था विद्यन्ते। (आप्टे-संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी)। अत्र मध्यवाची अर्थः अभिप्रेतोऽस्ति । २. वृत्तौ 'कासंकासे' (पत्र १२५) इति पाठः व्याख्यातोऽस्ति । स न समीचीनः प्रतिभाति । अस्य स्थाने 'कामंकम' इति पाठः संभाव्यते । प्राचीनलिप्यां सकारमकारयोः सादृश्यमिव भाति । अस्मिन् पाठे लिपिदोषेण सकारमकारयोः विपर्ययो जात इति कल्पना नास्ति अस्वाभाविकी। चू! 'कामं कामे इति पाठः व्याख्यातोऽस्ति - 'कामं कामे खलु अयं पुरिसे' इमं अज्ज करेमि इमं हिज्जो काहामि , अहवा इमं पुरुवं इमं पच्छा, भणियं च'इमं तावत् करोम्यद्य, श्वः करिष्यामि वा परम् । चिन्तयन् कार्यकार्याणि, प्रेत्याय नावबुद्धर ते । ( अ चू० पृष्ठ ८५) 'जमिणं परिकहिज्जइ'-अस्मिन् उत्तरवतिसूत्रेऽपि कामंकमस्य वारद्वयं उल्लेखो दृश्यते-'जमिणं गरिहिज्जति' जदीति अणुद्दिट्ठस्स गहणं, भण्णति-कतरस्स अणुद्दिद्वस्स? कामंकमस्स बहुमायिणो मूढस्स........... अहवा इमस्स चेव परिवूहणताए, कामंकमे बहुमायो पुणो तं करेति । (आ० चू० पृष्ठ ८६) चूणिसम्मतपाठस्य व्याख्या स्वाभाविकी विद्यते। 'कामकमे' की तुलना गीता के 'कामकामी' शब्द से की जा सकती है'आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् । तत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी॥ (गीता, २०७०) Jain Education international Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ आचारांगभाष्यम् इसलिए कहा है-पुरुष अपने ही कृत कार्यों से मूढ होकर कामसामग्री प्राप्त करने के लिए पुनः ललचाता है। अत एव उक्तमिदम्-कृतेन मूढः पुरुषः पुनस्तं लोभं करोति।' १३५. वेरं वड्ढेति अप्पणो। सं०-वरं वर्धयति आत्मनः । वह अपना वर बढाता है। भाष्यम् १३५-लोभस्य अपायान् दर्शयति सूत्रकारः। सूत्रकार लोभ के दोषों का दिग्दर्शन कराते हैं-कामात्तं पुरुष कामातः पुरुषः आत्मनः वैरं वर्द्धयति । अभिमानपूर्वकः अपने वैर को बढ़ाता है। अभिमानपूर्वक क्रोध करना वैर है। वैर का अमर्षःवरम । वरम्-दुःखं कर्म वा। वर्द्धयति-तद् वैरं अर्थ दुःख या कर्म भी है। बढाने का अर्थ है-वैर की परम्परा को अनन्तं करोति। अनन्त करना। १३६. जमिणं परिकहिज्जइ, इमस्स चेव पडिवहणयाए। सं०-यदिदं परिकथ्यते अस्य चैव परिबृहणाय। यह जो कहा जा रहा है-'काम का आसेवन तृप्ति देता है' यह ययार्थ नहीं है। वह अतृप्ति को बढाने वाला ही होता है। माष्यम् १३६यद् इदं परिकथ्यते--'कडेण मूढे जो यह कहा जाता है कि 'पुरुष अपने ही कृत कार्यों से मूढ होकर प्रणोतं करेइ लोभ', तत् अस्य कामस्य एव प्रतिबंहणाय पुनः ललचाता है, अर्थात् काम-सामग्री पाने की लालसा 'काम' को ही भवति । तात्पर्यमिदम्-दुःखनिवृत्तये काममासेवते, किन्तु परिपुष्ट करती है। इसका तात्पर्य यह है-मनुष्य दुःख की निवृत्ति के मृढो नहि जानाति अनेन दुःखस्य तद्हेतुभूतस्य कामस्य लिए 'काम' का आसेवन करता है, किंतु वह मूढ़ मनुष्य नहीं जानता कि च पुष्टिर्जायते । भणितं च इससे दुःख और उसके हेतुभूत काम-दोनों का पोषण होता है । कहा है'दुःखातः सेवते कामान्, सेवितास्ते च दुःखदाः । 'दुःखार्त पुरुष 'काम' का आसेवन करता है। वे आसेवित 'काम' यदि ते न प्रियं दुःखं, प्रसंगस्तेषु न क्षमः ॥" उसके लिए दुःखदायी होते हैं । यदि तुझे दुःख प्रिय नहीं है तो 'काम' में प्रवृत्ति करना उचित नहीं है।' १३७. अमरायइ महासड्डी। सं०---अमरायते महाश्रद्धी। काम और अर्थ में जिसकी महान् श्रद्धा होती है, वह अमर की भांति आचरण करता है। १.जो व्यक्ति किंकर्तव्यता (अब यह करना है, अब वह करना है, इस चिन्ता) से आकुल होता रहता है, वह मूढ कहलाता मूढ व्यक्ति सुख का अर्थी होने पर भी दुःख पाता है। वह आकुलतावश शयन-काल में शयन, स्नान-काल में स्नान और भोजन-काल में भोजन नहीं कर पाता'सोउं सोवणकाले, मज्जणकाले य मज्जिङ लोलो। जेमे च वराओ, जेमणकाले न चाएइ ॥' मूढ व्यक्ति स्वप्निल जीवन जीता है। वह काल्पनिक समस्याओं में इतना उलझ जाता है कि वास्तविक समस्याओं की ओर ध्यान ही नहीं दे पाता। एक भिखारी था। उसने एक दिन भैस की रखवाली की। भैस के मालिक ने प्रसन्न हो उसे दूध दिया। उसने दूध को जमा दही बना लिया। दही के पात्र को सिर पर रख कर चला। वह चलते-चलते सोचने लगा-इसे मथ कर घी निकालूंगा। उसे बेचकर व्यापार करूंगा। व्यापार में पैसे कमाकर व्याह करूंगा। फिर लड़का होगा। फिर मैं भैस लाऊंगा। मेरी पत्नी बिलौना करेगी। मैं उसे पानी लाने को कहूंगा । वह उठेगी नहीं, तब मैं क्रोध में आकर एडी के प्रहार से बिलौने को फोड़ डालूंगा। दही ढुल जाएगा। वह कल्पना में इतना तन्मय हो गया कि उसने ढुले हुए दही को साफ करने के लिए अपने सिर पर से कपड़ा खींचा। सिर पर रखा हुआ दही का पात्र गिर गया। उसके स्वप्नों की सृष्टि विलीन हो गई। २. आचारांग चूणि, पृष्ठ ८६ । Jain Education international Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० २. लोकविचय, उ० ५. सूत्र १३५ १४१ भाष्यम् १२७ – यस्व कामे तदुपायभूते वर्षे च महती श्रद्धा विद्यते स महाथद्धी पुरुषः अमरायते मरणा शंकामतिक्रान्त एव आचरति ।' 3 १३८. अट्टमेतं पेहाए । सं० आर्तमेतं प्रेक्ष्य । तू देख वह पीड़ित है। " भाग्यम् १३० यः कामस्य तदुपायभूतस्य अर्थस्य च चिन्तया व्याकुलः स आर्त :- पीडितो दु:खी वा विद्यते इति प्रेक्ष्य त्वं जानीहि - 'कामं अर्थं च दुःखस्य उपादानम् ।' १३. अपरिण्णाए कंदति । सं० - अपरिज्ञाय ऋन्दति । अर्थ-संग्रह का त्याग नहीं करने वाला क्रन्दन करता है । भाष्यम् १३९ कामं अर्थ तयोर्विपाकांश्च अपरिज्ञाय पुरुषः क्रन्दति - अप्राप्ते कांक्षया क्रन्दति, नष्टे च शोकेन ऋन्दति । १४०. से तं जाणह जमहं बेमि । सं० - अथ तद् जानीत यदहं ब्रवीमि । तुम उसे जानो, जो मैं कहता हूं। भाग्यम् १४० - अथ तद् जानीत यदहं ब्रवीमि इति वदन् सूत्रकारः कामचिकित्सा प्रति शिष्यस्य ध्यानं आकर्षति । १४१. तेइच्छं पंडिते पवयमाणे । सं० चिकित्सा पण्डित प्रवदन् चिकित्सा-कुशल चिकित्सा में प्रवृत्त हो रहा है। १. राजगृह में मगधसेना नाम की गणिका थी। वहां धन नाम का सार्थवाह आया । वह बहुत बड़ा धनी था। उसके रूप, यौवन और धन से आकृष्ट होकर मगधसेना उसके पास गयी। वह आय और व्यय का लेखा करने में तन्मय हो रहा था । उसने मगधसेना को देखा तक नहीं । उसके अहं को चोट लगी । वह बहुत उदास हो गयी । मगध सम्राट् जरासन्ध ने पूछा- 'तुम उदास क्यों हो ? किसके पास बैठने से तुम पर उदासी छा गयी ।" १३५ जिस व्यक्ति की 'काम' — इंद्रिय विषयों तथा उनके साधनभूत धन में महान था होती है, वह महाबद्धी पुरुष 'अमर' की भांति आचरण करता है । वह इस प्रकार से आचरण करता है मानो उसे मरने की आशंका ही नहीं है। जो काम तथा उसके साधन भूत अर्थ की चिन्ता से व्याकुल होता है यह आतं होता है, पीड़ित अथवा दुःखी होता है यह देखकर तुम जानो, काम और अर्थ - ये दोनों दुःख के उपादान कारण हैं । काम और अर्थ तथा उनके परिणामों को नहीं जानता हुआ पुरुष क्रन्दन करता है। उसके दो कारण है- (१) उनकी प्राप्ति न होने पर आकांक्षा से क्रंदन करता है तथा (२) उनके नष्ट हो जाने पर शोक से ऋन्दन करता है । इसलिए तुम उसे जानो, जो मैं कहता हूँ यह कहते हुए सूत्रकार काम-चिकित्सा के प्रति शिष्य का ध्यान आकृष्ट करते हैं। गणिका ने कहा- 'अमर के पास बैठने से ।' 'अमर कौन ?' सम्राट् ने पूछा । गणिका ने कहा- 'धन सार्थवाह जिसे धन की ही चिन्ता है। उसे मेरी उपस्थिति का भी बोध नहीं हुआ, तब मरने का बोध कैसे होता होगा ?" यह सही है कि अर्थ-लोलुप व्यक्ति मृत्यु को नहीं देखता और जो मृत्यु को देखता है, वह अर्थ- सोलुप नहीं हो सकता । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगभाष्यम् भाष्यम् १४१-अस्ति कश्चित् पण्डितः। स कोई पंडित-कुशल चिकित्सक है। वह चिकित्सा की बात चिकित्सा प्रवदन्नस्ति । अहं कामचिकित्सां कर्तुं समर्थः कह कर घोषणा कर रहा है कि 'मैं काम-चिकित्सा करने में समर्थ हूं'। इति घोषणां कुर्वाणः अस्ति। चिकित्सा कामस्यापि चिकित्सा 'काम' की भी होती है और व्याधि की भी होती है । किन्तु स्यात् व्याधरपि च । किन्तु प्रकरणवशात् अत्र काम- यहां प्रकरणवश संभवतः काम-चिकित्सा ही विवक्षित है। चिकित्सा विवक्षिता संभाव्यते।' ___कामनिग्रहः चिकीर्षितोऽस्ति । स च उपायसाध्यः। काम का निग्रह करना इष्ट है। वह उपाय-साध्य है। उसके तदर्थमाध्यात्मिका उपायाः पूर्वसूत्रेषु प्रदर्शिताः । तन्त्र- लिए पूर्व सूत्रों में आध्यात्मिक उपाय निर्दिष्ट हैं। तांत्रिक साधनासाधनापद्धतौ वनौषधिसाध्या उपाया अपि लभ्यन्ते। पद्धति में काम-चिकित्सा के लिए वनौषधिसाध्य उपाय भी प्राप्त होते तदर्थं वनस्पतिजीवानां हिंसा अनिवार्या भवति इति हैं। उसके लिए वनस्पति के जीवों की हिंसा अनिवार्य होती है। इसका स्पष्टं निर्दिशति सूत्रकारः स्पष्ट निदर्शन करते हुए सूत्रकार कहते हैं१४२. से हंता छेत्ता भेत्ता लुंपइत्ता विलुपइत्ता उद्दवइत्ता। सं०-स हन्ता छेत्ता भेत्ता लुम्पयिता विलुम्पयिता उद्घोता। वह चिकित्सा के लिए अनेक जीवों का हनन, छेदन, भेदन, लुंपन, विलुंपन और प्राण-वध करता है। भाष्यम १४२–स कामचिकित्सापण्डितः काम- वह काम-चिकित्सा में निपुण व्यक्ति काम-चिकित्सा के लिए चिकित्साय वनस्पत्यादिजीवानां हन्ता छेत्ता भेत्ता वनस्पति आदि जीवों का हनन, छेदन, भेदन, लुपन, विलंपन तथा लुम्पयिता विलुम्पयिता उद्घोता च भवति । उद्भवण करता है। लुम्पयिता-रोटयिता। लुम्पयिता का अर्थ है-तोड़ने वाला। उद्घोता-उत्पीडयिता।' उद्घोता का अर्थ है-उत्पीडन करने वाला। १४३. अकडं करिस्सामित्ति मण्णमाणे । सं०-अकृतं करिष्यामि इति मन्यमानः । 'पहले किसी ने नहीं किया, ऐसा मैं करूंगा'-यह मानता हुआ वह हिंसा में प्रवृत्त होता है। भाष्यम १४३---अकृतं. --यदपरेण कामचिकित्सनं न दूसरे व्यक्ति ने जैसी काम-चिकित्सा नहीं की मैं वैसी करूंगाकृतम, तदहं करिष्यामि इति मन्यमानः स जीवानां यह मानता हुआ वह व्यक्ति जीवों के हनन आदि क्रियाओं में प्रवृत्त हननादिक्रियासु प्रवर्तते । होता है। १४४. जस्स वि यणं करेइ । सं०-यस्यापि च करोति । वह जिसकी चिकित्सा करता है वह भी हिंसा में प्रवृत्त होता है । भायम १४४-स यस्यापि जीवहिंसासम्बद्धां काम- वह चिकित्सक जिस व्यक्ति की जीव-हिंसा से युक्त कामचिकित्सां करोति, सोऽपि हिंसायां प्रवृत्तो भवति। चिकित्सा करता है, वह भी हिंसा में प्रवृत्त होता है। १४५. अलं बालस्स संगणं । सं०-अलं बालस्य सङ्गेन । हिंसा में प्रवृत्त बाल के संग से क्या लाभ ? १.णिकारेण मुख्यत्वेन व्याधिचिकित्सापरो व्याख्यातोऽसौ आलापको व्याख्यातः, गौणरूपेण व्याधिचिकित्सापरोऽपि । आलापकः । वैकल्पिकरूपेण कामचिकित्सापरश्च । (वृत्ति, पत्र १२६) (चूणि, पृष्ठ ८७-८८) २. आप्टे, लुप्-to break | टीकाकारेण मुख्यत्वेन कामचिकित्सामधिकृत्यासो ३. वही,g-to injuren Jain Education international Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० २. लोक विचय, उ० ५. सूत्र १४२-१४७ ___ भाष्यम् १४५-यो हिंसायां प्रवृत्तः स अविरतो जो हिंसा में प्रवृत्त होता है, वह अविरत होता है। वही भवति । स एव बालपदवाच्यः। तादृशो बालः कथं 'बाल'-अल्पज्ञ कहलाता है। वैसा बाल व्यक्ति काम-विरति की कामविरतेः चिकित्सां कर्तुमर्हेत् ? तेन तस्य सङ्गेन किं चिकित्सा कैसे कर सकता है ? इसलिए उसके संग से प्रयोजन ही प्रयोजनम् ? इति उपदिशति सूत्रकारः।' क्या? यही सूत्रकार बतलाते हैं। १४६. जे वा से कारेइ बाले । सं०--यो वा स कारयति बालः । जो ऐसी चिकित्सा करवाता है, वह बाल है। भाष्यम् १४६-यो वा तादृशीं हिंसानुबन्धां जो वैसी हिंसानुबन्धी काम-चिकित्सा कराता है, वह बाल है। कामचिकित्सां कारयति स बालः। तस्यापि एतादृशेन उसको भी ऐसी प्रवृत्ति से क्या प्रयोजन ? कर्मणा किं प्रयोजनम् ? १४७. ण एवं अणगारस्स जायति । -त्ति बेमि । सं०-न एवं अनगारस्य जायते । -इति ब्रवीमि । अनगार ऐसी चिकित्सा नहीं करा सकता। ---ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् १४७-अनगारस्य नैवं जायते । स ध्यानेन अनगार ऐसी चिकित्सा नहीं करा सकता । वह ध्यान तथा तपसा च काम-चिकित्सां करोति, न तु तान्त्रिकपद्धत्या तपस्या के द्वारा काम-चिकित्सा करता है । वह तांत्रिक पद्धति से कामस तां कर्तुमर्हति। चिकित्सा नहीं कर सकता। व्याधिचिकित्साक्षेत्रेऽपि हननछेदनभेदनादिक्रिया व्याधि की चिकित्सा के क्षेत्र में भी हनन, छेदन, भेदन आदि प्रयुज्यमाना आसीत् । तस्मिन् विषये भगवतो महावीरस्य क्रियाएं प्रयुक्त होती थीं। उस विषय में भगवान् महावीर का दृष्टिकोण दष्टिरियमासीत्-यो जीवोपमर्देन व्याधिचिकित्सां यह था-जो जीवहिंसायुक्त रोग-चिकित्सा का प्रतिपादन करता है, वह प्रतिपादयति स बाल:--अविज्ञाततत्त्वोऽस्ति । विदेह- 'बाल' है। वह तत्त्व को नहीं जानता। विदेह की साधना करने वाले साधनां कुर्वाणस्थानगारस्य तादृश्या चिकित्सया अनगार को वैसी चिकित्सा से क्या प्रयोजन ? यदि कोई अनगार रोग कि प्रयोजनम? यदि कश्चिदपि अनगारश्चिकित्सा- को चिकित्सा कराना चाहे तो उसे भी निरवद्य उपाय से चिकित्सा मिच्छेत सोऽपि निरवद्येन उपायेन।' करानी चाहिए। १. इस सूत्र के वैकल्पिक अनुवाद इस प्रकार किए जा आदि की हिंसा को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। सकते हैं शरीर का ममत्व भी परिग्रह है। अपरिग्रही को उसके (क) यह (चिकित्सा-हेतु किया हुआ वध) उस अज्ञानी के प्रति भी निर्ममत्व होना चाहिए। जिसने शरीर और संग (कर्म-बंध) के लिए पर्याप्त है। उसका ममत्व विसजित कर दिया, जो आत्मा में लीन हो (ख) अज्ञानी के संग से क्या ? गया, वह चिकित्सा की अपेक्षा नहीं रखता। वह शरीर में २. मुनि-जीवन की दो भूमिकाएं थीं-संघवासी और संघ जो घटित होता है, उसे होने देता है। वह उसे कर्म का मुक्त । संघवासी शरीर का प्रतिकर्म-सार-संभाल करते थे। प्रतिफल मान सह लेता है। जीवन और मृत्यु के प्रति समभाव गच्छ-मुक्त मुनि शरीर का प्रतिकर्म नहीं करते थे। वे रोग रखने के कारण जीवन का प्रयत्न और मृत्यु से बचाव नहीं उत्पन्न होने पर उसकी चिकित्सा भी नहीं करवाते थे। करता, इसलिए उसके मन में चिकित्सा का संकल्प नहीं यह भूमिका-भेद भगवान् महावीर के उत्तरकाल में हुआ होता। प्रतीत होता है । प्रारंभ में भगवान् ने मुनि के लिए भगवान् महावीर के उत्तरकाल में इस चिंतनधारा में चिकित्सा का विधान नहीं किया था। उसके सम्भावित परिवर्तन हुआ। उस समय साधना की दो भूमिकाएं कारण दो हैं-अहिंसा और अपरिग्रह। निमित हुई और प्रथम भूमिका की साधना में उस चिकित्सा में हिंसा के अनेक प्रसंग आते हैं। वैद्य चिकित्सा को मान्यता दी गई, जिसमें वैद्य-कृत हिंसा का चिकित्सा के लिए हिंसा करता है, उसका सूत्र १४२ में प्रसंग न हो। स्पष्ट निर्देश है। औषधि के प्रयोग से होने वाली कृमि Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ आचारांगभाष्यम छट्ठो उद्देसो : छठा उद्देशक १४८. से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाए। सं०-स तं संबुध्यमानः आदानीयं समुत्थाय । वह उस चिकित्सा को समीचीन दृष्टि से समझकर संयम की साधना में सावधान हो जाता है। भाष्यम् १४०-सः पुरुषःतं चिकित्साप्रसङ्ग संबुध्य- वह पुरुष उस चिकित्सा प्रसंग को जानकर यह निश्चय करे कि मानः इति निश्चिनुयात्-नैष संयमिनामाचरणीयः। ऐसी सावध चिकित्सा मुनियों के लिए आचरणीय नहीं है। इसलिए तेन आदानीयं समुत्थाय प्रवर्तेत ।। मादानीय-संयम में अप्रमत्त होकर प्रवृत्त हो। आदानीय-ज्ञानदर्शनचारित्रात्मकं संयमम् । आदानीय-ज्ञान-दर्शन-चारित्रात्मक संयम । समुत्याय-ज्ञानादीनामाराधनाये अप्रमादयोग- समुत्थाय-ज्ञान आदि की आराधना के लिए अप्रमाद योग का मालम्ब्य । आलंबन लेकर । १४६. तम्हा पावं कम्म, णेव कुज्जा न कारवे। सं०-तस्मात् पापं कर्म नैव कुर्यात् न कारयेत् । इसलिए वह पापकर्म स्वयं न करे और न दूसरों से करवाए। भाष्यम् १४९-आदानीयाय समुत्थानं कृतं तस्मात् वह मुनि संयम की साधना में सावधान हुआ है, इसलिए वह । कारणात पापं कर्म नैव कुर्यात्, न च कारयेत् । अत्र कभी पाप-कर्म न करे, न दूसरों से करवाए । 'चूर्णिकार के अनुसार यहां ची पावं-हिसादि जाव मिच्छादसणसल्लं ।' इति प्राणातिपात से मिथ्यादर्शनशल्य तक के अठारह पाप संगृहीत हैं । किन्तु पाठेन अष्टादशपापानि संगृहीतानि, किन्तु प्रक्रान्तमिह यहां हिंसात्मक चिकित्सा का प्रसंग है। सूत्र में अनुमोदन का कोई हिंसानबद्धं चिकित्सितम्। सूत्रे अनुमोदनस्य नास्ति उल्लेख नहीं है। चणि में उसका भी उल्लेख है। उल्लेखः, चूणों तस्यापि समायोजन लभ्यते । १५०. सिया से एगयरं विप्परामुसइ, छसु अण्णयरंसि कप्पति । सं०-स्यात् स एकतरं विपरामृशति षट्सु अन्यतरस्मिन् कल्पते । यह सम्भव है कि जो एक जीव-निकाय की हिंसा करता है, वह छहों जीव-निकायों की हिंसा करता है। भाष्यम १५०-स्यात्-कदाचित् प्रमादवसंगतः कदाचित् प्रमाद के वशीभूत होकर व्यक्ति किसी एक जीवएकतरं जीवनिकायं हिनस्ति, तदा स षण्णामपि जीव- निकाय को हिंसा करता है, तब भी वह छहों जीव-निकायों की हिंसा निकायानां समारम्भे वर्तते। यथा घटनिर्माणकाले में प्रवृत्त होता है । जैसे कुंभकार घट का निर्माण करते हुए पृथ्वीकाय कुम्भकारः पृथ्वीकायजीवान् हिंसन् अग्नेः वायोः के जीवों की हिंसा करता है, तब भी वह पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति वनस्पतेः त्रसप्राणिनाञ्च समारम्भेऽपि वर्तते। तथा त्रसकाय के जीवों की हिंसा करता है। व्याख्याया द्वितीयो नयः-यः एकजीवातिपाती प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या का दूसरा प्रकार यह है-जो एक भवति, स वस्तूतः सर्वजीवातिपाती भवति, जीव की हिंसा करता है, वह वास्तव में सभी जीवों की हिंसा करता अविरतत्वात् । यस्य जीवहिंसाविरतिर्नास्ति स है, क्योंकि वह अविरत है। जिसके जोव-हिंसा की विरति नहीं है, वह १. आचारांग चूणि, पृष्ठ ८९ । २. वही, पृष्ठ ८९ : सतं ण कुज्जा णो अण्णेहि कारवे करेंतंऽपण्णं णाणुमोदए, अणुमोदणा अकरणाकारणेण गहिता, णवए णवभेदेण। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० २. लोकविचय, उ० ६. सूत्र १४८-१५१ यस्य कस्यापि जीवनिकायस्य हिंसायां प्रवर्तितुं जिस-किसी जीव-निकाय की हिंसा करने में प्रवृत्त हो सकता है। सावकाशः। विपरामृशति-हिनस्ति। विपरामृशति का अर्थ है-हिंसा करना। कल्पते-वर्तते। कल्पते का अर्थ है-है। १५१. सुहट्ठी लालप्पमाणे सएण दुक्खेण मूढे विप्परियासमुवेति । सं०-सुखार्थी लालप्यमानः स्वकेन दुःखेन मूढः विपर्यासमुपैति । सुख का अर्थी बार-बार सुख की कामना करता है । वह अपने द्वारा कृत दुःख-कर्म से मूढ होकर विपर्यास को प्राप्त होता है-- सुख का अर्थी होकर दुःख को प्राप्त होता है। माध्यम १५१–किमर्थं पुरुषः हिंसायां प्रवर्तते इति पुरुष हिंसा क्यों करता है-इस जिज्ञासा के समाधान में जिज्ञासां समाधत्ते सूत्रकारः-द्विविधाः पुरुषाः सूत्रकार कहते हैं-पुरुष दो प्रकार के होते हैं-आत्मार्थी और भवन्ति-आत्मार्थिनः सुखार्थिनश्च । तत्र यः सुखार्थी सुखार्थी । जो सुखार्थी है, वह हिंसा में प्रवृत्त होता है । वह बारभवति स हिंसायां प्रवर्तते । स वारं वारं सुखं बार सुख (सुविधा) की आकांक्षा करता है । वह सुख की आकांक्षा करता प्रार्थयते । स सुखं प्रार्थयमानः दुःखमर्जयति । हुमा दुःख का अर्जन करता है, कर्म-बंध करता है । कर्म दुःख है, क्योंकि १.जो एक जीव-निकाय की हिंसा करता है, वह छहों जीवनिकायों की हिंसा करता है। इस सूत्र की पृष्ठभूमी में अहिंसा अथवा मैत्री का दर्शन छिपा हुआ है। साधक के लिए सब जीवों की हिंसा निषिद्ध है। यह सर्व निषेध अहिंसा के चित्त का निर्माण करता है। एक जीव-निकाय की हिंसा विहित और अन्य जीव-निकायों की हिसा निषिद्ध हो तो अहिंसा के चित्त का निर्माण नहीं हो सकता । जो व्यक्ति एक जीव-निकाय की हिंसा करता है, उसके चित्त में अन्य जीव-निकायों के प्रति मंत्री सघन नहीं हो सकती। भगवान महावीर के युग में कुछ परिव्राजक यह प्रतिपादित करते थे-हम केवल पानी के जीवों की हिंसा करते हैं, अन्य जीवों की हिंसा नहीं करते । कुछ श्रमण निरूपित करते थे-हम भोजन के लिए जीव-हिंसा करते हैं, अन्य प्रयोजन के लिए जीव-हिंसा नहीं करते। भगवान् महावीर के शिष्य जंगल के मार्ग में विहार करते, तब बीच में अचित्त पानी नहीं मिलता । अनेक मुनि प्यास से आकुल हो स्वर्गवासी हो जाते। ऐसी स्थिति में यह प्रश्न उठा हो कि कदाचित् विकट परिस्थिति आने पर सचित्त पानी पी लिया जाए तो क्या आपत्ति है? इन सब निरूपणों और प्रश्नों को सामने रखकर भगवान् ने यह प्रतिपादित किया कि जिस साधक के चित्त में किसी एक जीव-निकाय को हिंसा की भावना अव्यक्त रहती है, उसका सर्वजीव-अहिंसा के पथ में प्रस्थान नहीं होता। अतः साधक की मैत्री सघन होनी चाहिए। उसके चित्त में कभी भी किसी जीव-निकाय की हिंसा की भावना शेष नहीं रहनी चाहिए। यह सूत्र परिग्रह के प्रकरण में है। अतः परिग्रह के संदर्भ में भी इस सूत्र की व्याख्या की जा सकती है । हिंसा, असत्य, अस्तेय, अब्रह्मचर्य, परिग्रह और रात्रि-भोजन-ये छह अव्रत हैं। क्या एक अव्रत का आचरण करने वाला दूसरे अव्रत के आचरण से बच सकता है ? क्या परिग्रह रखने वाला हिंसा से बच सकता है ? क्या हिंसा करने वाला परिग्रह से बच सकता है ? इन प्रश्नों के उत्तर में भगवान महावीर ने इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया-मूल दोष दो हैं-राग और द्वेष । हिंसा, परिग्रह आदि दोष उनके पर्याय हैं। राग-द्वेष से प्रेरित होकर जो पुरुष परिग्रह का स्पर्श करता है, वह हिंसा आदि का भी स्पर्श करता है। छहों अवतों का पूर्ण त्याग संयुक्त होता है, वियुक्त नहीं होता। कोई मुनि अहिंसा का पालन करे और अपरिग्रह का पालन न करे, अपरिग्रह का पालन करे और अहिंसा का पालन न करे-ऐसा नहीं हो सकता। महाव्रत एक साथ ही प्राप्त होते हैं और एक साथ ही भंग होते हैं। प्रत्याख्यानावरण कषाय के प्रशांत होने पर महावत उपलब्ध होते हैं और उसके उदीर्ण होने पर उनका भंग हो जाता है। ये एक, दो या अपूर्ण संख्या में न उपलब्ध होते हैं, और न विनष्ट । इसलिए परिग्रह के प्रकरण में इस सिद्धांत को इस भाषा में प्रस्तुत किया जा सकता है-परिग्रह का स्पर्श करने वाला हिंसा आदि सभी अव्रतों का स्पर्श करता है। २. आप्टे, परामर्शः-Violence. ३. द्रष्टव्यम्-आयारो २१६०,६९ । ४. आचारांग चूणि, पृष्ठ ९० : अच्चत्थं-पुणो पुणो लप्पमाणो लालप्पमाणो, जं भणितं सुहं पत्थेमाणो। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० आचारांगभाष्यम् दुःखहेतुत्वात् दुःखं कर्म । तेन स्वकेन--स्वाजितेन दुःखेन वह दुःख का हेतु है। वह पुरुष अपने द्वारा अजित दुःख से मूढ़ होकर मूढः सन् विपर्यासमुपैति-सुखार्थी सन् दुःखं प्राप्नोति। विपर्यास को प्राप्त होता है-सुख की आकांक्षा करता है, पर दुःख पाता है। हिताहितयोः कार्याकार्ययोः वावययोरविवेकः हित और अहित, कार्य और अकार्य, वयं और अवयं का मोहः । मोहं प्राप्तो मूढः। स मूढत्वात् नाभिजानाति अविवेक मोह है । जो मोहग्रस्त होता है वह मूढ है। मूढता के कारण सुखाय क्रियमाणः प्रयत्नः दुःखाय भविष्यति । अत एव वह पुरुष नहीं जानता कि सुख के लिए किया जाने वाला प्रयत्न वस्तुतः स आत्मनः परस्य वा सुखार्थ पृथ्वीकायादीनां समारम्भं दुःख के लिए होगा। इसीलिए वह अपने तथा दूसरों के सुख के लिए करोति । ततश्च दीर्घकालं दुःखमनुभवति ।' पृथ्वीकाय आदि जीवनिकायों की हिंसा करता है। उसका परिणाम है कि वह दीर्घकाल तक दुःख का अनुभव करता है। १५२. सएण विप्पमाएण, पुढो वयं पकुव्वति । सं०-स्वकेन विप्रमादेन पृथग् वयः प्रकरोति । वह अपने अतिप्रमाव के कारण विविध प्रकार के गतिचक्र का निर्माण करता है। भाष्यम् १५२-सुखाकांक्षा प्रमादं जनयति । स सुख की आकांक्षा प्रमाद को उत्पन्न करतो है । वह पुरुष अपन स्वकीयेन विप्रमादेन पृथग् वयःप्रकरोति । वयः-संसारः अतिप्रमाद के कारण विविध प्रकार के वय का निर्माण करता है। गतिचक्र वा। वय का अर्थ है-संसार अथवा गतिचक्र (जन्म-शृंखला)। १५३. जंसिमे पाणा पवहिया । पडिलेहाए णो णिकरणाए। सं०-यस्मिन् इमे प्राणाः प्रव्यथिताः । प्रतिलिख्यः नो निकरणाय । ये प्राणी जिसमें व्यथित होते हैं, यह जानकर हिंसा और परिग्रह का संकल्प न करे। भाष्यम् १५३-यस्मिन् स्वकृतेन प्रमादेन आपादिते अपने द्वारा कृत प्रमाद से संप्राप्त जिस गतिचक्र अथवा ससार में गतिचक्रे संसारे वा प्राणाः प्रव्यथिता भवन्ति- प्राणी प्रव्यथित होते हैं-शारीरिक तथा मानसिक दुःखों से पीड़ित होते शारीरैश्च मानसश्च दुःखैः पीडिताः भवन्ति, तत् हैं, उसको सम्यग् प्रकार से जानकर हिंसा तथा उसके हेतुभूत परिग्रह के प्रतिलिख्य-सम्यग् ज्ञात्वा हिंसाया तहेतुभूतस्य निकरण के लिए प्रवृत्ति न करे । परिग्रहस्य च निकरणाय नो प्रवर्तेत । निकरण-निश्चितं करणं, आवश्यकमिदमिति निकरण का अर्थ है-निश्चित रूप से करना, 'यह आवश्यक बुद्ध्या करणम् । है'-इस बुद्धि से करना। १५४. एस परिण्णा पवुच्चइ । सं०-एतत् परिज्ञा प्रोच्यते । इसे परिज्ञा कहा जाता है। भाष्यम् १५४-एतत्-हिंसायाः परिग्रहस्य च इस-हिंसा और परिग्रह के अनिकरण को परिज्ञा (विवेक) अनिकरणं 'परिज्ञा" इति उच्यते। कहा जाता है। १. आचारांग चूणि, पृष्ठ ९१ : सो मूढत्ता णाभियाणति जहा ३. ऐतरेयब्राह्मण, अध्याय १२, खण्ड ८: 'वयः सुवर्णा अप्पस्स सुहस्स कारणा पुढविक्कायातिसमारंभेण अणंतकालं उपसेदुरिन्द्रमित्युत्तमया परिदधाति ।' सायणाचायण संसारे अणुभवति दुक्खं, जहा अत्तट्ठा तहा परहावि, माता स्वभाष्ये वेतेर्धातोर्गत्यर्थस्य वय इति रूपं सम्मतम् । पितिमादीणं कारणा पुढविमावी समारभति ततो विपरियासं ४. तुलना, आयारो-१६१। एति। ५. आचारांग चूणि, पृष्ठ ९१ : जा एसा वुत्ता पाणाइवायाईणं २. वही, पृष्ठ ९१ : विच्छिण्णो वयो असुभदीहाउयं अणेगविहं अकरणा। वा वयं पत्तेयं पत्तेयं छसु जीवनिकाएसु आउयं, पुणो पुणो ६. द्रष्टव्यम्-आयारो, १।९। वा वयं पुढोवयं-भिसं कुव्वति । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० २. लोकविचय, उ०६. सूत्र १५२-१५६ १५५. कम्मोवसंती। सं०-कर्मोपशान्तिः। यह परिज्ञा कर्म की उपशांति है। परिग्रह के असंग्रह से कर्मों की उपशांति होती है। इसलिए अनिकरण का अर्थ कर्मों की उपशांति भी है। भाष्यम् १५५–परिग्रहस्य असंग्रहेण कर्मणां उपशान्तिः भवति। अत: अनिकरणं कर्मोपशान्तिः इत्यपि उच्यते । कर्मोपशान्तिः-नवस्य कर्मण: अकरणं पुराणस्य च क्षपणम् । कर्मोपशांति का अर्थ है-नए कर्मों का मकरण अर्थात् अबंध तथा पुराने कर्मों का क्षय। १५६. जे ममाइय-मति जहाति, से जहाति ममाइयं । सं०-यः ममायितमति जहाति, स जहाति ममायितम् । जो परिग्रह की बुद्धि का त्याग करता है, वह परिग्रह का त्याग कर सकता है । भाष्यम् १५६-ममायितम्-ममीकृतम् । ममायितस्य ममायित का अर्थ है-यह मेरा है, ऐसी भावना । ममायित व्यक्ति मतिः ममायितमतिः । ममीकारः प्राणिषु भवति पदार्थेषु की मति ममायितमति है । ममकार प्राणियों के प्रति और पदार्थों वा, यथा-मम माता, मम पिता, मम गृहं, मम के प्रति होता है, जैसे-मेरी माता, मेरे पिता, मेरा घर, मेरी भूमि । भूमिः। यः पुरुषः बुद्धिगतं ममत्वं त्यजति स जो व्यक्ति बुद्धिगत ममत्व को छोड़ देता है, वही वास्तव में प्राणिएव वस्तुतः प्राणिविषयक पदार्थविषयकं वा ममत्वं विषयक अथवा पदार्थ-विषयक ममत्व का त्याग करता है। त्यजति । अस्मिन् विषये चूर्णिकारेण भरतस्य उदाहरणं इस विषय में चूर्णिकार ने भरत का उदाहरण प्रस्तुत किया प्रस्तुतीकृतम्-भरहसामिणा आदंसघरे पविट्ठणं ममी- है-'भरत चक्रवर्ती ने आदर्शगृह-शीशे के महल में प्रवेश कर ममकार कारमती जढा ।' की मति का परित्याग कर दिया।' उक्त केनचित् तपस्विना-राजन् ! अहं प्रासादे किसी एक संन्यासी ने राजा से कहा-राजन् ! मैं महल में वसामि, तव मस्तिष्के च प्रासादो वसति । तात्पर्यमिदम् रह रहा हूं किन्तु तुम्हारे मस्तिष्क में महल है । इसका तात्पर्य है-यावत बुद्धिगतः परिग्रहो न परित्यक्तो भवति तावत् जब तक बुद्धिगत परिग्रह नहीं छूटता तब तक पदार्थगत परिग्रह पदार्थगतः परिग्रहो न परित्यक्तः स्यात् । तेन पूर्व परित्यक्त नहीं होता। इसलिए सबसे पहले चित्त का परिष्कार करना चित्तस्य परिष्कारः करणीयः ।। चाहिए। हो जाते हैं, मावश्यकता-भर बचते हैं । साथ-साथ कर्म से होने वाले कर्म-बन्ध भी उपशांत हो जाते . १. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ ९१ : परिष्णा कम्मोवसंति त्ति वा एगट्ठा। (ख) मनुष्य कर्म करता है। कर्म का अपने आप में कोई उद्देश्य नहीं है । वह उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया जाता है । जीवन की कुछ आवश्यकताएं हैं । कर्म के द्वारा उनकी पूर्ति की जाती है। आवश्यकता की पूत्ति के लिए कर्म करना एक बात है और कर्म के लिए आवश्यकता खोजना दूसरी बात है। मन आसक्ति से भरा होता है, तब मनुष्य कर्म की आवश्यकता उत्पन्न करता है। उससे समस्याओं का विस्तार होता है । अनासक्त व्यक्ति के कर्म उपांत २. आचारांग चूणि, पृष्ठ ९२ । ३. वही, पृष्ठ ९२ : एवं अण्णेसुवि वयेसु आयोज्ज । अस्याधारेण एवं रचितं स्यात्जे पाणाइवायमति जहाति, से जहाति पाणाइवायं । जे मुसावायमति जहाति, से जहाति मुसावायं । जे अविन्नावाणमति जहाति, से जहाति अदिन्नादाणं । जे मबंभवेरमति जहाति, से जहाति अबंभोरं। Jain Education international Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ १५७. से हु विद्रुप मुणी, जस्स णत्थि ममाइयं । सं० -- स खलु दृष्टपथः मुनि: यस्य नास्ति ममायितम् । जिसके पास परिग्रह नहीं है, उसी मुनि ने पथ को देखा है। भाष्यम् १५७ - ममत्वेन पन्था अपि विपर्यस्तो भवति, ज्ञानमपि च विपर्यस्तं भवति । यस्व ममत्वं नास्ति स एव दृष्टपथः, स एव मुनिः ज्ञानीति यावत् । ममत्वग्रन्थे: विमोक्षे सत्येवं दर्शनस्य ज्ञानस्य च सहजा उपलब्धिर्भवति इति तात्पर्यम् । १५८. तं परिण्णाय मेहावी । सं० तं परिज्ञाय मेधावी । मेधावी पुरुष परिग्रह को जाने और उसका त्याग करे । भाष्यम् १५८ - मेधावी तं तं परिग्रहं ज्ञ-परिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यान- परिज्ञया प्रत्याचक्षीत । भाष्यम् १५९ - स मतिमान् लोकं विदित्वा लोकसंज्ञाञ्च वमित्वा पराक्रमेत इति ब्रवीमि ।' १५९. विदित्ता लोगं, बंता लोगसण्णं, से मतिमं परक्कमेज्जासि सि बेमि । सं० – विदित्वा लोकं, वान्त्वा लोकसंज्ञां स मतिमान् पराक्रमेत इति ब्रवीमि । मतिमान् पुरुष लोक को जानकर, लोकसंज्ञा को त्याग कर संयम में पराक्रम करे, ऐसा मैं कहता हूं । लोक:- लोभः ममत्वं वा । लोक- लोभमतिः ममत्वमतिर्वा । एताभ्यां द्वाभ्यां पदाभ्यामिति ध्वन्यते प्रथमं परिग्रहस्य स्वरूपावबोधः कार्यः तदनन्तरं तस्य संज्ञाया मतेः संस्कारस्य वा परिष्कारः कार्यः । अपरिग्रह सिद्धेष पूर्णप्रयोगः । * भाष्यम् १६० - लोकसंज्ञानिवृत्तये पराक्रमं कुर्वतोऽपि पुरुषस्य कदाचित् तपः- नियम-संयमेषु अरतिर्भवेत् कदा विश्व तस्य विषयकषायादिलक्षणे असंयमे रतिर्भवेत् स ममत्व के कारण मार्ग भी विपरीत हो जाता है और ज्ञान भी विपरीत हो जाता है। जिसमें ममकार नहीं होता, उसी ने को देखा है, वही मुनि है, ज्ञानी है। ममत्व की गांठ खुलते ही ऐसे और ज्ञान की उपलब्धि सहज हो जाती है, यही इसका तात्पर्य है । १. आचारांग चूणि, पृष्ठ ९३ एवं तित्यागराणाए बेमि, पो स्वेच्या अहिवारसमतीए एवं बेमियणसमतीए । मेधावी मुनि उस परिग्रह को ज्ञ परिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से उसका परित्याग करे । १६०. णाति सहते बोरे, वीरे णो सहते रति जम्हा अविमणे वीरे, तम्हा वीरे ण रज्जति । सं० नाति सहते वीरः बीरो नो सहते रतिम् । यस्मात् अविमनाः वीर, तस्मात् बीरः न रज्यति । वह मतिमान् मुनि सोकसोम या ममत्व के परिणामों को जानकर, लोकसंज्ञा लोभ की मति या ममत्वद्धि को त्याग कर संयम में पराक्रम करे, ऐसा मैं कहता हूँ । लोक का अर्थ है - लोभ या ममत्व । लोकसंज्ञा का अर्थ है - लोभ की मति या ममत्व की मति । इन दोनों पदों की ध्वनि यह है-सबसे पहले परिग्रह के स्वरूप का ज्ञान करना चाहिए उसके पश्चात् परिग्रह की संज्ञा, मति अथवा संस्कार का परिष्कार करना चाहिए। अपरिग्रह की सिद्धि के लिए यह पूरा प्रयोग है। वीर पुरुष अरति को सहन नहीं करता, वह रति को सहन नहीं करता, क्योंकि वह विमनस्क नहीं होता-मध्यस्थ रहता है। इसलिए वह आसक्त नहीं होता । आचारांगभाष्यम् - साधक लोकसंज्ञा की निवृत्ति के लिए पराक्रम करता है, फिर भी कभी उसके मन में तप, नियम और संयम के प्रति भरति हो सकती है और कभी उसके मन में विषय कषाय आदि असंयम में रति हो २. तुलना - आयाशे, ३।२५ । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० २. लोकविचय, उ० ६. सूत्र १५७-१६१ १४३ वीरोऽस्ति, तेन अरति रति च न सहेत ।' ते तत्कालं सकती है, पर वह साधक वीर है, इसलिए वह अरति तथा रति को मनसो निष्कासयेत् । निष्कासनस्य प्रक्रियामपि सूत्रकारो सहन न करे। उनको तत्काल मन से निकाल दे। उनके निष्कासन की दर्शयति-तयोः द्वयोरपि अविमनस्कताबलात् रेचनं प्रक्रिया भी सूत्रकार बतलाते हैं-उन दोनों--अरति और रति का भी कर्त शक्यम् । अरति: रतिश्च द्वे अपि मनसो विशिष्टा- अविमनस्कता-मध्यस्थता के बल से रेचन किया जा सकता है। अरति वस्थे स्तः । यदा मनसि तयोरूर्मयः उत्पद्यन्ते, तदा पुरुषो और रति ये दोनों मन की विशिष्ट अवस्थाएं हैं । जब मन में उनकी विमनाः भवति । यदि ध्यानबलेन उत्पन्नमात्राः ताः तरंगें उत्पन्न होती हैं तब मनुष्य विमना होता है। यदि व्यक्ति उत्पन्न ऊर्मीः निरुणद्धि-क्षणमात्रमपि न सहते, तत्कालं मनो होते ही उन ऊर्मियों का ध्यान-शक्ति से निरोध कर लेता है, क्षणमात्र के निविषयं निर्विकल्पं वा करोति, स अविमना: भवति । लिए भी उनको सहन नहीं करता अथवा तत्काल ही मन को निविषय स वीरः स्ववीर्येण विचयात्मकं धर्मध्यानमालम्बते, अत या निर्विकल्प बना लेता है, वह अविमना होता है । वह वीर साधक एव स विषयेष न रज्यति । सर्वेभ्यः इष्टानिष्टेभ्यः अपनी शक्ति से विचयात्मक धर्म-ध्यान का आलंबन लेता है, इसीलिए शब्दादिविषयेभ्यो विरक्तो भवति । वह विषयों में आसक्त नहीं होता। वह इष्ट-अनिष्ट सभी शब्दादि इन्द्रिय-विषयों से विरक्त हो जाता है। उत्पन्नमात्रस्य अरतेः रतेश्च तरंगस्य तत्कालं अरति और रति की तरंग के उत्पन्न होते ही तत्काल उसकी प्रेक्षणं निष्कासनं निरोधनं वा, तस्य क्षणमात्रमपि न प्रेक्षा करना, उसका निष्कासन अथवा निरोध करना, उसे क्षणभर के सहनं. एतदस्ति जागरूकताहेतुकम् । भावक्रियाया लिए भी सहन न करना, यह जागरूकता का हेतु है । भावक्रिया के अभ्यासेनैव तादशी जागरूकता संभाव्यते। इदमेव अभ्यास से ही वैसी जागरूकता सम्भव हो सकती है। यही अप्रमाद अप्रमादसाधनायाः रहस्यम् ।' की साधना का रहस्य है। १६१. सद्दे य फासे अहियासमाणे। सं०-शब्दान् च स्पर्शान् अध्यासमानः । अनासक्त साधक शब्द और स्पर्श को सहन करता है। १. आचारांग चूणि, पृष्ठ ९३ : ण इति पडिसेधे, सधणं मरिसणं, जति णाम कदायि तस्स परक्कमतो तवणियमसंजमेसु अरती भवेज्जा ततो तं खणमित्तमवि ण सहति, खिप्पमेव झाणेण मणतो निच्छुभति-णिव्विसयं करेति, वीर इति विदारयति तत्कर्म, तपसा च विराजते । तपोवीर्येण युक्तश्च , वीरो वीरेण दशितः॥ जहेब संजमे अति ण सहति तहेव विसयकसायादिलक्खणे असंजमे जति कहंचि तस्स रती उप्पज्जति तंपि खणमित्तमवि ण सहति-ण खमति, धम्मज्माणसहगतो उप्पण्णमित्तं णिक्कासति, 'जम्हा अविमणे' जम्हा सो इट्ठाणिठेसु पत्तेसु विसएसु धितिबलअस्सितो अविमणो भवति, अहवा जम्हा सो संजमे अति ण सहति असंजमे अ रति तेण मज्झत्थो णिच्चमेव अविमणो धीरो 'तम्हादेव विरज्जते' विसएसु। २. अरति को सहन न करना-यह संकल्प-शक्ति (Will power) के विकास का सूत्र है। जिसके प्रति मनुष्य का आकर्षण नहीं होता, उसके प्रति प्रयत्नपूर्वक ध्यान करने से, मानसिक धारा को प्रवाहित करने से संकल्प-शक्ति विकसित होती है। इन्द्रियों का आकर्षण विषयों के प्रति होता है। विषय-विरति के प्रति उनका आकर्षण नहीं होता। इसलिए कभी-कभी साधक के मन में विषय-विरति के प्रति अरति उत्पन्न हो जाती है। उस अरति को सहने वाले साधक का संकल्प शिथिल हो जाता है। जो साधक अरति को सहन नहीं करता, विषय-विरति के प्रति अपने मन की धारा को प्रवाहित करता है, वह अपनी संकल्प-शक्ति का विकास कर संयम को सिद्ध कर लेता है। भगवान महावीर की साधना अप्रमाद (जागरूकता) और पराक्रम की साधना है। साधक को सतत अप्रमत्त और पराक्रमी रहना आवश्यक है। साधना-काल में यदि किसी क्षण प्रमाद आ जाता है-अरति, रति का भाव उत्पन्न हो जाता है, तो साधक उसी क्षण ध्यान के द्वारा उसका विरेचन कर देता है। इससे वह संस्कार नहीं बनता, प्रन्थिपात नहीं होता। अरति-रति का रेचन न किया जाए, तो उससे विषयानुबन्धी चित्त का निर्माण हो जाता है। फिर विषय की आसक्ति छूट नहीं सकती। अतः सूत्रकार ने इस विषय में साधक को बहुत सावधान रहने का निर्देश दिया है। Jain Education international Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न आचारांगभाष्यम् भाष्यम् १६१-साधनाकाले अनेकविधाः शब्दाः साधनाकाल में अनेक प्रकार के शब्द सुनाई देते हैं । कोई कहता श्रवणगोचरतामापन्ना भवन्ति । कश्चित् कथयेत्-असौ है-यह व्यक्ति गृहस्थाश्रम के भार को वहन करने में असमर्थ था गहाश्रमभारं वोढमसमर्थस्तेन श्रमणो जातः । कश्चिद् इसलिए यह श्रमण बन गया। कोई कहता है-यह तो क्लीव था, वदेत्-क्लीवोऽसौ तेन श्रमणो जातः । नपुंसक था, इसलिए श्रमण बन गया। श्मशानप्रतिमायां व्यन्तरदेवकृता अट्टहासयुताः जो श्मशान प्रतिमा की साधना करता है उसे व्यन्तर देवों द्वारा भयंकराः शब्दा अपि श्रुतिगोचरतामापद्यन्ते। कृत अट्टहासयुक्त भयंकर शब्द सुनाई देते हैं। ___ एवमेव स्पर्शा अपि सम्मुखीना भवन्ति । सामान्यतः इसी प्रकार स्पर्श-कष्ट भी सामने आते हैं। सामान्यतः ये मनुष्यतिर्यग्कृताः, श्मशानप्रतिमादौ देवकृता अपि । कष्ट मनुष्यकृत और पशुकृत होते हैं। जो श्मशान प्रतिमा आदि की साधना करता है उसे देवकृत उपसर्ग भी झेलने पड़ते हैं। साधनाशीलः पुरुषः तान् शब्दान् स्पश्चि साधनाशील पुरुष उन शब्दों और स्पर्शो को सहता हुआ विहरण अध्यासमानो विहरेत् । करे। अत्र स्पर्शाः कष्टानि । मध्यासमानः-सहमानः । स्पर्श का अर्थ है-कष्ट । अध्यासमान का अर्थ है-सहन करता हुआ। तात्पर्यमिदम्-इष्टानिष्टेषु शब्देषु स्पर्शेषु च इसका तात्पर्य यह है-साधक इष्ट-अनिष्ट शब्दों तथा स्पर्शी रागद्वेषौ न कुर्यात । मनसो निविकल्पता एव राग- में राग-द्वेष न करे । राग-द्वेष न करने का एकमात्र उपाय है मन की देखोरकरणोपायः। एतद अपायविचयस्य उपाय- निर्विकल्पता। यह अपाय विचय तथा उपायविचय का निदर्शन है। विचयस्य च निदर्शनमस्ति । १६२. णिव्विद दि इह जीवियस्स। सं०-निविन्दस्व नन्दि इह जीवितस्य । पुरुष ! तू जीवन में होने वाले प्रमोद से अपना आकर्षण हटा ले। भाष्यम १६२-इह शब्देषु स्पर्शेषु च जीवनस्य इन शब्दों और स्पों (के मासेवन) में जीवन, प्राण या प्राणप्राणस्य प्राणविद्युतो वा या नन्दिः-मनसस्तुष्टिः विद्युत् की जो नंदी-मन की तुष्टि होती है, उससे तुम निविण्ण बनो, भवति. ततस्त्वं निविन्दस्व-अनासक्तिमवलम्बस्व इति अनासक्त रहो, यह तात्पर्य है । इस उपाय से शब्दों और स्पों में होने तात्पर्यम् । अनेनोपायेन तेषु जायमानौ रागद्वेषौ सहजमेव वाले राग-द्वेष सहजरूप से ही सह लिए जाएंगे। सहितौ भविष्यतः। १६३. मुणी मोणं समादाय, धुणे कम्म-सरीरगं । सं०--मुनिः मौनं समादाय धुनीयात् कर्मशरीरकम् । मुनि मौन को प्राप्त कर कर्म-शरीर को प्रकम्पित करे। भाष्यम १६३-मुनिः मौनं समादाय कर्मशरीरं मुनि मौन को स्वीकार कर कर्मशरीर को धुन डाले। मुनि धनीयात । मुनिः-ज्ञानी। मौनं-ज्ञानं संयमो वा। का अर्थ है-ज्ञानी और मौन का अर्थ है-ज्ञान अथवा संयम । ४।३२ ४।३२ सत्रे 'धूणे सरीरं' इति पाठोऽस्ति । तत्र चूर्णिकारेण सूत्र में 'धुणे सरीरं'-ऐसा पाठ है। वहां चूर्णिकार ने मुख्य रूप से मुख्यरूपेण कर्मशरीरं धुनीयाद् इति व्याख्यातम्। कर्म-शरीर को प्रकंपित करे-ऐसी व्याख्या की है। वैकल्पिक रूप से वैकल्पिकरूपेण औदारिकशरीरं धुनीयाद् इत्यपि औदारिक शरीर को प्रकंपित करे-यह भी व्याख्या की है। व्याख्यातम् । १. आचारांग चूणि, पृष्ठ ९३ : गंदी पमोदे रमणे समितीए य ३. आचारांग चूणि, पृष्ठ १४६ : 'धुणे सरीरं' दम्वेणं वण्णाति, इस्सरियविभवकया मणसो तुट्ठी।। भावे कम्मावकरिसणं, सीर्यत इति शरीरं, कतरं? कर्म२. वही, पृष्ठ ९३ : समणेत्ति वा माहणेत्ति वा मुणिति वा शरीरं। एगा । ४. वही, पृष्ठ १४६ : महवा ओरालियसरीरघुणणा.......। Jain Education international Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० २. लोकविचय, उ० ६. सूत्र १६२-१६४ १४५ सूत्रकृतांगे' 'धुणे उरालं' इति पाठो लभ्यते । तस्मिन् सूत्रकृतांग में 'धुणे उरालं' ऐसा पाठ मिलता है। उसमें औदारिकशरीरस्य स्पष्ट निर्देशोऽस्ति । चर्णिकारेणात्र औदारिक शरीर का स्पष्ट निर्देश है। यहां चूर्णिकार ने औदारिक औदारिककर्मशरीरयोः सम्बन्धोऽपि प्रदर्शितः। शरीर और कर्मशरीर-दोनों का संबंध भी बताया है। यत्र तपसः प्रकरणमस्ति तत्र औदारिकशरीरस्य जहां तपस्या का प्रकरण है वहां औदारिक शरीर को धुनना धुननं मुख्यं कर्मशरीरस्य धुननं च आनुषङ्गिकरूपेण मुख्य होता है और प्रासंगिक रूप में कर्मशरीर के धुनने की बात भी विवृतं भवति । यत्र च ध्यानस्य प्रकरणमस्ति तत्र प्राप्त होती है। जहां ध्यान का प्रकरण है वहां कर्मशरीर को धुनने की कर्मशरीरस्य प्रयोगः साक्षात् वर्तते । औदारिकशरीर- बात मुख्य होती है और औदारिक शरीर को धुनने की बात गौण मत्रानुषङ्गिकं भवति । होती है। प्रस्तुतालापके कर्मशरीरधुननस्य द्वावपि उपायौ प्रस्तुत आलापक में कर्मशरीर के धुनने के दो उपाय निर्दिष्ट निर्दिष्टौ स्त:-पूर्ववर्तित्रिषु सूत्रेषु (१६०-१६२) हैं-पूर्ववर्ती तीन सूत्रों (१६०-१६२) में ध्यानात्मक उपाय निर्दिष्ट ध्यानात्मक उपायो दृश्यते, अग्रिमसूत्रे (१६४) खाद्य- हैं, अग्रिम सूत्र (१६४) में खाद्य-संयमरूप उपाय बताया जा रहा है । संयमरूप उपायो निर्दिश्यमानोऽस्ति । इति अवधारणीय- यह बात ध्यान देने योग्य है कि औदारिक शरीर को प्रकंपित किए बिना मस्ति-अप्रकम्पिते औदारिके शरीरे कर्मशरीरं प्रकम्पितं कर्मशरीर प्रकंपित नहीं होता। इसलिए औदारिक शरीर तथा उसमें न स्यात् । तेनात्र औदारिकशरीरस्य तस्मिन् प्रवृत्त चित्त का प्रकंपन यहां स्वतः प्राप्त हो जाता है । प्रवर्तमानस्य चित्तस्य च प्रकम्पनं स्वतःप्राप्तमस्ति । १६४. पंतं लहं सेवंति वोरा समत्तदंसिणो। सं०--प्रान्तं रूक्षं सेवन्ते वीराः समत्वदशिनः । समत्वदर्शी वीर प्रांत-नीरस, वासी और रूक्ष आहार आदि का सेवन करते हैं। भाष्यम १६४.--कर्मशरीरधुननस्य एक उपायोऽस्ति कर्मशरीर को धुनने का एक उपाय है-माहार का संयम । आहारसंयमः। यः कोऽपि पुरुष: नाहारसंयमं कर्तुं हर कोई व्यक्ति आहार-संयम करने में समर्थ नहीं होता । वीर व्यक्ति प्रत्यलो भवति। वीरा एव मनोबलस्य वीर्यस्य वा ही अपने मनोबल तथा शक्ति की प्रचुरता से आहार का संयम कर प्राचर्यात तं कर्तुमर्हन्ति। मनोज्ञाऽमनोज्ञयोः यो न सकते हैं । मनोज्ञ और अमनोज्ञ आहार के प्रति जो समदृष्टि नहीं समदष्टि : सोऽपि न क्षमते तं कर्तुम् । ये समत्वदर्शिनः त होता, वह आहार-संयम नहीं कर सकता। जो समत्वदर्शी होते हैं, वे एव तं कर्त प्रभवन्ति । ये वीराः समत्वदर्शिन: प्रान्तं- ही आहार-संयम कर सकते हैं । जो वीर समत्वदर्शी हैं वे प्रांत-- पर्यषितं रूक्ष आहारं सेवन्ते । सम्यक्त्वदर्शिनः इति पर्युषित तथा रूक्ष आहार का सेवन करते हैं। चूणि में समत्वदर्शी के चौं व्याख्यातमस्ति । येषां दृष्टिकोण ः सम्यग् नास्ति स्थान पर सम्यक्त्वदर्शी शब्द व्याख्यात है। जिनका दृष्टिकोण सम्यग् तेषामपि न संभवति आहारसंयमः । नहीं है, वे भी आहार-संयम नहीं कर सकते । १. अंगसुत्ताणि १, सूयगडो १, १०११। भीष्म उवाच२. सूत्रकृतांग चूणि, पृष्ठ १८८ : उरालं णाम औदारिकसरीरं, कणानां भक्षणे युक्तः पिण्याकस्य च भारत ! तत् तपसा धुनीहि, धुननं कृशीकरणमित्यर्थः। तस्मिश्च स्नेहानां वर्जने युक्तो योगी बलमवाप्नुयात् ॥ धूयमाने कर्मापि धूयते। भुजानो यावकं रूक्ष, दीर्घकालमरियम ! ३. योगरसायन, २५४ : एकाहारो विशुद्धात्मा, योगी बलमवाप्नुयात् ॥ नादारंभे भवेत् सर्वगात्राणां भञ्जनं ततः। पक्षान् मासान्तूंश्चैतान्, संवत्सरानहस्तथा। शिरसः कम्पनं पश्चात् सर्वदेहस्य कम्पनम् ॥ अपः पीत्वा पयोमिश्रा, योगी बलमवाप्नुयात् ॥ ४. एषा पद्धतिः वैज्ञानिकपरिभाषायां 'बायोफीडबैकपद्धतिः' अखण्डमपि वा मासं सततं मनुजेश्वर ! - इति वक्तं शक्यम । ५. महाभारत, शान्तिपर्व, मोक्षधर्मपर्व, अध्याय ३००, श्लोक उपोष्य सम्यक् शुद्धात्मा, योगी बलमवाप्नुयात् ॥ ४२-४६ : ६. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ ९४ : सम्मत्तं पस्संति युधिष्ठिर उवाच सम्मइंसिणो। आहारान् कीदृशान् कृत्वा, कानि जित्वा च भारत ! (ख) वृत्तिकार (वृत्ति पत्र १३०) ने 'संमत्सर्वसिणों' इस पद योगी बलमवाप्नोति, तद् भवान् वक्तुमर्हति ॥ का मूल अर्थ समत्वदर्शी और वैकल्पिक अर्थ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगभाष्यम १६५. एस ओघंतरे मुणी, तिण्णे मुत्ते विरते, वियाहिते ति बेमि । सं०-एष ओषन्तरः मुनिः तीर्ण: मुक्तः विरतः व्याहृतः इति ब्रवीमि । यह जन्म-मृत्यु के प्रवाह को तैरने वाला मुनि तीर्ण, मुक्त और विरत कहलाता है, ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् १६५-एष प्रस्तुतालापकवर्णितो' मुनिः १६०-१६४ सूत्रों में वर्णित अनगार ओघंतर, तीर्ण, मुक्त और ओघंतरः तीर्णः मुक्तः विरत: व्याहृतः भवति-इति विरत कहलाता है, ऐसा मैं कहता हूं। ब्रवीमि। कर्मजनितसंस्कारस्य संसारस्य वा ओघं-प्रवाहं कर्म-जनित संस्कारों या संसार के ओघ–प्रवाह को तैरने वाला तरति-तस्य पारं प्राप्नोतीति ओघंतरः । अर्थात् पार पाने वाला ओघंतर कहलाता है। १६६. दुव्वसु मुणी अणाणाए। सं०-दुर्वसुः मुनिः अनाज्ञायाम् । माशा का पालन नहीं करने वाला मुनि बरित होता है। भाष्यम् १६६-स मुनिः दुर्वसुः भवति यस्तीर्थकरस्य तीर्थकर की आज्ञा का पालन नहीं करने वाला मुनि संयम-धन अनाज्ञायां वर्तते। अरतिरत्योः असहनं, शब्दस्पर्श- से दरिद्र होता है । तीर्थंकर की आज्ञा है कि मुनि असंयम में रति और योरधिसहनं, पुदगलविषये मनस्तुष्टे: निवारणं, कर्म- संयम में अरति को सहन न करे, शब्द और स्पर्श को सहन करे, शरीरस्य धुननं, प्रान्तरूक्षाहारस्य सेवनं कार्यमिति पोद्गलिक पदार्थों में होने वाली मानसिक तुष्टि का निवारण करे, तीर्थंकरस्य आज्ञा। आज्ञा एव मुनेर्वसु-विभवः । य कर्मशरीर को धुन डाले, प्रान्त और रूक्ष आहार का सेवन करे । आज्ञां अतिक्रम्य वर्तते स दुर्वसुः-संयमसाधनायां तीर्थंकर की आज्ञा ही मुनि का वसु-वैभव है। जो आज्ञा का दरिद्रो जायते। अनाज्ञायां वर्तनस्य आन्तरिको अतिक्रमण करता है वह दुर्वसु अर्थात् संयम की साधना में दरिद्र होता हेतरस्ति अतीतकालभावितकर्मोदयः, बाह्यं कारणमस्ति है। अनाज्ञा में प्रवृत्त होने का आंतरिक कारण है-अतीतकालीन कर्मों परिस्थितिः। का उदय और बाह्य कारण है-परिस्थिति । १६७. तुच्छए गिलाइ वत्तए। सं०-तुच्छकः ग्लायति वक्तुम् । साधना-शन्य पुरुष साधना-पथ का निरूपण करने में ग्लानि का अनुभव करता है। भाष्यम् १६७-विभवहीनः द्रव्यतः तुच्छो भवति । जो वैभवहीन है वह द्रव्यतः तुच्छ होता है और जो अनाज्ञा में अनाज्ञायां वर्तमानः भावतः तुच्छो भवति। तेन स प्रवृत्त है वह भावतः तुच्छ होता है । इसलिए वह यथार्थ-सत्य कहने में यथार्थ वक्तुं ग्लायति । चरित्रहीनो न सत्यं वक्तीति ग्लानि का अनुभव करता है। 'चरित्रहीन व्यक्ति यथार्थ नहीं बोलता'ध्रुवं सत्यम् । स पूजासत्कारादिनिमित्तं शुद्ध मार्ग यह ध्रुव सत्य है । वह पूजा और सत्कार आदि की आकांक्षा के वशीप्ररूपयितुं ग्लायति । यदि स मूलगुणतुच्छः तदा मूलगुणान् भूत होकर शुद्ध मार्ग की प्ररूपणा करने में ग्लानि का अनुभव करता प्ररूपयित ग्लायति । यदि उत्तरगुणतुच्छः तदा उत्तर- है। यदि वह मूलगुणों-महाव्रत आदि की आराधना में कमजोर है तो गुणविषये अन्यथा प्ररूपणां करोति । एष तुच्छभावः वह मूलगुणों की प्ररूपणा करने में ग्लानि का अनुभव करता है और सम्यक्त्वदर्शी किया है। इससे प्रतीत होता है कि उनके सामने मूल पाठ 'समत्तसिणो' रहा है। यहां समत्वदर्शी अधिक संगत लगता है, क्योंकि समत्वदर्शी ही मौरस आहार का समभाव से सेवन कर सकता है। दशवकालिक (१९७) के निम्नलिखित पप से इसकी पुणि होती है 'तित्तगं व कडुयं व कसायं, अंबिलं व महुरं लवणं था। एय लद्धमन्नट्ठपउत्तं. महुघयं व भुजेज्ज संजए॥' -गृहस्थ के लिए बना हुआ तीता (तिक्त) या कड़वा, कसैला या खट्टा, मीठा या नमकीन जो भी आहार उपलब्ध हो उसे संयमी मुनि मधुप्त की भांति खाए। १. मालापकसूत्राणि-मायारो २०१६०-१६४॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० २. लोकविचय, उ. ६. सूत्र १६५-१७० १४७ चरित्रहीनभावो वा असत्यप्रतिपादनस्य मुख्य कारण- यदि वह उत्तरगुणों की साधना में कमजोर है तो उत्तरगुणों के विषय मस्ति। अत एव मिथ्यातर्काणां प्रपञ्चो विरचितो में विपरीत प्ररूपणा करता है। यह तुच्छभाव अथवा चारित्रिक भवति। हीनता का भाव असत्य के प्रतिपादन का मुख्य कारण है। इसीलिए झूठे तर्कों का जाल बिछाया जाता है। १६८. एस वीरे पसंसिए । सं०-~-एष धीरः प्रशंसितः । यह आज्ञा का पालन करने वाला बोर पुरुष प्रशंसित होता है। भाष्यम् १६८ --एष वीरः आज्ञायां वर्तमानः वसुमान् यह वीर और तीर्थकर की आज्ञा में वर्तमान पुरुष चरित्रचरित्रसम्पन्नत्वाद् अतुच्छः पुरुषः पृष्टो वा अपृष्टो वा सम्पन्न होने के कारण वैभवशाली और पुरुषार्थी होता है। वह पूछने शुद्ध अपरिग्रहमार्ग वक्तुं न ग्लायति । चरित्रवान पर या बिना पूछे ही विशुद्ध अपरिग्रह का मार्ग निर्दिष्ट करने में ग्लानि नासत्यं वक्तीति ध्रुवं सत्यम् । अत एव स यथार्थप्रति- का अनुभव नहीं करता । चरित्रवान् व्यक्ति असत्य नहीं बोलता-यह पादने लब्धपराक्रमत्वात् वीरः सन् प्रशंसित:-जनानां सनातन सत्य है । इसलिए वह यथार्थ का प्रतिपादन करने के लिए हृदये प्रतिष्ठितो भवति । पराक्रमशाली होने के कारण वीर होता है। उसको प्रशंसा होती है और वह लोगों के हृदय में प्रतिष्ठित हो जाता है । १६६. अच्चेइ लोयसंजोयं । सं०-अत्येति लोकसंयोगम् । सुवसु मुनि लोक-संयोग का अतिक्रमण कर देता है। भाष्यम् १६९-एतादृशो वीरपुरुष एव लोकसंयोगं ऐसा वीर पुरुष ही लोक-संयोग का अतिक्रमण करता है। अत्येति । लोकः-स्वर्णादिपदार्थ: मातृपित्रादिपरिवारः ममत्वं लोक का अर्थ है-स्वर्ण आदि पदार्थ, माता-पिता आदि वा । एभिः नानाविधाः सम्बन्धाः सन्ति सम्पादिताः। परिवार अथवा ममकार । इनके साथ अनेक प्रकार के सम्बन्ध स्थापित ते येन केनचित् न सन्ति सुपरिहार्याः । वीरपुरुष एव किए जाते हैं । वे सम्बन्ध जिस-किसी व्यक्ति के द्वारा सहजरूप से छोड़े तान् अतिक्रमितुमर्हति । नहीं जा सकते । वीर पुरुष ही उनका अतिक्रमण कर सकता है। १७०. एस णाए पवुच्चद। सं०-एष नायः प्रोच्यते । सुवसु मुनि नायक कहलाता है। भाष्यम् १७०-यो लोकसंयोगमतिकामति स एष जो लोक-संयोग का अतिक्रमण करता है वह सुवसु मुनि नायकः प्रोच्यते । यो धने परिवारे च लिप्तो भवति नायक कहलाता है। जो धन और परिवार में लिप्त होता है वह स न नायको भवितुमर्हति । नायकस्य प्रधानो गुणोऽस्ति नायक नहीं हो सकता । नायक का मुख्य गुण है-त्याग । त्यागः । नाय एव नायकः।' जो स्वयं को और दूसरों को मोक्ष की ओर ले जाता है, वह नाय-नायक है। १. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ ९५ : एस इति जो भणितो अप्पाणं परं च मोक्खं, णाति णाया, जंभणितं उभयत्रातो। (ख) आप्टे नायः-A leader, guide. (ग) वृत्तिकारेण अस्य द्वाक्यों कृतौ स्तः १. एष न्यायः-एष सन्मार्गः मुमुक्षूणामयमाचारः । २. परं आत्मानं च मोक्षं नयतीति छान्वसत्वात् कर्तरि अन्नायः (आचारांग वृत्ति, पत्र १३१)। Jain Education international Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ आचारांगभाष्यम १७१. जं दुक्खं पवेदितं इह माणवाणं, तस्स दुक्खस्स कुसला परिण्णमुदाहरति । सं०-यद् दुःखं प्रवेदितं इह मानवानां, तस्य दुःखस्य कुशलाः परिज्ञा उदाहरन्ति । इस जगत् में मनुष्यों के द्वारा दुःख प्रवेदित है । कुशल पुरुष उस दुःख की परिज्ञा बतलाते हैं। भाष्यम् १७१-मानवानां इह-संसारे दुःखं संसार में मनुष्यों के द्वारा दुःख प्रवेदित-अनुभूत है। कुशल प्रवेदितम्-अनुभूतमस्ति, तस्य दुःखस्य कुशलाः व्यक्ति उस दुःख की परिज्ञा (विवेक) बतलाते हैं। परिज्ञामुदाहरन्ति । अत्र कुशलपदेन गणधरादीनां संकेतः कृतोऽस्ति। यहां 'कुशल' पद से गणधर आदि का ग्रहण किया गया है। वे ते ज्ञातार: धर्यकथालब्धिसम्पन्ना यथावादिनस्तथा- ज्ञाता, धर्मकथा करने की लब्धि से सम्पन्न, कथनी और करनी की कारिणः जितनिद्राः जितेन्द्रियाः जितपरीषहाः देश- समानता से युक्त, निद्राविजयी, जितेन्द्रिय, परिषहों पर विजय प्राप्त कालज्ञाः भवन्ति । करने वाले तथा देश और काल को जानने वाले होते हैं। परिज्ञा-विवेकः दुःखमुक्तेरुपायो वा। परिक्षा के दो अर्थ हैं-विवेक अथवा दुःख-मुक्ति का उपाय । परिज्ञा के चार चरण हैंसा चतुष्पादा भवति-अस्ति बन्धः, अस्ति बन्ध- १. कर्म-बंध है। ३. मोक्ष है। हेतुः, अस्ति मोक्षः, अस्ति मोक्षहेतुः'। २. कर्म-बंध का हेतु है। ४. मोक्ष का हेतु है। १७२. इति कम्म परिणाय सम्बसो। सं०-इति कर्म परिज्ञाय सर्वशः । पुरुष कर्म की सर्व प्रकार से परिज्ञा करे। भाष्यम् १७२–दुःखस्य हेतुरस्ति कर्म । तेन तत् दुःख का हेतु है कर्म । इसलिए कर्म का सर्वाङ्गीण ज्ञान कर उसकी सर्वशः परिज्ञाय तस्य परिज्ञा करणीया, यथा-कथं परिज्ञा करनी चाहिए। जैसे-कर्म का बन्ध कैसे होता है ? कर्म कौन तस्य बन्धो भवति ? को बध्नाति ? कदा तस्य विपाको बांधता है ? उसका विपाक कब होता है और कब नहीं होता? कर्म भवति कदाच न भवति? कियत तत, चिरकालस्थितिक की स्थिति कितनी होती है-वह दीर्घकाल की स्थिति वाला होता भवति अल्पकालस्थितिकं वा? इति कर्मणो है या अल्पकाल की स्थिति वाला? इस प्रकार कर्म के विषय को सभी विषये सर्वशः-सर्वप्रकारैः ज्ञात्वा तस्य परिज्ञा कर्तुं पहलुओं से जानने के पश्चात् उसकी परिज्ञा की जा सकती है। शक्या । १७३. जे अणण्णदंसी, से अणण्णारामे । जे अणण्णाराम, से अणण्णदंसी। सं०-यः अनन्यदर्शी स अनन्याराम: । य: अनन्यारामः स अनन्यदर्शी । जो अनन्य को देखता है, वह अनन्य में रमण करता है । जो अनन्य में रमण करता है, वह अनन्य को देखता है। माप्यम् १७३-प्रस्तुतसूत्रे कर्मपरिज्ञायाः उपायः प्रस्तुत सूत्र में कर्म-परिज्ञा का उपाय निर्दिष्ट है। जो केवल संदर्शितः । यः केवलं निष्कर्माणमेव पश्यति न ततोऽन्यत् निष्कर्मा को देखता है, उसके अतिरिक्त दूसरा कुछ नहीं देखता, वह किञ्चित पश्यति, स अनन्यदर्शी भवति । यः कर्म अनन्यदर्शी होता है। जो कर्म को देखता है अर्थात् कर्म के हेतुओं में पश्यति स कर्मणा बद्धो भवति, यश्च निष्कर्माणं- रमण करता है, वह कर्म से बंधता है। जो निष्कर्मा-निर्मल चैतन्य १. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ ९५ : परिण्णा दुविहा... उवविसंति, तंजहा बंधो बंधहेतु मुक्को मोक्खो मोक्खहेतुश्च । (ख) लौकिक भाषा में अप्रिय वेदना को दुःख कहा जाता है। धर्म को भाषा में दुःख का हेतु भी दुःख कह लाता है। दुःख का हेतु कर्म-बंध है। भगवान ने जनता को यह विवेक दिया-बंध है और बंध का हेतु है । मोक्ष है और मोक्ष का हेतु है। (ग) इसकी तुलना बौद्ध दर्शन सम्मत चार आर्यसत्यों से होती है। Jain Education international Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० २. लोकविचय, उ०६. सूत्र १७१-१७४ निर्मलचैतन्यं पश्यति स कर्मभ्यो मुक्तो भवति। को देखता है, वह कर्मों से मुक्त होता है । जो चैतन्य को देखता है, वह यश्चैतन्यं पश्यति स तत्रैव रमते, न अन्येषु कर्मबन्धहेतुषु उसी में रमण करता है। वह कर्मबंध के अन्यान्य हेतुभूत विषय-कषाय विषयकषायादिषु इति अनन्यदर्शी अनन्यारामो भवति। आदि में रमण नहीं करता, इसलिए वह मनन्यदर्शी होता है, अनन्याराम होता है। गतप्रत्यागतलक्षणेन इत्थमपि वक्तुं शक्यम्-यः गत-प्रत्यागत शैली में राचत इस सूत्र का व्याख्या इस प्रकार अनन्ये रमते, स एव अनन्यं पश्यति । भी की जा सकती है जो अनन्य (आत्मा) में रमण करता है वही अनन्य (आत्मा) को देखता है। 'अणण्णदंसी' इति पदस्य आशयः ‘णिक्कम्मदंसी' 'अनन्यदर्शी' पद का आशय 'निष्कामदर्शी' पद से स्पष्ट होता इति पदेन स्पष्टं भवति'पलिच्छिदिया णं णिक्कम्मदंसी।" संयम और तप के द्वारा राग-द्वेष को छिन्न कर पुरुष आत्मदर्शी हो जाता है। 'पलिछिदिय बाहिरगं च सोयं, णिक्कम्मदंसी इह इन्द्रियों की बहिर्मुखी प्रवृत्ति को रोककर इस मरणधर्मा जगत मच्चिएहि ।" में तुम निष्कर्मदर्शी बनो। १७४. जहा पुण्णस्स कत्थइ, तहा तुच्छस्स कत्थइ । जहा तुच्छस्स कत्थइ, तहा पुण्णस्स कत्थइ । सं०-यथा पुण्यस्य कथयति तथा तुच्छस्य कथयति । यथा तुच्छस्य कथयति तथा पुण्यस्य कथयति । धर्मकथी जैसे सम्पन्न को उपदेश देता है, वैसे ही विपन्न को देता है। जैसे विपन्न को उपदेश देता है, वैसे ही सम्पन्न को देता भाष्यम् १७४-आत्मदर्शनमन्तरेण व्यवहारेऽपि आत्मदर्शन के बिना व्यवहार में भी समता का अवतरण नहीं समत्वं नावतरति । यः आत्मदर्शी भवति स नान्यार्थं होता। जो आत्मदर्शी होता है, वह अन्य प्रयोजनों के लिए प्रयत्न नहीं प्रयतते, केवलं आत्मार्थमेव प्रयतते। अत एव स करता, केवल आत्म-प्रयोजन के लिए ही प्रयत्न करता है। इसीलिए १. चूणों वृत्तौ च एतत् सूत्रं व्यावहारिक-सम्यग्दर्शन दर्शन के बाद रमण और रमण के बाद फिर स्पष्ट दृष्ट्या व्याख्यातमस्ति । दर्शन-यह क्रम चलता रहता है। वासना और (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ ९६ : अण्ण इति परिवज्जणे कषाय (कोध, अभिमान, माया, लोभ) ये आत्मा से तिष्णि तिसट्ठा पावातियसया अण्णदिट्ठी, अणण्णदरिसी अन्य हैं। आत्मा को देखने वाला अन्य में रमण नहीं वताई तत्त्वबुद्धीए पेक्खति, इमं एक्कं जइणं तत्त करता। बुद्धीए पासति, जो अणण्णट्ठिी सो नियमा 'अणण्णा आत्मा को जानना ही सम्यगज्ञान है । आत्मा को रामों' ण अण्णत्यारमतीति अणण्णारामो, गति देखना ही सम्यग्दर्शन है। आत्मा में रमण करना पच्चागतिलक्खणेणं भण्णति-जे 'अणण्णारामों' से ही सम्यगचारित्र है । यही मुक्ति का मार्ग है। णियमा अण्णदिट्ठी, जं भणितं सम्मदिट्ठी, ण य अण्ण ___ अप्रमाद का दूसरा सूत्र है-वर्तमान में जीनादिट्ठीए रमति, तहा विसयकसायादिलक्खणे अचरित्ते क्रियमाण क्रिया से अभिन्न होकर जीना। वर्तमान अतवे ण य रमति । क्रिया में तन्मय होने वाला अन्य क्रिया को नहीं (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १३१। देखता। जो अतीत की स्मृति और भविष्य की (ग) भगवान महावीर की साधना का मौलिक आधार कल्पना में खोया रहता है, वह वर्तमान में नहीं रह है-अप्रमाद-निरन्तर जागरूक रहना। अप्रमाद सकता। का पहला सूत्र है-आत्म-दर्शन । भगवान् ने जो व्यक्ति एक क्रिया करता है और उसका कहा-आत्मा से आत्मा को देखो-'संपिक्खए मन दूसरी क्रिया में दौड़ता है, तब वह वर्तमान के अप्पगमप्पएणं ।' प्रति जागरूक नहीं रह पाता।" अनन्य-दर्शन का अर्थ हे-आत्म-दर्शन । जो आत्मा २. आयारो, ३१३५॥ को देखता है, वह आत्मा में रमण करता है । जो ३. वही, ४॥५०॥ आत्मा में रमण करता है, वह आत्मा को देखता है। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. भाचारांगभाष्यम अपरिग्रहस्य तत्त्वं यथा पुण्यस्य कथयति तथा तुच्छस्य वह अपरिग्रह के तत्त्व का निरूपण जैसे सम्पन्न व्यक्ति के समक्ष करता कथयति । गतप्रत्यागतलक्षणेन यथा तुच्छस्य कथयति, है, वैसे ही विपन्न व्यक्ति के समक्ष करता है और जैसे विपन्न व्यक्ति तथा पूण्यस्य कथयति। केवलं निर्जरार्थमेव धर्मः के समक्ष करता है, वैसे ही सम्पन्न व्यक्ति के समक्ष करता है । केवल आख्यातव्यः। अनन्यदर्शी तदर्थमेव कथयति, अत: निर्जरा के लिए ही धर्म का आख्यान करना चाहिए । अनन्यदर्शी केवल तत्समक्षे पुण्यस्य-ऋद्धिमतः, तुच्छस्य-दरिद्रस्य भेदो निर्जरा के लिए ही धर्मकथा करता है, इसलिए उसके समक्ष वैभवशाली नार्थवान् भवति ।' और दरिद्र का भेद अर्थवान् नहीं होता। अपरिग्रहस्य सिद्धान्तः धनिनां कृते यावान् हितावहः अपरिग्रह का सिद्धान्त वैभवशाली व्यक्तियों के लिए जितना तावानेव विभवविहीनानां कृतेऽपि, किञ्च धनं उभयत्र हितकारी है उतना ही हितकारी है वैभवहीन व्यक्तियों के लिए । यह नास्ति–एकस्य पार्वे विद्यते, इतरस्य पार्वे नास्ति, सच है कि दोनों के पास धन नहीं है-एक के पास है और दूसरे के किन्तु मूर्छा उभयत्रापि विद्यते । तेन तद्विमुक्तये अपरि- पास नहीं हैं, किन्तु मूर्छा या ममत्व दोनों में है। इसलिए उस मूर्छा ग्रहधर्मस्य उपदेशः द्वयोरपि समक्षे एकेनैव प्रकारेण की विमुक्ति के लिए अपरिग्रह धर्म का उपदेश दोनों प्रकार के व्यक्तियों करणीयः-येन आदरेण पुण्यस्य अपरिग्रहो वक्तव्यः के समक्ष समान प्रकार से करना चाहिए-जिस आदरभाव से वैभवतेनैव आदरेण तुच्छस्य वक्तव्यः। नात्र धनिन: शाली को अपरिग्रह का सिद्धान्त बताया जाता है, उसी आदरभाव से अतिरेकः कार्यः । येनादरेण तुच्छस्य वक्तव्यः, वैभवहीन व्यक्ति को वह सिद्धान्त बताना चाहिए। सिद्धान्त के तेनैवादरेण पुण्यस्य वक्तव्यः । नैव पुण्यं प्रति घृणाभाव: प्रतिपादन में धनी व्यक्ति को अतिरिक्त महत्त्व नहीं देना चाहिए। प्रदर्शनीयः। जिस आदरभाव से वैभवहीन व्यक्ति को अपरिग्रह का सिद्धान्त बताया जाता है, उसी आदरभाव से बैभवशाली व्यक्ति को अपरिग्रह का सिद्धान्त बताना चाहिए । वैभवशाली व्यक्ति के प्रति घृणा का भाव नहीं दिखाना चाहिए। १७५. अवि य हणे अणादियमाणे । सं०-अपि च हन्यात् अनाद्रियमाणः । धर्म-कथा में किसी के सिद्धांत का अनादर करने पर कोई व्यक्ति मार-पीट भी कर सकता है। भाष्यम् १७५-अपिः सम्भावनायाम् । यदि प्रस्तुत सूत्र में 'अपि' शब्द सम्भावना के अर्थ में है । यदि धर्मधर्मतत्त्वस्य प्रतिपादने कोऽपि कस्यचिद् अनादरं कुर्यात् तत्त्व के प्रतिपादन में कोई किसी का 'अनादर करता है तो सम्भव है तदेति सम्भवति, स अनाद्रियमाणः पुरुष : तं धर्मोपदेष्टारं वह अनादृत व्यक्ति उस धर्मोपदेष्टा की हत्या कर दे। यहां 'हन्यात्' हन्यात । अस्य धातुपदस्य तात्पर्य मिदम्-शारीरिक त्रासं धातुपद का तात्पर्य है-शारीरिक त्रास देना, आक्रोश करना अथवा दद्यात, आक्रोशेत अथवा तदुपदिष्टं धर्मं न स्वीकुर्यात् । धर्मोपदेष्टा द्वारा उपदिष्ट धर्म को स्वीकार न करना। धर्मकथा के 'एते पुण्याश्चौरा भवन्ति' धर्मकथाप्रसंगे इत्यादि- प्रसंग में ऐसा प्रतिपादन करना कि ये वैभवशाली व्यक्ति चोर होते प्रतिपादनं न धर्मतत्त्वस्य स्वीकृतये भवति । एते तुच्छा हैं-ऐसा कथन धर्मतत्त्व की स्वीकृति में सहायक नहीं होता। धर्मकथा अधर्मेण ईदशा जाताः--कष्टासनाः कुगृहाः के प्रसंग में ऐसा कहना कि ये दरिद्र व्यक्ति अधार्मिक होने के कारण कुभोजनाश्च' इत्यादिप्रतिपादने ते न धर्म गृह्णन्ति, ही कष्ट में स्थित हैं, टूटे-फूटे घरों में रहने वाले तथा कुभोजन करने न च तत्र पुनरायान्ति आक्रोशादिकमपि कुर्यः। वाले होते हैं। ऐसा कहने पर वे सामान्य या अधनी व्यक्ति धर्म को स्वीकार नहीं करते और न वे मुनियों के स्थान पर धर्म सुनने पुनः आते हैं । वे धर्मोपदेशकों पर आक्रोश आदि भी करने लग जाते हैं। १. अंगसुत्ताणि १, सूयगडो, २२२६५३ : से भिक्खू धम्म किट्टेमाणे-णो अण्णस्स हेडं धम्ममाइक्ज्ज्जा । णो पाणस्स हेउं धम्ममाइक्खेज्जा। णो वस्थस्स हेडं धम्ममाइक्खेज्जा। जो लेणस्स हेडं धम्ममाइक्खेज्जा। जो सयणस्स हेउ धम्ममाइक्खेज्जा। णो अणेसि विस्वरूवाणं कामभोगाणं हेडं धम्ममाइक्वेज्जा। अगिलाए धम्ममाइक्खेज्जा । णण्णत्व कम्मणिज्जरट्टयाए धम्ममाइक्खेज्जा। २. तुलना-आयारो, २०४९ : को हीणे णो अइरिते। Jain Education international Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० २. लोकविचय, उ० ६. सूत्र १७५ १७७ १७६. एत्थंपि जाण, सेयंति णत्थि । सं० अत्रापि जानीहि श्रेयः इति नास्ति । तुम जानो, अविधिपूर्वक की जाने वाली धर्म-कथा में भी श्रेय नहीं है । माध्यम् १७६ – विचारस्व आग्रहो ममत्वं वा परिग्रहो भवति । अपरिग्रहसाधनामां प्रवृतेन पुरुषेण स्वविचारास्तथा प्रतिपादनीयाः यथा स्वस्य श्रोतुश्च अपरिग्रहो विकासं व्रजेत् । 1 अत्रापि जानोहि धर्मतस्वस्थ प्रतिपादने सम्यग् विवेचनीयम् । विवेकाभावे श्रेयो नास्ति । तत्र प्रथमः स्वसामर्थ्यविवेकः । धर्मकथालब्धिसम्पन्नेन आक्षेपणी, विक्षेपणी, संबैजनी, निवेदनी' इत्यादिरूपा चतुविधापि कथा करणीया । धर्मकथाकरणाभ्यासिना आक्षेपणी, विक्षेपणी- द्विविधैव कथा करणीया, न तु तेन दार्शनिकविषयस्य स्पर्शः कार्यः । अपरिपक्वज्ञानः यदि तद् विषयं स्पृशेत् तदा प्राप्तान् प्रश्नान् समाधातुं न शक्नोति इति श्रेयो न भवति । द्वितीय: क्षेत्रविवेकः । कस्य दर्शनस्य प्रभावेण प्रभावित क्षेत्रमिदं इति विवेकं कृत्वैव धर्मकथा करणीया, अन्यथा श्रेयो न भवति विग्रहः समुत्पद्यते । तृतीयः कालविवेकः कस्मिन् समये कि वक्तव्यम्, इति विवेकपूर्वकं धर्मः प्रतिपादनीयः । चतुर्थी भावविवेकः । स च साक्षात् सूत्रेण प्रोच्यते- भाष्यम् १७७ धर्मकथायाः प्रसंगे इति विवेक: कार्य : – कोऽयं पुरुषः -- पुण्यः तुच्छो वा ? मृदुस्वभाव: कठोरस्वभावो वा ? श्रद्धाप्रवणस्तर्कप्रवणो वा ? जिज्ञासुः संघर्षशीलो वा ? एवं असौ कतरत् प्रवचनं प्रवचनकारं वा प्रणतः - प्रतिपन्नः ? १.१ ४२४६ । विचार का आग्रह या ममत्व भी परिग्रह होता है । जो व्यक्ति अपरिग्रह की साधना में प्रवृत्त है उसे अपने विचारों का प्रतिपादन उस प्रकार से करना चाहिए, जिससे स्वयं में और सुनने वालों में अपरिग्रह की भावना विकसित हो । इस विषय में यह भी जानो-धर्मतस्व के प्रतिपादन में सम्यकू विवेक करना चाहिए । विवेक के अभाव में हित नहीं होता । उसमें पहला है—अपने सामर्थ्य का विवेक । जो मुनि धर्मकथा करने की सब्धि से सम्पन्न है, वह आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेजनी और निवेदनी इन चारों प्रकार की कथाओं ( बातों या घटनाओं) का प्रतिपादन करे । जो मुनि धर्मकथा करने का अभी अभ्यास कर रहा है उसे केवल माक्षेपणी और विक्षेपणी- इन दो प्रकार की कथाओं का ही प्रतिपादन करना चाहिए उसे दार्शनिक विषयों का स्पर्श नहीं करना चाहिए। अपरिपक्व ज्ञान वाला मुनि यदि उन दार्शनिक विषयों को छूता है तो वह तद्विषयक प्राप्त प्रश्नों का समाधान नहीं कर सकता। इसलिए यह हितकर नहीं होता। १७७. के यं पुरिसे ? कंच गए ? सं० – कोयं पुरुषः ? कं च नतः ? धर्म-कथा के समय विवेक करे- 'यह पुरुष कौन है ? किस दर्शन का अनुयायी है ?', १.५१ दूसरा है— क्षेत्र का विवेक । यह क्षेत्र किस दर्शन के प्रभाव से प्रभावित है यह विवेक करके ही धर्मकया में प्रवृत्त होना चाहिए। अन्यथा हित नहीं होता, विग्रह उत्पन्न हो जाता है । 1 तीसरा है -- काल का विवेक किस समय में क्या बोलना चाहिए, इस विवेक को सामने रखकर धर्म का प्रतिपादन करना चाहिए। चौथा है-भाव-विवेक । वह साक्षात् सूत्र में बताया जा रहा है धर्मकथा के प्रसंग में यह विवेक करना चाहिए सामने श्रोता कौन है— धनी है या अधनी ? मृदु स्वभाव वाला है या कठोर स्वभाव बाला ? श्रद्धालु है या तार्किक ? जिज्ञासु है या भगवा ? इसी प्रकार यह पुरुष किस दर्शन या दार्शनिक को स्वीकार कर चलता है ? Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ आचारांगभाष्यम १७८. एस वीरे पसंसिए, जे बद्धे पडिमोयए। सं०-एष वीरः प्रशंसितः, य बद्धान् प्रतिमोचयेत् । वही वीर प्रशंसित होता है, जो बंधे हुए मनुष्यों को मुक्त करता है। भाष्यम् १७८--यः पूर्वनिर्दिष्टप्रकारेण धर्मकथां जो मुनि पूर्व निर्दिष्ट विधि से धर्मकथा करता हुआ बद्ध कुर्वन् बद्धान् मोचयति, स एष वीरः-धर्मकथायां व्यक्तियों को मुक्त करता है, वही वीर धर्मकथा करने में श्रेष्ठ हैश्रेष्ठः' इति प्रशस्यते। लोकाः खलु पूर्वाग्रहैः कर्मभिः इस प्रकार प्रशंसित होता है। लोग पूर्वाग्रहों से, कर्मों से, कर्मजनित तज्जनितसंस्कारैः परिग्रहेण च बद्धा भवन्ति । पूर्वनिर्दिष्ट- संस्कारों से तथा परिग्रह से बन्धे हुए होते हैं । पूर्वनिर्दिष्ट विवेक-विकल विवेकशून्यः धर्मकथो न तान् तेभ्यो मोक्तुमर्हति । स धर्मकथो उन लोगों को इन सब बंधनों से मुक्त नहीं कर सकता । वही एव तान् मोक्तुमर्हति यो भवति विचाराग्रहेण धर्मकथी लोगों को इन बंधनों से मुक्त कर सकता है, जो स्वयं वैचारिक मुक्तः, अनेकान्तदृष्टिः , समन्वयप्रवणमतिः, समत्वभावं आग्रह से मुक्त है, अनेकान्तदृष्टि से सम्पन्न है, समन्वय की बुद्धि से प्रतिपन्नः। तादृशः आत्मीयोत्तमतया सर्वत्र प्रशंसितो कुशल है और समताभाव को बनाए रखने वाला है। वैसा व्यक्ति भवति। अपनी पवित्रता और निर्मलता के कारण प्रशंसित होता है। १७६. उड्ढं अहं तिरियं दिसासु, से सव्वतो सव्वपरिणचारी। सं०-ऊवं अधः तिर्यक् दिशासु स सर्वत: सर्वपरिज्ञाचारी। वह ऊंची विशा, नीची दिशा और तिरछी दिशा सब दिशाओं में, सब ओर से, समग्र परिज्ञा के द्वारा चलता है। भाष्यम् १७९-स अपरिग्रही पुरुषः ऊर्ध्वं अधः वह अपरिग्रही पुरुष ऊंची, नीची और तिरछी-इन सभी तिर्यक-एतासु सर्वासु दिक्षु सर्वकालं सर्वात्मप्रदेशैर्वा दिशाओं में सदा अथवा सभी आत्मप्रदेशों से परिज्ञा-विवेक से आचरण परिज्ञया-विवेकेन आचरति । स पदार्थं चैतन्यञ्च करता है । वह पदार्थ और चैतन्य की भिन्नता का अनुभव करता हुआ भिन्नत्वेन अनुभवन् आवश्यक क्रियाकलापं करोति, न आवश्यक क्रिया-कलाप सम्पन्न करता है। वह राग-द्वेष से प्रेरित च रागद्वेषाभ्यां प्रेरितः करोति, इत्येतदेव तस्य सर्व- होकर नहीं करता-यही उसकी सर्वपरिज्ञाचारिता है। परिज्ञाचारित्वं भवति । १८०. ण लिप्पई छणपएण वीरे। सं०-न लिप्यते क्षणपदेन वीरः । वीर पुरुष हिंसा-कर्म से लिप्त नहीं होता। भाष्यम् १८०-तादशो वीरः क्षणपदेन न लिप्यते - वैसा वीर पुरुष क्षणपद से लिप्त नहीं होता-हिंसा से हिंसासंभूतकर्मणा न बध्यते । अस्मिन् जीवाकुले पदार्था- संभूत कर्मों से नहीं बंधता। इस जीवाकुल और पदार्थाकीर्ण कुले च लोके कः कथमलिप्त: स्थातुमर्हति ? पदे पदे लोक में कौन कैसे अलिप्त रह सकता है ? पग-पग पर हिंसा और हिंसायाः ममत्वस्य च प्रसंगो वर्तते। तथापि सर्वत: ममत्व का प्रसंग रहता है । फिर भी सभी प्रकार से जो सर्वपरिज्ञाचारी सर्वपरिज्ञाचारी–सर्वचैतन्यपदार्थयोः भेदमनूभवन है-जो चैतन्य और पदार्थ की भिन्नता का अनुभव करता है वह पुरुष पुरुषः न ममतां गच्छति । परिग्रहप्रसूता च हिंसा। ममता नहीं करता। हिंसा परिग्रह से उत्पन्न होती है। ममत्वमुक्त अममत्वः अप्रमादमारूढो भवति । तेन स क्रियां व्यक्ति अप्रमत्त अवस्था में आरोहण कर देता है। इसलिए वह व्यक्ति कुर्वाणोऽपि न हिंसया लिप्तो भवति । प्रवृत्ति करता हुमा भी हिंसा से लिप्त नहीं होता। इदं सूत्रं अहिंसायाः हृदयं वर्तते । अत एव हिंसायाः प्रस्तुत सूत्र अहिंसा का हृदय है। इससे द्रव्यहिंसा और द्रव्यभावयोविवेकः कर्तुं शक्यः । भावहिंसा का विवेक किया जा सकता है। निर्लेपतावादस्य चिन्तनं बहप्राचीनं वर्तते । निर्लेपतावाद का चिन्तन बहुत प्राचीन है। उत्तराध्ययन सूत्र उत्तराध्ययने इदमुपलभ्यते–'उवलेवो होइ भोगीसु, में यह उपलब्ध होता है-'भोगों में उपलेप होता है। अभोगी 1. आप्टे, वीरः--Excellent, eminent. Jain Education international Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० २. लोकविचय, उ० ६. सूत्र १७८-१८२ १५३ अभोगी नोवलिप्पइ ।' लिप्त नहीं होता।' गीतायामपि योगयुक्तस्य क्रियां कुर्वाणस्यापि लेपः गीता में भी यह प्रतिपादित है कि योगयुक्त साधक क्रिया करता न भवतीति प्रतिपादितमस्ति---- हुआ भी लिप्त नहीं होतायोगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः । जो योगयुक्त है, विशुद्ध है, विजितात्मा और जितेन्द्रिय है, जो सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ॥' सभी प्राणियों को अपने समान समझता है, वह क्रिया करता हुआ भी लिप्त नहीं होता। १८१. से मेहावी अणुग्घायणस्स खेयण्णे, जे य बंधप्पमोक्खमण्णसी। सं०-स मेधावी अनुरातनस्य क्षेत्रज्ञः, यश्च बन्धप्रमोक्षान्वेषी । जो बन्ध से मुक्त होने की खोज करता है, वह मेधावी अहिंसा के मर्म को जान लेता है। भाष्यम् १८१-य कर्मबन्धस्य मोक्षमन्वेषयति स जो कर्मबन्ध की मुक्ति का अन्वेषण करता है वह मेधावी पुरुष मेधावी अनुरातनस्य ज्ञानं करोति । उद्घातनम् - अनुद्घातन को जान लेता है। उद्घातन का अर्थ है-हिंसा। हिंसा। अनुरातनम्-अहिंसा। हिंसातः कर्मबन्धो अनुरातन का अर्थ है-अहिंसा। हिंसा से कर्मबन्ध होता है। अतः भवति, तेन बन्धप्रमोक्षाय अहिंसायाः तद्हेतुभूतस्य कर्मबन्ध की मुक्ति के लिए अहिंसा और उसका हेतुभूत अपरिग्रह का अपरिग्रहस्य च ज्ञानमनिवार्यमस्ति । ज्ञान अनिवार्य होता है। चौं अनुद्धातनपदस्य चूणि में 'अनुद्घातन' पद की व्याख्या भिन्न प्रकार से हैविद्यते-अणं-कर्म, तस्य उद्घातनम्--उत्पादनम्, 'अण' का अर्थ है - कर्म, उसका उद्घातन अर्थात् उत्पादन । अनुद्घातन इति अणग्घायणं । स मेधावी कर्मोत्पादनस्य हेतुं का अर्थ है-कर्म का उत्पादन । वह मेधावी कर्म के उत्पादन के हेतु जानाति । को जानता है। १८२. कुसले पुण णो बद्धे, णो मुक्के । सं०-कुशलः पुनः नो बद्धः नो मुक्तः । कुशल न बद्ध होता है और न मुक्त होता है । भाष्यम् १८२-बन्धप्रमोक्षस्य अन्वेषणायां स्वभावत बन्धन-मुक्ति की खोज में सहज ही यह विकल्प उत्पन्न एव एष विकल्पः उत्पद्यते--अस्मिन् परिग्रहहिंसाकुले होता है कि इस परिग्रह और हिंसा से व्याप्त लोक में क्या बन्धन-मुक्ति लोके कि बन्धप्रमोक्षः संभवति? अस्य प्रश्नस्य संभव है ? इस प्रश्न को समाहित करते हुए सूत्रकार कहते हैं-कुशल समाधानं कुर्वन सूत्रकारः प्रवक्ति-कुशलः--सर्वपरिज्ञा- का अर्थ है-सर्वपरिज्ञाचारी पुरुष। वह जीवन्मुक्त भी कहलाता है। चारी पुरुषः । असौ जीवन्मुक्तः इत्यपि उच्यते । स च वह इस संसार में जीवन-यापन करता हुआ भी कर्मबन्ध की हेतुभूत अस्मिन लोके जीवन्नपि कर्महेतुभूतया पदार्थासक्त्या पदार्थासक्ति से बद्ध नहीं होता और जीवन-यात्रा के निर्वाह के लिए नो बद्धो भवति, जीवनयात्रोपयोगिभिः पदार्थः नो मुक्तो उपयोगी पदार्थों से मुक्त नहीं होता। भवति । स अप्रमत्तभावेन प्रवृत्ति कुर्वाणोऽपि नो बद्धो भवति, वह अप्रमत्तभाव से प्रवृत्ति करता हुआ भी बद्ध नहीं होता, वह प्रवृत्ते! मुक्तो भवति। प्रवृत्ति से मुक्त नहीं होता। १. उत्तरज्झयणाणि, २५॥३९ । में आने वाले कष्टों का पारगामी और देश-काल को २. गीता ५७ शांकरभाष्य, पृष्ठ २१७ ....स तत्रैव वर्तमा समझने याला मुनि 'कुशल' कहलाता है। तीर्थंकर को भी नोपि लोकसंग्रहाय कर्म कुर्वन्नपि न लिप्यते - न कर्मभि कुशल कहा जाता है। बंध्यत इत्यर्थः । न चासौ परमार्थतः करोतीत्येतत् । ५. तुलनीय, पातंजलयोगदर्शन, भाष्य, ४॥३० : क्लेशकर्म निवृत्तौ जीवन्नेव विद्वान् विमुक्तो भवति । ३. प्राकृते 'ऋण' शब्दस्य 'अणं' इति रूपं जायते । ६. तुलनीय, पातंजल योगदर्शन, भाष्य, २०२७ : एतां सप्त४. कुशल का अर्थ है-ज्ञानी। धर्म-कथा में दक्ष, विभिन्न विधा प्रान्तभूमिप्रज्ञामनुपश्यन्पुरुषः कुशल इत्याख्यायते, दर्शनों का पारगामी, अप्रतिबद्धविहारी, कथनी और करनी प्रतिप्रसवेऽपि चित्तस्य मुक्तः कुशल इत्येव भवति गुणातीतमें समान, निद्रा एवं इन्द्रियों पर विजय पाने वाला, साधना स्वादिति। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ आचारांगभाष्यम् चणी वृत्तौ च अन्येप्यर्थाः उपनीताः सन्ति चूणि और वृत्ति में इसके दूसरे अर्थ भी प्रस्तुत हुए हैंअथवा स अविरत्यादिभिः अप्रशस्तै वैः नो अथवा वह पुरुष अविरति आदि अप्रशस्त भावों से बद्ध नहीं बद्धो भवति, चरित्रतपःप्रभृतिभिः प्रशस्तैर्भावैः नो मुक्तो होता और चारित्र, तप आदि प्रशस्त भावों से मुक्त नहीं होता। भवति । ___ अथवा स जीवन्मुक्तत्वात् दुःखानुभूत्या नो बद्धो अथवा वह जीवन-मुक्त होने के कारण दुःखानुभूति से बद्ध नहीं भवति, दुःखमये संसारे निवसन् न दुःखाद् मुक्तो भवति । होता और दुःखमय संसार में रहता हुआ दुःख से मुक्त भी नहीं होता। कुशलः--बीतरागः । स च कषायहेतुकेन कर्मणा कुशल का अर्थ है-वीतराग । वह कषाय के हेतुभूत कर्म अथवा साम्परायिक्या क्रियया वा नो बद्धयते। तदेव भवबीजं साम्परायिक क्रिया से नहीं बंधता । वही भवबीज-जन्म-मरण का बीज वर्तते । स पुन: आवरणादीनां सद्भावात् नो मुक्तो होता है। वह कर्मों के आवरण आदि की विद्यमानता के कारण मुक्त भवति। भी नहीं होता। शल-केवली। स च आवरणादिभिनों बद्धो कुशल का अर्थ है-केवली। वह आवरण पैदा करने वाले भवति, भवोपग्राहिकर्मभिर्नो मुक्तो भवति । कर्मों से बद्ध नहीं होता तो भवोपनाही कर्मों से मुक्त भी नहीं होता। १८३. से जं च आरभे, जं च णारभे, अणारद्धं च णारभे। सं०-स यच्च आरभते यच्च नारभते, अनारब्धं च नारभते । वह किसी प्रवृत्ति का आचरण करता है और किसी का आचरण नहीं करता, मुनि उसके द्वारा अनाचीर्ण का आचरण न करे। माष्यम् १८३-बन्धमोक्षाय विधिनिषेधावपि बन्धन-मुक्ति के लिए विधि और निषेध-दोनों को जानना परिज्ञातव्यौ भवतः । कुशल: यद् आरभते यद् आचरणं आवश्यक है। कुशल पुरुष जिसका आचरण करता है, वह विधि है, करोति स विधिः, यच्च नारभते-यद् नाचरति स जिसका आचरण नहीं करता, वह निषेध है। ये दोनों बन्धन-मुक्ति के निषेधः । एतौ बन्धप्रमोक्षस्य हेतू । अनारब्धस्य आचरणं हेतु हैं । अनाचीर्ण का माचरण करना बन्धन का हेतु है। इसलिए जो बन्धहेतुर्भवति । अतः बन्धप्रमोक्षार्थी कुशलपुरुषेण बन्धन-मुक्ति चाहता है, उसे कुशल पुरुष द्वारा अनाचीर्ण का आचरण अनारब्धं-अनाचीर्णं नारभेत। तदारब्धं तु नहीं करना चाहिए। उसके द्वारा आचीर्ण विधि का यथाशक्य आचरण यथाशक्यमाचीर्ण स्यात् किन्तु तेन अनारब्धं तु किया जा सकता है, किन्तु उसके द्वारा अनाचीर्ण विधि का आचरण नाचरितव्यमेव इत्यवधारणार्थं 'अणारदं च गारभे' तो नहीं ही करना चाहिए-इस अवधारणा के लिए 'अणारखं च इति सूत्रवाक्यस्योपन्यासः । जारों-इस सूत्र-वाक्य का उपन्यास किया गया है। १८४. छणं छणं परिण्णाय, लोगसण्णं च सव्वसो। सं०-क्षणं क्षणं परिज्ञाय, लोकसंज्ञां च सर्वशः। पुरुष प्रत्येक हिंसा-स्थान को जाने और छोड़े। उसी प्रकार लोक-संज्ञा को सब प्रकार से जाने और छोड़े। भाष्यम् १८४-लोकसंज्ञा-परिग्रहः पदार्थासक्तिर्वा। लोकसंज्ञा का अर्थ है-परिग्रह या पदार्थासक्ति । लोकसंज्ञा तां सर्वशः परिज्ञाय-हिंसां जनयतीति विवेकं कृत्वा को पूर्णरूप से जानकर अर्थात् इससे हिंसा उत्पन्न होती है-यह विवेक सा प्रत्याख्यातव्या तथा तज्जनिता हिंसापि कर लोकसंज्ञा का प्रत्याख्यान करना चाहिए । उसी प्रकार लोकसंज्ञा से परिज्ञाय प्रत्याख्यातव्या। प्रस्तुतसूत्रे परिग्रहस्य उत्पन्न होने वाली हिंसा का परिज्ञान कर उसका भी प्रत्याख्यान करना हिंसायाश्च कार्यकारणभाव: परिलक्ष्यते । लोकसंज्ञा चाहिए । प्रस्तुत सूत्र में परिग्रह और हिंसा का कार्य-कारणभाव हिंसायाः कारणमस्ति। परिलक्षित होता है। लोकसंज्ञा हिंसा का कारण है। १.(क) आचारांग चूणि, पृष्ठ १००:छणं छणं परिणाए छणि हिंसाए जस्स जेणप्पगारेण छणणं भवति जहा सत्यपरिणाए एक्केक्कस्स कायस्स सत्थप्पगारा भणिता तं छणं दुविहाए परिणाए। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १३४ : भणु हिंसायां क्षणनं क्षणो–हिंसनं, कारणे कार्योपचारात् येन येन प्रकारेण हिंसा उत्पद्यते, तत् तत् जपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिजया परिहरेत् । Jain Education international Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाम भ० २. लोकविचव, उ०६. सूत्र १८३-१८६ १८५. उद्देसो पासगस्स णस्थि । सं०-उद्देशः पश्यकस्य नास्ति । द्रष्टा के लिए कोई निर्देश नहीं है। भाष्यम् १८५-यः पुरुषः परिग्रहस्य अपायान् जो पुरुष परिग्रह के दोषों और अपरिग्रह के गुणों को देखता अपरिग्रहस्य गुणांश्च पश्यति, तस्य कृते उद्देशो नास्ति । है, उसके लिए उद्देश नहीं होता, कोई निर्देश नहीं होता । जिससे उद्दिश्यते येन स उद्देशः, यथा-अयं बद्धः, अयं मुक्तः, उद्दिष्ट किया जाता है, बताया जाता है, वह है उद्देश । जैसे—यह बद्ध अयं सुखी, अयं दुःखी इत्यादि । यः अपरिग्रहस्य सिद्धया है, यह मुक्त है, यह सुखी है, यह दुःखी है आदि । जो अपरिग्रह की पश्यकभावमापन्नः तस्य कृते बद्धमुक्तादिपर्यायाणामुद्देशाः सिद्धि से द्रष्टा बन जाता है, उसके लिए बद्ध, मुक्त आदि पर्यायों का नोपेक्षिताः भवन्ति । द्रष्टा द्रष्टा एव। स कथन मपेक्षित नहीं होता । द्रष्टा द्रष्टा ही होता है। वह द्रष्टाभाव के पश्यकभावबलात् बन्धमोक्षादिपर्यायान् नानुगच्छति कारण बन्धमुक्ति के पर्यायों को प्राप्त नहीं करता अथवा उनका अनुभव नानुभवति वा। यः परिग्रहं पदार्थ वा पश्यति, स न नहीं करता। जो परिग्रह को देखता है अथवा पदार्थों को देखता है, वह द्रष्टा भवितुमर्हति । यः केवलं चैतन्यमनुभवति, स एव द्रष्टा नहीं हो सकता। जो केवल चैतन्य का अनुभव करता है, वही द्रष्टेति पदवाच्यो भवति । द्रष्टा कहलाता है। ___ अत्र उद्देशपदं उपाधेविं व्यनक्ति। तृतीयाध्ययनस्य यहां 'उद्देश' पद उपाधि का अर्थ अभिव्यक्त करता है। तीसरे उपसंहारे (सूत्र ८७) 'पश्यकस्य उपाधिर्न विद्यते' अध्ययन के उपसंहार में (सूत्र ८७) ऐसा प्रतिपादित है कि पश्यक के इति प्रतिपादितमस्ति । तेनास्य सम्बन्धो योजनीयः । उपाधि नहीं होती। उसके साथ प्रस्तुत सूत्र का संबंध जोड़ना चाहिए। यः कर्मकृतां सुखदुःखाद्यवस्थामनुभवति तस्य जो पुरुष कर्मकृत सुख-दुःख आदि अवस्थाओं का अनुभव करता है, उपाधिर्जायते,' तस्यैव उद्देशो जायते, यश्चैतन्यमनुभवति उसके उपाधि होती है, उसी के ही उद्देश होता है। जो चैतन्य का तस्य नैतत् जायते।' अनुभव करता है, उसके उद्देश नहीं होता, उपाधि नहीं होती। १८६. बाले पुण णिहे कामसमणुण्णे असमियदुक्खे दुक्खी दुक्खाणमेव आवटें अणुपरियट्टइ।-त्ति बेमि । सं०-बाल: पुन: स्निहः कामसमनोज्ञः अशमितदुःखः दुःखी दुःखानामेव आवत्तं अनुपरिवर्तते। -इति प्रवीमि । अज्ञानी पुरुष स्नेहवान् और काम-प्रार्थी होकर दुःख का शमन नहीं कर पाता। वह दुःखी बना हुआ दुःखों के आवर्त में अनुपरिवर्तन करता रहता है। ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् १८६-यः पश्यको न भवति, स जो पश्यक-द्रष्टा नहीं होता वह लोभ से अभिभूत होने के लोभाभिभूतत्वात् अज्ञानत्वाच्च वृद्धो युवापि सन् बाल कारण और अज्ञान के कारण 'बाल' कहलाता है, फिर चाहे वह बुद्ध इत्युच्यते। स यत्र तत्र प्रीणाति कामान्, स्नेहवान् या युवा ही क्यों न हो। वह यत्र-तत्र कामों के प्रति अनुरक्त होता है, भवति-इन्द्रियविषयान् समनुजानाति, तेन स स्नेहिल होता है अर्थात् वह इन्द्रिय-विषयों का अनुमोदन करता है, अशमितदुःखः दुःखी दुःखानामेव आवर्त अनुपरिवर्तते। इसलिए वह दुःख का शमन नहीं कर पाता। वह दुःखी बना हुमा दुःखों के आवर्त में अनुपरिवर्तन करता रहता है। इन्द्रियविषयाणामासेवनं सुखानुभूति जनयदपि इन्द्रिय-विषयों का आसेवन सुख की अनुभूति पैदा करता है, परिणामे दुःखं जनयति । तेन वस्तुतः तद् दुःखमेव । पर उसकी परिणति दुःख में होती है। इसलिए वस्तुतः वह दुःख ही कामस्य अनुमोदकः न दुःखावर्तस्य पारं प्राप्नोति इति है। काम का अनुमोदन करने वाला पुरुष दु:ख के आवर्स का पार नहीं तात्पर्यम् । पा सकता, यही इसका तात्पर्य है। . १. (क) आयारो, ३१८ : अकम्मस्स ववहारो न विज्जइ । (३) आयारो, ३।१९ : कम्मुणा उबाही बाया। २. द्रष्टव्यम्-आयारो, २७३ । ३. द्रष्टव्यम्-आयारो, २०७४। Jain Education international Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education international Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइयं अज्झयणं सीओसणिज्ज तीसरा अध्ययन शीतोष्णीय [उद्देशक ४ : सूत्र ८७] Jain Education international Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुखम् प्रस्तुताध्ययनस्य नामास्ति शीतोष्णीयम् । अस्मिन् प्रस्तुत अध्ययन का नाम 'शीतोष्णीय' है। साधनाकाल में साधनाकाले आगम्यमानानां शीतोष्ण स्थितीनां सहनं आनेवाली शीत और उष्ण स्थितियों को सहने का विधान इसमें किया विहितमस्ति, अतः शीतोष्णीयमिति नाम विद्यते गया है। इसलिए इसका अन्वर्थ नाम 'शीतोष्णीय' रखा गया है। पद अन्वर्थम् । पदार्थदृष्ट्या शीतमिति शीतलं, उष्णमिति की दृष्टि से 'शीत' पद का अर्थ है-शीतल और 'उष्ण' पद का अर्थ ग्रीष्मं, तात्पर्यार्थे शीतपदेन अनुकूलस्य उष्णपदेन च है-ग्रीष्म । तात्पर्य की भाषा में शीत पद से अनुकूल और उष्णपद से प्रतिकूलस्य ग्रहणं कृतम् । नियुक्तिकारेण आभ्यां पदाभ्यां प्रतिकूल का ग्रहण किया गया है । नियुक्तिकार ने इन दो पदों के साथ द्वाविंशतिपरीषहाणां संबंधो योजितः। तदनुसारं स्त्री- बावीस परीषहों की संबन्ध-योजना की है। उसके अनुसार स्त्री परीषह सत्कारपरीषहौ शीतौ शेषाश्चोष्णाः ।' अनयोर्वेकल्पि- और सत्कार परीषह-ये दो शीत तथा शेष बीस परीषह उष्ण के कोऽर्थोपि निर्यक्ती उपलभ्यते-ये तीव्रपरिणामाः अन्तर्गत हैं। नियुक्ति में इनका वैकल्पिक अर्थ भी प्राप्त होता हैपरीषहास्ते उष्णाः, ये च मन्दपरिणामास्ते शीताः । जो तीव्र परिणाम वाले परीषह है वे उष्ण हैं तथा जो मंद परिणाम वाले हैं वे शीत हैं। निर्यक्ती शीतोष्णयोः निक्षेपावसरे कतिचिद् नियुक्ति में 'शीत' और 'उष्ण'-इन दो पदों के निक्षेप के विकल्पाः प्रदर्शिताः सन्ति, यथा-हिमतुषारकरकादयः प्रसंग में कुछेक विकल्प प्रस्तुत किए गए हैं । शीत पद का निक्षेपसचेतनं द्रव्यशीतम्, हारादयः अचित्तं द्रव्यशीतम्। . सचेतन द्रव्यशीत-हिम, तुषार, करक (ओले) आदि। सचित्तोदककृताः जलदाः मिथं द्रव्यशीतम् । पुद्गलस्य ० अचेतन द्रव्यशीत-हार आदि । शीतो गुण: पुद्गलाश्रितं भावशीतम्। जीवस्य • मिश्र द्रव्यशीत--सचित्त जल से निष्पन्न बादल । औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिका भावा: भावशीताः । • भावशीत-पुद्गल का शीत गुण पुद्गलाश्रित भावशीत है। एवं उष्णपदस्य निक्षेपावसरे सचेतनं द्रव्योष्णं अग्निः । जीब का औपशमिक, क्षायिक तथा क्षायोपशमिक अचेतनं द्रव्योष्णं आदित्यरश्मिः । मिश्रं द्रव्योष्णं कवोष्णं भाव जीवाश्रित भावशीत है। अनुवृत्तत्रिदण्डं उष्णं जलं वा। अचेतनः भावोष्ण : उष्ण पद का निक्षेपपुद्गलस्य उष्णो गुण ः। सचेतनः भावोष्ण: जीवस्य • सचेतन द्रव्यउष्ण-अग्नि । औदयिको भावः । क्रोधो मानश्चोष्णो भवति । विवक्षा • अचेतन द्रव्यउष्ण-सूर्य की रश्मि । भेदेन लोभः शीतोऽपि भवति । क्षायिको भावः अशेष • मिश्र द्रव्यउष्ण-थोड़ा गरम जल, तीन उकाले से रहित गरम कर्मदहनान्यथानुपपत्तेरुष्णो भवति ।' जल। • अचेतन भावउष्ण-पुद्गल का उष्ण गुण। • सचेतन भाव उष्ण-जीव का औदयिक भाव । क्रोध और मान उष्ण होते हैं। विवक्षाभेद से लोभ शीत भी होता है। क्षायिक भाव समस्त कर्मों का दहन किए बिना उत्पन्न नहीं होता, इसलिए वह उष्ण है। १. (क) आचारांग नियुक्ति, गाथा २०२: २.(क) आचारांग नियुक्ति, गाथा २०३ : इत्थी सक्कारपरीसहो य दो भावसीयला एए। जे तिव्वप्परिणामा परीसहा ते भवंति उल्हा उ। सेसा वीसं उण्हा परीसहा हुंति नायव्वा ॥ जे मंदप्परिणामा परीसहा ते भवे सीया॥ (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १३६ : स्त्रीपरीषहः सत्कार- (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १३६ : तीव्रो-दुःसहः परिपरीषहश्च द्वावप्येतो शोतो, भावमनोनुकूलत्वात्, णामः-परिणतिर्येषां ते तथा, य एवंभूताः परीषहास्ते शेषास्तु पुनर्विशतिरुष्णा ज्ञातव्या भवन्ति, मनसः उष्णाः, ये तु मन्दपरिणामास्ते शीता इति। प्रतिकूलत्वादिति । ३. आचारांग नियुक्ति, गाथा २०० : बवे सीयलवव्वं वव्वुण्हं चेव उल्हबव्वं तु। भावे उ पुग्गलगुणो जीवस्स गुणो अपविहो । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० प्रस्तुताध्ययनस्य प्रतिपाद्यमस्ति मुनिना शीतोष्णी परीषौ विषोढव्यौ । अस्य चत्वार उद्देशका वर्तन्ते । तेषां विषयनिर्देशः एवमस्ति'--- १. ये असंयमिनस्ते भावनिद्रया सुप्ताः सन्ति । २. भावनिद्रामापन्ना दुःखमनुभवन्ति । ३. नैव दुःखसनादेव केवलात् संयमानुष्ठानशून्यवा अक्रियया वा श्रमणो भवति । ४. कषाया वमनीयाः । प्रारम्भः स्वपनजागरणावस्था प्रस्तुताध्ययनस्य मधिकृत्य भवति । शरीरयात्रायें यथा जागरणस्य मूल्यमस्ति तथा निद्राया अपि मूल्यमस्ति । अध्यात्म साधनाक्षेत्रे केवलं जागरणस्यैव मूल्यमस्ति न तु निद्रायाः । अत एवोक्तम् - मुनयः सदा जाग्रति अमुनयश्च सदा सन्ति सुप्ताः दर्शनावरणीयकर्म विपाकोदयेन क्वचित् स्वपन्नपि पुरुषः सम्यग्दर्शनत्वात् संविग्नत्वाच्च वस्तुतः सुप्तो न भवति । दर्शनमोहनीयोदयो महानिद्रा वर्तते । यस्तमतिक्रान्तः स सदा जाग्रदेव । यश्च दर्शनमोहनीयोदयादापातितां भावनिद्रामनुभवति स सदा निद्राण एव । अयं स्वपनजागरणयोरलौकिको विधिः। नियुक्तिकारेण सुप्तावस्थाया दोषा जागृद स्वायाश्च गुणाः प्रतिपादिताः, यथा सुप्तमतमूच्छिता अप्रतिकारं दुःखं प्राप्नुवन्ति तथा भावनिद्रायां वर्तमानो जनः प्रचुरं दुःखं लभते । यथा विवेकी मनुष्यः प्रदीप्ते प्रज्वलने प्रपलायमानः सुखमनुभवति तथा सापायनिरपायविवेकशोऽपायं परिहरन् सुखी भवति । * अध्य अस्मिन् समताया: सिद्धान्त: प्रतिपादितोस्ति । आचाराङ्गं समताया: प्रतिपादकं सूत्रं वर्तते, अत एवास्य 'सामायिकम्' इति नाम विद्यते । 'तिविज्जो,' 'परमं प्रभृतिपदानि रचनाकालस्य प्राचीनत्वसूचकानि विद्यन्ते । अस्मिन् कर्मवादस्य प्रतिपादकानि सूत्राण्यपि उपलभ्यन्ते ।' अस्मिन् दर्शनपदं "4 १. आचारांग नियुक्ति गाथा १९७,१९८ पहने मुत्ता अस्संजयन्ति बिए अति सइए न हु दुक्खेणं अकरणयाए व समणुत्ति ।। उभिउ अहिगारो उ बमणं कसायागं । पावविरईओ विउणो उ संजमो इत्थ मुक्खुति ॥ २. आचारांग चूणि, पृष्ठ १०२ : इदाणि मा सासिस्सं एगंतेण दुश्खेण धम्मो, तेण तम्मतपडिसेहणत्थं भगति ततिएण यदुक्खेण, अकरणयाए व समणोति । आचारांगभाष्यम् इस अध्ययन का प्रतिपाद्य है कि मुनि को शीत और उष्णदोनों प्रकार के परीषह सहने चाहिए। इसके चार उद्देशक हैं । उनके विषय इस प्रकार हैं १. जो असंयमी हैं वे भावनिद्रा में सुप्त हैं । २. भावनिद्रा में सुप्त व्यक्ति दुःख का अनुभव करते हैं । ३. केवल कष्ट सहने मात्र से अथवा संयम के अनुष्ठान से शून्य अक्रिया - निवृत्ति मात्र से कोई श्रमण नहीं होता । ४. पापों को छोड़ना चाहिए। प्रस्तुत अध्ययन का प्रारम्भ शयन और जागरण की अवस्था के विषय से होता है। शरीर यात्रा के लिए जैसे जागरण का मूल्य है वैसे ही निद्रा का भी मूल्य है। अध्यात्म की साधना के क्षेत्र में केवल जागरण का ही मूल्य है, निद्रा का नहीं इसीलिए कहा है मुनि सदा जागृत रहते हैं, मुनि सदा सुप्त रहते हैं। दर्शनावरणीय कर्म के विपाकोदय से कहीं सोता हुआ भी व्यक्ति सम्यग्दर्शनयुक्त तथा संयुक्त होने के कारण वास्तव में सुप्त नहीं होता । दर्शनमोहनीय कर्म का उदय महानिद्रा है । जो इसका अतिक्रमण कर देता है वह सदा जागृत ही रहता है । जो व्यक्ति दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से निष्पन्न भावनिद्रा का अनुभव करता है, वह सदा सोया हुआ ही रहता है। यह शयन और जागरण की अलौकिक विधि है । नियुक्तिकार ने सुप्ता अवस्था के दोषों तथा जागृत अवस्था के गुणों का प्रतिपादन किया है जैसे सुप्त मत्त और मूति व्यक्ति अत्रतिकारात्मक दुःख को प्राप्त होते हैं, वैसे ही भावनिद्रा का अनुभव करता हुआ प्राणी प्रचुर दुःख क है । जैसे विवेकी मनुष्य आग लग जाने पर पलायन कर सुख का अनुभव करता है वैसे ही विघ्न-बाधा अथवा दोष तथा निर्विघ्न अबाधा तथा अदोष का विवेक करने वाला व्यक्ति बाधा का परिहार करता हुआ सुखी होता है। 1 इस अध्ययन में समता का सिद्धांत प्रतिपादित है । आचारांग समता का प्रतिपादक आगम है, इसीलिए इसका नाम 'सामायिक' है । इसमें प्रयुक्त 'त्रिविध', 'परम' आदि शब्द इस आगम के रचना काल की प्राचीनता के द्योतक हैं। इसमें कर्मवाद के प्रतिपादक सूत्र भी उपलब्ध होते हैं। इसमें 'दर्शन' शब्द विविध पदों के साथ दूध होकर प्रयुक्त हुआ है । यह 'दर्शन' पद 'सत्य' का वाचक है । मृषावाद ३. आचारांग निर्मुक्ति, गाथा २११ : सुत्ता अमुणओ सया मुणओ सुत्तावि जागरा हुंति । धम्मं पच्च एवं निद्दासुसेण भइयव्वं ॥ ४. वही, गाथा २१२,२१३ । ५. आयारो, ३।३ । ६,७. वही, ३।२८ | 5. वही, ३११८-२५ । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुखम् १६१ विविधैः पदैः सन्दृब्धं दृश्यते । एतेन दर्शनपदेन सत्यं वर्जक सत्य अहिंसा से पृथक् नहीं है। इस अध्ययन में-'पुरुष ! तू विवक्षितमस्ति । मृषावादवर्जनात्मकं सत्यं न अहिंसा- सत्य में धृति कर', 'पुरुष ! तू सत्य का ही अनुशीलन कर', 'जो सत्य मतिरिणक्ति। अस्मिन्नध्ययने 'सच्चंसि धिति कुम्वह',' की आज्ञा में उपस्थित है वह मेधावी मृत्यु अथवा कामनाओं को तर 'पुरिसा ! सच्चमेव समभिजाणाहि", "सच्चस्स आणाए उवट्ठिए जाता है'-आदि सूत्र अमृषावादात्मक सत्य के वाचक सूत्र नहीं हैं, से मेहावी मारं तरति" प्रभृतीनि सूत्राणि अमृषावादात्मक- किंतु ये हैं सम्यग्दर्शनात्मक सत्य के वाचक अथवा आत्मा और पदार्थ सत्याभिधायकानि सूत्राणि न सन्ति। एतानि सन्ति की यथार्थता के निरूपक सूत्र । सम्यग्दर्शनात्मकसत्याभिधायकानि अथवा आत्मनः पदार्थस्य च याथार्थ्य निरूपकाणि । __ जैनदर्शने सर्वज्ञवादः निष्ठां प्राप्तोस्ति । आचारांगे जैन दर्शन में सर्वज्ञवाद का सांगोपांग वर्णन है। आचारांग में सर्वज्ञवादः चचितोऽस्ति नवा इति प्रश्न: विद्वद्भिः सर्वज्ञवाद की चर्चा है या नहीं, यह प्रश्न विद्वान् व्यक्ति उपस्थित उपस्थाप्यते। सर्वज्ञसंबंधिनी मध्यकालीना चर्चा करते हैं। मध्यकाल में सर्वज्ञसंबंधी जो चर्चाएं हुईं, वे इसमें हैं, अस्मिन्नपि समस्ति तथापि 'एतत् पश्यकस्य दर्शनमस्ति' फिर भी यह द्रष्टा का दर्शन है'--इस वाक्यांश से यह सुनिश्चित हो अनेन वाक्यांशेन एतत् सुनिश्चितं भवति यत् जाता है कि जनदर्शन द्रष्टा का दर्शन है, न कि तर्क से उत्पन्न दर्शन । एतज्जैनदर्शनं द्रष्टुर्दर्शनं विद्यते न तु तर्कोद्भवं दर्शनम् । पश्यक अर्थात् द्रष्टा दो विशेषणों से विशेषित है--(१) जो उपरतशस्त्र पश्यकोपि द्वाभ्यां विशेषणाभ्यां विशेषितोऽस्ति-य अथवा अहिंसक होता है और (२) जो पर्यन्तकर अथवा ज्ञानावरण कर्म उपरतशस्त्र: अहिंसको वा भवति, य: पर्यन्तकर: ज्ञाना- का अंत करने वाला होता है, वही पश्यक या द्रष्टा होता है। 'कर्म से वरणस्य अन्तकरो वा भवति, स एव पश्यको भवति । उपाधि होती है।' 'द्रष्टा के कोई उपाधि नहीं होती।' इन दोनों सूत्रों कर्मणा उपाधिर्भवति । पश्यकस्य उपाधिन भवति ।' के संदर्भ में सर्वज्ञ की सिद्धि के लिए प्रयुक्त मध्यकालीन तक का अनयोः सूत्रयोः सन्दर्भ सर्वज्ञसिद्धय प्रयुक्तः समवतरण होता है-'प्रज्ञा के तारतम्य को विश्रान्ति आदि की सिद्धि मध्यकालीनस्तर्कः समवतरति-'प्रज्ञातिशयविश्रान्त्यादि- से केवलज्ञान की सिद्धि होती है।' सिद्धेस्तसिद्धिः।' प्रज्ञाया अतिशयः-तारतम्यं क्वचिद् विश्रान्तम्, प्रज्ञा का अतिशय-तारतम्य कहीं विधान्त होता है, क्योंकि वह अतिशयत्वात, परिमाणातिशयवदित्यनुमानेन निरतिशय- अतिशय है। प्रत्येक अतिशय की कहीं न कहीं विश्रांति (चरम परिणति) प्रज्ञासिद्धया तस्य केवलज्ञानस्य सिद्धिः, तत्सिद्धिरूपत्वात् अवश्य होती है, जैसे परिमाण के अतिशय की विश्रान्ति आकाश में हुई केवलज्ञानसिद्धेः । 'आदि' ग्रहणात् सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः है। इस अनुमान प्रमाण से निरतिशय प्रज्ञा की सिद्धि होने से केवलज्ञान कस्यचित् प्रत्यक्षाः प्रमेयत्वात् घटवदित्यतो, की सिद्धि होती है। निरतिशय प्रज्ञा की सिद्धि ही केवलज्ञान की सिद्धि ज्योतिर्ज्ञानाविसंवादान्यथानुपपत्तेश्च तत्सिद्धि:, है। सूत्र में प्रयुक्त 'आदि' शब्द से केवलज्ञान की सिद्धि के लिए यह यदाह अनुमान भी समझ लेना चाहिए। सूक्ष्म, अन्तरित-व्यवहित तथा दूरस्थ पदार्थ किसी के प्रत्यक्षज्ञान के विषय हैं, क्योंकि वे प्रमेय हैं। जो प्रमेय होता है वह किसी न किसी के प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय अवश्य होता है, जैसे घट । तथा ज्योतिष ज्ञान में जो अविसंवाद देखा जाता है, उससे भी केवलज्ञान की सिद्धि होती है। कहा है'धीरत्यन्तपरोक्षेऽर्थे न चेत् पुंसां कुतः पुनः । 'अत्यंत परोक्ष पदार्थों को भी कोई पुरुष अवश्य जानता है। ज्योतिर्ज्ञानाविसंवाद: श्रुताच्चेत् साधनान्तरम् ॥ ऐसा नहीं होता तो ज्योतिष ज्ञान में जो अविसंवाद है, वह कैसे होता? (सिद्धिविनिश्चय, पृ० ४१३) यदि कहा जाए, यह अविसंवाद श्रुत (शास्त्र) से होता है, तो उसके लिए भी दूसरे साधन की आवश्यकता है।' १. आयारो, ३२८-समत्तदंसी। ३०–भयाणुपस्सी। ३. वही, ३.६५॥ ३३-आयंकदंसी। ३५-णिक्कम्मदंसी। ३८-परम- ४. वही, ३६६। बंसी । ४८-अणोमदंसी । ७२,८५-एयं पासगस्स बसणं । ५. वही. ३८५। ८३-- कोहदंसी...""दुक्खदंसी। ६. वही, ३।१९। २. आयारो, ३४०। ७. वही, ३।८७ । Jain Education international Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगभाष्यम् बाधकामावाच्च । 'सर्वज्ञता का कोई बाधक प्रमाण नहीं है। अतः बाधक प्रमाण के अभाव में सर्वज्ञता की सिद्धि होती है।' कालासवेशीयपुत्रस्य भगवतो महावीरस्य स्थविरैः कालासवेशीयपुत्र का भगवान् महावीर के स्थविरों के साथ सह यः संवादः संवृत्तः तेन एष निष्कर्षः सम्मुखीभवति, जो संवाद हुमा, उससे यह निष्कर्ष सामने आता है कि भगवान् महावीर भगवतो महावीरस्य साधनापद्धतेः षड् मूलतत्त्वानि की साधना पद्धति के छह मूल तत्त्व थेआसन्१. सामायिकम् । ४. संवरः। १. सामायिक। ४. संवर। २. प्रत्याख्यानम् । ५. विवेकः । २. प्रत्याख्यान । ५. विवेक । ३. संयमः। ६. व्युत्सर्गः । ३. संयम । ६. व्युत्सर्ग। अस्मिन्नागमे सामायिकादीनि षडपि तत्त्वानि सन्ति प्रस्तुत आगम में सामायिक आदि छहों तत्त्वों का वर्णन प्राप्त संवणितानि, तानि यथास्थानमन्वेषणीयानि । अस्मिन् है। उनका यथास्थान अन्वेषण किया जा सकता है। जैसे सूत्रकृतांग में पंचमहाव्रतानां स्पष्ट व्यवस्था नास्ति, यथा सूत्रकृतांगे पांच महाव्रतों की स्पष्ट व्यवस्था है, वैसे प्रस्तुत आगम में नहीं है। इस दृश्यते। अस्मिन् विषये इति वक्तव्यमावश्यकमस्ति यद् विषय में यह बताना आवश्यक है कि भगवान् महावीर के प्रवचन में भगवतो महावीरस्य प्रवचने पञ्च महाव्रतानि पांच महाव्रत सामायिक के ही अंग हैं और वे सामायिक के ही विस्तार सामायिकस्याङ्गभूतानि विस्तारभूतानि च सन्ति। हैं । आत्मा का निरूपण सामायिक से संबद्ध है ही। भगवती सूत्र में आत्मनो निरूपणं सामायिकेन संबद्धमेव, यथा भगवत्यां सामायिक के साथ आत्मा का एकत्व बताया गया है। समयसार ग्रन्थ सामायिकेन आत्मन एकत्वं प्रदर्शितमस्ति। समयसारेऽपि में भी ऐसा ही देखा जाता है। एवमेव दृश्यते। अस्मिन् पुनर्जन्मनः कारणानि' अमरत्वहेतुनि च आचारांग में पुनर्जन्म के कारण तथा अमरत्व (जन्म-मरण सन्ति वणितानि। अस्मिन् अध्यात्म सम्यक् से मुक्ति) के हेतु भी प्रतिपादित हैं। इसमें अध्यात्म की भावना परिभावितमस्ति । समता अशस्त्रे एव भवति, शस्त्र का सम्यक् निरूपण हुआ है। समत्व अशस्त्र में ही होता है, शसत्र में न सा भवितुमर्हति, तत्र वैषम्यमेव । इत्थमत्यन्तं वह सम्भव नहीं है । उसमें विषमता ही होती है। इन सभी दृष्टियों से मननीयमस्ति अध्ययनमिदम् । यह अध्ययन अत्यंत मननीय है। १. प्रमाणमीमांसा, १११११६,१७। २. अंगसुत्ताणि २, भगवई ११४२३-४२८ । ३. सामायिकम्-३१३० । प्रत्याख्यानम्-११११, ३१२८,४६ । संयमः--३।४। संवरः-३८६। विवेकः-५१७३७४ । व्युत्सर्ग:-८८ गाथा ५, गाथा २१ । एते संकेता उदाहरणरूपेण प्रदर्शिताः। वस्तुतः . प्रस्तुतागमः एषु षट्सु तत्त्वेषु कृतो भवति । ४. अंगसुत्ताणि १, सूयगडो २१११५९ । ५. अंगसुत्ताणि २, भगवई, १।४२६...""आया णे अज्जो! सामाइए। ६. समयसार, गाथा २७७ : आदा खु मजा णाणं आदा मे वंसणं चरित्तं च । आवा पच्चक्खाणं आवा मे संवरो जोगो॥ ७. आयारो, ३।१४। ८. वही, ३.१५,३६,४५ । ९. वही, ३३५४,५५ ॥ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइयं अज्झयणं : सीओसणिज्जं तीसरा अध्ययन : शीतोष्णीय पढमो उद्देसो : पहला उद्देशक १. सुत्ता अमुणी सया, मुणिणो सया जागरंति । सं०--सुप्ता: अमुनयः सदा, मुनयः सदा जाग्रति । अज्ञानी सदा सोते हैं, ज्ञानी सदा जागते हैं। भाष्यम् १-प्रस्तुताध्ययने सुखदुःखतितिक्षा समुप- प्रस्तुत अध्ययन में सुख-दुःख की तितिक्षा-सहिष्णुता का दिश्यते । तितिक्षां विना अहिंसाया अपरिग्रहस्य च उपदेश दिया गया है। तितिक्षा के बिना अहिंसा और अपरिग्रह की नास्ति सिद्धिः । तत्सिद्धयर्थं सुखं दुःखञ्च द्वयमपि भवति सिद्धि नहीं होती। उनकी सिद्धि के लिए सुख और दुख-दोनों को सोढव्यम् । अमुनिः न तितिक्षामर्हति । मुनिः सदा सहन करना होता है । अमुनि तितिक्षा नहीं कर सकता । मुनि सदा जागति । स एव तामह ति, इति वस्तुसत्यं सूत्रकारः जागता रहता है । वही तितिक्षा करने में समर्थ होता है । इस सत्य को प्रवक्ति-यो मन्यते त्रिकालावस्थं जगत् स मुनिः मनन- सूत्रकार इस प्रकार प्रगट करते हैं----जो जगत् की कालिक अवस्था शीलो ज्ञानी वा। अमुनिः तद्विपरीतः । अमुनयः को जानता है, अथवा जो मननशील होता है, ज्ञानी होता सप्ताः भवन्ति । सुप्तो द्विविधः-द्रव्यसुप्त:-निद्रा- है, वह मुनि है । उसके विपरीत होता है अमुनि । अमुनि सुप्त होते हैं। सुप्तः, भावसुप्तः-हिंसायां परिग्रहे वा प्रवृत्तः, विषय- सुप्त के दो प्रकार हैं-द्रव्य-सुप्त और भाव-सुप्त । द्रव्य-सुप्ता कषायैर्वा धर्म प्रति सुप्तः । जागृतोऽपि द्विविधः-द्रव्य- वह होता है जो निद्रा में सोया हुआ है और भाव-सुप्त वह होता है जागतः-निद्रामुक्तः, भावजागृत:-अहिंसायामपरिग्रहे जो हिंसा और परिग्रह में प्रवृत्त है तथा विषय अथवा कषायों के वशीभूत च लीनः, सम्यग्दष्टिः , वितृष्णः, धर्म प्रति उत्साह- होकर धर्म के प्रति सुप्त है। जागृत के भी दो प्रकार हैं-द्रव्य-जागृत वांश्च। और भाव-जागृत । द्रव्य-जागृत वह है जो निद्रामुक्त है और भावजागृत वह है जो अहिंसा तथा अपरिग्रह में लीन है, सम्यग्दृष्टि है, वितृष्ण है और धर्म के प्रति उत्साहवान् है। ज्ञानयोगेन मुनेः चित्तं मनः मस्तिष्क समग्रं नाडी- ज्ञानयोग से मुनि का चित्त, मन, मस्तिष्क और सारा नाड़ीतन्त्रं च सतताप्रमादवशात् स्वाधीनं भवति । स निद्रा- तंत्र-ये सब सतत अप्रमाद की साधना के कारण उसके अधीन हो वस्थायामपि नाकरणीयं करोति इति सदा जागरणस्य जाते हैं। वह निद्रावस्था में भी अकरणीय कार्य नहीं करता, यही सदा रहस्यम् । काव्यसाहित्येऽपि सततजागरूकतायाः सूक्तं जागृत रहने का रहस्य है। काव्यसाहित्य में भी सतत जागरूक रहने लभ्यते का सूक्त प्राप्त है'मनसि वचसि काये जागरे स्वप्नमार्गे, अग्नि-परीक्षा के समय सीता कहती है-'हे अग्नि ! यदि मैंने यदि मम पतिभावो राघवादन्यपुंसि । मन से, वचन से और शरीर से, जागृत अवस्था में या सुप्त अवस्था में, तदिह बह शरीरं मामकं पावकेदं, राघव के अतिरिक्त किसी अन्य पुरुष के प्रति पतिभाव किया हो तो तू विकृतसुकृतभाजां येन साक्षी त्वमेव ।।' मेरे इस शरीर को जला डाल । हे पावक ! तू ही है साक्षी पाप और पुण्य करने वालों का। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ २. लोयंसि जाण अहियाय दुक्तं । सं० – लोके जानीहि अहिताय दुःखम् । तुम जानो, इस लोक में दुःख - अज्ञान अहित के लिए होता है। माध्यम् २ सुप्तस्य अज्ञानं मोह-स्वभावविकृतिर्वा प्रवर्धते । तद् दुःखहेतुत्वाद् दुःखं अथवा दुःखं कर्म ।' तच्च लोके अहिताय भवति इति त्वं जानीहि । हिंसायां परिग्रहे च प्रवृत्तस्य इहैव लोके वधबन्धादयः अहितकराः परिणामाः दृश्यन्ते । ३. समयं लोगस्स जाणित्ता, एत्थ सत्थोवरए । सं०- समतां लोके ज्ञात्वा अत्र शस्त्रोपरतः । 'सब आत्माएं समान हैं' -- यह जानकर पुरुष समूचे जीव-लोक की हिंसा से उपरत हो जाए। भाष्यम् ३ - लोकस्य - जीवसमूहस्य समतां ज्ञात्वा मुनिः शस्त्रपरतो भवति । यैः यैर्हेतुभिः जीवानां वधो जायते, ते शस्त्रं इत्युच्यन्ते । अहिंसकः अपरिग्रहश्च सर्वशस्त्रेभ्य उपरतो भवति । अत्र अहिंसाया विषये समतापदस्य वाच्यं आत्मतुला भवति । अपरिग्रहस्य सन्दर्भे समतापदस्य वाच्यमस्ति लाभालाभादिषु समभावः । भाष्यम् ४--यस्य पुरुषस्य जीवने अपरिग्रहो निष्ठां गच्छति स आत्मवान् भवति । तात्पर्यमिदम्-शब्दादयः पौद्गलिकाः, आत्मस्वरूपञ्च चैतन्यम् । यस्य इमे शब्दादयः अभिसमन्यागताः सम्यग् उपलब्धा: भवन्ति - एते चैतन्याद् भिन्नाः सुखदुःखात्मकवन्ध हेतवश्च' इति ज्ञ-परिज्ञया प्रत्याख्यान- परिज्ञया च परिज्ञाता भवन्ति स आत्मवान् ज्ञानवान् वेदवान्, धर्मवान् ब्रह्मवान् भवति । प्रस्तुतसूत्रं भेदविज्ञानं प्रतिपादयति । चैतन्यपदार्थयोरभेदानुभूय एव परिग्रहे मूर्च्छा जायते । तयोर्भेदानु भूत्या अपरिग्रहः सिद्धयति । तस्मिन् सिद्धे एव आत्मा १. (क) आचारांग पूणि, पृष्ठ १०५ खमिति कम्म सारीराति वा । (ख) आचारांग वृति पत्र १२९ दुःखद् दुःखम् सुप्त व्यक्ति का अज्ञान बढता है अथवा मोह स्वभाव की विकृति बढती है। वह दुःख का हेतु होने के कारण दुःख है । अथवा दुःख है कर्म । 'वह संसार में अहित के लिए होता है', ऐसा तुम जानो । जो पुरुष हिंसा और परिग्रह में प्रवृत्त है, उसे इसी जन्म में वध, बंधन आदि अहितकारी परिणामों को भोगना पड़ता है । ४. जस्सिमे सहा य हवाय गंधा य रसा य फासा य अभिसमन्नागया भवंति से आयवं नाणवं वेयवं धम्मवं वंभवं । 7 सं० – यस्येमे शब्दाश्च रूपाणि च गन्धाश्च रसाश्च स्पर्शाश्च अभिसमन्वागताः भवन्ति स आत्मवान् ज्ञानवान् वेदवान धर्मवान् ब्रह्मवान् । जो पुरुष इन-शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्शो को भली-भांति जान लेता है—उनमें राग-द्वेष नहीं करता, वह आत्मवान्, ज्ञानवान्, वेदवान् धर्मवान् और ब्रह्मवान् होता है। आचारांगभाष्यम् 'लोक' का अर्थ है – जीव- समूह । 'सभी प्राणियों की आत्मा समान है' यह जानकर मुनि हिंसा से उपरत हो जाता है । जिन-जिन हेतु से जीवों का वध होता है, वे सारे हेतु शस्त्र कहलाते हैं । अहिंसक और अपरिग्रही व्यक्ति सभी शस्त्रों से उपरत होता है। यहां अहिंसा के संदर्भ में समता का अर्थ है-आत्मतुला सभी प्राणियों को अपनी आत्मा के समान समझना और अपरिग्रह के संदर्भ में समता का अर्थ हैलाभ-अलाभ आदि द्वन्द्वों में समभाव रखना । जिस पुरुष के जीवन में अपरिग्रह की भावना परिपूर्णरूप से आत्मसात् हो जाती है, वह पुरुष आत्मवान् होता है। इसका तात्पर्य है कि आत्मवान् पुरुष में यह संबोध जाग जाता है कि शब्द आदि विषय पौद्गलिक हैं और आत्मस्वरूप चैतन्यमय है । जिसको ये शब्द आदि विषय अभिसमन्वागत - सम्यग् उपलब्ध हो जाते हैं अर्थात् ये सब चैतन्य से भिन्न हैं तथा सुख-दुःखरूप बंधन के हेतु हैं— इस रूप में वेश-परिक्षा से तथा प्रत्याख्यान- परिशा से परिक्षात हो जाते हैं, वह आत्मवान् ज्ञानवान् वेदवान, धर्मवान् और ब्रह्मवान होता है। प्रस्तुत सूत्र में भेदविज्ञान का प्रतिपादन है । आत्मा और पदार्थ अथवा चैतन्य और पुद्गल की अभेदानुभूति से ही परिग्रह में मूर्च्छा पैदा होती है। उनकी भेदानुभूति से अपरिग्रह सिद्ध होता है । अज्ञानं मोहनीयं वा । २. न परिग्रहः अस्ति यस्य स अपरिग्रहः, अपरिग्रहीति यावत् । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ३. शीतोष्णीय, उ० १. सूत्र २०६ आत्मानं लभते इति स आत्मवान् भवति । तस्य ज्ञानं शब्दादिविषयेभ्यो विमुक्र्त जायते, अतः स ज्ञानवान् भवति । वेब:- शास्त्रम् । तस्य प्रतिपाद्यमस्ति रागद्वेष विमोक्षः । हीनायां पदार्थानुरक्तौ स वेदवान् भवति । धर्मः समतालक्षणः । स प्रियाप्रियेषु शब्दादिविषयेषु समस्तिष्ठति, अतः धर्मवान् भवति । ब्रह्म-आचारः सत्यं तपश्च । स एतेषु प्रतिष्ठितो जायते, अतः ब्रह्मवान् भवति । ५. पण हि परियाणा लोयं, मुनीति बच्चे, धम्मविउत्ति अंजू । सं० - प्रज्ञानः परिजानाति लोकं मुनिरिति वाच्यः, धर्मविद् इति ऋजुः । जो पुरुष अपनी प्रज्ञा से लोक को जानता है, यह मुनि कहलाता है। वह धर्मविद और ऋतु होता है। भाष्यम् ५ - यः प्रज्ञानेन लोकं परिजानाति स मुनिरिति वाच्यः धर्मविदिति ऋजुश्च ।' धर्मः - स्वभावः । यः सर्वेषां द्रव्याणां धर्मान् वेत्ति स धर्मवित् भवति इति विचयध्यानस्य सूचनमिदम् । यो धर्माणां विचयं करोति, स एव प्रज्ञानेन चेतनाचेतनात्मकं लोकं परिजानाति । लोकस्य परिज्ञानेनैव हेयोपादेयबुद्धिः प्रस्फुटा भवति । तेन स ऋजु कल्याणकारी' वा भवति । स्रोतः- द्वारम् । स्थानांगे नवानां स्रोतसां उल्लेखो विद्यते – द्वे श्रोत्रे, द्वे नेत्रे, द्वे घ्राणे, मुखं उपस्थं, पायुश्च । स्रोतशब्देन इन्द्रियस्यापि ग्रहणं संभवति । 'आयाणसोयगढिए' इति प्रयोगोऽपि लभ्यते ।" अत्र स्रोतः शब्देन इन्द्रियस्रोतः इति विवक्षितं स्यात् । १६५ उसकी सिद्धि होने पर ही आत्मा आत्मा को उपलब्ध होती है । यही आत्मवान् होने का अर्थ है। ऐसे व्यक्ति का ज्ञान शब्द आदि विषयों से मुक्त हो जाता है, इसलिए वह ज्ञानवान होता है। वेद का अर्थ हैशास्त्र । उसका प्रतिपाद्य है - राग-द्वेष से विमुक्ति । पदार्थों की अनुरक्ति क्षीण होने पर वह वेदवान् होता है। धर्म का सक्षम है-समता मात्मवान् व्यक्ति प्रिय और अत्रिय शब्द आदि विषयों के प्रति सम रहता है, इसलिए वह धर्मवान् होता है । ब्रह्म का अर्थ है - आचार, सत्य और तप । आत्मवान् व्यक्ति इनमें प्रतिष्ठित होता है- आचारनिष्ठ, सत्यनिष्ठ और तपोनिष्ठ होता है, इसलिए वह ब्रह्मवान् होता है । ६. आवसोए संगमभिजाणति । सं० - आवर्तस्रोतः सङ्गमभिजानाति । आत्मवान् मुनि संग को आवर्त और स्रोत के रूप में देखता है। भाष्यम् ६ – संगः-- रागः । स आवर्तः स्रोतश्च इति अभिजानाति । आवर्त इन्द्रियासक्तिवेगात् मनसः चांचल्यं भ्रमण वा । १. चूणा 'अंजू' पदस्य 'ऋजु' इत्यर्थो दृश्यते-- अंजुत्ति उज्जुं, जं भणितं निश्वयं ( आचारांग चूर्णि, पृष्ठ १०६ ) । वृत्तावधि ऋतुरिति ऋजो:- ज्ञानदर्शनचारित्राख्यस्य मोक्षमार्गस्यानुष्ठानाकुटिलो यथावस्थितपदार्थ स्वरूपपरिषदान् वा ऋः सर्वोपाधिशुद्धोऽयक इति यावत् ( आचारांग वृति पत्र १४० ) इति व्याख्यातमस्ति । किन्तु प्रस्तुतपदस्य 'अंजू' धातोः संबंध अधिक संगति । जो पुरुष 'अपनी प्रज्ञा से लोक को जानता है वह मुनि, धर्मविद् और ऋजु कहलाता है। धर्म का अर्थ है – स्वभाव । जो सभी द्रव्यों के स्वभाव को जानता है वह धर्मविद होता है, यह विचपध्यान का सूचन-सूत्र है । जो द्रव्य के स्वभाव का विचय करता है, वही प्रज्ञा से चेतनाचेतनात्मक लोक को जानता है । लोक के परिज्ञान से ही हे और उपादेय की बुद्धि प्रस्फुटित होती है, इसलिए वह व्यक्ति ऋजु अथवा कल्याणकारी होता है। संग का अर्थ है- राग संग 'आवर्त और स्रोत है', ऐसा वह जानता है । आवतं का अर्थ है - इन्द्रियों की आसक्ति के वेग से होने वाली मन की चंचलता अथवा मन का भ्रमण । स्रोत का अर्थ है -द्वार स्थानांग सूत्र में नौ स्रोतों का उल्लेख है - दो कान, दो नेत्र, दो घ्राण (नासिकाएं), मुख, लिंग और गुदा स्रोत शब्द से इन्द्रिय का भी ग्रहण संभव है। आचारांग में 'आयाणसोयगढिए ' --- इन्द्रिय विषयों में आसक्त - ऐसा प्रयोग भी मिलता है। इसलिए यहां स्रोत शब्द से इन्द्रियस्रोत विवक्षित है । 'अंजस' शब्दस्य अर्थोऽपि ऋजुः' अर्थात आप्टे, 'मंजस'Not crooked, straight, honest, upright'. २. आप्टे, ऋजु :- Beneficial. ३. अंगसुत्ताणि १, ठाणं ९२४ : णवसोतपरिस्सवा बोंदी पण्णत्ता, तं जहा- दो सोत्ता, दो नेत्ता, दो घाणा, मुहं, पोसए, पाऊ । ४. आयारो ४ । ४५ । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगभाष्यम् उक्तञ्च निशीथभाष्यचूणौं रागो त्ति वा संगो निशीथभाष्यचूणि में राग और संग को एकार्थक माना है। त्ति वा एगट्ठा। अहवा कम्मजणितो जीवभावो रागो, अथवा कर्मों से उत्पन्न जीव का भाव राग है और वही भाव जब कर्मों कम्मुणा सह संजोययंतो स एव संगो तुत्तो।' के साथ संयोग कराता है तब वह संग कहलाता है। ७. सीओसिणच्चाई से निग्गंथे अरइ-रइ-सहे फरुसियं णो वेदेति । सं०-शीतोष्णसहः स निर्ग्रन्थः अरतिरतिसहः परुषतां नो वेदयति । निफ्रन्थ सर्दी और गर्मी को सहन करता है। वह अरति-संयम में होने वाले विषाद और रति-असंयम में होने वाले आह्लाद को सहन करता है, उनसे विचलित नहीं होता । वह कष्ट का वेदन नहीं करता। भाष्यम् ७–शीतं-अनुकूला परिस्थितिः, उष्णम्- शीत का अर्थ है --अनुकूल परिस्थिति और उष्ण का अर्थ हैप्रतिकूला परिस्थितिः। य एतां द्वयीं परिस्थिति सहते प्रतिकूल परिस्थिति । जो इन दोनों प्रकार की परिस्थितियों को सहन स अरतिरतिसहो निर्ग्रन्थः क्वचनापि परुषतां न करता है, वह अरति और रति को सहन करने वाला निर्ग्रन्थ कहीं भी वेदयति। भाववैचित्र्यात साधकस्यापि चित्ते कदाचित् कष्ट--दुःख का वेदन नहीं करता। भावों के उथल-पुथल के कारण असंयमे रतिरुत्पद्यते संयमे च अरतिः । य एतद् युगलं साधक के मन में भी कभी असंयम के प्रति रति-अनुरक्ति और संयम प्रति सहिष्णुर्भवति तस्य परुषतायाः संवेदनं नहि भवति, के प्रति अरति-विरक्ति हो सकती है। जो इस युगल—अनुकूल और न च संयमे भारानुभूतिर्भवति', न च ग्रन्थिपातोऽपि प्रतिकूल परिस्थिति के प्रति सहिष्णु होता है उसको कष्ट का संवेदन जायते। नहीं होता, संयम में भार की अनुभूति नहीं होती और न उसमें ग्रंथिपात ही होता है। शीतका ८. जागर-वेरोबरए वीरे। सं०-जागरः वैरोपरतः वीरः । जागृत और वैर से उपरत व्यक्ति वीर होता है। भाष्यम् -जागर: वैराद् उपरतश्च पुरुषः वीरो जो जागृत है, वैर से उपरत है, वह पुरुष वीर है। यहां वीर भवति । अत्र वीरस्य लक्षणद्वयं प्रतिपादितम् । सुप्तः के ये दो लक्षण प्रतिपादित हैं। जो पुरुष सुप्त है वह कुछ भी पुरुषो न किञ्चिद् विशिष्टं ईरयति, तेन वीरोन विशिष्ट पुरुषार्थ नहीं करता, इसलिए वह वीर नहीं होता। जो जीवों भवति । जीवेषु शत्रुभावमापन्नोऽपि न वीरो भवितु- के प्रति शत्रुता का भाव रखता है, वह भी बीर नहीं हो सकता। मर्हति । हिंसा परिग्रहश्च वैरहेतुत्वमापद्यते । ताभ्यामन- वैरभाव के हेतु दो हैं-हिंसा और परिग्रह । जो पुरुष इन दोनों हेतुओं परतः न काञ्चिद् विशिष्टां प्रेरणां विदधाति । तेन से उपरत नहीं होता वह कुछ भी विशेष प्रेरणा नहीं दे सकता, कुछ जागरत्वं मैत्री च वीरस्य लक्षणे भवतः । भी विशेष नहीं कर सकता । इसलिए जागरण और मैत्री-ये दो लक्षण वीर पुरुष के होते हैं। ६. एवं दुक्खा पमोक्खसि । सं०-एवं दुःखात् प्रमोक्ष्यसि । हे वीर ! तू इस प्रकार जागरूकता और मैत्री के प्रयोग द्वारा दुःखों से मुक्ति पा जाएगा। भाष्यम् ९–एवं जागरभावेन तत्परिणामभूतेन इस प्रकार जागृतभाव तथा उसके परिणामभूत मित्रभाव से मित्रभावेन च दु:खमुक्तिः शक्या भवति । सुप्तः पुरुषः दुःखमुक्ति हो सकती है । जो पुरुष सुप्त है, वह सभी जीवों का अमित्र १. निशीथभाष्यचूणि, भाग ३, पृष्ठ १९० । फारुसयं ण वेदेति, जहा भारवाहो अभिक्खणं भारवहणेण २. आचारांग चूणि, पृष्ठ १०७ : चाएति साहति सक्केइ जितकरणत्तेण य गुरुयमवि भारं ण वेदयति, ण वा तस्स वासे हि तुहाएति वा धाडेति वा एगट्ठा। भारस्स उब्विययति, सो एवं फारुसयं अवेदंतो। ३. वही, पृष्ठ १०७ : फरुसियं-संजमो, ण हि फरुसत्ता ४. आप्टे, परुषः-Knotted; परुस्-A Joint, Knot संजमे तवसि वा कम्माणि लग्गति अतो संजमं तवं वा (प्रथिः )। Jain Education international Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ३. शीतोष्णीष, उ० १.७-१४ सर्वेषां जीवानां अमित्रो भवति । तादृशः दुःखपरम्परां जनयति । न ततो मोक्षं लभते । अतः जागरभावः अत्यन्तमुपादेयः । तस्मिन् सति पुरुष हिंसायां परिग्रहे च न प्रवर्तते । १०. जरामच्चुवसोवणीए गरे, सययं मूढे धम्मं नाभिजाणति । सं० - जरामृत्युवशोपनीतः नरः सततं मूढः धर्मं नाभिजानाति । बुढापे और मृत्यु से परतन्त्र तथा मोह से सतत मूढ बना हुआ मनुष्य धर्म को नहीं जानता । । भाव्यम् १० – असी पुरुषः जरसा मृत्युना च वशं उपनीतोऽस्ति तथापि भावतः सततं सुप्तः मूढो भवति । तादृशः धर्मं नाभिजानाति । कर्मक्षयकारणं धर्मः । तस्य सम्यक् परिज्ञानं नहि भवति । भाष्यम् ११ जागृतः पुरुषः भावसुप्तान् मनुष्यान् शारीरिक-मानसिक दुःखैः आतुरीभूतान् अथवा कामातुरान् भयातुरान् वा दृष्ट्वा अप्रमत्तः - नित्य जागृतः परिव्रजति । ११. पासिय आउरे पाणे, अध्यमलो परिव्वए । सं० दृष्ट्वा बारान् प्राणान् अप्रमतः परिव्रजेत्। सुप्त मनुष्यों को आतुर देखकर जागृत पुरुष निरन्तर अप्रमत्त रहे । १२. मंता एवं मइमं ! पास । सं० - मत्वा एतत् मतिमन् ! पश्य । मतिमन् ! तू मननपूर्वक इसे देख । भाष्यम् १२ -- भावसुप्तस्य एते अपायाः भवन्ति, एतत् मत्वा मतिमन् ! जागरणं च हिताय भवति । १६७ होता है वैसा पुरुष दुःख की परंपरा को जन्म देता है। वह उससे मुक्त नहीं हो पाता। इसलिए जागरण अवस्था अत्यन्त उपादेय है। उसके होने पर पुरुष हिंसा और परियह में प्रवृत्त नहीं होता । भाष्यम् १३. - आरम्भ :- असंयमः हिंसादिजनिता प्रवृत्तिर्वा जगति यत्किञ्चिद् दुःखमस्ति तत्सर्व आरम्भजं विद्यते इति ज्ञात्वा निरारम्भो भव, धर्मजागरिकां कुरु । १४. माई पमाई पुणरेइ गन्भं । यह पुरुष बुढापे और मृत्यु से परतन्त्र है । फिर भी भावतः सतत सुप्त होने के कारण वह मूढ होता है। पैसा व्यक्ति धर्म को नहीं जानता । धर्म है— कर्मों को क्षीण करने का हेतु । मूढ व्यक्ति में उसका सम्यक् परिज्ञान नहीं होता । सं० यावी प्रमादी पुनरेति गर्भम् । मायी और प्रमादी मनुष्य बार-बार जन्म लेता है । स्वं पश्य स्वपनमहिताय तू देख सोना अहितकर होता है और जागना हितकर 2 १३. आरंभजं दुःखमिणं ति णच्चा । सं० - आरंभजं दुःखमिदं इति ज्ञात्वा । दुःख आरम्भ से उत्पन्न है- यह जानकर तू सतत अप्रमत्त रहने का अभ्यास कर । जामृत पुरुष भावसुप्त मनुष्यों को शारीरिक और मानसिक दुःखों से आतुरीभूत-आकुल व्याकुल अथवा कामातुर अथवा भयातुर देखकर अप्रमत्त- सदा जागृत रहकर परिव्रजन करता है। भावसुप्त पुरुष के ये दोष होते हैं- यह मानकर हे मतिमन् ! आरंभ का अर्थ है- असंयम अथवा हिंसा आदि से उत्पन्न इस संसार में जो कुछ भी दुःख है, वह सारा आरंभ से उत्पन्न है-- यह जानकर तुम निरारम्भ बनो, धर्म- जागरिका करो । प्रवृति Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगभाष्यम् भाष्यम् १४-धर्मस्य निष्पत्तिरस्ति अमृतोपलब्धिः , धर्म की निष्पत्ति है-अमरत्व की उपलब्धि, जहां पुरुष न जन्मता यत्र पुरुषो न जायते, न म्रियते। पूर्वापरशरीराभ्यां है और न मरता है। पूर्व शरीर का वियोग और दूसरे शरीर का योग वियोगयोगौ संसारः । तत्र पुनरपि जन्म पुनरपि ही संसार है। वहां बार-बार जन्म और बार-बार मृत्यु का चक्र मृत्यूरिति चक्र विद्यते। पुनर्जन्मनः कारणं निर्दिशति चलता रहता है। सूत्रकार इसका कारण निर्दिष्ट करते हैं-मायावी सत्रकार:-मायी प्रमादी पुरुषः पुनर्गर्भमायाति। और प्रमादी पुरुष बार-बार जन्म लेता है । मायावी का अर्थ है-वह मायी-विषयकषायवासितचेताः। तस्य परिणामशुद्धिर्न पुरुष जिसका चित्त विषय और कषाय से संस्कारित है । उस व्यक्ति के जायते । प्रमादी च नोचितमाचरणं कर्तमर्हति । तेन स परिणामों की शुद्धि नहीं होती। प्रमादी पुरुष उचित आचरण नहीं कर पुनः पूनर्जन्म गलाति। यस्य जन्म तस्य निश्चितं सकता। इसलिए वह बार-बार जन्म ग्रहण करता है। जिसका जन्म मृतत्वम् । होता है, निश्चित ही उसकी मृत्यु होती है। १५. उवेहमाणो सद्द-रूवेसु अंजू, माराभिसंकी मरणा पमुच्चति । सं०--उपेक्षमाणः शब्दरूपेषु ऋजुः, माराभिशङ्की मरणात् प्रमुच्यते । शब्द और रूप की उपेक्षा करने वाला ऋजु होता है। जो मृत्यु से आशंकित रहता है, वह मृत्यु से मुक्त हो जाता है। भाष्यम १५-शब्दान रूपाणि च उपेक्षमाण : जो शब्द और रूप-इन इन्द्रिय विषयों की उपेक्षा करता है अनातूरो भवति, न इष्टानिष्ट विषयेषु रागद्वेषौ करोति, वह अनातुर होता है, अव्याकुल होता है। वह इष्ट-अनिष्ट विषयों के न च तदर्थं कञ्चिद् व्यापार करोति । अनया प्रति राग-द्वेष नहीं करता और न वह उनके लिए किसी प्रकार की अव्यापारात्मकोपेक्षया स ऋजुर्भवति । तादृशः पुरुषः प्रवृत्ति ही करता है। इस अप्रवृत्त्यात्मक उपेक्षाभाव से वह ऋजु होता मारं-मृत्यु अभिशंकमानः मरणात् प्रमुच्यते, अमृतत्व- है। वैसा व्यक्ति मार-मृत्यु की आशंका रखता हुआ मरण से मुक्त हो माप्नोतीति तात्पर्यम् । मृत्योर्भयं अमृतत्वस्य महत्त्वपूर्ण- जाता है । इसका तात्पर्य है कि वह अमरत्व को पा लेता है । अमरत्व मालम्बनमस्ति। की प्राप्ति का महत्त्वपूर्ण आलम्बन है-मृत्यु का भय । १६. अप्पमत्तो कामेहि, उवरतो पावकम्मेहि, वीरे आयगुत्ते जे खेयण्णे । सं०--अप्रमत्तः कामेषु उपरत: पापकर्मेभ्यः वीरः आत्मगुप्तः य: क्षेत्रज्ञः । जो क्षेत्रज्ञ होता है वह कामनाओं के प्रति अप्रमत्त, असंयत प्रवृत्तियों से उपरत, वीर और आत्मगुप्त-अपने आप में सुरक्षित होता है। भाष्यम् १६-क्षेत्रज्ञः पुरुषः स्वपराक्रमेण अमृतत्व- क्षेत्रज्ञ पुरुष अपने पराक्रम से अमरत्व को प्राप्त कर लेता है। माप्नोति । क्षेत्रम्-शरीरम्, कामः, इन्द्रियविषयाः, क्षेत्र शब्द के पांच अर्थ हैं-शरीर, काम, इन्द्रिय-विषय, हिंसा, और हिंसा, मनोवाक्कायप्रवृत्तिश्च' । यः पुरुषः एतत्सर्वं मन-वचन-काया की प्रवृत्ति । जो पुरुष इन सबको जानता है वह क्षेत्रज्ञ जानाति स क्षेत्रज्ञो भवति । सः कामान् प्रति अप्रमत्तः होता है । वह कामनाओं के प्रति अप्रमत्त अथवा साबधान (जागरूक), अवहितो वा भवति, हिंसादिपापकर्मभ्यः उपरत:, हिंसा आदि पापकर्मों से उपरत, संयमवीर्य से वीर तथा मन, वचन संयमवीर्येण वीरः, मनोवाक्कायैश्च आत्मगुप्तो जायते। और शरीर से आत्मगुप्त हो जाता है । १. (क) गीता, १३।१-६ इदं शरीरं कौन्तेय ! क्षेत्रमित्यभिधीयते। एतद् यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः ॥ क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत! क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोनिं यत् तज्ज्ञानं मतं मम ॥ तत्क्षेत्रं यच्च यादृक् च यद् विकारि यतश्च यत् । स च यो यत् प्रभावश्च तत् समासेन मे शृणु ॥ ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिविविधैः पृथक् । ब्रह्मसूत्रपदंश्चव हेतुमभिर्विनिश्चितैः॥ महाभूतान्यहंकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च । इन्द्रियाणि दशकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः ॥ इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं संघातश्चेतना धृतिः । एतत् क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् ।। (ख) तुलना, गीता १३१७-११। (ग) द्रष्टव्यम्-आयारो, ४॥२ भाष्यम् । Jain Education international Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ अ० ३. शीतोष्णीय, उ० १. सूत्र १५-१६ १७. जे पज्जवजाय-सत्थस्स खेयण्णे, से असत्थस्स खेयण्णे । जे असत्थस्स खेयण्णे, से पज्जवजाय-सत्थस्स खेयण्णे। सं०-यः पर्यवजातशस्त्रस्य क्षेत्रज्ञः स अशस्त्रस्य क्षेत्रज्ञः । यः अशस्त्रस्य क्षेत्रज्ञः स पर्यवजातशस्त्रस्य क्षेत्रज्ञः । जो विषयों के विभिन्न पर्यायों में होने वाले शस्त्र-असंयम को जानता है, वह अशस्त्र-संयम को जानता है । जो अशस्त्र-संयम को जानता है, वह विषयों के विभिन्न पर्यायों में होने वाले शस्त्र-असंयम को जानता है । भाष्यम् १७-शब्दरूपादिविषयेषु प्रवृत्तिरसंयमः शब्द, रूप आदि इन्द्रिय-विषयों के प्रति होने वाली प्रवृत्ति तन्निवृत्तिश्च संयमः । एतौ द्वावपि ज्ञातव्यौ स्तः। असंयम है और उसकी निवृत्ति संयम है। असंयम और संयम-दोनों शब्दादिविषयाणां पर्यवसमूहाः जागतिभावं हिंसन्ति । को जानना आवश्यक है । शब्द आदि विषयों के विभिन्न पर्याय जागृति अतस्ते शस्त्रं भवन्ति । तेषां निग्रहश्च अशस्त्रम् । यः को नष्ट कर डालते हैं। इसलिए वे शस्त्र हैं । उनका निग्रह करना पर्यवजातशस्त्रस्य-असंयमस्य क्षेत्रज्ञो भवति, स एव अशस्त्र है। जो इस पर्यवजातशस्त्र-असंयम को जानता है, वही अशस्त्रस्य-संयमस्य क्षेत्रज्ञो भवति। यः अशस्त्रस्य अशस्त्र-संयम को जानता है। जो अशस्त्र--संयम को जानता है, क्षेत्रज्ञो भवति, स एव पर्यवजातशस्त्रस्य क्षेत्रज्ञो भवति। वही पर्यवजातशस्त्र-असंयम को जानता है। इसका तात्पर्य है कि तात्पर्यमिदम्-यावद् असंयमस्य तत्त्वं ज्ञातं नहि भवति, जब तक असंयम को नहीं जाना जाता तब तक संयम को जानना तावत् संयमस्य तत्त्वं ज्ञातुं दुश्शकम् । यावत् संयमस्य कठिन होता है । जब तक संयम को नहीं जाना जाता तब तक असंयम तत्त्वं ज्ञातं नहि भवति, तावद् असंयमस्य तत्त्वमपि को भी सम्यग् रूप से नहीं जाना जा सकता। दोनों का ज्ञान एक दूसरे सम्यक्तया ज्ञातं नहि भवति । द्वयोरपि ज्ञानं अन्योन्यं पर अबलम्बित है। यह विकासक्रम निम्न दो श्लोकों से सुबोध हो निश्रितमस्ति । अयं विकासक्रमः श्लोकद्वयेन सुगम्यो जाता हैभवतियथा यथा समायाति, संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम् । जैसे-जैसे बुद्धि में उत्तम तत्त्वों का समावेश होता है, तथा तथा न रोचन्ते, विषयाः सुलमा अपि ॥ वैसे-वैसे सुलभता से प्राप्त विषय भी रुचिकर नहीं लगते । यथा यथा न रोचन्ते, विषया: सुलमा अपि । जैसे-जैसे सुलभता से प्राप्त विषय रुचिकर नहीं लगते, तथा तथा समायाति, संवित्तौ तस्वमुत्तमम् ॥' वैसे-वैसे बुद्धि में उत्तम तत्त्वों का समावेश होता रहता है। १८. अकम्मस्स ववहारो न विज्जइ। सं०-अकर्मणः व्यवहारो न विद्यते । कर्ममुक्त (शुद्ध) आत्मा के लिए कोई व्यवहार नहीं होता-नाम और गोत्र का व्यपदेश नहीं होता। भाष्यम् १८-कर्मणि क्षीणे पुरुषः अकर्मा भवति । कर्मों के क्षीण होने पर पुरुष अकर्मा हो जाता है। अकर्मा अकर्मणः व्यवहारो न विद्यते। व्यवहारः-व्यपदेशः के लिए कोई व्यवहार नहीं होता । व्यवहार का अर्थ है-व्यपदेशविभागो वा । यथा-नैरयिकः, तिर्यग्योनिकः, मनुष्यः, कथन अथवा विभाग। जैसे-यह नैरयिक है, तिर्यग्योनिक देवो वा । एवं बालः, कुमारः, युवा, वृद्धो वा । अमुक- है, मनुष्य है अथवा देव है। इसी प्रकार यह बाल है, कुमार है, युवा नामकः अमुकगोत्रो वा। है या वृद्ध है। अथवा यह अमुक नाम वाला है, अमुक गोत्रवाला सकर्मणस्तु व्यवहारो विद्यते इति सूत्रकारः स्वयं निदिशति । सकर्मा व्यक्ति के लिए व्यवहार-व्यपदेश होता है-यह स्वयं सूत्रकार निर्दिष्ट करते हैं। १६. कम्मुणा उवाही जायइ । सं०-कर्मणा उपाधिः जायते । उपाधि कर्म से होती है। १. इष्टोपदेश (पूज्यपादकृत), श्लोक ३७,३८ । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० भाष्यम् १९ -- उपाधिः व्यवहारः व्यपदेश: विशेषणं वा । स च कर्मणा जायते। सुखी, दुःखी, सवीर्य निवयः इत्यादयः सर्वे व्यपदेशाः कर्मसम्बद्धा वर्तन्ते ।" २०. कम्मं च पडिलेहाए । सं० - कर्म च प्रतिलिख्य । कर्म का निरीक्षण कर । भाष्यम् २० --- कर्मणा उपाधिर्जायते । तेन तस्य प्रतिलेखा कर्तव्या । कर्मसंभवो बन्धः प्रकृतिस्थित्यनुभाग - प्रदेशात्मकः । तस्य पर्यालोचनाकरणेन कर्मपरम्परायाः सम्यम् अवबोधो जायते। तेन एतज्ज्ञातं भवति- २१. कम्ममूलं च जं छणं । सं० - कर्ममूलं च यत् क्षणं । हिंसा का मूल कर्म है। कर्म भाष्यम् २१ - क्षणः - हिंसा । तस्वा मूलगे विद्यते हिंसायाः मूलं परिस्थितिरसायनादिनिमित्तेषु अन्विष्यते । परन्तु तस्या मूलं कारणं कर्म विद्यते यस्य कर्मण उदयेन जीवो हिंसायां प्रवर्तते तस्य नामास्ति प्राणातिपातस्थानम् । समायाय । सं० - प्रतिलिख्य सर्व समादाय । २२. पडिलेहियस पुरुष कर्म का निरीक्षण कर इस सत्य को स्वीकार करे । २३. हि तेहि अदिस्समाणे । आचारांग भाष्यम् उपाधि का अर्थ है - व्यवहार, व्यपदेश या विशेषण । वह कर्म से होती है। सुखी दु.बी, सवीर्य निवर्य आदि सारे व्यपदेश कम से सम्बद्ध हैं । भाष्यम् २२ – उक्तपद्धत्या कर्मणां प्रतिलेखनां कृत्वा उक्त पद्धति से कर्मों का निरीक्षण कर, 'राग और द्वेष कर्म के सर्वस्य - सत्यस्य समादानं कर्त्तव्यं - रागो द्वेषश्च कर्मबीजं बीज हैं' —— इस सत्य को ग्रहण करना चाहिए। इस सत्य का ग्रहण करने विद्यते इति समावाने सति पर 1 १. चूर्णिकारेण उपधिपदं व्याख्यातम् उबही तिविहोआतोवही सरीरोबहि, कम्मोबहि, सत्य अप्पा गुप्पउतो आयवधी, ततो कम्मुवही भवति, सरीरोवहीओ ववहरिज्जति, जहा - नेरइयसरीरो ववहारेण उ मेरो एवमादि, तहा बालकुमाराति, भणियं च 1 'कर्मणो जायते कम्मं ततः संजायते भवः । भवाच्छरीरदुःखं च ततश्चान्यतरो भवः ॥' (आचारांग चूर्णि पृष्ठ १०९, ११० ) कर्म से उपाधि होती है, इसलिए कर्म का निरीक्षण करना चाहिए। कर्म से ही बंध होता है । वह चार प्रकार का है - प्रकृतिबंध, स्थितिबंध अनुभागबंध और प्रदेशबंध उसकी पर्यालोचना करने से कर्म की परम्परा का सम्यग् अवबोध होता है। उससे यह ज्ञात होता है 1 क्षण का अर्थ है— हिंसा । हिंसा का मूल है कर्म । व्यक्ति परिस्थिति तथा रसायन बादि निमितों में हिंसा के मूल को ढूंढता है। किन्तु उसका मूल कारण है-कर्म जिस कर्म के उदय से जीव हिसा में प्रवृत्त होता है, उस कर्म का नाम है-प्राणातिपातपापस्थान । सं० - द्वाभ्यां अन्ताभ्यां अदृश्यमानः । वीतराग पुरुष राग और द्वेष—इन दोनों अंतों से अदृश्यमान होता है। उपाधिः उपधिश्च - द्वे पदे समानार्थके अपि विद्यते । २. तुलना - आयारो, २०१८५ । ३. आचारांग चूर्णि, पृष्ठ ११० मूलंति वा प्रतिष्ठानंति वा हेतुति वा एगट्ठा । ४. प्रस्तुतसूत्रे 'सव्वं' इति पदस्य न कोप्यर्थः परिभाव्यते । अस्य स्थाने 'सच्च' इति पाठ: संभाव्यते । प्राचीनलिप्यां वकारच कारयोः सादृश्यात् विपर्ययो जातः इति संभवति । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ३. शीतोष्णीय, उ० १-२. सूत्र २०-२६ १७१ भाष्यम २३-पुरुष: द्विविधो भवति-रागचरितः पुरुष दो प्रकार के होते हैं-राग का आचरण करने वाले और द्वेषचरितश्च । तत्र रागी रागेण दृश्यते, द्वेषी द्वेषेण द्वेष का आचरण करने वाले । रागी राग से पहचाना जाता है और दृश्यते । वीतरागः पुरुषः एताभ्यां द्वाभ्यामपि न दृश्यते। द्वेषी द्वेष से पहचाना जाता है। वीतराग पुरुष इन दोनों से नहीं तस्य न रागजनिताः प्रवृत्तयः प्रत्यभिज्ञानं भवन्ति, न च पहचाना जाता ! उसकी पहचान न रागयुक्त प्रवृत्तियों से और न द्वेषजनिताः । अत एव स एताभ्यामन्ताभ्यां अदृश्यमानो द्वेषजनित प्रवृत्तियों से होती है। इसलिए वह इन दोनों अन्तों से भवति । अदृश्यमान होता है। अन्तः--स्वभावो निश्चयो वा। अन्त का अर्थ है-स्वभाव अथवा निश्चय । २४. तं परिणाय मेहावी। सं०-तं परिज्ञाय मेधावी। राग-द्वेष अहितकर हैं, यह जानकर मेधावी उनका अपनयन करे। भाष्यम् २४.--स्वपनमहिताय भवति जागरणञ्च सोना अहित के लिए होता है और जागना हित के लिए यह हिताय इति परिज्ञाय मेधावी जागरणार्थं रागद्वेषापनो- जानकर मेधावी मुनि जागरण के लिए अथवा राग-द्वेष के अपनयन के दाय वा प्रयतेत । लिए प्रयत्न करे। २५. विदित्ता लोगं, वंता लोगसण्णं से मइमं परक्कमेज्जासि । -त्ति बेमि । सं०-विदित्वा लोक वान्त्वा लोकसंज्ञां स मतिमान पराक्रमेत । -इति ब्रवीमि । मतिमान पुरुष विषयलोक को जानकर, लोकसंज्ञा-विषयासक्ति को त्याग कर संयम में पराक्रम करे। ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् २५–मतिमान् जागरणदिशायां पराक्रमेत । मतिमान् पुरुष जागरण की दिशा में पराक्रम करे । इसके लिए एतत्कृते लोकस्य ज्ञानं लोकसंज्ञायाश्च परित्यागः लोक का ज्ञान और लोकसंज्ञा का परित्याग अपेक्षित होता है। जब अपेक्षामर्हति । यावत् कषायलोकस्य तद्विपाकस्य च तक कषायलोक तथा उसके विपाक का सम्यक् अवबोध नहीं होता, सम्यक् परिज्ञानं नहि भवति, तावत् अस्यां दिशायां तब तक इस दिशा में पराक्रम नहीं किया जा सकता। लोकसंज्ञा का पराक्रमोन घटते । लोकसंज्ञा--लोकप्रवाहसम्मता विष- अर्थ है-लोकप्रवाह सम्मत विषयों की ओर दौड़ने की मनोवृत्ति । याभिमुखता यावत् वान्ता न स्यात् तावत् कुतो जब तक वह छोड़ी नहीं जाती तब तक जागरण की दिशा में प्रयत्न जागरणाभिमुखः प्रयत्नो भवेत् ?' कहां से हो सकता है ? बीओ उद्देसो : दूसरा उद्देशक २६. जातिं च वुट्टि च इहज्ज ! पासे। सं०-जाति च वृद्धि च इह आर्य ! पश्य । हे आर्य! तू संसार में जन्म और जरा को देख । १. तुलना-अंगसुत्ताणि 1, सूयगडो २०११५४ : जे खलु गारत्या सारंमा सपरिग्गहा, संतेगइया समणा माहणा वि सारंमा सपरिग्गहा दुहमओ पावाइं कुव्वंति, इति संखाए दोहि वि अंतेहि अविस्समाणो। २. तुलना-आयारो १५९ । Jain Education international Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ आचारांगभाव्यम् भाष्यम् २६-भगवान् गौतमं प्रत्याह-इह- भगवान् महावीर ने गौतम से कहा--आर्य ! तुम मनुष्य जन्म मनुष्यजन्मनि आर्य! जाति वृद्धि च पश्य । जातिः- में जाति और वृद्धि को देखो ! जाति का अर्थ है-जन्म और वृद्धि का प्रसूतिः । वृद्धिः-जरा। मनुष्यः प्रसूतिकाले नवजातो अर्थ है-जरा । मनुष्य जन्मते समय नवजात शिशु होता है और जरा भवति, जरावस्थायाञ्च स वृद्धो भवति मृत्युञ्च अवस्था में बूढा हो जाता है और फिर मर जाता है। इन दोनों गच्छति। एतस्मिन् अवस्थाद्वयेऽपि स दुःखमनुभवति । अवस्थामों में भी वह दुःख का अनुभव करता है। इसीलिए उसकी तेनैव तस्य पौर्वापर्यस्मृतिविलुप्ता भवति । उक्तञ्च- पौर्वापर्य-आगे-पीछे की स्मृति विलुप्त हो जाती है । कहा हैजातमाणस्स जं दुक्खं, मरमाणस्स जंतुणो । 'जन्मते और मरते समय प्राणी को सघन दुःख होता है । उस तेण दुक्खेण संमूढो, जाति ण सरति अप्पणो ।' दुःख में मूच्छित होकर वह प्राणी अपने पूर्वजन्म की स्मृति नहीं कर पाता।' २७. भूतेहिं जाण पडिलेह सातं । सं०-भूतेषु जानीहि प्रतिलिख सातम् । तू जीवों के कर्म-बंध और कर्म-विपाक को जान तथा उनके सुख-दुःख को देख । भाष्यम् २७–कर्मास्ति दुःखम् । किं हेतुकं कर्म? कर्म दुःख है । कर्म का हेतु क्या है ? इसकी गवेषणा का इति गवेषणायां सर्वप्रथमं कर्मस्वरूपावबोधः करणीयः। पहला बिन्दु है-कर्म के स्वरूप को जानना । कर्म का बंध कैसे होता कथं कर्मणो बन्धो जायते, कथञ्च तस्य विपाको है ? उसका विपाक कैसे होता है ? इसकी जानकारी करनी चाहिए। जायते इत्यभिगमः कार्यः। ततश्च कर्महेतुभूतस्य उसके पश्चात् कर्म बंध के हेतुभूत आश्रव का तथा कर्म का क्षय कैसे हो आश्रवस्य कर्मणश्च क्षयः कथं स्याद् इति अन्वेष्टव्यम् ।' सकता है- इसका अन्वेषण करना चाहिए। २८. तम्हा तिविज्जो परमंति णच्चा, समत्तदंसी ण करेति पावं । सं०-तस्मात् त्रिविद्यः परममिति ज्ञात्वा समत्वदर्शी न करोति पापम् । इसलिए तीन विद्याओं का ज्ञाता समत्वदर्शी अथवा सम्यक्त्वदर्शी पुरुष परम को जानकर पाप नहीं करता। भाष्यम २६-परम:--जीवस्य पारिणामिको भाव: परम का अर्थ है-जीव का पारिणामिकभाव अथवा मोक्ष । १. आचारांग चूणि, पृष्ठ १११ । २. २६ सूत्रे 'जाति-वुद्धि' इति पदाभ्यां पूर्वजन्मविद्यायाः जन्ममरणविद्यायाश्च सूचना कृतास्ति । २७ सूत्रे 'भूतेहिं जाण' इति वाक्येन जीवस्वरूपावबोधविद्या कर्मविद्या वा सूचितास्ति । जीवकर्मणोः अन्योन्यानुप्रवेशेन सर्वथा भेदो नाभ्युपगम्यः'अण्णोण्णाणुगयाणं 'इमं व तंव' त्ति विभयणमजुत्तं । जह बुद्धपाणियाणं जावंत विसेसपज्जाया ।' [सन्मतितर्क ११४७] 'पडिलेह सातं' इति वाक्येन आस्रवस्य कर्मणश्च क्षयविद्यायाः सूचनं कृतम् ।। ३. आलापपद्धती एकादशसामान्यस्वभावा निरूपिताः सन्ति । स्वभावाः कथ्यन्ते-अस्तिस्वभावः, नास्तिस्वभावः, नित्यस्वभावः, अनित्यस्वभावः, एकस्वभावः, अनेकस्वभावः, भेदस्वभावः, अभेवस्वभावः, भव्यस्वभाव', अभव्यस्वभावः, परमस्थभावः इति द्रव्याणामेकादशसामान्यस्वभावाः । [आलापपद्धति, देवसेनविरचित, नयचक्र पृ० २४३] सर्वाण्यपि द्रव्याणि पारिणामिकभावप्रधानानि भवन्तीति तेषां परमः-पारिणामिको भावः सामान्यस्वभावः। चैतन्यस्य पारिणामिको भावः जीवस्य परमः स्वभावो भवति । अत एव समयप्राभृते नयचक्रे च परमः स्वभावः ध्येय उक्तः-ततो ज्ञायते शुद्ध पारिणामिकभावो ध्येयरूपो भवति । कस्मात् ? ध्यानस्य विनश्वरत्वात् । [समयप्राभृत गा० ३२०, जयसेनटीका] 'हेया कम्मे जणिया भावा, खयजा हु मुणसु फलरूवा। झेओ ताणं भणिओ परमसहावो हु जीवस्स ॥' [नयचक्र, मायल्लधवलविरचित, गा० ७६] 'सम्वेसि सब्भावो जिणेहि खलु पारिणामिओ मणिओ। तम्हा णियलाहत्थं जोओ इह पारिणामिओ भावो ।' [नयचक्र, गाथा ३७६] नयचक्र में पारिणामिकभाव के लिए 'परम' शब्द का ही प्रयोग किया गया है-'ओदयियं उवसमियं खयउवसमियं च खाइयं परमं ।' [नयचक्र, गाथा ३७०] Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३ अ० ३. शीतोष्णीय, उ० २. सूत्र २७-३१ मोक्षो वा । यावत् जीवः परमसद्भावस्य भावनां न जब तक जीब परमसद्भाव की भावना नहीं करता, तब तक वह दुःखकरोति तावद् दुःखमुक्तो न भवति । तं ज्ञात्वा त्रिविद्यः मुक्त नहीं होता। उसको जानकर त्रिविद्य समत्वदर्शी अथवा समत्वदर्शी सम्यक्त्वदर्शी वा भवति । स च पापं न सम्यक्त्वदर्शी होता है। वह पाप नहीं करता। बह ऐसा आचरण करोति । आश्रवस्य कर्मणश्च यतो वृद्धिः स्यात् तन्ना- नहीं करता जिससे आश्रव और कर्म की वृद्धि होती हो। तीन चरति । पूर्वजन्मज्ञानं जन्ममरणयोर्ज्ञानं आस्रवक्षयज्ञानं विद्याएं हैं-(१) पूर्वजन्म का ज्ञान, (२) जन्म-मरण का ज्ञान, चेति तिस्रो विद्याः। एतासां विद्यानां ज्ञाता त्रिविद्यो (३) आम्रव-क्षय का ज्ञान । जो इन तीनों विद्याओं का ज्ञाता होता भवति । है, वह 'त्रिविध' कहलाता है। २६. उम्मच पासं इह मच्चिएहिं । सं.-उन्मुञ्च पाशं इह मत्यैः । मनुष्यों के साथ होने वाले पाश --प्रेमानुबंध का विमोचन कर। भाष्यम् २९-हे पुरुष ! त्वं इह मनुष्यैः संजायमानं हे पुरुष ! तू इस संसार में मनुष्यों के साथ होने वाले पाश पाशं मुञ्च । पाश:--बन्धनम् । रागादयः पाशाः का विमोचन कर। पाश का अर्थ है-बन्धन । राग आदि बंधन भवन्ति । उत्तराध्ययने लभ्यते-णेहपासा भयंकरा। हैं। उत्तराध्ययन में कहा है-'स्नेहबंधन भयंकर होता है।' ३०. आरंभजीवी उ भयाणुपस्सी। सं०-आरम्भजीवी तु भयानुदर्शी। आरंभजीवी मनुष्य भय को देखता है । भाष्यम् ३०-कामार्थ मनुष्यः आरम्भे प्रवर्तते । यः कामनाओं की पूर्ति के लिए मनुष्य हिंसा में प्रवृत्त होता है । आरम्भजीवी भवति स भयं अनुपश्यति । महारम्भ- जो हिंसाजीवी होता है वह सर्वत्र भय देखता है। हम यह प्रत्यक्ष महापरिग्रहयोः प्रवृत्तस्य बन्ध-वध-रोध-मरणावसानानि अनुभव करते हैं कि जो मनुष्य महान आरंभ और महान् परिग्रह में भयानि जायन्ते इति प्रत्यक्षमेव । प्रवृत्त होता है वह बंध, वध, अवरोध तथा मृत्यु के भय से आतंकित रहता है। ३१. कामेसु गिद्धा णिचयं करेंति, संसिच्चमाणा पूणरेंति गम्भ। सं०-कामेषु गृद्धाः निचयं कुर्वन्ति, संसिच्यमानाः पुनर्यन्ति गर्भम् । कामों में आसक्त मनुष्य संचय करते हैं । संचय को आसक्ति का सिंचन पाकर वे बार-बार जन्म को प्राप्त होते हैं । भाष्यम् ३१-निचयो द्विविधः-स्वर्णादिपदार्थानां संचय दो प्रकार का होता है-स्वर्ण आदि पदार्थों का संचय निचयः कर्मणां निचयश्च । तस्य कारणमस्ति कामेषु और कर्मों का संचय । संचय का मूल कारण है-कामनाओं में होने जायमाना गृद्धिः। द्विविधोऽपि निचयः मूर्छाभावेन वाली आसक्ति । दोनों प्रकार के संचयों का जनक है-मूर्छाभाव । जन्यते । ये निचयजनके भावे प्रवर्तन्ते ते तादृशेन भावेन जो पुरुष संचय के जनक मूर्छाभाव में प्रवृत्त होते हैं वे उस मूर्छाभाव संसिच्यमानाः पुनर्गर्भमायान्ति । यथा महामेघेन का अत्यधिक सिंचन पाकर बार-बार जन्म को प्राप्त होते हैं। जैसे संसिच्यमानानि बीजानि अङ कुरितानि भवन्ति । महामेध से सिंचित होकर बीज अंकुरित हो जाते हैं। १. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ १११ : परं माणं जस्स तं परमं, तंच सम्मदसणादि, सम्मसणनाणाओवि चरितं । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १४५ : परम-मोक्षपदं सर्व संवररूपं चारित्रं वा सम्यग्ज्ञानं सम्यग्दर्शनं वा। २. दीघनिकाय भाग ३, पृष्ठ १६२ : तिस्सो विज्जा–पुग्वे निवासानुस्सरति आणं विज्जा, सत्तानं चुतूपपाते जाणं विज्जा, आसवाणं खये जाणं विज्जा। ३. उत्तरज्मयणाणि, २३१४३ । Jain Education international Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ आचारांगमाध्यम ३२. अवि से हासमासज्ज, हंता गंदीति मन्नति । अलं बालस्स संगण, वेरं वड्ढेति अप्पणो। सं०-अपि स हासमासाद्य, हत्वा नन्दीति मन्यते । अलं बालस्य सङ्गेन, वैरं वर्धयति आत्मनः । आसक्त मनुष्य हास-आमोद-प्रमोद के लिए जीवों का वध कर हर्षित होता है। ऐसे हास-प्रसंग से उस अज्ञानी को क्या लाभ ? उससे वह अपना वैर बढाता है। भाष्यम् ३२–मनुष्ये कषायजनितो मनस्तापः प्रकृत्या मनुष्य में प्रकृति से ही कषायजनित मनस्ताप होता है । उस एव भवति। तन्निवारणाय स मनोरंजनप्रयोगान् मनस्ताप को मिटाने के लिए वह मनोरंजन के प्रयोग करता है। उन आश्रयते । तेषु केचित् प्रयोगाःहिंसात्मका अपि भवन्ति । प्रयोगों में कुछ प्रयोग हिंसात्मक भी होते हैं। जैसे बच्चे मेंढ़कों को यथा बाला दर्दराणां पातोत्पातं कुर्वाणाः प्रमोदन्ते । बार-बार आकाश में उछाल कर नीचे गिराने में खुश होते हैं । युवक भी यवानोऽपि कुक्कूटानां मेषाणां शशकानां च प्रतिस्पर्द्धा मनोरंजन के लिए मुर्गों, मेंढ़ों तथा खरगोशों की प्रतिस्पर्धाएं आयोजित आयोजयन्ति, शुना शशकवधे च सामोदं करास्फोटनं करते हैं तथा कुत्तों द्वारा खरगोशों का वध होते देखकर हर्षित होते हैं, कुर्वन्ति । एतां मनोवृत्ति लक्ष्यीकृत्य सूत्रकारेण तालियां बजाते हैं । इस मनोवृत्ति को लक्षित कर सूत्रकार ने कहाप्रोक्तम-कश्चिद् अज्ञानी पुरुषः हासपूर्वकं कोई अज्ञानी पुरुष हास-आमोद-प्रमोद के लिए प्राणियों की हत्या कर प्राणिनो हत्वा नन्दी-प्रमोदः' इति मन्यते । एतादृशस्य हर्षित होता है । ऐसे अज्ञानी व्यक्ति के संग-हास-प्रसंग से क्या प्रयोजन बालस्य सङ्गेन किं प्रयोजनम् यः प्राणिनो हत्वा आत्मनो जो प्राणियों की हत्या कर अपना वैर बढ़ाता है ? वृत्तिकार ने हास का वैरं वर्धयते ? ह्रीभयादिनिमित्तश्चेतोविप्लवो हास: अर्थ लज्जा, भय आदि के निमित्त से होने वाला चित्त-विप्लव किया इति वृत्तिकारः । ३३. तम्हा तिविज्जो परमंति णच्चा, आयंकवंसी ण करेति पावं । सं०-तस्मात् त्रिविद्यः परममिति ज्ञात्वा आतङ्कदर्शी न करोति पापम् । इसलिए तीन विद्याओं का ज्ञाता आतंकदर्शी-हिंसा में आतंक देखने वाला पुरुष परम को जानकर पाप नहीं करता। भाष्यम ३३-तस्मात् त्रिविद्यः परमं ज्ञात्वा आतङ्क- इसलिए त्रिविद्य पुरुष परम को जान कर हिंसा में आतंक दर्शी सन पापं-हिंसास्रवप्रवर्धकं न करोति । यथा देखता हुआ हिंसा के आस्रव को बढ़ाने वाला पापकारी आचरण नहीं परमदर्शनं हिंसानिवृत्तेः साधनमस्ति तथा हिंसायां करता। जैसे परम-मोक्ष का दर्शन हिंसा-निवृत्ति का साधन है वैसे ही आतङ्घदर्शनमपि तन्निवत्तेः साधनमस्ति । यावत् परम- आतंकदर्शन भी हिंसा-निवृत्ति का साधन है। जब तक परमदर्शन नहीं दर्शनं न स्यात् तावत् हिंसायां आतङ्कदर्शनं न भवति । होता तब तक हिंसा में आतंकदर्शन नहीं होता और जब तक हिंसा में यावत हिंसायां आतङ्गदर्शनं न भवति तावत् परमदर्शनं आतंकदर्शन नहीं होता, तब तक परमदर्शन नहीं होता। दोनों के न भवति । द्वयोर्भावे एव हिंसाश्रवात् विरतिर्जायते ।' होने पर ही हिंसा के आश्रव से विरति होती है। १. आचारांग चूणि, पृष्ठ ११२, णंदि पमोदो हरिसो एगट्ठा। २. तुलना--आयारो, २/१४५ । ३. तुलना--आयारो, २/१३५ । ४. आचारांग वृत्ति, पत्र १४४ । ५. परमः-द्रष्टव्यम्-३।२८ सूत्रभाष्यम् । ६. आतंकदर्शनपूर्वकं पापवर्जनस्य उल्लेखः पिटकेऽपि दृश्यते(क) कतमं च भिक्खवे, सम्परायिकं वजं ? इध, भिक्खवे, एकच्चो इति परिसञ्चिक्खति-'कायदुच्चरितस्स खो पन पापको दक्खो विपाको अभिसम्परायं, वचिदुच्चरितस्स पापको दुक्खो विपाको अभिसम्परायं, मनोदुच्चरितस्स पापको दुक्खो विपाको अभिसम्परायं। अहं चेव खो पन कायेन दुच्चरितं चरेव्यं, वाचाय दुच्चरितं चरेग्यं, मनसा दुच्चरितं चरेग्यं । किं च तं याहं न कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गति विनिपातं निरयं उपपज्जेय्यं ति । सो सम्परायिकस्स बज्जस्स भीतो कायदुच्चरितं पहाय कायसुचरितं भावेति, वचीढच्चरितं पहाय वचीसुचरितं भावेति, मनोदच्चरितं पहाय मनोसुचरितं भावेति, सुद्धं अत्तानं परिहरति । इदं वुच्चति, भिक्खवे, सम्परायिकं वज्ज। [अंगुत्तरनिकाय २।१, भाग १, पृष्ठ ४७] (ख) अंगुत्तरनिकाय, भाग १, पृष्ठ ५१ : भिक्षुओ! यह आशा करनी चाहिए कि दोष में भय मानने वाला, दोष में भय देखने वाला सभी नोषों से मुक्त हो जाएगा। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ अ० ३. शोतोष्णो य, उ० २. सूत्र ३२-३५ ३४. अग्गं च मूलं च विगिच धीरे । सं०-अग्रं च मूलं च विविङ्ग्धि धीर ! हे धीर ! तू अन और मूल का विवेक कर। भाष्यम् ३४-हे धीरपुरुष! त्वं अग्रं मूलञ्च हे धीर पुरुष ! तू अग्र और मूल-दोनों का विवेक कर । विविग्धि '-तयोविवेकं कुरु । महावीरस्य दृष्टि: न महावीर की दृष्टि न केवल अग्र का स्पर्श करती है और न केवल केवलं अग्रं स्पृशति न च मूलं, किन्तु उभयस्पर्शिनी मूल का स्पर्श करती है, किन्तु वह दोनों का स्पर्श करती है। विद्यते। किमग्रं किञ्च मूलं इति नात्र सुस्पष्टम् । प्रस्तुत सूत्र में अग्र क्या है और मूल क्या है, इसका स्पष्ट निर्देश उत्तराध्ययने 'रागो य दोसो वि य कम्मबीयं' इति नहीं है । उत्तराध्ययन में कहा है-राग और द्वेष-ये कर्म के प्रतिपादितमस्ति। अनेन ज्ञायते रागद्वेषौ मूलम् । बीज हैं। इससे ज्ञात होता है कि राग और द्वेष मूल हैं तद्धतकानि कर्माणि अग्रम् । दशाश्रुतस्कन्धे दृश्यते - और इन दोनों के हेतुभूत कर्म अग्र हैं । दशाश्रुतस्कंध आगम में मोहनीयं कर्म मूलं शेषकर्माणि अग्रम् । रागद्वेषावपि कहा है-मूल है मोहनीय कर्म और शेष कर्म हैं अन । राग-द्वेष--इन प्रत्यभिज्ञातव्यौ, कर्माण्यपि च प्रत्यभिज्ञातव्यानि । न दोनों को भी पहचानना है और साथ-साथ अन्य कर्मों को भी पहचानना केवलं मोहनीयं कर्म प्रत्यभिज्ञातव्यं किन्तु शेषकर्माण्यपि है। केवल मोहनीय कर्म को ही नहीं पहचानना है, किन्तु शेष सभी प्रत्यभिज्ञातव्यानि इति उभयदृष्टिसंस्पर्शः । कर्मों को पहचान करनी है । यही है उभयदृष्टि का संस्पर्श । ३५. पलिच्छिदिया णं णिक्कम्मदंसी। सं०-परिच्छिद्य निष्कर्मदर्शी । पुरुष संयम और तप के द्वारा राग-द्वष को छिन्न कर आत्मदर्शी हो जाता है। भाष्यम ३५-कर्म-मनोवाक्कायजनिता प्रवृत्तिः । कर्म का एक अर्थ है-मन, वाणी और शरीर की प्रवृत्ति । जीव जीवः पारिणामिकभावेन स्वभावेन वा अकर्मा विद्यते, अपने पारिणामिकभाव से या स्वभाव से अकर्मा होता है किन्तु राग किन्तु रागद्वेषाभ्यां बद्धो जीवो वर्तते सकर्मा। संयमेन और द्वेष से बंधा हुवा जीव सकर्मा होता है। संयम और तप के द्वारा तपसा च रागद्वेषौ परिच्छिद्य स निष्कर्मदर्शी- राग-द्वेष को छिन्न कर वह निष्कर्मदर्शी-आत्मदर्शी या मोक्षदर्शी आत्मदर्शी मोक्षदर्शी वा भवति । हो जाता है। १. आप्टे, विच्-to discriminate, distinguish, discern. २. उत्तरज्मयणाणि, ३२।५। ३. नवसुत्ताणि, दसाओ, ५।११,१४: 'जहा मत्थए सूईए, हताए हम्मती तले। एवं कम्माणि हम्मंति, मोहणिज्जे खयं गते ॥" 'सुक्कमूले जधा रक्खे, सिच्चमाणे ण रोहति । एवं कम्मा न रोहंति, मोहणिज्जे खयं गते ॥' ४. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ ११३ : ण तस्स कम्म बिज्जतीति णिक्कम्मा, को सो? मोक्खो, णिकम्माणं पस्सतीति णिकम्मवंसी, तदर्थ घडति उज्जमइ वा, णिकम्माणं वा दरिसेति णिक्कम्मदरिसी सिद्धदरिसि मोक्खदरिसि वा। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १४५ : निष्कर्मवी भवति, निष्कर्माणमात्मानं पश्यति, तच्छोलश्च निष्कर्मत्वाद् वा अपगतावरणः सर्वदर्शी सर्वज्ञानी च भवति । (ग) द्रष्टव्यम-आयारो, ४५० भाष्यम् । (घ) आत्मा है, फिर भी वह दृष्ट नहीं है । उसके दर्शन में बाधक तत्त्व दो हैं-राग और द्वेष । ये आत्मा पर कर्म का सघन आवरण डालते रहते हैं, इसलिए उसका वर्शन नहीं होता। राग-द्वेष के छिन्न हो जाने पर आत्मा निष्कर्म हो जाता है। निष्कर्म होते ही वह दृष्ट हो जाता है। निष्कर्मदर्शी के चार अर्थ किए जा सकते हैं-(१) आत्मदर्शी, (२) मोक्षदर्शी, (३) सर्वदर्शी, (४) अक्रियादी । महावीर की साधना का मूल आधार हैअक्रिया । सत् वही होता है, जिसमें क्रिया होती है। आत्मा की स्वाभाविक क्रिया है-चैतन्य का व्यापार। उससे भिन्न क्रिया होती है, वह स्वाभाविक नहीं होती। अस्वाभाविक क्रिया का निरोध ही आत्मा की स्वाभाविक क्रिया के प्रवर्तन का रहस्य है। स्वाभाविक क्रिया के क्षण में रागद्वेष की क्रिया अवरुद्ध हो जाती है। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगमाष्यम् ३६. एस मरणा पमुच्चइ । सं०-एष मरणात् प्रमुच्यते। आत्मदर्शी मृत्यु से मुक्त हो जाता है। भाष्यम् ३६-एष निष्कर्मदर्शी मरणात् प्रमुच्यते। यह निष्कर्मदर्शी मनुष्य मृत्यु से मुक्त हो जाता है। मनुष्य मनुष्यः अमरत्वमभिलषति । तस्य साधनमस्ति निष्कर्म- अमरत्व चाहता है। उसका साधन है-निष्कर्मदर्शन। दर्शनम्। ३७. से हु दिट्ठपहे मुणी। सं०-स खलु दृष्टपथः मुनिः । उस आत्मदर्शी मुनि ने ही पथ को देखा है। भाष्यम ३७-येन अग्रं मूलञ्च विविक्तं, निष्कर्म- जिस ने अग्र और मूल का विवेक किया है तथा निष्कर्मदर्शन दर्शनञ्च उपलब्धं तेन मुनिना आश्रवस्य कर्मणाञ्च को प्राप्त किया है, उस मुनि ने आश्रव और कमों के क्षय के मार्ग को क्षयस्य दुःखमुक्तेर्वा पन्थाः दृष्टः । अथवा दुःखमुक्ति के मार्ग को देख लिया है। ३८. लोयंसी परमदंसो विवित्तजीवी उवसंते, समिते सहिते सया जए कालखी परिव्वए। सं०-लोके परमदर्शी विविक्तजीवी उपशान्तः समितः सहितः सदा यतः कालकाङ्क्षी परिव्रजेत् । जो लोक में परम को देखता है, वह विविक्त जीवन जीता है । वह उपशान्त, सम्यक् प्रवृत्त, सहिष्णु और सदा अप्रमत होकर जीवन के अन्तिम क्षण तक परिव्रजन करता है। भाष्यम ३५-ज्ञानी पुरुषः यया चर्यया परिव्रजति- ज्ञानी पुरुष जिस चर्या से जीवन यापन करता है, उसके सात जीवनं यापयति, सा सप्तसूत्र्या अत्र प्रदर्शिता-- सूत्र ये हैं(१) तादशः पुरुषः परमदर्शी—जीवस्य पारिणामिक- १. वैसा पुरुष परमदर्शी-जीव के परिणामिकभाव को देखने वाला भावदर्शी चैतन्यदर्शी वा भवति । अथवा चैतन्य को देखने वाला होता है। (२) स विविक्तजीवी-रागद्वेषमूक्तजीवी एकान्तजीवी २. वह विविक्तजीवी-राग द्वेष से मुक्त होकर जीने वाला अथवा वा भवति । यः परमदर्शी भवति स एव विविक्त- एकान्तजीवी होता है। जो परमदर्शी होता है वही विविक्तजीवी जीवी भवितुमर्हति । हो सकता है। (३) स उपशांत:-इन्द्रियमनसोरुपशमकारको भवति । ३. वह उपशान्त - इन्द्रिय और मन का उपशमन करने वाला होता है। (४) स समितः-लक्ष्य प्रति केन्द्रितो भवति । ४. वह समित-अपने लक्ष्य के प्रति केन्द्रित होता है। (५) स सहितः सहिष्णः भवति। ५. वह सहित-सहिष्णु होता है। (६) स सदा यतः-संयमवान् भवति । ६. वह सदा यत-संयमवान् होता है। (७) स कालकांक्षी-मृत्यु प्रति अनुद्विग्नो भवति, तटस्थ- ७. वह कालकांक्षी-मृत्यु के प्रति अनुद्विग्न होता है। वह तटस्थ भावेन तं पश्यति, न ततो भीतो भवति, न च तं भाव से मृत्यु को देखता है। वह न उससे भयभीत होता है और प्रति उत्सुको भवति । न उसके प्रति उत्सुक होता है। १. (क) आप्टे, समितः-Connected with, united with. (ख) आचारांग चूणि पृष्ठ ११४ : समिते-इरियाति समिते। (ग) आचारांग वृत्ति, पत्र १४६ : पञ्चभिः समितिभिः सम्यग् वा इतो-गतो मोक्षमार्गे समितः। २. (क) आप्टे, सहितः Borne, endured. (ख) आचारांग चूणि, पृष्ठ ११४ : सहिते--नाणादि सहितो, अहवा विवित्तजीवित्तण उवसमेण समितीहि य समयागतत्या सहितो। (ग) आचारांग वृत्ति, पत्र १४६ : सहितः-समन्वितो। चूणिवृत्तिकृतोऽर्थः अध्याहृतो दृश्यते । सहितस्य स्वतन्त्रोऽर्थः प्रासंगिकोऽस्ति । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ३. शीतोष्णीय, उ० २. सूत्र ३६-४० ३६. बहुं च खलु पावकम्मं पगडं । सं०-बहु च खलु पापकर्म प्रकृतम् । इस जीव ने अतीत में बहुत पापकर्म किए हैं। । भाष्यम् ३९ ---' कालकंखी परिब्वए' ( सूत्र ३।३८ ) - अस्य तात्पर्यमस्ति यावज्जीवं शीतं उष्णं सहमान: परिव्रजेत् । किमर्थमेतावन्तं दीर्घं काळं परिव्रजेत् इत्याशङ्कायां सूत्रकारो निर्दिशति - अतीते काले बहु पापकर्म प्रकृतमस्ति । तद् नाल्पेन कालेन क्षीणतां नेतुं शक्यम् । तत्क्षवार्थ दीर्घकाल अपेक्षितोऽस्ति । ४०. सति प्रिति कुव्वह । [सं० सत्ये धूति कुरु । तू सत्य में घृति कर । भाष्यम् ४० --- सत्यं इति सत्, सद्भावः तत्त्वं तथ्यं, सार्वभौमनियमः, भूतोद्भावनं, संयमः, काय भावभाषाणां ऋजुता, अविसंवादनयोग:, यथार्थवचनं अगर्हितवचनं, व्यवहाराश्रितवाक्यं प्रतिज्ञा वा । सत्-उत्पादव्ययधीव्ययुक्तं सत्' ।' अन 'सत्' इति पदं अस्तित्वात्मकं सत्यं संबध्नाति । सद्भावः – निश्चयनय: - 'तहियाणं तु भावाणं, सम्भावे उवएसणं ।" " तत्त्वम् - द्रव्यस्य यथार्थं स्वरूपम् - चेतनतत्वमेव सत्यं, अचेतनतत्त्वं मिथ्या अथवा अचेतनतत्वमेव सत्यं चेतनतत्वं मिथ्या इति नास्ति सम्मतम् । चेतनतत्त्वमपि सत्यं, अचेतनतत्त्वमपि सत्यं इत्यभिमतम् । प्रतिपादनम्, भूतोद्भावनम् - यथार्थस्य अस्ति आत्मा परलोकश्च । जहा १. तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम्, ५।२९ । २. उत्तरज्झयणाणि, २८ १५ । ३. आचारांग वृत्ति, पत्र १४७ । संयमः सत्यः संयमः इति आचारांगवृत्तौ ।' 'काय भाव-भावाचा अविसंवादनयोगः' इति स्थानांगे उब्विहे सच्चे पण्णत्ते तं जहा काउज्जु यया, भासुज्जुयया, भावज्जुयया, अविसंवायणाजोगे । व्यवहाराश्रितवाक्यम् - दसविहे सच्चे पण्णत्ते, तं , यथा 'कालकंखी परिव्वए इसका तात्पर्य है कि साधक जीवनपर्यन्त गीत और उष्ण-अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों को सहन कर परिव्रजन करे प्रश्न होता है कि इतने दीर्घकाल तक (शीत और उष्ण को) सहन करते हुए क्यों परिव्रजन किया जाए ? इसके समाधान में सूत्रकार कहते हैं—अतीत में बहुत सारे पापकर्म किए हैं। उनका क्षय अल्प समय में नहीं किया जा सकता । उनको क्षीण करने के लिए दीर्घकाल की अपेक्षा होती है। 'सत्य' पद के ये अर्थ हैं - ( १ ) सत्, (२) सद्भाव, (३) तत्त्व, (४) तथ्य, (५) सार्वभौमनियम, (६) भूतोद्भावन, (७) संयम, (८) काय, भाव और भाषा की ऋजुता तथा अविसंवादनयोग, (९) यथार्थवचन (१०) अतिवचन (११) व्यवहाराधित वचन और (१२) प्रतिज्ञा । सत्-जो उत्पाद, व्यय और धौव्ययुक्त होता है वह सत् है । यहां 'सत्' शब्द अस्तित्वात्मक सत्य का वाचक है । सद्भाव निश्चय दृष्टि का वाचक । १७७ तत्व - द्रव्य का यथार्थ स्वरूप । चेतनतत्त्व ही सत्य है और अचेतनतत्त्व मिथ्या है अथवा अचेतनतत्त्व ही सत्य है और चेतनतत्त्व मिथ्या है यह सम्मत नहीं है। चेतनतत्त्व भी सत्य है और अचेतनतस्य भी सत्य है - ऐसा अभिमत है । भूतोद्भावन - यथार्थ का प्रतिपादन, जैसे आत्मा है, परलोक है । संयम -- आचारांग की वृत्ति में सत्य का अर्थ है - संयम । स्थानांग के अनुसार सत्य के चार प्रकार हैं- काया की ऋजुता, भाव की ऋजुता, भाषा की ऋजुता तथा योगों अविसंवादिता । व्यवहाराधितवचन -- सत्य के दस प्रकार हैं, जैसे ४. अंगा १, ठाणं ४।१०२ । ५. वही, ठाणं १०१८९ । Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ आचारांगमाष्यम् 'जणवय सम्मय ठवणा, णामे सवे पडुच्चसच्चे य। जनपद सत्य, सम्मत सत्य, स्थापना सत्य, नाम सत्य, रूप सत्य, ववहार भाव जोगे, दसमे ओवम्मसच्चे य॥' प्रतीत्य सत्य, व्यवहार सत्य, भाव सत्य, योग सत्य तथा औपम्य सत्य । प्रतिज्ञा इति आचारांगचूर्णी--जहापरिणं अणुपालं- __आचारांग चूणि में सत्य का अर्थ है-प्रतिज्ञा। प्रतिज्ञा के तेण सच्च।' अनुसार (व्रतों का) पालन करना सत्य है। अस्मिन प्रकरणे सत्यशब्दस्य प्रयोगः सार्वभौमनियमे प्रस्तुत प्रकरण में 'सत्य' शब्द का प्रयोग दो अर्थों में हुआ संयमे च वर्तते, यथा-- है-सार्वभौम नियम तथा संयम । जैसे१. अस्ति कर्म। १. कर्म है। २. कृतं कर्म भोक्तव्यम् । २. किए हुए कर्मों को भोगना पड़ता है। ३. उदीरणाकरणेन कर्मणो भोगे परिवर्तनमपि ३. उदीरणा के द्वारा कर्मों के भोग में परिवर्तन भी जायते। होता है। ४. उदीरणादिकरणानां साधनमस्ति संयमः। ४. उदीरणा आदि 'करणों' का साधन है-संयम । कर्मणः क्षयार्थं धतिरपि नितान्तमपेक्षितास्ति । यस्य कर्मों के क्षय के लिए धृति भी नितांत अपेक्षित होती है। सत्ये धतिर्भवति स एव पूर्वाजितं कर्म क्षीणतां नेतुं जिस साधक की सत्य में धृति होती है, वही पूर्वाजित कर्मों को क्षीण शक्नोति । करने में समर्थ होता है। द्रष्टव्यं सूत्रद्वयम्-३।६५,६६ । देखें दोनों सूत्र-३।६५ तथा ६६ । ४१. एत्थोवरए मेहावी सव्वं पावकम्मं झोसेति । सं०-- अत्रोपरतः मेधावी सर्व पापकर्म क्षपयति । संयत अथवा विरत मेधावी सब पापकर्म को क्षीण कर डालता है। भाष्यम ४१--अत्रय उपरत:-संयतो विरतो' वा यहां जो उपरत–संयत या विरत होता है वह सभी पापभवति स सर्वं पापकर्म क्षपयति । पापकर्मक्षपणस्य कर्मों को क्षीण कर डालता है। पापकर्म को क्षीण करने का उपाय उपायोस्ति संयमः। अस्मिन् सूत्रे स एव मुख्यत्वेन है संयम । प्रस्तुत सूत्र में उसी का मुख्यरूप में प्रतिपादन है। प्रदर्शितः। यः संयमे उपरतः-सामीप्येन रतो भवति', स सर्व जो संयम में उपरत होता है, संलग्न होता है, वह सभी पापकर्म क्षपयति । अयं वैकल्पिकोर्थोऽपि सम्मतः । पापकर्मों को क्षीण कर डालता है। यह वैकल्पिक अर्थ भी सम्मत है। ४२. अणेगचित्ते खलु अयं पुरिसे, से केयणं अरिहए पूरइत्तए। सं०--अनेकचित्तः खलु अयं पुरुषः स केतनं अर्हति पूरयितुम् । यह पुरुष अनेक चित्त वाला है । वह चलनी को भरना चाहता है। भाष्यम् ४२-अयं प्रमत्तः पुरुषः लोभाभिभूतः सन् यह प्रमत्त पुरुष लोभ से अभिभूत होकर अनेकचित्त वाला हो अनेकचित्तो भवति । नानाविधेषु अर्थोपार्जनहेतुभूतेषु जाता है। उसका चित्त धनोपार्जन के हेतुभूत विभिन्न व्यवसायों में व्यवसायेषु तस्य चित्तं प्रवर्तते। स केतनं पूरयितुं प्रवर्तित रहता है । वह केतन-चलनी को (पानी से) भरना चाहता अर्हति-इच्छति। द्रव्यकेतनम-चालनी, भावकेतनम्-इच्छा । अस्य द्रव्य केतन है-चलना आर भाव कत तात्पर्यम्- लोभेच्छा व्याकुलमतिः पुरुषः शक्याशक्य- इसका तात्पर्य है-लोभ की इच्छा से आकुल-व्याकुल पुरुष विचाराक्षमः अशक्यानुष्ठानेऽपि प्रवर्तते । अन्यथा दुष्पूरा शक्य और अशक्य का चिंतन नहीं कर सकता और वह अशक्य १. आचारांग चूणि, पृष्ठ ११४।। २. वही, पृष्ठ ११५: उवरतो णिवित्तो। ३. आचारांग वृत्ति, पत्र १४७ : अत्र अस्मिन् संयमे भगवद्वचसि वा उप-सामीप्येन रतः-व्यवस्थितः। Jain Education international Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाचा अ० ३. शीतोष्णीय, उ०२. सूत्र ४१-४४ १७६ इच्छा कथं पूरयितुं शक्या । उक्तं चोत्तराध्ययने- अनुष्ठान में भी प्रवृत्त हो जाता है । अन्यथा इस दुष्पूर इच्छा की पूर्ति कैसे की जा सकती है ? उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है'सुवण्णरुप्पस्स उ पव्वया भवे, _ 'कदाचित् सोने और चांदी के कैलास के समान असंख्य पर्वत सिया हु केलाससमा असंखया। हो जायें, तो भी लोभी पुरुष को उनसे कुछ भी नहीं होता, क्योंकि नरस्स लुबस्स न तेहिं किंचि, इच्छा आकाश के समान अनन्त है।' इच्छा हु आगाससमा अणंतिया ॥" 'जहा लाहो तहा सोहो, लाहा लोहो पाई। 'जैसे लाभ होता है वैसे ही लोभ होता है। लाभ से लोभ वोमासकयं कज्जं, कोडीए वि न निट्ठियं ॥" बढ़ता है। दो माशे सोने से पूरा होने वाला कार्य करोड़ से भी पूरा नहीं हुआ। लाभेन नेच्छा पूर्णा भवति लाभ से इच्छा पूरी नहीं होती'न शयानो जयेन्निद्रा, न मुंजानों जयेत् क्षुधाम् । 'शयन से नींद पर, भोजन से भूख पर विजय नहीं पाई जा न काममानः कामानां, लाभेनेह प्रशाम्यति ।" सकती। इसी प्रकार कामनाओं के लाभ (पूर्ति) से काम को शान्त नहीं किया जा सकता, उसको नहीं जीता जा सकता। ४३. से अण्णवहाए अण्णपरियावाए अण्णपरिग्गहाए, जणवयवहाए जणवयपरियावाए जणवयपरिग्गहाए। सं० --स अन्यवधेन अन्यपरितापेन अन्यपरिग्रहेण जनपदवधेन जनपदपरितापेन जनपदपरिग्रहेण। तृष्णाकुल मनुष्य दूसरों के वध, परिताप और परिग्रह तथा जनपद के वध, परिताप और परिग्रह के लिए प्रवृत्ति करता है। भाष्यम् ४३ –स अनेकचित्तः पुरुषः यः प्रकारैः अनेक चित्त वाला पुरुष जिन प्रकारों से धन कमाता है, बे अर्थमुपार्जयति, ते केचित् प्रदर्श्यन्ते कुछेक प्रकार यहां निर्दिष्ट हैं---- १.अन्यवध:-यथा चौरा धनिक मारयित्वा धनं १. अन्यवध-जैसे चोर धनिकों की हत्या कर धन चुराते हैं । गृह्णन्ति । २. अन्यपरितापः-शस्त्रप्रहारैः परं परितप्तं कृत्वा २. अन्यपरिताप-कुछ व्यक्ति शस्त्र के प्रहारों से दूसरों को केचिद् धनं गृह्णन्ति । परितप्त कर धन का हरण करते हैं। ३. अन्यपरिग्रहः-शक्तिप्रयोगपूर्वकं दासदासीभृत्याs- ३. अन्यपरिग्रह--अपनी शक्ति का उपयोग कर दास, दासी, भृत्य, बलादीनां परिग्रहः, तेषां परतन्त्रतापादनम् । स्त्रियों आदि को अपने अधीन करते हैं। ४. जनपदवधः । यथा केचिद् राजानो लोभा- ४. जनपदवध-- जैसे कई राजा लोभ के वशीभूत होकर ५. जनपदपरितापः भिभूता: जनपदस्य वधाय परि- ५. जनपदपरिताप- जनपद में निवास करने वाले व्यक्तियों का तापाय च प्रवर्तन्ते । वध करने या परिताप देने में प्रवृत्त होते हैं। ६. जनपदपरिग्रहः केचिन्ममैतद् राज्यं राष्ट्र वा ६. जनपदपरिग्रह---कई राजा यह राज्य या राष्ट्र मेरा है, ऐसा इति ममत्वं कुर्वन्ति तथा परराज्यमपि विक्रमेण ममत्व रखते हैं और दूसरे राज्यों को भी अपने पराक्रम से जीत परिगृह्णन्ति । लेते हैं। ४४. आसेवित्ता एतमट्ठ इच्चेवेगे समुट्ठिया, तम्हा तं बिइयं नो सेवए। सं०-आसेव्य एतमर्थ इत्येवैके समुत्थिताः, तस्मात् तं द्वितीयं नो सेवते । कुछ व्यक्ति परिग्रह, वध आवि का आसेवन कर अंत में संयम-साधना में लग जाते हैं। इसलिए वे फिर उस काम-भोग एवं हिंसा आदि का आसेवन नहीं करते। भाष्यम् ४४-एतमर्थं परिग्रहं तदर्थं जायमानां कुछ व्यक्ति परिग्रह और उसके लिए होने वाली हिंसा का हिंसामासेव्यापि एके समुत्थिता भवन्ति, यथा भरतः आसेवन करके भी संयम की साधना के लिए तत्पर हो जाते हैं । जैसे १. उत्तरायणाणि, ९।४८ । ३. आचारांग चूणि, पृष्ठ ११५ । २. वही, ८।१७। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० आचारांगभाष्यम चक्रवर्ती सन्नपि समुत्थितः, अर्जुनमाली च वधप्रवृत्तोपि महाराज भरत चक्रवर्ती होने पर भी संयम की साधना के लिए तत्पर हो समूत्थितः । यदि परिग्रहः हिंसा च समाधानं भवेत् तदा गए और लोगों के वध में प्रवृत्त अर्जुनमाली भी संयम-साधना के लिए किमर्थं भरतादयः समुत्थिता अभवन् ? एतेन ज्ञायते यद् उद्यत हो गया। यदि परिग्रह और हिंसा जीवन का समाधान होता तो आसेव्यमाना विषया न तृप्ति जनयन्ति परिग्रहोपि च। भरत आदि संयमी क्यों बनते ? इससे जाना जाता है कि भोगे जाने हिंसापि न मनसः शान्ति निष्पादयति । तस्माद् विषयान् वाले विषय तथा परिग्रह व्यक्ति को तृप्त नहीं करते । हिंसा भी परिग्रहं हिंसां च परित्यज्य द्वि सेवेत । मानसिक शांति नहीं देती, इसलिए विषय, परिग्रह और हिंसा का परित्याग कर उनका पुनः आसेवन नहीं करना चाहिए । ४५. णिस्सारं पासिय णाणी, उववायं चवणं णच्चा । अणण्णं चर माहणे ! सं० निस्सारं दृष्ट्वा ज्ञानी, उपपातं च्यवनं ज्ञात्वा, अनन्यं चर माहन ! ज्ञानी ! तू देख ! विषय निस्सार हैं। तू जान ! जन्म और मृत्यु निश्चित है। अतः हे माहन ! तू अनन्य-आत्मा में रमण कर। भाष्यम् ४५–अनन्यं यश्चरति स एव विषयादीनां जो पुरुष अनन्य में रमण करता है, वही विषय आदि के सेवनं त्यक्तुमर्हति । अनन्यं-चैतन्यम् । एतत् शाश्वतं आसेवन को छोड़ सकता है । अनन्य का अर्थ है-चैतन्य । वह शाश्वत सदाहितकरत्वात् सारभूतं च । नान्यः कोपि पदार्थ ईदशो है, सदा हितकारी होने के कारण सारभूत है। दूसरा कोई भी पदार्थ भवति । सर्वेपि विषया अनित्यत्वान्निस्साराः। सर्वोपि ऐसा नहीं होता। सभी विषय अनित्य होने के कारण निस्सार हैं। लोको जन्ममरणचक्रपरिघट्टितः । सूत्रकार उपदिशति- सारा संसार जन्म और मृत्यु के चक्र में पिसा जा रहा है। सूत्रकार हे माहन ! त्वं अनन्यं चर। अनन्यचरणस्य द्वौ हेतु- कहते हैं- हे माहन ! तू अनन्य-आत्मा में रमण कर । आत्मा में विषयाणां निस्सारतादर्शनं जन्ममरणपरम्परायाश्च रमण करने के दो हेतु हैं विषयों की निस्सारता का दर्शन (अनुभव) ज्ञानम् । स एव ज्ञानी यो द्वयमिदं यथार्थ वेत्ति । __ और जन्म-मरण की परम्परा का ज्ञान । ज्ञानी वही होता है जो दोनों हेतुओं को यथार्थरूप में जानता है। ४६. से ण छणे ण छणावए,'छणंतं णाणुजाणइ। सं०-स न क्षणोति न क्षाणयति क्षण्वन्तं नानुजानाति । वह अहिंसक मनुष्य जीवों की हिंसा न करता है, न कराता है और न हिंसा करने वाले का अनुमोदन करता है। भाष्यम् ४६-अनन्यचरणस्य प्रथमं लक्षणमस्ति आत्मरमण का पहला लक्षण है-अहिंसा। वह माहनअहिंसा । स माहनः अनन्यं चरन न कमपि प्राणिनं हन्ति अहिंसक व्यक्ति आत्मा में रमण करता हुआ किसी भी प्राणी की न न घातययि न च घ्नन्तमप्यनुजानाति । स्वयं हिंसा करता है, न दूसरों से कराता है और न हिंसा करने वाले का अनुमोदन करता है। ४७. णिव्विद दि अरते पयासु । सं०--निविन्दस्व नन्दी अरतः प्रजासु । तू कामभोग के आनन्द से उदासीन बन । स्त्रियों में अनुरक्त मत बन । भाष्यम् ४७-अनन्यं चरतो द्वितीयं लक्षणमस्ति आत्मरमण का दूसरा लक्षण है-ब्रह्मचर्य । नंदी का अर्थ ब्रह्मचर्यम् । नन्दी-प्रमोदः। विषयेषु जायमानां नन्दी है-प्रमोद । विषयों में होने वाले प्रमोद के प्रति तुम विरक्ति करो प्रति निवेदं कुरु अथवा एते शब्दादयो विषयाः किम्पाक- अथवा यह निश्चित जानो कि ये शब्द आदि विषय किपाकफल के फलसमाना इति निर्विद्धि-निश्चितं जानीहि । एतद् सदृश हैं । यह जानकर स्त्रियों से विरत हो जाओ। विदित्वा प्रजासु-स्त्रीषु अरतो भव । १. द्रष्टव्यम्-आयारो, ३१५७ । Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८१ अ० ३. शीतोष्णोय, उ० २. सूत्र ४५-४६ ४८. अणोमदंसी णिसन्ने पावेहि कम्महि । सं० अनवमदर्शी निषण्णः पापेषु कर्मसु । आत्मा को देखने वाला पुरुष पापकर्म का आदर नहीं करता। भाष्यम् ४८-अवमं हीनम् । अनवमं-उत्तमम् । यः भवम का अर्थ है-हीन और अनवम का अर्थ है-उत्तम । अवमान विषयान् विहाय अनवमं आत्मानं पश्यति जो साधक अवम विषयों को छोड़ कर अनवम आत्मा को देखता है, स पापेषु कर्मसु निषण्ण:-कृतानादरः अनुन्नतो वा वह पापकारी प्रवृत्तियों का आदर नहीं करता अथवा उनके भवति। प्रति उत्सुक नहीं होता। चूर्णी 'अणोमवंसी उत्तमसम्मविट्ठी' इति व्याख्या- चूर्णि में अनवमदर्शी का अर्थ उत्तम सम्यग्दृष्टि किया है। तमस्ति । तेनेति ज्ञायते उत्तमसम्यग्दष्टिः पुरुषः पापेषु उससे यह ज्ञात होता है कि उत्तम सम्यग्दृष्टि पुरुष पापकर्मों में कर्मसु न प्रवर्तते। प्रवृत्त नहीं होता। ४६. कोहाइमाणं हणिया य वीरे, लोभस्स पासे णिरयं महंतं । तम्हा हि वीरे विरते वहाओ, छिदेज्ज सोयं लभूयगामी। सं०- क्रोधातिमानं हन्यात् च वीरः, लोभं पश्य निरयं महान्तम् । तस्मात् हि वीरः विरतः वधात्, छिन्द्यात् स्रोतो लघुभूतकामी। बीर पुरुष क्रोध और अतिमान को नष्ट करे। लोभ को महान् नरक के रूप में देखे। इसलिए लघुभूतकामी वीर पुरुष वध से विरत होकर स्रोत को छिन्न कर डाले। भाष्यम् ४९-पापानि कर्माणि क्रोधादयः। तेन क्रोध आदि पापकर्म हैं । इसलिए निर्देश दिया गया है कि वीर निदिश्यते-वीरः पुरुषः क्रोधं अतिमान' च हन्यात्, पुरुष क्रोध और अतिमान को नष्ट करे । लोभ को महान् नरक के लोभं महान्तं नरकं पश्येत् । चुणिकारेण प्रत्यपादि- रूप में देखे । चूर्णिकार कहते हैं-लोभ से प्रायः महान् नरक की 'पायसो लोमेण महंतो गरगो णिव्वत्तिज्जति, जेण उरगा पंचमि प्राप्ति होती है। लोभ के कारण उरग पांचवीं नरक में जाते हैं जंति लोभुक्कडता य मच्छा मणुगा य सत्तम । और लोभाकुल मत्स्य और मनुष्य सातवीं नरक में जाते हैं । ___ तस्माद् लघुभूतकामी वीरः लोभहेतुकाद् वधाद् इसलिए लघुभूतकामी वीर पुरुष लोभ के कारण होने विरतो भवेत्, स्रोत:-रागद्वेषौ च छिन्द्यात् । आत्मानं वाले वध से विरत हो और स्रोत-राग-द्वेष का छेदन करे । जो लघभूतं कामयते इति लघुभूतकामी । लघुभूतः-संयमः, स्वयं को लघुभूत (हल्का) करने की कामना करता है, वह तं कामयते इति लघुभूतकामी। लघुभूतगामी वा, लघभूतकामी कहलाता है । लघुभूत का एक अर्थ है--संयम । जो लघुभूतो-वायुः तद्वद् गमनशीलः लघुभूतगामी-- संयम की कामना करता है, वह लघुभूतकामी कहलाता है। लघुभूतअप्रतिबद्धविहारी इति यावत् । गामी मानकर भी इसकी व्याख्या की जा सकती है। लघुभूत का अर्थ है--वायु । जो वायु की भांति गमनशील होता है, वह है लघुभूतगामी अर्थात् अप्रतिबद्धविहारी। १. चूर्णी वृत्तौ च 'क्रोधादिमानम्' इति व्याख्यातमस्ति(क) आचारांग चूणि, पृष्ठ ११७ : कोहपुव्वगो य माणो तेण कोहादि, कहं ? जातिमंतो हीणजाती भणितो पुव्वं ता कुमति, पच्छा मज्जति, मम एसो जाति कुलं वा णिदति अतो कोहादि। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १४८; 'क्रोध: आविर्येषां ते क्रोधावयः।' अत्र आदिपवस्य अर्यों नावगम्यते, तेन बइमाण इति पदमस्माभिः व्याख्यातम् । सूत्रकृतांगेपि अस्य प्रयोगो दृश्यते-'अतिमाणं च मायं च ।' [सूयगडो १११३३४] २. अत्र मूलपाठे द्वितीयास्थाने षष्ठी अस्ति। ३. आचारांग चूणि, पृष्ठ ११७ : इह तु ठिती विवक्खिया, वेयणा वा, अप्पइट्ठाणो खित्ततो सव्वखुड्डो ठितिवेयणाहि महंतो। ४. वही, पृष्ठ ११७। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ आचारांगभाष्यम् ५०. गंथं परिणाय इहज्जेव वीरे, सोयं परिणाय चरेज्ज दंते। उम्मग्ग लधु इह माणवेहिं, जो पाणिणं पाणे समारभेज्जासि । -त्ति बेमि । सं०-ग्रन्थं परिज्ञाय इहाद्यैव वीरः, स्रोतः परिज्ञाय चरेद् दान्तः । उन्मज्जनं लब्ध्वा इह मानवेषु, नो प्राणिनः प्राणान् समारभेत । ..इति ब्रवीमि । इन्द्रियजयो और वीर पुरुष परिग्रह को जानकर, राग-द्वेष को तत्काल छोड़ कर विचरण करे। मनुष्य इस जन्म में ही उन्मज्जन को प्राप्त हो सकता है। उसे प्राप्त कर वह प्राणियों के प्राणों का समारम्भ न करे। --ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम ५०-यस्य इन्द्रियाणि मनश्च उपशान्तानि जिसकी इन्द्रियां और मन उपशांत हैं वह दान्त और वीर स दान्तो वीरः इह अद्यैव-अचिरात् परिग्रहं तत्कारण- पुरुष परिग्रह और उसके कारणभूत राग-द्वेष को भली प्रकार से भूतौ रागद्वेषौ च परिज्ञाय चरेत् । जानकर तथा तत्काल छोड़कर विहरण करे। - रागद्वेषात्मक स्रोत:, तद्धतुकः परिग्रहः, तद्धेतुका राग और द्वेष---ये दो स्रोत हैं । उनके लिए परिग्रह होता है च हिंसा । एतत् सर्वं निमज्जनम् । एतत् सर्वेषु प्राणिषु और परिग्रह के लिए हिसा होती है । यह सारा निमज्जन-डूबना है । दृश्यते, किन्तु उन्मज्जनं केवलं मनुष्येष्वेव । एतद् सभी प्राणियों में यह निमज्जन है, केवल मनुष्य में ही उन्मज्जन है। उन्मज्जनं-स्रोतोनिरोध अपरिग्रहं च लब्ध्वा दान्तः उन्मज्जन है--स्रोतों का निरोध और अपरिग्रह। इस उन्मज्जन को पुरुषः नो प्राणिनां प्राणान् समारभेत । प्राप्त कर दान्त पुरुष प्राणियों के प्राणों का हनन न करे । ज्ञानदर्शनचारित्राणि मोक्षसाधनानि, तत्र ज्ञान- ज्ञान, दर्शन और चारित्र----ये मोक्ष के साधन हैं। ज्ञान और दर्शने अमनुष्येष्वपि भवतः, किन्तु चारित्रं केवलं दर्शन अमनुष्य अर्थात नरक, तिर्यञ्च और देव में भी होते हैं, किन्तु मनुष्येष्वेव । अतः उन्मज्जनं चारित्रमित्यपि परि- चारित्र केवल मनुष्यों में ही होता है। इसलिए उन्मज्जन का अर्थ भाषितुं शक्यम् । ज्ञानदर्शने अपि चारित्रयोगं प्राप्य चारित्र भी किया जा सकता है। चारित्र का योग पाकर जान-दर्शन पूर्णसार्थकतां गच्छतः । भी पूर्ण सार्थक बन जाते हैं । तइओ उद्देसो : तीसरा उद्देशक ५१. संधि लोगस्स जाणित्ता। सं०-संधि लोकस्य ज्ञात्वा । सभी प्राणी जीना चाहते हैं, इस संधि को जानकर प्रमाद न करे। भाष्यम् ५१-अत्र सन्धिपदं अभिप्रायवाचकमस्ति । प्रस्तुत सूत्र में संधि' शब्द अभिप्रायवाचक है। सभी प्राणी 'सर्वे जीवा जीवितुमिच्छन्ति न तु मर्तुम्' इति जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता-यह सभी प्राणियों का लोकस्य-भूतग्रामस्य समान : सन्धिर्वर्तते । एवं ज्ञात्वा समान अभिप्राय है। यह जानकर प्रमाद नहीं करना चाहिए । यह न प्रमादः आसेवनीयः । एष हिंसाविरतेः प्रथमो हेतुः। हिंसा-विरति का पहला हेतु है। ५२. आयओ बहिया पास । सं०-आत्मनः बहिः पश्य । तू बाह्य-स्वयं से भिन्न प्राणियों को अपनी आत्मा के समान देख । भाष्यम् ५२-त्वं बाह्य-स्वतो भिन्नं भूतग्रामं तू बाह्य अर्थात् स्वयं से भिन्न प्राणियों को आत्मतुल्य आत्मवत् पश्य । यथा आत्मनः अप्रियं दुःखं तथा सर्व- (अपने समान) देख । जैसे स्वयं को दुःख अप्रिय है वैसे ही सभी स्यापि भूतग्रामस्य इति हिंसाविरतेद्वितीयो हेतुः । प्राणियों को दुःख अप्रिय है, यह हिसा-विरति का दूसरा हेतु है। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ३. शीतोष्णीय, उ० २-३. सूत्र ५०-५५ ५३. तम्हा ण हंता ण विधायए । सं० तस्मात् न हन्ता न विघातयेत् । इसलिए जीवों का स्वयं हनन न करे और न दूसरों से करवाए । भाष्यम् ५३ तस्माद् उक्तहेतुद्रयं समीक्ष्य न स्वयं भूतग्रामं हन्यात् न चान्यैविघातयेत् । ५४. जमिणं अष्णमण्णवितिमिच्छाए, पडिलेहाए ण करेइ पार्थ कम्मं किं तत्थ मुणी कारणं सिया ? सं० - यदिदं अन्योन्यविचिकित्सया प्रतिलिख्य न करोति पापं कर्म, किं तत्र मुनिः कारणं स्थात् ? जो परस्पर एक-दूसरे की आशंका से या दूसरे के देखते हुए पाप कर्म नहीं करता, क्या उसका कारण ज्ञानी होना है ? च । , भाष्यम् ५४ – पापकर्मणः अकरणं द्विहेतुकं भवति - अपात्मज्ञानहेतुकं अन्योन्यविचिकित्सा हेतुकं विचिकित्सा नाम शंका, भयं लज्जा वा । परस्परं विचिकित्सामाश्रित्य कश्चित् पापं कर्म न करोति अथवा प्रतिलेखा प्रेक्षामाश्रित्य परः पश्यतीति कृत्वा पापं कर्म न करोति किं तव मुनिः कारणं स्यात् ? काक्वा पृष्टस्य प्रश्नस्य इदमुत्तरं भवति -- यद् विचिकित्सासंप्रयोगेण पापकर्मणोऽकरणे मुनिः कारणं न स्यात् न तदध्यात्मज्ञानहेतुकमिति तात्पर्यम् । माध्यम् ५५ समतामुपेक्ष्य' पापकर्मणोऽकरणं, तत्र मुनिः कारणं स्वात् । समतापूर्वकं पापकर्मणो विरमण मध्यात्मज्ञानहेतुकं भवति समभावः समता परेषा प्रत्यक्ष परोक्षं च समाना प्रवृत्तिर्वा समता ययोक्तं दशवेकालिकसूत्रे' दिया वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वात्तेवा जागरमाणे वा । " यः परैर्दृश्यमानो यथा हिंसादीन् श्रवान् परिहरति तथा परैरदृश्यमानोऽपि तान् नाचरति तेन तस्वात्मनो विशिष्ट प्रसादो जायते विप्रसाद:- चित्तस्य प्रसन्नता निर्मलता वा । यश्च प्रत्यकिञ्चिदन्यत् करोति परोक्षे च किञ्चिदन्यदा चरति तस्य चित्तं मायाचारेण मलिनं भवति कुतस्तत्र प्रसन्नता भवेत् ? । 1 ५५. समयं तत्थुवेहाए, अप्पाणं विप्पसायए । सं० समतां तत्र उपेक्ष्य आत्मानं विप्रसादयेत् । पुरुष जीवन में समता का आचरण कर अपने चित्त को प्रसन्न करे । 1 निर्विचारता वा समता । यत्र रागात्मको द्वेषात्मको वा विचारो न भवति तत्र समता जायते । तस्यां १. उप सामीप्येन ईक्षा उपेक्षा चूर्णो (पृष्ठ ११९) उच्च इक्खा उविक्खा इति व्याख्यातमस्ति । इसलिए इन दोनों हेतुओं (सूत्र ५१-५२) की समीक्षा कर मनुष्य न स्वयं प्राणियों की हिंसा करे और न दूसरों से करवाए । पापकर्म का आचरण न करने के दो हेतु हैं आध्यात्मिक ज्ञान तथा पारस्परिक विचिकित्सा । विचिकित्सा का अर्थ है-- शंका, भय, लज्जा । परस्पर एक-दूसरे की आशंका के कारण कोई व्यक्ति पापकर्म का आचरण नहीं करता अथवा कोई दूसरा देख रहा है, इसलिए पापकर्म का आचरण नहीं करता क्या उस पापकर्म केन करने का कारण मुनि - जानी होना है ? काकुध्वनि से पूछे गए इस प्रश्न का उत्तर यह है--परस्पर एक दूसरे की आशंका से पापकर्म न करना उसका हेतु ज्ञानी होना नहीं है । तात्पर्य की भाषा में उसका हेतु अध्यात्मज्ञान नहीं है । -: समता को समझकर --- हृदयंगम कर पापकर्म न करना, वहां मुनि कारण बनता है। समतापूर्वक पापकर्म से विरत होना इसका हेतु अध्यात्मज्ञान है। समता का अर्थ है-समभाव अथवा दूसरों के प्रत्यक्ष या परोक्ष में समान प्रवृत्ति करना समता है जैसा कि दश कालिक सूत्र में कहा है--दिन में या रात में, अकेले में या समूह के बीच, सोते या जागते मनुष्य को पाप कर्म से बचना चाहिए। जो व्यक्ति दूसरों के देखते हुए हिसा आदि भावों का परिहार करता है वैसे ही यह दूसरों के न देखते हुए भी हिंसा आदि का आचरण न करे। उससे उसके मन में विशेष आनन्द की अनुभूति होती है । विप्रसाद का अर्थ है-चित्त को प्रसन्नता अथवा विस की निर्मलता । जो व्यक्ति सामने कुछ और करता है और पीठ पीछे कुछ और ही करता है, उसका चित्त माया के आचरण के कारण मलिन होता है । उसमें चित्त की प्रसन्नता कहां से होगी ? समता का एक अर्थ है-- निविचारता । जहां रागात्मक या द्वेषात्मक विचार नहीं होता वहां समता का आचरण होता है । उस वृत्तौ (पत्र १५०) उत्प्रेक्ष्य पर्यालोच्य इति व्याख्यातम् । २.४/ सूत्र १८ - Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ आचारांगभाष्यम् अवस्थायामात्मप्रसाद: भूतार्थविषयः प्रज्ञालोको वा अवस्था में आत्मप्रसाद अथवा यथार्थ विषयक प्रज्ञा का आलोक प्रतिप्रतिफलिनो भवति । उत्तराध्ययनेऽपि अस्य संवादित्वं फलित होता है। उत्तराध्ययन सूत्र में भी इसका संवादी प्रमाण दृश्यते-- मिलता है-- 'एवं ससंकप्पविकप्पणासो, संजायई समयमुवट्ठियस्स । 'इस प्रकार जो समता को प्राप्त हो जाता है, उसके संकल्प अत्ये असंकप्पयतो तओ से पहीयए कामगुणेसु तल्हा ॥' और विकल्प नष्ट हो जाते हैं। जो अर्थों-इन्द्रिय-विषयों का संकल्प नहीं करता, उसके कामगुणों में होने वाली तृष्णा प्रक्षीण हो जाती M 'स वीयरामो कयसबकिच्चो, खवेइ नाणावरणं खणेणं। तहेव जं दंसणमावरेइ जंचंतरायं पकरेह कम्मं ॥" फिर वह वीतराग सब दिशाओं में कृतकृत्य होकर क्षणभर में ज्ञानावरण को क्षीण कर देता है । उसी प्रकार जो कर्म दर्शन का आवरण करता है और जो कर्म अन्तराय (विघ्न) करता है, उस दर्शनावरण और अन्तराय कर्म को क्षीण कर देता है।' ५६. अणण्णपरमं नाणी, णो पमाए कयाइ वि । आयगुत्ते सया वोरे, जायामायाए जावए। सं०-अनन्यपरम ज्ञानी नो प्रमाद्येत् कदाचिदपि । आत्मगुप्तः सदा वीरः यात्रामात्रया यापयेत् । ज्ञानी पुरुष अनन्यपरम-आत्मोपलब्धि के प्रति क्षण भर भी प्रमाव न करे। वह सवा आत्मगुप्त और पराक्रमशील रहे और परिमित भोजन से जीवन-यात्रा चलाए । भाष्यम ५६-पूर्व 'अणण्णदंसी' तथा 'परमदंसी 'अनन्यदर्शी' (अणण्णदंसी) तथा 'परमदर्शी (परमदंसी)-ये 'अनन्यदर्शी' (अणण्णदंसी) तथा 'परमटी एते पदे प्रयुक्ते स्तः । अत्र 'अणण्णपरमं पदं प्रयुक्तमस्ति। दोनों पद पहले प्रयुक्त हो चुके हैं। यहां 'अनन्यपरम'---यह पद न विद्यते अन्यः परमः-प्रधानोऽस्मादिति अनन्यपरमः प्रयुक्त है। जिससे दूसरा परम या प्रधान नहीं है, वह अनन्यपरम -आत्मोपलब्धि: संयमः समता वा। तं प्रति ज्ञानी अर्थात् आत्मोपलब्धि, संयम या समता है। उसके प्रति ज्ञानी पुरुषः नो कदाचिदपि प्रमाद्येत् । संयमसाधनायां ज्ञानस्य पुरुष कभी भी प्रमाद न करे। संयम की साधना में ज्ञान का जैसा यथा महत्त्वं तथा वीर्यस्यापि । अत एव भणितम्-स महत्त्व है वैसा ही महत्त्व है वीर्य का, शक्ति का। इसीलिए कहा वीरः पुरुषः प्रमादस्य हेतुभूतं मनोवाक्कायं भोजनं च है-वह वीर पुरुष प्रमाद के हेतुभूत मन, वचन और काया तथा विजेतं वीर्य प्रयुञ्जीत आत्मगुप्तो भवेत् । आत्मा- आहार पर विजय प्राप्त करने के लिए शक्ति का प्रयोग करे, आत्मगुप्त शरीरं, वाग, मनश्च, तैर्गुप्तो भवेत् । गुप्तये आहारस्य बने । यहां 'आत्मा' शब्द शरीर, वाणी और मन का द्योतक है। विवेकः परं अपेक्षितः । वह इन तीनों से गुप्त हो। गुप्ति के लिए आहार का विवेक अत्यन्त अपेक्षित है। यात्रा-मात्रा–यात्रा--संयम-यात्रा, तस्या निर्वाहाय यात्रा-मात्रा--यहां यात्रा का अर्थ है--संयम-यात्रा। उसके यावती आहारमात्रा युज्यते तावत्या शरीरं यापयेत् । निर्वाह के लिए आहार की जितनी मात्रा आवश्यक हो उतनी मात्रा अतिस्निग्धेन अतिप्रमाणेन वा आहारेण नो गुप्तिर्भवति । से शरीर का यापन करे। अतिस्निग्ध और अतिमात्रा में भोजन आहारस्य अकरणेन शरीरधारणमशक्यं, तेन यथा करने से गुप्ति नहीं होती। आहार के बिना शरीर को टिकाया नहीं विषयाणामदीरणा न भवति, दीर्घकालं संयमाधारदेह- जा सकता। इसलिए वैसा भोजन करना चाहिए जिससे इन्द्रिय-विषयों प्रतिपालनं भवति तथा आहर्तव्यम् । की उदीरणा--उत्तेजना न हो और संयम के आधारभूत शरीर की दीर्घकाल पर्यन्त प्रतिपालना हो सके । १. तुलना-पातञ्जलयोगदर्शन, १।४७ : निविचारवंशारखे अध्यात्मप्रसादः। २. उत्तरायणाणि, ३२।१०७-१०८। ३. आयारो, २११७३। ४. वही, ३१३८ । ५. आचारांग चूणि, पृष्ठ १२० : इंदिएहि आयोवयार काउं भण्णइ-आतगुत्ते। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ३. शीतोष्णीय, उ० ३. सूत्र ५६-५८ १८५ ५७. विरागं रूवेहिं गच्छेज्जा, महया खुड्डएहि वा। सं०-विरागं रूपेषु गच्छेत् महत्सु क्षुल्लकेषु वा । पुरुष क्षुद्र या महान् -सभी प्रकार के रूपों के प्रति वैराग्य धारण करे। भाष्यम् ५७-गुप्तिः-कायवाङ्मनसां सम्यक् मानसिक, वाचिक और कायिक सम्यक् प्रवृत्ति का भी निरोध प्रवृत्तेरपि निरोधः । तस्या उपायोस्ति वैराग्यम् । अत करना गुप्ति है । उसका उपाय है--वैराग्य । इसीलिए कहा हैएव निर्दिष्टं-रूपेषु विरागं गच्छेत् । रूपम्-पदार्थः। पुरुष रूपों के प्रति विरक्त हो। रूप का अर्थ है--पदार्थ । सर्वेपि पदार्था रूपरसाद्यात्मका भवन्ति । तत्र रूपं अतीव सभी पदार्थ रूप-रस आदि से युक्त होते हैं। पदार्थ के सभी आक्षिपति, तस्मात् तद्ग्रहणम् । ते महान्तः क्षुद्रका वा गुणों में रूप सबसे अधिक आकृष्ट करता है, इसलिए मुख्य रूप से भवेयुः । नागार्जुनीयानां व्याख्यानमेवम् उसका ग्रहण किया गया है। पदार्थ क्षुद्र या महान् होते हैं। 'विसयंमि पंचगंमीवि, दुविहंमि तियं तियं । आचार्य नागार्जुन की परम्परा की व्याख्या यह है-- भावओ सुटु जाणिता, से न लिप्पइ दोसुवि ॥" इन्द्रियाणां शब्दादयः पञ्च विषयाः। ते द्विविधाः इन्द्रियों के शब्द आदि पांच विषय हैं । वे दो प्रकार के हैं-इष्टा अनिष्टाश्च । ते च त्रिविधाः हीनमध्यमोत्कृष्ट- इष्ट और अनिष्ट । ये दोनों तीन-तीन प्रकार के हैं-हीन, मध्यम भेदात् । तान् प्रति अलिप्तो भवेत् । और उत्कृष्ट । साधक उनके प्रति अलिप्त रहे । विरजनम्-विरागः वैराग्यं वा। विषयदोष- विरजन का अर्थ है -विराग या वैराग्य । विषयों में दोष देखने दर्शनाभ्यासेन वितृष्णं चित्तम्-निर्वेदः । तेन (निर्वेदेन) के अभ्यास से चित्त की वितृष्णा-अवस्था निर्वेद है । इस निर्वेद से होने जायमानो वशीकारः वैराग्यम्, यथा---'निव्वेएणं भंते ! वाला वशीकरण वैराग्य है। जैसे-गौतम ने भगवान् से पूछाजीवे कि जणयई' ? ___भंते ! निर्वेद से जीव क्या प्राप्त करता है ?' 'निव्वेएणं दिव्यमाणुसतेरिच्छिएसु कामभोगेसु निव्वेयं भगवान् ने कहा----'गौतम ! निर्वेद से जीव में देव, मनुष्य हव्वमागच्छइ, सम्वविसएसु विरज्जइ।" और तिर्यञ्च संबंधी कामभोगों के प्रति शीघ्र ही ग्लानि उत्पन्न होती है और वह सभी विषयों के प्रति विरक्त हो जाता है। ५८. आगति गति परिणाय, दोहिं वि अंतेहिं अदिस्समाणे। से ण छिज्जइ ण भिज्जइ ण डझड, ण हम्मइ कंचणं सव्वलोए। सं०-आगति गति परिज्ञाय, द्वाभ्यामपि अन्ताभ्यां अदृश्यमानः स न छिद्यते न भिद्यते न दह्यते न हन्यते केनचिद् सर्वलोके । जो आगति और गति (संसार-भ्रमण) को जानता है वह राग और द्वेष-इन दोनों अंतों से दूर रहता है। वह समूचे लोक में न किसी के द्वारा छेदा जाता है, न भेदा जाता है, न जलाया जाता है और न मारा जाता है। भाष्यम ५८-विरागस्य आलम्बनमस्ति आगतेगतेश्च विराग का आलंबन है-आगति और गति का ज्ञान। जो परिज्ञानम् । य एतां द्वयीं परिजानाति स द्वाभ्यामपि आगति और गति----इन दोनों को जानता है, वह दोनों अंतों---राग अन्ताभ्याम-रागद्वेषाभ्यां अदृश्यमानो भवति । स च और द्वेष से भी दूर रहता है। वह रक्त है या द्विष्ट है-ऐसा परिरक्त इति द्विष्ट इति वा न परिलक्ष्यते । तादृशः पुरुषः लक्षित नहीं होता। वैसा पुरुष सारे लोक में किसी के द्वारा न छेदा सर्वलोके केनचित् न छिद्यते, न भिद्यते, न दह्यते, न जाता है, न भेदा जाता है, न जलाया जाता है और न मारा जाता है। हन्यते । ऐहिकदष्ट्या शरीरावस्थायां शस्त्रादिना न लौकिकदृष्टि से शरीरावस्था में बह शस्त्र आदि से नहीं छेदा जाता छिद्यते । लोकोत्तरदष्ट्या शरीरमुक्तावस्थायां स अच्छेद्यः, और लोकोत्तरदृष्टि से शरीरमुक्त अवस्था में अर्थात् सिद्ध अवस्था में अभेद्यः, अदाह्यः, अवध्यश्च भवति । वह अच्छेद्य, अभेद्य, अदाह्म और अवध्य होता है। १. आचारांग वृत्ति, पत्र १५० । ४. आचारांग वृत्ति, पत्र १५१ : 'कंचणे' मिति विभक्ति२. उत्तरज्मयणाणि, २९:४६ : वीयरागयाए णं भंते ! जीवे कि परिणामात् केनचित् । जणयह ? वीयरागयाए गं नेहाणुबंधणाणि तण्हाणबंधणाणि ५. तुलना-भगवद्गीता, २१२४ : य वोच्छिदइ मणु-नेसु सद्दफरिसरसरूवगंधेसु चेव विरज्जइ । अच्छेद्योऽयमबाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च । ३. वही, २९।३। नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥ वह अमर Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ आचारांग माध्यम ५४. अवरेण पुण्यं ण सरंति एगे, किमस्सतीतं ? कि वागमिस्सं? भासति एगे इह माणवा उ, जमस्तीतं आगमिस्सं । सं० – अपरेण पूर्व न स्मरन्ति एके, किमस्यातीतं ? कि वा आगमिष्यत् ? भाषन्ते एके इह मानवाः तु यदस्यातीत आगमिष्यत् । कुछ पुरुष भविष्य और अतीत की चिंता नहीं करते- -इसका अतीत क्या था ? इसका भविष्य क्या होगा ? कुछ मनुष्य कहते हैं- जो इसका अतीत था, वही इसका भविष्य होगा । माध्यम ५९ केचित् साधका अपरेण अनागतेन पूर्वम् - अतीतं न स्मरन्ति । अस्य रागद्वेषाभिभूतस्य चित्तस्य किमतीतमासीत् ? कि या अनागतं भविष्यति ? इति संबंधयोजनां न कुर्वन्ति । केचिन्मानवाः इति भाषन्ते यदस्य अतीतमासीत् तदेव अनागतं भविष्यति । भाष्यम् ६० - तथागताः च न अतीतमर्थं न अनागतमर्थ नियच्छन्ति विधूतकल्पों महर्षिः एतनु दर्शी भवति, तेन स कर्मशरीरं निश्शोष्य तस्य क्षपको भवति । ६०. जातीतम ण य आगमिस्सं अद्धं नियच्छति तहागया उ विद्युत कप्पे एयाणुपस्सी, णिज्मोसत्ता खगे महेसी । सं० नातीतमचं न च आगमिष्यत् अर्थ पश्यन्ति' तथागताः तु विधूतकल्पः एतदनुदर्शी निश्शोष्य अपक महर्षिः । तथागत अतीत और भविष्य के अर्थ को नहीं देखते। धुताचार की साधना करने वाला महर्षि वर्तमानदर्शी होता है। वह का शोषण कर उसे क्षीण कर डालता है। कर्मशरीर चित्तपर्यायाः कर्म संस्काराश्च त्रैकालिका भवन्ति । तत्र अतीतपर्यायः किं भविष्यपर्यायस्य नियमनं करोति अथवा भविष्यपर्यायः अतीतपर्यायात् सर्वथा स्वतन्त्रो भवति ? अस्मिन् विषये अभिमतमेकमस्ति यदनागत मस्ति अतीतनियमितम् । अस्मिन्नभिमते अतीते रागात्मकं चित्तं अनागतेपि रागात्मकं भविष्यति किन्तु तेषामभिमते परिणतेः नेतन्मन्यन्ते । याद अनागतं अतीतानुरूपमेव न भवति किन्तु ततो विलक्षणमपि भवति । अत एव विधूतकल्पस्य प्रयोजनम । यदि अनागतं सर्वथा अतीतपरतंत्र स्यात्तदा पूर्व संस्कारक्षपणस्य न कोप्युपायः संभवेत् 13 तथागता १. प्राकृत व्याकरण (हेमचन्द्र ), ४।१८१ : दृशो निअच्छा पेच्छावयच्छावयज्झ वज्ज सव्वव-देवखोअसोज-पुनम नियआस-पासा: २. द्रष्टव्यम् - आयारो ६।२४ । ३. सूत्र ५९-६० की व्याख्या दार्शनिक और साधना- दोनों नयों से की गई है । दार्शनिक नय से व्याख्या इस प्रकार कुछ साधक भविष्य और अतीत की चिन्ता नहीं करते । वे यह नहीं सोचते कि राग-द्वेष से अभिभूत इस चित्त का अतीत क्या थ अथवा इसका भविष्य क्या होगा ? इस प्रकार की संबंध योजना नहीं करते । कुछ पुरुष यह कहते हैं-जो इसका अतीत था, वही इसका भविष्य होगा । तथागत न अतीत के अर्थ को देखते हैं और न अनागत के अर्थ को विधूतकल्प- धुताचार की साधना करने वाला महर्षि वर्तमानद होता है. इसलिए वह कर्मशरीर का शोषण कर उसे क्षीण कर डालता है । चित्त-पर्याय और कर्म संस्कार त्रैकालिक होते हैं। क्या अतीत का पर्याय भविष्य के पर्याय का नियमन करता है अथवा भविष्य का पर्याय अतीत के पर्याय से सर्वथा स्वतंत्र होता है ? इस विषय में एक अभिमत यह है कि अनागत अतीत से नियंत्रित है। इस अभिमत के अनुसार अतीत में यदि वित्त रागात्मक है तो वह अनागत में भी रागात्मक होगा। किन्तु तथागत यह नहीं मानते। उनके अभिमत में परिणति की विचित्रता के कारण अनागत अतीत के अनुरूप ही नहीं होता, किन्तु उससे विलक्षण भी होता है। इसीलिए विधूतकल्प साधना की प्रयोजनीयता है। यदि अनावत अतीस से सर्वथा परतंत्र होता तो पूर्व-संस्कारों की क्षमता का कोई भी उपाय संभव नहीं हो पाता। कुछ दार्शनिक भविष्य के साथ अतीत की स्मृति नहीं करते । वे अतीत और भविष्य में कार्यकारणभाव नहीं मानते कि जीव का अतीत क्या था और भविष्य क्या होगा ? कुछ दार्शनिक कहते हैं- इस जीव का जो अतीत था, वही भविष्य होगा। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ३. शीतोष्णीय, उ०३. सूत्र ५६-६२ .. १८७ ६१. का अरई ? के आणंदे ? एत्थंपि अग्गहे चरे । सव्वं हासं परिच्चज्ज, आलोण-गुत्तो परिव्वए । सं०-का अरतिः ? कः आनंदः ? अत्रापि अग्रहः चरेत् । सर्व हास्यं परित्यज्य आलीनगुप्तः परिव्रजेत् । साधक के लिए क्या अरति और क्या आनन्द ? वह अरति और आनन्द के विकल्प को ग्रहण न करे । हास्य आदि सब प्रमावों को त्याग कर, इन्द्रिय-विजय और मन-वचन-काया का संवरण कर परिवजन करे। भाष्यम् ६१ - अरतिः - इष्टाप्राप्तिविनाशोत्थो इष्ट की अप्राप्ति और इष्ट के विनाश से होने वाला मानसिक मानसो भावः । आनन्दः--इष्टार्थावाप्तिसमुत्थो मानसो भाव अरति है तथा इष्ट अर्थ की प्राप्ति से होने वाला मानसिक भाव भावः। कुतश्चिन्निमित्ताद् अरतिरुत्पद्येत तदा का आनन्द है । साधक में किसी निमित्त से अरति उत्पन्न हो सकती है, अरतिः ? अथवा अतीते अनंतश: अरतिः प्राप्ता इति तब वह सोचे-'मेरे लिए क्या अरति ?' अथवा वह सोचे-'मैंने कृत्वा तस्या रेचनं कुर्यात् । एवं इष्टार्थे प्राप्ते सति अतीत में अनन्त बार अरति को भोगा है'-ऐसा सोचकर उसका क आनन्दः? अथवा अतीते अनन्तशोपि प्राप्तोऽसौ रेचन करे, उसे मन से निकाल दे। इसी प्रकार इष्ट अर्थ की प्राप्ति इति कृत्वा तस्य रेचनं कुर्यात् । अस्मिन विषये होने पर साधक सोचे-इसमें कैसा आनन्द ? अथवा वह सोचे-मैंने ध्यानावस्थितो मुनिः अग्रहश्चरेत्-अरतेरानन्दस्य अतीत में अनन्त बार आनन्द को भोगा है-यह सोचकर उसका च ग्रहणं विकल्पं वा न कुर्यात् । स सर्व हास्यं रेचन करे, उसे मन से निकाल दे। इस विषय में ध्यानलीन मुनि परित्यजेत् । आलीन:-इन्द्रियसंवतः, गुप्तः--मनो- अरति और आनन्द का ग्रहण न करे, न उनके विकल्प में उलझे । वह वाक्कायकर्मभिः संवृतः परिव्रजेत् । समस्त प्रकार के हास्य का परित्याग करे। वह आलीन और गुप्त होकर परिव्रजन करे । आलीन का अर्थ है-इन्द्रियों से संवृत और गुप्त का अर्थ है-मन, वचन और काया की प्रवृत्ति से संवृत । ६२. पुरिसा! तुममेव तुम मित्तं, कि बहिया मित्तमिच्छसि ? सं०-पुरुष ! त्वमेव तव मित्रं, कि बहिः मित्रमिच्छसि ? पुरुष ! तू ही तेरा मित्र है। फिर बाहर मित्र क्यों खोजता है ? भाष्यम् ६२-साधनाकाले वर्तमानस्य कदाचित् साधना करने वाले पुरुष के कभी पूर्व परिचितों की स्मृति हो पूर्वपरिचितानां स्मृतिर्जायते अथवा अमित्रैर्बाध्यमानस्य आती है अथवा अमित्रों के द्वारा बाध्यमान होने पर मित्र के प्रति मित्र प्रति इच्छा प्रवर्तते । तदर्थमिदमाध्यात्मिक- इच्छा होती है। उसके लिए यह आध्यात्मिक आलंबन है-हे पुरुष ! मालम्बनम-हे पूरुष ! त्वमेव तव मित्रमसि । अप्रमत्त तू ही तेरा मित्र है। अप्रमत्त आत्मा ही तेरा मित्र है । बाहर आत्मा एव तव मित्रमस्ति । कि बहिमित्रमिच्छसि ? मित्र क्यों खोज रहा है? जो बाह्य मित्र और अमित्र होते हैं यो बाह्यो मित्रामित्रविशेषः स व्यवहारनयसापेक्षः। वे सारे व्यावहारिक दृष्टि से हैं। प्रस्तुत सूत्र निश्चय नय का निश्चयनयसापेक्षं सूत्रमिदम् । तात्पर्यमिदम्-त्वं द्योतक है। इस सूत्र का तात्पर्य यह है-तू अप्रमत्त हो । बाह्य मित्र तथागत अतीत और आगामी अर्थ को स्वीकार नहीं भविष्य के अर्थ को नहीं देखते-राग-द्वेषात्मक चित्त-पर्याय करते । महर्षि इन सब मतों की अनुपश्यना (पर्यालोचना) का निर्माण नहीं करते। कर धुताचार के आसेवन द्वारा कर्म-शरीर का शोषण कर जिसका आचार राग-द्वेष और मोह को शांत या क्षीण उसे क्षीण कर डालता है। करने वाला होता है, वह विधूतकल्प कहलाता है। वह साधना नय की व्याख्या इस प्रकार है तथागत विधूतकल्प 'एयाणुपस्सी' होता है। कुछ साधक अतीत के भोगों को स्मृति और भविष्य के १. एतदनुपश्यी-- वर्तमान में घटित होने वाले यथार्थ को भोगों की अभिलाषा नहीं करते। कुछ साधक कहते हैं देखने वाला। अतीत भोग से तृप्त नहीं हुआ, इससे अनुमान किया २. एकानुपश्यी-अपनी आत्मा को अकेला देखने वाला। जाता है कि भविष्य भी भोग से तृप्त नहीं होगा। ३. एजानुपश्यी-धुताचार के द्वारा होने वाले प्रकम्पनों या __ अतीत के भोगों की स्मृति और भविष्य के भोगों की परिवर्तनों को देखने वाला। अभिलाषा से राग-द्वेष और मोह उत्पन्न होते हैं । इसलिए वह राग और द्वेष से मुक्त रह कर कर्म-शरीर को क्षीण तथागत (वीतराग की साधना करने वाले) अतीत और करता है। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ अप्रमत्तो भव । बाह्यमित्रान्वेषणायां मा समयं यापय । की खोज में अपने समय को मत गवां । 1 ६३. जं जाणेज्जा उच्चालइयं तं जाणेज्जा दूरालइयं । जं जाणेज्जा दूरालइयं तं जाणेज्जा उच्चालइयं । सं० वं जानीयाद् उच्चाधिकं तं जानीयाद्दूरालयिकम्। यं जानीयाद् दुरालयिकं तं जानीयाद् उन्चाविकम् । जिसे तुम परम तत्व के प्रति लगा हुआ जानते हो, उसे कामनाओं से दूर हुआ जानो । जिसे तुम कामनाओं से दूर हुआ जानते हो, उसे परम तत्त्व के प्रति लगा हुआ जानो । 1 भाष्यम् ६३ – यः उच्चे - परमतत्त्वे लीनो भवति तथा मित्रामित्रविशेषाद् ऊर्ध्वं तिष्ठति स उच्चालये विहरतीति उच्चापि तादृशः कामनात अनुकूल प्रतिकूलसंवेदनाच्य दूरं तिष्ठति तेन स राधिको भण्यते । उच्चालयिकत्वं दूरालयिकत्वस्य सूचकमस्ति । दूराविकत्वमपि सूचयति उच्चालयिकत्वम् । ६४. पुरिसा ! अत्ताणमेव अभिणिगिन्झ, एवं दुक्खा पमोक्खसि । सं० पुरुष ! आत्मानमेव अभिनिगृह्य एवं दुःखात् प्रमोक्ष्यसि 7 पुरुष ! आत्मा का ही निग्रह कर। इस प्रकार तू दुःख से मुक्त हो जाएगा । भाष्यम् ६४ - आत्मा - चित्तम् । हे पुरुष ! त्वं अनुकूल संवेदने रज्यमानं प्रतिकूलसंवेदने च द्विष्यमाणमात्मानं अभिनिगृह्य तिष्ठ एवं त्वं दुःखाद् मुक्तो भविष्यसि । दुःखं अनुकूल प्रतिकूलसंवेदनाभ्यामुत्पद्यते यः संवेदनस्याभिनिग्रहणं करोति तस्य सहजमेव दुःख प्रमोक्षो जायते ।' ६५. पुरिसा ! सचमेव समभिजानाहि । सं० - पुरुष ! सत्यमेव समभिजानीहि । पुरुष ! तू सत्य का ही अनुशीलन कर भाष्यम् ६५ – आत्मनिग्रहः किमुपायः इति जिज्ञासां समाधातुं सूत्रकारो निर्दिशति - हे पुरुष ! त्वं सत्यमेव समभिजानीहि । सत्यम् – वस्तुनो यथार्थस्वरूपम् । , १.) आचारांग पूर्ण पृष्ठ १२४ विसए उच्चारिते। उचालवितारम् - (ख) आचारांग वृति पत्र १५३ अपनेतारम् । २. आचारांग चूर्णि पृष्ठ १२४ : दुक्खं ३. आत्मा शब्द का प्रयोग चैतन्य-पिण्ड, अर्थ में होता है। अभिनय का अर्थ है- समीप जाकर पकड़ना । जो व्यक्ति मन के समीप जाकर उसे पकड़ लेता है, उसे जान लेता है, वह सब दुःखों से मुक्त हो जाता है। निकटता से जान लेना ही वास्तव में पकड़ना है । नियंत्रण करने से प्रतिक्रिया पैदा होती है। उससे निग्रह नहीं होता । धर्म के क्षेत्र में यथार्थ को जान लेना ही निग्रह है। कम्मं । मन और शरीर के जो उच्च - परम तत्व में लीन होता है तथा मित्र और अमित्र की मान्यता से ऊपर उठ जाता है, वह उन्नालय में विहरण करने वाला उच्चाधिक होता है। पैसा साधक कामनाओं तथा अनुकूल और प्रतिकूल संवेदनाओं से दूर रहता है, इसलिए वह वरालयिक कहलाता है। उच्चालयिक दुरालयिक का सूचक है । राजविक भी उच्चातपिक का सूचक है। आचारांग भाष्यम आत्मा का अर्थ है चित्त । हे पुरुष ! तू अनुकूल संवेदनों में अनुरक्त हो जाने वाले और प्रतिकूल संवेदनों में द्वेष करने वाले चिरा का निग्रह करके रह इस प्रकार तू दुःख से मुक्त हो जाएगा। दुःख उत्पन्न होता है अनुकूल और प्रतिकूल संवेदनों से जो संवेदनों का निग्रह कर लेता है, उसके सहज ही दुःख-मुक्ति हो जाती है । आत्म-निग्रह का उपाय क्या है ? इस जिज्ञासा का समाधान करने के लिए सूत्रकार कहते हैं - हे पुरुष ! तू सत्य का ही अनुशीलन कर । सत्य का अर्थ है - वस्तु का यथार्थ स्वरूप । जब त ४. (क) आचारांग चूमि, कुठ १२४ सोनाम संजमो सत्तरसविहो तं समभियाणहि, जं भणितं तं समायर, अया सच्चे साणिवि क्याणि पासिज्वंति कहं ? जो आयरिया पंच महत्ययाई, आरभित्ता नागपाले सो परियालोवेन सच्चो भवति । (ख) आचारांग वृति पत्र १५३ सदस्य हितः सत्य:-- संयमस्तमेवापरण्यापार निरपेक्षः समभिजानीहिआसेवनापरिज्ञया समनुतिष्ठ यदिवा सत्यमेव समभिजानीहि गुस्सासिगृहीतप्रतिज्ञानिर्वाहको भव । (ग) प्रष्टव्यम् ३२४० माध्यम् । - Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ३. शीतोष्णीय, उ० ३. सूत्र ६३-६७ १८६ यावत् सत्यं समभिज्ञातं न भवति तावद् वस्तु प्रति वह सम्यग् रूप से ज्ञात नहीं होता तब तक वस्तु के प्रति होने वाला जायमानं प्रियाप्रियसंवेदनग्रहणं विमुक्तं न स्यात् । प्रिय संवेदन अथवा अप्रिय संवेदन का ग्रहण नहीं रुकता। धर्मध्यान के अपायविचयविपाकविचयात्मकेन धर्मध्यानेन पदार्थ- दो भेदों-अपायविचय और विपाकविचय से पदार्थ सम्बन्धी दोषों संबंधिनः अपायान् तद्धेतुकान् विपाकांश्च समभिज्ञायैव तथा उनसे होने वाले परिणामों को सम्यग् रूप से जानकर ही पुरुष पुरुषः आत्मनिग्रहं कर्तुं शक्नोति। आत्म-निग्रह कर सकता है। ६६. सच्चस्स आणाए उवट्ठिए से मेहावी मारं तरति । सं० ---सत्यस्य आज्ञया उपस्थितः स मेधावी मारं तरति । जो सत्य की आज्ञा में उपस्थित है वह मेधावी मृत्यु को तर जाता है। भाष्यम् ६६-य: सत्यस्य' आज्ञया उपस्थित : स जो सत्य की आज्ञा में उपस्थित है, वह मेधावी मृत्यु को तर मेधावी मारं तरति। आज्ञा-आगमः, अन्तर्दृष्टिः , जाता है । आज्ञा के तीन अर्थ हैं-आगम, अन्तर्दष्टि, सूक्ष्म पदार्थों सूक्ष्मार्थपरिज्ञानमिति। मारः-मृत्युः अथवा कामः, का ज्ञान । मार का अर्थ है-मृत्यु अथवा काम । काम के दो प्रकार इच्छाकामः मदनकामश्च । असत्यस्योपस्थानेनैव मूर्छा हैं-इच्छाकाम और मदनकाम। असत्य की आराधना से ही भ्रान्तिर्वा प्रवर्धते, ततः कामोऽभिजायते। सत्यस्य मूर्छा और भ्रान्ति बढती है। उससे काम उत्पन्न होता है। सत्य साक्षादुपस्थानेनैव कामः अन्तं नेतुं शक्यः । की साक्षात् आराधना से ही काम-मृत्यु अथवा कामनाओं का अन्त किया जा सकता है। ६७. सहिए धम्ममादाय, सेयं समणुपस्सति । सं०---सहितः धर्ममादाय श्रेयः समनुपश्यति । सहिष्णु साधक धर्म को स्वीकार कर श्रेय का साक्षात् कर लेता है। भाष्यम् ६७-सहितः-सहनशीलः । येन अनुकला सहित का अर्थ है---सहनशील । जिसने अनुकूल और प्रतिकल प्रतिकूला च परिस्थिति ः सोढा स धर्म समादाय श्रेयः परिस्थितियों को सहन किया है, वह सहिष्णु साधक धर्म को स्वीकार समनुपश्यति। यः प्रेयसि एव मूच्छित : स कथं कर श्रेय का साक्षात् कर लेता है। जो केवल प्रेयस् में ही मूच्छित श्रेयःसमनदर्शी भवेत ? श्रेयः-इन्द्रियातीतं पदार्थातीतं रहता है वह श्रेय का साक्षात्दी कैसे हो सकता है ? धेय का अर्थ च सुखं हितं वा अथवा कल्याणं, यथा है-...इन्द्रियातीत और पदार्थातीत सुख या हित अथवा कल्याण । जैसेसोच्चा जाणइ कल्लाणं, सोच्चा जाणइ पावगं । _ 'सुन कर ही कल्याण जाना जाता है और सुनकर ही पाप उभयं पि जाणई सोच्चा, जं छेयं तं समायरे ॥५ जाना जाता है। दोनों को सुनकर जाना जाता है। जो श्रेयस्कर है, उसका तुम आचरण करो।' १. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ १२४ : दुवालसंग वा प्रवचनं सच्चं। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १५३ : सत्यः-आगमः। (ग) द्रष्टव्यम्-३४० भाष्यम् । २. (क) आचारांग चुणि, पृष्ठ १२४ : मारणं मारयति मारो, जं मणितं संसारो। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १५३ : मार-संसारम् । ३. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ १२४ : तेण तित्वगर भासितेण अ सच्चेण सहितो तप्पुब्वगं चरितं धम्म आदाय । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १५३ : सहितो-ज्ञानादियुक्तः सह हितेन वा युक्तः सहितः। (ग) आप्टे, सहित: Borne, Endured. ४. (क) आचारांग चणि, पृष्ठ १२४ : सेयं इति पसंसे अत्थे. सयंति तमिति सेओ, जं भणितं मोक्खं । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १५३ : श्रेयः पुण्यमात्महितं वा। ५. बसवेआलियं, ४ गाथा ११ Jain Education international Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० आचारांगभाष्यम् ६८. दुहओ जीवियस्स, परिवंदण-माणण-पूयणाए, जंसि एगे पमादेति । सं०-द्वितः जीवितस्य परिवन्दन-मानन-पूजनाय, यस्मिन् एके प्रमाद्यन्ति । राग और द्वेष के अधीन होकर मनुष्य वर्तमान जीवन के लिए तथा प्रशंसा, सम्मान और पूजा के लिए चेष्टा करता है। कुछ साधक भी उनके लिए प्रमाद करते हैं। भाष्यम् ६८–मनुष्या द्वाभ्यां रागद्वेषाभ्यामभिभूता जो पुरुष राग और द्वेष-इन दोनों से अभिभूत हैं वे अपने जीवितस्य हेतोः, परिवंदनमाननपूजनहेतोश्च' प्रमत्ताः जीवन के लिए तथा प्रशंसा, सम्मान और पूजा के लिए प्रमत्त होते हैं, सन्ति, किन्तु एके प्रव्रज्यामादायापि असहिष्णुत्वात् किन्तु कुछ प्रव्रज्या ग्रहण करके भी असहिष्णु होने के कारण जीवन, तदर्थं प्रमाद्यन्ति । प्रशंसा आदि के लिए प्रमाद करते हैं । ६६. सहिए दुक्खमत्ताए पुट्ठो णो झंझाए। सं०-सहितः दुःखमात्रया स्पृष्टः नो 'झझाए। सहिष्ण साधक दुःखमात्रा से स्पृष्ट होने पर व्याकुल न हो। भाष्यम् ६९-सहनशीलो मुनिः दुःखमात्रया सहिष्णु मुनि दुःखमात्रा-शीत और उष्ण (अनुकूल और शीतोष्णः परीषहैः स्पृष्टः नो झञ्झाप्रताडित इव प्रतिकूल) परीषहों से स्पृष्ट होने पर झंझा से प्रताड़ित व्यक्ति की व्याकुलमतिर्भवेत् । शीतै : परिषहैः रागझञ्झा समुत्पद्यते भांति आकुल-व्याकुल न बने । शीत परीषहों से राग का झंझावात उष्णश्च द्वेषझञ्झा । तां द्विविधामपि व्याकुलतां अकृत्वा उत्पन्न होता है और उष्ण परीषहों से द्वेष का झंझावात उठता है । समत्वे स्थातुमर्हति। वह सहिष्णु साधक दोनों प्रकार की व्याकुलताओं में न फंस कर समता में स्थित हो सकता है। ७०. पासिमं दविए लोयालोय-पवंचाओ मुच्चइ । -त्ति बेमि । सं०-दृष्टिमान् द्रव्यः लोकालोकप्रपञ्चात् मुच्यते । -इति ब्रवीमि । दृष्टिमान और द्रव्य-रागद्वेष से अपराजित साधक लोक के दृष्ट प्रपंच से मुक्त हो जाता है। ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् ७०-येन पुरुषेण शीतोष्णपरीषहान् सोढुं जिस साधक को शीत और उष्ण-अनुकूल और प्रतिकूल दष्टिरुपलब्धा स दष्टिमान् द्रव्यः-रागद्वेषाभ्यामनभि- परीषहों को सहने की दृष्टि उपलब्ध है, वह दष्टिमान होता है। वह भूत : लोकालोक प्रपञ्चाद् मुच्यते । लोकः-दृश्यमानः, द्रव्य अर्थात् राग-द्वेष से अपराजित व्यक्ति लोक-अलोक के प्रपंच से अलोकः-अदृश्यमानः अथवा लोके आलोक्यमानः- मुक्त हो जाता है। लोक का अर्थ है-दृश्यमान और अलोक का अर्थ लोकालोकः, तस्य प्रपञ्चः-बन्धनस्य विस्तारः । द्रव्यः है—अदृश्यमान अथवा लोकालोक का अर्थ है-लोक में दिखाई देने पुरुषः दृश्यमानानां संबंधानां अदृश्यमानानां च कर्म- वाला । उसका प्रपंच अर्थात् बन्धन का विस्तार। द्रव्य अर्थात् वीतराग बन्धनानां प्रपञ्चाद् मुक्तो भवति । पुरुष दृश्यमान सम्बन्धों के तथा अदृश्यमान कर्मबन्धों के प्रपंच से मुक्त हो जाता है। १. द्रष्टव्यम्-आयारो, ११२१ । २. देशीशब्दः। ३. 'पासिम' अस्य पदस्य 'पश्य इम', 'दृष्ट्वा इम' अथवा 'दृष्टिमान्'–एतानि त्रीणि रूपाणि संस्कृते कर्तुं शक्यानि । अस्माभिः एक पदमादाय दृष्टिमानिति रूपं कृतम् । (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ १२५ : पस्सतीति पासिम, कि एतं ? जं मणितं-संधि लोगस्स जाव णो झंझाएत्ति एतं पस्सति । (२) आचारांग वृत्ति, पत्र १५४ : उद्देशकावेरारम्यानन्तर सूत्रं यावत् तमिममयं पश्य-परिच्छिन्द्धि । (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ १२५ : लोकतीति लोगो, आलोक्कतीति आलोको, लोगालोगो, जो जेहिं जाए वट्टति सो तेणप्पगारेण आलोक्कति, जं मणितं-- दिस्सति, तंजहा-नारइयत्तेण, एवं सेसेसुवि पिहिप्पिहेहि सरीरवियप्पेहि आलोक्कति सरीरे। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १५४ : आलोक्यत इत्यालोकः, कर्मणि घन , लोके चतुर्दशरज्ज्वात्मके आलोको लोकालोकः । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९१ अ०३. शीतोष्णीय, उ० ३-४. सूत्र ६८-७३ चउत्थो उद्देसो : चौथा उद्देशक सपना ७१. से वंता कोहं च, माणं च, मायं च, लोभं च । सं.–स वमिता क्रोधं च मानं च मायां च लोभं च । साधक क्रोध, मान, माया और लोम का वमन करने वाला होता है। भाष्यम् ७१-इदानीं लोकालोकप्रपञ्चमुक्तेः प्रक्रिया अब लोकालोक के प्रपंच से मुक्त होने की प्रक्रिया बतलाई जा उपदिश्यते-स शीतोष्णपरीषहसहिष्णुर्मनिः कषाय- रही है-वह शीत और उष्ण परीषहों को सहने वाला मुनि कषायों मुक्त्या मुक्तो भवति । कषायश्च क्रोधमानमायालोभ- की मुक्ति होने पर मुक्त हो जाता है। कषाय चार प्रकार का हैभेदात् चतुर्विधः । तत्र उपघातादिहेतुजनिताऽध्यवसायः क्रोध, मान, माया और लोभ । उपघात आदि हेतुओं से उत्पन्न क्रोधः । उत्कर्षाध्यवसायो मानः । वञ्चनाध्यवसायो अध्यवसाय क्रोध है । उत्कर्ष का अध्यवसाय है मान। वञ्चना का माया। तृष्णापरिग्रहाध्यवसायो लोभः । अध्यवसाय है माया और तृष्णा तथा परिग्रह का अध्यवसाय है लोभ । __ मुक्तिमिच्छः पुरुषः एतं चतुर्विधकषायं वमिता' जो पुरुष मुक्ति चाहता है वह इन चारों कषायों का वमन भवति । तं उपशमं क्षयं वा नयतीति तात्पर्यम् । करने वाला होता है। इसका तात्पर्य है कि वह इन कषायों का उपशम या क्षय कर देता है। ७२. एवं पासगस्स सणं उबरयसत्थस्स पलियंतकरस्स । सं०-एतद् पश्यकस्य दर्शनं उपरतशस्त्रस्य पर्यन्तकरस्य । यह अहिंसक और निरावरण द्रष्टा का दर्शन है। भाष्यम् ७२-एतत् कषायविरेचनं पश्यकस्य दर्शन- कषायों के विरेचन का यह सिद्धान्त पश्यक-द्रष्टा का दर्शन मस्ति । निरावरणत्वात् सर्वं पश्यति इति पश्यः, स एव है। निरावरण होने के कारण जो सब कुछ देखता है वह पश्य है। पश्यकः-भगवान् महावीरः। शस्त्रं द्रव्यभावभेद- वही पश्यक है। भगवान् महावीर पश्यक-द्रष्टा हैं। भिन्नम्। द्रव्यशस्त्रमग्न्यादयः, भावशस्त्रं कषायः शस्त्र के दो भेद हैं-द्रव्य शस्त्र और भाव शस्त्र। अग्नि असंयमो वा। आदि द्रव्य शस्त्र हैं और कषाय अथवा असंयम भाव शस्त्र हैं। उपरतं शस्त्रं यस्य स उपरतशस्त्रः । यः घात्यकर्मणां जो शस्त्रों से उपरत है, वह उपरतशस्त्र है। जो घात्यको पर्यन्तं करोति स पर्यन्तकरः । यः उपरतशस्त्रो भवति स का अन्त करता है, वह पर्यन्तकर है। जो उपरतशस्त्र होता है पर्यन्तकरो भवति। यश्च पर्यन्तकरो भवति स पश्यको वह पर्यन्तकर होता है। जो पर्यन्तकर होता है, वह पश्यक होता है। भवति । तस्य दर्शनमिदम् । उसी का यह दर्शन है। ७३. आयाणं (णिसिद्धा?) सगडन्मि। सं०--आदानं (निषेध्य) स्वकृतभित् । जो पुरुष कर्म के आदान-कषाय को रोकता है, वही अपने किए हुए कर्म का भेवन कर पाता है। माष्यम् ७३-अत्र नाशंकनीयं, कृतानि कर्माणि यह आशंका नहीं करनी चाहिए कि जब किए हुए कर्मों को भोक्तव्यानि । कथं तेषां पर्यन्तं कर्तुं शक्यम् ? आदानस्य भोगना ही होता है तब उनका अन्त कैसे किया जा सकता है? निरोधे पूर्वाजितानां कर्मणां भेदनं संभाव्यतामेति । आदान का निरोध करने पर पूर्वार्जित कर्मों का भेदन सम्भव बनता बानकषायः। यः आदानं निरुणद्धि स है। आवान का अर्थ है-कषाय । जो आदान का निरोध करता है वह स्वतस्य कर्मणः भेत्ता भवति । निरोधे अपूर्वकर्मणां अपने द्वारा कृत कर्मों का भेदन करने वाला होता है। निरोध में नए २. देखें-आयारो, ११९ । १. आचारांग चूणि, पृष्ठ १२६ : वमगंति वा विरेयणंति वा विगिचणंति वा विसोहगंति वा एगट्ठा। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगभाष्यम् प्रवेशो निरुद्धो भवति, पूर्वकर्मणां च क्षयो भवति। कर्मों का प्रवेश निरुद्ध हो जाता है और पूर्व कर्मों का क्षय होता है। तत्क्षयार्थं कषायस्य निरोधः अवश्यं कर्तव्य इति कर्मों के क्षय के लिए कषाय का निरोध अवश्य करना चाहिए, यह हृदयम् । इसका हार्द है। ७४. जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ, से एगं जाणइ । सं०यः एक जानाति, स सर्व जानाति । यः सर्व जानाति, स एक जानाति । जो एक को जानता है, वह सबको जानता है। जो सबको जानता है, वह एक को जानता है । भाष्यम् ७४–'एगं' इति पदं अनिर्दिष्टविशेष्यं प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'एग' शब्द का विशेष्य निर्दिष्ट नहीं है। वर्तते । अनुवृत्त्या आदानमिति प्रकृतम् । य एकमादानं- अनुवृत्ति से 'आदान' पद यहां प्रासंगिक है। जो एक आदानक्रोधकषायं जानाति स सर्वमादानं जानाति । यः क्रोध कषाय को जानता है, वह सभी आदानों-कषायों को जानता सर्वमादानं जानाति स वस्तुरूपेण एकमादानं जानाति। है। जो सभी आदानों को जानता है. वह यथार्थरूप में एक आदानमुक्तेः प्रथम उपायोऽस्ति तस्य सर्वात्मना आदान को जानता है। आदान-मुक्ति का पहला उपाय है-उसका परिज्ञानम् । यो आदानं न जानाति स कथं तस्य सम्पूर्ण ज्ञान । जो आदान को नहीं जानता वह उसके निरोध के निरोधाय निर्जरणाय वा प्रयतेत ? लिए अथवा निर्जरण-क्षय के लिए कैसे प्रयत्न करेगा? एष आचारशास्त्रीयः दृष्टिकोणः । चूर्णी वृत्तौ च यह आचारशास्त्रीय दृष्टिकोण है। चूणि और वृत्ति में प्रस्तुत प्रस्तुतसूत्र दर्शनशास्त्रीयदृष्टिकोणेन व्याख्यातमस्ति। सूत्र की व्याख्या दर्शनशास्त्रीय दृष्टिकोण से की गई है। आगमों की आगमानां व्याख्यापद्धतेश्चत्वारि अङ्गानि विद्यन्ते- व्याख्या-पद्धति के चार अंग हैं-द्रव्यानुयोग, चरणकरणानुयोग, द्रव्यानुयोगः, चरणकरणानुयोगः, गणितानुयोगः, गणितानुयोग और धर्मकथानुयोग । प्रत्येक सूत्र की व्याख्या इन चार धर्मकथानुयोगश्च । प्रत्येक सूत्रं एभिश्चतुभिः दृष्टिकोणों से की जाती है। इसलिए दार्शनिक दृष्टिकोण भी दृष्टिकोण: वक्तव्यं भवति । तेन दार्शनिकद ष्टिकोणोऽपि अप्रासंगिक नहीं है। नाप्रासङ्गिकः। चणिकाराभिमतम्---'जो एगं जीवद्रव्यं अजीवदव्वं चूर्णिकार का अभिमत यह है -जो जीव अथवा अजीव द्रव्य वा अतीतानागतवट्टमाणेहिं सव्वपज्जएहिं जाणइ, को अतीत, अनागत और वर्तमान-सभी पर्यायों से जानता है, उस सिस्सो वा पूच्छति-भगवं ! जो एगं जाणइ सो व्यक्ति को लक्ष्य कर शिष्य ने पूछा--भंते ! क्या एक को जानने वाला सव्वं जाणइ? आमं, एत्थ जीवपज्जवा अजीवपज्जवा य सबको जानता है ? भाणियव्वा ।' आचार्य ने कहा- हां। कैसे भंते? आचार्य ने कहा-एक को जानने वाला सबको जानता है, इसका तात्पर्य यह है कि वह व्यक्ति जीव द्रव्य अथवा अजीव द्रव्य के कालिक-अतीत, अनागत और वर्तमान--पर्यायों को जानता है। वत्तिकारेण किञ्चिद् विस्तृतरूपेण व्याख्यातमिदं वृत्तिकार ने इसकी व्याख्या कुछ विस्तार से की है'यः कश्चिदविशेषित: एक परमाण्वादि द्रव्यं पश्चात्- जो कोई पुरुष किसी अविशेषित एक परमाणु आदि द्रव्य को पुरस्कृतपर्यायं स्वपरपर्यायं वा जानाति-परिच्छिनत्ति, अथवा उसके अतीत और अनागत पर्यायों को अथवा स्व-पर पर्यायों स सर्व स्वपरपर्यायं जानाति, अतीतानागतपर्यायिद्रव्य- को जानता है-उनका परिच्छेद करता है, वह सभी स्व-पर पर्यायों परिज्ञानस्य समस्तवस्तुपरिच्छेदाविनाभावित्वात् ।"" को जानता है। क्योंकि प्रत्येक द्रव्य अतीत और अनागत पर्याययुक्त होता है। उसका ज्ञान समस्त वस्तु के परिच्छेद ---विशेष ज्ञान के बिना नहीं हो सकता। यः सर्व संसारोदरविवरवत्ति वस्तु जानाति स एक . जो पुरुष संसार में विद्यमान सभी वस्तुओं को जानता है वह १. आचारांग चूणि, पृष्ठ १२६ । २. आचारांग वृत्ति, पत्र १५५ । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०३. शीतोष्णीय, उ० ४. सूत्र ७४-७५ घटादि वस्तु जानाति, तस्यैवातीतानागतपर्यायभेदैस्तत्- घट आदि एक वस्तु को भी जान लेता है। क्योंकि उसी घट की तत्स्वभावापत्त्याऽनाद्यनन्तकालतया समस्तवस्तुस्वभाव- अतीत और अनागत पर्यायों के भेद से वह घट विभिन्न वस्तुओं के गमनादिति', तदुक्तम् स्वभाव को प्राप्त कर अनादि-अनंत काल में विश्व की सभी वस्तुओं के स्वभाव को प्राप्त कर चुका होता है । कहा भी है-- एगदवियस्स जे अत्थपज्जवा वयणपज्जवा वावि । एक द्रव्य में अतीत, अनागत और वर्तमान के जितने तोयाणागयभूया तावइयं तं हवइ दव्वं ॥ अर्थ-पर्याय और वचन-पर्याय होते हैं, वह द्रव्य उतना ही होता है।' विश्ववर्तीनि सर्वाण्यपि द्रव्याणि परंपरया विश्व के सारे द्रव्य परंपरा से संश्लिष्ट हैं। इसलिए एक द्रव्य संश्लिष्टानि वर्तन्ते। ततः एकस्य ज्ञानं सर्वेषां का ज्ञान करने के लिए सभी द्रव्यों का ज्ञान अपेक्षित होता है। ज्ञानमपेक्षते । जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणेन आकाररूपमक्षरं लक्ष्यी- जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण ने आकाररूप अक्षर को लक्ष्य कर कृत्य लिखितं, सर्वमजानन् नाकारं सर्वथा जानाति-- लिखा है- जो सबको नहीं जानता वह एक 'आकार' अक्षर को भी नहीं जानता। 'एगं जाणं सब्वं जाणइ, सव्वं च जाणमेगं ति । जो एक को जानता है वह सबको जानता है। जो सबको इय सब्वमजाणतो, नागारं सव्वहा मुणइ ॥ जानता है वह एक को जानता है। जो सबको नहीं जानता वह एक 'आकार' को सर्वथा नहीं जानता। मलधारिहेमचन्द्रसूरिणा समर्थितमिदं एक किमपि मलधारी हेमचन्द्रसूरी ने इसी मत का समर्थन करते हुए वस्त सर्वैः स्वपरपर्यायः युक्तं जानन्-अवबुध्यमानः लिखा है जो किसी एक वस्तु को सभी स्व-परपर्यायों से युक्त जानता सर्व लोकालोकगतं वस्तु सर्वेः स्वपरपर्यायैर्युक्तं जानाति, है वह लोक और अलोक के सभी वस्तुओं को, सभी स्व-पर पर्यायों से सर्ववस्तुपरिज्ञाननान्तरीयकत्वाद् एकवस्तुज्ञानस्य । यश्च युक्त जानता है, क्योंकि एक वस्तु का ज्ञान सभी वस्तुओं के परिज्ञान का सर्वं सर्वपर्यायोपेतं वस्तु जानाति स एकमपि सर्वपर्यायो- अविनाभावी है। जो सर्वपर्यायों से युक्त सभी वस्तुओं को जानता है, पेतं जानाति, एकपरिज्ञानाऽविनाभावित्वात् सर्वपरि- वह एक वस्तु को भी सर्वपर्यायों से युक्त जानता है। क्योंकि सभी ज्ञानस्य । वस्तुओं का परिज्ञान एक वस्तु के परिज्ञान का अविनाभावी है। ७५. सव्वतो पमत्तस्स भयं, सव्वतो अप्पमत्तस्स नत्थि भयं । सं०-सर्वतः प्रमत्तस्य भयं, सर्वतः अप्रमत्तस्य नास्ति भयम् । प्रमत्त को सब ओर से भय होता है । अप्रमत्त को कहीं से भी भय नहीं होता। भाष्यम् ७५-कषायस्य स्वरूपज्ञानेन तथ्यमेतद कषाय का स्वरूप जान लेने पर यह तथ्य हृदयंगम हो जाता हृदयङ्गमं भवति-प्रमत्तस्य सर्वतो भयं भवति । है कि प्रमत्त पुरुष को सर्वतः भय होता है। सर्वतः का अर्थ है-द्रव्य सर्वतः-द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः, भावतश्च । से, क्षेत्र से, काल से और भाव से। द्रव्यतः-सर्वेषु आत्मप्रदेशेषु । द्रव्यतः--प्रमत्त व्यक्ति के सभी आत्मप्रदेशों में भय व्याप्त रहता है। १. सन्मतितर्कप्रकरण, ११३१ । स्वपर्याय और परपर्याय-इन दोनों पर्यायों से एक द्रव्य २. द्रव्य के त्रैकालिक पर्यायों को जानने वाले व्यक्ति का ज्ञान को जानने का अर्थ सब द्रव्यों को जानना है। इतना विकसित होता है कि उसमें सब द्रव्यों को जानने इसका आध्यात्मिक तात्पर्य इस भाषा में व्यक्त किया जा की क्षमता होती है। जिसमें सब द्रव्यों को जानने की सकता हैक्षमता होती है, वही वास्तव में एक द्रव्य को जान सकता जो आत्मा को जानता है, वह सबको जानता है, जो सबको जानता है, वही आत्मा को जानता है। द्रव्य के पर्याय दो प्रकार के होते हैं -स्वपर्याय और ३. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा ४८४ । परपर्याय । स्वपर्याय और परपर्याय-इन दोनों को जाने ४. वही, गाथा ४८४ वृत्ति। बिना एक द्रव्य को भी पूर्णतः नहीं जाना जा सकता। Jain Education international Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ आचारांगभाष्यम् क्षेत्रतः--षट्सु दिक्षु। क्षेत्रत:---छहों दिशाओं से उसे भय होता है। कालतः-अनुसमयम् । कालतः--प्रति क्षण उसे भय सताता है। भावतः-सर्वासु अवस्थासु । भावत: सभी अवस्थाओं में वह भयभीत रहता है। यः रागद्वेषाभ्यां क्रोधमानमायालोभैर्वा अभि- प्रमत्त वह होता है जिसके आत्म-परिणाम राग-द्वेष अथवा भूतात्मपरिणामः स प्रमत्तः। तैरनभिभूतात्मपरि- क्रोध, मान, माया और लोभ से अभिभूत होते हैं। जिसके आत्मणामश्चाप्रमत्तः । रागाभिभूतः पुरुषः प्रियवियोगाशंकया परिणाम इनसे अभिभूत नहीं होते वह अप्रमत्त होता है। राग से बिभेति, द्वेषाभिभूतश्च अप्रियसंयोगाशंकया। एवं अभिभूत व्यक्ति अपने प्रिय के वियोग की आशंका से भयभीत हो जाता क्रोधादीनपि अनुगच्छति भयम् । प्रियाप्रिययोः समं है और द्वेष से अभिभूत व्यक्ति अप्रिय के संयोग की आशंका से तिष्ठतः अप्रमत्तस्य कुतोऽपि भयं न भवति । तात्पर्यमस्य भयभीत हो जाता है। इस प्रकार भय क्रोध आदि का भी अनुगमन यस्मिन कषायः सक्रियस्तत्र भयं, यस्मिन् स निष्क्रियः करता है। अप्रमत्त व्यक्ति प्रिय और अप्रिय के प्रति सम रहता है, तत्राभयं भवति । इसलिए उसे कहीं से भी भय नहीं होता। इसका तात्पर्य यह है कि जिसमें कषाय सक्रिय है, वहां भय है और जिसमें वह निष्क्रिय है, वहां अभय है। ७६. जे एगं नामे, से बहुं नामे, जे बहुं नामे, से एगं नामे । सं०-यः एक नामयति, स बहून् नामयति । यः बहून् नामयति, स एकं नामयति । जो एक को झुकाता है, वह बहुतों को झुकाता है । जो बहुतों को झुकाता है, वह एक को झुकाता है । भाष्यम् ७६–कषायाधिकारो वर्तते। कषायस्य कषाय का अधिकार है। कषाय का वमन दो प्रकार का होता वमनं द्विविधं भवति-उपशमनवमनं क्षपणवमनं च । है-उपशमन वमन और क्षपण वमन । अध्यात्म-जगत् में दमन अध्यात्मजगति दमनं नास्ति सम्मतं, किन्तु विरेचनमस्ति सम्मत नहीं है, किन्तु विरेचन सम्मत है। प्रस्तुत सूत्र में उपशमन का सङ्गतम। उपशमनस्य क्रमोऽत्र दशितः-य एकं नाम- क्रम प्रतिपादित है जो पुरुष एक को नमाता है, वह बहुतों को नमाता यति स बहून् नामयति । नामयति इति उपशमयति ।' है। नमाता है का अर्थ है-उपशमन करता है। मोहनीय कर्म की मोहनीयकर्मणः अष्टाविंशतिः प्रकृतयः सन्ति । य एक अट्ठाईस प्रकृतियां हैं। जो एक क्रोध की प्रकृति का उपशमन करता क्रोधं उपशान्तं करोति स बह्वीरपि शेषाः सप्तविंशति है, वह बहुत सारी शेष सत्ताईस प्रकृतियों का भी उपशमन कर देता प्रकृती: उपशान्ताः करोति । प्रतिपक्षभावनादिभिः है। प्रतिपक्षी भावनाओं, अनुप्रेक्षाओं तथा आसन आदि के प्रयोगों अनप्रेक्षादिभिरासनादिप्रयोगैश्च क्रोधादीनामुपशमो से क्रोध आदि प्रकृतियों का उपशमन होता है । क्षय एक बार होता जायते । क्षयः सकृद् भवति उपशमश्च असकृद् । है, उपशमन बार-बार । यो बहन कषायान उपशमयति स क्रोधादिकमन्य- जो अनेक कषायों (कषाय की प्रकृतियों) का उपशमन करता तरमपि उपशमयति। है, वह क्रोध आदि किसी एक का भी उपशमन करता है। ७७. दुक्खं लोयस्स जाणित्ता। सं०-दुःखं लोकस्य ज्ञात्वा । पुरुष लोक के दुःख को जाम कर (उसके हेतुभूत कषाय का परित्याग करे)। भाष्यम ७७-इदानी क्षपणवमनं प्रक्रान्तम् । यो अब प्रसंग है-क्षपणवमन का। जो पुरुष दुःख और दुःख के दुःखं दुःखहेतुं च उपलभ्य ज्ञानपूर्विकां क्रियामाचरति हेतु को जानकर ज्ञानपूर्वक क्रिया करता है, उसके कषाय की प्रकृतियां तस्य कषायप्रकृतयः क्षीणा भवन्ति । लोकस्य दुःखमस्ति क्षीण होती हैं। लोक के दुःख है, यह जान कर उस दुःख के हेतु की इति ज्ञात्वा तस्य हेतोरन्वेषणं करणीयम् । व्यवहारनय- खोज करनी चाहिए । व्यावहारिक दृष्टिकोण के अनुसार प्रतिकूल माश्रित्य दुःखं प्रतिकूलसंवेदनं, निश्चयनयमाश्रित्य तस्य संवेदन दुःख है और नैश्चयिक दृष्टिकोण के अनुसार दुःख का हेतुभूत हेतुभूतं कर्म दुःखम्। कर्म दुःख है। १. आचारांग चूणि, पृष्ठ १२६ : उबसमणंति वा णामणं वा एगट्ठा। Jain Education international Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ३. शीतोष्णीय, उ० ४. सूत्र ७६-७८ ७८. वंता लोगस्स संजोगं, जंति वीरा महाजाणं । परेण परं जंति, नाव कं खंति जीवियं । सं०– वान्त्वा लोकस्य संयोगं यान्ति वीराः महायानम् । परेण परं यान्ति, नावकाङ्क्षन्ति जीवितम् । वोर साधक लोक के संयोग को त्याग कर महायान - महापथ या क्षपकश्रेणि को प्राप्त होते हैं । वे आगे से आगे बढते जाते हैं। वे जीने की आकांक्षा नहीं करते । भाष्यम् ७८ – लोक: आत्मव्यतिरिक्तः धनपुत्रशरीरादिः । तस्य संयोगः ममत्वपूर्वक संबंध: कर्मबन्धस्य निमित्तं भवति, अतस्तं लोकसंयोगं वान्त्वा वीरा महायानं यान्ति महायानम् - महापथः, क्षपकश्रेणिरिति तात्पर्यम् । यथा यथा लोकसंयोगस्य परित्यागो भवति तथा तथा महायानं प्रति गतिर्भवति । अत एषोच्यतेमहायानं प्रति प्रस्थिताः परेण परं'–उत्तरोत्तरं तेजो श्यामवाप्नुवन्ति यथा भगवत्यां निरूपितमिदम् - , जे इमे भंते ! अज्जत्ताए समणा निग्गंथा विहरंति, ते णं कस्स तेयनेस्सं वीईवयंति ? गोयमा ! मासपरियाए समणे निग्गंथे वाणमंतराणं देवाणं तेयलेस्स बीईवयइ । दुमासपरियाए समणे निम्गंधे असुरिदवज्जियाणं भवणवासीणं देवानं तेयलेस्सं बीईवयइ । एवं एएवं अभिलावेणं-तिमासपरियाए समणे निग्गंधे असुरकुमाराणं देवाणं तेयलेस्सं वीईवय । उम्मापरिया समणे निग्गंथे गहगण - नक्खत्ततारारूवाणं जोतिसियाणं देवाणं तेयलेस्सं वीईवयइ । पंचमासपरियाए समणे निम्गंचे चंदिम सूरियाणं जोतिसिंदाणं जोतिसराईणं तेयलेस्स वीईवयइ । छम्मासपरियाए समणे निग्गंथे सोहम्मीसाणाणं देवाणं तेयलेस्सं वीईवयइ । सत्तमासपरियाए समणे निग्गंथे सणकुमारमाहिंदाणं देवाणं तेयलेस्स बीईवयइ । अट्टमासपरियाए समणे निग्गंचे बंभलोग-संतगाणं देवाणं तेयलेस्सं वीईवयइ । नवमास परियाए समणे निग्गंथे महासुक्क सहस्साराणं देवाणं तेयलेस्सं वीईवयइ । दसमासपरियाए समणे निग्गंचे आणय-पाणयआरणच्या देवाणं तेयलेस्सं बीईवय | १६५ आत्मा के अतिरिक्त धन, पुत्र, शरीर आदि लोक है । उसका संयोग ममत्वपूर्वक संबंध कर्मबंध का निमित्त होता है। इसलिए उस लोक-संयोग को छोड़कर वीर पुरुष महायान पर चलने लगते हैं । महायान का अर्थ है महापथ। इसका तात्पर्य है- क्षपकश्रेणि । जैसे-जैसे लोक-संयोग का परिहार होता है, वैसे-वैसे महायान के प्रति गति होती है। इसलिए यह कहा जाता है जो महायान के प्रति प्रस्थित हैं ये उत्तरोत्तर (विशुद्ध) तेजोलेश्या को प्राप्त होते जाते हैं। भगवती सूत्र में इसका निरूपण इस प्रकार है गणधर गौतम ने भगवान् महावीर से पूछा- 'भंते ! आज जो श्रमण-निर्व्रन्थ विहरण कर रहे हैं, वे किसकी तेजोलेश्या का अतिक्रमण करते हैं ?' भगवान् ने कहा- 'गौतम ! एक मास की संयम पर्याय वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ व्यन्तर देवों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण कर देता है । दो मास की संयम पर्याय वाला श्रमण-निर्वन्ध असुरेन्द्र के अतिरिक्त सभी भवनपति देवों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण कर देता है । इस प्रकार इस अभिलाप से तीन मास की संयम पर्याय वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ असुरकुमार देवों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण कर देता है । चार मास की संयम पर्याय वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ ग्रह-नक्षत्र और तारा रूप ज्योतिष देवों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण कर देता है । पांच मास की संयम पर्याय वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ ज्योतिष्क इन्द्र, ज्योतिष्कराज चांद-सूर्य की तेजोलेश्या का अतिक्रमण कर देता है। छह मास की संयम पर्याय वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ सौधर्म और ईशान देवों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण कर देता है । सात मास की संयम पर्याय वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ सनत्कुमार और माहेन्द्र देवों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण कर देता है । आठ मास की संयम - पर्याय वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ ब्रह्मलोक और लान्तक देवों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण कर देता है । नौ मास की संयम-पर्याय वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ महाशुक्र और सहस्रार देवों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण कर देता है । दस मास की संयम पर्याय वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ आनत और प्राणत तथा आरण और अच्युत देवों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण कर देता है । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ आचारांगमाध्यम एक्कारसमासपरियाए समणे निग्गंथे गेवेज्जगाणं ग्यारह मास की संयम-पर्याय वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ ग्रैवेयक देवाणं तेयलेस्सं वीईवयइ। देवों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण कर देता है। बारसमासपरियाए समणे निग्गंथे अणुत्तरोववाइ- बारह मास की संयम-पर्याय बाला श्रमण-निर्ग्रन्थ अनुत्तरोपयाणं देवाणं तेयलेस्सं वीईवयइ। पातिक देवों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण कर देता है। तेण परं सुक्के सुक्काभिजाए भवित्ता तओ पच्छा इसके पश्चात् वह शुक्ल, शुक्लाभिजाति होकर फिर सिद्ध, सिज्झति बुज्झति मुच्चति परिनिव्वायति सव्वदुक्खाणं बुद्ध, मुक्त और परिनिवृत हो जाता है तथा समस्त दुःखों का अंतं करेति । अन्त कर देता है। एतादशाः जीवितं नावकांक्षन्ति । जीविताशंसा ऐसे पुरुष जीने की आकांक्षा नहीं करते। संसार में सबसे लोके सर्वतो बलवती भवति । ते ततोऽपि मुक्ता भवन्ति, बलवती है-जीने की आकांक्षा । वे पुरुष उससे भी मुक्त हो जाते हैं। न दीर्घजीवित्वं अभिलषन्ति न च विषयकषायासंयमयुतं वे न दीर्घजीवन की अभिलाषा करते हैं और न विषय-कषाययुक्त जीवितम् । असंयममय जीवन की आकांक्षा करते हैं। ७९. एगं बिगिचमाणे पुढो विगिचइ, पुढो विगिचमाणे एग विगिबइ। सं० --एक विविञ्चानः पृथक् विविनक्ति पृथक् विविञ्चानः एक विविनक्ति । एक का विवेक करने वाला अनेक का विवेक करता है । अनेक का विवेक करने वाला एक का विवेक करता है। भाष्यम् ७९-क्षपणक्रियामारूढः पुरुषः एक क्रोधं क्षपणक्रिया में आरूढ अनगार एक क्रोध कषाय का क्षय करता क्षपयन अन्यानपि कषायभेदान क्षपयति । अत्र कर्म- हुआ कषाय के अन्यान्य भेदों को भी क्षीण कर डालता है । कर्मशास्त्रशास्त्रगता सम्पूर्णा क्षपणप्रक्रिया अवतारणीया। गत- गत क्षपण प्रक्रिया की सम्पूर्ण अवतारणा यहां कर लेनी चाहिए। प्रत्यागतकमेण उच्यते-कषायस्य बहून् भेदान् क्षपयन् गतप्रत्यागतक्रम से भी कहा जा सकता है--कषायों के अनेक भेदों का तस्यैक भेदं क्षपयति । क्षय करता हुआ अनगार कषाय के एक भेद का भी क्षय कर डालता ८०. सड्डी आणाए मेहावी। सं०-श्रद्धी आज्ञया मेधावी। श्रद्धावान् आगम के उपदेश के अनुसार मेधावी होता है। भाष्यम् ८० - इदानीं क्षपकश्रेणि प्रति जिगमिषो प्रस्तुत आलापक में सूत्रकार क्षपकश्रेणी में आरूढ होने के रहतां दर्शयति सूत्रकार:—यः श्रद्धी भवति सोऽर्हति इच्छुक अनगार की योग्यता का निर्देश करते हैं जो श्रद्धावान् होता महायानमुपलब्धुम् । है, वह महायान को उपलब्ध कर सकता है। श्रया-मोक्षाभिलाषः । श्रद्धावान् पुरुष एव संवेगं श्रद्धा का अर्थ है-मोक्ष की अभिलाषा। श्रद्धावान पुरुष ही प्राप्य कर्मक्षयाय प्रवर्तते, यथा उत्तराध्ययने संवेग-वैराग्य को प्राप्त कर कर्मक्षय के लिए प्रयत्न करता है। जैसे संवेगेणं भंते ! जीवे कि जणयइ ?५ उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है- गौतम ने पूछा-भंते ! संवेग से जीव क्या संवेगेणं अणुत्तरं धम्मसद्धं जणयइ। अणुत्तराए प्राप्त करता है ? भगवान ने कहा-गौतम ! संवेग से जीव अनुत्तर धम्मसद्धाए संवेगं हव्वमागच्छइ, अणंताणुबंधिकोह- धर्म श्रद्धा को प्राप्त होता है। अनुत्तर धर्मश्रद्धा से तीव्र संवेग को माणमायालोभे खवेइ, कम्मं न बंधइ, तप्पच्चइयं च णं प्राप्त करता है, अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया और लोभ को क्षीण मिच्छत्तविसोहि काऊण दंसणाराहए भवइ । दंसणविसो- करता है, नए कमों का संग्रह नहीं करता, कषाय के क्षीण होने से १. अंगसुत्ताणि २, भगवई १४११३६ । २. आचारांग चूणि, पृष्ठ १२७ : एगं अणंताणुधि कोहं सम्वआयप्पदेसेहि विगिचितो, विगिचिणंति वा विवेगोत्ति वा खवणत्ति वा एगट्ठा। ३. पंचम कर्मग्रन्थ, अपकणि द्वार, गापा ९९,१००। ४. पातञ्जलयोगदर्शन १२० भाष्यं-अदा चेतसः संप्रसादः, सा हि जननीव कल्याणी योगिनं पाति । ५. उत्तरायणाणि, २९।२ । Jain Education international Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ३. शीतोष्णीय, उ० ४. सूत्र ७९-८२ हीए य णं विसुद्धाए अत्थेगइए तेणेव भवग्गहणेणं प्रकट होने वाली मिथ्यात्व-विशुद्धि कर दर्शन (सम्यक् श्रद्धान) की सिज्झइ । सोहीए य णं विसुद्धाए तच्चं पुणो भवग्गहणं आराधना करता है । दर्शन-विशोधि के विशुद्ध होने पर कई एक जीव नाइक्कमइ। उसी जन्म से सिद्ध हो जाते हैं और कुछ उसके विशुद्ध होने पर तीसरे जन्म का अतिक्रमण नहीं करते- उसमें अवश्य ही सिद्ध हो जाते हैं । द्वितीयाहता यः आज्ञया मेधावी भवति । आज्ञा- दूसरी योग्यता है जो आज्ञा से मेधावी होता है। आज्ञा का श्रतज्ञानमागमो वा। सूक्ष्मार्थेषु यस्य मेधा आज्ञामनु- अर्थ है- श्रुतज्ञान अथवा आगम । सूक्ष्म अर्थों में जिसकी मेधा आज्ञा सरति सोर्हति महायानमुपलब्धुम् । यः श्रद्धी न का अनुसरण करती है वह व्यक्ति महायान प्राप्त कर सकता है । जो भवति स स्वेच्छया स्वमेधया वा आगमगम्यान् सूक्ष्मान- श्रद्धावान् नहीं होता वह अपनी इच्छा या अपनी मेधा से आगमगम्य र्थान हेतुप्रयोगेण प्रतिपादयन् सिद्धान्तविराधको भवति। सूक्ष्म अर्थों का हेतु-प्रयोग के द्वारा प्रतिपादन करता हुआ सिद्धान्त उक्तं च सन्मत्यां का विराधक होता है । सन्मति प्रकरण में कहा है-- जो हेउवायपक्खम्मि हेउमो आगमे य आगमिओ। दो प्रकार के पदार्थ होते हैं - हेतुगम्य और अहेतुगम्य अर्थात् जो ससमयपण्णवओ सिद्धंतविराहओ अन्नो॥" श्रद्धागम्य। जो साधक हेतुगम्य पदार्थों के लिए हेतुओं का और आगमिक अर्थात् श्रद्धागम्य पदार्थों के लिए श्रद्धा का उपयोग करता है वह अपने सिद्धान्त का प्रज्ञापक होता है। जो हेतुगम्य के पक्ष में श्रद्धा और अहेतुगम्य के पक्ष में हेतु का प्रयोग करता है वह सिद्धान्त का विराधक होता है । समुच्चयार्थ:-श्रद्धावान् आगमोपदेशेन मेधावी समुच्चयार्थ है-श्रद्धावान् पुरुष आगम के उपदेश से मेधावी भवति । होता है। ८१.लोगं च आणाए अभिसमेच्चा अकुतोभयं । सं०-लोकं च आज्ञया अभिसमेत्य अकुतोभयम् । पुरुष आज्ञा से कषायलोक को जान कर अकुतोभय हो जाता है-उसे किसी भी दिशा से भय नहीं होता। भाष्यम् ८१-लोकमिति प्रकरणात् कषायलोक, प्रस्तुत आलापक में लोक-कषायलोक का प्रकरण है। जो आज्ञया-आप्तवचनेन ज्ञात्वा यः प्रवर्तते तस्य न साधक आज्ञा--आप्तवचन से कषायलोक को जानकर प्रवृत्ति करता है कुतोपि भयं भवति, अतः सोऽकुतोभयं पर्यायमनु- उसको कहीं से भी भय नहीं होता। इसलिए वह अकुतोभय-अभय भवति । भयस्य हेतुर्दःखं, दुःखस्य हेतुः कषायः प्रमादो की पर्याय का अनुभव करता है। भय का हेतु है-दुःख और दुःख वा, यथा च स्थानांगसूत्रे - का हेतु है--कषाय अथवा प्रमाद । स्थानांग सूत्र का एक प्रसंग है---- भगवान् ने गौतम आदि श्रमणों से पूछा-आयुष्मान् ! श्रमणो ! किभया पाणा? समणाउसो ! ...... प्राणी किससे भय खाते हैं ? (गौतम आदि श्रमणों ने कहा हम नहीं जानते) । तब"" दुक्खभया पाणा समणाउसो ! भगवान् ने कहा-प्राणी दुःख से भय खाते हैं । से णं भंते दुक्खे केण कडे ? दुःख का कर्ता कौन है ? जीवेणं कडे पमादेणं । प्राणी ने अपने ही प्रमाद से दुःख का सर्जन किया है। येन कषायः उपशमं क्षयं वा नीतः तस्य दुःखं न जिसने कषाय को उपशांत या क्षीण कर दिया है, उसके भवति । यस्य नास्ति दुःखं स सर्वथा अभयो भवति । दुःख नहीं होता। जिसके दुःख नहीं होता वह सर्वथा अभय होता है। ८२. अत्थि सत्थं परेण परं, णत्थि असत्थं परेण परं। सं०-अस्ति शस्त्रं परेण परं, नास्ति अशस्त्र परेण परम् । शस्त्र उत्तरोत्तर तीक्ष्ण होता है । अशस्त्र उत्तरोत्तर तीक्ष्ण नहीं होता-वह एकरूप होता है। १. सन्मतितर्कप्रकरण ३॥४५ (ख) उत्तरायणाणि २८।३० : नावंसणिस्स नाणं । २. (क) गीता ४।३९ : श्रद्धावान् लभते ज्ञानम् । ३. अंगसुत्ताणि १, ठाणं, ३१३३६ । Jain Education international Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ आचारांगभाष्यम् उपशा ___ भाष्यम् ५२-शस्त्रं परेण परं-उत्तरोत्तरं तीक्ष्णतरं शस्त्र उत्तरोत्तर तीक्ष्णतर, तीक्ष्णतम होता जाता है। आज तीक्ष्णतमं भवति । प्रत्यक्षमस्ति पाषाणयुगीनशस्त्रात् पाषाणयुगीन शस्त्रों से परमाणुशस्त्रों की अतिशय तीक्ष्णता प्रत्यक्ष प माणुशस्त्राणां तीक्ष्णतमता। अशस्त्र अस्ति एक- है। अशस्त्र में एकरूपता होती है, इसलिए उसमें तरतमता नहीं रूपता, तेन तत्र नास्ति तारतम्यम् । प्रकरणवशादिह रहती। प्रकरण के अनुसार यहां शस्त्र है-कषाय । वह तीव्र, तीव्रतर शस्त्रम्-कषायः स च तीव्रः तीव्रतरस्तीव्रतमश्च और तीव्रतम होता है, इसलिए उसकी व्याख्या अनन्तानुबंधी आदि भवति। अत एव स अनन्तानुबंध्यादिभेदैर्व्याख्यातः।' भेदों के रूप में की गई है। भशस्त्रम्-अकषायः, स संयमः समता अहिंसा वा । तत्र अशस्त्र है-अकषाय । दूसरे शब्दों में संयम, समता अथवा कञ्चित् प्राणिनं प्रति मन्दाऽहिंसा, कञ्चित् प्रति तीव्रा, अहिंसा अशस्त्र हैं । अहिंसा किसी प्राणी के प्रति मंद, किसी के प्रति कञ्चित् प्रति तीव्रतरा, कञ्चित् प्रति तीव्रतमा च न तीव्र, किसी के प्रति तीव्रतर और किसी के प्रति तीव्रतम नहीं होती, भवति किन्तु सा प्राणिमात्र प्रति समाना एव भवति। किन्तु वह प्राणी मात्र के प्रति समान ही होती है। तात्पर्यमस्य यत्किचिद् वैषम्यमस्ति तत् कषायकृत- इसका तात्पर्य है कि जो कुछ विषमता है वह कषायकृत है । मस्ति । शस्त्राणां विकासोऽपि कषायकृत एव । यावत् शस्त्रों का विकास भी कषायकृत ही है। जब तक कषाय का उपशमन तस्योपशमः क्षयो वा न स्यात् तावत् मनःशान्तेः विश्व- या क्षय नहीं होता तब तक मानसिक शांति और विश्वशांति की बात शान्तेश्च कथापि वृथा । ही व्यर्थ है। ८३. जे कोहदंसी से माणदंसी, जे माणदंसी से मायदंसी। जे मायदंसी से लोभदंसी, जे लोभदंसी से पेज्जदंसी। जे पेज्जदंसो से दोसदंसी, जे बोसवंसो से मोहदंसी। जे मोहदंसी से गम्भदंसी, जे गब्भवंसी से जम्मदंसी। जे जम्मदंसी से मारदंसी, जे मारदंसी से निरयवंसी। जे निरयदंसी से तिरियदंसी, जे तिरियदंसी से दुक्खदंसी। सं० --- यः क्रोधदर्शी स मानदर्शी, यः मानदर्शी स मायादर्शी। यः मायादर्शी स लोभदर्शी, यः लोभदर्शी स प्रेयोदर्शी । यः प्रेयोदर्शी स दोषदर्शी, यः दोषदर्शी स मोहदर्शी । यः मोहदी स गर्भदर्शी, यः गर्भदर्शी स जन्मदर्शी । यः जन्मदर्शी स भारदर्शी, यः मारदर्शी स निरयदर्शी । यः निरयदर्शी स तिर्यग्दर्शी, यः तिर्यग्दर्शी स दुःखदर्शी। जो क्रोधवी है वह मानदर्शी है। जो मानवी है वह मायादर्शी है। जो मायावी है वह लोमदर्शी है। जो लोमदर्शी है वह प्रेयदर्शी है । जो प्रेयवर्शी है वह द्वेषदर्शी है। जो द्वेषदर्शी है वह मोहदी है। जो मोहदी है वह गर्भदर्शी है। जो गर्मदर्शी है वह जन्मदर्शी है । जो जन्मदर्शी है वह मृत्युदर्शी है । जो मृत्युदर्शी है वह नरकदर्शी है। जो नरकदर्शी है वह तिर्यचदर्शी है। जो तियंचदर्शी है वह दुःखदर्शी है। भाष्यम् ८३-पूर्व (सूत्र ३७७) 'दुःखं लोयस्स जाणित्ता' पहले (सूत्र ३७७ में) 'लोक के दुःख को जानकर'-ऐसा इति निरूपितम् । प्रस्तुतसूत्रे दुःखस्य मूलकारणानि निरूपित है। प्रस्तुत सूत्र में दुःख के मूल कारणों का निरूपण है। सन्ति निरूपितानि । पूर्वस्मिन् सूत्र शस्त्रस्य परम्परायाः इससे पूर्व ८२वें सूत्र में शस्त्र की परंपरा का सूचनमात्र किया गया सूचनं कृतम् । इह सा साक्षात् प्रदर्शिता अस्ति। है । प्रस्तुत आलापक में उस परंपरा का स्पष्ट निर्देश है। यः क्रोधं पश्यति-करोति स मानं पश्यति । एवं जो क्रोध करता है, वह मान करता है । इसी प्रकार मान का मानेन मायायाः, मायया लोभस्य, लोभेन प्रेयसः, माया से, माया का लोभ से, लोभ का राग से, राग का द्वेष से तथा प्रेयसा द्वेषस्य, द्वेषेन मोहस्य च नियतः संबंध । एषा द्वेष का मोह से नियत संबंध है। यह शस्त्र की परंपरा है। इसके शस्त्रस्य परम्परा । अस्याः प्रभावेण प्राणी गर्भ पश्यति। प्रभाव से ही प्राणी गर्भ में जाता है । इसका यह परिणाम है -गर्भ से १ अंगसुत्ताणि १, ठाण, ४१८४.८७ । होता है । यह 'अ' के प्रति मंच और 'ब' के प्रति तीव्र नहीं २. द्वेष, घणा, क्रोध-ये शस्त्र हैं। मैत्री, क्षमा-ये अशस्त्र हो सकता। हिंसा शस्त्र से ही नहीं होती। वह स्वयं हैं । शस्त्र में विषमता होती है। विषमता अर्थात् अपकर्ष शस्त्र है । हिंसा का अर्थ है-असंयम । जिसकी इंद्रियां और और उत्कर्ष । अत कोई मनुष्य 'अ' के प्रति मंच द्वेष मन असंयत होते हैं, वह प्राणीमात्र के लिए शस्त्र होता करता है । 'ब' के प्रति तीव्र द्वेष करता है। 'क' के प्रति तीव्रतर द्वेष करता है। 'ख' के प्रति तीवतम द्वेष करता अहिंसा अशस्त्र है। प्राणीमात्र के प्रति संयम होना है। इस प्रकार शस्त्र मंद, तीव्र, तीव्रतर और तीव्रतम अहिंसा है। जिसकी इंद्रियां और मन संयत होते हैं, वह होता है। अशस्त्र में समता होती है। समभाव एकरूप प्राणीमात्र के लिए अशस्त्र होता है। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ३. शीतोष्णीय, उ०४. सूत्र ८३.८६ एष परिणाम :- गर्भेण जन्मनः जन्मना मृत्योः, मृत्युना नरकस्य तिर्यग्गतेश्च यथावकाशं संबंधयोजना | तत्र अंतिम परिणामोस्ति दुःखम् । यदि दुःखं ज्ञातव्यं तहिं क्रोधोपि ज्ञातव्यः पावन् मोहोपि ज्ञातव्यो भवति । एते न ज्ञाता भवन्ति तावद् दुःखं वस्तुवृत्या ज्ञातं न भवति । यदि दुःखं परिहर्तव्यमस्ति तहि सर्वप्रथमं क्रोधः परिहर्तव्य: यावन्मोहश्च । एतेषां परिहारं विना दुःखस्य परिहारः कर्तुं न शक्यते। अत एवोच्यते भाष्यम् ८४ - स मेधावी पुरुषः दुःखं परिजिहीर्षु : अनेन क्रमेण प्रहारं कुर्यात् — सर्वप्रथमं क्रोधमभिनिवर्त येत्यावर्तयेद् चिन्यात्' वा येन कोधछिन्नः तेन मानश्छिन्नः यावद् दुःखं छिन्नम् । ८५. एयं पासगस्स दंसणं उवरयसत्थस्स पलियंतकरस्स । सं०- एतद् पश्यकस्य दर्शनं उपरतशस्त्रस्य पर्यन्तकरस्य । यह अहिंसक और निरावरण द्रष्टा का दर्शन है । ८४. से मेहावी अभिनिवट्टेज्जा कोहं च, माणं च, मायं च, लोहं च, पेज्जं च, दोसं च, मोहं च गमंच, जम्मं च, मारं च नरगं च तिरियं च दुक्तं च । सं० स मेधावी अभिनिवर्तयेत् क्रोधं च मानं च, मायां च लोभं च प्रेयश्च दोषं च, मोहं च, गर्भं च जन्म च, मारं च, नरकं च, तिर्यञ्च च दुःखं च । मेधावी क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेय, द्वेष, मोह, गर्भ, जन्म, मृत्यु, नरकगति, तियंचगति और दुःख को छिन्न करे । भाष्यम् ८५-- ३।७२ सूत्रवत् । ६. आयाणं णिसिद्धा समन्नि । सं० - आदानं निषेध्य स्वकृतभित् । जो पुरुष भाष्यम् ८६–३।७३ सूत्रवत् । tee जन्म, जन्म से मृत्यु, मृत्यु से अपने कर्मों के अनुसार) नरक, तिर्यञ्च आदि गतियों में जाता है । उसका अंतिम परिणाम है- । दु:ख १. आचारांग गि, पृष्ठ १२८ निव्वनंति वा सम्पति या एग लोगेवि जहा एगेगप्पहारेण हत्यो निम्तो यदि दुःख को जानना है तो क्रोध को भी जानना होगा । इसी प्रकार मान, माया, लोभ, राम और अन्त में मोह को भी जानना होगा। जब तक ये सारे ज्ञात नहीं हो जाते तब तक दुःख भी यथार्थ रूप में ज्ञात नहीं होता । यदि दुःख का परिहार करना है तो सबसे पहले क्रोध का परिहार करना होगा। इसी प्रकार मान, माया, लोभ, राग-द्वेष और मोह का परिहार करना होगा। इन सबके परिहार के बिना दुःख का परिहार नहीं किया जा सकता। इसीलिए कहा है 3 दुःख का परिहार करने का इच्छुक वह मेधावी पुरुष इस क्रम से प्रहार करे - सबसे पहले क्रोध का व्यावर्तन करे अथवा छेदन करे । जिसने शोध को छेद डाला उसने मान को, जिसने मान को उसने माया को, जिसने माया को उसने लोभ को, जिसने लोभ को उसने राग को, जिसने राग को उसने द्वेष को जिसने द्वेष को उसने मोह को, जिसने मोह को उसने गर्भ को जिसने गर्भ को उसने जन्म को, जिसने जन्म को उसने मृत्यु को, जिसने मृत्यु को उसने नरकगति को, जिसने गति को उसने तिर्यगति की जिसने तिर्यञ्चगति को उसने दुःख को छेद डाला है । कर्म के आदान- कषाय को रोकता है, वही अपने किए हुए कर्म का भेदन कर पाता है। देखें - ३।७३ वां सूत्र । देखें - ३।७२ वां सूत्र । पायो वा भणितं दिया। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०. आचारांगभाज्यम् ८७.किमत्थि उवाही पासगस्स ण विज्जइ ? स्थि । —त्ति बेमि । सं०-किमस्ति उपाधिः पश्यकस्य न विद्यते ? - नास्ति । ---इति ब्रवीमि । क्या द्रष्टा के कोई उपाधि होती है या नहीं होती ? नहीं होती। -ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् ७-उपाधिः-कषायजनितः आत्मपरि- उपाधि का अर्थ है-कषाय से उत्पन्न आत्म-परिणाम । सभी णामः । सर्वेषां जीवानां उपाधिर्वर्तते इति जिज्ञासायां प्राणियों के उपाधि है तो फिर इस जिज्ञासा में यह विकल्प उठता है अस्य विकल्पस्योत्थानं-किं पश्यकस्य' उपाधिरस्ति कि क्या द्रष्टा के उपाधि होती है या नहीं? भगवान् ने कहा--नहीं, अथवा नास्ति ? भगवतोत्तरितं-नास्ति। यः केवलं उसके उपाधि नहीं होती। जो केवल जानता-देखता है उसके न कषाय जानाति पश्यति तस्य न तु कषाय उदयमेति, न च का उदय होता है और न कर्म की उपाधि होती है । जो जो मोह के कर्मोपाधिरपि जायते । यो यो मोहानूभवस्य क्षणः स अनुभव का क्षण है, वह उपाधि का क्षण है। ज्ञाता-द्रष्टा अमोहावस्था उपाधेः क्षणः । ज्ञाता द्रष्टा अमोहावस्थामनुभवति, तेन का अनुभव करता है, इसलिए उसके उपाधि नहीं होती-ऐसा मैं तस्योपाधिन भवति-इति ब्रवीमि । कहता हूं। १. आचारांग वृत्ति, पत्र १५८ : 'पश्यकस्य' केवलिना 'उपाधिः' विशेषणं, उपाधीयते इति वोपाधिः, द्रव्यतो हिरण्यादिः, भावतोऽष्टप्रकारं कर्म, स द्विविधोप्युपाधिः किमस्त्याहोस्विन्न विद्यते ? नास्तीति । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थं अज्झयणं सम्मत्तं अध्ययन सम्यक्त्व [उद्देशक ४ : सूत्र ५३] Jain Education international Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education international Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुखम् प्रस्तुताऽध्ययनस्य नामास्ति सम्यक्त्वम् । केचित प्रस्तुत अध्ययन का नाम 'सम्यक्त्व' है। कुछ विद्वान् यह प्रतिपादयन्ति, जैनानां साधनापद्धतौ दुःखसहनमेव धर्म प्रतिपादन करते हैं कि जैन-साधना-पद्धति में दुःख सहना ही धर्म इति सम्मतमस्ति, किन्तु एतत् सुप्रतिपादितं नास्ति। माना गया है। किन्तु यह प्रतिपादन समीचीन नहीं है। चूर्णिकार चर्णिकारेण तृतीयाऽध्ययनस्य प्रारम्भे अस्याऽध्ययनस्य ने तीसरे अध्ययन के प्रारंभ में तथा इस अध्ययन के प्रारंभ में भी यह प्रारंभेऽपि च लिखितमिदम्-नैकान्तेन दुःखेन सुखेन वा लिखा है- 'एकान्त दुःख या एकान्त सुख से धर्म नहीं होता। धर्म धर्मो भवति, धमोऽस्ति कषायवमनम् । तस्य प्रधान है-कषायों का वमन । उसका प्रधान कारण है-सम्यक्त्व । कारणमस्ति सम्यक्त्वम्। आचारांगे अस्याध्ययनस्य आचारांग में प्रस्तुत अध्ययन का अत्यन्त गौरवपूर्ण स्थान है। अत्यन्तं गौरवपूर्ण स्थानमस्ति । लिखितं चणिकारेण- चूर्णिकार ने लिखा है-'चतुःशाला के मध्य में रखा हुआ दीपक यथा चतुःशालमध्यगतो दीपस्तत् सर्वमुदद्योतयेत्, एवं उस संपूर्ण चतुःशाला को प्रकाशित कर देता है, वैसे ही आचारांग मध्यगतमध्ययनमिदं सर्वमाचारमवभासयेत् ।' सूत्र का यह मध्यगत अध्ययन संपूर्ण आचार (आचारांग) को आलोकित करता है। प्रस्तुताऽध्ययनस्य चत्वार उद्देशकाः सन्ति । तेषा- इस अध्ययन के चार उद्देशक हैं। नियुक्ति में उनके अर्थाधिमर्थाधिकारः निर्युक्तौ एवं निर्दिष्टः समस्ति कार (विषय) इस प्रकार निर्दिष्ट हैं१. सम्यग्वादः। १. सम्यग्वाद। २. धर्मप्रवादिनां परीक्षा। २. धर्म-प्रवादियों की परीक्षा। ३. अनवद्यतपोवर्णनम् । बालतपसः नास्ति मोक्षं ३. निरवद्य तप का वर्णन । बाल-तप की मोक्ष के प्रति प्रति सर्वाराधकत्वम् । ___ सर्वाराधकता का निषेध।। ४. संक्षेपेण नियमनं संयमनं वा उक्तम् । ४. नियमन या संयमन का संक्षिप्त कथन । तात्पर्यार्थे प्रथमोद्देशके सम्यग्दर्शनं द्वितीये तात्पर्य की भाषा में पहले उद्देशक में सम्यग्दर्शन, दूसरे सम्यग्ज्ञानं तृतीये सम्यक्तपः चतुर्थे च सम्यक्चारित्र- में सम्यग्ज्ञान, तीसरे में सम्यगतप और चौथे में सम्यक चारित्र का मस्ति निरूपितम्। निरूपण है। अत्र सम्यक्त्वपदेन किमस्ति प्रस्तुतमिति निक्षेपेणैव यहां 'सम्यक्त्व' पद से क्या प्रस्तुत किया गया है, यह निक्षेपों अवगन्तं शक्यम । निक्षेपावसरे 'सम्यक्त्व' पदं नियुक्तो के द्वारा ही जाना जा सकता है। निक्षेप के प्रसंग में नियुक्ति में निक्षिप्तमस्ति । तत्र द्रव्यनिक्षेपे सम्यक्पदं सप्तधा 'सम्यक्त्व' के निक्षेप किए गए हैं। द्रव्य निक्षेप में 'सम्यक' पद के भवति -- सात प्रकार हैं१. कृतम्-यथा रथः निर्वर्तितः, तस्य यथाऽवयव- १. कृत-जैसे-एक रथ का निर्माण किया गया। उसके अवयवों की लक्षणनिष्पत्तव्यसम्यक् कर्तुस्तन्निमित्तचित्तस्वास्थ्यो- समुचित निष्पत्ति हुई। यह 'द्रव्य सम्यक्' है, क्योंकि रथ त्पत्तेः, यदर्थं वा कृतं तस्य शोभनाशुकरणतया समाधान- निर्माता की उसके निमित्त से चैतसिक प्रसन्नता हुई। अथवा १. आचारांग चूणि, पृष्ठ १२९ : ण य एगंतेण दुक्खेण धम्मो उदेसंमि चउत्थे समासवयणेण णियमणं भणियं । सुहेण वा कसायवमणं च। तम्हा य नाणदंसणतवचरणे होइ जइयव्वं ॥ २. वही, पृष्ठ १२९ : जहा वा चातुस्सालमागतो बीवो ४. वही, गाथा २१७: तं सव्वं उज्जोवे ति एवं एतं अज्मयणाणं मझगतं सव्वं अह दव्वसम्म इच्छाणुलोमियं तेसु तेसु बग्वेसुं । आयारं अवभासति । कयसंखयसंजुत्तो पउत्त जढ मिण्ण छिण्णं वा ॥ ३. आचारांग नियुक्ति, गाथा २१४, २१५: पढमे सम्मावाओ बीए धम्मप्पवाइयपरिक्खा । तइए अणवज्जतवो न हु बालसवेण मुक्खुत्ति ॥ Jain Education international Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लि. २०४ आचारांगभाष्यम् हेतुत्वाद् वा द्रव्यसम्यक् ।' जिसके लिए उस रथ का निर्माण किया गया उसे रथ की सुंदर और शीघ्र निर्मिति होने के कारण समाधान मिला, - इसलिए वह 'द्रव्य-सम्यक्' है। २. संस्कृतम्-पटादे: अवयवानां संस्करणं पुनः २. संस्कृत-वस्त्र आदि के अवयवों को संस्कारित करना और उनका नवीनीकरणं च संस्कृत-द्रव्यसम्यक् । पुनः नवीनीकरण करना 'संस्कृत द्रव्यसम्यक्' है। ३. संयुक्तम्-गुणान्तराधानाय द्वयोर्द्रव्ययोः ३. संयुक्त-दो भिन्न-भिन्न द्रव्यों के संयोग से भिन्न गुण का निर्माण संयोगः पयःशर्करयोरिव कर्तुरुपभोक्तुर्वा मनःप्रीत्यै होता है। जैसे-दूध के साथ चीनी का संयोग होने पर भवति इति संयुक्तद्रव्यसम्यक । तविपरीतं तिलदध्नोः कर्ता और उपभोक्ता-दोनों का मन प्रसन्न होता है। यह संयोगः विरोधित्वात् असम्यक् भवति । 'संयुक्त द्रव्यसम्यक्' है। इसके विपरीत तिल और दही का संयोग विरोधी होने के कारण, 'असम्यक्' होता है। ४. प्रयुक्तम्-यस्य यद् द्रव्यं प्रयुक्तं सत् लाभहेतु- ४. प्रयुक्त-जिसके जिस द्रव्य के प्रयुक्त होने पर लाभ का हेतु बनता त्वात् आत्मनः समाधानाय भवति तत् प्रयुक्तद्रव्यसम्यक्, है, वह स्वयं के समाधान-समाधि के लिए होता है। वह यथा रुग्णस्य औषधं, बुभुक्षितस्य ओदनं, तृष्णातुरस्य 'प्रयुक्त द्रव्य-सम्यक्' है। जैसे रोगी के लिए दवा, भूखे के पानम्। लिए भोजन और प्यासे के लिए पानी । ५. त्यक्तम्-यत् त्यक्तं सत् सम्यक् भवति तत् ५. त्यक्त-जो छोड़े जाने पर सम्यक होता है, वह 'त्यक्त द्रव्य-सम्यक्' त्यक्तद्रव्यसम्यग्, यथा भारादि। है। जैसे-भार आदि । ६. भिन्नम् -यद् भिन्नं सत् सम्यग् भवति तद् ६. भिन्न-जो भिन्न होने पर सम्यक् होता है, वह 'भिन्न द्रव्यभिन्नद्रव्यसम्यग, यथा काकादीनां समाधानोत्पत्तेः भिन्न सम्यक्' है। जैसे—काग आदि के लिए दही का फूटा हुआ दधिभाजनम् । बर्तन समाधान का हेतु होने के कारण 'भिन्न द्रव्य-सम्यक्' है । ७. छिन्नम् -यच्छिन्नं सत् सम्यग् भवति तत् ७. छिन्न-जो छिन्न होने पर सम्यक होता है, वह 'छिन्न द्रव्यछिन्नद्रव्यसम्यग, यथा अधिकमांसवणादीनां छेदः । सम्यक्' है। जैसे-बढ़े हुए मांस, व्रण आदि का छेदन । भावसम्यक् त्रिविधं भवति-दर्शनसम्यक, ज्ञान- भाव सम्यक् तीन प्रकार का होता है-दर्शनसम्यक्, ज्ञानसम्यक, चारित्रसम्यक् च। सम्यक् और चारित्रसम्यक् । सम्यग्दर्शनं विना क्रियां कुर्वाणोऽपि स्वजनादीन् सम्यग्दर्शन के बिना क्रिया करता हुआ भी तथा स्वजन परित्यजन्नपि मिथ्यादृष्टिर्न सिद्धयति ।' जयाचार्येण आदि का परित्याग करता हुआ भी मिथ्यादृष्टि जीव सिद्ध नहीं मिथ्यादृशां मोक्षमार्गस्य देशाराधकत्वं स्वीकुर्वतापि होता। श्रीमज्जयाचार्य ने मिथ्यादृष्टि को मोक्षमार्ग का देशप्रस्तुतविषयस्य पुष्टिः कृतास्ति । तस्मात् सम्यक्त्वार्थं आंशिक आराधक मानते हुए भी प्रस्तुत मत की पुष्टि की यत्नो विधेयः । अहिंसाधर्मः शाश्वतो धर्मः। अयं है। इसलिए सम्यक्त्व प्राप्ति का प्रयत्न करना चाहिए । अहिंसा आचारपक्षः । अस्य पृष्ठभूमौ सम्यक्त्वं वर्तते। यावत् धर्म शाश्वत धर्म है। यह आचारपक्ष है । इसकी पृष्ठभूमि में सम्यक्त्व षड़जीवनिकायं प्रति श्रद्धा सम्यग्बोधश्च न भवति है। जब तक षड्जीवनिकाय के प्रति श्रद्धा और सम्यग् बोध नहीं तावत् अहिंसाधर्मस्य अनुशीलनस्य प्रश्नोऽपि नोद्- होता तब तक अहिंसा धर्म के अनुशीलन का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं भवति । अत एवोक्तम्-'समिच्च लोयं खेयह पवेइए।" होता । इसीलिए कहा है-'आत्मज्ञ अर्हतों ने जीव-लोक को जानकर 'तच्चं चेयं तहा चेयं, अस्सि चेयं पवुच्चति ।" अहिंसा धर्म का प्रतिपादन किया है।' 'यह अहिंसा धर्म तथ्य है। यह वैसा ही है । यह इस अर्हत् प्रवचन में सम्यग निरूपित है।' १. आचारांग वृत्ति, पत्र १५९ । कुणमाणोऽवि निवित्ति परिच्चयंतोऽवि सयणधणभोए। २. आचारांग नियुक्ति, गाथा २१८ : दितोऽवि दुहस्स उरं मिच्छविट्ठी न सिज्मइ उ॥ तिविहं तु भावसम्म सण नाणे सहा चरित्ते य । ४. आराधना, अष्टम द्वार, गाथा ४ : वंसणचरणे तिविहं नाणे दुविहं तु नायव्वं ॥ जे समकित विण म्है, चारित्र नी किरिया रे । ३. वही, गाथा २१९, २२० बार अनंत करी, पिण काज न सरिया रे॥ कुणमाणोविय किरियं परिच्च यंतीवि सयणधणभोए । ॥ भावे भावना। वितोऽवि वुहस्स उरं न जिणइ अंधो पराणीयं ॥ . ५. आयारो, ४।२। ६. वही, ४॥४॥ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुखम् प्रस्तुताध्ययने 'सम्ये पाणा व हंतब्बा' एतस्य प्राधान्यं नास्ति, किन्तु 'सध्ये पाणा ण हंतब्बा' - एतत् तथ्यं सद्भूतमिति यावत् एतत् तथा सम्यग्दर्शनमिति यावत्, तात्पर्यार्थे सम्यगाचारः सम्यग्दर्शनपूर्वक एव भवति ।' अस्मिन्नध्ययने हिंसायाः समर्थनकारिणां मतमस्ति उल्लिखितम्, तत्प्रतिपक्षे अहिंसायाः सिद्धान्तस्य आर्यवचनत्वमपि उपस्थापितमस्ति । प्रकम्पनस्य सिद्धान्तबीजमपि अस्मिन्नुपलभ्यते । मुनेः प्राचीनतमा साधनापद्धतिस्तस्याः क्रमिक विकासश्च अस्ति सम्यनिर्दिष्टः । एकत्वानुप्रेक्षायाः प्रयोगसंके तोऽपि विद्यते । सत्यान्वेषिणां कृते दिशासूचकमिदं अध्ययनं अहिंसामनुसन्दधानानामपि च । १. आचारांग चूर्ण, पृष्ठ १३४, १३५ । २. आयारो, ४१३४, ३७ । २०५ प्रस्तुत अध्ययन में 'सब्वे पाणा ण हंतम्बा' - 'किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिए इस तथ्य के प्रतिपादन की प्रधानता नहीं है, किन्तु किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिए - यह तथ्य है, वास्तविक है, यही सम्यग्दर्शन है' - इस प्रतिपादन की प्रधानता है। तात्पर्य की भाषा में कहा जा सकता है कि सम्यग् आचार सम्यग् दर्शन पूर्वक ही होता है । इस अध्ययन में हिंसा का समर्थन करने वाले दार्शनिकों का मत उल्लिखित है। साथ ही साथ उसके प्रतिपक्ष में अहिंसा के सिद्धान्त का आर्यवचनत्व भी उपस्थापित किया है। प्रकंपन का सिद्धान्तबीज भी इसमें उपलब्ध है। मुनि की प्राचीनतम साधना पद्धति तथा उसके क्रमिक विकास का सम्यग् निर्देश भी इसमें प्राप्त है । इसमें एकत्व अनुप्रेक्षा के प्रयोग का संकेत भी है। सत्यान्वेषी साधकों के लिए तथा अहिंसा विषयक अनुसंधान करने वालों के लिए भी यह अध्ययन दिशासूचक है। ३. वही, ४।४० । ४. वही, ४३२ ॥ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थं अज्झयणं : सम्मत्त चौथा अध्ययन : सम्यक्त्व पढमो उद्देसो : पहला उद्देशक १. से बेमि–जे अईया, जे य पडुप्पन्ना, जे य आगमेस्सा अरहंता भगवंतो ते सम्वे एवमाइक्खंति, एवं भासंति, एवं पण्णवेंति, एवं परूवेंति-सव्वे पाणा सवे भूता सम्वे जीवा सम्वे सत्ता ण हंतव्वा, ण अज्जावेयव्वा, ण परिघेतव्वा, ण परितावेयव्वा, ण उद्दवेयन्वा । सं०-अथ ब्रवीमि-ये अतीताः, ये च प्रत्युत्पन्नाः, ये च आगमिष्याः अर्हन्तः भगवन्तः ते सर्वे एवं आचक्षते, एवं भाषन्ते, एवं प्रज्ञापयन्ति, एवं प्ररूपयन्ति–सर्वे प्राणाः सर्वे भुताः सर्वे जीवाः सर्वे सत्त्वाः न हन्तव्याः, न आज्ञापयितव्याः, न परिगृहीतव्याः न परितापयितव्याः न उद्घोतव्याः । मैं कहता हूं-जो अहंत भगवान् अतीत में हुए हैं, वर्तमान में हैं और भविष्य में होंगे-वे सब ऐसा आख्यान करते हैं, ऐसा भाषण करते हैं, ऐसा प्रज्ञापन करते हैं और ऐसा प्ररूपण करते हैं किसी भी प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व का हनन नहीं करना चाहिए, उन पर शासन नहीं करना चाहिए, उन्हें वास नहीं बनाना चाहिए. उन्हें परिताप नहीं देना चाहिए, उनका प्राण-वियोजन नहीं करना चाहिए। भाष्यम् १-अथ ब्रवीमि-'सर्वे प्राणिनो न मैं कहता हूं-'किसी भी प्राणी का हनन नहीं करना चाहिए' हन्तव्याः ' इति अहिंसासूत्रं केन प्रतिपादितमिति – इस अहिंसा-सूत्र का प्रतिपादन किसने किया, इस जिज्ञासा के जिज्ञासायां सूत्रकारेण उत्तरितम्-इदमर्हता प्रतिपादि- उत्तर में सूत्रकार कहते हैं-अर्हत् ने इस सूत्र का प्रतिपादन किया तम् । एतत् शाश्वतं सत्यमस्ति, अतः अतीतैरर्हद्भिरेवं है। यह शाश्वत सत्य है, इसलिए अतीत में हुए अर्हतों ने ऐसा प्रतिप्रत्यपादि, प्रत्युत्पन्ना अर्हन्तोप्येवं प्रतिपादयन्ति, पादन किया था, वर्तमान के अर्हत् भी ऐसा ही प्रतिपादन करते हैं भाविनोर्हन्तोपि एवं प्रतिपादयिष्यन्ति । अनेन सत्यस्य और भविष्य में होने वाले अर्हत् भी ऐसा ही प्रतिपादन करेंगे। इससे एकत्वं त्रैकालिकत्वं च सूचितं भवति ।' अर्हन्तस्तीर्थ- इस सत्य की एकरूपता और त्रैकालिकता सूचित होती है। अर्हत कराः । भगवन्तः त एव पूज्यत्वात् ज्ञानसम्पदासंपन्न- तीर्थंकर होते हैं। वे ही पूज्य होने के कारण अथवा ज्ञानसंपदा से त्वाद् वा। संपन्न होने के कारण भगवान् होते हैं। प्रस्तुत आलापक में जीववाची चार शब्द हैं--प्राण, भूत, जीव और सत्त्व । उनकी व्याख्या यह हैप्राणाः-जम्हा आणमइ वा, पाणमइ वा, उस्ससइ प्राण -जो आन, अपान, उच्छ्वास और निःश्वास से युक्त हैं वे प्राण वा, नीससइ वा तम्हा पाणे त्ति वत्तव्वं सिया। कहलाते हैं। भूताः-जम्हा भूते भवति भविस्सति य तम्हा भूत-जो थे, हैं और रहेंगे, वे भूत कहलाते हैं । भूए त्ति वत्तव्वं सिया। जीवाः---जम्हा जीवे जीवति, जीवत्तं आउयं च जीव-जिससे जीव जीता है, जो जीवत्व और आयुष्य कर्म का कम्म उवजीवति तम्हा जीवे त्ति वत्तव्वं सिया। उपजीवी है, वह जीव है। १.कुमारिलभट्टेन प्रश्नः उपस्थापितः-यदि अस्ति सर्वशः तहि शास्त्रेषु किं नास्ति एकवाक्यता। यद्यस्ति तेषु परस्परं विप्रतिपत्तिः तदा कथं तत्प्रणेतारः सर्वज्ञाः भवेयुः? प्रस्तुतसूत्रे त्रिकालवतिनामहतां एकवाक्यतां प्रतिपाय इति प्रवशितम्-अर्हता प्रणीते शास्त्रे भिन्नवाक्यता विप्रतिपत्तिर्वा न स्यात् । Jain Education international Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ आचारांगभाष्यम् सत्त्वाः-जम्हा सत्ते सुभासुभेहिं कम्मेहिं तम्हा सत्त्व-जिसमें शुभ-अशुभ कर्मों की सत्ता है, वह सत्त्व है। सत्ते त्ति वत्तव्वं सिया।' अत्र अहिंसासूत्रे पञ्च आदेशाः सन्ति प्रस्तुत अहिंसा-सूत्र में पांच आदेश हैं१. न हन्तव्याः-दण्डकसादिभिः । १. उनका हनन नहीं करना चाहिए-दंड, चाबुक आदि साधनों से। २. न आज्ञापयितव्याः -प्रसह्य अभियोगदानेन । २. उन पर शासन नहीं करना चाहिए-बलपूर्वक आदेश देकर। ३. न परिग्रहीतव्या:-मम भत्यदासदास्यादिरिति ३. उनका परिग्रह नहीं करना चाहिए ये मेरे भृत्य, दासममीकारेण । ___दासी हैं-इस प्रकार ममकार के द्वारा। ४. न परितापयितव्याः-शारीरमानसपीडो- ४. उन्हें परिताप नहीं देना चाहिए-शारीरिक और त्पादनेन। मानसिक पीड़ा उत्पन्न कर। ५. नोवोतव्याः प्राणव्यपरोपणेन । ५. उनका उद्भवण नहीं करना चाहिए-प्राण-वियोजन के द्वारा। २. एस धम्मे सुद्धे णिइए सासए समिच्च लोयं खेयण्णेहिं पवेइए। सं०-एष धर्मः शुद्धः नित्यः शाश्वतः समेत्य लोकं क्षेत्रज्ञः प्रवेदितः । यह अहिंसा धर्म शुद्ध, नित्य और शाश्वत है । आत्मज्ञ अहंतों ने लोक को जान कर इसका प्रतिपादन किया। भाष्यम् २-एष पञ्चादेशात्मकः अहिंसाधर्मः इस पांच आदेश वाले अहिंसा धर्म के चार लक्षण हैंचतुर्लक्षणो विद्यते१. शुद्धः-रागद्वेषरहितत्वात् । १. शुद्ध राग-द्वेष से रहित होने के कारण । २. नित्यः-अपरिवर्तनीयस्वरूपत्वात् । २. नित्य-अपरिवर्तनीय स्वरूप के कारण । ३. शाश्वतः-त्रिकालावस्थायित्वात् । ३. शाश्वत-त्रैकालिक होने के कारण । ४. क्षेत्र : प्रवेदितः आत्मज्ञैः जीवलोकं समेत्य ४. क्षेत्रज्ञ-प्रवेदित--आत्मज्ञ व्यक्तियों द्वारा जीवलोक का -सम्यगवबुध्य निरूपितत्वात् । ___ सम्यग् अवबोध कर निरूपित होने के कारण । अनात्मज्ञप्रणीतः धर्मः रागद्वेषयुक्तत्वात् अशुद्धो. जो धर्म अनात्मज्ञ व्यक्तियों द्वारा प्रणीत होता है वह रागभवति । स्वमतिविकल्पप्रकल्पितत्वात् परिवर्तितस्वरूपं द्वेष युक्त होने के कारण अशुद्ध होता है। वह अपनी बुद्धि के विकल्पों नानाभेदयूक्तं भवति । अनेन इति व्याप्तिः फलिता से कल्पित होने के कारण परिवर्तनशील होता है, विभिन्न भेदों वाला भवति-यः आत्मज्ञैः प्रवेदितः धर्मः स तात्त्विकरूपेण होता है। इससे यह व्याप्ति (त्रैकालिक नियम) फलित होती है कि एकः । यो नास्ति तात्त्विकरूपेण एकःस नास्ति आत्मज्ञैः जो धर्म आत्मज्ञ व्यक्तियों द्वारा प्ररूपित होता है वह तात्त्विकरूप से प्रवेदितः । एक होता है । जो तात्त्विकरूप से एक नहीं होता, वह आत्मज्ञ व्यक्तियों द्वारा प्ररूपित नहीं होता । १. अंगसुत्ताणि २, भगवई २।१५। २. आचारांग चूणि, पृष्ठ १३४ : कप्पदप्पादोहिं सज्झ अभियोगो आणा, परिग्गहो ममीकारो, तंजहा-मम दासो मम मिच्चो एवमादि, आणापरिग्गहाणं विसेसो, अपरिग्गहितोवि आणप्पति, परिग्गहो सामिकरणमेव । ३. वही, पृष्ठ १३४ : उद्दवणा मारणं । ४. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ १३४ : खित्तं-आगासं, खित्तं जाणतीति खेत्तण्णो, तं तु आहारभूतं दव्वकालभावाणं, अमुत्तं च पवुच्चति, अमुत्ताणि खितं च जाणतो पाएण दव्वादीणि जाणइ, जो वा संसारि याणि दुक्खाणि जाणति सो खेत्तण्णो, पंडितो वा। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १६२ : खेबहः-जन्तुदुःख परिच्छेत्तृभिः। (ग) आप्टे, क्षेत्रज्ञः-The soul, the supreme soul, a witness, dextorus etc. (घ) द्रष्टव्यम्-आयारो, ३।१६ भाष्यम् । ५. आचारांग चूणि, पृष्ठ १३४ : समिच्चत्ति वा जाणित्तु वा एगट्ठा। Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०४. सम्यक्त्व, उ० १. सूत्र २-४ २०६ ___ अहिंसाधर्मः आत्मज्ञैः प्रवेदितोऽस्ति, अनेन इति अहिंसा धर्म आत्मज्ञ पुरुषों द्वारा प्रतिपादित है, इससे फलितं भवति-धर्मस्य मूलस्रोतोस्ति आत्मज्ञता, न तु यह फलित होता है-धर्म का मूल स्रोत है—आत्मज्ञता। बुद्धि धर्म बुद्धिः । य आत्मवित् स सर्ववित् । आत्मविदेव दुःखस्य का मूल स्रोत नहीं है। जो आत्मज्ञ होता है वही सर्वज्ञ होता है । मूलकारणं ज्ञातुं शक्नोति। आत्मज्ञ ही दुःख के मूल कारण को जान सकता है । ३. तं जहा-उट्ठिएसु वा, अणुट्ठिएसु वा। उवट्ठिएसु वा, अणुवट्टिएसु वा। उवरयदंडेसु वा, अणवरयदंडेसु वा। सोवहिएसु वा, अणोवहिएसु वा । संजोगरएसु वा, असंजोगरएसु वा। सं०-तद् यथा -- उत्थितेषु वा अनुत्थितेषु वा । उपस्थितेषु वा, अनुपस्थितेषु वा । उपरतदंडेषु वा, अनुपरतदंडेषु वा । सोपधिकेषु वा, अनुपधिकेषु वा । संयोगरतेषु वा, असंयोगरतेषु वा। अर्हतों ने अहिंसा-धर्म का उन सबके के लिए प्रतिपादन किया है जो उसकी आराधना के लिए उठे हैं या नहीं उठे हैं, जो उपस्थित हैं या अनुपस्थित हैं, जो दण्ड से उपरत हैं या दंड से अनुपरत हैं, जो परिग्रही हैं या परिग्रही नहीं हैं, जो संयोग में रत हैं या संयोग में रत नहीं हैं। भाष्यम् ३-धर्मप्रवेदनस्य सार्वभौममुद्देश्यमस्ति। धर्म के प्रतिपादन का उद्देश्य सार्वभौम है। उसके लिए दस तदर्थं दश विकल्पाः अत्र प्रतिपादिताः, तद् यथा- विकल्प यहां प्रस्तुत हैं, जैसे(१) उत्थिताः-धर्म प्रति कृताथासाः । १. उत्थित-जो धर्म के प्रति प्रयत्नशील हैं। - (२) अनुत्थिताः-तद्विपरीताः । २. अनुत्थित-जो धर्म के प्रति उदासीन हैं । (३) उपस्थिता:-धर्म शुश्रूषवो जिघृक्षवो वा। ३. उपस्थित-जो धर्म तत्त्व को सुनने और ग्रहण करने के इच्छुक हैं। (४) अनुपस्थिता:-तद्विपरीताः । ४. अनुपस्थित-जो धर्म तत्त्व को सुनने और ग्रहण करने के इच्छुक नहीं हैं। (५) उपरतदण्डा:-संयमिनः । ५. उपरतदंड-जो संयमी हैं। (६) अनुपरतदण्डा:-तद्विपरीताः । ६. अनुपरतदंड-जो संयमी नहीं हैं । (७) सोपधिका:-हिरण्यादिमन्तः । ७. सोपधिक-जो हिरण्य आदि उपधि से युक्त हैं । (८) अनुपधिकाः-तद्विपरीताः । ८. अनुपधिक-जो उपधि रहित हैं । (९) संयोगरता:-पुत्रकलत्रादिसंबंधवन्तः । ९. संयोगरत-जो पुत्र, स्त्री आदि के संबंधों से युक्त हैं। (१०) असंयोगरता:-तद्विपरीता:। १०. असंयोगरत—जो पुत्र आदि के संबंधों से रहित हैं। एतेषां सर्वेषां कृते क्षेत्र : धर्मः प्रवेदितः । इन सब प्रकार के व्यक्तियों के लिए क्षेत्रज्ञ-आत्मज्ञ व्यत्तियों ने धर्म का प्रतिपादन किया है । ४. तच्च चेयं तहा चेयं, अस्सि चेयं पवच्चइ । सं0-तथ्यं चैतत् तथा चैतत् अस्मिन चैतत् प्रोच्यते । यह अहिंसा-धर्म तथ्य है । यह वैसा ही है । यह इस अहंत-प्रवचन में सम्यग् निरूपित है । भाष्यम् ४.--.-एतत् 'सम्वे पाणा ण हंतव्वा' अहिंसा- किसी भी प्राणी का हनन नहीं करना चाहिए'... यह सूत्र तथ्यं अस्ति । एतत् तथा वर्तते यथा निरूपितम्। अहिंसा-सूत्र तथ्य है । यह वैसा ही है, जैसा निरूपित है। प्रस्तुत अस्मिन् सम्यक्त्वाध्ययने एतत् सम्यग्दर्शनं प्रोच्यते । 'सम्यक्त्व अध्ययन' में इसे सम्यग् दर्शन कहा है । चूणिकारस्य अभिमते 'सत्वे पाणा ण हव्वा एतत् चूर्णिकार के अभिमत में 'सच्चे पाणा हंतव्वा'- यह श्रद्धानलक्षणं रोचकसम्यग्दर्शनं विद्यते । तस्यानुसारि श्रद्धानलक्षण वाला रोचक सम्यग्दर्शन है। उसके अनुसार आचरण आचरणं कारकसम्यग्दर्शनं विद्यते। अस्मिन् आर्हते करना कारक सम्यग्दर्शन कहलाता है । इस अर्हत् शासन में सम्यग्दर्शन शासने एतत् सम्यग्दर्शनद्वयं प्रोच्यते ।' के ये दो प्रकार हैं। १. आचारांग चूणि, पृष्ठ १३४, १३५ । Jain Education international Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० आचारांगभाष्यम ५. तं आइइत्तु ण णिहे ण णिक्खिवे, जाणित्तु धम्मं जहा तहा। सं०-तद् आदाय न निदध्यात, न निक्षिपेत्, ज्ञात्वा धर्म यथा तथा । पुरुष उस अहिंसा व्रत को स्वीकार कर उसमें छलना न करे और न उसे छोड़े । धर्म का जैसा स्वरूप है, वैसा जान कर आजीवन उसका पालन करे। भाष्यम् ५-तद् अहिसाव्रतं रोचककारकसम्यग्दर्शनं पुरुष उस अहिंसा व्रत अथवा रोचक और कारक सम्यग्दर्शन वा आदाय तन्न निदध्यात्-छादयेत् तथा न निक्षिपेत् । को स्वीकार कर उसमें छलना न करे और न उसे छोड़े । जैसेयथा --केचिद् भिक्षुव्रतानि गृहीत्वा उत्प्रव्रजन्ति तथा न कुछ भिक्षु भिक्ष-व्रतों को स्वीकार कर उत्प्रव्रजन करते हैं --भिक्षुकुर्यात्, किन्तु तद् यावज्जीवमनुपालयेत् । अस्य कारणं, दीक्षा को त्याग देते हैं, वैसा न करे, किन्तु भिक्षु-व्रतों का यावज्जीवन यथा धर्मस्य स्वरूपमस्ति तथा तस्य परिज्ञानं करणीयम्। पालन करे। इसका कारण है, धर्म का जैसा स्वरूप है, वैसा उसको तेन निक्षेपणस्य कथापि व्यथां जनयति । हृदयंगतायां जानना चाहिए, जिससे कि उसको छोड़ने का प्रश्न ही न उठे । भिक्षुमनीषायां कि कोपि स्थितात्मा तां त्यक्तं इच्छेत ? स व्रत की मनीषा हृदयंगम हो जाने पर क्या कोई स्थितात्मा पुरुष एव इच्छेत् योस्ति अस्थितात्मा। तस्य निक्षेपणं न उसको छोड़ना चाहेगा? वही छोड़ना चाहेगा जो अस्थितात्मा है। स्यात् किन्तु ततश्च्युतिरेव भवेत् । यथोक्तं दशवकालिके प्रव्रज्या का निक्षेपण नहीं होना चाहिए किन्तु उसमें रहते प्राणों का 'चएज्ज देहं न उ धम्मसासणं ।" विसर्जन ही होना चाहिए। दशवकालिक में कहा है-भिक्षु शरीर को त्याग दे किन्तु धर्म-शासन को न छोड़े।' निहन्यते इति निहः। तद् अहिंसाव्रतं आदाय निह का अर्थ है-हनन करने वाला । साधक उस अहिंसा व्रत परीपहै: उपमगैः वा न निहो भवेत् इत्यपि व्याख्यातुं को स्वीकार कर परिषह और उपसर्गों के द्वारा व्रत का हनन करने शक्यम् । वाला न हो—यह व्याख्या भी की जा सकती है। ६. दिठेहि णिवेयं गच्छेज्जा। सं०-दृष्टेषु निर्वेदं गच्छेत् । वह विषयों के प्रति विरक्त रहे । ___ भाष्यम् ६-अहिंसाया अनुपालने या या बाधा अहिंसा व्रत की अनुपालना में जो जो बाधाएं हैं, जब तक वर्तन्ते तासां यावन्न परिहार: तावत् न तस्या अनुपालन उनका परिहार नहीं होता, तब तक उसका अनुपालन संभव नहीं है । संभवति । तत्र प्रथमा बाधास्ति दृष्टानि । दृष्टम्- उसमें प्रथम बाधा है--दृष्ट । दृष्ट का अर्थ है शब्द, रूप, गंध, इन्द्रियविषयः शब्दरूपगन्धरसस्पर्शात्मकः। दृष्टासक्तः रस, स्पर्शात्मक इन्द्रिय-विषय । जो व्यक्ति इन्द्रिय-विषयों में आसक्त अहिंसायाः पालनं कर्तुं न प्रभवति । अत एव निर्देशोऽयम् है, वह अहिंसा का पालन नहीं कर सकता। इसीलिए यह निर्देश -अहिंसाया आराधकः दृष्टेषु निर्वेदं गच्छेत्, तेषां है-अहिंसा का आराधक इन्द्रिय-विषयों के प्रति विरक्त रहे । उनका वेदनं—आस्वादनं न कुर्यात् । वेदन-आस्वादन न करे। ७. णो लोगस्सेसणं चरे। सं०-नो लोकस्यैषणां चरेत् । वह लोकेषणा न करे। भाष्यम् ७-अहिंसाया अनुपालने द्वितीया अहिंसा व्रत की अनुपालना में दूसरी बाधा है --- लोकषणा । बाधास्ति लोकैषणा। लोक्यते इति लोकः-इन्द्रिय- जो देखा जाता है वह है लोक । लोक का तात्पर्यार्थ है इन्द्रियविषयः, तस्य एषणां न चरेत् । अस्य वैकल्पिकोर्थः- विषय । साधक उसकी एषणा न करे। इस आलापक का वैकल्पिक इन्द्रियविषयान् एषति सर्वोपि लोकः तत्किमहं तेषामे- अर्थ यह है --- 'सभी प्राणी इन्द्रिय-विषयों की एषणा करते हैं तो फिर षणं न कुर्याम्, इति चिन्तनं लोकैषणा । अहिंसाया मैं उनकी एषणा क्यों न करूं'--ऐसा सोचना लोकषणा है। अहिंसा १. दसवे आलियं, चूलिका ११७ । Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ४. सम्यक्त्व, उ० १. सूत्र ५-६ २११ आराधक एतां लोकैषणां न चरेत् । अनया हिंसायां का आराधक इस लोकषणा को न करे । इस लोकेषणा से हिंसा में प्रवृत्तिः स्यादिति दर्शितमुत्तराध्ययने प्रवृत्ति होती है----ऐसा प्रतिपादित है उत्तराध्ययन सूत्र में--- जणेण सद्धि होक्खामि, इइ बाले पगब्भई । ___'मैं लोक समुदाय के साथ रहूंगा' (जो उनकी गति होगी, कामभोगाणुराएणं, केसं संपडिवज्जई ।। वही मेरी होगी)-ऐसा मान कर बाल-अज्ञानी धृष्ट बन जाता है । वह कामभोग के अनुराग से क्लेश पाता है । तओ से दंड समारमई, तसेसु थावरेसु य । ___ 'फिर वह त्रस तथा स्थावर जीवों के प्रति दंड का प्रयोग अट्ठाए य अणट्ठाए, भूयग्गामं विहिसई ॥' करता है और प्रयोजनवश अथवा बिना प्रयोजन ही प्राणी-समूह की हिंसा करता है।' ८. जस्स णत्यि इमा णाई, अण्णा तस्स कओ सिया? सं०-यस्य नास्ति इयं ज्ञातिः, अन्या तस्य कुतः स्यात् । जिसे इस अहिंसा-धर्म का ज्ञान नहीं है, उसे अन्य तत्त्वों का ज्ञान कहां से होगा ? भाष्यम् ८-ज्ञातिः---ज्ञानम् । दृष्टेषु निर्वेदं कुर्यात्, ज्ञाति का अर्थ है ज्ञान । 'इन्द्रिय-विषयों के प्रति विरक्त रहे, नो लोकस्य एषणां चरेत् । एतद् अहिंसायाः अध्यात्मस्य लोकषणा न करे'—यह अहिंसा अथवा अध्यात्म का आधारभूत वा आधारभूतं तत्त्वमस्ति । यस्य इयं ज्ञातिनं भवति तत्त्व है। जिसको इसका ज्ञान नहीं होता, उसको अन्य तत्त्वों का ज्ञान तस्य अन्या ज्ञाति ः कुतो भवेत् ? य इन्द्रियाण्यतीत्य न कहां से होगा? जो इन्द्रियों का अतिक्रमण कर नहीं चलता, उसका वरति तस्य अहिंसायां क्व प्रवेशः ? अहिंसा में प्रवेश कैसे हो सकता है ? ९. दिठं सुयं मयं विण्णायं, जमेयं परिकहिज्जइ । सं०-दृष्टं श्रुतं मतं विज्ञातं, यदेतत् परिकथ्यते । यह अहिंसा-धर्म जो कहा जा रहा है, वह दृष्ट, श्रुत, मत और विज्ञात है । भाष्यम ९–यदेतद् अहिंसासूत्र परिकथ्यते तत् सर्व यह जो अहिंसा-सूत्र कहा जा रहा है वह सारा दृष्ट है, श्रुत है, दृष्टं श्रुतं मतं विज्ञातमस्ति । मत है और विज्ञात है। १. उत्तरज्झयणाणि ५७-८ । चणिकारेण ६-८ सूत्राणां वैकल्पिकोर्थः कृतोस्ति २. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ १३५ : गाणं गाती, जं --अहवा "दिडेहि णिवेगं गच्छिज्जा' विट्ठा णाम भणितं तं अन्नतरइंदियरागदोसोवयोगो जस्सिमा पुव्वावरसंथुता बंधवा जहेते इहंपि णो जणवयातिपत्थि अन्ना केणप्पगारेण रागदोसणाती भविस्सति ? दुक्खपरित्ताणाए कि पुण परलोए ? एवं तेसु णिवेगं अहवा सवे पाणा ण हंतव्वा जाव ण उद्दवेयम्वा, गच्छे. 'णो य लोगेसणं' लोगो णाम सयणो, अहवा जस्स वा णाती णस्थि तस्सण्णआरंभपरिग्गहपवित्तेसु लोग इव लोगो ण णिच्छयतो कोयि सयणो, भणियं पासंडेसु णाती कतो सिता? जीवाजीवाति पदत्थे च-'पुत्तोपि अभिप्पायं पिउणो एस मग्गए वा तु' ण याणति सो कि अण्णं जाणिस्सतीति । सो सयणलोगो जइ इच्छति उप्पव्यावेतुं तं तस्स आचारांग वृत्ति, पत्र १६३ : यस्य मुमुक्षोरेषा एसणं ण चरे, तत्थ आलंबणं जस्स पत्थि इमा णाति' जातिः-लोकषणाबुद्धिः 'नास्ति' न विद्यते, तस्यान्या जस्स इहलोगे बंधवा ण भवति दुक्खपरित्ताणाए सावद्यारम्भप्रवृत्तिः कुतः स्यात् ? इदमुक्तं भवति अस्स अण्णेसु जातिसु कहं दुक्खं अवर्णस्संति । भोगेच्छारूपां लोकंषणां परिजिहीर्षोः नैव (आ० चू० पृष्ठ १३६) सावद्यानुष्ठानप्रवृत्तिरुपजायते, तदर्थत्वात् तस्या इति, ३. आचारांग चूणि, पृष्ठ १३५ : केवलदरिसणेण विट्ठें, सुतं यदि वा 'इमा' अनन्तरोक्तत्वात् प्रत्यक्षा सम्यक्त्व दुवालसंगं गणिपिडगं तं, आयरियाओ सुतमेतं णाम जह मम ज्ञातिः प्राणिनो न हन्तव्या इति वा यस्य न विद्यते दुक्खमसातं तहा अण्णेसि मां, विविहं विसिट्ठ वा गाणं तस्यान्या विवे किनी बुद्धिः कुमार्गसावधानुष्ठान विण्णाणं, परतो सुणित्ता सयं वा चिन्तिता एवं विष्णाणं परिहारद्वारेण कुतः स्यात् ? 'जह मम ण पियं दुक्खं जाणिय एमेव ।' Jain Education international Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ दृष्टम् केवलदर्शनेन प्रत्यक्षीकृतम् । श्रुतम् - केवलदर्शिनः सकाशाद् निशान्तम् । मतम् - सुचिन्तितम् । विज्ञातम् - विवेकविषयीकृतम् ।' भाष्यम् १० - यथा शकुनयः समागताः रात्रौ पादपे वसन्ति, सति प्रभाते पुनः प्रव्रजन्ति, एवं मनुष्या नानाजातिभ्यः समागच्छन्ति किञ्चित् कालं सह वसन्ति सति आयुषि पूर्णे पुनः नानाविधासु जातिषु प्रव्रजन्ति, पुनः पुनर्जात प्रकल्पयन्ति - विभिन्नासु एकेन्द्रियादि जातिषु जन्ममरणचक्रमनुभवन्ति । १०. समेमाणा पलेमाणा, पुणो-पुणो जाति पकपैति । सं० - समायन्तः पर्यायन्तः पुनः पुनः जातिं प्रकल्पयन्ति । हिंसा में जाने वाले और लीन रहने वाले मनुष्य बार-बार जन्म लेते हैं । 1 माष्यम् ११ – एवं प्रमादकृतान् दोषान् अवेक्ष्य प्राप्तप्रज्ञः वीरः पुरुषः अहोरात्रम् अविश्रामं यतमानो भवेत् । विषय कषायादिप्रमत्तान् अहिंसा धर्मतः बहिर्दृष्ट्वा सदा अप्रमत्तः पराक्रमेत । यत्र प्रमादस्तत्र हिंसा, यत्र अप्रमादस्तत्र अहिंसा इति फलश्रुतिः । १. भगवान् महावीर ने प्रत्येक आत्मा में स्वतंत्र चैतन्य की क्षमता प्रतिपादित की। इस सिद्धांत के आधार पर उन्होंने कहा- तुम स्वयं सत्य की खोज करो। उन्होंने नहीं कहा कि 'मैं कहता हूं, इसलिए अहिंसाधर्म को स्वीकार करो।' उन्होंने कहा 'अहिंसा-धर्म के बारे में मैं जो कह रहा हूं, वह प्रत्यक्षज्ञानी के द्वारा दृष्ट है, आचार्यों से श्रुत है, मनन द्वारा मत और चिन्तन द्वारा विज्ञात है।' आचारांग माध्यम् दृष्ट का अर्थ है केवलदर्शन (प्रत्यक्ष ज्ञान) से साक्षात् किया हुआ । किसी प्रत्यक्षज्ञानी का दर्शन (पुष्य-सत्य) भो अवग मनन और विज्ञान के द्वारा ही स्वीकृत होता है। इसमें श्रद्धा का आरोपण नहीं, यह ज्ञान के विकास का उपक्रम है। हुआ । ११. अहो य राओ व जयमाणे, वीरे सया आगयपण्णाणे पमले बहिया पास, अध्यमले सया परक्कमेज्जासि । 1 ति बेमि । सं० – अहनि च रात्रौ च यतमानः, वीरः सदा आगतप्रज्ञानः । प्रमत्तान् बहिदुष्ट्वा अप्रमत्तः सदा पराक्रमेत । -इति ब्रवीमि । दिन-रात यत्न करने वाला और सदा लब्धप्रज्ञ वीर साधक देखता है कि जो प्रमत्त हैं, वे धर्म से बाहर हैं। इसलिए वह अप्रमत्त होकर सदा पराक्रम करे । ऐसा मैं कहता है। त का अर्थ है— केवलदर्शनी ( प्रत्यक्षज्ञानी) के पास सुना मत का अर्थ है-मुचिन्तित । विज्ञात का अर्थ है- विवेक का विषय किया हुआ । जैसे पक्षी विभिन्न स्थानों से आकर रात्री में एक वृक्ष पर निवास करते हैं और प्रभात होने पर पुनः वहां से विभिन्न दिशाओं में चले जाते हैं। इसी प्रकार मनुष्य भी एकेन्द्रिय आदि विभिन्न जातियों से वहां आते हैं, कुछ काल तक साथ रहते हैं और आयुष्य पूर्ण होने पर पुनः विभिन्न जातियों में जाकर जन्म लेते हैं। पुनः पुनः जन्म लेने का तात्पर्य है कि वे एकेन्द्रिय आदि विभिन्न जातियों में जन्म-मरण के चक्र का अनुभव करते हैं । इस प्रकार प्रमाद के द्वारा किए हुए दोषों को देख कर प्रज्ञावान् वीर पुरुष दिन-रात निरंतर यत्न करने वाला हो। जो पुरुष विषय, कषाय आदि से प्रमत्त हैं, वे अहिंसा-धर्म से बाहर हैं, यह देख कर वह सदा अप्रमत्त होकर पराक्रम करे। जहां प्रमाद है वहां हिंसा है और जहां अप्रमाद है वहां अहिंसा है, यह इसकी फलश्रुति है । २. वृत्तौ व्याख्याभेदो वर्तते तस्मिन्नेव मनुष्याविजन्मनि 'शाम्यन्तो' गायेनात्यर्थमा कुर्वन्तः तथा 'प्रतीयमानाः ' मनोशेन्द्रियार्थेषु पौनःपुन्येन केन्द्रियद्रियादिकां जाति प्रकल्पयन्ति । ( आचारांग वृति पत्र १६३) २. अन चूर्ण (पृष्ठ १२०) सस्थालपुरुषस्य दृष्टान्तेन अप्रमादी व्याख्यातः कहं नाम रागादिदो घना प होज्जा ? पराणं परचकमे एरच तेसबालपुरिसेणी दहा हो अयमापगुणा मरणं ण पत्तो एवं साहवि सिरस Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ४. सम्यक्त्व, उ० १ २. सूत्र १०-१२ १२. जे आसवा ते परिस्सवा, जे परिस्सवा ते आसवा, जे अणासवा ते अपरिस्तवा, जे अपरिस्सवा ते अणासवा - एए पए संबुज्झमाणे, लोयं च आणाए अभिसमेच्या पुढो पवेइयं । सं० – ये आस्रवाः ते परिस्रवाः, ये परिस्रवाः ते आस्रवाः, ये अनास्रवाः ते अपरिस्रवाः, ये अपरिस्रवाः ते अनास्रवाः - एतानि - पदानि संयुध्यमानः, लोकं च आज्ञया अभिसमेत्य पृथक् प्रवेदितम् । जो आव हैं, वे ही परिस्रव हैं। जो परिस्रव हैं, वे ही आलब हैं। जो अनालव हैं, वे ही अपरिस्रव हैं। जो अपरिस्रव हैं, वे ही अनालव हैं। इन पदों (मंगों) को समझने वाला विस्तार से प्रतिपादित जीव-लोक को आज्ञा से जान कर आत्रव न करे । - भाष्यम् १२ – कर्माकर्षण हेतुरात्माध्यवसायः आलयः । कर्मनिर्जरणहेतुरात्माध्यवसायः परिश्रयः । तद्विपरीतः अपरिवः । आस्रवः कर्मबन्धस्थानम् । परिस्रवः कर्म निर्जरास्थानम् । आस्रवक: आस्रवः परिस्रवकः परिस्रवः इति व्युत्पत्ती' आस्रवः - कर्माकर्षक:, परिस्रवः - कर्मनिर्जरकः । अत्र चतुर्भङ्गी भवति - १. वे आसवा ते परिस्रवाः । ये परिस्रवाः ते आस्रवाः । बोओ उद्देसो : दूसरा उद्देशक २. ये आखवा ते अपरिस्रवाः । ये अपरिस्रवाः ते आखवाः । ३. ये अनास्रवाः ते परिस्रवाः । ये परिस्रवाः ते अनास्रवाः । ४. ये अनास्रवाः ते अपरिस्रवाः । ये अपरिस्रवाः ते अनास्रवाः । सूत्रे प्रथमचतुर्थश्च शेषभङ्गी गयौ । साक्षादर्शितः । २१३ कर्म को आकृष्ट करने का हेतुभूत आत्मा का अध्यवसाय आलव कहलाता है। कर्म-निर्जरण का हेतुभूत आत्मा का अध्यवसाय परिस्रव कहलाता है। परिसर का प्रतिपक्षी है अपरिव आस्रव कर्मबन्ध का कारण है और परिस्रव कर्म - निर्जरा का हेतु है । । । जो आस्रवक है वह आस्रव है। जो परिस्रवक है, वह परिस्रव है । इस व्युत्पत्ति के आधार पर आस्रव का अर्थ है-कर्म को आकृष्ट करने वाला और परिस्रव का अर्थ है— कर्म का निर्जरण करने वाला । उसकी चतुभंगी इस प्रकार होती है १. जो आस्रव हैं कर्म का बन्ध करते हैं, वे ही परिलय हैं— कर्म का मोक्ष करते हैं। जो परिस्रव हैं - कर्म का मोक्ष करते हैं, वे ही आस्रव हैं— कर्म का बन्ध करते हैं । २. जो आस्रव हैं कर्म का बन्ध करते हैं, वे ही अपरिस्रव हैं - कर्म का मोक्ष नहीं करते । जो अपरिस्रव हैं वे ही आस्रव हैं कर्म का मोक्ष नहीं करते, कर्म का बन्ध करते हैं । भङ्गः कर्मणां बन्धो भवतीति तथ्यं बद्धानि कर्माणि सावधिकानि भवन्ति, अतस्तेषां निर्जरा जायते इत्यपि तथ्यम् । यत्र न कर्मबन्धस्तत्र न निर्जरा इति स्वाभाविकम् १. आचारांग वृत्ति, पत्र १६५ : यदि वा आस्रवन्तीत्यात्रवाः, पचाद्यच् एवं परिस्रवन्तीति परिश्रवाः । ३. जो अनास्रव हैं कर्म का बन्ध नहीं करते, वे ही परिस्रव हैं-कर्म का मोक्ष करते हैं । जो परिस्रव हैं - कर्म का मोक्ष करते हैं, वे ही अनास्रव हैं कर्म का बन्ध नहीं करते । कर्म का बंध नहीं करते, ४. जो अनास्रव हैं वे ही अपरिस्रव हैं- कर्म का मोक्ष नहीं करते । कर्म का मोक्ष नहीं करते, जो अपरिस्रव हैं वे ही अनास्रव हैं कर्म का बन्ध नहीं करते । प्रस्तुत आलापक में पहला और चौथा विकल्प साक्षात् प्रतिपादित है, शेष दो विकल्प स्वयंगम्य हैं । कर्म का बंध होता है, यह सच है। बंधे हुए कर्म सावधिक होते हैं इसलिए उनका निर्जरण होता है, यह भी सच है। जहां कर्म-बन्ध नहीं है, वहां निर्जरा भी नहीं है, यह स्वाभाविक है। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ आचारांगभाष्यम् शैलेश्यवस्थायां केवलं परिस्रवो भवति न पुनर्वन्धी अवस्था में केवल निर्जरण होता है, पुनः बंध नहीं होता। भवति । एतानि पदानि संबुध्यमान: पृथक् प्रवेदितं आस्रवलोकं परिस्रवलोकं च आज्ञया अतीन्द्रियज्ञानि - निर्दिष्टमार्गेण अभिसमेत्य कि कुर्यादिति अग्रिमसूत्रे प्रदर्शयिष्यते । एते भङ्गाः परिमाणतः क्रियाविशेषतः उपचयापचयतः व्याख्येयाः । परिमाणतः - असंबुद्धस्य यावन्तः आस्रवहेतवः संबुद्धस्य तावन्तः निर्जराहेतवः । क्रियाविशेषतः असंयतस्य या स्थानादिक्रिया आस्रवाय भवति संयतस्य सा चैव निर्जराय भवति । उपचयापचयतः - 'ये आस्रवास्ते साम्परायिकक्रियामपेक्ष्य असी भङ्गः । ये वास्ते अपरिस्रवाः - असौ भङ्गः अवस्तु । ये अनावास्ते परिस्रवाः असी भङ्गः शैलेश्यवस्थामपेक्ष्य | अपरिस्रवाः - असौ भङ्गः प्रस्तुतसूत्रे बन्धनिर्जरयो रहस्यानि संकेतितानि । कर्मवादस्य रहस्यानि विज्ञाय पुरुष हिंसातो विरतो भवति अथवा अहिंसां प्रपद्यते अथवा आत्मविकासस्य प्रक्रियां परिजानातीति हृदयम् । ये अनाखवास्ते सिद्धानपश्य । परिस्रवाः ' भाष्यम् १२ – जानी पुरुष : बन्धनिर्जरयो रहस्य विज्ञाय इह मानवानां तदाख्याति ये सन्ति संसार प्रतिपन्नाः - आरम्भस्थिताः, ये च सन्ति संबुध्यमानाः - दुःखादुद्वेजका सुखस्य एपका धर्मश्रवणगवेषकाश्च ये च सन्ति विज्ञानप्राप्ताः- उदितविवेकाः । १४. अट्टा वि संता अनुआ पमत्ता इन सारे विकल्पों को समझने वाला पुरुष विस्तार से प्रतिपादित आस्रवलोक और परिस्रवलोक को आज्ञा - अतीन्द्रियज्ञानी द्वारा निर्दिष्ट मार्ग से जान कर क्या करे, इसका निर्देश अग्रिम सूत्र में किया गया है । १. आचारांग चूणि, पृष्ठ १३८ : जं भणितं मतिया असंजमट्ठाणाई तत्तियाइं संजमट्ठाणाई, भणियं च उपर्युक्त विकल्पों की व्याख्या तीन तथ्यों परिमाण, कियाविशेष तथा उपचयापचय के आधार पर करनी चाहिए १. परिमाण के आधार पर के हेतु है. सम्बुद्ध पुरुष के सं० - आर्ताः अपि सन्तः अथवा प्रमत्ताः । आतं मनुष्य भी धर्म को स्वीकार करते हैं और प्रमत्त मनुष्य भी । असंबुद्ध पुरुष के जितने आस्रव उतने ही निर्जरा के हेतु हैं। २. क्रियाविशेष के आधार पर असंयत व्यक्ति की उठने-बैठने की जो क्रिया आसव के लिए होती है, संपत व्यक्ति की वही क्रिया निर्जरा के लिए होती है । १३. आधार णाणी इह माणवाणं संसारपडिबन्नाणं संबुज्झमाणाणं विष्णाणपत्ताणं । सं०--आख्याति ज्ञानी इह मानवानां संसारप्रतिपन्नानां संबुद्धधमानानां विज्ञानप्राप्तानाम् । जो संसार स्थित हैं, सम्बोधि पाने को उन्मुख हैं, विवेकी हैं, उन मनुष्यों को ज्ञानी धर्म का बोध देते हैं। ३. उपचय - अपचय के आधार पर - जो आस्रव हैं वे ही परिस्रव हैं- यह विकल्प साम्परायिक किया की अपेक्षा से है। जो आश्रव हैं वे अपरिस्रव हैं यह विकल्प 'शून्य' है । जो अनास्रव हैं वे परिस्रव हैं - यह विकल्प शैलेशी अवस्था की अपेक्षा से है। जो अनास्रव हैं वे अपरिस्रव हैं यह विकल्प सिद्धों की अपेक्षा से है। प्रस्तुत सूत्र में बन्ध तथा निर्जरा के कुछेक रहस्य संकेतित हैं । कर्मवाद के रहस्यों को जानकर पुरुष हिंसा से विरत होता है, अथवा अहिंसा को स्वीकार करता है, अथवा आत्म-विकास की प्रक्रिया को जान लेता है, यही इसका तात्पर्य है । - ज्ञानी पुरुष बन्ध और निर्जरा के रहस्यों को जानकर उन मनुष्यों को धर्म का उपदेश देते हैं १. जो संसार स्थित हैं हिंसा में स्थित हैं, २. जो संबोधि पाने को उन्मुख हैं अर्थात् जो दुःखों से उद्विग्न हैं और सुख के खोजी तथा धर्मश्रवण के गवेषक हैं, तथा २. जो विज्ञान प्राप्त हैं अर्थात् जिनका विवेक उदित हो चुका है। या प्रकारा यावन्तः, संसारावेश हेतवः । तावन्तस्तद्विपर्यासा, निर्वाणसुखहेतवः ॥ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ४. सम्यक्त्व, उ० २. सूत्र १३-१६ बाध्यम् १४ - हिंसा च कर्मबन्धस्थानं, अहिंसा च निर्जरास्थानम्' इति ज्ञानिनः सकाशाद् अभिसमेत्य आर्त्ता अपि अहिंसां प्रतिपद्यन्ते' प्रमत्ता अपि च, किं पुनः अपरे विषयेभ्योऽनासक्तिमुपगता: ? भत्तों द्विविधः प्रन्यासः - अभावग्रस्तः रोगाद्यभिभूतो दुःखितो वा । भावातः - हिंसात्मकैभव : पीडितः । प्रमत्तः विषयमद्यादिप्रमादाभिभूतः सुखितो वा । १५. अहासमि ति बेमि सं० - यथासत्यमिदं इति ब्रवीमि । यह वास्तविक सत्य है - ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् १४ इयं सत्यमस्ति मनुष्या आर्ता अपि सन्ति, प्रमत्ता अपि सन्ति । इदमपि सत्यं केचित् आर्त्ताः सन्तोऽपि अतिप्रहाणाय समुद्यताः भवन्ति । केचिच्च प्रमत्ताः सन्तोऽपि किञ्चिन्निमित्तमासाद्य जागरूकदशां प्रतिपद्यन्ते । इदं भावपरिवर्तनं यथासत्यं --- यथार्थमस्तीति सूत्रस्य तात्पर्यम् । १६ - इदानीं संबोधेरालम्बनानि व्याख्यायन्ते मृत्युमुखस्य न अनागमोऽस्ति तत् कुतोपि विस्फारितं भूत्वा प्राणिनं बसते अथवा मृत्युमुखस्य नानादिक्षु आगमोस्ति । मरणधर्माण: सर्वे जीवाः, नास्ति कोपि १६. नाणागमो मच्चुमुहस्स अस्थि, इच्छापणीया वंकाणिकेया । कालग्गहीआ णिचए णिविट्ठा, पुढो-पुढो जाई पकप्पयंति । : १. ( क ) इस सूत्र का चूर्णि के आधार पर वैकल्पिक अनुवाद इस प्रकार किया जा सकता है- जो धर्म को स्वीकार नहीं करते, वे आतं होते हैं या प्रमत । आचारांग चूर्णि पृष्ठ १३९ 'पडिवज्जंतिति वक्क सेसं अहवा तं एवं अवखातं धम्मं अपविजमाणा महा राग दोसेहि पमत्ता विसाएहि अण्णउत्थिय गिहत्था पासत्यावओ मा संसारमेव विसंति । अथवा ऐसा अनुवाद भी हो सकता है- आतं २१५ 'हिंसा कर्म - बन्ध का कारण है और अहिंसा निर्जरा का कारण है - ज्ञानी पुरुषों से यह सम्यग् रूप से जान कर आर्त्त व्यक्ति भी अहिंसा को स्वीकार कर लेते हैं और प्रमत्त व्यक्ति भी । जो पुरुष विषयों के प्रति अनासक्त हो चुके हैं, उनकी तो बात ही क्या ? सं० नानागमो मृत्युमुखस्य अस्ति, इच्छाप्रणीताः वक्रनिकेताः, गृहीतकालाः निचये निविष्टाः, पृथक् पृथक् जाति प्रकल्पयन्ति । मौत का मुंह नाना मार्गों से दिख जाता है। फिर भी कुछ लोग धर्माराधना के लिए काल प्रतिबद्ध होकर अर्थ-संग्रह में जुटे रहते हैं। धारण करते हैं । इच्छा द्वारा संचालित और माया के निकेतन बने रहते हैं । वे इस प्रकार के लोग नाना प्रकार की जीव-योनियों में जन्म आ दो प्रकार के होते हैं १. द्रव्य आत जो अभावग्रस्त हैं, रोग आदि से अभिभूत हैं। अथवा दुःखी हैं । २. भाव आजो हिसात्मक भावों से पीड़ित हैं। प्रमत्त का अर्थ है वह पुरुष जो विषय, मद्य आदि प्रमादों से अभिभूत है अथवा जो सुखार्थी है । DEIN HO.... यह सत्य है कि मनुष्य आर्स भी होते हैं और प्रमत्त भी होते हैं। यह भी सत्य है कि कुछ मनुष्य आर्त्त होते हुए भी अति को क्षीण करने के लिए समुद्यत होते हैं, संयम ग्रहण के प्रति तत्पर होते हैं और कुछ मनुष्य प्रमत्त होते हुए भी किसी निमित्त को पाकर जानरूक बन जाते हैं। यह भाव परिवर्तन यथार्थ है, यही इस सूत्र का तात्पर्य है । प्रस्तुत आलापक में संबोधि के आलंबन-सूत्र व्याख्यात हैं । पहला आलंबन - सूत्र हैमौत के लिए कोई भी मार्गों से दिख जाता है। मौत अनागम नहीं है मौत का मुंह नाना किसी भी मार्ग से प्रकट होकर प्राणी मनुष्य भी धर्म को स्वीकार नहीं करते और प्रमत्तविलासी मनुष्य भी । (ख) तुलना-गीता ७।१६ : विधाते जनाः सिनोऽर्जुन । आरियों ज्ञानी च भरतर्षभ | m २. 'नाणागमो' पदं 'नानागमो', न अनागमो' – इति द्वाभ्यां प्रकाराभ्यां व्याख्यातुं शक्यः । 'नाणागमो' मृत्युमुखस्य, वृत्तौ अनागमो मृत्योर्मखत्य इति । चूणों (पृष्ठ १४०) (१ ( पत्र १६६ ) न हि Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ आचारांगभाष्यम् अमर्त्यः इति प्रथममालम्बनम् । को ग्रस लेती है। अथवा मृत्यु नाना दिशाओं से सभी दिशाओं से आ सकती है । सभी प्राणी मरणधर्मा हैं । कोई भी अमर नहीं है। इच्छाप्रणीताः - इच्छा -- इन्द्रियमनोविषयान- दूसरा आलंबन-सूत्र हैकलाप्रवृत्तिः तां प्रणीताः। वक्रनिकेता:-मायाया कुछ लोग इच्छाप्रणीत-इन्द्रिय और मन की विषयानुकूल आश्रयभूताः । गृहीतकालाः'-मध्यमे अंतिमे वा वयसि प्रवृत्ति के द्वारा संचालित हैं, वक्रनिकेत - माया के आधारभूत बने हुए धर्म चरिष्यामः इत्यभिसंधिमन्तः। निचये- अर्थसंग्रहे हैं, गहीतकाल-मध्यम वय में अथवा अंतिम वय में हम धर्म की निविष्टाः। एतादृशाः पुरुषाः पृथक् पृथक् जाति आराधना करेंगे--- इस प्रकार सोचने वाले हैं तथा निचय- अर्थ-संग्रह प्रकल्पयन्ति-एकेन्द्रियादिषु विभिन्नासु जातिषु उत्पद्यन्ते में लीन हैं। ऐसे पुरुष एकेन्द्रिय आदि विभिन्न जीव-योनियों में उत्पन्न इति द्वितीयमालम्बनम् । होते हैं। १७. इहमेगेसि तत्थ-तत्थ संथवो भवति । अहोववाइए फासे पडिसंवेदयंति। सं०-इहैकेषां तत्र तत्र संस्तवो भवति । अधऔपपातिकान् स्पर्शान प्रतिसंवेदयन्ति । कुछ लोगों का विभिन्न मतों से परिचय होता है । वे आस्रव का सेवन कर अधोलोक में होने वाले स्पर्शों का संवेदन करते हैं। भाष्यम् १७-संस्तवः-परिचयः, निर्देशः, संस्तव के तीन अर्थ हैं- परिचय, निर्देश अथवा समागम । समागमो वा।' इह एकेषां मनुष्याणां मिथ्यात्वकषाय- संसार में कुछ मनुष्यों का मिथ्यात्व, कषाय और विषयों से अभिभूत विषयाभिभूतैर्दर्शनैः परिचयो भवति । तेन ते सावद्या- दार्शनिक विचारों से परिचय होता है। उस परिचय के कारण वे चरणे उन्मुक्ता जायन्ते। ततश्च तेषां तत्र तत्र जातिषु सावद्य प्रवृत्ति करने के लिए उन्मुक्त हो जाते हैं। परिणाम स्वरूप समागमो भवति । तत्र अध औपपातिकान् स्पर्शान्- उनका उन-उन जीव योनियों में समागम होता है। वे वहां अधोलोक कष्टानि प्रतिसंवेदयन्ति । में होने वाले स्पों -कष्टों का बार-बार संवेदन करते हैं । १८. चिटठं कुरेहि कम्मेहि, चिठं परिचिट्ठति । अचिट्ठ कुरेहि कम्मेहि, णो चिट्ठ परिचिति । सं०-गाढं क्रूरेषु कर्मसु, गाढं परितिष्ठति । अगाढं क्रूरेषु कर्मसु, नो गाढं परितिष्ठति। जिस पुरुष के अध्यवसाय प्रगाढ क्रूरकर्म में प्रवृत्त होते हैं, वह प्रगाढ वेदना वाले स्थान में उत्पन्न होता है। जिसके अध्यवसाय प्रगाढ क्रूरकर्म में प्रवृत्त नहीं होते, वह प्रगाढ वेदना वाले स्थान में उत्पन्न नहीं होता। भाष्यम् १८-शिष्यः पृच्छति-भगवन् ! अध- शिष्य ने पूछा-भगवन् ! अधोलोक में होने वाले कष्टों की औपपातिकान् स्पर्शान् वेदयमानाः सर्वे समवेदना वेदना क्या सभी जीवों के समान होती है ? भगवान ने कहा-'नहीं, भवन्ति ? नायमर्थः समर्थः । कथम् ? इति ऐसा नहीं होता।' क्यों ? इस प्रतिप्रश्न का उत्तर है-जो क्रूर प्रतिप्रश्ने उत्तरम्-यः कुरेषु कर्मसु प्रवर्तते स कर्म में प्रवृत्त होता है वह नरक आदि अशुभ स्थानों में उत्पन्न होकर नरकाद्यशुभस्थानेषु उपपातमासाद्य गाढं परितिष्ठति तीव्र वेदना का अनुभव करता है। जो प्रगाढ क्रूर कर्म में प्रवृत्त नहीं -तीव्रवेदनो भवति । यश्च करेषु कर्मसु अगाढं प्रवर्तते होता, वह नरक आदि अशुभ स्थानों में उत्पन्न होकर भी अल्प वेदना स नरकाद्यशुभस्थानेषु उपपातमासाद्यापि अल्पवेदनो का अनुभव करता है। इस आलापक में तीव्र अध्यवसाय तथा मंद भवति। अत्र तीव्राध्यवसायमन्दाध्यवसाययोश्च अध्यवसाय का विपाकभेद दिखाया गया है। शुभ कर्म के विषय में विपाकभेदः प्रदर्शितः । शुभकर्मविषयेऽपि एवं वाच्यम् । भी ऐसा ही जान लेना चाहिए। १. आवारांग वृत्ति, पत्र १६६ : कालगृहीताः, आहिताग्नि अह ते सकम्मनिद्दिळं अण्णतरं गति गया, उबवाते वर्शनाद् आर्षत्वाद् वा निष्ठान्तस्य परनिपातः । जाता उववाइया फुसंति । २. आचारांग चूणि, पृष्ठ १४१ : इह संसारे संयुति संथवो, (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १६७ : अधऔपपातिकान अप्पसत्थो नेरइओ नेर इयत्तेण, संथुवति णाम निद्दि नरकादिभवान् 'स्पर्शान्' दुःखानुभवान् प्रतिसंवेदसिज्जति एवमावि, पसत्यं तुं देवो देवत्तेण, अहवा समागमो यन्ति । संथवो। ४. आचारांग चूणि, पृष्ठ १४१ : चिट्ठति वा गाढति वा ३. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ १४१ : अध इति अणंतरे, एगट्ठा। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१७ अ०४. सम्यक्त्व, उ०२. सूत्र १७-२० १९. एगे वयंति अदुवा वि णाणो, णाणी वयंति अदुवा वि एगे। सं० -एके वदन्ति अथवा अपि ज्ञानिनः, ज्ञानिनः वदन्ति अथवा अपि एके ? यह बात अन्य दार्शनिक कहते हैं या ज्ञानी भी कहते हैं ? यह ज्ञानी कहते हैं या अन्य दार्शनिक भी कहते हैं ? भाष्यम् १९-पूर्वस्मिन् सूत्रे हिंसाया: फलं प्रतिपा- इससे पूर्व के सूत्र में हिंसा के फल का प्रतिपादन हुआ है। दितम् । तत् सर्वेषां दार्शनिकानां सम्मतमस्ति अथवा यह तथ्य सभी दार्शनिकों को सम्मत है या नहीं, यह जिज्ञासा प्रस्तुत नास्ति, इति जिज्ञासां अभिव्यनक्ति प्रस्तुतसूत्रम्-एके सूत्र में अभिव्यक्त है-कुछ दार्शनिक पूर्वोक्त हिंसाफल की बात कहते दार्शनिका: पूर्वोक्तं हिंसाफलं वदन्ति अथवा ज्ञानिनो हैं अथवा ज्ञानी ऐसा कहते हैं। इस प्रश्न का समाधान उत्तरवर्ती बदन्ति ? अस्याः समाधानं उत्तरवत्तिसूत्रेषु (२०-२६) (२०-२६) सूत्रों में प्राप्त है। समुपलभ्यते । एके इति केचिद् दार्शनिकाः, ज्ञानिन इति सम्यग- एके का अर्थ है कुछ दार्शनिक । ज्ञानी का अर्थ है -सम्यग्दर्शनमापन्नाः । दर्शन को प्राप्त व्यक्ति । गतप्रत्यागतक्रमेण एवं वाच्यम्--ज्ञानिनो वदन्ति गतप्रत्यागत क्रम से इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है - अथवा एके वदन्ति ? ज्ञानी ऐसा कहते हैं अथवा कुछ दार्शनिक ? २०. आवंति केआवंति लोयंसि समणा य माहणा य पुढो विवादं वदंति-से दिलैंच णे, सुयं च णे, मयं च णे विण्णायं च णे, उड्ढं अहं तिरियं दिसासु सव्वतो सुपडिलेहियं च णे-'सब्वे पाणा सब्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता हंतव्वा, अज्जावेयव्वा परिघेतव्वा, परियावेयव्वा, उद्दवेयव्वा । एत्थ वि जाणह णस्थित्थ दोसो।' सं०-यावन्तः केचन लोके श्रमणाश्च माहनाश्च पृथक् विवादं वदन्ति ---तद् दृष्टं च नः, श्रुतं च नः, मतं च नः, विज्ञातं च नः, ऊवं अधः तिर्यग् दिशासु सर्वतः सुप्रतिलिखितं च नः –सर्वे प्राणाः, सर्वे भूताः, सर्वे जीवाः, सर्वे सत्त्वाः हन्तव्याः आज्ञापयितव्याः परिगृहीतव्याः परितापयितव्याः, उद्घोतव्याः । अत्रापि जानीथ नास्ति अत्र दोषः । दार्शनिक जगत में कुछ श्रमण और ब्राह्मण परस्पर विरोधी मतवाद का निरूपण करते हैं। कुछ कहते हैं-'हमने देखा है, सुना है, मनन किया है और मली-भांति समझा है, ऊंची, नीची और तिरछी-सभी दिशाओं में सब प्रकार से इसका निरीक्षण किया है कि किसी भी प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व का हनन किया जा सकता है, उन पर शासन किया जा सकता है, उन्हें वास बनाया जा सकता है, उन्हें परिताप दिया जा सकता है, उनका प्राण-वियोजन किया जा सकता है। इसमें भी तुम जानो कि इसमें कोई दोष नहीं है। भाष्यम् २०–केचन श्रमणा माहनाश्च परस्पर कुछ श्रमण और ब्राह्मण परस्पर-विरोधी मतवाद का निरूपण विवादं कुर्वन्ति-अस्माकं एतद् दृष्टं, श्रुतं, मतं, करते हैं। वे कहते हैं-'हमने देखा है, सुना है, मनन किया है, विज्ञातं, सर्वतः सप्रेक्षितमस्ति-प्राणिनां वधे नास्ति भलीभांति समझा है और चारों ओर से इसका निरीक्षण किया है कि दोषः । 'प्राणियों' के वध में कोई दोष नहीं है।' किमेतादशं हिंसायाः समर्थनं कुर्वाणाः श्रमणा: इस प्रसंग में आश्चर्य के साथ यह जिज्ञासा होती है कि क्या ब्राह्मणा अपि आसन इति साश्चर्य जिज्ञासा जायते। हिंसा का इस प्रकार समर्थन करने वाले श्रमण और ब्राह्मण भी थे? नात्र विस्मरणीयं, अहिंसायाः यादशी प्रतिष्ठा अद्य हमें यह विस्मृत नहीं करना चाहिए कि अहिंसा की जैसी प्रतिष्ठा विद्यते तादशी भगवतो महावीरस्य युगे नासीत् । तदानीं आज है वैसी प्रतिष्ठा भगवान् महावीर के युग में नहीं थी। उस धर्मार्थमपि याज्ञिकी हिंसा प्रचलिता आसीत्। मांसा- समय धर्म के लिए भी याज्ञिकी हिंसा प्रचलित थी। मांसाहार हारस्य हेतवेऽपि हिंसायाः समर्थनं संजायमानमासीत्। के लिए भी हिंसा का समर्थन किया जाता था। हिंसा का समर्थन तेषां हिंसां समर्थयतां विदुषां अभिमतमस्ति इह सूत्रे करने वाले उन विद्वानों का अभिमत प्रस्तुत सूत्र में उल्लिखित है। प्रदर्शितम् । Jain Education international Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ आचारांगभाध्यम २१. अणारियवयणमेयं । सं०-अनार्यवचनमेतत् । यह अनार्यवचन है। भाष्यम् २१-अस्मिन् पूर्वोक्तपक्षे स्थापिते सूत्रकारो इस पूर्वोक्त पक्ष की स्थापना के विषय में सूत्रकार कहते हैंवक्ति-एतद् हिंसायाः प्रवर्तकं, अतः अनार्यवचनमस्ति। यह हिंसा का प्रवर्तक है, इसलिए अनार्य-वचन है । प्राचीनतरकाले आर्य : अनार्यः इति शब्दौ वर्गविशेष- प्राचीनतर काल में 'आर्य' तथा 'अनार्य'---ये दोनों शब्द वाचकौ आस्ताम् । भगवतो महावीरस्य युगे तो वर्गविशेष के वाचक थे । भगवान् महावीर के युग में उनका लाक्षणिक लाक्षणिको संजातौ। आर्यः श्रेष्ठः, अनार्यः अश्रेष्ठः । प्रयोग होने लगा। आर्य अर्थात् श्रेष्ठ और अनार्य अर्थात् अश्रेष्ठ । सूत्रकृतांगे 'आर्यमार्गस्य' उल्लेखो दृश्यते-'जे तत्थ सूत्रकृतांग आगम में 'आर्यमार्ग' का प्रयोग मिलता है। बौद्धों में आरियं मग्गं' [१।३।६६] । बौद्धानां आर्यसत्यं सुप्रतीत- 'आर्यसत्य' प्रसिद्ध है। प्रस्तुत प्रकरण में अनार्य शब्द का यही अर्थ मस्ति । प्रस्तुतप्रकरणे अनार्यपदस्य अयं अर्थः संगच्छते संगत है कि जो अहिंसा धर्म को नहीं जानता वह अनार्य है। इसका –यः अहिंसाधर्म न वेत्ति स अनार्यः । अस्य प्रतिपक्षी- प्रतिपक्षी है आर्य । जो अहिंसा धर्म को जानता है वह आर्य है । यः अहिंसाधर्म वेत्ति स आर्यः। . २२. तत्थ जे ते आरिया, ते एवं वयासी-से दुद्दिठं च भे, दुस्सुयं च भे, दुम्मयं च भे, दुन्विण्णायं च भे, उड्ढे अहं तिरियं दिसासु सव्वतो दुप्पडिलेहियं च भे, जण्णं तुम्मे एवमाइक्खह, एवं भासह, एवं परूवेह, एवं पण्णवेह-'सव्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता हतव्वा, अज्जावेयव्वा, परिघेतव्वा, परियावेयव्वा, उद्दवेयव्वा । एत्थ वि जाणह पत्थित्थ दोसो।' सं०-तत्र ये ते आर्याः ते एवमवादिषुः --तद् दुर्दष्टं च युष्माकं, दुःश्रुतं च युष्माकं, दुर्मतं च युष्माकं, दुर्विज्ञातं च युष्माकं, ऊर्ध्वमधः तिर्यग् दिक्षु सर्वतः दुष्प्रतिलिखितं च युष्माकं, यद् यूयं एवमाचक्षीध्वं, एवं भाषेध्वं, एवं प्ररूपयेत, एवं प्रज्ञापयेत, सर्वे प्राणाः सर्वे भूताः सर्वे जीवाः सर्वे सत्त्वाः हन्तव्याः आज्ञापयितव्याः परिगृहीतव्याः परितापयितव्याः उद्रोतव्याः । अत्रापि जानीथ नास्त्यत्र दोषः। जो वे आर्य हैं, उन्होंने ऐसा कहा है-'हिंसावादियो! आपने दोष-पूर्ण देखा है, दोष-पूर्ण सुना है, दोष-पूर्ण मनन किया है, दोष-पूर्ण समझा है, ऊंची-नीची और तिरछी सब दिशाओं में बोष-पूर्ण निरीक्षण किया है, जो आप ऐसा आख्यान करते हैं, भाषण करते हैं, प्ररूपण करते हैं एवं प्रज्ञापन करते हैं कि किसी भी प्राणी, भूत जीव और सत्त्व का हनन किया जा सकता है, उन पर शासन किया जा सकता है, उन्हें दास बनाया जा सकता है, उन्हें परिताप दिया जा सकता है, उनका प्राण-वियोजन किया जा सकता है। इसमें भी तुम जानो कि हिंसा में कोई दोष नहीं है।' भाष्यम् २२–अस्मिन् विषये आर्या एवं वदन्ति इस विषय में आर्य ऐसा कहते हैं जो आपने कहा वह दोषयदुक्तं भवद्भिः तद् दुर्दष्टमस्ति । पूर्ण देखा हुआ है। आर्यः अहिंसाधर्मवित्। आर्य वह होता है जो अहिंसा धर्म को जानता है। २३. वयं पुण एवमाइक्खामो, एवं भासामो, एवं परूवेमो, एवं पण्णवेमो—'सव्वे पाणा सवे भूया सव्वे जीवा सब्वे सत्ता ण हंतव्वा, ण अज्जावेयन्वा, ण परिघेतव्वा, ण परियावेयव्वा, ण उद्दवेयव्वा । एत्थ वि जाणह णत्थित्थ दोसो।' सं०-वयं पुनरेवं आचक्ष्महे, एवं भाषामहे, एवं प्ररूपयामः, एवं प्रज्ञापयामः-सर्वे प्राणाः, सर्वे भूताः, सर्वे जीवाः, सर्वे सत्त्वाः न हन्तव्याः, न आज्ञापयितव्याः, न परिगृहीतव्याः, न परितापयितव्याः, न उद्बोतव्याः । अत्रापि जानीथ नास्त्यत्र दोषः ।। 'हम इस प्रकार आख्यान करते हैं, भाषण करते हैं, प्ररूपणा करते हैं एवं प्रज्ञापन करते हैं कि किसी भी प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व का हनन नहीं करना चाहिए, उन पर शासन नहीं करना चाहिए, उन्हें दास नहीं बनाना चाहिए, उन्हें परिताप नहीं देना चाहिए, उनका प्राण-वियोजन नहीं करना चाहिए । इसमें भी तुम जानो कि अहिंसा (सर्वथा) निर्दोष है ।' Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०४. सम्यक्त्व, उ० २. सूत्र २१-२६ -२१६ हम इस प्रकार कहते हैं-किसी भी प्राणी का वध नहीं करना चाहिए। -भाष्यम् २३--वयमेवं वदामः-कस्यापि प्राणिनो प्राणना वधो न कार्यः । २४. आरियवयणमेयं । सं०-आर्यवचनमेतत् । यह आर्यवचन है। सूत्रकार कहते हैं—यह अहिंसा का प्रवर्तक आर्यवचन है। भाष्यम २४ --सूत्रकारो वक्ति-एतद् अहिंसायाः प्रवर्तक आर्यवचनमस्ति ।' २५. पुव्वं निकाय समयं पत्तेयं पुच्छिस्सामो-हंभो पावादुया! किं भे सायं दुक्खं उदाहु असायं ? सं0--पूर्व निकाच्य समयं प्रत्येक प्रक्ष्यामः हंहो प्रावादुकाः ! किं युष्माकं सातं दुःखं उताहो असातम् ? सर्वप्रथम दार्शनिकों को अपने-अपने सिद्धान्तों में स्थापित कर हम पूछेगे हे दार्शनिको ! क्या आपको दुःख प्रिय है या अप्रिय ? भाष्यम् २५--अहिंसायाः सिद्धान्ते प्रतिपादितेऽपि अहिंसा के सिद्धान्त का प्रतिपादन करने पर भी यदि अविद्वान् यदि अविद्वांसः पुरुषाः तं न सम्यक् प्रतिपद्येरन् तदा तत्र व्यक्ति उसको सम्यक् प्रकार से स्वीकार नहीं करते हैं तो वहां उपेक्षा उपेक्षा कर्तव्या। यदि विद्वत्परिषत् स्यात्तदा वाद: करनी चाहिए । यदि विद्वत् परिषद् हो तो वहां 'वाद' की स्थापना स्थापनीयः। तस्यायं क्रमः-पूर्व प्रतिवादिनः समयं करनी चाहिए। उसका क्रम यह है—पहले प्रतिवादी दार्शनिकों को निकाच्य–युष्माभिः सद्भाव: आख्यातव्यः, न तु यह शपथ दिला कर कि 'आप यथार्थ कहेंगे, अयथार्थ नहीं', अथवा असद्भावः इति शपथं कारयित्वा अथवा प्रतिवादिनः उनको अपने-अपने सिद्धान्तों में स्थापित कर प्रश्न उपस्थित करना स्वाभिमते सिद्धान्ते स्थापयित्वा प्रश्नः उपस्थापनीयः- चाहिए-हे दार्शनिको ! क्या आपको दुःख प्रिय है या अप्रिय ? ऐसा हंहो ! प्रावादुकाः ! किं युष्माकं दुःखं प्रियं अथवा पूछने पर यदि वे दार्शनिक कहें कि हमें दुःख प्रिय है तो उनके अप्रियम् ? एवं पृष्टाः प्रावादुकाः ब्रूयुः-अस्माकं दुःखं सिद्धान्त का निरसन यह कह कर कर दिया जाए कि आपकी बात प्रियं, ततः प्रत्यक्षागमलोकबाधाभिः सिद्धान्तोऽयं प्रत्यक्ष ही आगम-विरुद्ध है, लोक विरुद्ध है। यदि वे कहें-'हमें दुःख निरसनीयः । यदि ते वदेयु:-'अस्माकं दुःखमप्रियं' अप्रिय है' तबतदा२६. समिया पडिवन्ने यानि एवं व्या-ससि पाणाणं सवेसि भूयाणं सवसि जीवाणं सवसि सत्ताणं असावं अपरिणिव्वाणं महाभयं दुक्खं ।-त्ति बेमि । सं०-सम्यक् प्रतिपन्नांश्चापि एवं ब्रू यात्-सर्वेषां प्राणानां, सर्वेषां भूतानां, सर्वेषां जीवानां, सर्वेषां सत्त्वानां असातं अपरिनिर्वाणं महाभयं दुःखम् । इति ब्रवीमि । यदि आप कहें, हमे दुःख प्रिय नहीं है, तो आपका सिद्धान्त सम्यग् है। हम आपसे कहना चाहते हैं कि जैसे आपको दुःख प्रिय नहीं है, वैसे ही सब प्राणी, भूत, जीव और सत्वों के लिए दुःख अप्रिय, अशान्तिजनक और महाभयंकर है। -ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् २६-तान् सम्यक प्रतिपन्नांश्चापि अहिंसा- 'हमें दुःख अप्रिय है' इस सम्यक् सिद्धान्त को स्वीकार करने परायणः साधुरेवं यात्-न केवलं युष्माकं दुःखमप्रियं वाले प्रतिवादियों को अहिंसा-परायण साधु इस प्रकार कहे-आपको किन्तु सर्वेषां प्राणानां भूतानां जीवानां सत्त्वानां तद् ही दुःख अप्रिय नहीं है, किन्तु सभी प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों को अप्रियं अपरिनिर्वाणं महाभयं च वर्तते। दुःख अप्रिय, अशांतिजनक और महाभयंकर है। १. द्रष्टव्यम् - ४।२१ सूत्रस्य भाष्यम् । । २. अनयोर्मूलमस्ति सातमसातं च । तत्र सातं पियं अस्सातं अप्पियं इति (चणि, पृष्ठ १४३)। ३. सातं मनमालावकारि, असातं मनःप्रतिकूलम् इति (वृत्ति, पत्र १६९)। Jain Education international Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० अपरिनिर्वाणम् - अशान्तिः । फलति - 'सर्वे प्राणिनो न हंतब्बाः ।' ततः सिद्धान्तोऽयं तइओ उद्देसो तीसरा उद्देशक २७. उह एवं बहिया व लोघं से सव्वलोगंसि जे केद्र विष्णू अणुवीइ पास निश्चित्तदंडा, जे केइ सत्ता पलिय चर्यति । आचारांग भाव्यम् अपरिनिर्वाण का अर्थ है-अशांति। इसलिए यह सिद्धान्त फलित होता है - किसी भी प्राणी का हनन नहीं करना चाहिए। (सभी प्राणी अवध्य हैं) । [सं०] उपेक्षस्य एवं बहिश्च लोकं ते सर्वलोके ये केचित् विशा अनुवीचि पश्य निक्षिप्तदण्डाः ये केचित् सत्त्वाः पलितं त्यजन्ति । , अहिंसा से विमुख इस जगत् की तू उपेक्षा कर। जो ऐसा करता है, वह समूचे जगत् में विज्ञ होता है। तू अनुचिन्तन कर देख, हिंसा को छोड़ने वाले मनुष्य ही कर्म को क्षीण करते हैं। भाष्यम् २७ एवं बाह्य जीवलोकं उपेक्षस्व । उपेक्षा द्विविधा भवति । उप- सामीप्येन ईक्षणम् उपेक्षा', की उपेक्षा कर । उपेक्षा के दो प्रकार हैं १. समीप से देखना उपेक्षा । अथवा अव्यापाररूपा उपेक्षा अहिंसापराङ्मुखान् सिद्धान्तान् उपेक्षस्व यः कश्चित् सर्वजीवान् सामीप्येन ईक्षते स सर्वलोके विशो भवति । २. अप्रवृत्तिरूप उपेक्षा । तू इस बाह्य जीवलोक अहिंसा से विमुख दार्शनिक जगत् भाष्यम् २८ - अहिंसा धर्मं त एवं विदन्ति ये वृताच: "देहं प्रति अनासक्ताः भवन्ति त एव जवो भवन्ति । स्थानांगे परिग्रहस्व त्रैविध्यमुक्तम् । तत्र प्रथमः प्रकारः देहः । देहं प्रति आसक्ताः मनुष्याः नानाविधायां १. आचारांग चूर्णि पृष्ठ १४४ : जब सामिप्पे इक्ख वरिसणे । २. वही, पृष्ठ १४४ : अहवा उबेहा अव्वावारउबेहा । अनुवषि-अनुचिन्तनपूर्वकं पश्य ये केचित् सस्था निक्षिप्तदण्डाः भवन्ति ते पलितं त्यजन्ति । निक्षिप्तदण्ड:- दण्डो- घातः । तत्र द्रव्यदण्ड: निक्षिप्तदंड - दंड का अर्थ है घात । द्रव्य दंड है-- शस्त्र शस्त्रादिः, भावदण्ड: - दुष्प्रयुक्तं मनः । पलितम् कर्म आदि । भावदंड है- दुष्प्रयुक्त मन । 'पलित' शब्द कर्म के अर्थ में इत्यर्थे देयशब्दः । देश्य है। तू हिंसा से पनमुख सिद्धान्तों की उपेक्षा कर जो कोई व्यक्ति सभी जीवों को निकटता से देवता है, वह समूचे जगत् में विज्ञ होता है। २८. नरा मुयच्चा धम्मविदु त्ति अंजू । स० - - नराः मृताः धर्मविद इति ऋजवः । देह के प्रति अनासक्त मनुष्य ही धर्म को जान पाते हैं और धर्म को जानने वाले ही ऋ होते हैं। तू अनुचितन कर देख, जो प्राणी निक्षिप्तदण्ड - हिंसा को छोड़ने वाले होते हैं वे ही पलित-कर्म को क्षीण करते हैं । अहिंसा धर्म को वे ही जानते हैं जो मृताचं - देह के प्रति अनासक्त होते हैं। वे ही ऋणु होते हैं। स्थानांग सूत्र में परिग्रह के तीन प्रकार बतलाए हैं। उनमें पहला प्रकार है - शरीर । शरीर में आसक्त मनुष्य विविध प्रकार की ३. वही, पृष्ठ १४४ : अच्चीयते तमिति अच्चा तं च शरीरं, व्हायंति सक्कारं प्रति मुता इव जस्स अच्चा स भवति सुतच्चा, अहवा अच्ची लेस्सा सामता । Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२१ अ० ४. सम्यक्त्व, उ० ३. सूत्र २७-३२ हिंसायां प्रवर्तन्ते । अत एव भगवता महावीरेण एतत् हिंसा में प्रवृत्त होते हैं। इसीलिए भगवान् महावीर ने इस रहस्य का रहस्यमुद्घाटितं यावद् मनुष्यो मृतार्थो न भवति उद्घाटन किया कि जब तक मनुष्य मृतार्च नहीं होता, तब तक यथार्थ तावद् वस्तुतः धर्मविद् न भवति। धर्म शृण्वन् पठन्नपि में वह धर्म का ज्ञाता नहीं होता। इसका तात्पर्य यह है कि वह धर्म तं नाचरतीति तात्पर्यम् । को सुनता हुआ, पढता हुआ भी उसका आचरण नहीं करता। धर्मविद् ऋजूः भवति अथवा यः ऋजुः स धर्मविद् धर्मविद् ऋजु होता है अथवा जो ऋजु होता है वह धर्मविद् भवति इति उभयथापि वक्तुं शक्यम् । उक्तं च होता है-ऐसा दोनों प्रकार से कहा जा सकता है। उत्तराध्ययन सूत्र उत्तराध्ययने-'सोही उज्जुयभूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिट्ठइ।' में कहा है-'जो ऋजु होता है उसकी विशुद्धि होती है। धर्म शुद्ध व्यक्ति में ही अवस्थित होता है।' २६. आरंभजं दुक्खमिणति णच्चा, एवमाहु समत्तवंसियो। सं०-आरम्भज दुःखमिदं इति ज्ञात्वा एवमाहुः समत्वदर्शिनः । दुःख हिंसा से उत्पन्न है-यह जान कर मनुष्य हिंसा का परित्याग करे । समत्वदर्शी प्रवचनकारों ने ऐसा कहा है। भाष्यम् २९–आरम्भः--हिंसा। यदिदं दुःखमस्ति आरंम का अर्थ है हिंसा। जो यह दुःख है वह हिंसा से तद् आरम्भाज्जातमस्ति इति ज्ञात्वा पुरुष: हिंसातो प्रसूत है, ऐसा जानकर पुरुष हिंसा से निवर्तित हो जाए। समत्वदर्शी निवर्तेत । समत्वदर्शिन:' एवं उक्तवन्तः । प्रवचनकारों ने ऐसा कहा है । ३०. ते सव्वे पावाइया दुक्खस्स कुसला परिण्णमुदाहरति । सं० ते सर्वे प्रावादिकाः दुःखस्य कुशलाः परिज्ञामुदाहरन्ति । वे सब कुशल प्रवचनकार दुःख की परिक्षा का प्रतिपावन करते हैं। भाष्यम् ३० ते सर्वे कुशलाः प्रावादिकाः दुःखक्षयार्थ वे सभी कुशल प्रवचनकार दुःखमुक्ति के लिए परिज्ञा-विवेक परिज्ञाम्-विवेक उदाहरन्ति । हिंसायाः प्रत्याख्यानं का प्रतिपादन करते हैं। हिंसा का प्रत्याख्यान किए बिना कोई अकृत्वा न कश्चिद् दुःखक्षयं कर्तुं प्रत्यलो भवति इति भी पुरुष दुःख को नष्ट करने में समर्थ नहीं होता, यही इसका तात्पर्यम् । तात्पर्य है। ३१. इति कम्म परिण्णाय सव्वसो । सं०- इति कर्म परिज्ञाय सर्वशः । इसलिए मुमुक्ष पुरुष कर्म को सब प्रकार से जान कर उसका परित्याग करे। भाष्यम् ३१--सर्वकर्मक्षयो मोक्षः । बन्धे अपरिज्ञाते समस्त कर्मों का क्षय ही मोक्ष है। बन्ध को जाने बिना मोक्ष नहि मोक्षः परिज्ञातो भवति इति सर्वशः कर्म परिज्ञाय परिज्ञात नहीं होता, इसलिए कर्म को सब प्रकार से जान कर उसको तत्क्षयार्थं प्रयतनीयम् । दुःखस्य हेतुर्कर्म, तस्य क्षयाय क्षीण करने का प्रयत्न करना चाहिए । दुःख का हेतु है कर्म। दुःख कर्मविवेकः करणीयः इति हृदयम् । का क्षय करने के लिए कर्म-विवेक-यह दुःख किस कर्म का फलित है, ऐसा विवेक करना चाहिए, यही इसका हार्द है । ३२. इह आणाकंखी पंडिए अणिहे एगमप्पाणं संपेहाए धुणे सरीरं, कसेहि अप्पाणं, जरेहि अप्पाणं । सं०-इह आज्ञाकांक्षी पण्डित: अनिहतः एकमात्मानं संप्रेक्ष्य धुनीयाच्छरीरं, कर्शयेद् आत्मानं जरयेद् आत्मानम् । जिनशासन में आज्ञाप्रिय पण्डित एक आत्मा की संप्रेक्षा करता हुआ कषाय आदि से प्रताड़ित न हो। वह कर्म-शरीर को प्रकम्पित करे और कषाय-आत्मा को कृश करे, जीर्ण करे। १. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ १४५ : सम्मत्तं पस्सतीति दशिनः समस्तशिनो का। सम्मदंसी। २. कृशच तन करणे इति धातुः । अत्र स्वार्थिकनिन् । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १७१ : समत्वदर्शिनः सम्यक्त्व Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ आचारांगभाष्यम् भाष्यम् ३२–इदानीं कर्मविवेकस्य उपायः प्रस्तुत आलापक में कर्म-विवेक (कर्म-क्षय) का उपाय बताया प्रदर्श्यते । साधारणो जनः रागद्वेषैनिहतो भवति । यः गया है। सामान्य व्यक्ति राग-द्वेष से प्रताड़ित होता है। जो अतीन्द्रियदर्शिनां आज्ञाम्-निर्देश काङ क्षति स पण्डितः अतीन्द्रियदर्शी पुरुषों के निर्देश की आकांक्षा करता है बह पंडित पुरुष विरतिमान् भवति । तादृश एव पुरुष: रागद्वेषमोहै: विरतिमान् होता है। वैसा पुरुष ही राग-द्वेष, मोह, अथवा विषय, विषयकषायैर्वा अनिहतो' भवति । स आत्मानमेकं संप्रेक्ष्य कषाय आदि से प्रताड़ित नहीं होता। वह एक आत्मा की संप्रेक्षा कर शरीरं धुनीयात् । अयं आत्मा एक एव-शरीराद् अन्य कर्म-शरीर को प्रकंपित करे। यह आत्मा अकेला ही है (या एक ही एव वर्तते इति अन्यत्वानुप्रेक्षायाः प्रयोगः । है)----यह शरीर से भिन्न ही है, यह अन्यत्व अनुप्रेक्षा का प्रयोग है । अथवा अयं आत्मा एक:-असहायो वर्तते । अयं अथवा यह आत्मा अकेला है-असहाय है, यह एकत्व एकत्वानुप्रेक्षायाः प्रयोगः। आभ्यां प्रयोगाभ्यां कर्म- अनुप्रेक्षा का प्रयोग है। अनुप्रेक्षा के इन दोनों प्रयोगों से कर्म-शरीर शरीरस्य धुनन-कर्मापकर्षणं जायते इति तात्पर्यम् । का धुनन अर्थात् कर्मों का अपकर्षण होता है, यह इसका तात्पर्य है । कषायात्मानं कृशं कुर्यात् जीर्णञ्च कुर्यात् । धुननं पुरुष कषाय-आत्मा को कृश करे, जीर्ण करे। कर्मों के अपकृशीकरणं निर्जरणञ्च कर्मापकर्षणस्य क्रमः । कर्षण का क्रम यह है-धुनन, कृशीकरण और निर्जरण । ३३. जहा जुण्णाई कटाई, हव्ववाहो पमत्थति, एवं अत्तसमाहिए अणिहे। सं०-यथा जीर्णानि काष्ठानि हव्यवाहः प्रमथ्नाति, एवं समाहितात्मा अनिहतः । जैसे अग्नि जीर्ण-काष्ठ को शीघ्र जला देती है, वैसे ही समाहित आत्मावाला तथा कषायों से अप्रताड़ित पुरुष कर्म-शरीर को प्रकम्पित, कृश और जीर्ण कर देता है । आत्मा अकेला कर्म करता है, अकेला ही उसका फल भोगता है, अकेला उत्पन्न होता है, अकेला ही मरता है और अकेला ही जन्मान्तर में जाता है । यह एकत्व भावना १. प्रस्तुतागमे 'णिह' पदस्य प्रयोगः द्विविद्यते-(२।७४,१८६), द्विश्च (२।११६४१५) धातुपदप्रयोगः। 'अणिह' पवस्य प्रयोगः चतुरिं (४।३२,३३, १४४६१०६) विद्यते । अस्य संस्कृतरूपाणि एतानि संभवन्ति-१. स्निहः, २. निहत, ३. णि+धा, ४ अस्निहः, ५. अनिमः, ६. अनहितः। अत्र चूणो अणिहपवस्य व्याख्या एवं विद्यते--अणिहो रागदोसमोहे, अणिहेता विसयकसायमल्लेहिं वा, अहवा पडिलोमअणुलोमेहि परीसह उवसग्गेहि रंगमल्लच्छसंगासा (आ० चू० पृष्ठ १४५)। वृत्तौ च --स्निह्यते-श्लिष्यतेऽष्टप्रकारेण कर्मणेति स्निहो, न स्निहोऽस्निहः, यदि वा स्निह्यतीति स्निहोरागवान्, यो न तथा सोऽस्निहः, उपलक्षणार्थत्वाच्चास्य रागद्वेषरहित इत्यर्थः, अथवा निश्चयेन हन्यत इति निहतः भावरिपुभिरिन्द्रियकषायकर्मभिः यो न तथा सोऽनिहतः । (आ० वृ० पत्र १७३)। २. अत्र कर्मशरीरं विवक्षितमस्ति । 'धुणे कम्मसरीरगं' (५।५९) अनेन अस्य पुष्टिर्जायते । तथा आत्मनः संप्रेक्षा औदारिकशरीरधुननस्य उपायो नास्ति, स उपायोऽस्ति कर्मशरीर धुननस्य। ३. चूणिकार ने 'एगमप्पाणं संपेहाए' इस पद की एकत्व और अन्यत्व भावनापरक व्याख्या की है। उनके अनुसार 'एकः प्रकुरुते कर्म, भुङ्क्ते एकश्च तत्फलम् । जायत्येको म्रियत्येको, एको याति भवान्तरम् ॥' शरीर भिन्न है और आत्मा भिन्न है-यह अन्यत्व भावना है—अहवा सरीरातोऽबि अण्णो अहं (चूणि, पृष्ठ १४६)। वृत्तिकार ने केवल एकत्व भावनापरक कुछ श्लोक उद्धृत किए हैं १. 'सदकोऽहं न मे कश्चित्, नाहमन्यस्य कस्यचित् । न तं पश्यामि यस्याहं, नासौ भावीति यो मम ॥' २. 'संसार एवायमनर्थसारः, कः कस्य कोऽत्र स्वजनः परो वा । सर्वे भ्रमन्तः स्वजनाः परे च, भवन्ति भूत्वा न भवन्ति भूयः ।।' ३. 'विचिन्त्यमेतद् भवताऽहमेको, न मेऽस्ति कश्चित् पुरतो न पश्चात् । स्वकर्ममिर्धान्तिरियं ममैव, अहं पुरस्तावहमेव पश्चात् ॥' (आ० वृ० पत्र १७३) ४. आचारांग चूणि पृष्ठ १४६ : 'धुणणंति वा करीसणंति वा एगट्ठा। Jain Education international Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०४. सम्यक्त्व, उ० ३. सूत्र ३३-३४ २२३ भाष्यम् ३३-अत्र धुननकृशीकरणजरणविषये असौ धुनन, कृशीकरण और जीर्ण करने के विषय में यह दृष्टांत दृष्टांतः, यथा-अग्निः जीर्णानि काष्ठानि प्रमथ्नाति है, जैसे--अग्नि जीर्ण काष्ठ को शीघ्र जला डालती है, वैसे ही एवं समाहितात्मा' अनिहतः पुरुषः कर्माणि समाहित आत्मा वाला तथा कषायों से अप्रताडित पुरुष कर्मों को नष्ट प्रमथ्नाति ।। कर देता है। ३४. विगिच कोहं अविकंपमाणे, इमणिरुद्धाउयं संपेहाए । सं०-विविङ क्ष्व क्रोधं अविकम्पमानः इमं निरुद्धायुष्कं सम्प्रेक्ष्य । क्रोध की कालावधि सीमित है-यह संप्रेक्षा करता हुआ अकम्पित रह कर क्रोध का विवेक कर। भाष्यम् ३४-क्रोधस्य विवेक कुरु। आत्मप्रदेशानां क्रोध का विवेक कर। जब आत्म-प्रदेश प्रकंपित होते हैं तब प्रकम्पनावस्थायां क्रोधः समुत्पद्यते । अतो निर्दिष्टम्- क्रोध उत्पन्न होता है, इसलिए कहा है-अकंपित रह कर क्रोध का अविकम्पमानः क्रोधस्य विवेक कुरु। अप्रकम्पावस्थायां विवेक कर। अप्रकंप अवस्था में क्रोध स्वयं उपशांत हो जाता है। क्रोधः स्वयं प्रशाम्यति । इदं आयुष्कं निरुद्ध सम्प्रेक्ष्य 'यह आयु सीमित है' यह संप्रेक्षा कर क्रोध को दूर कर, यह क्रोधं व्यपनय इति आलम्बनसूत्रम् । एषा चूणिवृत्ति- आलम्बन सूत्र है । यह व्याख्या चूणि और वृत्ति द्वारा सम्मत है । इस सम्मता व्याख्या । इमं क्रोधं निरुद्धायुष्कं सम्प्रेक्ष्य इति क्रोध की कालावधि सीमित है यह संप्रेक्षा कर'- यह व्याख्या व्याख्या अधिकं संगच्छते । अत्र मनुष्यस्य आयुषः प्रसङ्गः अधिक संगत लगती है। यहां मनुष्य के आयुष्य का प्रसंग प्रकरणगत अध्याहृतो भवति, न तु प्रकरणगतः। क्रोधस्य प्रसङ्गः नहीं है, वह अध्याहृत है। क्रोध का प्रसंग चल रहा है। क्रोध शाश्वत प्रकृतोस्ति । क्रोधः न शाश्वतोऽस्ति, सोऽस्ति क्षणिकः, नहीं है, वह क्षणिक है। इसलिए उसका अपनयन किया जा तेन तस्य विवेकः कर्तुं शक्यः । सकता है। निरुखम् -परिमितं अल्पकालिक वा। .. निरुद्ध का अर्थ है-परिमित अथवा अल्पकालिक । १. आचारांग चूणि, पृष्ठ १४६, १४७ : अप्पा समाहितो जस्स नाणादिसु अप्पए वा जस्स समाहिताणि णाणातीणि सो भवति, सुविसुद्धासु वा लिस्सासु आता जस्स आहितो, जं मणितं आरोवितो, एवं वा अत्तसमाहितो। २. इस उपमा-पद में कर्म-शरीर को प्रकम्पित करने के दो साधन निर्दिष्ट हैंसमाधि (शुद्ध चैतन्य में एकाग्रता) और अनासक्ति। इन साधनों के निर्देश से भी यह स्पष्ट है कि इस प्रकरण में शरीर से तात्पर्य 'कर्म-शरीर' है। इस औदारिक (स्थूल) शरीर को कृशता यहां विवक्षित नहीं है । एक साधु ने उपवास के द्वारा शरीर को कृश कर लिया। उसका अहं कृश नहीं हुआ था। वह स्थानस्थान पर अपनी तपस्या का प्रदर्शन करता और प्रशंसा चाहता था। एक अनुभवी साधु ने उसकी भावना को समझते हुए कहा-'हे साधो ! तुम इंद्रियों, कषायों और गौरव (अहंभाव) को कृश करो। इस शरीर को कृश कर लिया, तो क्या हुआ? हम तुम्हारे इस कृश शरीर को प्रशंसा नहीं करेंगे'-- इंदियाणि कसाए य, गारवे य किसे कुरु । णो वयं ते पसंसामो, किसं साहुसरोरगं ॥ (निशीय भाष्य, गा० ३८५८) भगवान् महावीर ने कर्म-शरीर को कृश करने की बात कही है। स्थूल शरीर कृश हो या न हो, यह गौण बात है। ३. चूर्णिकारेण अस्य व्याख्या एवं कृतास्ति-'इयं' ति माणुस्सगं, णिरुद्धं णाम वरिससयाओ उद्धं न जीविज्जति, 'सम्म पेहाए' सपेहाए, कि सम्म पेक्खति ? जइ ताव नेरइयस्स जंतुणो, अहवा चरिमसरीरस्स ण पुणो आउगं भवतीति, तंपि समए समए णिज्जरमाणेहिं निरुद्धमितिकाउं केचिरं एतं तवचरणदुक्खं भविस्सति ? अहवा सम्वआसवनिरोहो निरुद्धं काउं, अहवा संजयाणं इमेण निरुद्धण आउएण, जं भणियं परिमितेण । (आचारांग चूणि, पृष्ठ १४७) वृत्तिकारेण एवं व्याख्यातम्-'इदं' मनुष्यत्वं निबद्धायुष्क' निरुद्धम्-परिगलितमायुष्कं (यत्र तत्) 'सम्प्रेक्ष्य' पर्यालोच्य क्रोधादिपरित्यागं विदध्यात् । (आचारांग वृत्ति, पत्र १७३) ४. स्थानाङ्ग (४।१,२) दीर्घस्य प्रतिपक्षे निरुद्धपदस्य प्रयोगो दृश्यते-'दोहेणं परियाएणं.."णिरुद्धणं परियाएणं ।' Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ आचारांगभाष्यम् ३५. दुक्खं च जाण अदुवागमेस्सं । सं०-दुःखं च जानीहि अथवा आगमिष्यत् । कोध के द्वारा वर्तमान अथवा भविष्य में होने वाले दुःखों को जान । भाष्यम् ३५– क्रोधेन संज्वलतः मानसं दुःखमुत्पद्यते, क्रोध से जलते हुए व्यक्ति के मानसिक दुःख उत्पन्न होता है, तद् दुःखं जानीहि । अथवा क्रोधेन क्रोधस्य संस्कारो उस दुःख को तू जान । अथवा क्रोध से क्रोध का संस्कार निर्मित होता निर्मितः पूष्टश्च भवति । स च भविष्यति दुःखसृष्टि है, पुष्ट होता है। वह भविष्य में दुःख की सृष्टि करता है तथा क्रोध करोति तथा क्रोधजनितं कर्म विपाकापादितं चागामि- से अजित कर्म विपाक अवस्था में आकर भविष्य का दुःख बन जाता दुःखं जानीहि, एतद् ज्ञानमपि क्रोधविवेकस्य आलम्बनं है, यह जान । यह अवबोध भी क्रोध-विवेक का आलम्बन-सूत्र बनता भवति । ३६. पुढो फासाइं च फासे । सं०-पृथक् स्पर्शान् च स्पृशति । क्रोधी मनुष्य नाना प्रकार के दुःखों और रोगों को भोगता है। भाष्यम् ३६-क्रोधी मनुष्यः नानाप्रकारान् स्पर्शान् क्रोधी मनुष्य नाना प्रकार के शीत-उष्ण आदि स्पर्शो-कष्टों शीतोष्णादिस्पर्शान् रोगस्पर्शान् वा स्पृशति-वेदय- तथा रोगों के कष्टों को भोगता है। तीत्यर्थः। शीतोष्णस्पर्शा:-क्रोधाविष्टः मनुष्यः शीतविपि शीतोष्णस्पर्श-जब मनुष्य क्रोध के गहरे आवेश से ग्रस्त वासांसि परित्यज्य प्रायो निर्वसनशरीरः तिष्ठति । होता है तब वह शीत ऋतु में भी सारे वस्त्र छोड़कर प्रायः निर्वस्त्र हिमकणान् आश्लिष्यति तुषिरवाते वाति अर्धरजन्यां होकर बैठ जाता है । जब ठिठुराने वाली बर्फीली हवाएं चलती हैं तब मुक्ताकाशेऽपि तिष्ठति । भी वह आधी रात में खुले आकाश में आकर बैठ जाता है। सति क्रोधावेशे मनुष्यः तपति मध्याह्नवर्तिनि जब क्रोध का आवेश तीव्र होता है तब मनुष्य मध्याह्न की दिनमणी, प्रतपति शिलापट्टेष्वपि प्रज्वलिते अग्नावपि चिलचिलाती धूप में, अत्यन्त गर्म शिलापट्ट पर तथा प्रज्वलित अग्नि स्वं निपातयति। में स्वयं को जला डालता है । रोगस्पर्शाः-क्रोधावेशावस्थायां हृद्दौर्बल्यं पित्त- रोगस्पर्श-क्रोध के आवेश में हृदय की दुर्बलता, पित्त का प्रकोपादयः रोगाः प्रादुर्भवन्ति । वृत्तिकृता पारलौकिका- प्रकोप आदि रोग उत्पन्न होते हैं। वृत्तिकार ने इस प्रसंग में पारनामपि दुःखानां उल्लेखः कृतोऽस्ति ।' लौकिक दुःखों का भी उल्लेख किया है। ३७. लोयं च पास विष्फंदमाणं । सं०-लोकं च पश्य विस्पन्दमानम् । तू देख ! यह लोक क्रोध से चारों ओर प्रकम्पित हो रहा है। भाष्यम् ३७-अयं मनुष्यलोकः क्रोधेन विस्पन्द- यह मनुष्य-लोक क्रोध से प्रकंपित हो रहा है । क्रोध द्वारा मानोस्ति । यत् क्रोधजनितं शारीरं मानसं वा दुःखमस्ति उत्पन्न जो शारीरिक और मानसिक दुःख है, उसके प्रतिकार के लिए तस्य प्रतिकाराय इतस्तत: परिभ्रमन्नस्ति । एतत् त्वं मनुष्य इधर-उधर चक्कर लगा रहा है । इसे तू विवेव-चक्ष से देख । विवेकचक्षुषा पश्य । ३८. जे णिचुडा पाहि कम्मेहिं, अणिदाणा ते वियाहिया। सं०-ये निर्वृताः पापेषु कर्मसु, अनिदानाः ते व्याहृताः । जो पुरुष क्रोधात्मक पाप-कर्मों को शांत कर देते हैं, वे अनिदान कहलाते हैं। १ आचारांग वृत्ति, पत्र १७४ : पृथक् सप्तनरकपृथिवीसम्भवशीतोष्णवेदनाकुम्भीपाकाबियातनास्थानेषु 'स्पर्शान्' दुःखानि । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ४. सम्यक्त्व, उ० ३-४. सूत्र ३५-४० भाष्यम् ३८ ये क्रोधात्मकेषु पापेषु कर्मसु निर्वृताः - शीतीभूताः वर्तन्ते ते अनिदानाः भवन्ति इति भगवता व्याहृतम् । निदानम् — बन्धनम् । ये उपशान्तक्रोधाः वर्तन्ते तेषां क्रोधात्मकं अथवा क्रोधपरिणामोत्पन्नं बन्धनं नास्ति । अत एव ते अनिदानाः भवन्ति । ३९ धा नानाविधानां कष्टानां सम्प्राप्तिर्भवति तस्मात् त्रिविद्यः पुरुषः न प्रति संज्वलेतुन रुष्येत् न च क्रोधं प्रति क्रोधं कुर्यात् । ३६. तम्हा तिविज्जो जो पडिसंजलिस। ति बेमि विविद्य तो प्रतिसंयसेत् इति ब्रवीमि । सं०---तस्मात् इसलिए त्रिवि पुरुष प्रतिसंज्वलन न करे— क्रोध का निमित्त मिलने पर भी क्रोध न करे । ऐसा मैं कहता हूं । भाग्यम् ४० कश्चिद् भव्यो मनुष्यः धर्मचवणपूर्वकं पूर्वसंयोगं हित्वा इन्द्रियमनसोरुपशमं प्राप्य प्रव्रजितो भवति । प्रब्रज्यानन्तरं स कि कुर्यादिति जिज्ञासायां सन्ति तिम्रो भूमिकाः प्रतिपादिता: प्रथमा आपीडन भूमिका, द्वितीया प्रपीडनभूमिका, तृतीया निष्पीडन भूमिका । । पीडनं शरीरस्य कर्मणश्च । तस्य द्वावुपायौ - श्रुतं तपश्च । ४०. आवीलए पवीलए निप्पीलए जहित्ता पुव्वसंजोगं, हिच्चा उवसमं । सं० - आपीडयेत् प्रपीडयेत् निष्पीडयेत् हित्वा पूर्वसंयोगं हित्वा उपशमं । मुनि पहले पूर्व सम्बन्धों को त्याग कर, इन्द्रिय और मन को शांत कर आपीडन, फिर प्रपीडन और फिर निष्पीडन करे । प्रथमभूमिकायां श्रुताध्ययनश्रमेण तोपयोगितयः समाचरणेन च आपीडनं भवति ।" द्वितीयभूमिकायां अनियतवासकाले, चउत्थो उद्देसो चौथा उद्देशक १. द्रष्टव्यम् ३।२८ सूत्रस्य पादटिप्पणम् । चूणिव्याख्या - इति कारणा इति आमंतण एवं जाणंतो सद्दहंतो य विज्जं भवति हे विद्वन् ! | तस्मादतिविद्वान् विदितागमसद्भावः । यात्रायां, २२५ भगवान् ने कहा है जो पुरुष क्रोधात्मक पापकर्मों से नितांत हो गए हैं, वे अनिदान बन्धन मुक्त होते हैं। निदान का अर्थ है - बन्धन । (प्रा० चू० पृष्ठ १४८ ) जिनका क्रोध उपशांत होता है उनके क्रोधात्मक अथवा क्रोध के परिणाम से उत्पन्न बंधन नहीं होता। इसीलिए वे अनिदान होते हैं । (आ० ० पत्र १७४) क्रोध से नाना प्रकार के कष्टों की संप्राप्ति होती है, इसलिए त्रिविध] पुरुष स्वयं को कांध से प्रभ्वलित न करे तथा क्रोध करने वाले के प्रति भी क्रोध न करे । कोई भव्य पुरुष धर्म को सुनकर, पूर्व संयोगों का परिहार कर इन्द्रिय और मन का उपशमन कर प्रब्रजित होता है। प्रया ग्रहण करने के पश्चात् वह क्या करे इस जिज्ञासा के समाधान में तीन भूमिकाओं का प्रतिपादन किया गया है पहली है-आपीडन भूमिका, दूसरी है-प्रपीडन भूमिका तथा तीसरी हैप्पी भूमिका शरीर और कर्म का पीडन किया जाता है। उसके दो उपाय हैं-श्रुत और तप । प्रथम भूमिका में श्रुत के अध्ययन के श्रम से तथा श्रुतोपयोगी तप के आचरण से आपीडन होता है । दूसरी भूमिका में अनियत निवास काल के कारण तथा यात्रा गीतायामपि (९.२० ) त्रैविद्यपदस्य प्रयोगो दृश्यते । गतिवृद्धः । २. ३. आधारंग भूमि, पृष्ठ १४८, १४९ आचारांग नियुक्ति गाथा २६७ । बृहत्कल्पभाष्य गाथा १४४६, ११३२१२५३ । निशीथ भाष्य गाथा ३८१३ चूणि । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ आचारांगभाष्यम् धर्मोपदेशकरणे, शिष्यसंवर्धने, अध्यापने, तपःसमाचरणे धर्म का उपदेश देने में, शिष्यों के संवर्धन में, अध्यापन में तथा तप च प्रकृष्टं पीडनं भवति । __ के आचरण में प्रकृष्ट पीडन होता है। तृतीयभूमिकायां संलेखनाकरणे ततोऽप्यधिक पीडनं तीसरी भूमिका में संलेखना करने की अवस्था में उससे भी भवति । अधिक पीडन होता है। प्रथमभूमिकायाः काल: चतुविशतिवर्षीयः द्वादश- पहली भूमिका का कालमान है-चौबीस वर्षों का-बारह वर्षाणि सूत्रग्रहणस्य, तावन्ति एव अर्थग्रहणस्य। वर्ष तक सूत्र का ग्रहण और बारह वर्ष तक अर्थ का ग्रहण । दूसरी द्वितीयतृतीयभूमिकयोः कालः प्रत्येक द्वादशवर्षाणि। और तीसरी भूमिका में प्रत्येक का कालमान है- बारह-बारह वर्ष । ४१. तम्हा अविमणे वीरे सारए समिए सहिते सया जए। सं० -- तस्माद् अविमनाः वीरः शारदः समितः सहितः सदा यतेत । इसलिए प्रसन्नमना, वीर, विशारद, सम्यक् प्रवृत्त और सहिष्णु मुनि सदा संयम करे। भाष्यम् ४१-उपशान्तस्य अचिरात् कर्मक्षयो जिसके इन्द्रिय और मन शांत होते हैं, उस उपशांत पुरुष भवति । तस्माद उपशांतः पुरुषः सदा इति यावज्जीवं के कर्मक्षय शीघ्र हो जाता है, इसलिए उपशांत पुरुष सदाआत्मार्थं यतेत । अविमनाः-प्रसन्नमनाः। वीरः- यावज्जीवन आत्मा के लिए प्रयत्नशील रहे । प्रस्तुत आलापक में प्रयुक्त पराक्रमी। शारदः'-अर्थग्रहणपटुः । समितः--सम्यक् शब्दों के अर्थ ---- प्रवृत्तः। अविमना प्रसन्न मन वाला। वीर-पराक्रमी। शारद अर्थ-ग्रहण करने में निपुण । समित–सम्यक् प्रवृत्ति करने वाला। तथा चोक्तमुत्तराध्ययने–'पाणे य नाइवाएज्जा, से उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है-'जो प्राणों का अतिपात (जीवसमिए ति बुच्चई ताई। सहितः-सहिष्णुः । हिंसा) नहीं करता उसे समित (सम्यक् प्रवृत्त) कहा जाता है।' सहित का अर्थ है–सहिष्णु । ४२. दुरणुचरो मग्गो वीराणं अणियट्रगामीणं । सं०-दुरनुचरः मार्गः वीराणां अनिवर्तगामिनाम् । जीवन-पर्यन्त संयम-यात्रा में चलने वाले वीर मुनियों का मार्ग दुरनुचर होता है-उस पर चलना कठिन होता है । भाष्यम ४२-भगवता महावीरेण आजीवनसंयमस्य भगवान् महावीर ने आजीवन-संयम (दीक्षा) ग्रहण करने का विधानं कतम । विषयान विहाय जीवनपर्यन्तं तेषामा- विधान किया। जो विषयों का परित्याग कर जीवन-पर्यन्त उनकी - १. तीसरी भूमिका शरीर-त्याग की है। जब मुनि आत्म-हित के साथ-साथ संघहित कर चुकता है, तब वह समाधि-मरण के लिए शरीर-त्याग की तैयारी में लग जाता है । उस समय वह दीर्घकालीन ध्यान और दीर्घकालीन तप (पाक्षिक, मासिक आदि) की साधना करता है। ध्यान और तप की साधना के औचित्य और क्षमता के अनुपात में ही स्थूल शरीर के आपीडन, प्रपीडन और निष्पीडन का निर्देश दिया गया है। कर्म-शरीर का प्रपीडन और निष्पीडन इसी के अनुरूप होगा। शरीर से चेतना के भेदकरण की भी ये तीन भूमिकाएं हैं। २. आचारांग चूणि, पृष्ठ १४९ : विगतो मणो जस्स स भवति विगतमणो, जं भणितं -अरतिसोगभयं समावण्णो, ण विमणो अविमणो। ३. शारदशब्दस्य चत्वारि संस्कृतरूपाणि संभवन्ति १. स्वारतः, २. सारकः, ३. स्मारकः, ४. शारदः। चूर्णी वत्तौ च स्वारतः इति लभ्यते--अच्चत्य रतो सुआरतो, सारतो (आचारांग चूणि, पृष्ठ १४९)। 'सारए' इत्यादि मुष्ठ आ-जीवनमर्यादया संयमानुष्ठाने रतः स्वारतः । (आचारांग वृत्ति, पत्र १७५) डाक्टरहर्मनजेकोबीमहोदयेन अस्य अनुवादः सारकः-- (A person of pith) सारवान् इति कृतोऽस्ति । सूत्रकृतांगे त्रिषु स्थलेषु (१।३।५०; १।१३।१३, १।१४।१७) विशारदपदस्य प्रयोगो दृश्यते। तवाधारेणात्र सारयपदस्य शारदः इति संस्कृतरूपं संगतं प्रतीयते। योऽर्थग्रहणे पटुर्भवति स शारदः विशारदो वा कथ्यते । ४. उत्तरज्झयणाणि, ८९ । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ४. सम्यक्त्व, उ०४, सूत्र ४१-४४ २२७ काङक्षां न कुर्वन्ति ते वस्तुतो वोरा एव । तेषां मार्गो आकांक्षा नहीं करते वे वस्तुतः वीर ही होते हैं। उनका मार्ग दुरनुचर दुरनुचरो वर्तते । अस्मिन् मार्गे वीरा एव गन्तं प्रभवन्ति, होता है उस पर चलना कठिन होता है। इस मार्ग पर वीर पुरुष न च पराक्रमशून्याः मनुष्याः । ही चलने में समर्थ होते हैं। पराक्रमशून्य व्यक्ति इस पर चल नहीं सकते। ४३. विगिच मंस-सोणियं । सं०-विविङ क्ष्व मांसशोणितम् । मांस और रक्त का विवेक कर, अपचय कर। भाष्यम् ४३ -संयमानुपालनस्य मुख्या बाधास्ति संयम के पालन में मुख्य बाधा है-कामासक्ति । इसलिए कामासक्तिः । तेन तस्याः प्रतिकारः निर्दिश्यते। कामासक्ति के प्रतिकार की बात बताई जा रही है। कामसंज्ञा की मांसशोणितोपचयः कामसंज्ञायाः उत्पत्तरेक उत्पत्ति का एक कारण है मांस और रक्त का उपचय । इसलिए मांस कारणमस्ति । तेन मांसशोणितयोरपचयं कुरु इति और रक्त का अपचय करो-ऐसा निर्देश है। निर्दिष्टम् । शरीरं धर्मस्य आधारभूतम् । तदाधारभूतश्च धर्म के आचरण का आधार है-शरीर । उस शरीर का मांसशोणितयोरुपचयः, तदा तयोरपचयः किमर्थं आधारभूत तत्त्व है-मांस और रक्त का उपचय । तब प्रश्न होता कार्यः ? अस्य तात्पर्यमिदम् तावानपचयः कार्यः येन है कि उनका अपचय क्यों करना चाहिए ? इसका तात्पर्य यह है कि मांसशोणिते कामसंज्ञायाः उत्पत्तेर्हेतुतां न प्रपद्येताम् । उतना ही अपचय करना चाहिए जिससे कि मांस और रक्त कामसंज्ञा की उत्पत्ति के हेतु न बने । निर्बलाहारेण रक्तस्योपचयो न जायते, तेन विना अपौष्टिक आहार करने से रक्त का उपचय नहीं होता। रक्त मांसमेदोऽस्थिमज्जावीर्यादिधातूनामुपचयो न भवति, के बिना मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, वीर्य आदि धातुओं का उपचय एवमनायासं आपीडनं साधितं भवति । नहीं होता। इससे अनायास ही आपीडन सध जाता है । ४४. एस पुरिसे दविए वीरे, आयाणिज्जे वियाहिए। जे धुणाइ समुस्सयं, वसित्ता बंभचेरंसि । सं०--एष पुरुषः द्रव्यः वीरः आदानीयो व्याहृतः । यः धुनाति समुच्छ्रयं उषित्वा ब्रह्मचर्य । वह पुरुष राग-द्वेष मुक्त, पराक्रमी और अनुकरणीय होता है। वह ब्रह्मचर्य में रहकर शरीर और कर्म-शरीर को कृश कर देता है। भाष्यम् ४४-एष मांसशोणितयोरपचयकारक: पुरुष: जो मांस और रक्त का अपचय करता है वह पुरुष द्रव्य अर्थात् द्रव्यः-रागद्वेषमुक्तो भवति । स पराक्रमं प्रयुञ्जानः राग-द्वेष से मुक्त होता है। वह अपनी शक्ति का प्रयोग कर दूसरों अन्येषां आदानीयः-अनुकरणीयो वा व्याहृतः । के लिए आदानीय–अनुकरणीय होता है। समुच्छ्यः द्विविधः-द्रव्यसमुच्छ्यः -शरीरम्, भाव- समुच्छ्य दो प्रकार का है द्रव्य समुच्छ्रय -शरीर और समुच्छ्य:-क्रोधमानमायालोभा: सर्वो वा मोहः। भाव समुच्छ्रय -क्रोध, मान, माया और लोभ अथवा सम्पूर्ण मोहनीय तं धुनाति ब्रह्मचर्ये वासं कृत्वा । कर्म (मोहनीय कर्म की सारी प्रकृतियां)। वह ब्रह्मचर्य में रहकर शरीर और कर्म-शरीर को कृश कर देता है। ब्रह्मचर्यस्य त्रयोऽर्थाः भवन्ति'-आचारः मैथुनविरतिः ब्रह्मचर्य के तीन अर्थ होते हैं -आचार, मैथुन-विरति और गुरुकुलवासश्च । अत्र मैथुनविरमणं प्रासङ्गिकम् । गुरुकुलवास । प्रस्तुत प्रकरण में ब्रह्मचर्य का अर्थ मैथन-विरमण प्रासंगिक है। १. द्रष्टव्यम-आयारो. ५३५ पावटिप्पणम । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ आचारांगभाष्यम् ४५. णेत्तेहि पलिछिन्नेहि, आयाणसोय-गढिए बाले। अव्वोच्छिन्नबंधणे, अणभिक्कंतसंजोए । तमंसि अविजाणओ आणाए लंभो णस्थि त्ति बेमि । सं० नेत्रेषु परिच्छिन्नेषु आदानस्रोतोग्रथित: बाल: अव्यवच्छिन्नबन्धनः अनभिक्रांतसंयोगः तमसि अविजानत आज्ञाया: लम्भो नास्ति इति ब्रवीमि । इन्द्रिय-जय की साधना करते हुए भी जो अज्ञानी इन्द्रिय-विषयों में आसक्त हो जाता है और जो पारिवारिक बन्धन एवं आर्थिक अनुबंध को तोड़ नहीं पाता, वह आसक्ति के अंधकार में प्रविष्ट होकर विषय-लोलुपता के दोषों से अनभिज्ञ हो जाता है । ऐसा साधक आज्ञा का लाभ नहीं उठा पाता, ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम ४५-नयन्तीति नेत्राणि-इन्द्रियाणि । जो विषयों को प्राप्त कराती हैं वे नेत्र हैं अर्थात इन्द्रियां हैं। चक्षर्वर्जानि इन्द्रियाणि कथं नेत्राणि ? श्रोत्रादीन्यपि प्रश्न होता है कि चक्षु को छोड़कर शेष इन्द्रियां प्राप्त कराने वाली इन्द्रियाणि स्वं स्वं विषयं नयन्ति तेन नेत्राणि भवन्त्येव। कैसे हैं ? श्रोत्र आदि इन्द्रियां भी अपने-अपने विषय को प्राप्त कराती परिच्छिन्नम्-जितम् । इन्द्रियेषु जितेषु कश्चिद् बालः हैं इसलिए वे भी नेत्र हैं। परिच्छिन्न का अर्थ है विजित । इन्द्रियआदानस्रोत सि ग्रथितो भवति । स अव्यवच्छिन्नबन्धनः जय की साधना करते हुए भी कोई अज्ञानी पुरुष इन्द्रिय-विषयों में अनभिक्रान्तसंयोगो भवति, पुनरपि गृहे आवसति । आसक्त हो जाता है और वह पारिवारिक बन्धन एवं आर्थिक अनुबंध तादशस्य तमसि गतस्य कामासक्तेरपायान् अविजानतः को तोड़ नहीं पाता, तब वह पुनः गृहवासी बन जाता है । आसक्ति के आज्ञायाः लम्भो नास्ति । अंधकार में प्रविष्ट तथा कामासक्ति (विषय-लोलुपता) के दोषों से अनभिज्ञ वैसे व्यक्ति के आज्ञा का लाभ नहीं होता। आज्ञा-श्रुतम् । तस्य सारमस्ति आचारः। तस्य आज्ञा का अर्थ है-श्रुत । उसका सार है-आचार । आचार सारमस्ति कर्म निर्जरा। विषयलोलुपः पुरुषः सम्यगा- का सार है-कर्म-निर्जरा । विषय-लोलुप व्यक्ति सम्यग् आचरण और चरणं कर्मनिर्जरां प्रति च न गतिमान् भवति । कर्म-निर्जरा के प्रति गतिशील नहीं होता। ४६. जस्स नत्थि पुरा पच्छा, मज्झे तस्स को सिया ? सं०-यस्य नास्ति पुरा पश्चात् मध्ये तस्य कुत: स्यात् ? जिसका आदि-अंत नहीं है, उसका मध्य कहां से होगा ? भाष्यम् ४६-पुरा--अतीतकालः । पश्चात्- पुरा का अर्थ है-अतीतकाल और पश्चाद् का अर्थ है---- भविष्यकालः। यस्य भुक्तविषयाणामनुस्मरणं तथा भविष्यकाल। जिस व्यक्ति में भुक्त विषयों की अनुस्मृति तथा अनागतकालभाविनी विषयाशंसा नास्ति तस्य परम- भविष्य की विषयाशंसा नहीं होती, उस व्यक्ति में परम निरोध के निरुद्धत्वात् मध्ये इति वर्तमानकाले सा कुतः स्यात् ? न कारण मध्य अर्थात् वर्तमान काल में वह विषयाशंसा कहां से हो स्यादिति वाक्यावशेषः । सकती है ? कभी नहीं हो सकती। प्रस्तुतसूत्रस्य दार्शनिकदृष्ट्यापि व्याख्यानं क्रियते ... प्रस्तुत सूत्र की दार्शनिक दृष्टि से भी व्याख्या की जाती हैयस्य पूर्वमस्तित्वं नास्ति, भविष्यत्यपि अस्तित्वं नास्ति, जिसका अतीत में अस्तित्व नहीं है, भविष्य में भी अस्तित्व नहीं है तस्य वर्तमाने अस्तित्वं कुतः स्यात् ? पूर्वजन्मपुनर्जन्म- तो उसका वर्तमान में अस्तित्व कहां से होगा ? इसका तात्पर्य है कि १. (क) तुलना-माण्डूक्यकारिका २१६ : 'आदावन्ते च यन्नास्ति, वर्तमानेऽपि तत्तथा ।' माध्यमिक कारिका ११।२ : 'नवाग्रं नावरं यस्य, तस्य मध्यं कुतो भवेत् ।' (ख) भोगेच्छा के संस्कार का उन्मूलन नहीं होता, तब तक वह साधना-काल में भी समय-समय पर उभर आता है। अत एक कभी-कभी जितेन्द्रिय साधक भी अजितेन्द्रिय बन जाता है। किन्तु साधना के द्वारा जब भोगेच्छा का संस्कार उन्मूलित हो जाता है, क्षीण हो जाता है, तब भोगेच्छा की त्रैकालिक निवृत्ति हो जाती है । फिर न वह पहले होती, न पीछे होती और न मध्य में होती--कभी भी नहीं होती। अतीत का संस्कार नहीं होता तो भविष्य की कल्पना नहीं होती तथा संस्कार और कल्पना के बिना वर्तमान का चिन्तन नहीं होता। Jain Education international Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०४. सम्यक्त्व, उ०४. सूत्र ४५-५० २२६ नोरस्तित्वे सत्येव वर्तमानजन्मनोऽस्तित्वं संपद्यते इति पूर्वजन्म और पुनर्जन्म- इन दोनों का अस्तित्व होने पर ही वर्तमान तात्पर्यम् । जन्म का अस्तित्व हो सकता है। यस्य नास्ति अतीतानागतजन्मविषये संशयः स एव जिस पुरुष में अतीत और अनागत जन्म विषयक संशय नहीं वर्तमानक्षणे विषयाशंसानिरोधं कर्तुं प्रयतते । __ है वही वर्तमान क्षण में विषयों की आशंसा का निरोध करने का प्रयत्न करता है। ४७. से हु पण्णाणमंते बुद्धे आरंभोवरए। सं०-स खलु प्रज्ञानवान् बुद्धः आरम्भोपरतः । वही प्रज्ञानवान् और बुद्ध पुरुष आरम्भ से उपरत होता है। भाष्यम् ४७ --स विषयाशंसाविमुक्तः प्रज्ञानवान्, वह विषयाशंसा से मुक्त प्रज्ञानवान् तथा बुद्ध पुरुष ही हिंसा बुद्धः पुरुषः आरम्भादुपरतो भवति। मनुष्यः विषय- से उपरत होता है। मनुष्य विषय और कषाय के कारण ही हिंसा कषायनिमित्तं आरम्भे प्रवर्तते । यस्य विषयाशंसा में प्रवृत्त होता है। जिसकी विषयाशंसा-भोगेच्छा निवृत्त हो जाती निवर्तते स तस्मान्निवर्तते। है, वह आरंभ से निवृत्त हो जाता है। प्रज्ञानं-निश्चयनयः । बर:-विवेकसंपन्नः । प्रज्ञान का अर्थ है-निश्चय दृष्टिकोण । बुद्ध का अर्थ हैआरंभः-पृथिव्यादिजीवानां उपधातः, सावद्यानुष्ठान, विवेक से संपन्न । आरंभ के चार अर्थ हैं-पृथिवी आदि जीवों का द्रव्योत्पादनव्यापारः असंयमो वा। उपघात, सावध प्रवृत्ति, द्रव्यों का उत्पादक व्यापार-व्यवसाय तथा असंयम । ४८. सम्ममेयंति पासह । सं.-सम्यग् एतदिति पश्यत । यह सत्य है, इसे तुम देखो। भाष्यम् ४८-विषयाशंसायां निवृत्तायामेव विषयाशंसा की निवृत्ति होने पर ही हिंसा की निवृत्ति होती हिंसायाः निवृत्तिर्भवति । एतद् सत्यम् इति यूयं पश्यत । है । यह सत्य है, इसे तुम देखो। ४६. जेण बंधं वहं घोरं, परितावं च दारुणं । सं०-येन बन्धं वधं घोरं परितापं च दारुणम् । भोगेच्छा से प्रेरित पुरुष घोर बन्ध, वध तथा दारुण परिताप का प्रयोग करता है। भाष्यम् ४९-विषयाशंसया प्रेरितः मनुष्यः घोरं विषयाशंसा से प्रेरित मनुष्य घोर बन्ध, वध और दारुण बन्धं वधं दारुणं च परितापं करोति । बन्धः वधश्च परिताप का प्रयोग करता है। बंध और वध शारीरिक होता है और शारीरिकः, परितापश्च मानसिकः। घोरं दारुणमिति परिताप मानसिक । घोर और दारुण-ये दोनों विशेषण निरपेक्षभाव निरपेक्षम्। अथवा अत्यन्त क्रूरता के सूचक हैं। ५०. पलिछिदिय बाहिरगं च सोयं, णिक्कम्मदंसी इह मच्चिएहि । सं०-परिच्छिद्य बाह्यकं च स्रोतः निष्कर्मदर्शी इह मर्येषु । । इन्द्रियों की बहिर्मुखी प्रवृत्ति को रोककर इस मरणधर्मा जगत् में तुम निष्कर्मदर्शी बनो। भाष्यम् ५०-स्रोतो द्विविधम्-बाह्यमाभ्यन्तरं च। स्रोत दो प्रकार का है-बाह्य और आभ्यन्तर । बाह्य स्रोत तत्र बाह्यम् - इन्द्रियाणि, आभ्यन्तरम्-रागादि । बाह्य- है--इन्द्रियां और आभ्यन्तर स्रोत है-राग आदि । बाह्य स्रोत की स्रोतस उच्छ खलता एव आभ्यन्तरस्रोतसोऽभिवृद्धये उच्छखलता ही आभ्यन्तर स्रोत की अभिवृद्धि करती है। इसीलिए भवति । तेनोक्तम् -बाह्यस्रोतः परिच्छिद्य मनुष्य इह कहा है बाह्य स्रोत को रोक कर अर्थात् इन्द्रियों की बहिर्मुखी Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० मर्त्येषु निष्कर्मदर्शी भवेत् । निष्कर्मा - मोक्षः आत्मा संवरो वा यः मर्येषु अमृतत्वमिच्छति स निष्कर्माणमेव । पश्यति न तमन्तरेण किञ्चिदन्यत् पश्यति । स तच्चित्तस्तन्मनास्तल्लेश्यो भवति, शेषं पश्यन्नपि न पश्यति ।" कर्म त्रिविधम् मानसिक वाचिकं कायिकं च । आत्मनः स्वरूपमस्ति चैतन्यं तस्यानुभवः संवरः । एष संबर एवं नैष्कर्म्य साधनायाः रहस्यम् । उक्तं चामृतचन्द्रा चार्येण' J कृतकारितानुमननस्त्रि कालविषयं परिहृत्य कर्म सर्व परमं मनोवचनकार्यः । कमवलम्बे ॥ मोहा हमकार्ष समस्तमपि कर्म तत्प्रतिक्रम्य । आत्मनि चैतन्यात्मनि निष्कर्मणि नित्यमात्मना वर्ते ॥ मोहविलासविजृम्भितमिदमुदयत्कर्म सकलमालोच्य । आत्मनि चैतन्यात्मनि निष्कर्मणि नित्यमात्मना वर्ते ॥ 13 माध्यम् ५१ कर्माणि फलवन्ति भवन्ति, अवन्ध्यं अवश्यं भोक्तव्यमिति यावत् । यथा उत्तराध्ययने'कडाण कम्माण न मोक्ख अस्थि अथवा सुचीर्णानां कर्मणां शुभ फलं दुष्चीर्णानां कर्मणामशुभ फलं भवति तेन वेदविद् पुरुषः ततो निर्वाति-विरमति । वेद:शास्त्रं, तद् वेत्तीति वेदविद् । ५१. कण सफल ब त पिज्जा बेयवी । सं०-कर्मणां सफलत्वं दृष्ट्वा ततः निर्याति वेदविद् । कर्म अपना फल देते हैं, यह देखकर ज्ञानी मनुष्य उनके संचय से निवृत्त हो जाता है । १. जिसकी इन्द्रियों का प्रवाह नश्वर विषयों की ओर होता है, वह अमृत को प्राप्त नहीं हो सकता । उसकी प्राप्ति के लिए इन्द्रिय-प्रवाह को मोड़ना आवश्यक होता है। जिसकी सारी इन्द्रियां अमृत के दर्शन में लग जाती हैं, वह स्वयं अमृतमय बन जाता है। निष्कर्म के पांच अर्थ किए जा सकते हैं -- शाश्वत, अमृत, मोक्ष, संवर और आत्मा । कर्म को देखने वाला निष्कर्म को प्राप्त होता है । निष्कर्म-दर्शन योग-साधना का बहुत बड़ा सूत्र है । निष्कर्म का दर्शन चित्त की सारी वृत्तियों को एकाग्र कर करना चाहिए। उस समय केवल आत्मा या आत्मोप आचारांग भाष्यम् । प्रवृत्ति को रोक कर मनुष्य इस मरण-धर्मा जगत् में निष्कर्मदर्शी (मोक्षदर्शी) बने निष्कर्मा के तीन अर्थ है मोक्ष, आत्मा अथवा संवर। जो मरण-धर्मा जगत् में अमृतत्व की इच्छा करता है वह निष्कर्मा- - मोक्ष अथवा आत्मा को ही देखता है, उसके अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं देखता । वह उसी में चित्त, मन और लेश्याअध्यवसाय को नियोजित कर देता है, इसलिए अन्य सब कुछ देखता हुआ भी वह नहीं देखता । प्रवृत्ति तीन प्रकार की होती है मानसिक, वाचिक और कायिक आत्मा का स्वरूप है -चैतन्य । उसका अनुभव करना संवर है यह संवर ही निष्कर्म की साधना का रहस्य है। आचार्य अमृतचंद्र ने कहा है 'मैं मानसिक, वाचिक और कायिक कृत, कारित और अनुमति रूप सारी त्रैकालिक प्रवृत्तियों का परिहार कर परम क का अवलम्बन लेता हूं ।' 'मैंने मोह के वशीभूत होकर सारी प्रवृत्तियां की हैं, उनका प्रतिक्रमण कर अब मैं सदा चैतन्य स्वभाव वाली निष्कर्म आत्मा में आत्मा के द्वारा रह रहा हूं ।' "मोह से विवृति उदीयमान सारे कर्मों की आलोचना कर अब मैं सदा चैतन्य स्वभाव वाली निष्कर्म आत्मा में आत्मा के द्वारा रह रहा हूं ।' कर्म फलवान् होते हैं । वे अवन्ध्य होते हैं। उन्हें अवश्य भोगना होता है । उत्तराध्ययन में कहा है-किए हुए कर्मों का फल भोगे बिना छुटकारा नहीं होता।' अथवा अच्छे आचरण से अर्जित कर्मों का फल शुभ होता है, और बुरे आचरण से अर्जित कमों का फल अशुभ होता है, इसलिए ज्ञानी पुरुष कमों से विरत होता है। वेद का अर्थ है - शास्त्र । जो वेद को जानता है वह वेदविद् अर्थात् शास्त्रज्ञ होता है । लब्धि के साधन को ही देखना चाहिए। अन्य किसी वस्तु पर मन नहीं जाना चाहिए। २. (क) मा अमृतचन्द्राचार्यकृत आरयालिटीका, श्लोक २२५-२२७ ॥ (ख) तुलना- भगवद्गीता ३।४; १८।४९ : 'न कर्मणामनारम्भापुरुषो न च संन्यसनादेव सिद्धि समधिगच्छति ॥' 'असक्त बुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः । सिद्धि परमा सभ्यानाधिति ।' ३. उत्तरज्शयणाणि ४।३ । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ४. सम्यक्त्व, उ० ४. सूत्र ५१-५२ कर्मपदं द्वयर्थक विद्यते-- कर्म शब्द के दो अर्थ हैं१. मनोवाक्कायानां प्रवृत्तिः कर्म । १. मन, वचन और काया की प्रवृत्ति है कर्म । २. प्रवृत्त्या आकृष्टाः शुभाशुभहेतुभूताः पुद्गलाः २. प्रवृत्ति से आकृष्ट शुभ-अशुभ के हेतुभूत पुद्गल हैं कर्म । कर्म। कर्मविषये तिस्रो धारणा उदभवन्ति कर्म विषयक तीन धारणाएं उत्पन्न होती हैं१. आसक्तिकृतकर्मपरित्यागः । १. आसक्तिपूर्वक किए जाने वाले कर्मों का परित्याग । २. कर्मफलत्यागः। २. कर्म-फल का त्याग । ३. कर्मपरित्यागः। ३. कर्म मात्र का परित्याग । अस्मिन् विषये प्रस्तुतागमस्य हृदयमिदं-आसक्त्या इस विषय में प्रस्तुत आगम का हार्द यह है-आसक्तिकर्म न करणीयम् । कर्मणः फलाशंसा न कर्त्तव्या । कर्म- पूर्वक कर्म नहीं करना चाहिए। कर्म-फल की आकांक्षा नहीं करनी परित्यागः कार्यः । एष एव कर्मणो निर्याणं नैष्कर्म्य वा। चाहिए । कर्म का परित्याग करना चाहिए। यही कर्म से विरमण है नास्य तात्पर्यम्-सर्वथा कर्म न करणीयं, किन्तु कर्मणां अथवा यही नैष्कर्म्य है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि कर्म सर्वथा निरोधः कार्यः, स च संवरः समाधिरित्युच्यते, अथवा अकरणीय है, किन्तु कर्म का निरोध करना चाहिए। उसे संवर या यदावश्यक कर्म करणीयं तत्समतया करणीयं, येन कर्मणां समाधि कहा जाता है। अथवा जो आवश्यक कर्म करणीय है उसे सफलत्वं बन्धनं वा प्रतनुतां गच्छेत् । यानि कर्माणि समतापूर्वक करना चाहिए, जिससे कि कर्मों का फल और बंधन कृश मन्दफलानि भवन्ति तान्याप निष्कमेसज्ञा लभन्ते ।' हो जाए। जो कर्म मन्दफल वाले होते हैं उन्हें भी निष्कर्म कह दिया जाता है। ५२. जे खलु भो! वीरा समिता सहिता सदा जया संघडदंसिणो आतोवरया अहा-तहा लोगमुवेहमाणा, पाईणं पडोणं दाहिणं उदीणं इति सच्चंसि परिचिदिसु, साहिस्सामो णाणं वीराणं समिताणं सहिताणं सदा जयाणं संघडदंसिणं आतोवरयाणं अहा-तहा लोगमुवेहमाणाणं । सं०-ये खलु भोः ! वीराः समिता: सहिताः सदा यताः संघडशिनः आत्मोपरताः यथातथा लोकमुपेक्षमाणाः प्राचीन प्रतीचीनं दक्षिणं उदीचीनं इति सत्ये परितस्थुः, कथयिष्यामः' ज्ञानं वीराणां समितानां सहितानां सदा यतानां संघडदशिनां आत्मोपरतानां यथातथा लोकमुपेक्षमाणानाम् । हे आर्यो ! जो मुनि वीर, सम्यक-प्रवृत्त, सहिष्ण, सतत इन्द्रिय-जयी, प्रतिपल जागरूक, स्वतः उपरत, जो लोक जैसा है उसे वैसा ही देखने वाले, पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर-सभी दिशाओं में सत्य में स्थित हुए हैं, उन पूर्व-विशेषणों से विशेषित मुनियों के सम्यग् ज्ञान का हम निरूपण करेंगे। भाष्यम् ५२ - उक्तं सम्यक्त्वम् । इदानीं तत्फल- सम्यक्त्व का प्रतिपादन किया जा चुका है। अब उसके फल मुच्यते । 'भो' इति आमन्त्रणे। ये खलु वीरा:-तपसि का प्रतिपादन कर रहे हैं। 'भो' संबोधनवाची है। जो वीर हैं अर्थात् कृतपराक्रमाः, समिताः- सम्यक्प्रवृत्ताः, सहिताः-- तपस्या में पराक्रमशील हैं, समित हैं -सम्यक् प्रवृत्त हैं, सहित हैंसहिष्णवः, सदा यता:- सर्वकालं संयतवृत्तयः, सहनशील हैं, जो सदा यत हैं—सर्व काल में संयतवृत्ति वाले हैं, संघडशिन: ----नित्यकालोपयुक्ताः , सततजागरूका इति संघडदर्शी-जो प्रतिक्षण (संयम में) उपयुक्त हैं, सतत जागरूक हैं, यावत, आत्मोपरता: --आत्मना स्वत एव पापकर्मभ्यो आत्मोपरत हैं - स्वतः पापकर्मों से विरत हैं, न कि दूसरों के प्रशासन विरता न तू पराभियोगेन, यथावस्थितोऽयं कर्मलोकः या आज्ञा से विरत हैं, यह कर्म लोक अथवा भवलोक जैसा अवस्थित है भवलोको वा तथा तमुपेक्षमाणाः सर्वासु दिक्षु ये सत्ये उसे वैसा ही देखने वाले हैं तथा सभी दिशाओं में जो सत्य में १. योगवाशिष्ठ, ६-१-८७-१८ : -निरंतरं, नित्यकालोवउत्ता, पुथ्वावरवित्थरदसणा वा वासनामात्रसारत्वात्, अज्ञस्य सफलाः क्रियाः । संथडदं सिणो। सर्वा एवाफला शस्य, वासनामात्रसंक्षयात् ॥ ४. आचारांग चूणि, पृष्ठ १५३ : अप्पणा उवरता पावकम्मेहि २. प्राकृत व्याकरण (हेमचन्द्र) ४१२, कथेवज्जर-पज्जरोप्पाल आतोवरता, जंभणितं न पराभियोगेणं ण वा इस्सरपुरिसपिसुण-संघ-बोल्ल-चव-जम्प-सीस-साहाः । वसा। ३. आचारांग चणि, पृष्ठ १५३ : संथवं णाम संथ जं भणितं Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ स्थितवन्तः, सत्यम्' – सम्यक्त्वं संयमो वा, तस्याराधकाः सर्वास्वपि दिक्षु वर्तन्ते इति तात्पर्यम् । तेषां पूर्व विशेषणविशिष्टानां ज्ञानं साधयिष्यामः कथयिष्यामः श्लाघिष्यामहे वा । ५३. किमस्थि उपाधी पासगस्स ण विज्जति ? गत्थि । त्ति बेमि । सं० - किमस्ति उपाधिः पश्यकस्य न विद्यते ? नास्ति । इति ब्रवीमि । क्या व्रष्टा के कोई उपाधि होती है या नहीं होती ? नहीं होती। ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् ५३ - द्रष्टव्यम् -- ३१८७ भाष्यम् । १. (क) आचारांग भूमि, पृष्ठ १५३ विवर्ण स अहवा सच्चोति संजमो वृत्तो, तित्थगरमासियं वा सम्मतं वा भवे सच्चं । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १७७ : सत्यमिति ऋतं तपः संयमो वा । आचारांगमाध्यम् अवस्थित हैं। इसका तात्पर्य है कि सत्य अर्थात् सम्यक्त्व या संयम के आराधक सभी दिशाओं में हैं। उन पूर्व निर्दिष्ट विशेषणों से विशिष्ट पुरुषों के ज्ञान का हम कथन करेंगे, उसकी श्लाघा करेंगे । देखें-- ३१८७ का भाष्य । २. आचारांग चूर्ण, पृष्ठ १५३ : न सम्मद्दसणं मुद्दता अन्नं लोगेऽवि कज्जं निच्वं अत्थि, सम्मं नाणं च तवसंजमे विरायति । ३. वही, पृष्ठ १५३ साहित्यायो में भणित अहवा साहित्सामि पसिस्सामि पविसामि । इमो Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमं अज्झयणं लोगसारो पांचवां अध्ययन लोकसार [उद्देशक ६ : सूत्र १४०] Jain Education international Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुखम् प्रस्तुताध्ययनस्य नामास्ति 'लोकसारः' । इदं नाम प्रस्तुत अध्ययन का नाम है 'लोकसार'। यह नाम गौण है। गौणमस्ति । आदानपदेनास्य नाम भवति 'आवंती'।' आदानपद के अनुसार इसका नाम होता है 'आवंती'। इसके छह अस्य षड् उद्देशकाः वर्तन्ते। तेषां विषयनिर्देश उद्देशक हैं। उनका विषय-निर्देश इस प्रकार हैएवमस्ति१. हिंसकः विषयारम्भकः एकचरश्च मुनिः न १. हिंसक, विषयों के लिए आरंभ करने वाला तथा एकचर भवति। (अकेला विचरण करने वाला) मुनि नहीं होता। २. स एव मुनिर्भवति योऽस्ति विरतः। योऽस्ति २. मुनि वही होता है जो विरत है। जो अविरतवादी है वह अविरतवादी स परिग्रहवान् भवतीति । परिग्रही होता है। ३. यो विरतो भवति स एव अपरिग्रहः निविण्ण- ३. जो विरत होता है वही अपरिग्रही और कामभोगों से कामभोगश्च भवति । उदासीन होता है। ४. अव्यक्तस्य-सूत्रार्थापरिनिष्ठितस्य जायमानानां ४. अव्यक्त-सूत्र और अर्थ से अनभिज्ञ मुनि के साधनाकाल 'प्रत्यपायानां निदर्शनम् । में उत्पन्न होने वाले दोषों का निदर्शन। ५. साधुना ह्रदोपमेन भाव्यम् । यथा जलपरिपूर्णः ५. साधु को ह्रद के समान होना चाहिए। जैसे जल से ह्रदः प्रशस्यो भवति तथा ज्ञानदर्शनचारित्र परिपूर्ण ह्रद प्रशस्य होता है वैसे ही ज्ञान-दर्शन और परिपूर्णो मुनिरपि प्रशस्यो भवति । तस्यैव तप: चारित्र से परिपूर्ण मुनि भी प्रशस्य होता है। उसी के तप, संयमगुप्तयो निःसंगता च । संयम, गुप्ति तथा निःसंगता होती है। ६. उन्मार्गः वर्जनीयः तथा रागद्वेषौ च त्याज्यो। ६. उन्मार्ग का वर्जन तथा राग-द्वेष का त्याग करना चाहिए। उद्देशकानां अर्थाधिकारेभ्य एव सारपदस्य फलितं इन छह उद्देशकों के विषय-निर्देश से ही सारपद का फलित लभ्यते। प्रश्नोऽस्ति अस्मिन्नसारे लोके किमस्ति प्राप्त होता है। प्रश्न होता है कि इस असार संसार में 'सार' क्या सारम् ? अस्य अनेकानि उत्तराणि । लौकिकानामुत्तर- है ? इस प्रश्न के अनेक उत्तर हैं। लौकिक व्यक्तियों का उत्तर हैमस्ति'अस्मिन्नसारे संसारे सारं सारंगलोचना।' • इस असार संसार में सार है स्त्री। 'अस्मिन्नसारे संसारे सारं वित्तस्य संग्रहः ।' • इस असार संसार में सार है-धन का संग्रह । 'अस्मिन्नसारे संसारे सारं मिष्टान्नभोजनम् ।' • इस असार संसार में सार है-मिष्टान्न भोजन । यस्मै यद् रोचते तदेव तस्य सारम् । यथा श्रूयते जिसको जो रुचिकर लगता है, वही उसके लिए सार है। जैसे सुना जाता है'दधि मधुर मधु मधुरं द्राक्षा मधुरा च शर्करा मधुरा। वही मीठा होता है। मधु मीठा होता है। वाख और शर्करा तस्य तदेव हि मधुरं यस्य मनो यत्र संलग्नम् ॥' भी मीठी होती है। उस व्यक्ति के लिए वही मधुर या मोठी है, जिसका मन जिसमें लग जाता है। १. आचारांग नियुक्ति, गाथा २३८ : २. आचारांग नियुक्ति, गाथा २३५-२३७ : 'आयाणपएणावंति गोग्णनामेण लोगसारुत्ति।'.... हिंसगविसयारंभग एगचत्ति न मुणी पढमगंमि । वृत्ति, पत्र १७८ : आदीयते-प्रथममेव गृह्यत इत्यादानं विरओ मुणित्ति बिइए अविरयवाई परिग्गहिओ ॥ ताच तत्पदं च आदानपर्व तेन करणभूतेनावन्तीत्येतन्नाम, तईए एसो अपरिग्गहो य निम्विन्नकामभोगो य । अध्ययनादाबावन्तीशब्दस्योच्चारणाद्, गुणनिष्पन्नं गौणं अश्वत्तस्सेगचरस्स पच्चवाया चउत्थंमि ॥ तच्च तन्नाम च गौणनाम तेन हेतुना लोकसार इति । हरउवमो तवसंयमगुत्ती निस्संगया य पंचमर । उम्मग्गवज्जणा छट्ठगंमि तह रागदोसे य॥ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ ये मनोभूमिकायां विचरन्ति तेषां दृशि सारमस्ति पदार्थानां संग्रहो भोगश्च प्रस्तुताध्ययने यत् सारं वर्णितमस्ति तदस्ति मनोभूमिकायाः पारंगतानां अन्तर्दृशां आत्मानं अनुभूय विहरमाणानाम् । तत् सारमस्ति पढ अहिंसा, विरति अपरिग्रहः, स्वाध्यायः, गुप्तिः, उन्मार्गवर्जनम् । " अध्यात्मचिन्तायां अमृतत्वमस्ति सारम् । तत्र जन्ममरणपरम्परा सारं नास्ति । तस्याः कारणमस्ति मोहः 'मोहेण मरणाति एति" तृतीयाध्ययनेऽपि उक्तम्- 'माई पमाई पुणरे गग्मं ।" आत्मानुभूतेः सार मस्ति जन्ममरणपरम्पराया विच्छेदः ।" अस्मिन् रहस्यवादस्य प्राचुर्यं वर्तते । ध्यानसूत्राणामपि अस्ति प्राचुर्यम् ।' अस्मिन् युद्धस्यापि निर्देशः समुपलभ्यते ।' युद्ध मनुष्यस्य मौलिकी मनोवृत्तिरस्ति । तस्य हिंसात्मकस्य युद्धस्य आध्यात्मिकीकरणमस्ति पराक्रमस्य प्रतिष्ठापनम् । ब्रह्मचर्यस्य न केवलमुपदेशः किन्तु तस्य । साधनाये प्रयोगा अपि सन्ति समुपदिष्टाः तैराहार । संबंधी दृष्टिकोण सुस्पष्टो भवति, आसनानां माहात्म्यमपि हृदयंगमीभवति । तानि आसनानि न केवलं शरीरसौष्ठवाय, तेभ्यः कामादिवृत्तीनामपि परिष्कारो जायते । अस्मिन् आत्मनो लक्षणं प्रतिपादितमस्ति तथा तस्य अमूर्त्तत्वं स्वराविभिरप्राह्यत्वमपि विस्तरेण निरूपित मस्ति । तत्र औपनिषदिक 'मेति नेति' वादस्य प्रयोग पुनः पुनश्चकास्ति । 'अपवस्य परं नास्ति' इति सूचयति 'आत्मा' इति संज्ञापि अस्माभिः प्रकल्पितास्ति तदस्ति केवलं चैतन्यमयी अरूपिसत्ता । अस्मिन् प्रकरणे आत्मनः तर्कागम्यत्वं निरूप्य सूत्रकारेण द्विविधाः पदार्थाः तर्कगम्या अतर्कगम्या इति शेयस्य द्वैविध्यं महणं निरूपितम् । १. आयारो, ५।७। २. वही, ३।१४ । ३. वही, ५।१२२ । ४. वही, ५०३,४ । आचारांगभाष्य म जो मनोभूमिका में विचरण करते हैं उनकी दृष्टि में सार है- पदार्थों का संग्रह और उनका उपभोग प्रस्तुत अध्ययन में जिस 'सार' का वर्णन किया गया है वह उन व्यक्तियों की दृष्टि से है जो मनोभूमिका से पार पहुंच चुके हैं, जो आन्तरिक दृष्टि के धनी हैं और जो आत्मा का अनुभव कर विहरण कर रहे हैं। उस 'सार' के छह अंग हैं-अहिंसा, विरति, अपरिग्रह, स्वाध्याय, गुप्ति तथा उन्मार्ग वर्जन । I अध्यात्म-चिन्तन में सार तत्त्व है 'अमृतत्व'। उसके अनुसार जन्म-मरण की परंपरा सार नहीं है । जन्म-मरण का कारण है-मोह 'व्यक्ति मोह के कारण जन्म-मरण को प्राप्त होता है।' तीसरे अध्ययन में भी कहा है- 'मायी और प्रभावी व्यक्ति बार-बार जन्म लेता है।' आत्मानुभूति का सार है— जन्म मरण की परंपरा का विनोद | इस अध्ययन में रहस्यवाद का प्राचुर्य है। इसमें ध्यान सूत्रों का भी प्राचुर्य है । प्रस्तुत अध्ययन में युद्ध का भी निर्देश प्राप्त होता है । युद्ध मनुष्य की मौलिक मनोवृति है। उस हिसारणक युद्ध का आध्यात्मिकीकरण है पराक्रम का प्रतिष्ठापन / नियोजन । ब्रह्मचर्य का केवल उपदेश ही नहीं, किन्तु उसकी साधना के प्रयोग भी इसमें निर्दिष्ट है उन प्रयोगों से आहार संबंधी दृष्टिकोण बहुत स्पष्ट हो । जाता है तथा आसनों का महत्व भी हृदयंगम हो जाता है । वे आसन केवल शारीरिक सौन्दर्य या स्वास्थ्य के लिए ही नहीं, उनसे काम आदि वृत्तियों का भी परिष्कार होता है। प्रस्तुत अध्ययन में आत्मा का लक्षण प्रतिपादित है । साथ ही साथ 'आत्मा अमूर्त है', वह स्वर आदि के द्वारा अप्राह्य है' - यह भी विस्तार से निरूपित है। इस प्रसंग में औपनिषदिक 'नेति नेति' वाद का बार-बार प्रयोग हुआ है । 'वह अपद है— उसका बोध करने के लिए कोई पद नहीं है'यह सूक्त इस तथ्य को सूचित करता है कि 'आत्मा' यह संज्ञा भी हमारे द्वारा प्रकल्पित है। वह 'अपद' तो केवल चैतन्यमयी अरूपी सत्ता है। इस प्रकरण में आत्मा को तर्क से अगम्य निरूपित कर सूत्रकार ने शेय की द्विविधता का सहज निरूपण करते हुए दो प्रकार के पदार्थ बतलाए हैं-- तर्कगम्य तथा अतर्कंगम्य | ५. वही, ५।२१,३०, ६५, ११८, १२० । ६. वही, ५।४५, ४६ । ७. वही ५७५-८६ | Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३७ आमुखम् अधीयमानेऽस्मिन्नध्ययने इदं सूक्तं सार्थकं भवति'वेदान्यशास्त्रवित् क्लेशं, रसमध्यात्मशास्त्रविद् । भाग्यभृद् भोगमाप्नोति, वहति चन्दनं खरः ॥' पूज्यपादस्य एषा श्लोकद्वयो चापि अत्र सुसंगता''यत् परः प्रतिपाद्योऽहं यत् परान् प्रतिपादये। उन्मत्तचेष्टितं तन्मे यदहं निर्विकल्पकः ॥' 'यदप्राह्य न गृह्णाति गृहीतं नापि मुञ्चति । जानाति सर्वथा सवं तत् स्वसंवेद्यमस्म्यहम् ॥' इस अध्ययन को पढ़ने पर यह सूक्त सार्थक प्रतीत होता है-- 'जो व्यक्ति अन्यान्य शास्त्रों का ज्ञाता है, वह केवल क्लेश को भोगता है। जो अध्यात्म शास्त्र का ज्ञाता है, वही शास्त्र के रस को भोगता है । गधा चन्दन के भार को ढोता है, पर उसकी सुगंध का उपभोग कोई भाग्यशाली ही कर पाता है। पूज्यपाद द्वारा रचित ये दो श्लोक भी यहां सुसंगत हैं 'दूसरे मेरा प्रतिपादन करते हैं, मैं दूसरों का प्रतिपादन करता हूं। यह मेरी उन्मत्त चेष्टा है। क्योंकि मैं (आत्मा) निर्विकल्प हूं।' 'जो राग-द्वेष आदि अग्राह्य हैं, हेय हैं, उन्हें ग्रहण नहीं करता और जो स्वभाव है उसे नहीं छोड़ता तथा जो सर्वथा सब कुछ जानता है, वह स्वसंवेद्य मैं हूं।' १. समाधिशतक, श्लोक १९-२० । Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education international Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमं अज्झयणं : लोगसारो पांचवां अध्ययन : लोकसार पढमो उद्देसो : पहला उद्देशक १. आवंती केआवंती लोयंसि विप्परामुसंति, अट्ठाए अणढाए वा, एएसु चेव विप्परामुसंति । सं०-यावन्तः केचन लोके विपरामृशन्ति अर्थाय अनर्थाय वा, एतेषु चैव विपरामृशन्ति ।। इस जगत् में जो मनुष्य प्रयोजनवश या निष्प्रयोजन जीव-वध करते हैं, वे इन छह जीव-निकायों में से किसी भी जीव-निकाय का वध कर देते हैं। भाष्यम् १-साधकेन रागद्वेषविमुक्तेन भाव्यम् । साधक को रागद्वेष से मुक्त रहना चाहिए। राग-द्वेष से रागद्वेषयोविमुक्तिरेव साधनायाः सारम् । तयोः प्रवृत्तः विमुक्ति ही साधना का सार है। राग-द्वेष में प्रवृत्त व्यक्ति क्या-क्या पुरुषः किं किमाचरतीति जिज्ञासायां सूत्रकारो वक्ति- आचरण करता है, इस जिज्ञासा के प्रसंग में सूत्रकार कहते हैंयावन्तः कियन्तो मनुष्याः रागद्वेषवशंवदा वर्तन्ते, ते जितने मनुष्य राग-द्वेष के वशवर्ती हैं, वे लोक में हिंसा का आचरण लोके विपरामशन्ति'-हिंसाचरणे प्रवर्तन्ते । तेषु केचन करते हैं। उनमें से कुछेक लोग प्रयोजनवश हिंसा करते हैं और कुछ अर्थम् --प्रयोजनमासाद्य हिंसां कुर्वन्ति, केचिच्च अनर्थ- बिना प्रयोजन ही हिंसा करते हैं। हिंसा का द्रव्य या विषय हैमेव हिंसां कुर्वन्ति । हिंसाया द्रव्यं विषयो वा- षड्जीवनिकाय । इसीलिए कहा है वे लोग इन छह जीवनिकायों की षड्जीवनिकायः । तेनोक्तम्--एतेषु षट्सु जीवनिकायेषु हिंसा में प्रवृत्त होते हैं । विपरामृशन्ति । २. गुरू से कामा। सं०---गुरवः तस्य कामाः । उनकी कामनाएं विशाल होती हैं। भाष्यम् २-हिंसायाः त्रीणि प्रयोजनानि कामार्थ- हिंसा के तीन प्रयोजन निरूपित हैं- काम, अर्थ और धर्म। धर्मरूपाणि निरूपितानि। अत्र कामोऽस्ति विवक्षितः। प्रस्तुत प्रकरण में 'काम' की विवक्षा है। जिस पुरुष के काम गुरुयस्य कामा गुरवः-दूस्त्यजा अनतिक्रमणीया वा दुस्त्यज अथवा अनतिक्रमणीय होते हैं, वह उनकी संपूर्ति के लिए हिंसा भवन्ति, स तत्पूर्तिनिमित्तं हिंसायां प्रवर्तते। में प्रवृत्त होता है। पूर्वमेव प्रतिपादितं 'कामा दुरतिक्कमा' (२।१२१)। इससे पूर्व (२।१२१) में यह प्रतिपादित किया जा चुका है कि पुरुषार्थचतुष्टय्यां कामः अर्थश्च इति पुरुषार्थद्वयी 'काम दुलंध्य हैं'। पुरुषार्थ चतुष्टयी में काम और अर्थ-ये दो इन्द्रियचेतनां अनुबध्नाति । धर्मो मोक्षश्च अनुबध्नाति पुरुषार्थ इन्द्रिय-चेतना से अनुबंधित हैं और धर्म तथा मोक्ष-ये दो अतीन्द्रियचेतनाम् । इन्द्रियचेतनाजगति रागद्वेषौ पुरुषार्थ अतीन्द्रिय-चेतना से अनुबंधित हैं। इन्द्रिय-चेतना के जगत में प्रवर्तते । अतीन्द्रियचेतनाजगति वीतरागता राग-द्वेष प्रवर्तित होते हैं। अतीन्द्रिय-चेतना के जगत् में वीतरागता १. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ १५७ : विविहं परामुसंति, जं भणितं-घातंति, अहवा परामुसणं आरंभो, जं भणियं-एतेसु चेव आरभति । आचारांग वृत्ति, पत्र १७९ : विविधम् - अनेकप्रकार विषयाभिलाषितया परामशन्ति' उपतापयन्ति दण्ड कशताडनादिभिर्घातयन्तीत्यर्थः । २-३. आचारांग चूणि, पृष्ठ १५७ : अट्ठाए वा अर्यधर्म कामनिमित्तं । "आतपरउभयहेतुं अट्ठा, सेसं अणद्वाए। ४. वही, पृष्ठ १५७ : जो जस्स अणतिक्कमणिज्जो सो तस्स गुरू, भारियाउत्ति वा सुम्वति । Jain Education international Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० आचारांगभाध्यम समुच्छ्वसिता भवति । यावत् अतीन्द्रियचेतनाया: उच्छ्वसित होती है। जब तक अतीन्द्रिय-चेतना का जागरण नहीं जागरणं न स्यात् तावत् कामा एव गुरवः-मूल्यवन्त: होता तब तक 'काम' ही गुरु हैं-मूल्यवान् अथवा सारभूत हैं-ऐसी सारभूताः वा इति मतिरुत्पद्यते । तत्र हिंसायाः सहजं बुद्धि उत्पन्न होती है। उस स्थिति में हिंसा को सहज अवकाश मिल अवकाशो भवति । जाता है। ३. तओ से मारस्स अंतो, जओ से मारस्स अंतो, तओ से दूरे। सं०-ततः स मारस्य अन्तः, यतः स मारस्य अन्तः ततः स दूरे। कामना प्रधान पुरुष मदनकाम के प्रभाव-क्षेत्र में चला जाता है । मदनकाम से प्रभावित होने के कारण वह वास्तविक सुख से दूर हो जाता है। भाष्यम् ३-यस्य कामाः गुरवो भवन्ति स काम- जिसके काम गुरु होते हैं, वह व्यक्ति काम की गुरुता के गुरुत्वात् मारस्य अन्तर्-मध्ये प्रभावक्षेत्रे वा वर्तते। कारण मार के मध्य या प्रभाव-क्षेत्र में होता है। जब वह मार के यतः स मारस्य अन्तर् वर्तते ततः स भयशोकादि- प्रभाव-क्षेत्र में होता है तब वह भय, शोक आदि मोहात्मक भावों से मोहात्मकभावाभिभूतत्वाद् वस्तुतः सुखाद् दूरे वर्तते। अभिभूत होने के कारण वास्तविक सुख से दूर होता है। इसका तात्पर्यमिदं इच्छाकामः पुरुषं मदनकामं प्रति प्रेरयति । तात्पर्य यह है- इच्छाकाम पुरुष को मदनकाम के प्रति प्रेरित करता मदनकामासेवायां आसक्तः पुरुषः तृप्त्यात्मकं सुखं है। मदनकाम के आसेवन में आसक्त पुरुष कभी तृप्ति का सुख नहीं नाप्नोति । ततः स अमृताद् निर्वाणाद् निर्वाणोपायाद् पा सकता। इसलिए वह अमृत, निर्वाण और निर्वाण प्राप्ति के उपायों वा दूरे वर्तते । से दूर हो जाता है। मारः-मदनकामः । चूर्णी अस्य पदस्य कर्म, भवः मार का अर्थ है-मदनकाम । चूणि में मार के दो अर्थ प्राप्त इति अर्थद्वयं लभ्यते । वत्तौ च आयुषः क्षयः इति हैं-कर्म और भव । वृत्ति में इसका अर्थ आयुष्य का क्षय किया है। व्याख्यातमस्ति ।' ४. णेव से अंतो, णेव से दूरे। सं०---नैव सोऽन्तः, नैव स दूरे । वह इन्द्रिय-विषयों के निकट भी नहीं है और उनसे दूर भी नहीं है। भाष्यम ४-कश्चित् पुरुषः मदनकामस्य संक्लेश- कोई पुरुष मदनकाम के संक्लिष्ट विपाकों को जानकर करान् विपाकान् ज्ञात्वा इन्द्रियविषयान् जिहासति, किन्तु इन्द्रिय-विषयों को त्यागना चाहता है, किन्तु वैराग्य-भावना की वैराग्यभाबनायाः अपरिपक्वदशायां तस्य जिहासा न अपरिपक्वदशा में उसके त्याग की चाह सफल नहीं होती। सूत्रकार ने सफलतामालिंगति। सूत्रकारेण तादृशस्य पुरुषस्य वैसे व्यक्ति की मनोदशा का चित्रण प्रस्तुत सूत्र में किया है जिसने मनोदशायाः चित्रणं इह कृतम्-येन विषयाः त्यक्ताः विषयों को छोड़ दिया, वह उनके बीच नहीं है, किन्तु उसने उन अतः स तेषामन्त व वर्तते, तेषां कामनाः न त्यक्ताः विषयों की कामनाओं को नहीं छोड़ा अतः वह उनसे दूर भी नहीं है । अतः तेभ्यो दूरमपि न वर्तते । ५. से पासति फुसियमिव, कुसग्गे पणुन्नं णिवतितं वातेरितं । एवं बालस्स जीवियं, मंदस्स अविजाणओ। सं०-स पश्यति पृषतमिव कुशाग्रे प्रणुन्नं निपतितं वातेरितम् । एवं बालस्य जीवितं मंदस्य अविजानतः । वह जीवन को कुश की नोक पर टिके हुए अस्थिर एवं वायु से प्रकम्पित होकर गिरे हुए जल-कण की भांति देखता है। बाल, मन्द और अज्ञानी का जीवन भी ऐसा ही अनित्य होता है। १. (क) आचारांग चूणि १५८ : मारयते यस्मान्ममारि भूतश्च मारयति वाऽन्तो अनुसमयं मरणादपि कर्म भवो वा भवेन्मारः। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १८० : मरणं मारः- आयुषः क्षयः । Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ५. लोकसार, उ० १. सूत्र ३-६ भाष्यम् ५ – स कामासक्तो मनुष्यः कुशाग्रे प्रणुन्नंलम्बितं प्रकम्पितं वा, वातेरितं निपतितं जलबिन्दुमिव जीवितं पश्यत्येव किन्तु तस्य बालस्य अशस्य बुद्धा मन्दस्य ' वस्तुतो जीवनस्य अनित्यतामविजानतः जीवितं सफलं न भवति । ง - ६. कूराणि कम्माणि वाले पकुध्वमाणे, तेण दुक्खेण मूढे विप्यरियासुवेद | सं० क्रूराणि कर्माणि बालः प्रकुर्वाणः तेन दुःखेन मूढः विपर्यासमुपैति । अज्ञानी मनुष्य क्रूर कर्म करता हुआ दुःख का सृजन करता है। वह उस दुःख से मूढ होकर विपर्यास को प्राप्त होता है-सुख का अर्थी होकर दुःख को प्राप्त होता है । भाष्यम्स बालः जीवितमनित्यं जानन्नपि मोहमूच्छितः सन् परमार्थतो न जानाति, अत एव क्रूराणि कर्माणि प्रकुरुते । शेषं (२।६९) सूत्रस्य भाष्यं द्रष्टव्यम् ७. मोहेण गम्मं मरणाति एति । संमोहेन गर्भ मरणादि एति । वह मोह के कारण बार-बार जन्म-मरण को प्राप्त होता है। भाष्यम् ७ पूर्व ३१४ सूत्रे उक्तम्- मायी प्रमादी पुनः गर्भमेति । अत्रोच्यते मोहेन मूढः मनुष्यः गर्भं मरणादि एति । आत्मनः अस्तित्वं नास्ति पुनर्जन्महेतु:, किन्तु तस्य हेतुरस्ति मोहः । ८. एत्थ मोहे पुणो-पुणो । सं० - अत्र मोहः पुनः पुनः । इस भवचक्र में बार-बार मोह उत्पन्न होता है । भाष्यम् अत्र जन्ममरणपत्रे पुनः पुनर्मोह उत्पद्यते । अस्य परम्परा ३८३ सूत्रे द्रष्टव्या । भाष्यम् ९ - परिज्ञा द्विविधा अस्ति ज्ञपरिज्ञाहेयोपादेयज्ञानम् प्रत्याख्यानपरिज्ञा हेयस्य परित्यागः । मोहेन संशयः समुत्पद्यते । पुनर्जन्म विद्यते अथवा न इति उभयांशावलंबः प्रत्ययः संशयः । यस्य पुनर्जन्मनि २४१ वह कामासक्त मनुष्य कुश के अग्रभाग पर टिकी हुई, अस्थिर तथा वायु से प्रकंपित होकर भूमी पर गिरी हुई जल-बिन्दु की भांति जीवन को देखता है, किन्तु वह जन और बुद्धि से मंद व्यक्ति वस्तुतः जीवन की अनित्यता को नहीं जानता। उसका जीवन सफल नहीं होता । १ (क) आचारांग चूर्णि, पृष्ठ १५८ : एवमवधारणे । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १८० : एवमिति यथा । २. आचारांग चूणि, पृष्ठ १५९ : मंदो सरीरे बुद्धीए य वह अज्ञानी जीवन को अनित्य जानता हुआ भी मोह से मूच्छित होने के कारण वस्तुतः उसे नहीं जानता, इसीलिए वह क्रूर कर्म करता है। शेष २०६९ का भाग्य इष्टव्य है । ६. संसयं परिजाणतो, संसारे परिण्णाते भवति, संसयं अपरिजाणतो, संसारे अपरिण्णाते भवति । सं० - संशयं परिजानतः संसारः परिज्ञातो भवति संशयं अपरिजानतः संसारः अपरिज्ञातो भवति । जो संशय को जानता है, वह संसार को जान लेता है-ज्ञेय का ज्ञान और हेय का परित्याग कर देता है। जो संशय को नहीं जानता, वह संसार को नहीं जान पाता । पहले ३।१४ सूत्र में कहा है— मायी और प्रमादी व्यक्ति बार-बार जन्म लेता है। यहां कहा है-मोह से मूढ मनुष्य बार-बार जन्म-मरण को प्राप्त होता है। आत्मा का अस्तित्व जन्म-मरण का हेतु नहीं है। जन्म मरण का हेतु है— मोह । इस जन्म मरण के चक्र में बार-बार मोह उत्पन्न होता है । मोह की परम्परा के लिए द्रष्टव्य है– ३१८३ का सूत्र । परिज्ञा दो प्रकार की है— १. ज्ञपरिज्ञा हेय और उपादेय का ज्ञान । २. प्रत्याख्यानपरिज्ञा हेय का परित्याग । मोह से संशय पैदा होता है । पुनर्जन्म है अथवा नहीं—इस एक्क्को उपचपे अवचपे प इह तु भावमंदोऽवषये द्रष्टव्यः । Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ आचारांगभाष्यम् संशयो नास्ति स संसारम् -जन्ममरणचक्रं हेयबुद्धया प्रकार दोनों अंशों का अवलंबन लेने वाला प्रत्यय संशय है। जिस परित्यक्तुमर्हति, येन येन कारणेन संसारो वर्धते तस्य पुरुष के मन में पुनर्जन्म के विषय में संशय नहीं होता, वह संसार को तस्य परित्यागं कर्तुमर्हति । यस्य पुनर्जन्मनि संशयो हेय समझ कर उसे छोड़ने में समर्थ होता है। संसार का अर्थ हैविद्यते तस्य संसार: अपरिज्ञातो भवति । न तादृशस्य जन्म-मरण का चक्र । जिस जिस कारण से संसार बढ़ता है, उससंसारपरित्यागाय आत्मस्वरूपोपलब्धये वा मतिरपि उस का वह परित्याग कर सकता है। जिसके मन में पुनर्जन्म के प्रति प्रवर्तते । संशय है, उसके लिए संसार अपरिज्ञात होता है, वह संसार को हेय समझ कर छोड़ नहीं सकता। वैसे व्यक्ति में संसार को छोड़ने अथवा आत्मस्वरूप की उपलब्धि करने की बुद्धि भी नहीं जागती। १०. जे छेए से सागारियं ण सेवए। सं०-यः छेकः स सागारिकं न सेवते । जो इन्द्रियजयी है, वह मैथुन का सेवन नहीं करता। भाष्यम् १०-संसारस्य हेतुरस्ति आश्रवः। तस्य संसार का हेतु है-आश्रव । उसका मुख्य कारण है-राग। मुख्य कारणमस्ति रागः। मैथुनं च भवति रागात्मकं, मैथुन रागात्मक होता है, इसलिए कहा है-जो छेक-इन्द्रियजयी है तेन निर्दिष्टं यश्छेक: स सागारिकं न सेवते । प्राय: वह मैथुन का सेवन नहीं करता। प्रायः काम-सेवन के लिए मनुष्य तन्निमित्तं हिंसाऽसत्यस्तेयपरिग्रहाद्याश्रवेषु मनुष्यः हिंसा, असत्य, स्तेय, परिग्रह आदि आश्रवों में प्रवृत्त होता है । चूणि प्रवर्तते । चणों छेकः-अनुपहतः, नास्ति तस्य किञ्चिद् में छेक का अर्थ है-अनुपहत, इन्द्रियजयी, जिसका कोई अपवाद वचनोयम् । वृत्तौ छेकः-निपुण उपलब्धपुण्यपापः। नहीं है। वृत्ति में छेक का अर्थ है-निपुण, पुण्य-पाप को जानने वाला। सागारिकम्---मैथनम् । सागारिक का अर्थ है - मैथुन । ११. कटु एवं अविजाणओ, बितिया मंदस्स बालया। सं.--कृत्वा एवं अविजानतः द्वितीया मन्दस्य बालता। जो मथुन का सेवन कर लेता है और पूछने पर 'मैं नहीं जानता' यह कह कर उसे अस्वीकार कर देता है, यह उस मन्दमति की दोहरी मूर्खता है। भाष्यम् ११-कश्चित् पुरुषः रहसि मैथुनप्रसंगं कृत्वा कोई मनुष्य एकांत में मैथुन का सेवन करता है। दूसरे के परेण पृष्टः सन् न जानामोति ब्रूते, तस्य अपलापं कुरुते। पूछने पर कहता है - मैं नहीं जानता। उसका अपलाप करता है। इस एवमविजानतस्तस्य मन्दस्य एषा द्वितीया बालता प्रकार अस्वीकार करने वाले उस मंदमति की यह दोहरी मूर्खता है। १. संशय दर्शन का मूल है-यही तथ्य प्रस्तुत सूत्र में उसके प्रति मन में संशय नहीं होता, वह सुखद है या प्रतिपादित है। जिसके मन में संशय नहीं होता, जिज्ञासा दुःखब है-ऐसा विकल्प उत्पन्न नहीं होता, तब तक वह नहीं होती, वह सत्य को प्राप्त नहीं कर सकता। भगवान् चलता रहेगा । उसके प्रति संशय उत्पन्न होना ही उसकी महावीर के ज्येष्ठ शिष्य गौतम के मन में जब-जब संशय जड़ में प्रहार करना है। होता, तब वे भगवान् के पास जाकर उसका समाधान २. आचारांग चूणि, पृष्ठ १६० : छेओ अणुवहओ, पत्थि से लेते। किंचि वयणिज्ज। _'संशयात्मा विनश्यति'-संशयालु नष्ट होता है। इस. ३. आचारांग वृत्ति, पत्र १८१ । पद में 'संशय का अर्थ सन्देह है। प्रस्तुत आगम के ५२९३ ४. आचारांग चूणि, पृष्ठ १६० : अगारेहिं सह भवतीति सूत्र में कहा है कि सन्देहशील मनुष्य समाधि को प्राप्त सागारियं-मेहुणं । इदं देशीपदं प्रतीयते सामयिकी संज्ञा नहीं होता। वा। __'न संशयमनारुह्य नरो भद्राणि पश्यति'-संशय का ५. चूणिकृता 'अवजानतः' इति पाठो मूले व्याख्यातः-अव सहारा लिए बिना मनुष्य कल्याण को नहीं देखता। इस परिवर्जने, अबयाणति, जं भणितं-हवति, तं कहं तुम अर्धश्लोक में प्रस्तुत सूत्र ही प्रतिध्वनि है। एवं करेसित्ति चोदितो परेणं ण अहं एवं करोमि अवयाणति संसार का अर्थ है-जन्म-मरण की परंपरा । जब तक अवयाणंति वा बुच्चति । (पृष्ठ १६१) Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ५. लोकसार, उ० १. सूत्र १०-१४ २४३ भवति । प्रथमा चतुर्थमहाव्रतस्य भङ्गः कृतः, द्वितीया पहली मूर्खता है-चौथे महाव्रत का भंग करना और दूसरी मूर्खता च सत्यमहाव्रतस्य भङ्गः कृतः । है-सत्य महाव्रत का भंग करना। १२. लद्धा हरत्था पडिलेहाए आगमित्ता आणविज्जा अणासेवणयाए-त्ति बेमि। सं० लब्धान् 'हुरत्था' प्रतिलिख्य आगम्य आज्ञापयेत् अनासेवनाय-इति ब्रवीमि । प्राप्त काम-भोग 'बाह्य' हैं, यह पर्यालोचनापूर्वक जान कर उनके अनासेवन की आज्ञा दे-ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् १२-संयतपुरुषेण न केवलं अलब्धाः भोगा संयमी पुरुष के लिए केवल अप्राप्त भोग ही अनासेवनीय नहीं अनासेवनीयाः, किन्तु ये लब्धाः सन्ति तेऽपि न हैं, किन्तु जो प्राप्त हैं, वे भी अनासेवनीय हैं। ये कामभोग धर्म के सेवनीयाः। एते हुरत्था'-धर्मस्य बहिर्वर्तन्ते' इति बाहिर हैं, ऐसा पर्यालोचनापूर्वक जानकर उनके अनासेवन के लिए प्रतिलिख्य-पर्यालोच्य, आगम्य ज्ञात्वा च तेषां आज्ञा दे-भोगे हुए उन काम-भोगों का परिणाम सुन्दर नहीं होता-- अनासेवनाय आज्ञापयेत्-तेषां भुक्तभोगानां परिणामः इस प्रकार शिष्यों को प्रतिबोध दे, ऐसा मैं कहता हूं। सुन्दरो न भवतीति शिष्यान् प्रतिबोधयेत्-इति ब्रवीमि । १३. पासह एगे रूवेसु गिद्धे परिणिज्जमाणे । सं०-पश्यत एकान रूपेषु गृद्धान् परिणीयमानान् । तुम देखो ! जो मनुष्य शरीर में आसक्त हैं, वे विषयों से खिचे जा रहे हैं। भाष्यम् १३–यूयं पश्यत, एके केचिज्जनाः रूपेषु'- तुम देखो, कुछेक मनुष्य रूपों-पदार्थों अथवा शरीरों में पदार्थेषु शरीरेषु वा गुद्धा:-मूच्छिताः सन्ति परिणीय- मूच्छित हैं। वे राग-द्वेष से बद्ध होकर विषयों के प्रति खिचे जा रहे मानाः-रागद्वेषाभ्यां बद्धाः, तत्रैव तत्रैव परिणीयमानाः हैं अथवा वे विषयों के प्रवाह में बहे जा रहे हैं अथवा वे इन्द्रियों अथवा विषयस्रोतसि उह्यमानाः अथवा इन्द्रियैः के द्वारा विषयों की ओर उन्मुख किए जा रहे हैं। विषयाभिमुखं परिणीयमानाः सन्ति । १४. एत्थ फासे पुणो-पुणो। सं०-अत्र स्पर्शः पुनः पुनः । इसमें वे बार-बार दुःख को प्राप्त होते हैं। भाष्यम् १४-अस्मिन्नासक्तिचक्रे पुनः पुनः स्पर्श:कष्टं भवति। आसक्तो मनुष्यः० पदार्थसंग्रहं प्रति चेष्टते । ० तस्य रक्षण नियोगे च चिन्तां वितनोति । इस आसक्ति के चक्र में बार-बार कष्ट होता है । आसक्त मनुष्य • पदार्थ-संग्रह के प्रति सचेष्ट रहता है। • पदार्थ के संरक्षण और उपयोग की चिन्ता करता रहता ० व्यये वियोगे च दुःखमनुभवति । ० उसके व्यय और वियोग में दुःख का अनुभव करता है। १. आचारांग चूणि, पृष्ठ १६१: हरत्था णाम देसीभासातो बहिद्धा। २. वही, पृष्ठ १६१ : धम्मस्स, णवि तं आसेवंतस्स धम्मो भवति, तेण एते धम्मोवरोधगत्तिकाउं साहू चरित्तातो चित्तातो वा बाहिं कुज्जा। ३. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ १६१ : रूवग्गहणा सेसिदिय गाण गहणं, रूव तत्थ पहाणं हारितं च तेण तम्गहणं, अहवा रूव इति सम्वविसयाणं मुत्तिमत्तं अक्खातं भवति। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १८२ : 'रूपेषु' रूपाविषु इन्द्रियविषयेषु । (ग) चूी वृत्तौ च रूपशवेन इन्द्रियविषयग्रहणं कृतम् । किन्तु सर्वत्र अस्य प्रयोगः इन्द्रियविषयेषु नैव दृश्यते । द्रष्टव्यम्-३३५७; ५।२९ । Jain Education international Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ आचारांगभाष्यम् ० तस्य भोगे अतृप्तिजनितां वेदनां आप्नोति । • पदार्थ के भोग से अतृप्ति की वेदना को प्राप्त होता है। ० अतुष्टिदोषेण दुःखी सन् लोभाविलो भूत्वा परस्य • वह अतृप्ति के दोष से दुःखी होकर लोभ से आकुल हो अदत्तं आदत्ते। जाता है और तब दूसरे के पदार्थों की चोरी करता है । एवं दुःखस्य चक्रं न क्वापि विरामं गच्छति। इस प्रकार दुःख का चक्र कहीं भी विराम नहीं लेता। १५. आवंती केआवंती लोयंसि आरंभजीवी, एएसु चेव आरंभजीवो। सं.--यावन्तः केचन लोके आरंभजीविनः, एतेषु चैव आरंभजीविनः । इस जगत् में जितने मनुष्य आरंमजीवी हैं, वे इन विषयों में आसक्त होने के कारण ही आरंमजीवी हैं। भाष्यम् १५–अस्ति मनुष्येषु कामः । कामपूर्तेः मनुष्यों में 'काम' है। कामपूर्ति का साधन हैं अर्थ । अर्थ साधनं अर्थः। तदर्थं मनुष्यः आरंभे प्रवर्तते, अत के लिए मनुष्य आरंभ में प्रवृत्त होता है। इसीलिए कहा हैउक्तम्-यावन्तः कियन्तः लोके आरंभजीविनः सन्ति ते इस जगत् में जितने मनुष्य हिंसाजीवी हैं, वे इन्हीं विषयों में आसक्त एतेषु विषयेषु आसक्ति आसाद्यैव आरंभजीविनो होकर ही हिंसाजीवी होते हैं । आरंभजीवी व्यक्तियों की दो श्रेणियां वर्तन्ते । आरंभजीविनां कोटिद्वयं विद्यते। केचिद् भवन्ति होती हैं । कुछ व्यक्ति अल्प इच्छावाले होते हैं और कुछ व्यक्ति महान् अल्पेच्छाः केचिच्च महेच्छाः। अल्पेच्छाः मनुष्याः इच्छावाले । अल्प इच्छावाले मनुष्य आवश्यकतापूर्ति मात्र के लिए आवश्यकतापूर्तिमात्रे आरम्भे प्रवर्तन्ते । महेच्छानां यथा आरंभ में प्रवृत्त होते हैं। महान् इच्छावाले मनुष्यों के जैसे-जैसे लाभ लाभः तथा लोभः प्रवर्धते । ते न क्वापि विश्राम्यन्ति। होता है, वैसे-वैसे लोभ बढता है । वे कहीं भी विश्राम नहीं लेते । एक एका तृतीया कोटि: विद्यते इच्छाविरहितानाम्। ते तीसरी श्रेणी है । इस श्रेणी में वे मनुष्य आते हैं जो इच्छाओं से रहित विषयेषु आसक्तिमपहाय जीवनयात्रायां प्रवर्तन्ते, अतस्ते हैं। वे विषयों में होनेवाली आसक्ति को छोड़कर जीवनयात्रा के नारंभजी विनो भवन्ति । निर्वाह में प्रवृत्त होते हैं, इसलिए वे आरंभजीवी नहीं होते। आरंभः -प्रवृत्तिः जीवोपमर्दो वा। आरंम का अर्थ है-प्रवृत्त अथवा हिंसा । १६. एत्थ वि बाले परिपच्चमाणे रमति पाहिं कम्महिं, असरणे सरणं ति मण्णमाणे। सं०-अत्रापि बालः परिपच्यमानो रमते पापेषु कर्मसु, अशरणान् शरणं इति मन्यमानः । अज्ञानी साधक संयम जीवन में भी विषयाकांक्षा से छटपटाता हुआ अशरण को शरण मानता हुआ पापकर्मों में रमण करता है। भाष्यम् १६-अज्ञानी पुरुषः अत्र संयमेऽपि विषया- अज्ञानी पुरुष संयम जीवन में भी विषयों की आकांक्षा से कांक्षया परिपच्यमानः पापेषु कर्मसु रमते। अनित्या छटपटाता हुआ पापकर्मों में रमण करता है। संसार के सारे पदार्थ अमी पदार्थाः । नेते शरणं भवन्ति । तथापि मूछौं अनित्य हैं । वे शरण नहीं दे सकते। फिर भी मनुष्य मूर्छा के प्राप्तः पुरुषः तान् शरणं मन्यमानः पापेषु कर्मसु रमते। कारण उन पदार्थों को शरण मानता हुआ पापकर्मों में रमण करता १७. इहमेगेसि एगचरिया भवति–से बहुकोहे बहुमाणे बहुमाए बहुलोहे बहुरए बहुनडे बहुसढे बहुसंकप्पे, आसवसक्को पलिउच्छन्ने, उट्ठियवायं पवयमाणे मा मे केइ अदक्खू अण्णाण-पमाय-दोसेणं, सययं मूढे धम्म णाभिजाणइ। सं०-इहैकेषां एकचर्या भवनि-स बहुक्रोधः, बहुमानः बहुमायः, बहुलोभः, बहुरतः, बहुनटः, बहुशठः, बहुसंकल्पः, आश्रवसक्ती, पलितावच्छन्नः उत्थितवादं प्रवदन् मा मां केचित् अद्राक्षुः अज्ञानप्रमाददोषेण सततं मूढः धर्म नाभिजानाति । कुछ साधु अकेले रह कर साधना करते हैं। किन्तु कोई भी एकचारी साधु जो अति क्रोधी, अति मानी, अति मायी, अति लोभी, अति आसक्त, नट की भांति बहुत रूप बदलने वाला, नाना प्रकार की शठता और संकल्प करने वाला, आस्रवों में मासक्त और कर्म से आच्छन्न होता है 'मैं (धर्म करने के लिए) उद्यत हुआ हूं', ऐसी घोषणा करने वाला कोई देख न ले', (इस आशंका से छिप कर अनावरण करता है) वह अज्ञान और प्रमाद के दोष से सतत मूढ बना हुआ एकचारी होकर भी धर्म को नहीं जानता। भाष्यम् १७-इह एकेषां एकचर्या भवति । एकल- कुछ साधु एकचारी होते हैं, अकेले रह कर साधना करते हैं। विहारो नास्ति सर्वथा असम्मत:, किन्तु तादृशस्य नास्ति एकलविहार सर्वथा असम्मत नहीं है, किन्तु वैसे व्यक्ति के लिए वह Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ५. लोकसार, उ०१-२. सूत्र १५-१६ २४५ सम्मतोऽपि यस्य क्रोधमानमायालोभात्मकस्य कषायस्य सम्मत भी नहीं है जिसमें क्रोध, मान, माया और लोभ रूपी कषाय प्रबलता भवति, यश्च कामभोगान् प्रति आसक्तो भवति, की प्रबलता होती है, जो कामभोगों के प्रति आसक्त होता है, जो नट यश्च नटवन्नटति-बहुविधान् अभिनयान् करोति, बहु- की भांति नाना प्रकार के अभिनय करता है-रूप बदलता है, नाना विधानि शठाचरणानि करोति, बहुविधान् संकल्पान् प्रकार की शठता का आचरण करता है, बहुविध संकल्प करता हैकरोति-आहारादीन् पदार्थान प्रार्थयति, आस्रवे वा आहार आदि पदार्थों की आकांक्षा करता है, आस्रव में आसक्त होता आसक्तो भवति, पलितैः-कर्मभिरवच्छन्नः अहमुत्थि- है, कर्मों से आच्छन्न होता है, 'मैं प्रवजित हूं' ऐसा कहता हुआ तोऽस्मि-प्रव्रजितोऽस्मि इति वादं प्रवदन् प्रतिषिद्धमा- प्रतिषिद्ध आचरण करता है, किन्तु वैसा आचरण करते हुए मुझे कोई चरणं करोति, किन्तु तादशमाचरणं कुर्वाणं मां कश्चिन्न देख न ले इस आशंका से सतत उद्विग्न रहता है। इस प्रकार अज्ञान पश्येदिति सततमुद्विग्नो भवति । एवं अज्ञानप्रमाददोषेन और प्रमाद के दोष से सतत मूढ बना हुआ वह कर्मक्षय के हेतुभूत सततं मूढः कर्मक्षयकारणं श्रुतधर्म चारित्रधर्म च नाभि- श्रुतधर्म और चारित्रधर्म को नहीं जानता। जानाति। १८. अट्टा पया माणव! कम्मकोविया जे अणुवरया, अविज्जाए पलिमोक्खमाहु, आवटें अणुपरियति ।-त्ति बेमि । सं०-आर्ताः प्रजाः मानव ! कर्मकोविदाः ये अनुपरताः अविद्यया परिमोक्षमाहुः आवर्त अनुपरिवर्तन्ते। -इति ब्रवीमि । हे मानव ! जो लोग (विषयों से) पोडित हैं, प्रवत्ति-कुशल हैं, आस्रवों से विरत नहीं हैं और जो अविद्या से मोक्ष होना बतलाते हैं, वे संसार के भंवर-जाल में चक्कर लगाते रहते हैं। -ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् १५-दरिद्रतया बाधित: मानसिकसंताप- जो मनुष्य दरिद्रता से बाधित, मानसिक संताप से संतप्त और संतप्तः विषयकषायैः पीडितश्च मनुष्यः आर्त इत्युच्यते। विषय तथा कषायों से पीड़ित है, वह आर्त कहलाता है । हे मनुष्य ! हे मनुष्य ! एषा प्रजा आर्ता-विषयकषायः पीडिता यह प्रजा आत-विषय तथा कषायों से पीड़ित है । वह अत्ति को दूर विद्यते। सा अर्तेरपनयनाय नानाविधेषु कर्मसु प्रवर्तते, करने के लिए अनेक प्रकार की प्रवृत्तियां करती है। फलस्वरूप वह फलतः कर्मसु कुशला' भवति। अतरपनयनस्य कर्म--प्रवृत्ति में कुशल हो जाती है । अत्ति को दूर करने के दो उपाय उपायोऽस्ति विषयकषायेभ्यः उपरति : विद्या च। ये हैं-विषय और कषायों से उपरति और विद्या । जो व्यक्ति तत्त्व को तत्त्वं अजानानाः, आस्रवेभ्यः अनुपरताः, अविद्यया परि- नहीं जानते, जो आस्रवों से अनुपरत हैं, अविद्या से मोक्ष होना बतलाते मोक्ष वदन्ति ते भवावर्त अनुपरिवर्तन्ते । -इति ब्रवीमि । हैं, वे जन्म-मरण के आवर्त में घूमते रहते हैं। ऐसा मैं कहता हूं। बीओ उद्देसो : दूसरा उद्देशक १९. आवंती केआवंती लोयंसि अणारंभजीवी, एतेसु चेव मणारंभजीवी। सं०-यावन्तः केचन लोके अनारंभजीविनः एतेषु चैव अनारम्भजीविनः । इस जगत् में जितने मनुष्य अनारंमजीवी हैं, वे इन विषयों में अनासक्त होने के कारण ही अनारंभजीबी हैं। भाष्यम् १९-अत्र अनारंभपदेन संयमः अप्रमादो प्रस्तुत आलापक में 'अनारंभ' पद से संयम अथवा अप्रमाद वा विवक्षितोऽस्ति। यः इन्द्रियविषयकषायेषु प्रवृत्ति विवक्षित है । जो इन्द्रिय-विषयों तथा कषायों में प्रवृत्त नहीं होता, न करोति स अनारम्भजीवी भवति । अस्मिन लोके वह अनारंभजीवी- अहिंसाजीवी होता है, संयमी होता है। इस जगत् १. आचारांग चूणि, पृष्ठ १६५ : 'कम्मअकोविता' कहं कम्म एकत्ता पलिमोक्खो भवति, आहु-भणंति, मंतेहि बज्झति मुच्चति वा? विसणिग्घातविठंता विज्जाये पलिमोक्खं इच्छंति, जहा २. अत्र चूर्णिकारसम्मतः विज्जाए' इति पाठः अधिक संखाति, तं कि सच्चं ? ण सच्चं । ध्यानमाकर्षति–'विज्जा पलिमोक्खमाहु' परि समंता लयो (आचारांग चूणि, पृष्ठ १६५) Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ 1 यावन्त: केचन अनारम्भजीविनः सन्ति ते इन्द्रियविषय कपायेषु अप्रवर्तमानत्वादेव अनारम्भजोविनः सन्ति । २०. एस्थोवरए तं भोसमाने अयं संघो ति अवलु । मत्रोपरतः तं जोषयन् 'अयं संधि:' इति मद्रासीत् । सं० जो आरंभ से उपरत है, उसने अनारंभ की साधना करते हुए 'यह संधि है' ऐसा देखा है। भाष्यम् २० - अत्र अनारम्भजीवने य आरम्भादअसंयमात् प्रमादाद् वा उपरतो भवति, तमिति अनारम्भं जोषयन् 'अन्वेषयन् आसेवमानो वा अयं सन्धिरिति अद्राक्षीत् । अत्र सन्धिपदस्य द्वावच प्रासङ्गिकौ स्तः (१) अतीन्द्रियचैतन्योदयहेतुभूतं कर्मविवरम् । (२) अप्रमादाध्यवसायसन्धानभूतं शरीरवर्तिकरण चैतन्यकेन्द्र चक्रमिति यावत् । प्राचीनग्रन्थेषु सन्धि विवर- रन्ध्र-चक्र-कमल-करणादीनां समानार्थक प्रयोगो दृश्यते सन्धिः सुषुम्णा' । । सन्धिः - विवरम्' | सुषुम्णायाः कृते यथा सन्धिपदं व्यवहुतं तथा विचरपदमपि व्यवहृतमस्ति । विवर रन्ध्र-कमलानां समानार्थकता शिवसंहितायामित्यं दृश्यते तस्य मध्ये सुषुम्णाया मूलं सविवरं स्थितम् । बान्ध तदेवोक्तमामूलाधारजम् ।। - रश्मीनां कर्म विवरादेव अतीन्द्रियज्ञानस्य विनिर्गमो भवति नन्दीयमिदमुल्लिखितमस्ति । 'जहा जलतं वर्णतं पव्वर्ततं अविसिद्धो अंतसो | १. (क) आचारांग चूर्णि, पृष्ठ १६५ : अणारंभी नाम संजमो, अभारंभजीवणसीला, एते चैव छक्काए आरंमेण ण जीवति महवा इंदियविसयकसाए आरंभजीवी, तव्विवरीयजीवणसीला अणारंभजीवी, जं मणितं संजता । (ख) आचारांग वृत्ति पत्र १८५: आरम्भः - सावधानुष्ठानं प्रमत्तयोगो वा, उक्तं च 'आदाणे विक्वे भारसमो अडानयमणाई सव्वो पमत्तजोगो समणस्सऽवि होइ आरंभो ॥' तद्विपर्ययेण त्वनारम्भस्तेन जीवितुं शीलं येषां इत्यनारम्भजीविनो यतयः समस्तारम्भनिवृत्ताः ।' 2. n, ga (stafa, ataufe-)-To Investigate, examine; जुष् (जुषते ) = to devote or attach oneself to. आचारांगभाव्यम् में जो कोई अनारंभजीबी हैं, वे अनारंभजीवी इसीलिए है कि वे इन्द्रिय-विषयों तथा कषायों में प्रवृत्त नहीं होते । अनारंभ जीवन जीने वाला व्यक्ति आरंभ - असंयम अथवा प्रमाद से उपरत रहता है। अनारंभ की खोज या साधना करते हुए उसने 'यह संधि है' ऐसा देखा है। 'संधि' के दो अर्थ है (१) अतीन्द्रिय चेतना के उदय में हेतुभूत कर्म-विवर । (२) अप्रमाद के अध्यवसाय को जोड़ने वाला शरीरवर्ती साधन जिसे चैतन्यकेन्द्र या चक्र कहा जाता है । प्राचीन ग्रन्थों में संधि, विवर, रन्ध्र, चक्र, कमल, करण आदि शब्दों का प्रयोग समान अर्थ में देखा जाता है संधि अर्थात् सुषुम्ना संधि अर्थात् विवर सुषुम्ना के लिए जैसे 'संधि' पद व्यवहुत । हुआ है वैसे ही 'विवर' पद भी व्यवहृत हुआ है। और कमल इन शब्दों की शिवसंहिता में विचर एकार्यकता प्रतिपादित है (सहस्रार पद्म के कन्द में जो योनि है) उसके मध्य में सुषुम्ना का विवर सहित मूल स्थित है। उसे ही ब्रह्मरन्ध कहा गया गया है और वही मूलाधार कमल कहलाता है । कर्म-विवर (चैतन्यकेन्द्र) से ही अतीन्द्रिय ज्ञान की रश्मियां बाहर निकलती है। नदी भूमि में ऐसा उल्लेख है जैसे जल का चूर्णि - अन्त जलांत, वन का अन्त वनांत और पर्वत का अन्त पर्वतान्त होता ३. शिवस्वरोदय, १३६,१३८ : (क) अनादिविषमः सन्धिनिराहारो निराकुलः । परेलीपेत हा संध्या सषिच्यते । न सन्ध्या सन्धिरित्याहुः सन्ध्या सन्धिनिगद्यते । विषमः सन्धिगः प्राणः स सन्धिः सन्धिरुच्यते ॥ (ख) शिवसंहिता, ५७७: सुप्ता नागोपमा ह्येषा, स्फुरन्ती प्रभया स्वया । अहिवत् संधिसंस्थाना, वाग्देवी बीजसंज्ञिका । ४. (क) आचारांग चूर्णि, पृष्ठ १६५: भावसंधी कम्मविवरं 1 *********** (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १८५ : "सम्यक्त्वावाप्तिहेतुभूतविवरलक्षणः सन्धिः। ५. शिवसंहिता, २००६ संवेष्ट्य सकला नाही साहिति मुखे निवेश्य सा पुच्छं, सुषुम्णाविवरे स्थिता । ६. शिवसंहिता ५।१५३ । Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०५. लोकसार, उ० २. सूत्र २० । २४७ एवं ओरालियसरीरंते ठितं गतं ति एगळं, तं च है-इनमें अन्त शब्द विशेष अर्थ में प्रयुक्त नहीं है। इसी प्रकार आतप्पदेसफड्डगावहि, एगदिसोवलंभाओ य अंतगत- औदारिक शरीर के अंत में स्थित 'अन्तगत' कहलाता है । स्थित और मोधिण्णाणं भण्णति । अहवा सव्वातप्पदेसविसुद्धेसु वि गत- दोनों एकार्थवाची हैं। शरीर के अन्तर्वर्ती आत्मप्रदेशगत ओरालियसरीरेगतेण एगदिसिपासणगतं ति अंतगतं स्पर्धकों की विशुद्धि किसी एक दिशा में उपलब्ध होती है, इसलिए भण्णति।" उस विशुद्धि से होने वाला अवधिज्ञान अन्तगत कहलाता है। अथवा सर्व आत्मप्रदेशों की विशुद्धि होने पर भी औदारिक शरीर के एक अन्त (छोर) द्वारा एक दिशा में बोध करने वाला अवधिज्ञान अन्तगत कहलाता है। एतत्संवादी सिद्धान्तोऽन्यत्रापि लभ्यते । इसका संवादी सिद्धांत अन्यान्य ग्रंथों में भी मिलता है। अवधिज्ञानप्रसंगे करणपदस्यार्थो भवति शरीरा- अवधिज्ञान के प्रसंग में 'करण' शब्द का अर्थ है-शरीर का वयवः शरीरैकदेशो वा, यस्माद् अवधिज्ञानी विषयं अवयव, शरीर का एक भाग, जिसके माध्यम से अवधिज्ञानी पुरुष जानाति ।' करणानि नानाकाराणि भवन्ति ।' विषय का अवबोध करता है । 'करण' अनेक आकार वाले होते हैं। सुश्रतसंहितायां दशोत्तरे संधिशते सप्तोत्तरं सुश्रतसंहिता में २१० संधियां और १०७ मर्म-स्थानों का उल्लेख मर्मशतमिति उपलभ्यते। अस्थिपेशीस्नायूनां संयोग- प्राप्त है। अस्थि, पेशी और स्नायुओं का संयोगस्थल 'संधि' कहलाता स्थलं सन्धिः । एतेऽष्टविधाः सन्ति । मर्मस्थानेषु है। ये आठ प्रकार के हैं । मर्म-स्थानों में प्राण की बहुलना होती है । प्राणस्य बाहुल्यमस्ति । मल्लिषेणस्य मतमिदम्- आचार्य मल्लिषेण का अभिमत है—शरीर के वे अवयव जहां आत्मबहभिरात्मप्रदेशैरधिष्ठिता देहावयवाः मर्माणि ।' यानि प्रदेशों की बहलता होती है, मर्म-स्थान कहलाते हैं। जो चतन्यचैतन्यकेन्द्राणि तानि मर्मस्थानवर्तीन्येव । प्राणचैतन्य- केन्द्र हैं वे इन्हीं मर्म-स्थानों के भीतर हैं। हठयोग में भी प्राण १. (क) नन्दी चूणि, पृष्ठ १६ । ६. (क) सुश्रुतसंहिता, शारीरस्थानम्, ५।२४ : अत्रिदेवकृत (ख) वही, पृष्ठ १५ : सोय खयोवसमो गुणमंतरेण अनुवाद, पं० श्री लालचन्द्र वैद्यकृत विशेष मन्तव्य गुणपडिवत्तितो वा भवति । गुणमंतरेण जहा पृष्ठ ३२० : 'अस्थियों के संयोग-स्थल का नाम गगणमच्छादिते अहापवत्तितो छिदेणं दिणकर 'सन्धि' है। यद्यपि वे परस्पर सर्वथा मिली या जुड़ी किरण व विणिस्सिता दण्वमुज्जोवंति तहाऽवधि नहीं होती, उनके मध्य में श्लेषण नामक कफ आवरणखयोवसमे अवधिलंभो अधापत्तितो विद्यमान रहता है । .........."सन्धि को सन्धान एवं विष्णेतो। श्लेष भी कहते हैं। २. (क) शिवसंहिता, २६० : (ख) सुश्रुतसंहिता, शारीरस्थानम्, ५२८: शिरः कपाले रुद्राक्षविवरं चिन्तयेद् यदा। अस्थनां तु सन्धयो ह्य ते केवलाः परिकीत्तिताः । तदा ज्योति प्रकाशः स्याद् विद्युत्पुञ्जसमप्रभः॥ पेशीस्नायुसिराणां तु सन्धिसंख्या न विद्यते ॥ (ख) विज्ञानानुसारेणापि पीयूषप्रन्थिः (पिच्यूटरी) विवरे ७. सुश्रुतसंहिता, शारीरस्थानम्, ५२२७ : त एते सन्धयोऽष्टस्थित इति सम्मतम् । विधा:-कोर-उदूखल-सामुद्ग-प्रतर - तुन्नसेवनी-वायस३. धवला, पुस्तक संख्या-१३, खण्ड सं. ५, भाग ५, सूत्र तुण्ड-मण्डल-शङ्खावर्ताः। ५६ पृ० २९६ : ओहिणाणं अणेयखेत्तं चेव, सव्वजीवपदेसेसु एतैः सह करणसंस्थानानि तुलनीयानि । अक्कमेण खओवसमं गदेसु सरीरेगदेसेणेव बज्झट्टावगमाण ८. वही, शारीरस्थानम्, ६।१६ । ववत्तीदो। ण, अण्णस्थ करणाभावेण करणसरूवेण परिणद- ९. स्याद्वादमंजरी, पृष्ठ ७७ । सरीरेगदेसेण तदवगमस्स विरहाभावादो। १०. (क) सुश्रुतसंहिता, शारीरस्थानम्, ६।३-४ : तानि मर्माणि ४. षट्खण्डागम, पुस्तक १३, खण्ड सं० ५, भाग ५, सूत्र ५७, पञ्चात्मकानि भवन्ति, तद्यथा-मांसमर्माणि, ५८, पृ० २९६ : खेत्तदो ताव अणेयसंठाणसंठिदा ॥५७।। सिरामर्माणि, स्नायुमर्माणि, अस्थिमर्माणि, सन्धिसिरिवच्छ-कलस-संख-सोत्थिय-गंदावत्तादीणि संठाणाणि मर्माणि चेति। .........." तत्रैकादश मांसमर्माणि, णादव्वाणि भवंति ॥५८।। एकचत्वारिंशत् सिरामर्माणि, सप्तविंशतिः स्नायु५. सुश्रुतसंहिता, शारीरस्थानम्. ५।२६, ६।३१ । मर्माणि, अष्टावस्थिमर्माणि, विशतिः सन्धिमर्माणि चेति । तदेतत् सप्तोत्तरं मर्मशतम् । Jain Education international Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ आचारांग भाष्यम् प्रदेशानां संहतिस्थानानि हठयोगादावपि ध्यानाधार और चैतन्य प्रदेशों की सघनता के स्थल ध्यान के आधार रूप में रूपेण सन्ति सम्मतानि ।' मत हैं। २१. जे इमस्स विग्गहस्स अयं खणे त्ति मन्नेसी । सं० यः अस्य विग्रहस्य अयं क्षणः इति अन्वेषी । 'इस शरीर का यह वर्तमान क्षण है', इस प्रकार अन्वेषण करने वाला अप्रमत्त होता है। भाष्यम् २१ – इदमस्ति ध्यानसूत्रम् । यः अस्य शरीरस्य अयं क्षणः इति अन्वेषयति- प्रतिक्षणं जायमानं सुखदुः‍ दुःखादिसंवेदनं प्रति जागति, स संयतो वा अप्रमत्तो (ख) संहिता, शारीरस्थानम् ६ तान्येतानि पञ्चविकल्पानि भवन्ति तद्यथा सद्यःप्रामाणि कालान्तरप्राणहराणि विशयनानि वैकल्यराणि, रुजाकराणि चेति । (ग) वही शारीरस्थानम् ६०९ . गान्यधिपतिः शंख कंठसिरा गुदम् । हृदयं वस्तिनाभीच घ्नन्ति यो तानि तु ॥ (घ) बहो, शारीरस्थानम्, ६.१५ वर्माणि नाम मांसशिस्नाव्य स्थिसन्धिसन्निपाताः तेषु स्वभावत एव विशेषेण प्राणास्तिष्ठन्ति तस्मान्मम स्वभिहतास्तांस्तान् भावानापद्यन्ते । अल्पमांस (ङ) नही, शारीरस्थानम् ६२५ तत्र बातययोंनिरसनं स्थूलान्त्रप्रतिबद्धं गुदं नाम मर्म । शोणितोऽभ्यन्तरतः कट्यां मूत्राशयो वस्तिः । पक्वामाशययोमंध्ये सिराप्रभवा नाभिः । स्तनयोः ष्ठावरयामासपारं सत्वरजस्तमसामधिष्ठानं हृदयम् ।" (च) वही शारीरस्थानम् ६२० तत्र कण्ठनाडीतश्चतस्रो धमन्यो द्वे नीले द्वे च मत्ये कर्ण पृष्ठतोऽधः संश्रिते विधुरे" "। घ्राणमार्गमुभयतः स्रोतोमार्ग प्रतिबद्ध अभ्यन्तरतः फणे पुच्छान्तयोरधोऽक्ष्णोः बाह्यतोया...... वोरन्तयोरुपरि कर्णललाटयोमध्ये शङ्ख े, प्राक्षिजिह्वा संतपंथीनां सिराणां मध्ये विशसन्निपात श्रृंगाटकानि तानि चत्वारि मर्माणि..... मस्तकाभ्यन्तरोपरिष्टात् सिरासन्धिसन्निपातो रोमावर्तोऽधिपतिः । पृष्ठ (घ) मुतसंहिता शारीरस्थानम् ६।२७, ३३१, पं० लालचन्द्र वैद्यकृत विशेष मन्तव्यअधिपतिमर्म --- यह शिर के भी सबसे ऊपर शिखर पर का मर्म है । इसका सूचक शिर पर बाहर रोमावर्त्त (भौरी, बालों का आवर्त) होता | प्रस्तुत आलापक ध्यान सूत्र है। जो साधक 'इस शरीर का यह वर्तमान क्षण है' इस प्रकार जो अन्वेषण करता हैप्रतिक्षण शरीर के भीतर होने वाले सुख-दुःख आदि संवेदनों के है। इसमें आने वाली एक शिरा अवष्य मानी गई है । इसके ऊपर की अस्थि में छिद्र रहता है, जो ब्रह्मरन्ध्र कहलाता है। परंतु यह एक वर्ष व्यतीत होने पर बाल्यावस्था में ही पूर्ण हो जाता है । सद्योजात शिशु के शिर पर हाथ रखने से इसमें सिरा (धमनी) का स्पन्दन (धमन) प्रतीत होता है। इसका अर्थ है- 'अधिकृत्य पाति रक्षति इति अधिपतिः ।' इस अवयव को अधिकृत्य करके आत्मा शरीर का रक्षण करता है। यही पुराणों का ब्रह्मलोक, वैष्णव पुराणों का विष्णुलोक या बैकुण्ठ तथा शैवपुराण-प्रत्थोक्त शिवलोक या कैलाश है और गीता का ऊर्ध्वमूल है, अधःशाख शरीर का ऊपर की ओर वर्तमान मूल जड जीवन हेतु है । योगशास्त्र में शिर के पिछले कपाल के अन्दर में स्थित केन्द्र को शिवरन्ध्र माना है। परंतु यह शैवों का विचार है, वे उसी को जीवन का केन्द्र मानते हैं। इन २३ मर्मों से युक्त समस्त शिर को ही ममं समझना चाहिए। शिर का पर्याय उत्तमांग है, उसके लिए भगवान् पुनर्वसु ने लिखा है : प्राणाः प्राणभृतां यत्र, स्थिताः सर्वेन्द्रियाणि च । तदुत्तमगमगाना, शिरस्तदभिधीयते ॥ (ज) चरक ( च० सि. अ. ९१६) में लिखा है - १०७ मर्म होते हैं। उनका पीडन अभिहनन होने से प्राणी को बहुत अधिक पीडा का ( अन्य स्थलों की अपेक्षा अधिक) अनुभव होता है क्योंकि उन मम में प्राणों का विशेष रूप से अनुबन्ध-सम्बन्ध होता है । शाखाश्रित मर्मों की अपेक्षा स्कंध अर्थात् अंतराधि के मर्म विशेष महत्त्व रखते हैं। उनमें भी हृदय पत्ति तथा सिर (वा समेत शिर-२३ ममों का अधिष्ठान) अत्यंत महत्व रखते हैं, क्योंकि समस्त शरीर इन्हीं तीनों के अधीन है । १. याज्ञवल्क्य गीता , Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ५. लोकसार, उ०२. सूत्र २१-२३ २४६ भवितुमर्हति ।' क्षणशब्द: मध्यार्थकोऽपि वर्तते।' यः प्रति जागरूक रहता है, वह संयत अथवा अप्रमत्त हो सकता है। अस्य शरीरस्य 'मध्यं' मध्यवत्ति चैतन्यकेन्द्रं वा पश्यति, 'क्षण' शब्द का अर्थ 'मध्य' भी है। जो इस शरीर के 'मध्य' को स संयतो वा अप्रमत्तो वा भवितुमर्हति । अथवा मध्यवर्ती चैतन्यकेन्द्र को देखता है, वह संयत अथवा अप्रमत्त हो सकता है। २२. एस मग्गे आरिएहिं पवेदिते । सं०--एषः मार्गः आर्यः प्रवेदितः । यह मार्ग तीर्थंकरों ने बताया है। भाष्यम् २२-एष: अप्रमादमार्गः आर्यः प्रवेदितः ।। यह अप्रमाद का मार्ग तीर्थंकरों ने बताया है। २३. उट्टिए णो पमायए। सं०-उत्थितः नो प्रमाद्येत् । पुरुष उत्थित होकर प्रमाद न करे। भाष्यम् २३-अप्रमादस्य साधनायां उत्थितः पुरुषः अप्रमाद की साधना में उत्थित होकर पुरुष प्रमाद न करे । न प्रमाद्येत् । उत्थितोऽपि पुरुषः तदनुरूपपुरुषकारपरा- उत्थित होकर भी पुरुष उसके अनुरूप पुरुषकार और पराक्रम के अभाव क्रमाऽभावे पुनः अनुत्थितो भवति । तेन अत्यन्तं में पुनः अनुत्थित हो जाता है । इसलिए यह उपदेश अत्यंत उपयोगी है । उपयोगी एष उपदेशः । यावद् मोहकर्मणः क्षयोपशमो जब तक मोहकर्म का क्षयोपशम विद्यमान रहता है तब तक अप्रमाद विद्यते तावद् अप्रमादः स्थिति नाप्नोति । तस्य उदय- स्थिरता को प्राप्त नहीं होता। उसके उदय और अनुदय का क्रम विलययोः क्रमः प्रवर्तते । सरितः सलिलतलमवगाहमानः चलता रहता है। नदी के पानी में अवगाहन करने वाला पुरुष जब पुरुषः कराभ्यां जलकुम्भी प्रेरयति तदा भवति आकाश- अपने हाथों से शैवाल को इधर-उधर हटाता रहता है तब उसे आकाश दर्शनम् । विश्रान्तयोः करयोः पुनः जलकुम्भी प्रसृमरा दिखाई देता है। जब वह हाथों को विश्राम देता है तब शैवाल पुनः भवति अवरुद्धं च आकाशदर्शनम् । अनया प्रणाल्या पानी पर छा जाती है और आकाश का दिखना बंद हो जाता है । इसी अप्रमाददशायां मोहकर्मण: क्षयोपशमः सक्रियो भवति, प्रणाली से अप्रमाद दशा में मोहकर्म का क्षयोपशम सक्रिय होता है तब संभवति च आत्मदर्शनम्। प्रमाददशायां तु स जायते आत्म-दर्शन संभव होता है। प्रमाद दशा में वह क्षयोपशम निष्क्रिय निष्क्रियः, अवरोधमुपैति च आत्मदर्शनम्। हो जाता है, तब आत्म-दर्शन अवरुद्ध हो जाता है । 'यत्र प्रमादः तत्र भयम्' इति व्याप्तिः । 'सव्वओ 'जहां प्रमाद है वहां भय है'-- यह व्याप्ति है। भगवान् ने पमत्तस्स भयं' इत्युक्तमस्ति भगवता। तेन प्रमादो कहा है--प्रमादी पुरुष को सर्वत: भय रहता है । इसलिए प्रमाद का १. आचारांग वृत्ति, पत्र १८५: विग्रहः-औदारिकं शरीरं वाली चैतन्य को धारा को अंतर की ओर प्रवाहित करने तस्य अयं वार्त्तमानिकक्षणः एवम्भूतः सुखदुःखान्यतररूपश्च का प्रथम साधन स्थूल शरीर है। इस स्थूल शरीर के गतः एवम्भूतश्च भावीत्येवं यः क्षणान्वेषणशीलः सोऽन्वेषी भीतर तैजस और कर्म---ये दो सूक्ष्म शरीर हैं। उनके सदाऽप्रमत्तः स्यादिति । भीतर आत्मा है । स्थूल शरीर की क्रियाओं और संवेदनों २. आप्टे, क्षणः Center, middle. को देखने का अभ्यास करने वाला क्रमशः तेजस और कर्म३. महावीर की साधना का मौलिक स्वरूप अप्रमाद है। शरीर को देखने लग जाता है। शरीर-दर्शन का दृढ अप्रमत्त रहने के लिए जो उपाय निर्दिष्ट हैं, उनमें शरीर की अभ्यास और मन के सुशिक्षित होने पर शरीर में क्रिया और संवेदना को देखना मुख्य उपाय है । जो साधक प्रवाहित होने वाली चैतन्य की धारा का साक्षात्कार होने वर्तमान क्षण में शरीर में घटित होने वाली सुख-दुःख की लग जाता है। जैसे-जैसे साधक स्थूल से सूक्ष्म दर्शन वेदना को देखता है, वर्तमान क्षण का अन्वेषण करता है, की ओर आगे बढ़ता है, वैसे-वैसे उसका अप्रमाद बढता वह अप्रमत्त हो जाता है। जाता है। यह शरीर-दर्शन की प्रक्रिया अंतर्मुख होने की ४. द्रष्टव्यम्-आयारो, २१४७, ११९ । प्रक्रिया है। सामान्यतः बाहर की ओर प्रवाहित होने Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० आचारांगभाष्यम नासेवनीयः। यदा धर्माचरणं प्रति अनुत्साहात्मकः आसेवन नहीं करना चाहिए । जब धर्माचरण के प्रति अनुत्साहात्मक प्रमादो जागर्ति तदा अशुभयोगस्य प्राबल्ये उदीरणा- प्रमाद जागता है तब अशुभयोग की प्रबलता में उदीरणा तथा संक्रमण संक्रमणप्रयोगोऽपि जायते । तेन शुभकर्मणो विलयः का प्रयोग भी होता है। उदीरणा से शुभ कर्मों का विलय और अशुभे परिवर्तनं चापि संभवति । तेनेति सत्यं यत्र प्रमादः संक्रमण से शुभ का अशुभ के रूप में परिवर्तन भी हो सकता है । तत्र भयम् । अप्रमाददशायां अस्य विपर्ययो भवति- इसलिए यह सच है कि जहां प्रमाद है वहां भय है । अप्रमाद दशा में अशुभकर्मणः उदीरणाकरणेन क्षयः तथा संक्रमेण अशुभस्य इसका विपर्यय होता है-उदीरणा से अशुभ कर्म का क्षय तथा संक्रमण शुभे च परिवर्तनम् । से अशुभ का शुभ-रूप में परिवर्तन । २४. जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं । सं०-ज्ञात्वा दुःखं प्रत्येकं सातम् । दुःख और सुख व्यक्ति का अपना-अपना होता है-यह जान कर प्रमाव न करे। भाष्यम् २४-दुःखं सुखं च प्रत्येकं भवति, न च दुःख और सुख व्यक्ति का अपना-अपना होता है । कोई किसी कश्चित् सुखं दुःखं वा आदातुं समर्थो भवति इति ज्ञात्वा के सुख या दुःख को बंटा नहीं सकता, यह जानकर व्यक्ति प्रमाद न प्रमादं न कुर्यात् ।' करे। २५. पुढोछंदा इह माणवा, पुढो दुक्खं पवेदितं । सं०-पृथक्छंदाः इह मानवाः, पृथक् दुःखं प्रवेदितम् । इस जगत् में मनुष्य नाना प्रकार के अध्यवसाय वाले होते हैं । उनका दुःख भी नाना प्रकार का होता है। भाष्यम् २५-प्राणिनां दुःखं सातं च प्रत्येकं भवति, प्राणियों का दुःख और सुख अपना-अपना होता है। इसका अस्य हेतुरस्ति तदुपादानभूतस्य अध्यवसायस्य प्रत्येकत्वं, कारण यह है कि सुख और दुःख के उपादानभूत अध्यवसाय इति वस्तुसत्यमिह प्रतिपादितमस्ति । इह मानवा: अपने-अपने होते हैं - यह वस्तुसत्य प्रस्तुत आलापक में प्रतिपादित पृथक्छन्दा:-नानाध्यवसायाः वर्तन्ते, अतस्तेषां दुःखं है। इस जगत् में मनुष्य नाना अध्यवसाय वाले हैं, इसलिए सातमपि च नानारूपेण संकल्पितमस्ति । केचिद् आरम्भं उनका दुःख और सुख भी नानारूप वाला होता है। कुछ मनुष्य सखं मन्यन्ते केचिच्च दुःखम् । केचित् अनारम्भं दुःखं आरंभ-हिंसा को सुख मानते हैं और कुछ दुःख । कुछ व्यक्ति मन्यन्ते केचिच्च सुखम् । एवं दुःखसुखयोः संकल्पः अनारंभ-अहिंसा को दुःख मानते हैं और कुछ सुख । इस प्रकार एकविधो नास्ति। तेन उत्थितः पुरुषः दुःखं सुखं च दुःख और सुख की कल्पना एक प्रकार की नहीं होती, इसलिए जो प्रत्येकं ज्ञात्वा अनारम्भजीवी भवेत् । व्यक्ति साधना के लिए उत्थित हो चुका है वह दुःख और सुख को व्यक्ति-व्यक्ति का जानकर अनारंभजीवी-अहिंसाजीवी बने । छन्दः-इच्छा अध्यवसायः संकल्पश्च । छन्द का अर्थ है-इच्छा, अध्यवसाय, संकल्प । २६. से अविहिंसमाणे अणवयमाणे, पुट्रो फासे विप्पणोल्लए। सं०-स अविहिसन् अनपवदमानः स्पृष्टः स्पर्शान् विप्रणोदयेत् । वह उत्थित पुरुष किसी की हिंसा न करे, सूक्ष्म जीवों के अस्तित्व को अस्वीकार न करे। जो कष्ट प्राप्त हों, उन्हें समभाव से सहन करे। भाष्यम् २६-आरम्भजीवी पुरुष: हिंसायां प्रवर्तते । आरंभजीवी मनुष्य हिंसा में प्रवृत्त होता है। जिसने येन अनारम्भजीवित्वस्य संकल्पः कृतः स उत्थितः पुरुषः अनारंभजीवन जीने का संकल्प किया है वह साधना के लिए उत्थित न प्राणिनो हिंस्यात् । जीवलोको द्विविधः-सूक्ष्मः पुरुष प्राणियों की हिंसा न करे । जीवलोक दो प्रकार का है--सूक्ष्म स्थूलश्च । तत्र स्थूलजीवलोकस्य हिंसायाः परिहारः और स्थूल । स्थूल जीवों की हिंसा का परिहार करना उतना' दुःसाध्य १. द्रष्टव्यम्-आयारो, २।२२ । २. आचारांग वृत्ति, पत्र १८६ : पस्य बत्वं तस्यापि प्राकृतत्वाद् आर्षत्वान् वा लोपः। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०५. लोकसार, उ० २. सूत्र २४-२६ २५१ नास्ति तादृक् दुःशकः यादृगस्ति सूक्ष्मजीवलोकस्य नहीं है, जितना दुःसाध्य है सूक्ष्मजीवों की हिंसा का परिहार करना । हिंसायाः परिहारः । अनारम्भजीवित्वस्य संकल्पः अति- अनारंभ जीवन जीने का संकल्प अत्यन्त कठिन है। इसलिए कभी कठिनोस्ति । तेन कदाचित् एतादृशो विकल्पोऽपि साधक के मन में ऐसा विकल्प भी उत्पन्न हो सकता है कि सूक्ष्म जीवों संभवेत्-क्व सूक्ष्माः जीवा: ? इति विकल्पस्य प्रसंग का अस्तित्व है कहाँ ? इस विकल्प के प्रसंग को लक्ष्य कर सूत्रकार लक्ष्यीकृत्य सूत्रकारेण निर्दिष्ट, अनारम्भजीवी सूक्ष्म- ने यह निर्देश दिया है कि अनारंभजीवी साधक सूक्ष्मजीवलोक का लोकस्य अपवादं न कुर्यात्, स नास्तीति मृषा न वदेत् । अपवाद न करे, उसका अस्तित्व नहीं है इस प्रकार मृषा न बोले । अस्यां स्थितौ जीवनयात्रां परिचालयन् कदाचित् कष्टः इस स्थिति में वह जीवनयात्रा को चलाता हुआ कभी कष्टों से स्पृष्ट स्पृष्टः स्यात् तदा स्पर्शान-कष्टानि विप्रणोदयेत्, न हो जाए तो उन कष्टों को समभाव से सहन करे, उनसे पराजित न तु तैरभिभूतः स्यात् । २७. एस समिया-परियाए वियाहिते। सं०- एष सम्यकपर्यायः व्याहृतः । यह सम्यक् पर्याय वाला कहलाता है। भाष्यम् २७–एषः अहिंसकः कष्टसहिष्णुश्च पुरुषः भगवान् ने ऐसे अहिंसक और कष्ट-सहिष्णु पुरुष को सम्यक् सम्यकपर्यायः-समतायाः पारगामी' व्याहृतो भगवता। पर्याय-समता का पारगामी कहा है। २८. जे असत्ता पावेहि कम्मेहि, उदाह ते आयंका फुसंति । इति उदाहु वोरे ते फासे पुट्ठो हियासए। सं०-ये असक्ताः पापेषु कर्मसु उताहो तान् आतङ्काः स्पृशन्ति । इति उदाह वीरः तान् स्पर्शान् स्पृष्टः अधिसहेत । जो मुनि पाप-कर्म में आसक्त नहीं हैं, उन्हें भी कभी-कभी शीघ्रघाती रोग पीड़ित कर देते हैं। इस संदर्भ में भगवान् महावीर ने ऐसा कहा-'उन शीघ्रघाती रोगों के उत्पन्न होने पर मुनि उन्हें सहन करे।' भाष्यम् २८-एकदा भगवतो महावीरस्य समीपे एक बार भगवान् महावीर के पास कुछ मुनि आए, उन्होंने केचिन्मुनयः समागताः, जिज्ञासितं च तै:-'भगवन् ! जिज्ञासा की-'भगवन् ! जो पुरुष अनासक्त, तपस्वी, संयमी और ये अनासक्ताः पुरुषाः सन्ति तपस्विनः संयमिनः ब्रह्मचारी हैं, वे भी रोगों से आक्रान्त होते हैं, यह क्यों ?' ब्रह्मचारिणश्च तेऽपि रोगैराकान्ता भवन्ति, कथमिदम् ?' भगवता प्रोक्तम्-आर्याः ! ज्ञातव्यं युष्माभिः भगवान् ने कहा-आर्यो ! तुम्हें ज्ञात होना चाहिए कि रोग रोगसंयमयोश्च भिन्नोऽस्ति हेतुः। और संयम का हेतु भिन्न-भिन्न है। तज्जिज्ञासामो भगवन् ! मुनि बोले-'हम उन हेतुओं को जानना चाहते हैं, भगवन् !' भगवान् प्राह-संयमस्य हेतुरस्ति चारित्रमोहस्य भगवान् बोले-संयम का हेतु है-चारित्र मोहनीय कर्म का क्षयोपशमः, रोगस्य च हेतुरस्ति वेदनीयस्योदयः, स च क्षयोपशम और रोग का हेतु है-वेदनीय कर्म का उदय । वह केवलिनोऽपि भवति । केवलियों के भी होता है । प्रोक्तं भगवता-तैः रोगातंकः स्पृष्टस्तान् भगवान ने कहा-साधक उन रोग और आतंकों से स्पृष्ट स्पर्शान् सम्यक् सहेत। होने पर उनको समभाव से सहन करे । २६. से पुव्वं पेयं पच्छा पेयं भेउर-धम्म, विद्धंसण-धम्म, अधुवं, अणितियं, असासयं, चयावचइयं, विपरिणाम-धम्म, पासह एवं रूबं। सं०-अथ पूर्वं अप्येतत् पश्चादप्येतत् भिदुरधर्म, विध्वंसनधर्म, अध्रुवं, अनित्यं, अशाश्वतं, चयापचयिक, विपरिणामधर्म, पश्यत एतद् रूपम् । तुम इस शरीर को देखो। यह पहले या पीछे एक दिन अवश्य ही नष्ट होने वाला है। विनाश और विध्वंस इसका स्वभाव है। यह अध्रव, अनित्य और अशाश्वत है। इसका उपचय और अपचय होता है। इसकी विविध अवस्थाएं होती हैं। १(क) आचारांग चूणि, पृष्ठ १६७ : समगमणं समिया, (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १८६ : स सम्यकपर्यायः शमितापारगमणं परियाए। पर्यायो वा व्याख्यातः। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ भाष्यम् २९ - आलम्बनसूत्रमिदम् अनेन आलम्बनेन रोगातंकजनितं कष्टं सोढव्यम्। यूयं पश्यत एतद् रूपं अय' पूर्वमपि एतत् पश्चादपि भिदुरधर्म भिद्यते, स्वयमेव भिद्यते इति तात्पर्यम्। तथा एतच्छरीर जीर्णशकटमिव विध्वंसनधर्म, अनुवं', अनित्यं, अशाश्वतं चयापचयकं विपरिणामधर्मं च वर्तते । एतद् इष्टाहारेण चीयते तदभावाद् अपचीयते तथा चत्वारिशद्वर्ष पर्यन्तं चीयते ततः परं अपचीयते, अतः चयापचयिकम् । गर्भ कौमारयौवनादिभिर्विविधैः परिणामैः परिणतो भवति, अतो विपरिणामधर्मम् । रुपम् 'शरीरम् । ३०. संधि समुष्येमाणस्स एगायतण रयस्स इह विप्यमुक्करस, णत्थि मग्गे विरयस्स त्ति बेमि । सं० - संधि समुत्प्रेक्षमाणस्य एकायतनरतस्य इह विप्रमुक्तस्य नास्ति मार्ग : विरतस्य इति ब्रवीमि । " जो कर्म-विवर को देखता है, एक आयतन (वीतरागता) में सीन है, ऐहिक ममत्व से मुक्त है, हिंसा से विरत है, उसके लिए कोई मार्ग नहीं है, ऐसा मैं कहता है। भाष्यम् ३० - यो रूपस्य - शरीरस्य संधि समुत्प्रेक्षमाणः एकस्मिन् आयतने- देहातीते चैतन्ये रतो भवति, शरीरविषयकममत्व विप्रमुक्तश्च तस्य विरतस्व नास्ति मार्गः । १. (क) आचारांग चूमि, पृष्ठ १६७ से इति ि (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १८६ । २ मावि वा पच्छा या अवस्सविप्यनहिय भवस्तद' (भगवई ९।१७२ ) इति पाठस्य संदर्भ संगच्छते । चूर्णिकारेण अत्र चत्वारः विकल्पाः प्रस्तुताः । तत्र चतुर्थी विकल्यः संगतोति तहा पुण्येवा वये (चूर्णि, पृष्ठ १६७ ) । वृत्तिकृता मित्ररूपेण कृतास्ति-से पुण्वमित्यादि, स स्पृष्टः पीडितः आशुकारिभिरातकैरेतद् - अस्य तात्पर्यम् यः सन्धिदर्शनेन चैतन्यानुभव प्रतिपन्नवान्, यस्य विरतिः सहजा जाता, तस्य कृते साधनायाः पद्धतेः ध्यानमार्गस्य वा नास्ति कश्चिद् निर्देश: । यो लक्ष्यमुपलब्धवान् तस्य कृते को मार्गः ? उक्तमपि च – 'उद्दे सो पासगस्स णत्थि ।" साधनायाः नास्ति कश्चिद् एक एव मार्गः । येन येन उपायेन वीतरागताया अनुभवो भवति, ते सर्वेऽपि मार्गा एव । -- व्याख्या आचारांग भाष्यम् प्रस्तुत आलापक आलंबन -सूत्र है । इस आलंबन सूत्र से रोग और आतंक से उत्पन्न कष्ट को सहन करना चाहिए तुम देखो, यह शरीर भिदुरधर्मा है पहले या पीछे एक दिन अवश्य ही नष्ट होने वाला है । इसका तात्पर्य है कि वह स्वयं नष्ट हो जाएगा । और यह शरीर जीर्ण-शीर्ण शकट की भांति विध्वंस होने वाला है। यह अव अनित्य और अशाश्वत है। इसका उपचय और अपचय होता है। इसकी विविध अवस्थाएं होती हैं। यह शरीर मनोज आहार से उपचित होता है और उसके अभाव में अपचित हो जाता है । इसका उपचय चालीस वर्ष की उम्र तक होता है। उसके बाद इसका अपचय होने लगता है । इसलिए यह शरीर चयापचयिक है । यह गर्भ, कुमारावस्था, यौवनावस्था आदि विविध अवस्थाओं में परिणत होता है, इसलिए वह विपरिणामधर्मा है। रूप का अर्थ है शरीर । जो शरीर की संधि को देखता है वह एक आयतन- - देहातीत चैतन्य में लीन होता है। वह शरीर के ममत्व से मुक्त होता है। उस विरत व्यक्ति के लिए कोई मार्ग नहीं है। इसका तात्पर्य यह है - जो साधक संधि को देखने से चैतन्य के अनुभव को प्राप्त कर लेता है, जिसके सहज विरति होती है उस व्यक्ति के लिए साधना की पद्धति अथवा ध्यान मार्ग का कोई निर्देश नहीं होता। जो लक्ष्य को प्राप्त कर चुका है उसके लिए कौनसा मार्ग ? (अथवा उसके लिए कैसा मार्ग ? ) इसी आगम में कहा है 'द्रष्टा के लिए कोई व्यपदेश नहीं होता।' साधना का कोई एक ही मार्ग नहीं है । जिन-जिन उपायों से वीतरागता का अनुभव होता है, वे सभी मार्ग ही है। भावयेद् -- असातावेदनीयविपाकजनितं दुःखं मयंव सोढव्यं, पश्चादयेत्तमन्येव सहनीयम् (वृति पत्र १८६) । ३, ४, ५. आप्टे, ध ुवं - Unchangable, नित्यं - Continual, शाश्वतं - Eternal. ६. (क) आचारांग चूर्णि, पृष्ठ १६८: रूवमिति सव्वेंदियाबाणं सरीरं । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १८७ । ७. आयारो, २।७३ । Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ५. लोकसार, उ० २. सूत्र ३०-३३ २५३ ३१. आवंतो केआवंती लोगंसि परिग्गहावंती–से अप्पं वा, बहुं वा, अणुं वा, थूलं वा, चित्तमंतं वा, अचित्तमंतं वा, एतेसु चेव परिग्गहावंती। सं०-यावन्तः केचन लोके परिग्रहवन्तः-ते अल्पं वा बहुं वा अणुं वा स्थूलं वा चित्तवन्तं वा अचित्तवन्तं वा एतेषु चैव परिग्रहवन्तः । इस जगत् में जितने मनुष्य परिग्रही हैं, वे अल्प या बहुत, सूक्ष्म या स्थूल, सचित्त या अचित्त वस्तु का परिग्रहण करते हैं। वे इन वस्तुओं में मूर्छा रखने के कारण ही परिग्रही हैं। भाष्यम् ३१-यावन्तः केचन लोके परिग्रहिणः सन्ति इस जगत् में जितने मनुष्य परिग्रही हैं, वे अल्प या बहुत, ते अल्पं वा बहुं वा अणुं वा स्थूलं वा सचित्तं वा अचित्तं सूक्ष्म या स्थूल, सचित्त या अचित्त वस्तु का परिग्रह करते हैं । वा परिग्रहमादाय एतेषु षड्भेदभिन्नेषु चैव मूर्च्छनात् वे इन छह प्रकार के परिग्रहों में मूच्छित होने के कारण ही परिग्रही परिग्रहिणो भवन्ति । होते हैं। __ पदार्थः पुद्गलद्रव्यनिष्पन्नः, स नास्ति परिग्रहः। पदार्थ पौद्गलिक है । वह परिग्रह नहीं है। मनुष्ग के द्वारा मनुष्येण मूर्छापूर्वकं परिगृहीतः परिग्रहो भवति। मूर्छापूर्वक परिगृहीत पदार्थ ही परिग्रह बनता है । 'मूर्छा परिग्रह है। 'मूर्छा परिग्रहः', इत्यपि सम्मतम् । किन्तु प्रस्तुतसूत्रे यह भी सम्मत है। किन्तु प्रस्तुत सूत्र में पदार्थ को लक्ष्य कर परिन ह पदार्थ लक्ष्योकृत्यैव परिग्रहस्य स्वरूपमस्ति प्रति- के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है। पादितम् । ३२. एतदेवेगेसि महम्भयं भवति, लोगवित्तं च णं उवेहाए। सं०-एतदेवैकेषां महाभयं भवति, लोकवृत्तं च उपेक्ष्य ।। यह परिग्रह ही परिग्रही के लिए महामय का हेतु होता है । तुम लोकवृत्त को देखो। भाष्यम ३२-परिग्रहस्त्रिविधः शरीरकर्मपदार्थ- परिग्रह तीन प्रकार का है--शरीर का परिग्रह, कर्म का भेदात। केचित पदार्थ परित्यज्य विहरन्ति, किन्तु परिग्रह और पदार्थ का परिग्रह। कुछ व्यक्ति पदार्थों का परित्याग शरीरं प्रति मुच्छविन्तः सन्ति, तेषामेतदेव शरीरं कर देते हैं, किन्तु शरीर के प्रति मूच्र्छा रखते हैं, उनके लिए यही महाभयं भवति । लोकस्य वृत्तं-चरित्रं उपेक्ष्य। शरीर महाभय का कारण बन जाता है। तुम लोक के वृत्तयथा-लोक: धनधान्यादिपदार्थमूच्छितः महाभयं चारित्र को देखो। जैसे मनुष्य धन, धान्य आदि पदार्थों में मूच्छित जनयति तथा शरीरमूर्छापि, यथा वा लोकस्य होकर महाभय को पैदा करता है वैसे ही शरीर के प्रति मूर्छा भी वित्तं-धनधान्यादि महाभयं जनयति तथा शरीरस्य महाभय को पैदा करती है। अथवा लोक का वित्त-धन-धान्य आदि मूर्छापि। पदार्थ महाभय पैदा करता है, वैसे ही शरीर की मूर्छा भी महाभयजनक होती है। ३३. एए संगे अविजाणतो। सं०-एते सङ्गाः अविजानतः । अज्ञानी के लिए ये पदार्थ संग होते हैं । १. दसवेआलियं ६।२०। २. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ १६९ : लोगे वित्तं च णं लोगचरितं, जहा लोगो धणआहारसरीरातिमुच्छितो तहा उद्दडगातीवि सरीरमुच्छातो तश्वित्ता.....। तत्य लोगो-गिहीणो, तेसि वित्तं-धणधनाइ चणमिति पूरणे तं उविक्ख, किमिति ? जहा लोगस्स मुच्छापरिग्गहाइ वित्तं महम्मयं, तहा....."सरीरमेव महाभयं । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १८८: लोकस्य-असंयत लोकस्य वित्तं-द्रव्यमल्पादिविशेषणविशिष्ट....... लोकवित्तं लोकवृत्तं वा आहारमयमैथुनपरिग्रहोत्कटसंज्ञात्मकं महते भयाय । Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ आचारांगभाष्यम् भाष्यम् ३३–एते पदार्थाः शरीरं च अज्ञानवतः ये पदार्थ और शरीर अज्ञानी व्यक्ति के लिए संग होते हैं, संगो' भवन्ति, आसक्तिकारणमिति यावत् । अत्र आसक्ति के हेतु बनते हैं । सूत्रकार ने स्पष्ट करते हुए कहा है-पदार्थ सूत्रकारेण स्पष्टीकृतम्-पदार्थः सङ्गस्य जनको आसक्ति का जनक नहीं है। अज्ञानी के लिए बह आसक्ति का कारण नास्ति । अज्ञानिनः स सङ्गाय भवति, ज्ञानिनः पुनर्न बनता है। ज्ञानी के लिए वह आसक्ति-जनक नहीं होता। भवति सङ्गाय। ३४. से सुपडिबुद्धं सूवणीयं ति णच्चा, पुरिसा! परमचक्खू ! विपरक्कमा । सं०-तत् सुप्रतिबुद्धं सूपनीतं इति ज्ञात्वा पुरुष ! परमचक्षुः ! विपराक्राम । परिग्रह महाभय का हेतु है-यह सम्यक् प्रकार से ज्ञात और उपदर्शित है । परमचक्षुष्मान् पुरुष ! तू परिग्रह-संयम के लिए पराक्रम कर । भाष्यम् ३४--परिग्रहः महाभयस्य कारणमस्ति इति परिग्रह महाभय का हेतु है'-यह प्रत्यक्षज्ञानियों के द्वारा सुप्रतिबुद्धं प्रत्यक्षज्ञानिभिः सूपनीतं च-सुदृष्टैर्हेतुभिः सम्यक् प्रकार से ज्ञात और उपनीत है—'सुदृष्ट हेतुओं के द्वारा शिष्याणामुपदर्शितमिति ज्ञात्वा परमचक्षुष्मन् पुरुष ! शिष्यों के लिए उपदर्शित है' यह जानकर परमचक्षुष्मान् पुरुष ! तू विपराक्राम-अपरिग्रहसिद्धये विविधं विशिष्टं वा पराक्रम कर—अपरिग्रह की सिद्धि के लिए विविध प्रकार से अथवा यतस्व। विशिष्ट प्रकार से प्रयत्न कर। ३५. एतेसु चेव बंभचेरं ति बेमि। सं०-एतेषु चैव ब्रह्मचर्य इति ब्रवीमि । परिग्रह का संयम करने वालों में ही ब्रह्मचर्य होता है, ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् ३५-एतेषु अपरिग्रहिषु पुरुषेष्वेव ब्रह्मचर्य इन अपरिग्रही पुरुषों में ही ब्रह्मचर्य होता है, ऐसा मैं कहता भवतीति ब्रवीमि । ब्रह्मचर्यम्-आत्मरमणं, हूं। ब्रह्मचर्य के तीन अर्थ हैं-आत्म-रमण, उपस्थसंयम–मैथुनविरति उपस्थसंयमः, गुरुकुलवासश्च । पदार्थप्रतिष्ठः पुरुषः तथा गुरुकुलवास । पदार्थों के प्रति आसक्त व्यक्ति आत्म-रमण नहीं नात्मनि रमणमहति । पदार्थं प्रति आकर्षणमावहतः कर सकता। जिस व्यक्ति का पदार्थ के प्रति आकर्षण होता है, उसके पुरुषस्य ब्रह्मचर्य न भवति सुकरम् । पदार्थ प्रति लिए ब्रह्मचर्य का पालन सुकर नहीं होता। जो व्यक्ति पदार्थ के प्रति असंयतस्य पुरुषस्य न हि सुशको भवति गुरुकुलवासः। असंयत होता है, उसका गुरुकुल में रहना सुशक्य नहीं होता। तात्पर्यार्थमिदं-अपरिग्रही पुरुष एव ब्रह्मचर्यसाधनां कर्तुं इसका तात्पर्य है कि अपरिग्रही पुरुष ही ब्रह्मचर्य की साधना करने में प्रभवति । समर्थ होता है। ३६. से सुयं च मे अज्झत्थियं च मे, बंध-पमोक्खो तुज्झ अज्झत्थेव । सं० -अथ श्रुतं च मम आध्यात्मिकं च मम, बंधप्रमोक्षः तव अध्यात्म एव । मैंने सुना है, मैंने अनुभव किया है-बंध और मोक्ष तुम्हारी आत्मा में ही है। १. आचारांग चणि, पृष्ठ १७०: कस्स सो संगो? (ख) ब्रह्मचर्य के तीन अर्थ हैं-वस्ति-संयम, गुरुकुलवास अवियाणतो धम्मोवायं च ।। और आत्मरमण। शरीर भी परिग्रह है। जिसके शरीर २. वही, पृष्ठ १७० : संगोत्ति वा विग्घोत्ति वा बक्खोडित्ति में आसक्ति होती है, वह वस्ति-संयम नहीं कर सकता। वा एगट्ठा। जिसके शरीर और वस्तुओं में आसक्ति होती है, वह न ३. वृत्तिकृता एतत् सूत्रं भिन्नरूपेण व्याख्यातम्-एनान् अल्पादिद्रव्यपरिग्रहसङ्गान् शरीराहाराविसङ्गान् वा गुरुकुलवास (साधु-संघ) में रह सकता है और न आत्मअविजानतः अकुर्वाणस्य वा तत्परिग्रहजनितं महाभयं न रमण के आधारभूत अहिंसा आदि चारित्रधर्म का पालन स्यात् । (वृत्ति, पत्र १८८)। ही कर सकता है। यहां ये तीनों अर्थ घटित हो सकते ४. (क) आचारांग चणि, पृष्ठ १७० : उवस्थसंजमो गुरुकुल हैं, फिर भी तीसरा अर्थ अधिक प्रासंगिक है। वास वा बंमचेर, अहवा एतेसु चेव आरंभपरिमाहेसु भावओ विप्पमुक्कं बंभचेरंति । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०५. लोकसार, उ० २. सूत्र ३४-३८ २५५ भाष्यम् ३६-सूत्रकारो वक्ति-बंधः तव अन्तरा- सूत्रकार कहते हैं-बंध तुम्हारी अन्तर् आत्मा में ही है और त्मन्येव वर्तते । प्रमोक्षोऽपि तव अन्तरात्मन्येव ।' मोक्ष भी तुम्हारी अन्तर् आत्मा में ही है। बंध का हेतु है-पदार्थों बंधस्य हेतुरस्ति पदार्थ प्रति रागः। प्रमोक्षस्य हेतुरस्ति के प्रति राग और प्रमोक्ष का हेतु है--पदार्थों के प्रति विराग। यह पदार्थं प्रति विरागः । एतद् मया भगवतः सकाशात् मैंने भगवान् के पास सुना है, ऐसा ही मैंने चिंतन किया है और ऐसा श्रुतं तथा एतन्मया चिन्तितं अनुभूतमपि च ।' ही मैंने अनुभव भी किया है। आत्मा एव कर्मणः कर्ता, तेन आत्मकृतो बन्धः। आत्मा ही कर्मों की कर्ता है, इसलिए बंध आत्मकृत है । स एव कर्मणो विकर्ता, तेन आत्मकृत एव प्रमोक्षः। आत्मा ही कर्मों की विकर्ता है, इसलिए प्रमोक्ष भी आत्मकृत है। तात्पर्यार्थे सम्मतं आत्मकर्तृत्वम् । यदि ईश्वरकर्तृत्वं तात्पर्य में आत्मकर्तृत्व सम्मत है। यदि ईश्वरकर्तृत्व को स्वीकार स्यात् तत् किं प्रयोजनं कर्मणः बन्धप्रमोक्षयोर्वा ? पूर्व किया जाए तो कर्मों के बंध और प्रमोक्ष का प्रयोजन ही क्या हो बन्धकरणं पश्चात् तत्प्रमोक्षकरणं इति नास्ति सकता है ? पहले तो बंध करना फिर उसका प्रमोक्ष करना-इसे प्रेक्षापूर्विका प्रवृत्तिः । बुद्धिमत्तापूर्वक प्रवृत्ति नहीं कहा जा सकता। ___ आत्मा प्रमत्तः सन् स्वकीयाऽशुभेन उत्थान-कर्म- आत्मा प्रमत्तदशा में अपने अशुभ उत्थान-कर्म-बल-वीर्यबल-वीर्य-पुरुषकार-पराक्रमेण कर्मप्रायोग्यपुद्गलान् पुरुषकार तथा पराक्रम से कर्मप्रायोग्य पुद्गलों को ग्रहण कर कर्मों से गहीत्वा बद्धो भवति । अप्रमत्तः सन् शुभेन उत्थान-कर्म- बद्ध हो जाती है । वह अप्रमत्त अवस्था में शुभ उत्थान-कर्म-बल-वीर्यबल-वीर्य-पुरुषकार-पराक्रमेण कर्मपुद्गलानां निर्जरणं पुरुषकार तथा पराक्रम से कर्म पुद्गलों का निर्जरण कर मुक्त हो कृत्वा प्रमुक्तो भवति। उदीरणासंक्रमणादिप्रयोगेण जाती है । आत्मा उदीरणा और संक्रमण आदि प्रयोगों के द्वारा कर्मों कर्मणः परिवर्तनमपि कर्त शक्नोति । तेन सिद्धमिदं, का परिवर्तन भी कर सकती है। इसलिए यह सिद्ध होता है कि बंध बन्धः प्रमोक्षश्च आत्मन्येव । और प्रमोक्ष आत्मा में ही है। ३७. एत्थ विरते अणगारे, दोहरायं तितिक्खए। पमत्ते बहिया पास, अप्पमत्तो परिव्वए। सं०-अत्र विरतः अनगारः दीर्घरात्रं तितिक्षेत । प्रमत्तान् बहिः पश्य अप्रमत्तः परिव्रजेः। परिग्रह से विरत अनगार परीषहों को जीवन-पर्यन्त सहन करे । तू देख ! जो प्रमत्त हैं, वे साधुत्व से परे हैं। इसलिए तू अप्रमत्त होकर परिव्रजन कर। भाष्यम् ३७-अत्र परिग्रहाद् विरत: अनगारः परिग्रह से विरत अनगार अपरिग्रह के कारण उत्पन्न होने अपरिग्रहजनितान् परीषहान् दीर्घरात्रं-आजीवनं वाले परीषहों को जीवन-पर्यन्त सहन करे। जो परिग्रह में प्रमत्त हैं, सहेत । ये परिग्रहे प्रमत्ताः पदार्थान् प्राप्य हृष्यन्ति ते वे पदार्थों को पाकर प्रसन्न होते हैं, वे आत्मानुभूति से बाहर हैं, आत्मानुभूतेः बहिःस्थिता वर्तन्ते इति त्वं पश्य । प्रमत्तो ऐसा तू देख । प्रमत्त मुक्त नहीं होता, अप्रमत्त मुक्त हो जाता हैन सिद्धयति अप्रमत्तश्च सिद्धयति इति बुद्ध्वा यह जानकर तू अप्रमत्तावस्था में परिव्रजन कर । अप्रमत्तावस्थायां परिव्रजनं कुरु ।। अप्रमत्तः'- संयमसाधनायां प्रवृत्तः । अप्रमत्त का अर्थ है-संयम की साधना में प्रवृत्त । ३८. एयं मोणं सम्म अगुवासिज्जासि ।-त्ति बेमि । सं०-एतद् मौन सम्यग् अनुवासयेः । इति ब्रवीमि । इस मौन का तू सम्यक् पालन कर। ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् ३८-परिग्रही आत्मानुभूतेः बहि:स्थितः । परिग्रही व्यक्ति को आत्मानुभूति नहीं होती । इस सूत्र के रहस्य १-२. 'अज्झत्थियं' तथा 'अज्मत्थ' एते द्वे अपि पदे विशिष्टं ३. आचारांग चणि, पृष्ठ १७१ : अप्पमाओ संजमअणुपाल प्रयुक्त स्तः । संस्कृतसमत्वेन 'अज्झत्तिय' तथा 'अज्मत्तं' णत्यं पयत्तो, अहवा पंचविहपमायवइरित्तो अप्पमत्तो, इति प्रयोगः संगतः स्यात् । प्राचीनप्राकृते स्थकारस्य अहवा जतणअप्पमत्तो य कसायअप्पमत्तो य, जयणप्रयोगः स्यादनुमतः । “अज्मत्थितं ऊहितं गुणितं चितितंति अप्पमत्तो संजमअणुपालणट्ठाए ईरियातिउवउत्तो, कसायएगट्ठा। (आचारांग चूणि, पृष्ठ १७१) अप्पमत्तो जस्स कसाया खीणा उवसंता वा । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ आचारांगभाष्यम् अस्य सूत्रस्य ऐदंपर्याथं बोद्ध मननं अस्ति आवश्यकम् । को जानने के लिए मनन आवश्यक है। केवल सुनने मात्र से उसका मर्म केवलं श्रवणमात्रेण न तस्य मर्म हृदयंगमं भवति । श्रुतः हृदयंगम नहीं होता । जब तक सुने हुए और पढ़े हुए विषय का बारपठितो वा विषयः यावद् नानुवासितो भवति तावद् बार अभ्यास कर मन को उससे भावित नहीं किया जाता तब तक न तदनुरूपस्य आचरणस्य कल्पना कर्त शक्या। एतत् उसके अनुरूप आचरण की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इस सत्यं हृदि निधाय सूत्रकारः निगमनवाक्येन उपदिशति, सत्य को हृदय में स्थापित कर सूत्रकार उपसंहार करते हुए उपदेश एतद् मौनं त्वं सम्यक् अनुवासये:-प्रतिपालयेः। देते हैं-इस मौन का तू सम्यक् परिपालन कर । मौनम्-अपरिग्रहस्य ज्ञान संयमानुष्ठानं वा । मौन का अर्थ है-अपरिग्रह का ज्ञान अथवा संयम का अनुष्ठान । तइओ उद्देसो : तीसरा उद्देशक ३९. आवंती केआवंती लोयंसि अपरिग्गहावंती, एएसु चेव अपरिग्गहावंती। सं०-यावन्तः केचन लोके अपरिग्रहवन्तः, एतेषु चैव अपरिग्रहवन्तः । इस जगत् में जितने मनुष्य अपरिग्रही हैं, वे इन वस्तुओं में मूर्छा न रखने के कारण ही अपरिग्रही हैं। भाष्यम ३९-यावन्तः केचन लोके अपरिग्रहिणः ते इस संसार में जितने मनुष्य अपरिग्रही हैं वे इन पदार्थों में एतेषु पदार्थेषु चैव निर्ममत्वाद् अपरिग्रहवन्तः । अपरि- ममत्व न करने (और इनका संग्रह न करने) के कारण ही अपरिग्रही ग्रहस्य तत्त्वमासाद्य जीवनदिशापरिवर्तनं कर्तुं शक्यम्। हैं। अपरिग्रह के तत्त्व को प्राप्त कर व्यक्ति अपनी जीवनदिशा का पदार्थ प्रति मूर्छा नापसरति तावद् हिंसायाः असत्यस्य परिवर्तन कर सकता है। जब तक पदार्थ के प्रति मूर्छा का भाव च अपसरणं भवति दुःशकम् । तेन सूक्तमिदं-ये पदार्थ दूर नहीं होता तब तक हिंसा और असत्य का भाव भी दूर नहीं नैव संगणन्ति न तेषु मूच्छी कुर्वन्ति त एव अपरिग्रहिणो हो सकता। इसलिए यह ठीक कहा है-जो न पदार्थ का संग्रहण भवितुमर्हन्ति । करते हैं और न उनमें मूर्छा भाव रखते हैं, वे ही अपरिग्रही बन सकते हैं। ४०. सोच्चा वई मेहावी, पंडियाणं णिसामिया। समियाए' धम्मे, आरिएहि पवेदिते। सं०-श्रुत्वा वाचं मेधावी, पंडितानां निशम्य । समतायां धर्मः आयें प्रवेदितः ।। 'तीर्थंकरों ने समता में धर्म कहा है'-आचार्य की यह वाणी सुन कर, मेधावी साधक उसे हृदयंगम करे। भाष्यम् ४०–'आर्यैः समतायां धर्मः प्रवेदितः' तीर्थंकरों ने समता में धर्म कहा है-आचार्य की यह वाणी मेधावी पण्डितानां इमां वार्ती श्रुत्वा निशम्य'-अवधार्य सुन कर मेधावी साधक उसको हृदयंगम कर समता का अनुपालन च समतामनुपालयेत् । करे। १. समिया-अस्य पदस्य संस्कृतरूपद्वयं भवति-सम्यक् शमिता च । सम्यक् इति यथार्थम् । शमिता इति कषायस्य उपशमः। चूर्णिकारेण 'सम्यग्' अर्थः स्वीकृतः-सम्म केवलनाणेण बळं (पृष्ठ १७२) । वृत्तिकारेण अस्य पदस्य अर्थः समता इति विहितः-समय त्ति समता समशत्रुमित्रता तया आर्यैः धर्मः प्रवेदित इति (पत्र १८९)। पाठान्तरे 'समया' इति रूपं लभ्यते । अस्य सम्यक्, शमिता, समता-त्रयोऽपि अर्थाः संगताः सन्ति । तथापि 'समता' इति मुख्यत्वेन भाष्ये व्याख्यातम् । २. आचारांग चूणि, पृष्ठ १७२ : णिसामिया णाम सुणित्ता, सोच्चाणिसामणाणं को विसेसो? सोच्चा किंचि केवलं सुत्तमेव, ण पुवावरेण ऊहित्ता हितपट्ठवियं, इमं पुण सोच्चा हितपट्टवितम् । Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ५. लोकसार, उ० ३. सूत्र ३६-४२ सर्वभूतेषु समता', लाभालाभेषु समता', प्रियाप्रिययोः सभी प्राणियों के प्रति समता, लाभ और अलाभ में समता, समता-ईदशी समतां उपसंपद्यमानस्य संकल्पविकल्पयोः प्रिय और अप्रिय स्थिति में समता- इस प्रकार की समता को जो नाशो जायते। अहिंसादयः सर्वे धर्माः सन्ति समतायां व्यक्ति स्वीकार करता है, उसके संकल्प-विकल्प का नाश हो जाता प्रतिष्ठिताः । है। अहिंसा आदि सभी धर्म समता में प्रतिष्ठित हैं। सम्यक्त्वसामायिक, श्रुतसामायिक चारित्र- सामायिक के तीन प्रकार हैं-सम्यक्त्वसामायिक, श्रुतसामायिक-अस्य त्रिविधस्यापि सामायिकस्य समतायां सामायिक तथा चारित्रसामायिक । इन तीनों का समावेश 'समता' में अनुप्रवेशः। होता है। ४१. जहेत्थ मए संधी झोसिए, एवमण्णत्थ संधी दुज्झोसिए भवति, तम्हा बेमि–णो णिहेज्ज वीरियं । सं०-यथात्र मया संधिः जोषितः, एवमन्यत्र संधिः दुर्बोध्यो भवति । तस्माद् ब्रवीमि-नो निहन्यात् वीर्यम् । भगवान महावीर ने कहा-'जैसे मैंने ज्ञान, दर्शन और चारित्र की समन्वित आराधना यहां की है, वैसी आराधना अन्यत्र दुर्लभ है। इसलिए मैं कहता हूं कि शक्ति का गोपन मत करो।' भष्यम् ४१–सन्धिविवरम् । तच्च शरीरगतं चैतन्य- संधि का अर्थ है-विवर। शरीरगत विवर चैतन्यकेन्द्र केन्द्रम् । ज्ञानदर्शनचारित्रात्मको वा भावसन्धिः । कहलाता है । यह द्रव्य संधि है। भाव सन्धि है-ज्ञान, दर्शन और भगवान महावीरः शिष्यान् प्रेरयन स्वयं प्रवक्ति-यथा चारित्र । भगवान् महावीर शिष्यों को प्रेरित करते हुए स्वयं कहते अत्र-अनेकान्तदष्टे: अपरिग्रहस्य समताया वा साध- हैं, जैसे मैंने यहां-अनेकांतदृष्टि, अपरिग्रह और समता की साधना में नायां मया महता वीर्येण सन्धिरन्विष्ट : आसे वितश्च, महान् पराक्रम के द्वारा सन्धि-ज्ञान, दर्शन और चारित्र की समन्वित एवं अन्यत्र-एकांतदृष्टौ परिग्रहवैषम्यान्वित- आराधना का अन्वेषण किया है और उसका पालन किया है, वैसा साधनायां तस्य अन्वेषणं आसेवनञ्च दुष्करमस्ति । अन्यत्र अर्थात् एकांतदृष्टि, परिग्रह और विषमता की साधना में संधि तस्माद ब्रवीमि-नो निहन्यात्-न निगृहेत वीर्यम् । का अन्वेषण और परिपालन दुष्कर है । इसलिए मैं कहता हूं-शक्ति परिग्रहवैषम्यान्विते मार्गे सन्धेरासेवनायायासं कृत्वा का गोपन मत करो। परिग्रह और विषमतायुक्त मार्ग में सन्धि के वीर्यं निहतं न कुर्यात् तथा अपरिग्रहसमतान्विते मार्गे अनुपालन का आयास कर अपनी शक्ति को मत गंवाओ तथा अपरिग्रह सन्धेरासेवनायां वीर्यस्य निगृहनं न कुर्यात् । और समतायुक्त मार्ग में सन्धि की आराधना करने में शक्ति का गोपन मत करो। प्रस्तुतवक्तव्यस्य संवादित्वं सम्पूर्णे नवमाध्ययने प्रस्तुत वक्तव्य की संवादिता पूरे नौवें अध्ययन में प्राप्त होती लभ्यते । ४२. जे पुव्वट्ठाई, णो पच्छा-णिवाई । जे पुट्ठाई, पच्छा-णिवाई। जे णो पुन्वट्ठाई, णो पच्छा-णिवाई। सं०-यः पूर्वोत्थायी नो पश्चान्निपाती, यः पूर्वोत्थायी पश्चान्निपाती, यः नो पूर्वोत्थायी नो पश्चान्निपाती । कोई पुरुष पहले उठता है और जीवन-पर्यन्त उत्थित ही रहता है-कभी नहीं गिरता। कोई पुरुष पहले उठता है और बाद में गिर जाता है। कोई पुरुष न पहले उठता है और न बाद में गिरता है। भाष्यम् ४२-परिणामवैचित्र्यात् सर्वे पुरुषाः न परिणामों की भिन्नता के कारण सभी मनुष्य समान शक्ति सदशवीर्या भवन्ति । तेषां नानात्वमिह दर्शितम् । वाले नहीं होते । प्रस्तुत आलापक में उन मनुष्यों का नानात्व बताया केचिन्महावीर्या भवन्ति । ते पूर्वमुत्थाय नो पश्चा- गया है। कुछ व्यक्ति महान् शक्ति-सम्पन्न होते हैं। वे पहले उठते १. उत्तरायणाणि, १९१२५ । वृत्तिः-त्रिविधं च त्रिभेवं सामायिकम्, अनुस्वारलोपात् २. वही, १९९०। सम्यक्त्वं सम्यक्त्व सामायिकम्, श्रुतं श्रुतसामायिकम्, तथा ३. वही, ३२११०६,१०७ । चारित्रं चारित्रसामायिकम् । ४. विशेषावश्यकमाष्य, गाथा २६७३: ५. आचारांग चूणि, पृष्ठ १७३ : णिहणंति वा गृहणंति वा सामाइयं च तिविहं सम्मत्त सुयं तहा चरित्तं च । छायणंति वा एगट्ठा। Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ 1 त्रिपातिनो भवन्ति, आजीवनं स्वीकृतं धर्ममनुपालयन्ति केचित् स्वस्थवीर्या भवन्ति ये पूर्वमुरषाय पश्चानि पतन्ति न स्वीकृतधर्मस्य निर्वाहं कुर्वन्ति पुरुषाः अहिंसा धर्म प्रति अवीर्या भवन्ति ते न पूर्व उत्तिष्ठन्ते न च न च पश्चानिपतन्ति ते गृह एव तिष्ठन्ति । केचित् , 1 ४३. सेवि तारिसए लिया, जे परिणाय लोगमणुस्सिओ । सं०] सोऽपि तादृशः स्यात् यः परिज्ञाय लोकमनुचितः । जो भिक्षु लोक परिग्रह का त्याग कर फिर उसका आश्रय लेता है, वह भी वैसा - गृहवासी जैसा हो जाता है। भाष्यम् ४३ - स भिक्षुरपि तादृश: - गृहवासिसदृशः स्यात् यः परिग्रहं परिज्ञाय - प्रत्याख्याय पुनरपि तस्य आश्रयणं करोति । भिक्षोः लक्षणत्रयं विद्यते -संयोगविप्र मुक्तत्वं अनगारएवं भिक्षणशीलत्वं च गृहस्थस्यापि प्रतिपक्षरूपा लक्षणत्रयी लभ्यते - संयोगकरणं, गृहवासः रसवती च सति परिग्रहे संयोगादयो भवन्ति । भिक्षरपि यदि परियही स्यात् तदा तस्य गृहस्थसंबंधिषु त्रिष्वपि लक्षणेषु प्रवृत्तिः संजायते भिक्षुगृहस्थयोर्मध्ये एषा भेदरेखा-य: अपरिग्रही स एव भिक्षुः, यश्च परिग्रही ससाधुवेषेऽपि गृहस्थ एव । आचारांग भाष्यम् , हैं और पश्चात् नहीं गिरते जीवन पर्यन्त स्वीकृत धर्म का अनुपालन करते हैं कुछ व्यक्ति स्वल्प शक्ति वाले होते हैं, वे पहले उठते हैं और बाद में गिर जाते हैं। वे स्वीकृत धर्म का निर्वाह नहीं कर पाते। कुछ पुरुष महिला धर्म की प्रतिपालना में शक्तिशून्य होते हैं वे न पहने उठते हैं और न फिर गिरते हैं। वे घर में ही रहते हैं। ४४. एयं निवाय मुणिणा पवेदितं - इह आणाकंखी पंडिए अणिहे, पुण्वावर रायं जयमाणे, सया सीलं संपेहाए, सुणिया भवे अकामे अभं । सं० - एतद् निदाय मुनिना प्रवेदितम् इह आज्ञाकांक्षी पंडितः अनिहतः पूर्वापररात्रं यतमानः सदा शीलं संप्रेक्ष्य श्रुत्वा भवेद् अकाम: अझञ्झ । भाष्यम् ४४ - एतत् परिणामवैचित्र्यं निदाय-ज्ञात्वा मुनिना प्रवेदितम् इह जिनप्रवचने शरीरविषयेषु अरक्तः सन् आज्ञां काङ्क्षत् । पण्डितः - पापाद् विरतो विषयावर निहतः अस्नेहो वा भवेत् स पूर्वरात्र १. कोई साधक सिंहवृत्ति से निष्क्रमण करता है और उसी वृत्ति से साधना करता है तथा कोई साधक सिंहवृत्ति से निष्क्रमण करता है और शृगालवृत्ति वाला हो जाता है। ये दो विकल्प अभिनिष्क्रमण के हैं। वह भिक्षु भी गृहवासी के समान है जो परिग्रह का प्रत्याख्यान कर पुनः उसका आश्रय लेता है । भिक्षु के तीन लक्षण हैं - (१) संयोग से विप्रमुक्त (२) अनगारता (३) भिक्षणशीलता । गृहस्थ के भी इसके प्रतिपक्ष रूप तीन लक्षण हैं- (१) संयोग-करण (२) गृहवास (३) भोजन पकाना । परिग्रह होने पर ये तीनों होते हैं । भिक्षु भी यदि परिग्रही होता है तो गृहस्थ सम्बन्धी इन तीनों लक्षणों में उसकी प्रवृत्ति होती है। भिक्षु और गृहस्थ के बीच यह भेदरेखा है-जो अपरिग्रही है वही भिक्षु है जो परिग्रही है यह साधुवेश में भी गृहस्थ ही है । इस को जान कर भगवान् ने कहा- जिनशासन में प्रव्रजित पंडित मुनि आज्ञा में रुचि रखे, कषाय से आहत न हो, रात्रि के प्रथम और अन्तिम भाग में स्वाध्याय और ध्यान करे, सदा शील का अनुपालन करे, (लोक में सारभूत) तत्त्व को सुन कर काम और कलह से मुक्त बन जाए। धन्य और शालिभद्र भगवान् महावीर के पास दीक्षित हुए। उन्होंने स्वाध्याय, ध्यान और तपस्या में साघु जीवन बिताया और अन्त में समाधि-मृत्यु का वरण किया। यह उत्थित जीवन का निदर्शन है । परिणामों की इस विचित्रता - विभिन्नता को जानकर भगवान् ने कहा जैन शासन में दीक्षित मुनि शरीर और विषयों के प्रति अनासक्त रह कर आज्ञा की आकांक्षा करे। वह पंडित मुनि पापों से विरत और विषय-कपायों से अनित अपराजित हो अथवा स्नेहमुक्त पुण्डरीक और कुण्डरीक दो भाई थे कुण्डरीक दीक्षित हुआ। वह रुग्ण हो गया। महाराज पुण्डरीक ने उसकी चिकित्सा करवाई । वह स्वस्थ हो गया और साथ-साथ शिथिल भी। उसने साधुत्व को छोड़ दिया। यह उत्थित होने के बाद पतित होने का निदर्शन है । १।१९) । तीसरा विकल्प गृहवासी का है। २. द्रष्टव्यम् - ४।३२ सूत्रस्य टिप्पणम् । Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०४. लोकसार, उ० ३. सूत्र ४३-४५ २५६ मपररात्रं च यतमानो भवेत् ।' हो । वह रात्री के प्रथम और अन्तिम भाग में यतमान रहे। यतमानपदेन' धर्मजागरिकया जागरणस्य, आत्मना 'यतमान' पद से धर्म-जागरिका से जागृत रहने, आत्मा की आत्मनः संप्रेक्षायाः विषयनिवृत्तेः संकल्पाभ्यासस्य आत्मा से संप्रेक्षा करने, विषयों से निवृत्त होने तथा संकल्प का च निर्देशा: अवगम्यन्ते । सदा शीलं संप्रेक्षेत । चूर्णी अभ्यास करने के निर्देश प्राप्त होते हैं। मुनि सदा शील की अनुशीलपदस्य अनेके अर्था उपलभ्यन्ते-स्वभावः, अष्टादश- पालना करे। चूणि में 'शील' शब्द के अनेक अर्थ प्राप्त होते हैंशीलांगसहस्राणि, महाव्रतं, समाधिः, इन्द्रियसंवरः, स्वभाव, अठारह हजार शीलांग, महाव्रत, समाधि, इन्द्रिय-संवर, मनोवाक्कायदण्डविरतिः कषायनिग्रहश्च । मानसिक, वाचिक और कायिक हिंसा से विरति और कषाय-निग्रह । ___ लोकसारं -अपरिग्रहधर्म श्रुत्वा अकामः 'लोकसार'- अपरिग्रह धर्म को सुन कर मुनि अकाम और अझञ्झश्च भवेत् । अकामः -अलुब्धः इच्छाकाममुक्त अझझ बन जाए। अकाम का अर्थ है - अलुब्ध, इच्छाकाम से मुक्त । इति यावत् । अझनः--कलहमुक्तः । सति अकामभाव- अझञ्झ का अर्थ है-कलह से मुक्त । अकाम की सिद्धि होने पर सिद्धौ कलहः क्रोधो वा स्वत एव शाम्यति । काममूलः कलह और क्रोध स्वतः ही शांत हो जाते हैं । क्रोध का मूल है-काम, क्रोधः इति तथ्यम् । यह तथ्य है। ४५. इमेणं चेव जुज्झाहि, कि ते जुझण बज्झओ? सं०-अनेन चैव युध्यस्व, किं ते युद्धेन बाह्यतः । इस कर्म-शरीर के साथ युद्ध कर, दूसरों के साथ युद्ध करने से तुझे क्या लाभ ? १. आचारांग चूणि, पृष्ठ १७५ : अत्र चूणिकारेण पूर्व- ३ आचारांग चूणि, पृष्ठ १७५ : तत्थ सील सभावो, अट्ठारस परम्परायाः निर्देशः कृतः-तत्थ थेरकप्पं पति पुव्वराय वा सोलंगसहस्साणि सील, सो साहुसहावो । अहवाएगजामं जग्गति पच्छिमे रत्तेवि एगं, मज्झे वो यामे सुयति, महावतसमाधानं तथैवेन्द्रियसंवरः। तत्थवि सत्तितो जागरति, सुयंतोऽवि जयणाए सुयति, त्रिदंडविरतित्वं च, कषायानां च निग्रहः ।। णिक्खमपवेसेसु य जयणं करेति, जो एवं अचक्खुविसएवि ४. आचारांग चूणि, पृष्ठ १७५ : णिसामियत्ति अहिगारो जतणं करेति सो दिवसओ पुग्वण्हअवरोहममण्हेसु परे व अणुयत्तति, एवं पुश्वरत्तअवरत्तसमएसु लोगसार जोसिज्जासि । जयति, जिणकप्पिया ततियजामे सोतुं सत्तसु जामेसु जयंति, ५. प्रस्तुत सूत्र (४४) में साधु-जीवन की स्थिरता के सात सूत्रों एवमवधारणे, अवहितमेव जयंति, जं भणितं-सुयंतावि का प्रतिपादन किया गया है । संक्षेप में वे इस प्रकार हैं--- जव्वसा जतेंति। १. आज्ञाप्रियता-आज्ञा शब्द के दो अर्थ हो सकते हैं२. पातञ्जलयोग दर्शन (१।१५) की टीका में वैराग्य की ज्ञान और उपदेश। तीन अवस्थाएं बतलाई गई हैं-वशीकार एक बार में ही २. विषय-कषाय से अपराजेयता अथवा स्नेहमुक्ति । सिद्ध नहीं हो जाता है। उससे पहले वैराग्य की तीन ३. पूर्वरात्र और अपररात्र में यतना--रात्री के प्रथम दो अवस्थाएं हैं-(१) यतमान (२) व्यतिरेक और (३) प्रहर पूर्वरात्र और शेष दो प्रहर अपररात्र कहलाते हैं। एकेन्द्रिय। इन तीन अवस्थाओं के बाद वशीकार सिद्ध रात्री-जागरण की दो परम्पराएं रही हैंहोता है। विषयों की ओर इन्द्रियों को प्रवृत्त नहीं १. केवल तीसरे प्रहर में सोना, शेष तीन प्रहर में जागना । कराऊंगा। इस प्रकार की चेष्टा करते रहना 'यतमान २. प्रथम और अन्तिम प्रहर में जागना और बीच के दो वैराग्य' है । यतमान वैराग्य स्वल्पाधिक मात्रा में सिद्ध हो प्रहरों में सोना। जाने पर जब किसी-किसी विषय से राग हट जाता है और रात्री के दो या तीन प्रहरों में जागृत रहकर ध्यान किसी-किसी में क्षीण होता रहता है तब व्यतिरेक के साथ और स्वाध्याय करना, अप्रमत्त रहना 'यतना' है। अथवा पृथक् करके कहीं-कहीं वैराग्यावस्था दृढ़ करने का ४. शील-संप्रेक्षा-महावतों का अनुशीलन, इन्द्रिय का सामर्थ्य उत्पन्न हो जाता है। यह 'व्यतिरेक वैराग्य' संयम, मन, वाणी और काया की स्थिरता, क्रोध, मान, कहलाता है। अभ्यास के द्वारा इसको अधीन करने पर माया और लोभ का निग्रह-यह शील है। इसका सतत जब सभी इन्द्रियां बाह्य विषयों से भली-भांति निवृत्त हो दर्शन 'शील-संप्रेक्षा' है। जाती हैं, पर उत्सुकता के रूप में मन में कुछ अनुराग ५. लोकसार का श्रवण-लोक में सारभूत तत्त्व-ज्ञान, अवशिष्ट रहता है, तब उस अवस्था को 'एकेन्द्रिय वैराग्य' दर्शन और चारित्र का श्रवण । कहा जाता है, क्योंकि वह केवल मनोरूप एक ही इन्द्रिय में ६. कामना का परित्याग । रहता है। ७. कलह का परित्याग । Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० आचारांगभाष्यम् भाष्यम् ४५ -शिष्याः प्रोचुः--भगवन् ! 'णो णिहेज्ज शिष्यों ने कहा---'भगवन् ! शक्ति का गोपन मत करो'- इस बोरिय' इति निर्देशमवलम्ब्य अनिगृहितबलवीर्याः निर्देश को मान कर हम अपने बल और शक्ति का गोपन नहीं करते हुए पराक्रममाणाः स्मः तथापि मोहं समूलमुन्मूलयितं संयम-साधना में पराक्रम कर रहे हैं, फिर भी हम मोह का सम्पूर्ण न शक्नुमः, तेन सारपदस्य प्राप्तये किञ्चिदन्यत् उन्मूलन नहीं कर पा रहे हैं, इसलिए सारपद (ज्ञान, दर्शन आदि) की श्रोतुमिच्छामः । अस्माकं मनसि सारपदस्य प्राप्तेः प्राप्ति के लिए कुछ और सुनना चाहते हैं। हमारे मन में सारपद की प्रबला उत्कण्ठा विद्यते। तदर्थं वयं अशक्यमपि कर्तु- प्राप्ति की प्रबल उत्कंठा है। उसकी प्राप्ति के लिए हम अशक्य कार्य मूत्सहामहे । अपि वयं सिंहेनापि युध्यामहे, शरीरत्याग- करने के लिए भी उत्साहित हैं। और तो क्या, हम सिंह के साथ भी मपि कुर्महे ।' एतत् श्रुत्वा भगवता प्रोक्तं-"क्रियमाणं युद्ध करने और शरीर का त्याग भी करने के लिए तैयार हैं। यह सुन कृतम्' इति सिद्धान्तानुसारं युष्माभिः कथ्यते तत् कर भगवान् बोले-'क्रियमाणं कृतं'--इस सिद्धांत के अनुसार तुम जो कृतमेव, परन्तु सारपदस्य प्राप्तये न सिंहेन सह योद्धव्यं, कह रहे हो, वह तुमने कर डाला। किन्तु सारपद की प्राप्ति के लिए योद्धव्यमस्ति आत्मना। तदानीं भगवता आत्मयुद्धस्य सिंह के साथ युद्ध नहीं करना है । युद्ध करना है अपनी आत्मा के साथ । प्रवचनं कृतम्-अनेन इन्द्रियमानसात्मकेन औदारिक- तब भगवान् ने आत्म-युद्ध के विषय में प्रवचन किया कि तुम इस इन्द्रिय शरीरेण कर्मशरीरेण च युध्यस्व । बाह्ययुद्धेन-सिंहादिना और मानसात्मक औदारिक शरीर और कर्मशरीर के साथ युद्ध करो। युद्धकरणेन तव कि सेत्स्यति? यदि भणत 'निर्वाणार्थ सिंह आदि के साथ किए जाने वाले बाह्य युद्ध से तुम्हें क्या सिद्धि वयं प्राणानपि परित्यजामः' तद् एतद् बोद्धव्यम्- मिलेगी ? यदि तुम कहो कि निर्वाण के लिए हम प्राणों का बलिदान भी कर सकते हैं, तो तुम्हें यह जानना चाहिए... ४६. जुद्धारिहं बलु दुल्लहं । सं० युद्धाहं खलु दुर्लभम् । युद्ध के योग्य सामग्री निश्चित ही दुर्लभ है। भाष्यम् ४६ –युद्धाहं एतद् औदारिकं शरीरं निश्चितं युद्ध के लिए समर्थ इस औदारिक शरीर की प्राप्ति निश्चित दुर्लभं वर्तते । अत: यावज्जरा न बाधते, व्याधिर्न वर्धते, ही दुर्लभ है, इसलिए जब तक बुढ़ापा न सताए, व्याधि न बढ़े, इन्द्रियाणि न हीनानि भवन्ति तावद् युध्यस्व । इन्द्रियां कमजोर न हों, तब तक युद्ध करते रहो। ४७. जहेत्थ कुसलेहि परिणा-विवेगे भासिए। सं०-यथात्र कुशलः परिज्ञाविवेकौ भाषितौ । भगवान् ने पुद्ध के प्रसंग में परिज्ञा और विवेक का प्रतिपादन किया। भाष्यम् ४७–अस्मिन् प्रसङ्गे भगवता परिज्ञाविवेकौ इस प्रसंग में भगवान् ने परिज्ञा और विवेक का प्रतिपादन प्रतिपादितौ । आत्मयुद्धे परिज्ञाविवेकनाम्नी शस्त्रे किया है। आत्म-युद्ध में परिज्ञा और विवेक-इन दो शस्त्रों का प्रयोक्तव्ये ।' अनेन सारपदस्य विशिष्टा उपलब्धिः प्रयोग किया जाए। इससे सारपद की विशिष्ट उपलब्धि होगी। तुम भविष्यति। यूयं पूर्व आत्मशरीरयोः परिज्ञां कुरुत, सबसे पहले आत्मा और शरीर की परिज्ञा करो, उनके यथार्थ स्वरूप तयोर्यथार्थं स्वरूपं जानीत, ततो विवेकं कुरुत । विवेकः- को जानो और फिर दोनों का विवेक करो। विवेक का अर्थ हैनिर्ममत्वम् । इदं शरीरं मम नास्ति इति अनुप्रेक्षध्वम् । निर्ममत्व । 'यह शरीर मेरा नहीं है'- इस प्रकार अनुप्रेक्षा करो । इस अनेन विवेकेन-भेदविज्ञानेन मोहसंस्काराः क्षीणाः विवेक-भेदविज्ञान से मोह के संस्कार क्षीण होंगे । इन्द्रियों के तथा भविष्यन्ति। इन्द्रियमनोविषयपूत्तिकरणेन शरीरेण मन के विषयों की सम्पूर्ति करने में शरीर से जितना-जितना सहयोग १. आत्म-युद्ध कर्म को क्षीण करने का युद्ध है। इस युद्ध के अनुभूति । शरीर-विवेक-शरीर से भिन्नता की अनुभूति । दो मुख्य शस्त्र हैं-परिज्ञा और विवेक-जानो और भाव-विवेक-निर्ममत्व की अनुभूति । कर्म-विवेक-कर्म असहयोग करो। विवेक कई प्रकार का होता है । परिग्रह से पृथक्त्व की अनुभूति । विवेक-धन, धान्य, परिवार आदि से पृथक्त्व की Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ५. लोकसार, उ० ३. सूत्र ४६-५० २६१ यावान् यावान् सहयोगः तावान् तावान् मोहस्योपचयः, प्राप्त होता है, उतनी ही मात्रा में मोह का उपचय होता है और यावान् यावान् असहयोगः तावान् तावान् मोहस्यापचयः। जितना-जितना असहयोग प्राप्त होता है, उतनी ही मात्रा में मोह तेन यूयं विवेकाभ्यासं कुरुत । का अपचय होता है। इसलिए साधको ! तुम विवेक-भेदज्ञान का अभ्यास करो। ४८.चुए हु बाले गम्भाइसु रज्जइ। सं०-च्युतः खलु बालः गर्भादिषु रज्यति । धर्म से च्युत होने वाला अज्ञानी साधक गर्म आदि में फंस जाता है । भाष्यम् ४८-यो मुनिः एवं सुदुर्लभं लोकसारं-विवेक जो मुनि इस प्रकार सुदुर्लभ लोकसार-विवेक को प्राप्त कर लब्ध्वा प्रमाद्यति न तु आत्मयुद्धे प्रवृत्तो भवति स धर्मात् प्रमाद करता है, आत्मयुद्ध में प्रवृत्त नहीं होता, वह धर्म से च्युत च्युतः गर्भादिषु' रज्यति ।' 'आदि'शब्दात् जन्ममरण- होकर गर्भ आदि में फंस जाता है। आदि शब्द से जन्म-मरण तथा दुःखानां परिग्रहः। दुःखों का ग्रहण किया गया है। ४६. अस्सि चेयं पव्वुच्चति, रूवंसि वा छणंसि वा। सं०-अस्मिन् चैतत् प्रोच्यते, रूपे वा क्षणे वा । इस अर्हत् शासन में यह बलपूर्वक कहा जाता है-रूप और हिंसा में आसक्त होने वाला च्युत हो जाता है। भाष्यम् ४९-अस्मिन् प्रवचने प्रोच्यते--रूपे वा क्षणे इस अर्हत् शासन में कहा जाता है जो रूप और क्षणवा यो रज्यति स धर्मात् च्युतः गर्भादिषु पर्यटनं हिंसा में आसक्त होता है वह धर्म से च्युत होकर गर्भ आदि में पर्यटन करोति । करता है। रूपम्-चक्षुरिन्द्रियस्य विषयः इन्द्रियविषयः पदार्थो रूप का अर्थ है-चक्षुइन्द्रिय का विषय, इन्द्रिय-विषय वा। क्षणम्-हिंसा। अथवा पदार्थ । क्षण का अर्थ है-हिंसा । ५०. से हु एगे संविद्धपहे मुणी, अण्णहा लोगमुवेहमाणे । सं०-स खलु एकः संविद्धपथः मुनिः अन्यथा लोकमुपेक्षमाणः । केवल वही मुनि अपने पथ पर आरूढ रहता है, जो लोक को भिन्न दृष्टि से देखता है। भाष्यम् ५०-रूपासक्तो मनुष्यो जगति रूपमेव सारं जो मनुष्य रूप से आसक्त होता है वह जगत् में रूप को ही मन्यते, हिंसासक्तो मनुष्यश्च हिंसामेव समस्यायाः सार मानता है और हिंसा में आसक्त मनुष्य हिंसा को ही समस्या का समाधानं मन्यते । मुनेः दृष्टिकोणः परिवर्तितो भवति, समाधान मानता है । मुनि का दृष्टिकोण भिन्न होता है, इसलिए वह तेन स तं विषयलोक हिंसालोकं च अन्यथा उपेक्षते । स उस विषयलोक और हिंसालोक को अन्यथा देखता है, भिन्नदृष्टि रूपे अनासक्तः सन् मन्यते क्षणभंगुरमिदं परिणामकाले से देखता है । वह रूप मे अनासक्त रह कर यह मानता है कि यह दुःखदं च । तथा स मन्यते हिंसास्ति सर्वासां समस्यानां रूप क्षणभंगुर है, परिणाम-काल में दुःख देने वाला है। वह यह भी मूलम् । हिंसाप्रसूतानि सर्वाणि दुःखानि च । य एवं मन्यते मानता है कि हिंसा सभी समस्याओं का मूल है। सभी दुःख हिंसा से स एव एको मुनिःसंविद्धपथो भवति, स्वीकृतात् मार्गात् उत्पन्न होते हैं। जो ऐसा मानता है केवल वही मुनि अपने पथ पर च अच्युतः इति तात्पर्यम् । आरूढ रहता है। इसका तात्पर्य है कि वह अपने स्वीकृत मार्ग से च्युत नहीं होता। १. आचारांग चूणि, पृष्ठ १७६ : गम्मातिसु दुक्खविसेसेसु, ते ३. वही, पृष्ठ १७६ : 'कसि वा', स्वप्रधानविषयाः तेण य गम्भाति पसवकोमारजोवणमनिममरणणरगदुक्खावसाणो तग्गहणं, उक्तं चसंसारपवंचो, अहवा गमजम्ममरणणरगदुक्खेसुत्ति एतेसु 'चालषा चक्षुषा येन, विषया रूपिणिस्सिता। गर्भादिसु देहविगप्पेसु संसारविगप्पेसु वा। रूपप्रेष्ठाश्च सर्वेपि, रूपस्य ग्रहणं ततः ॥' २. वही, पृष्ठ १७६ : रज्जति वा पञ्चति वा उज्मतिबा एगट्ठा। Jain Education international Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ ५१. इति कम्मं परिणाय, सव्वसो से ण हिंसति । संजमति णो पगन्भति । सं० इति कर्म परिज्ञाय सर्वशः स न हिंसति । संयच्छते नो प्रगल्भते । इस प्रकार कर्म को पूर्ण रूप से जान कर वह किसी की हिंसा नहीं करता। वह इन्द्रियों का संयम करता है, उनका उच्छृंखल व्यवहार नहीं करता । भाष्यम् २१ एवं कर्म तस्य वन्धहेतुं च परिज्ञाय सर्वशः स प्राणिनो न हिनस्ति अहिंसाया मूलमस्ति संयम:, अतः स इन्द्रियाणां मनसः प्रवृत्तीनां च संयमं करोति । संयमस्य मूलमस्ति लज्जा आत्मानुशासनं वा लज्जावान् पुरुषः रहस्यपि अनावरणीयं नाचरति न घृष्टतामवलम्बते । । , ५२. उबेहमानो पत्ते सायं । सं० उपेक्षमाणः प्रत्येकं सातम् । सुख अपना-अपना होता है - साधक इसको निकटता से देखे । भाष्यम् ५२ – सुखं दुःखं च प्रत्येकं अस्ति, एतद् आजवनसूत्रं बहुधा गीतमस्ति प्रस्तुतागमे । 'प्रत्येक सातम्' - एतद् अहिंसायाः संयमस्य च आलम्बनं भवति । भाष्यम् ५३ - वर्ण: २ यशः । तदादिश्य किञ्चिदपि नारभेत यथा दशकालिके - नो कित्तवण्णसद्द सिलोगट्टयाए तवमहिट्ठेज्जा 3 2 इस प्रकार वह कर्म और उसके बंध हेतु को पूर्ण रूप से जान कर प्राणियों की हिंसा नहीं करता अहिंसा का मूल है संयम इसलिए वह इन्द्रियों और मन की प्रवृत्तियों का संयमन करता है । संयम का मूल है लम्बा अथवा आत्मानुशासन लज्जावान् पुरुष एकांत में भी अनावरणीय का आचरण नहीं करता। वह उच्छृंखल व्यवहार नहीं करता । - । ५३. वण्ण. एसो णारभे कंचणं सव्वलोए । सं० वर्णादेशी नारभेत कञ्चन सर्वलोके । मुनि यश का इच्छुक होकर किसी भी क्षेत्र में कुछ भी न करे । सर्वलोके वर्णः – रूपम् । तदर्थं वमनविरेचनस्नेहपानादीनां प्रयोगो न कर्त्तव्यः, हस्तपादादीनां प्रक्षालनं वा । लोकः ४ -- जगत् शरीरं वा । आचारांग भाष्यम् १. द्रष्टव्यम् १1१२१, १२२; २।२२, २७८ ५।२४ । २. आचारांग चूर्ण, पृष्ठ १७८ : वणिज्जति जेण वण्णो, जं भणितं -- तवसोय संजमो एव आयजसा । 'सुख और दुःख अपना-अपना होता है' – यह आलम्बनसूत्र प्रस्तुत आगम में अनेक बार बताया जा चुका है। 'शुख अपना-अपना होता है' – यह अहिंसा और संयम का आलम्बन बनता है । . वर्ण का अर्थ है - यश अनगार यश का इच्छुक होकर किसी भी क्षेत्र में कुछ भी न करे । दशवेकालिक सूत्र में कहा है-मुनि कीर्ति, वर्ण, शब्द तथा श्लोक के लिए तप न करे । ५४. एप्प विदिसपणे निविचारी अरए पयासु । , सं० एकात्ममुखः विदिशाप्रतीर्णः निर्विण्णचारी अरतः प्रजासु । मुनि अपने लक्ष्य की ओर मुख किए चले, वह विरोधी दिशाओं का पार पा जाए, विरक्त रहे, स्त्रियों में रत न बने । वर्ण का दूसरा अर्थ है रूप । मुनि अपने सौन्दर्य की अभिवृद्धि के लिए वमन, विरेचन, स्नेहपान आदि का प्रयोग न करे, हाथ-पैर आदि का प्रक्षालन न करे । लोक का अर्थ है-जगत् अथवा शरीर । ३. दसवेआलियं ९१४ सूत्र ६ । ४. आचारांग चूर्ण, पृष्ठ १७८ लोगो तिविहो - उड्डाइ, कायलोगो वा । Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ५. लोकसार, उ० ३. सूत्र ५१-५७ भाष्यम् ५४-साधकः पुरुषः एकात्ममुखो' भवेत् । साधक पुरुष एकात्ममुख हो। उसका चित्त अथवा उसकी तस्य चित्तं अभिमुखता वा केवलं आत्मानं प्रति स्यात् न अभिमुखता केवल आत्मा के प्रति रहे, पदार्थ के प्रति नहीं। सम्यक्त्व, तु पदार्थ प्रति । सम्यक्त्वज्ञानचारित्राणि दिशाः, ज्ञान और चारित्र-ये दिशाएं हैं। उनसे व्यतिरिक्त सभी विदिशाएं तद्व्यतिरिक्ताः विदिशाः, यथा-एकांताग्रहात्मकः हैं। जैसे-एकांत आग्रही दृष्टिकोण सम्यक्त्व की विदिशा है। दृष्टिकोणः सम्यक्त्वस्य विदिशा, हिंसासमर्थकानि हिंसा के समर्थक शास्त्र ज्ञान की विदिशाएं हैं। विषय और कषाय शास्त्राणि ज्ञानस्य विदिशाः, विषयकषायाश्चारित्रस्य चारित्र की विदिशाएं हैं । मुनि इन विदिशाओं को आत्मा के द्वारा विदिशाः। एताः विदिशाः आत्मना तीर्णाः प्रतीर्णा वा तैर जाए, उनका पार पा जाए। वह निविष्णचारी हो- पदार्थ, भवेयुः। स निविण्णचारी भवेत्-पदार्थ स्वजनं शरीरं स्वजन और शरीर के प्रति विरक्त रहे। प्रजा का अर्थ है-स्त्री। प्रति च निर्वेदं कुर्यात् । प्रजा:-स्त्रियः । तासु रतिं न वह उनमें रत न बने । कुर्यात् । ५५. से वसुमं सव्व-समन्नागय-पण्णाणेणं अप्पाणणं अकरणिज्जं पावं कम्मं । सं०-स वसुमान् सर्वसमन्वागतप्रज्ञानेन आत्मना अकरणीयं पापं कर्म । संयमी साधक के लिए पूर्ण सत्य-प्रज्ञ अन्तःकरण से पाप-कर्म अकरणीय है। भाष्यम् ५५-वसुमान्'-संयमी । तादृशस्य वसुमान का अर्थ है-संयमी। ऐसे संयमी साधक के लिए पूर्ण साधकस्य सर्वसमन्वागतप्रज्ञानेन आत्मना पापं कर्म सत्यप्रज्ञ अन्तःकरण से पाप-कर्म अकरणीय होता है। जिस साधक में अकरणीयं भवति । यस्मिन् सर्वविषयग्राहिणी सत्य- सभी विषयों को ग्रहण करने वाली अथवा सत्य विषयग्राहिणी प्रज्ञा विषयग्राहिणी वा प्रज्ञा उदिता भवति स एव पापकर्म का उदय हो जाता है, वही पापकर्म को अकरणीय मानता है। अकरणीयं मन्यते । ५६. तं णो अन्नेसि। सं०-तन्नो अन्वेषयेत् । साधक उसका अन्वेषण न करे। भाष्यम् ५६-प्रज्ञावत: पापं कर्म अकरणीयं, तस्मात् प्रज्ञावान् साधक के लिए पापकर्म अकरणीय होता है, इसलिए तस्य अन्वेषणं न कुर्यात्, तस्य सम्मुखमपि न पश्येत् । वह उसका अन्वेषण न करे, उसके सामने भी न देखे । ५७. जे सम्मं ति पासहा, तं मोणं ति पासहा । जं मोणं ति पासहा, तं सम्मं ति पासहा । सं०-यत् सम्यगिति पश्यत, तत् मौनं इति पश्यत । यत् मौनं इति पश्यत, तत् सम्यगिति पश्यत । तुम देखो-जो सम्यक है, वह ज्ञान है । जो ज्ञान है, वह सम्यक् है । १. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ १७८ : 'एगप्पमुहे' एगं अस्स मुहं एगचित्तो-एगमणो सारपदाभिमुहो। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १९२ : एको मोक्षोऽशेषमल कलंकरहितत्वात् संयमो वा रागद्वेषरहितत्वात् तत्र प्रगतं मुखं यस्य स तथा, मोक्षे तदुपाये वा दत्तक दृष्टिर्न कञ्चन पापारम्भमारमेत इति । (ग) जिसका मुख लक्ष्य की ओर होता है, वही विदिशाओं का पार पा सकता है। विदिशाओं का पार पाने के सकल्प-सूत्र हैं१. मैं अज्ञान को छोड़ता हूं, ज्ञान (आत्मानुभव) को स्वीकार करता हूं। २. मैं मिथ्यात्व को छोड़ता हूं, सम्यक्त्व को स्वीकार करता हूं। ३. मैं अचारित्र को छोड़ता हूं, चारित्र को स्वीकार करता हूं। आसक्ति और रति ---ये दोनों लक्ष्य से भटकाने वाले हैं। विदिशाओं का पार पाने वाला इन दोनों के भटकाव से मुक्त होता है। २. आचारांग चूणि, पृष्ठ १७९ : वसंति तंमि गुणा इति वसु, तं च वसुंधणं भावे संजमो जस्स अत्थि सो वसुमं । ३. चूणिकृता 'अण्णेसि' इति पवस्य 'अण्णेसा' इति व्याख्यानं कृतम्---'तपणो अणेसि सयाणं करिज्जा' (चूणि, पृष्ठ १७९)। Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ ' भाष्यम् ५७ --- मौनं संयमः । सम्यक् – सम्यक्त्वम् । निश्चयनयानुसारं यः संयमी स एव सम्यग्दृष्टिर्भवति तेन सम्यक्त्वसंयमयोरविनाभावोऽत्र दर्शितः । अत्र सम्यरूपदेन ज्ञानसम्यक्त्वयोर्द्वयोरपि ग्रहणं जायते उक्तं च चूर्णे - 'जं सम्मतं तत्य नियमा णाणं, जत्थ जाणं तत्य जिपमा सम्बतं अतो भयमवि सम्म मौनं ज्ञानमित्यपि सम्मतम् । ५८. इमं सवर्क सिटिलेहि अद्दिज्जमानहि गुणासाएहि सं० - इदं शक्यं शिथिल जयमार्गः गुणास्वाद वकसमाचार प्रमसः अगारमावसद्भिः । जिनकी धृति मन्द है, जो स्नेहार्द्र हैं, विषयलोलुप हैं, मायापूर्ण आधार वाले हैं, प्रमत्त हैं और जो गृहबासी हैं, उनके लिए यह ज्ञान शक्य नहीं है। भाष्यम् ५८ - इदं मौनं तेषां शक्यं नास्ति ये तपसि संयमे च शिथिलाः सन्ति न सन्ति च धृतिमन्तः, ये सन्ति स्नेहार्द्राः स्वजने ममत्ववन्तः - स्वजने ममत्ववन्तः उपकरणे च आसक्ताः ये गुणेषु - शब्दादिविषयेषु स्वयन्ते अथवा सातं मन्यन्ते ये सन्ति वऋसमाचाराः - अकृत्यस्थानमासेव्य नालोचनां कुर्वन्ति ये सन्ति प्रमत्ताः धर्म साधनां प्रति अनुत्साहवन्तः ये सन्ति अगारमावसन्त: येषां एवंविधा चिंता भवति न गृहस्यतुल्यः आश्रमोस्तीति । इदं तेषामेव शक्यं ये सन्ति धृतिमन्तः, अपरिग्रहाः, विषयविरताः ऋजवः, अप्रमत्ताः, गृहं त्यक्तुं समर्थाश्च । ५४. मुणी मोणं समायाए, पुणे कम्म सरीरमं । सं० – मुनिः मौनं समादाय धुनीयात् कर्मशरीरकम् । मुनि ज्ञान को प्राप्त कर कर्म शरीर को प्रकम्पित करे । यह मौन की आराधना उनके लिए शक्य नहीं है जो तप और संयम में शिथिल हैं, जो धृतिमान् नहीं हैं, जो स्नेहार्द्र हैं – स्वजनों के प्रति ममत्व रखने वाले और उपकरणों में आसक्त हैं, जो गुणों शब्द आदि विषयों में लोलुप हैं अथवा जो सुख-स्वादु हैं, जो मायापूर्ण आचार वाले हैं - अकरणीय का आचरण कर आलोचना नहीं करते, जो प्रमत्त है-धर्म की साधना के प्रति अनुत्साहित है, जो गृहवासी है जो ऐसा चितन करते हैं कि गृहस्थ-तुल्य कोई साधन नहीं है। हैं— आश्रम १. आचारांग चूर्णि, १७९ : णिच्छयणयस्स जो चरिती सो सम्मविट्टी । २. (क) आचारांग पूणि, पृष्ठ १७९ । आचारांग भाष्यम् मौन का अर्थ है संयम और सम्यक् का अर्थ है- सम्यक्त्व । निश्चयनय के अनुसार जो संयमी होता है यही सम्पष्ट होता है। प्रस्तुत आलापक में सम्यक्त्व और संयम का अविनाभाव बताया गया है यहां 'सम्यम्' शब्द से ज्ञान और सम्यक्त्व दोनों का ग्रहण किया गया है। चूर्णि में कहा है- जहां सम्यक्त्व है वहां निश्चितरूप से ज्ञान है और जहां ज्ञान है वहां निश्चित रूप से सम्यक्त्व है । इसलिए दोनों सम्यक्त्व हैं। मौन का अर्थ ज्ञान भी सम्मत है । (ख) व्यवहारनय की दृष्टि से ज्ञान और आचार में दूरी मानी जाती है। निश्चयनय के अनुसार उनमें कोई दूरी नहीं होती। सम्यग् दर्शन और सम्यम् ज्ञान की परिणति सम्यक् चारित्र है । प्रस्तुत सूत्र का प्रतिपाद्य है - ज्ञान का सार आचार है। आचार-शून्य ज्ञान अन्ततः समीचीन कैसे बना रह सकता है ? सूत्रकार को सम्यग् ज्ञान और सम्यग् आचरण की एकता बंकसमायारेहि पमतेहि गारमावसंतेहि । यह मौन की साधना उनके लिए ही शक्य है जो धृतिमान् हैं, अपरिग्रही है, विषयों से विरत है, ऋऋजु हैं, अप्रमत हैं और जो गृहवास को छोडने में समर्थ हैं । इष्ट है। उनके अनुसार सम्यग् ज्ञान सम्यग् आचरण होने की सूचना देता है और सम्यग् आचार सम्यग् ज्ञान होने की सूचना देता है। एक को देखकर दूसरे को 'सहज ही देखा जा सकता है । 'सम्म' शब्द का संस्कृत रूप साम्य भी किया जा सकता है। यहां साम्य का अर्थ प्रासंगिक भी है। उसके सन्दर्भ में प्रस्तुत सूत्र का अनुवाद इस प्रकार होगा तुम देखो, जो साम्य है, वह साधुत्व है। जो साधुत्व है, वह साम्य है । Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६५ अ० ५. लोकसार, उ०३-४. सूत्र ५८-६२ ६०. पंतं लूहं सेवंति, वीरा समत्तवंसिणो। सं०-प्रान्तं रूक्षं सेवन्ते वीराः समत्वदर्शिनः । समत्वदर्शी वीर प्रान्त-नीरस और रूक्ष आहार का सेवन करते हैं । ६१. एस ओहंतरे मुणी, तिण्णे मुत्ते विरए वियाहिए।-त्ति बेमि।। सं०-एष ओघन्तरः मुनिः तीर्णः मुक्तः विरतः व्याहृतः । ---इति ब्रवीमि । जन्म-मृत्यु के प्रवाह को तैरने वाला यह मुनि तीर्ण, मुक्त और विरत कहलाता है। ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् ५९-६१-द्रष्टव्यं २/१६३,१६४,१६५ क्रमशः इन तीन सूत्रों ५९,६०,६१ की व्याख्या के लिए देखें-क्रमशः सूत्राणां भाष्यम् । २।१६३, १६४ और १६५ सूत्रों का भाष्य । चउत्थो उद्देसो : चौथा उद्देशक ६२. गामाणुगाम दूइज्जमाणस्स दुज्जातं दुप्परक्कंतं भवति अवियत्तस्स भिक्खणो। सं.-ग्रामानुग्रामं दूयमानस्य दुर्यातं दुष्पराक्रान्तं भवति अव्यक्तस्य भिक्षोः । जो भिक्षु अव्यक्त अवस्था में अकेला प्रामानुग्राम विहार करता है, वह उपद्रवों से अभिभूत होता है और अवांछनीय पराक्रम करता है। भाष्यम् ६२-इदानीं अव्यक्तस्य एकलविहारे प्रस्तुत आलापक में सूत्रकार अव्यक्त-अगीतार्थ साधक के जायमानान् अपायान् दर्शयति सूत्रकारः । अव्यक्तः एकलविहार में होने वाले दोषों का दिग्दर्शन कराते हैं। साधक श्रुतश्रुतेन वयसा च भवति । येन आचारप्रकल्पः अधीत:- ज्ञान तथा अवस्था से अव्यक्त होता है। जिसने आचारप्रकल्प अर्थतोऽधिगतः अथवा येन पठितेन एकलविहारप्रतिमा- (निशीथ सूत्र) को पढ लिया है, उसके अर्थ को अधिगत कर लिया है योग्यो भवति स श्रुतेन व्यक्तः। येन आचारप्रकल्पो अथवा जिसके पढने से एकल-विहार-प्रतिमा की योग्यता सम्पादित कर नाधीतः स श्रुतेन अव्यक्तः । षोडशवर्षादधो विद्यमानः ली है, वह ज्ञान से व्यक्त है। जिसने आचार-प्रकल्प नहीं पढा, वह वयसा अव्यक्तः । तस्य भिक्षोः ग्रामानुग्राम दूयमानस्य ज्ञान से अव्यक्त है। जो सोलह वर्ष से कम है, वह अवस्था से अव्यक्त दुर्यातं दुष्पराक्रांतं भवति । है। उस भिक्षु का प्रामानुग्राम विहरण करना दुर्यात और दुष्पराक्रान्त होता हैं। अनुग्राम:--विह्रियमाणग्रामादन्यः ग्रामः । दुर्यातं अनुग्राम का अर्थ है विहरण किए जाने वाले ग्राम से दूसरा दुष्पराक्रान्तम्-अव्यक्तस्य भिक्षोः एकलविहाराय गमनं ग्राम । दुर्यात और दुष्पराक्रांत का अर्थ है-अव्यक्त भिक्षु का अकेले उपद्रवैरभिभूतं भवति तथा तस्य पराक्रमोऽपि साधना- विहरण करना उपद्रवों से अभिभूत होना है और उसका पराक्रम भी पथात् प्रतिकूले मार्गप्रवर्तते ।। साधना मार्ग से प्रतिकूल मार्ग में ही लगता है। १. 'दूङच'-परितापे इति दिवादिगणस्थस्य धातोः 'वूयमान' कुछ व्यक्ति ज्ञान और अवस्था दोनों से अव्यक्त होते हैं। इति शानप्रत्ययरूपं निष्पद्यते, न तु 'इंगतो' इति धातोः। कुछ व्यक्ति ज्ञान से अव्यक्त और अवस्था से व्यक्त होते हैं। अस्मिन् विषये वृत्तिकारस्य मतमिदम् -'दूयमानस्य' कुछ व्यक्ति ज्ञान से व्यक्त और अवस्था से अव्यक्त होते हैं । अनेकार्यस्वाद् धातूनां विहरतः।' (वृ० १० १९३) कुछ व्यक्ति ज्ञान और अवस्था-दोनों से व्यक्त होते हैं। चूणिकारेण इदं मतं अन्यथा व्याख्यातम्-'हेमंतगिम्हासु सोलह वर्ष की अवस्था से ऊपर का व्यक्ति अवस्था से दोसु रिज्जति, जति दोहिं वा पादेहि रिज्जति दूइज्जति व्यक्त होता है और नौवें पूर्व की तीसरी आचार-वस्तु तक दूइज्जं ।' (चूणि, पृष्ठ १८१) को जानने वाला ज्ञान से व्यक्त होता है। २. शिष्य ने पूछा-'भंते ! अव्यक्त कौन होता है ?' जो मुनि ज्ञान और अवस्था-बोनों से व्यक्त होता है आचार्य ने कहा वह प्रयोजनवश अकेला विहार कर सकता है। Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ आचारांगभाष्यम् ६३. वयसा वि एगे बुइया कुप्पंति माणवा। सं०-वचसाऽपि एके उक्ताः कुप्यन्ति मानवाः । अव्यक्त मनुष्य थोड़े-से प्रतिकूल वचन से भी कुपित हो जाते हैं । भाष्यम् ६३–एके केचिद् अव्यक्ता मानवाः अप्रियेण कुछ एक अव्यक्त मनुष्य अप्रिय वचन से संबोधित होने पर भी वचसा संबोधिता: अपि कुप्यन्ति, प्रतिकूलां वाचमाकर्ण्य कुपित हो जाते हैं। वे प्रतिकूल वचन को सुन कर आवेश से अभिभूत आवेशाभिभूता भवन्ति । एष साधनायामुपद्रवः । हो जाते हैं। यह साधना में उपद्रव है। ६४. उन्नयमाणे य गरे, महता मोहेण मुज्झति । सं०-उन्नयमानश्च नरः महता मोहेन मुह्यति । अव्यक्त मनुष्य अहंकारग्रस्त होकर महान् मोह से मूढ हो जाता है। भाष्यम् ६४–अव्यक्तो नरः लोकैः कृतां प्रशंसामा- अव्यक्त पुरुष लोकों द्वारा की गई प्रशंसा को सुनकर अहंकार कर्ण्य उन्नयमानः-अहंकाराभिभूतः महता मोहेन से पराभूत हो महान् मोह से मूढ हो जाता है। यह भी साधना में मुह्यति । एषोऽपि साधनायामुपद्रवः। अव्यक्तः प्रशंसा- उपद्रव है। अव्यक्त मनुष्य प्रशंसा से पराजित होकर कभी दर्शनमोह पराजितः कदाचित् दर्शनमोहेन मूढो भवति कदाचिच्च से मूढ होता है और कभी चारित्रमोह से मूढ होता है। चारित्रमोहेन । ६५. संबाहा बहवे भुज्जो-भुज्जो दुरतिक्कमा अजाणतो अपासतो। सं०-सम्बाधाः बहवः भूयो भूयो दुरतिक्रमाः अजानतः अपश्यतः । अज्ञानी और भद्रष्टा मनुष्य बार-बार आने वाली बहुत सारी बाधाओं का पार नहीं पा सकता। भाष्यम् ६५-तस्य अजानतः अपश्यतः अव्यक्तस्य उस अज्ञानी, अद्रष्टा और अव्यक्त पुरुष के समक्ष अनेक बहवः संबाधा:-परीषहोपसर्गाः पुनः पुनः अवतरन्ति । बाधाएं-परीषह और उपसर्ग बार-बार अवतरित होते रहते हैं। वह स न जानाति न पश्यति एते परीषहोपसर्गाः कथं नहीं जानता-देखता कि इन परीषहों और उपसर्गों को कैसे सहा जाये सोढव्याः भवन्ति, एतेषां सहने को नाम लाभः असहने और इनको सहने से क्या लाभ होता है और न सहने से क्या हानि च को नाम दोषः ? तेन तस्य ते दुरतिक्रमाः भवन्ति। होती है ? इसलिए उस व्यक्ति के लिए वे परीषह और उपसर्ग दुरतिक्रम हो जाते हैं। ६६. एयं ते मा होउ। सं०-एतत् तव मा भवतु । 'मैं अव्यक्त अवस्था में अकेला विहार करूं'-यह तुम्हारे मन में न हो। भाष्यम् ६६-अव्यक्तावस्थायां 'अहमेकाकी गुरु शिष्य को उपदेश देते हैं-'शिष्य ! अव्यक्त अवस्था में विहरामि' एतादृशः संकल्पः तव मनसि मा भवतु, एष तेरे मन में यह संकल्प न हो कि मैं अकेला विहरण करूं ।' शिष्यं प्रति गुरोरुपदेशः। यदि अव्यक्तः एकाकिविहारं कर्तुमिच्छेत् तदा यदि अव्यक्त अवस्था में मुनि अकेला विहरण करने की इच्छा आचारव्यवस्थाया विघटनं जायते। अर्हच्छासने करता है तब आचार-व्यवस्था का विघटन हो जाता है। अर्हत् सामुदायिकसाधनापद्धति: निर्विकल्पा नास्ति । एकाकि- शासन में सामुदायिक साधना-पद्धति ही मान्य नहीं है, 'एकाकी' साधनाऽपि सम्मताऽस्ति, किन्तु तस्याः अर्हता अस्ति साधना भी सम्मत है। किन्तु वहां 'एकाकी' साधना की अर्हता निर्दिष्टा । अर्हः पुरुषः एकाकिविहारस्य संकल्पं निर्दिष्ट है। एकाकी साधना के लिए योग्य व्यक्ति ही 'एकाकी कर्तुमर्हति । अनर्ह लक्ष्यीकृत्यैव एष निषेधो वर्तते। विहार' का संकल्प कर सकता है । जो एकाकी साधना के योग्य नहीं है, उसी को लक्ष्य कर यह निषेध किया गया है। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ५. लोकसार, ३०४. सूत्र ६३-६६ ६७. एवं कुसलस्स दंसणं । सं०-- एतत् कुशलस्य दर्शनम् । यह महावीर का दर्शन है। भाष्यम् ६७ -- अव्यक्तस्य एकाकिविहारं कुर्वतः ये दोषा उपदिष्टाः, तदेतत् कुशलस्य- भगवती महावीरस्य हैं, यही दर्शन कुशल- भगवान् महावीर का है। दर्शनमस्ति । माध्यम् ६० साधकपुरुषः तस्मिन् कुशलदर्शने दृष्टि नियोज्य विहरेत् तदृष्टिको भवेत्। यदुपदिष्टं तस्य अनुपालन कर्तुं तन्मयः तन्मूतिको वा भवेत् । उपदिष्टं निरन्तरं सम्मुखीकृत्य तत्पुरस्कारः स्यात् । तस्य स्मृतौ एकरसो भूत्वा तत्संज्ञी भवेत् तथा तस्मिन् चित्तस्य निवेशनं कृत्वा तनिवेशनः स्वात् ' ६८. तद्दिट्ठीए तम्मोत्तीए तप्पुरवकारे, तस्सण्णी तन्निवेसणे । सं०दृष्टिकः तन्मूर्तिकः तत्पुरस्कार: तत्संही निवेशन । मुनि महावीर के दर्शन में वृद्धि नियोजित करे, उसमें समय हो, उसे प्रमुख बनाए, उसको स्मृति में एक रस हो और उसमें तनिष्ठ हो जाए । भाष्यम् ६९ – इदानीं ईर्याविधि निर्दिशति सूत्रकारः । मुमुक्षुः पुरुषः संयमपूर्वकं विहरणं कुर्यात्, तस्य चित्तं गमन एव निपतितं स्यात्, अहं गच्छामि इति क्रियायामेव स्मृति नियोजयेत् तस्य दृष्टिः गमनपथ एव निवद्वा स्वात् प्रतिपदं पन्थानं दृष्ट्वा व्रजेत् । अभिमुख मागच्छतः प्राणिनो दृष्ट्वा स्वपादयोः संकोचं कुर्यात्। पथि विहरतः प्राणिनो दृष्ट्वा गच्छेत्। १. चूर्णिकार ने ६८ वे सूत्र की व्याख्या आचार्यपरक और ६९ वें सूत्र की व्याख्या ईर्यापरक की है। टीकाकार ने दोनों सूत्रों की व्याख्या आचार्यपरक की है। केवल 'पासिय पाणे गच्छेज्जा' इस वाक्य की ईर्यापरक व्याख्या की है। दोनों व्याख्याकारों ने यह बतलाया है कि ६९ वे सूत्र से आयारचूला के ईर्या नामक तीसरे अध्ययन का विकास किया गया है । चूर्णिकार ने आधारचूला के उपोद्घात में लिखा है कि ६२,६८,६९ और ७० में सूत्रों से ईर्ष्या नामक अध्ययन विकसित किया गया है । उक्त संदर्भों तथा उत्तराध्ययन २४८ के 'तम्मुत्ती २६७ एकाकी विहार करने वाले अव्यक्त पुरुष के जो दोष उपदिष्ट ६६. जयंविहारी चित्तणिवातो पंथणिज्झाती पलीवाहरे, पासिय पाणे गच्छेज्जा । सं० तं बिहारी विनिपाती पथनिदृष्यावी 'पत्नीवाह' दृष्ट्वा प्राणान् गच्छेत् । मुनियपूर्वक वित्त को गति में एक कर पय पर दृष्टि टिका कर चले जीव-जन्तु को देख कर पैर को संकुचित कर ले और मार्ग में आने वाले प्राणियों को देख कर चले । साधक पुरुष महावीर के उस दर्शन में दृष्टि नियोजित कर तद्दृष्टि बन जाए जो उपदिष्ट है उसकी अनुपालना करने के लिए तन्मय अथवा तन्मूति बन जाए। उस उपदेश को सदा सामने रख कर तत्पुरस्कार — उसे प्रमुख बना कर चले । उसकी स्मृति में एकरस होकर तत्संज्ञी बन जाए और उसमें दत्तचित्त होकर तन्निष्ठ हो जाए । प्रस्तुत आलापक में सूत्रकार ईर्यापथविधि का निदर्शन करते हैं । मुमुक्षु पुरुष संयमपूर्वक विहरण करे । उसका चित्त गमन में ही लीन हो जाए। 'मैं चल रहा हूं' इस गमन क्रिया में ही वह स्मृति का नियोजन करे उसकी दृष्टि गमन-मार्ग पर ही लगी रहे। वह पगपग पर मार्ग को देखता हुआ चले चलते समय मार्ग में सामने आने वाले प्राणियों को देख कर अपने पैरों को संकुचित कर ले, वहीं रोक ले मार्ग में आने वाले प्राणियों को देख कर बने ईच के विषय । ईर्यापथ तप्पुरस्कारे उवउत्ते' – इन शब्दों के आधार पर इन दोनों सूत्रों का अनुवाद ईर्यापरक किया जा सकता है, किन्तु हमने ५।१०९ की चूर्णि के आधार पर सूत्र ६८ का कुशल (महावीर ) परक अनुवाद किया है। २०११ में भूमिकार ने कुशलदर्शनपरक व्याख्या की है और वृत्तिकार ने आचार्यपरक व्याख्या की है। देखें- चूणि, पृष्ठ १९६ तथा वृत्ति, पत्र २०६ ॥ २. एक 'लीबाहरे' इति पदस्य अनुवादो विद्यते 'लीवाहरे' प्रतीपं आहरे जंतुं दृष्ट्वा संकोचए वेसीमासाए ।' (आचारांग भूणि, पृष्ठ १८४) Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ ईर्यापथविषये एते पञ्च निर्देशाः सन्ति । में ये पांच निर्देश हैं । ७०. से अभिक्कममाणे पक्किममाणे संकुचेमाणे पसारेमाणे विनियमाणे संपलिमज्जमाणे । सं० -- स अभिक्रामन् प्रतिक्रामन् संकोचयन् प्रसारयन् विनिवर्तमानः संपरिमृजन् । वह पुरुष सामने जाने, वापस आने, संकोच, प्रसार, विनिवर्तन और संपरिमार्जन करने की क्रिया संयमपूर्वक करता है । भाष्यम् ७० - स मुमुक्षुः पुरुषः कदाचिदभिक्रामति, मुमुक्षु पुरुष कभी आगे जाता है। कभी पीछे लौटता है, कभी कदाचित् प्रतिक्रामति, कदाचिद् हस्तपादादीन् वह हाथ पैरों को संकुचित करता है, कभी उन्हें फैलाता है, कभी वह संकोचयति कदाचित् प्रसारयति कदाचिद् गमना- गमन और आगमन से निवृत्त हो जाता है और शरीर में लगे प्राणियों गमनादृ विनिवर्तते तथा शरीरविलग्नान् प्राणिन का संयमपूर्वक परिमार्जन करता है। संयमपूर्वकं संपरिमाष्टि । 1 ७१. एगया गुणसमियस्स रीयतो कायसंफासमणुचिण्णा एगतिया पाणा उद्दायंति । सं०--- एकदा गुणसमितस्य रीयमाणस्य कायसंस्पर्शमनुचीर्णाः एके प्राणा: अवद्रान्ति । किसी समय प्रवृत्ति करते हुए अप्रमत्त मुनि के शरीर का स्पर्श पाकर कुछ प्राणी परितप्त होते हैं या मर जाते हैं । भाष्यम् ७१ - गुणाः ईर्यासमितिप्रभृतयः तैर्युक्तः गुणसमितः स एकदा रीयमाणोऽस्ति तदानीं तस्य कायसंस्पर्श संप्राप्य केचित् प्राणा: उपद्रुताः भवन्ति म्रियन्ते वा । अस्यामवस्थायां तस्य कर्मबन्धो भवति न वा ? इति जिज्ञासायामत्र कर्मबन्धविचित्रतायाः सिद्धान्तः अवगन्तव्यः शैलेशी दशामुपगतस्य कर्मबन्धो न जायते । सयोगस्य वीतरागस्य द्विसामयिक ईर्यापथिकः बन्धो भवति अप्रमत्तसंयतेः जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तस्थितिकस्य उत्कृष्ट तोऽष्टमुहूर्त्तस्थितिकस्य कर्मणो बन्धो जायते । प्रमत्तसंयतेः नास्ति हिंसाभिमुखता तदानीं जघन्यत अन्तमुहूर्त्तस्थितिकस्य उत्कृष्टतः अष्टसंवत्सर स्थिति कस्य कर्मणो बन्धो जायते स च तेनैव भवेन क्षीयते इति साक्षात् सूत्रेण निरूप्यते ईयासमिति आदि गुण हैं। जो इनसे युक्त होता है वह गुणसमित कहलाता है। वह किसी समय विहरण कर रहा है। उस समय उसके शरीर का स्पर्श पाकर कुछ प्राणी परिवप्त होते हैं अथवा मर जाते हैं । इस अवस्था में उसके कर्मबन्ध होता है या नहीं ? इस जिज्ञासा के संदर्भ में कर्मबन्ध की विचित्रता का सिद्धांत जानना चाहिए— ७२. इहलोग वेयण - वेज्जावडियं । सं० -- इहलोकवेदनवेद्यापतितम् । उसके वर्तमान जीवन में भोगे जाने वाले कर्म का बंध होता है। आचारांग भाव्यम् शैलेशी अवस्था को प्राप्त अनगार के कर्मबन्ध नहीं होता सयोगी बीतराग अनगार के दो समय की स्थिति बाला 'ईर्यापथिक' बन्ध होता है। अप्रमत संयती अनगार ( सातवें से तेरहवें गुणस्थानवर्ती) के जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त की स्थिति वाला और उत्कृष्टतः आठ मुहूर्त्त की स्थिति वाला कर्मबन्ध होता है । प्रमत्त संयत (छठे गुणस्थानवर्ती मुनि) के यदि हिंसाभिमुखता नहीं है तो जो कर्मबन्ध होगा वह जघन्यतः अन्तर्मुह की स्थिति वाला और उत्कृष्टतः आठ वर्ष की स्थिति वाला होगा । वह कर्मबन्ध उसी भव में क्षीण हो जाता है, यह तथ्य अगले सूत्र में साक्षात् निरूपित है— भाष्यम् ७२ - विधिपूर्वक प्रवृत्ति कुर्वाणस्य हिंसाभिमुखतामृते प्रमत्तसंयतेः कायस्पेशेन कश्चित् प्राणी परितप्तः मृतो वा भवेत्, तदानीं तस्य इहलोक - वेदनवेद्यापतितं - ऐहिकभवानुबन्धि कर्म उपात्तं भवति । १. तुलना पतंजलयोगदर्शन २।१२ मलेशः कर्माशयी दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः । छठे गुणस्थानवर्ती प्रमत्त संयत मुनि विधिपूर्वक प्रवृत्ति कर रहा उसमें हिंसा के प्रति अभिमुखता नहीं है उस मुनि के कामस्पर्श से कोई प्राणी परितप्त हो या मर जाए तो उसके ऐहिकभवानुबंधिवर्तमान जीवन में भोगे जाने वाले कर्म का बन्ध है। है 1 Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ५. लोकसार, उ० ४. सूत्र ७०-७३ । २६९ तद् अल्पस्थितिकत्वेन वर्तमानजन्मन्येव क्षीणं भवति ।' स्थिति वाला होने के कारण उसी भव-जन्म में क्षीण हो जाता है। ७३. जं आउट्रिकयं कम्म, तं परिणाए विवेगमेति । सं०-यद् आकुट्टीकृतं कर्म तत्परिज्ञया विवेकमेति । अविधिपूर्वक प्रवृत्ति करते हुए जो कर्म-बन्ध होता है, उसका विलय परिक्षा के द्वारा होता है। भाष्यम् ७३-आवृत्तिः-अभिमुखता अथवा 'आउट्टी' अर्थात् आवृत्ति या आकुट्टी। आवृत्ति का अर्थ हैआकुट्टी-पीडासंकल्पः । तया कृतं कर्म आवृत्तिकृतं अभिमुखता अथवा आकुट्टी का अर्थ है-पीडा का संकल्प । आउट्टीपूर्वक अथवा आकुट्टीकृतं कर्म उच्यते। प्रमत्तसंयतेः यत् किया हुआ कर्म आवृत्ति अथवा आकुट्टीकृत कर्म कहलाता है। प्रमत्त आकुद्रीकृतं कर्म तत परिज्ञया प्रायश्चित्तन वा विवेक--- संयत अनगार के आकुटीकृत कर्म का विवेक-विलय परिज्ञा अथवा अभावं प्राप्नोति । प्रायश्चित्त के द्वारा होता है। १. भाष्ये कर्मबन्धस्थितेः विवेचनं चूणिमनुसृत्य कृतमस्ति । 'अपयत्ता वा चरिया सयणासणठाणचंकमावीसु । अन्तर्मुहर्तस्थितिको बन्धः सांपरायिको भवति । वृत्ताख्या समणस्स सम्वकाले हिंसा सा संतत्तियत्ति मदा ॥' चूणिव्याख्यात् भिन्ना वर्तते-'शैलेश्यवस्थायां मशकादीनां मरद व जीयदु जीवो अयदाचारस्स णिच्छिवा हिंसा। कायसंस्पर्शेन प्राणत्यागेऽपि बन्धोपादानकारणयोगा पयवस्स पत्थि बंधो हिंसामेत्तेण समिबस्स ॥' भावान्नास्ति बन्धा, उपशांतक्षीणमोहसयोगिकेवलिनां (प्रवचनसार ३३१६, १७) स्थितिनिमित्तकषायाभावात् सामयिकः, अप्रमत्तयतेजघन्य प्रस्तुतागमे गुणसमितस्य कायसंस्पर्शजनितप्राणिवधे यः तोऽन्तर्मुहर्तमुत्कृष्टतश्चान्तःकोटोकोटीस्थितिरिति, प्रमत्तस्य कर्मबन्धो निविष्टः स ऐहिक भवानुबन्धी प्रतिपादितः । एतेन त्वनाकुट्टिकयाऽनुपेत्यप्रवृत्तस्य क्वचित् पाण्याद्यवयवसंस्पर्शात् ज्ञायते असो कर्मबन्धः सरागसंयति उपलक्ष्य एवं प्रतिप्राण्युपतापनादौ जघन्यतः कर्मबन्ध उत्कृष्टतश्च प्राक्तन एव पावितः । चूर्णी वृत्तौ च वीतरागस्य चर्चा प्रसंगवशतः एव विशेषिततरः। (वृत्ति, पत्र १९७) कृता इति संभाव्यते । चूर्णी 'जो अप्पमत्तो उबद्दवेति तस्स भगवत्यां मावितात्मनः ईर्यासमिती सोपयोगं गच्छतः जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं अट्ठ मुहत्ता, जो पुण पमत्तो पावस्पर्शन कश्चिद् प्राणी म्रियते तदा तस्य द्विसामयिकः ण य आउट्टियाए तस्स जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अट्ठ ईर्यापथिको बन्धो भवति -'अणगारस्स णं भंते ! भावि संवच्छराई, (पृष्ठ १८४, १८५)-इति उल्लेखो दृश्यते। यप्पणो पुरओ दुहओ जुगमायाए पेहाए रीयं रीयमाणस्स वृत्तौ अप्रमत्ततया गच्छतः गुणसमितस्य कृते एष विधिः पायस्स अहे कुक्कुडपोते वा वट्टापोते वा कुलिंगच्छाए वा मुख्यत्वेन उद्दिष्ट:-'गुणसमितस्य गुणयुक्तस्य अप्रमत्ततया परियावज्जेज्जा, तस्स णं भंते ! किं इरियावहिया किरिया यतेः रीयमाणस्य' (पत्र १९६)। कज्जइ ? संपराइया किरिया कज्जइ? भगवत्या भावितात्माऽनगारापेक्षया ऐपिथिकः बन्धः गोयमा ! अणगारस्स णं भावियप्पणो पुरओ दुहओ निर्दिष्टः। जुगमायाए पेहाए रीयं रीयमाणस्स पायस्स अहे कुक्कुडपोते उत्तरतिप्रन्थेसु बन्धस्य सर्वथा निषेधः अशुभकर्मबन्धं वा बट्टापोते वा कुलिंगच्छाए वा परियावज्जेज्जा, तस्स णं लक्यीकृत्य कृतः इति प्रतीयते । इरियावहिया किरिया कज्जइ, नो संपराइया किरिया अस्मिन् प्रकरणे श्रीमज्जयाचार्यकृता भगवतिव्याख्याऽपि अध्येतव्या । कज्जइ।' (भगवई १८१५९) द्रष्टव्यम्-भगवती-जोड़, शतक १८, ढाल ३८२, गाथा ओघनिर्यक्तौ अप्रमत्तसंयतेः जातेऽपि प्राणिवधे बन्धस्य १-७७ । सर्वथा निषेधः कृतोऽस्ति २. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ १८५ : जो पुण आउट्टियाए 'उच्चालियंमि पाए ईरियासमियस्स संकमट्ठाए। पाणे उद्दवेति तवो वा छेवे वा। वावज्जेज्ज कुलिंगी मरिज्जतं जोगमासज्ज ।।' (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १९७ : यत्तु पुनः कर्माकुट्टया 'न य तस्स तन्निमित्तो बंधो सुहमोवि देसिओ समए । कृतम्-आगमोक्तकारणमन्तरेणोपेत्य प्राण्युपमर्वन अणवज्जो उ पओगेण सव्वभावेण सो तम्हा ॥' विहितं तत्परिज्ञाय ज्ञपरिजया "विवेकमेति' विविच्यते (ओपनियुक्ति, गाथा ७४८,७४९) अनेनेति विवेकः-प्रायश्चित्तं दशविधं तस्यान्यतरं कुन्कुन्दस्वामिनाऽपि समितस्य हिंसामात्रेण बन्धो भेदमुपंति, तद्विवेकं वा-अभावाख्यमुपंति, नास्तीति प्रतिपादितम् तत्करोति येन कर्मणोऽभावो भवति ।। Jain Education international Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगभाष्यम ७४. एवं से अप्पमाएणं, विवेगं किट्टति वेयवी । सं०–एवं तस्य अप्रमादेन विवेक कीर्तयति वेदवित् । विलय अप्रमाद से होता है-सूत्रकार ने ऐसा कहा है। भाष्यम् ७४--एवं तस्य प्रमादेन कृतस्य कर्मणः प्रमाद से किए हुए उस कर्मबंध का विलय अप्रमाद से होता है, अप्रमादेन विवेको जायते इति वेदविद:-शास्त्रज्ञस्य यह शास्त्रज्ञ द्वारा सम्मत है । स्थानांग सूत्र में कहा है-- सम्मतम् । उक्तञ्च स्थाने भंते ! दुक्खे कहं वेइज्जति ? अप्पमाएणं'।' 'भंते ! दुःख का बेदन कैसे होता है ? अप्रमाद से।' ७५. से पभूयदंसी पभूयपरिणाणे उवसंते समिए सहिते सया जए दळु विप्पडिवेदेति अप्पाणं सं०–स प्रभूतदर्शी प्रभूतपरिज्ञानः उपशांतः समितः सहितः सदा यतः दृष्ट्वा विप्रतिवेदयति आत्मानम् - विपुलदर्शी, विपुलज्ञानी, उपशांत, सम्यक् प्रवृत्त, सहिष्णु सदा संयत मुनि स्त्री-जन को देख कर मन में सोचता है-- भाष्यम् ७५-इन्द्रियजयः प्रकृष्टसाधनासाध्योऽस्ति। विशेष साधना के द्वारा ही इन्द्रियों पर विजय पाई जा सकती साधनाया इमे सन्ति हेतवः२... है । साधना के ये हेतु हैं१. प्रभूतदर्शनं-प्रभूतं कर्मविपाकस्य दर्शनम् । १. प्रभूतदर्शन-कर्मों के विपाक को बार-बार अथवा अत्यंत गहराई से देखना। २. प्रभूतपरिज्ञानं-प्रभूतं बन्धस्य बन्धमुक्तेश्च २. प्रभूतपरिज्ञान-बंध और बंधमुक्ति का प्रभूत परिज्ञान । परिज्ञानम् । ३. उपशमनं-कषायाणां नो-कषायाणां च उपशमः । ३. कषायों और नो-कषायों का उपशमन । ४. समितिः-सम्यकप्रवृत्तिः, सततं स्वाध्यायादिषु ४. सम्यक् प्रवृत्ति करना, सतत स्वाध्याय आदि में प्रवृत्त प्रवर्तनम् । होना। ५. सहिष्णुता-परीषहाणां विशेषतः कामादीनां ५. परीषहों को सहना, विशेषत: मन में उत्पन्न होने वाले ___ मानसिकानां वेगानां सहनम् । काम आदि के आवेगों को सहन करना । ६. सदा यत:-सदा संयमः । सदा इन्द्रियोद्दीपकेभ्यः ६. सदा संयम में रत रहा । इन्द्रियों के उद्दीपक विषयों से विषयेभ्य: विरतिः। सदा विरत रहना। एतान् उपायान् अनुवर्तमानः स इन्द्रियजयाय इन उपायों का अनुवर्तन करने वाला वह इन्द्रिय-जय के लिए प्रवर्तमानः पुरुषः स्त्रीजनं कामलीलायै चेष्टमानं प्रवृत्त मनुष्य कामलीला के लिए उद्यत स्त्रीजन को देखकर मन में दृष्ट्वा आत्मानं विप्रतिवेदयति–पर्यालोचयति- पर्यालोचन करता है७६. किमेस जणो करिस्सति ? सं०-किमेष जनः करिष्यति ? यह जन मेरा क्या करेगा? भाष्यम् ७६ अहं आत्मनि प्रतिष्ठितोस्मि, तेन एष जन:--कामासक्तः स्त्रीजनः मम किं करिष्यति ? - १. अंगसुत्ताणि १, ठाणं, ३।३३६ । २. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ १८५ : पभूतं--बहुगं दरिसणं पभूतपन्नाणं, अहवा पभूतं खाइतं दरिसणं, पभूतं पण्णाणं खाइयं णाणं । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १९७ : प्रभूतं प्रमादविपाका 'मैं आत्मा में प्रतिष्ठित हूं', इसलिए ये कामासक्त स्त्रियां मेरा क्या करेंगी ? दिकमतीतानागतवर्तमानं वा कर्मविपाक द्रष्टुं शीलमस्येति प्रभूतदर्शी, सांप्रतेक्षितया न यत्किञ्चिनकारीत्यर्थः, तथा प्रभूतं सत्त्वरक्षणोपायपरिज्ञानं संसारमोक्षकारणपरिज्ञानं वा यस्य स प्रभूतपरिज्ञानः, यथावस्थितसंसारस्वरूपदर्शीत्यर्थः॥ Jain Education international Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ५. लोकसार, उ० ४. ७७. एस से परमारामो, जाओ लोगम्मि इत्थीओ। सं० एष स परमारामः याः लोके स्त्रियः । इस जगत् में स्त्रियां परम सुख देने वाली हैं। सूत्र ७४-८४ भाष्यम् ७७ - लोके या स्त्रियः सन्ति स एष स्त्रीजन: परमं आरमयतीति परमारामः सुखहेतुत्वेन मोहं हैं जनयति । ७८. मुणिना एवं पवेदितं उम्बा हिज्जमाणे गामधम्मेहि [सं०] मुनिना खलु एतत् प्रवेदितं उबाध्यमानः ग्राम्यधर्म: - वासना से पीड़ित मुनि के लिए भगवान् ने यह उपदेश दिया ७४. अवि णिब्बलासए । सं० अपि निर्बलाशकः । वह निर्बल भोजन करे । ८०. अवि ओमोपरि कुज्जा । ० अपि अवनौद कुर्यात् । ऊनोदरिका करे –कम खाए । ८१. अवि उड्डाणं डाइज्जा | सं० -अपि ऊर्ध्वं स्थानं तिष्ठेत् । स्थान (घुटनों को ऊंचा और सिर को नीचा कर कायोत्सर्ग करें। ८२. अवि गामाणुगामं इज्जेज्जा । सं० अपि ग्रामानुग्रामं द्रवेत् । धामनुधाय बिहार करे। ८३. अवि आहारं वोच्वे । सं० अपि आहारं व्यवच्छिन्द्याद् । आहार का परिश्याग ( अनशन) करे। ८४. अवि च इत्योसु मणं । सं०-अपि त्यजेत् स्त्रीषु मनः । स्त्रियों के प्रति दौडने वाले मन का त्याग करे । लोक में जो स्त्रियां हैं, वे परमाराम सुख के हेतुभूत होकर मोह पैदा करने वाली हैं। १. तुलना - तिमिरहरा जई विट्ठी, जणस्स दीवेण णत्थि कादव्वं । तध सोक्खं सयमादा, विसया कि तत्थ कुब्वंति ॥ ( आचार्य कुम्बकुन्द --प्रवचनसार, ६७ ) भगवान् महावीर ने यह उपदेश दिया— काम वासना से भाष्यम् ७८८४ - मुनिना-भगवता महावीरेण एतत् प्रवेदितम् - ग्राम्यधर्मेः - कामाभिलाषैः उद्बाध्यमानो पीडित मुनि इन निम्न निर्दिष्ट उपायों का आलम्बन लेभिक्षुः एतान् निम्ननिर्दिष्टान् उपायान् आलम्बेत - २७१ - परम सुख देने वाली Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ आचारांगभाष्यम् कामोदयो द्विविधो भवति-सनिमित्तः अनिमि- काम-वासना का उदय दो प्रकार का होता है-सनिमित्तक त्तश्च । यो बाह्यवस्तुहेतुको भवति स सनिमित्तः। और अनिमित्तक । जो काम-वासना का उदय बाह्य वस्तुओं के कारण य आन्तरिककारणजनितः सोऽनिमित्तः । होता है, वह सनिमित्तक है । जो आंतरिक कारणों से होता है, वह अनिमित्तक है। सनिमित्तस्त्रिधा-शब्दश्रवणहेतुकः, रूपदर्शनहेतुकः, सनिमित्तक तीन प्रकार का है-शब्दों के श्रवण से होने वाला, पूर्वभुक्तभोगस्मृतिहेतुकश्च । अनिमित्तोऽपि विधा- रूपदर्शन से होने वाला और पूर्वभुक्तभोगों की स्मृति से होने वाला। कर्मोदयप्रत्ययः, आहारोदयप्रत्ययः, शरीरोदयप्रत्ययश्च।' अनिमित्तक भी तीन प्रकार का है-- कमों के उदय से होने वाला, आहार के कारण होने वाला और शरीर के कारण होने वाला । १. निशीथभाष्यचूणि, गाथा ५१४-५१६, तथा ५७१-५७४ : 'जं तं तु संकिलिट्ठ, तं सणिमित्तं च होज्ज अणिमित्त । जं तं सणिमित्तं पुण, तस्सुप्पत्ती तिधा होति ॥५१४॥ तस्स संकिलिगुस्स दुविहा उप्पत्ती--सणिमित्ता अणिमित्ता य। जं सणिमित्तं तस्सुपत्ती बहिरवत्युमवेक्ख भवति । जणु कम्मं चेव तस्स णिमित्तं, किमण्णं बाहिरणिमित्तं घोसिज्जति ? आचार्याह -- 'कामं कम्मणिमित्तं उदयो णस्थि उदओ उ तव्वज्जो। तहवि य बाहिरवत्युं, होति निमित्तं तिम तिविधं ॥५१५॥ कर्मणिमित्तो उदय । उदयः कर्मवयों न भवतीत्यर्थः । तथापि कश्चिद् बाह्यवस्स्वपेक्षो कर्मोदयो भवतीत्यर्थः। तिविधं बाह्यनिमित्तमुच्यते ॥' 'सद्द वा सोऊणं, दट्ट् सरितुं व पुव्व भुत्ताई। सणिमित्तऽणिमित्तं पुण उदयाहारे सरीरे य ॥५१६।। 'गीतादि विसयसद्द सोउं, आलिंगणातित्थीरूवं वा दर्छ, पुष्वकीलियाणि वा सरिउ, एतेहि कारणेहिं सणिमित्तो हूदओ। अणिमित्तं पुण कम्मुबओ आहारेणं सरीरोवचया। अणिमित्तस्स तिविहो उबयो-कम्मओ, आहारओ, सरीरओ य । तत्थ कम्मोदओ इमो--.. 'छायस्स पिवासस्स व, सहाव गेलण्णतो वि किसस्स । बाहिरणिमित्तवज्जो, अणिमित्तुबओ हवति मोहे ॥५७१॥ 'छाओ' मुक्खिओ, 'पिवासितो', तिसितो, सहावतो किसो सरीरेण गेलण्णतो वा किसो, एरिसस्स जो मोहोदओ, बाहिरं सद्दादिगं णिमित्तं, तेण वज्जितो अणिमित्तो एस मोहोदओ। 'आहार उन्मवो पुण, पणीतमाहारभोयणा होति । बाईकरणाहरणं..... ........॥५७२॥ 'आहारपच्चओ मोहुन्भवो, पणीतं गलतणेह, आहार्यते इति आहारः प्रणीताहारमोजनान् मोहोभवो भवतीत्यर्षः। कथं? उच्यते 'वाजीकरण' ति। पणीयाहारमोयणाओ रसादि बुढी जाव सुक्कंति, सुक्कोवचया वायुप्रकोपः, वायुप्रकोपाच्च प्रजननस्य स्तब्धाकरणं, अतो भण्णति वाईकरणं । अहबा पणीयाहारो वाजीकरणं दप्पकारकेत्यर्थः ।' 'मंसोवचया मेदो, मेवाओ अट्टिमिजसुक्काणं। सुक्कोवचया उदओ, सरीरचयसंभवो मोहे ॥५७३॥ 'आहारातो रसोवचओ। रसोवचयाओ रुहिरोवचभो । रुहिरोवचया मंसोवचओ। मंसोवचया मेदावचओ। एवं कमेण 'मेदो' 'वसा' 'अट्ठी' 'हड्ड', 'मिज्ज', 'मेज्जल्लुउ' त्ति वृत्तं भवति, ततो सुक्कोवचओ, सुक्कोबच्चयाओ मोहोदओ भवति । एवं सरीरोवचयसंभवो मोहोबओ भवतीत्यर्थः॥ एवं सणिमित्तस्स अनिमित्तस्स मोहुदयस्स उप्पण्णस्स प्राणज्यणादीहि अहियासणा कायव्या । अट्ठायमाणे'णिवितिगणिब्बले ओमो, तह उट्ठाणमेव उम्भामे । वेयावच्चा हिंडण, मंडलि कप्पट्टियाहरण ॥५७४॥ णिव्वीतिमाहारं आहारेति। तह वि अठायमाणे णिब्बलाणि मंडगचणकादी आहारेति। तह वि अठायमाणे ओमोदरियं करेति । तह वि ण ठाति चउत्यादि जाव छम्मासियं तवं करेति, पारणए णिब्बलमाहारमाहारेति । जइ उवसमति तो सुन्दर। अह गोवसमति ताहे उद्धद्वाणं महंतं करेति कायोत्सर्गमित्यर्थः । तह वि अठायमाणे उन्मामे भिक्खायरिए गच्छति । अहवा-साहूण 'वीसामणा' ति वेयावच्चं कराविज्जति । तह वि अठायमाणे देसहिंडगाणं सहाओ दिज्जति । एत्थ हेडिल्लपया उवरुवरिट्ठव्वा, एवं अगीतस्थस्स । गीतत्थो पुण मुत्तत्थमंडलि दाविज्जति । अहवा-गीतत्थस्स वि णिवितिगावि विभासाए वट्ठव्वा । नोदक आह-जति तावागीयस्थस्स निव्वोयादि तवविसेसा उवसमो ण भवति तो गीयत्थस्स कह सीयच्छायादिठियस्स उक्समो भविस्सति ? आचार्य आह'पैशाचिकमाल्यानं श्रुत्वा गोपायनं च कुलवध्वाः। संयमयोगरारमा निरन्तरं व्यापृतः कार्यः॥' Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ५. लोकसार, उ० ४. सूत्र ८४ २७३ एषां चिकित्सार्थं एते उपायाः सन्ति । इन सभी प्रकार की कामासक्तियों की चिकित्सा के लिए ये उपाय हैं। स्थानांगे कामसंज्ञाया उदयस्य चत्वारि कारणानि स्थानांग में कामसंज्ञा की उत्पत्ति के चार कारण निर्दिष्ट हैं। सन्ति निर्दिष्टानि । तत्रैकं कारणमस्ति-मांसशोणितस्य उनमें से एक कारण है - 'मांस और रक्त का उपचय। इसीलिए प्रस्तुत चयः । अत एव प्रस्तुतागमे 'विगिच मंससोणियं" इति आगम में 'मांस और रक्त का अपचय करो'-यह निर्देश है। कामनिर्देशोऽस्ति । कामोदयस्य सम्बन्धः शुक्रोपचयेन, शुक्रो- वासना के उदय का संबंध वीर्य के उपचय से और बीर्य के उपचय पचयस्य सम्बन्ध आहारेण । तेन कामचिकित्साया का संबंध आहार से है। इसलिए काम-संज्ञा की चिकित्सा के उपायों उपायानां संज्ञाने आहारविषयका निर्देशा लभ्यन्ते। की जानकारी में आहार से संबंधित निर्देश मिलते हैं । निशीथ भाष्य निशीथस्य भाष्ये चूर्णी च एष विषयः सुस्पष्टं प्रति- और चूणि में यह विषय बहुत स्पष्टता से प्रतिपादित हुआ है। पादितोऽस्ति। ते उपायाः चामी काम-चिकित्सा के वे उपाय ये हैं - १. निर्बलाहारकरणम् (सू० ७९) १. मुनि निर्बल भोजन करे। २. अवमौदर्यकरणम् (सू०८०) २. ऊनोदरिका करे-कम खाए। ३. ऊर्ध्वस्थानम् (सू०८१) ३. ऊर्ध्वस्थान (घटनों को ऊंचा और सिर को नीचा) कर कायोत्सर्ग करे। ऊर्ध्वस्थानावस्थायां नासाग्रे भृकुट्यां वा नेत्रे ऊर्ध्वस्थान की अवस्था में दोनों नेत्रों को नासाग्र या भकुटी पर सुस्थिरे कार्ये । अथवा वारं वारं सुस्थिरे कार्ये । एतेन स्थिर करे अथवा बार-बार उन पर स्थिर करे । इस क्रिया से अपानवायोः दुर्बलता प्राणवायोश्च प्रबलता जायते। अपानवायु दुर्बल होती है और प्राणवायु प्रबल । अपानवायु की अपानवायोः प्रबलतया कामांगं सक्रियं भवति । प्राण- प्रबलता से कामांग सक्रिय होता है और प्राणवायु की प्रबलता से वह वायोः प्राबल्येन तस्य निष्क्रियता संपद्यते।' निष्क्रिय हो जाता है। ___ इष्टमन्त्रपूर्वक समवत्तिश्वासप्रेक्षायाः पञ्चविंशत्या- अपने इष्टमंत्रपूर्वक समवृत्तिश्वासप्रेक्षा की पचीस आवृत्तियां करने वृत्तिकरणेनापि कामः शाम्यति । से भी कामवासना उपशांत होती है। ४. ग्रामानुग्रामविहारः (सू०८२) ४. ग्रामानुग्राम विहरण करे । यथा द्वेषात्मकप्रकृतेः पुरुषस्य निषीदनं हितावहं तथा जैसे द्वेषात्मक प्रकृति वाले मनुष्य का बैठे रहना हितकारी होता रागात्मकप्रकृतेः पुरुषस्य स्थानं गमनं च हितावहम् । अत है, वैसे ही रागात्मक प्रकृति वाले मनुष्य का खड़े रहना या गमन एव ग्रामानुग्रामविहारः अस्ति ब्रह्मचर्यस्य उपायः । करना हितावह होता है । इस लिए ग्रामानुग्राम विहरण करना ब्रह्मचर्य का उपाय है। ५. आहारविच्छेदः (सू० ८३) ५. आहार का विच्छेद (अनशन) करे। 'निग्गंथो धिइमंतो, निग्गयी वि न करेज्ज छहिं चेव । 'धृतिमान् साधु और साध्वी इन छह कारणों से भक्त-पान की ठाणेहिं उ इमेहि, अणइक्कमणा य से होइ।।' गवेषणा न करे, जिससे उनके संयम का अतिक्रमण न हो।' 'आयके उवसग्गे, तितिक्खया बंभचेरगुत्तीसु । 'ये छह कारण हैं (१) रोग होने पर, (२) उपसर्ग आने पर, पाणिदया तवहेलं, सरीरवोच्छेयणट्ठाए ॥" (३) ब्रह्मचर्य गुप्ति की तितिक्षा (सुरक्षा) के लिए (४) प्राणियों की दया के लिए, (५) तप के लिए और (६) शरीर-विच्छेद के लिए।' १. अंगसुत्ताणि १, ठाणं, ४।५८१ : 'चहि ठाणेहि मेहुणसण्णा (१९) में आई हुई उड़ढंजाणू, अहोसिरे- इस मुद्रा का समुप्पज्जति, तं जहा- चित्तमंससोणिययाए, मोहणिज्जस्स सूचक है। हठयोगप्रदीपिका में भी 'ऊवनाभिरधस्तालः कम्मस्स उदएणं, मतीए, तबट्ठीवओगेणं । (३७९) और 'अधःशिराश्चोरीपादः (३।८१)-ऐसे २. आयारो, ४१४३ । प्रयोग मिलते हैं । ऊध्वंस्थान मुख्यतः सर्वांगासन और गौण ३. ऊवस्थान रात को अवश्य करना चाहिए । आवश्यकता के रूप में शीर्षासन, वृक्षासन आदि का सूचक है। इन अनुसार दिन में भी किया जा सकता है। एक, दो, तीन आसनों से वासना-केन्द्र शांत होते हैं। उनके शांत होने से या चार प्रहर तक ऊर्ध्वस्थान करना वासना-शमन का वासना भी शांत होती है। असाधारण उपाय है। 'ऊर्ध्वस्थान' शब्द भगवती सूत्र ४. उत्तरज्मयणाणि, २६६३३,३४ । Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ आचारांगभाज्यम् __ अस्मिन विषये सूत्रस्य अर्थपरम्परागतो विशेषनिर्देशो इस विषय में सूत्र ८३ का अर्थ-परंपरागत विशेष निर्देश प्राप्त वर्तते-'सम्वत्थ णिब्बलासगा ओमोवरियाओ करेति, सव्वहा है-'कामवासना के निवारण के लिए निर्बल भोजन करने वाले साधक अट्ठार्यते संलेहणं काउं भत्तं पच्चक्खाइ, एवं ता अबहुसुयस्स बार-बार ऊनोदरी करें। यदि काम शांत न हो तो वे संलेखना कर मोहतिगिच्छा, बहुसुत्तो पुण वायणं दवाविज्जइ।' भक्त-प्रत्याख्यान (अनशन) करें। यह अबहुश्रुत साधक की कामचिकित्सा का उपाय है। बहुश्रुत मुनि स्वाध्याय आदि में अपने आपको नियोजित करे। ६. संकल्पाकरणम् (सू० ८४) ६. काम का संकल्प न करे । 'समाए पेहाए परिश्वयंतो, सिया मणो निस्सरई बहिखा। 'समदृष्टिपूर्वक विचरते हुए भी यदि कदाचित् मन संयम से न सा महं नोवि अहं पितीसे, इच्चेव ताओ विणएज्ज रागं ।' बाहर निकल जाए तो यह विचार कर कि 'वह मेरी नहीं है और न मैं ही उसका हूं', मुमुक्षु उसके प्रति होने वाले विषय-राग को दूर करे ।' 'आयावयाही चय सोउमल्लं, कामे कमाही कमियं ख दुक्खं । 'अपने को तपा । सुकुमारता का त्याग कर। काम --विषय-वासना छिवाहि बोस विणएज्ज राग, एवं सुही होहिसि संपराए ॥" का अतिक्रम कर। इससे दुःख अपने-आप अतिक्रान्त होगा । द्वेषभाव को छिन्न कर । रागभाव को दूर कर । ऐसा करने से तू संसार में सुखी होगा।' निर्बलाहारः-निष्पावतक्रादीनामाहारः । अथवा येन निर्बल आहार का अर्थ है-उडद, छाछ आदि का भोजन । आहारेण शरीरं निर्बलं भवति तादृशः आहारः । अथवा वैसा भोजन जिससे शरीर निर्बल हो। अवमौदर्यम्--आचामाम्लकरणं अल्पभोजनं वा। अवमौदर्य का अर्थ है-आयंबिल करना अथवा अल्प भोजन करना । स्थानकरणम-कायोत्सर्गः । स च दीर्घकालिकः। ऊर्ध्वस्थानकरण का अर्थ है-कायोत्सर्ग। वह दीर्घकालिक एकद्वित्रिचतुःप्रहरात्मकः । अर्थात् एक-दो-तीन या चार प्रहर का होता है । संसर्गाभावतः कामाभिलाषः शान्तो भवति । अस्ति संसर्ग के अभाव में काम की अभिलाषा शांत होती है। चैतन्यचैतन्यकेन्द्रविदां सम्मतमिदम् -कामसंज्ञा शक्तिकेन्द्र, केन्द्र के विशेषज्ञों द्वारा यह मान्य है कि कामसंज्ञा शक्तिकेन्द्र को, आहारसंज्ञा स्वास्थ्यकेन्द्रं यशोऽभिलाषा च तैजसकेन्द्रं आहारसंज्ञा स्वास्थ्यकेन्द्र को और यश की अभिलाषा तैजसकेन्द्र को सक्रियं करोति । अस्यामवस्थायां आनन्दकेन्द्रस्य निष्क्रि- सक्रिय करती है। इस स्थिति में आनन्द केन्द्र निष्क्रिय हो जाता है। यता जायते। तेन साधके नात्महितप्रज्ञा जागति न च इसीलिए साधक में आत्महित की प्रज्ञा नहीं जागती और न निर्जरार्थिता निर्जराथिताया भावो वर्द्धमानो भवति । अत एव का भाव ही वृद्धिंगत होता है। इसीलिए ब्रह्मचर्य, आहार-संयम और ब्रह्मचर्यस्य आहारसंयमस्य यशोऽभिलाषाविमुक्तस्य यशोभिलाषा से मुक्ति इन भावों की वृद्धि के लिए मार्ग बताया गया भावस्य अभिवृद्ध्यै मार्गः प्रदर्शितः । आनन्दकेन्द्रस्य है। आनन्दकेन्द्र की सक्रियता होने पर ये तीनों संज्ञाएं विनष्ट हो सक्रियतायां एताः तिस्रोऽपि संज्ञा विनष्टा भवन्ति । जाती हैं । १. आचारांग चूणि, पृष्ठ १८६ । २. (क) दसवेआलियं, २।४,५ । (ख) निशीथमाष्ये (गाथा ५६७,५७०) चूणा च सनिमित्त कामोदयस्य शमनार्थ अमी उपायाः निर्दिष्टाः सन्ति'भारो विलिवियमेत्तं सम्वे कामा दुहावधा। तिविहम्मि वि सद्दम्मी, तिविह जतणा भवे कमसो॥५६७॥ वलयादिभूसणसद्दे भूसणसद्द वा आभरणभारो ति भण्णति। मितमधुरगीतादिभासासद्दे विलवियंति भणति। प्रवसितमृतभर्तरिगुणानुकीर्तनारोदिनीस्त्रीवत् । परियारसद्द 'सव्वे कामा वुहावह' ति दुक्खं आवहंतीति दुक्खावहा दुक्खोपार्जका इत्यर्थः। तिविह भूसणादिसद्दे एस जयणा भणिता जहाकमस । 'विट्ठीपडिसंहारो, बिळे सरणे विरग्गमावणा भणिता। जतणा सणिमित्तम्मी होतऽणिमित्ते इमा जतणा ॥५७०॥ 'आलिंगणावतासणादिसु विट्ठीपडिसंहारो कज्जति । बिठेसु हासवप्परइमाइसु पुठवभुत्तेसु सवणे बेरग्गमावियासु भावणासु अप्पाणं भावे ति।' ३. द्रष्टव्यम्-आयारो, १५३ । ४. द्रष्टव्यम्-आचार्यमहाप्रज्ञप्रणीतं चैतन्यकेन्द्र प्रेक्षापुस्तकम् । Jain Education international Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ५. लोकसार, उ० ४. सूत्र ८५-८७ २७५ ८५. पुव्वं वंडा पच्छा फासा, पुव्वं फासा पच्छा दंडा। सं०-पूर्व दण्डाः पश्चात् स्पर्शाः, पूर्व स्पर्शाः पश्चाद् दण्डाः । कहीं-कहीं पहले बंड और पीछे स्पर्श-इन्द्रिय-सुख होता है, कहीं-कहीं पहले स्पर्श और पीछे वंड होता है। भाष्यम् ८५-इदानीं आलम्बनसूत्रयोः (सूत्र ८५,८६) प्रस्तुत आलापक में दो आलंबन सूत्रों (८५,८६) का निर्देश है । निर्देशः । स्पर्शाः-इन्द्रियसुखम, तस्य दण्डेन व्याप्तिः स्पर्श का अर्थ है-इन्द्रिय-सुख । उसकी दंड के साथ व्याप्ति है। विद्यते। जैसे-जहां स्पर्श है, वहां दंड है और जहां दंड है, वहां स्पर्श है। स तदथिनं तापं जनयित्वा पूर्व दण्डयति, तेनोक्तम्- जो व्यक्ति स्पर्श का इच्छुक है, स्पर्श उसमें ताप उत्पन्न कर 'पूर्व दण्डाः पश्चात स्पर्शाः' । तस्य आकस्मिके योगे पूर्व उसको पहले ही दंडित कर देते हैं। इसलिए कहा है-- पहले दंड और स्पर्शाः पश्चात् अतृप्तिप्रतिपादकत्वेन शक्तेः विनाश- पीछे स्पर्श । उसका आकस्मिक योग होने पर पहले स्पर्श होते हैं और कत्वेन च दण्डाः भवन्ति । अस्यार्थस्य संवादित्वमस्मिन् पीछे अतृप्ति को पैदा करने और शक्ति का विनाश करने के कारण श्लोके लभ्यते दंड होते हैं । इस अर्थ की संवादिता प्रस्तुत श्लोक में प्राप्त होती है - आरम्भे तापकान् प्राप्ती, अतृप्तिप्रतिपादकान् । 'प्रारंभ में काम की उपलब्धि अत्यन्त संतापकारक होती है। अन्ते सुदुस्त्यजान् कामान्, कामं कः सेवते सुधीः ।। उपलब्धि के पश्चात् उनका सेवन अतृप्ति का कारण बनता है और अंत में उनको छोडना बहुत कष्टप्रद हो जाता है। ऐसे 'काम' का सेवन कौन विद्वान् व्यक्ति करेगा?' ८६. इच्चेते कलहासंगकरा भवंति । पडिलेहाए आगमेत्ता आणवेज्जा अणासेवणाए त्ति बेमि । सं०-इत्येते कलहासङ्गकराः भवन्ति । प्रतिलिख्य आगम्य आज्ञापयेद् अनासेवनाय इति ब्रवीमि । ये काम कलह और आसक्ति उत्पन्न करने वाले होते हैं। आगम की शिक्षा को ध्यान में रखकर आचार्य उनके अनासेवन की आज्ञा बे, ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् ८६-एते कामाः कलहकरा आसंगकराश्च ये काम कलह और आसक्ति उत्पन्न करने वाले होते हैं । काम में भवन्ति । अस्मिन् प्रवृत्तस्य अतो निवृत्तस्य च के दोषा प्रवृत्त और निवृत्त होने वाले मनुष्यों के क्या दोष-गुण होते हैं, इसको गुणाश्च इति श्रुतज्ञानप्रतिलेखनया आगम्य तेषामनासेव- श्रुतज्ञान (आगम) के सम्यग् अवबोध से जान कर आचार्य शिष्यों को नाय आज्ञापयेत् । काम के अनासेवन की ओर प्रेरित करे। ८७. से णो काहिए जो पाणिए णो संपसारए णो ममाए णो ककिरिए वइगुत्ते अज्झप्प-संवुडे परिवज्जए सदा पावं । सं०-स नो काथिकः, नो 'पासणिए', नो संप्रसारकः, नो ममायकः, नो कृतक्रियः, वाग्गुप्तः, अध्यात्म संवृतः, परिवर्जयेत् सदा पापम् । ब्रह्मचारी काम-कथा न करे, वासनापूर्ण दृष्टि से न देखे, परस्पर कामुक भावों का प्रसारण न करे, ममत्व न करे, शरीर की साजसज्जा न करे, मौन करे, मन का संवरण करे, सदा पाप का परिवर्जन करें। भाष्यम् ८७ –ब्रह्मचारी पुरुषः जातिकुलनेपथ्य- ब्रह्मचारी पुरुष जाति, कुल, नेपथ्य, शृंगार आदि की कथा न शृगारादिकथां न कुर्यात्, नो 'पासणिए'– वासनोद्दीप- करे । वह वासना को उद्दीप्त करने वाले पदार्थों को न देखे । वह कानां वस्तूनां दर्शको भवेत् । नो संप्रसारको भवेत्- संप्रसारक न हो- एकान्त में स्त्रियों के समीप न बैठे और न एकान्त १. इष्टोपदेश, श्लोक १७। ३. (क) चू। प्राश्निकपदं व्याख्यातमस्ति-पासणितत्तंपिण २. आचारांग चूणि, पृष्ठ १८७ : एते कामा इत्थिसंथवा वा करेति, कयरा अम्ह सा भवति सुमंडिता वा कलाकुसला कलहकरा जहा सीयाए दोवईए य, एवमादी कलहकरा, वा, आहद्दसु पासणितत्तं करेइ, सुमिणे वा पुच्छिओ कलह एव संगो, महवा कलहो-दोसो, संगो-रागो, अहवा वागरेइ, अण्णतरं वा अट्ठावतं । संगति सिंग बुच्चति, सिंगभूतं च मोहणिज्जं कम्म, तस्सवि (आचारांग चूणि, पृष्ठ १८७) इत्थीओ सिंगभूता। Jain Education international Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ आचारांगभाष्यम् एकान्ते स्त्रीणां समीपस्थितो न भवेत्, न चैकान्ते ताभिः में उनके साथ बातचीत या विचार-विमर्श करे। वह स्त्रियों के साथ वार्ता पर्यालोचनं वा कुर्यात् । ताभिः संबन्धसंस्तवैः संबंध और परिचय स्थापित कर ममत्व न करे । वह शरीर की साजममत्वं न कुर्यात् । नो कृतक्रियो भवेत्-प्रसाधनादिक्रियां सज्जा न करे । 'काम' के विषय में कुछ पूछने पर उत्तर न दे किन्तु न कुर्यात् । कामविषये किञ्चित् पृच्छत: नोत्तरं दद्यात्, वाग्गुप्ति करे, मौन रहे। वह सूत्र और अर्थ में लीन रह कर, उसी में किन्तु वाग्गुप्तो भवेत्-मौनं कुर्यादिति । सूत्रे अर्थे वा समर्पित होकर अध्यात्म का चित्त का संवरण करे । वाग्गुप्ति और उपयुक्तः तदपितमना भूत्वा अध्यात्म-चित्तस्य संवरणं चित्त का संवरण-इन दोनों से वह सदा पाप-कामासक्ति का कुर्यात् । आभ्यां वाग्गुप्तिचित्तसंवराभ्यां सदा पापं- परिवर्जन करे। कामासक्ति परिवर्जयेत् । ८८. एतं मोणं समवासिज्जासि ।-त्ति बेमि । सं०- एतद् मौनं समनुवासयेः । -इति ब्रवीमि । इस मौन का तू सम्यक् पालन कर ।-ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् ८८-मुनेः साधनाया अनेकाः विरतयः सन्ति मुनि की साधना के लिए अनेक विरतियों का निर्देश दिया उपदिष्टाः। तत्र हिंसाविरतिः प्रथमाध्ययने अस्ति गया है। हिंसाविरति का विस्तृत वर्णन पहले अध्ययन में है । उसी विस्तरेण वणिता। तथैव असत्यविरतिः, अदत्तविरतिः, प्रकार असत्यविरति, अदत्तविरति, कामविरति तथा परिग्रहविरति का कामविरतिः, परिग्रहविरतिश्च अनेकेषु स्थलेषु निर्दिष्टा अनेक स्थलों में निर्देश है । प्रस्तुत प्रकरण में कामविरति उपदिष्ट है। अस्ति । कामविरतिः अस्मिन् प्रकरणे अस्ति उपदिष्टा। यहां प्रकरणवश कामविरतिरूप मौन आदेय है। प्रकरण के उपसंहार अत्र प्रकरणवशाद् मौनं कामविरतिरूपं आदेयम् । में सूत्रकार ने कहा है इस कामविरतिरूप मौन का तू सम्यक् प्रकरणस्य उपसंहारे सूत्रकारेण उपदिष्टम्-एतद् मौनं पालन कर। कामविरतिरूपं समनुवासयेः । पंचमो उद्देसो : पांचवां उद्देशक ८६. से बेमि-तं जहा, अवि हरए पडिपुण्णे, चिट्टइ समंसि भोमे । उवसंतरए सारक्खमाणे, से चिट्ठति सोयमझगए। सं०-अथ ब्रवीमि तद् यथा, अपि हृदः प्रतिपूर्णः तिष्ठति समे भौमे । उपशान्तरजाः संरक्षन् स तिष्ठति स्रोतोमध्यगतः । मैं कहता हूं, जैसे-एक द्रह है, जो प्रतिपूर्ण है, समभूभाग में स्थित है, पङ्करहित है, संरक्षण कर रहा है और स्रोत के मध्य में विद्यमान है। भाष्यम् ८९-अथ आचार्यमुद्दिश्य ब्रवीमि, तद्यथा मैं आचार्य को उद्दिष्ट कर कहता हूं-द्रह चार प्रकार के होते ह्रदश्चतुर्विधो भवति(ख) वृत्तौ न पश्येविति व्याख्यातमस्ति तथा तासां प्रज्ञापनायां 'पासणया' वर्शनार्ये विद्यते-कतिविहा णं नरकवीथीनां स्वर्गापवर्गमार्गागलानामङ्गप्रत्यङ्गादिकं न भंते ! पासणया पण्णता? 'गोयमा ! दुविहा पासणया पश्येत् ।' (आचारांग वृत्ति, पत्र १९९) पण्णत्ता, तं जहा-सागारपासणया अणागारपासणया। अत्र द्वे अपि व्याख्ये सङ्गच्छेते, किन्तु शब्दमीमांसायां (पण्णवणा, पद ३०) प्राश्निकापेक्षया पश्येदिति पासणिए पदस्पार्थः अधिक सूत्रकृताङ्गपिसंगच्छते । 'पासणिअ' पदं वेशीभाषागतं वर्तते । तस्यार्थी णो काहिए होज्ज संजए पासणिए ण य संपसारए। भवति साक्षी-'पासणिओ पासाणिओ अ सक्खिम्मि।' णच्चा धम्म अणुत्तरं कयकिरिए य ण यावि मामए । (देशीनाममाला ६४१) (सूयगडो १।२।५०) Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ५. लोकसार, उ० ४-५. सूत्र ८८-६१ २७७ १. एकः परिगलस्रोताः नो पर्यागलस्रोताश्च । १. एक बह द्रह है जिससे स्रोत निकलता है मिलता नहीं। २. एकः पर्यागलस्रोताः नो परिगलत्स्रोताश्च । २. एक वह द्रह है जिससे स्रोत मिलता है, निकलता नहीं। ३. एकः परिगलस्रोता अपि पर्यागलस्रोता अपि । ३. एक वह द्रह है जिससे स्रोत निकलता भी है और मिलता भी है। ४. एकः नो परिगलत्स्रोता: नो पर्यागलत्- ४. एक वह द्रह है जिससे न स्रोत निकलता है और न मिलता . स्रोताश्च । स कमलैः प्रतिपूर्णः समभूभागे तिष्ठति-सुखावतार: वह दह कमलों से परिपूर्ण है। वह समतलभूमी पर स्थित है। सुखोत्तारश्च । उपशांतरजाः निष्पंक इति यावत्, उसके भीतर जाना और बाहर आना सहज-सुखकर है। वह पंकरहित । मत्स्यान कच्छपांश्च संरक्षति । स तिष्ठति श्रोतोमध्य- है। वह मत्स्यों और कच्छपों का संरक्षण करता है। वह स्रोत के मध्य गत:-यस्मिन् श्रोतांसि आगच्छन्ति यतश्च श्रोतांसि में है-जिसमें स्रोत मिलते भी हैं और निकलते भी हैं। यह एक निर्गच्छन्ति । एष दृष्टांतः । दृष्टान्त है। अत्रोपनयः-प्रथमे भने तीर्थंकरः, द्वितीये जिन- इसका उपनय इस प्रकार है- पहले द्रह के समान होते हैं कल्पिकः, तृतोये आचार्यः, चतुर्थे प्रत्येकबुद्धश्च । अत्र तीर्थकर, दूसरे द्रह के समान होते हैं जिनकल्पिक अनगार, तीसरे द्रह तृतीयः आचार्यगुणैः निर्मलज्ञानेन वा प्रतिपूर्णः, के समान होते हैं आचार्य और चौथे द्रह के समान होते हैं प्रत्येकसमभूभ्यां समत्वपरिणामधारायां स्थितः, रजसः- बुद्ध । यहां तीसरे प्रकार के द्रह द्वारा आचार्य का निरूपण किया गया मोहनीयस्य उपशमनं करोति, जीवनिकायान् संरक्षन् स है। आचार्य आचार्योचित गुणों से अथवा निर्मलज्ञान से प्रतिपूर्ण, और श्रुतार्थदानग्रहणसद्भावात् श्रोतोमध्यगतस्तिष्ठति । समभाव की भूमिका में स्थित होकर मोहनीय को उपशांत करता है। वह जीवनिकायों का संरक्षण करता हुआ श्रुत और अर्थ को लेता भी है और देता भी है, इस प्रकार वह स्रोत के मध्य में स्थित है। १०. से पास सव्वतो गुत्ते, पास लोए महेसिणो, जे य पण्णाणमंता पबुद्धा आरंभोवरया। सं०-अथ पश्य सर्वतो गुप्तान् पश्य लोके महर्षीन् । ये च प्रज्ञानवन्तः प्रबुद्धाः आरम्भोपरताः । लोक में विद्यमान सर्वतः गुप्त महर्षियों को तू देख, जो प्रज्ञानवान्, प्रबुद्ध और आरम्भ से उपरत हैं। माष्यम् ९०-अथ त्वं लोके सर्वेरिन्द्रियैः गुप्तान् तू लोक में विद्यमान समस्त इन्द्रियों से गुप्त महर्षियों को महर्षीन् पश्य, ये प्रज्ञानवन्त:'-चतुर्दशपूर्वधराः अथवा देख, जो प्रज्ञानवान हैं...-चौदहपूर्वी हैं अथवा आचारांग आदि के आचारांगादिधग वर्तन्ते, ये प्रबुद्धाः–अवधि- धारक हैं, जो प्रबुद्ध हैं-अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी अथवा श्रुतधर्ममनःपर्यवज्ञानिनः श्रुतधर्मविशारदा वा वर्तन्ते, ये च आगम-विशारद हैं, जो आरम्भ से उपरत हैं। आरम्भ का अर्थ हैआरम्भोपरता' वर्तन्ते। आरम्भः-अज्ञानं, कषायः, अज्ञान, कषाय, नो-कषाय अथवा असंयम । जो उससे उपरत अर्थात् नोकषायः, असंयमो वा । तस्मादुपरता विरता इति यावत्। विरत होते हैं वे आरम्भोपरत हैं। ११. सम्ममेयंति पासह । सं०- सम्यगेतदिति पश्यत । यह सम्यग् है । इसे तुम देखो। १. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ १९० : भिसं नाणमंता चोद्दस (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २००: प्रबुद्धा:-प्रकर्षण पुग्वधरा जे अण्णे गणहरवज्जा परंपरएण आगया यथैव तीर्थकृदाह तथैवावगततत्त्वाः प्रबुद्धाः। आयरिया जाव अज्जकालं । ३. (क) आचारांग चणि, पृष्ठ १९०: आरंभोवरय त्ति (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २०० : प्रकर्षेण ज्ञायतेऽनेनेति अण्णाणकसायणोकसाय असंजमो वा आरंभो, उवरया प्रज्ञानं-स्वपरावभासकत्वावागमस्तद्वन्तः प्रज्ञानवन्तः णाम विरता। आगमस्य वेत्तार इत्यर्थः । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २००: आरम्भः-सावयो २. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ १९० : बुद्धा ओहिमणपज्जव योगस्तस्मादुपरता आरम्भापरताः। नाणिणो सुयधम्मे वा बुद्धा जे जहि काले । Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ भाष्यम् ९१ - ये सर्वतो गुप्ताः प्रज्ञावन्तः प्रबुद्धाः आरम्भोपरताश्च भवन्ति त एव महर्षयो वस्तुत आचार्या भवन्ति, एतद् यूयं सम्यक् पश्यत । ' १२. कालरस खाए परिव्ययंति ति बेमि । - कालस्य कांक्षया परिव्रजन्ति इति ब्रवीमि । वे जीवन के अन्तिम क्षण तक संयम में परिव्रजन करते हैं, ऐसा मैं कहता हूं । सं० भाष्यम् ९२ - ते आचार्याः कालस्य' काङ्क्षया-समाधिमरणकालपर्यन्तं अनया एव परिपाट्या परिव्रजन्ति इति ब्रवीमि । 7 भाष्यम् ९३ - इदानीं शिष्यप्रकरणं आरभ्यते । शिष्यः अर्थाधिगमार्थं आचार्यमुपसंपद्यते । अर्धा द्विविधा भवन्ति - सुबाधिगमाः दुःखाधिगमाश्च । तत्र अमूर्ता मूर्ता अपि सूक्ष्माश्च अर्था दुःखाधिगमा भवन्ति । तेषामधिगमावसरे विचिकित्सा उत्पद्यते-अयमर्थ एवं अन्यथा वा इति विचारो जायते । ६३. वितिगिच्छ-समावन्नेणं अप्पाणेणं णो लभति समाधि । सं० – विचिकित्सासमापन्नः आत्मा नो लभते समाधिम् । शंकाशील आत्मा समाधि को प्राप्त नहीं होता । समाधिः ऐका समाधानं वा यः सूक्ष्मेषु अर्येषु विचिकित्सा समापन्नो भवति स सन्देहदोलायामान्दोलायमानः कस्मिन्नपि तस्ये नैकाप्यं लभते न च सम्यग्दर्शनसमाधिमपि अधिकरोति । " १. 'पश्यत' का प्रयोग दर्शन या चिन्तन की स्वतन्त्रता का सूचक है ! सूत्रकार कहते हैं— 'मैंने कहा, इसलिए तू इसे स्वीकार मत कर, किन्तु अपनी कुशाग्रीयबुद्धि व सदस्य भाव से इस विषय को देख । २. (क) आचारांग चूर्णि, पृष्ठ १९० : कालो नाम समाहि मरणकालो । आचारांगभाव्यम् जो सर्वतः गुप्त, प्रज्ञावान्, प्रबुद्ध और आरंभोपरत होते हैं वे महर्षि ही यथार्थरूप में आचार्य होते हैं । यह सम्यग् है, इसे तुम देखो । (ख) आचारांग वृत्ति पत्र २०० : कालः समाधिकालः । ३. (क) आचारांग चूर्णि पृष्ठ १९० : सव्वओ वयंतीति । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २००: परि समन्ताद् व्रजन्ति परिव्रजति उद्यच्छन्ति । ४. आचारांग चूणि, पृष्ठ १९० बेमित्ति करणं अज्झायअन्यणसुवधयपरिसमत्तीए भवति इह उ पगरणसमसीए बब्वं । वे आचार्य काल - समाधिमरणकाल की कांक्षा से अर्थात् समाधिमरणकालपर्यन्त इसी विधि से परिव्रजन करते हैं, ऐसा मैं कहता हूं । अब यहां से शिष्य का प्रकरण प्रारम्भ होता है । शिष्य आगम-विषयों को जानने के लिए आचार्य के पास उपस्थित होता है। आगम विषय दो प्रकार के होते हैं - सरलता से ज्ञात होने वाले और कठिनाई से ज्ञात होने वाले । अमूर्त विषय और सूक्ष्म मूर्त विषय भी कठिनाई से जाने जाते हैं उनको जानते समय विचिकित्सा या शंका पैदा होती है- यह विषय इसी प्रकार है या अन्यथा, ऐसा विचार होता है। समाधि का अर्थ है-मन की एकाग्रता अथवा चित्त का समाधान । जो सूक्ष्म अर्थों के प्रति शंकाशील होता है वह संदेह के झूले में भूलता हुआ किसी भी विषय में एकाग्र नहीं हो पाता और न वह सम्यक् दर्शन की समाधि को ही उपलब्ध कर पाता है । ५. भगवत्यामपि एतत्संवादित्वं दृश्यते अस्थि णं मंते ! समणा विनिगांचा खामोि कम्यं वेति ? हंता अस्थि । कण्णं भंते ! समणा निग्गंथा कंखामोहणिज्जं कम्मं वेदेति ? गोयमा तेहि तेहि नाणंतरेहि दंसणंतरेहि, चरित रेहि, लिंगंतरेहि पवयणंतरेहि पावयणंतरेहि, कप्पंतरे हि, मगंतरेहि, मतंतरेहि, भंगंतरेहि, जयंतरे हि नियमंतरेहि, पमातहि संकिता कंखिता वितिकिच्छिता भेदसमावन्ना कलुससमापन्ना एवं समया दिग्गंधा खामोहि कम्मं वेदेति । (अंगाणि २, भगवई १।१६९,१७० ) Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ५. लोकसार, उ० ५. सूत्र ६२-६५ ४. सिया वेगे अणुगच्छति, असिया वेगे अणुगच्छंति, अणुगच्छमाणेह अणणुगच्छमाणे कहं ण णिविज्जे ? ० सिला: बैंके अनुगच्छन्ति, असिताः बैंके अनुगच्छन्ति, अनुगच्छत्सु अननुगच्छन् कथं न निविधीत | कुछ तत्त्वज्ञ शिष्य आचार्य का अनुगमन करते हैं, कुछ अतस्वज्ञ शिष्य भी अनुगमन करते हैं । अनुगमन करने वालों में कोई अनुगमन न करने वाला उदासीन कैसे नहीं होगा ? भाष्यम् ९४ - शिष्या द्विविधा भवन्ति सिता असिताश्च हिताः संयुक्ता: तत्वज्ञानेन असिता:असंयुक्ताः तत्त्वज्ञानेन । केचित् सिता अपि आचार्येण प्रतिपाद्यमानमर्थमनुगच्छन्ति केचिद् असिता अपि तमनुगच्छन्ति । ते अनुगच्छन्तः कृतज्ञभावं प्रदर्शयन्तो भणन्ति - अहो ! सुभाषितं महाश्रमणैः । तेषु अनुगच्छत्सु कश्चिद् अननुगच्छन्– आचार्योक्तं प्रति विचिकित्सां कुर्वाणः कथं न निर्विन्दीत ? तादृश: अवश्यमेव सम्यग् दर्शनं प्रति तपः संयमं प्रति वा उदासीनो भवेत् ।" ५. तमेव सच्चं णीसंकं जं जिणेहि पवेइयं । सं० तदेव सत्यं निःशङ्क' यत् जिनैः प्रवेदितम् । वही सत्य और निःशंक है, जो तीर्थंकरों ने प्ररूपित किया है । भाष्यम् ९५ – तस्य सूक्ष्मतत्त्वमनव बुद्ध्यमानस्य शिष्यस्य निर्वेदं निरसितुमालम्बनसूत्रमिदम्। यदि त्वं सूक्ष्मतत्त्वं प्रतिपत्तुं नार्हसि तथापि तस्मिन् विचिकित्सां मा कुरु जिना वीतरागा भवन्ति ते अयवार्थ न प्रतिपादयन्ति तेन एवं श्रद्धां कुरु- यज्जिनेः प्रवेदितं तत् सत्यमेव तत् निःशङ्कमेव । एतत्संवादिसूत्र भगवत्यामपि दृश्यते ।" 1 १. आचारांग चूर्णि पृष्ठ १९१ : ते पुण सिस्सा दुविहासिता य असिता, तत्थ सिता बद्धा, जं भणितं गृहस्था, असिया साहू, अबद्धा कलत्तातिपासेहि । २. प्रिता की स्थिति में जो मनःस्थिति निर्मित होती है, उसका वर्णन प्रजापरियह और ज्ञान- परोयह में मिलता --- से नूणं मए पुव्वं कम्माणाणफला कडा । जेणाहं नाभिजामि पुट्ठो केणइ कन्हुई ।। अह पच्छा उइज्जति कम्माणाणफला कडा । एवमस्सासि अप्पाणं नच्चा कम्मविवागयं ॥ निरट्ठगम्मि विरभ मेहुणाओ सुसंबुडो । जो सक्खं नाभिजानामि धम्मं कल्लाणपावगं ॥ तबोवहाणमादाय पडिम पडिवज्जओ । एवं पि विहरओ मे छउमं न नियट्टई ॥ (उत्तरायणाणि २०४०-४३ ) २७६ शिष्य दो प्रकार के होते हैं सित और असित । सिततत्त्वज्ञान से युक्त, असित तत्त्वज्ञान से रहित । कुछ शिष्य तत्त्वज्ञान से युक्त होकर भी आपा द्वारा प्रतिपादित अर्थ का अनुगमन करते हैं, कुछ तत्त्वज्ञान से असंयुक्त होकर भी उसका अनुगमन करते हैं । वे आचार्य के अर्थ का अनुगमन करते हुए कृतज्ञभाव को अभिव्यक्त करते हुए कहते हैं - अहो ! महाश्रमण ने बहुत ठीक कहा है । अनुगमन करने वाले उन शिष्यों में से कोई एक शिष्य आचार्य के कथन के प्रति विचिकित्सा करता है वह संयम के प्रति उदासीन कैसे नहीं होगा ? वैसा शिष्य अवश्य ही सम्यग्दर्शन अथवा तप-संयम के प्रति उदासीन हो जाता है । सूक्ष्म तत्त्व के अवबोध से शून्य निरसन के लिए यह आलंबन सूत्र है उस शिष्य की उदासीनता के यदि तु सूक्ष्म तत्त्व को जानने में असमर्थ है, फिर भी तू उसमें शंका मत कर। जिन वीतराग होते हैं। ये अयथार्थ का प्रतिपादन नहीं करते, इसलिए अपनी श्रद्धा को तू इस प्रकार दृढ कर वीतराग ने जो कहा है, वह सत्य ही है, वह निःशंक ही है । इसका संवादी सूत्र भगवती में भी प्राप्त होता है । यह प्रथम दुःखशय्या से तुलनीय हैसारिओ पाहा तत्थ खलु इमा पढमा दुहसेज्जा-से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पथ्वइए णिग्गंथे पावयणे संकिते कंखिते वितिमिपिसमा समावणे यांचं पाव जो सहति णो पत्तियति जो रोड, निग्बंध पावणं असमाने अतिमा अरोपमाणे मगं उच्चावयं वास मावज्जति पढमा दुहसेज्जा । (डानं ४१४५०) ३. अंगसुतानि २, भगवई ११३१, १३२ : से नूणं भंते ! मेसचं ? हंता गोवमा ! तमेव सत्यं णीसंकं जं जिणेहि पवेदयं । से नूणं भंते ! एवं मणं धारेमाणे, एवं पकरेमाणे, एवं चिमाणे एवं संवरेमाने आथाए आराहए भवति ? हंता गोपमा ! एवं मणं पारेमाणे, एवं पफरेमाणे एवं चिट्ठेमाणे, एवं संवरेमाने आगाए आराहए भवति । , Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० ६६. सस्सि णं समणुष्णस्स संपव्ययमाणस्स समिति एगया असमिया होइ। असमियंति मण्णमाणस्स एगया होइ समिति मण्णमाणस्स समिया वा असमिया वा वा, असमिया वा, असमिया होइ उवेहाए । सं० - श्रद्धिनः समनुज्ञस्य संप्रव्रजतः सम्यगिति मन्यमानस्य एकदा सम्यग् भवति, सम्यगिति मन्यमानस्य एकदा असम्यग् भवति, असम्यगिति मन्यमानस्य एकदा सम्यग् भवति, असम्यगिति मन्यमानस्य एकदा असम्यग् भवति, सम्यगिति मन्यमानस्य सम्यक् वा, असम्यक् वा, सम्यग् भवति उपेक्षया । असम्यगिति मन्यमानस्य सम्यक् वा असम्यक् वा असम्यग् भवति उपेक्षया । श्रद्धालु, सम्यग् अनुज्ञा (या आचार) वाला तथा सम्यग् प्रव्रज्या वाला मुनि-किसी व्यवहार को सम्यग् मानता है और वास्तव में वह सम्यग् है । वह किसी व्यवहार को सम्यग् मानता है और वास्तव में वह असम्यग् है । वह किसी व्यवहार को असम्यग् मानता है और वास्तव में वह सम्यग् है । वह किसी व्यवहार को असम्यग् मानता है और वास्तव में वह असम्यग् है । व्यवहार वास्तव में सम्यग् हो या असम्यग्, किन्तु सम्यग् मानने वाले के मध्यस्थ ( राग-द्वेष रहित या निष्पक्ष ) भाव के कारण वह सम्यग् होता है । व्यवहार वास्तव में सम्यग् हो या असम्यग्, किन्तु असम्यग् मानने वाले के मध्यस्थ भाव के कारण वह असम्यग् होता है । माध्यम् ९६ - कश्चित् श्रद्धावान् तदेव सत्यं निःश यज्जिनेः प्रवेदितं इति श्रद्दधानः समनुज्ञ: मुनिपदस्य अर्हता प्राप्तः संप्रव्रजितो भवति । (१) स किञ्चित् तत्त्वं आचरणं वा सम्यगिति मन्यते तदानीं तत् सम्यग् भवति । (२) स सम्यगिति मन्यते तदानीं तत् असम्पन् भवति । ( ३ ) स असम्यगिति मन्यते तदानीं तत् सम्यग् भवति । ( ४ ) स असम्यगिति मन्यते तदानीं तत् असम्यग् भवति । एतेषां चतुर्णां भङ्गानां इदानीं भङ्गद्वये समवतारः क्रियते - (१) कश्चित् सम्यगिति मन्यते तदानीं तत् सम्यग् वा असम्यग् वा तस्य उपेक्षया सम्यग् भवति । आचारांग भाष्यम् मण्णमाणस्स एगया समिया होइ। समियंति मण्णमाणस्स समिया होइ। असमियंति मण्णमाणस्स एगया असमिया समिया होड उवेहाए। असमियंति मण्णमाणस्स समिया (२) कश्चित् असम्यगिति मन्यते तदानीं तत् सम्यग् वा असम्यग् वा तस्य तस्य उपेक्षया असम्यग् भवति । १. आप्टे, एकदा - Once, at the same time, simultaneously. २. सब मुनि प्रत्यक्षदर्शी नहीं होते । सबका ज्ञान भी समान नहीं होता और भावधारा भी समान नहीं होती । परोक्षदश किसी व्यवहार का अपनी मध्यस्वदृष्टि से निर्णय करता है। वह व्यवहार वास्तव में सम्यग् है या असम्यग् इसका निर्णय वह नहीं कर सकता। इस स्थिति में सूत्रकार ने यह बताया कि जिसका अध्यवसाय शुद्ध है, जिसकी दृष्टि मध्यस्थ है, वह व्यवहारनय से किसी कोई श्रद्धालु पुरुष यह श्रद्धा रखता है कि तीर्थंकरों ने जो कहा है वही सत्य है, वही निःशंक है, वह समझ मुनिपद की योग्यता को प्राप्त कर प्रव्रजित होता है । १. वह किसी तत्त्व या आचरण को सम्यग् मानता है, तब वह सभ्य होता है। २. वह किसी तत्त्व या आचरण को सम्यग् मानता है, तब वह असम्यग् होता है। ३. वह किसी तत्त्व या आचरण को असम्यग् मानता है, तब वह सम्य होता है । ४. वह किसी तत्त्व या आचरण को असम्यग् मानता है, तब वह असम्यम् होता है। इन चारों विकल्पों का दो विकल्पों में समवतार किया जाता १. कोई व्यक्ति किसी तत्त्व या आचरण को सम्यग् मानता है, वह चाहे आचरण सम्यग् हो या असम्यग् किन्तु उसकी उपेक्षा मध्यस्थता से वह सम्यग् होता है । २. कोई किसी तत्त्व या आचरण को असम्यग् मानता है, वह चाहे आचरण सम्यगु हो या असम्यग् किन्तु उसकी मध्यस्थता के कारण वह असम्यग् होता है । व्यवहार की स्थापना करता है, सम्यग् है । इसी प्रकार उसके व्यवहार उसके लिए असम्यग् है, सम्यग् हो या असम्यग् । वह व्यवहार उसके लिए द्वारा स्थापित असम्यग् भले फिर वह वास्तव में मध्यस्थ भाव से सम्यग् व्यवहार करने वाला श्रमण सत्य का आराधक होता है। यही तथ्य प्रस्तुत सूत्र में वर्णित है। पांच व्यवहारों के वर्णन से इसकी पूर्ण संगति है । (देखें - ठाणं ५।१२४ ) Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ५. लोकसार, उ० ५. सूत्र ६६-९८ अत्र निश्चयव्यवहारनययोः अनुषङ्गः निश्चयनयः । अतीन्द्रियविषयः प्रज्ञागम्यो भवति, व्यवहारनयश्च बुद्धिगम्यः । कश्चिद् बुद्धियुक्तः प्रव्रजितः किञ्चित् तत्त्वं स्वबुद्धया सम्यग् मन्यते, वस्तुतस्तद् असम्यगस्ति, तथैव किञ्चित् तत्त्वं सम्यग् मन्यते, वस्तुतस्तद् सम्यगस्ति । अत्र निश्चय व्यवहारयोः सत्यपि भेदे सूत्रकारः अभेदं प्रस्थापयति । अभेदप्रस्थापकं तत्त्वमस्ति उपेक्षा माध्यस्थ्यम् । यदि मन्तुः उपेक्षास्ति तदा निश्चयनयस्य असम्यगपि व्यवहारनये सम्यम् मन्यमानं सम्यग् भवति । एवं निश्चयनयस्य सम्यगपि व्यवहारनये असम्यग् मन्यमानं असम्यम् भवति ।' ६७. उवेहमाणो अणुवेहमाणं बूया उवेहाहि समियाए । सं० उपेक्षमाणमनुपेक्षमाणं वाद् उपेक्षस्य सम्यये । मध्यस्थ भाव रखने वाला मध्यस्थ भाव न रखने वाले से कहे- 'तुम सत्य के लिए मध्यस्थ भाव का अवलंबन लो ।' भाष्यम् ९७ - उपेक्षमाणः पुरुषः अनुपेक्षमाणं पुरुषं ब्रूयाद्-त्वं सम्यचे सत्यस्योपलब्धये उपेक्षां कुरुष्व – – मध्यस्थभावमवलम्बस्व । १८. इयं तस्य संधी सोसितो भवति । सं० इत्येवं तत्र संधिः जुष्टः भवति । पूर्वोक्त पद्धति से सन्धि आचीर्ण हो जाती है। भाष्यम् ९० इति एवं उपेक्षमाणस्य तत्र काइक्षामोहनीय कर्मवेदनहेतुके ज्ञानान्तरादिषु त्रयोदशसु अन्तरेषु' सन्धिः जुष्टः सेवितो भवति सन्धिरिति १. (क) विकारेण प्रवज्यामधिकृत्य एतद् व्याख्यातम्-'समियंति मण्णमाणस्स, संविग्गभावितो संविग्गाणं चैव सगासे । इमो, एगदा कयाइ, अहवा एगभावो एगता पव्वज्जा, एगता गित्येहि कसाएहि वा असंकप्पो, वितियस्स समियंति मण्णमाणस्स एगया असमिया भवति सो संविग्गसावओ हिसाब महराकुंडला या पाण नातं अविकोविओ वा उत्सन्नसगासे, पच्छा सो समोसरगादिमु पंचे या मेलीयो पुच्छ ते कति ज लक्खणा चैव पडिक्कमति तो से सो चेव परिताओ, अह पुण सयं ठाणं गंतुं परेहि वा चोदितो अच्छइ थोवं वा बहुयं वा कालं तो पुण उबट्ठाविज्जर, ततिओ संविग्गभाविओ चैव असंदिग्गाणं चेवंतेण पव्वयति, संकितो पुण माहू एते णिम्हगा बवेजा, कवयामि ताव पच्छा मदिरसति, संविग्गेहि संमिसीहामि एवं ओच्छय अणेण नातं जहा एया जिहगा समोसरणादि सेसेसु २८१ इस विषय में निश्चयनय और व्यवहारनय का प्रसंग है । निश्चयनय अतीन्द्रियज्ञान का विषय और प्रज्ञागम्य होता है । व्यवहारनय बुद्धिगम्य होता है। कोई बौद्धिक व्यक्ति प्रचलित होता है और वह अपनी बुद्धि से किसी तत्त्व को सम्यग् मानता है, वस्तुतः वह तत्त्व असम्यग् है, वैसे ही वह किसी तत्त्व को असम्यग् मानता है वस्तुतः वह सम्यम् है। इस विषय में निश्चय और व्यवहार का भेद होने पर भी सूत्रकार अभेद की प्रस्थापना करते हैं। अभेद की प्रस्थापना का मूल तत्त्व है उपेक्षा - मध्यस्थता । यदि मानने वाले व्यक्ति की मध्यस्थता है तो निश्चयनय के अनुसार असम्यग् तत्त्व भी व्यवहारनय के अनुसार सम्यग् माना जाता हुआ सम्यग् होता है । इसी प्रकार निश्चयनय के अनुसार सम्यग् माने जाने वाला तत्त्व भी व्यवहारनय के अनुसार असम्यग् माना जाता हुआ असम्यग् होता है । , मध्यस्थ भाव रखने वाला पुरुष मध्यस्थ भाव न रखने वाले पुरुष से कहे तुम सत्य की उपलब्धि के लिए मध्यस्थ भाव का अवलंबन लो । इस प्रकार मध्यस्थभाव का आचरण करने वाले व्यक्ति के कांक्षामोहनीय कर्म के वेदन में हेतुभूत ज्ञानान्तर आदि तेरह भारों में संधि आचीर्ण हो जाती है। यहां संधि का अर्थ है-सम्यग्दर्शन का 1 संजय भिन्नमाणे, पन्नबनाए या आधारेण वा पछा आलोपए पुणो उबट्टाविज्ज उत्यो मनसोऽभि संकित चित्ताण देव समासे पचदयो, तं देव से दचितं एवं दुहतोवि असमिता जाता ओसण्णाण वा । (चूर्णि, पृष्ठ १९२ ) (ख) वृत्तिकारण अनेकान्तदृष्ट्या व्याख्यातं सूत्रमिवम्( वृत्ति, पत्र २०२ - २०३ ) (ग) जयाचार्येण अस्य महती समोक्षा कृतास्ति ( आचारांग को जोड़ ढाल ४२ गाया १९-७९ ) २.२ ११६९,१७० । ३. (क) आचारांग चूर्ण, पृष्ठ १९३ तत्थ तत्थ नाणंतरे दंसण० चरितंतरे लिगंतरे वा संधाणं संधी दरिसणसंधिमेव अर्थ 'जुषी प्रतिबनयो' अहवा, अहवा पदपादखिलोगगाहाबस उस असण सुयचं अंगसंधिरिति, जुसितं जं भणितं आसेवितं । (ख) आचारांग वृत्ति पत्र २०३ ; सन्धिः कम्र्मसन्ततिरूपो 'झोषितः ' क्षपितो भवति । Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ आचारांगभाष्यम सम्यगदर्शनस्य सन्धानम् । ज्ञानादीनां विविधेषु भेदेषु संधान । ज्ञान आदि के अनेक भेद हैं। उनमें मध्यस्थभाव रखने से ही मध्यस्थभावेनैव सम्यक्त्वं स्थापयितुं शक्यम् । सम्यक्त्व की स्थिरता शक्य हो सकती है। E६. उट्रियस्स ठियस्स गति समणुपासह । सं०-उत्थितस्य स्थितस्य गति समनुपश्यत । तुम संयम में उत्थित और स्थित पुरुष की गति को देखो। भाष्यम् ९९-यः सम्यगुत्थानेन उत्थितः', गुरुकुले जो पुरुष संयम में उत्थित है, गुरुकुल में स्थित है, उसकी स्थितश्च, तस्य गति प्रतिष्ठा पदवीं वा यूयं गति-प्रतिष्ठा या पदवी को तुम सम्यक् प्रकार से देखो। गुरुकुल में समनुपश्यत । गुरुकुले निवसतः तस्य श्रुतज्ञानस्य निवास करने वाले मुनि में तीन गुण सम्यक् प्रकार से संपादित होते योग्यता, दर्शनस्य स्थैर्य, चारित्रस्य च निष्प्रकम्पता हैं - (१) श्रुतज्ञान की योग्यता, (२) दर्शन की स्थिरता और (३) सम्यग् जायते। चारित्र की अप्रकंपता। १००. एत्थवि बालभावे अप्पाणं णो उवदंसेज्जा। सं०-अत्रापि बालभावे आत्मानं नो उपदर्शयेत् । हिंसा निर्दोष है, इस बालभाव में भी तुम अपने को प्रदर्शित मत करो। भाष्यम १००-अत्र हिंसाया विषये केषाञ्चिद् हिंसा के विषय में कुछेक दार्शनिकों का बालभाव-अज्ञान है। दार्शनिकानां बालभावो विद्यते। ते मन्यन्ते-यथा वे मानते हैं-जैसे आकाश में न दाह होता है और न छेद होता है, आकाशे दाहच्छेदौ न भवतः तथा आत्मन्यपि दाहच्छेदौ वैसे ही आत्मा में भी न दाह होता है और न छेद होता है । आत्मा न भवतः। आकाशवद् नित्योऽस्ति आत्मा, तेन नास्ति आकाश की भांति नित्य है, इसलिए कोई प्राणातिपात नहीं कश्चित प्राणातिपातः। एतादृशे बालभावे आत्मानं होता, हिंसा नहीं होती। ऐसे बालभाव- अज्ञान में मुनि अपने को नोपदर्शयेत, आत्मनः नित्यत्वमधिगत्य हिंसायाः प्रदर्शित न करे । आत्मा का नित्यत्व जान कर हिंसा का समर्थन समर्थनं न कुर्यात्, अपितु हिंसायां प्रवृत्तान् एवं न करे, किन्तु हिंसा में प्रवृत्त मनुष्यों को इस प्रकार प्रतिबोध देप्रतिबोधयेत् १०१. तुमंसि नाम सच्चेव जं 'हंतव्वं' ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं 'अज्जावेयव्वं' ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं 'परितावेयव्वं' ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं 'परिघेतव्वं' ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं 'उद्दवेयव्वं' ति मन्नसि । सं०-त्वमसि नाम स एव यं हन्तव्य इति मन्यसे, त्वमसि नाम स एव यं आज्ञापयितव्य इति मन्यसे, त्वमसि नाम स एव यं परितापयितव्य इति मन्यसे, त्वमसि नाम स एव यं परिग्रहीतव्य इति मन्यसे, त्वमसि नाम स एव यं उद्घोतव्य इति मन्यसे ।। जिसे तू हनन योग्य मानता है, वह तू ही है। जिसे तू आज्ञा में रखने योग्य मानता है, वह तू ही है । जिसे तू परिताप देने योग्य मानता है, वह तू ही है। जिसे तू वास बनाने योग्य मानता है, वह तू ही है। जिसे तू मारने योग्य मानता है, वह तू ही है। १-२. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ १९३, उद्वितस्स गुरुकुले वसंतो गति समणुपस्सह, कि गति गतो? जहा कोयि रायसेवगो रायाणं आराहित्ता पट्टबंध पत्तो, तत्थ लोए वतारो भवंति-पेह अमुगो के गति गओ ? एवं अमितरइस्सरियत्तणेण महाविज्जाए वा, इह हि आयरियकुलावासे वसंतो 'णीयं सेज्ज गति ठाणं णियमा (णीयं च आ) सणाणि या एवं वट्टमाणो 'पूज्जा य से पसीयंति, संबुद्धा पुव्वसंथुता।' सो अचिरयकालेण आयरियपदं पावति पट्टबंधठाणीयं, अतो वुच्चति-उद्वितस्स द्वितस्स, अनाओवि रिद्धिओ पावंति, सिद्धिति देवलोग वा।' (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २०३, उत्थितस्य निःशंकस्य श्रद्धावतः स्थितस्य गुरुकुले गुरोराज्ञायां वा या गतिभवति, या पदवी भवति । Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०५. लोकसार, उ०५. सूत्र ६९-१०४ २८३ भाष्यम् १०१-यं त्वं हन्तव्य इति मन्यसे स नाम जिसे तू हनन योग्य मानता है, वह तू ही है।' इस वाक्य में त्वमेव । अस्मिन् आत्मनः अद्वैतं प्रदर्शितम् । यं त्वं आत्मा का अद्वैत प्रतिपादित है। जिसको तू मारना चाहता है, वह जिघांससि स नास्ति त्वत्तोऽन्यः, तेन तं घातयन् किं तेरे से भिन्न नहीं है। क्या तू उसकी घात करता हुआ स्वयं की घात नात्मानमेव हन्सि ? अनया अद्वैतानुभूत्या हिंसातः नहीं कर रहा है ? इस अद्वैत की अनुभूति से हिंसा से सहज विरति सहजा विरतिर्जायते । यत्र द्वैतानुभूतिः परानुभूतिर्वा तत्र हो जाती है। जहां द्वैत की या पर की अनुभूति होती है, वहां हनन हननादीनां प्रसङ्गः, तेन स्वरूपगतस्य अद्वैतस्य उपदेशः। आदि का प्रसंग आता है, इसलिए यहां आत्मा के स्वरूपगत एवमन्यत्रापि। अद्वैत का उपदेश दिया गया है। इसी प्रकार अन्य आलापकों के विषय में समझ लेना चाहिए। १०२. अंजू चेय पडिबुद्ध-जीवी, तम्हा ण हंता ण विघायए । सं. ऋजुः चैतत् प्रतिबुद्धजीवी, तस्मात् न हंता न विघातयेत् । ज्ञानी पुरुष ऋजु तथा समझ कर जीने वाला होता है । इसलिए वह स्वयं हनन नहीं करता और न दूसरों से करवाता है। भाष्यम् १०२-अहिंसकः ऋजुर्भवति । स च हन्तव्य- अहिंसक व्यक्ति ऋजु होता है। वह हन्तव्य और घातकघातकयोरेकतां प्रतिपद्य जीवति, न तु भयेन शठतया दोनों की एकता को स्वीकार कर जीता है। वह भय या शठता से वा एतं सिद्धान्तं स्वीकरोति, तस्मात् स न स्वयं इस सिद्धान्त को स्वीकार नहीं करता, इसलिए वह न स्वयं प्राणियों प्राणिनो हिनस्ति न चान्येन घातयति । की हिंसा करता है और न दूसरों से करवाता है। १.३. अणुसंवेयणमप्पाणेणं, जं 'हंतव्वं' ति णाभिपत्थए । सं०-अनुसंवेदनं आत्मना, यत् हन्तव्य इति नाभिप्रार्थयेत् । अपना किया हुआ कर्म अपने को ही भुगतना होता है, इसलिए किसी के हनन की इच्छा मत करो। भाष्यम १०३-त्वया यत् कर्म कृतं तस्य फलं त्वया जो कर्म तुमने किया है, उसका फल तुमको ही भुगतना भोक्तव्यमिति 'आत्मना अनुसंवेदनम्' उच्यते । उक्तञ्च होगा । यह 'स्वयं का अनुसंवेदन' कहलाता है। चूणि में कहा हैच -'जहा तूमो वेदावितो तहेव वेतितव्वं ।' यस्मात् 'जैसे तुमने दूसरों को संवेदित कराया है, वैसा ही तुम्हें संवेदन कश्चिदपि प्राणी हन्तव्य इति नाभिलषेत् । करना होगा।' इसलिए किसी भी प्राणी के हनन की इच्छा न करे । १०४. जे आया से विण्णाया, जे विण्णाया से आया। जेण विजाणति से आया। सं०-यः आत्मा स विज्ञाता, यो विज्ञाता स आत्मा । येन विजानाति तद् आत्मा । जो आत्मा है, वह ज्ञाता है और जो ज्ञाता है, वह आत्मा है । जिस साधन से आत्मा जानती है, वह जान आत्मा है । भाष्यम् १०४-आत्मा द्रव्यम् । ज्ञानं तस्य गुणः । आत्मा द्रव्य है। ज्ञान है उसका गुण । द्रव्य से गुण भिन्न है द्रव्याद गुण: भिन्न: अभिन्नो वा इति जिज्ञासायां अथवा अभिन्न, इस जिज्ञासा के प्रसंग में सूत्रकार कहते हैं जो निर्दिशति सूत्रकार:–य आत्मा स विज्ञाता। तात्पर्य- आत्मा है, वह विज्ञाता है। इसका तात्पर्य है कि आत्मा ज्ञान-शन्य मस्य-आत्मा नास्ति ज्ञानविरहितः। यः विज्ञाता स नहीं है। जो विज्ञाता है, वह आत्मा है। इसका तात्पर्य है-ज्ञान आत्मा । अस्य तात्पर्यम् - ज्ञानं नास्ति आत्मविरहितम्। आत्माशून्य नहीं है। चूर्णिकार कहते हैं-'कोई भी आत्मा ज्ञानआह चणिकार:--'णवि अप्पा नाणविन्नाणविरहितो विज्ञान से रहित नहीं है । जैसे अग्नि अनुष्ण नहीं होती। उष्णता अग्नि कोइ, जहा अणुण्हो अग्गी णत्थि, ण य उण्हं अग्गीओ से भिन्न पदार्थ नहीं है, इसलिए अग्नि के कथन से उष्णता का कथन अत्यंतरं, तेण अग्गी वुत्ते उण्हं वुत्तमेव भवति, तहा स्वयं हो जाता है। उसी प्रकार आत्मा के कथन से विज्ञान का कथन आता इति वत्ते विण्णाणं भणितमेव भवति, विण्णाणे स्वयं हो जाता है और विज्ञान के कथन से आत्मा का कथन स्वयं हो भणिते अप्पा भणितमेव भवति। एवं गतं गतिपच्चा- जाता है । इस प्रकार गत-प्रत्यागत लक्षण से इस आलापक का अर्थ गतिलक्खणेणं। किया गया है।' १. आचारांग चूणि, पृष्ठ १९४ । २. वही, पृष्ठ १९४, १९५। Jain Education international Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ आचारांगभाष्यम् भगवत्यामपि आत्मचैतन्ययोरभेदः प्रतिपादितो- भगवती आगम में भी आत्मा और चैतन्य का अभेद प्रतिस्ति पादित हैजीवे णं भंते ! जीवे ? जीवे जीवे ? गौतम ने पूछा-भंते ! आत्मा जीव है या चैतन्य जीव है ? गोयमा ! जीवे ताव नियमा जीवे, जीवे वि नियमा भगवान् बोले- गौतम ! आत्मा नियमतः जीव है और जीवे। चैतन्य भी नियमत: जीव है।' ___अस्मिन् प्रतिपादितम्-आत्माऽपि जीवः चैतन्यमपि इसका प्रतिपाद्य है कि आत्मा भी जीव है और चैतन्य भी जीवः । येन करणभूतेन आत्मा विजानाति तज्ज्ञानं जीव है। जिस साधन से आत्मा जानती है, वह ज्ञान भी आत्मा है। आत्मा ।' १०५. तं पडुच्च पडिसंखाए । सं०--तत् प्रतीत्य प्रतिसंख्यायते । उस ज्ञान की विभिन्न परिणतियों की अपेक्षा से आत्मा का व्यपदेश होता है। भाष्यम् १०५-यदि आत्मनः ज्ञानस्य च अभेद: यदि आत्मा और ज्ञान का अभेद सम्मत है तो फिर ज्ञान की। सम्मतः तहि ज्ञानबहुत्वे सति प्रत्येकमात्मनः बहुत्वं अनेकता से प्रत्येक आत्मा की भी अनेकता हो जाएगी। मतिज्ञान आदि भविष्यति । मतिज्ञानादीनां अनन्ताः पर्यवाः सन्ति । के अनन्त पर्यव हैं, उस स्थिति में एक आत्मा अनन्त आत्माएं बन तस्यामवस्थायां एक आत्मा अनन्तमात्मत्वं प्राप्स्यति जाएगी। इस जिज्ञासा के प्रसंग में सूत्रकार कहते हैं यह आत्मा इति जिज्ञासायां सूत्रकार: निर्दिशति--अयमात्मा यद् जिस-जिस ज्ञान में परिणत होती है, उस उसको प्राप्त कर वह वैसी ही यद ज्ञानं परिणमति तत तत प्राप्य तत्पक्षो भवति, तेन बन जाती है, इसलिए वह आत्मा उस ज्ञान की अपेक्षा से जानी जाती स तस्य ज्ञानस्यापेक्षया ज्ञायते व्यपदिश्यते वा। यदा स है या व्यपदिष्ट होती है। जब वह घटज्ञान से उपयुक्त होती है तब घटज्ञानेन उपयुक्तो भवति तदा घटज्ञानो भवति । एवं वह आत्मा 'घटज्ञान' होती है। इस प्रकार श्रोत्र के विषय में उपयुक्त श्रोत्रोपयुक्तः श्रोत्रेन्द्रियः यावत् स्पर्शोपयुक्तः स्पर्शनेन्द्रियो होकर श्रोत्रेन्द्रिय, यावत् स्पर्श के विषय में उपयुक्त होकर स्पर्शेन्द्रिय भवति । घटज्ञाने न पटस्योपयोगः भवति, पटज्ञाने च नैव हो जाती है। घटज्ञान में पट का उपयोग नहीं होता और न पटज्ञान भवति घटस्योपयोगः। में घट का उपयोग होता है। अत्र त्रिपदी समवतारणीया यहां इस त्रिपदी का समवतार करना चाहिएआत्मा उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तः । आत्मनः अस्तित्वं आत्मा उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्त है। ध्रुवं, ज्ञानस्य परिणामाः उत्पद्यन्ते व्ययन्ते च । आत्मा का अस्तित्व ध्रुव है। ज्ञान के परिणाम उत्पन्न होते हैं और नष्ट होते हैं । एतां त्रिपदी प्रतीत्य एक एव आत्मा नानारूपे इस त्रिपदी के आधार पर एक आत्मा का अनेक रूपों में प्रतिसंख्यातो भवति। व्यपदेश होता है। १०६. एस आयावादी समियाए-परियाए विवाहिते ।-त्ति बेमि । सं० - एष आत्मवादी सम्यकपर्यायः व्याहृतः।-इति ब्रवीमि । यह आत्मवादी सम्यग् पर्याय कहलाता है। ऐसा मैं कहता हूं। १. अंगसुत्ताणि २, भगवई, ६।१७४ । कारतया वस्तु जानाति विजानाति स आत्मा, न २. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ १९५ : अण्णे भणति-कि तस्मादात्मनो भिन्नं ज्ञानं, तथाहि-न करणतया जे आता से विण्णाया? जे विण्णाया से आता? भेवः, एकस्यापि कर्तृकर्मकरणभेदेनोपलब्धेः, तद्यथा-- पुच्छा, वागरणं तु जेण वियाणति से आता, केण देवदत्त आत्मानमात्मना परिच्छिनत्ति । वियाणति ? नाणेणं पंचविहेणं वियाणति, तं च नाणं ३. अंगसुत्ताणि २, भगवई २११३७ । अप्पा चेव, ण ततो अत्यंतरं अप्पा। ४. चूणिकारेण एतत् सूत्रं व्यापकदृष्ट्यापि व्याख्यातम् । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २०५ : येन मत्यादिना ज्ञानेन (आचारांग चूणि, पृष्ठ १९५) करणभूतेन क्रियारूपेण वा विविधं-सामान्यविशेषा Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ५. लोकसार, उ० ५-६. सूत्र १०५-१०६ २८५ भाष्यम् १०६-पूर्वोक्त आत्मवादं अभ्युपगच्छन् एष पूर्वोक्त आत्मवाद को स्वीकार करने वाला आत्मवादी सम्यक् आत्मवादी सम्यकपर्यायः व्याहृतः । तस्यैव पर्याय: पर्याय वाला (सत्य का पारगामी) कहलाता है। उसी का ही पर्याय सम्यग् भवति य आत्मनः यथार्थ स्वरूपं परिच्छिनत्ति। सम्यग् होता है जो आत्मा के यथार्थ स्वरूप को जानता है । छट्ठो उद्देसो : छठा उद्देशक १०७. अणाणाए एगे सोवट्ठाणा, आणाए एगे निरुवट्ठाणा । सं०- अनाज्ञायां एके सोपस्थानाः आज्ञायां एके निरुपस्थानाः । कुछ पुरुष अनाज्ञा में उद्यमी और आज्ञा में अनुद्यमी होते हैं । भाष्यम् १०७-केचित् पर्यायं गृहीत्वापि मोहा- कुछ मनुष्य प्रव्रज्या ग्रहण करके भी मोह से अभिभूत होकर भिभूताः न सम्यक् पर्यायं प्रवर्तन्ते । तान् लक्ष्यीकृत्य प्रव्रज्या में सम्यक् प्रवर्तित नहीं होते। उन शिष्यों को लक्ष्य कर आचार्यः शिष्यान् संबोधयति-एके मुनयः अनाज्ञायां आचार्य कहते हैं कुछ मुनि अनाज्ञा में उद्यम करने वाले होते हैं । सोपस्थानाः कृतोद्यमाः भवन्ति । एके आज्ञायां कुछ मुनि आज्ञा में निरुद्यमी होते हैं, उद्यम करने वाले नहीं होते। निरुपस्थानाः—निरुद्यमा भवन्ति । अनाना---अनुपदेशः स्वमनीषिकाचरितमाचरण- अनाशा का अर्थ है-तीर्थंकर का अनुपदेश, अपनी बुद्धि से मिति । तस्यामुद्यमस्य कारणमस्ति इन्द्रियपरवशता, किया हुआ आचरण । उस (अनाज्ञा) में उद्यम करने का मूल हेतु हैस्वाभिमानप्रदर्शन, पूर्वाग्रहश्च । इन्द्रियों की परवशता, अपने अहं का प्रदर्शन और पूर्वाग्रह । आज्ञा-उपदेशः, तस्यामनुद्यमस्य कारणमस्ति आज्ञा का अर्थ है-तीर्थंकर का उपदेश । उसमें अनुद्यम का आलस्यं, स्तब्धता, उदासीनता च । कारण है-आलस्य, अहंकार और उदासीनता। १०८. एतं ते मा होउ। सं०-एतत् तव मा भवतु । यह तुम्हारे मन में न हो। भाष्यम् १०८-शिष्यस्योपरि अनुकम्पासलिलकणान् शिष्यों पर मानो करुणा के रस-कणों को बरसाते हुए आचार्य वर्षयन्त इव आचार्या ब्रुवते--एतत् कुमार्गवासनावासि- कहते हैं शिष्यो ! दो बातें तुम्हारे में न हों-१. तुम्हारा मन कुमार्ग तान्तःकरणत्वं सन्मार्गावसीदनं च, द्वयमपि मा भूत् ।' की वासना से वासित न हो। २. सन्मार्ग में मन विषादग्रस्त न हो। वर्षयन्त इव आचार्या युवता एतत् कुमार्गवासनावासि- कहते हैं जियो की बात तुम्हारे में नहा का तुम्हारा मन कुमाण १०६. एयं कुसलस्स बसणं । सं०-एतत् कुशलस्य दर्शनम् । यह महावीर का दर्शन है। भाष्यम् १०९-अनाज्ञायामुद्यमः आज्ञायामनुद्यमश्च अनाज्ञा में उद्यम तथा आज्ञा में अनुद्यम कल्याण के लिए नहीं न श्रेयसे भवति, तदेतत् कुशलस्य-भगवतो महावीरस्य होता, यही दर्शन भगवान् महावीर का है। दर्शनमस्ति । १. द्रष्टव्यम्-आयारो श६६। २. द्रष्टव्यम-आयारो ॥६७ । Jain Education international Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ आचारांगभाष्यम ११०. तहिट्ठीए तम्मुत्तीए, तप्पुरक्कारे तस्सण्णी तन्निवेसणे। सं०-तदृष्टिक: तन्मूर्तिकः तत्पुरस्कारः तत्संज्ञी तन्निवेशनः । मुनि महावीर के दर्शन में दृष्टि नियोजित करे, उसमें तन्मय हो, उसे प्रमुख बनाए, उसको स्मृति में एकरस हो और उसमें वत्तचित्त होकर उसका अनुसरण करे। भाष्यम् ११०-द्रष्टव्यम्-५।६८ भाष्यम् । देखें-५।६८ का भाष्य । १११. अभिभूय अवक्खू, अणभिभूते पभ निरालंबणयाए । सं.-अभिभूय अद्राक्षीत् अनभिभूतः प्रभुः निरालम्बनताय । घातिकर्मों को अभिभूत कर महावीर ने देखा कि जो बाधाओं से अभिभूत नहीं होता, वही निरालम्बी होने में समर्थ होता है। भाष्यम् १११–चत्वारि घातिकर्माणि अभिभूय चार घातिकर्मों को नष्ट कर भगवान् महावीर ने देखा-जो भगवान् अद्राक्षीत्--यः अनुकूलप्रतिकलैः परीषहोपसर्गः मुनि अनुकूल और प्रतिकूल परीषहों और उपसर्गों से पराजित नहीं अनभिभूत: स निरालम्बनतायै प्रभुर्भवति, आलम्बनानि होता, वह निरालम्बी होने में समर्थ होता है, वह सभी आलंबनों को परित्यक्तुमर्हति । यथा उत्तराध्ययने-संभोगपच्चक्खा- छोड़ सकता है । जैसे उत्तराध्ययन में कहा है -शिष्य ने पूछा- भंते ! णणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? . संभोज-प्रत्याख्यान से जीव क्या प्राप्त करता है ? संभोगपच्चक्खाणणं आलंबणाई खवेइ। निरालंब- आचार्य ने कहा-संभोज-प्रत्याख्यान से मुनि आलम्बन-मुक्त णस्स य आययट्रियाजोगा भवंति । सएणं लाभेणं हो जाता है। जो निरालम्ब होता है, उसके सारे प्रयत्न मोक्ष की संतुस्सइ परलाभं नो आसाएइ नो तक्केइ नो पीहेइ नो सिद्धि के लिए होते हैं। स्वयं उसे भिक्षा में जो कुछ मिलता है वह पत्थेइ नो अभिलसइ । परलाभं अणासायमाणे उसी में संतुष्ट हो जाता है। दूसरे मुनियों को मिली हुई भिक्षा में अतक्केमाणे अपीहेमाणे अपत्थेमाणे अणभिलसमाणे दुच्चं वह आस्वाद नहीं लेता, उसकी ताक नहीं रखता, स्पृहा नहीं करता, सुहसेज्जं उपसंपज्जित्ताणं विहरइ।' प्रार्थना नहीं करता और अभिलाषा नहीं करता । वह दूसरे को मिली हुई भिक्षा में आस्वाद न लेता हुआ, उसकी ताक न रखता हुआ, स्पृहा न करता हुआ, प्रार्थना न करता हुआ और अभिलाषा न करता हुआ दूसरी सुख-शय्या को प्राप्त कर विहरण करता है । ११२. जे महं अबहिमणे । सं०-यो महान् अबहिर्मनाः । जो मोक्षलक्षी है, वह मन को असंयम में न ले जाए। भाष्यम् ११२-यो महान्–पुरस्कृतमोक्षः स जो महान् अर्थात् मोक्षलक्षी होता है, वह अबहिर्मना होता है। अबहिर्मना भवति, न च स संयमात शासनात् पञ्च- वह न संयम से, न धर्म की शासना से और न पांच प्रकार के आचारों विधाचारपदाद् वा बहिर्लेश्यो भवति । के अध्यवसायों से बाहर होता है। ११३. पवाएणं पवायं जाणेज्जा। सं०-प्रवादेन प्रवादं जानीयात् । प्रवाद को प्रवाद से जानना चाहिए। १. उत्तरज्झयणाणि २९।३४ । २. ची 'मह' इति पदं नास्ति व्याख्यातम् । तस्य स्थाने 'अहं' इति पदं दृश्यते । लेश्यामनसोरेकरवमपि लभ्यते-जे इति णिद्देसो, अहमेव सो जो अबहिमणोण णिग्गयमणो संजमाओ सासणाओ वा पंचविहायारपयाओ वा अबहिल्लेसो, जति अण्णउस्थियाणं वेउम्बियाइरिद्धिओ पासति तहावि न बहीमणो भवति, छलवाते वा णिग्गहीतो ण बहिलेसी भवति । (चूणि, पृष्ठ १९६) Jain Education international Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ५. लोकसार, उ० ६. सूत्र ११०-११६ २८७ भाष्यम् ११३-प्रवादेन-आत्मीयदर्शनेन प्रवादं- मुनि अपने दर्शन से दूसरे दर्शन को जाने, उसकी परीक्षा अन्यदर्शनं जानीयात, तं परीक्षेत इति यावत् । तस्य करे । मध्यस्थ भाव में स्थित होकर उसकी परीक्षा करने में कोई दोष परीक्षायां सति मध्यस्थभावे नास्ति कश्चिद् दोषः । यथा नहीं है। चूणि का अभिमत है—क्या अन्य दर्शन के दोष-कथन में च चूर्णी-णण एवं परसिद्धंतदोसकहाए रागदोसा? राग-द्वेष का भाव होता है ? उत्तर में कहा गया है-उत्पथ की बात भण्णति, जहा-उप्पहमग्गं दरिसेंतस्स ण दोसो भवति, बताने में कोई दोष नहीं है। जैसे रोगी को अपथ्य भोजन करने से जहा अपत्थभोयणातो आतुरं णिवारंतस्स ण दोसो, एवं रोकना दोष नहीं कहलाता। इसी प्रकार स्व-सिद्धांत के आधार पर सएणं पवादेणं परवादे दुठे दरिसेंतस्स ण रागदोसो पर-सिद्धांत के दोष दिखाने में कोई राग-द्वेष नहीं माना जा सकता। भवति । ११४. सहसम्मइयाए, परवागरणेणं, अण्णेसि वा अंतिए सोच्चा। सं०-स्वसंस्मृत्या परव्याकरणेन अन्येषां वा अन्तिके श्रुत्वा । स्वस्मृति से, पर-आप्त के निरूपण से अथवा अन्य किसी अतिशयज्ञानी से सुनकर प्रवाद को जाना जा सकता है। भाष्यम् ११४-अन्य प्रवादानां परीक्षायै एतानि अन्य दर्शनों की परीक्षा करने में इन तीन साधनों का प्रयोग त्रीणि साधनानि प्रयोक्तव्यानि करना चाहिए। १. स्वस्मृतिः-पूर्वजन्मनः स्मृतिः । १. स्वसंस्मृति-पूर्वजन्म की स्मृति । २. परव्याकरणम्-तीर्थंकरव्याकरणम् । २. परव्याकरण-तीर्थंकरों द्वारा व्याख्यात । ३. अन्येषामन्तिके श्रवणम्-अतिशयज्ञानिना स्वत ३. अतिशयज्ञानी के द्वारा स्वतः ही निरूपित तथ्य को एव निरूपितं श्रुत्वा। सुनकर। विशेषव्या ध्यानार्थं द्रष्टव्यम्-आयारो १/१-४ विशेष विवरण के लिए देखें-आयारो १/१-४ सूत्रों का सूत्राणां भाष्यम् । भाष्य । ११५. णिद्देसं णातिवटेज्जा मेहावी। सं.-निर्देशं नातिवर्तेत मेधावी । मेधावी निर्देश का भतिक्रमण न करे। भाष्यम् ११५-प्रवादं सम्यगवधार्य मेधावी पुरुषः प्रवाद --स्व-सिद्धांत की सम्यग् अवधारणा कर मेधावी पुरुष तीर्थकरस्य निर्देशं नातिवर्तेत। तीर्थकर के निर्देश का अतिक्रमण न करे । ११६. सुपडिलेहिय सव्वतो सव्वयाए सम्ममेव समभिजाणिया। सं० --सुप्रतिलिख्य सर्वतः सर्वतया सम्यगेव समभिज्ञाय । सब प्रकार से, सम्पूर्ण रूप से निरीक्षण कर सत्य का ही अनुशीलन करना चाहिए। भाष्यम् ११६-स्वसंस्मृत्यादीनां त्रयाणां उपलब्धि- आत्मा को अथवा अतीन्द्रिय पदार्थों को जानने के तीन साधन कारणानां अन्यतरेण उपलब्धिकारणेन तीर्थकरस्य हैं- स्व-स्मृति, आप्त पुरुष के निरूपण से अथवा आप्त के अतिरिक्त सिद्धांतं सुप्रतिलिख्य सर्वतः इति द्रव्यक्षेत्रकालभावैः अन्य विशिष्ट ज्ञानी के पास सुन कर। इनमें से किसी एक कारण से १. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ १९६-१९७ । राग-द्वेष का दृष्टिकोण नहीं होना चाहिए । अपने (ख) धर्म और दर्शन के क्षेत्र में परीक्षा मान्य रही है। प्रवाद के प्रति राग और दूसरे प्रवावों के प्रति द्वेष किसी भी प्रवाद (दर्शन) को स्वीकार करने वाला नहीं होना चाहिए। अपने प्रवाद की विशेषता और दूसरे प्रवादों की परीक्षा करना चाहता है । भगवान् दूसरे प्रवादों की होनता दिखाने का मनोभाव नहीं महावीर ने इस परीक्षा को स्वीकृति दी। उन्होंने होना चाहिए। परीक्षा-काल में पूर्ण मध्यस्थमाव कहा- मुनि अपने प्रवाद को जानकर दूसरे प्रवादों और समभाव होमा चाहिए। को जाने, उनकी परीक्षा करे। किन्तु उसके पीछे Jain Education international Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ आचारांग भाव्यम् 1 सर्वतया इति बाह्याभ्यन्तरेण कारणेन सम्यगेव तीर्थंकर के सिद्धांत का संपूर्ण रूप से निरीक्षण कर द्रव्य क्षेत्र, काल समभिज्ञाय निर्देश नातिवर्तत इत्यनुवर्तते । और भाव से अर्थात् बाह्य और आभ्यन्तर रूप से उसका पूर्ण अवबोध कर उस निर्देश का अतिक्रमण न करे। यह पूर्व सूत्र से अनुवृत्त है। ११७. इहारामं परिणाय, अल्लोण-गुत्तो परिव्वए । णिट्टियट्ठी वीरे, आगमेण सदा परक्कमेज्जासि त्ति बेमि । सं० इहारामं परिज्ञाय आसीनगुप्तः परिव्रजेत्। निष्ठितार्थः वीरः आगमेन सदा पराक्रमेत इति ब्रवीमि । इस आत्म- रमण की परिज्ञा कर, आत्म-लीन और जितेन्द्रिय होकर परिव्रजन करे। वैसा कृतार्थ, वीर मुनि सदा आगम के अनुसार पराक्रम करे, ऐसा मैं कहता हूं । भाष्यम् ११७ इह आरामं परिजानीयात्। तपोनियमसंयमे वैराग्ये परीषहोपसर्गविजये च आ समन्ताद् रमणम् - आरामः । तं ज्ञपरिज्ञया विज्ञाय प्रत्याख्यान - परिज्ञया अनारामं प्रत्याख्याय आत्मलीन इन्द्रियजयी च भवेत्। तादृशः निष्ठितार्थ: बोर: आगमेन सदा पराक्रमेत इति ब्रवीमि । ११८. उड़ढं सोता अहे सोता, तिरियं सोता वियाहिया, एते सोया विक्खाया, जेहि संगति पासा । सं०ऊ खोतांसि अः स्रोतांसि तिर्यक स्रोतांसि व्याहृतानि एतानि स्रोतांसि व्याख्यातानि वै संग इति पश्यत । ऊपर स्रोत हैं, नीचे स्रोत हैं, मध्य में स्रोत हैं। ये स्रोत कहे गए हैं। इनके द्वारा मनुष्य आसक्त होता है, यह तुम देखो । , भाष्यम् ११६ - मुखं, कर्णे, नेत्रे, नासिके - एतानि सप्तस्रोतांसि शरीरस्योर्ध्वभागे वर्तन्ते । शरीरस्य तिर्यग्भागे स्तनद्वयं वर्तते। अधोभागे गुदमे रक्तवहानि च। एतानि स्रोतांसि व्याख्यातानि । स्रोतः- इन्द्रियाणि, तद्विषयासेवनप्रयुक्तान्यङ्गानि च। नवमाध्ययने' द्विविधं स्रोतः प्रतिपादितमस्ति आदानस्रोत: अतिपातस्त्रोतश्च अत्र अत्र आदानस्रोतः प्रस्तुतमस्ति ।' एतैः स्रोतोभिः संग:- रागो भवति इति पश्यत। ११. आतु उहाए, एत्थ विरमेज्ज वेयवी । सं०] आवर्त तु उपेक्ष्य, अत्र विरमेत् वेदवि आवर्त का निरीक्षण कर ज्ञानी पुरुष उससे विरत हो जाए । जिनशासन में साधक 'आराम' की परिज्ञा करे। आराम का अर्थ है-तप, नियम, संयम, वैराग्य, परीवह और उपसर्ग विजय में संपूर्णरूप से रमण करना । उस 'आराम' को ज्ञपरिज्ञा से जानकर तथा प्रत्याख्यान परिज्ञा से अनाराम का प्रत्याख्यान कर साधक आत्मलीन और जितेन्द्रिय हो जाए। वैसा कृतकृत्य वीर निर्देशानुसार पराक्रम करे, ऐसा मैं कहता हूं । साधक सदा आगम के १. सुश्रुतसंहिता शारीरस्थानम् ५।१०: श्रवण- नयन-वदनप्राण-गुद मेवाणि नव स्रोतांसि नराणां बहिर्मुखानि, एतान्येव स्त्रीणामपराणि च श्रोणि-द्वे स्तनयोरधस्ताद् रक्तवहं । -- शरीर के ऊर्ध्व भाग में सात स्रोत हैं एक मुख, दो कान, दो नेत्र दो नासिकाएं शरीर के मध्य भाग में दो स्तन हैं। शरीर के अधी भाग में गुदा, लिंग और रक्तवहा (योनि) है ये स्रोत कहे गए हैं। ५ भाष्यम् ११९ - आवर्त्तः पूर्ववत् ज्ञेयः । तं उपेक्ष्यआवर्त्त की व्याख्या पूर्ववत् है । राग-द्वेष के आवर्त्त का सामीप्येन समवलोक्य वेदविद् शास्त्रज्ञ एतस्मात् निकटता से निरीक्षण कर शास्त्र पुरुष उससे विरत हो जाए। आवर्ताद् विरमेत् । । स्रोत का अर्थ है-इन्द्रियां और इन्द्रिय-विषयों के आसेवन में प्रयुक्त शरीर के अंग प्रस्तुत आगम के नौवें अध्ययन में दो प्रकार के स्रोत प्रतिपादित हैं-आदानस्रोत तथा अतिपातस्रोत। यहां आदानस्रोत प्रस्तुत है । इन स्रोतों से संग-राग होता है, इसे तुम देखो। २. आयारो, ९।१।१६ । ३. वही, ४१४५ सूत्रेऽपि आदानस्त्रोतसः प्रतिपादनमस्ति । ४. द्रष्टव्यम् - आयारो ३२६ । ५. द्रष्टव्यम् - आयारो ३।६ । Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ५. लोकसार, उ० ६. सूत्र ११७-१२५ १२०. विणएत्तु सोयं णिक्खम्म, एस महं अकम्मा जाणति पासति । सं० - विनीय स्रोत: निष्क्रम्य एष महान् अकर्मा जानाति पश्यति । इन्द्रिय विषय का परित्याग कर निष्क्रमण करने वाला वह महान् साधक अकर्मा होकर जानता, देखता है। – भाष्यम् १२० गृहाद् अभिनिष्क्रमणं विधाय स्रोत :शब्दादयः इन्द्रियविषयाः तस्मिन् रागद्वेषयोविनयनं कृत्वा एष महान् अकर्मा-ध्यानस्थः ज्ञानावरणकर्ममुक्तो या जानाति पश्यति स्रोतसः साक्षात्कारं करोति ।" । १२१. पडिलेहाए णावकंखति इह आगत गति परिष्णाय ०प्रतिलेखया नायकांति इह आगति गति परिज्ञाय । मध्य १२१ - इन्द्रियविषया: पुरुषस्य आकांक्षामासाथ रागद्वेषयोः हेतवो भवन्ति । अनाकांक्षायां ते विषयाः केवलं ज्ञेया एव ते न विकृतये प्रभवन्ति । । रागद्वेषाभिभूतस्य आगतिर्गतिश्च भवति - जन्ममरण परम्परा प्रवर्तते इति परिशाय अभिनिष्क्रांतः पुरुषः प्रतिलेखया तानि स्रोतांसि नावकांक्षति । विषय की आसक्ति से जन्म-मरण का चक्र चलता है इस पर्यालोचन के द्वारा परिज्ञा कर आत्मस्थ पुरुष विषयों को आकांक्षा नहीं करता । १२२. अच्चे जाइ मरणस्स वट्टमां बक्खाय-रए । सं० - अत्येति जातिमरणस्य वृत्तमार्ग व्याख्यातरतः । सूत्र और अर्थ में रत मुनि जन्म और मृत्यु के वृत्त मार्ग का अतिक्रमण कर देता है। प्रव्रज्या के लिए घर से अभिनिष्क्रमण कर शब्द आदि इन्द्रियविषयों में होने वाले राग-द्वेष का विजयन कर वह महान् साधक कम हो जाता है, ध्यान में लीन अथवा ज्ञानावरण कर्म से मुक्त होकर जानता, देखता है— स्रोत का साक्षात्कार कर लेता है। १२४. तक्का जत्थ ण विज्जइ । सं० तर्कः यत्र न विद्यते । वहां कोई तर्क नहीं है-- आत्मा तर्कगम्य नहीं है। माष्यम् १२२ – व्याख्यातम् सूत्रागमः अर्थागमश्च, व्याख्यात का अर्थ है— सूत्रागम और अर्थागम । जो मुनि तस्मिन् रतः मुनिः जन्मनः मरणस्य च वृत्तमार्ग इसमें लीन रहता है, वह जन्म-मरण के वर्तुलाकार मार्ग का अतिक्रमण वर्तुलाकार पन्यानं अतिक्रामति । कर देता है । १२३. सव्वे सरा नियति । सं०- सर्वे स्वराः निवर्तन्ते । सब स्वर लौट आते हैं---शब्द के द्वारा आत्मा प्रतिपाद्य नहीं है । १२५. मई तत्थ ण गाहिया । सं० - मतिः तत्र न ग्राहिका । वह मति के द्वारा प्राह्य नहीं है। १. तुलना - आयारो २।३७ । २. तुलना - आयारो २।३८ । ३. आचारांग, वृत्ति, पत्र २०६, २०९ : विविधं - अनेकप्रकारं २८६ इन्द्रिय विषय पुरुष की आकांक्षा से युक्त होकर राग-द्वेष के हेतु बनते हैं। जब वे विषय आकांक्षा से युक्त नहीं होते तब वे मात्र ज्ञेय होते हैं। वे विकृति पैदा नहीं कर सकते। जो राग-द्वेष से अभिभूत होता है उस व्यक्ति के आगति और गति होती है— जन्म मरण की परम्परा चलती है—इसकी परिक्षा कर अभिनिष्कांत पर्यालोचन के द्वारा उन स्रोतों की आकांक्षा नहीं करता । प्रधानपुरुषार्थ तथाऽस्त्रार्थतया तपः संयमानुष्ठानार्थस्वेन (आख्यातो) व्याख्यातो मोक्षः- अशेषकर्मक्षयलक्षणो विशिष्टाका प्रदेशाख्यो वा तत्र रतो व्याख्यानरतः । Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० आचारांगभाष्यम् १२६. ओए अप्पतिढाणस्स खेयन्ने। सं०-ओजः अप्रतिष्ठानः क्षेत्रज्ञः । वह अकेला, सर्वथा अनालंबन और ज्ञाता है। १२७. से ण दोहे, ण हस्से, ण वट्टे, ण तंसे, ण चउरंसे, ण परिमंडले। सं०-स न दीर्घः, न ह्रस्वः, न वृत्तः, न व्यस्रः, न चतुरस्रः, न परिमण्डलः । वह आत्मा न दीर्घ है, न ह्रस्व है, न वृत्त है, न त्रिकोण है, न चतुष्कोण है और न परिमंडल है। १२८. ण किण्हे, ण णीले, ण लोहिए, ण हालिद्दे, ण सुविकल्ले । - सं०---न कृष्णः, न नीलः, न लोहितः, न हारिद्रः, न शुक्लः । वह न कृष्ण है, न नील है, न लाल है, न पीत है और न शुक्ल है। १२६. ण सुब्भिगंधे, ण दुरभिगंधे । सं० --न सुरभिगन्धः, न दुरभिगन्धः । वह न सुगन्ध है और न दुर्गन्ध है। १३०. ण तिते, ण कडुए, ण कसाए, ण अंबिले, ण महुरे। सं०-न तिक्तः, न कटुकः, न कषायः, नाम्लः, न मधुरः । वह न तिक्त है, न कटु है, न कषाय है, न अम्ल है और न मधुर है । १३१. ण कक्ख डं, ण मउए, ण गरुए, ण लहुए, ण सोए, ण उण्हे, ण गिद्धे, ण लुक्खे । सं० - न कर्कशः, न मृदुकः, न गुरुकः, न लघुकः, न शीतः, न उष्णः, न स्निग्धः, न रूक्षः । वह न कर्कश है, न मृदु है, न गुरु है, न लघु है, न शीत है, न उष्ण है, न स्निग्ध है और न रूक्ष है। १३२. ण काऊ। सं०--न कायवान् । वह शरीरवान नहीं है। १३३. ण रुहे। सं० न रुहः । वह जन्मधर्मा नहीं है। १३४. ण संगे। सं०--न संगः । वह लेपयुक्त नहीं है। १३५. ण इत्थी, ण पुरिसे, ण अण्णहा। सं०-न स्त्री, न पुरुषः, न अन्यथा । वह न स्त्री है, न पुरुष है और न नपुंसक है । १.वृत्तिकृता एतत्पदं षष्ठ्यन्तं व्याख्यातं, तेन अर्थस्य जटिलता जाता। प्राकृतल्या एतद विभक्तिपरिवर्तनपूर्वकं प्रथमान्तं व्याख्यायते, तदा अर्थसारल्यं स्यात् । Jain Education international Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६१ अ० ५. लोकसार, उ० ६. सूत्र १२६-१४० १३६. परिणे सण्णे। सं०-परिज्ञः संज्ञः। वह परिश है, वह संज्ञ है-सर्वतः चैतन्यमय है । १३७. उवमा ण विज्जए। सं०-उपमा न विद्यते। उसके लिए कोई उपमा नहीं है। १३८. अरूवी सत्ता। सं०-अरूपी सत्ता। वह अमूर्त अस्तित्व है। १३६. अपयस्स पयं णस्थि । सं०-अपदस्य पदं नास्ति । वह अपद है-उसका बोध कराने वाला कोई पद नहीं है। १४०. से ण सद्दे, ण रूवे, ण गंधे, ण रसे, ण फासे, इच्चेताव । ---त्ति बेमि । सं.–स न शब्दः, न रूपं, न गन्धः, न रसः, न स्पर्शः, इत्येतावत् । इति ब्रवीमि । वह न शब्द है, न रूप है, न गंध है, न रस है और न स्पर्श है, इतना ही। —ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् १२३-१४०-प्रस्तुतागमस्य प्रारम्भः आत्म- प्रस्तुत आगम का प्रारंभ आत्म-सिद्धान्त के प्रतिपादन से ही सिद्धान्तमधिकृत्य एव जातः । तत्र औपपातिक: आत्मा हुआ है। औपपातिक आत्मा नानाविध शरीरों को धारण करती है नानाविधानि शरीराणि दधाति नानारूपासु च योनिषु और नानाविध योनियों में अनुसंचरण करती है, बार-बार जन्मती अनुसंचरति । असौ संसारी इत्युच्यते। कर्मोपाधिसापेक्ष- है, मरती है। इसे संसारी आत्मा कहा जाता है। कर्मोपाधिसापेक्ष द्रव्याथिकनयमते असौ आत्मा शरीराधिष्ठितत्वात् द्रव्याथिकनय के मत में यह आत्मा शरीर में अधिष्ठित होने के तर्कगम्यः, मतिग्राह्यः, पौद्गलिकगुणैः युक्तः, कारण तर्कगम्य, बुद्धिग्राह्य, पौद्गलिक गुणों से युक्त, पुनर्जन्मधर्मा, पूनर्जन्मधर्मा, स्त्रीपुरुषादिलिगान्वितः कथंचिन्मूर्तोऽपि स्त्री-पुरुष आदि लिंग से सहित तथा कथंचिद् मूर्त भी है। भवति । कर्मोपाधिनिरपेक्षद्रव्याथिकनयमते जीवपारिणा- कर्मोपाधिनिरपेक्ष द्रव्याथिकनय के मत में जीव-पारिणामिक मिकभावमाश्रितः आत्मा मुक्तः सिद्धो वा प्रोच्यते । भावयुक्त आत्मा मुक्त अथवा सिद्ध कही जाती है । शरीरमुक्त होने के शरीरमुक्तत्वात् असौ अमूर्तो भवति। ततः स शब्दैः कारण वह आत्मा अमूर्त होती है । इसलिए वह न शब्दगम्य है और तर्केश्च अगम्यो भवति, मत्या अग्राह्यो भवति । पुद्गल- न तर्कगम्य है । वह बुद्धि के द्वारा अग्राह्य है । वह आत्मा पुद्गलगुणों गुणश्च विविक्तः स्त्रीपुरुषादिलिंगभेदमतिक्रान्त: केवलं से रहित है। उसमें स्त्री-पुरुष आदि लिंगभेद नहीं होता। वह केवल परिज्ञस्वरूपे अवतिष्ठति । प्रस्तुतालापकेषु (सूत्रम् १२३- परिज्ञस्वरूप-ज्ञाता के स्वरूप में अवस्थित है। प्रस्तुत आलापकों १४०) तस्य कर्मोपाधि निरपेक्षस्य अशरीरस्य आत्मनः (१२३-१४०) में जिस आत्म-स्वरूप का निरूपण है वह आत्मा है स्वरूपं प्रतिपादितमस्ति । कर्मोपाधिनिरपेक्ष तथा शरीररहित। उपनिषत्सु आत्मप्रतिपादकसूत्राणां साम्यं दृश्यते। उपनिषदों में आत्मा के प्रतिपादक जो सूत्र हैं, उनका इन आत्मविद्यायाः पुरस्कारः क्षत्रिया आसन् । तेषां सूत्रों के साथ साम्य है। आत्मविद्या के पुरस्कर्ता थे क्षत्रिय । उनका १. आयारो, १४। ३.(क) छान्दोग्योपनिषद्, ५।३।१-७०। २. वही, १।८। (ख) बृहदारण्यकोपनिषद्, ६.२८ : यथेयं विद्येतःपूर्व न कस्मिश्चन ब्राह्मणं उवास तां त्वहं तुभ्यं वक्ष्यामि । Jain Education international Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ आचारांगभाष्यम् आत्मसिद्धान्ते आसीत् अधिकारः इति उपनिषत्साक्षी- आत्म-सिद्धान्त के विषय में अधिकार था, यह बात उपनिषदों की पूर्वकं वक्तुं शक्यम् । तेन एतस्प्रकरणं उपनिषत्प्रभावितं साक्षी से कही जा सकती है। इसलिए आचारांगगत यह प्रकरण इति प्रतिपादनपरैः पण्डितैः पुनरालोचनीयम् । उपनिषदों से प्रभावित है या यह उसका उपजीवी है, ऐसा प्रतिपादन करने वाले पंडितों को पुनः सोचना होगा। १२३-इदानीं आत्मनः अज्ञेयवादः अनिर्वचनीयस्व- यहां से आत्मा के अज्ञेयवाद अथवा अनिर्वचनीय स्वरूप का रूपं वा निरूप्यते निरूपण प्रस्तुत किया जा रहा हैआत्मा अमूर्तः सूक्ष्मतमश्च विद्यते, अतः स शब्देन आत्मा अमूर्त और सूक्ष्मतम है, इसलिए वह शब्द के द्वारा नास्ति प्रतिपाद्यः। प्रतिपाद्य नहीं है। चूर्णी स्वरः प्रवाद इत्युक्तम्-सव्वे पवाया तत्थ चूणि में स्वर शब्द के स्थान पर प्रवाद शब्द है -सभी नियटॅति ।' प्रवाद आत्मा से लौट आते हैं, उस तक नहीं पहुंच पाते। उपनिषदि ब्रह्मणः आनन्दविज्ञानविषये एतादृशं उपनिषद् में ब्रह्मा के आनन्द-विज्ञान के विषय में ऐसा ही सूक्तमुपलभ्यते सूक्त प्राप्त होता हैयतो वाचो निवर्तन्ते, अप्राप्य मनसा सह । वाणी वहां तक पहुंचे बिना ही मन के साथ लौट आती है । आनन्दः ब्रह्मणो विद्वान्, न विभेति कदाचन ॥ जो ब्रह्म के आनन्द को जानता है, उसको कहीं कभी भय नहीं होता। १२४ –तर्क:-मीमांसा ।' तर्केण परीक्ष्यमाणः तर्क का अर्थ है-मीमांसा। तर्क के द्वारा परीक्षा करने पर आत्मा न साक्षादुपलब्धो भवति । स अमूर्त्तत्वात् सूक्ष्म- आत्मा साक्षात् उपलब्ध नहीं होती । वह अमूर्त और सूक्ष्मतम होने के तमत्वाच्च तर्काग्राह्यः। कारण तर्क से ग्राह्य नहीं है। १२५ ..स मतिग्राह्योपि नास्ति। अमूर्त तत्त्वं वह बुद्धिग्राह्य भी नहीं है। अमूर्त तत्त्व शब्दों का, तर्कों का शब्दानां ताणां मतीनां च अविषयो भवति । यथोक्तं और बुद्धि का विषय नहीं बनता। जैसे उत्तराध्ययन में कहा हैउत्तराध्ययने---नो इंवियग्गेज्म अमुत्तमावा। आत्मा अमूर्त है, इसलिए वह इन्द्रियों के द्वारा नहीं जाना जा सकता। १२६-स आत्मा ओजः-एकः स्वतन्त्रो वा वर्तते। वह आत्मा ओज है-अकेला अथवा स्वतंत्र है। सामयिकी सामयिक्या संज्ञया ओज इत्येकः । स शरीराद् भिन्न एक संज्ञा से ओज का अर्थ है-अकेला। वह शरीर से भिन्न एक ही है, एव वर्तते, नास्ति कश्चिद् द्वितीयः । स अप्रतिष्ठान:- दूसरा कोई नहीं है । वह अप्रतिष्ठान है.-सर्वथा अनालंबन है। वह सर्वथा अनालम्बनः । क्षेत्रज्ञ:'--ज्ञाता। क्षेत्रज्ञ है-ज्ञाता है। १२७-आत्मा नास्ति दीर्घः-लोकव्यापीति यावत्। आत्मा दीर्घ नहीं है-लोकव्यापी नहीं है। वह ह्रस्व नहीं नास्ति ह्रस्वः-अगुष्ठपरिमाण इति यावत् । है-अंगुष्ठ परिमाण भी नहीं है। उपनिषदों में आत्मा का ह्रस्वत्व उपनिषत्सु आत्मनो ह्रस्वत्वं दीर्घत्वं च समुपलभ्यते।' और दीर्घत्व माना गया है। वह वृत्त आदि संस्थानों से संस्थित नहीं स वृत्तादिसंस्थानः संस्थितो नास्ति। १. आचारांग चूणि, पृष्ठ १९९ । २. तैतरीय उपनिषद् २।२। ३. आचारांग चूणि, पृष्ठ १९९ : तक्का जाम मीमांसा हेऊमग्गो।' ४. उत्तरायणाणि, १४.१९ । ५-६. चूणों वृत्तौ एवमाख्यातमस्ति(क) आचारांग चूणि, पृष्ठ १९९ : अपइट्ठाणस्स खेयण्णेति सो य अप्पइट्ठाणो-सिद्धो। आचारांग वृत्ति, पत्र २०९ : न विद्यते प्रतिष्ठान मौदारिकशरीरावेः कर्मणो वा यत्र सोऽप्रतिष्ठानो-- मोक्षस्तस्य 'खेदज्ञो' निपुणो। ७. (क) छांदोग्य उपनिषद् ३३१४१३ : एष मे आत्माऽन्तहुं दये अणीयान् व्रीहेर्वा यवाद् वा सर्षपाद् वा श्यामाकाद् वा श्यामाकतण्डुलाद् वा, एष म आत्माऽन्तहृदये ज्यायान् पृथिव्या ज्यायान् अन्तरिक्षाद् ज्यायान् दिवो ज्यायानेभ्यो लोकेभ्यः । (ख) श्वेताश्वतर उपनिषद् ५।८,९ : अंगुष्ठमात्रो रवितुल्यरूपः। Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६३ रायामरतीनपलक्षितं जग इन्द्रियविषयक पद से । अ०५. लोकसार, उ० ६. सूत्र १२६-१४० १२८-स नास्ति कृष्णादिवर्णवान् । वह कृष्ण आदि वर्णों से युक्त नहीं है। १२९-स नास्ति गन्धवान् । वह गन्धवान् नहीं है। १३०–स नास्ति रसवान् । वह रसवान् नहीं है। १३१--स नास्ति स्पर्शवान । वह स्पर्शवान नहीं है। एतेषु पञ्चसु (१२७-१३१) सत्रेषु 'नेति नेति' पदेन इन पांच सूत्रों (१२७-१३१) में नेति-नेति (नहीं है, नहीं है) आत्मा निरूपितः। अत्र निरूपितानि संस्थानानि वर्णादयो पद से आत्मा का निरूपण किया गया है। इन में निरूपित गुणाश्च पुद्गलद्रव्ये विद्यमानाः सन्ति। इन्द्रियविषये संस्थान, वर्ण आदि गुण पुद्गल द्रव्य में पाए जाते हैं। इन्द्रियों का जगति वयं त्रिभिरायामैरुपलक्षितं जगत् जानीमहे। विषयभूत जगत् तीन आयामों-ऊंचा, नीचा और तिरछा है। आत्मास्ति सर्वैरायामैरतीतः, अतः पुद्गलद्रव्यात् तस्य हम इसे जानते हैं। आत्मा सभी आयामों से अतीत है। इसलिए भिन्नत्वप्रतिपादनाय नेतिपदस्य प्रयोगः कृतः। अनेन पौद्गलिक द्रव्य से उसकी भिन्नता प्रतिपादित करने के लिए 'नेति' सिद्धमिदं-यस्मिन् संस्थानादयो भवन्ति तद् द्रव्यं पद का प्रयोग किया गया है। इससे यह सिद्ध होता है जिसमें मूर्तम् । आत्मनि एते न विद्यन्ते तेन सोऽस्ति अमूर्तः। संस्थान आदि होते हैं वह पदार्थ मूर्त है। आत्मा में ये सब नहीं होते, इसलिए वह अमूर्त है। १३२-स नास्ति कायवान्, न च तस्मात् कश्चि- आत्मा अशरीरी है। उससे न कोई आत्मा अवतरित होती दात्मा अवतरति, न च तस्मिन् कश्चिल्लीयते । है और न कोई आत्मा उसमें लय प्राप्त करती है। १३३–स नास्ति रुहः अग्निदग्धबीजवत् । दग्धकर्म- वह जन्मधर्मा नहीं है। जैसे अग्नि से दग्ध बीज पुन: अंकुरित बीजत्वात् न पुनर्भवांकुरो रोहति । नहीं होता, वैसे ही आत्मा के कर्म बीज दग्ध हो जाने के कारण पुनः उसमें जन्म-मरण का अंकुर उत्पन्न नहीं होता। १३४-स नास्ति संगः ।' यस्य आसक्तेर्लेशोऽपि वह असंग है-लेपमुक्त है। जिसमें आसक्ति का लेशमात्र भी अवशिष्टः स्यात् स पुनरवतरति । मुक्तात्मा सर्वथा शेष रह जाता है वह पुनः जन्म लेता है, मुक्त आत्मा सर्वथा लेपमुक्त असंगत्वात् न पुनर्भवमेति । होता है, इसलिए वह पुनः संसार में नहीं आता। १३५–लिंगं शरीरमाश्रितं भवति। लिंगस्य वेदः लिंग का आश्रय है-शरीर । लिंग से संबंधित वेद मोहकर्म मोहकर्माश्रितो भवति। आत्मस्वरूपस्थितः आत्मा के आधार पर होता है। जो आत्मा अपने मूल स्वरूप में स्थित है अशरीरः अकर्मा च भवति। तेन सोऽस्ति लिंगातीतः। वह अशरीरी और अकर्मा होती है, इसलिए वह लिंगातीत होती स नास्ति स्त्री, नास्ति पुरुषः, न च नपुंसकः । स लिंगाद् है। वह न स्त्री है, न पुरुष है और न नपुंसक । वह लिंग अथवा वेद वेदाद् वा अतीतः। से अतीत है। श्वेताश्वतरोपनिषदि आत्मनः लिंगमुक्तावस्था _ श्वेताश्वतर उपनिषद् में आत्मा की लिंगमुक्त अवस्था तथा तदितरा च द्वयमपि अस्ति प्रतिपादितम् लिंगयुक्त अवस्था-दोनों का प्रतिपादन है। वहां कहा है-आत्मा न नेष स्त्री न पुमानेष, न चैवायं नपुंसकः । स्त्री है, न पुरुष है और न नपुंसक । जिस लिंग वाले शरीर को वह यद् यद् शरीरमादत्ते, तेन तेन स रक्ष्यते ॥ प्राप्त होती है, उसी लिंग से वह पहचानी जाती है। १३६–स परितः समन्ताद जानातीति परिज्ञः। वह परिज्ञ है-सर्वतः जानता है । साधारण पुरुष इन्द्रियों के साधारणो जनः इन्द्रियैरेकदेशेन जानाति, किन्तु निरा- एक भाग से जानता है, किन्तु निरावरण आत्मा सर्वतोभाव से जानता १. आचारांग चूणि, पृष्ठ १९९, ण संगे इति जहा आजीवणगे, ३. नंदी चूणि, पृष्ठ ५६ : सोय अणंतभागो पुढवादिएगि'पुणो किड्डापवोसेणं से तत्थ अवरज्मति' (सूयगडो दियाण वि पंचण्हं निच्चुग्घाडो, अहवा सव्वजहण्णो ११७०)। अगंतभागो निच्चुग्घाडो पुढविक्काइए, चैतन्यमात्रमात्मनः । २. श्वेताश्वतरोपनिषद्, १० । तं च उक्कोसथीणिद्धिसहितनाणदंसणावरणोदए विणो Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ आचारांगभाष्यम् वरणः आत्मा सर्वतोभावेन जानाति । सम्यग जानातीति है । वह संश है-सम्यग् जानता है। संज्ञः। चैतन्यलक्षणः आत्मा। मुक्तः संसारी वा कोऽपि आत्मा का लक्षण है--चैतन्य। कोई भी आत्मा, चाहे वह आत्मा चैतन्यविरहितो न भवति। जैनदर्शने मुक्ता- मुक्त हो या संसारी, चैतन्य से रहित नहीं होती। जैन दर्शन के वस्थायामपि ज्ञानं तस्योपयोगश्च अस्ति सम्मतः। अनुसार मुक्त अवस्था में भी ज्ञान और उसका उपयोग सम्मत है। १३७-आत्मा एव परिज्ञः संज्ञश्च । नान्यः आत्मा ही परिज्ञ है, संज्ञ है। दूसरा कोई भी पदार्थ परिज्ञ कश्चित् पदार्थः परिज्ञः संज्ञो विद्यते । तेन नात्मनः या संज्ञ नहीं है। इसलिए आत्मा के लिए कोई उपमा नहीं है । काचिदुपमा विद्यते । अथवा सांसारिकेण केनापि भावेन अथवा किसी भी सांसारिक पदार्थ से आत्मा को उपमित नहीं किया आत्मा नोपमातुं शक्यते । जा सकता। १३८-सत्ता-अस्तित्वम्। आत्मनः सत्ता विद्यते, सत्ता का अर्थ है-अस्तित्व । आत्मा का अस्तित्व है, किन्तु किन्तु स अरूपी अस्ति, अतस्तस्य अस्तित्वं केवलं वह अरूपी है, इसलिए उसका अस्तित्व केवल केवलज्ञानी के ही केवलज्ञानप्रत्यक्षं, नास्ति इन्द्रियज्ञानिनां प्रत्यक्षम् । प्रत्यक्ष होता है । इन्द्रियज्ञानी उसको साक्षात् नहीं जान सकते । १३९–स अपदो विद्यते । नास्ति तस्य वाचक वह अपद है, पदातीत है। उसका बोध कराने वाला कोई किञ्चित् पदम्। यथा सांख्यानां 'तस्य वाचकः प्रणवः पद नहीं है। जैसे सांख्यदर्शन में 'आत्मा का वाचक प्रणव है'-ऐसा इति सम्मतमस्ति तथा मुक्तात्मनां किञ्चिद् वाचकं सम्मत है। किन्तु मुक्त आत्माओं का कोई वाचक पद नहीं है। चूर्णि नास्ति। चूणों 'पदं' इति पदचिह्नम् । यथा-अपदो के अनुसार 'पद' का अर्थ है-पदचिह्न । जैसे—सर्प अपद होता है । हि दोहजाइओ तस्स गच्छओ दीहं वटै परिमंडलं वा वह जब चलता है तब दीर्घ, वृत्त या परिमंडल कोई भी पदचिह्न पदं णत्थि ।' नहीं होता। १४०-पदं शब्दात्मकं भवति । स आत्मा नास्ति पद शब्दात्मक होता है। वह आत्मा न शब्द है, न रूप है, शब्दः, रूपं, गन्धः, रसः, स्पर्शो वा।' न गंध है, न रस है और न स्पर्श है। --इति ब्रवीमि। ---ऐसा मैं कहता हूं। आवरिज्जति ।""""ततो य से अश्वत्तं नाणमक्खरं सवजहणं भवति । ततो पुढविकाइतेहितो आउक्कातियाण अणंतभागेण विसुद्धतरं नाणमक्खरं, एवं कमेणं तेउ-बाउ वणस्सति-बेइंदिय - तेइंदिय-चरिदिय-असण्णिपंचेंदिय सण्णिपंचेंदियाण य विसुद्धतरं भवतीत्यर्थः । १. आचारांग चूणि, पृष्ठ १९९ । Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठं अज्झयणं धुयं छठा अध्ययन धुत [ उद्देशक ५ : सूत्र ११३] Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education international Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुखम् प्रस्तुताध्ययनस्य नामास्ति धुतम् । धुतवादः जैन- प्रस्तुत अध्ययन का नाम है 'धुत'। जैन और बौद्ध-दोनों बौद्धपरम्परायामस्ति सम्मतः। बौद्धानां विशुद्धिमार्गे परंपराओं में 'धुतवाद' सम्मत है। बौद्धों के विशुद्धिमार्ग ग्रन्थ में त्रयोदश धुतानि सन्ति वणितानि । प्रस्तुताध्ययने पञ्च तेरह धुतों का वर्णन है। इस अध्ययन में पांच धुतों का निरूपण धुतानि सन्ति निरूपितानि । एतेषां अर्थाधिकारः किया गया है। इनका अर्थाधिकार पांच उद्देशकों में संग्रहीत है-- पञ्चसु उद्देशकेषु संनिचितोस्ति१. निजकधुतम्-स्वजनममत्वचेतनायाः प्रकम्प- १. निजकधुत-स्वजन के प्रति होने वाली ममत्वचेतमा का नम् । प्रकंपन। २. कर्मधुतम् -कर्मपुद्गलानां प्रकम्पनम् । २. कर्मधुत-कर्म-पुद्गलों का प्रकंपन । ३. शरीरोपकरणधुतम्-शरीरोपकरणयोः ममत्व- ३. शरीर-उपकरणधुत-शरीर और उपकरणों के प्रति होने चेतनायाः प्रकम्पनम् । वाली ममत्वचेतना का प्रकंपन । ४. गौरवधुतम्-ऋद्धिरससातात्मकस्य गौरवस्य ४. गौरवधुत-ऋद्धि, रस और साता-इस गौरवत्रयी का प्रकम्पनम्। प्रकंपन । ५. उपसर्गधुतम् - अनुकूलप्रतिकूलभावजनितचेत- ५. उपसर्गधुत-अनुकूल और प्रतिकूल भावों से उत्पन्न चेतना नायाः प्रकम्पनम् ।' का प्रकंपन । धतवादोऽस्ति कर्मनिर्जरायाः सिद्धान्तः । यैर्हेतूभिः 'धुतवाद' कर्म-निर्जरा का सिद्धांत है। जिन-जिन हेतुओं से कर्मणां निर्जरा जायते ते सर्वेऽपि धुतसंज्ञकानि भवन्ति । कर्मों की निर्जरा होती है, उन सबकी 'धुत' संज्ञा है। कर्मबंध का कर्मबन्धस्य मुख्यो हेतुरस्ति ममत्वभावः। शरीरं, उप- प्रमुख हेतु है-ममत्वभाव । शरीर, उपकरण और स्वजन-ये करणानि स्वजनाश्च ममत्वचेतनां पुष्णन्ति । तात्पर्यार्थ ममत्वचेतना को पुष्ट करते हैं। तात्पर्य की दृष्टि से धुतसाधना का धुतसाधनायाः प्रयोजनमस्ति यत्तेषां संयोगानां परित्यागः यही प्रयोजन है कि उन संयोगों का परित्याग करना जिनसे ममत्वयममत्वचेतना पोषमादधाति । ममत्वचेतनायाः चेतना पुष्ट होती है। ममत्व-चेतना का परित्याग अनीदृशज्ञानपरित्याग: अनीदृशेन ज्ञानेन-आत्मज्ञानेन भवितुं आत्मज्ञान से हो सकता है। जो आत्मप्रज्ञ नहीं हैं वे अवसाद का शक्यः । अनात्मप्रज्ञा अवसादमनुभवन्ति । धुतस्य अनुभव करते हैं। धुत साधना का प्रथम कारण है-आत्मप्रज्ञा का प्रथमं कारणमस्ति आत्मप्रज्ञा। आत्मप्रज्ञाने सुस्पष्टे जागरण। आत्मप्रज्ञा सुस्पष्ट होने पर ही शरीर के प्रति होने वाली जाते सति शरीरासक्तिः क्षीणा भवति, प्राणशक्तिश्च आसक्ति क्षीण होती है और प्राणशक्ति प्रबल बनती है । रोग होने पर प्रबला भवति। सत्यामये कोऽपि तस्य प्रतिकारं न कोई उसका प्रतिकार न करे, ऐसी कल्पना नहीं की जा सकती। कुर्यादिति कल्पनापि दूरवर्तिनी। रोगः सोढव्यः, तं प्रति 'रोग को सहना चाहिए, उसके प्रति अपनी भावधारा को नहीं जोड़ना नाध्यवसायो निवेशनीयः-एतादृशः संकल्पः प्राणशक्तौ चाहिए'-ऐसा संकल्प प्राणशक्ति की प्रबलता होने पर ही होता है । प्रबलायां सत्यामेव भवति। वाससा परिहारः अस्ति सुदुष्करः। भगवता एष वस्त्रों का परिहार करना बहुत कठिन है। भगवान् ने इसे उत्तरवादो व्याहृतः । एकाकिचर्यापि अस्ति महत्तपः। उत्तरवाद उत्कृष्ट सिद्धांत कहा है। अकेले रहना भी महान् तप १. आचारोग नियुक्ति, गाथा २४९, २५० २. आयारो, ६।२। पढमे नियगविहुणणा कम्माणं वितियए तइयगंमि । ३. वही, ६।५। उबगरणसरीराणं चउत्थए गारवतिगस्स ॥ ४. वही, ६८-२९ । उवसग्गा सम्माणय विहूआणि पंचमंमि उदेसे । ५. वही, ६।४०-५१ : वव्यधुयं वत्थाई भावधुयं कम्म अट्ठविहं ॥ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ उत्तराध्ययने एकीभावसाधनाया अयं मुख्योपायो निर्दिष्ट: । अनेन संयमः संवरः समाधिश्च सिध्यति ।" प्रस्तुताध्ययने धर्मप्रवचनस्य महत्त्वपूर्ण निर्देशा लभ्यन्ते । साम्प्रदायिकतायाः कोलाहलपूर्ण वातावरणे एतत् सूत्रं कियत् सटीकमस्ति 'अणुवौद्द भिक्खू धम्ममा इक्खमाणे -- जो अत्तानं आसाएज्जा, जो परं आसाएज्जा, यो अम्गाई पाचा सुपाई जीबाई सत्ताई आताएन्जा ।" स अस्मिन् धर्मस्य तत्त्वानां समुच्चयो वर्तते । दशविधस्य श्रमणधर्मस्य आधाररूपः पूर्वरूपो वा वर्तते।' प्रस्तुताध्ययने 'बेयवी' इति पदं भगवतो महावीरस्य व्यापक दृष्टिकोण परिलक्षयति । तस्मिन् समये वेदविदः अत्यन्तं गौरवपूर्ण स्थानमासीत्। भगवता वेदस्य वेदविदश्च प्रामाण्यं न खलु स्वीकृतं तथापि तो नावज्ञाती किन्तु अर्थान्तरन्यासेन तौ प्रतिष्ठितौ । * तस्मिन् समये अनेके वादा प्रचलिता आसन् यथा-- आत्मवादः, ज्ञानवाद: वेदवादः, धर्मवादः, ब्रह्मवादः, लोकवादः, कर्मवादः, क्रियावादश्च । भगवता एतेषां वादानां समन्वयं कृत्वा अभिनवा दिक् प्रदर्शिता, ते आचाररूपेण परिवर्तिताश्च । यथा अद्वैतवादस्य अहिंसायाः प्रयोगः कृतः 'तुमंस नाम सच्चेच जं तवं ति मनसि । ५ - अस्मिन् असन्दीनद्वीप' - स्वाख्यातधर्म' - स्थितात्मा'अबहिर्लेश्य'-दृष्टिमान्”-रूक्ष" - त्रुट* - फलगावतष्टी - प्रभृतीनां पदार्थानां विशेष प्रयोगो दृश्यते । १. उत्तरायणाणि, २९ ४० । २. आयारो, ६।१०४ । अस्मिन् तपसोऽनेके प्रकारा उपदिष्टाः, यैः कर्मणां प्रकम्पनं निर्जरा वा जायते । तैरिति फलितं भवति, यत्र विशिष्टा तितिक्षा लाघवं तपश्च अभिसमन्वागतं भवति तत्रास्ति धुतम् । अवधूतपरम्पराया मुलं घुतवादे अन्वेषणोयमस्ति । ३. वही, ६।१०२ । ४. वही, ६।१०१ । 3 ५. वही, ५।१०१ । ६. वही, ६।१०५ । ७. वही, ६।५९ । आचारांग भाष्यम् है । उत्तराध्ययन सूत्र में इस अकेलेपन को एकाकी साधना का मुख्य उपाय बतलाया है। इससे संयम, संवर और समाधि सधती है । इस अध्ययन में धर्म-प्रवचन करने के महत्त्वपूर्ण निर्देश प्राप्त होते हैं । सांप्रदायिकता के कोलाहलपूर्ण वातावरण में यह आलापक कितना सटीक है'विवेकपूर्वक धर्म प्रवचन करता हुआ भिक्षुन स्वयं को बाधा पहुंचाता है, न दूसरों को बाधा पहुंचाता है और न अन्य प्राणी, भूत, जीव और सरवों को बाधा पहुंचाता है।' यह अध्ययन धर्म के अनेक तत्त्वों का संग्राहक है । वह तत्त्वसंग्रह दश प्रकार के भ्रमण धर्म का आधारभूत अथवा पूर्वरूप है । प्रस्तुत अध्ययन में 'बेयवी - वेदविद्' यह पद भगवान् महावीर के व्यापक दृष्टिकोण को परिलक्षित करता है । उस काल में वेदों को जानने वालों का अत्यंत गौरवपूर्ण स्थान था । भगवान् ने वेद और वेदशों का प्रामाण्य स्वीकार नहीं किया, फिर भी दोनों की अवज्ञा न कर, दोनों को भिन्न अर्थ में प्रतिष्ठित किया । उस काल में अनेकवाद प्रचलित थे, जैसे आत्मवाद, ज्ञानवाद, वेदवाद, धर्मवाद, ब्रह्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद और क्रियावाद । भगवान् महावीर ने इन वादों का समन्वय कर एक नई दिशा प्रदर्शित की और इन वादों को आचाररूप में परिवर्तित कर दिया। जैसे अद्वैतवाद का अहिंसा के प्रसंग में प्रयोग कर कहा'जिसे तू हनन योग्य मानता है, वह तू ही है।' इस अध्ययन में असंदीनद्वीप, स्वाख्यातधर्म, स्थितात्मा, अबहिर्लेश्य, दृष्टिमान्, रूक्ष, त्रुट, फलगावतष्टी आदि पदों का विशेष प्रयोग दृष्टिगोचर होता है। इसमें तप के अनेक प्रकार उपदिष्ट हैं, जिनसे कर्मों का प्रकंपन अथवा निर्जरा होती है। उनसे यह फलित होता है - जहां विशिष्ट तितिक्षा लाघव और तप ये तीनों सम्यक् प्रकार से प्राप्त हो जाते हैं, वहां धुत की साधना होती है। अवधूत परंपरा क मूल 'धुतवाद' में खोजा जा सकता है । . वही, ६।१०६ । ९. वही, ६।१०६ । १०. वही, ६।१०७ । ८. ११. वही, ६।११० । १२. वही, ६।११२ | १३. वही, ६।११३ । Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठं अज्झयणं : धुयं छठा अध्ययन : धुत पढमो उद्देसो : पहला उद्देशक १. ओबुज्झमाणे इह माणवेसु आघाइ से परे। सं०-अवबुध्यमानः इह मानवेषु आख्याति स नरः । वह सम्बुद्ध पुरुष मनुष्यों के बीच में आख्यान करता है। भाष्यम् १ -बहवो जना भवन्ति अज्ञानिनः, स्वल्पे बहुत पुरुष अज्ञानी होते हैं, थोडे पुरुष ज्ञानी होते हैं और भवन्ति ज्ञानिनः। तेष्वपि स्वल्पे आख्यातारः। उन ज्ञानी पुरुषों में भी कुछ ही पुरुष आख्यान करने वाले होते हैं। कश्चिन्नरः अवबुध्यमानो भवति, स इह मानवेषु कोई एक पुरुष सम्बुद्ध होता है और वह मनुष्यों में आख्यान करता आख्याति । किमाख्याति तस्य निरूपणं अग्रिमसूत्रे है। वह क्या आख्यान करता है उसका निर्देश अग्रिम सूत्र में हैक्रियते२. जस्सिमाओ जाईओ सव्वओ सुपडिलेहियाओ भवंति, अक्खाइ से णाणमणेलिसं । सं०-यस्येमाः जातयः सर्वतः सुप्रतिलिखिताः भवन्ति, आख्याति स ज्ञानमनीदृशम् । जिसे ये जीव-जातियां सर्वतः ज्ञात होती हैं, वही पुरुष असाधारण ज्ञान का आख्यान करता है। भाष्यम् २-यः कश्चिद् आख्याता न भवति । यस्य हर कोई व्यक्ति आख्याता नहीं होता । जिसे ये एकेन्द्रिय इमा एकेन्द्रियादयः पञ्च जीवजातयः सर्वतः-द्रव्यक्षेत्र- आदि पांचों जीव-जातियां द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के विकल्पों कालभावादिभेदैः सुदृष्टा भवन्ति स अनीदशं से भली-भांति ज्ञात होती हैं, वही पुरुष अनीदृश (अन्तःप्रज्ञागम्य) ज्ञानमाख्याति । ज्ञान का आख्यान करता है। ईदृशम्-स्थूलदृष्टिगम्यम् । अनीदृशम्'--अन्त:- ईदृश का अर्थ है- स्थूल दृष्टिगम्य और अनीदृश का अर्थ प्रज्ञागम्यम् । है-आन्तरिक प्रज्ञागम्य ।। आत्मनः मुक्तिमार्गस्य अहिंसादीनां च ज्ञानं आत्मा, मोक्षमार्ग तथा अहिंसा आदि का ज्ञान अन्तःप्रज्ञा से अन्तःप्रज्ञाग्राह्यत्वात् अनीदृशं ज्ञानं भवति । ग्राह्य होता है, इसलिए वह अनीदृश ज्ञान कहलाता है । ३. से किति तेसि समुट्टियाणं णिक्खित्तदंडाणं समाहियाणं पण्णाणमंताणं इह मुत्तिमग्गं । सं०-स कीर्तयति तेषां समुत्थितानां निक्षिप्तदण्डानां समाहितानां प्रज्ञानवतां इह मुक्तिमार्गम् । जो मनुष्य समुत्थित हैं, मन, वाणी और शरीर से संयत हैं, जिनका मन एकाग्र है और जो प्रज्ञावान् हैं, उनके लिए वह सम्मुख पुरुष मुक्तिमार्ग का आख्यान करता है। १. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २०० : णाणंति जहत्थोवलंभ, तं केरिसं ? रलतोरेकत्वे (उबलभे कायब्वे) असरिसं, तं च पंचविहं, अहवा असरिसं केवलणाणं तेण असरिसमेव सुयनाणं कधेति, वंसणं चरित्तं तवं विणयं च कहेइ। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २११: ज्ञानं जायन्ते परिच्छिद्यन्ते जीवावयः पदार्थाः येन तज्ज्ञानंमत्यादि पञ्चधा, किम्भूतं ज्ञानमाख्याति ? 'अनीदृशं' नान्यत्रेदशमस्तीत्यनीवृशं, यदि वा सकलसंशयापनयनेन धर्ममाचक्षाण एव स आत्मनो ज्ञानमनन्यसदृशमाख्याति । Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० आचारांगभाष्यम् भाष्यम् ३–स तेषां मुक्तिमार्ग ज्ञानदर्शनचारित्रात्मक वह संबुद्ध पुरुष उनके लिए ज्ञान-दर्शन-चारित्रात्मक मुक्तिकीर्तयति, ये सन्ति मुक्तिमार्गस्य आराधनायै समुत्थिताः, मार्ग का प्रतिपादन करता है जो मुक्तिमार्ग की आराधना के लिए ये सन्ति निक्षिप्तदण्डा:-परित्यक्तमनोवाक्कायदण्डाः, समुत्थित हुए हैं, जो निक्षिप्तदंड-मानसिक, वाचिक और कायिक ये सन्ति समाहिताः-एकाग्रमनसः, ये सन्ति हिंसा से उपरत हैं, जो समाहित - एकाग्रचित्त वाले हैं, जो प्रज्ञानवन्तः-बुद्धिसंपन्नाः प्रज्ञासंपन्ना वा। प्रज्ञानवान् -बुद्धिसंपन्न अथवा प्रज्ञासंपन्न हैं। प्रस्तुतसूत्रे मुक्तिमार्ग शुश्रूषणां चतस्रः अर्हताः सन्ति प्रस्तुत आलापक में मुक्तिमार्ग को सुनने अथवा उसकी प्रतिपादिताः आराधना करने के इच्छुक व्यक्तियों की चार योग्यताओं का प्रतिपादन किया है-- उत्थिताः उत्थातुकामा वा-एषा प्रथमा अर्हता । १. जो मुक्ति-मार्ग के लिए उद्यत हैं अथवा उद्यत होना चाहते हैं-यह पहली योग्यता है । सिद्धमनोवाक्कायाः मनोवाक्कायसिद्धि कर्तकामा २. जो मानसिक, वाचिक तथा कायिक सिद्धि को प्राप्त कर वा-एषा द्वितीया अर्हता। चुके हैं अथवा सिद्धि करना चाहते हैं-यह दूसरी योग्यता समाहिता समाधि प्राप्तुकामा वा-एषा तृतीया अर्हता। बुद्धिसंपन्नाः प्रज्ञासंपन्नाः वा-एषा चतुर्थी अर्हता। ३. जो समाहित हैं अथवा समाधि प्राप्त करना चाहते हैं-- यह तीसरी योग्यता है। ४. जो बुद्धिसंपन्न हैं अथवा प्रज्ञासंपन्न हैं---यह चौथी योग्यता अत्र चूणौं महत्त्वपूर्ण सूचनमस्ति-'इतरे इस प्रसंग में चूणि में महत्त्वपूर्ण सूचना है-यदि शिष्य सुत्तत्यहाणी, ण य गिण्हंति-यदि शिष्याः श्रोतारो वा अथवा श्रोता बुद्धिहीन होते हैं, तब सूत्र और अर्थ की हानि होती बुद्धिहीनाः स्युस्तदा सूत्रार्थयोर्हानिर्भवति । ते आचार्यैः है । वे आचार्यों द्वारा प्रतिपादित किए जाने वाले मुक्तिमार्ग को ग्रहण प्रतिपाद्यमानं मुक्तिमार्ग नो ग्रहीतं क्षमन्ते । नहीं कर सकते । ४. एवं पेगे महावीरा विप्परक्कमति । सं०-एवमपि एके महावीराः विपराक्रमन्ते । इस प्रकार कुछ महावीर पुरुष विशेष पराक्रम करते हैं। भाष्यम् ४-एवं एके महावीराः मुक्तिमार्ग श्रुत्वा, इस प्रकार कुछेक महावीर पुरुष मुक्तिमार्ग को सुनकर संयम अपिशब्दात् केचन प्रत्येकबुद्धा लब्धजातिस्मरणा वा की साधना के लिए विशेष पराक्रम करते हैं । तथा प्रत्येकबुद्ध अथवा अश्रत्वापि विपराक्रमन्ते-संयमसाधनायै यतन्ते । जातिस्मृति ज्ञान से संपन्न व्यक्ति बिना सुने ही संयम की आराधना में स्थानाने अस्य संवादित्वं दृश्यते-दोहि ठाणेहि आया तत्पर हो जाते हैं । स्थानांग सूत्र में इसका संवादी कथन प्राप्त होता केवलिपण्णत्तं धम्म लभेज्ज सवणयाए, तं जहा-सोच्चच्चेव, है-सुनने और जानने- इन दो स्थानों से आत्मा केवलीप्रज्ञप्त धर्म अभिसमेच्चच्चेव। को सुन पाता है। ५. पासह एगेवसीयमाणे अणत्तपण्णे । सं० पश्यत एकान् अवसीदतः अनात्मप्रज्ञान् । तुम देखो, जो आत्म-प्रज्ञा से शून्य हैं, वे अवसाद को प्राप्त हो रहे हैं । १. आचारांग चूणि, पृष्ठ २०१ : मिक्खित्तसत्थेसु, सत्थं छुरियादिवाबारो, छिदणा भिदणा, अहवा णिक्खित्तदंडाणं पंच रायककुहा आरोहिता। २. वही, पृष्ठ २०१ : उट्ठियाई उछेउकामाणि वा । ३. वही, पृष्ठ २०१। ४. वही, पृष्ठ २०१ : अविसद्दा असुणित्तावि पत्तेयबुद्ध जाइस्सरणादि । ५. अंगसुत्ताणि १, ठाणं, २१६३ । Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संताप को प्राप्त होते हैं। इसाप्त होते हैं, मानसिक ते संयम स्वीकृत्यापि अवमा अ० ६.धुत, उ० १. सूत्र ४-७ ३०१ भाष्यम् ५-संयमः प्रज्ञागम्योस्ति । उक्तं चोत्तरा- संयम प्रज्ञागम्य है। उत्तराध्ययन में कहा हैध्ययने'पण्णा समिक्खए धम्म, तत्तं तत्तविणिच्छयं ।" 'धर्म, तत्त्व और तत्त्वविनिश्चय की समीक्षा प्रज्ञा से होती है।' येषां आत्मनि प्रज्ञा नास्ति ते अनात्मप्रज्ञाः यथाकथं- जिनकी आत्मा में प्रज्ञा नहीं होती वे अनात्मप्रज्ञ व्यक्ति जैसेचित् संयम स्वीकृत्यापि अवसीदन्ति, मनस्तापं व्रजन्ति । तैसे संयम स्वीकार करके भी अवसाद को प्राप्त होते हैं, मानसिक अस्य वैकल्पिकोर्थ:--यैः प्रज्ञा न प्राप्ता, केवलं बुद्धि- संताप को प्राप्त होते हैं। इसका वैकल्पिक अर्थ है-जिन्हें प्रज्ञा विलासे वर्तन्ते, ते संयम स्वीकृत्यापि अवसीदन्ति'- प्राप्त नहीं है, जो केवल बुद्धि के विलास में ही रमण करते हैं, वे प्राप्तेषु उपसर्गेषु विचलिता भवन्ति, प्राणातिपातादिषु संयम को स्वीकार करके भी अवसाद को प्राप्त होते हैं-संयम वा वर्तन्ते । भोगार्थं वा संयमान्निष्क्रमणं कुर्वन्ति, एतद् जीवन में आने वाले उपसर्गों में विचलित हो जाते हैं अथवा प्राणातियूयं पश्यत । पात आदि में प्रवृत्त हो जाते हैं अथवा वे भोगों की प्राप्ति के लिए संयम से बाहर निकल जाते हैं, यह तुम देखो। ६. से बेमि-से जहा वि कुम्मे हरए विणिविट्टचित्ते, पच्छन्न-पलासे, उम्मग्गं से णो लहइ । सं० --अथ ब्रवीमि-तद् यथाऽपि कूर्मः ह्रदे विनिविष्टचित्तः पलाशप्रच्छन्ने उन्मग्नं स नो लभते । मैं कहता हूँ; जैसे-एक कछुआ है । एक द्रह है। कछुए का चित्त ब्रह में लगा हुआ है । वह वह पलाश के पत्तों से आच्छन्न है। वह कछुआ मुक्त आकाश को देखने के लिए विवर को प्राप्त नहीं हो रहा है। भाष्यम् ६-अत्र उदाहरणम् । अथ ब्रवीमि-यथा इस प्रसंग में एक उदाहरण है। मैं उसे कहता हूं-एक कछुआ कर्मः ह्रदे निवसति । तस्य चित्तं ह्रदे परिवारे च सरोवर में रहता था। उसका चित्त उस सरोवर और अपने परिवार विनिविष्टमस्ति । स ह्रदः घनशेवालेन पद्मपत्रैर्वा में आसक्त था। वह सरोवर सघन सेवाल और कमल-पत्रों से ढका प्रच्छन्नः अस्ति । तस्य एकस्मिन् देशे अकस्मादेकं विवरं रहता था। एक बार अकस्मात् ही उसके एक भाग में विवर हो गया। जातम् । तत्र मुक्तमाकाशं दृष्ट्वा स अतीव हृष्टो वह कछुआ वहां आ पहुंचा। उसने उस विवर से मुक्त-आकाश को जातः। तेन चिन्तितं-सकलं परिजनं आनीय एतद् देखा और अत्यंत प्रसन्न हुआ। उसने सोचा--मैं अपने सारे परिवार दर्शयामि। स गतः । ह्रदस्य अतिविस्तीर्णतया स तद् को यहां लाकर यह अनुपम दृश्य दिखलाऊ । वह गया। परिवार को विवरं अन्वेषयन्नपि नो लभते । लेकर आया और विवर की खोज करने लगा । परन्तु उस सरोवर की अति विस्तीर्णता के कारण खोजने पर भी वह विवर उसे नहीं मिला । ___ अस्योपनयः-कर्म इव जीवः, ह्रद इव संसारः, इसका उपनय यह है- कछुए की भांति है जीव । ह्रद की शेवालमिव कर्म, विवरमिव साधुत्वम् । असौ जीवः तरह है संसार । सेवाल की तरह है कर्म । विवर की भांति है साधुत्व । कथंचिद् तद् लब्ध्वापि पुनः संसारमभ्येति, तदा वह जीव जैसे-तैसे साधुत्व को प्राप्त करके भी पुनः संसार में आता है मूर्छाया गहनतया निविण्णोपि पुनः साधुत्वं नो लभते। और विरक्त होने पर भी मूर्छा की सघनता के कारण पुनः साधुत्व को प्राप्त नहीं कर सकता। ७. भंजगा इव सन्निवसं णो चयंति, एवं पेगे-अणेगरूवेहि कुलेहि जाया, रूवेहि सत्ता कलुणं थणंति, णियाणओ ते ण लभंति मोक्खं । सं०-भञ्जगाः इव सन्निवेशं नो त्यजन्ति एवमपि एके --अनेकरूपेषु कुलेषु जाता:, रूपेषु सक्ताः करुणं स्तनन्ति निदानतः ते न लभन्ते मोक्षम् । जैसे वृक्ष अपने स्थान को नहीं छोड़ते, वैसे ही कुछ लोग गृहवास को नहीं छोड़ते। वे अनेक प्रकार के कुलों में उत्पन्न होकर, रूपादि विषयों में आसक्त होकर करण विलाप करते हैं। वे बंधन से मुक्त नहीं हो पाते। १. उत्तरायणाणि २३।२५। हितकरी पग्णा। २. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २०१ : जेहि इह अप्पोकता (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २११ : नात्मने हिता प्रज्ञा पण्णा ते अत्तपन्ना ण अत्तपण्णा अणत्तपण्णा येषां ते अनात्मप्रज्ञाः। अपत्तपण्णा वा, अहवा अत्ता-इट्ठा अम्हत्तेण अप्पणी ३. प्राकृतत्वात् व्यत्ययः । Jain Education international Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ आचारांगभाष्यम् भाष्यम् ७-भञ्जगा -वृक्षाः । यथा वृक्षाः शस्त्रैः भंजग का अर्थ है वृक्ष । जैसे वृक्ष शस्त्रों के द्वारा छेदे जाने छिद्यमाना अपि सन्निवेशं न त्यजन्ति, एवं एके दारि- पर भी अपने स्थान को नहीं छोड़ते, वैसे ही कुछ लोग दरिद्रता आदि द्रयादिकष्टैरभिभूता अपि गृहवासं न त्यजन्ति । ते कष्टों से अभिभूत होकर भी गृहवास को नहीं छोड़ते। वे अनेक प्रकार अनेकरूपेषु उच्चनीचेषु कुलेषु जाता अपि रूपेषु- के ऊंच-नीच कुलों में उत्पन्न होकर भी शरीर अथवा इन्द्रियविषयों में शरीरेषु इन्द्रियविषयेषु वा सक्ताः प्राप्तेषु कष्टेषु करुणं आसक्त होकर प्राप्त कष्टों में करुण क्रन्दन करते हैं, फिर भी वे विलपन्ति, तथापि ते गृहवासं न त्यजन्ति । ते निदानात् गृहवास को नहीं छोड़ते। वे बन्धन से मुक्ति नहीं पा सकते । अथवा -बन्धनात् मोक्षं न लभन्ते । अथवा मोक्षः-संयमः, ते मोक्ष का अर्थ है--संयम । वे स्नेह के बंधन को तोड़ कर संयम को स्नेहबन्धनं छित्त्वा संयम न लभन्ते । प्राप्त नहीं कर सकते। ८. अह पास तेहि-तेहिं कुलेहि आयत्ताए जाया गंडी अदुवा कोढी, रायंसी अवमारियं । काणियं झिमियं चेव, कुणियं खुज्जियं तहा ।। उरि पास मूयं च, सूणिअंच गिलासिणि। वेवई पीढसपि च, सिलिवयं महुमेहणि॥ सोलस एते रोगा, अक्खाया अणुपुव्वसो। अह णं फुसंति आयंका, फासा य असमंजसा ।। मरणं तेसि संपेहाए, उववायं चयणं च णच्चा। परिपागं च संपेहाए, तं सुणेह जहा-तहा ॥ सं०--अथ पश्य तेषु-तेषु कुलेषु आत्मत्वेन जाताः गण्डी अथवा कुष्ठी, राजयक्ष्मी अपस्मारिकः। काणकः जाड्यौं चैव, कुणित्वं कुब्जितां तथा ।। उदरिणं पश्य मूकं च, शूनिकं च ग्रासिनीं। वेपकिन पीठसर्पिणं च, श्लीपदं मधुमेहनिनम् ।। षोडश एते रोगाः आख्याता अनुपूर्वशः। अथ न स्पृशन्ति आतङ्काः स्पर्शाश्च असमञ्जसाः॥ मरणं तेषां संप्रेक्ष्य, उपपातं च्यवनं च ज्ञात्वा । परिपाकं च संप्रेक्ष्य, तं शृणुत यथा तथा ।। तू देख, नाना कुलों में आत्म-भाव से उत्पन्न व्यक्ति रोग-प्रस्त हो जाते हैं । १. गण्डमाला, २. कोढ, ३. राजयक्ष्मा, ४. अपस्मार (मृगी या मूर्छा), ५. काणत्व, ६. जड़ता-अवयवों का जड़ होना, ७. हाथ या पैर की विकलता (कूणित्व), ८. कुबड़ापन, ९. उदररोग, १०. गूंगापन, ११. शोथ, १२. भस्मक रोग, १३. कम्पनवात, १४. पीठसपी-पंगुता, १५. श्लीपद हाथीपगा, १६. मधुमेह--ये सोलह रोग क्रमशः कहे गए हैं। कभी-कभी आतंक और अनिष्ट स्पर्श प्राप्त होते हैं। उन मनुष्यों की मृत्यु का पर्यालोचन कर, उपपात और च्यवन को जान कर तथा कर्म के विपाक का पर्यालोचन कर उसके यथार्थ रूप को सुनो। भाष्यम् ८--अथ त्वं पश्य, तेषु तेषु उच्चनीचेषु तू देख, नाना ऊंचे-नीचे कुलों में अपने-अपने कर्मों के उदय कुलेषु आत्मत्वेन-स्वस्वकर्मोदयेन जाता रोगग्रस्ता से उत्पन्न व्यक्ति रोगग्रस्त हो जाते हैं । वे गृहवास में रहते हुए भी भवन्ति, न च गृहवासे वसन्तोऽपि भोगान् भोक्तुं भोगों का उपभोग नहीं कर सकते । प्रसंगवश सूत्रकार रोगग्रस्त शक्नुवन्ति । प्रासङ्गिकत्वात् सूत्रकारः साक्षाद् रोग- व्यक्तियों का साक्षात् निर्देश करते हैं - ग्रस्तानां निर्देशं करोति, यथा-- (१) गण्डी-गण्डमालया ग्रस्तः । १. गंडी-गंडमाला रोग से ग्रस्त । (२) कुष्ठी । २. कुष्ठी-कुष्ठ रोग से ग्रस्त । (३) राजयक्ष्मी--राजयक्ष्माक्रान्तः । ३. राजयक्ष्मी-क्षय रोग से ग्रस्त । (४) अपस्मारिक:- अपस्माररोगाक्रान्तः ।' ४. अपस्मार-मृगी या मूर्छा रोग से ग्रस्त । (५) काणक:-एकाक्षः । ५. काणत्व से ग्रस्त । (६) जड:-सर्वेषु अवयवेषु जडतामापन्नः । ६. शरीर के अवयवों में जड़ता से ग्रस्त । १.देशीशब्दोयं प्रतीयते । २. आचारांग चूणि, पृष्ठ २०२ : णिवा बंधणे, णिवाणं कम्म, अहवा कसाया हफासा, तेहिं णो लमंति मोक्खं, मोक्खो संजमो। ३. माधवनिदान, राजयक्ष्मारोगनिदान, श्लोक १: वेगरोधात् क्षयाच्चैव साहसाद्विषमाशनात् । त्रिदोषो जायते यक्मा गदो हेतुचतुष्टयात् ॥ ४. माधवनिदान, अपस्माररोगनिदान, श्लोक १: तमःप्रवेशः संरम्भो दोषोद्रेकहतस्मृतिः। अपस्मार इति ज्ञेयो गदो घोरश्चतुर्विधः। Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०३ ७. गर्भाधान के दोष के कारण हाथ या पैर की विकलता । अ० ६. धुत, उ०१. सूत्र ८ (७) कुणि:-गर्भाधानदोषाद् हृस्वैकपादो न्यूनैक पाणिर्वा। (८) कुब्जः-कुब्जकः । (९) उदरी-उदररोगाक्रान्तः। (१०) मूक:--अवाक् । (११) शूनिक:-श्वयथुग्रस्तः । (१२) ग्रासिनी-भस्मकव्याधिग्रस्तः । (१३) वेपकी-कम्पनरोगग्रस्तः । (१४) पीठसपी-पादरोगाक्रान्तः । (१५) श्लीपदम् -पादादौ काठिन्यम् । (१६) मधुमेहनी' बस्तिरोगाक्रान्तः । १. आचारांग वृत्ति, पत्र २१३ : कुब्जं पृष्ठादावस्यास्तीति कुन्जी, मातापितृशोणितशुक्रदोषेण गर्भस्थदोषोभवाः कुब्जवामनकादयो दोषा भवन्तीति, उक्तं च गर्ने वातप्रकोपेन, दोहदे वाऽपमानिते । भवेत् कुब्जः कुणिः पंगुर्भूको मन्मन एव वा ॥ २. (क) आचारांग वृत्ति, पत्र २१३ : ते चामी भेदाःपृथक् समस्तैरपि चानिलाद्य, प्लीहोदरं बद्धगुदं तथैव । आगंतुकं सप्तममष्टमं तु, जलोदरं चेति भवन्ति तानि ॥ (ख) माधवनिदान, उदररोगनिदान, श्लोक ४ : पृथग्दोषः समस्तैश्च, प्लोहबद्धक्षतोवः । सम्भवन्त्युवराण्यष्टौ, तेषां लिङ्ग पृथक् शृणु ॥ ३. आचारांग वृत्ति, पत्र २१३ : मूकं मन्मनभाषिणं वा, गर्भवोषादेव जातं तदुत्तरकालं च, पञ्चषष्टिर्मुखे रोगाः सप्तस्वायतनेषु जायन्ते, तत्रायतनानि ओष्ठौ वन्तमूलानि बन्ता जिह्वा तालु कण्ठः सर्वाणि चेति, तत्राष्टावोष्ठयोः पञ्चदश दन्तमूलेषु अष्टो दन्तेषु, पञ्च जिह्वायां, नव तालुनि, सप्तदश कण्ठे, त्रयः सर्वेष्वायतनेष्विति । ४. (क) आचारांग वृत्ति, पत्र २१३ : शूनत्वं-श्वयथर्वात पित्तश्लेष्मसन्निपातरक्ताभिधातजोऽयं षोति, उक्त चशोकः स्यात् षड्विधो घोरो, दोषेरुत्सेधलक्षणः। व्यस्तः समस्तैश्चापीह, तया रक्ताभिघातजः॥ (ख) द्रष्टव्यम् -माधवनिदान, शोथनिदानप्रकरणम्, श्लोक २। ५. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २०२ : गिलासिणी अग्गीउ वाही। आचारांग वृत्ति, पत्र २१३ : गिलासणि ति भस्मको व्याधिः स च वातपित्तोत्कटतया श्लेष्मन्यूनतयोपजायत इति । ८. कुबड़ेपन से ग्रस्त । ९. उदर रोग से आक्रान्त । १०. मूकता से ग्रस्त । ११. सूजन से ग्रस्त । १२. भस्मक व्याधि से ग्रस्त । १३. कम्पन रोग से ग्रस्त । १४. पीठसपी-पंगुता से ग्रस्त । १५. श्लीपद-हाथीपगा रोग से ग्रस्त । १६. मधुमेह रोग से ग्रस्त । ६. आचारांग वृत्ति, पत्र २१३ : वेवई ति वातसमुत्थः शरीरावयवानां कम्प इति, उक्त च--- प्रकामं वेपते यस्तु, कम्पमानश्च गच्छति । कलापखजं तं विद्यान्मुक्तसन्धिनिबन्धनम् ॥ ७. (क) आचारांग चूणि, २०३ : पीढसप्पी हत्थेहि कट्टे घेत्तुं चकमंती। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २१३ : पीढप्पि च त्ति जन्तुगंर्भदोषात् पीठसप्पित्वेनोत्पद्यते, जातो वा कर्मदोषाद् भवति, स किल पाणिगृहीतकाष्ठः प्रसर्पतीति । ८.(क) आचारांग चूणि, २०३ : सिलवती पादा सिली भवंति। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २१३ : सिलिवयं ति श्लीपर्व -पादादौ काठिन्यं, तद्यथा-प्रकुपितवातपित्तश्लेष्माणोऽधः प्रपन्ना वंक्षोरुजङ धास्ववतिष्ठमानाः कालान्तरेण पावमाश्रित्य शनैः शनैः शोफमुपजनयन्ति तच्छ्लीपदमित्याचक्षतेपुराणोदकभूमिष्ठाः, सर्वर्तुषु च शीतलाः। ये देशास्तेषु जायन्ते, श्लीपदानि विशेषतः ।। पादयोहंस्तयोश्चापि, श्लीपदं जायते नृणाम् । कर्णोष्ठनाशास्वपि च, केचिदिच्छन्ति तद्विवः।। (ग) द्रष्टव्यम्-माधवनिदान, श्लीपवरोगनिदान प्रकरणम् । ९. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २०२ : मधुमेहणी वत्थिरोगो। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २१३ : महुमेहणि ति मधुमेहो वस्तिरोगः स विद्यते यस्यासो मधुमेही, मधुतुल्यप्रस्राववानित्यर्थः, तत्र प्रमेहाणां विंशतिवाः, तत्रास्यासाध्यत्वेनोपन्यासः, तत्र सर्व एवं प्रमेहा प्रायशः सर्वदोषोत्थास्तथापि वाताव पुत्कट भेवाव विशतिर्मंदा भवन्ति, तत्र कफाद् दश, षट् पित्तात्, Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ आचारांगभाष्यम् एते षोडश रोगा अनुपूर्वशः-क्रमेण आख्याताः । एतैः ये सोलह रोग क्रमशः कहे गए हैं। इन रोगों से आक्रान्त रोगैराक्रान्ता: मनुष्या गृहे स्थिता अपि भोगान् भोक्तुं न व्यक्ति घर में रह कर भी भोगों का उपभोग करने में समर्थ नहीं शक्नुवन्ति । कदाचित् तान् आतङ्का:-सद्योघातिरोगाः, होते। कभी उन मनुष्यों को सद्योघाती रोग और अनिष्ट स्पर्श-- असमञ्जसा: स्पर्शा:-प्रहारादिजनिता दुःखविशेषाश्च प्रहार आदि से उत्पन्न कष्ट-विशेष प्राप्त होते हैं। स्पृशन्ति । तेषां मनुष्याणां मरणं संप्रेक्ष्य, उपपात:-उन्नता- उन मनुष्यों की मृत्यु की पर्यालोचना कर, उपपात-उन्नत वस्थायां गमनं, च्यवनम्-निम्नावस्थायां प्रतिगमनं,' अवस्था में गमन और च्यवन-निम्न अवस्था में गमन-को जान तद् ज्ञात्वा एताः सर्वा अवस्थाः कर्मविपाकजनिता कर तथा ये सारी अवस्थाएं कर्म के विपाक से पैदा होती हैं, यह भवन्ति इति संप्रेक्ष्य, स परिपाकः यथा भवति तं तथा सोच कर वह विपाक जैसा होता है वैसा तुम सुनो, सुन कर भोगों से शृणुत, श्रुत्वा भोगेभ्यो निर्वेदं कुरुत । विरक्ति करो। १. संति पाणा अंधा तमंसि वियाहिया। सं०-सन्ति प्राणाः अन्धाः तमसि व्याहृताः । अन्धकार में होने वाले प्राणी अन्ध कहलाते हैं। भाष्यम् ९-मिथ्यात्वाद्याश्रवसंयुताः प्राणिनः तमसि मिथ्यात्व आदि आश्रवों से संयुक्त प्राणी अंधकार में रहते हैं, वर्तन्ते अतस्ते अन्धाः व्याहृताः। यथार्थदर्शनाक्षमत्वात् इसलिए वे अंधे कहलाते हैं। वे यथार्थ दर्शन करने में अक्षम होने के तेषामन्धत्वं नास्त्यसंगतम् ।' कारण उनका अंधापन असंगत नहीं है । १०. तामेव सई असई अतिअच्च उच्चावयफासे पडिसंवेवेंति। सं0-तामेव सकृद् असकृद् अतिगत्य उच्चावचस्पर्शान् प्रतिसंवेदयन्ति । प्राणी उसी (क्लेशपूर्ण अवस्था) को एक या अनेक बार प्राप्त कर तीन और मंद स्पों का प्रतिसंवेवन करते हैं। भाष्यम् १० ते तां कर्मविपाकावस्थां सकृद् असकृद् वे उस कर्म-विपाक की अवस्था को एक बार या अनेक वा अतिगत्य उच्चावचान स्पर्शान-कष्टानि प्रतिसंवेद- बार प्राप्त कर तीव्र और मंद स्पों-कष्टों का बार-बार अनुभव यन्ति -वारं वारमनुभवन्ति । करते हैं। ११. बुद्धेहिं एवं पवेदितं । सं०-बुद्धः एतत् प्रवेदितम् । तीर्थकरों ने इसका प्रतिपादन किया है। भाष्यम् ११-अनात्मप्रज्ञाः विषयेषु आसक्ता अनात्मप्रज्ञ पुरुष विषयों में आसक्त होते हैं। उन आसक्त भवन्ति । तेषामासक्तानां नानाविधाः कर्मविपाका पुरुषों के कर्म-विपाक नाना प्रकार के होते हैं, यह तीर्थंकरों ने कहा भवन्ति । एतद् बुद्धैः प्रवेदितमस्ति । है। वातजाश्चत्वार इति, सर्वेऽपि चैतेऽसाध्यावस्थायां मधुमेहत्वमुपयान्तीति, उक्तं च सर्व एव प्रमेहास्तु, कालेनाप्रतिकारिणः । मधुमेहत्वमायान्ति, तदाऽसाध्या भवन्ति ते ॥ १. चूणों (पृष्ठ २०३) उपपातच्यवनयोख्यिा एवं कृतास्ति--उवायायाओ चयणं, दोण्हं मरणं तिरियमणुयाणं, उम्बट्टणा नेरइयभवणवासिवाणमंतराणं, उववाओ सम्वदेवाणं, चयणं जोइसियवेमाणियाणं । २. अंधकार दो प्रकार का होता है : १. द्रव्य अंधकार-यह प्रकाश के अभाव में होता है। २. भाव अन्धकारमिथ्यात्व और अज्ञान । अंध भी दो प्रकार के होते हैं : १. द्रव्य अन्ध-चक्षरहित । २. भाव अन्ध-विवेक रहित । मिथ्यात्व और अज्ञान में रहने वाले मनुष्य विवेकशून्य होते हैं । वे कर्म के उपादान और परिपाक को नहीं देख पाते । Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ६.धुत, उ०१. सूत्र-१३ ३०५ १२. संति पाणा वासगा, रसगा, उदए उदयचरा, आगासगामिणो। सं०-सन्ति प्राणाः वर्षजाः रसजाः उदके उदकचराः आकाशगामिनः । अनेक प्रकार के प्राणी होते हैं-वर्षज-स्थल में उत्पन्न होने वाले, रसज-रस में उत्पन्न होने वाले, जल में जलरूप जीव, जल में रहने वाले जलचर जीव और आकाशगामी--पक्षी। भाष्यम् १२-कर्मविपाकवैचित्र्येण कर्म विपाक की विविधता के कारण प्राणी भी नाना प्रकार नानाविधाः सन्ति', यथा-वर्षजा:-स्थलचराः, रसजा: के हैं। जैसे-वर्षज-स्थल में पैदा होने वाले स्थलचर, रसज-कृमि -कृम्यादयः। आदि । चौं वासगा रसगा इति व्याख्यातमस्ति । चूणि में 'वासग और रसग'-व्याख्यात हैं। वृत्तिकार ने वत्तिकारेणापि चूणिव्याख्यानमनुसृतम् । किन्तु भी चुणिगत व्याख्या का अनुसरण किया है। किन्तु दशवकालिक दसवेआलियसूत्रे 'रसया' इति पदं दृश्यते । तस्य सूत्र में 'रसया' का प्रयोग मिलता है। उसका अर्थ है ---रसज । यहां व्याख्यानमस्ति' रसजाः । अत्र जकारस्य गकारा- 'जकार' को 'गकार' आदेश हुआ है, इसलिए 'रसगा' पद का प्रयोग देशो जातः, तेन रसगा इति पदं दृश्यते, तथा स्थानांगे प्राप्त होता है। उसी प्रकार स्थानांग में 'हरिवासग' (सं० हरिवर्षक) 'हरिवासग' पदे जकारस्य गकारत्वम् ।' एवं वासगा पद प्राप्त है । यहां भी 'जकार' के स्थान पर 'गकार' हुआ है। इसी इति पदेऽपि जकारस्य गकारादेशः संभाव्यते। प्रकार 'वासग' पद में भी 'जकार' के स्थान पर 'गकार' की संभावना की जा सकती है। उदके-उदकरूपा एव एकेन्द्रिया जीवाः। 'उदक' (पानी) में उदकरूप ही एकेन्द्रिय जीव होते हैं । उदकचराः-मत्स्यकच्छपादयः। स्थले जाता अपि उदकचर वे जीव हैं जो पानी में विचरण करते हैं, जैसे-मत्स्य, केचन उदके चरन्ति ते उदकचराः, यथा-महोरगाः। कच्छप आदि । स्थल में उत्पन्न होने वाले भी कुछ जीव उदक में रहते हैं, वे उदकचर कहलाते हैं, जैसे-सर्प आदि । आकाशगामिनः-पक्षिणः। केचित् पक्षिण : आकाशगामी-आकाश में उड़ने वाले पक्षी। कुछ पक्षी उदकचरा अपि भवन्ति । उदकचर भी होते हैं। १३. पाणा पाणे किलेसंति । सं०-प्राणाः प्राणान् क्लेशयन्ति । प्राणी प्राणियों को कष्ट देते हैं । १. आचारांग चूणि, पृष्ठ २०४ : संति तिसुवि कालेसु छक्काया, ण तुच्छिज्जति । २. वही, पृष्ठ २०४ : पाणिणो इति वत्तव्वे सरीरे आओवतारं . काउं पाणा वुच्चंति। ३. वही, पृष्ठ २०४: वासंतीति वासगा-भासालद्धीसंपण्णा बेइंदियादि वासगा, रसगा णाम जे जिभिवियलद्धिसंपन्ना, तिता तित्तादिरसे उवलमंति, किमिगजलोगराजगादी, केयि रसगा चेव ण तु वासा, एगिदिया ण वासगा ण रसगा, बॅदियत्तेऽवि सति केइ णिव्वत्तिया ण वासगा भवंति, रसआसादलद्धी पुण सम्वेसि, सावि कस्सइ उवहम्मति, एवं जस्स जति इंदिया ते भावयन्वा जाव पंचिदियतिरिया, तेसिपि केसिंचि उवहताणि इंदियाणि, बुद्धि सरीरं वा, अहवा..."वासंतीति वासगा, कोइलमदणसलागसूयादि, तत्थ तु जे जस्स गुणो तस्स विणासमो काउं, वासितदोसेणं पंजरत्था सइरपतारवियोगाओ णिरोधादीणि दुक्खाणि अणुभवंति, रसिता रसगा' महिसवराहमिगससगतित्तिर बद्धाति । ४. आचारांग वृत्ति, पत्र २१५ : वासकाः 'वासू शब्दकुत्सायो' वासन्तीति वासका:-भाषालब्धिसम्पन्ना द्वीन्द्रियावयः, रसमनुगच्छन्तीति रसगा:-कटुतिक्तकषायादिरसवेविनः, संजिन इत्यर्थः। ५. वसवे आलियं, ४/सूत्र ९: (क) अगस्त्य चूणि, पृष्ठ ७७ : रसा ते भवंति रसजा, तक्रादौ सुहुमसरीरा। (ख) जिनदास चूणि, पृष्ठ १४० : रसया नाम तक्कं बिलमाइसु भवंति। (ग) हारिभद्रीया वृत्ति, पत्र १४१ : रसाज्जाता रसजाः तक्रारनालवधितीमनादिषु पायुकृम्याकृतयोऽतिसूक्ष्मा भवन्ति। ६. अंगसुत्ताणि १, ठाणं ६।२२ : हरिवासगा। Jain Education international Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ आचारांगभाज्यम् भाष्यम् १३-प्राणाःप्राणान् क्लेशयन्ति-उपघ्नन्ति. प्राणी प्राणियों को क्लेश देते हैं-उपघात करते हैं, संघट्टन संघट्टन्ते यावत् जीविताद् व्यपरोपयन्ति । चिकित्सा- करते हैं यावत् जीवन से मार डालते हैं। चिकित्सा-शास्त्र में इन शास्त्रे अमीषां स्थलचरादीनां त्रिविधानामपि प्राणिनां स्थलचर आदि तीनों प्रकार के प्राणियों के मांस-भक्षण का निर्देश है। मांसाशनस्य निर्देशो विद्यते, अतः स्वस्य आरोग्यार्थं इसलिए मनुष्य अपने आरोग्य के लिए उन प्राणियों को क्लेश पहुंचाते मनुष्याः तेषां प्राणिनां क्लेशं जनयन्ति । १४. पास लोए महाभयं । सं०-पश्य लोके महाभयम् । तू देख, लोक में महान् भय है। भाष्यम् १४-त्वं पश्य, लोके स्वप्राणानां रक्षायै तू देख, संसार में अपने प्राणों की रक्षा के लिए दूसरे प्राणियों अन्येषां प्राणानामपहरणं कर्मबन्धकारकत्वात् महाभयं' के प्राणों का अपहरण करना कर्मबन्ध का हेतु होने के कारण महान् विद्यते। भय है। १५. बहुदुक्खा हु जंतवो। सं०-बहुदुःखाः खलु जन्तवः । जीवों के नाना प्रकार के दुःख होते हैं। ३. भाष्यम् १५-प्राणिनां दुःखाद् भयं भवति । दुःखं प्राणियों को दुःख से भय होता है। दुःख है-रोग आदि । च रोगादयः, यथा जैसे'जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं रोगा य मरणाणि य२ जन्म दुःख है, जरा दुःख है, रोग और मरण दुःख है। अमी जन्तवः-मनुष्याः बहुदुःखाः, प्रकरणवशाद् ये प्राणी-मनुष्य दुःखबहुल हैं। प्रकरण के अनुसार ये रोगबहुरोगा दृश्यन्ते। बहुल देखे जाते हैं। १६. सत्ता कामेहि माणवा। सं०-सक्ताः कामेषु मानवाः । मनुष्य कामनाओं में आसक्त होते हैं। माष्यम् १६-रोगाणां मूलमस्ति आसक्तिः । मानवाः रोगों का मूल है-आसक्ति । मनुष्य काम में आसक्त हैं। कामेषु आसक्ता वर्तन्ते। अत एव ते बहुदुःखाः अथवा इसीलिए वे दुःखबहुल अथवा रोगबहुल हैं। उनके जन्म, मरण, रोग बहरोगाः सन्ति । जन्ममरणरोगादीनां वेदनापि तेषां आदि की वेदना भी उतनी ही होती है, जिनकी जितनी आसक्ति तावती येषामस्ति यावती आसक्तिः । होती है। १७. अबलेण वहं गच्छंति, सरीरेण पभंगुरेण । सं०-अबलेन व्यथां गच्छन्ति शरीरेण प्रभंगुरेण । उस शक्तिहीन और प्रभंगुर शरीर से वे व्यथा को प्राप्त होते हैं। भाष्यम् १७-कामासक्तं शरीरं अबलं भवति। तेन कामासक्त शरीर निर्बल होता है। उस निर्बल और प्रभंगुर १. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २०५ : महतं भयं महम्मयं, जं भणितं मरणं । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २१५ : महद्भयं नानागति दुःखक्लेशविपाकात्मकमिति । २. उत्तरज्मयणाणि, १९।१५ । ३. आचारांग चूणि, पृष्ठ २०५ : अप्पसस्थिच्छाकामेसु मवनकामेसु । Jain Education international Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ६. धुत, उ० १. सूत्र १४-२० ३०७ अबलेन प्रभङ्गुरेण शरीरेण ते व्यथां गच्छन्ति, पीडामनु- शरीर से वे मनुष्य व्यथा को प्राप्त होते हैं, पीड़ा का अनुभव करते भवन्तीति यावत् । चूणौ वृत्तौ च वधं गच्छन्तीति व्याख्यातम् । चूणि और वृत्ति में 'वे वध को प्राप्त होते हैं'—यह व्याख्या उपलब्ध है। १८. अट्टे से बहुदुक्खे, इति बाले पगभइ । सं०-आतः स बहुदुःखः इति बालः प्रगल्भते । वेदना से पीडित मनुष्य बहुत दुःख वाला होता है । इसलिए वह अज्ञानी धष्ट हो जाता है। भाष्यम १८-रोगजनिताभिः वेदनाभिः आर्तः स बह पुरुष रोग से उत्पन्न वेदनाओं से आर्त होकर बहुत दुःख बहुदुःखो भवति । तादृशः वेदनोपशमनार्थं प्राणिनः वाला होता है । वैसा पुरुष वेदना को शांत करने के लिए प्राणियों को क्लेशयति । स बालः प्राणिनां क्लेशं जनयन् 'जीवो क्लेश उत्पन्न करता है । वह अज्ञानी प्राणियों को क्लेश देता हुमा 'एक जीवस्य जीवनं' इति कृत्वा प्रगल्भते --धृष्टो भवति। जीव दूसरे जीव का जीवन है'-ऐसा मान कर धृष्ट हो जाता है। १९. एते रोगे बहू णच्चा, आउरा परितावए। सं०-एतान् रोगान् बहून ज्ञात्वा आतुराः परितापयन्ति । इन नाना प्रकार के रोगों को उत्पन्न हुआ जान कर आतुर मनुष्य दूसरे जीवों को परिताप देते हैं। २०. णालं पास। सं०-नालं पश्य । तू देख, ये चिकित्सा-विधियां पर्याप्त नहीं हैं। भाष्यम् १९-२०-एतान् पूर्वोक्तान् बहुन् रोगान् इन पूर्वोक्त अनेक रोगों को उत्पन्न हुआ जानकर, उनका उत्पन्नान् ज्ञात्वा तेषां संवेदनं कुर्वाणा आतुराः स्थल- संवेदन करने वाले आतुर पुरुष (रोग के उपशमन के लिए) स्थलचर चरादीन् प्राणिनः परितापयन्ति । 'पाणा पाणे किलेसंति' आदि प्राणियों को परिताप देते हैं । प्राणी प्राणियों को कष्ट देते हैं(६।१३) इति निगमनम् । यह उपसंहार है। त्वं पश्य, एषा प्राणिपरितापजननी चिकित्सा- तू देख, प्राणियों को परिताप देने वाली यह चिकित्सा पद्धति पद्धतिः रोगोन्मूलनाय अलं-पर्याप्तं नास्ति । रोगों के उन्मूलन के लिए पर्याप्त नहीं है । वृत्तिकार ने इस विषय की वृत्तिकारेण एष विषयः सम्यग् विवेचितः-'एतान् सम्यक् विवेचना की है. इन गंड, कुष्ठ, राजयक्ष्मा आदि अनेक रोगों को १. आचारांग चूणि, पृष्ठ २०५ : केण छुहादिपमंगुरेण करण पाणे किलेसति जोगत्रिककरणत्रिकेण, पढिज्जा मूतेण तप्पगारेण वहं एगेंदियादीणं सत्ताणं जाव पंचिबियाण य 'इति बाले पगम्मति' पाणाणं किलेसावि करतो तित्तिरादिणं, कंखंति पत्थंति गच्छंति एगट्ठा । ....... पगभं गच्छति, जं भणितं धारिठं, तं जहा-को जुद्धाविअसहं अबलं, तब्बलणिमित्तं अहंम का वधो जाणइ परलोगे, परलोगरूवस्स ण विमेति । संसारो तं गच्छति । (माचारांग चूणि, पृष्ठ २०५-२०६) २. आचारांग वृत्ति, पत्र २१५, २१६ : प्रमंगुरेण स्वत (ख) वृत्तावपि प्रकरोति इति व्याख्यातम् -यदि वा एव भंगशीलेन तत्सुखाधानाय कर्मोपचित्याऽनेकशी वधं रोगेषु सत्सु इत्येतद् वक्ष्यमाणं बालः-अज्ञः प्रकरोति । गच्छन्ति। (आचारांग वृत्ति, पत्र २१६) ३. (क) चूों 'पकुव्वई' इति पाठः, पगम्भई इति पाठान्तरं (ग) प्रगल्भपदानुगामि चिन्तनं उत्तराध्ययनेऽपि लभ्यतेवर्तते-सो एवं अट्टो दुक्खउवसमणिमित्तं कायवहे ५७ आदि । पसज्जति, जतो बुच्चति 'इति बाले पकुम्वई' इति ४. श्रीभिक्षन्यायकणिका, ३।२८ : साध्यधर्मस्य धर्मिणि एवं, जेण अट्टो रोगायंकेहिं रागदोसेहिं वा तेण उपसहारो निगमनम्, यथा-तस्माद् अनित्यः । दोहि आगलितो बालो भिसं कुम्वइ, जं वृत्तं पाणा Jain Education international Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ आचारांगभाष्यम गण्डकुष्ठराजयक्ष्मादीन् रोगान् बहूनुत्पन्नानिति ज्ञात्वा उत्पन्न हुआ जान कर उन रोगों की वेदना से आकुल-व्याकुल व्यक्ति तद्रोगवेदनया आतुराः सन्त: चिकित्साय प्राणिन: रोगोपशमन की चिकित्सा के लिए प्राणियों को परिताप देते हैं। परितापतेयुः, लावकादिपिशिताशिनः किल क्षयव्याध्यु- 'बटेर' आदि पक्षी का मांस खाने से क्षय रोग उपशांत होता हैं'-ऐसे पशमः स्यात् इत्यादिवाक्याकर्णनाज्जीविताशया वाक्यों को सुन कर व्यक्ति जीने की आकांक्षा से महान् जीवहिंसा में गरीयस्यपि प्राण्युपमर्दे प्रवर्तेरन, नैतदवधारयेयुः यथा- प्रवृत्त हो जाते हैं। वे यह नहीं जानते कि अपने द्वारा किए हुए अवश्यस्वकृतावन्ध्यकर्मविपाकोदयादेतत्, तदुपशमाच्चोपशमः, वेदनीय कर्मों के विपाक के उदय से ये रोग उत्पन्न हुए हैं। उन कर्मों प्राण्युपमर्दचिकित्सया च किल्बिषानुषङ्ग एवेति, के उपशमन से ही रोग का उपशमन होगा। जीवहिंसा कारक एतदेवाह-पश्यैतद्विमलविवेकावलोकनेन यथा नालं- चिकित्सा से तो पुनः पाप का बंध ही होगा। यही कहा गया है-तुम न समर्थाः चिकित्साविधयः कर्मोदयोपशमं विमल विवेक की आंखों से यह देखो कि ये चिकित्सा-विधियां कर्मों विधातुम् ।' के उदय को उपशांत करने में समर्थ नहीं हैं। २१. अलं तवेएहि। सं०-अलं तव एतैः। इन चिकित्सा-विधियों का तू परित्याग कर । भाष्यम् २१-हे मुने! तव एतैः चिकित्सा- हे मुने! तुम्हें इन चिकित्सा-विधियों से क्या लेना-देना। प्रकारैरलम् । अत्र 'अलं' निवारणे । त्वमेतान् चिकित्सा- यहां 'अलं' शब्द निवारण के अर्थ में प्रयुक्त है। तुम इन चिकित्सा विधीन परित्यजेति तात्पर्यम् । विधियों का परित्याग करो-यही इसका तात्पर्य है। २२. एयं पास मुणी! महब्भयं । सं० --एतत् पश्य मुने ! महाभयम् । मुने ! तुम देखो, यह हिंसामूलक चिकित्सा महान् भय उत्पन्न करने वाली है। भाष्यम् २२-मुने! त्वं पश्य चिकित्सायै एतत् हे मुनि ! तुम देखो, चिकित्सा के लिए प्राणियों का यह प्राणिनां परितापनं महाभयं वर्तते । रोगा असातवेदनीय- परिताप महान् भयकारक है। रोग असातवेदनीय कर्म के विपाक में कर्म विपाकहेतवो भवन्ति । तेषामुपशमनाय हिंसाजनितः हेतु बनते हैं। उन रोगों के उपशमन के लिए हिंसाजनित पुनः कर्मपुनः कर्मबन्ध इत्येतद् महाभयमस्ति । बन्ध करना-यह महान् भय है। विषयनिगमनार्थमुच्यते विषय का निगमन करने के लिए कहते हैं२३. णातिवाएज्ज कंचणं । सं०- नातिपातयेत् कञ्चन । मुनि चिकित्सा के निमित्त भी किसी प्राणी का वध न करे। भाष्यम् २३--प्राणिनां परितापनं महाभयमस्ति, प्राणियों को परिताप देना महान् भय है । इसलिए संयमी तेन संयतो मुनिः रोगप्रतिकारार्थ कमपि प्राणिनं मुनि रोग के प्रतिकार के लिए किसी भी प्राणी का वध न करे । नातिपातयेत् । एतेषु सूत्रेषु (८-२३) अचिकित्साधुतं प्रतिपादित- इन सूत्रों (८ से २३) में 'अचिकित्सा धुत' का प्रतिपादन किया मस्ति । अस्य स्पष्टतायै उत्तराध्ययनस्य रोगपरीषहः' गया है । इसकी स्पष्टता के लिए उत्तराध्ययन सूत्र का रोगपरीषह १. आचारांग वृत्ति, पत्र २१६ । तेगिच्छं नामिनवेज्जा, संचिक्खत्तगवेसए। एवं खु तस्स सामण्णं, जंन कुज्जा न कारवे॥ २. उत्तरायणाणि, २१३२,३३ : उत्तराध्ययने एतस्य टिप्पणमपि पठनीयं विद्यते । बसवेनच्चा उप्पइयं दुक्खं, वेयणाए दुहट्टिए। आलियसूत्रे (३।४) 'तेगिच्छ' इति शब्दस्य टिप्पणमपि अवीणो थावए पन्नं, पुट्ठो तत्थहियासए । द्रष्टव्यमस्ति। Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ६.धुत, उ० १. सूत्र २१-२५ ३०६ मृगापुत्रविषयश्च' अस्ति द्रष्टव्यः । तथा मृगापुत्र का विषय द्रष्टव्य है। २४. आयाण भो ! सुस्सूस भो! धूयवादं पवेदहस्सामि । सं० ---आजानीहि भोः ! शुश्रूषस्व भो ! धुतवादं प्रवेदयिष्यामि । मुने ! तुम जानो ! तुम सुनने की इच्छा करो ! मैं धुतवाद का निरूपण करूगा। भाष्यम् २४ हे मुने! त्वं आजानीहि शुश्रूषस्व अहं हे मुने ! तुम जानो और सुनने की इच्छा करो! मैं धुतवाद धुतवादं प्रवेदयिष्यामि। धुतम्-तपःपद्धतिः। विचि- का निरूपण करूंगा। धुत का अर्थ है-तपस्या की पद्धति । विभिन्न त्राणां कर्मणां निर्जरायै विचित्रा: तपःपद्धतयः सन्ति प्रकार के कर्मों की निर्जरा के लिए विभिन्न प्रकार की तप:-पद्धतियां निर्दिष्टाः। प्रस्तुताध्ययने अनेकेषां धुतानां निरूपण- निर्दिष्ट हैं। प्रस्तुत अध्ययन में अनेक धुतों का निरूपण मस्ति, तेन धुतवादं प्रवेदयिष्यामीति प्रतिजानाति है, इसलिए 'धुतवाद का निरूपण करूंगा'-ऐसी प्रतिज्ञा सूत्रकार सूत्रकारः । पूर्वोक्तानि सूत्राणि धुतवादस्य प्रसङ्गोपस्था- करते है । पूर्वोक्त सूत्र धुतवाद के प्रसंग को उपस्थापित करने वाले पकानि अवगन्तव्यानि। __ हैं, ऐसा जानना चाहिए । २५. इह खलु अत्तत्ताए तेहि-तेहि कुलेहिं अभिसेएण अभिसंभूता, अभिसंजाता, अभिणिव्वट्टा, अभिसंवड़ा, अभिसंबद्धा अभिणिक्खंता, अणुपुब्वेण महामुणी । सं०--इह खलु आत्मत्वेन तेषु तेषु कुलेषु अभिषेकेण अभिसम्भूताः, अभिसञ्जाताः, अभिनिर्वृत्ताः, अभिसंवृद्धाः, अभिसंबुद्धाः, अभिनिष्क्रान्ताः अनुपूर्वेण महामुनयः । मनुष्य नाना कुलों में आत्म-भाव से प्रेरित हो शुक्र-शोणित के निषेक से उत्पन्न होते हैं, अर्बुद और पेशी का निर्माण करते हैं, अंग-उपांग के रूप में विकसित होते हैं, जन्म प्राप्त कर बढते हैं, सम्बोधि को प्राप्त होते हैं और संबुद्ध होकर अभिनिष्क्रमण करते हैं। इस क्रम से महामुनि बनते हैं। भाष्यम् २५–इहेति मनुष्यजन्मलाभे आत्मतया 'इह' का अर्थ है- मनुष्य जन्म का लाभ होने पर, जीव अपने जीवा नानाविधेषु कुलेषु अभिषेकेण अभिसम्भूताः कर्मोदय से प्रेरित होकर नाना कुलों में अभिषेक-शुक्रशोणित के अभिसञ्जाताः अभिनित्ता: अभिसंवृद्धाश्च भवन्ति। निषेक से अभिसंभूत-उत्पन्न होते हैं, अभिसंजात होते हैं, अभिनिवृत्त होते हैं और अभिसंवृद्ध होते हैं। आत्मत्वं-आत्मनो भाव:-आत्मत्वम् । आत्मन: आत्मा का भाव है आत्मत्व । आत्मत्व के दो अर्थ हैं-आत्मा अस्तित्वं, स्वकृतकर्मविपाको वा। जीवा: स्वकृतकर्म- का अस्तित्व अथवा अपने द्वारा किए कर्मों का विपाक । जीव स्वकृत विपाकेन उत्पद्यन्ते। नास्त्यन्यः कश्चिदीश्वरादिः कर्म के विपाक से उत्पन्न होते हैं। ईश्वर आदि कोई अन्य उनका तेषामुत्पादकः । तेषामस्ति स्वतन्त्र अस्तित्वं, न च ते उत्पादक नहीं है । जीवों का स्वतंत्र अस्तित्व है। वे केवल पांच भूतों भूतधातुसंघातमात्रमेव । या धातुओं के संघात मात्र नहीं हैं। अभिषेकः-शुक्रशोणितयोनिषेकः । अभिषेक का अर्थ है-शुक्र और शोणित का निषेक । वृत्तौ अभिसम्भूतादीनां क्रमः प्रदर्शितोऽस्ति वृत्ति में अभिसंभूत आदि का क्रम प्रदर्शित हैसप्ताहं कललं विद्यात्, ततः सप्ताहमर्बुदम् । जीव गर्भाधान से एक सप्ताह तक कलल अवस्था में और एक अर्बुदाज्जायते पेशी, पेशितोऽपि घनं भवेत् ॥ सप्ताह तक अर्बुद अवस्था में रहता है । अर्बुद से पेशी उत्पन्न होती है १. उत्तरायणाणि १९७५-८०: जया मिगस्स आयको, महारणम्मि जायई। तं बितऽम्मापियरो, छंदेणं पुत्त ! पव्वया । अच्छंत रुक्खमूलम्मि, को गं ताहे तिगिच्छई ?॥ नवरं पुण सामण्णे, दुक्खं निप्पडिकम्मया ॥ को वा से ओसहं देई ? को वा से पुच्छई सुहं । सो बितऽम्मापियरो, एवमेयं जहाफु। को से भत्तं च पाणं च, आहरित्तु पणामए ?॥ पडिकम्म को कुणई, अरण्णे मियपक्खिणं ॥ जया य से सुही होइ, तया गच्छइ गोयरं । एगभूओ अरण्णे वा, जहा उ चरई मिगो । भत्तपाणस्स अट्ठाए, वल्लराणि सराणि य॥ एवं धम्म चरिस्सामि, संजमेण तवेण य॥ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० आचारांगभाष्यम् और पेशी से धन-मांसपेशी उत्पन्न होती है। तत्र यावत् कललं तावदभिसम्भूताः, पेशो यावद् कलल तक की अवस्था का वाचक है 'अभिसंभूत' । पेशी अभिसञ्जातः, ततः साङ्गोपाङ्गस्नायुशिरोरोमादि- तक की अवस्था का वाचक है 'अभिसंजात' और फिर अंग, उपांग, क्रमाभिनिवर्तनादभिनित्ताः , ततः प्रसूताः सन्तः स्नायु, सिर, रोम आदि के क्रमिक निवर्तन से अभिनिवृत्त अवस्था अभिसंवृद्धाः ।' होती है। फिर प्राणी जन्म लेकर अभिसंवृद्ध होते हैं, बढते हैं । तेषु अभिसंवृद्धेषु केचित् किञ्चिद् निमित्तमासाद्य उन अभिसंवृद्ध व्यक्तियों में कुछ व्यक्ति किसी निमित्त को निसर्गतो वा अभिसंबुद्धा भवन्ति । चूणौं अभिसंबोधि- पाकर या स्वाभाविक रूप से प्रतिबुद्ध होते हैं। चूर्णि में संबोधिकाल कालः नानारूपोऽस्ति निदर्शितः नानारूपों में निर्दिष्ट हैअभिसंबुद्धा जाव अट्ठवरिसाओ आरम सतिवरिसेणं देसूणा १. आठ वर्ष की अवस्था से आरम्भ होकर सौ वर्ष की वा पुण्यकोडी, अभिसंबुद्धा तित्थगरा, सम्वे अभिसेगकाल एवं अवस्था तक अथवा कुछ कम पूर्व कोटि वर्ष तक व्यक्ति संबुद्धा, सेसावि केई अपडिवडितेणं सम्मत्तेणं गन्भं वक्कमंति, अभिसंबुद्ध रहते हैं। केसिचि गब्मट्ठाणं जाइसरणेणं उप्पज्जइ।' २. अभिसंबुद्ध सभी तीर्थंतर अभिषेक काल से ही संबुद्ध होते ३. शेष कुछ जीव अप्रतिपाती सम्यक्त्व के साथ गर्भ में प्रवेश ___ करते हैं। ४. कुछ जीव जातिस्मृति ज्ञान के साथ गर्भ में आते हैं। ते अभिसंबुद्धाः सन्तः बालत्वे यावद् वृद्धत्वे अभि वे अभिसंबुद्ध मनुष्य बाल्य अवस्था से लेकर बुढापे तक किसी निष्क्रान्ता भवन्ति-प्रव्रज्यां गृह्णन्ति, अनुपूर्वेण ते भी अवस्था में अभिनिष्क्रमण करते हैं -प्रव्रज्या ग्रहण करते हैं । क्रमशः महामुनयो' भवन्ति। उक्तञ्च वृत्ती साधना करते-करते वे महामुनि बन जाते हैं। वृत्ति में कहा हैततोऽधीताचारादिशास्त्रास्तदर्थभावनोपबृंहितचरणपरिणामा वे मुनि आचारांग आदि शास्त्रों को पढकर, उसके अर्थ को अनुपूर्वेण शिक्षकगीतार्थक्षपकपरिहारविशुद्धिकैकाकिविहारिजिन- हृदयंगम कर अर्थ की भावनाओं से अपने चारित्र के परिणामों को पुष्ट कल्पिकावसाना मुनयोऽभूवन्निति । करते हैं। तत्पश्चात् वे क्रमशः शिक्षक, गीतार्थ, तपस्वी, परिहार विशुद्धि वाले, एकल-विहार-प्रतिमा को स्वीकार करने वाले होकर अन्त में जिनकल्पी मुनि बन जाते हैं। २६. तं परक्कमंतं परिदेवमाणा, 'मा णे चयाहिं' इति ते वदंति। छंदोवणीया अज्झोववन्ना, अक्कंदकारी जणगा रुवंति। सं०-तं पराक्रममाणं परिदेवमाना: 'मा अस्मान् त्यज' इति ते वदन्ति । छन्दोपनीताः अध्युपपन्नाः आक्रन्दकारिणो जनकाः रुदन्ति । वह संबुद्ध होकर संयम में गतिशील होता है, तब उसके माता-पिता विलाप करते हुए कहते हैं-तुम हमें मत छोडो। हम तुम्हारी इच्छा के अनुसार चलने वाले हैं, तुम्हारे प्रति हमारा ममत्व है । इस प्रकार आक्रंदन करते हुए वे रुदन करते हैं। भाष्यम् २६–अभिनिष्क्रमणकाले जायमानामवस्थां अभिनिष्क्रमण के समय होनेवाली अवस्थाओं का वर्णन वर्णयति सूत्रकारः-तं अभ्युद्यतविहाराय पराक्रममाणं सूत्रकार करते हैं-संयम-ग्रहण के लिए उद्यत उस व्यक्ति को दृष्ट्वा जनकाः-मातापित्रादयः परिदेवमाना:- देखकर माता-पिता आदि विलाप करते हुए यह कहते हैं--तुम हमको विलपन्तः इति वदन्ति-त्वं अस्मान् मा त्यज । ते मत छोड़ो। हम तुम्हारी इच्छा के अनुसार चलने वाले हैं। तुम्हारे १. आचारांग वृत्ति, पत्र २१६ । ३. आचारांग चूणि, पृष्ठ २०८ : महंत जेण मुणितं जीवादि २. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २०८। __ वा सो महामुणी। (ख) वृत्तौ (पत्र २१६) अभिसंबुद्धस्य अवस्यानां नानारूपत्वं ४. आचारांग वृत्ति, पत्र २१६-२१७ । नास्ति प्रदर्शितम्। धर्मश्रवणयोग्यावस्थायां वर्तमाना धर्मकयादिकं निमित्तमासाद्योपलब्धपुण्यपापतया अभिसंबुद्धाः। Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ६. धुत, उ० १. सूत्र २६-२६ ३११ छन्दोपनीताः'-इच्छावशानुगाः, अध्युपपन्नाः - प्रति हमारा ममत्व है। इस प्रकार आक्रन्दन करते हुए वे रुदन करते आसक्ताः, आक्रन्दकारिणः रुदन्ति । २७. अतारिसे मुणी, णो ओहंतरए, जणगा जेण विप्पजढा । सं०-अतादृशः मुनिः नो ओघंतरको जनकाः येन विप्रत्यक्ताः । वे कहते हैं—'ऐसा व्यक्ति न मुनि हो सकता है और न संसार-सागर का पार पा सकता है, जिसने माता-पिता को छोड दिया है।' भाष्यम् २७ रुदन्तस्ते मातापित्रादयः कथयन्ति रुदन करते हुए वे माता-पिता आदि कहते हैं-जिसने मातायेन जनकाः विप्रत्यक्ताः , तादृशो न मुनिर्भवति, न च पिता को छोड़ दिया है, वह न मुनि होता है और न ओघंतर-संसार ओघंतरः-संसारसमुद्रपारगामी भवति । __समुद्र का पारगामी होता है। २८. सरणं तत्थ णो समेति । किह णाम से तत्थ रमति ? . सं० -शरणं तत्र नो समेति । कथं नाम स तत्र रमते ? वह उसकी शरण में नहीं जाता। ज्ञानी पुरुष गहवास में कैसे रमण करेगा? भाष्यम २८-स पराक्रममाणः पुरुषः मातापित्रादीनां संयम में पराक्रम करने वाला वह पुरुष माता-पिता का आक्रन्दनमाकर्ण्य न तेषां शरणं समेति । स निविण्ण- आक्रन्दन सुन कर उनकी शरण में नहीं जाता। वह कामभोगों से कामभोगः कथं नाम तत्र गहवासे रमते, धृति करोतीति विरक्त व्यक्ति गृहवास में कैसे रमण करेगा, धृति कैसे रख पाएगा ? यावत् । २६. एयं णाणं सया समणुवासिज्जासि ।-त्ति बेमि । सं०-एतद् ज्ञानं सदा समनुवासयेः । इति ब्रवीमि । मुनि इस ज्ञान का सदा सम्यग् अनुपालन करे। ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् २९-द्वे गती-एका सामाजिकसंबंधान् दो गतियां हैं-एक है सामाजिक संबंधों को विस्तार देने वितन्वाना, अपरा च आत्मानुसन्धानपरायणा । ये सन्ति वाली और दूसरी है आत्मा का अनुसंधान करने वाली । जो आत्मा आत्मानमन्वेष्टमद्यताः तैरात्मानं विहाय न केनापि का अनुसंधान करने के लिए उद्यत हैं, उन्हें आत्मा को छोड़कर किसी संबंध:कार्यः, न च क्वापि शरणमन्वेषणीयं, केवलं के साथ भी सम्बन्ध नहीं करना चाहिए और न कहीं शरण की खोज आत्मन्येव आरमणीयमिति परमतत्त्वमिह उपदिष्टं करनी चाहिए। उन्हें केवल आत्मा में ही रमण करना चाहिए। भगवता। इस परम तत्त्व का उपदेश भगवान् महावीर ने यहां दिया है। २. वृत्तिकृता 'अन्मोववण्णा' इति पाठः व्याख्यातः-त्वयि चाभ्युपपन्नाः । (आचारांग वृत्ति, पत्र २१७) १. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २०८ : छंदो-इच्छा, छंदा उवणीया छंवेण वा उवणीतं, जं भणितं-अण्णोण्ण वसाणुयत्तं । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २१७ : तवाभिप्रायानु वतिनः। Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ आचारांगभाष्यम बीओ उद्देसो : दूसरा उद्देशक ३०. आतुरं लोयमायाए, चइत्ता पुव्वसंजोगं हिच्चा उवसमं वसित्ता बंभचेरम्मि वसु वा अणुवसु वा जाणित्तु धम्म अहा तहा, अहेगे तमचाइ कुसीला। सं०-आतुरं लोकमादाय, त्यक्त्वा पूर्वसंयोग, हित्वा उपशम, उषित्वा ब्रह्मचर्य, वसुं वा अनुवसुं वा ज्ञात्वा धर्म यथा तथा अप्येके तमशक्नुवन्तः कुशीलाः। वियोग से आतुर लोक को जानकर, पूर्व संयोग को छोड़कर, उपशम का अभ्यास कर, ब्रह्मचर्य में वास कर, पूर्ण या अपूर्ण धर्म को यथार्थ रूप में जान कर भी कुछेक कुशील मुनि चारित्र-धर्म का पालन करने में समर्थ नहीं होते। भाष्यम् ३०-प्रथमोद्देशके स्वजनपरित्यागधुतं प्रस्तुत अध्ययन के पहले उद्देशक में स्वजन-परित्याग धुत की व्याख्यातम् । इदानीं काम्यपरित्यागधुतं व्याख्यायते। व्याख्या की गई है । अब यहां काम्य-परित्याग धुत की व्याख्या की जा स पराक्रममाणः स्ववियोगे आतुरं लोक-मातापित्रा- रही है । वह संयम में पराक्रमशील व्यक्ति अपने वियोग से आकुल-व्याकुल दिकं आदत्ते-ज्ञानेन गाति, गृहीत्वापि पूर्वसंयोगं माता-पिता आदि को-ये रागातुर होकर आक्रन्दन कर रहे हैं त्यजति, ततश्च उपशम-संयम' अभ्यस्यति' प्राप्नोति' ऐसा ज्ञान से जानता है, जानकर भी वह पूर्व संयोग को छोड़ देता है। वा। ब्रह्मचर्ये-चारित्रे गुरुकुलवासे च वसति । स उसके पश्चात् वह संयम का अभ्यास करता है अथवा उसे हस्तगत कर वसुं-वीतरागसंयम वा अनुवसुं-सरागसंयम वा धर्म लेता है । वह ब्रह्मचर्य-चारित्र में रमण करता है और गुरुकुलवास यथार्थरूपेण जानाति । अथैके कुशीलाः अल्पं वा में रहता है। वह वसु-वीतरागसंयम अथवा अनुवसु-सरागसंयम चिरं वा कालं तत्र उषित्वापि तं आराधयितुं न धर्म को यथार्थरूप में जानता है। फिर भी कुछेक कुशील मुनि शक्नुवन्ति ।' अल्पकाल अथवा चिरकाल तक संयम में रह कर भी उसकी आराधना करने में समर्थ नहीं होते। ३१. वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुंछणं विउसिज्जा। सं०-वस्त्रं प्रतिग्रहं कम्बलं पादप्रोञ्छनं व्युत्सृज्य । वे वस्त्र, पात्र, कम्बल और पावनोंछन को छोड़ देते हैं । भाष्यम् ३१-तेषु केचित् लिङ्गे--मुनिवेशे तिष्ठन्ति । उन में कुछ व्यक्ति मुनिवेश में रहते हैं। कुछ मुनिवेश को केचित लिङ्गमपि त्यजन्ति । वस्त्रं, प्रतिग्रह, कम्बलं. भी छोड़ देते हैं। कोई वस्त्र, पात्र, कम्बल पादप्रोञ्छनं व्युत्सृज्य कश्चित् श्रावको भवति, कश्चित् का परित्याग कर श्रावक बन जाता है । कोई दर्शन-श्रावक, कोई दर्शनश्रावको भवति, कश्चिद् गृहस्थः लिङ्गी वा भवति। गृहवासी अथवा कोई अन्यलिंगी बन जाता है । प्रतिग्रहम्-पात्रं । पावप्रोञ्छनम्-रजोहरणम् । प्रतिग्रह का अर्थ है पात्र और पावोंछन का अर्थ है--- रजोहरण। ३२. अणुपुव्वेण अणहियासेमाणा परोसहे दुरहियासए। सं०-अनुपूर्वेण अनधिसह्यमानाः परीषहाः दुरधिसहाः । परीषहों को क्रमशः न सह सकने के कारण वे परीषह दुःसह हो जाते हैं। १. आचारांग चूणि, पृष्ठ २०९ : उवसमणं उबसमो-संजमो, ५. वही, पृष्ठ २०९-२१० : अहवा संजमो दुहा भवति-से जो वा जत्य पिइं करेति से तस्स उवसमति । वसुमं वसति जेहिं गुणो सो वसु, अणु पच्छाभावे थोवे वा। २. वही, पृष्ठ २०९ : आदिअक्खरलोवा अहिच्चा। बीतरागो वसुज्ञेयो, जिनो वा संयतोऽथवा । ३. आचारांग वृत्ति, पत्र २१७ : हित्वा-गत्वा । सरागोऽनुवसुः प्रोक्तः, स्थविरः धावकोऽयवा।। ४. आचारांग चूणि, पृष्ठ २०९ : तं संजमो सत्तरसविहो, ६. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २१० : अच्चाई णाम वसित्तु वा पालित्तु वा एगट्ठा, तं च बंभचेर वितितं से णामं अच्चाएमाणा, जं भणितं-असत्तिमंता । चारित्र। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २१७ : न शक्नुवन्ति । Jain Education international Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१३ अ० ६. धुत, उ० २. सूत्र ३०-३४ भाष्यम् ३२-अनुपूर्वम्--क्रमः। ये परीषहं क्रमेण न अनुपूर्व का अर्थ है – क्रम । जो मुनि परीषह को सहने का सहन्ते, तेषां स दुस्सहो भवति । यथा-केनचित् मनोज्ञं क्रमशः अभ्यास नहीं करते, उनके लिए वह परीषह दुःसह हो जाता है। रूपं दृष्ट, तदानीमेव तेन अव्यापारः कार्य: न पुनस्तद् जैसे---किसी ने मनोज्ञ रूप देखा । तत्काल ही वह अपनी दृष्टि को उससे द्रष्टुं प्रयत्नः कार्यः। एषोनुकलपरीषहसहनस्य प्रथम- हटा ले, पुनः उसे देखने का प्रयत्न न करे । यह अनुकूल परीषह को सहने श्चरणः । तस्मिन रूपे प्रतिगते तस्य अनुस्मृतिर्न कार्या। का पहला चरण है। उस रूप के वहां से निवृत्त हो जाने पर उसकी एष द्वितीयश्चरणः। अनेन क्रमेण स परीषहः सुसहो स्मृति न करे । यह दूसरा चरण है । इस क्रम से उस परीषह को सहना भवति। ये एवं नाभ्यस्यन्ति, रूपं दृष्ट्वा मूर्च्छन्ति, सरल हो जाता है। जो इस प्रकार अभ्यास नहीं करते, रूप को देख तत्प्रति अभिसर्पन्ति, तस्मिन् प्रतिगते तदेव अनु- कर उसमें मूच्छित हो जाते हैं, उसके प्रति अभिमुख हो जाते हैं, उसके स्मरन्ति, तेषां स परीषहः दुस्सहो भवति। एवमन्येषा- निवृत्त हो जाने पर उसी की अनुस्मृति करते रहते हैं, उनके लिए रूप मिन्द्रियाणां विषयजनिताः परीषहाः बोद्धव्याः। एवं का वह परीषह दुस्सह हो जाता है। इसी प्रकार अन्यान्य इन्द्रियों के अनिष्ट विषयजनितेष्वपि परीषहेषु वाच्यम् ।' विषय से उत्पन्न होने वाले परीषहों के विषय में जानना चाहिए । इस प्रकार अनिष्ट विषय जनित परीषहों को सहने का भी यही क्रम है। ३३. कामे ममायमाणस्स इयाणि वा मुहुत्ते वा अपरिमाणाए भेदे । सं०-कामान् ममायमानस्य इदानी वा मुहूर्तेन वा अपरिमाणाय भेदः । वह काम-मूर्छा से मुनि-धर्म को छोडता है । उसकी उसी क्षण, मुहूर्त भर में अथवा किसी भी समय किसी मानदंड के बिना मृत्यु हो सकती है। भाष्यम् ३३-यः कामान् प्रति मूच्छितो भवति, जो कामों में मूच्छित होता है, उनमें ममत्व करता है, तेषु ममत्वं करोति, तेषामर्थं मुनिपर्यायं परित्यजति, उन के लिए मुनि-धर्म को छोड़ देता है, उसके विषय में सूत्रकार तस्य विषये सूत्रकार: प्रतिपादयति-येन कामासेवनार्थं कहते हैं जो मुनि कामों के आसेवन के लिए मुनि-धर्म को छोडकर अवधावनं कृतं तस्य इदानीं-अस्मिन्नेव क्षणे वा, चला जाता है, उसका उसी क्षण में अथवा जिस किसी क्षण में, वय मुहर्ते यस्मिन् कस्मिश्चित् क्षणे वा वयःप्रभृतीनां आदि के मानदंड के बिना, भेद हो सकता है। भेव का अर्थ है --प्राण परिमाणं विना भेदो भवति । भेदः-प्राणशरीरयोः और शरीर का वियोजन-मृत्यु । वियोजनम् । ३४. एवं से अंतराइएहि कामेहिं आकेवलिएहि अवितिण्णा चेए। सं० ---एवं स आन्तरायिकैः कामैः आकेवलिकैः अवितीर्णाः चैते। इस प्रकार वह विघ्न और द्वंद्वयुक्त इन कामों का पार नहीं पा सकता । भाष्यम् ३४-कामाः सन्ति आन्तरायिकाः सविघ्ना काम बाधा उपस्थित करने वाले और विघ्नबहुल होते हैं। वे दति यावत. आकेवलिका:-असम्पूर्णाः सद्वन्द्वा इति असंपूर्ण अर्थात् द्वन्द्व युक्त होते हैं। इसलिए उनका पार नहीं पाया जा १. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २१०: परीसहा ते य एवं होने पर अस्मृति करने वाला अनुकूल परीवहों को अणुपुब्वेणं ण अहियासिज्जति, सदं सुणेत्ता तत्य सहन कर सकता है। मुच्छति, तं वा प्रति अभिसर्पति, य से अव्वावारं प्रतिकूल परीषहों के सहन और असहन का भी यही करेइ, तदुवरमे य तदेव अणुस्सरति, एवं दुरधियासा भवंति, जाव फासा, एवं अणिठेसु दोसं करेति । २. आचारांग चूणि, पृष्ठ २११ : एतेणं तस्स परिमाणं ण (ख) परीषह दो प्रकार के होते हैं-अनुकूल और विज्जति, भेदो जीवसरीरप्पा, अहवा अपरिमाणाए प्रतिकूल । मनोज्ञ शब्द, रूप आदि इन्द्रिय-विषय उवक्कमेणं अणुवक्कमेणं वा ण णज्जति कहं गमणमिति, अनुकल परीषह हैं। उनके प्राप्त होने पर व्यापार उवक्कमेवि सति ण सो उवक्कमविसेसो णज्जति जेणं और उनके निवृत्त होने पर उनकी स्मृति करने गंतवमिति । वाला अनुकूल परीषहों को सहन नहीं कर सकता। ३. वही, पृष्ठ २११: भेदो जीवसरीरप्पा। उनके प्राप्त होने पर अव्यापार और उनके निवृत्त Jain Education international Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ आचारांगभाष्यम् यावत् । एवं एते अवितीर्णा भवन्ति । केवलं वैराग्येणैव सकता। केवल वैराग्य से ही उनका पार पाया जा सकता है। कामों के ते तीर्णा भवन्ति । कामानामासेवनेन न ते कदापि तीर्णा आसेवन से उनका पार कभी भी नहीं पाया जा सकता, यह इसका भवन्तीति तात्पर्यम् । तात्पर्य है। ३५. अहेगे धम्म मादाय आयाणप्पभिई सुपणिहिए चरे । सं.-अर्थकः धर्ममादाय आदानप्रभृति सुप्रणिहितः चरति । कोई व्यक्ति मुनि-धर्म में दीक्षित हो, वस्त्र, पात्र आदि में अनासक्त होकर विचरण करता है। भाष्यम ३५-पूर्वं पञ्च (३०-३४) प्रमादसूत्राणि पहले पांच (३० से ३४) प्रमाद सूत्रों का निरूपण हुआ है । अब भणितानि । अथातः अप्रमादसूत्राणि । एकः कश्चित् यहां से अप्रमाद सूत्रों का कथन है। कोई एक व्यक्ति वस्त्र, पात्र आदि आदानप्रभृति आदाय तत्र सुप्रणिहितः धर्म चरति । को ग्रहण कर उनमें अनासक्त होकर धर्म का आचरण करता है । सुशीलस्य धर्मचर्यायाः द्वे अवस्थे विद्यते-सचेलावस्था सुशील मुनि की धर्मचर्या की दो अवस्थाएं हैं-सचेल अवस्था और अचेलावस्था च । यः सचेलावस्थायां मुनिधर्ममाचरति अचेल अवस्था। जो सचेल अवस्था में मुनि-धर्म की आराधना करता तस्य चर्या सूत्रपञ्चके (३०-३४) निरूपिता। अचेला- है, उसकी चर्या का निरूपण पांच सूत्रों (३०-३४) में है। जो अचेल वस्थायां मुनिधर्ममाचरतश्चर्या चत्वारिंशसूत्रादारभ्य अवस्था में मुनि-धर्म की आराधना करता है, उसकी चर्या चालीसवें एकपञ्चाशसूत्रपर्यन्तं प्रतिपादिता समस्ति। सूत्र से इक्यावनवें सूत्र पर्यन्त प्रतिपादित है। आदानम्-वस्त्रम् । प्रतिपदेन पात्रादीनां ग्रहणम् । आवान का अर्थ है- वस्त्र और 'प्रभृति' शब्द से पात्र आदि प्रणिधानं निर्मलता। यः वस्त्राद्युपकरणेषु अनासक्तो का ग्रहण किया गया है । प्रणिधान का अर्थ है-निर्मलता। जो वस्त्र भवति स उपकरणापेक्षया सुप्रणिहितःप्रोच्यते। उक्तञ्च आदि उपकरणों में अनासक्त रहता है, वह उपकरणों की अपेक्षा से स्थानाङ्गे 'सुप्रणिहित' कहलाता है । स्थानांग में कहा हैचउम्विहे सुप्पणिहाणे पण्णते, तं जहा-मणसुप्पणिहाणे, सुप्रणिधान चार प्रकार का होता है—मन :सुप्रणिधान, वाक्वइसुप्पणिहाणे, कायसुप्पणिहाणे, उवगरणसुप्पणिहाणे। सुप्रणिधान, कायसुप्रणिधान और उपकरण सुप्रणिधान । १. विघ्न, द्वंद्व और अपूर्णता-ये काम के साथ जुड़े हुए हैं। मनुष्य सुख की इच्छा से उनका सेवन करना चाहता है, पर सेवन-काल में अपहरण, रोग, मृत्यु आदि अनेक विघ्न उपस्थित हो जाते हैं। मनुष्य इष्ट विषय चाहता है, पर प्रत्येक इष्ट विषय के साथ अनिष्ट विषय अनचाहा आ जाता है । काम अपूर्ण हैं, इसलिए वे मनुष्य की तृप्ति को पूर्ण नहीं कर सकते । फलतः जैसे-जैसे उनका सेवन होता है, वैसे-वैसे अतृप्ति बढ़ती जाती है। इस क्रम से उनका पार पाना असंभव हो जाता है। २. आचारांग चूणि, पृष्ठ २१२ : जाणि प्पमादसुत्ताणि भणिताणि तंजहा अहेगे तमच्चायो० एताणि विवज्जतेण पढिज्जति, अत्थआसवातो तं जहा-अहेगे त चाई सुसीले वस्थं पडिग्गहं अविउसज्ज अणुपुवेणं अहियासमाणो परीसहे दुरहियासओ कामे अममायमाणस्स, इदाणि वा मुहुत्ते वा अपरिमाणाए भेवे, एवं ता अंतराइएहि कम्मेहि वितिण्णा चेते, एयाओ आलंबणाओ कामे अणासेवमाणे 'अह एगे धम्ममादाय' एवं अप्पमादेणं पमादो अंतरिओ उवविट्ठी, भणियं च 'यस्त्वप्रमादेन तिरो प्रमादः, स्याद्वापि यत्तेन पुनः प्रमादः । विपर्ययेणापि पठति तत्र, सूत्राण्यधीगारवशाद विधिज्ञाः ॥' ३. (क) चूर्णी 'आदान' पदस्य व्याख्या एवं लभ्यते 'आदीयत इति आदाणं-नाणादि, अणुवसुप्पर्भाित वसुप्पभिति वा।' (आचारांग चूणि, पृष्ठ २१२) (ख) वृत्तौ 'आदान' पदेन सचेलावस्थायाः संकेतो लभ्यते -आदाय गृहीत्वा वस्त्रपतग्रहादिधर्मोपकरणसमन्विता धर्मकरणेषु प्रणिहिताः परीषहसहिष्णवः सर्वज्ञोपदिष्टं धम्म चरेयुरिति । (आचारांग वृत्ति, पत्र २१९) (ग) तृतीयोद्देशकस्य प्रथमसूत्रे आदानं-वस्त्रादि इत्यपि व्याख्यातमस्ति वृत्ती-'आदीयते इत्यादानं - कर्म आदीयते वाऽनेन कर्मेश्यादानं-कर्मोपादानं, तच्च धर्मोपकरणातिरिक्तं वक्ष्यमाणं वस्त्रादि ।' (आचारांग वृत्ति, पत्र २२१) ४. अंगसुत्ताणि १, ठाणं ४।१०५ । Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ६. धुत, उ० २. सूत्र ३५-३८ ३६. अपलीयमाणे दढे। सं0-अप्रलीयमानः दृढः । वह अनासक्त और बृढ होता है । भाष्यम् ३६–स सुशीलः मुनिः अप्रलीयमानः'- वह सुशील मुनि वस्त्र आदि उपकरणों के प्रति अनासक्त होता वस्त्राद्यपकरणं प्रति अनासक्तो भवति । स दृढश्च है। वह दृढ़ होता है। स्थानांग में कहा है-कोई एक व्यक्ति प्रियधर्मा भवति । उक्तं च स्थानाङ्गे--एकः कश्चित् प्रियधर्मा होता है और कोई एक दृढधर्मा । प्रियधर्मा व्यक्ति धर्म के प्रति रुचि भवति, एकश्च दृढधर्मा। प्रियधर्मा धर्म प्रति रुचि करोति करता है, किन्तु वह उसका निर्वाह नहीं कर सकता। दृढधर्मा व्यक्ति न तस्य निर्वाहं कर्तुं शक्नोति । दृढधर्मा धृत्या संहननेन अपनी धति और संहनन की दृढता से धुरीण बैल की भांति भारच दृढत्वात् धुरीण इव भारवाही भवति । वहन करने में सक्षम होता है। ३७. सव्वं गेहिं परिणाय, एस पणए महामुणी । सं०-सर्वां 'गेहि' परिज्ञाय एष प्रणतः महामुनिः । समन कामासक्ति को छोड कर धर्म के प्रति समर्पित होने वाला महामुनि होता है। भाष्यम् ३७-यः सर्वां 'गेहि -कामासक्ति परिज्ञाय जो समग्र कामासक्ति को छोड़ कर जीवन-यापन करता है, विहरति स एष धर्म वैराग्यं च प्रति प्रणतो भवति, वह धर्म और वैराग्य के प्रति समर्पित होता है। वैसा व्यक्ति महामुनि तादृशो महामुनिर्जायते । चूर्णिकारस्याभिमते स होता है । चूर्णिकार के मतानुसार-वह पुरुष महान् संसार को जानता महान्तं संसारं जानाति, प्रधानो वा मुनिर्भवति । है अथवा वह प्रधान मुनि होता है । ३८. अइअच्च सव्वतो संगं 'ण महं अस्थित्ति इति एगोहमंसि ।' सं०-अतिगत्य सर्वतः संग 'न मम अस्तीति, इति एकोऽहमस्मि ।' वह सब प्रकार से संग का परित्याग कर यह भावना करे-मेरा कोई नहीं है, इसलिए मैं अकेला हूं। भाष्यम् ३८-कर्मपरित्यागाय एकत्वानुप्रेक्षा अत्यन्त- कर्म परित्याग के लिए 'एकत्व-अनुप्रेक्षा' अत्यन्त उपादेय है । मुपादेयाऽस्ति । संगो नाम रागः। सर्वतः सर्वत्र संग का अर्थ है-राग। सर्वतः का अर्थ है-सर्वत्र, सर्वथा, सर्वथा सर्वकालं वा । सर्वं संगमतीत्य इति अनुप्रेक्षणीयं अथवा सर्वकाल । वह समस्त संगों का परित्याग कर ऐसी अनुप्रेक्षा -न मम कोऽपि अस्ति इति एकोऽहम् । अनेकत्वं करे-मेरा कोई भी नहीं है, इसलिए मैं अकेला हूं।' अनेकत्व संग संगकल्पितमस्ति इति नास्ति तत् सत्यम्, एकत्वञ्च से उत्पन्न होता है, इसलिए वह यथार्थ नहीं है । एकत्व या अकेलापन वास्तविकमिति सत्यस्यानुप्रेक्षया कर्म धुतं भवति । वास्तविक है। इस सत्य की अनुप्रेक्षा से कर्म प्रकंपित होता है। सूत्रकृताने एकत्वानुभवो मोक्षः इति प्रसाधित सूत्रकृतांग में 'एकत्व का अनुभव मोक्ष है'-यह सिद्ध किया मस्ति १. आचारांग चूणि, पृष्ठ २१२ : अप परिवर्जने, लोणो विसयकसायादि। २. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २१२ : गंधो गेही कंखत्ति इति वा एगळं। (ख) देशीशब्दोऽयम् । ३. आचारांग चूणि, पृष्ठ २१२ : पणतो महंत मुणेति संसारं, पहाणो वा मुणी। ४. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २१२ : संगो णाम रागो, __ अहवा कम्मस्स संगो। (ख) द्रष्टव्यम्-आयारो, ३।६ । ५. (क) अंगसुत्ताणि १, सूयगडो १।१०।१२ । (ख) सूत्रकृतांग चूणि, पृष्ठ १८८,१८९ : एकभाव एकत्वम्, नाहं कस्यचित् ममापि न कश्चिविति'एक्को मे सासओ अप्पा णाणसणसंजुतो। सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा॥' (संस्तारक पौरुषी, गा० ११) एवं वैराग्यं अणुपत्थेज्ज, अथ किमालम्बनं कृत्वा ? 'एतं पमोक्खे ण मुसं ति पास', जं चेव एतं एकत्वं एस चेव पमोक्खो, कारणे कार्योपचारादेष एव मोक्षः भृशं मोक्षो पमोक्खो सत्यश्चायम् । Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ आचारांगभाष्यम् 'एगत्तमेवं अभिपत्थएज्जा एतं पमोक्खे ण मुसं ति पास । 'व्यक्ति एकत्व (अकेलेपन) की अभ्यर्थना करे । यह एकल मोक्ष एसप्पमोक्खे अमुसेऽवरे वी अकोहणे सच्चरए तवस्सी ॥' है। यह मिथ्या नहीं है। इसे देख । एकत्व में रहने वाला पुरुष मोक्ष, सत्य, प्रधान, क्रोधमुक्त, सत्यरत और तपस्वी होता है।' ३६. जयमाणे एत्थ विरते अणगारे सव्वओ मुंडे रीयंते । सं०-यतमानः अत्र विरतः अनगारः सर्वतः मुण्डः रीयमाणः । वह संयम-पूर्वक चर्या करने वाला, विरत, गृहत्यागी, सब प्रकार से मुण्ड और अनियतवास वाला होता है । भाष्यम् ३९-स एकोऽहमस्मि इति भावनाया: वह पुरुष 'मैं अकेला हूं' इस भावना के विकास के लिए विकासाय यतमानः, अथवा एकोऽहमस्मि इति भावनया प्रयत्नशील, अथवा 'मैं अकेला हूं' इस भावना से संयम की साधना यच्छन्-संयमं कुर्वाणः, अत्र कामानां परित्यागाय करता है। वह काम के परित्याग के लिए विरत-काम में रति न विरत:--कामेषु रति अकुर्वाणः सर्वतो मुण्डो' भूत्वा करता हुआ, सब प्रकार से मुंड होकर अनियतवास वाला होता है रीयमाणो भवति, अनियतवासमाचरतीति यावत् । अर्थात् अनियतवास का आचरण करता है । ४०. जे अचेले परिवुसिए संचिक्खति ओमोयरियाए । सं०-यः अचेलः पर्युषितः संतिष्ठते अवमोदरिकायाम् । जो मुनि निर्वस्त्र रहता है, वह अवमोदयं तप का अनुशीलन करता है। भाष्यम् ४.--इदानीं अचेलचर्या । य: अचेल: प्रस्तुत है—अचेल चर्या । जो मुनि अचेल (निर्वस्त्र या अल्प पर्युषितः स अवमोदरिकायां संतिष्ठते ।' अवमोदरिका वस्त्र) होता है, वह अवमौदर्य तप का अनुशीलन करता है । अवमौदर्य -अल्पीकरणम् । वस्त्रादीनां आहारस्य च अल्पीकरणं का अर्थ है-अल्पीकरण । वस्त्र आदि का तथा आहार का अल्पीकरण द्रव्यत: अवमोदरिका, क्रोधादीनामल्पीकरणं भावतः करना द्रव्य अवमौदर्य है । क्रोध आदि कषायों का अल्पीकरण करना अवमोदरिका । वस्त्राद्युपकरणानि क्रोधादीनां निमित्तं भाव अवमौदर्य है। वस्त्र आदि उपकरण क्रोध आदि के निमित्त बनते जायन्ते, अतस्तेषां त्यागं करोति, स भावतोऽपि अवमोद- हैं, इसलिए वह उनका त्याग करता है । वह भावतः भी अवमौदर्य तप रिकां करोति। का अनुशीलन करता है। ४१. से अक्कुठे व हए व लूसिए वा। सं०–स आक्रुष्टो वा हतो वा लूषितो वा । कोई मनुष्य उसे गाली देता है, पीटता है या अंग-भंग करता है। १. स्थानांग सूत्र (१०९९) में दस प्रकार के मुण्ड बतलाए १. कोध-मुण्ड-क्रोध का अपनयन करने वाला। २. मान-मुण्ड-मान का अपनयन करने वाला। ३. माया-मुण्ड-माया का अपनयन करने वाला। ४. लोभ-मुण्ड-लोभ का अपनयन करने वाला। ५. शिर-मुण्ड-शिर के केशों का लुंचन करने वाला। ६. श्रोत्रन्द्रिय-मुण्ड---कर्णेन्द्रिय के विकार का अपनयन करने वाला। ७. चक्षुरिन्द्रिय-मुण्ड-चक्षुरिन्द्रिय के विकार का अप नयन करने वाला। ८. नाणेन्द्रिय-मुण्ड-घ्राणेन्द्रिय के विकार का अपनयन , करने वाला। ९. रसनेन्द्रिय-मुण्ड–रसनेन्द्रिय के विकार का अपनयन करने वाला। १०. स्पर्शनेन्द्रिय-मुण्ड-स्पर्शनेन्द्रिय के विकार का अप नयन करने वाला। २. (क) चूणा (पृष्ठ २१३) अचेलपदस्य मौलिकोऽर्थो विद्यते -दव्वे तित्थगर असंतचेलो, भावे रागदोसविजओ, सेहावि चेलेहि अचेला। (ख) वृत्तौ (पत्र २१९) अल्पचेल इति उत्तरवर्ती अर्थ: प्रतीयते-अचेलः अल्पचेलो जिनकल्पिको वा। ३. संचिक्खति इति मूलपदम्, चूर्णी (पृष्ठ २१३)-संमं विक्खमाणे संविक्खमाणे। Jain Education international Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ६. धुत, उ० २. सूत्र ३६-४४ । भाष्यम् ४१--अचेलावस्थायां परीषहाणां संभावना अधिकं वर्तते । अचेलं दृष्ट्वा कश्चिद् आक्रोशं प्रहारं अङ्गभङ्ग वा करोति । स अचेल : मुनिः तमाक्रोशपरीषहं वधपरीष' च तितिक्षमाणः परिव्रजेत् । ४२. पलियं पये अदुवा पगंचे। सं० 'पलियं' 'पगंथे' अथवा 'पगंथे' । कोई मनुष्य कर्म की स्मृति दिलाकर गाली देता है अथवा कोई असभ्य शब्दों का प्रयोग करके गाली देता है । भाष्यम् ४२ - पलियं कर्म । पगंथे- देशी क्रियापदं आक्रोशति इत्यर्थः । कश्चित् कर्मणः स्मृति कारयित्वा' गालि ददाति अथवा एवमेव अश्लीलानां गालीनां प्रयोगं करोति ।" भाष्यम् ४३ कश्चिद् अतर्थ: असद्भूतैः शब्दस्पर्श उपसर्ग करोति । तत्र शब्दा:- आफोभनतर्जनादयः, स्पर्शाः वधबन्धनमारणादयः शारीरिकयातना विशेषाः, तदानीं मतिमान् मुनिः अहं अवमौदर्ये स्थितोऽस्मि इति संख्याय सम्यक् चिन्तनं कृत्वा सम्यगालंबनमादाय वा तान् शब्दस्पर्शात्मकान् परीषहान् तितिक्षेत । ३१७ अचेल अवस्था में परीषहों की संभावना अधिक होती है । जल भवस्था में मुनि को देख कर कोई व्यक्ति मुनि पर आक्रोश करता है, प्रहार करता है, अंग-भंग करता है । वह अचेल मुनि, उस आक्रोश परीषह तथा वध परीषह को सहता हुआ परिव्रजन करे। ४३. अहि सद्द- फासेहि, इति संखाए । सं० - अतर्थः शब्दस्पर्शे:, इति संख्याय । कोई तथ्यहीन शब्दों तथा स्पर्शो द्वारा उपसर्ग करता है। मुनि इन सबको सम्यक् चिन्तन के द्वारा सहन करे । १. (क) उत्तरज्झयणाणि, २०२४, २५, २६, २७ । (ख) व्रष्टव्यम् - दसवे आलियं १०।१३ । २. आचारांग चूर्णि, पृष्ठ २१३ पलियं नाम कम्मं, सो य कम्मजुंगतो पो पतहा कहारो वा देवापण्य पिल्लेवगादि क्खिमंति, सो य केणइ सयक्खेण परीक्खेण वा असूयाए पगडं वा पगंथति, असूयाए ताव णाविअविगो तपहारगो पगडं तुमं तनहारलो तहावि न लज्जसि ममं सह विरुज्झमाणो, सरीरजुंगिते वा सूयाएवि अहं काणी कुंडो वा पगडं कोढिग कुज्जो वा, एवं ओरालाह पति , ३. सब प्रकार के काम करने वाले लोग अर्हत् के शासन में दीक्षित होते थे कुछ लोग गृहवास के कर्म को याद दिला पलियं का अर्थ है - कर्म । 'पगंथ' देशी क्रियापद है । इसका अर्थ है - आक्रोश करना, गाली देना । कोई पुरुष कर्म (प्रवृत्ति) की स्मृति दिलाकर गाली देता है अथवा वैसे ही अश्लील गाली-गलौज का प्रयोग करता है । ४४. एगतरे अण्णवरे अभिण्णाय, तितिक्खमाणे परिव्वए । सं० - एकतरान् अन्यतरान् अभिज्ञाय तितिक्षमाणः परिव्रजेत् । एकजातीय या भिन्नजातीय परीषहों को उत्पन्न हुआ जान कर मुनि उन्हें सहन करता हुआ परिव्रजन करे । 7 . कोई पुरुष तथ्यहीन शब्दों तथा स्पर्शो द्वारा उपसर्ग उपस्थित करता है। शब्दों से तात्पर्य है आकोश, भलना तर्जना आदि। स्पर्म का अर्थ है-वध बंधन, मारना आदि शारीरिक यातनाविशेष । तब मतिमान् मुनि 'मैं अवमौदर्य में प्रतिष्ठित हूं' - ऐसा सम्यग् चितन कर अथवा सम्यग् आलंबन लेकर उन शब्दों और स्पों से उत्पन्न परीषहों को सहन करे । ! कर उन्हें कोसते, जैसे ओ जुलाहा तु सा हो गया पर क्या जानता है ?' 'ओ लकडहारा ! कल तक लकडियों का गट्ठर ढोता था, आज साधु बन गया !" ४. सम्यक् चिन्तन के पांच प्रकार हैं— कोई गाली दे, पीटे या अंग-भंग करे, तब मुनि चिन्तन करे १. यह पुरुष यक्ष से आविष्ट है । २. यह पुरुष उन्मत्त है । ३. यह पुरुष दर्पयुक्त चित्त वाला है। ४. मेरा किया हुआ कर्म उदय में आ रहा है, इसलिए यह पुरुष मुझे गाली देता है, बांधता है, पीटता है । ५. मैं इस कष्ट को सहन करूंगा, तो मेरे कर्म क्षोण होंगे । Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ माध्यम् ४४-स एकतरान् एकजातीयान्, अन्यतरान् भिन्नजातीवान् वा परीषद्वान् उत्पन्नान् अभिज्ञाय तान् तितिक्षमाणः परिव्रजेत्। तत्र शब्दः एकजातीयः, यथा आक्रोशपरीपहः स्पर्शः अन्य जातीयः, यथा शीतोष्ण-दंश-मशक चर्या दाव्या-वध-तृण स्पर्शादयः परीषहाः । - ४५. जे य हिरी, जे य अहिरीमणा । सं० -- ये च ही ( मनसः ) ये च अह्रीमनस: । 1 मुनि लज्जाकारी और अलज्जाकारी - दोनों प्रकार के परीषहों को सहन करे । भाष्यम् ४५ - स्थानाङ्गे पञ्च पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि सन्ति ० o ह्रीसत्त्व :- विकट परिस्थितावपि लज्जावशात् न कातरतां व्रजति । ह्रीमनः सत्त्व:- विकटवेलायामपि कायरतां व्रजति । ० चलसत्व:- अस्थिरसत्त्ववान् । • स्थिरसत्त्वः -सुस्थिरसत्त्ववान् । • उदयनसत्त्वः - प्रवर्द्धमानसत्त्ववान् । तत्र केचित् पुरुषा हीमनसो भवन्ति केचित् अहोमनसश्च भवन्ति । हीमनसां कृते अचेल परीषहः सोमशक्यः । अह्रीमनसां कृते स सोढुं शक्यो भवति । अचेले परिवासं कुर्वता मुनिना लज्जापरीषहः शीतादि परीषहश्च सम्यक् सोढव्यः । न मनसा -- 1 भाष्यम् ४६ विनोतविकावेतसश्चञ्चलता अचेलस्य मुनेः केचित् परीषहाः सहजं संभवन्ति तान् लक्ष्यीकृत्य विस्रोतसिकां न कुर्यात् किन्तु सर्वा तां यत्वा सम्यग्दर्शन: मुनिः ये केचित् स्पर्शाः जायन्ते तान् समभावपूर्वकं स्पृशेत् । त्यक्त्वा आचारमाध्यम् यह मुनि एकजातीय अथवा भिन्नजातीय परीयों को उत्पन्न हुआ जानकर उन्हें सहन करता हुआ परिव्रजन करे शब्द एकजातीय परीषह है, जैसे आकोश परीवह स्पर्श भिन्नजातीय परीषद् है. जैसे- शील, उष्ण, दंश, महक, चर्या शय्या वध, तृणस्पर्श आदि परीपह १. (क) आचारांग चूर्णि, पृष्ठ २१४ : एगतरा एते सद्दा फासा थ तत्थ सही एक्की अस्कोस परीसह, सीत उन्हं दंसमसग चरिता सिज्जा वहो तणफास जल्ल एते फासा, तं एते सद्दफासा एगतरा । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २१९ : एगतरान् — अनुकूलान्, अन्यतरान् — प्रतिकूलान् परीवहान् । २. अंगसुतानि १, ठाणं ५।१९८ । ३. वृत्तौ 'हिरी' पदस्य व्याख्या सविकल्पा वृश्यते - ये च ४६. चिच्चा सव्वं विसोत्लियं, फासे फासे समियदंसणे । सं० त्यत्वा सर्वा विस्रोतसिकां स्पर्णान् स्पृशेत्सम्यग्दर्शनः । सम्यग्दर्शन- सम्पन्न मुनि सब प्रकार की चैतसिक चंचलता को छोड़ कर स्पर्शो को समभाव से सहन करे । स्थानांग में पांच प्रकार के पुरुष बतलाए गए हैं १. ह्रीसत्त्व - - विकट परिस्थिति में भी लज्जावश कायर न होने वाला । २. हीमनः सत्व - विकट वेला में भी मन से कायर न होने वाला । ३. चलसत्त्व - अस्थिरसत्त्व वाला । ४. स्वरसत्व- मुस्थिरसत्व वाला । ५. उदयनसत्त्व प्रवर्द्धमानसत्त्व वाला । कुछ पुरुष लज्जालु होते हैं और कुछ अलज्जालु । लज्जाशील व्यक्तियों के लिए अचेल परीग्रह को सहना अशक्य होता है। अलज्जाशील व्यक्ति के लिए उसे सहमा शक्य होता है। अचेत अवस्था में रहता हुआ मुनि लज्जा परीपह और शीत आदि के परीवहों को सम्यक् प्रकार से सहन करे । विस्रोतसिका का अर्थ है- चित्त की चंचलता । अचेल मुनि के कई परीषह सहज उत्पन्न होते हैं । उनको लक्षित कर चैतसिक चंचलता न करें, किंतु सब प्रकार की उन पैतसिक पंचलताओं को छोड़ कर सम्यग्दर्शन संपन्न मुनि जो स्पर्ण उत्पन्न हों, उन्हें समभाव से सहन करे । परीषाः सरकारपुरस्कारादयः साधोहरियो बनबाह्लादकारिणो ये तु प्रतिकूलतया अहारिणो-मनसोऽनिष्टा, यदि वा होया: पाचानाऽवेलादयः अहीमनसरच अलज्जाकारिणः शीतोष्णादयः इत्येतान् द्विरूपानपि परीवहान् सम्यक् तितिक्षमाणः परियमेदिति । ( आचारांग वृत्ति, पत्र २१९ ) ४. वही, पत्र २२० : सम्यग् इतं गतं दर्शनं यस्य स समितदर्शनः सम्यदृष्टिरित्यर्थः । Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ अ० ६. धुत, उ०२. सूत्र ४५-४६ ४७. एते भो! णगिणा वृत्ता, जे लोगंसि अणागमणधम्मिणो। सं०-एते भो ! नग्नाः उक्ताः ये लोके अनागमनर्मिणः । धर्म-क्षेत्र में उन्हें नग्न कहा गया है, जो दीक्षित होकर पुनः गृहवास में नहीं आते हैं। भाष्यम् ४७-ये लोके अनागमनमिणो' भवन्ति, न लोक में जो अनागमनधर्मी होते हैं, विस्रोतसिका-चैतसिक तु विस्रोतसिकयाभिभूताः पुनर्गहवासं जिगमिषन्ति । चंचलता से अभिभूत होकर पुनः गृहवास में जाना नहीं चाहते । हे शिष्य ! एते एव वस्तुतः नग्नाः उक्ताः । न केवलं हे शिष्य ! वे ही वस्तुतः नग्न कहे गए हैं। केवल अचेलता के कारण अचेलत्वमात्रेण ते नग्ना: उच्यन्ते । वे नग्न नहीं कहे जाते। एतादशा नग्ना एव एकान्तवासे वसन्ति, कामादि- इस प्रकार के नग्न पुरुष ही एकान्तवास में रहते हैं, काम संस्काराणामुन्मूलनं कर्तुं शक्नुवंति, नाभिनवान आदि के संस्कारों का उन्मूलन कर सकते हैं, और नए संस्कारों को संस्कारान् जनयन्ति । ये पुनर्गहं गन्तुमिच्छवो भवन्ति, पैदा नहीं करते । जो पुनः गृहवास में जाने के इच्छुक हैं, उनके संस्कार न तेषां संस्काराः क्षीणा जायन्ते, अतो मया यावज्जीवनं क्षीण नहीं होते, इसलिए मैंने जीवन पर्यन्त मुनित्व की आज्ञा दी है। मुनित्वं आज्ञप्तम् । (अर्थात् मुनि जीवन सावधिक नहीं होता।) ४८. आणाए मामगं धम्म । सं०-आज्ञाय मामकं धर्मम् । वे मेरे धर्म को जान कर-मेरी माज्ञा को स्वीकार कर आजीवन मुनि-धर्म का पालन करते हैं। भाष्यम् ४८-मया मुनिधर्मस्यानुपालनं यावज्जीवनं मैंने आजीवन मुनि-धर्म के पालन का निर्देश दिया है। निर्दिष्टं, तेन एतं मामकं धर्म आज्ञाय एते उत्पन्नेष्वपि इसलिए मेरे इस धर्म को जान कर ये मुनि परीषहों के उत्पन्न होने पर परीषहेषु न विचलिता भवेयुः, किन्तु यावज्जीवनं भी विचलित न हों, किन्तु यावज्जीवन उस मुनि-धर्म का पालन करें। तमनुपालयेयुः । ४६. एस उत्तरवादे, इह माणवाणं वियाहिते। सं०-एष उत्तरवादः इह मानवानां व्याहृतः । यह उत्तरवाद मनुष्यों के लिए निरूपित किया गया है । भाष्यम् ४९-एष अचेलपरिवासात्मको धर्मः यह अचेल अवस्था में रहने का धर्म उत्तरवाद है-उत्कृष्ट उत्तरवादो विद्यते, न तु साधारणोऽयं वादः। अचेलत्वे सिद्धांत है, यह साधारणवाद नहीं है । अचेल अवस्था में रहना और परिवसनं शीतादिपरीषहाणां सहनं च उत्कृष्टः उपदेशः शीत आदि परीषहों को सहना, यह उत्कृष्ट उपदेश मैंने मनुष्यों के १. आचाराग वृत्ति, पत्र २२० : अस्मिन् मनुष्यलोके अनागमनं धर्मों येषां तेऽनागमनधर्माणः, यथाऽरोपितप्रतिज्ञाभारवाहित्वान्न पुनगृहं प्रत्यागमनेप्सवः । २. आप्टे, नान:-Nacked. Uncultivated, uninhabi ted, desolale. ३. चू धर्मस्य वैकल्पिकोर्थः स्वभावः कृतोस्ति-'अहवा मामगो सहावो, सो य महं सुहस्समावो, एतेण अणुमाणेणं अन्नेवि ते गुणं सुहसमावा, तेण तश्विवक्खं अण्णेसि ण कुज्जा असुहं । (आचारांग चूणि, पृष्ठ २१४) ४. वृत्तिकार ने 'आणाए मामगं धम्म' इस पाठ के दो अर्थ किए हैं१. आज्ञा से मेरे धर्म का सम्यग अनुपालन करे। २. धर्म ही मेरा है, इसलिए मैं तीर्थकर की आज्ञा से उसका सम्यक् पालन करूं। (आचारांग वृत्ति, पत्र २२०) इस आलापक का 'मेरा धर्म मेरी आज्ञा में है' यह पारम्परिक अर्थ प्रचलित है। 'मामगं धम्म' यह कर्मपद है, इसलिए 'आणाए' का 'आज्ञाय' रूप मान कर इसका अनुवाद किया गया है। Jain Education international Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० आचारांगभाष्यम इह मानवानां मया व्याहृतः ।' लिए निरुपित किया है। ५०. एत्थोवरए तं झोसमाणे । सं. अत्रोपरतः तं जुषन् । विषय से उपरत साधक उत्तरवाद का आसेवन करता है। भाष्यम् ५०-अत्र उपरतः-कामविषयेभ्यः विरतः यहां काम और विषयों से विरत साधक उस यथोद्दिष्टधर्मतं यथोद्दिष्टधर्म स्पृशति, न च विषयासक्तः सुविधा- उत्तरवाद का आसेवन करता है । विषयों में आसक्त अथवा सुविधावादी वादी वा तादृशं उत्तरं धर्म आराधयितुं शक्नोति । साधक उस प्रकार के उत्कृष्ट धर्म का आराधन नहीं कर सकता। ५१. आयाणिज्ज परिण्णाय, परियाएण विगिचइ। सं०-आदानीयं परिज्ञाय पर्यायेण विनक्ति । वह मुनि वस्त्र के विषय में भलीभांति जानकर जीवन-पर्यन्त उसका विसर्जन कर देता है। भाष्यम् ५१–स मुनिः आदानीयं-वस्त्रं परिज्ञाय- वह मुनि आदानीय-वस्त्र के विषय में भलीभांति जान कर सम्यग् ज्ञात्वा पर्यायेण --यावद् मुनित्वपर्यायः तावत् मुनि-पर्याय--जीवन पर्यन्त उसका विसर्जन कर देता है । तत् विनक्ति-पृथक् करोति। ____ आदानीयं कर्म इत्यपि व्याख्यातमस्ति । धुतप्रकरणे 'आदानीय' का अर्थ कर्म भी किया गया है। धुत के प्रकरण कर्मणां विधननमपि नास्ति अप्रासंगिकम् । मुनिपर्यायः में कर्मों का प्रकंपन भी अप्रासंगिक नहीं है। मुनि-पर्याय कर्मों का कर्मापनयनाय सर्वोत्तमोस्ति उपायः । अपनयन करने के लिए सर्वोत्तम उपाय है। ५२. इहमेगेसि एगचरिया होति । सं०--इहैकेषां एकचर्या भवति । कुछ साधु अकेले रह कर साधना करते हैं। भाष्यम् ५२-भगवता महावीरेण द्विविधा मनिचर्या भगवान् महावीर ने दो प्रकार की मुनिचर्या का प्रतिपादन प्रज्ञप्ता-गणचर्या एकाकिचर्या च । अगीतार्थाय गणचर्या किया है-गणचर्या और एकाकीचर्या । अगीतार्थ मुनि के लिए गणचर्या एव सम्मतास्ति । गीतार्थाः पुनः बहुश्रुतगुरोराज्ञापूर्विकां ही सम्मत है । गीतार्थ मुनि बहुश्रुत गुरु की आज्ञा से एकाकीचर्या भी एकाकिचर्यामपि प्रतिपद्यन्ते। स्वीकार करते हैं। १. मुनि-धर्म को स्वीकार कर पुनः गृहवास में चले जाने वाले व्यक्ति को आगमनधर्मा कहा गया है। पुनः गृहवास में जाने का कारण है-परीषह सहने की अक्षमता। काम आदि अनुकूल परीषहों, आक्रोश-प्रहार आदि प्रतिकूल परीषहों तथा अचेल, भिक्षा जैसे लज्जाजनक परीषहों को सहन करने वाला पुनः गृहवास में नहीं जाता। वह अनागमनधर्मा होता है। भगवान् ने अहिंसा और परीषह-सहन-इन दो लक्षण वाले धर्म का निरूपण किया है। इस धर्म को जानने वाला ही परीषहों के आने पर अविचलित रह सकता है और अविचलित रहने वाला ही जीवन के अन्तिम श्वास तक मुनि-धर्म का पालन कर सकता है। ___ सब प्रकार के परीषहों को सहना, भयंकर परीषहों के उपस्थित होने पर भी मुनि-धर्म को न छोडना, यह उत्तरवाद है। २. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २१५: आदिज्जति आयत्ते वा आदाणीयं, जं भणितं-संसारबीजं पलियं मणिय तं जहा-प्रलीयते भवं येन, आदानमेव पलित। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २२० : आबीयत इत्यावानीयं ३. आचारांग चूणि, पृष्ठ २१५ : परियाओ णाम सामण्णपरियाओ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ६. धुत, उ० २. सूत्र ५०-५५ ५३. तत्थियराइयरेहिं कुलेहि सुद्धसणाए सव्वेसणाए । सं० तत्रेतरेतरेषु कुलेषु शुद्धेषणया सर्वेषणया | वे नाना प्रकार के कुलों में शुद्ध एषणा और सर्वेषणा के द्वारा परिव्रजन करते हैं । माध्यम् ५३ तत्र साधुभिविहारप्रायोग्ये ग्रामे नगरे मुनियों को विहार करने योग्य गांव अथवा नगर में अन्तप्रांत वा इतरेतरेषु' - अन्तप्रान्तेषु कुलेषु शुद्धेषणया सर्वेषणया कुलों में शुद्ध एषणा और सर्वेषणा के द्वारा परिव्रजन करना चाहिए । परिव्रजितव्यम् । शुष्णा-अलेपकृता । सर्वेषण सप्तापि पिण्डेषणाः । तत्र द्विकोटिकाः साधवः -- गच्छान्तर्गता गच्छनिर्गताश्च । गच्छनिर्गतानां कृते शुद्धपणाया निर्देश गच्छ्वासिनां कृते च सर्वेषणायाः । गच्छान्तर्गतानां सर्वाः सप्तापि पिण्डपणा अनुज्ञाताः । गच्छनिर्गतानां पुनराद्ययोः द्वयोरग्रहः, पञ्चस्वभिग्रहः । ५४. से मेहावी परिव्वए । सं० स मेधावी परिव्रजेत् । यह मेघावी परिवजन करे। भाष्यम् ५४ - स मेधावी परिव्रजेत्। अत्र परिव्रजेदिति क्रियापदेन तस्य अप्रतिबद्धता सूचितास्ति । एकचर्या प्रतिपन्नो मुनिः न क्वचित् स्थिरवासी भवति । ५५. सुमि अदुवा मि सं० 'सुभि" अथवा 'दुब्भिम्' ।" वह मनोज्ञ या अमनोज्ञ शब्दों को सहन करे । " १. आचारांग चूर्णि, पृष्ठ २१५: इतर इतरं इतरेतरं, कम्मो गहितो ण उमाह सीमासातो वा अतरं बुच्चति, इतरा इतरं जंतवो विणिकट्टतरं जाव वमगकुलं, एवमितरा [इतर इतरेतरं भवति । २. द्रष्टव्यम् - आयारचूला १।१४१-१४७ । ३. पूर्ण (पृष्ठ २१५) एतत् सूत्रं मन्यवासिगदनिगं तयोः द्वयोरपेक्षया व्याख्यातमस्ति - सुद्धेसणाए अलेवकडाए, चत्तारि उवरिल्ला, एताओ गच्छणिग्गयाणं, तत्थ पंचसु अग्गो अभिग्गही अण्णतरियाए, सब्वेसणाएत्ति गच्छवासी साहिति मिति । प्रवचनसारोद्धारस्य बुतावपि (पत्र २१५) अर्थ ३२१ शुषमा का अर्थ है अपकृत भोजन अर्थात वैसा भोजन जिसका लेप न लगे । वह मुनि कभी श्मशान प्रतिमा को स्वीकार करता है। तब भाष्यम् ५५ स कदाचित् श्मशानप्रतिमां प्रतिपद्यते तदानीं 'सुब्भि' मनोज्ञा: 'दुब्भि' अमनोज्ञा वा शब्दा' उसे मनोज्ञ अथवा अमनोज्ञ शब्द सुनाई देते हैं । वह उन सबको सर्वेषणा का अर्थ है-सात प्रकार की पिण्डेषणाएं - अर्थात् आहार ग्रहण से लेकर आहार करने तक की सारी एषणाएं । साधुओं की दो श्रेणियां हैं- गच्छान्तर्गत ( संघबद्ध साधना करने वाले) तथा गच्छनिर्गत (बंधमुक्त साधना करने वाले)। गच्छ निर्गत मुनियों के लिए षणा का और मन्थान्तर्गत मुनियों के लिए सर्वेषणा का निर्देश है। गण्डान्तर्गत मुनियों के लिए सभी सातों पिण्डैषणाएं अनुज्ञात हैं । गच्छनिर्गत मुनियों के लिए प्रथम दो पिण्डैषणाएं अग्राह्य हैं और शेष पांच पिण्डेषणाओं में वे अभिग्रह करते हैं । वह मेधावी मुनि परिव्रजन करे। यहां 'परिव्रजन करे - इस क्रियापद से उसकी अप्रतिबद्धता सूचित की है। एकलचर्या को स्वीकार करने वाला मुनि कहीं स्थिरवासी नहीं होता । विभागो दृश्यते - इह च द्विकोटिकाः साधवो गच्छान्तर्गता गच्छनिर्गताश्च तत्र गच्छान्तर्गतानामेताः सप्तापि ग्रहीतुमनुज्ञाताः गच्छनिर्गतानां पुनराद्ययोः द्वयोरग्रहः पञ्चस्यभिग्रहः । ४,५. देशीपदे । ६. चूणां वृत्तौ च अनयोः गंधविषयकोऽर्थः कृतोस्ति (क) आचारांग चूमि, पृष्ठ २१५ गंधकामपरिण्यागो भणितो । अहवा मि (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २२० : स आहारस्तेष्वितरेषु कुलेषु सुरभिर्वा स्यात् अथवा दुर्गन्धः, न तंत्र रागद्वेषी यात् Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ आचारांगभाष्यम् उपगता भवन्ति, तान् सर्वान् अधिसहेत । 'सुभि दुभि' सहन करे । 'सुब्भि' और 'दुब्भि'-इन दोनों शब्दों से गंध का अर्थ पदाभ्यां गंधस्यार्थः संभवति, किन्तु अत्र आहारस्य निकलता है, किन्तु यहां आहार का विषय प्रस्तुत नहीं है। अग्रिम विषयः प्रस्तुतो नास्ति । अग्रिमसूत्रे 'अदुवा तत्थ भेरवा' सूत्र में 'अदुवा तत्थ भेरवा'-'अथवा वहां भैरव रूपों को इति उक्तमस्ति । 'तत्र' इति पदेन 'श्मशाने' इति देखकर'-ऐसा कहा है। उस सूत्र में 'तत्र' पद से श्मशान में ऐसा गृहीतम् ।' 'अदुवा' इति पदेन 'सुब्भि दुब्भि' पदयो- अर्थ अभिप्रेत है। 'अथवा' पद से सुब्भि-दुब्भि-इन दो पदों का विकल्पः सूचितः । एतेन सुभि दुब्भि पदाभ्यां मनोज्ञा विकल्प सूचित किया गया है। इस विकल्प के अनुसार इन दोनों पदों अमनोज्ञाः शब्दाः अत्र गृहीताः। 'नायाधम्मकहाओ' से मनोज्ञ-अमनोज्ञ शब्द गृहीत हैं । ज्ञाताधर्मकथा सूत्र में 'सुब्भि-दुब्भि' सूत्रे 'सब्भि दुभि' पदयोः गन्धवत् शब्देनापि संबंधः पदों का संबंध गंध की भांति शब्द से भी प्रतिपादित है । श्मशान प्रतिपादितोऽस्ति । श्मशानप्रतिमायां शब्दादिरूपा प्रतिमा में शब्द आदि के उपसर्ग उत्पन्न होते ही हैं। उपसर्गा संभवन्त्येव । ५६. अदुवा तत्थ भेरवा। सं०-अथवा तत्र भैरवाः । अथवा श्मशान में भैरव रूपों को देखकर भयभीत न बने । भाष्यम् ५६-अथवा तत्र एमाशानियां प्रतिमायां अथवा प्रमशान-प्रतिमा में भैरवों का प्रादुर्भाव होता है। भैरवाः प्रादुर्भवन्ति । भैरवाः–भयानकानि रूपाणि। भैरव का अर्थ है-भयानक रूप । दशवकालिक सूत्र में कहा हैउक्तञ्च दसवेआलियसूत्रे-'पडिमं पडिवज्जिया मसाणे, श्मशान में प्रतिमा को स्वीकार कर साधक भय उत्पन्न करने वाले नो भायए भय भेरवाई विस्स ।'५ भयानक रूपों को देखकर डरे नहीं। ५७. पाणा पाणे किलेसंति । सं० ---प्राणाः प्राणान् क्लेशयन्ति । हिस्र प्राणी प्राणों को क्लेश पहुंचाते हैं। भाष्यम् ५७-अस्मिन् सूत्रे जीवानां प्रकृतिनिरू- इस सूत्र में जीवों की प्रकृति का निरूपण है । जैसे समुद्र में पिताऽस्ति । यथा समुद्रे मात्स्यन्यायः प्रवर्तते-महान् 'मात्स्य-न्याय' चलता है-बड़ी मछली छोटी मछली को निगल जाती मत्स्यः क्षुद्रं मत्स्यं गिलति, तथा हिंस्राः पशवः पक्षिणश्च है, वैसे ही हिंस्र पशु-पक्षी अन्य प्राणियों को मार डालते हैं । मनुष्यों इतरान् प्राणिनः निघ्नन्ति । मनुष्येष्वपि एषा प्रकृति- में भी इस प्रकार की प्रकृति होती है। हिंस्र प्रकृति वाले मनुष्य १. (क) आचारांग वृत्ति, पत्र २२० : अथवा तत्रकाकिविहा गहिता अक्कोसा, तद्यथा-णिभत्थणादि, एवं रित्वे पितृवनप्रतिमाप्रतिपन्नस्य सतः। रूवाणि वि भेरवाई भवति, जहा 'तस्स पिसायस्स (ख) चूणों (पृष्ठ २१५) 'अहवा तत्थ विहरतस्स' इति अयमेवारूवे वण्णावासे पणते, तं जहा-सीसं से व्याख्यातमस्ति। गोकिलंजसंठाणसंठिती,' गंधावि अहिमडादि उव्वेय२. अंगसुत्ताणि ३, नायाधम्मकहाओ ११२९ : सुम्भिसद्दा णया, भयं करेंति ति भेरवा, रसा तत्थेव, फरिसा वि वि पोग्गला दुब्भिसद्दत्ताए परिणमंति।....."सुग्भिगंधा छेदभेददाहादि । (आचारांग चूणि, पृष्ठ २१५-१६) वि पोग्गला दुग्भिगंधत्ताए परिणमंति, दुग्भिगंधा वि (ख) वृत्तौ भैरवपदेन प्राधान्येन शब्दा एव गृहीताः सन्तिपोग्गला सुन्मिगंधत्ताए परिणमंति। भैरवा भयानका यातुधानाविकृताः शब्दाः प्रादुर्भवेयुः, ३. नवसुत्ताणि, दसाओ ७३२ : एगराइयण्णं भिक्खुपडिम यदि वा 'भैरवाः' 'बीभत्साः'। पडिवन्नस्स अणगारस्स णिच्चं वोसट्टकाए चत्तदेहे जे केइ उवसग्गा उववज्जंति, तं जहा-दिव्वा वा माणुस्सा वा (आचारांग वृत्ति, पत्र २२०) तिरिक्खजोणिया वा, ते उप्पन्ने सम्म सहति खमति ५. दसवेआलियं, १०।१२। तितिक्खति अहियासेति। ६. आचारांग चूणि पृष्ठ २१६ : पाणा सीहा वग्धा पिसायादि, ४. (क) चूणौं भैरवपदेन शब्दादिविषयाणां ग्रहणं कृतमस्ति पुणरवि पाणाओ पाणादि, जं भणितं भैरवा प्राणा, साहुस्स –'अहवा तत्थ विहरंतस्स भयाणगा भेरवा सद्दा आउप्पाणादि। Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ६. धुत, उ० २,३. सूत्र ५६-६० ३२३ रस्ति। हिंस्रप्रकृतयो मनुष्याः मनुष्यानपि क्लेशपूर्णां मनुष्यों को भी क्लेशपूर्ण अवस्था में डाल देते हैं। दशां नयन्ति ।' ५८. ते फासे पुटो धोरो अहियासेज्जासि ।-त्ति बेमि । सं०-तान् स्पर्शान् स्पृष्टः धीरः अधिसहेत । इति ब्रवीमि । उन स्पर्शो परीषहों से स्पृष्ट होने पर धीर मुनि उन्हें सहन करे। ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् ५८-परिव्रजनकाले श्मशानप्रतिमायां वा परिव्रजन काल में अथवा श्मशान-प्रतिमा में होने वाले प्राग् जायमानैः प्रागनिरूपितैः स्पर्श : स्पृष्टः सन् धीरो मुनिः निरूपित परीषहों से स्पृष्ट होने पर धीर मुनि उन इष्ट-अनिष्ट परीषहों तान् इष्टानिष्टान् स्पर्शान् अधिसहेत। धीरः- को सहन करे। धीर का अर्थ है -निर्मल, अनु विग्न, बर्ची से काटे अनाविलः, अनुद्विग्नः वासीचन्दनकल्पः ।। जाने और चन्दन का लेप किए जाने पर समभाव में रहने वाला । तइओ उद्देसो : तीसरा उद्देशक ५६. एयं खु मुणी आयाणं सया सुअक्खायधम्मे विधतकप्पे णिज्झोसइता। सं०-- एतत् खलु मुनिः आदानं सदा स्वाख्यातधर्मा विधूतकल्पः निःशोषिता । सदा सु-आख्यात धर्म वाला तथा धुत-आचार सेवी मुनि इस आदान (वस्त्र) का परित्याग कर देता है। भाष्यम् ५९–स्वाख्यातधर्माः विधूतकल्पो मुनिः सु-आख्यात धर्म वाला तथा धुत-आचार सेवी मुनि सदा इस सदा एतद् आदानं क्षपयिता भवति। आदान- आदान का परित्याग कर देता है। आदान का अर्थ है-वस्त्र । कल्प वस्त्रम। कल्पः-आचारः। विधूतः कल्पो यस्य स का अर्थ है-आचार। जिसका आचार 'धुत' है वह 'विधूतकल्प' विधूतकल्पः । कहलाता है। ६०. जे अचेले परिवसिए, तस्स णं भिक्खुस्स णो एवं भवइ-परिजुण्णे मे वत्थे वत्थं जाइस्सामि, सुत्तं जाइस्सामि, सूई जाइस्सामि, संधिस्सामि, सीवीस्सामि, उक्कसिस्सामि, बोक्कसिस्सामि, परिहिस्सामि, पाउणिस्सामि। सं०-यः अचेलः पर्युषितः, तस्य भिक्षोः नो एवं भवति--परिजीणं मे वस्त्रं वस्त्रं याचिष्ये, सूत्रं याचिष्ये, सूचि याचिष्ये, संधास्यामि, सेविष्यामि, उत्कर्षयिष्यामि, व्युत्कर्षयिष्यामि, परिधास्यामि, प्रावरिष्यामि । जो निर्वस्त्र रहता है, उस भिक्षु के मन में यह (विकल्प) उत्पन्न नहीं होता, 'मेरा वस्त्र जीर्ण हो गया है, इसलिए मैं वस्त्र की याचना करूंगा। फटे वस्त्र को सांधने के लिए धागे की याचना करूंगा, सूई की याचना करूंगा, उसे साधूंगा, उसे सोऊंगा। छोटा है, इसलिए उसे जोड़कर बड़ा बनाऊंगा। बड़ा है, इसलिए उसे काट कर छोटा बनाऊंगा। उसे पहनूंगा और ओढुंगा । १. आचारांग चूणि, पृष्ठ २१६ : किलेसंति-परिताति वा स्थानांग (३१५०७) में स्वाध्याय ध्यान और किलेसंति वा उद्दति वा। तपस्यात्मक धर्म को स्वाख्यात धर्म कहा गया है२. वही, पृष्ठ २१६ : धीमां धीरो, समं अणाइले अणम्वि सुअधिज्झिते सुज्माइते सुतवस्सिते सुयक्खाते णं ग्गो वासीचंदणकप्पो। भगवता धम्मे पण्णत्ते। ३. स्वाख्यात का शाब्दिक अर्थ है-सम्यक् प्रकार से कहा ४. आचारांग वृत्ति, पत्र २२१ : 'झोषयित्वा'। गया। भगवान ने समता धर्म का प्रतिपादन किया। वह ५. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २१७ : आताणं-आयाणं नर्यात्रिक-निर्वाण तक पहुंचाने वाला, सत्य-अनेकान्त नाणादितियं । दृष्टिकोण से युक्त, संशुद्ध-राग, द्वेष और मोह रहित (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २२१ : आदानं-वस्त्रादि । तया प्रत्युत्पन्न-वर्तमान क्षण में आश्रव का निरोध और ६. आचारांग चूणि, पृष्ठ २१७ : कप्पोत्ति वा मग्गोत्ति वा बंध की निर्जरा करने वाला है, इसलिए वह स्वास्यात है। आयारोत्ति वा धम्मोत्ति वा एगट्टा। Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ आचारांगभाष्यम् ___ भाष्यम् ६० --पूर्वसूत्रेषु (४०-५१) अचेलकपरिवासः पूर्ववर्ती बारह सूत्रों (४० से ५१) में अचेलक परिवास का प्रतिपादितः । इदानीं पुनरपि तस्य गुणान् प्रतिपादयति प्रतिपादन किया गया है। अब पुनः सूत्रकार अचेलक अवस्था के गुणों सूत्रकारः --यः भिक्षुः अचेलः पर्युषितः तस्य वस्त्रे का निरूपण कर रहे हैं जो मुनि निर्वस्त्र रहता है, उसके मन में परिजीणे नववस्त्रस्य, सूत्रस्य, सूच्या वा याचनायाः, वस्त्र के फट जाने पर नए वस्त्र का, धागा या सूई की याचना का, सन्धानस्य' सीवनस्य, तस्य उत्कर्षणस्य अपकर्षणस्य' वस्त्र को सांधने और सीने का तथा छोटे वस्त्र को जोड़ कर बड़ा वा परिधानस्य प्रावरणस्य वा विकल्पाः न बनाने का, बड़े वस्त्र को काट कर छोटा बनाने का, पहनने और सजायन्ते । ओढने का-ये सारे विकल्प नहीं उठते । यावती अपेक्षा तावान् विकल्पः संजायते। यथा जितनी अपेक्षा होती है, उतना विकल्प होता है। जैसेयथा अपेक्षा स्वल्पा भवति तथा तथा विकल्पा अपि जैसे अपेक्षा कम होती जाती है, वैसे-वैसे विकल्प भी तनु-अल्प होते तनवो भवन्ति । विकल्पः पदार्थस्य अपेक्षाजनितो जाते हैं। विकल्प पदार्थ की अपेक्षा से उत्पन्न होता है, यही इसका भवतीति हृदयम् । हार्द है। ६१. अदुवा तत्थ परक्कमंतं भुज्जो अचेलं तणफासा फुसंति, सोयफासा फुसंति, तेउफासा फुसंति, दंसमसगफासा फुसंति । सं०-अथवा तत्र पराक्रममाणं भूयः अचेलं तृणस्पर्शाः स्पृशन्ति, शीतस्पर्शाः स्पृशन्ति, तेजस्स्पर्शाः स्पृशन्ति, दंशमशकस्पर्शाः स्पृशन्ति । अथवा अचेल-अवस्था में रहते हुए उसे बार-बार तृण, सर्दी, गर्मी और दंशमशक के स्पर्श पीडित करते हैं। भाष्यम् ६१-अथवा तस्यां अचेलावस्थायां पराक्रम- अथवा उस अचेल-अवस्था में रहते हुए अचेल मुनि को कुश माणं अचेल मुनि भूयः---पुनः पुनः कुशादितृणशय्यायां आदि की तृण-शय्या में सोने के कारण बार-बार तृण-स्पर्श पीडित तृणस्पर्शाः स्पृशन्ति । शिशिरे शीतस्पर्शाः स्पृशन्ति। करते हैं । शीतकाल में सर्दी का कष्ट सताता है। ग्रीष्म ऋतु तथा ग्रीष्मे शरदि च तेजःस्पर्शाः५ स्पृशन्ति, दंशमशकस्पर्शा शरद् ऋतु में उष्ण स्पर्श पीडित करता है और दंशमशक के स्पर्श भी अपि स्पृशन्ति । बाधित करते हैं। ६२. एगबरे अण्णयरे विरूवरूवे फासे अहियासेति अचेले। सं० एकतरान अन्यतरान् विरूपरूपान् स्पर्शान् अधिसहते अचेलः । अचेल मुनि एकजातीय, मिन्नजातीय-नाना प्रकार के स्पर्शो को सहन करता है। भाष्यम् ६२-पूर्वसूत्रोक्तपरीषहेषु एकतरान्, अन्य- अचेल मुनि पूर्वसूत्रों में निर्दिष्ट परीषहों में से एकजातीय तथा तरान् --भिन्नजातीयान् विरूपरूपान् इति नानारूपान् भिन्नजातीय नाना प्रकार के स्पर्शो-परीषहों को सहन करता है। स्पर्शान् अधिसहते अचेलो मुनिः । द्रष्टव्यम्---६।४४ सूत्रस्य भाष्यम् । देखें-६।४४ सूत्र का भाष्य । ६३. लाघवं आगममाणे । सं० लाघवं आगच्छन् । अचेल मुनि लाघव को प्राप्त होता है । १. आचारांग चूणि, पृष्ठ २१८ : संधणा दोण्हालीणं अहवा छिण्णस्स वा फालियस्स वा। २. वही, पृष्ठ २१८ : उक्कसणं णाम होणपमाणं गाउं पासेहि दिग्घत्तेण वा वड्ढति, तस्सेवऽवकरिसणं वा । ३. वही, पृष्ठ २१८ : उरि पाउरणं । ४. वही, पृष्ठ २१८ : वत्तव्वयं बहुवयणं तं जाणवेइ, तिव्व___ मंदमज्झिमाणि । ५. वही, पृष्ठ २१८ : तेजो आविच्चो, तेजो मंतो, तेजो तेजस्स संफासा तेउफासा, जं भणियं-उण्हफासा, गिम्हे सरते य। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ६.धुत, उ० ३. सूत्र ६१-६५ ३२५ भाष्यम् ६३-अचेल: मुनिः लाघवं आगच्छति । अचेल मुनि लाघव को प्राप्त होता है। लघु का भाव लाघव लघोर्भाव: लाघवम् । तद् द्विधा-द्रव्यतः भावतश्च । है। बह दो प्रकार का है-द्रव्यलाधव और भावलाघव । उपकरणों उपकरणलाघवं द्रव्यलाघवं, अनुद्धतत्वं भावलाघवम्। की लघुता द्रव्यलाघव है और उइंडता का परिहार भावलाघव है। अत्र उपकरणलाघवं अधिकृतम् । 'आगममाणे' इति यहां उपकरणलाघव का अधिकार है । 'आगममाणे' का अर्थ है--- आगच्छन् आसेवमान इति यावत् ।' आता हुआ । तात्पर्य में इसका अर्थ है-आसेवन करता हुआ। . चूणी उपकरणलाघवभावलाघवयोश्च अन्योन्यत्वं चूणि में उपकरणलाघव और भावलाधव की परस्परता प्रदर्शित प्रदर्शितम्--- उवगरणलाधवाओ भावलाघवं, भावलाधवाओ य उवगरण- उपकरणलाघव से भावलाघव और भावलाघव से उपकरण लाघव लाघवं, अतो अण्णोणं, अविक्खित्ता अविरोहो, एवं भावलाघ- प्राप्त होता है । इसलिए ये दोनों एक दूसरे का परिहार नहीं करते। वाओ कम्मलाघवं कम्मलाघवाओ पसत्थं मावलाघवं अतो दोनों में अविरोध है । इसी प्रकार भावलाघव से कर्मलाधव प्राप्त अविरोहो, ततो सिद्हें लापवितं ।' होता है और कर्मलाघव से प्रशस्त भावलाघव होता है । इसलिए दोनों में अविरोध है । यह लाधव की अनुशासना है। ६४. तवे से अभिसमण्णागए भवति । सं०-तपः तस्य अभिसमन्वागतं भवति । अचेल मुनि के तप सम्यग् उपलब्ध होता है। भाष्यम् ६४-तस्य अचेलस्य मुनेः अचेलत्वं तपः उस अचेल मुनि के अचेलत्व-तप अभिसमन्वागत-सम्यक रूप अभिसमन्वागतं-सम्यग उपलब्धं भवति । तप इति में उपलब्ध होता है। तप का तात्पर्य है-उपकरणों की अल्पता उपकरणानां अवमौदर्य कायक्लेशो वा । अथवा कायक्लेश। ६५. जहेयं भगवता पवेदितं तमेव अभिसमेच्चा सव्वतो सम्वत्ताए समत्तमेव समभिजाणिया । सं.-यथैतत् भगवता प्रवेदितं तदेव अभिसमेत्य सर्वतः सर्वात्मतया समत्वमेव समभिजानीयात् ।। भगवान् ने जमे अचेलत्व का प्रतिपादन किया है, मुनि उसे उसी रूप में जान कर, सब प्रकार से, सर्वात्मना समत्व का ही सेवन करे। भाष्यम् ६५-इदं अचेलत्वं भगवता यथा प्रवेदितं भगवान् ने इस अचेलत्व का जैसा प्रतिपादन किया है उसके तदेव अभिसमेत्य-तस्य फलानि सम्यग् विज्ञाय, सर्वतः फलों को सम्यक् प्रकार से जानकर मुनि सभी क्षेत्र और सभी काल में -सर्वस्मिन् क्षेत्रे काले च, सर्वात्मना-सत्यभावेन न तु सर्वात्मना-यथार्थभाव से अर्थात् बिना किसी प्रवंचना, भय और कैतवेन, भयेन, मायया वा समत्वमेव समभिजानीयात् माया से समत्व का ही अनुपालन करे- न आत्मोत्कर्ष का अनुभव करे १. आचारांग चूणि, पृष्ठ २१८-२१९ : तं आगमेमाणे आसेव ___अहवा समभावो सम्मत्तमिति, जेवि एते अचेलगत्तं" माणे, तं अप्पाणं परिसयमाणे । ण भाति ते वि अचेलगत्तं फासंति, जं भणितं-ण अव२. वही, पृष्ठ २१९ । मन्नति, भणियं वा 'जो वि दुवत्थ तिवत्यो' गाथा ॥ ३. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २१९ : अभिमुहं सं अणु आगते जिनकप्पिओ पुण जति एक्केणं संथरति एक्कं चेव धारेंति, - अभिसमण्णागते, जं भणितं-सम्म उवलद्धे। परेण वा तिण्हं गच्छवासी, गच्छणिग्गया पुण तिण्णि वा (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २२२ : तपः कायक्लेशरूपतया दुण्णि वा एक्कं वा धारेंति अचेलभावा, सम्वेऽवि ते भगवतो बाह्यमभिसमन्वागतं भवति-सम्यग् आभिमुख्येन आणाए उवट्ठिता - आणाए आराधगा भवंति, एवं सेसाणं सोढं भवति । वत्थाणं वा, तहा सचेलाणं अचेलाणं च आराहणं प्रति ४. चूर्णी वृत्तौ च 'सम्मत्तं' (सम्यक्त्वं) इति मूलपाठः व्या सम्मत्तं समभिजाणमाणे आराधओ भवतीति वक्कसेसं । ख्यातः, 'समत्तं' (समत्वं) इति तत्र वैकल्पिकः पाठः-- (आचारांग चूणि, पृष्ठ २१९-२२०) पसत्यो-सोमणो एगो संगतो वा भावो संमत्तं । वृत्तिकारेण 'सर्वतः' प्रभृति पाठस्य वैकल्पिकः 'प्रशस्तः शोभनश्चव, एकः संगत एवं वा । अर्थोपि कृतोस्ति-यदिवा तदेव लाघवमभिसमेत्य सर्वतो इत्येतैरुपसृष्टस्तु, भावः सम्यक्त्वमुच्यते ॥' द्रव्यादिना सर्वात्मना नामादिना सम्यक्त्वमेव सम्यगभिजा Jain Education international Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ आचारांगभाष्यम -नात्मनः उत्कर्ष अनुभवेत् न च सचेलान् मुनीन् और न सचेल मुनियों की अवहेलना करे। वृत्ति में इसी संदर्भ की अवमन्येत । अत्र वृत्तौ गाथात्रयं उद्धृतमस्ति' तीन गाथाएं उद्धृत हैंजोऽवि दुवत्थतिवत्यो एगेण अचेलगो व संथरइ। 'कोई मुनि दो वस्त्र रखता है, कोई तीन वस्त्र, कोई एक ण हु ते हीलंति परं सम्वेऽपि य ते जिणाणाए । वस्त्र और कोई निर्वस्त्र रहता है। वे एक दूसरे की अवहेलना न करें, क्योंकि वे सब तीर्थकर की आज्ञा में हैं।' जे खलु विसरिसकप्पा संघयणधिइयादिकारणं पप्प । ___'जो मुनि संहनन, धृति आदि कारणों से विसदृश आचार वाले णऽवमन्नइ ण य हीणं अप्पाणं मन्नई तेहिं ॥ हैं, वे न दूसरों की अवमानना करें और न स्वयं को उनसे हीन मानें ।' सम्वेऽवि जिणाणाए जहाविहिं कम्मखवणअट्ठाए । 'सभी मुनि जिनेश्वर देव की आज्ञा में हैं और वे सब कर्मक्षय विहरंति उज्जया खलु सम्म अभिजाणई एवं ॥ के लिए यथाविधि (अपनी-अपनी विधि के अनुसार) संयम का पालन करते हुए विहरण करते हैं-ऐसा वह सम्यग्रूप से जानता है। अचेलत्वस्य लाभाः स्थानाने उत्तराध्ययने चापि अचेलत्व के लाभों का निदर्शन स्थानांग और उत्तराध्ययन सूत्र दृश्यन्ते । स्थानांगे यथा में भी परिलक्षित होता है । स्थानांग में, जैसेपंचहि ठाणेहि अचेलए पसत्ये भवति, तं जहा पांच स्थानों से अचेलत्व प्रशस्त होता है१. अप्पा पडिलेहा। १. उसके प्रतिलेखना अल्प होती है। २. लापविए पसत्थे। २. उसका लाघव प्रशस्त होता है। ३. रुवे बेसासिए। ३. उसका रूप (वेश) विश्वास योग्य होता है। ४. तवे अणुण्णाते। ४. उसका तप अनुज्ञात-जिनानुमत होता है। ५. विउले इंदियनिग्गहे। ५. उसके विपुल इन्द्रिय-निग्रह होता है । तथा चोत्तराध्ययने उत्तराध्ययन के अनुसारपडिरूवयाए णं भंते जीवे कि जणयइ? 'भन्ते ! प्रतिरूपता-जिनकल्पिक जैसे आचार का पालन करने से जीव क्या प्राप्त करता है ?' पडिलवयाए णं लावियं जणयइ। लहुभूए णं जीवे 'गौतम ! प्रतिरूपता से वह हल्केपन को प्राप्त होता है । अप्पमत्ते पागडलिंगे पसत्यलिंगे विसुखसम्मत्ते सत्तसमिइसमत्ते उपकरणों के अल्पीकरण से हल्का बना हुआ जीव अप्रमत्त, प्रकटलिंग सवपाणभूयजीवसत्तेसु वीससणिज्जरूवे अप्पडिलेहे जिइंदिए वाला, प्रशस्तलिंग वाला, विशुद्ध सम्यक्त्व वाला, पराक्रम और विउलतवसमिइसमन्नागए यावि भवइ ।' समिति से परिपूर्ण, सर्व प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों के लिए विश्वसनीय रूप वाला, अप्रतिलेखन वाला, जितेन्द्रिय तथा विपुल तप और समितियों का सर्वत्र प्रयोग करने वाला होता है। नीयात्, तीर्थकरगणधरोपदेशात ___सम्यक्कुर्यादिति तात्पर्यार्थः ।........ प्रशस्तः शोभनश्चैव, एकः सङ्गत एव च । इत्येतैरुपसृष्टस्तु, भावः सम्यक्त्वमुच्यते ॥ तदेवम्भूतं सम्यक्त्वमेव समत्वमेव वा 'समभिजानीयात्' सम्यगाभिमुख्येन जानीयात् --परिच्छिन्द्यात्, तथाहि अचेलोऽप्येकचेलादिकं नावमन्येत । (आचारांग वृत्ति, पत्र २२२) कोई मुनि तीन वस्त्र रखता है, कोई दो, कोई एक और कोई निर्वस्त्र रहता है। किन्तु वे एक-दूसरे की अवहेलना नहीं करते, क्योंकि वे सब तीर्थंकर की आज्ञा में विद्यमान हैं। यह आचार की भिन्नता शारीरिक संहनन, घृति आदि हेतुओं से होती है। इसलिए अचेल रहने वाला सचेल मुनि की अवज्ञा नहीं करता और अपने को उससे उत्कृष्ट भी नहीं मानता। आयारचूला (५-२१) में बतलाया गया है कि वस्त्र की प्रतिमाओं को स्वीकार करने वाला मुनि यह न कहे--'वे भदन्त मिथ्या प्रतिपन्न हैं, मैं सम्यक् प्रतिपन्न हूं। किन्तु यह सोचे-'हम सब तीर्थकर की आज्ञा के अनुसार संयम का अनुपालन कर रहे हैं।' यह समत्व का अनुशीलन है। १. आचारांग वृत्ति, पत्र २२२ । २. अंगसुत्ताणि १, ठाणं, श२०१। ३. उत्तरज्झयणाणि-२९/सूत्र ४३ । Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ६. धुत, उ० ३. सूत्र ६६-६७ ३२७ ६६. एवं तेसि महावीराणं चिरराइं पुवाई वासाणि रीयमाणाणं दवियाणं पास अहियासियं । सं०-एवं तेषां महावीराणां चिररात्रं पूर्वाणि वर्षाणि रीयमाणानां द्रव्याणां पश्य अधिसोढम् । जीवन के पूर्व भाग में दीक्षित होकर जीवन-पर्यन्त संयम में चलने वाले, चारित्र-सम्पन्न और पराक्रमी साधुओं ने इस प्रकार जो सहन किया, उसे तू देख । भाष्यम् ६६ -एतद् अचेलत्वं नाशक्यानुष्ठानं इति 'यह अचेलत्व की साधना अशक्य अनुष्ठान नहीं है'-यह दर्शयति सूत्रकारः । एवमिति अचेलतया पर्युषिताः सन्ति प्रतिपादित कर रहे हैं सूत्रकार - महावीराः द्रव्याः-रागद्वेषविजयिनः तथा चिररात्रं- जो जीवन के पूर्व भाग-प्रथम वय अथवा द्वितीय वय में यावज्जीवं, पूर्वाणि वर्षाणि रीयमाणाः प्रथमे द्वितीये प्रव्रजित होकर जीवन पर्यन्त अचेल अवस्था में साधना करने वाले वा वयसि प्रवजिताः, तैः यद् यद् शीतस्पर्शादिकष्टं महापराक्रमी और राग-द्वेष पर विजय पाने वाले उन साधकों ने जिनअधिसोढं तत् त्वं पश्य । जिन शीतस्पर्श आदि कष्टों को सहन किया है, उसे तू देख । ६७. आगयपण्णाणाणं किसा बाहा भवंति, पयणुए य मंससोणिए । सं०-आगतप्रज्ञानानां कृशाः बाहवो भवन्ति, प्रतनुकं च मांसशोणितम् । प्रज्ञा-प्राप्त मुनियों की भुजाएं कृश होती हैं, मांस और रक्त भी अल्प होते हैं। भाष्यम् ६७–आगतम्'–परोपदेशात् श्रुतं उपलब्धं आगत का अर्थ है-दूसरे के उपदेश से सुना हुआ अथवा वा । प्रज्ञानम्-प्रकर्षमुपनीतं ज्ञानं, प्रातिभं वा । चूर्णि- उपलब्ध किया हुआ। प्रज्ञान का अर्थ है- प्रकर्ष को प्राप्त ज्ञान अथवा कारस्य अभिमते एतत् प्रज्ञानं आभिनिबोधिकान्त- प्रातिभज्ञान । चूर्णिकार के अनुसार इस प्रज्ञान का समावेश आभिर्गतमेव, न तु आत्मप्रत्यक्षम् । एवं तेषां आगतप्रज्ञानानां निबोधिक ज्ञान-मतिज्ञान के अन्तर्गत होता है । यह आत्म-प्रत्यक्ष अभिनवज्ञानं गलतां पूर्वगहीतं परिवर्तयतां नित्यं ज्ञान नहीं है। इस प्रकार उन प्रज्ञाप्राप्त तथा अभिनव ज्ञान को स्वाध्यायध्यानप्रयोगेण अन्येन तपसा वा आत्मानं उपलब्ध करते हुए, पूर्व गृहीत ज्ञान की पुनरावृत्ति करते हुए तथा भावयतां भुजाः कृशा भवन्ति, मांसशोणितमपि च प्रतिदिन स्वाध्याय और ध्यान के प्रयोगों से तथा अन्यान्य तपस्याओं प्रतनु भवति । भुजयोः कृशत्वं शरीरस्य कृशत्वं से अपनी आत्मा को भावित करते हुए उन मुनियों की भुजाएं कृश सूचयति । होती हैं तथा मांस और शोणित भी अल्प होता है । भुजाओं की कृशता शरीर की कृशता की ओर संकेत करती है। १. आचारांग वृत्ति, पत्र २२२ : एतच्च नाशक्यानुष्ठानं पच्चक्खणाणाणि आयसमुत्थाणि पसत्थेहि अन्नवसाणेहि ज्वरहरतक्षकचूडालङ्काररत्नोपदेशवद् भवतः केवलमुपन्य लेस्साहिं विसुज्ममाणाहिं उप्पज्जति । स्यते, अपि त्वन्यर्बहुभिश्चिरकालमासेवितमित्येतद्दर्शयितु ६७६ सूत्रस्य चूर्णी (पृष्ठ २२७-२२८) प्रज्ञानस्य माह। विषये किञ्चिद् विशिष्टं प्रतिपादितमस्ति-साहु आदितो २. चूणौं पूर्वपदं पारिभाषिकत्वेन व्याख्यातमस्ति -पुब्वाइं वा गाणं पण्णाणं, तं आयरियं पइ लम्मति, अहवा वासाइं पुव्वाइं पुवाउएहि, मणुस्सेसु आसि पुरुवाउया पण्णाणं बुद्धिमितिकाउं आभिणिबोहियं गहितं, जहा तहा मणुस्सा, जाव सीतलो ताव आसी, भणियं च--'एगं च जं भणितं पटुता, मइपुथ्वगं च सुत्तमितिकाउं तवंतग्गतमेव, सयसहस्सं पुव्वाणं आसि सीयलजिणस्स' तेणारेण वाससय तत्थ सुयलं भा णियमा मतिलंभो, सुतलभं केति भयंति, सहस्साउया, भणियं च - 'एगं च सयसहस्सं संतिस्सवि तत्थ समगुत्थावि मती भवति जहा सुविणंतिगी, जाइस्सरणं आउयं जिणवरस्सा' तेणारेण सहस्साउगा जाव अरिट्ठवर सुहमअणुचितणं कप्पकिरियमादि, अवसेसणाणाणि आयनेमी, दोसु जिणेसु वाससयाउया। समुत्थाणि चेव। (आचारांग चूणि, पृष्ठ २२०) ५. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २२१:तं एवं तेसि तं आगमं ३. आचारांग चूणि, पृष्ठ २२१ : आगतं-उवलद्धं भिसं णाणं आगमेंताणं पुग्वगहियं वा गुणंताणं णिच्चसज्माओवपण्णाणं, परोवदेसाओ सुयं तेणं आगतं, आगमितं गुणियं ओगाओ अन्नेण ३ अमितरेण बाहिरेण वा तवेण च एगट्ठा। अप्पाणं भाताणं किसा बाहा भवति 'एगग्गहणे ४. आचारांग चूणि, पृष्ठ २२१ : आभिणिबोहियं तग्गयमेव, तज्जाइयगहण' मितिका अन्नपि सरीरं किसीभवति, Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ ६८. विस्सेणि कट्टु, परिण्णाए । सं० - विश्रेणीं कृत्वा परिज्ञया । मुनि समत्व की प्रज्ञा से श्रेणी मूर्च्छा को छिन्न कर डाले । भाष्यम् ६८ - श्रेणी - प्रासादादीनामारोहणी भूगृहादीनां च अवरोहणी । शरीरस्य मूर्च्छा संसारस्य श्रेणी वर्तते । स आगतप्रज्ञानो मुनिः समत्वपरिज्ञया तां श्रेणीं विश्रेणीं कृत्वा परिवजनं करोति । ६६. एस तिण्णे मुत्ते विरए वियाहिए त्ति बेमि । सं० एष तीर्णः मुक्तो विरतो व्याहृतः इति ब्रवीमि । यह मुनि तीर्ण, मुक्त, विरत कहलाता है, ऐसा मैं कहता हूं । भाष्यम् ६९ए मुनिः मूर्च्छासमुद्र तरन् तीर्ण इति व्याहृतः । कर्मबन्धेन मुच्यमानः मुक्त इति व्याहृतः । असंयमाद् विरज्यमानः विरत इति व्याहृतः । " भाष्यम् १० - यो भिक्षुः चिररात्रोषितः - दीर्घकालेन प्रव्रजितोऽस्ति यश्च विरतः - इन्द्रियविषयेषु रतः आकृष्टो वा नास्ति, यश्च रीयमाण:- अप्रशस्तमाचरणं परित्यज्य प्रशस्ताचरणेषु उत्तरोत्तरं गतिशील तस्मिन् भिक्षौ अरतिः किं विधारयेत् ? यस्य असंयमे रति संयमे च अरतिविद्यते तं अरतिपरीवहः पराभवति किन्तु यः प्रतिक्षणं विबुध्यते संयमे च रमते तत्र कथं अरति प्रवेश: संभवेत् ? ७०. विरयं भिक्खु रीयंतं, चिररातोसियं, अरती तत्थ कि विधारए ? सं० विरतं भिक्षु रीयमाणं चिररात्रोषित अरतिस्तत्र कि विधा? चिरकाल से प्रव्रजित, संयम में उत्तरोत्तर गतिशील विरत भिक्षु को क्या अरति अभिभूत कर पाती है ? अतो युच्चति पेन कलेण ते मंससोणिए मिस तते, - न जयंतस्स रुक्षाहारस्स अप्पाहारस्स पायसो खलत्तेमेव आहारो परिणमति, किंचि रसीभवति, रसाओ सोणियं तं पि कारण अपत्ता एते तणुयमेव भवति, सोणिते पतणुए य तप्पुव्वगं मंसंपि तणुईभवति, एवमेयं अट्ठ मंसं सुक्कमिति सव्वाणि एयाणि तणुईभवंति प्रायसो, दुखं चायतं भवति, वाते य सति णसंत सतत्तायपागो व सोणियादीणं तणुत्तं भवति । (ख) चूर्णिकार ने उपकरण लाघव की भांति शरीर- लाघव के सभी सूत्रों की ओर इंगित किया है। उसके अनुसार तीनों सूत्रों (६३ ६४ ६५) का अनुवाद इस प्रकार है श्रेणी का अर्थ है - प्रासाद आदि के ऊपर चढने की सीढी और तलघर आदि में नीचे उतरने की सीढी । शरीर की मूर्च्छा संसार की श्रेणी है। वह प्रज्ञाप्राप्त मुनि समता की परिक्षा (विवेक) से उस श्रेणी को विश्रेणी कर—छिन्न कर परिव्रजन करता है। आचारांगभाष्यम् यह प्रज्ञाप्राप्त मुनि मूर्च्छा के सागर को तरता हुआ 'तीर्ण' कहलाता है, कर्मबंध से मुक्त होता हुआ 'मुक्त' कहलाता है और असंयम से विरक्त होता हुआ 'विरत' कहलाता है। जो भिक्षु दीर्घकाल से प्रव्रजित है, जो विरत है - इन्द्रिय विषयों में अनुरक्त या आकृष्ट नहीं है, जो अप्रशस्त आचरण का परित्याग कर प्रशस्त आचरणों में उत्तरोत्तर गतिशील है, उस भिक्षु को क्या जरति अभिभूत कर पाती है? जिस भिक्षु की असंयम में रति और संयम में अरति होती है, उस भिक्षु को अरति का परीषह अभिभूत कर देता है, किन्तु जो प्रतिक्षण जागृत रहता है, संयम में रमण करता है, उसमें अरति का प्रवेश कैसे संभव हो सकता है ? ६३. ज्ञान का ग्रहण और तप करने वाले मुनि के शरीर-साधन होता है । ६४. शरीर को कृश करने वाले मुनि के तप होता है। ६५. भगवान ने जैसे शरीर लाघव का प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में जानकर, सब प्रकार से, सर्वात्मना समत्व को समझकर किसी की अवज्ञा न करे । 'चार मास का उपवास करनेवाला मुनि मासिक उपवास करने वाले मुनि की अवज्ञा न करे । इसी प्रकार विशिष्ट स्वाध्याय करने वाला अल्प स्वाध्याय करने वाले की अवज्ञा न करे । समत्व का अनुशीलन करने वाला मुनि किसी की भी अवज्ञा नहीं करता ।' (आचारांग चूर्णि पृष्ठ २२१-२२२) Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ अ० ६. धुत, उ० ३. सूत्र ६८-७३ ७१. संधेमाणे समुट्ठिए। सं0-संदधानः समुत्थितः । प्रतिक्षण धर्म का संधान करने वाले तथा वीतरागता के अभिमुख मुनि को अरति अभिभूत नहीं कर पाती। भाष्यम ७१-यो मनि: उत्तरोत्तरं संयमस्थानानि जो मूनि उत्तरोत्तर संयम-स्थानों का संधान करने वाला है, जो संदधानोऽस्ति,' यश्च समुत्थितः-क्षायोपशमिकं भावं समुत्थित है—क्षायोपशमिक भावों के प्रति जागरूक है, उस मुनि को प्रति जागरूकोऽस्ति, तं अरतिर्नाभिभवति। कदाचिद् अरति पराजित नहीं कर सकती। कदाचित् वह औदयिक भाव में चला औदयिक भावं गतः, किन्तु तत्क्षणमेव क्षायोपशमिकं जाता है, किन्तु तत्काल ही क्षायोपशमिक भाव का वह संधान कर भावं सन्धत्ते, तस्मै सन्धानाय निरन्तरं जागर्ति । लेता है। उस संधान के लिए वह निरन्तर जागरूक रहता है। कता ७२. जहा से दोवे असंदीणे, एवं से धम्मे आयरिय-पदेसिए । सं.-यथा स द्वीप: असंदीनः, एवं स धर्मः आचार्यप्रदेशितः । जैसे असदीन द्वीप आश्वास-स्थान होता है, वैसे ही तीर्थकर द्वारा उपविष्ट धर्म विरत भिक्ष के लिए आश्वास-स्थान होता है। भाष्यम् ७२–यथा असन्दीन: द्वीपः पोतयात्रिणां जैसे असंदीन द्वीप--जल से अप्लावित द्वीप पोत-यात्रियों के आश्वासहेतुर्भवति । एवं आचार्यप्रदेशितः-तीर्थकर- लिए आश्वास का हेतु होता है, वैसे ही तीर्थंकरों द्वारा प्रणीत धर्म प्रणीतःधर्मः तस्य विरतस्य भिक्षोः आश्वासहेतुर्भवति, उस विरत भिक्षु के लिए आश्वास का हेतु होता है। इसीलिए अरति अत एव अरतिस्तं नाभिभूतं करोति ।। उस भिक्षु को पराजित नहीं कर सकती । यस्य मुनेः संयमरतिः असन्दीनद्वीपतुल्या भवति, जिस मुनि की संयम-रति असंदीन द्वीप की भांति होती है, तस्य अरतिर्न सजायते।। उस मुनि में कभी अरति नहीं होती। ७३. ते अणवकंखमाणा अणतिवाएमाणा दइया मेहाविणो पंडिया। सं० ते अनवकांक्षन्तः अनतिपातयन्तः दयिताः मेधाविनः पण्डिताः। मुनि भोग की आकांक्षा तथा प्राण-वियोजन नहीं करने के कारण लोकप्रिय मेधावी और आत्मज्ञ होते हैं। भाष्यम् ७३–ते मुनयः इन्द्रियविषयान् स्वजनादि- वे मुनि इन्द्रिय-विषयों की अथवा स्वजन आदि के संबंधों संबंधान् वा अनवकाङ्क्षन्तः, प्राणान् अनतिपातयन्तः, की आकांक्षा नहीं करते हुए, प्राणियों का प्राण-वियोजन नहीं करते दयिता:-सम्मताः, मेधाविनः तथा पण्डिता:-आत्मज्ञा हुए, धार्मिक लोगों द्वारा सम्मत, मेधावी और आत्मज्ञ होते हैं। भवन्ति । १. आचारांग चूणि, पृष्ठ २२३ : दव्वसंधाणं छिन्नसंधाणं १. संदीन-कभी जल से प्लावित हो जाने वाला और अछिन्नसंधणं च, दव्वे अच्छिन्नसुत्तं कत्तति, रज्जू वा कभी पुनः खाली होने वाला द्वीप। अथवा बुझ जाने वट्टिज्जति, छिन्नसंधणं कंचुगादीणं, भावे पसत्य अपसत्थ, वाला दीप। छिन्नसंधणा य जहा कोयि असंजए किंचि कालं कोहस्स २. असंदीन-जल से प्लावित नहीं होने वाला द्वीप । उबसमं काउं पुणो रुस्सति, अच्छिन्नसंधणाई णिरुब्बद्धो अथवा सूर्य, चन्द्र, रत्न आदि का स्थायी प्रकाश । चेव अणंताणुबंधिकोहकसाओ, एवं माण माया लोभे य, धर्म के क्षेत्र में सम्यक्त्व आश्वास-द्वीप है। प्रतिपाती पसत्थ भावच्छिन्नसंधणा जे खओवसमियाओ भावाओ सम्यक्त्व संदीन-द्वीप और अप्रतिपाती सम्यक्त्व असंदीनउदइयभावं गतो आसी पुणो खओवसमियं चेव जाव, द्वीप होता है। ज्ञान प्रकाशदीप है। श्रुतज्ञान संदीन-दीप अच्छिन्नसंधणाओ समुट्ठिय उवसामगसेढी खवयसेढी वा, और आत्मज्ञान असंदीन-चीप है। तमेवं पसत्थभावसंधणअच्छिन्नसंधणा य समुट्ठियं अहक्खाय ___धर्म का संधान करने वाले मुनि की संयम-रति असंदीन चरिताभिमुहं वा। द्वीप या दीप जैसी होती है। २. 'दीव' शब्द की 'द्वीप' और 'दीप'-इन दो रूपों में - द्रष्टव्यम्-आचारांग चूणि, पृष्ठ २२३-२२५ । व्याख्या की जा सकती है। दीप प्रकाश देता है और द्वीप ३. आचारांग चूणि, पृष्ठ २२५ : एगे अणेगादेसा वृच्चति । आश्वास । ये दोनों दो-दो प्रकार के होते हैं। Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० आचारांगभाष्यम आकांक्षा दयितत्वं-प्रियत्वं बाधते । प्राणानां आकांक्षा प्रियता में बाधा उत्पन्न करती है। प्राणों का अतिपात: मेधावित्वं तिरस्करोति । वस्तुतः अनाकांक्षया अतिपात अर्थात् प्राण-वियोजन मेधावीपन का तिरस्कार करता है । अनतिपातेन च पांडित्यं प्रस्फुटीभवति । वास्तव में अनाकांक्षा और अनतिपात से पांडित्य-आत्मज्ञता प्रस्फुटित होती है। ७४. एवं तेसि भगवओ अणुटाणे जहा से दिया-पोए। सं०-एवं तेषां भगवता अनुष्ठाने यथा स द्विजपोतः। जैसे विहग-पोत अपने माता-पिता की इच्छा का पालन करता है), वैसे ही शिष्य ज्ञानी गुरुजनों की आज्ञा का पालन करे। भाष्यम् ७४–एकाकिप्रतिमां अचेलत्वं च त एव वे ही मुनि एकाकी-प्रतिमा तथा अचेलत्व की साधना को स्वीमनयः स्वीकुर्वन्ति ये प्रव्रज्यां प्रतिपद्य आज्ञायां वर्तन्ते कार करते हैं जो प्रव्रज्या लेकर तीर्थंकर की आज्ञा के अनुसार चलते अथवा त एव अरति अपनेतुं शक्नुवन्ति ये आज्ञामनु- हैं । अथवा वे ही मुनि अरति का अपनयन कर सकते हैं जो आज्ञा में वर्तमाना भवन्ति, अत एव सूत्रकारो वक्ति-ते शिष्याः चलते हैं। इसीलिए सूत्रकार कहते हैं-वे शिष्य उन प्रज्ञावान् गुरुतेषां भगवतां-प्रज्ञानवतां अनुष्ठाने-आज्ञायां वर्तन्ते।' जनों की आज्ञा में चलते हैं । प्रस्तुत प्रकरण में विहग-पोत का दृष्टान्त अत्र द्विजपोतस्य दृष्टान्तोऽवगन्तव्यः । यथा द्विजपोत:- जानना चाहिए । जैसे द्विज-पोत अर्थात् पक्षी का बच्चा माता-पिता पक्षिणां शिशुः मातापितृभ्यां पालितः पोषितो भवति, के द्वारा पालित, पोषित होता है और धीरे-धीरे उड़ने में समर्थ हो क्रमेण उडुयितुं समर्थो भवति, तदा मातापितरौ विहाय जाता है, तब वह माता-पिता को छोड़कर अकेला ही विचरण करने एकाकी चरति । एवं शिष्या अपि पूर्वोक्तां विशिष्टां लगता है । इसी प्रकार शिष्य भी पूर्वोक्त विशिष्ट प्रतिमा--एकलप्रतिमा प्रतिपत्तं समर्था भवन्ति । विहार प्रतिमा को स्वीकार करने में समर्थ होते हैं। ७५. एवं ते सिस्सा दिया य राओ य, अणपुग्वेण वाइय ।--त्ति बेमि। .. सं०--एवं ते शिष्याः दिवा च रात्री च अनुपूर्वेण वाचिताः । -इति ब्रवीमि । इसी प्रकार दिन और रात क्रमानुसार शिक्षित शिष्य योग्य हो जाते हैं। ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् ७५.--एवं ते शिष्याः प्रवाजिताः, दिवा च इस प्रकार वे शिष्य आचार्य के द्वारा प्रवजित होकर, दिन रात्री च अनुपूर्वेण वाचिता:-शिक्षा नीताः तथाविधां और रात्री में क्रमानुसार शिक्षित किए जाने पर उस प्रकार की योग्यतामर्जयन्ति । योग्यता को प्राप्त कर लेते हैं। विह १. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २२५ : आणाए उट्ठाणं अणु ट्ठाणं वा, तत्थ आणाउट्ठाणे ठिच्चा इति वक्कसेसं, तित्थगरगणहर सुत्तं तहि ठिता, अहवा अणुट्ठाणं आयरणं, लोगेवि वत्तारो भवंति - अणुट्टिते हिते, पुण तेसि भगवंताणं तित्थगरगणहराणं तं आणं अणु ठेति - णवि संपाडेति ।। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २२५ : भगवतो वीरवर्द्धमान स्वामिनो धर्म सम्यगनुत्थाने सति तत्परिपालन तस्तथा सदुपदेशदानेन परिकमितमतित्वं विधेयमिति । २. विहग-पोत जब अण्डस्थ होता है, तब पंख की उष्मा से पोषण प्राप्त करता है। अण्डावस्था से निकलने के बाद भी कुछ समय तक उसी से पोषण प्राप्त करता है। जब तक वह उड़ने में समर्थ नहीं होता, तब तक माता-पिता द्वारा दिए गए भोजन से वह पोषण प्राप्त करता है। उड़ने में समर्थ होने पर माता-पिता को छोड़ अकेला चला जाता है । इससे नवदीक्षित मुनि के व्यवहार की तुलना की गई है। वह प्रवज्या, शिक्षा और अवस्था से अपरिपक्व होता है, तब तक गुरु के द्वारा पोषण प्राप्त करता है और परिपक्व होने पर एकचर्या करने में भी समर्थ हो जाता Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ६. धुत, उ० ३,४. सूत्र ७४-७७ ३३१ चउत्थो उद्देसो : चौथा उद्देशक ७६. एवं ते सिस्सा दिया य राओ य, अणुपुत्वेण वाइया तेहिं महावीरेहिं पण्णाणमंतेहि । सं०-एवं ते शिष्याः दिवा च रात्रौ च अनुपूर्वेण वाचिताः तैः महावीरैः प्रज्ञानवद्भिः । उन पराक्रमी और प्रज्ञावान् गुरुजनों के द्वारा वे शिष्य इस प्रकार दिन और रात क्रमानुसार शिक्षित किए जाते हैं। भाष्यम् ७६-इह पूर्वोक्तं पुनरावर्तयति सूत्रकार:- सूत्रकार पूर्वोक्त कथन का पुनरावर्तन करते हैं-उन पराक्रमी एवं ते शिष्याः तैर्महावीरैः प्रज्ञानवद्भिः दिवा च रात्रौ और प्रज्ञावान् गुरुओं द्वारा वे शिष्य इस प्रकार दिन और रात के क्रम च अनुपूर्वेण वाचिता भवन्ति । से शिक्षित किए जाते हैं। चौँ दिने रात्री च वाचनायाः प्राचीनपरम्परा चूणि में दिन और रात में दी जाने वाली वाचना की प्राचीन निर्दिष्टा अस्ति।' परम्परा निर्दिष्ट है। ७७. तेसितिए पण्णाणमुवलम्भ हिच्चा उवसमं फारुसियं समादियंति । सं० तेषामन्तिके प्रज्ञानमुपलभ्य हित्वा उपशमं पारुष्यं समाददति । उनके पास प्रज्ञान को प्राप्त कर और उपशम का अभ्यास करके भी कुछ शिष्य ज्ञान-मद से उन्मत्त होकर परुषता का आचरण करते है। भाष्यम् ७७.-ते शिष्याः तेषां महावीराणां प्रज्ञान- वे शिष्य उन पराक्रमी और प्रज्ञावान् गुरुओं के पास प्रज्ञान वतां अन्तिके प्रज्ञानं उपलभ्य उपशमं अभ्यस्य' ज्ञानमदेन को प्राप्त कर, उपशम का अभ्यास कर, ज्ञानमद से उन्मत्त होकर परुषतां समाददति । परुषता का आचरण करते हैं । चों वृत्तौ च उपशमस्त्रिविधः निरूपित:-- चणि और वृत्ति में उपशम के तीन प्रकार निर्दिष्ट हैं-ज्ञानज्ञानोपशमः दर्शनोपशमः चारित्रोपशमश्च ।' उपशम, दर्शन-उपशम और चारित्र-उपशम । पारुष्यम् -ज्ञानस्यावलेपेन आचार्यादीनां प्रतिपत्तेः पारुष्य या परुषता का अर्थ है-ज्ञान के गर्व से आचार्य आदि १. आचारांग चूणि, पृष्ठ २२७ : बिया-उक्कालियं पडच्च नाणादि, तत्थ जो जेण नाणेण उवसामिज्जइ सो नाणोकदायि दिवसतो चत्तारिवि पोरिसीओ वाइज्जेज्ज, रतिपि वसमो भवति, तं जहा- अक्खेवणीए, अहवा इसिपढमपोरिसिं वाइज्जति, सेसासुवि पादपुच्छगं, अणुपुब्वेण भासितेहिं उत्तरायणा एवमादि, दरिसणोवसमो जो आयारातिकमेण अणुपुब्बीए, तहा य भणियं-जहा से दिया विसुद्धण संमत्तेण, परंउवसमितेण परंउवसामितो, राओ, अहवा परियागमणतो तेणं, जहा 'तिवासपरिया जहा सेणियरण्णो, सो मिच्छादिट्ठी देवो सक्कवयणं गस्स कप्पति आयारकप्पे उद्दिसित्तए' एवं जाव दिट्ठिवाए, असद्दहमाणो जाव दंसणप्पभावहिं सत्येहि उवतं च जस्स जोगं, एवं अणुपुब्बीए सुत्तं अत्थं उभयं वा सामिओ, गोविंद, जत्तादिणा, चरितमेव उवसमो, वादिया बाइज्जमाणा वा। तं जहा-उवसंतकोहे उवसंतमाणो उवसंतमाओ २. अस्य मूलमस्ति हिच्चा (हित्वा) इति पदम् । अस्य 'गत्वा' उबसंतलोभो, जाहे जयमाणं साह बठूण उवसमति 'त्यक्त्वा' अर्थद्वयमपि संभवति । चूणौं प्रथमोऽर्थः दृश्यते स चरित्तोवसमो। तं उवसमं हिच्चा, जं भणितं-उवगिरिसित्ता। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २२६ : तत्र यो येन ज्ञानेनोप(आचारांग चूणि, पृष्ठ २२८) शाम्यति स ज्ञानोपशमः, तद्यथा-आक्षेपण्याद्यन्यतरया वृत्तौ च 'त्यक्त्वा' इति व्याख्यातमस्ति-तत्र केचन धर्मकथया कश्चिद् उपशाम्यतीत्यादि, दर्शनोपशमस्तु क्षुद्रका ज्ञानोदन्वतोऽद्याप्युपर्येव प्लवमानास्तमेवंभूतमुपशमं यो हि शुद्धन सम्यग्दर्शनेनापरमुपशमयति, यथा त्यक्त्वा। (आचारांग वृत्ति, पत्र २२६) श्रेणिकेनाश्रद्दधानो देवः प्रतिबोधित इति, दर्शन३. (क) आचारांग चूर्णि, पृष्ठ २२८ : तत्थ दवेण कचक प्रभावकर्वा सम्मत्यादिभिः कश्चिदुपशाम्यति, चारित्रोफलेण कलुसं उदगं उसमति, अंकुसेण कुंजरो, पशमस्तु क्रोधाद्युपशमो विनयनम्रतेति । दव्वस्स उवसमो सुराए पागकाले, भावोवसमो Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ आचारांगभाष्यम् अवमाननम् । ची वृत्ती च एतद् विस्तरेण प्रतिपादित- गुरुजनों के निरूपण की अवमानना । चणि और वृत्ति में इसका मस्ति । विस्तार से प्रतिपादन है । ७८. वसित्ता बंभचेरंसि आणं 'तं णो' त्ति मण्णमाणा। सं०-उषित्वा ब्रह्मचर्ये आज्ञा 'तां नो' इति मन्यमानाः । वे ब्रह्मचर्य में रह कर भी आचार्य की आज्ञा को 'यह तीर्थकर की आज्ञा नहीं है'-ऐसा मानते हैं। भाष्यम् ७८-ब्रह्मचर्यम्-चारित्रं' गुरुकुलवासो वा । ब्रह्मचर्य का अर्थ है- चारित्र अथवा गुरुकुलवास । आज्ञा का आज्ञा-तीर्थकरस्य वचनं सूत्रादेशो वा। ते ब्रह्मचर्ये अर्थ है- तीर्थंकर का वचन अथवा सूत्र का आदेश । वे शिष्य ब्रह्मचर्य उषित्वापि पारुष्यं समाददत: उद्दण्डभावेन आज्ञां नो में रह कर भी परुषता का आचरण करते हुए उइंडता से आज्ञा इति मन्यन्ते। सातगौरवबहुलाः शरीरस्य विभूषां को 'यह तीर्थंकर की आज्ञा नहीं है' ऐसा मानते हैं। सात-गौरव कुर्वन्ति, न च भिक्षाचर्यायां हिण्डन्ते । रसगौरवबहुलाः की बहुलता के कारण वे शरीर की विभूषा करते हैं, भिक्षाचर्या के सन्तस्ते नाहारशुद्धिं कुर्वन्ति । अपरैः प्रेरिताः सन्तः लिए नहीं घूमते । वे रस-गौरव की बहुलता के कारण आहार की वदन्ति-नो एषा तीर्थकरस्य आज्ञा । एवं विधेन वादेन शुद्धि नहीं रख पाते । दूसरों के द्वारा प्रेरित होने पर वे कहते हैंते आज्ञामतिकामन्ति । यह तीर्थंकर की आज्ञा नहीं है। इस प्रकार के कथन से वे आज्ञा का अतिक्रमण करते हैं। ७६. अग्घायं तु सोच्चा णिसम्म समणुण्णा जीविस्सामो एगे णिक्खम्म ते-असंभवंता विडज्झमाणा, कामेहि गिद्धा अज्झोववण्णा । समाहिमाघायमझोसयंता, सत्थारमेव फरुसं वदंति । सं०-आख्यातं तु श्रुत्वा निशम्य समनुज्ञा जीविष्याम एके निष्क्रम्य ते-असम्भवन्तो विदामानाः, कामेषु गृद्धा: अध्युपपन्नाः । समाधिमाख्यातमसेवमानाः, शास्तारमेव परुषं वदन्ति । कुछ पुरुष धर्म-उपदेश को सुनकर, समझकर, 'अनुत्तर संयम का जीवन जीएंगे' इस संकल्प से दीक्षित होकर उस संकल्प के प्रति सच्चे नहीं होते । वे कषाय की अग्नि से दग्ध, काम-भोगों में आसक्त या ऋद्धि, रस और सुख के प्रति लोलुप होकर तीर्थकर के द्वारा आख्यात समाधि का सेवन नहीं करते । वे शास्ता को भी परुष वचन बोलते है। भाष्यम् ७९-एके केचिद् स्वाख्यातं धर्म श्रुत्वा, कुछ पुरुष सु-आख्यात धर्म को सुन कर, समझ कर, 'हम निशम्य-अवधार्य समनोज्ञा:-उद्युक्तविहारिणः सन्तः उद्युक्तविहारी होकर संयम जीवन से जीवन-यापन करेंगे' इस संकल्प १. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २२८ : फरुसियमावो फारुसियं द्वितीयस्त्वाह-नन्वस्मदाचार्या एवमाज्ञापयन्तीपरोप्परगुणाए अगुणाए अर्थमीमांसा, एवाउमं ! ण त्युक्ते पुनराह-सोऽपि वाचिकुण्ठो बुद्धिविकलः कि याणसि, ण य एस अत्थो एवं भवति, वितिओ पम्बहे, जानीते ? त्वमपि च शुकवत्पाठितो निरूहापोह इत्यादीन्यआयरिया एवं भणंति, पुण आह--अत्थओ आयरिओ, न्यान्यपि दुगहीतकतिचिदक्षरो महोपशमकारणं ज्ञानं जति तित्थगरोऽवि एवं आह सोऽवि ण याणति, किं विपरीततामापादयन् स्वौद्धत्यमाविर्भावयन् भाषते, पुण अण्णो ? अहवा भणति-सो कि सव्वग्णू ? सो उक्तं चवायाकुट्ठो पुद्धिविगलो कि जाणइ ? तुमपि तयोविव 'अन्यः स्वेच्छारचितानर्थविशेषान् श्रमेण विज्ञाय । पाडिठिओ णिरुहत्ताओ पुढविकाइयतुल्लो कि जाणे कृत्स्नं वाङमयमित इति खादत्यंगानि दर्पण ॥' स्ससि ? 'क्रीडनकमीश्वराणां कुक्कुटलावकसमानवाल्लभ्यः । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २२६ : पारुष्यं परुषतां 'समा शास्त्राण्यपि हास्यकयां लघुतां वा क्षुल्लको नयति ॥' ददति' गृह्णन्ति, तद्यथा-परस्परगुणनिकायां मीमां- २. आचारांग चूणि, पृष्ठ २२९ : बंभचरणं चरितं । सायां वा एकोऽपरमाह-त्वं न जानीषे न चैषां शब्दा ३. वही, पृष्ठ २२९ : आणा सुत्तादेसो। नामयमर्थो यो भवताऽमाणि, अपि च-कश्चिदेव ४. वही, पृष्ठ २२९ : वसित्ता जं भणितं पालित्ता। मादृशः शब्दार्थनिर्णयायालं न सर्व इति, उक्तं च ५. वही, पृष्ठ २२९ : णो देसपडिसेहो, ण सबमेवं 'पृष्टा गुरवः स्वयमपि परीक्षितं निश्चितं पुनरिवं नः । -- अवमण्णति। वादिनि च मल्लमुख्ये च मागेवान्तरं गच्छेत् ॥' Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ६. धुत, उ० ४. सूत्र ७८-८२ ३३३ संयमजीवनेन जीविष्यामः इति सङ्कल्पपूर्वकं अभि- के साथ अभिनिष्क्रमण कर मुनि बनते हैं, किन्तु पुनः मोह कर्म के निष्क्रमणं कृत्वा मुनयो भवन्ति, किन्तु पुनर्मोहोदयात् उदय से वे औदयिकभाव में प्रवृत्त हो जाते हैं। उस स्थिति में औदयिके भावे वर्तन्ते । तस्यां अवस्थायां ते आख्यातं वे आख्यात समाधि-इन्द्रिय और मन का संयम अथवा एकाग्रता का समाधि-इन्द्रियमनसोः संयम ऐकाग्रय वा असेवमानाः आचरण न करते हुए शास्ता के प्रति परुष वचन कहते हैं । उस परुष शास्तारं परुष वदन्ति। तस्य परुषवचनस्य चत्वारः वचन बोलने के चार हेतु यहां निदिष्ट हैं-- हेतवः अत्र निर्दिष्टा:१. असंभवनम् -गौरववशात् समाधिमार्गे न सम्यग् १. असंभवन-गौरव अर्थात् ऋद्धि, रस और सुख के वशीभूत वर्तनम् । होने के कारण समाधि मार्ग में सम्यग् वर्तन न करना । २. विदाहः-कषायाग्निना प्रज्वलनम् । २. विदाह --कषाय की अग्नि से प्रज्वलित । ३. कामगद्धिः-विषयासक्तिः । ३. कामगृद्धि-विषयों की आसक्ति। ४. अध्युपपत्ति:-रसलोलुपत्वं सुखलोलुपत्वं वा। ४. अध्युपपत्ति-रस-लोलुपता अथवा सुख-लोलुपता । ८०. सीलमंता उवसंता, संखाए रीयमाणा । असीला अणुवयमाणा। सं० --शीलवतः उपशान्तान् संख्यया रीयमाणान् अशीलान् अनुवदन्तः । वे शीलवान्, उपशांत तथा प्रज्ञा-पूर्वक संयम में गतिशील मुनियों को अशीलवान् बतलाते हैं। भाष्यम् ८०-शीलं उपशम: प्रज्ञा-एतानि त्रीणि शील, उपशम और प्रज्ञा-ये साधु के तीन लक्षण हैं । संयम सन्ति साधोर्लक्षणानि। स्वयं संयम अनाचरन्तस्ते का स्वयं अनाचरण करने वाले वे शीलवान्, उपशांत तथा प्रज्ञापूर्वक शीलवतः उपशान्तान् संख्यया-प्रज्ञया रीयमाणान अपि संयम में गतिशील साधुओं को भी 'ये अशीलवान् हैं', ऐसा कहते साधून 'एते अशीला' इति अनुवदन्ते । वह ८१. बितिया मंदस्स बालया। सं०-द्वितीया मन्दस्य बालता। यह उन मंदमतियों की दोहरी मूर्खता है। भाष्यम् ८१-स स्वयं उपशमं त्यजति एषा तस्य वह मुनि स्वयं उपशम को छोड़ता है-यह उसकी पहली प्रथमा बालता। अन्येषां उद्यक्तविहारिणां च अपवादं मुर्खता है। वह अन्य उद्युक्तविहारी मुनियों का अपवाद करता करोति, एषा तस्य मन्दस्य द्वितीया बालता । है-यह उस मंदमती की दूसरी मूर्खता है। ८२. णियट्टमाणा वेगे आयार-गोयरमाइक्खंति णाणभट्टा दसणलसिणो । सं०-निवर्तमाना वैके आचार-गोचरमाचक्षते ज्ञानभ्रष्टाः दर्शनलूषिणः । कुछ ज्ञान-भ्रष्ट, दर्शन-वंसी और संयम से निवर्तमान मुनि आचार-गोचर की व्याख्या करते हैं। भाष्यम् ८२–एके केचिद् संयमाद् निवर्तमाना संयम से निवर्तमान कुछ मुनि आचार-गोचर की व्याख्या आचारगोचरं आचक्षते, तेषां अभिप्रायः-भगवता करते हैं। उनका अभिप्राय है-भगवान् महावीर ने मुनियों घोर: आचारगोचरः प्रतिपादितः । इदानीमेष दूरधिष्ठि- के लिए घोर आचार-गोचर का प्रतिपादन किया है। वर्तमान तोऽस्ति, अतः मध्यममार्ग एव श्रेयान । एवं प्रतिपादयन्तस्ते में उसका पालन कर पाना दुष्कर है। इसलिए मध्यम मार्ग ही उपशमकारकाद् ज्ञानाद् भ्रष्टा भवन्ति । भगवता श्रेयस्कर है। इस प्रकार का प्रतिपादन करते हुए वे मुनि उपशमकारक प्रतिपादितं आचारविषयकं अहिंसात्मकं सम्यगदर्शनं. ज्ञान से भ्रष्ट हो जाते हैं। भगवान् ने आचार विषयक अहिसात्मक तस्य विध्वंसमपि कुर्वन्ति । उक्तञ्च वृत्ती-असदनष्ठा- सम्यग्दर्शन का प्रतिपादन किया था। वे मुनि इसका भी विध्वंस कर नेन स्वतो विनष्टा अपरानपि शङ्कोत्पादनेन सन्मार्गात देते हैं । वृत्ति में कहा है- 'असद् आचरण के कारण वे स्वयं विनष्ट च्यावयन्ति । होकर दूसरों में शंका उत्पन्न कर उनको भी सन्मार्ग से च्युत कर देते हैं। १. आचारांग वृत्ति, पत्र २२७ । Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगभाष्यम् ८३. णममाणा एगे जीवितं विप्परिणामेंति । सं०-नमन्तः एके जीवितं विपरिणामयन्ति । विनय-प्रणत होते हुए भी कुछ मुनि संयम-जीवन को प्रतिकूल कर देते हैं। भाष्यम् ८३–एके केचित् तीर्थकरं आचार्य वा तीर्थंकर या आचार्य के प्रति नत होते हुए भी कुछ मुनि नमन्तोपि ऋद्धिरससातगौरवत्रयवशात् जीवितमिति ऋद्धि, रस और सात-इस गौरवत्रयी के वशीभूत होकर संयम संयमजीवन विपरिणामयन्ति-प्रतिकूलतां नयन्तीत्यर्थः। जीवन को प्रतिकूल बना डालते हैं। इस सूत्र का तात्पर्य यह है अस्य सत्रस्य तात्पर्य मिदं-गौरवत्रयं शिष्यं संयम- कि गौरवत्रयी शिष्य को संयम से विमुख कर डालती है। पराङ्मुखं करोति। ८४. पुढ़ा वेगे णियटति, जीवियस्सेव कारणा। सं..... स्पृष्टाः वैके निवर्तन्ते जीवितस्यैव कारणात् । कुछ साधक परीषहों से स्पृष्ट होकर केवल सुखपूर्ण जीवन जीने के लिए संयम को छोड़ देते हैं। भाष्यम ४-एके केचित् परीषहैः स्पृष्टाः निवर्तन्ते कुछ साधक परीषहों से स्पृष्ट होने पर असंयमपूर्ण जीवन के जीवितस्येति असंयमजीवितस्य कारणात्, वयं सुखेन लिए संयम को छोड़ देते हैं। 'हम सुखपूर्वक जीएंगे'-ऐसा सोच जीविष्याम इति कृत्वा संयमात् निवर्तन्ते, पुनः प्रविशन्ति कर संयम जीवन से निवृत्त हो जाते हैं, पुनः गृहस्थ-जीवन में प्रवेश गृहस्थजीवने। कर जाते हैं। ८५. णिक्खंतं पि तेसि दुन्निक्खंतं भवति। . सं०--निष्क्रान्तमपि तेषां दुनिष्क्रान्तं भवति । उनका गृहवास से निष्क्रमण भी दुनिष्क्रमण हो जाता है। भाष्यम् ८५.--गृहवासाद् निष्क्रमणस्य प्रयोजनमस्ति गृहवास से निष्क्रमण करने का प्रयोजन है-आत्मा की अनूआत्मानुभूतिः आत्मोपलब्धिश्च । तस्य प्रयोजनस्य भूति करना और आत्मा को उपलब्ध होना । उस प्रयोजन की सिद्धि संसिद्धौ परीषहा अपि भवन्ति सोढव्याः । ये भवन्ति के लिए परीषहों को भी सहना होता है। जो उन परीषहों को सहने तान सोढं अक्षमाः तेषां गृहस्थजीवनात् निष्क्रमणमपि में अक्षम होते हैं उनका गृहस्थ जीवन से निष्क्रमण भी दुनिष्क्रमण हो भवति दुनिष्क्रमणम् । जाता है। ८६. बालवयणिज्जा ह ते नरा, पुणो-पुणो जाति पकति ।। सं.-बालवचनीयाः खलु ते नराः पुनः पुनः जाति प्रकल्पयन्ति । वे साधारण जन के द्वारा भी निन्दनीय होते हैं और बार-बार जन्म को प्राप्त होते हैं। भाष्यम ८६-ये निष्क्रमणं सार्थकतां न नयन्ति ते जो निष्क्रमण को सार्थक नहीं बनाते वे संसार में साधारण जो निष्क्रमण को सार्थक नहीं बनाते है नरा लोके बालैरपि जनैर्वचनीया भवन्ति । 'एते मुनि- लोगों के द्वारा भी निन्दनीय होते हैं। 'ये मुनि-जीवन को स्वीकार जीवनं स्वीकृत्यापि गहस्थवद् आचरन्ति । एतैः वेशः करके भी गृहस्थ जैसा आचरण करते हैं । इन्होंने केवल वेश बदला परिवर्तितः न तु वत्तयः परिवर्तिताः'-एतादृशैः आक्षेपैः है, वृत्तियां नहीं बदली हैं'-ऐसे आक्षेपों के द्वारा उन का तिरस्कार तान् आक्षिपन्ति । पारलौकिकदृष्ट्या पुनः पुनः जाति करते हैं , पारलौकिक दृष्टि से भी वे बार-बार जन्म की परम्परा को प्रकल्पयन्ति-जन्मनः परम्परां प्रवर्धयन्तीति यावत् । बढाते हैं । मूर्छा कर्म का बीज है। कर्म जन्म-मरण का बीज है । मुर्छा कर्मणो बीजम् । कर्म च जातिमरणयो: बीजम् । उससे जन्म-मरण का चक्र निरंतर गतिशील रहता है। ततः जातेचकं निरन्तरं गतिशीलं जायते। Jain Education international Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३५ अ० ६. धुत, उ० ४. सूत्र ८३-६० ८७. अहे संमवंता विद्दायमाणा, अहमंसी विउक्कसे । सं०-अधः संभवन्तो विद्वस्यन्तः अहमस्मि व्युत्कर्षेयुः । वे ज्ञान की निम्न भूमिका में होते हुए भी अपने को विद्वान् मानकर अहं का ख्यापन करते हैं। भाष्यम् ८७-अहंकारस्य अनेके हेतवः सन्ति। न अहंकार के अनेक हेतु हैं। केवल बहुज्ञता ही अहंकार का बहुज्ञता एव अहंकारस्य निमित्तं जायते, किन्तु अल्पज्ञ- निमित्त नहीं बनती, किन्तु अल्पज्ञता भी उसका निमित्त बनती है। ताऽपि तस्य निमित्तं भवति । एतदेवात्र निदर्शितं । यहां इसी तथ्य का निदर्शन किया गया है। वे मुनि संयम-स्थानों ते अधः संभवन्तः-संयमस्थानेषु श्रुतपर्यायेषु वा निम्न- अथवा ज्ञान-पर्यायों की निम्न भूमिका में होते हुए भी अपने को स्थितौ वर्तमाना अपि तथा विद्वस्यन्तः अहम् अस्मीति विद्वान् मान कर 'मैं हूं'- इस प्रकार अहं का ख्यापन करते हैं । व्युत्कर्ष कुर्वन्ति । ८८. उदासीणे फरसं वदंति । सं०-उदासीनान परुषं वदन्ति । वे मध्यस्थ मुनियों के लिए परुष वचन बोलते हैं। भाष्यम् ८८-ते उदासीनान्'-गौरवत्रिकशून्यान वे मुनि उदासीन अर्थात् गौरवत्रिक से शून्य मुनियों के प्रति मुनीन् प्रति परुषवचनानि प्रयुञ्जते। तत् सूत्रेणैव परुष वचन का प्रयोग करते हैं। वह अग्रिम सूत्र के द्वारा ही बताया प्रदर्श्यते। वृत्तिकारेणापि परुषवचनप्रकार: निदर्शितोस्ति जा रहा है। वृत्तिकार ने भी परुष वचन के प्रकार का निदर्शन किया -बहुश्रुतत्वे सत्युपशान्तान् स्खलितचोदनोद्यतान् परुषं है-बहुश्रुत होने के कारण उपशांत तथा स्खलनाओं के प्रति सावधान वदन्ति, तद्यथा--स्वयमेव तावत् कृत्यमकृत्यं वा जानीहि करने वाले मुनियों को पष वचन बोलते हैं, जैसे-पहले स्वयं के ततोऽन्येषामुपदेक्ष्यसीति । ही कृत्य अथवा अकृत्य को जान लो फिर दूसरों को उपदेश देना । ८६. पलियं पगंथे अदुवा पगंथे अतहेहिं । सं.---'पलिय' 'पगंथे” अथवा 'पगंथे' अतथैः । वे कर्म की स्मृति दिला कर अथवा असभ्य शब्दों का प्रयोग कर तथा तथ्यहीन आरोप लगा कर परुष बोलते हैं। भाष्यम् ८९-द्रष्टव्यम्-६।४२,४३ । देखें-६।४२,४३ । ...तं मेहावी जाणिज्जा धम्म । सं०-तं मेधावी जानीयाद् धर्मम् । इसलिए मेधावी को धर्म जानना चाहिए। भाष्यम् ९०-गौरवत्रिकेणाभिभूतास्ते उक्तविधानि गौरवत्रिक से अभिभूत वे पुरुष उक्त प्रकार के आचरण करते आचरणानि कुर्वन्ति, तस्मात् मेधावी धर्म जानीयात्। हैं, इसलिए मेधावी व्यक्ति को धर्म जानना चाहिए । जहां गौरव है यत्रास्ति गौरवं तत्र नास्ति धर्मः। गौरवपरित्यागेनैव वहां धर्म नहीं है। गौरव के परित्याग से ही धर्म का ज्ञान होता धर्मो विज्ञातो भवति। १. आचारांग वृत्ति, पत्र २२८ : उदासीनाः रागद्वेषरहिता मध्यस्थाः। २. वही, पत्र २२८ । ३-४. देशीयशब्दौ। Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगभाष्यम ६१. अहम्मट्ठी तुमंसि णाम बाले, आरंभट्ठी, अणुवयमाणे, हणमाणे, घायमाणे, हणओ यावि समणुजाणमाणे, घोरे धम्मे उदीरिए, उवेहइ णं अणाणाए। सं०-अधर्मार्थी त्वमसि नाम बालः, आरम्भार्थी, अनुवदमानः, घ्नन्, घातयन्, घ्नतश्चापि समनुजानानः, घोरः धर्मः उदीरितः, उपेक्षते अनाज्ञया । धर्म-शून्य साधक को आचार्य इस प्रकार अनुशासित करते हैं-'त अधर्मार्थी है, बाल है, आरंभार्थी है, आरम्भ करने वालों का समर्थक है, तू प्राणियों का वध कर रहा है, करवा रहा है, करने वाले का अनुमोदन कर रहा है। भगवान ने घोर धर्म का प्रतिपादन किया है, तू आज्ञा का अतिक्रमण कर उसकी उपेक्षा कर रहा है।' भाष्यम ९१-गौरवत्रिकेण अभिभूत आचार्येण एवं जो मुनि गौरवत्रिक से पराभूत है, उस पर आचार्य इस प्रकार अनूशास्यते-त्वमसि अधर्मार्थी, बालोऽसि, अपि च अनुशासन करते हैं-तुम अधर्मार्थी हो, अज्ञानी हो, और तो क्या, आरम्भार्थी' असि, अनुवदनसि-आरम्भप्रवृत्तानां आरंभार्थी हो तथा आरम्भ करने वालों के समर्थक हो। तुम स्वयं समर्थनं करोषि । त्वं स्वयं प्राणिनां वधं करोषि, प्राणियों का वध करते हो, दूसरों से वध करवाते हो तथा वध करने कारयसि, कुर्वतः समनुजानासि। भगवता घोरः वालों का अनुमोदन करते हो। भगवान् ने घोर धर्म का प्रतिपादन धर्म उदीरितः । त्वं गौरवत्रयाभिभूतः अनाज्ञया तस्य किया है। तुम गौरवत्रिक से अभिभूत हो और अनाज्ञा से उसकी उपेक्षां कुरुषे । घोरः-सर्वास्रवनिरोधात्मकसंवररूपः ।। उपेक्षा करते हो । घोर का अर्थ है---सभी आश्रवों का निरोधक संवर । उदीरितः-उदाहृतः । अनाज्ञा'-अनुपदेशः'। उदीरित का अर्थ है-उदाहुत । अनाज्ञा का अर्थ है-जो तीर्थंकर का उपदेश नहीं है। १. चूणों' अस्य पदस्य व्याख्याद्वयं विद्यते-'आरंभणं आरंभो पदणपादणादिअसंजमो, तेण जस्स अट्ठो से भवति आरंभट्ठी अहवा इढिगारवरसगारवसातागारवा आरंभट्ठी, तत्थ विज्जामंतणिमित्तसद्दहेतुमादी अहिज्जति पउंजइ वा जो रिद्धि हे सो रिद्धिगारवारंभट्ठी, ताणि चेब रसहेलं पउंजति अहिज्जति वा रसगारवारंभट्ठी, एवं सातागारवारंभट्ठीवि'। (आचारांग चूणि, पृष्ठ २२९) २. आचारांग चूणि, पृष्ठ २२९-२३० : अणुवयमाणोत्ति अणु वदणं अणुवादो, वदतो पच्छा वदति अणुवदति, तक्कादीसु पयणपयावणादि आरंभे वदंति, तद्दडतक्की, तस्स पक्खं ते अणुवदंति, एकोत्थ दोसो, ण असरीरो धम्मो भवति, तेण धम्मसरीरं धरेयव्वं, साहू य तं, जं भणितं--'मणुग्णं भोयणं भोच्चा' अहवा णितियादिवायो वा कुसीलं अणुवदति, मा एवं भण, जहा अम्हे वि णिहीणपेच्चवावारा इहलोगपडिबद्धा संसारसूयरा, ण तुझे, एवं ठिता चेइयपूयणं तो करेह, विसेसेण य आगंतुयआगमिते लक्खणखमते उत गिण्ह, सव्वं किर पडिवादी, वेदावच्चं अपडि वाइ, एवं तेसिं अणुकूलं वति । ३. वृत्तौ (पत्र २२८) एषु पदेषु सम्बन्धमाला प्रदर्शिता अस्ति ... कुतोऽधर्मार्थी ? यतो 'बालः' अज्ञः, कुतो बालो? यत 'आरम्भार्थी' सावद्यारम्भप्रवृत्तः, कुतः आरम्भार्थी ? यतः प्राण्युपमर्दवादाननुवदन्नतद् बूषे, तद्यथा-जहि प्राणिनोऽपररेवं घातयन् घ्नतश्चापि समनुजानासि गौरवत्रिकानुबद्धः पचनपाचनादिक्रियाप्रवृत्तांस्तत्पिण्डतर्की तत्समक्ष ताननुवदसि-कोऽत्र दोषो ? न ह्यशरीरैर्द्धर्मः कत्तुं पायंते, अतो धर्माधारं शरीरं यत्नतः पालनीयमिति, उक्तं च 'शरीरं धर्मसंयुक्तं, रक्षणीयं प्रयत्नतः । शरीराज्जायते धम्मों, यथा बीजात् सदङ कुरः ॥' ४. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २३० : घोरो-भयाणगो, सव्वस्सविणिरोधाओ, अहीव एगंतदिट्टित्ता दुरण चरित्ता कापुरिसाणं। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २२८ : घोरः भयानको धर्मः सर्वानवनिरोधात् दुरनुचरः। ५. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २३० : उड्ढे ईरितो उदाह रितो दरिसितोत्ति वा तित्थगरगणहरेहि, तेहिं तेहि चेव उज्जयं ईरिते उदीरितो। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २२८ : उत्-प्राबल्येनेरितः कथितः प्रतिपादितस्तीर्थकरगणधरादिभिः । ६. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २३० : तित्थगरगणधराणं अणाणाए-अणुवदेसेण । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २२८ : अनाज्ञया तीर्थकरगण धरानुपदेशेन स्वेच्छया प्रवृत्त इति । ७. द्रष्टव्यम्-अष्टमाध्ययनस्य तृतीय सूत्रम् । Jain Education international Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ६. धुत, उ० ४. सूत्र ६१-६४ ६२. एस विस वित विवाहितेति बेमि । सं०-- एष विषण्णः वितर्दः व्याहृतः इति ब्रवीमि । वह विषय और संवर धर्म के प्रतिकूल कहलाता है, ऐसा मैं कहता हूँ। माध्यम् ९२ - यः प्रमादी गौरवत्रवेणाभिभूतः पोरं धर्म उपेक्षमाणः स एष विषण्णः आस्रवपङ्के निमग्नः तथा वितर्द :- संवरधर्मस्य प्रतिकूलप्रवृत्तः व्याहृत इति ब्रवीमि । ६३. किमणेण भो ! जणेण करिस्सामित्ति मण्णमाणा एवं पेगे वइत्ता, मातरं पितरं हिच्चा, णातओ य परिग्गहं । वीरायमाणा समुए, अहिंसा या बंता । सं० - किमनेन भो ! जनेन करिष्यामि इति मन्यमानाः एवं अप्येके उदित्वा मातरं पितरं हित्वा ज्ञातीन् च परिग्रहं वीरायमाणाः समुत्थाय अविहिंसाः सुव्रताः दान्ताः । माध्यम् ९३ - केचित् प्रकृष्टपरिणामधारया प्रव्रजिता भवन्ति । एष जनः - मातापित्रादिस्वजनवर्गः इहापि तावत् जन्ममरणरोगशोकाभिभूतस्य न त्राणाय भवति इति चिन्तनपूर्वकं वैराग्यमापन्नाः भो ! 'अनेन जनेन किं करिष्यामि' इति मन्यमानाः, तथा यावज्जीवं सिंहवृत्त्या विहरिष्यामि इति उदित्वा मातरं पितरं ज्ञातीन् परिग्रहं च त्यक्त्वा वीरभावमापद्मा गृहस्थजीवनात् समुत्थानं कृत्वा अहिंसकाः, सुव्रताः- तपस्विनः, दान्ताःइन्द्रियानिन्द्रियजयिनो भवन्ति ।। 'हे आत्मन् ! इस स्वजन का मैं क्या करूंगा ?' – यह मानते और कहते हुए कुछ लोग माता-पिता, ज्ञाति और परिग्रह को छोड़ वीरवृत्ति से प्रवजित होते हैं—अहिंसक, सुव्रती और दांत बन जाते हैं । ४. अहेगे पस्स बोणे उप्पइए पडिवयमाणे । सं० - अथ एकान् पश्य दीनान् उत्पत्य प्रतिपततः । उन दीन और उठकर गिरते हुए कुछ मुनियों को तू देख । भाष्यम् ९४ – अथ एके संयमस्य आरोहणं कृत्वा गौरवाधीनाः सन्तः प्रतिपतन्ति - सिंहवृत्त्या अभिनिष्क्रमणं कृत्वा पुनः शृगालवृत्तिमाचरन्ति । तान् दीनान् परीषपराजितान् त्वं पश्य । अनयोः सूत्रयो (९३,९४) परिणामधारायाः अनवस्थितत्वं प्रदर्शितम् । १. (क) आचारांग भूणि, पृष्ठ २३० विविहंगो भारवाहे पहियनदीतरता एवमादि सो सम्मति, भावसण्णो णाणदंसणचरिताणि पत्तो तहावि ण तेसु जो भत्तिमंताण उज्जमति । ३३७ जो प्रमादी साधक गौरवत्रिक से अभिभूत होकर घोर धर्म की उपेक्षा करता है वह आश्रवरूपी पंक में निमग्न और वितर्व-संवर धर्म के प्रतिकूल प्रवृत्ति करने वाला कहलाता है, ऐसा मैं कहता हूं। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २२९ : विषण्णः कामभोगेषु । २. (क) आशंग भूणि पृष्ठ २३०-२३१ विविहं सहो २ कुछ व्यक्ति उत्कृष्ट परिणामधारा से प्रव्रजित होते हैं । यह जन अर्थात् माता-पिता आदि स्वजन वर्ग इस लोक में भी जन्म, मरण, रोग, शोक से अभिभूत व्यक्ति को भाग नहीं दे पाता इस फिलन से वे वैराग्य को प्राप्त होते हैं 'इस स्वजन वर्ग का मैं क्या करूंगा ऐसा मानते हुए तथा यह कहते हुए कि मैं यावज्जीवन सिंहवृत्ति से संयम जीवन में विहरण करूंगा' वे माता, पिता, ज्ञातिजन तथा परिग्रह को छोड़ कर वीरतापूर्वक गृहस्थ जीवन से समुत्थान कर - अभिनिष्क्रमण कर प्रव्रजित हो जाते हैं। वे अहिंसक, सुव्रततपस्वी तथा दांत - इन्द्रिय और मन पर विजय प्राप्त करने वाले होते हैं । कुछ साधक संयम में आरोहण कर गौरवत्रिक के अधीन होकर नीचे गिर जाते हैं अर्थात् सिंहवृत्ति से अभिनिष्क्रमण कर पुनः शृगालवृति का आवरण करने लग जाते हैं। उन दोन परीषहों से पराजित मुनियों को तू देख इन दो सूत्रों (९३-९४ ) में परिणामधारा की अनवस्थितता बताई गई है। दवे मच्छकंटगादि गलए लग्गो वितद्द, भावओ नापस्स उपदेश अपसोचे बहुति एवं समनाथचरितविण तिरिीतो वितो । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २२९ विविधं तदंतीति वितद-हिंसकः, 'सर्व हिसाया' मित्यस्मात् कर्तरि पचाद्यच्, संयमे वा प्रतिकूलो वितर्वः । Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ १५. बसट्टा कायरा जणा लूगा भवंति । भाष्यम् ९१ - प्रतिपतनस्य सं० – वशार्त्ताः कातराः जनाः लूषकाः भवन्ति । वशात और कायर मनुष्य व्रतों का विध्वंस करने वाले होते हैं। कारणमस्ति वशास्वं संयम से भ्रष्ट होने के दो कारण हैं-वशार्त्तता और कातरत्वं च वगा: इन्द्रियविषयकषायवशेन आत कातरता बसा का अर्थ है-इन्द्रियविषय तथा कषाय की अधीनता । वशात्तः । से पीडित । वशा चार प्रकार के होते है -- क्रोधवशात, मानवशार्त्त, मायावणात तथा लोभमा जो व्यक्ति परीषहों को सहने में असमर्थ होता है, वह कातर कहलाता है । वशा और कातर पुरुष व्रतों के विध्वंसक होते हैं। वशार्त्तः । स चतुर्विधो भवति - क्रोधवशार्त्तः, मानबशार्तः मायावशार्त्तः लोभवशार्त्तश्च ।' परीषहं सोढुमनीशः कातरः । वशार्त्ताः कातराश्च जनाः व्रतानां लूषका:- विध्वंसका भवन्ति । - ६. अहमेगेसि सिलोए पावए भवइ, 'से समणविभंते समणविग्भते ।' सं० - अथैकेषां श्लोकः पापको भवति स श्रमणविभ्रान्तः श्रमणविभ्रान्तः' । कुछ मुनियों की निन्दनीय प्रसिद्धि होती है, जैसे- 'यह विद्यांत धमण है, यह विद्यांत भ्रमण' है । एकेषां भाष्यम् ९६-- अथ तेषां भग्नव्रतानां भग्नोत्साहानां भग्नपराक्रमाणां पापकः श्लोको भवति, यथा असौ विभ्रान्तः भ्रमणः विभ्रान्तः श्रमणः श्लोक:- लापा प्रसिद्धि । - । भाष्यम् ९७ - प्रव्रजितानां पुण्यश्लोकस्य चत्वारो हेतवः भवन्ति (१) वे ७. पासगे समण्णाग एहि असमण्णागए, णममार्णोह अणममाणे, विरतिह अविरते, दविएहि अदविए । सं० - पश्यत एकान् समन्वागतेषु असमन्वागतान्, नमत्सु अनमतः, विरतेषु अविरतान् द्रव्येषु अद्रव्यान् । तुम देखो, संयम से च्युत होने वाले मुनि सम्यग् आचार वालों के बीच असम्यग् आचार वाले, समर्पित मुनियों के बीच असमर्पित, विरत मुनियों के बीच अविरत तथा चारित्र से सम्पन्न मुनियों के बीच चारित्र से दरिद्र होते हैं। प्रव्रजित मुनियों की प्रशंसात्मक प्रसिद्धि के चार हेतु होते हैं१. जो संयम के प्रति समन्वागत - जागरूक होते हैं । २. जो संयम के प्रति प्रणत- समर्पित होते हैं । ३. जो विरत - इन्द्रिय-विषयों के प्रति अनाकृष्ट होते हैं । भवन्ति जागरूकाः । समन्वागता:- संयमं प्रति (२) ये भवन्ति प्रणताः - संयमं प्रति समर्पिता इति यावत् । (३) ये भवन्ति विरताः इन्द्रियविषयान् प्रति अनाकृष्टाः । ( ४ ) ये भवन्ति द्रव्याः - रागद्वेषविजयिनः । तेषु एके केचित् गौरवेणाभिभूताः भवन्ति असमन्वागताः, अप्रणताः, अविरताः, अद्रव्याश्च । आचारांगधाध्यम व्रतों को भग्न करने वाले उत्साहहीन तथा पराक्रमशून्य 1 कुछेक मुनियों की निन्दनीय प्रसिद्धि होती है। लोग कहते है वह विभ्रांत अमण है, यह विभ्रांत श्रमण 'लोक का अर्थ हैश्रमण श्लाघा अथवा प्रसिद्धि । ४. जो द्रव्य - राग-द्वेष के विजेता होते हैं । उनमें से कुछेक मुनि गौरव से अभिभूत होकर असमन्यागतसंयम के प्रति अजागरूक, अप्रणत-संयम के प्रति असमर्पित, अविरत - इन्द्रिय-विषयों के प्रति आकृष्ट और अद्रव्य-राग-द्वेष से पराभूत होते हैं । ८. अभिसमेच्चा पंडिए मेहावी णिट्टियट्ठे वीरे आगमेणं सया परक्कमेज्जासि । -त्ति बेमि । सं० - अभिसमेत्य पंडितो मेधावी निष्ठितार्थः वीरः आगमेन सदा पराक्रामेत् । - इति ब्रवीमि । उत्प्रव्रजित होने के परिणामों को जान कर पण्डित, मेधावी, मोक्षार्थी और वीर मुनि सदा आगम के अनुसार पराक्रम करे । ऐसा मैं कहता हूं। १. द्रष्टव्यम् - भगवती १२।२२-२५ । Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ६.धुत, उ०४,५. सूत्र ६५-१०० ३३६ भाष्यम् १८-उत्प्रव्रजनस्य परिणामान् अभिसमेत्य उत्प्रव्रजन के परिणामों को जानकर पंडित मुनि आगम के पण्डितो मुनिः आगमेन सदा पराक्रामेत्, इति ब्रवीमि। अनुसार संयम में सदा पराक्रम करे, ऐसा मैं कहता हूं। आगमः-आज्ञा चिन्तनं वा।' आगम का अर्थ है-आज्ञा अथवा चिंतन । अत्र मुनिः चतुर्भिविशेषणः विशेषितः । स एव मुनिः प्रस्तुत आलापक में मुनि के चार विशेषण हैं । वही मुनि प्रव्रज्यायां विहर्तुमर्हति यो भवति पण्डितः-तत्त्ववेत्ता, प्रव्रज्या में विहरण कर सकता है जो पंडित-तत्त्ववेत्ता होता है, जो यो भवति मेधावी-धारणक्षमः मर्यादाशीलो वा, यो मेधावी-धारण करने में समर्थ अथवा मर्यादाशील होता है, जो भवति निष्ठितार्थ:-विषयसुखनिष्पिपास: मोक्षार्थी वा, निष्ठितार्थ-विषयसुखों के प्रति अनाकांक्षी अथवा मोक्षार्थी होता है, यश्च भवति वीरः-पराक्रमी सहिष्णुर्वा । जो वीर-पराक्रमी अथवा सहिष्णु होता है। पंचमो उद्देसो : पांचवां उद्देशक ६६. से गिहेसु वा गिहतरेसु वा, गामेसु वा गामंतरेसु वा, नगरेसु वा नगरंतरेसु वा, जणवएसु वा जणवयंतरेसु वा, संतेगइया जणा लूसगा भवंति, अदुवा–फासा फुसंति ते फासे, पुट्ठो वीरोहियासए। सं०-अथ गृहेषु वा गृहान्तरेषु वा, ग्रामेषु वा ग्रामान्तरेषु वा, नगरेषु वा नगरान्तरेषु वा, जनपदेषु वा जनपदान्तरेषु वा सन्त्येकके जनाः लूषकाः भवन्ति । अथवा-स्पर्शाः स्पृशन्ति तान् स्पर्शान स्पृष्टः वीरोऽधिसहेत। गहों में, गृहांतरों में, ग्रामों में, ग्रामांतरों में, नगरों में, नगरांतरों में, जनपदों में, जनपदांतरों में मुनि को कुछ लोग अनुकूल या प्रतिकूल उपसर्ग देते हैं अथवा विविध स्पर्श-परीषह प्राप्त होते हैं। उनसे स्पृष्ट होने पर वीर मुनि उन सबको सहन करे। भाष्यम् ९९-तितिक्षा मुनिजीवनस्य परमो धर्मो मुनि जीवन का परम धर्म है तितिक्षा । इसीलिए बार-बार वर्तते। अत एव पुनः पुनरुच्यते-मुनिर्वीरो भवति । न कहा जाता है कि मुनि वीर होता है। पराक्रमहीन व्यक्ति मुनित्व तु पराक्रमहीनः मुनित्वमाराधयितुमर्हति । स गृहादिषु की आराधना नहीं कर सकता । गृह आदि स्थानों में रहा हुआ, स्थानेषु आसीनः, कायोत्सर्गमुद्रायां स्थितः, अध्वप्रति- कायोत्सर्ग-मुद्रा में स्थित अथवा परिव्रजन करता हुआ वह मुनि कुछ पन्नो वा कैश्चिल्लूषकः-उपद्रवकारिभिः उपद्रुतो उपद्रवकारी लोगों से उपद्रुत होता है। वे उसे अनुकूल या प्रतिकूल भवति। अनुलोमोपसर्गकारिणः संयमलूषका भवन्ति। उपसर्गों से पीडित करते हैं। अनुलोम या अनुकूल उपसर्ग करने वाले प्रतिलोमोपसर्गकारिणः शरीरलूषका भवन्ति अथवा संयम को लूटने वाले होते हैं और प्रतिलोम या प्रतिकूल उपसर्ग करने स्पर्शा:-शीतोष्णदंशमशकादिपरोषहाः, तैः स्पृष्टस्तान वाले शरीर को लूटने वाले होते हैं। अथवा स्पर्श का अर्थ है - सर्दी, अधिसहेत। गर्मी, दंशमशक आदि के परीषह । उनसे स्पृष्ट होने पर वीर मुनि उन सबको सहन करे। १००. ओए समियदसणे। सं०-ओजः सम्यक्दर्शनः । पक्षपात-रहित और सम्यग्-वर्शनी मुनि धर्म की व्याख्या करे। १. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २३४ : आगममाणो (ख) आचारांग चूणि, पृष्ठ २३४ : ट्ठि णेतीणि द्वितं, चितेमाणो। जं भणितं-मोक्खो हि, उत्तमो अत्थो उत्तमत्थो। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २३० : आगमेन–सर्वज्ञप्रणीतो- ३. आचारांग चूणि, पृष्ठ २३५-२३६ : लूसंतीति लूसगा, पदेशानुसारेण। सरीरलूसगा संजमलूसगा वा पडिलोमा, अणुलोमा तु २. (क) आचारांग वृत्ति, पत्र २३० : निष्ठितार्थः विषय एगंतेण संजमलूसगा। सुखनिष्पिपासः । Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० आचारांगभाष्यम् भाष्यम् १००-ओजः-एक: रागदोषरहित: मध्यस्थ ओज का अर्थ है-अकेला, राग-द्वेष शून्य, मध्यस्थ । निशीथइति यावत् । उक्तञ्च निशीथचूर्णी-रागवोसविरहितो चूर्णि में कहा है-जो राग-द्वेष से रहित है तथा दो के बीच रहता वोह विमझी वट्टमाणो तुलासमो ओयो मण्णति । हुआ तुला के समान मध्यस्थ होता है, वह ओज कहलाता है । १०१. दयं लोगस्स जाणित्ता पाईणं पडीणं दाहिणं उदीणं, आइक्खे विमए किट्टे वेयवी। सं-दया लोकस्य ज्ञात्वा प्राचीनं प्रतीचीन दक्षिणमुदीचीनं आचक्षीत विभजेत् कीर्तयेत् वेदविद् । आगमज्ञ मुनि पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर-सभी दिशामों और विदिशाओं में जीव-लोक की बया को ध्यान में रखकर धर्म की व्याख्या, उसके विभाग का निरूपण और उसके परिणाम का प्रतिपावन करे। भाष्यम् १०१-धर्म कः प्रतिपादयेत् इति पूर्वसूत्रे धर्म का प्रतिपादन कौन करे—यह पूर्व सूत्र में कहा जा उक्तम् । अत्रोच्यते-यथा अहिंसायाः विकासः स्यात् चुका है । प्रस्तुत आलापक में कहते हैं कि जैसे अहिंसा का विकास हो तथा धर्म प्रतिपादयेत्। लोकः षड़जीवकायलोकः। वैसे धर्म का प्रतिपादन करे । यहां लोक का अर्थ है-षड् जीवनिकाय धर्मकथी वेदविद् मुनिः सर्वासु दिक्षु जीवलोकस्य दयां- लोक । धर्मकथी आगमज्ञ मुनि सभी दिशाओं में जीवलोक की अहिंसां ज्ञात्वा धर्म आचक्षीत । वेवः-आगमः शास्त्रं दया-अहिंसा को ध्यान में रख कर धर्म की व्याख्या करे । वेद का वा। वेदवित्-आगमज्ञः । अर्थ है--आगम अथवा शास्त्र । जो आगमज्ञ है वह वेदविद है । अत्र त्रीणि क्रियापदानि विद्यन्ते प्रस्तुत आलापक में तीन क्रियापद हैंतत्र 'माइखे' इति पदेन सामान्यनिरूपणं विवक्षितम्। १. आइक्खे-इससे सामान्य निरूपण विवक्षित है। 'विभए' इति पदेन विभज्यवादं प्रयुजीत इति २. विमये-इससे यह सूचित किया गया है कि धर्म की सूचितम् । यथा च सूत्रकृताङ्गे-विभज्जवायं च वियाग- व्याख्या करने वाला मुनि 'विभज्यवाद' की शैली का प्रयोग करे । रेज्जा । जैसे सूत्रकृतांग में कहा गया है 'मुनि विभज्यवाद से धर्म का कथन करे। 'किट्ट' इति पदेन अनुष्ठानफलस्य कीर्तनमभिप्रेतम् ।' ३. किट्टे-इससे अनुष्ठानफल -परिणाम का कथन अभिप्रेत १०२. से उठ्ठिएसु वा अणुट्टिएसु वा सुस्सूसमाणेसु पवेदए-संति, विरति, उवसमं, णिव्वाणं, सोयवियं, अज्जवियं, __ मद्दवियं, लावियं, अणइवत्तियं । सं०-स उत्थितेषु वा अनुत्थितेषु वा, शुश्रूषमाणेषु प्रवेदयेत्-शान्ति, विरति, उपशम, निर्वाणं, शौचं, आर्जवं, मार्दवं, लाधवं, अनतिवृत्तिकम्। वह मुनि धर्म सुनने के इच्छुक मनुष्यों के बीच, फिर वे उत्थित हों या अनुत्थित, शांति, विरति, उपशम, निर्वाण, शौच, आजब, मार्दव, लाघव और अहिंसा का प्रतिपादन करे। १. 'ओज'शब्दः सकारान्तोऽपि दृश्यते। अकारान्तस्य अर्थोऽस्ति "विषमः' आप्टे, ओजः odd, uneven | एकसंख्यापि विषमसंख्या वर्तते। तेनास्य एकसंख्यापर कोऽर्योऽपि नास्त्यसंगतः। २. निशीथ भाष्यचूणि, गा० ४८१८ (भाग-३) पृष्ठ ५११। ३. आचारांग चूणि, पृष्ठ २३६ : सा य बया वन्वादिसु भवति, दव्वतो छसु जीवनिकायेसु, लोगग्गहणा बव्वग्गहणं । एवं च णातं भवति, जति कीरति, खित्ते उ पाईणं पदीणं सवाहि विसाहिं सवाहि अणुदिसीहि य पाणातिवातं पडिसेधंति, कालतो जावज्जीवं, भावतो अरत्तो अवुट्ठो। ४. आचारांग वृत्ति, पत्र २३२ : 'विभजेत्' द्रव्यक्षेत्रकालभाव भेदैराक्षेपण्यादिकथाविशेषेर्वा प्राणातिपातमुषावादावत्तादानमैथुनपरिग्रहरात्रीभोजनविरतिविशेषेर्वा धर्म विभजेत्, यदि वा कोऽयं पुरुषः कं नतो देवताविशेष अभिगृहीतोऽनभिगृहीतो वा? एवं विमजेत् । ५. द्रष्टव्यम्-सूयगडो १।१४।२२ श्लोकस्य टिप्पणम् । ६. आचारांग वृत्ति, पत्र २३२ : कीर्तयेद् व्रतानुष्ठानफलम् । Jain Education international Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ६. धुत, उ० ५. सूत्र १०१-१०३ ३४१ भाष्यम् १०२-केषु कीदक्षं धर्म प्रतिपादयेत् इत्युच्यते मुनि किन व्यक्तियों में किस प्रकार के धर्म का प्रतिपादन करे, सूत्रकारेण। ये धर्म शुश्रूषवः सन्ति ते धर्माचरणं यह सूत्रकार बता रहे हैं। जो पुरुष धर्म सुनने के इच्छुक हैं, वे प्रति उत्थिता भवेयुः अनुत्थिता वा, तेषु धर्मकथी धर्मं धर्म के आचरण के प्रति उत्थित हों या अनुत्थित, उनको धर्मकथी धर्म प्रवेदयेत् । बताए। इदानीं धर्मस्य स्वरूपमुच्यते-शान्ति:- अहिंसा', अव धर्म का स्वरूप बताया जा रहा है शांति ---अहिंसा, विरतिः-आस्रवाद् विरमणम्', उपशम:-क्रोधादीना- विरति-आस्रवों से विरमण, उपशम-क्रोध आदि कषायों का मुपशमनम्, निर्वाणम्-सहज आनन्दः चित्तस्य उपशमन, निर्वाण-सहज आनन्द अथवा चित्त की स्थिरता, शौचस्थय वा', शौचम्-अलोभः, आर्जवम्- अलोभ, आर्जव-अमाया, मार्दव-अहंकार-विवेक, लाघव-वस्त्र अमाया', मार्दवम्-अहङ्कारविवेकः', लाघवम्- आदि उपकरणों की अल्पता, अनतिवृत्तिक-ज्ञान आदि का अनतिक्रमण वस्त्राद्युपकरणानामल्पता', अनतिवृत्तिकम् -ज्ञाना- अथवा अहिंसा-यह धर्म का स्वरूप है। दीनां अनतिक्रमणं अहिंसा वा। १०३. सव्वेसि पाणाणं सव्वेसि भूयाणं सव्वेसि जीवाणं सव्वेसि सत्ताणं अणुवीइ भिक्खू धम्ममाइक्खेज्जा। सं०--सर्वेषां प्राणानां सर्वेषां भूतानां सर्वेषां जीवानां सर्वेषां सत्त्वानां अनुवीचि भिक्षुः धर्ममाचक्षीत । भिक्षु सब प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों के सामने विवेकपूर्वक धर्म की व्याख्या करे। भाष्यम् १०३-धर्मकथी भिक्षुः सर्वेषां प्राणादीनां धर्मकथा करने वाला भिक्षु सभी प्राणियों के लिए अनुवीचिअनुवीचि धर्म आचक्षीत । विवेकपूर्वक धर्म की व्याख्या करे। अनुवीचि-विवेकपूर्वक चिन्तनपूर्वकं वा। अनुवीचि का अर्थ है--विवेकपूर्वक अथवा चिन्तनपूर्वक । १. आचारांग चूणि, पृष्ठ २३७ : समणं संति, जं भणितं अहिंसा, लोगेवि वत्तारो भवंति-संतिकम्म कीरंतु, यदुक्तंभवति-आरोग्गं अव्वाबाहं । २. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २३७ : विरतिगहणा सेसाणि वयाणि गहियाणि । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २३२-३३ : अनेन च मृषा वादादिशेषव्रतसंग्रहः। ३. आचारांग चूणि, पृष्ठ २३७ : उवसमगहणा उत्तरगुणाण गहणं, तं जहा --कोहोवसमं लोभोवसम, अणुवसंतकसायाणं च पटवयराइसमाणेणं इहलोगपरलोगदोसे कधेति, इहलोगे उजाइ तिव्वकसाओ परलोगे णरगादि विभासा। ४. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २३७ : णिवुति णिवाणं, तं च उवसमा भवति, इह परत्थ य, इह सीतिभूतो परिनिव्वुडोटव, तहा 'तणसंथारणिवण्णो परलोगे वि मोक्खो, तं जहा-कंमविवेगो असरीरया य। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २३२ : निवृत्तिः निर्वाणं मूल गुणोत्तरगुणयोरहिकामुष्मिकफलभूतम् । (ग) देखें-उत्तरायणाणि, ३११२ का टिप्पण। । ५. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २३७ : सोयवितं सोयं, दवे भावे य, दवे पडादीणं भावे अलुद्धता, लोगेवि वत्तारो भवंति-सुतिउ सो, णवि सो उक्कोडं लंचं वा गिण्हेति । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २३२ : शौचं सर्वोपाधिशुचित्वं निर्वाच्यव्रतधारणम् । ६. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २३७ : आज्जवा जातं अज्जवितं - अमाता। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २३२ : आर्जवं मायावता परित्यागात् । ७. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २३७ : मद्दवाज्जातं मद्दवितं । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २३२ : मार्दवं मानस्तब्धता परित्यागात् । ८. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २३७ : लाघवाज्जातं लाघ वितं, जं भणितं-अकोहत्तं । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २३२ : लाघवं सबाह्याभ्यन्तर ग्रन्थपरित्यागात् । ९. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २३८ : अणतिवातियं नाणा दीणि जहा ण अतिवयति तहा कहेति, अहवा अतिपतणं अतिपातो, कि अतिवातेति ?, आयु सरीरं इंदियं बलं पाणातिवातो, ण अतिवातेति अणति- वातियं। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २३२ : अनतिपत्य यथावस्थित वस्त्वागमाभिहितं तथाऽनतिक्रम्येत्यर्थः । Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ आचारांगभाव्यम् १०४. अगुवोइ भिक्खू धम्ममाइक्खमाणे-णो अत्ताणं आसाएज्जा, णो परं आसाएज्जा, णो अण्णाई पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताई आसाएज्जा । सं.-अनुवीचि भिक्षुः धर्ममाचक्षाणः नो आत्मानं आशातयेत्, नो परं आशातयेत् , नो अन्यान् प्राणान् भूतान् जीवान् सत्त्वान् आशातयेत् । विवेकपूर्वक धर्म की व्याख्या करता हुआ मिनु न अपने-आपको बाधा पहुंचाए, न दूसरे को बाधा पहुंचाए और न अन्य प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों को बाधा पहुंचाए । भाष्यम् १०४-अनुवीचि धर्म आचक्षाणः भिक्षुः विवेकपूर्वक धर्म की व्याख्या करता हुआ भिक्षु अपनी, दूसरों आत्मनः परस्य सर्वेषां च प्राणादीनां आशातनया मुक्तो की तथा सभी प्राणियों की आशातना से मुक्त हो जाता है। आशातना भवति। आशातना-बाधा परिहानिर्वा। द्रव्यतः का अर्थ है-बाधा अथवा परिहानि । वह दो प्रकार की है-द्रव्य शरीरोपकरणादीनां अन्नपानादीनां च आशातना भवति, आशातना और भाव आशातना। द्रव्य आशातना शरीर, उपकरण भावतश्च ज्ञानदर्शनचारित्रतपोविनयादीनामाशातना आदि की तथा अन्न-पान आदि की होती है। भाव आशातना ज्ञान, भवति। दर्शन, चरित्र, तप, विनय आदि की होती है। भोजनवेलामतिक्रम्य धर्मकथाकरणेन आहाराद्या- भोजन-वेला का अतिक्रमण कर धर्मकथा करने से आहार शातना-आहारस्य अनुपलब्धिः अपर्याप्तोपलब्धिर्वा आदि की आशातना होती है-आहार की अनुपलब्धि अथवा अपर्याप्त भवति । पुरुषविवेकमकृत्वा धर्मकथाकरणेन क्रुद्धः पुरुषः उपलब्धि होती है। पुरुष का विवेक किए बिना धर्मकथा करने से शरीरस्य उपकरणादीनां व्याघातं आहारस्य च प्रतिषेधं सुनने वाला व्यक्ति क्रुद्ध हो सकता है। वह पुरुष शरीर और कुर्यात् । उपकरणों आदि का व्याघात और आहार का प्रतिषेध कर सकता तथा धर्मो न कथयितव्यः येन आत्मनः परस्य धर्म का प्रतिपादन वैसे नहीं करना चाहिए जिससे स्वयं के भिक्षोर्वा सूत्रार्थतदुभयानां हानिर्भवति । न च तादृशीं तथा दूसरे भिक्षु के सूत्र, अर्थ और सूत्रार्थ की हानि होती हो। अथवा स्त्रीपुरुषयोर्वा धर्मकथां कथयेत् यतश्चारित्रहानिः स्त्री-पुरुष की वैसी धर्मकथा नहीं कहनी चाहिए जिससे सुनने वाले के स्यात् । उक्ता आत्मनः आशातना। चारित्र की हानि हो । यह स्वयं की आशातना कही गई है। इदानीं 'णो परं आसाएज्जा' इति प्रसज्यते। धर्म- अब 'दूसरे की आशातना न करे'-इसका प्रसंग है । धर्मकथी कथी भिक्षुः अन्यं धर्मकथिनं भिक्षु न निन्देत्, यथा-स भिक्षु दूसरे धर्मकथी भिक्षु की निंदा न करे, जैसे-वह बेचारा धर्म वराकःधर्ममेव न जानाति किधर्मकथां करिष्यति ?यथाहं को ही नहीं जानता, फिर क्या धर्मकथा करेगा ? जैसा मैं स्वमत और स्वसमयपरसमय विज्ञान तथा सः। न च वादमारोप्य परमत का ज्ञाता हूं, वैसा वह नहीं है। वाद आरोपित कर दूसरे पर परः आक्षेप्तव्यः, न च धर्मकथायां जातिकुलादीनां आक्षेप न करे। धर्मकथा करते समय जाति, कुल आदि का सद्भाव सद्भावं कथयित्वा परः अवज्ञातव्यः ।' उक्ता बतला कर दूसरे की अवज्ञा न करे। यह पर की आशातना कही गई पराशातना। इदानीं प्राणादीनामाशातना उच्यते-वर्षासु स्थितः अब प्राण, भूत आदि की आशातना बतलाई जा रही है स्वयं स्थितस्य वा जनस्य धर्मकथां न कुर्यात्, यतः अप्कायि- वर्षा में बैठकर अथवा वर्षा में बैठे हुए लोगों में धर्मकथा न करे, कानां जीवानां आशातना भवति । धर्मकथायां क्योंकि इससे अप्कायिक जीवों की आशातना होती है। धर्मकथा के १. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २३९ : जो परं आसाएज्जा, धम्मं कहेंतो अणुधम्मकाही निदति, सो बरातो धम्म चेव न जाण ति तो कि कहेहिति ? णवि सो जहा अहं ससमयपरसमयवियाणओ, ण य वावं कहेति। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २३३ : तथा नो परं शुश्रूषं आशातयेद्-हीलयेद्, यतः परो हीलनया कुपितः सन्नाहारोपकरणशरीरान्यतरपीडाय प्रवर्ततेति, अतस्तदाशातना वजयन् धर्म बूयादिति । २. आचारांग चूणि, पृष्ठ २३९ : पुढविमाविसु वा कायेसु ठितो ठियस्स वा कहेति, धुमिताए भिण्णवासे वा पडते पाणाइं भूयाइं सत्ताई आसादेति, अत एवं भणत्ति-णो पाणाईणो भूयाई णो जीवाई णो सत्ताई आसाविज्ज । Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ६.धुत, उ० ५. सूत्र १०४-१०५ ३४३ हिंसाहेतुभूतानां दानादिप्रवृत्तीनां प्रशंसां निषेधं वा न प्रसंग में हिंसा के हेतुभूत दान आदि प्रवृत्तियों की न प्रशंसा करे और कुर्यात् । अत्र बचनद्वयेऽपि अन्येषां प्राणादीनां आशातना न निषेध करे। ऐसे प्रसंग में प्रशंसा या निषेध--इन दोनों वचनों से भवति । भी दूसरे प्राण, भूत आदि की आशातना होती है । १०५. से अणासादए अणासादमाणे वुज्झमाणाणं पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं, जहा से दीवे असंवीणे, एवं से भवइ ___ सरणं महामुणी। सं० - स अनाशातकः अनाशातयन् उह्यमानानां प्राणानां भूतानां जीवानां सत्त्वानां, यथा स द्वीपः असन्दीन:, एवं स भवति शरणं महामुनिः । दूसरों को बाधा न पहुंचाने वाला वह भिक्ष जीवों की हिंसा का निमित्त बने, ऐसा उपदेश न दे। वह महामुनि संसार-प्रवाह में डूबते हुए प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों के लिए वैसे ही शरण होता है जैसे असन्दीन द्वीप । भाष्यम् १०५–स अनाशातकः धर्मकथी' भिक्षुः तथा आशातना-दूसरों को बाधा न पहुंचाने वाला वह धर्मकथी धर्म न कथयति यथा प्राणादीनां आशातना भवति, तेन भिक्षु धर्म का प्रतिपादन उस प्रकार से नहीं करता, जिससे किसी स अनाशातयन् इति उच्यते। चूर्णी अनासादयन् इति प्राण, भूत आदि की आशातना होती है। इसीलिए उसे 'आशातना नहीं वैकल्पिकः अर्थः कृतोऽस्ति- 'अहवा धम्मं कहेंतो ण किंचि करता हुआ' कहा जाता है। चूर्णि में 'अनासादयन्'- यह वैकल्पिक आसादए अन्नं पाणं वा, जं भणितं-तट्ठा ण कहेति ।' अर्थ किया है-अथवा मुनि धर्म कहता हुआ अन्न-पान आदि कुछ भी प्राप्त न करे । कहा है-मुनि अन्न, पान के लिए धर्मकथा नहीं करता। तादशो महामुनिः संसारसमुद्रे उह्यमानानां प्राणा- वैसा महामुनि संसार-समुद्र में बहे जाते हुए प्राणियों का वैसे दीनां तथा शरणं भवति यथा समुदे उह्यमानानां ही शरणभूत होता है जैसे समुद्र में बहे जाते हुए मनुष्यों के लिए मनष्याणां असन्दीन: द्वीपः । असन्दीनः द्वोप:' इति पूर्व असन्दीन द्वीप । असन्दीन द्वीप की व्याख्या पहले की जा चुकी है। व्याख्यातम् । १. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २३९-२४० : सो एवं आलापकों (१००-१०५) में पांच अर्हताएं प्रतिपादित अणासातए- अणासायमाणे किंचि जति लोइया हैं--१. पक्षपात-शून्यता। २. सम्यग्दर्शन । ३. सर्वजीवकुप्पावणिया वा दाणधम्म कूवतलागादीणि वा मैत्री। ४. आगमज्ञत।। ५. अनाशातना। पसंसंति तो पाणभूतजीवसत्ता आसादिता भवंति, नागार्जुनीय वाचना के अनुसार जो मुनि बहुश्रुत, अह भणति-दाणे दिज्जते कूवतलाएहि वा खणंतेहि बहु आगमों का अध्येता, दृष्टांत और हेतु के प्रयोगों में छक्काया वहिज्जति तेण अप्पणिग्गहो सेयो, अतो कुशल, धर्मकथा की योग्यता से सम्पन्न, क्षेत्र, काल और अंतराअदोसासायणा तज्जीवणाइ य पाणिभूत पुरुष को समझने वाला होता है, वही धर्म की व्याख्या जीवसत्ताणि आसादियाणि भवंति, भणियं च – 'जे करने के लिए अर्ह होता है। इस प्रसंग में 'केऽयं पुरिसे के य दाणं पसंसंति, वहमिच्छंति पाणिणं' तेण जह च गये' (२।१७७) यह सूत्र द्रष्टव्य है। अन्न, पान आदि उभयमवि ण विरुज्झति तहा कहियत्वं ।। के लिए धर्मकथा करना निषिद्ध है। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २३३ : यदि लौकिककुप्रावच- ३. आचारांग चूणि, पृष्ठ २४० । निकपार्श्वस्थादिदानानि प्रशंसति अवटतटागादीनि ४. आचारांग चूणि, पृष्ठ २४० : तथा मुणित्ति तित्थयरगणवा ततः पृथिवीकायादयो व्यापादिता भवेयुः, अथ धरो वा अण्णतरो वा साहू कम्मबललद्धिसंपन्नो।। दूषयति ततोऽपरेषां अन्तरायापादनेन तत्कृतो बन्ध- ५. आचारांग चूणि, पृष्ठ २४० : बुज्झमाणाणं पाणाणं वहिज्जविपाकानुभवः स्यात्, उक्तं च माणाणं वा संसारसमुदतेण पाणाणं सरणं गई पइट्ठा भवति 'जे उ दाणं पसंसति, वहमिच्छंति पाणिणं । जहा से दीवे असंदीणे, जहा सो दव्वदीवो आसासपगासदीबो जे उणं पडिसेहिति, वित्तिच्छेअं करिति ते ॥' ताणं सरणं गई पइट्ठा भवति एवं सोऽवि अप्पणो परस्स तस्मात्तद्दानावटतडागादिविधिप्रतिषेधव्युदासेन तदुभयस्स आसासदीवो भवति पगासदीवो य, जहुद्दिद्रेण यथावस्थितं दानं शुद्ध प्ररूपयेत् सावधानुष्ठानं चेति । कहाविहाणेणं कहेंतो केति पब्वाति केति सावते करेति, २. धर्म के व्याख्याकार की कुछ अहंताएं हैं। वे अहिंसा तहेति अहाभद्दए करेति, आगाढमिच्छाविट्ठीवि मउईभवति । और सत्य की कसौटी के आधार पर निर्धारित हैं। प्रस्तुत ६. द्रष्टव्यं-अस्यैव अध्ययनस्य ७२ सूत्रम् । Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ आचारांगभाष्यम १०६. एवं से उदिए ठियप्पा, अणिहे अचले चले, अबहिलेस्से परिवए । सं.... एवं स उत्थित: स्थितात्मा अनिहतः अचलः चलः अबहिर्लेश्यः परिव्रजेत् । इस प्रकार उस्थित, स्थितात्मा, राग-द्वेष से अपराजित, परोषह से अप्रकम्पित, कर्म-समूह को प्रकम्पित करने वाला और अभ्यवसाय को संयम में लीन रखने वाला मुनि अप्रतिबद्ध होकर परिव्रजन करे। भाष्यम् १०६-एवं स धर्मकथामर्मज्ञो मुनिः कथं इस प्रकार धर्मकथा-मर्मज्ञ वह मुनि कैसे परिव्रजन करे, इसका परिव्रजेत् इति दर्शयति सूत्रकारः। स उत्थित:- निर्देश कर रहे हैं सूत्रकार। वह मुनि उत्थित-संयम के प्रति सतत संयम प्रति सततं जागरूकः, स्थितात्मा' स्वरूपानु- जागरूक, स्थितात्मा-अपने स्वरूप का अनुसंधान करने में संलग्न सन्धाने क्षायोपशमिके भावे वा यस्य आत्मा स्थितो अथवा क्षायोपशमिक भाव में आत्मस्थिति बनाए रखनेवाला, राग-द्वेष भवति सः, अनिहतः-रागद्वेषाभ्यामपराजितः', से अपराजित, परीषहों और उपसर्गों से अप्रकम्प, बद्धकर्मों की उदीअचल:-परीषहोपसर्गरप्रकम्पकः, चल:---बद्धकर्मणां रणा करने में तत्पर तथा संयम में अथवा आत्मा में सदा रमण करने उदीरणाकारी', अबहिर्लेश्यः-संयमे आत्मनि वा वाला होता है। ऐसा मुनि समता से परिव्रजन करता है । रममाण:५एतादृशो मुनिः समतया परिव्रजनं करोति । १०७. संखाय पेसलं धम्म, दिद्विमं परिणिव्वुडे । सं०-संख्याय पेशलं धर्म दृष्टिमान् परिनिर्वृतः । दृष्टिमान् मुनि उत्तम धर्म को जान कर परिनिवृत-शांतचित्त हो जाता है। भाष्यम् १०७ -दृष्टिमान् मुनिः परिनिर्वृतः शान्त- दृष्टिमान् मुनि परिनिर्वृत-शांतचित्त होता है। शांति का चित्तः भवति । शान्तेः साधनमस्ति धर्मः, अत एव साधन है धर्म । इसीलिए कहा है-वह मुनि पेशल धर्म को जान कर उक्तम् -स पेशलं धर्म संख्याय परिनिर्वाणमाप्नोति। परिनिर्वाण (शांति) को प्राप्त हो जाता है । यहां शांति की प्राप्ति के अत्र शान्तिप्राप्तेः साधनद्वयं प्रतिपादितम् – सम्यग्दर्शनं, दो साधन प्रतिपादित हैं-सम्यग्दर्शन तथा पेशल-कषायों का उपपेशलस्य-कषायोपशामकस्य धर्मस्य परिज्ञानं च । शमन करने वाले धर्म का परिज्ञान। शमन १. आचारांग चूणि, पृष्ठ २४० : नाणादिपंथपट्टितो जस्स अप्पा स भवति उट्ठिते उद्वितप्पा । २. (क) द्रष्टव्यम् -आयारो, ४।३२ सूत्रम् । (ख) आचारांग चूणि, पृष्ठ २४० : अणि हेति ण णिहेति तवोविरियं ण णिहंति । ३. आचारांग चूणि, पृष्ठ २४० : नाणादिपंथए ठितो मेरुव वादेण ण कंपिज्जति परीसहोवसग्गेहिं अतो अचले । ४. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २४१ : चलति चालयति वा चलो, जीवायो व अट्ठविहं कम्मसंघातं चालेतीति चलो, चालितेत्ति वा उदीरितेत्ति वा एगट्ठा। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २३३ : तथा चलः अनियत विहारित्वात् । ५. आचारांग चूणि, २४१ : दव्वलेसा सिलेसादि, भावे परिणामो, संजमनिग्गतभावो बहिलेस्सो भवति, अबहिलेस्सो ण बहिलेसो, अहवा अप्पसत्थाओ लेस्साओ संजमस्स बाहिं वहंतीतिकाउं सो बहिलिस्सो भवति, नो बहिलेस्सो अबहिलिस्सो अणुलोमेहि पडिलोमेहि उवसग्गेहि उप्पण्णेहि अबहिलिस्सो अणाइलभावो अणिग्गयभावो सचित्तो अबहिलिस्सोत्ति एगट्ठा। ६. वही, पृष्ठ २४१ : जेवि ते गामाणुगामं दूइज्जतेणं आयरिया अणारिया वा धम्म गाहिता तेहिं वंदिज्जमाणो पूइज्जमाणो य आढायमानो अणाढाइज्जमाणो वा तत्थ अबहिलिस्से चेव परिवतिज्ज, समता वते परिश्वते, यदुक्तं भवति-ण कत्थति पडिबज्झमाणो। ७. वही, पृष्ठ २४१: दवणिवुडो अग्गी सीतीभूतो, रागाउवसमाओ य णिन्वुडगा य भवंति, भावे अकसाओ सीतीभूतो परिणिन्वुडो य, तंणिग्गओ, परमो वा तणुयकसाओ वा असंजमविवज्जयओ वा णिवृत्तो, परिणिग्वायमाणे वा परिणिवत्तेति वुच्चति। ८. वही, पृष्ठ २४१ : पीति उप्पाएतीति पेसलो। Jain Education international Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ६. घुल, उ० ५. सूत्र १०६-११० १०८. तम्हा संग ति पास । सं० तस्मात् सङ्ग इति पश्यत । इसलिए तुम आसक्ति को देखो। भाष्यम् १०८ - पेशलधर्मपरिज्ञानात् सम्यग्दर्शनाच्च शांतिर्भवति, तस्मात् शब्दादयः इन्द्रियविषयाः संग इति पश्यत । सङ्गः – आसक्तिः शान्तेविघ्न इति यावत् चूर्णे-संगोति वा वियोति वा वस्वोडिति वा एगड्डा । १०. गंथेहि गढिया णरा, विसण्णा कामविप्पिया । । सं० - ग्रन्थः ग्रथिताः नराः विषण्णाः काम 'विप्पिया' । स्वजन आदि में आसक्त और विषयों में निमग्न मनुष्य काम से बाधित होते हैं । माध्यम् १०९ - ये नरा ग्रन्थैः – स्वजनादिभिः ग्रथिताः - बद्धाः, विषण्णा : - इन्द्रिय विषयेषु च निमग्नास्ते मदनात्मक कामे: 'विपिया" बाधिताः भवन्ति । इच्छाकामः पदार्थजातं निमित्तीकृत्य प्रवर्द्धते । मदनकामस्य उद्दीपने निमित्ततां भजति स्वजनादीनां संसर्ग इन्द्रियविषयाणां अतृप्तिश्च । ११०. तम्हा लूहाओ णो परिवित्तसेज्जा । सं० तस्वात् क्षात् मो परिविसेत् । इसलिए मुनि संयम से उद्विग्न न हो। भाष्यम् ११० - - यस्मात् ग्रथिता विषण्णाश्च नराः कामजनितामशान्तिमनुभवन्ति तस्मात् रुक्षात् न परि वित्रसेत् — उद्विजेत । रूक्षम् - संयमः । * १. 'संग' शब्द के तीन अर्थ किए जा सकते हैं-आसक्ति, शब्द आदि इन्द्रियविषय और विघ्न । आसक्ति को छोड़ने का उपाय है आसक्ति को देखना । जो आसक्ति को नहीं देखता, वह उसे छोड़ नहीं पाता । भगवान् महावीर की साधना-पद्धति में जानना और देखना अप्रमाद है, जागरूकता है; इसलिए वह परित्याग का महत्त्वपूर्ण उपाय है। जैसे-जैसे जानना और देखना पुष्ट होता है, वैसे-वैसे कर्म-संस्कार सीज होता है। उसके क्षीण होने पर आसक्ति अपने आप क्षीण हो जाती है। २. आचारांग चूर्णि, पृष्ठ २४१ । ३. एतद् देशीपदं संभाव्यते । चूण अस्य व्याख्यानं पेशल धर्म के परिज्ञान से तथा सम्यग्दर्शन से शांति होती है, इसलिए शब्द आदि इन्द्रिय-विषय संग हैं, यह तुम देखो। संग का अर्थ है-आसक्ति, शांति का विघ्न । चूर्णि में संग, विघ्न तथा विक्षेप को एकार्थक माना है । २४५ जो मनुष्य ग्रन्थ-स्वजन आदि से बंधे हुए हैं और इन्द्रियविषयों में निमग्न हैं वे मदनकाम से बाधित होते हैं । इच्छाका पदार्थ समूह का निमित्त पाकर बढता है । मदनकाम के उद्दीपन में मुख्यतः दो निमित बनते है-स्वजन आदि का संसर्ग और इन्द्रिय-विषयों की अतृप्ति । ग्रथित - स्वजन आदि से बद्ध तथा विषण्ण विषयों में निमन्न मनुष्य कामजनित अशांति का अनुभव करते हैं, इसलिए मुनि संयम से उद्विग्न न हो। रूक्ष का अर्थ है-संयम । एवमस्ति विधितति विप्पितत्ति वा एण्डर, बच्चे संभादिविष्पिता दुद्धरा भवति भावे दुबिहकाम आसतचित्ता, सयणधणादिणा मुच्छिता वा कामा, जेहिं वा सारीरमाणसेहि वा दुखावी, माणसेहि ह विपिता परलोएवि बहूहि डंडणेहि य जाव पियविप्पओगेहि य विपिज्जिस्संति । (आचारांग चूणि, पृष्ठ २४२) वृत्तौ ' कामक्कता' इति व्याख्यातमस्ति काम:इच्छामदनरूपराक्रान्ताः -- अवष्टब्धाः । - ( आचारांग वृत्ति पत्र २३३ ) ४. (क) आचारांग भूमि, पृष्ठ २४२ इच्वे जं नेहविरहितं दव्वं तं लूहं भावे रागादिरहितो धम्मो । (ख) आचारांग वृत्ति पत्र २१४ का संयमात् 1 Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ आचारांगभाष्यम् १११. जस्सिमे आरंभा सव्वतो सव्वत्ताए सुपरिणाया भवंति, जेसिमे लसिणो णो परिवित्तसंति, से वंता कोहं च माणं च मायं च लोमं च । सं०-यस्येमे आरंभाः सर्वतः सर्वात्मना सुपरिज्ञाता भवंति येषु इमे लूषिणो नो परिवित्रसन्ति, स वान्ता क्रोधं च मानं च मायां च लोभं च। जिन आरम्भों में ये धुतों के विराधक मनुष्य उद्विग्न नहीं होते, उनको सब प्रकार से, सर्वात्मना छोड़ देने वाला मुनि क्रोध, मान, माया और लोम का वमन कर डालता है। भाष्यम् १११-येषु आरम्भेषु इमे लूषिणः-स्वजन- जिन आरम्भों में ये लूषक-स्वजन-परित्याग आदि पांच धुतों परित्यागादिधुतानां विराधका नरा नो परिवित्रसन्ति के विराधक मनुष्य उद्विग्न नहीं होते, वे ये आरंभ जिसके सब प्रकार -उद्विजन्ते ते इमे आरम्भा यस्य सर्वतः सर्वात्मना से, सर्वात्मना सुपरिज्ञात होते हैं, वह मुनि क्रोध, मान, माया और सपरिज्ञाता भवन्ति स चतुर्विधस्य क्रोधादिकषायस्य लोभ-इस चतुर्विध कषाय का वमन कर डालता है। इन आरंभ वान्ता भवति । आरम्भादिषु उद्वेगं अननुभवन्तो लूषिणो आदि में उद्वेग का अनुभव न करने वाले लूषक-धुतविराधक मनुष्य नरा क्रोधादिकं परित्यक्तुं न क्षमन्ते । आरम्भैरनु बद्धाः क्रोध आदि को छोड़ने में समर्थ नहीं होते। क्रोध आदि चारों कषाय क्रोधादिकषायाः। कः क्रोधादिकं करोति ? योऽस्ति आरंभ से अनुबद्ध हैं। क्रोध आदि कौन करता है ? जो आरंभ में आरम्भनिमग्नः । कश्च क्रोधादिकं उपशमयति ?योऽस्ति निमग्न होता है वही क्रोध आदि करता है। क्रोध आदि का उपशम आरम्भपरित्यागी। कौन करता है ? जो आरंभ का परित्याग करता है वही क्रोध आदि का उपशम करता है। ११२. एस तुट्टे वियाहिते त्ति बेमि। सं०-एष 'तुट्टे' व्याहृतः इति ब्रवीमि । वह त्रोटक कहलाता है, ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् ११२-येन स्वजनादिसंबंधा विधताः, जिस व्यक्ति ने स्वजन आदि के संबंधों को छोड दिया है, आस्रवनिरोधः कृतः, पूर्वोपचितं च कर्म क्षपितं स एष आस्रव का निरोध कर लिया है, पूर्व उपचित कर्मों का क्षय कर डाला त्रोटक इति व्याहृतः इति ब्रवीमि । है, वह त्रोटक (तोड़ने वाला) कहलाता है, ऐसा मैं कहता हूं। ११३. कायस्स विओवाए, एस संगामसोसे वियाहिए। से हु पारंगमे मुणी, अवि हम्ममाणे फलगावयट्टि, कालोवणीते कंखेज्ज कालं, जाव सरीरभेउ ।-त्ति बेमि । सं०-कायस्य व्यवपात: एष संग्रामशीर्ष व्याहृतः । स खलु पारंगमः मुनिः अपि हन्यमानः फलकावतष्टी, कालोपनीत: कांक्षेत् कालं यावत् शरीरभेदः ।-- इति ब्रवीमि । मृत्यु के समय होने वाला शरीर-पात संग्रामशीर्ष (अग्रिममोर्चा) कहलाता है। जो मुनि उसमें पराजित नहीं होता और परीषहों से आहत होने पर खिन्न नहीं होता, वह पारगामी होता है। बाह्य और आन्तरिक तप के द्वारा फलक की भांति शरीर और कषाय-दोनों ओर से कृश बना हुआ वह मुनि खिन्न न बने। मृत्यु के निकट आने पर जब तक शरीर का वियोग न हो, तब तक काल की प्रतीक्षा करे-मृत्यु की आशंसा न करे। - ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् ११३-जीवनस्य कषोपलोऽस्ति मृत्युः । तस्य जीवन की कसौटी है-मृत्यु । उस क्षण में साधक शांतचित क्षणे साधकेन शान्तचित्तेन भाव्यमिति निदिशति रहे, यह सूत्रकार का निर्देश है। यह शरीरपात संग्रामशीर्ष (अग्रिम सुत्रकारः । एष कायस्य व्यवपात: संग्रामशीर्ष विद्यते । मोर्चा) कहलाता है। जैसे अग्रिममोर्चे पर विजयी योद्धा अपने १. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २४२ : लूसंतीति लूसगा, पंचगस्स वा लूसगा भंजगा विराहगा एगट्ठा । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २३४ : लूषिणो लूषणशीलाः हिसकाः । २. आचारांग चूणि, पृष्ठ २४२ : सम्वतो इति खित्तं गहियं गामे वा जाव सवलोए। ३. वही, पृष्ठ २४२ : सम्वत्ता इति सव्वअप्पत्तेणं भावे गहिते कालोवि तत्थेव । Jain Education international Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ६. धुत, उ०५. सूत्र १११-११३ ३४७ यथा संग्रामशीर्षे विजयी योद्धा इष्टं प्राप्नोति तथैव इष्ट लक्ष्य को पा लेता है, वैसे ही शरीर-त्याग करने के क्षण में शरीरत्यागक्षणे विजयी साधकः शान्तिमधिगच्छति। विजयी साधक शांति को प्राप्त हो जाता है। जो मुनि परीषहों स मुनिः पारंगमो भवति यः परीषहोपसर्गः हन्यमानोऽपि और उपसर्गों से प्रहत होता हुआ भी संयम की आराधना से न खिन्न न संयमाराधनतः खिद्यते निवर्तते च। स होता है और न उससे निवृत्त होता है, वही मुनि पारगामी होता है। फलकावतष्टी भवति यथा उभयत: अपकृष्यमाणं वह फलकावतष्टी होता है, जैसे दोनों ओर से छिला जाता हुआ काष्ठं फलकं भवति तथा स बाह्यन आभ्यन्तरेण वा काष्ठ 'फलक' होता है, वैसे ही वह मुनि बाह्य अथवा आंतरिक तपसा शरीरं अपकर्षति । स काले उपनीते सति कालं- तप के द्वारा शरीर को कृश कर देता है। वह मुनि मृत्यु का समय पंडितमरणं काङ्क्षत-यदा मृत्योः लक्षणानि प्रकटी- समीप आने पर पंडितमरण की आकांक्षा करे अर्थात् जब मृत्यु के भवन्ति तदा अनशनं कृत्वा पण्डितमरणस्य काङ्क्षां लक्षण प्रकट हो जाते हैं तब वह अनशन कर पंडितमरण की आकांक्षा कुर्यात्, शरीरभेदपर्यन्तं मध्यस्थभावेन तिष्ठेत, न करे, शरीर का वियोग होने तक मध्यस्थभाव में रहे। वह न जीने च जीवनस्य मरणस्य वा आशंसां कुर्यात् ।' की आशंसा करे और न मरने की आशंसा करे। १. मृत्यु सचमुच संग्राम है। संग्राम में पराजित होने वाला वैभव से विपन्न और विजयी होने वाला वैभव से सम्पन्न होता है। वैसे ही मृत्यु-काल में आशंसा और भय से पराजित होने वाला साधना से च्युत हो जाता है तथा अनासक्त और अभय रहने वाला साधना के शिखर पर पहुंच जाता है। इसीलिए आगमकार का निर्देश है कि मृत्यु के उपस्थित होने पर मूढता उत्पन्न नहीं होनी चाहिए। मूढता से बचने की तैयारी जीवन के अंतिम क्षण में नहीं होती। वह पहले से ही करनी होती है। उसकी मुख्य प्रवृत्ति है-शरीर और कषाय का कृशीकरण । देखें-सूत्रकृतांग १७।३० । Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education international Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमं अज्झयणं महापरिणा सातवां अध्ययन महापरिज्ञा Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञप्तिः आचारांगस्य सप्तमं अध्ययनं महापरिज्ञानामकं विद्यते । इदानीं तन्नास्ति उपलब्धम् । तस्य लोपः कथं जातः, इत्यत्र अनुमानमेव कर्तुं शक्यम् । नाति किञ्चित् स्पष्टं प्रमाणम् । नियुक्तिवणितविषयवस्स्वाधारेण ज्ञायते तस्मिन् महती परिक्षा निरूपिता आसीत् ।' कालान्तरे सर्वशिष्येभ्यः तस्याः प्रदानं नोचितं प्रतीतम् । तेन तस्याध्ययनस्य पाठः विस्मृति नीतः। इत्यपि अनुश्रुतिविद्यते-महापरिज्ञाध्ययने अनेकासां विद्यानां निरूपणमासीत् । तासां दुरुपयोगो न स्याद् इति तस्य पाठः आचार्यैः प्रतिबंधितः । कालान्तरेण तस्य विलुप्तिः जाता। वस्तुतः नियुक्तिमतमेव वास्तविकं प्रतिभाति । आचारस्य केचिद् विषयाः बहुश्रुतैरेव अवगम्याः। तेषां ज्ञप्तिः सर्वसाधूनां कृते नोपयुक्ता इति चिन्तनपूर्वकं तस्य पठनपाठनपरंपरा अवरुद्धा समजनि । आचारांग के सातवें अध्ययन का नाम है 'महापरिज्ञा'। आज वह उपलब्ध नहीं है। उसका लोप कैसे हुआ, इसका अनुमान ही किया जा सकता है। इस विषय में कोई स्पष्ट प्रमाण प्राप्त नहीं है। नियुक्ति में वर्णित विषय-वस्तु के आधार पर यह ज्ञात होता है कि महापरिज्ञा अध्ययन में महान् परिज्ञा का निरूपण था। कालान्तर में सभी शिष्यों को उसका ज्ञान देना उचित प्रतीत नहीं हुआ। इसलिए उस अध्ययन का पाठ विस्मृत हो गया। यह भी अनुश्रुति है कि महापरिज्ञा अध्ययन में अनेक विद्याओं का निरूपण था। उनका दुरुपयोग न हो, इसलिए आचार्यों ने उसके पाठ को प्रतिबंधित कर दिया। कालान्तर में वह विलुप्त हो गया। वस्तुतः नियुक्ति का मत ही वास्तविक लगता है। आचार के कुछ विषय बहुश्रुत मुनियों के लिए ही जानने योग्य थे। उनकी जानकारी सभी साधुओं के लिए उपयुक्त नहीं है, इस चिन्तन के आधार पर उसके पठन-पाठन की परंपरा अवरुद्ध हो गई। १. आचारांग नियुक्ति, गाथा २६९ : पाहण्णण उ पगयं भावपरिग्णाए तह य दुविहाए। परिणाणेसु पहाणे महापरिष्णा तओ होइ॥ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमं अज्झयणं विमोक्खो आठवां अध्ययन विमोक्ष [उद्देशक ८ : सूत्र १३० गाथा २५] Jain Education international Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education international Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुताध्ययनस्य नामास्ति विमोक्षः अस्मिन् संबंधादीनां शरीरस्य च विमोक्षविधिर्भणितोस्ति अतोऽस्य 'विमोक्ष' इति संज्ञा कृतास्ति । अस्य अष्ट उद्देशका वर्तन्ते । तेषामधिकार इत्यमस्ति - १. असमनोशविमोक्षः । २. अकल्पिकस्य आहारादेविमोक्षः । ३. आशंकाविमोक्षः । ४. उपकरणशरीरयोविमोक्षः विधिश्च । ५. ग्लानत्वं भक्तपरिज्ञा च । ६. एकत्वं इङ्गिनीमरणं च । ७. प्रतिमाः प्रायोपगमनं च । ८. संलेखनापूर्वक अनशनविधिः ।' आमुखम् निक्षेपावसरे भावविमोक्षो द्विविधो भवति-देशविमोक्षः सर्वविमोक्षश्च कर्मद्रव्येः संयोगः सोऽस्ति बन्धः । तस्य वियोग: मोक्षः । संसारावस्थायां देश विमोक्षो भवति मोक्षावस्थायां च सर्वविमोक्षः । अनुज्ञातमरण भगवतो महावीरस्य समये धर्मसंघानां बाहुल्यमासीत् । अनेके धर्माचार्या धार्मिकाश्च स्वं स्वं धर्म परिपोषयन्तः परिपालयन्तश्च विहरन्ति स्म। परस्परं समागमः वार्तालापश्च मुक्त आसीत्। निर्यथानां आचार: घोरः, बहूनां च धार्मिकाणामाचारस्तदपेक्षया सुखपूर्णः आसीत् । नवप्रव्रजितानां सुखसुविधा अर्थयमाणानां च तत्र सहजमाकर्षणं भवति, नानावादानां च संघट्टे ते विप्रतिपन्ना अपि भवन्ति । एतां स्थिति प्रत्यवेक्ष्य सूत्रकारेण असमनोशविमोक्षस्य निर्देशः कृतः हिंसा अदत्तादानं मिथ्यावादश्च यत्र वर्तते तस्य विमोक्ष मुनिना अवश्यं कर्तव्यः । । मिथ्यावादस्य प्रसङ्गे सूत्रकारेण अनेकेषां वादानामुल्लेखः कृताः । ते वादा निरपेक्षमेकान्तं प्रतिपन्ना अतस्तेषां प्रावादुकानां धर्मः न स्वाख्यातः न च सुप्रज्ञप्तो भवति । अनेन इति फलितं भवति स एव धर्म स्वाख्यातः सुप्रज्ञप्तश्च भवति यत्रास्ति सम्यग् एकान्तः अनेकान्तो - वा । १. आचारांग निर्युक्ति, गाथा २५२-२५६ । प्रस्तुत अध्ययन का नाम है 'विमोक्ष' । इसमें संबंध आदि के तथा शरीर के विमोक्ष (विसर्जन) की विधि बतलाई गई है, इसलिए इस अध्ययन का नाम 'विमोक्ष' है। इसके आठ उद्देशक हैं। उनका अर्थाधिकार इस प्रकार है १. असमनोज्ञ - अन्यतीथिकों का परिहार । २. अकल्पनीय आहार आदि का परित्याग । ३. आशंका का परिहार । ४. उपकरण और शरीर का विमोक्ष तथा अनुज्ञात मरणविधि का निर्देश । ५. ग्लानत्व और भक्तपरिज्ञा अनशन । ६. एकत्व और इंगिनीमरण अनशन । ७. प्रतिमाएं और प्रायोपगमन अनशन । ८. सेखनापूर्वक अनसनविधि । निक्षेप के प्रसंग में भावविमोक्ष के दो प्रकार हैं देशविमोक्ष और सर्वविमोक्ष आत्मा के साथ कर्मद्रव्यों का जो संयोग है, वह है बंध। उसका वियोग होना है मोक्ष । संसारी अवस्था में देश-विमोक्ष होता है और मोक्ष अवस्था में सर्वविमोक्ष होता है। भगवान् महावीर के समय में धर्मसंघों की बहुलता थी 1 अनेक धर्माचार्य और ग्रामिक अपने-अपने धर्मों का परिपोषण और परिपालन करते हुए विहण कर रहे थे। उनका पारस्परिक मिलन और वातनाप मुक्त या निर्धयों का आभार पोर था। बहुत से धार्मिकों का आचार निर्ग्रन्थों की अपेक्षा सुविधाजनक था। नवदीक्षित और सुखसुविधा की आकांक्षा रखने वालों का उस ओर सहज आकर्षण होता है । अनेक वादों के सघन परिचय से वे व्यक्ति विप्रतिपन्न -- विपरीत विचार वाले भी हो जाते हैं। इस स्थिति को देखकर सूत्रकार ने असमनोज्ञ के परिहार का निर्देश किया है जहां हिंसा, दत्तावान और मिथ्यावाद है, उसका परिहार मुनि को अवश्य करना चाहिए। है मिथ्यावाद के प्रसंग में सूत्रकार ने अनेक वादों का उल्लेख किया वे बाद निरपेक्ष एकान्त को स्वीकार करते हैं, इसलिए उनके प्रावादुकों - दार्शनिकों का धर्म न सु-आख्यात है और न सु-प्रज्ञप्त है। इससे यह फलित होता है - यही धर्म सु-आख्यात और सु-प्रज्ञप्त होता है जहां सम्यग एकान्त अथवा अनेकान्त है। २. आयारो, ८१३८ । Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ प्रस्तुतागमे भगवतो विशेषणमस्ति आशुप्रज्ञः सर्वज्ञ इति विशेषण मस्मिन्नोपलभ्यते । सूत्रकृतांगे आशुप्रज्ञः', भूतिप्रज्ञः २, महाप्रज्ञ' इति विशेषणानि दृश्यन्ते, किन्तु सर्वज्ञ इति विशेषणं नैव दृश्यते सर्वज्ञवादः जनानां मुख्य वादोऽस्ति । तस्य स्थापना उत्तरकाले जातेति संभाव्यते । सूत्रकृतांगे 'केवली' पदस्य प्रयोगो दृश्यते ।" तत्र अनन्तज्ञानी अनन्तदर्शी' अनन्तचक्षुः " एतान्यपि पदानि लभ्यन्ते । एतेशयते सर्वज्ञत्वस्य प्रकल्पः जैनागमे प्राचीनोस्ति, तस्य व्यवस्थितो बाद उत्तरकाले समजायत । जनानां आधुनिकयां ज्ञानमीमांसायां अवधिमनः पर्यव केवलज्ञानानि अतीन्द्रियाणि वर्तन्ते 'प्रज्ञ' इति पदं अतीन्द्रियज्ञानं द्योतयति । वर्तमानज्ञानमीमांसायां अस्य नास्ति कापि चर्चा अत एतत् कल्पयितुं शक्यं, । 'आशुश' सर्वज्ञस्य पूर्वावस्था, सर्वज्ञस्तस्य उत्तरकालीनों विकासः । नवमाध्ययने 'छस्थ' इति पदस्य प्रयोगो दृश्यते ।" द्वादशगुणस्वानवर्ती वीतरागोपि उद्मस्वो वर्तते । उग्रस्थावस्थाया निवर्तनं त्रयोदशे गुणस्थाने जायते, अतः संभाव्यते आचारांगे सर्वज्ञत्वाभ्युपगम स्पष्ट स्वीकृतोस्ति । तस्य व्याख्याविस्तरः ज्ञानमीमांसा व्यवस्थायां सज्जातः । प्रस्तुताध्ययने सचेलाचेलयोरस्ति समन्वयः साधितः । मुनयश्चतुविधा भवन्ति त्रिवस्त्रधारिणः, — द्विवस्त्र धारिणः एकवस्त्रधारिणः अचेलाश्च । एते सर्वेपि जिनाज्ञायां वर्तन्ते । अत्र समत्वमनुशीलनीयम् । अयं सर्वसंग्राही दृष्टिकोण: समन्वयस्य बीजमिव आभाति । अस्मिन् अध्ययने समाधिमरणस्य व्यवस्थिता प्रक्रिया निदर्शिता अस्ति । जेनसाधनापद्धतेरेषा विलक्षणा भावना वर्तते । इदानीमपि अनेके चिन्तका एनां पद्धतिमभि लपन्तीति स्पष्टं फलितं भवति यत् भगवान् महावीरः यथा जीवनकलायाः मर्मज्ञस्तथा समाधिमरणकलाया अपि मर्मज्ञ आसीत् । प्रतिपादकमिदमध्ययनं अत्यन्तगंभीर विषयाणां समुद्रवद् अस्यापमनुभूयते । १. अंगसुत्ताणि १, सूयगडो, १।५।२; १।६।७, २५; १२१४१४, २२; २।५।१; २६।१८ । २. वही, १।६।६ । ३. वही, १।११।१३,३८ । ४. वही, १।११३८ । आचारांगभाष्यम् प्रस्तुत आगम में भगवान् महावीर का विशेषण है - आज्ञ' । 'सर्वज्ञ' यह विशेषण इसमें उपलब्ध नहीं होता । सूत्रकृतांग आगम में आशुप्रज्ञ, भूतिप्रज्ञ, महाप्रज्ञ आदि विशेष मिलते हैं, किन्तु 'सर्वज्ञ' यह विशेषण वहां प्राप्त नहीं है। वेगों का मुख्य याद है 'सर्वजवाद' उसकी स्थापना उत्तरकाल में हुई, ऐसी संभावना की जा सकती है । सूत्रकृतांग आगम में 'केवली' पद का प्रयोग दृग्गोचर होता है। वहां अनन्तज्ञानी अनन्तदर्शी, अनन्तचक्षु ये पद भी प्राप्त होते हैं। इनसे यह ज्ञात होता है कि जैनागमों में सर्वस्व की अवधारणा प्राचीन है, पर व्यवस्थित वाद के रूप में उसकी स्थापना उत्तरकाल में हुई है । जैनों की आधुनिक ज्ञान - मीमांसा में अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान और केवलज्ञान अतीन्द्रिय ज्ञान हैं। ''यह पद अतीन्द्रियज्ञान का द्योतक है। आधुनिक ज्ञान-मीमांसा में इसकी कोई चर्चा नहीं है। इसलिए यह कल्पना की जा सकती है कि 'आशुप्रज्ञ' यह सर्वश की पूर्व अवस्था है और 'सर्वज्ञ' यह उसका उत्तरकालीन विकास है। नौवें अध्ययन में 'अस्य' शब्द का प्रयोग देखा जाता है। बारहवें गुणस्थानवर्ती वीतराग भी उपस्थ होते हैं। अस्य अवस्था का निवर्तन तेरहवें गुणस्थान में होता है, इसलिए संभव है कि आचारांग में सर्वशत्व की अवधारणा स्पष्ट रूप से स्वीकृत है। उसकी व्याख्या का विस्तार ज्ञानमीमांसा की व्यवस्था के समय हुआ है । प्रस्तुत अध्ययन में सचेल और अचेल का समन्वय किया गया है। मुनि चार प्रकार के होते हैं-तीन वस्त्र धारक, दो वस्त्रधारक, एक वस्त्र धारक तथा अचेल --अवस्त्र । ये सभी मुनि जिनेश्वर देव की आज्ञा में हैं। इन सबको समान दृष्टि से देखना चाहिए। यह सर्वसंग्राही दृष्टिकोण समन्वय का बीज-सा प्रतीत होता है। इस अध्ययन में समाधिमरण की व्यवस्थित प्रक्रिया निर्दिष्ट है । यह जैन साधना-पद्धति की विलक्षण भावना है। आज भी अनेक विचारक समाधिमरण की इस पद्धति को चाहते है, इससे यह स्पष्ट प्रतिफलित होता है कि भगवान् महावीर जीवन-कला के जैसे मश थे, वैसे ही समाधिमरण की कला के भी मर्मज्ञ थे । इस प्रकार अत्यंत गंभीर विषयों का प्रतिपादक यह अध्ययन समुद्र की भांति अथाह है, ऐसा अनुभव होता है। ५. वही, १।६।३ । ६. वही, १।६।३ । ७. वही, १।६।६, २५ । ८. आयारो, ९।४।१५ । Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमं अज्झयणं : विमोक्खो आठवां अध्ययन : विमोक्ष पढमो उद्देसो : पहला उद्देशक १. से बेमि-समणुण्णस्स वा असमणुण्णस्स वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा णो पाएज्जा, णो णिमंतेज्जा, णो कूज्जा वेयावडियं-परं आढायमाणे त्ति बेमि । सं०-अथ ब्रवीमि-समनुज्ञस्य वा असमनुज्ञस्य वा अशनं बा, पानं वा, खाद्यं वा, स्वाद्यं वा, वस्त्रं वा, प्रतिग्रहं वा, कंबलं वा, पादप्रोञ्छनं वा नो प्रदद्यात्, नो निमन्त्रयेत्, नो कुर्यात् वैयापृत्यं-परं आद्रियमाणः इति ब्रवीमि । मैं कहता हूं-भिक्षु समनुज्ञ और असमनुज्ञ मुनि को अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादपोंछन न दे, न उन्हें देने के लिए निमंत्रित करे, न उनके कार्यों में व्याप्त हो; यह सब अत्यन्त आदर प्रदर्शित करता हुआ करे ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् १-समनुज्ञस्य वा असमनुज्ञस्य वा भिक्षु समनुज्ञ अथवा असमनुज्ञ मुनि को अशन आदि न दे, न अशनादीनि न प्रदद्यात्', नापि दानार्थं निमन्त्रयेत्, न वा उन्हें देने के लिए निमंत्रित करे, न उनके कार्यों में व्याप्त हो। वह वैयाप्रत्यं कुर्यात्, परं आद्रियमाणः । 'एषोऽस्माकं धर्मः यह सब अत्यन्त आदर प्रदर्शित करता हुआ करे। वह उन्हें ससम्मान मर्यादा वा विद्यते, अतो युष्माभिः क्रोधः न करणीयः' निवेदन करे–'यह हमारा धर्म है, मर्यादा है। इसलिए आप कुपित न इति सादरं निवेदयेत् । हों (अन्यथा न मानें)। समनुज्ञः-दृष्टिलिङ्गाभ्यां सामिकः, न तु समनुज्ञ का अर्थ है-वह मुनि जो दार्शनिक दृष्टि और वेश सहभोजनेन ।' से सार्मिक-समान है, सह-भोजन से समनुज्ञ नहीं है। असमनुज्ञः-अन्यतीर्थिकः । असमनुज्ञ का अर्थ है-अन्यतीर्थिक । १. अस्य मूलमस्ति 'पाएज्ज'। चूणों भिन्नार्थो दृश्यते-- लिङ्गतो, न तु भोजनादिभिः, तस्य, तद्विपरीतस्त्वपाएज्ज तहा पादिज्ज भोइज्जा, तीयग्गहणं देसीभासाओ समनोज्ञः शाक्यादिः। असितपीतं भण्णति, जहा थक्के साहेहि वा, तहा लुक्खि- (ग) जिसके दर्शन, वेश और समाचारी का अनुमोदन तोऽपि वा वातो बुच्चति पुव्वदेसाणं, जं जस्स कप्पं फासुयं किया जा सके, वह समनुज्ञ और जिसके दर्शन, वेश अफासुयं वा तं चेव पातेंति भाति, सावसेस तेसु चेव और समाचारी का अनुमोदन न किया जा सके, वह पात्रेषु वा पक्खिवंति, एवं ताव सतमागते पावंति वा असमनुज्ञ होता है। एक जैन मुनि के लिए दूसरा भोइंति वा । (आचारांग चूणि, पृष्ठ २४९) जैन मुनि समनुज्ञ तथा अन्य दार्शनिक भिक्षु २. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २५० : परं आढायमाणा, असमनुज्ञ होता है। अहवा परमिति परेणं पयत्तेणं आढायमाणा, पासं मुनि के लिए यह कल्प निर्धारित है कि वह णिमंतेति वेयावडियं, जं भणितं - ण अणादरेणं, सार्मिक मुनि को ही आहार दे सकता है और अहवा परं आढायमाणेत्ति जं वा देंति तहा तेसि उससे ले सकता है, सामिक पार्श्वस्थ आदि शिथिल हत्याओ गिम्हंति, अतो आढिता भवंति। आचार वाला मुनि भी हो सकता है। मुनि उन्हें न (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २४० : परम् - अत्यर्थ आहार दे सकता है और न उनसे ले सकता है। मादरवान् । इसलिए सामिक के साथ दो विशेषण और जोड़े ३-४. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २४९ : समणुष्णो दिट्ठीओ जाते हैं - सांभोगिक और समनुज्ञ (निसीहायणं लिंगाओ, सह भोयणादीहि वा समणुण्णे, अन्नहा २०४४)। कल्पमर्यादा के अनुसार जिनके साथ असमुण्णो सक्कादीणं । आहार आदि का सम्बन्ध होता है, वह सांभोगिक (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २४० : समनोज्ञो दृष्टितो और जिनकी समाचारी समान होती है, वह Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ आचारांगभाष्यम् २. धुवं चेयं जाणेज्जा-असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वत्थं वा पडिग्गहं वा, कंबलं वा, पायछणं वा ल भिय णो लभिय, भुजिय णो भुंजिय, पंथं विउत्ता विउकम्म विभत्तं धम्मं झोसेमाणे समेमाणे पलेमाणे, पाएज्ज वा, णिमंतेज्ज वा, कुज्जा वेयावडियं-परं अणाढायमाणे त्ति बेमि । सं०-ध्रुवं चैतत् जानीयात्-अशनं वा, पानं वा, खाद्यं वा, स्वाद्यं वा, वस्त्रं वा, प्रतिग्रहं वा, कंबलं वा, पादप्रोञ्छनं वा लब्ध्वा नो लब्ध्वा, भुक्त्वा नो भुक्त्वा, पन्थानं विवर्त्य व्युत्क्रम्य, विभक्तं धर्म जुषन् समायन् पर्यायन् , प्रदद्यात् वा, निमंत्रयेत् वा, कुर्यात् वैयापृत्यं परं अनाद्रियमाणः इति ब्रवीमि । असमनुज्ञ भिक्षु मुनि से कहे-'तुम निरन्तर ध्यान रखो-हमारे मठ में प्रतिदिन अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कंबल या पादप्रोंछन उपलब्ध है। तुम्हें ये प्राप्त हों या न हों, तुम भोजन कर चुके हो या न कर चुके हो, मार्ग सीधा हो या टेढ़ा हो, तुम अपने (हम से भिन्न) धर्म का पालन करते हुए, वहां आओ और जाओ।' इस प्रकार असमनुज्ञ भिक्षुओं के अनुरोध को मानकर मुनि के वहां जाने पर वह अशन आदि दे, निमंत्रित करे और मुनि के कार्यों में व्याप्त हो, तो उसे कुछ भी आदर न दे-उसकी उपेक्षा कर दे, ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् २-असमनुज्ञाः मुनि वदन्ति-मुने ! ध्रुव- असमनुज्ञ (अन्यतीथिक) भिक्षु मुनि से कहते हैं-मुने ! तुम मिति नित्यं भवान् जानीयात्-अस्माकमिह अशनादि निरंतर यह ध्यान रखो, हमारे यहां अशन आदि उपलब्ध होता है। उपलब्धमस्ति । अन्यत्र भवान् लब्ध्वा अथवा अलब्ध्वा , अन्यत्र तुम्हें यह उपलब्ध हो अथवा न हो, तुम भोजन कर चुके हो अथवा भक्त्वा अथवा अभुक्त्वा इहागच्छतु । अस्माकं विहारा- न कर चुके हो, यहां आओ। हमारा आवास-स्थल-मठ मार्ग से कुछ वसथः पथः किञ्चिद् दूरं वर्तते, अत: ऋजू मागे दूर है। इसलिए सीधे पथ को छोड़कर, कुछ कदम चलकर तुम त्यक्त्वा कतिचित पदान् व्यतिक्रम्य भवान् आगच्छतु। आ जाओ। तुम्हारा धर्म हमारे से भिन्न है, परन्तु इसमें कोई बाधा नहीं भवतः धर्मो विभक्तोऽस्ति, नास्ति तत्र कश्चिद् बाधः। है। तुम अपने धर्म का पालन करते हए हमारे आवास-स्थल पर भवान आत्मीयं धर्म सेवमानः अस्माकं विहारावसथ आओ-जाओ। इस प्रकार कहकर वह अन्यतीर्थिक भिक्षु अशन आदि आगच्छन् गच्छन् विहरतु । एवं स अन्यतीथिकः दे अथवा उसके लिए निमंत्रित करे अथवा कार्यों में व्याप्त हो तो अशनादि प्रदद्यात वा, तदर्थं निमन्त्रयेत् वा, कुर्याद् वा उसको कुछ भी आदर न देते हुए उसकी उपेक्षा कर दे । उस असमनुज्ञ वैयापृत्यम् । परं अनाद्रियमाणः तद् वर्जयेत्-तस्य भिक्षु से कुछ न ले, उसके साथ न रहे और न उससे परिचय करे। असमनुज्ञस्य तद् न ग्रहीतव्यं, न तेन संवस्तव्यं, न च तस्य संस्तवः कार्यः । समनुज्ञ कहलाता है। निसीहज्झयणं (१५३७६-९७) इम दिष्ट-लिंग सरीषा भणी रे, में अन्यतीथिक, गृहस्थ और पार्श्वस्थ आदि को न देणो असणादिक आहार । अशन, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पाद-प्रोंछन देने का बले आदर सनमान देणो नहीं प्रायश्चित्त बतलाया गया है। एतो अकल्पनीक अवधार ।। (घ) आचारांग की जोड़, ढाल ६६ : (१-१२) गोतमादिक केसी भणी रे दीयो आदर सनमान । समनोज्ञ तथा असमनोज्ञ भणी असणादिक देणो नाहि । पवालादिक व्यावच करी एतो कल्पनीक पहिछान ।। व्यावच तिणरी करणी नहीं, एम को सूत्र मांहि ॥ विप्रीत दिष्ट-लिंग ना धणी रे, दृष्टि-लिंग करि सरिषो ते समनोज्ञ कहिवाय । तिण नै न देणो आदर निसीह । अकल्पनीक इण कारण रे एम को धर्मसीह ॥ पिण भोजनादि करि नहीं सरीषौ, एम कह्यो वृत्ति मांहि ॥ 'धर्मसी' थयो गुजरात में रे ते दरियापुरी कहिवाय । लिगकरी सरीसो नहीं रे, दिष्टकरी न सरीस । तिण विसेषपणे अर्थ षोलियो ते पाषण्डी साक्यादिक जाणज्यो, असमनोज्ञ तिणने कहीस ॥ ते तो सांभलज्यो चित्त ल्याय॥ ए समनोज्ञ असमनोज्ञ भणी रे, न देणो असणादिक आहार। लिंग करी सरीषो हुवै पिण सरधा करि जूवो जाण । वस्त्र पात्र कांबलो पायपुंछणो रजोहरणो धार ॥ एहवा भेषधारी जमाली जिसा, असणाविक नहीं आमन्त्रणो रे, न करणी व्यावच जाण । ते तो लिंग समनोज्ञ पिछाण ॥ अतही आदर देतो थकोरे, एम को जगमाण ॥ दिष्टकरी सरीषो हुवै पिण लिंग सरीषो न होय । अति ही आदर देतो थको, न करणी वेयावच जाण । ते अमड सिन्यासी सारसा ते दिष्ट समनोज जोय ॥ अधिकार समापित कारण कह्यो पाठ त्ति बेमि पिछाण ॥ Jain Education international Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०८.विमोक्ष, उ०१. सूत्र २-५ ३५६ ३. इहमेगेसि आयार-गोयरे णो सुणिसंते भवति, ते इह आरंभट्ठी अणुवयमाणा हणमाणा घायमाणा, हणतो यावि समणुजाणमाणा। सं०-इहैकेषां आचारगोचरो नो सुनिशांतो भवति, ते इह आरम्भार्थिनः अनुवदन्तः घ्नन्त: घातयन्त: घ्नतश्चापि समनुजानन्तः । कुछ भिक्षुओं को आचार-गोचर सम्यग् उपलब्ध नहीं होता। वे आरम्भ के अर्थी होते हैं, आरंभ करने वालों का समर्थन करते हैं, स्वयं प्राणियों का वध करते हैं, करवाते हैं और करने वालों का अनुमोदन करते हैं। भाष्यम् ३-उक्तनिषेधः दर्शनविशुद्धयर्थं कृतः। पूर्वोक्त निषेध दर्शन-विशुद्धि के लिए किया गया है । अब इस इदानीं अस्य निषेधस्य कारणं स्पष्टयति संसर्गादिभवांश्च निषेध के कारण को स्पष्ट करते हुए सूत्रकार संसर्ग आदि से होने वाले दोषान् प्रदर्शयति सूत्रकारः । इह एकेषां आचारगोचरो दोषों को प्रदर्शित करते हैं। कुछ भिक्षुओं को आचारगोचर की सम्यग् न सुनिशांत:-सम्यग् अवधारितो भवति । ते इह भवन्ति अवधारणा नहीं होती। वे आरम्भ के अर्थी होते हैं। कुछ कहते हैंआरम्भाथिनः ।' केचिद् वदन्ति नास्ति आरम्भे दोषः। आरंभ में कोई दोष नहीं है । वे मुनि भी उन्हीं के अनुसार कहते हैंतेऽपि तेषां अनुवदन्ते, कोऽत्र आरम्भे दोषः ? इत्यनुवादेन आरम्भ में कौनसा दोष है ? इस समर्थन से वे स्वयं प्राणियों का घात ते स्वयं प्राणिनः घ्नन्ति, अन्यैश्च घातयन्ति, नतश्चापि करते हैं, दूसरों से घात करवाते हैं और घात करने वाले का अनुमोदन समनुजानन्ति। करते हैं। . ४. अदुवा अदिन्नमाइयंति । सं०-अथवा अदत्तमाददति । अथवा वे अदत्त का ग्रहण करते हैं। भाष्यम ४--अथवा ते पृथिव्यादीनां प्राणिनां वधं अथवा वे पृथिवी आदि प्राणियों का वध करते हुए अदत्त का कुर्वन्तः अदत्तमाददति । तत्स्वामिना पृथिव्यादिग्रहणं ग्रहण करते हैं। भूस्वामी ने पृथिवी आदि के ग्रहण की आज्ञा दी अनुज्ञातं, किन्तु पृथिव्यादिजीवैः स्वस्य वधो नानुज्ञातः, है, किन्तु पृथिवी आदि के जीवों ने अपने वध की आज्ञा नहीं दी है। तेन तेषामारम्भः अदत्तादानमेव ।' इसलिए उन प्राणियों का आरम्भ-हिंसा अदत्तादान ही है। ५. अदुवा वायाओ विउंजंति, तं जहा–अस्थि लोए, णस्थि लोए, धुवे लोए, अधुवे लोए, साइए लोए, अणाइए लोए, सपज्जवसिते लोए, अपज्जवसिते लोए, सुकडेत्ति वा दुक्कडेत्ति वा, कल्लाणेत्ति वा पावेत्ति वा, साहुत्ति वा असाहुत्ति वा, सिद्धीति वा असिद्धीति वा, णिरएत्ति वा अणिरएत्ति वा।। सं०-अथवा वाचः वियुञ्जन्ति, तद् यथा- अस्ति लोकः, नास्ति लोकः, ध्रुवः लोकः, अध्रुव: लोकः, सादिकः लोकः, अनादिक: लोकः, सपर्यवसित: लोकः, अपर्यवसितः लोकः, सुकृतं इति वा, दुष्कृतं इति वा, कल्याणं इति वा, पापं इति वा, साधु इति वा, असाधु इति वा, सिद्धिरिति वा, असिद्धिरिति वा, निरय इति वा, अनिरय इति वा । अथवा वे परस्पर विरोधी वादों का प्रतिपादन करते हैं । जैसे-अस्तित्ववादी मानते हैं लोक वास्तविक है । नास्तित्ववादी मानते हैं- लोक वास्तविक नहीं है। अचलवादी मानते हैं --आदित्य-मंडल स्थिर है। चलवादी मानते हैं - आदित्य-मण्डल चल है। सृष्टिवादी मानते हैं-लोक सादि है । असृष्टिवादी मानते हैं-लोक अनादि है। सृष्टिवादी मानते हैं - लोक सांत है । असृष्टिवादी मानते हैं-लोक अनन्त है । कुछ दार्शनिक मानते हैं सुकृत है। कुछ दार्शनिक मानते हैं-दुष्कृत है । कुछ दार्शनिक मानते हैं - कल्याण है । कुछ दार्शनिक मानते हैं - पाप है। कुछ दार्शनिक मानते हैं -- साधु है । कुछ दार्शनिक मानते हैं-असाधु है। कुछ दार्शनिक मानते हैं -निर्वाण है । कुछ दार्शनिक मानते हैं निर्वाण नहीं है। कुछ दार्शनिक मानते हैं नरक है। कुछ वार्शनिक मानते हैं-नरक नहीं है। १. आचारांग चूणि, पृष्ठ २५१ : 'आरंभो णाम पयणपयाव णादि असंजमो तेण जेसि अट्ठो एसो आरंभट्टी।' २. प्राणी के प्राणों का अपहरण करना अदत्त है । प्राणवध करने वाला केवल हिंसा का ही दोषी नहीं है, साथ-साथ अदत्त का भी दोषी है। हिंसा का सम्बन्ध अपनी भावना से है, किन्तु प्राणी अपने प्राणों के अपहरण की अनुमति नहीं देते, इसलिए अदत्त का सम्बन्ध म्रियमाण प्राणियों से भी है । (मिलाइए-आयारो, १५८) Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगभाष्यम् भाष्यम् ५-अथवा ते वाचः वियूञ्जन्ति । 'वि' अथवा वे परस्पर विरोधी वादों का प्रतिपादन करते हैं । 'वि' उपसर्गपदेन इति सूचितम्-परस्परविरुद्धा विविधा वा उपसर्ग से यह सूचित है--- परस्पर विरुद्ध या विविध वाद का प्रयोग वाचो युञ्जन्ति, तद्यथा करते हैं, जैसेअस्ति लोकः-अस्ति लोकस्य वास्तविकत्वमिति लोक है-इसका तात्पर्य है कि लोक की वास्तविकता है। तात्पर्यम् । नास्ति लोकः--मायेन्द्रजालस्वप्नकल्पोयं लोक इति लोक नहीं है-इसका तात्पर्य है कि लोक माया, इन्द्रजाल लोक तात्पर्यम्। और स्वप्न के सदृश है। ___ ध्रुवो लोकः--कूटस्थनित्य इति यावत् । अथवा लोक ध्रुव है-लोक कूटस्थनित्य है। अथवा आदित्य-मंडल आदित्यः अवस्थितः । स्थिर है। __ अध्रुवः लोक:-क्षणे क्षणे परिवर्तते असौ इति लोक अध्रुव है-इसका तात्पर्य है कि लोक क्षण-क्षण में तात्पर्यम् ।' अथवा आदित्यः अनवस्थितः। परिवर्तित होता रहता है। अथवा आदित्य-मण्डल चल है। सादिको लोक:-केनचित् परमेश्वरेण सष्ट इति लोक सादि है-लोक किसी परमेश्वर की सृष्टि है। यावत् । अनादिको लोक:--असृष्ट इति यावत् । लोक अनादि है-वह किसी के द्वारा सृष्ट नहीं है। वह असृष्ट है। येषां सादिको लोकस्तेषां स सपर्यवसितः । येषा- जिन दार्शनिकों के मत में लोक 'सादि' है, उनके मत से वह मनादिकस्तेषां स अपर्यवसितः। एवं सुकृतदुष्कृतयोः, 'सान्त' है । जिन दार्शनिकों के मत में लोक अनादि है, उनके मत से कल्याणपापयोः, साध्वसाध्वोः, सिद्धयसिद्धयोः, निरया- वह अनन्त है। इसी प्रकार सुकृत-दुष्कृत, कल्याण-पाप, साधु-असाधु, निरययोविषयेऽपि नानाविधा वाचो विद्यन्ते । सिद्धि-असिद्धि, नरक-अनरक आदि के विषय में भी नानाविध वाद प्रचलित हैं। १. (क) आचारांग चूर्णि, पृष्ठ २५२ : वायाओवि एगे विविहं जहा अणवदग्गोऽयं भिक्षवः संसारो। गँजति णाम विणासितं बुच्चति, पुवुत्तरं विरुद्ध ५. आचारांग चूणि, पृष्ठ २५३ : परिमाणओ वा एगेसि भासित्तातो य विणासेंति, विजुजति णाम विणासंति । पज्जवसिओ तंजहा- सत्त दीवा, सक्काणं सपज्जवसाणो (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २४१ : वाचो विविध-नाना अपज्जवसणो वा इति अवाद्यं । प्रकारा युञ्जन्ति । ६. चूर्णी वृत्तौ च विभिन्नदार्शनिकानामुल्लेखो लभ्यते२. चूणौ अवस्थितः सूर्यः इति प्राचीनमतमुद्धृतम्-तं जहा चार्वाका आहुः-नास्ति लोको मायेन्द्रजालस्वप्नकल्पलोगो किर वामतो, केसिंचि णिच्चं भवति, आदिच्चे मेवैतत्सर्वम् (आचारांग वृत्ति प० २४१)। अवट्रियमेव तं आदिच्चमंडलं, अवद्रियमेव तं आविच्चमंडलं गत्थि लोएत्ति वेइतूलिया पडिवण्णा, तंजहा-गंधब्वदूरत्ताओ जे पुब्वं पासंति तेसि आइच्चोदयो, मंडलहिट्ठियाणं नगरतुल्लं माताकारगहेतुपच्चयसामग्गिएहिं भावेहि अभावा, मझण्हे, जे उ दूरातिक्कंता ण पस्संति तेसि अत्यमिओ, एवमादिहेहिं पत्थि लोगो पडिवज्जंति इति । तहा य धुवे लोगो। (आचारांग चूणि, पृष्ठ २५२) (आचारांग चूणि, पृष्ठ २५२) वृत्तावपि–यदि वा 'अघ्र वः' चलः, तथाहि भूगोलः __ धुवेति संख्या बुच्चंति, धुवो लोगो वायंति वुच्चति, केषाञ्चिन्मतेन नित्यं चलन्नेवास्ते, आदित्यस्तु व्यवस्थित सत्कार्यकारणत्वात्तेसि, ण किंचि उपज्जति विणस्सति वा, एव, तत्रादित्यमण्डलं दूरत्वाचे पूर्वतः पश्यन्ति तेषामादि 'असदकरणाउपादानग्रहणात्सर्वसम्भवाभावात् । त्योदयः, आदित्यमण्डलाधोव्यवस्थितानां मध्याह्नः, ये तु शक्यस्य शक्यकरणात् कारणभावाच्च सत्कार्य ॥' दूरातिक्रांतत्वान्न पश्यन्ति तेषामस्तमित इति । - (आचारांग चूणि, पृष्ठ २५२) (आचारांग वृत्ति, पत्र २४१) सांख्यादय आहुः-'ध्रुवो' नित्यो लोकः, आविर्भाव३. आचारांग चूणि, पृष्ठ २५२ : अन्ने सादियं सह आदीये तिरोभावमात्रत्वावुत्पादविनाशयोः, असतोऽनुत्पादात् सादीयं, इस्सरेण अन्नतरेण वा सिट्ठो, से इति से तु सतश्चाविनाशात् (आचारांग वृत्ति, पत्र २४१)। किंचिकालं भवित्ता वलयकाले पुणो ण भवति अतो सादीयो, शाक्यावयस्स्वाहुः-अध वो लोकोऽनित्यः, प्रतिक्षणं भणति-दिग्वं वरिससहस्सं सुयति, दिव्वं वरिससहस्सं विशरारुस्वभावत्वात् विनाशहेतोरभावात् नित्यस्य च जागरति। क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियायामसामर्थ्यात् ४. वही, पृष्ठ २५२ : अणादीयो तच्चण्णिया पावं भणंति, (आचारांग वृत्ति, पत्र २४१)। Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ८. विमोक्ष, उ० १. सूत्र ६-६ ६. जमिणं विप्पडवण्णा मामयं धम्मं पण्णवेमाणा । सं० यदिदं विप्रतिपन्नाः मामकं धर्मं प्रज्ञापयमानाः । पूर्वोक्त परस्पर-विरोधी वादों को स्वीकार करने वाले वे अपने-अपने धर्म का निरूपण करते हैं। भाष्यम् ६ यदिदं विप्रतिपन्नाः परस्परविरुद्धा वाचो वदन्तः मामकं धर्मं प्रज्ञापयमाना दृश्यन्ते ते वदन्ति मम धर्मेऽस्ति सिद्धि: नान्यत्र । 1 ७. एल्यवि जाणह अकस्मात् । सं० - अत्रापि जानीत अकस्माद् । तुम जानो, ये एकांगी वाद अहेतुक हैं। भाष्यम् ७ – विप्रतिपन्नानां संस्तवेन अपुष्टधर्माः शिष्याः विप्रतिपत्तिं गच्छन्ति, तेन तेषां संस्तवः प्रतिषिद्ध:, तथापि ग्लानादिनिमित्तं अन्येन केनापि हेतुना तेषां संसर्गः स्यात् तदा प्रसज्यमानायां तत्त्वचर्चायां मुनिः तान् प्रतिवदेत् अत्रापि यूयं जानीत, एते एकाङ्गिनो वादा : अकस्माद् अहेतुका वर्तन्ते । भाष्यम् - मिष्याग्रहसमन्विता एकांतदृष्टिः तत्त्वस्य सत्यस्य वा निरूपणे बाधां उपस्थापयति । एवं पूर्वोक्त प्रकारेण ये एकांतदृष्ट्या तत्त्वं निरूपयन्ति तेषां अहेतुवादिनां धर्मः नो स्वाख्यातः नो सुप्रज्ञप्तो भवति । ८. एवं तेसि णो सुभक्खाए, जो सुपण्णत्ते धम्मे भवति । सं० – एवं तेषां नो स्वाख्यातः, नो सुप्रज्ञप्तः धर्मो भवति । इस प्रकार उन अहेतुवादी दार्शनिकों का धर्म न सुआख्यात होता है और न सुनिरूपित । १. चूर्णी (पृष्ठ २५४) 'विप्यडियण्णा' इति विवृतमस्तआयारं प्रति एगे विप्पडवण्णा - केइ सुहेणं धम्ममिच्छति, केइ दुक्खेणं, केइ व्हाणेणं, केइ मोणेणं, केइ गामवासेणं, es अरण्णवासेणं । २. चूर्णो (पृष्ठ २५४) अकम्मा इति पदं विद्यते - अकम्मा अऊ ण कम्मा अम्मा, जं भणितं - अहेतुं । वृत्ती (पत्र २४२) अकस्मादिति मागध आगोपालाङ्गनादिना संस्कृतस्येबोच्चारणादिहापि सर्वोच्या रित इति कस्मादिति हेतुः न कस्माद कस्माद् तोरभावादित्यर्थः । ३. 'लोक वास्तविक है' और 'लोक वास्तविक नहीं है' ये जो इस प्रकार विप्रतिपन्न - परस्पर विरोधी वादों का कथन करते हैं वे अपने-अपने धर्म का निरूपण करते हुए देखे जाते हैं। वे कहते हैं 'मेरे धर्म में सिद्धि है, अन्यत्र नहीं ।' ६. से जहेयं भगवया पवेदितं आसुपण्णेण जाणया पासया । सं० तद् यथा एतत् भगवता प्रवेदितं आशुप्रज्ञेन जानता पश्यता । आयुश भगवान् महावीर ने ज्ञान दर्शन पूर्वक धर्म का जैसे प्रतिपादन किया है, उसकी बंसी व्याख्या करे । परस्पर विरुद्ध विचार वाले व्यक्तियों के संसर्ग से अपरिपक्व - धर्मा शिष्यों की धारणा प्रांत हो जाती है। इसलिए उन व्यक्तियों के संस्तव का निषेध किया गया है । फिर भी ग्लान आदि के निमित्त अथवा अन्य किसी भी प्रयोजनवश उनका संसर्ग हो तब तत्वचर्चा के प्रसंग में मुनि उनसे कहे- तुम जानो, ये एकांगी वाद अहेतुक हैंहेतुशून्य हैं । ३६१ मिथ्या आग्रहयुक्त अथवा निरपेक्ष एकांतदृष्टि तत्त्व अथवा सत्य के निरूपण में बाधा उपस्थित करती है। इस प्रकार पूर्वोक्त प्रकार से जो एकांतदृष्टि से तत्व का प्रतिपादन करते हैं उन अहेतुवादियों का धर्म न सुजाख्यात होता है और न सुनिरूपित । दोनों एकांतवाद हैं। वास्तविकता को स्वीकार किए बिना अवास्तविकता को प्रमाणित नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार अवास्तविकता को स्वीकार किए बिना वास्तविकता को प्रमाणित नहीं किया जा सकता है । वास्तविकता और अवास्तविकता दोनों परस्पर सापेक्ष हैं । द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक नय से इन्हें जाना जा सकता है । वास्तविकता का बोध द्रव्यार्थिक नय से और अवास्तविकता का बोध पर्यायायिक नय से होता है। एकांतदृष्टि वाले ये सारे बाद परपस्पर विरोधी सिद्धांतों का प्रतिपादन करते हैं। Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ आचारांगभाष्यम् भाष्यम् ९-उपस्थिते तत्त्वचर्चाप्रसङ्गे यथा इदं' तत्त्वचर्चा का प्रसंग उपस्थित होने पर भगवान् महावीर ने भगवता प्रवेदितं तथा प्रतिपादनीयम् । भगवान् वर्धमान- इस धर्म का जैसे प्रतिपादन किया है, वैसे ही प्रतिपादन करे । भगवान् स्वामी आशुप्रज्ञोस्ति । स आशुप्रज्ञोस्ति अत एव स वर्द्धमान स्वामी आशुप्रज्ञ हैं । वे आशुप्रज्ञ हैं इसलिए वे जानते हैं, देखते जानाति, पश्यति । तेन भगवता हेतुवादः-नयवादः हैं। उन भगवान् ने हेतुवाद-नयवाद अथवा अनेकांतवाद की प्रज्ञापना अनेकांतवादो वा प्रज्ञप्तः, तेन तस्य प्रयोगः कार्यः। की। इसलिए उसका प्रयोग करना चाहिए। १०. अदुवा गुत्तो वओगोयरस्स त्ति बेमि । सं०-अथवा गुप्तिः वाग्गोचरस्य इति ब्रवीमि । अथवा वाणी के विषय की गुप्ति करे-मौन करे, ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् १०-मुनिना आत्मसामर्थ्य विज्ञाय तेषां मुनि अपने सामर्थ्य को जानकर उन अन्यतीथिकों के प्रश्नों का अन्यतीथिकानां प्रश्नाः समाधातव्याः अथवा वचो- समाधान करे अथवा वाणी के विषय की गुप्ति करे----यदि उनके गोचरस्य गुप्तिरालम्बनीया–यदि तेषां प्रश्नानां उत्तरं प्रश्नों का उत्तर देने में समर्थ न हो तब मौन कर ले। चूर्णि में 'गुप्ति' दातुमसमर्थः स्यात् तदा मौनमवलम्बेत । चूर्णी गुप्तिपदं पद की व्यावहारिक दृष्टि से व्याख्या की है हम आर्ष सूत्रों के पाठक व्यावहारिकदृष्ट्या व्याख्यातमस्ति-वयं आरिससुत्त- हैं । यदि तुम आर्ष सूत्रों के विषय में वाद करना चाहते हो तो हम पाढगा, जति तमेव इच्छसि ततो पागतेण वादं करेमो, सव्वहा प्राकृत भाषा में वाद करेंगे। यदि वाद से सर्वथा इनकार कर दिया अकीरमाणे सेहादिविपरिणामो भवति, सड्ढहीला सड्ढवण्णो। जाए तो शैक्ष आदि के परिणामों में विपरीतता आ जाती है, श्रावकों अह पागतेणवि असमत्थो ततो बेति-अम्ह इत्थिबालवुड्ढ- में हीलना और अवर्णवाद का प्रसंग आ जाता है। यदि प्राकृत भाषा अक्खरअयाणमाणाणं अणुकंपणत्थं सव्वसत्तसमदरिसीहिं में वाद करने में भी असमर्थ हो तो कहे-समस्त प्राणियों के प्रति अद्धमागहाए भासाते सुत्तं उवदिठें, तं च अण्णेसि पुरतो ण समदृष्टि रखने वाले भगवान महावीर ने स्त्री, बाल, वृद्ध तथा अक्षरपगासिज्जति, अतो गुत्ती वइगोयरस्स, यदुक्तं भवति-वाया- ज्ञान से अपरिचित व्यक्तियों पर अनुकंपा कर अर्धमागधी भाषा में सूत्र विसओ न, किंच-रागदोसकरो वादो। एवं जहा जहा उत्तरं का उपदेश दिया। वह दूसरों के समक्ष अभिव्यक्त नहीं किया जाता, भवति तहा तहा ठाएयव्वं ।' इसलिए वाणी के विषय की गुप्ति की है, मौन किया है। कहा है--- आगम वाद का विषय नहीं है। वाद राग-द्वेष को उत्पन्न करता है। इस प्रकार जो देश-कालोचित उत्तर हो, उसका प्रयोग किया जाए। वृत्तौ गुप्तिर्भाषासमितिरित्यपि व्याख्यातमस्ति । वृत्ति में गुप्ति भाषासमिति के रूप में भी व्याख्यात है। ११. सव्वत्थ सम्मयं पावं । सं०-सर्वत्र सम्मतं पापम् । हिंसा सर्वत्र सम्मत है। भाष्यम् ११-सर्वत्र इति सर्वेषु कार्येषु यावत् तत्त्व- मुनि वादियों के समक्ष कहे-आपके सर्वत्र सभी कार्यों में, वादेऽपि पापं-हिंसाद्यनुष्ठानं सम्मतं-अभिप्रेत- तथा तत्त्ववाद में भी पाप-हिंसा का अनुष्ठान सम्मत--अभिप्रेत १. आचारांग वृत्ति, पत्र २४३ : इदं स्याद्वादरूपं वस्तुनो लक्षणं समस्तव्यवहारानुयायि क्वचिदप्यप्रतिहतं भगवता श्रीवर्धमानस्वामिना प्रवेदितम् । २. आचारांग चूणि, पृष्ठ २५५ : आसुरिति क्षिप्रं, आसुं पयाणति ओहीनाणी मणपज्जवनाणीवी ण अणुवउत्ता जाणंति उवओगाय अंतोमुहुत्ताओ, तेण तेऽवि ण आसुपण्णा, आसुप्पण्णो भवति केवलनाणी णिच्चो णिच्चोवयोगाओ सत्वपच्चक्खाओ य आउय आसुपण्णो।' ३. आचारांग चूणि, पृष्ठ २५५-२५६ । ४. आचारांग वृत्ति, पत्र २४३ : अथवा गुप्तिर्वाग्गोचरस्यभाषासमितिः कायेंत्येतत्प्रवेदितं भगवता, यदि वा अस्ति नास्ति ध्र वाघ्र वादिवादिनां वादायोत्थितानां त्रयाणां त्रिषष्ट्यधिकानां प्रावादुकशतानां वादलब्धिमतां प्रतिज्ञा. हेतुदृष्टान्तोपन्यासद्वारेण तदुपन्यस्तदूषणोपन्यासेन च तत्पराजयापादनतः सम्यगुत्तरं देयम्, अथवा गुप्तिर्वाग्गोचरस्य विधेयेत्येतदहं ब्रवीमि । Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथवा अप्रतिषिद्ध है। हमारे दर्शन में तो यह सम्मत नहीं है। अ०८. विमोक्ष, उ० १. सूत्र १०-१४ मप्रतिषिद्धं वा अस्ति, इति वादिनां समक्षे मुनिर्वदेत्- मम तु नैतत् सम्मतम् । १२. तमेव उवाइकम्म । ___ सं0-तदेव उपातिक्रम्य । मुनि उस हिंसा का अतिक्रमण कर जीवन-यापन करे। भाष्यम् १२-तस्मादेव तद उपातिक्रम्य वर्ते, अतः हिंसादिप्रसङ्गजनको वादः मम न श्रेयान् । इसीलिए मैं उस हिंसा (या सावध अनुष्ठान) का अतिक्रमण कर वर्तन करता हूं। अतः हिंसा आदि का प्रसंग उत्पन्न करने वाला वाद मेरे लिए श्रेयस्कर नहीं है। १३. एस महं विवेगे वियाहिते। सं०-एष मम विवेको व्याहृतः । यह मेरा विवेक कहा गया है। भाष्यम् १३–एष मम' विवेकः व्याहृतः। एवं यह मेरा (या हमारा) विवेक कहा गया है। इस प्रकार मुनि मुनिना असमनुजैः विवेकः करणीयः, न तु हिंसाद्यास्रवे को अन्यतीथिक भिक्षुओं से पृथक् रहना चाहिए, हिंसा आदि आश्रवों प्रवर्तनीयम् । में प्रवर्तित नहीं होना चाहिए। १४. गामे वा अदुवा रणे ? व गामे व रणे धम्ममायाणह-पवेदितं माहणेण मईमया। सं०-ग्रामे वा अथवा अरण्ये ? नैव ग्रामे नैव अरण्ये धर्ममाजानीत–प्रवेदितं माहनेन मतिमता। धर्म गांव में होता है या अरण्य में ? वह न गांव में होता है और न अरण्य में तुम जानो। मतिमान महावीर ने यह प्रतिपादित किया है। भाष्यम् १४---ये तपस्विनः वनवासिनः ते कथं जो तपस्वी हैं, वनवासी हैं वे असमनुज्ञ कैसे हो सकते हैं ? असमनुज्ञा भवन्ति ? कथञ्च ते परिवर्जयितव्याः इति उनका परिवर्जन क्यों करना चाहिए? यह जिज्ञासा करने पर जिज्ञासिते सूत्रकारो वक्ति-ज्ञानादिपञ्चाचारानुशीलनं सूत्रकार कहते हैं-ज्ञान आदि पांच प्रकार के आचार का अनुशीलन धर्मः, स ग्रामे अरण्ये वा भवति । पञ्चाचारानुशीलनमते करना धर्म है । वह गांव में भी हो सकता है और अरण्य में भी हो नैव ग्रामे नैव अरण्ये वा धर्ममाजानीत । इदं प्रवेदितं सकता है। पांच प्रकार के आचार के अनुशीलन के बिना धर्म न गांव मतिमता माहनेन । में होता है और न अरण्य में होता है, यह तुम जानो । मतिमान महावीर ने यह प्रतिपादन किया है । १. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २५६ : महमिति मम, अहवा होता है।' इस विषय में शिष्य ने जिज्ञासा की तब आचार्य महंतणएण सता विवेगेणं । ने बताया कि धर्म का आधार आत्मा है। ग्राम और (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २४३ : एष मम विवेको अरण्य उसके आधार नहीं हैं। इसलिए धर्म न ग्राम में व्याख्यातः। होता है और न अरण्य में। वह आत्मा में ही होता है। २. हिंसा का अतिक्रमण कर जीवन जीना विवेक है। यह वास्तव में आत्मा का स्वभाव ही धर्म है। व्याख्या का एक नय है। चूणि और टीका में इन तीन पूज्यपाद देवनन्दी ने इस आशय का नयान्तर से सूत्रों (११-१३) की व्याख्या दूसरे नय से की गयी है। निरूपण किया हैअन्यतीथिक भिक्षुओं द्वारा निमंत्रित होने पर भिक्ष कहे 'ग्रामोऽरण्यमिति द्वधा, निवासो नात्मदर्शिनाम् । दृष्टात्मनां निवासस्तु, विविक्तात्मेव निश्चलः॥' 'आपके दर्शन में पचन-पाचन आदि की हिंसा सम्मत (समाधिशतक, श्लोक ७३) है। उसका अतिक्रमण करना मेरा विवेक है।' अनात्मदर्शी साधक गांव या अरण्य में रहता है। ३. कुछ साधक 'ग्राम में धर्म होता है', यह निरूपित करते किन्तु आत्मदर्शी साधक शुद्ध आत्मा में ही रहता है, प्राम थे। कुछ साधक यह निरूपित करते थे--'अरण्य में धर्म या अरण्य में नहीं। Jain Education international Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगभाष्यम् १५. जामा तिण्णि उवाहिया, जेसु इमे आरिया संबुज्झमाणा समुट्टिया। सं०-यामाः त्रय उदाहृताः, येषु इमे आर्याः संबुध्यमानाः समुत्थिताः । तीन याम ---अवस्थाएं बतलाई हैं । आर्य मनुष्य संबोधि को प्राप्त कर उन अवस्थाओं में प्रवजित होते हैं। भाष्यम् १५-यथा धर्माराधनाविषये ग्रामारण्यकृतो जैसे धर्म की आराधना के विषय में ग्राम और अरण्य का भेद भेदः प्रचलित आसीत् तथा प्रव्रज्याकालविषयेऽपि उस समय प्रचलित था, वैसे ही प्रवज्या-काल [दीक्षा-काल] के विषय विधे नत्वमासीत् । तत्र भगवता प्रव्रज्यां लक्ष्यीकृत्य में भी नाना विधान थे। भगवान् महावीर ने प्रव्रज्या को लक्षित कर त्रयो यामाः–वयोविभागाः सन्ति उदाहृताः ।' चूर्ण्यनु- तीन याम-वयोविभाग प्रतिपादित किए हैं। चूणि के अनुसारसारम् -अष्टवर्षादारभ्य त्रिंशद्वर्षपर्यन्तं प्रथमो यामः। आठ वर्ष से तीस वर्ष तक पहला याम, तीस वर्ष से साठ वर्ष तक त्रिंशद्वर्षादारभ्य षष्टिवर्षपर्यन्तं मध्यमो यामः । ततः मध्यम याम और उससे आगे जीवन पर्यन्त तीसरा याम । इन तीनों परंततीयो यामः । एषु त्रिष्वपि यामेषु आर्याः संबुध्य- यामों-अवस्थाओं में आर्य पुरुष संबोधि को प्राप्त कर संयम ग्रहण के माना: संयमसमुत्थानेन समुत्थिता भवन्ति, प्रव्रजन्तीति लिए तत्पर होते हैं अर्थात् प्रवजित होते हैं, यह इसका तात्पर्य है। तात्पर्यम्। प्रस्तुतसूत्रे प्रव्रज्याकालमपेक्ष्य वयोविभागाः कृताः। प्रस्तुत आलापक में प्रव्रज्या-काल की अपेक्षा से अवस्था के सन्ति । अस्यानुसारेण अष्टवर्षात् परं बालो प्रव्रज्या- विभाग किए गये हैं। इसके अनुसार आठ वर्ष की अवस्था के मईति। ततो निम्नं अतिबालावस्था, सा नास्ति बाद बालक दीक्षा लेने के योग्य हो जाता है। उससे कम अति बचपन प्रव्रज्यात्। की अवस्था होती है । वह प्रव्रज्या के योग्य नहीं होती। इत्थ अतिबाल अतिवृद्धा पडिसिद्धा, सेसा अणुण्णाता। जैन शासन में अति बालक और अति वृद्ध की दीक्षा निषिद्ध है। शेष अवस्थाओं की प्रव्रज्या अनुज्ञात है। सप्ततिवर्षतः ऊर्ध्वं वृद्धत्वं सम्मतम् । सत्तर वर्ष से आगे वृद्धावस्था मानी गई है। १६. जे णिव्या पावेहि कम्मेहि, अणियाणा ते वियाहिया। सं०-ये निर्वृत्ताः पापेषु कर्मसु, अनिदानाः ते व्याहृताः। जो हिंसा आदि पाप-कर्म करने में उपशांत होते हैं, वे अनिदान कहलाते हैं। माध्यम १६-निदानं - बन्धनम। द्रव्यतो माता- निदान का अर्थ है--बन्धन। उसके दो प्रकार हैं-द्रव्य पित्रादि धनधान्यादि च भावतः विषयकषायो। न निदानं निदान और भाव निदान । द्रव्य निदान है-माता-पिता आदि तथा येषां ते अनिदानाः । अनिदानाः बन्धनमुक्ता इति यावत्। धन-धान्य आदि। भाव निदान है-इन्द्रिय-विषय तथा कषाय । न केवलं प्रव्रज्यामात्रेण अनिदाना भवन्ति केचित् । ये जिनके कोई निदान नहीं होता, वे अनिदान होते हैं । तात्पर्य की भाषा पापेषु कर्मसु हिंसाद्यनुष्ठानेषु निवृत्ता:-- उपशान्ता में अनिदान अर्थात् बंधनमुक्त । कुछ मनुष्य केवल प्रव्रज्या लेने मात्र से भवन्ति त एव वस्तुतः अनिदाना भवन्ति । ही अनिदान नहीं हो जाते । जो पाप-कर्म तथा हिंसा आदि प्रवृत्तियों से निवृत्त हो जाते हैं, उपशान्त हो जाते हैं, वे ही वस्तुतः अनिदान होते हैं। १. आचारांग चूणि, पृष्ठ २५८ : जामोत्ति वा वयोत्ति वा वृद्धयोर्युदासो, यदिवा यम्यते-उपरम्यते संसारएगट्ठा। भ्रमणादेभिरिति यामाः-ज्ञानदर्शनचारित्राणीति ।' २. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २५८ : तत्थ भगवं पढमे जामे ३. आचारांग चूणि, पृष्ठ २५८ । संबुद्धो, गणहरा केइ पढमे केइ मजिसमे। (ख) वृत्तौ (पत्र २४४) यामपवस्य त्रयोर्थाः कृताः सन्ति, ४. (क) द्रष्टव्यम्-आयारो, २४ भाष्यस्य टिप्पणम्, यामा व्रतविशेषाः त्रय उदाहृताः, तद्यथा ८।३० सूत्रं च। प्राणातिपातो मृषावादः परिग्रहश्चेति, अदत्तादान (ख) शतवर्षीय जीवन की बस अवस्वाएं होती हैं। यहां मैथुनयोः परिग्रह एवान्तर्भावात् त्रयग्रहणं, यदिवा यामाः दीक्षा योग्य अवस्थाएं विवक्षित हैं। प्रथम अवस्था वयोविशेषाः, तद्यथा-अष्टवर्षावात्रिंशतः प्रथमस्तत आठ वर्ष से तीस वर्ष तक, द्वितीय अवस्था इकतीस ऊर्ध्वमाषष्टेः द्वितीयस्तत ऊवं तृतीय इति, अतिबाल वर्ष से साठ वर्ष तक तथा तृतीय अवस्था इकसठ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०८. विमोक्ष, उ० १. सूत्र १५-१६ १७. उड्ढं अहं तिरियं दिसासु, सव्वतो सब्वावंति च णं पडियक्कं जीवेहि कम्मसमारंभे गं। . सं.-ऊर्ध्वमधः तिर्यग् दिशासु सर्वतः 'सव्वावंति' च प्रत्येकं जीवेषु कर्मसमारम्भः । ऊंची, नीची व तिरछी आदि सब दिशाओं में, सब प्रकार से जीवों के प्रति भिन्न-भिन्न प्रकार का कर्म-समारम्भ किया जाता है। भाष्यम् १७-ऊर्ध्वमादिषु सर्वासु दिशासु सर्वतः ऊंची-नीची आदि सब दिशाओं में सर्वतः-सदा सव्वावंतिइति सर्वकालं, सव्वावंति-सर्वभावेन प्रत्येकं जीवेषु कर्म- सब प्रकार से जीवों के प्रति भिन्न-भिन्न प्रकार का कर्म-समारंभ किया समारम्भः प्रवर्तते । अनेकेषु श्रमणेषु चापि पचनपाच- जाता है। अनेक श्रमणों में भी पचन-पाचन आदि कर्म का समारंभ नादिकर्मसमारम्भः प्रबर्तमानः आसीत् ।' तं लक्ष्यीकृत्य होता था। उस कर्म-समारंभ को लक्षित कर भगवान् ने जो निरूपण भगवता यन्निरूपितं तदेव अग्रिमसूत्रे प्रतिपादितमस्ति। किया वही अगले सूत्र में प्रतिपादित है । १८. तं परिण्णाय मेहावी व सयं एतेहिं काएहि वंडं समारंभेज्जा, णेवण्णेहि एतेहिं काएहिं दंड समारंभावेज्जा, नेवण्णे एतेहि काएहि दंडं समारंभंते वि समणजाणेज्जा। सं०-तं परिज्ञाय मेधावी नैव स्वयं एतेषु कायेषु दण्डं समारभेत, नैवान्यः एतेषु कायेषु दण्ड समारम्भयेत्, नैवान्यान् एतेषु कायेषु दण्डं समारभमाणान् अपि समनुजानीयात् । मेधावी उस कर्म-समारम्भ का विवेक कर इन सूक्ष्म जीव-कायों के प्रति स्वयं दंड का प्रयोग न करे, दूसरों से न करवाए और करने वालों का अनुमोदन न करे। भाष्यम १८-मेधावी तं कर्मसमारम्भं परिज्ञाय एतेषु मेधावी मुनि उस कर्मसमारंभ का विवेक कर इन पृथिवी प्रथिव्यादिकायेषु त्रिकरणयोगेन दण्डसमारम्भं परित्यजे- आदि जीव-निकायों के प्रति तीन करण, तीन योग से दंड-समारंभ दिति हदयम । एष मुनेराचारः। स अहिंसामहाव्रतस्य का परित्याग करे। यही इसका हार्द है। यह मुनि का आचार है। साधनायै समपितो भवति। तेन त्रिकरणयोगेन कर्म- मुनि अहिंसा महाव्रत की साधना के लिए समर्पित होता है। उसने समारम्भः परित्यक्तः। ईदृशी साधना अहिंसां प्रति तीन करण और तीन योग से कर्म-समारंभ का परित्याग किया है। समर्पितस्यैव जनस्य कृते संभवति, नान्यस्य । ऐसी साधना अहिंसा के प्रति समर्पित व्यक्ति के लिए ही संभव है, दूसरे के लिए नहीं। १६. जेवण्णे एतेहिं काएहि वंडं समारंभंति, तेसि पि वयं लज्जामो। सं०-येऽप्यन्ये एतेषु कायेषु दण्डं समारभन्ते तेषामपि वयं लज्जामहे । जो भिक्षु इन सूक्ष्म जीव-कायों के प्रति बंड का प्रयोग करते हैं, उनके प्रति भी हम क्या प्रदर्शित करते हैं। भाष्यम १९-ये चाप्यन्ये भिक्षवः एतेषु पृथिव्यादि- जो अन्य भिक्षु इन पृथिवी आदि जीव-निकायों के प्रति दंड वर्ष से जीवन-पर्यन्त की होती है। परिव्राजक बीस १. बौद्ध भिक्षु स्वयं भोजन नहीं पकाते थे, किन्तु दूसरों से वर्ष से कम अवस्था वाले को प्रवजित नहीं करते पकवाते थे। विहार आदि का निर्माण करते और करवाते ये । वैविक लोग अंतिम अवस्था में संन्यास प्रहण थे, मांस खाते थे और उसमें दोष नहीं मानते थे। कुछ करते थे। बुद्ध ने तीस वर्ष से कम उम्र वालों को भिक्षु संघ के निमित्त हिंसा करने में दोष नहीं मानते थे। उपसम्पदा [वीक्षा] देने का निषेध किया है कछ भिक्षु वनस्पतिकाय की हिंसा नहीं करते थे। कुछ [विनय-पिटक, भिक्खु पातिमोक्ख, पाचित्तिय ६५] । भिक्षु औद्देशिक आहार नहीं लेते थे, किन्तु सचित्त जल किन्तु कौआ उड़ाने में समर्थ पन्द्रह वर्ष से कम उम्र पीते थे। कुछ भिक्षु सचित्त जल पीते थे किन्तु उससे स्नान के बच्चे को श्रामणेर बनाने की अनुमति दी है नहीं करते थे। प्रस्तुत सूत्र (१७) इन परम्पराओं की ओर [विनत-पिटक, महावग्ग, महास्कन्धक ११३८] । इंगित करता है। किन्तु जैन परम्परा में दीक्षा की योग्यता आठ २. सुब्व्यत्ययेन तृतीया षष्ठी। वर्ष और तीन मास की अवस्था के बाद स्वीकृत थी। Jain Education international Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ कायेषु दण्डं समारभन्ते तेषामपि वयं लज्जामहे परिहरामो दयामहे वा । लज्जायाः हेतुरयं यद् भिक्षुत्वं स्वीकृत्यापि सूक्ष्मजीवान् प्रति ते न दयालबः भिक्षु रूपेण ते अस्माकं समकोटिका: अतस्तेषां अहिंसां प्रति उदासीनतां दृष्ट्वा अस्माकं लज्जायाः अनुभवो जायते । दंडभो दंडं समारभेज्जासि । त्ति बेमि । २० तं परिष्णाय मेहावी तं वा दंड, अण्णं वा दंडं, णो सं० तं परिज्ञाय मेधावी तं वा दण्डं, अन्यं वा दण्डं, नो दण्डभी: दण्डं समारभेत । इति ब्रवीमि । दंड-भीरु मेधावी उस कर्म समारम्भ का विवेक कर पूर्वकथित या अन्य किसी प्रकार के दंड का प्रयोग न करे। ऐसा मैं 1 भाष्यम् २० -- अहिंसायाः आचरणे विशिष्टो हेतुरस्ति अभय: । भीतो जनो नार्हति अहिंसामाचरितुम्। यश्च सर्वात्मना अभयो भवति स एव दण्डभीरुः । अभयदण्ड भीरुपदयोः नास्ति कश्चिद् विरोधः यो जीवानां बधात् बिभेति स एव दण्डभीयर्भवति तादृशो न जीवेभ्यो । बिभेति न च जीवान् भाययति, अत एव स अभयो भवति । यश्च अभयो भवति स एव दण्डसमारंभात विरतो भवति । 1 आचारांग भाव्यम् लज्जा का प्रयोग करते हैं, उनके प्रति भी हम जा का अनुभव करते हैंउनका हम परिहार करते हैं अथवा उनके प्रति हम दया प्रदर्शित करते है लज्जा का हेतु यह है कि वे भिक्षु जीवन को स्वीकार करके भी सूक्ष्म जीवों के प्रति दयालु नहीं है। भिक्षु के रूप में हमारी और उनकी समान कोटि है, इसीलिए अहिंसा के प्रति उनकी उदासीनता को देखकर हमें लज्जा का अनुभव होता है । बीओ उद्देसो दूसरा उद्देशक २१. से भिव परक्कमेज्ज वा, चिट्ठेज्ज वा पिसीएज्ज वा तुयटेज्ज वा, सुसानंसि वा सुन्नागारंसि वा हुरत्था वा कहिचि विहरमाणं तं भिक्खु उवसंकमित्त असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वा वा सत्ताई समारम्भ समुद्दिस्त कीयं पामिवं अच्छे गिरिगुहंसि वा, रुक्खमूलंसि वा कुंभारायतणंसि वा, गाहावती ब्रूया आउसंतो समणा ! अहं खलु तब अट्ठाए पहिं वा कंबलं वा पायदुखणं वा पाणाई भूयाई जीवाई अणिसदृढं अभिडं आहट्ट चेतेमि, आवसहं या समुसिणोमि से भुंजह वसह आउसंतो समणा ! अहिंसा के आचरण का विशिष्ट हेतु है-अभय । डरा हुआ व्यक्ति अहिंसा का आचरण नहीं कर सकता। जो सर्वात्मना अभय होता है वही दंडभीर होता है। अभय और दंडभीर इन दोनों पदों में कोई । — विरोध नहीं है। जो जीवों के वध से डरता है वही दंडभीर होता है वैसा व्यक्ति न जीवों से डरता है और न जीवों को डराता है, । इसलिए वह अभय होता है। जो अभय होता है, वही दंड-समारंभ से विरत होता है। 1 सं० भिक्षुः पराक्रमेत वा तिष्ठेद या निषीदेद् वा शयीत वा श्मसाने वा शून्यागारे वा गिरिगुहायां वा रुक्षमूले वा कुम्भकारायतने वा 'हुरस्था" वा कुत्रचिद् विहरन्तं तं भिक्षु उपसंक्रम्य गृहपतिः ब्रूयात् — आयुष्मन् श्रमण ! अहं खलु तवार्थ अशनं वा, पानं वा, खाद्यं वा स्वाद्यं वा, वस्त्रं वा, प्रतिग्रहं वा, कम्बलं वा, पादप्रोञ्छनं वा प्राणान् भूतान् जीवान् सत्त्वान् समारभ्य समुद्दिश्य क्रीतं प्रामित्यं आच्छेद्यं अनिसृष्टं अभिहृतं आहृत्य ददामि आवसथं वा समुच्छृणोमि तत् भुङ्क्ष्व वस आयुष्मन् श्रमण ! J 1 2 १. आचारांग चूणि, पृष्ठ २५९ लज्जामोति वा परिहरा भवति पो ते संसग्गी करेमो, अहवा जइ सासणपडिणीया चरगा अवि बहूहि असम्भावुभावणाहि मोति वा भिक्षु कहीं जा रहा है, मान, शून्यगृह, गिरी-गुफा, वृक्ष के नीचे या कुम्हार के आयतन में खड़ा, बैठा था लेटा हुआ है अथवा ( गांव से) बाहर कहीं भी विहार कर रहा है । उस समय कोई गृहपति उसके पास आकर बोले- आयुष्मन् श्रमण ! मैं प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों का समारम्भ कर तुम्हारे लिए अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादप्रोंछन बनाता हूं - जाव विहरति निष्हगा महाडंदा म तहा तेसिजमोति वा दयामोत्ति वा एगट्ठा । २. देशीयशब्दः । Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०८. विमोक्ष, उ०१-२. सूत्र २०-२२ ३६७ या तुम्हारे उद्देश्य से उसे खरीदता हूं, उधार लेता हूं, दूसरों से छीनता हूं, वह मेरे भागीदार द्वारा अनुज्ञात नहीं है या उसे यहां लाता हूं। इस प्रकार का अशन आदि मैं तुम्हें देना चाहता हूं। तुम्हारे लिए उपाश्रय का निर्माण करता हूं। हे आयुष्मन् श्रमण ! उस (अशन, पान आदि) का उपभोग करो और उस उपाश्रय में रहो। भाष्यम् २१-श्मशानवासविषये एषा चूर्णिकार- श्मशान-वास के विषय में चूर्णिकार द्वारा निर्दिष्ट प्राचीन निर्दिष्टा प्राचीनपरम्परा-गच्छवासी श्मशाने न परंपरा यह है- गच्छवासी मुनि श्मशान में न रहे। प्रतिमा की तिष्ठेत । प्रतिमाप्रतिपन्नः यत्र सूर्यास्तमेति तत्रैव तिष्ठति साधना को स्वीकार करने वाला मुनि जहां सूर्य अस्त होता है, उसे तेन स तिष्ठेत अथवा सत्त्वभावनया जिनकल्पपरिकर्म वहीं ठहरना होता है, इसलिए प्रतिमा-प्रतिपन्न मुनि श्मशान में ठहर कुर्वाणः तिष्ठेत्, सोऽपि किल न श्मशाने तिष्ठति, किन्तु सकता है । अथवा सत्त्वभावना से जिनकल्प का परिकर्म-जिनकल्प श्मशानस्य पार्वे तिष्ठति । अवस्था को स्वीकार करने की तैयारी करने वाला मुनि श्मशान में रह सकता है। वह भी श्मशान में नहीं, किन्तु श्मशान के पार्श्ववर्ती क्षेत्र में रह सकता है। मूलपाठे श्मशानादिपञ्चपदानां संग्रहो विद्यते, किन्तु मूलपाठ में श्मशान आदि पांच पदों का संग्रह है, किन्तु चूणि चूर्णी अन्येषां बहनां पदानां निर्देशः अस्ति ।' में अन्य अनेक पदों का निर्देश है। हुरत्या-बहिस्ताद् । पामिच्च-अभिहडपदे 'हुरत्या' का अर्थ है-बाहर। यह देशीपद है। प्रामित्य दशवैकालिकवद् । 'अच्छेज्ज-अणिसठ्ठपदे च स्थानांग- तथा अभिहत के लिए क्रमशः देखें-दसवेआलियसूत्र का ५२११५५ वद् द्रष्टव्ये। तथा ३।२ का टिप्पण। अच्छेद्य तथा अनिसृष्ट के लिए देखें-ठाणं ९।६२ का टिप्पण। २२. भिक्ख तं गाहावति समणसं सवयसं पडियाइक्खे--आउसंतो गाहावती! णो खलु ते वयणं आढामि, णो खल ते वयणं परिजाणामि, जो तुमं मम अट्टाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा पाणाइं भूयाइं जीवाइं सत्ताई समारम्भ समुद्दिस्स कीयं पामिच्चं अच्छेज्जं अणिसट्ठ अभिहडं आहट्ट चेएसि, आवसहं वा समुस्सिणासि, से विरतो आउसो गाहावतो! एयस्स अकरणाए। सं०-भिक्षुः तं गृहपति समनसं सवचसं प्रत्याचक्षीत-आयुष्मन् गृहपते ! नो खलु तव वचनं आद्रिये, नो खलु तव वचनं परिजानामि, यः त्वं ममार्थ अशनं वा, पानं वा, खाद्यं वा, स्वाद्यं वा, वस्त्रं वा, प्रतिग्रहं वा, कम्बलं वा, पादप्रोञ्छनं वा, प्राणान् भूतान् जीवान् सत्त्वान् समारभ्य समुद्दिश्य क्रीतं प्रामित्यं आच्छेद्यं अनिसष्टं अभिहृतं आहृत्य ददासि आवसथं वा समुच्छृणोषि तस्माद् विरतः आयुष्मन् गृहपते ! एतस्य अकरणाय ।। भिक्षु भद्र मन और वचन वाले उस गृहपति को प्रतिषेध की भाषा में कहे-आयुष्मन् गृहपति ! मैं तुम्हारे वचन को आदर नहीं देता हूं, स्वीकार नहीं करता हूं, जो तुम प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों का समारंभ कर मेरे लिए अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादपोंछन बनाते हो या मेरे ही उद्देश्य से उसे खरीदते हो, उधार लेते हो, दूसरों से छीनते हो, तुम्हारे भागीदार की अनुज्ञा प्राप्त नहीं करते हो या अपने घर से यहां लाकर देना चाहते हो अथवा मेरे लिए उपाश्रय का निर्माण करते हो। आयुष्मन् गृहपति ! मैं उससे विरत हुआ हूं। मेरे लिए यह अकरणीय है। भाष्यम् २२-स्पष्टमेव । १. आचारांग चूणि, पृष्ठ २६०-२६१ : परिव्वयागआवसह मादिएहि दगसोदरियमादीहि जया छड्डिता, उवट्टणगिहं किर घंघसाला सा गाममज्झेसु कुज्जति पुव्वदेसमादीएहि, दक्खिणापहे गामदेउलिया भवति, वेउलियासु प्रायेण वाणमंतरा हविज्जति, कम्मगारसालाए वा तंतुवायगसालाए वा लोहगारसालाए वा जत्तियाओ साला सव्वाओ भाणियग्वाओ। २. आचारांग चूणि, पृष्ठ २६१ : हुरत्थं बहिता गामादीणं स्पष्ट है। देसीभासा उज्जाणादिसु । ३. (क) पामिच्च-द्रष्टव्यम् -दसवेआलियसूत्रस्य ५॥११५५ टिप्पणम् । (ख) अभिहडं-द्रष्टव्यम्-दसवेआलियसूत्रस्य ३२ टिप्पणम्। ४. अच्छेज्ज-अणिसट्ठ-द्रष्टव्यम्-ठाणसूत्रस्य ९६२ टिप्पणम् । Jain Education international Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगभाव्यम् २३. से भिक्ख परक्कमेज्ज वा, चिठेज्ज वा, णिसीएज्ज वा, तुयज्ज वा, सुसाणंसि वा, सुन्नागारंसि वा, गिरिगृहंसि वा, रुक्खमूलंसि वा, कुंभारायतणंसि वा, 'हरत्था' वा कहिंचि विहरमाणं तं भिक्खं उवसंकमित्त गाहावती आयगयाए पेहाए असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा वस्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायछणं वा पाणाइं भूयाइं जीवाई सत्ताई समारब्भ समुद्दिस्स कीयं पामिच्चं अच्छेज्जं अणिसठं अभिहडं आहट्ट चेएइ, आवसहं वा समुस्सिणाति तं भिक्खं परिघासेउं । सं०-स भिक्षुः पराक्रमेत वा, तिष्ठेद् वा, निषीदेद् वा, शयीत वा, श्मशाने वा, शून्यागारे वा, गिरिगुहायां वा, रूक्षमूले वा, कुम्भकारायतने वा, 'हुरत्था' वा कुत्रचिद् विहरन्तं तं भिक्षु उपसंक्रम्य गृहपतिः आत्मगतया प्रेक्षया अशनं वा, पानं वा, खाद्यं वा, स्वाद्यं वा, वस्त्रं वा प्रतिग्रहं वा, कम्बलं वा, पादप्रोञ्छनं वा, प्राणान् भूतान् जीवान् सत्त्वान् समारभ्य समुद्दिश्य क्रीतं प्रामित्यं आच्छेद्यं अनिसृष्टं अभिहृतं आहृत्य ददाति आवसथं वा समुछणोति तं भिक्षु परिघासयितुम् । भिक्षु कहीं जा रहा है, श्मशान, शून्यगृह, गिरि-गुफा, वृक्ष के नीचे या कुम्हार के आयतन में खड़ा, बैठा या लेटा हुआ है अथवा (गांव से) बाहर कहीं भी विहार कर रहा है। उस समय कोई गृहपति आत्मगत भावों को प्रकट न करता हुआ उसके पास आकर-प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों के समारम्भपूर्वक बनाया हुआ अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादपोंछन या उद्देश्यपूर्वक खरीदा हुआ, उधार लिया हुआ, दूसरों से छीना हुआ, उसके भागीदार द्वारा अननुज्ञात या अपने घर से वहां लाया हुआ अशन आदि उसे देना चाहता है या उपाश्रय का निर्माण करता है । यह सब भिक्षु के भोजन या आवास के लिए करता है। भाष्यम् २३-परिघासेउं-परिभोजयितुम् ।' परिघासेउं का अर्थ है-भोजन के लिए। २४. तं च भिक्ख जाणेज्जा-सहसम्मइयाए, परवागरणेणं, अण्णेसि वा अंतिए सोच्चा अयं खलु गाहावई मम अट्टाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वत्थं वा पडिग्गहं धा कंबलं वा पायपुंछणं वा पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताइं समारम्भ समुद्दिस्स कीयं पामिच्चं अच्छेज्ज अणिसट्ठ अमिहडं आहट्ट चेएइ, आवसहं वा समुस्सिणाति, तं च भिक्खू पडिलेहाए आगमेत्ता आणवेज्जा अणासेवणाए त्ति बेमि। सं०-तच्च भिक्षुः जानीयात्--स्वसंस्मृत्या, परव्याकरणेन अन्येषां वा अन्तिके श्रुत्वा अयं खलु गृहपतिः ममार्थं अशनं वा, पानं वा, खाद्यं वा, स्वाद्यं वा, वस्त्रं वा, प्रतिग्रहं वा, कम्बलं वा, पादप्रोञ्छनं वा, प्राणान् भूतान् जीवान् सत्त्वान् समारभ्य समुद्दिश्य क्रीतं प्रामित्यं आच्छेद्यं अनिसृष्टं अभिहृतं आहृत्य ददाति आवसथं वा समुच्छृणोति तं च भिक्षु प्रतिलिख्य आगम्य आज्ञापयेत् अनासेवनाय इति ब्रवीमि । अपनी स्मृति, अतिशय ज्ञानी या अन्य किसी से सुनकर भिक्षु को यह ज्ञात हो जाए कि यह गृहपति मेरे लिए प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों के समारम्भपूर्वक अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादप्रोंछन बनाकर या मेरे उद्देश्य से खरीद कर, उधार लेकर, दूसरों से छीनकर, उसके भागीदार से अनुज्ञा न लेकर या अपने घर से यहां लाकर अशन आदि देना चाहता है या उपाश्रय का निर्माण करता है । भिक्षु आगम की आज्ञा को ध्यान में रखकर उस गृहस्थ से कहे-इनका मैं सेवन नहीं कर सकता, ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् २४-स्वसंस्मृत्यादिपदत्रयावबोधार्थ द्रष्टव्यम स्व-स्मृति आदि तीनों पदों की व्याख्या के लिए देखें१३ सूत्रम् । अनासेवनाय आज्ञापयेत् तं गृहपतिमिति आयारो १।३ । भिक्षु उस गृहस्थ से कहे-इनका मैं सेवन नहीं कर संबंधः । सकता। १. आचारांग चूणि, पृष्ठ २६३ : परिघासेउ-पडिलाभेलं, जं भणितं- भोतावेत्ता वत्थादीणि परिभुंजावेडं आवसहे परिवसाइउं। २. वृत्तौ (पत्र २४६) गृहपतिसंबंधः व्याख्यातोस्ति । किन्तु चूणों (पृष्ठ २६३-२६४) स भिक्षुः अन्यान् मिलन तदनासेवनाय आज्ञापयेत् इति उल्लिखितमस्ति - जति जिणकप्पिओ तो तुहिक्कओ चेव अच्छति, पारिहारिया पुण अणुपरिहारिताणं कहेंति, अहालिदिया सहाणे कहेंति गच्छवासीणं, हिंडंता वा उपस्सयं वा गंतुं आणविज्ज, अच्चत्थजणो व ते आणविज्जा, किमिति ? आउसंतो समणा! अमुयत्य गिहत्थेण मम णिमित्तण अन्नतरस्स वा साहूस्स साहूण वा संघस्स वा असणं वा ४ वत्थपडिग्गह जाव आवसहं वा समुस्सिणाति, अणासेवर्ण अगमणं अग्गहणं पुव्वगहियस्स वा अपडिभोगो।" Jain Education international Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०८.विमोक्ष, उ० २. सूत्र २३-२६ ३६९ २५..भिक्खू च खलु पुट्ठा वा अपुट्ठा वा जे इमे आहच्च गंथा फुसंति—'से हंता! हणह, खणह, छिदह, दहह, पचह, आलुपह, विलुपह, सहसाकारेह, विप्परामुसह-' ते फासे धीरो पुट्ठो अहियासए। सं०-भिक्षु च खलु पृष्ट्वा वा अपृष्ट्वा वा ये इमे आहृत्य ग्रन्थाः स्पृशन्ति-अथ हन्त ! हत, क्षणुत, छिन्त, दहत, पचत, आलुम्पत, विलुम्पत, सहसाकारयत, विपरामृशत-तान् स्पर्शान् धीरः स्पृष्टः अधिसहेत। भिक्षु को पूछकर या बिना पूछे (कुछ लोगों ने उसके लिए अशन आदि बनाया। भिक्षु के द्वारा उसका स्वीकार न करने पर) भिक्षु को कदाचित् रज्जु आदि बंधन से बांध देते हैं। वे अपने कर्मकरों को संबोधित कर कहते हैं-(तुम जाओ, व्यर्थ ही मेरे धन का अपव्यय कराने वाले उस भिक्षु को) पोटो, क्षत-विक्षत करो, हाथ-पैर आदि का छेदन करो, क्षार आदि से जलाओ, जलती लकड़ी से दाग दो, शरीर को नखों से नोंच डालो, बार-बार नोंच डालो, सिर काट डालो (या हाथी के पैर के नीचे कुचल डालो), नाना प्रकार से उसे पीडित करो।' उन कर्मकरों द्वारा कृत कष्टों के प्राप्त होने पर धीर मुनि उन्हें सहन करे । भाष्यम् २५-ग्रन्थः-बन्धः।' ग्रन्थ का अर्थ है-बंध । २६. अदुवा आयार-गोयरमाइक्खे, तक्किया ण मणेलिसं । अणुपुत्वेण सम्म पडिलेहाए आयगुत्ते । सं०-अथवा आचारगोचरमाचक्षीत तर्कयित्वा च अनीदृशम् । अनुपूर्वेण सम्यक् प्रतिलिख्य आत्मगुप्तः । अशन आदि बनाने वाले और उनके कर्मकरों को वह आत्मगुप्त मुनि यदि समझने योग्य जाने तो उन्हें क्रमशः सम्यक् प्रेक्षापूर्वक अपना असश-अन्यत्र अनुपलब्ध आचार-गोचर समझाए । २७. अदुवा गुत्तो गोयरस्स। सं०-अथवा गुप्तिः गोचरस्य । अथवा यदि वे समझने योग्य न हों, तो वह वाणी के विषय का संगोपन करे-मौन रहे। २८. बुद्धेहिं एवं पवेदितं-से समणुण्णे असमणुण्णस्स असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा नो पाएज्जा, नो निमंतेज्जा, नो कुज्जा वेयावडियं-परं आढायमाणे त्ति बेमि । सं०-बुद्ध रेतत् प्रवेदितम् - स समनुज्ञः असमनुज्ञस्य अशनं वा, पानं वा, खाद्यं वा, स्वाद्यं वा, वस्त्रं वा, प्रतिग्रहं वा, कंबलं वा, पादप्रोञ्छनं वा नो प्रदद्यात, नो निमंत्रयेद्, नो कुर्यात् वैयापत्यं -परं आद्रियमाणः इति ब्रवीमि । ज्ञानी आचार्यों ने ऐसा कहा है-समनुज्ञ मुनि असमनुज्ञ मुनि को अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादपोंछन न दे, न उन्हें देने के लिए निमंत्रित करे, न उनके कार्यों में व्याप्त हो, यह सब अत्यन्त आदर प्रदर्शित करता हुआ करे, ऐसा मैं कहता हूं। २६. धम्ममायाणह, पवेइयं माहणेण मतिमया-समणुण्णे समणुण्णस्स असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा पाएज्जा, णिमंतेज्जा, कुज्जा वेयावडियं-परं आढायमाणे।-त्ति बेमि । सं० - धर्ममाजानीत प्रवेदितं माहनेन मतिमता - समनुज्ञः समनुज्ञस्य अशनं वा, पानं वा, खाद्यं वा, स्वाद्यं वा, वस्त्रं वा, प्रतिग्रह वा, कंबलं वा, पादप्रोञ्छनं वा प्रदद्यात्, निमन्त्रयेत्, कुर्यात् वैयापृत्यं-परं आद्रियमाणः । - इति ब्रवीमि । मतिमान् माहन के द्वारा निरूपित धर्म को जानो-समनुज्ञ मुनि समनुज्ञ मुनि को अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादपोंछन दे, उन्हें देने के लिए निमंत्रित करे, उनके कार्यों में व्याप्त हो। यह सब अत्यन्त आदर प्रदर्शित करता हुआ करे। - ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् २६-२९-स्पष्टम् । २६-२९ स्पष्ट है। १. आचारांग चूणि, पृष्ठ २६४ : 'णियलादिगंथा, यदुक्तं भवति-बंधा ।' चूणौं अस्य वैकल्पिकोऽपि अर्थः कृतोस्ति। Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० आचारांगभाष्यम् तइओ उद्देसो : तोसरा उद्देशक ३०. मज्झिमेणं वयसा एगे, संबुज्झमाणा समृद्धिता। सं०- मध्यमेन वयसा एके संबुध्यमानाः समुत्थिताः । कुछ व्यक्ति मध्यम वय में सम्बोधि को प्राप्त कर प्रवजित होते हैं। भाष्यम् ३०-केचित् मध्यमे वयसि संबुध्यमाना: कुछ पुरुष मध्यम अवस्था में संबोधि को प्राप्त कर प्रवजित समुत्थिता:-प्रव्रजिता भवन्ति । पञ्चदशे सूत्रे (८।१५) होते हैं । पन्द्रहवें सूत्र (८।१५) में यह प्रतिपादित किया गया है कि त्रिष्वपि वयस्सु समुत्थानं भवतीति प्रतिपादितम् । प्रव्रज्या तीनों अवस्थाओं में ली जा सकती है। वह सामान्य तदस्ति सामान्यम् । प्रस्तुतसूत्रे अस्ति विशेषस्य निर्देशः । उल्लेख है । प्रस्तुत सूत्र में विशेष का निर्देश है। प्रायः मनुष्य मध्यम प्रायो जनाः मध्यमे वयसि संबुध्यन्ते, तेनात्र मध्यमवयो- वय में संबुद्ध होते हैं, इसलिए यहां मध्यम वय का ग्रहण किया हैग्रहणमिति चूर्णिकारस्य मतम् ।' यह चूर्णिकार का अभिमत है । ३१. सोच्चा वई मेहावी, पंडियाणं निसामिया । समियाए धम्मे, आरिएहि पवेदिते । संo-श्रुत्वा वाचं मेधावी पण्डितानां निशम्य समतायां धर्मः आर्यः प्रवेदितः । तीर्थंकरों ने समता में धर्म कहा है - आचार्यों की यह वाणी सुनकर बुद्ध-बोधित', मेधावी उसे हृदयंगम कर मध्यम वय में प्रवजित होते हैं। भाष्यम् ३१ - द्रष्टव्यम्-५।४० । देखें-५॥४० । ३२.ते अणवकंखमाणा अणतिवाएमाणा अपरिग्गहमाणा णो परिग्गहावंती सव्वावंती च णं लोगसि । सं० ते अनवकाङ्क्षन्तः अनतिपातयन्तः अपरिगृहन्तः नो परिग्रहवन्तः सर्वस्मिश्च लोके । वे कामभोगों के प्रति आसक्ति, प्राणियों के प्राणों का अतिपात और परिग्रह न करते हुए समूचे लोक में अहिंसक और अपरिग्रही होते हैं। भाष्यम् ३२-आकाङ्क्षा-लोभः । लोभमूलोस्ति आकांक्षा का अर्थ है-लोभ । अतिपात अर्थात् हिंसा का मूल अतिपात:-हिंसा। अतिपातमूलोस्ति परिग्रहः-धन- है- लोभ । परिग्रह का मूल है .... अतिपात । धन, धान्य आदि का धान्यादीनां संग्रहः । संग्रह परिग्रह है। जो पुरुष आकांक्षा, हिंसा और परिग्रह के चक्र से ये आकाक्षायाः अतिपातस्य परिग्रहस्य च मुक्त हो चुके हैं, वे ही वास्तव में सारे संसार में अपरिग्रह का मर्म चक्रकमत्तीर्णाः त एव वस्तुतः सर्वस्मिन् लोके अपरि- जानते हैं । चूणि में यह पद उद्धृत है - आकांक्षा करने वाले ठगे गए ग्रहस्य मर्म विदन्ति । उद्धतमस्ति चूर्णी-छलिता और आकांक्षा नहीं करने वाले मोक्ष को प्राप्त हो गए। अवयवंता अणवयक्वंता गया मोक्खं ।' ३३. णिहाय दंडं पाणेहि, पावं कम्मं अकुश्वमाणे, एस महं अगंथे वियाहिए। सं०-निधाय दण्डं प्राणेषु पापं कर्म अकुर्वाणः एष महान् अग्रन्थः व्याहतः । जो प्राणियों के प्रति अहिंसक है और पाप-कर्म नहीं करता वह महान् अपंथ -ग्रंथिमुक्त कहलाता है। १. आचारांग चूणि, पृष्ठ २६६,२६७ : 'मज्झिमगहणं तु प्रायसो मजिसमवयगहणं ।' मजिसमे वये बुज्झति तेण तग्गहणं, ते तु भुसभोगित्ता २. सम्बोधि प्राप्त मनुष्य तीन प्रकार के होते हैं-स्वयंविगयकोउया सुहं विरागमग्गे चिट्ठति, विण्णाणं च तेसि संबुद्ध, प्रत्येक-बुद्ध और बुद्ध-बोधित । यह सूत्र बुद्ध-बोधित पटुयरं भवति, गणहरा य पायसो मजिसमे वये पम्वइया, व्यक्ति की अपेक्षा से है। तेहि य एतं सुरतं आयणिक्खमणपज्जायकवेणं मणितं, . ३. आचारांग चूणि, पृष्ठ २६७ । भगवंपि य मजिसमबए पडिवण्णो निक्खंतो, एअकारणओ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०८. विमोक्ष, उ० ३. सूत्र ३०-३५ ३७१ भाष्यम् ३३-प्राणेषु दण्डं निधाय-परित्यज्य' य: जो प्राणियों के प्रति दंड का परित्याग कर हिंसा आदि पापहिंसादिपापं कर्म अकुर्वन्नस्ति, स अहिंसक एव महान् कर्म नहीं करता, वही अहिंसक महान् अग्रंथ अर्थात् निर्ग्रन्थ कहलाता अग्रन्थः-निर्ग्रन्थः व्याहृतः। तात्पर्यभाषायां यो नास्ति है। तात्पर्य में कहा जा सकता है कि जो अपरिग्रही नहीं है, अपरिग्रही स नास्ति अहिंसकः। यो नास्ति अहिंसकः स वह अहिंसक नहीं है और जो अहिंसक नहीं है, वह अपरिग्रही नास्ति अपरिग्रही। नहीं है। ३४. ओए जुतिमस्स खेयण्णे उववायं चवणं च णच्चा। सं०-ओजः द्युतिमतः क्षेत्रज्ञः उपपातं च्यवनं च ज्ञात्वा । वीतराग और संयम का मर्मज्ञ मुनि जन्म और मृत्यु को जानकर अहिंसा और अपरिग्रह में प्रवृत्त हो। भाष्यम् ३४ - इदानीं अपरिग्रहस्य आराधनायाः हेतुं अब सूत्रकार अपरिग्रह 'की आराधना का हेतु बतलाते हैं। प्रदर्शयति सूत्रकारः । य ओजः निरुपधिकत्वात् अनाश्रित- जो मुनि ओज अर्थात् उपधि रहित तथा अनाश्रित होने के कारण एक त्वात् च एकः तथा धुतिमत:--संयमस्य क्षेत्रज्ञः--ज्ञाता -अकेला और संयम का ज्ञाता होता है, वह जानता है कि जीव के भवति , स जानाति कर्महेतुको जीवस्य उपपातश्च्यवनं उपपात और च्यवन का हेतु है कर्म । महाआरंभ और महापरिग्रह से च । महारम्भमहापरिग्रहाभ्यां जीवस्य अधोगतिर्भवति जीव अधोगति में जाता है, यह जानकर वह अपरिग्रह और अहिंसा इति ज्ञात्वा स अपरिग्रहस्य अहिंसायाश्च आराधनायां की आराधना में प्रवृत्त होता है । प्रवर्तते। ___अत्र उपपातच्यवनपदे जन्ममरणयोरभिधायके इति चूर्णी के अनुसार उपपात और च्यवन-ये दो पद जन्म चाधारण स्पष्टमस्ति। अन्यागमेषु अनयो: पारिभाषि- और मरण के वाचक हैं। अन्य आगमों में ये पारिभाषिक रूप में कत्वं दृश्यते । वृत्तौ केवलं तदेव लभ्यते।' (देवों के जन्म और मृत्यु के लिए) प्रयुक्त हैं। वृत्ति में इनका पारिभाषिक अर्थ ही उपलब्ध है। ३५. आहारोवचया देहा, परिसह-पभंगुरा । सं०-आहारोपचयाः देहाः परीषहप्रभंगुराः । शरीर आहार से उपचित होते हैं और वे परीषहों से भग्न हो जाते हैं। भाष्यम ३५-अहिंसाया अपरिग्रहस्य च आराधनायां जो साधक अहिंसा और अपरिग्रह की आराधना में प्रवृत्त है, प्रवत्तः कथं शरीरं धारयितुं क्षमेत ? किञ्च इमे देहाः वह शरीर को कैसे धारण कर सकेगा? क्योंकि ये शरीर आहारोआहारोपचया: वर्तन्ते, इष्टेन आहारेण उपचिता भवन्ति पचय हैं, उचित आहार से उपचित होते हैं और उचित आहार के तदभावे त अपचिताः । पुनरिमे क्षुधापिपासापरीषहाभ्यां अभाव में अपचित हो जाते हैं और ये शरीर क्षुधा, पिपासा प्रभङ्गुरा:-प्रभज्यन्ते दुर्बलीभवन्तीति यावत् । परीषहों से भग्न हो जाते हैं अर्थात् दुर्बल हो जाते हैं। १. आचारांग चूणि, पृष्ठ २६८ : उंडं घायणं वारणंति २. (क) णिक्खित्तदण्डा-द्रष्टव्यम्, आयारो ४०५, ६।३। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २४९ : निधाय क्षिप्त्वा त्यक्त्वा । ३. आचारांग चूणि, पृष्ठ २६८ : ओयो णाम एगो, यदुक्तं __ भवति -- रागदोसरहितो णिरुवहियत्ता अणासियत्तातो य । ४. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २६८ : जुतिमं संजमो, खेयण्णो णाम जाणगो, जुतिमस्स खेयण्णो, जं भणितं-संजाणगो, अहवा जुत्तिमं सिद्धिक्षेत्र, तंतु सब्वंतिमेहितो जुत्तिम-जाजल्लमाणं एवमादि । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २४९ : द्युतिमान संयमो मोक्षो वा। ५. आचारांग चूणि, पृष्ठ २६८-२६९ : केवली भगवं इमं जाणइ--जेहिं कम्मेहिं जह उववज्जति, तं जहा–नेरइएसु ताव महारंभयाए महापरिग्गयाए जाव देवाणं, घुयंचयणं च । तं च जाणइ जो जत्तियं जीवित्ता चयति, अहवा उववातो नारगदेवाणं, तिरियमणुस्साणं जम्म, चयणं जोइसियवैमानिकानां, सेसाणं उब्वट्टणं । ६. द्रष्टव्यम्-पण्णवणा ६।४६ । ७. आचारांग वृत्ति, पत्र २४९ : देवलोकेऽप्युपपातं च्यवनं च । Jain Education international Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ आचारांगभाध्यम ३६. पासहेगे सव्विदिएहि परिगिलायमाहि । सं०-पश्यत, एके सर्वेन्द्रियः परिग्लायमानः । तुम देखो, आहार के बिना कुछ मुनि सभी इन्द्रियों की शक्ति से हीन हो जाते हैं। भाष्यम् ३६-पश्यत, एके केचित् आहारेण विना देखो, कुछेक मुनि आहार के बिना श्रोत्र आदि सभी इन्द्रियों सर्वैः श्रोत्रादिभिरिन्द्रियैः परिग्लायमानैः क्षीणशक्तयो की शक्ति से क्षीण दिखाई देते हैं । 'एके' शब्द से यह ध्वनित होता है दृश्यन्ते । 'एके' शब्देन इति ध्वन्यते-सर्वेषां नायं नियमो कि यह नियम सब पर निरपवाद रूप से लागू नहीं होता। कुछ मुनि निरपवादः । केचित् आहारं अकुर्वाणा अपि आहार- आहार न करते हुए भी इन्द्रियों की शक्ति से क्षीण नहीं होते, पुद्गलानामाकर्षणवैचित्र्यात् अपरिग्लायन्तो दृश्यन्ते। क्योंकि उनमें आहार योग्य पुद्गलों को आकृष्ट करने की विचित्र योग्यता होती है। ३७. ओए दयं दयइ। सं०-ओजः दयां दयते । अहिंसक और अपरिग्रही मुनि दया का पालन करता है। भाष्यम् ३७-ओजः भिक्षुः शरीरधारणार्थ आहारं ओज-अहिंसक और अपरिग्रही मुनि शरीर धारण के लिए करोति, यथा-तहा भोत्तध्वं जहा से जायमाता ३ भवति', आहार ग्रहण करता है । जैसे कहा है-मुनि को उतना भोजन करना तथा च पुत्वकम्मखयट्ठाए इमं देहं समुद्धरे । तथापि स चाहिए जिससे जीवन-यात्रा चल सके, तथा यह भी कहा है-मुनि सर्वेषां प्राणिनां दयां दयते, दयां पालयतीति यावत् । कर्मों को क्षीण करने के लिए इस शरीर को धारण करे। फिर भी वह भिक्षु सभी जीवों के प्रति दया करता है अर्थात् दया का पालन करता है। ३८. जे सन्निहाण-सत्यस्स खेयण्णे । सं०-यः सन्निधानशस्त्रस्य क्षेत्रज्ञः । जो सन्निधान के शस्त्र को जानता है। भाष्यम ३५-यो भिक्षुः सन्निधानशस्त्रस्य' जो भिक्षु सन्निधान-संचय या संग्रह के शस्त्र का ज्ञाता है, ज्ञाताऽस्ति स एव दयां पालयितुं हिंसादोषदुष्टमाहारं वही दया का पालन करने के लिए हिंसा के दोष से दूषित आहार का वर्जयेत् । वर्जन कर सकता है। कर्म' (आचारांग वृत्ति, पत्र २४९ ।) किन्तु वह प्रसंगानुसारी नहीं लगता। यहां सन्निधान का अर्थ 'भोजन आदि पदार्थों का संग्रह' होना चाहिए। इसी आगम के दूसरे अध्ययन 'लोकविचय' (१०४-१११) में इस विषय का विस्तृत वर्णन है । यहां उसी का संक्षेप है। उसके सन्दर्भ में सन्निधान का यही अर्थ घटित होता १. अंगसुत्ताणि १, पण्हावागरणाई, ९।११। २. उत्तरायणाणि ६।१३।। ३. शरीर अनित्य है, तब मुनि को आहार क्यों करना चाहिए? यह प्रश्न सहज ही उत्पन्न होता है । इसके उत्तर में सूत्रकार ने बताया कर्म-मुक्ति के लिए शरीर-धारण आवश्यक है और शरीर-धारण के लिए आहार आवश्यक है। अतः आहार का निषेध नहीं किया जा सकता । किन्तु आहार करने में अहिंसा की अनिवार्यता बतलाई गई है। ४. चूर्णिकार और वृत्तिकार ने सन्निधान का अर्थ कर्म किया है 'सन्निधि सन्निहाणं, जेण पुण जोनिग्गहणे चउगइए संसारे तासु तासु गतिसु सन्निधीयते तं सण्णिहाणं-कम्म' (आचारांग चूणि, पृष्ठ २७०)। 'सम्यक निधीयते नारकादिगतिषु येन तत्सग्निधानं .. चणि और वृत्ति में 'सस्थ' का अर्थ शास्त्र किया है। वृत्तिकार ने वैकल्पिक रूप में शस्त्र भी किया है। तस्स सत्थं नाणाविपंचगं (आचारांग चूणि पृष्ठ, २७०) तस्य स्वरूपनिरूपकं शास्त्रं, यदिवा सन्निधानस्य कर्मणः शस्त्रं संयमः सन्निधानशस्त्रम् ।' (आचारांग वृत्ति, पत्र २४९) Jain Education international Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ८. विमोक्ष, उ० ३. सूत्र ३६-४२ ३६. से भिक्खु कालण्णे बलण्णे मायण्णे खणण्णे विणयण्णे समयण्णे परिग्गहं अममायमाणे कालेणदाई अपडिण्णे। सं०-स भिक्षुः कालश: बलज्ञः मात्राज्ञः क्षणज्ञः विनयज्ञः समयज्ञः परिग्रह अममायमानः काले उत्थायी अप्रतिज्ञः । वह भिक्षु कालज्ञ, बलज्ञ, मात्राज्ञ, क्षणज्ञ, विनयज्ञ, समयज्ञ, परिग्रह पर ममत्व नहीं करने वाला, उचित समय पर अनुष्ठान करने वाला और अप्रतिज्ञ होता है। भाष्यम् ३९-द्रष्टव्यम्-२।११० । देखें--२।११०। ४०. दुहओ छेत्ता नियाइ। सं०-द्विधा छेत्ता निर्याति । वह राग और द्वेष- दोनों बन्धनों को छिन्न कर नियमित जीवन जीता है। भाष्यम् ४०--द्रष्टव्यम्-२।१११ । देखें-२।१११ । ४१.तं भिक्ख सोयफास-परिवेवमाणगाय उवसंकमित्त गाहावई बूया--आउसंतो समणा! णो खलु ते गामधम्मा उब्वाहंति? आउसंतो गाहावई ! णो खलु मम गामधम्मा उव्वाहति । सोयफास णो खलु अहं संचाएमि अहियासित्तए। णो खलु मे कप्पति अगणिकायं उज्जालेत्तए वा पज्जालेत्तए वा, कायं आयावेत्तए वा पयावेत्तए वा अण्णेसि वा वयणाओ। सं०-तं भिक्षु शीतस्पर्श-परिवेपमानगात्रं उपसंक्रम्य गृहपतिः ब्रूयाद्-आयुष्मन् श्रमण ! नो खलु ते ग्रामधर्माः उद्बाधन्ते ? आयुष्मन् गृहपते ! नो खलु मम ग्रामधर्माः उद्बाधन्ते । शीतस्पर्श नो खलु अहं संशक्नोमि अधिसोढुम् । नो खलु मम कल्पते अग्निकार्य उज्ज्वलयितुं वा प्रज्वलयितुं वा कायं आतापयितुं वा प्रतापयितुं वा अन्येषा वा वचनात् । शीत स्पर्श से प्रकम्पमान शरीर वाले भिक्षु के पास आकर गृहपति कहे-आयुष्मान् श्रमण ! क्या तुम्हें प्राम्य-धर्म (इन्द्रिय-वासना) बाधित नहीं कर रहे हैं ? आयुष्मान् गृहपति ! मुझे ग्राम्य-धर्म बाधित नहीं कर रहे हैं। मैं शीत-स्पर्श को सहन करने में समर्थ नहीं हूं। इसलिए मेरा शरीर प्रकम्पित हो रहा है । मैं अग्निकाय को उज्ज्वलित और प्रज्वलित नहीं कर सकता और दूसरों के कहने से स्वतः प्रज्वलित अग्नि के द्वारा अपने शरीर को आतापित और प्रतापित नहीं कर सकता। भाष्यम् ४१-स्पष्टम् । स्पष्ट है। ४२. सिया से एवं वदंतस्स परो अगणिकायं उज्जालेत्ता पज्जालेत्ता कायं आयावेज्ज वा पयावेज्ज वा, तं च भिक्ख पडिलेहाए आगमेत्ता आणवेज्जा अणासेवणाए।-त्ति बेमि । सं०-स्यात् तस्य एवं वदतः परः अग्निकार्य उज्ज्वलय्य प्रज्वलय्य कायं आतापयेत् वा प्रतापयेत् वा, तं च भिक्षुः प्रतिलिख्य आगम्य आज्ञापयेत् अनासेवनाय । इति ब्रवीमि । भिक्षु के द्वारा ऐसा कहने पर भी कदाचित् वह गृहपति अग्नि-काय को उज्ज्वलित और प्रज्वलित कर उसके शरीर को आतापित और प्रतापित करे, तो भिक्षु आगम की आज्ञा को ध्यान में रखकर, उस गृहपति से कहे--मैं अग्निकाय का सेवन नहीं कर सकता। ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् ४२-स्पष्टम् । स्पष्ट है। १. चूर्णिकार ने प्रस्तुत सूत्र का काव्यशैली में वर्णन किया सो य उच्चनीयमजिसमाई अडतो एगस्स ईश्वरस्य गिहं है-सो य मजिसमवओ अधिकृतो साहू, अभिगतस्थो, णवि पविसित्ता बाहिरे ठितो, सीतवाया य ते ण बारेण पविसह, अतितरुणो णवि अतिविद्धो य, तरुणस्स बलवन्तसरीरस्स तस्स अंग सव्वं कंपति, सो य इग्मो मियलोमपाउयो ण सीतेण अंग थरथरेति, विद्धे तु कंपमाणेवि वरो ण कुंकुमाणुगतअगरविलित्तगत्तो इसित्ति सुराए व मत्तो मेहुणसंकाए संकिज्जति, तेण मज्झिमवतो अधिकृतो साहू, इस्सरियउण्हाए अणुगतो, पुणो य अंगारसगडियाए अणु Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ `चत्थो उद्देसो : चौथा उद्देशक ४३. जे भिक्खू तिहि वत्थह परिवसिते पायचउत्थेहिं, तस्स णं णो एवं भवति - चउत्थं वत्थं जाइस्सामि । सं० - यो भिक्षुः त्रिभिः वस्त्रैः पर्युषितः पात्रचतुर्थेः, तस्य नो एवं भवति --- चतुर्थं वस्त्रं याचिष्ये । जो भिक्षु तीन वस्त्र और एक पात्र रखने की मर्यादा में स्थित है, करूंगा । त्रिवस्त्रपर्युषितः जिनकल्पो वा स्थविरकल्पो वा भवति, किन्तु द्विवस्त्रपर्युषितः पुननियमतः जिनकल्पिक परिहारविशुद्धि चारित्रमाश्रितः यथालन्दकः, प्रतिमाप्रति पन्नो वा भवति । एकवस्त्रपर्युषितः त्रिवस्त्रद्विवस्त्रपर्युषितेभ्यो बलवान् संहननयुक्तश्च भवति । । भाष्यम् ४३ - प्रस्तुताध्ययने वस्त्रादेशेन चतुविधा प्रस्तुत अध्ययन में वस्त्रों की अपेक्षा से चार प्रकार के मुनियों भिक्षवः निरूपिताः सन्ति--त्रिभिर्द्वाभ्यां एकेन वा एकेन वा का निरूपण है- १. तीन वस्त्र रखने वाले मुनि, २. दो वस्त्र वस्त्रेण पर्युषिता अचेलाश्य वस्त्रग्रहणं द्विविधं रखने वाले भूमि ३ एक वस्त्र रखने वाले मुनि, ४. निर्वस्त्र मुनि । अधिक ओपग्रहिकं च प्रतिमाप्रतिपन्नो भिक्षुः त्रीणि वस्त्र-ग्रहण दो प्रकार । का होता है औधिक - सामान्य तथा वस्त्राणि धारयति । अत्र प्राचीनपरम्परा अनु- औपग्रहिक - ऋतुसापेक्ष प्रतिमा की साधना में संलग्न मुनि तीन सरणीया । " वस्त्र धारण करता है। इस विषय में प्राचीन परम्परा का अनुसरण करना चाहिए । , चतुर्थवस्त्रवाचनं औपग्रहिकमस्ति सत्यपि महाशीते प्रतिमाप्रतिपन्नो भिक्षुः औपग्रहिकवस्त्रयाचनस्य संकल्पं न करोति । भाष्यम् ४४ -- आपतितः शीतकालः । वस्त्रत्रयं न विद्यते । तदानीं स जिनकल्पिकादिः यथैषणीयानि वस्त्राणि याचेत - जिनकल्पिकस्य यथा एषणा भणितास्ति तथा वाचेत तत्र चतस्रो वस्त्रेषणाः सन्ति। तप्यमाणो अंतेपुरपरि बरगदगीतोवरमे कचितं साहू बहूं कंपमाणं चितयति किमयं साहू सोतेण कंपति ? उत एयाओ ममित्थोओ अलंकियाओ दठ्ठे मणस्स खोभो जातो ? जेण से वाताविधूतमिव कदलीपत्रं थरथरेति इति, एवं साहूं सीयफासेण वेबमाणगायं दट्ठ आसणा ओवद्वाय तमुदकाम्यब्रवीति । ( आचारांग पूर्ण, पृष्ठ २७१) १. आचारांग भूणि, पृष्ठ २७३ परिसितोपज्जुसितो : चितोत्ति वा एगट्ठा । आचारांग माध्यम उसका मन ऐसा नहीं होता कि मैं चौथे वस्त्र की याचना ४४. से अहेस णिज्जाई बस्थाई जाएजा । सं० --- स यथैषणीयानि वस्त्राणि याचेत । वह यथा- एषणीय -- अपनी-अपनी कल्प-मर्यादा के अनुसार ग्रहणीय वस्त्रों की याचना करे । तीन वस्त्र रखने वाला मुनि जिनकल्पी अथवा स्थविरकल्पी होता है। किन्तु दो वस्त्र रखने वाला मुनि नियमतः जिनकल्पी, परिहारविशुद्धिचारित्र का अनुपालन करने वाला यथालंदक अथवा प्रतिमा प्रतिपन्न होता है। एक वस्त्र रखने वाला मुनि तीन या दो वस्त्र रखने वाले मुनियों से शक्ति सम्पन्न और विशेष संहनन युक्त होता है । चौथे वस्त्र की याचना करना औपग्रहिक ऋतुसापेक्ष है। अत्यधिक शीत होने पर भी प्रतिमा प्रतिपन्न भिक्षु औपग्रहिक वस्त्र की याचना का संकल्प नहीं करता । शीतकाल आ गया। तीन वस्त्र नहीं हैं। उस स्थिति में जिनकल्पिक आदि मुनि पाएपनीय वस्त्रों की याचना करेजिनकल्पिक मुनि के लिए वस्त्र एवणा की जो मर्यादा निरूपित है उसके अनुसार याचना करे वस्या के चार प्रकार है। २. आचारांग भूमि, पृष्ठ २७३ ते पुण हो सोतिया एक्को उष्णती, याणं तु पमाणं संडास अहवा दो व वीओ चिटु पाउणति, पहलं एक्कं पाउयंति खोमियं पड़ा अतिसीतेण बिइज्जयं तस्सुर्वार, तहावि अतिसीते ततियं पाउणति, सम्बत् उन्नितं वाहि ततो परं महासीले उत्यं न मिति । ३. आचारांग चूर्ण, पृष्ठ २७६ ॥ ४. द्रष्टव्यम् - आयारचूला ५।१६।२१ । Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ८. विमोक्ष, उ० ४. सूत्र ४३-४८ ४५. अहापरिग्गहियाई वत्याइं धारेज्जा। सं०-यथापरिगृहीतानि वस्त्राणि धारयेत् । वह यथा-परिगृहीत वस्त्रों को धारण करे-न छोटा-बड़ा करे और न संवारे । भाष्यम् ४५ -आचारचलायामपि किञ्चित् शब्द- 'आचारचूला' में भी यह सूत्र कुछ शब्दभेद के साथ उपलब्ध भेदेन एतत् सूत्रं उपलभ्यते ।' 'अहापरिग्गहियाई वत्थाई है। 'यथा-परिगृहीत वस्त्र को धारण करे'-- इस सूत्र का तात्पर्य 'न धारेज्जा' एतस्य सूत्रस्य तात्पर्य ‘णो धोएज्जा णो रएज्जा' धोए न रंगे'-इस वाक्यांश में स्पष्ट होता है। विभूषा के लिए वस्त्र इति वाक्यांशे स्पष्टं भवति । विभूषार्थ धावनं नास्ति धोना अनुज्ञात नहीं है, इसलिए यथा-परिगृहीत वस्त्र धारण करे, यह अनुज्ञातम्, तेन यथापरिगहीतं वस्त्र धारयेद् इति निर्देश दिया गया है। निर्देशः। ४६. णो धोएज्जा, णो रएज्जा, णो धोय-रत्ताई वत्थाई धारेज्जा। सं० नो धावेत, मो रजेत्, नो धौतरक्तानि वस्त्राणि धारयेत । वह उन वस्त्रों को न धोए, न रंगे और न धोए-रंगे हए वस्त्रों को धारण करे । भाष्यम् ४६ स जिनकल्पिकादिभिक्षुः तानि वह जिनकल्प आदि की विशिष्ट साधना करने वाला भिक्षु वस्त्राणि नो धावेत् । न च कषायधात्वादिभिः रज्येत् । उन वस्त्रों को न धोए । न उन वस्त्रों को कषाय-पीले अथवा लाल धौतरक्तम्, यथा च चूणिः । रंग से रगे। धोए-रंगे वस्त्रों के विषय में चूर्णिकार कहते हैं-धौतरक्त धोतरतं णाम जं धोवितुं पुणो रयति, अन्नं अरुच्चमाणगं का अर्थ है -धोकर पुन: रंगना, अनाकर्षक रंग को धोकर दूसरे रंग धोइउ अण्णेण रयंति, जहा अहोयरत्तं तहा अपरिकम्मियंपि।' से रंगना । जैसे अधौतरक्त है वैसे ही है अपरिमित-जिसका परिकर्म नहीं किया गया है। ४७. अपलिउंचमाणे गामंतरेसु । सं०-अपरिकुञ्चन् ग्रामान्तरेषु । वह ग्रामान्तर जाता हुआ वस्त्रों को छिपाकर नहीं चलता। भाष्यम् ४७ --स भिक्षुः उज्झितधर्माणि एव वस्त्राणि वह भिक्ष परिष्ठापन योग्य वस्त्रों को ही धारण करता है, धारयति, तेनासौ ग्रामान्तरगमने वस्त्राणि अपरिकुंचन्- इसलिए वह ग्रामांतर जाता हुआ वस्त्रों को छिपाए बिना जा सकता अगोपयन् गन्तुमर्हति, न तस्य चौरादिभयं जायते। है । उसको चौर आदि का भय नहीं होता। ४८. ओमचेलिए। सं०-अवमचेलिकः । वह अल्प (अतिसाधारण) वस्त्र धारण करता है। भाष्यम् ४८ --स भिक्षुः गणनेन प्रमाणेन मूल्येन च वह भिक्षु गणना, प्रमाण और मूल्य की दृष्टि से अवमचेलिक १. आयारचूला ४१ : से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अहेसणिज्जाई वत्थाई धारेज्जा, अहापरिग्गहियाई वत्थाई धारेज्जा णो धोएज्जा, णो रएज्जा, धोयरत्ताई वत्थाई धारेज्जा । अपलिउंचमाणे गामंतरेसु ओमचेलिए। २. अत्र वृत्तौ गच्छबासिनां सामाचार्या उल्लेखः कृतोस्ति गच्छवासिनो ह्यप्राप्तवर्षादौ ग्लानावस्थायां वा प्रासुकोबकेन यतनया धावनमनुज्ञातं, न तु जिनकल्पिकस्येति ।' (आचारांग वृत्ति, पत्र २५१)।। चूणों एष उल्लेखो नैव लभ्यते। ३. आचारांग चूणि, पृष्ठ २७३ । Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारोगभाध्यमे अवमचेलिको भवति।' '-अल्प या अतिसाधारण वस्त्र धारण करने वाला होता है। ४६. एयं खु वत्थधारिस्स सामग्गियं । सं०-एतत् खलु वस्त्रधारिणः सामग्र्यम् । यह वस्त्रधारी भिक्षु की सामग्री (उपकरण-समूह) है। भाष्यम् ४९-स्पष्टम् । स्पष्ट है। ५०. अह पुण एवं जाणेज्जा-उवाइक्कते खलु हेमंते, गिम्हे पडिवन्ने, अहापरिजुण्णाई वत्थाइं परिदृवेज्जा, अहापरिजुण्णाई वत्थाइं परिदृवेत्तासं०-अथ पुनः एवं जानीयात् -उपातिक्रांतः खलु हेमन्तः, ग्रीष्मः प्रतिपन्न:, यथापरिजीर्णानि वस्त्राणि परिष्ठापयेत्, यथापरिजीर्णानि वस्त्राणि परिष्ठाप्यभिक्षु यह जाने कि हेमन्त बीत गया है, ग्रीष्म ऋतु आ गई है, तब वह यथापरिजीर्ण वस्त्रों का विसर्जन करे । उनका विसर्जन कर भाष्यम् ५०-अत्र प्राचीनपरम्परा--गिम्हे पडिवन्ने वस्त्र-विषयक प्राचीन परम्परा यह है-ग्रीष्म ऋतु के आ जाने चित्ते वइसाहे च, अहापरिजुन्नाइं वत्थाई परिविज्जा पर चैत्र-वैशाख मास में उन सभी जीर्ण वस्त्रों को, यदि वे आगामी सम्वाइंपि, जति बितिजं हेमंतं ण पार्वति तो परिवेइ, तहा हेमन्त ऋतु में काम आने योग्य न हों तो विसर्जित कर दे। जीर्ण जुन्नाइं परिठ्ठवित्ता अट्टमासे अपाउओ चेव भवति, अह पुण वस्त्रों का विसर्जन कर आठ मास तक निर्वस्त्र रहे। यदि यह जाने एवं जाणिज्जा-पडीदुल्लहाई, न भविस्संति वा, ताहे जं जुष्णं कि वस्त्र-प्राप्ति दुर्लभ है, आगे मिलने की सम्भावना नहीं है तो अतितं परिट्ठवित्ता सेसगाणि धारेति, ण पाउणति ।' जीर्ण वस्त्र को विसर्जित कर शेष को रख ले, किन्तु उन्हें काम में न ले। ५१. अदुवा संतरुत्तरे। सं०-अथवा सान्तरोत्तरः । या एक अन्तर और एक उत्तर वस्त्र रखे। भाष्यम् ५१-ऋतुत्रयकलनायां चैत्रमासोऽपि ग्रीष्म- संवत्सर की तीन ऋतुओं की परिकल्पना में चैत्र मास का वेव समवतरति । अत्र प्राचीन परम्परा-जति चित्ते अवतरण भी ग्रीष्म ऋतु में होता है। इस विषयक प्राचीन परम्परा सीतं पडति जहा गोल्लविसए ताहे संतस्त्तरो भवति, एगं अंतरे यह है -यदि गोल्ल देश की भांति चैत्र मास में ठण्ड पड़ती है तब एग उत्तरे सवडीभवति । मुनि 'सान्तरोत्तर' होता है। वह दो वस्त्र धारण करता है-एक अंतर, एक उत्तर । वत्तौ सान्तरोत्तरपदं भिन्नदृष्टिकोणेन व्याख्यातम्- वृत्तिकार ने 'सान्तरोत्तर' पद की भिन्नदृष्टि से व्याख्या की 'अथवा क्षेत्रादिगुणाद्धिमकणिनि वाते वाति सत्यात्मपरि- है-अथवा किसी क्षेत्र विशेष में बर्फीली हवा के चलने पर मुनि तलनार्थ शीतपरीक्षार्थं च सान्तरोत्तरो भवेत्-सान्तर- अपने आपको तोलने के लिए तथा अपनी शीत-सहन की शक्ति की मत्तर-प्रावरणीयं यस्य स तथा, क्वचित्प्रावृणोति परीक्षा करने के लिए 'सान्तरोत्तर' होता है-एक अन्तर और एक १. 'अवम' शब्द गणना और प्रमाण-दो दृष्टियों से विवक्षित य संडासो दो य रयणीओ। है। गणना की दृष्टि से तीन वस्त्र रखने वाला अवम-चेलिक (आचारांग चूणि, पृष्ठ २७३-२७४) होता है । प्रमाण की दृष्टि से दो रत्नी (मुट्ठी बंधा हुआ वृत्तौ मूल्यस्यापि उल्लेखो वर्तते--अवमं च तच्चेलं च हाय) और घुटने से कटि तक चौड़ा वस्त्र रखने वाला अवमचेलं, प्रमाणतः परिमाणतो मूल्यतश्च, तद्यस्यास्त्यअवम-चेलिक होता है। साववमचेलिकः। (आचारांग वृत्ति, पत्र २५१) (देखें-निशीथ भाष्य, १६॥३९, गाथा ५७८९) २. आचारांग चूणि, पृष्ठ २७४ । चूणीं गणनाप्रमाणयोरेव उल्लेखोस्ति-ओमचेलिते ३. वही, पृष्ठ २७४ । गणणेण पमाणेण य, गणणपमाणेणं तिष्णि पमाणं, पमाणेण Jain Education international Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०८. विमोक्ष, उ०४. सूत्र ४६-१५ ३७७ क्वचित्पावत्ति बित्ति, शीताशङ्कया नाद्यापि उत्तर वस्त्र रखता है। कभी वह वस्त्र ओढ़ता है और कभी उसको परित्यजति, अथवाऽवमचेल एककल्पपरित्यागात अपने पास रख लेता हैं। शीत की आशंका से वह अब भी उन वस्त्रों द्विकल्पधारीत्यर्थः । को नहीं छोड़ता। अथवा वह अवमचेलक-अल्पवस्त्रधारी होता है-एक वस्त्र का परित्याग करने पर केवल दो वस्त्रमात्र धारण करता है। ५२. अदुवा एगसाडे। सं०-अथवा एकशाटः । या वह एक-शाटक रहे। भाष्यम् ५२-- अथवा यदि द्वे वस्त्रे अतिजीणे, एक अथवा यदि दो वस्त्र अतिजीर्ण हो गए हों, एक साधारण है, साधारणं, तदानीं जीर्णयोः परिष्ठापनं कृत्वा स भिक्षुः तब वह भिक्षु दोनों जीर्ण वस्त्रों को विसजित कर एक शाटक-एक एकशाटो भवति । अत्र चुणिमतं वस्त्रधारी हो जाता है। इस प्रसंग में चूर्णिकार कहते हैं-एक वस्त्र __एगं धरेतिसि एगसाडो, यदुक्तं भवति–एगप्रावरणो, धारण करने के कारण वह एकशाटक होता है। उसे एक प्रावरण "इतरहा हि तस्स चोलपट्टोवि ण कम्पति, कतो पुण वाला कहा जा सकता है। अन्यथा तो उसके 'चोलपट्टा' भी नहीं साडओ ?' कल्पता, शाटक की तो बात ही कहां? ५३: अदुवा अचेले। सं०-अथवा अचेलः। या वह अचेल (वस्त्ररहित) हो जाए। भाष्यम् ५३-अथवा सर्वथा अपगते शीते स अचेलो अथवा शीत ऋतु के सर्वथा व्यतीत हो जाने पर वह अचेल हो भवति । तात्पर्यमस्य-प्रयोजनं विना वस्त्रं न धारयेत् । जाता है । इसका तात्पर्य यह है कि मुनि प्रयोजन के बिना वस्त्र धारण वस्त्रधारणस्य त्रीणि प्रयोजनानि स्थानांगे सन्ति न करे । स्थानांग सूत्र में वस्त्र-धारण के तीन प्रयोजन निर्दिष्ट हैंनिर्दिष्टानि-तिहि ठाणेहि वत्थं धरेज्जा, तं जहा-हिरिपत्तियं, (१) लज्जा निवारण के लिए (२) जुगुप्सा (घृणा) निवारण के लिए दुगुंछापत्तियं, परीसहवत्तियं ।' (३) परीषह निवारण के लिए। ५४. लाघवियं आगममाणे । सं०-लाघविकं आगच्छन् । वह लाघव का चिन्तन करता हुआ बस्त्र का क्रमिक विसर्जन करे। भाष्यम् ५४----स भिक्षुः लाघवार्थं क्रमश: वस्त्राणां न्यूनतां करोति । शेषं ६।६३ भाष्यवत् । वह भिक्षु लाघव के लिए वस्त्रों की क्रमिक अल्पता करता है। शेष ६।६३ भाष्य की भांति । ५५. तवे से अभिसमन्नागए भवति । सं०-तपस्तस्य अभिसमन्वागतं भवति । अल्प वस्त्र वाले मुनि के उपकरण-अवमौदर्य तथा कायक्लेश तप होता है। भाष्यम् ५५-द्रष्टव्यम्-६१६४ । देखें-६६४ । १. आचारांग वृत्ति, पत्र २५२ । द्रष्टव्यम्-उत्तरायणाणि २३।२९ का टिप्पण। २. आचारांग चूणि, पृष्ठ २७४ । ३. अंगसुत्ताणि १, ठाणं ३१३४७ । Jain Education international Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ आचारांगभाध्यम ५६. जमेयं भगवया पवेदितं, तमेव अभिसमेच्चा सव्वतो सव्वत्ताए समत्तमेव समभिजाणिया। सं०-यदिदं भगवता प्रवेदितं, तदेव अभिसमेत्य सर्वत: सर्वात्मतया समत्वमेव समभिजानीयात् । भगवान् ने जैसे अल्प-वस्त्रत्व का प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में जानकर सब प्रकार से, सर्वात्मना (संपूर्ण रूप से) समत्व का सेवन करे-किसी की अवज्ञा न करे। भाष्यम् ५६-द्रष्टव्यम्-६।६५ । देखें-६।६५ । ५७. जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति-पुट्ठो खलु अहमंसि, नालमहमंसि सोय-फासं अहियासित्तए, से वसुमं सव्व-समन्नागय पण्णाणेणं अप्पाणेणं केइ अकरणाए आउट्टे । सं०-यस्य भिक्षोः एवं भवति -- स्पृष्टः खलु अहमस्मि, नालमहमस्मि शीतस्पर्श अधिसोढं, स वसुमान् सर्वसमन्वागतप्रज्ञानेन आत्मना कश्चिद् अकरणतया आवृत्तः । जिस भिक्ष को यह लगे-मैं शोतस्पर्श-स्त्री परीषह से आक्रांत हो गया हूं और मैं इसको सहन करने में समर्थ नहीं हूं, उस स्थिति में कोई-कोई संयमी भिक्षु अपनी सम्पूर्ण प्रज्ञा और अन्तःकरण को काम-वासना से समेट कर उसका सेवन नहीं करने के लिए उद्यत हो जाता है। भाष्यम् ५७ --शीतस्पर्शपदेन परीषहद्वयस्य ग्रहणं 'शीतस्पर्श'-पद से दो परीषहों-स्त्री परीषह तथा सत्कारकृतमस्ति-स्त्रीपरीषहः सत्कार-पुरस्कारपरीषहश्च । पुरस्कार परीषह का ग्रहण किया गया है। जिस भिक्षु को यह यस्य भिक्षोरेवं भवति - स्पृष्टोहमस्मि शीतस्पर्शन, तं लगे कि मैं शीतस्पर्श (स्त्री परीषह) से आक्रांत हो गया हूं और मैं अधिसोढुं नालमहमस्मि सुदर्शनवत् ।' प्राप्तायामस्याम- उसको सहन करने में सुदर्शन की भांति समर्थ नहीं हूं। ऐसी स्थिति वस्थायां कश्चित् सर्वसमन्वागतप्रज्ञान: तस्य प्राप्त हो जाने पर कोई पूर्ण प्रज्ञावान् मुनि 'काम' का सेवन न करने अकरणाय-अनासेवनाय आवृत्तो' भवति । के लिए उद्यत हो जाता है। ५८. तवस्सिणो हतं सेयं, जमेगे विहमाइए। सं० --तपस्विनः खलु तत् श्रेयः यदेक: विहमाददीत । उस तपस्वी के लिए वह श्रेय है कि वह ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए फांसी लेकर प्राण-विसर्जन कर दे। भाष्यम् ५८ -कश्चिद् अबलो भवति। मनसा वाचा कोई मुनि दुर्बल होता है। वह मनसा-वाचा-कर्मणा इन्द्रियकायेन च नात्मानं विषयेभ्यः प्रतिसंहर्तुं प्रत्यलः। तस्य विषयों से अपने आपको दूर करने के लिए समर्थ नहीं होता। उस तपस्विनः विहितमार्गेण प्राणत्यागःश्रेयान् । विधिश्चात्र- तपस्वी मुनि के लिए विहित-मार्ग से प्राण-त्याग करना श्रेयस्कर है। तस्यां स्त्रीभिः सन्निरुद्धावस्थायां स विहमिति आकाशं उसकी विधि यह है-यदि स्त्रियां उसे रोक ले तो उस स्थिति में मुनि आददीत । अत्र प्राचीनपरम्परा विह अर्थात् आकाश को स्वीकार करे-गले में फांसी डालकर प्राणकइतवउम्बंधणं, सा य तं वारेति विद्धंसेज्जत्ति तो सुंदरं, विसर्जन कर दे। इस प्रसंग की प्राचीन परम्परा यह है-यदि स्त्री अह ण विसज्जेति ताहे चितेइ-मा मे भंगो भविस्सति उम्बं- उसे आक्रांत कर ले तो वह दिखावटी फांसी लगाने का प्रयत्न करे । धिज्जावि। उस समय यदि वह स्त्री उस मुनि को फांसी लगाने से रोके, उसे छोड़ दे तो अच्छा है। यदि न छोड़े तब वह-'मेरे संयम का भंग न हो', यह सोचकर फांसी लगा ले। ५६. तत्यावि तस्स कालपरियाए। सं०-तत्रापि तस्य कालपर्यायः । ऐसा करने पर भी उसकी वह काल-मृत्यु होती है। १. आचारांग चूणि, पृष्ठ २७५ : जहा सुदंसणो गाहावई तहा ३. आचारांग चूणि, पृष्ठ २७५ : आउट्टित्ति वा अन्मट्टित्ति णालमहं तं पडुप्पन्न अहियासेउं । वा एगट्ठा। २. अष्टव्यम्-आयारो, १३१७४ सूत्रम् । ४. वही, पृष्ठ २७५। Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ८. विमोक्ष, उ० ४. सूत्र ५६-६१ भाष्यम् ५९ – तस्यां उपसर्गावस्थायां असहनीये वा मोहनीये तस्य उपसर्गप्राप्तस्य भिक्षोः एष कालपर्याय: अप्रतिषिद्धोस्ति - कारणे पुण अपडिकुट्ठाई, तं जहा बेहानसे व पट्टे चेव । ६०. से वि तत्थ विअंतिकारए । सं० -- सोऽपि तत्र व्यन्तिकारकः । उस मृत्यु से वह अन्तक्रिया करने वाला भी हो सकता है । भाष्यम् ६०– स एवं कारणिकं मृत्युं म्रियमाणो भिक्षुः तत्र व्यतिकारक:-अन्तक्रियाकारकः सर्वकर्मक्षय कारक इति यावत् भवति । ति बेमि । ६१. इच्तं विमोहाय तणं हियं सुहं खयं णिस्सेयसं आणुगामियं । सं०] इत्येतत् विमोहावतनं हितं सुखं क्षमं निःश्रेयसं अनुगामिकम् । इति ब्रवीमि । यह मरण प्राण-विमोह की साधना का आयतन हितकर, सुखकर कालोचित, कल्याणकारी और भविष्य में साथ देने वाला होता है। ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् ६१ - एतन्मरणं कालमोहव्यपनोदाय स्वीक्रियते इति हेतोः एतत् विमोहसाधनाया आयतन हितकरं शुभं सुखकरं वा, क्षमं कालोचितं निःश्रेयसं कल्याणकारि, आनुगामिकं पुनर्बोधिलाभाय भवति । " " १. आचारांग चूर्णि, पृष्ठ २७६ : 'कालकरणं कालमज्जाओ ।' २. अंगसुत्ताणि १, ठाणं २।४१३ । ३. आचारांग चूर्णि, पृष्ठ २७६ : 'तस्स तं कारणमासज्ज उवसग्गमरणमेव गणिज्जति, इति एवं अववाइयं मरणं अतीतकाले अणंता साहू मरिता निव्वाणगमणं पत्ता ।' ४. वृत्ती 'विगतमोहनामायतनं आधपः कर्तव्यतया इति व्याख्यातमस्ति । ( आचारांग वृत्ति, पत्र २५३ ) ५. बाईस परीग्रह में स्त्री और सत्कार- ये दो परोषह शीत और शेष बीस परीवह उष्ण होते हैं (आचारांग नियुक्ति, गाथा २०२ ) । प्रस्तुत प्रकरण में शीतस्पर्श का अर्थ स्त्री परीव या कामभोग है। भिक्षु भिक्षा के लिए गृहस्थ के घर जाता है, उस समय उसके पारिवारिक लोग उसे घर में रखने का प्रयत्न करते हैं अथवा किसी अन्य घर में जाने पर कोई स्त्री मुग्ध होकर उसे अपने घर में रखने का प्रयत्न करती है। उस स्थिति में उसे क्या करना चाहिए ? प्रस्तुत आलापक में सूत्रकार ने इसका निर्देश दिया है। मरण दो प्रकार का होता है-बाल-मरण और पण्डित ३७६ उस उपसर्ग की अवस्था में अथवा असहनीय मोहनीय कर्म की स्थिति में उपसर्ग में फसे उस भिक्षु का यह कालपर्याय ( फांसी लगा कर मरना) अप्रतिषिद्ध है । स्थानांग में कहा है- शीलरक्षा आदि प्रयोजन होने पर मुनि के लिए दो प्रकार के मरण अनुमत हैंवैहायस मरण - फांसी लगाकर मरना तथा गृद्धस्पृष्ट मरण - बृहत्काय वाले जानवर के शव में प्रवेश कर शरीर का व्युत्सगं करना । उस प्रकार की कारणिक आपवादिक मृत्यु से मरने वाला वह भिक्षु अन्तक्रिया करने वाला अर्थात् पूर्ण कर्म-क्षय करने वाला होता है। यह मरण कालमोह-मृत्यु की मूछों को दूर करने के लिए स्वीकार किया जाता है। इसलिए यह विमोह की साधना का आयतन हितकर, शुभकर अथवा सुखकर कालोचित, कल्याणकारी तथा पुनः बोधि की उपलब्धि के लिए होता है । मरण । वैहायस फांसी लगाकर मरना बाल-मरण है । अनशन पण्डित मरण है ( भगवती सूत्र, २०४९ ) । किन्तु तात्कालिक परिस्थिति में फंसा हुआ भिक्षु अनशन का प्रयोग कैसे करे ? उस समय ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए उसे वैहायस-मृत्यु के प्रयोग की स्वीकृति दी गई है। इस स्थिति में वह बाल-मरण नहीं है । सूत्रकार यहां एक स्थिति की ओर संकेत करते हैं । कोई भिक्षु भिक्षा के लिए जाए। पारिवारिक लोग उसकी पूर्व पत्नी सहित उसे कमरे में बंद कर दें। वह उससे बाहर निकल न सके। उसकी पूर्व पत्नी उसे विचलित करने का प्रयत्न करे। तब वह श्वास बंद कर मृतक जैसा हो जाए और अवसर पाकर गले में दिखावटी फांसी लगाने का प्रयत्न करे। उस समय वह स्त्री कहे- आप चले जाएं, किन्तु प्राण त्याग न करें। तब भिक्षु आ जाए और यदि वह स्त्री उसे ऐसा न कहे, तो वह गले में फांसी लगाकर प्राण त्याग कर दे। ऐसा करना बाल-मरण नहीं है - यह भगवान् महावीर के द्वारा अनुज्ञात है । Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० पंचमो उद्देसो : पांचवां उद्देशक 1 ६२. जे भिक्खू दोहि वह परिवसिते पायत एहि, तस्स णं णो एवं भवति सं० यो भिक्षु द्वाभ्यां वस्त्राभ्यां पर्युषितः पात्रतृतीयाभ्यां तस्य नो एवं भवति जो भिक्षु दो वस्त्र और एक पात्र रखने की मर्यादा में स्थित है, उसका मन करूंगा । ६३. से अहेसमज्जाई बचाई जाए। सं० स यथैषणीयानि वस्त्राणि याचेत । वह यथा- एषणीय अपनी-अपनी कल्प-मर्यादा के अनुसार वस्त्रों की याचना करे । ६४. अहापरिग्गहियाई स्थाई घारेज्जा | सं० यथापरिगृहीतानि वस्त्राणि धारयेत् । वह यथा-परिगृहीतवस्त्रों को धारण करेन छोटा-बड़ा करे और न संवारे । ६५. जो धोएग्जा, जो रएन्जा, णो धोय-रसाई बश्थाई घारेज्जा । सं० - नो धावेत्, नो रजेत्, नो धोतरक्तानि वस्त्राणि धारयेत् । वह उन वस्त्रों को न धोए, न रंगे और न धोए रंगे हुए वस्त्रों को धारण करे । ६६. अपलिचमाणे गामंतरेसु । सं० – अपरिकुञ्चन् ग्रामान्तरेषु । वह ग्रामान्तर जाता हुआ वस्त्रों को छिपाकर नहीं चलता । ६७. ओमचेलिए । सं० - अवमचेलिकः । वह अल्प (अतिसाधारण) वस्त्र धारण करता है । ६८. एवं खु तस्स भिक्स्स सामग्गियं । सं०- एतत् खलु तस्य भिक्षोः सामग्र्यम् । यह वस्त्रधारी भिक्षु की सामग्री ( उपकरण-समूह ) है । ७०. अदुवा एगसाडे । -- ६९. अह पुण एवं जाणेज्जा-उवाइक्कते खलु हेमंते, गिम्हे पडिवन्ने, अहापरिजुष्णाई वत्थाइं परिवेज्जा, अहापरिजुणाई वत्याहं परिद्ववेत्ता- सं० – अथवा एकशाटः । या वह एक शाटक रहे । सं० अथ पुनः एवं जानीयात् - उपातिक्रान्तः खलु हेमन्तः, ग्रीष्मः प्रतिपन्नः यथापरिजीर्णानि वस्त्राणि परिष्ठापयेत्, यथापरिजीर्णानि वस्त्राणि परिष्ठाप्य - fer यह जाने कि हेमन्त बीत गया है, प्रीष्म ऋतु आ गई है, तब वह यथा- परिजीर्ण वस्त्रों का विसर्जन करे। उनका विसर्जन कर- आचारांग माध्यम् तइयं वत्थं जाइस्सामि । तृतीयं वस्त्रं याचिष्ये । ऐसा नहीं होता कि मैं तीसरे वस्त्र की याचना Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०८. विमोक्ष, उ०५. सूत्र ६२-७६ ३८१ ७१. अदुवा अचेले। सं०-अथवा अचेलः । या वह अचेल (वस्त्र-रहित) हो जाए। ७२. लाघवियं आगममाणे । सं० लाघविकं आगच्छन् । वह लाघव का चिन्तन करता हुआ वस्त्र का क्रमिक विसर्जन करे। ७३. तवे से अभिसमन्नागए भवति ।। सं०-तपस्तस्य अभिसमन्वागतं भवति । अल्प वस्त्र वाले मुनि के उपकरण-अवमौदर्य तथा कायक्लेश तप होता है। ७४. जमेयं भगवता पवेदितं, तमेव अभिसमेच्चा सव्वतो सम्वत्ताए समत्तमेव समभिजाणिया। सं०-यदिदं भगवता प्रवेदितं, तदेव अभिसमेत्य सर्वतः सर्वात्मतया समत्वमेव समभिजानीयात् । भगवान् ने जैसे अल्प-वस्त्रत्व का प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में जानकर सब प्रकार से, सर्वात्मना (सम्पूर्ण रूप से) समत्व का सेवन करे-किसी की अवज्ञा न करे। माण्यम् ६२-७४ - द्रष्टव्यम्-४३-५६ । देखें--४३-५६ । ७५. जस्स णं भिक्खस्स एवं भवति-पुट्ठो अबलो अहमंसि, नालमहमंसि गिहंतर-संकमणं भिक्खायरिय-गमणाए से एवं ववंतस्स परो अभिहडं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहटु दलएज्जा, से पुम्वामेव आलोएज्जा आउसंतो! गाहावतो! णो खलु मे कप्पइ अभिहडे असणे वा पाणे वा खाइमे वा साइमे वा भोत्तए वा, पायए वा, अण्णे वा एयप्पगारे। सं०-यस्य भिक्षोः एवं भवति-स्पृष्टोऽबलोहमस्मि, नालमहमस्मि गृहान्तरसंक्रमणाय भिक्षाचर्यागमनाय, तस्य एवं वदतः परः अभिहृतं अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाधं वा आहृत्य दद्यात्, स पूर्वमेव आलोचयेत् आयुष्मन् गृहपते ! नो खलु मम कल्पते अभिहृतं अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा भोक्तुं वा पातुं वा अन्यद् वा एतत् प्रकारम् । जिस भिक्षु को यह लगे-मैं रोग से आक्रांत होने के कारण दुर्बल हो गया हूं। मैं भिक्षाचर्या के निमित्त नाना घरों में जाने में समर्थ नहीं हैं। इस प्रकार कहने वाले भिक्षु को गृहस्थ अपने घर से अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य लाकर दे । वह भिक्षु पहले ही आलोचना करे-यह आहार किस दोष से दूषित है। आलोचना कर कहे -- 'आयुष्मन् गृहपति ! यह घर से लाया हुआ अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य मैं खा-पी नहीं सकता।' इस प्रकार के दूसरे दोष से दूषित आहार के लिए भी वह गृहपति को प्रतिषेध कर दे। भाष्यम ७५ --अत्र परपदेन श्रावकादीनां ग्रहणं, यथा प्रस्तुत आलापक में 'पर' शब्द से श्रावक आदि का ग्रहण च चों-परो णाम सावओ वा सण्णी अहामद्दओ वा किया है। जैसे - चूर्णिकार ने 'पर' के चार अर्थ किए हैं श्रावक, मिच्छाविट्ठी वा अणुकंपाए परिणतो।" संज्ञी, यथाभद्रक और अनुकंपा में परिणत मिथ्यादृष्टि। ७६. जस्स णं भिक्खस्स अयं पगप्पे-अहं च खलु पडिण्णत्तो अपडिण्णत्तेहि, गिलाणो अगिलाणेहि, अभिकंख साहम्मिएहिं कीरमाणं वेयावडियं सातिज्जिस्सामि । अहं वा वि खलु अपडिण्णत्तो पडिपणत्तस्स, अगिलाणो गिलाणस्स, अभिकंख साहम्मिअस्स कुज्जा वेयावडियं करणाए।। सं०-यस्य भिक्षोः अयं प्रकल्प:-अहं च खलु प्रतिज्ञप्तः अप्रतिज्ञप्तः, ग्लानः अग्लानः, अभिकांक्ष्य साधर्मिकः, क्रियमाणं वैयापत्यं स्वादयिष्यामि । अहं वापि खलु अप्रतिज्ञप्तः प्रतिज्ञप्तस्य, अग्लान: ग्लानस्य, अभिकांक्ष्य सार्मिकस्य कुर्यात् वैयाप्रत्यं करणाय । १. आचारांग चूणि, पृष्ठ २७७ । . Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ आचारांगभाष्यम् जिस भिक्षु का यह प्रकल्प (सामाचारी या मर्यादा) होता है-'मैं ग्लान हूं और मेरे सार्मिक साधु अग्लान हैं, उन्होंने मेरी सेवा करने के लिए मुझे कहा है, मैंने अपनी सेवा के लिए उनसे अनुरोध नहीं किया है। निर्जरा के उद्देश्य से उन सार्मिकों के द्वारा की जाने वाली सेवा का मैं अनुमोदन करूंगा।' अथवा 'सार्मिक भिक्षु ग्लान हैं, मैं अग्लान हूं। उन्होंने अपनी सेवा करने के लिए मुझे अनुरोध नहीं किया है, मैंने उनकी सेवा करने के लिए उनसे अनुरोध किया है। निर्जरा के उद्देश्य से उन सामिकों की सेवा करूंगा-पारस्परिक उपकार की दृष्टि से।' भाष्यम् ७६-यस्येति परिहारविशुद्धिकस्य यथा- जिसका अर्थात् परिहारविशुद्धिचरित्र वाले मुनि अथवा लन्दिकस्य वा भिक्षोः अयं प्रकल्पो भवति । प्रकल्पः -- यथालंदक मुनि का यह प्रकल्प होता है। प्रकल्प का अर्थ है- मर्यादा । मर्यादा । कप्पो पकप्पो सामायारी मज्जाता इति चूणिः ।' चूर्णिकार ने कल्प, प्रकल्प, सामाचारी, मर्यादा- इन्हें एकार्थक माना आभिकांक्ष्य उद्दिश्य निर्जरामिति अध्याहार्यम् । है। अभिकांक्ष्य का अर्थ है -निर्जरा के उद्देश्य से। सार्मिक का अर्थ सार्धामकः सदृशकल्पिकैः । अत्र प्राचीनपरम्परा--- है- समान सामाचारी वाला मुनि । इस प्रसंग में प्राचीन परम्परा यह ___ तस्स पुण अणुपरिहारितो करेति, कप्पट्टितो वा, जइ तेवि है-परिहारविशुद्धि मुनि यदि ग्लान हो जाता है तो उसकी सेवा गिलाणाओ सेसगा करेंति, एवं अहालंदिताणवि, अभिकंख अनुपारिहारिक (परिहारविशुद्धि वाला दूसरा मुनि) करता है, अथवा साहमियवेयावडियं सो निज्जराकखितेहिं सरिकप्पएहि, ण पुण कोई कल्पस्थित-जिनकल्पी मुनि करता है। यदि वे भी ग्लान हो थेरकप्पिएहि गिहत्थेहि वा कीरमाणं सातिज्जिस्सामि ।" जाएं तब शेष मुनि सेवा करते हैं । यही विधि यथालंदक मुनि के लिए है। निर्जरा के उद्देश्य से सार्मिकों द्वारा की जाने वाली सेवा को वह स्वीकार करता है, किन्तु स्थविरकल्पी तथा गृहस्थों के द्वारा की जाने वाली सेवा का वह अनुमोदन नहीं करता। ७७. आहट पइण्णं आणखेस्सामि, आहडं च सातिज्जिस्सामि, आहटु पइण्णं आणक्खेस्सामि, आहडं च णो सातिज्जिस्सामि, आहट पइण्णं णो आणक्खेस्सामि, आहडं च सातिज्जिस्सामि, आहट पइण्णं णो आणक्खेस्सामि, आहडं च णो सातिज्जिस्सामि। सं०-आवृत्य प्रतिज्ञां आनेष्यामि, आहृतं च स्वादयिष्यामि, आहुत्य प्रतिज्ञां आनेष्यामि, आहृतं च नो स्वादयिष्यामि, आहृत्य प्रतिज्ञा नो आनेष्यामि, आहृतं च स्वादयिष्यामि, आहृत्य प्रतिज्ञां नो आनेष्यामि, आहृतं च नो स्वादयिष्यामि । भिक्ष यह प्रतिज्ञा ग्रहण करता है, मैं सार्मिक भिक्षुओं के लिए आहार आदि लाऊंगा और उनके द्वारा लाया हुआ स्वीकार भी करूंगा। ___ अथवा मैं उनके लिए आहार आदि लाऊंगा, किन्तु उनके द्वारा लाया हुआ स्वीकार नहीं करूंगा। ___ अथवा मैं उनके लिए आहार आदि नहीं लाऊंगा, किन्तु उनके द्वारा लाया हुआ स्वीकार करूंगा। अथवा मैं न उनके लिए आहार आदि लाऊंगा और न उनके द्वारा लाया हुआ स्वीकार करूंगा। (भिक्ष ग्लान होने पर भी इस प्रकल्प और प्रतिज्ञा का पालन करे। जंघाबल क्षीण होने पर भक्त-प्रत्याख्यान अनशन द्वारा समाधिमरण करे)। भाष्यम् ७७ - आहट्ट आहृत्य आरुह्य वा प्रतिज्ञाम । १. आचारांग चूणि, पृष्ठ २७७ । २. आचारांग चूणि, पृष्ठ २७८ । चूणौ स्थविरकल्पः क्रियमाणस्य वैयावृत्त्यस्य निषेधः । वृत्तौ तस्य विधिदृश्यते, किंतु परिहारविशुद्धिकाना स्थविरकल्पिका न सन्ति सदृशकल्पिका इति अस्ति वृत्तेः मतं चिन्त्यम्, यथा च वृत्तिः–'तत्र परिहारविशुद्धिकस्यानु आहट्ट का अर्थ है --प्रतिज्ञा को ग्रहण कर अथवा प्रतिज्ञा पर पारिहारिकः करोति कल्पस्थितो वा परो, यदि पुनस्तेऽपि ग्लानास्ततोऽन्ये न कुर्वन्ति, एवं यथालन्दिकस्यापीति, केवलं तस्य स्थविरा अपि कुर्वन्तीति दर्शयति-निर्जरां 'अभिकांक्ष्य' उद्दिश्य सामिकः सदृशकल्पिकरेककल्पस्थरपरसाधुभिर्वा क्रियमाणं वयावृत्त्यमहं 'स्वादयिष्यामि' अभिकांक्षयिष्यामि । (आचारांग वृत्ति, पत्र २५५) Jain Education international Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०८. विमोक्ष, उ० ५. सूत्र ७७-८२ ३८३ आणक्लेस्सामि'-.-आनेष्यामि। अत्र प्राचीनपरम्परा --- आरूढ़ होकर । आणक्खेस्सामि का अर्थ है-लाऊंगा। इस प्रसंग में ततियभंगे अहालंदिया चेव पडिरूबी, चउत्थभंगे जिणकप्पिओ।' प्राचीन परम्परा यह है-सूत्र में दिए गए चार विकल्पों में से तीसरे विकल्प में यथालंदिक मुनि का और चौथे दिकल्प में जिनकल्पिक मूनि का समावेश होता है। ७८. लावियं आगममाणे । सं०-लाघविकं आगच्छन् । वह लाघव का चिन्तन करता हुआ वस्त्र का क्रमिक विसर्जन और अभिग्रह का प्रयोग करे । ७६. तवे से अभिसमण्णागए भवति । सं०-तपस्तस्य अभिसमन्वागतं भवति । अल्प वस्त्र और अभिग्रह वाले मुनि के उपकरण-अवमौदर्य तथा कायक्लेश तप होता है। ८०. जमेयं भगवता पवेदितं, तमेव अभिसमेच्चा सव्वतो सव्वत्ताए समत्तमेव समभिजाणिया। सं०-यदिदं भगवता प्रवेदितं तदेव अभिसमेत्य सर्वतः सर्वात्मतया समत्वमेव समभिजानीयात् । भगवान् ने जैसे अल्पवस्त्र और अभिग्रह का प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में जानकर सब प्रकार से, सर्वात्मना (संपूर्ण रूप से) समत्व का सेवन करे। भाष्यम् ७८-८० द्रष्टव्यम्-६॥६३-६५ । देखें-६।६३-६५ । ८१. एवं से अहाकिट्टियमेव धम्म समहिजाणमाणे संते विरते सुसमाहितलेसे। सं०-एवं स यथाकीर्तितमेव धर्म समभिजानन् शान्त: विरत: सुसमाहितलेश्यः । इस प्रकार वह भिक्षु तीर्थकरों के द्वारा निरूपित धर्म को जानता हुआ शान्त, विरत और सुसमाहितलेश्या वाला बने । भाष्यम् ८१-एवं भगवता तीर्थकरेण धर्मः-वस्त्रादि इस प्रकार तीर्थङ्कर भगवान ने धर्म--- वस्त्र आदि विषयक समाचारः अभिग्रहविशेषो वा यथाकीर्तितः। तस्य सामाचारी अथवा अभिग्रह विशेष का निरूपण किया है। उसके सम्यग समभिज्ञानेन शान्तिः विरतिः सुसमाहिता च लेश्या ज्ञान के तीन परिणाम होते हैं - शांति, विरति और सुसमाहित लेश्या । भवति। शान्तिमनुभवन्नेव स शान्तः, विषयेभ्यो शांति का अनुभव करने के कारण वह शांत , शब्द-रूप आदि विषयों से विरतिमनुभवन्नेव स विरतः, समाधियुक्तां लेश्यामनु- विरति का अनुभव करने के कारण वह विरत और समाधियुक्त लेश्या भवन्नेव स सुसमाहितलेश्यो' प्रोच्यते । का अनुभव करने के कारण वह सुसमाहित-लेश्या वाला कहलाता है। ८२. तत्थावि तस्स कालपरियाए। सं० -- तत्रापि तस्य कालपर्यायः । ऐसा करने पर भी उस ग्लान भिक्षु की वह काल-मृत्यु होती है। भाष्यम् ८२-तत्र ग्लानावस्थायां स ग्लानः अपरि- उस ग्लान अवस्था में वह ग्लान मुनि शरीर की सार-संभाल कर्मशरोरः अन्येन असदृशकल्पिकेन गृहीतं गृह्णन् यदि न करता हुआ, दूसरे असमान कल्पवाले मुनि के द्वारा गृहीत वस्तु को १. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २७८ : अनिक्खिस्सामित्ति अणिस्सिसामि करेस्सामि ....."अणिक्खिस्सामि गिलायमाणस्स, जं भणित-आतेतुं दिस्सामि । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २५६ : 'अन्वीक्षिष्ये'। एतत् क्रियापदं देशीपदसंबद्धमेव संभाव्यते । २. आचारांग चूणि, पृष्ठ २७८ । ... ३. आचारांग चूणि, पृष्ठ २७९ : पसस्थासु लेसासु अप्पा आहितो जस्स जेण वा अप्पत्ते आहियाओ लेस्साओ। Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ आचारांगभाष्यम् कालं कुर्यात् तदा तस्य कालपर्यायः अनुज्ञात एव। लेता हुआ यदि प्राण-विसर्जन करता है, तो उसकी वह कालमृत्यु अनुज्ञात ही है, सम्मत ही है। ८३. से तत्थ विअंतिकारए। सं०-स तत्र व्यन्तिकारकः । उस मृत्यु से वह अन्तक्रिया करने वाला भी हो सकता है। ८४. इच्चेतं विमोहायतणं हियं, सुहं, खमं, णिस्सेयसं, आणुगामियं ।-त्ति बेमि । सं०-इत्येतत् विमोहायतनं हितं सुखं क्षमं निःश्रेयसं आनुगामिकम् । - इति ब्रवीमि । यह मरण प्राण-विमोह की साधना का आयतन, हितकर, सुखकर, कालोचित, कल्याणकारी और भविष्य में साथ देने वाला होता है।-ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् ८३-८४-द्रष्टव्यम् --६०,६१ । देखें-६०,६१ । छट्टो उद्देसो : छठा उद्देशक ८५.जे भिक्ख एगेण वत्थेण परिसिते पायबिइएण, तस्स णो एवं भवइ-बिइयं वत्थं जाइस्सामि । सं०-यो भिक्षुः एकेन वस्त्रेण पर्युषितः पात्र-द्वितीयेन, तस्य नो एवं भवति-द्वितीयं वस्त्रं याचिष्ये । जो भिक्ष एक वस्त्र और एक पात्र रखने की मर्यादा में स्थित है, उसका मन ऐसा नहीं होता कि मैं दूसरे वस्त्र की याचना करूंगा। ८६. से अहेसणिज्ज वत्थं जाएज्जा। सं०–स यथैषणीयं वस्त्रं याचेत । वह यथा-एषणीय - अपनी-अपनी कल्प-मर्यादा के अनुसार ग्रहणीय वस्त्र की याचना करे। ५७. अहापरिग्गहियं वत्थं धारेज्जा। सं० -- यथापरिगृहीतं वस्त्रं धारयेत । वह यथा-परिगृहीत वस्त्रों को धारण करे-न छोटा-बड़ा करे और न संवारे । ५८. णो धोएज्जा, णो रएज्जा, णो धोय-रत्तं वत्थं धारेज्जा। सं०-नो धावेत् नो रजेत् नो धौतरक्तं वस्त्रं धारयेत् । वह उन वस्त्रों को न धोए, न रंगे और न धोए-रंगे वस्त्रों को धारण करे। ८९. अपलिउंचमाणे गामंतरेसु। सं० --अपरिकुञ्चन् ग्रामान्तरेषु । वह प्रामांतर जाता हुआ वस्त्रों को छिपाकर नहीं चलता। Jain Education international Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ८. विमोक्ष, उ० ५-६. सूत्र ८३-६७ ३८५ ६०. ओमचेलिए। सं०-अवमचेलिकः । .. वह अल्प (अतिसाधारण) वस्त्र धारण करे। ६१. एवं खु वत्थधारिस्स सामग्गियं । सं०-एतत् खलु वस्त्रधारिणः सामग्रयम् । यह वस्त्रधारी भिक्षु की सामग्री (उपकरण-समूह) है। ६२. अह पुण एवं जाणेज्जा-उवाइक्कते खलु हेमंते, गिम्हे पडिवन्ने, अहापरिजुण्णं वत्थं परिदृवेज्जा, अहापरिजुण्णं वत्थं परिटवेत्तासं०-अथ पुनः एवं जानीयात् ---उपातिक्रान्तः खलु हेमन्तः, ग्रीष्मः प्रतिपन्नः, यथापरिजीर्ण वस्त्रं परिष्ठापयेत्, यथापरिजीणं वस्त्रं परिष्ठाप्य --- भिक्षु यह जाने कि हेमन्त बीत गया है, ग्रीष्म ऋतु आ गई है, तब वह यथा-परिजीर्ण वस्त्रों का विसर्जन करे। उनका विसर्जन कर देखें -४३-५०। भाष्यम् ८५-९२-द्रष्टव्यम्-४३-५० । ६३. अदुवा अचेले। सं०-अथवा अचेलः। या वह अचेल (वस्त्र-रहित) हो जाए। १४. लाघवियं आगममाणे । सं० --लाघविकं आगच्छन् । वह लाघव का चिन्तन करता हुआ वस्त्र का कमिक विसर्जन करे। ६५. तवे से अभिसमण्णागए भवति । सं०-तपस्तस्य अभिसमन्वागतं भवति । अल्प-वस्त्र वाले मुनि के उपकरण-अवमौदर्य तथा कायक्लेश तप होता है। १६. जमेयं भगवता पवेदितं, तमेव अभिसमेच्चा सव्वतो सम्वत्ताए समत्तमेव समभिजाणिया। सं०-यदिदं भगवता प्रवेदितं, तदेव अभिसमेत्य सर्वतः सर्वात्मतया समत्वं समभिजानीयात् । भगवान् ने जैसे अल्प-वस्त्रत्व का प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में जानकर सब प्रकार से, सर्वात्मना (संपूर्ण रूप से) समत्व का सेवन करे-किसी की अवज्ञा न करे। भाष्यम् ९३-९६-द्रष्टव्यम्-८।५३; ६।६३-६५। देखें-८।५३; ६।६३-६५ । ६७. जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ–एगो अहमंसि, न मे अस्थि कोइ, न याहमवि कस्सइ, एवं से एगागिणमेव अप्पाणं समभिजाणिज्जा। सं०-यस्य भिक्षोः एवं भवति–एकोऽहमस्मि, न मे अस्ति कोऽपि, न चाहमपि कस्यचित्, एवं स एकाकिनमेव आत्मानं समभिजानीयात् । जिस भिक्षु का ऐसा अध्यवसाय होता है-मैं अकेला हूं, मेरा कोई नहीं है, मैं भी किसी का नहीं हूं। इस प्रकार वह भिक्षु अपनी आत्मा को एकाकी ही अनुभव करे। Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ आचारांगभाष्यम् भाष्यम् ९७-रागबद्धो मनुष्यः सत्यमपलपति, किन्तु राग से बन्धा हुआ मनुष्य सत्य का अपलाप करता है। किन्तु यो भिक्षुः सत्यमन्वेषयति, यथा-एकोऽहमस्मि, न मे जो भिक्षु सत्य का अन्वेषण करता है, जैसे-'मैं अकेला हूं। मेरा अस्ति कोऽपि, न चाहमपि कस्यचित, एवं स आत्मानं कोई भी नहीं है और मैं भी किसी का नहीं हूं।'-इस प्रकार वह एकाकिनमेव समभिजानीयात् । अपने आपको अकेला ही समझे। १८. लाघवियं आगममाणे । सं०-लापविकं आगच्छन् । वह लाघव का चिन्तन करता हुआ उपधि-विसर्जन का चिन्तन करे । भाष्यम् ९८ -एकत्वानुचिन्तनेन भिक्षः लाघवं इस एकत्व के अनुचिन्तन-अकेलेपन के चिन्तन से भिक्षु आगच्छति । अनेन संगजनिता भारानुभूतिरपह्नता लाघव को प्राप्त होता है। इससे आसक्तिजनित भारानुभूति दूर हो भवति । जाती है। ६६. तवे से अभिसमन्नागए भवइ । सं०-तपस्तस्य अभिसमन्वागतं भवति । एकत्व अनुप्रेक्षा करने वाले मुनि के तप होता है। भाष्यम् ९९-एकत्वानुचिन्तनं 'अनुप्रेक्षा। सा च एकत्व का अनुचिन्तन करना अनुप्रेक्षा है। उसका समावेश स्वाध्यायान्तर्वर्तित्वात् तपः । एवं एकत्वानुप्रेक्षां कुर्वतः स्वाध्याय के अन्तर्गत होता है, इसलिए वह तप है। इस प्रकार जो तस्य तप: अभिसमन्वागतं भवति । एकत्व की अनुप्रेक्षा करता है, उसके तप होता है। १००. जमेयं भगवता पवेदितं, तमेव अभिसमेच्चा सव्वतो सम्वत्ताए समत्तमेव सममिजाणिया। सं०-यदिदं भगवता प्रवेदितं, तदेव अभिसमेत्य सर्वतः सर्वात्मतया समत्वमेव समभिजानीयात् । भगवान ने जैसे एकत्व भावना का प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में जानकर सब प्रकार से, सर्वात्मना (संपूर्ण रूप से) समत्व का सेवन करे-किसी की अवज्ञा न करे। भाष्यम् १००-स्पष्टम् ।। स्पष्ट है। १०१. से भिक्ख वा भिक्खुणी वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारेमाणे णो वामाओ हण्याओ दाहिणं हणयं संचारेज्जा आसाएमाणे, दाहिणाओ वा हणुयाओ वामं हणुयं णो संचारेज्जा आसाएमाणे, से अणासायमाणे। सं०-स भिक्षुः वा भिक्षुणी वा अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा आहरन् नो वामायाः हनुकायाः दक्षिणां हनुका संचारयेत् आस्वादमानः, दक्षिणायाः हनुकायाः वामां हनुकां नो संचारयेत् आस्वादमानः, स अनास्वादमानः । भिक्षु या भिक्षुणी अशन, पान, खाद्य या स्वाध का सेवन करती हुई बाएं जबड़े से दाहिने जबड़े में न ले जाए, आस्वाद लेती हुई तथा दाएं जबड़े से बाएं जबड़े में न ले जाए, आस्वाद लेती हुई । वह अनास्वाद वृत्ति से आहार करे। १०२. लाघवियं आगममाणे। सं०-लाघविकं आगच्छन् । वह लाघव का चिन्तन करता हुआ स्वाद का विसर्जन करे । १०३. तवे से अभिसमन्नागए भवइ । सं०---तपस्तस्य अभिसमन्वागतं भवति । अस्वाव-लाघव वाले मुनि के स्वाद-अवमौदर्य तथा कायक्लेश तप होता है। Jain Education international Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० प. विमोक्ष, उ० ६. सूत्र -१०५ १०४. जमेयं भगवता पवेइयं तमेव अभिसमेच्छा सव्यतो सम्बत्ताए समत्तमेव समभिजाणिया । सं० यदिदं भगवता प्रवेदितं तदेव अभिसमेत्य सर्वतः सर्वात्मतया समत्वमेव समभिजानीयात् । भगवान् ने जैसे स्वाद-लाघव का प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में जानकर सब प्रकार से, सर्वात्मना (सम्पूर्ण रूप से) समत्व का सेवन करे -- किसी की अवज्ञा न करे । " भाष्यम् १०१-१०४ - स्पष्टम् । स्पष्ट है । १०५. जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति-से गिलामि च खलु अहं इमंसि समए इमं सरीरगं अणुपुव्वेण परिवहित्तए, से आणुपुवेणं आहारं संवट्टेज्जा, आणुपुव्वेणं आहारं संवट्टेत्ता, कसाए पए किच्चा, समाहियच्चे फलगावयट्ठी, उट्ठाय भिक्खू अभिनिव्ड सं० – यस्य भिक्षोः एवं भवति - अथ ग्लायामि च खलु अहमस्मिन् समये इदं शरीरकं अनुपूर्वेण परिवोढुं स आनुपूर्व्या आहारं संवर्तत्वानुपू आहारं संवर्त्य, कथायान् प्रतवून् कृत्वा समाहिताचं फलकावतष्टी उत्पाद भिक्षु अभिनि तार्चः । : जिस भिक्षु को ऐसा संकल्प होता है मैं इस समय समयोचित क्रिया करने के लिए इस शरीर को वहन करने में ग्लान हो रहा हूं। वह भिक्षु क्रमशः आहार का संवर्तन करे। आहार का संवर्तन कर कषायों को कृश करे । ३८७ कषायों को कृश कर समाधिपूर्ण भाव वाला, फलक की भांति शरीर और कषाय-दोनों ओर से कृश बना हुआ भिक्षु समाधि-मरण के लिए उत्थित होकर शरीर को स्थिर शांत करे । भाष्यम् १०५ यो भिक्षुः रोगेणाक्रान्तः एवं अनुभवति - अहं अनुपूर्वेण यथासमयमावश्यक क्रियाकरण तथा इदं शरीरं परिवोद्धुं असमर्थोस्मि तादृशः भिक्षु अनुपु आहारं संवर्तयेत् —संक्षिपेत् । एषः समाधि मरणाय क्रियमाणाया: संलेखनायाः विधिः प्रतिपादित सूत्रकारेण । तस्याः प्रथममङ्गमस्ति आहारस्य संवर्तनम् ।' १. प्रस्तुत सूत्र में भाव-संलेखना ( कषाय का अल्पीकरण) और द्रव्य-संलेखना (आहार का अल्पीकरण) की विधि निर्दिष्ट है। आहार के अल्पीकरण की विधि इस प्रकार है । आचारांग नियुक्ति में द्वादश वर्षीय संलेखना का क्रम इस प्रकार बतलाया गया है-प्रथम चार वर्ष में विचित्र तप १ २ ३ ४ ५ दिन के उपवास किए जाएं। तपस्या के पारण में दूध आदि विकृति लेना अथवा न लेना दोनों सम्मत हैं । दूसरे चार वर्षों में विचित्र तप का अनुष्ठान प्रथम वर्ष की भांति किया जाता है। उपवास के पारणे में दूध आदि विकृति वर्जित होती है। नौवें और दसवें वर्ष में एकांतरित आचाम्ल किया जाता है-एक दिन उपवास और दूसरे दिन उपवास के पारण में आचाम्ल । ग्यारहवें वर्ष के पहले छह महीनों में एक उपवास अथवा दो उपवास की तपस्या और उसके पारणे में परिमित आचाम्ल अर्थात् अवमौदर्य । और उसके उत्तरार्ध में चार उपवास आदि की तपस्या और उसका पारण पूर्वार्ध की भांति किया जाता है। बारहवें वर्ष में कोटिसहित ( प्रतिदिन ) जो भिक्षु रोग से आक्रांत होने पर ऐसा अनुभव करता है. मैं यथासमय आवश्यक क्रियाएं करने के लिए इस शरीर को वहन करने में असमर्थ हूं, वह भिक्षु क्रमशः आहार को कम करे सूत्रकार ने समाधिमरण के लिए की जाने वाली संलेखना विधि का प्रतिपादन किया है । - उसका पहला अंग है आहार का संवर्तन -- अल्पीकरण । आचाम्ल करता है । बारहवें वर्ष में चार मास शेष रहते हैं तब संलेखना करने वाला तपस्वी वाक्यन्त्र को स्पष्ट रखने के लिए बार-बार तेल से कुल्ला करता है । इस द्वादश वर्ष में संलेखना के पश्चात् वह भक्त प्रत्याख्यान, इंगिनीमरण अथवा प्रायोपगमन अनशन स्वीकार करता है । (आचारांग नियुक्ति, गाया २६९-२७२) (भाग २, पृष्ठ २९४) के अनुसार बारहवे वर्ष में आहार की क्रमश: इस प्रकार कमी की जाती है। जिससे आहार और आयु एक साथ ही समाप्त हो । उस वर्ष के अंतिम चार महीनों में मुंह में तेल भर कर रखा जाता है। मुखयंत्र विसंवादी न हो-नमस्कार मंत्र आदि का उच्चारण करने में असमर्थ न हो, यह उसका प्रयोजन है । निशीष रत्नकरंड श्रावकाचार में आहार के अल्पीकरण का क्रम इस प्रकार है- पहले अन्न का परित्याग कर दुग्धपान का अभ्यास किया जाता है। तत्पश्चात् दुग्धपान का त्याग कर छाछ या गर्म जल पीने का अभ्यास Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ आचारांगभाष्यम् द्वितीयं कषायानां प्रतनूकरणम् । आहारस्य संवर्तनं उसका दूसरा अंग है-कषायों का कृशीकरण । आहार का द्रव्यसंलेखना। कषायानां प्रतनकरणं भावसंलेखना। संवर्तन करना द्रव्य-संलेखना है और कषायों को कृश करना भावअस्मिन् विषये चुणिकारस्य मतमिदम्- संलेखना है । इस विषय में चूर्णिकार का मत यह है-मुनि कषायों 'अन्नोवि ततो साहू कसाए पयणुए करेति, संलेहणाकाले को कृश करता है, किन्तु संलेखना-काल में वह विशेष रूप से कषायों विसेसेणं, कोइ सब्वे कसाए खवेति ।" को कृश करने का प्रयत्न करता है और कोई मुनि सभी कषायों का क्षय कर डालता है। तृतीयमस्ति कायोत्सर्गः। सोऽत्र समाहियच्चे इति उसका तीसरा अंग है-कायोत्सर्ग। यह प्रस्तुत आलापक में पदेन विवक्षितः । अर्चा -शरीरम् । समाहितार्चः- 'समाहियच्चे'-इस पद से विवक्षित है । अर्चा का अर्थ है-शरीर । कायगुप्तः । अर्चा-लेश्या । समाहितार्च:-विशुद्ध- 'समाहितार्च' का अर्थ है --कायगुप्त । अर्चा का दूसरा अर्थ है-लेश्या लेश्यः । और समाहितार्च का अर्थ है -विशुद्ध लेश्या वाला। __ चतुर्थमङ्गमस्ति समता, वासीचन्दनकल्पत्वम् । सा उसका चौथा अंग है-समता, वासीचन्दनतुल्यता अर्थात् 'फलगावयट्ठी' इति पदेन सूचितास्ति, यथा उभयतः वसूले से शरीर को काटने या शरीर पर चंदन का लेप करने, अपकृष्यमाणं फलकं बाह्यत: आभ्यन्तरतो वा अपकृष्टं इन दोनों स्थितियों में सम रहना, इसका सूचन 'फलगावयट्ठी' शब्द भवति तथा तपसा यस्य शरीरं अन्त:कषायो वा से प्राप्त है। जैसे दोनों ओर से छिला जाता हुआ काष्ठ का फलक, अपकृष्टो भवति सं रोषतोषातिक्रान्तः फलकावतष्टी बाहर से तथा भीतर से कृश होता है वैसे ही जिस मुनि का तपस्या के इत्युच्यते। तादृशो भिक्षुः उत्थाय अभिनितार्चः- द्वारा बाह्य शरीर तथा आंतरिक कषाय कृश हो जाते हैं, वह रोष शान्तशरीरो भवेत् । और तोष की सीमा को अतिक्रांत कर जाता है, वह मुनि 'फलकावतष्टी' कहलाता है। वैसा भिक्षु समाधिमरण के लिए उत्थित होकर शरीर को स्थिर-शांत करे। १०६. अणपविसित्ता गाम वा, जगरं वा, खेडं वा, कब्बडं वा, मडंबं वा, पट्टणं वा, दोणमुहं वा, आगरं वा, आसमं वा, सण्णिवेसं वा, णिगमं वा, रायहाणि वा, तणाई जाएज्जा, तणाई जाएत्ता, से तमायाए एगंतमवक्कमेज्जा, एगंतमवक्कमेत्ता अप्पडे अप्प-पाणे अप-बीए अप्प-हरिए अप्पोसे अप्पोदए अप्पुत्तिग-पणग-दग-मट्टिय-मक्कडासंताणए, पडिलेहिय-पडिलेहिय, पमज्जिय-पमज्जिय तणाई संथरेज्जा, तणाई संयरेत्ता एत्य वि समए इत्तरियं कुज्जा। किया जाता है। फिर यथाशक्ति उपवास करते हुए जल आदि का भी परित्याग किया जाता है । विशेष विवरण के लिए देखें-उतरज्झयणाणि, ३०१२-१३ के संलेखना का टिप्पण । १. आचारांग चूणि, पृण्ठ २८१ । २. वही, पृष्ठ २८१ : अच्चा णाम सरीरं, सा अच्चा जस्स सम्मं आहिता स भवति समाहियच्चो, यदुक्तं भवति-कायगुप्तो, अहवा अच्चा लेसा, यदुक्तं भवतिभावो, सो जस्स भावो समाहितो स भवति समाहियच्चो, यदुक्तं भवति–विसुद्धलेसो, अहवा अच्चा जाला, वा जेण रागदोसजालारहितो स भवति समाहियच्चो। ३. वही, पृष्ठ २८१ : फलगमिव वासीमातीहि उभयतो अवगरिसियं बाहिरतो अम्भितरओ य स भवति फलगावयट्ठी, बाहिर बहेणं सरीरं अवकरिसितं अंतो कसायकम्मं बा, जहा फलगंतं छिज्जतं ण रुस्सति, चंदणेणं वा लिप्पंतं ग तुस्सति, रुक्खो वा, एवं सोवि वासीचंदणकप्पो। ४. सामान्यतः मनुष्य रोग से ग्लान होता है। चूणिकार ने बताया है कि अपर्याप्त भोजन, अपर्याप्त वस्त्र, अवस्त्र और प्रहरों तक ऊकड़ आसन में बैठना-इनसे अग्लान भी ग्लान जैसा हो जाता है। तपस्या से भी शरीर ग्लान हो जाता है। शरीर के ग्लान होने पर भिक्षु को समाधिमरण की तैयारी-संलेखना प्रारम्भ कर देनी चाहिए। आहार का संवर्तन, कषाय का विशेष जागरूकता से अल्पीकरण और शरीर का स्थिरीकरण- ये संलेखना के मुख्य अंग है। उत्थान तीन प्रकार का होता है : दीक्षा लेना--संयम का उत्थान, प्रामानुग्राम विहार करना-- अभ्युद्यत विहार का उत्थान और शारीरिक अशक्ति का अनुभव होने पर संलेखना करना-अभ्युद्यत मरण का उत्थान उवट्ठाणं ताव पुव्वं ताव संजमउट्ठाणं पच्छा अग्भुज्जयविहारं उट्ठाणं तत य उम्भुज्जयमरणउट्ठाणं । (आचारांग चूणि, पृष्ठ २८१) Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ८. विमोक्ष, उ० ६. सूत्र १०६-१०७ ३८६ सं०-- अनुप्रविश्य ग्रामं वा, नगरं वा, खेटं वा, कर्बट वा, मडम्ब वा, पत्तनं वा, द्रोणमुखं वा, आकरं वा, आश्रमं वा, सन्निवेश वा, निगम वा, राजधानी वा तृणानि याचेत । तृणानि याचित्वा स तान्यादाय एकांतमवक्रामेत्, एकान्तमवक्रम्य अल्पाण्डे अल्पप्राणे अल्पबीजे अल्पहरिते अल्पावश्याये अल्पोदके अल्पोत्तिग-पनक-दक-मृत्तिका-मर्कटसंताने प्रतिलिख्य प्रतिलिख्य प्रमृज्य प्रमृज्य तृणानि संस्तरेत्, तृणानि संस्तीर्य अत्रापि समये इत्वरिकं कुर्यात् । वह संलेखना करने वाला भिक्षु शारीरिक शक्ति होने पर गांव, नगर, खेड़ा, कर्वट, मडंब, पत्तन, द्रोणमुख, आकर, आश्रम, सन्निवेश निगम या राधधानी में प्रवेश कर घास की याचना करे। उसे प्राप्त कर गांव आदि के बाहर एकांत में चला जाए। वहां जाकर जहां कीट-अण्ड, जीव-जन्तु, बीज, हरित, ओस, उदक, चींटियों के बिल, फफूंदी, दलदल या मकड़ी के जाले न हों, वैसे स्थान को देखकर, उनका प्रमार्जन कर, घास का बिछौना करे। बिछौना कर उस समय 'इत्वरिक अनशन' करे। भाष्यम् १०६ --इत्वरिकम् - इङ्गिनीमरणम् । अत्र इत्वरिक का अर्थ है-इंगिनीमरण। चूणि और वृत्ति में चुणों वृत्तौ च 'इत्वरिक' शब्दस्य विमर्शः कृतोस्ति। इत्वरिक शब्द का विमर्श किया गया है। भगवती में तपस्या के दो भगवत्या तपसो द्वौ प्रकारावुक्तो-इत्वरिकं यावत्- प्रकार बतलाए गए हैं- इत्वरिक और यावत्कथिक । इत्वरिक है अल्पकथिकञ्च। तत्र इत्वरिकं अल्पकालिकं तपः, यावत्- कालिक तप और यावत्कथिक है आजीवन आहार का परित्याग । कथिक आजीवनमाहारत्यागः ।' अत्र एतद इत्वरिकं प्रस्तुत प्रकरण में इत्वरिक तप प्रासंगिक नहीं है। यहां 'इत्वरिक' पद प्रासङ्गिकं नास्ति। अत्र इत्वरिकपदेन इङ्गिनीमरण- से 'इंगिनीमरण' नामक अनशन की सूचना है। समवायांग में उसका संज्ञक अनशनं सूचितमस्ति । समवायाने तस्योल्लेखो उल्लेख है । इस अनशन में स्थान (खड़ा रहना), शय्या (सोना) और विद्यते । अस्मिन्ननशने स्थानं, शय्या, निषद्या वा अल्प- निषद्या (बैठना) अल्पकालिक होती है, इसलिए इसे इत्वरिक कहा कालिकी भवति, तेन एतद् इत्वरिकपदेनाभिधीयते। गया है। १०७.तं सच्चं सच्चावादी ओए तिण्णे छिण्ण-कहकहे आतीतठे अणातीते वेच्चाण भेउरं कायं, संविहणिय विरूवरूवे परिसहोवसग्गे अस्सि विस्सं भइत्ता भेरवमणुचिण्णे । सं०-तत् सत्यं सत्यवादी ओजः तीर्णः छिन्नकथंकथः आतीतार्थः अनादत्तः विदित्वा भिदुरं कायं संविधूय विरूपरूपान् परीषहोपसर्गान अस्मिन् विष्वग् भक्त्वा भैरवं अनुचीर्णः । १. अंगसुत्ताणि २, भगवई २५५५९-५६१ । पोपगमनापेक्षया नियतदेशप्रचाराभ्युपगमादिङ्गित२. अंगसुत्ताणि १, समवाओ १७१९ । मरणमुच्यते, न तु पुनरित्वरं, साकारं प्रत्याख्यानं, ३. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २८२-२८३ : 'इत्तिरियं णाम साकारप्रत्याख्यानस्यान्यस्मिन्नपि काले जिनकल्पिअप्पकालियं, त केयि मण्णंति-इत्तिरियं भत्तपच्च कादेरसम्भवात्, किंपुनर्यावत्कथिकभक्तप्रत्याख्यानाखाइयं, यदुक्तं भवति-सागारं जति, एत्तो रोगायं वसर इति, इत्वरं हि रोगातुरः श्रावको विधत्ते, तद्यथाकाओ मुच्चीहामी गहिं बारसहि दिवसेहिं तो मे यद्यहमस्माद्रोगात् पञ्चषरहोभिर्मुक्तः स्यां ततो भोक्ष्ये, णवरि कप्पति पारेत्तए, अह ण मुच्चामि तो मे तहा नान्यथेत्यादि, तदेवमित्वरम्-इंङ्गितमरणं धृति पच्चक्खायमेव भवतु, सागारं भत्तं पच्चक्खाति, संहननादिबलोपेतः स्वकृतत्वग्वर्तनादिक्रियो यावज्जीवं इतरसद्दमेत्तो, केइ एवं इच्छंति, तं ण भवंति, वयं चतुविधाहारनियमं कुर्यादिति, उक्तं चभणामो–एवं सावगा अभिग्गहे अभिगिण्हंति, 'पच्चक्खइ आहारं चउम्विहं णियमओ गुरुसमीवे । सेसगाओ पडिमाओ पडिवज्जंति, ण तु साहवोऽ इंगियदेसमि तहा चिट्ठपि हु नियमओ कुणइ ॥ वित्तरे, ण तु जिणकप्पिया, ते तु अण्णहपि काले उव्वत्तइ परिअत्तइ काइगमाईऽवि अप्पणा कुणइ। णिच्चं अप्पमाति, ताण सागारं पुरिमद्धमादि पच्चक्खं, सम्वमिह अप्पणच्चिअ ण अन्नजोगेण धितिबलिओ॥' कि पुण आवकहितं भत्तपच्चक्खाणमिति, जं पुण (ग) अनशन करते समय उस भिक्षु का मुख पूर्व दिशा की बुच्चति - एत्थंपि समए इत्तिरियं करेति, तं एवं ओर होना चाहिए । उसकी अंजलि मस्तक का स्पर्श जाणावेति - एसो इंगिणीमरण उद्देसिओ, चउम्विहा करती हुई होनी चाहिए । वह सिद्धों को नमस्कार हारविरओ, से जावज्जीवाए एत्थंपि समएत्ति कर इत्वरिक अनशन का संकल्प करे। इस अनशन में इंगिणीमरणकालसमए, इत्तिरियं णाम अप्पकालियं नियत्र क्षेत्र में संचरण किया जा सकता है, इसलिए ठाणसिज्जणिसीहियं करेति ।' इसे इत्वरिक कहा गया है। यहां इसका अर्थ अल्प(ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २५९ : 'इत्वर' मिति पाद कालिक अनशन नहीं है। Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० आचारोगभाव्यम् वह अनशन सत्य है । उसे सत्यवादी प्रतिज्ञा का निर्वाह करने वाला, वीतराग, संसार-समुद्र का पार पाने वाला, 'अनशन का निर्वाह होगा या नहीं इस संगम से मुक्त, सर्वथा कृतार्थ, परिस्थिति से अप्रभावित, शरीर को क्षणमंगुर जानकर, नाना प्रकार के परीषहों और उपसर्गों को मथकर 'जीव पृथक् है' 'शरीर पृथक् है' इस मेद विज्ञान की भावना का आसेवन कर भैरव अनशन का अनुपालन करता हुआ क्षुब्ध न हो । । भाष्यम् १०७ तद् इङ्गिनीमरणमनशनं सत्यं हितकरत्वात् । स भिक्षुः तद् भैरवं अनुचीर्णो भवति । स भवति एताभिरवस्थाभिविशिष्टः । प्रतिज्ञामन्तं नेतुं क्षमत्वात् सत्यवादी एकत्वानुभूतियुक्तत्वात् ओज 'तरन् तीर्ण' इति नयेन प्रव्रज्यायां आसन्नोत्तीर्णत्वात् तीर्णः । कथंकथं संशयकरणं किमहं एतद् अनशनं पारं नेष्यामि न वा इति संशयमुक्तत्वात् छिन्नकथं कथः । कृतार्थत्वात् आतीतार्थ: ।' बाह्य: प्रभावैरप्रभावितत्वात् अनादत्तः । एतादृशः भिक्षुः कार्यं भिदुरं विदित्वा विरूपरूपान् परीषहोपसर्गान् संविधूय अस्मिन् शरीरे जोवोस्ति तथापि स ततो विष्वगृपृथग् भिन्नो वा वर्तते इति भेदविज्ञानस्य भावनां भवत्वा- आसेव्य स भौरव मनशनमनुचरति । - १०८. तत्थात्रि तस्स कालपरियाए । सं० -- तत्रापि तस्य कालपर्याय: । ऐसा करने पर भी उसकी वह काल-मृत्यु होती है। १०. से तत्थ विअंतिकारए । सं० स तत्र व्यन्तिकारकः । उस मृत्यु से वह अन्तः क्रिया - पूर्ण कर्म-क्षय करने वाला भी हो सकता है। १. चूणौं (पृष्ठ २८३), वृत्तौ (पत्र २५९) च 'आतीतट्ठे ' पदस्य अनेके विकल्पाः कृताः सन्ति । वह इंगिनीमरण अनशन हितकारी होने के कारण सत्ययथार्थ है । वह भिक्षु इस भैरव अनशन का पालन करता है। वह इन अवस्थाओं से विशिष्ट होता है-प्रतिज्ञा का निर्वाह करने में समर्थ होने के कारण वह सत्यवादी, एकस्व की अनुभूति से युक्त होने के कारण भोज वीतराग, तैरता हुआ तीर्ण होता है, इस नय से प्रवज्या में प्रायः उत्तीर्ण हो जाने के कारण तीर्ण कहलाता है। 'कलंक' का अर्थ है संशय करना मैं इस अनशन का निर्वाह कर सकूंगा या नहीं इस संशय से मुक्त होने के कारण वह 'छिन्नकथं कथ', सर्वथा कृतार्थ होने के कारण 'आतीतार्थ' और बाह्य प्रभावों से अप्रभावित होने के कारण 'अनावत' होता है। ऐसा भिक्षु शरीर को क्षणभंगुर जानकर, नाना प्रकार के परीषहों और उपसर्गों को मथकर, इस शरीर में जीव है, फिर भी वह उससे पृथक है अथवा मित्र है, इस भेद-विज्ञान की भावना का सेवन कर, भैरव अनशन का अनुपालन करता है । । ११०. इच्चेतं विमोहायतणं हियं, सुहं, खमं, णिस्सेयसं, आणुगामियं । - ति बेमि । सं० इत्येतत् विमायतनं हितं सुखं क्षमं निःश्रेयसं अनुगामिकम् । इति प्रीमि - । यह मरण प्राण-विमोह की साधना का आयतन हितकर, सुखकर कालोचित, कल्याणकारी और भविष्य में साथ देने वाला होता है। ऐसा मैं कहता हूँ। भाष्यम् १०८ - ११० - स्पष्टमेव । २. आचारांग चूर्णि, पृष्ठ २८३-८४ : विस्सं अणे गप्पगारं विरसं भविता तंगहा अन् सरीरं अहं भय सेवाए एवं भविता ययुक्तं भवति सेवित्ता, अहवा विरसं अग विहं भवो तं भत्ता, वीसं वा भइत्ता, जीवो सरीराओ -- स्पष्ट है । सरीरं वा जीवाओ, अहवा जीवाओ कम्मं कम्मं वा जीवाओ । ३. आचारांग चूर्ण, पृष्ठ २८४ : भयं करोतीति मेरवं मेरवेहिं परीसहोक्सोहि अनुचिन्नमाणो अणुचिमो समसगसीहबन्धातिएहि य रक्खसविसायादीहि घ, अहवा दव्वावहिं अणुचिष्णो तहावि अक्खुग्भमाणो । Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०८. विमोक्ष, उ०६-७. सूत्र १०८-११५ सतमो उद्देसो : सातवां उद्देशक १११.जे भिक्ख अचेले परिवसिते, तस्स णं एवं भवति–चाएमि अहं तणफासं अहियासित्तए, सीयफासं अहियासित्तए, तेउफासं अहियासित्तए, दस-मसगफासं अहियासित्तए, एगतरे अण्णतरे विरूवरूवे फासे अहियासित्तए, हिरिपडिच्छादणं चहं णो संचाएमि अहियासित्तए, एवं से कप्पति कडि-बंधणं धारित्तए। सं०–यो भिक्षुः अचेलः पर्युषितः, तस्य एवं भवति- शक्नोमि अहं तृणस्पर्श अधिसोढं, शीतस्पर्श अधिसोढुं, तेजःस्पर्श अधिसोढुं, दंशमशकस्पर्श अधिसोढुं, एकतरान् अन्यतरान् विरूपरूपान् स्पर्शान् अधिसोढुं, ह्रीप्रतिच्छादनं चाहं नो संशक्नोमि अधिसोढुं, एवं तस्य कल्पते कटिबन्धनं धारयितुम् । जो भिक्षु अचेल रहने की मर्यादा में स्थित है, उसका ऐसा अभिप्राय हो–'मैं घास की चुभन को सहन कर सकता हूं, सर्दी को सहन कर सकता हूं, गर्मी को सहन कर सकता हूं, डांस और मच्छर के काटने को सहन कर सकता हूं, एकजातीय भिन्नजातीय-नाना प्रकार के स्पों को सहन कर सकता हूं, किन्तु मैं गुप्त अंगों के प्रतिच्छादन (वस्त्र) को छोड़ने में समर्थ नहीं हूं।' इस कारण से वह कटिबन्ध को धारण कर सकता है। भाष्यम् १११-स्पष्टमेव । स्पष्ट है। ११२. अदुवा तत्थ परक्कमंतं भुज्जो अचेलं तणफासा फुसंति, सीयफासा फुसंति, तेउफासा फुसंति, दंस-मसगफासा फुसंति, एगयरे अण्णयरे विरूवरूवे फासे अहियासेति अचेले। सं०-अथवा तत्र पराक्रममाणं भूयः अचेलं तृणस्पर्शाः स्पृशन्ति, शीतस्पर्शाः स्पृशन्ति, तेजःस्पर्शाः स्पृशन्ति, दंशमशकस्पर्शा: स्पृशन्ति, एकतरान् अन्यतरान् विरूपरूपान् स्पर्शान् अधिसहते अचेलः । अथवा जो भिक्ष लज्जा को जीतने में समर्थ हो, वह सर्वथा अचेल रहे-कटिबन्ध धारण न करे। उसे घास की चुभन होती है, सर्दी लगती है, गर्मी लगती है, डांस और मच्छर काटते हैं, फिर भी वह एकजातीय, भिन्नजातीय-नाना प्रकार के स्पर्शों को सहन करे। भाष्यम् ११२-स्पष्टमेव । स्पष्ट है। ११३. लाघवियं आगममाणे। सं०-लाघविकं आगच्छन् ।। वह लाघव का चिन्तन करता हुआ अचेल रहे। ११४. तवे से अमिसमन्नागए भवति । सं०-तपस्तस्य अभिसमन्वागतं भवति । अचेल मुनि के उपकरण-अवमौदर्य तथा कायक्लेश तप होता है। ११५. जमेयं भगवता पवेदितं, तमेव अभिसमेच्चा सत्वतो सध्वत्ताए समत्तमेव सममिजाणिया। सं०-यदिदं भगवता प्रवेदितं, तदेव अभिसमेत्य सर्वतः सर्वात्मतया समत्वमेव समभिजानीयात् । भगवान् ने जैसे अचेलत्व का प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में जानकर सब प्रकार से, सर्वात्मना (सम्पूर्ण रूप से) समत्व का सेवन करे- किसी की अवज्ञा न करे । भाष्यम् ११३-११५-द्रष्टव्यम्-६।६३-६५ ।' देखें-६६३-६५ । , Jain Education international Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ आचारांगमाध्यम ११६. जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति-अहं च खलु अण्णेसि भिक्खूणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहटु दल इस्सामि, आहडं च सातिज्जिस्सामि। सं०-यस्य भिक्षोः एवं भवति--अहं च खलु अन्येषां भिक्षूणां अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा आहृत्य दास्यामि आहृतं च स्वादयिष्यामि। जिस भिक्षु को ऐसा संकल्प होता है-मैं दूसरे भिक्षुओं को अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य लाकर दूंगा और उनके द्वारा लाया हुआ स्वीकार करूंगा। भाष्यम् ११६-यस्येति प्रतिमाप्रतिपन्नस्य भिक्षोः, 'जिसके' अर्थात् प्रतिमाप्रतिपन्न भिक्षु के, 'दूसरे भिक्षुओं के' अन्येषां भिक्षणामिति सदशकल्पिकानां प्रतिमा- इसका तात्पर्य है-सदृशकल्प वाले प्रतिमा-प्रतिपन्न भिक्षुओं के । प्रतिपन्नानाम् । ११७. जस्स गं भिक्खुस्स एवं भवति-अहं च खलु अण्णेसि भिक्खूणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहट दलइस्सामि, आहडं च णो सातिज्जिस्सामि। सं०-यस्य भिक्षोः एवं भवति-अहं च खलु अन्येषां भिक्षूणां अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा आहृत्य दास्यामि आहृतं च नो स्वादयिष्यामि। जिस भिक्षु को ऐसा संकल्प होता है-मैं दूसरे भिक्षुओं को अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य लाकर दूंगा, किन्तु उनके द्वारा लाया हुआ स्वीकार नहीं करूंगा। ११८. जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति-अहं च खलु अण्णेसि भिक्खूणं असणं वा पाण वा खाइम वा साइमं वा आहट नो दल इस्सामि, आहडं च सातिज्जिस्सामि । सं०-यस्य भिक्षोः एवं भवति-अहं च खलु अन्येषां भिक्षूणां अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा आहृत्य नो दास्यामि आहृतं च स्वादयिष्यामि। जिस भिक्षु को ऐसा संकल्प होता है-मैं दूसरे भिक्षुओं को अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य लाकर नहीं दूंगा, किन्तु उनके द्वारा लाया हुआ स्वीकार करूंगा। ११६. जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति-अहं च खलु अण्णेसि भिक्खणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहट नो दलइस्सामि, आहडं च णो सातिज्जिस्सामि । सं०-यस्य भिक्षोः एवं भवति–अहं च खलु अन्येषां भिक्षूणां अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा आहृत्य नो दास्यामि आहृतं च नो स्वादयिष्यामि। जिस भिक्षु को ऐसा संकल्प होता है-मैं दूसरे भिक्षुओं को अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य लाकर न दूंगा और न उनके द्वारा लाया हुआ स्वीकार करूंगा। भाष्यम् ११७-११९-स्पष्टमेव । . स्पष्ट है। १२०. अहं च खलु तेण अहाइरित्तेणं अहेसणिज्जेणं अहापरिग्गहिएणं असणेण वा पाणेण वा खाइमेण वा साइमेण वा अभिकंख साहम्मियस्स कुज्जा वेयावडियं करणाए । सं०-अहं च खलु तेन यथातिरिक्तेन यथैषणीयेन यथापरिगृहीतेन अशनेन वा पानेन वा खाद्येन वा स्वाद्येन वा अभिकाङक्ष्य सार्मिकस्य कुर्यात् वैयापत्यं करणाय । मैं अपनी आवश्यकता से अधिक, अपनी कल्प-मर्यादा के अनुसार ग्रहणीय तथा अपने लिए लाए हुए अशन, पान, खाद्य या स्वाध से निर्जरा के उद्देश्य से उन सार्मिकों की सेवा करूंगा-पारस्परिक उपकार की दृष्टि से । Jain Education international Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०८. विमोक्ष, उ०७. सूत्र ११६-१२५ ३६३ ___ भाष्यम् १२०-णिपरम्परायां एतत् प्रकरणं चूर्णी की परम्परा में यह प्रकरण प्रतिमा-प्रतिपन्न आदि भिक्षुओं प्रतिमाप्रतिपन्नादिभिक्षननुवर्तते, तेनात्र साधर्मिकत्वं से संबंधित बतलाया गया है, इसलिए प्रस्तुत आलापक में 'सार्मिकता' विशिष्टं परिभाषितमस्ति–'समाणा सरिसा वा धम्मिया की विशेष परिभाषा है-समान अथवा सदृश धर्म वाले सार्मिक साहम्मिया, जति ते एगट्ठा न मुंजंति तहावि ते अभिग्गह- कहलाते हैं। यद्यपि वे एक साथ भोजन नहीं करते, फिर भी वे साहम्मिया एगल्लविहारसाहम्मिया य संभोइया गणिज्जति ।' अभिग्रह और एकलविहार की दष्टि से मार्मिक और मांभोशिक गिने जाते हैं। यथेषणीयम्-एषणानुरूपम् । यथेषणीय का अर्थ है-एषणा के अनुरूप । १२१. अहं वावि तेण अहातिरित्तेणं अहेसणिज्जेणं अहापरिग्गहिएणं असणेण वा पाणेण वा खाइमेण वा साइमेण वा अभिकंख साहम्मिएहिं कीरमाणं वेयावडियं सातिज्जिस्सामि । सं०-अहं वापि तेन यथातिरिक्तेन यथैषणीयेन यथापरिगृहीतेन अशनेन वा पानेन वा खाद्येन वा स्वाद्येन वा अभिकांक्ष्य सार्मिकः क्रियमाणं वयापृत्यं स्वादयिष्यामि । मैं भी सार्मिकों के द्वारा अपनी आवश्यकता से अधिक, अपनी कल्प-मर्यादा के अनुसार ग्रहणीय तथा अपने लिए लाए हुए अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य से निर्जरा के उद्देश्य से उनके द्वारा की जाने वाली सेवा का अनुमोदन करूंगा। १२२. लाघवियं आगममाणे । सं०-लाघविकं आगच्छन् । वह लाघव का चिन्तन करता हुआ सेवा का प्रकल्प करे। १२३. तवे से अभिसमण्णागए भवति । सं०-तपस्तस्य अभिसमन्वागतं भवति । सेवा का प्रकल्प करने वाले मुनि के अवमौदर्य तथा वैयावृत्य तप होता है। १२४. जमेयं भगवता पवेदितं, तमेव अभिसमेच्चा सम्वतो सव्वत्ताए समत्तमेव समभिजाणिया। सं०-यदिदं भगवता प्रवेदितं, तदेव अभिसमेत्य सर्वतः सर्वात्मतया समत्वमेव समभिजानीयात् । भगवान ने जैसे सेवा के प्रकल्पों का प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में जानकर सब प्रकार से, सर्वात्मना (सम्पूर्ण रूप से) समत्व का सेवन करे किसी की अवज्ञा न करे। १२५. जस्स णं भिक्खुस्त एवं भवति-से गिलामि च खलु अहं इमम्मि समए इमं सरीरगं अणुपुव्वेणं परिवहित्तए, से आणुपुग्वेणं आहारं संबज्जा , आणपुग्वेणं आहारं संवदे॒त्ता, कसाए पयणुए किच्चा समाहिअच्चे फलगावयट्ठी, उट्ठाय भिक्खू अभिणिव्वुडच्चे। सं०-यस्य भिक्षोः एवं भवति--अथ ग्लायामि च खलु अहं अस्मिन् समये इदं शरीरकं अनुपूर्वेण परिवोढुं, स आनुपूर्व्या आहारं संवर्तयेत्, आनुपूर्त्या आहारं संवयं, कषायान् प्रतनून् कृत्वा समाहितार्चः फलकावतष्टी, उत्थाय भिक्षुः अभिनिवृतार्चः । जिस भिक्षु को ऐसा संकल्प होता है-मैं इस समय समयोचित क्रिया करने के लिए इस शरीर को वहन करने में ग्लान (असमर्थ) हो रहा हूं। वह भिक्षु क्रमशः आहार का संवर्तन करे । आहार का संवर्तन कर कषायों को कृश करे। कषायों को कृश कर समाधिपूर्ण भाव वाला, फलक की भांति शरीर और कषाय दोनों ओर से कृश बना हुआ भिक्षु समाधिमरण के लिए उत्थित होकर शरीर को स्थिर-शान्त करे। भाष्यम् १२१-१२५–स्पष्टमेव । स्पष्ट है। १. आचारांग चूणि, पृष्ठ २८५। २. द्रष्टव्यम्-आयारचूला, ११४०-४७ । Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ आचारांगभाष्यम १२६. अणुपविसित्ता गामं वा, णगरं वा, खेडं वा, कब्बडंबा, मडंबं वा, पट्टणं वा, दोणमुहं वा, आगरं वा, आसमं वा, सण्णिबेसं वा, णिगमं वा, रायहाणिवा, तणाई जाएज्जा, तणाई जाएत्ता से तमायाए एगंतमवक्कमेज्जा, एगंतमवक्कमेत्ता अप्पंडे अप्प-पाणे अप्प-बीए अप्प-हरिए अप्पोसे अप्पोदए अप्पुत्तिंग-पणग-दगमट्टिय-मक्कडासंताणए, पडिलेहिय-पडिलेहिय पमज्जिय-पमज्जिय तणाइं संथरेज्जा, तणाई संथरेत्ता एस्थ वि समए कायं च, जोगं च, इरियं च, पच्चक्खाएज्जा। सं०-अनुप्रविश्य ग्रामं वा, नगरं वा, खेटं वा, कर्बट वा, मडम्बं वा, पत्तनं वा, द्रोणमुखं वा, आकरं वा, आश्रमं वा, सन्निवेशं वा, निगमं वा, राजधानी वा, तृणानि याचेत । तृणानि याचित्वा स तान्यादाय एकान्तमवक्रामेत् एकान्तमवक्रम्य अल्पाण्डे अल्पप्राणे अल्पबीजे अल्पहरिते अल्पावश्याये अल्पोदके अल्पोत्तिंग-पनक-दक-मृत्तिका-मर्कटसंताने प्रतिलिख्य प्रतिलिख्य प्रमृज्य प्रमृज्य तृणानि संस्तरेत्, तृणानि संस्तीर्य अत्रापि समये कायं च योगं च ईयां च प्रत्याख्यायात् । वह संलेखना करने वाला भिक्षु शारीरिक शक्ति होने पर गांव, नगर, खेड़ा, कर्वट, मडंब, पत्तन, द्रोणमुख, आकर, आश्रम, सन्निवेश, निगम या राजधानी में प्रवेश कर घास की याचना करे। उसे प्राप्त कर गांव आदि के बाहर एकांत में चला जाए। वहां जाकर जहां कीट-अण्ड, जीव-जन्तु, बीज, हरित, ओस, उदक, चींटियों के बिल, फफूंदी, दलदल या मकड़ी के जाले न हों वैसे स्थान को देखकर, उसका प्रमार्जन कर, घास का बिछौना करे । बिछौना कर उस समय प्रायोपगमन अनशन कर शरीर, उसकी प्रवृत्ति और गमनागमन का प्रत्याख्यान करे। भाष्यम् १२६-पूर्व (१०६ सूत्रे) इङ्गिनीमरणनाम पहले १०६वें सूत्र में इंगिनीमरण नामक अनशन की विधि कस्य अनशनस्य विधिःप्रदर्शितः । प्रस्तुत सूत्रे प्रायोप- बतलाई गई थी। प्रस्तुत आलापक में प्रायोपगमन अनशन की विधि गमनस्य विधिरुपदय॑ते । स भिक्षुः प्रामादीनां बतलाई जा रही है । वह भिक्षु गांव आदि किसी एक स्थान में प्रवेश अन्यतरस्मिन अनप्रविश्य तृणानि याचित्वा एकान्तमव- कर, घास की याचना कर गांव के बाहर एकांत में चला जाए और क्रम्य स्थानविशोधिं कृत्वा तानि तृणानि संस्तृणाति । वहां स्थान की विशोधि कर घास का बिछौना करे। इस प्रसंग में अत्र चणिपरम्परा-तस्मिन् संस्तरे समारुह्य अर्हद्भ्यः चूणि की परम्परा यह है-वह मुनि उस बिछौने पर बैठकर, अर्हत सिद्धेभ्यो नमस्करोति, स्वयमेव पञ्चमहाव्रतानि और सिद्ध को नमस्कार करता है, स्वयं ही पांच महाव्रतों का आरोहण आरोहति, ततश्च प्रायोपगमनमधिकरोति । चतुर्विध- करता है और फिर प्रायोपगमन अनशन को स्वीकार करता है। वह माहारं प्रत्याख्याति, कायं प्रत्याख्याति-यदि निषण्णः तहि चतुर्विध आहार का प्रत्याख्यान कर, शरीर का प्रत्याख्यान करता है --- निषण्ण एव, यदि शयित: तहि शयित एव तिष्ठति । योगं यदि उस समय बैठा हो तो बैठा ही रहता है और यदि सोया निरुणद्धि-शरीरस्य आकुञ्चनप्रसारणादिकं न करोति। हो तो सोया ही रहता है। वह योग का निरोध करता है -शरीर मनसः एकाग्रतां करोति, वाचं च निरुणद्धि । ईयां च का संकुचन, प्रसारण आदि नहीं करता। वह मन को एकाग्र करता प्रत्याख्याति-गमनागमनादिकं न करोति । एष है, वाणी का निरोध करता है और ईर्या का प्रत्याख्यान करता हैप्रायोपगमनविधिः। गमनागमन आदि नहीं करता। यह प्रायोपगमन अनशन की विधि है । १२७. तं सच्चं सच्चावादी ओए तिण्णे छिन्न-कहकहे आतीतठे अणातीते वेच्चाण भेउरं कायं, संविहणिय विरूवरूवे परिसहोवसग्गे अस्सि बिस्सं भइत्ता मेरवमणचिण्णे। सं०- तत् सत्यं सत्यवादी ओजः तीर्णः छिन्नकथंकथः आतीतार्थः अनादत्तः विदित्वा भिदुरं कायं संविधूय विरूपरूपान् परीषहोपसर्गान् अस्मिन् विष्वग् भक्त्वा भैरवमनुचीर्णः । वह अनशन सत्य है । उसे सत्यवादी-प्रतिज्ञा का निर्वाह करने वाला, वीतराग, संसार-समुद्र का पार पाने वाला, 'अनशन का निर्वाह होगा या नहीं' इस संशय से मुक्त, सर्वथा कृतार्थ, परिस्थिति से अप्रभावित, शरीर को क्षणभंगुर जानकर, नाना प्रकार के परीषहों और उपसर्गों को मथकर 'जीव पृथक् है, शरीर पृथक है'-इस भेद-विज्ञान की भावना तथा भैरव अनशन का अनुपालन करता हुआ। क्षुब्ध न हो। भाष्यम् १२७-द्रष्टव्यम्-१०७ । देखें--१०७ । १२८. तत्थावि तस्स कालपरियाए। सं०-तत्रापि तस्य कालपर्यायः । ऐसा करने पर भी उसकी वह काल-मृत्यु होती है। Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ.८. विमोक्ष, उ०७-८. सूत्र १२६-१३०, गाथा १ ३६५ १२९. से तत्थ विअंतिकारए। सं०-स तत्र व्यन्तिकारकः । उस मृत्यु से वह अन्तःक्रिया करने वाला भी हो सकता है। १३०. इच्चेतं विमोहायतणं हियं, सुहं, खम, णिस्सेयसं, आणगामियं ।-ति बेमि । सं०-इत्येतत् विमोहायतनं हितं, सुखं, क्षम, निःश्रेयसं, आनुगामिकम् । इति ब्रवीमि ।। यह मरण प्राण-विमोह की साधना का आयतन, हितकर, सुनकर, कालोचित, कल्याणकारी और भविष्य में साथ देने वाला होता है। ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् १२८-१३०-स्पष्टम् । स्पष्ट है। अट्ठमो उद्देसो : आठवां उद्देशक १. आणुपुव्वी-विमोहाई, जाई धीरा समासज्ज । वसुमंतो मइमंतो, सव्वं जच्चा अणेलिसं ॥ सं०-आनुपूर्ध्या विमोहानि, यानि धीराः समासाद्य । वसुमन्त: मतिमन्तः, सर्व ज्ञात्वा अनीदृशम् । धीर, संयमी और ज्ञानी भिक्षु साधना के क्रम में प्राप्त होने वाले अनशन (आनुपूर्वी-विमोक्ष या अव्याघात मरण) का उपयुक्त समय समझते हैं, तब वे बाल-मरण से भिन्न तीनों-भक्त-प्रत्याख्यान, इंगिनीमरण और प्रायोपगमन अनशनों के विधान का ज्ञान करते हैं। भाष्यम् १---आनुपूर्वी ---अनुक्रमः । ते भिक्षवः प्रव्रज्यां आनुपूर्वी का अर्थ है-अनुक्रम । वे भिक्षु प्रव्रज्या को ग्रहण गृह्णन्ति, शिक्षामाददते, सूत्रार्थयोर्ग्रहणं कुर्वन्ति, अध्यापनं करते हैं, शिक्षा को प्राप्त करते हैं, सूत्र और अर्थ का ग्रहण करते हैं जनपदविहारं च विदधते । ततश्च जातायां वयसः तथा अध्यापन और जनपद-विहार में संलग्न रहते हैं। तत्पश्चात् शक्तेश्च हानौ विमोहानि'- मोहशून्यानि समाधि- अवस्था और शक्ति की क्षीणता होने पर वे मुनि मोहशून्य समाधि-मरण मरणानि स्वीकुर्वन्ति । एतद् अनीदृशं-बालमरणापेक्षया (तीन मरणों में से कोई एक) को स्वीकार करते हैं। वे अनीदृशअनन्यसदृशं सर्व समाधिमरणविधि ज्ञात्वा कुर्वन्ति। बाल-मरण की अपेक्षा से सर्वथा भिन्न संपूर्ण समाधिमरण की विधि को समाधिमरणं त एव स्वीकुर्वन्ति ये सन्ति धीराः वसुमन्तः जानकर उसे स्वीकार करते हैं। समाधिमरण को वे ही मुनि स्वीकार मतिमन्तश्च । अनेन धृतिः संयमः ज्ञानं च एतानि त्रीणि करते हैं जो धीर हैं, संयमी हैं और ज्ञानी हैं । इससे धृति, संयम समाधिमरणस्य अर्हतायाः अनुमापनानि सूचितानि और ज्ञान-ये तीनों समाधिमरण की अर्हता के मानक सूचित होते भवन्ति । १. आचारांग चूणि पृष्ठ २८७ : विमोक्खंतेति विमोहा, जं है। चौथे उद्देशक में विहायोमरण का विधान है। वह मणियं - मरणाणि। आपवाविक है। २. वही, पृष्ठ २८७ : संजमो उसी जत्थ अत्थि जत्थ वा ___ अनशन दो प्रकार का होता है सपराक्रम और विज्जति सो उसिम, भणियं च–'संजमे वसता तु वसुर्वसी अपराक्रम । जंधा-बल होने पर किया जाने वाला अनशन वा, येनेन्द्रियाणी तस्य वशे, वसु च धनं ज्ञानाचं, सपराक्रम और जंधा-बल के क्षीण होने पर किया जाने तस्यास्तित्वान्मुनिर्वसुमां बुसिमं च युसिमंतो।' वाला अनशन अपराक्रम होता है। ३. समाधि-मरण के लिए किया जाने वाला अनशन तीन प्रकारान्तर से अनशन दो प्रकार का होता है- व्याघातप्रकार का होता है-१. भक्त-प्रत्याख्यान, २. इंगिनी युक्त और अव्याघात । पूर्व उद्देशकों में व्याघात-युक्त (इंगित) मरण (इत्वरिक अनशन), ३. प्रायोपगमन । अनशन का विधान है। प्रस्तुत उद्देशक में अव्याघात पांचवें उद्देशक में भक्त-प्रत्याख्यान, छ8 में इंगिनी अनशन की विधि प्रतिपादित की गई है। अव्याघात अनशन मरण और सातवें में प्रायोपगमन का विधान किया गया आकस्मिक नहीं होता। वह क्रम-प्राप्त होता है । इसलिए Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ आचारांगभाष्यम् २. दुविहं पि विदित्ताणं, बुद्धा धम्मस्स पारगा। अणुपुवीए संखाए, आरंभाओ तिउति ॥ सं०-द्विविधमपि विदित्वा, बुद्धाः धर्मस्य पारगाः । आनुपूर्दा संख्याय, आरम्भात् त्रुट्यन्ति । वे धर्म के पारगामी प्रबुद्ध भिक्षु दोनों-बाह्य वस्तुओं तथा आन्तरिक प्रन्थियों की हेयता का अनुभव करते हैं। प्रव्रज्या आदि के क्रम से चल रहे साधक-शरीर को छोड़ने के लाभ का विवेक कर वे प्रवृत्ति से निवृत्त हो जाते हैं। भाष्यम् २–ते धर्मस्य पारगामिनो बुद्धाः द्विविधमपि- वे धर्म के पारगामी प्रबुद्ध भिक्षु दोनों-बाह्य बन्धन के बाह्य शरीरोपकरणादिवस्तुजातं बन्धनहेतुकं आभ्यन्तरं हेतुभूत शरीर, उपकरण आदि वस्तु-समूह तथा आन्तरिक बंधनकारक च रागादिबन्धनकारक-विदित्वा तस्य हेयतामनु- राग आदि को जानकर उसकी हेयता का अनुभव करते हैं। वे अतीत भवन्ति । ते अतीतस्यावलोकनं कुर्वन्ति, संयमस्वीकरण- का अवलोकन करते हैं। प्रव्रज्या ग्रहण करने के दिन से वर्तमान दिवसादारभ्य वर्तमानक्षणपर्यन्तं सर्व समीक्षन्ते-कि क्षण-पर्यन्त वे सारी समीक्षा करते हैं। वे सोचते हैं- क्या मेरे मम जीवतः अधिको लाभो भविष्यति अथवा शरीर- जीवित रहने से अधिक लाभ होगा अथवा शरीर को छोड़ देने से ? विमोक्षं कुर्वाणस्य इति पर्यालोचमानाः शरीरविमोक्षस्य इस प्रकार पर्यालोचन करते हुए वे शरीर-विमोक्ष में अधिक लाभ का गुणाधिक्यं जानन्ति, पुन: पर्यालोचन्ते-अहं कस्य अनुभव करते हैं। फिर वे सोचते हैं-मैं किस समाधि-मरण को समाधिमरणस्य योग्य:-भक्तप्रत्याख्यानस्य इंगिनी- स्वीकार करने के योग्य हूं- भक्तप्रत्याख्यान के अथवा इंगिनीमरण के मरणस्य प्रायोपगमनस्य वा? एतत् सर्वं संख्याय-सर्व अथवा प्रायोपगमन के ? यह सारा निश्चय कर वे आरंभ की अल्पता विनिश्चित्य ते आरम्भात् त्रुट्यन्ति-आरम्भं अल्पतां करते हैं। यहां आरंभपद प्रवृत्ति का वाचक है । शरीर-धारण के लिए नयन्ति । अत्र आरम्भपदं प्रवृत्तिवाचकमस्ति । शरीर- भक्त-पान आदि का अन्वेषण करना आरंभ है। अथवा वैयापृत्य, धारणार्थ भक्तपानादीनामन्वेषणमारम्भः। अथवा स्वाध्याय आदि करना आरंभ है। वैयापत्यस्वाध्यायादिकरणं आरम्भः । ३. कसाए पयणुए किच्चा, अप्पाहारो तितिक्खए । अह भिक्खू गिलाएज्जा, आहारस्सेव अंतियं ।। सं०-कषायान प्रतनून् कृत्वा, अल्पाहारः तितिक्षते । अथ भिक्षुः ग्लादेत्, आहारस्यैव अन्तिके । वह कषाय को कृश तथा आहार को अल्प कर अल्पाहार के कारण होने वाले कष्टों को सहन करता है, आहार की अल्पता करते-करते वह मरणासन्न काल में ग्लान हो जाता है। भाष्यम् ३–अस्मिन् कषायस्य प्रतनकरणं तथा इस गाथा में कषाय का कृशीकरण और आहार का अल्पीआहारस्य अल्पीकरणं द्विविधमपि तपोऽस्ति उपदिष्टम् । करण-ये दोनों प्रकार के तप उदिष्ट हैं। कषाय को कृश किए कषायं प्रतनुमकृत्वा केवलं आहारस्य अल्पीकरणं न बिना केवल आहार का अल्पीकरण साध्य के निकट नहीं ले जाता। साध्यमुपगच्छति । तेन कषायप्रतनुकरणात्मक अंतरंगं इसलिए कषाय का कृशीकरणरूप अंतरंग तप तथा आहार का अल्पीतपः तथा आहारस्य अल्पीकरणात्मकं बाह्य तपः इति करणरूप बाह्य तप - यह द्विविध तप अर्हतों द्वारा सम्मत है । द्विविधं तपः सम्मतमस्ति अर्हताम् । अथ स भिक्षुः आहारस्य अल्पत्वं कुर्वाणः अन्तिके'- वह भिक्षु आहार की अल्पता करता हुआ मृत्यु के आसन्नकाल मरणासन्नकाले ग्लायति ।। में ग्लान हो जाता है। उसे आनुपूर्वी भी कहा जाता है (नियुक्ति गाथा, २६३)। संलिहित्ता, जं भणितं-आसन्नमरणकालो।। दीक्षा लेना, सूत्र का अध्ययन करना, अर्थ का अध्ययन (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २६३ : आहारस्यैवान्तिक---- करना, सूत्र और अर्थ में स्वयं कुशलता प्राप्त कर योग्य पर्यवसानं व्रजेदिति, चत्वारि विकृष्टानीत्यादि शिष्यों को सूत्रार्थ का ज्ञान कराना, फिर गुरु से अनुज्ञा संलेखनाक्रमं विहायाशनं विदध्यादित्यर्थः, यदि वा प्राप्त कर संलेखना करना, फिर तीन प्रकार के अनशनों में ग्लानतामुपगतः सन्नाहारस्यान्तिक-समीपं न व्रजेत्, से किसी एक अनशन का चुनाव कर, आहार, उपधि और तथाहि-आहारयामि तावत्कतिचिद्दिनानि पुनः शय्या- इस त्रिविधि नित्य-परिभोग से मुक्त होकर अनशन संलेखनाशेषं विधास्येऽहमित्येवं नाहारान्तिकमियाकरना यह 'आनुपूर्वी अनशन' है। दिति। १. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २८८ : अंतियं अम्भासे अतीव २.देखें-आयारो ८।१०५ का टिप्पण । Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०८. विमोक्ष, उ०८. गाथा २-६ ३९७ ४. जीवियं णामिकखेज्जा, मरणं णोवि पत्थए । वहतोवि ण सज्जेज्जा, जीविते मरणे तहा॥ सं०-जीवितं नाभिकांक्षेत्, मरणं नोऽपि प्रार्थयेत् । द्वयोरपि न सजेत्, जीविते मरणे तथा। वह ग्लान अवस्था में जीवन की आकांक्षा न करे, मरण की इच्छा न करे । वह जीवन और मरण-बोनों में भी आसक्त न बने। भाष्यम् ४-स्पष्टमेव । स्पष्ट है। ५. मज्झत्थो णिज्जरापेही, समाहिमणपालए। अंतो बहिं विउसिज्ज, अज्झत्थं सुद्धमेसए ।। सं०-मध्यस्थः निर्जराप्रेक्षी, समाधिमनुपालयेत् । अन्तो बहिः व्युत्सृज्य, अध्यात्म शुद्धमेषयेत् । वह मध्यस्थ और निर्जरादर्शी भिक्षु समाधि का अनुपालन करे । राग-द्वेष आदि आन्तरिक और शरीर आदि बाह्य वस्तुओं का विसर्जन कर शुद्ध अध्यात्म की एषणा करे। भाष्यम् ५-अनशनकाले भिक्षुः अनुकूलप्रतिकूल- अनशनकाल में भिक्षु अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति में परिस्थिती मध्यस्थ: स्यात् । स न सुखदुःखादिकं पश्येत् । मध्यस्थ रहे । वह सुख-दुःख आदि को न देखे। वह निर्जरा का ही स निर्जरामेव अनुध्यायेत् । निर्जराप्रेक्षिणः समाधिः अनुध्यान करे, उस पर ही एकाग्र रहे। जो निर्जराप्रेक्षी होता है, उसके अनुपालितो भवति । यदा आन्तरिकः बाह्यश्च व्युत्सर्गो समाधि अनुपालित होती है। जब आंतरिक और बाह्य व्युत्सर्ग जायते तदा विशुद्धस्य अध्यात्ममेषणा भवति ।' होता है तब विशुद्ध अध्यात्म की एषणा होती है। ६. जं किंचुवक्कम जाणे, आउक्खेमस्स अप्पणो । तस्सेव अंतरद्धाए, खिप्पं सिक्खेज्ज पंडिए॥ सं०-यं कञ्चिदुपक्रम जानीत, आयुःक्षेमस्यात्मनः । तस्यैवान्तराध्वनि, क्षिप्रं शिक्षेत पण्डितः ।। अबाध रूप से चल रहे अपने संलेखनाकालीन जीवन में आकस्मिक बाधा जान पड़े, तो उस संलेखना-काल के मध्य में ही पण्डित भिक्षु शीघ्र आहार का प्रत्याख्यान करे। भाष्यम् ६–आयुषः क्षेमं सम्यक् पालनम् । उपक्रमः'- आयुष्य का क्षेम अर्थात् उसका सम्यग् पालन, अबाध पालन । आयुष्यविघातकं वस्तु । स पण्डितो भिक्षुः आत्मनः उपक्रम का अर्थ है-आयुष्य का विघात करने वाली वस्तु । वह पंडित आयुःक्षेमस्य उपक्रम जानीयात्, तदानीं संलेखनाया भिक्षु अपने आयुःक्षेम के उपक्रम को जान ले तो संलेखना के मध्यकाल अन्तःकाले एव क्षिप्रं शिक्षेत । अत्र शिक्षापदानुगता में ही शीघ्र शिक्षा प्राप्त करे आहार का प्रत्याख्यान करे। 'शिक्षा' १. अनशनकाल में भिक्षु को जीवन, सुख आदि अनुकूल भीतर की गहराई में झांकता है, उसे शुद्ध अध्यात्मपरिणामों और मृत्यु, दुःख आदि प्रतिकूल परिणामों में सम आत्मा के निरावरण चैतन्यरूप का दर्शन होता है। रहना चाहिए। सूत्रकार ने 'मध्यस्थ' शब्द के द्वारा इसका २. आचारांग वृत्ति, पत्र २६४ : उपक्रमणमुपक्रम-उपायस्तं निर्देश दिया है। यं कञ्चन जानीत, कस्योपक्रमः ? --'आयुःक्षेमस्य' समभाव का आलम्बन है-निर्जरा। अनशन करने आयुषः क्षेम-सम्यक्पालनं तस्य, कस्य सम्बन्धि तदायुः ? वाले भिक्षु की दृष्टि इस बात पर लगी रहती है कि उसके आत्मनः, एतदुक्तं भवति-आत्मायुषो यं क्षेमप्रतिपालनोअधिक से अधिक निर्जरा -कर्मक्षय हो। जो निर्जरादर्शी पायं जानीत तं क्षिप्रमेव शिक्षेत्-व्यापारयेत् पण्डितोनहीं होता, वह मध्यस्थ भी नहीं रह सकता। बुद्धिमान्, 'तस्यैव' संलेखनाकालस्य 'अन्तरद्धाए' त्ति अन्तर___ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य-ये पांच 'समाधि' . काले संलिखित एव देहे देही यदि कश्चित् वातादिक्षोभात् के अंग हैं। अनशन करने वाले को इस पंचांग-समाधि का आतङ्क आशुजीवितापहारी स्यात् ततः समाधिमरणभिअनुभव करना चाहिए। काङ्क्षन् तदुपशमोपायमेषणीयविधिनाऽभ्यङ्गादिकं विदध्यात् अध्यात्म की एषणा का पहला चरण है-शरीर की पुनरपि संलिखेत्, यदिवाऽऽत्मनः आयुःक्षेमस्य-जीवितस्य प्रवृत्ति का और उसके ममत्व का विसर्जन । इस विसर्जन यत्किमप्युपक्रमणं -- आयुःपुद्गलानां संवर्तनं समुपस्थितं के बाद साधक भीतर की ओर झांकता है तो भीतर में तज्जानीत, ततस्तस्यैव संलेखनाकालस्य मध्येऽव्याकुलितराग-द्वेष की प्रन्थियां मिलती हैं। वहां शुद्ध अध्यात्म दीख मतिः क्षिप्रमेव भक्तपरिज्ञादिकं शिक्षेत-आसेवेत नहीं पड़ता। जो साधक उन ग्रन्थियों को खोलकर फिर पण्डितो-बुद्धिमानिति ।' Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ चूर्णिपरम्परा - 'सिक्खा णाम आसेवणा, जं तवमिति जं तेण अवसितं तदेव सिक्खिज्ज, तक्खणादेव अलोइयपडिक्कंतो बमा अरोविता मतं पवेज्जा ।" ७. गामे वा अदुवा रणे, थंडिलं पडिलेहिया । अव्यपाणं तु विष्णाय तणाई संवरे मुणी ॥ सं० ग्रामे वा अथवा भरव्ये स्थण्डिलं प्रतिलिख्य अस्पप्राणं तु विज्ञाय तृणानि संस्तरेत् मुनिः । 1 1 ग्राम में अथवा अरण्य में जीव-जन्तु रहित स्थण्डिल - स्थान को देखकर मुनि घास का बिछौना करे । भाष्यम् ७ - इदानीं भक्तप्रत्याख्यानस्य विधि: निर्दिश्यते । तत्र प्रथमं स्थानविशुद्धि: - ग्रामः, अरण्यं, उद्यानं, गिरिगुहादयो वा । स भक्तप्रत्याख्यानस्थाने प्रातिचरिक भिक्षुभिः सह व्रजति आशुकारितायां एकाकी चापि स्थण्डिलप्रतिलेखनाविषये एषा पूर्णि। परम्परा ' जत्थ य भत्तं पच्चक्खाति जत्थवि थंडिले सरीरगं परिविज्जिरसति तं पि जति गीयत्था सेहा व ताहे तंपि सयमेव पडिलेहेति, एरिसे पंडिले मते परिविज्जाह पारिट्टा या विहिं च लेखि कहेति । " - भाष्यम् ८ - स्पृष्ट:- त्रिविधे आहारे प्रत्याख्याते क्षुधया स्पृष्टः, चतुविधे वा प्रत्याख्याते पिपासयापि स्पृष्ट: । अतिवेलम् – मर्यादाया अतिक्रमणम् । * मनुष्ये विद्यते अपरिमिता शक्तिः । जागरणावस्थायां मनुष्यः सर्वमधिसोढुं शक्नोति वारं वारं सहनशक्तेः विकासस्य निर्देशः क्रियते । आचारांगभाष्यम् पदानुगत चूर्णि की परम्परा यह है— शिक्षा का यहां अर्थ है-— सेवन शिक्षा । जिस तप का उसने अध्यवसाय किया है, उसी का आसेवन करे । उसी क्षण आलोचना और प्रतिक्रमण कर व्रतों का पुनः आरोपण कर आहार का प्रत्याख्यान कर दे । ८. अणाहारो तुअट्टेज्जा, पुट्ठो तत्थहियासए । णातिवेलं उवचरे, माणुस्सेहि वि पुट्ठओ ॥ सं०-- अनाहारः त्वक्वर्तेत स्पृष्टः तत्र अधिसहेत । नातिवेलमुपचरेत्, मानुषैरपि स्पृष्टकः । वह आहार का प्रत्याख्यान कर शान्त भाव से लेट जाए। उस स्थिति में भूख, प्यास या अन्य परीषहों से स्पृष्ट होने पर उन्हें सहन करे । मनुष्य-कृत अनुकूल-प्रतिकूल उपसर्गों से स्पृष्ट होने पर भी मर्यादा का अतिक्रमण न करे । तस्याः इति , १. आचारांग चूणि, पृष्ठ २८९ । २. वही, पृष्ठ २८९ । ३. वही, पृष्ठ २९० : पुट्ठो नाम दिगिछाते, तिविहे पच्चक्खाए, तिविहे विहे वा पञ्चखाया, विवासितो तत्बहियास , अब भक्तप्रत्याख्यान अनशन की विधि बताई जा रही है । सबसे पहले स्थान-विशुद्धि की जाती है। मुनि ग्राम, अरण्य, उद्यान, गिरिगुफा आदि स्थान का चुनाव करता है। वह भक्तप्रत्याख्यान अनशन करने के स्थान में प्रातिचरिक भिक्षुओं के साथ जाता है। जल्दी हो तो वह अकेला भी चला जाता है। स्थंडिल की प्रतिलेखना के विषय में पूर्णि की परम्परा यह है— मुनि जहां भक्तप्रत्याख्यान अनशन प्रारंभ करता है और जिस स्थंडिल में मृत शरीर का परिष्ठापन किया जाएगा, उस स्थान का प्रतिलेखन, यदि शिष्य अगीतार्थ हो तो स्वयं करे वह उनसे कहे मरने पर ऐसे स्थान में शव का परिष्ठापन करना। फिर वह उन्हें परिष्ठापन की विधि बताता है । स्पृष्ट का तात्पर्य है— तीनों आहार का प्रत्याख्यान करने पर भूख से स्पृष्ट तथा चारों आहार का प्रत्याख्यान करने पर पिपासा से स्पृष्ट | अतिवेलं का अर्थ है - मर्यादा का अतिक्रमण । भी ६. संसपा य जे पाणा, जे य उड्ढमहेचरा । भुंजंति मंस सोणियं, ण छणे ण पमज्जए ॥ सं०-- संसर्पकाः च ये प्राणाः, ये च ऊर्ध्वमधश्चराः । भुञ्जते मांसशोणितं, न क्षणुयात् न प्रमार्जयेत् । संपर्ण करने वाली चींटी आदि, आकाशचारी गीध आदि तथा बिलवासी सर्प आदि शरीर का मांस खाएं, मच्छर आदि रक्त पीएं, तब भी उनकी हिंसा न करे और रजोहरण से उनका प्रमार्जन (निवारण) न करे । माध्यम ९- स्पष्टमेव । स्पष्ट है । मनुष्य में अपरिमित शक्ति है। उसका जागरण होने पर मनुष्य सब कुछ सहन करने में समर्थ हो जाता है। इसलिए सहनशक्ति के विकास का बार-बार निर्देश किया जाता है । एवं अग्नेहिवि परीसहेहि पुट्टो अहियासए । ४. वही, पृष्ठ २९० वेत्ति वा सीमत्ति वा मेरत्ति वा एगट्ठा, दव्यवेला समुहस्त, भायवेला परिसपाली। Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ८. विमोक्ष, उ० ८. गाथा ७-११ १०. पाणा देहं विहिंसंति, ठाणाओ ण विउम्ममे आसवेहि विविलेहि तिष्यमाणेऽहिवासए । 1 [सं० प्राणाः देह विहिंसन्ति स्थानात् न व्युद्धमेत् । आधर्वः विविक्ते, तेपमानः अधिसत प्राणी मेरे शरीर का विघात कर रहे हैं, यह सोचकर भिक्षु अपने स्थान से विचलित न हो। नाना प्रकार के कष्टों या पीडाओं से पीडित होने पर वह उन्हें सहन करे । भाष्यम् १० एते प्राणिनः मम देहमेव विहिंसन्ति, न पुनः ज्ञानादीनां उपरोधं कुर्वन्ति इत्यालम्बनं कृत्वा स अविचल स्तिष्ठेत् । स्थानं द्विविधं द्रव्वस्थानं भावस्थानं च तत्र द्रव्यस्थानं आवासभूमिः, भावस्थानं भक्तपरिज्ञा । स स्थानयादपि विचलितो न भवति । आसवः पीडा, कष्टं छिद्रं वा । तिप्पमाणे – पीडघमानः पूर्णे वृत्तौ च । तृप्यमान इति व्याख्यातमस्ति ।* ११. धेहि विवि - भाव्यम् ११ प्रत्यो द्विविधः द्रव्यग्रन्थः शरीरवस्त्रादिः, भावग्रन्थः रागादिः । ग्रन्येषु विविक्तेषु त्यक्तेषु भिक्षुः आयुःकालस्य पारं प्राप्नोति, प्रतिज्ञा पारमपि च।' आज-कालस्स पारए सं० ग्रम्ये विविक्तै, आयुःकालस्य पारगः पग्वहियतरगं चेयं दवियस्स वियाणतो ॥ प्रगृहीततरकं चैतत् द्रव्यस्य विजानतः । ग्रन्थ (शरीर) की अंतिम अवस्था में वह आयुष्य काल का पार पा जाता है। यह इंगिनीमरण अनशन भक्त - प्रत्याख्यान की अपेक्षा उच्चतर है । इसे अतिशय ज्ञानी और संयमी भिक्षु ही स्वीकार करते हैं । भक्त इदानी इंगिनी मरणमुच्यते - एतद् प्रत्याख्यानापेक्षया प्रगृहीततरं प्रशस्यतरं दुःखतरं च विद्यते । द्रव्य :- उपशान्तरागद्वेषो भिक्षुः एतत् स्वीकरोति । स च विज्ञाता भवेत् नवपूर्वधरः ततः , १. आचारांग चूणि, पृष्ठ २९० २९१ : इत्थ इमं आलंबणं कार्य अहियासेयमा तेखि अंतराइयं भविस्वति एते तु पाणा मम देहमेव विहिति न पुन नाणादिवरोह करेति ह ? अण्णी जीवो अच्णं सरीरमितिका च-अन्नं इमं सरीरं अन्नोऽहं अम्ने संबंधिबंधवा पाणा देहं भक्वेंति मया णिसमिति एत्थ किं मम अवरज्झति ? भणियं जति २. () (पृष्ठ २९१) 'अपसव्य' इति पाठो विद्यते-'अवसहि विचितेहि अवसवंतौति अवसच्या विकसाया हिंसादयो य विचित्ता -मुत्ता, अहवा विरूवप्पिभावो, विचित्तहि अवसेहि अमिलितेहि । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २६५ आधवैः प्राणाति ३६६ ये प्राणी मेरे शरीर का ही विषात कर रहे हैं, किन्तु ज्ञान आदि का उपघात तो नहीं करते, यह आलंबन लेकर वह मुनि अविचल रहे । स्थान के दो प्रकार हैं- द्रव्यस्थान और भावस्थान । द्रव्यस्थान है— आवासभूमी तथा भावस्थान है—भक्तपरिज्ञा । वह दोनों प्रकार के स्थानों से विचलित नहीं होता। आव का अर्थ है पीड़ा, कष्ट अथवा छिद्र 'तिष्यमाय' का अर्थ है- पीड़ित होता - । हुआ। चूर्णि और वृत्ति में 'तिप्पमाण' की व्याख्या 'तृप्त होता हुआ' की है। ग्रन्थ दो प्रकार का होता है- द्रव्यग्रन्थ और भावग्रन्थ । द्रव्यपन्थ है- शरीर वस्त्र आदि । भावग्रन्थ है- राग आदि। प्रत्यों को छोड़ देने पर वह भिक्षु आयुष्य काल का पार पा लेता है तथा प्रतिज्ञा का पार भी पा लेता है । अब इंगिनीमरण अनशन के विषय में कहा जा रहा है - यह अनशन भक्तप्रत्याख्यान अनशन की अपेक्षा उच्चतर प्रशस्यतर और कष्टतर होता है । द्रव्य अर्थात् राग-द्वेष को उपशान्त करने वाला भिक्षु इसे स्वीकार करता है। वह विज्ञाता हो अर्थात् नौ पूर्वो का ज्ञाता पाताविनिविषयकथावादिभिर्वा ३. आप्टे, आस्रवः - Pain, distress. ४. (क) आचारांग चूर्णि पृष्ठ २९१ : तिप्पमाण इति अमएव सिच्यमाणो बृहत्पिवासिएहि परीसहउसमे मिलाया छिन्नमाणे या देहिति तो बसे पवि कायावायामहि तिहि तप्यति । " (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २६५ तं भक्ष्यमाणोऽप्यमृतादिना तृप्यमाण इव सम्यक् तत्कृतां वेदनां तैस्तप्यमानो वा । ५. विस्तार के लिए देखें उत्तरज्मयणाणि ३०।१२-१३ के टिप्पण | Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० आचारांगभाष्यम् अतिशयज्ञानी वा।' अथवा उससे भी अधिक अतिशय ज्ञानी हो। भक्तप्रत्याख्याने यत् संलेखनातणसंस्तारादिक भक्तप्रत्याख्यान अनशन में जो संलेखना, तृण-संस्तारक आदि अभिहितं तत् सर्वमिहापि अवसेयम् । विधि का कथन है, वह इस अनशन में भी जान लेना चाहिए । १२. अयं से अवरे धम्मे, णायपुत्तेण साहिए । आयवज्ज पडीयार, विजहिज्जा तिहा तिहा। सं०-अयं तस्याऽपरः धर्मः, ज्ञातपुत्रेण कथितः' । आत्मवर्ज प्रतिचारं, विजह्मात् त्रिधा त्रिधा। भगवान महावीर ने इंगिनीमरण अनशन का आचार-धर्म भक्त-प्रत्याख्यान से भिन्न प्रतिपादित किया है। इस अनशन में भिक्षु अपने काय-व्यापार के लिए स्वयं के अतिरिक्त मनसा, वाचा, कर्मणा दूसरे का सहारा न ले, न लिवाए और न लेने वाले का अनुमोदन करे। भाष्यम् १२–'से' इति तस्य इंगिनीमरणस्य अपरः ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर ने उस इंगिनीमरण अनशन का धर्मः ज्ञातपुत्रेण साधितः कथितः । अस्मिन्निङ्गिनीमरणे आचार-धर्म भक्तप्रत्याख्यान से भिन्न प्रतिपादित किया है । इस इंगिनीचतुविधाहारः प्रत्याख्यातो भवति । अस्य अनशनस्य मरण अनशन में चारों प्रकार के आहार का प्रत्याख्यान होता है। इस प्रतिपत्ता आत्मवर्ज प्रतिचारं-कायव्यापार विधा- अनशन को स्वीकार करने वाला मुनि स्वयं प्रतिचार-उठना, बैठना मनसा वाचा कर्मणा विजहाति । स च आकुञ्चनं, या चंक्रमण करना-करता है, किन्तु मन, वचन और काया से दूसरे के प्रसारणं, नियते स्थाने गमनागमनं स्वयमेव करोति, न सहयोग का त्याग करता है। वह आकुंचन, प्रसारण या सीमित च कस्यापि प्रतिचारकस्य साहाय्यमभिलषति । स्थान में गमन-आगमन स्वयं ही करता है, दूसरे किसी भी प्रतिचारक के सहयोग की अभिलाषा नहीं करता। १३. हरिएसु ण णिवज्जेज्जा, थंडिलं मुणिआ सए । विउसिज्ज अणाहारो, पुट्टो तत्थहियासए । सं०- हरितेषु न निपद्येत, स्थण्डिलं ज्ञात्वा शयीत । व्युत्सृज्य अनाहारः, स्पृष्टः तत्राधिसहेत । वह हरियाली पर न सोए । स्थण्डिल-जीव-जन्तु-रहित स्थान को देखकर वहां सोए। वह अनाहार भिक्षु शरीर आदि का विसर्जन कर, भूख प्यास या अन्य परीषहों से स्पृष्ट होने पर उन्हें सहन करे। १४. इंदिएहि गिलायंते, समियं साहरे मुणी। तहावि से अगरिहे, अचले जे समाहिए। सं०-इन्द्रियः ग्लायन्, समितं संहरेत् मुनिः । तथापि स अगहः, अचलो यः समाहितः । इन्द्रियों से ग्लान (श्रान्त) होने पर वह मुनि मात्रा-सहित हाथ-पैर आदि का संकोच-परिवर्तन करे। जो अचल और समाहित होता है, वह ऐसा करता हुआ धर्म का अतिक्रमण नहीं करता। भाष्यम् १३-१४-स्पष्टमेव ।। स्पष्ट है। १५. अभिकम्मे पडिक्कमे, संकुचए पसारए । काय-साहारणट्टाए, एत्थं वावि अचेयणे । सं०-अभिक्रामेत् प्रतिक्रामेत् , संकोचयेत् प्रसारयेत् । कायसंधारणार्थ, अत्र वापि अचेतनः । वह बैठा या लेटा हुआ श्रान्त हो जाए तब शरीर-संधारण के लिए गमन और आगमन करे, हाथ, पैर आदि को सिकोड़े और फैलाए। यदि शक्ति हो तो इस अनशन में भी अचेतन की भांति निश्चेष्ट लेटा रहे। भाष्यम् १५-अचेतनः --क्रियारहितः । . अचेतन का अर्थ है-क्रियारहित । १. चूणा (पृष्ठ २९१) 'सुयाहितो' इति पाठो व्याख्यातोऽस्ति'दवियस्स वियाणओं' रागदोसरहियस्स दवियस्स सुठ आवितो वा आहिते सुवाहितो। वृत्तौ (पत्र २६५) 'वियाणओ' इति पाठो व्याख्यातोस्ति'विजानतो' गीतार्थस्य, जघन्यतोऽपि नवपूर्वविशारदस्य __ भवति, नान्यस्येति । २. हेमचन्द्र, प्राकृत व्याकरण, ४०२ : कथेवज्जर-पज्जरोप्पाल• पिसुण-संघ-बोल्ल-चव-जम्प-सीस-साहाः। .३. आचारांग चूणि, पृष्ठ २९२ : 'एत्थं वावि अचेयणेत्ति' ' इत्यं इंगिणीमरणे वा विमासा पाओवगमणेसु कटुमिव Jain Education international Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०८. विमोक्ष, उ०८. गाथा १२-२० १६. परक्कमे परिकिलंते, अदुवा चिट्टे अहायते । ठाणेण परिकिलंते, णिसिएज्जा य अंतसो॥ सं०-पराक्रमेत परिक्लाम्यन्, अथवा तिष्ठेत् यथायतः । स्थानेन परिक्लाम्यन्, निषीदेत् च अन्तशः । वह लेटा-लेटा श्रान्त हो जाए, तो चंक्रमण करे अथवा सीधा खड़ा हो जाए। खड़ा-खड़ा श्रान्त हो जाए, तो अन्त में बैठ जाए। भाष्यम् १६ –'णिसिएज्जा' अत्र निषद्याविषये चूणि- निषीदेत् अर्थात् बैठ जाए। यहां निषद्या के विषय में चूणि परम्परा-णिसनोवि जया पलियंकेण वा अद्धपलियंकेण वा की परम्परा यह है -पर्यकासन, अर्द्धपयंकासन, उकडूआसन में बैठा उक्कुडयासणो वा परितंमति णिविज्जति, उत्ताणतो वा हुआ मुनि जब थक जाए तब उत्तानासन अथवा पार्श्वशयन अथवा पासिल्लितो वा उड्ढायतो वा लगंडसायी वा जहासमाहीते ऊर्ध्व-आयत अथवा लगंडशयन-जैसे समाधि उपजे वैसे आसन का सम्वत्थवि ।' सर्वत्र प्रयोग करे। १७. आसीणे णेलिसं मरणं, इंदियाणि समीरए । कोलावासं समासज्ज, वितहं पाउरेसए। सं०-आसीनः अनीदृशं मरणं, इन्द्रियाणि समीरयेत् । कोलावासं समासाद्य , वितथं प्रादुरेषयेत् । इस असाधारण मरण की उपासना करता हुआ वह इंद्रियों का सम्यग् प्रयोग करे-इष्ट और अनिष्ट विषयों में राग-द्वेष न करे। घुन और दीमक वाले काष्ठ-स्तंभ का सहारा न ले । घुन आदि से रहित और निश्छिद्र काष्ठ स्तंभ की एषणा करे । १८. जओ वज्जं समुप्पज्जे, ण तत्य अवलंबए । ततो उक्कसे अप्पाणं, सब्वे फासेहियासए ॥ सं० ---यतो वयं समुत्पद्येत, न तत्र अवलम्बेत । ततः उत्कृषेद् आत्मानं, सर्वान् स्पर्शान् अधिसहेत । जिसका सहारा लेने से वयं (कर्म) उत्पन्न हो, उसका सहारा न ले। उससे अपने-आपको दूर रखे। सब स्पर्शों को सहन करे। भाष्यम् १७,१८ - स्पष्टमेव । स्पष्ट है। १६. अयं चायततरे सिया, जो एवं अणपालए। सव्वगायणिरोधेवि, ठाणातो ण विउब्भमे ॥ सं०-अयं च आयततरः स्यात्, यः एवं अनुपालयेत् । सर्वगात्रनिरोधेऽपि स्थानात् न व्युभ्रूमेत् । यह प्रायोपगमन अनशन की मरणविधि इंगिनीमरण से महत्तर है । जो उक्त विधि से इसका अनुपालन करता है, वह समूचे शरीर के अकड जाने पर भी अपने स्थान से चलित न हो। भाष्यम् १९-इदमनशनं इङ्गिनीमरणापेक्षया यह प्रायोपगमन अनशन इंगिनीमरण अनशन की अपेक्षा महत्तर आयततरं-महत्तरं विद्यते। ततोऽस्मिन् स्थानात् विचलनं है। इसलिए प्रायोपगमन अनशन में स्थान से विचलन का प्रतिषेध प्रतिषिद्धमस्ति। निश्चेष्टं शयानस्य सकलशरीरस्य किया गया है। निश्चेष्ट अवस्था में सोने पर संपूर्ण शरीर में अकडन निरोधो जायते इति स्वाभाविकं, तथापि प्रायोपगमन- आ जाती है, यह स्वाभाविक है। फिर भी प्रायोपगमन अनशन को मनशनं स्वीकुर्वाणस्य दृढतरं मनोबलं भवति, प्रबला च स्वीकार करने वाले भिक्षु का मनोबल दृढ़तर होता है और उसकी सहनशक्तिः । तेन स परिपूर्ण कायोत्सर्ममनुपालयितुं सहनशक्ति प्रबल होती है। इसलिए वह परिपूर्ण कायोत्सर्ग का शक्नोति । ___ अनुपालन करने में समर्थ हो जाता है। २०. अयं से उत्तमे धम्मे, पुव्वाणस्स पग्गहे । अचिरं पडिलेहित्ता, विहरे चिट्र माहणे ।। सं०-अयं स उत्तमो धर्मः, पूर्वस्थानस्य प्रग्रहः । अचिरं प्रतिलिख्य, विहरेत तिष्ठेत् माहनः । यह मरणविधि उत्तम धर्म है। इसमें पूर्व स्थान-इंगिनीमरण के आचार से विशिष्ट आचार होता है । प्रायोपगमन अनशन स्वीकार करने वाला भिक्षु जीव-जन्तु-रहित स्थान को देखकर वहां निश्चेष्ट होकर रहे। भाष्यम २०-इदं प्रायोपगमनं उत्तमो धर्म:-प्रधानो यह प्रायोपगमन अनशन उत्तम धर्म अर्थात् प्रधान मरणविधि मरणविधिः विद्यते। अस्मिन् पूर्वस्थानस्य-इंगिनी- है। इसमें इंगिनीमरण अनशन के आचार से विशिष्ट आचार है । जैसे अचेयणा सर्वक्रियारहिते चिट्ठति एवं एथवि इंगिनीमरणे रहितो चिट्ठति, अचेयणेण तुल्लो अचेयणवत् । जति से सामत्थं अस्थि तो अचेयणो, अचेयणोव्व किरिया- १. आचारांग चूणि, पृष्ठ २९३ । Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ आचारांगभाष्यम् मरणस्य आचारात प्रग्रहः--विशिष्ट: आचारो विद्यते। इंगिनीमरण अनशन को स्वीकार करनेवाला नियत स्थान में गमनयथा इंगिनीमरणाख्यस्य अनशनस्य स्वीकर्ता नियतप्रदेशे आगमन करता है तथा स्वयं परिकर्म-शुश्रूषा भी करता है। जो गमनागमनं करोति, स्वयं परिकर्म--शुश्रूषामपि करोति। प्रायोपगमन अनशन स्वीकार करता है वह जिस आसन में अनशन यः प्रायोपगमनमनशनं स्वीकरोति स यस्मिन् आसने ग्रहण करता है, उसी आसन में निश्चल रहता है और स्वयं भी अनशनं प्रतिपद्यते तस्मिन्नेव निश्चलो भवति, स्वयमपि परिकर्म नहीं करता। परिकर्म न विधत्ते। स माहनो भिक्षुः अचिरं'-समुचितं स्थानं प्रति- वह अहिंसक भिक्षु अचिर-समुचित स्थान का प्रतिलेखन कर लिख्य तत्र विहरेत्, तिष्ठेत् । विहरण करे, वहां रहे । २१. अचित्तं तु समासज्ज, ठावए तत्थ अप्पगं । वोसिरे सव्वसो कायं, ण मे देहे परीसहा ।। सं०- अचित्तं तु समासाद्य , स्थापयेत् तत्र आत्मकम् । व्युत्सृजेत् सर्वश: कायं, न मे देहे परीषहाः । अचित्त फलक स्तम्भ आदि को प्राप्त कर, वहां अपने आपको स्थापित करे । शरीर को सब प्रकार से विसजित कर दे। परीषह उत्पन्न होने पर, वह यह भावना करे--'यह शरीर ही मेरा नहीं है, तब मुझे परीषह कहां होगा ?' भाष्यम् २१-स प्रायोपगमनकारी भिक्षुः किञ्चिद् वह प्रायोपगमन अनशन स्वीकार करने वाला भिक्षु किसी अचेतनं अवस्तम्भनं-भित्ति काष्ठं स्थण्डिलं वा आसाद्य निर्जीव अवष्टंभन-भित्ति, काष्ठ अथवा स्थान को पाकर वहां अपने तत्र आत्मानं स्थापयेत, सर्वश: कायं व्युत्सृजेत्-न आपको स्थापित करे । शरीर को सब प्रकार से विसर्जित कर दे, कुछ काञ्चिदपि कायिकी प्रवृत्ति कुर्यात् । एवं प्रायोपगमनं भी शारीरिक प्रवृत्ति न करे। इस प्रकार प्रायोपगमन अनशन स्वीकृत प्रतिपन्नं भवति । होता है। स प्रायोपगमनं प्रतिपद्य अन्यत्वानप्रेक्षामालम्बेत, तेन वह मुनि प्रायोपगमन अनशन को स्वीकार कर अन्यत्वानुप्रेक्षा परीषहाः सोढुं शक्या भवन्ति । प्रायोपगमनं तिसष्वपि का आलंबन ले । उससे परिषहों को सहना शक्य हो जाता है। मुद्रासू प्रतिपन्नं भवति-निपण्णकायोत्सर्गे निषण्ण- प्रायोपगमन अनशन तीनों मुद्राओं-अवस्थाओं में स्वीकार किया जा कायोत्सर्गे ऊर्ध्वकायोत्सर्गे च । एतास तिसष्वपि शरीरस्य सकता है-निपन्न-सोए कायोत्सर्ग में, निषण्ण-बैठे कायोत्सर्ग में चिरकालं एकस्मिन्नेव कायोत्सर्गमद्राविशेषे स्थितस्य और ऊर्ध्व-खड़े कायोत्सर्ग में । इन तीनों मुद्राओं में शरीर को लम्बे सन्तापो जायते । तदानीं 'नायं देहो मम, कतः परीषहाः' समय तक एक ही कायोत्सर्ग की मुद्रा-विशेष में स्थिर रखने के कारण अथवा 'अहं सुखदुःखसमत्वावस्थायां विहरन्नस्मि, तेन सन्ताप होता है। तब 'यह शरीर मेरा नहीं है तो परीषह कहां न मे देहे परीषहा विद्यन्ते' इति आलम्ब्य स समागतान होंगे ?' अथवा 'मैं सुख-दुःख को समान मानता हुआ समत्व में परीषहान् सम्यक् सहते। विहरण कर रहा हूं, इसलिए मेरे शरीर में परीषह (उपद्रव) नहीं है।' इस आलंबन-सूत्र से वह अनशनकारी भिक्षु आने वाले परीषहों को सम्यक् रूप से सहन करता है। १. (क) चूर्णी (पृष्ठ २९४) 'अचिरं' स्थानार्थे कालार्थे च व्याख्यातमस्ति-अचिरं णाय ठाणं, अहवा अचिरं कालं । (ख) वृत्तौ (पत्र २६७) स्थानार्थे एव–'अचिर' स्थानम् । यदि एतत् पदमिह स्थानार्थे स्वीक्रियेत तदा 'अइर' (अजिरं) इति पाठस्य सहजं संभावना जायते। २. आगमानां व्याख्यासाहित्ये 'पाओवगमण' पदं प्रायः पादपोपगमनरूपेण व्याख्यातमस्ति । तत्प्रतिरूपशब्ददृष्टया नास्ति एतत् समीचीनं, किन्तु भावार्थरूपे एतद् वरेण्यता माश्लिष्यति, यथा च चूणिः- 'एयस्स पादवेण उवमा कोरति पाओवगमणं, जहा पायवो अच्छिन्नोवि ण चलति, कि छिन्नपातो? सो डरमाणे वा छिण्णमाणे वा विसमपडितो वा मित्तिकाढ ण ततो ठाणाओ चलति, अण्णहा ठाणं ण करेइ, एवं एसोऽवि पातववत् पडितो निच्चलो निप्पंदो चिट्ठति ।' (आचारांग चूणि, पृष्ठ २९४) Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ८. विमोक्ष, उ० ८. गाथा २१-२३ २२. जावज्जीवं परीसहा, उवसग्गा य संखाय । संबुडे देहभेयाए, इति पण्णेहियासए || सं० यावन्नीवं परीपहाः उपसर्गाः च संख्याय संवृतः देहभेदाव इति प्रातः अधिसत जब तक जीवन है, तब तक ये परीषह और उपसर्ग होते हैं, यह जानकर शरीर को विसर्जित करने वाला और शरीर-भेद के लिए समुद्यत प्राज्ञ भिक्षु उन्हें समभाव से सहन करे । भाष्यम् २२ यावत् प्राणा: तावत् परीषहाः उपसर्गाश्च भवन्ति इति संख्याय ज्ञात्वा प्रज्ञावान् भिक्षुः तान् सोढुं आत्मशक्ति प्रयुञ्जीत जातेषु परीषहेषु उपसर्गेषु च न चलाचलो भवेत्, न च परिकर्म कुर्यात् । भाष्यम् २३ – प्रायोपगमनावस्थायां समाहितचित्तस्य भिक्षोः प्रकृष्टा निर्जरा भवति । तस्यामवस्थायां अन्तविद्यमाना इच्छालोभादयः व्यक्तीभवन्ति, अत एवायमुपदेश: स भिक्षु बहुतरेषु भिदुरेषु कामेषु न रज्येत् । २३. भेउरेसु न रज्जेज्जा, कामेसु बहुतरेसु वि । इच्छा-लोभं ण सेवेज्जा, सुहुमं वण्णं सपेहिया ॥ सं० भिदुरेषु न रज्येत्, कामेषु बहुतरेषु अपि । इच्छालोभं न सेवेत, सूक्ष्मं वर्णं संप्रेक्ष्य । इस जगत् में शब्द आदि प्रचुर काम होते हैं किन्तु वे सब क्षणभंगुर हैं। इसलिए वह उनमें रक्त न हो, इच्छा-लोम का भी सेवन न करे । संयम बहुत सूक्ष्म होता है। उसका दर्शन करने वाला ऐसा न करे । इच्छा - निदानकरणम् । परजन्मनि अमुकोऽहं भूयासं इति रूपं इच्छालोभं न कुर्यात् । वर्ण:- संयमः । स च अत्यन्तं सूक्ष्मो भवति, स्तोकेनापि असत्प्रयत्नेन विराधितो भवति इति संप्रदय आशंसाप्रयोग' वर्जयेत् । १. चूणां वृत्तौ च एतद् अनेकै विकल्पैर्व्याख्यातमस्ति(क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २९५ परीषा दिविन्दादि उवसग्गा व अनुलोमा पहिलोमा प इति संखाय एवं संखावां तेण भवति, यदुक्तं ते न भवंति ततो अहियासते, पुण सुद्धते पड़च्च ण संखाया भवंति, अहवा जावज्जीवं एते परीसहा उवसग्गावि ण मम तरसविसंतीति एवं संखाए अहिए, अहवा परीसहा एव उवसग्गाण देहेमा मा वा इति पणे अहियासए इति एवं प्रज्ञावां उप्पण्णे अहियास सज्जासि परिगिसो वा एवं सो पगो अहियासेति । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २६७-२६८ : 'यावज्जीवं ' यावत्प्राणधारणं तावत्परीषा उपसरिच सोडल्या इत्येतत् 'संख्याय' ज्ञात्वा' तानय्यासयेदिति, पदिवा जब तक प्राण हैं तब तक परीषह और उपसर्ग होते हैं - यह जानकर प्रज्ञावान् भिक्षु उनको सहन करने के लिए अपनी शक्ति का प्रयोग करे यह उत्पन्न परीयों और उपसगों में चमाचल न हो, विचलित न हो और न वह परिकर्म करे । ४०३ प्रायोपगमन की अवस्था में समाहित चित्त वाले भिक्षु के उत्कृष्ट निर्जरा होती है । उस अवस्था में मुनि में विद्यमान आन्तरिक इच्छालोभ आदि अभिव्यक्त होते हैं। इसीलिए यह उपदेश दिया गया है - 'वह भिक्षु राना प्रकार के क्षणभंगुर कामों में अनुरक्त न हो।' होऊं इच्छा का अर्थ है— निदान करना। अगले जन्म में मैं अमुक इस प्रकार इच्छा-लोभ का सेवन न करे । वर्ण का अर्थ है - संयम । वह अत्यन्त सूक्ष्म होता है। वह थोड़े से भी असत् प्रयत्न से विराधित हो जाता है—यहा कर संप्रेक्षा मुनि आशंसा का प्रयोग न करे । न मे परोषहोपस इत्येतत्सयाय ज्ञात्वाऽधिसहेत यदिवा यावज्जीवमिति यावदेव जीवितं तावत्परीचोपसर्गजनिता पौडेति तत्पुनः कतिपयनिमेवावस्थायि एतदवस्थस्य ममात्यन्तमल्पमेवेत्यत एतत्सङ ख्याय ज्ञात्वा संवृतो यथानिक्षिप्तत्यत्तगात्र 'देवा' शरीरायानापोत्थित इतिकृत्वा 'प्राज्ञः' उचितविधानवेदी, यद्यत्कायपीडाकार्युपतिष्ठते तत्तत्सम्यगधिसहेत । २. आचारांग चूर्णि, पृष्ठ २९५ : काम इच्छा, पसत्या इच्छा नाणादि, सा तु लोभग्गहणा अपसत्या इच्छा, णिदाणकरणं, जहा बंभदत्तादीहि तं ण सेविज्जा, ण पत्थेज्जा ण अभिलसेज्जा, इहलोगे वा आहारावि, अहवा इहलोगासंसप्पयोगे पर लोगासंसप्पयोगे जीवियासंसप्पओगे कामभोगासंसप्पयोगे । मरणासंसप्पयोगे Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ आचारांगभाष्यम् २४. सासएहि णिमंतेज्जा, दिव्यं मायं ण सद्दहे । तं पडिबुज्झ माहणे, सव्वं नमं' विधूणिया ॥ सं०---शाश्वतेभ्यः निमन्त्रयेत्, दिव्या मायां न श्रद्दधीत । तां प्रतिबुध्य माहनः, सर्व नूमं विधूय । कोई देव दिव्य-भोगों के लिए निमंत्रित करे, तब भिक्षु उस देव-माया पर श्रद्धा न करे। वह भिक्ष माया को जानकर सब प्रकार से उसको क्षीण कर दे। भाष्यम् २४ - तस्यामवस्थायां देवा अपि साक्षात् उस अनशन की अवस्था में देव भी साक्षात् प्रकट होते हैं। प्रकटीभवन्ति । कश्चिद्देव : शाश्वतकामाय' निमंत्रयत्यपि। कोई देव शाश्वत काम (दिव्य भोग) के लिए निमंत्रण भी देता है। तनिमंत्रणं विचलनार्थमपि स्यात्, परीक्षार्थमपि स्यात्, वह निमंत्रण विचलित करने के लिए भी हो सकता है, परीक्षा के लिए अन्यत्प्रयोजनायापि स्यात् । तदानीं प्रज्ञावान् भिक्षुरिति भी हो सकता है तथा किसी अन्य प्रयोजन के लिए भी हो सकता है। चिन्तयेत्-इमे दिव्यभोगा अपि सावधिकाः, दीर्घ- उस समय प्रज्ञावान् भिक्षु चिन्तन करे-ये दिव्य भोग भी सावधिक हैं, कालिका अपि न शाश्वतिकाः । एवं विचिन्त्य तां दिव्य- दीर्घकालिक होने पर भी शाश्वत नहीं हैं, इस प्रकार चिन्तन कर वह मायां न श्रद्दधीत । तस्याः प्रतिबोधपूर्वकं विधूननं उस दिव्य माया पर श्रद्धा न करे। उसको ज्ञानपूर्वक धुन डाले, कुर्यात् । विजित कर दे। नूमम्-माया। नूम का अर्थ है-माया। २५. सव्वठेहि अमुच्छिए, आउकालस्स पारए । तितिक्खं परमं णच्चा, विमोहण्णतरं हितं ॥–ति बेमि । सं० --सर्वार्थेषु अमूच्छितः, आयुःकालस्य पारगः । तितिक्षां परमां ज्ञात्वा, विमोहान्यतरद् हितम् । -इति ब्रवीमि । दिव्य और मानुषी-सब प्रकार के विषयों में अमूच्छित और आयुकाल के पार तक पहुंचने वाला भिक्ष तितिक्षा को परम जानकर विमोह- भक्त-प्रत्याख्यान, इंगिनीमरण और प्रायोपगमन में से किसी एक को हितकर मानकर उसका आलंबन ले। -ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् २५--जीवनं अनशनपूर्वक समापयेद् इति जीवन की समाप्ति अनशनपूर्वक हो, यह समाधि-मरण का तत्त्व समाधिमरणस्य तत्त्वमस्ति। त्रिष्वपि विमोहेषु है। तीनों विमोहों (अनशनों) में से किसी एक विमोह का स्वीकार अन्यतमस्य विमोहस्य स्वीकारः हितकरोऽस्ति । हितकर है। अनशनकाल में सब अर्थों-शब्द आदि विषयों, भले फिर सर्वार्थेषु-शब्दादिविषयेषु दिव्येषु मानुषेषु च अमूर्छा, वे दैविक हों या मानुषिक, में अमूर्छा तथा प्राप्त उपसर्गों और प्राप्तेषु परीषहेषु उपसर्गेषु वा तितिक्षा परमं हितमस्ति । परीषहों में तितिक्षा-यह परम हितकर है। यह जानकर भिक्षु इति ज्ञात्वा अनशनस्य सम्यक् आराधनां कुर्यात् । अनशन की सम्यक् आराधना करे । १. देशीयशब्दः। २. आचारांग चूणि, पृष्ठ २९६ : सासयमिति णितिएहि, कोयी देवता व समत्थं पडिणीतताए बा, तं मायां, किं एवं किलिस्ससि ? अहं ते सासते कामे देमि, जं भणितंदिब्वे, उठेहि एतं विमाणं, तं च अट्ठाए सक्केण देवराइणा पेसिता, सरूवेणमेव सग्गं आरुभिज्जासि, अन्नं वा जं इच्छसि तं ते वरं देमि रज्जं धणं वा अक्खयं जीवितं, एतं निमंतते तहि देवे। ३. चू! अस्य वैकल्पिकोर्थोपि लभ्यते- 'अहवा दिव्वं आयं ण सद्दहे, आतं लाभं आगमणं ण सद्दहे, एवं देवीवि दिव्वं रूवं विउम्वित्ता भोगेहि निमंतिज्जा साभावितं कइयवियं वा, तं दिव्वमायं ण सद्दहे।' (आचारांग चूणि, पृष्ठ २९६) ४. चूणी बैकल्पिकोर्थोपि सम्मतः- अहवा नूमं कम्मं । (आचारांग चूणि, पृष्ठ २९६) Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमं अज्झयणं उवहाणसुयं नौवां अध्ययन उपधानश्रुत [उद्देशक ४ : गाथा ७०] Jain Education international Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उप प्रस्तुताध्ययनस्य नामास्ति 'उपधानश्रुतम्' धानम् - तपः । भगवता साधनाकाले यथा तप आचीर्णं तथाऽस्मिनस्ति सन्दर्शितम् सूक्ष्मेक्षिकवा इति प्रज्ञायते - भगवता यद् यदाचीणं तस्यैव प्रस्तुतागमे प्रतिपादनं कृतं तदेव वा निर्दिष्टम् । उदाहरणरूपेण कानिचित् सूत्राणि निदश्यन्ते -- आचीर्णम् १. अइवातियं अणाउट्टे सयमण्णेसि अकरणाए । (९।१।१७ ) २. राई वि पि जयमाणे अयमते (९४२१४) २. ओमोदरियं चाति अट्ठे व भगवं रोगेहि (९०४०१ ) ४. पुट्ठे वा से अपुट्ठे वा णो से सातिज्जति तेइच्छं । " (१९२४२१) ५. अविभाति से महावीरे, आसणत्ये अकुक्कुए शाणं । उड्डम तिरियं च पेहमाणे समाहिमपडिष्णे (९४४४१४) प्रतिपादितम् १. तं परिण्णाय मेहावी णेव सयं एतेहि काएहि दंड समारंभेज्जा, वह एतेहि काहि दंड समारंभावेज्जा । (5195) २. अहो य राओ य जयमाणे - अध्यमत्ते सया परक्कमेज्जासि । (४०११) (२।११३) ३. लद्धे आहारे अणगारे मायं जाणेज्जा । ४. अलं तवेहिं । (६।२१) जाणइ, (२।१२५ ) ५. आयतचक्खू लोग-विपस्सी लोगस्स अहो भागं उड़ढं भागं जाण, तिरियं भागं जाणइ । प्रस्तुताध्ययनस्य चत्वारः उद्देशका वर्तते । तेषामर्थाधिकार इत्यमस्ति' - आमुखम् १. चर्या । २. शय्या । प्रस्तुत अध्ययन का नाम है— उपधानश्रुत उपधान का अर्थ है-तप । भगवान् ने साधनाकाल में तप का जैसा आचरण किया जैसा इस अध्ययन में बताया गया है। सूक्ष्मदृष्टि से देखने पर यह ज्ञात होता है कि भगवान् ने जो-जो आचरण किया उसका ही प्रस्तुत आगम में प्रतिपादन किया है अथवा उसी का निर्देश किया है । उदाहरण के रूप में कुछेक सूत्रों का निर्देश किया जा रहा है। आचीर्ण १. भगवान् स्वयं प्राणवध नहीं करते थे और दूसरों से नहीं करवाते थे । २. भगवान् रात और दिन मन, वाणी तथा शरीर को स्थिर और एकाग्र कर अप्रमत्त रहते थे । ३. भगवान् रोग से अस्पृष्ट होने पर भी अवमौदर्य करते थे । ४. वे रोग से स्पृष्ट या अस्पृष्ट होने पर चिकित्सा का अनुमोदन नहीं करते थे । ५. भगवान् ऊकडू आदि आसनों में स्थित और स्थिर होकर ध्यान करते थे । वे ऊंचे, नीचे और तिरछे लोक में होने वाले पदार्थों को ध्येय बनाते थे। उनकी दृष्टि आत्मसमाधि पर टिकी हुई थी। वे संकल्प से मुक्त थे । प्रतिपादित १. मेधावी उस कर्म-समारंभ का विवेक कर इन सूक्ष्म जीवकायों के प्रति स्वयं दंड का प्रयोग न करे तथा दूसरों से न करवाए । २. दिन-रात यत्न करने वाला साधक सदा पराक्रम करे । 'अप्रमत्त होकर १. चर्या । २. शय्या । १. आचारांग निर्युक्ति, गाथा २७९ : चरिया सिज्जा य परीसहा य आयंकिया चिच्छिा य । तवचरणेऽहिगारो उसे नायब्वो ॥ ३. आहार प्राप्त होने पर मुनि मात्रा को जाने । ४. इन चिकित्सा - विधियों का तू परित्याग कर । ५. संयतचक्षु पुरुष लोकदर्शी होता है । वह लोक के अधोभाग को जानता है, ऊर्ध्वभाग को जानता है और तिरछे भाग को जानता है । इस अध्ययन के चार उद्देशक हैं उनका अर्थाधिकार इस प्रकार Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ आचारांगभाष्यम् ३. परीषहः। ३. परीषह। ४. आतंके अचिकित्सा अवमोदयं च । ४. रोग होने पर अचिकित्सा तथा अवमौदर्य । अस्मिन्नध्ययने भगवतः साधनायाः वास्तविक इस अध्ययन में भगवान् महावीर की साधना का यथार्थ प्रतिपादनमस्ति । एकशाटकावस्थायां दीक्षा, ततः प्रतिपादन हुआ है। एक शाटक की अवस्था में दीक्षा, फिर अचेलत्व अचेलत्वस्य स्वीकरणं, एष वस्त्रविषयकः प्रकल्पः।' का स्वीकरण-यह उनकी वस्त्र-विषयक मर्यादा है। भगवान् का भगवतः समयः ध्यानसाधनायां सुनियोजित आसीत्। समय ध्यान की साधना में सुनियोजित था। उसमें उन्होंने अनिमेषतत्र अनिमेषप्रेक्षाया विविक्तस्थानस्य च प्रयोगः प्रेक्षा तथा एकान्त स्थान का प्रयोग किया। अप्रमाद और समाधिकृतोऽस्ति । अप्रमादः समाधिश्च तस्य मुख्यं ध्यानांग- ये दोनों उनके ध्यान के मुख्य अंग थे। यहां ध्यान के आसनों का मासीत् । ध्यानासनस्य संकेतः ध्यानविनिर्देशोऽपि संकेत तथा ध्यान की विधि का निर्देश भी उपलब्ध होता है। यदि लभ्यते । यदि ध्यानविषयकानि पद्यानि एकालापकरूपेण ध्यान विषयक सारे पद्य एक आलापक के रूप में संगृहीत हों तो समुच्चितानि भवेयुस्तदा सहजं ध्यानस्य विधिः सहजरूप से ध्यान की पूरी विधि सामने आ जाती हैसमवतरति अदु पोरिसि तिरिय भित्ति, चक्खुमासज्ज अंतसो झाइ। 'भगवान् प्रहर-प्रहर तक आंखों को अपलक रख तिरछी भींत अह चक्खु-भीया सहिया, तं 'हता हंता' बहवे कंदिसु ॥' पर मन को केन्द्रित कर ध्यान करते थे। लंबे समय तक अपलक रही आंखों की पुतलियां ऊपर की ओर चली जातीं। उन्हें देखकर भयभीत बनी हुई बच्चों की टोली 'हंत ! हंत !' कहकर चिल्लाती-दूसरे बच्चों को बुला लेती।' सयहिं वितिमिस्सेहि, इत्थीओ तत्थ से परिण्णाय। 'भगवान् जन-संकुल स्थानों में नहीं ठहरते थे। कभी-कभी सागारियं ण सेवे, इति से सयं पवेसिया झाति ॥' ऐसा होता कि वे एकान्त स्थान देखकर ठहरते, पर एकान्त की खोज में कुछ स्त्रियां वहां आ जाती। भगवान् की प्रज्ञा जागृत थी। इसलिए उन स्त्रियों के द्वारा भोग की प्रार्थना किए जाने पर भी भगवान् भोग का सेवन नहीं करते थे । वे अपनी आत्मा की गहराइयों में पैठकर ध्यान में लीन रहते थे।' जे के इमे अगारत्था, मोसीभावं पहाय से झाति। 'गृहस्थों से संकुल स्थान प्राप्त होने पर भी भगवान् अपने पुट्ठो वि णाभिभासिसु, गच्छति गाइवत्तई अंजू ॥' मन को किसी में न लगाते हुए ध्यान करते थे। वे पूछने पर भी नहीं बोलते । उन्हें कोई बाध्य करता तो वे वहां से मौनपूर्वक दूसरे स्थान में चले जाते । वे ध्यान का अतिक्रमण नहीं करते और हर स्थिति में मध्यस्थ रहते।' एतेहि मुणी सयहि, समणे आसी पतेरस वासे । 'भगवान् साधना-काल के साढे बारह वर्षों में इन वास-स्थानों राई दिवं पि जयमाणे, अप्पमत्ते समाहिए झाति ॥' में प्रसन्नमना रहते थे। वे रात और दिन मन, वाणी और शरीर को स्थिर और एकाग्र तथा इन्द्रियों को शांत कर समाहित अवस्था में ध्यान करते थे। अवि झाति से महावीरे, आसणत्थे अकुक्कुए झाणं। भगवान् ऊकडू आदि आसनों में स्थित और स्थिर होकर उड्ढमहे तिरियं च, पेहमाणे समाहिमपरिणे ॥' ध्यान करते थे। वे ऊंचे, नीचे और तिरछे लोक में होने वाले पदार्थों को ध्येय बनाते थे। उनकी दृष्टि आत्म-समाधि पर टिकी हुई थी। वे संकल्प से मुक्त थे।' १. आयारो, ९।१।१-४ । ६. वही, ९।१६। २. वही, ९।१।५-७ । ७. वही, ९१७ । ३. वही, ९।२।४ । ८. वही, ९।२।४। ४. वही, ९।४।१४,१५। ९. वही, ९.४१४॥ ५. वही, ९।१।५। Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुखम अफसाई विगयगेही, सद्दरूवे सुमुच्छिए छमत्ये वि परक्कममाथे, जो पमायं सई पि विरए ग्रामसम्मेहि, रोपति माहणे सिसिरंमि एगदा भगवं छायाए झाइ आहारनिद्रा प्रियाप्रिय तितिक्षाप्रभूतयः प्रकल्पा अपि ध्यानस्य परिकरभूता एव आहारविषये अवमीदर्यस्य रूक्ष भोजनस्य च उल्लेखा विद्यन्ते । द्वित्रिपञ्चदिव सोपवासानामुल्लेखस्ति पाण्मासिक्यायाः तपस्यायाः उल्लेखः कथं नास्तीति प्रश्नः । षण्मासपर्यन्तं अपानं कृतमिति निर्दिष्टमस्ति । अत्र एते प्रश्नाः समुद्भवन्ति J किं भोजनं कृतं पानीयं न पीतम् ? अथवा पानीयं न पीतं भोजनमपि च न कृतम् ? अथवा ''अभिविता" इति पदयोः प्रयोगः भोजनायें कृतः स्यात् ? शाति । वियत्या ।' एषु प्रश्नेषु उत्तरवर्तिप्रश्नद्वयमेव अधिकं विमर्शार्ह वर्तते। तत्र पानीयं न पीतमिति महत्तपः, तदर्थ अपानकस्य तपसो निर्देशः कृतः, भोजनं न कृतमिति तु तदन्त तमेवेति स्वयं गम्यम् । अबहुवाई | आसी य ॥ निद्रायाः प्रश्नोsपि ध्यानेन संबद्धोस्ति । साधारणतया य उचितं कालं न निद्राति तस्य शारीरिकं स्वास्थ्यं मानसिक चापि न सम्यगवतिष्ठते। भगवान् सार्धद्वादश वार्षिक साधनाकाले प्रायः जागरूकत्वमभजत्, निद्राया कालावधिः मुहूर्तमपि नास्पृशत्। 'अप्पं बुइएsपडिभाणी ।" 'रोयई माहने अडवाई वचनगुप्तिमानं वा भगवता सम्यगाराधितम् । अस्मिन् दीर्घे साधनाकाले प्रायः मौनमासेवितम् । इमे निर्देशास्तां स्थिति स्पष्टयन्ति 'पति माने अबचाई।" १. आयारो, ९।४।१५ । २. वही, ९।४।३ । ३. वही, ९।४।१,४,५ । ४. वही, ९।४१६ । ५. वही, ९।४।५ । **& 'भगवान् क्रोध, मान, माया और लोभ को शांत कर, आसक्ति को छोड, शब्द और रूप में अमूच्छित होकर ध्यान करते थे। उन्होंने ज्ञानावरण आदि कर्म से आवृत दशा में पराक्रम करते हुए भी एक बार भी प्रमाद नहीं किया ।' 'भगवान् शब्द आदि इन्द्रिय विषयों से विरत होकर बिहार करते थे । वे बहुत नहीं बोलते थे । वे शिशिर ऋतु में छाया में ध्यान करते थे ।' आहार, निद्रा और प्रिय अप्रिय में तितिक्षा आदि के निर्देश भी ध्यान के परिकर ही है। आहार के विषय में अवमदर्द और रूक्ष भोजन के उल्लेख मिलते हैं। दो, तीन, पांच दिनों के उपवास का उल्लेख प्राप्त है, किन्तु भगवान् की छह मासिक तपस्या का उल्लेख क्यों नहीं है, यह प्रश्न उठता है। भगवान् ने छह महीनों तक पानी नहीं पीया, यह निर्दिष्ट है । यहां ये प्रश्न उत्पन्न होते हैं क्या भगवान् ने भोजन किया और पानी नहीं पीया ? अथवा पानी भी नहीं पीया और भोजन भी नहीं किया ? अथवा 'अपिइत्थ' तथा 'अपिवित्ता' - इन पदों का प्रयोग भोजन के अर्थ में किया गया ? इन प्रश्नों में उत्तरवर्ती दो प्रश्न ही अधिक विमर्शनीय हैं । 'पानी नहीं पीया' यह महान् तप है, उसके लिए अपानक तप का निर्देश किया है। भोजन नहीं किया, वह तो उसके अन्तर्गत ही है, यह स्वयं गम्य है । निद्रा का प्रश्न भी ध्यान से संबद्ध है । सामान्य रूप से जो व्यक्ति उचित समय पर नींद नहीं लेता उसका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य भी समीचीन नहीं रहता। भगवान् साढे बारह वर्ष के साधनाकाल में प्रायः जागृत रहे नींद की कालावधि एक मुहूर्तमात्र भी नहीं थी । भगवान् ने वचनगुप्ति अथवा मौन की सम्यग् आराधना की । इतने लंबे साधनाकाल में भी वे प्रायः मौन ही रहे । ये निम्न निर्देश उस स्थिति को स्पष्ट करते हैं 'पूछने पर भी बहुत कम बोलते थे ।' 'वे प्रायः मौन रहते थे—आवश्यकता होने पर भी कुछ-कुछ बोलते थे।' वे बहुत नहीं बोलते थे।' ६. वही, २०४६ ७. वही, ९ २ ५, ६, ९०४ । १५ । ८. वही, ९।१।२१। ९. वही, ९।२।१० । १०. वही, ९।४।३ । Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० आचारांगभाष्यम भगवतः सम्मुखे सततं समाधिरेव समुपस्थितः । भगवान् के सम्मुख सतत समाधि ही रहती थी। भगवान् भगवता तस्यैव प्रेक्षा कृता अत एव सूत्रकारो वारं वारं ने उसी की प्रेक्षा की, इसलिए सूत्रकार ने बार-बार उसी प्रेक्षा तस्या निर्देशमकृत- 'पेहमाणे समाहिं अपडिण्णे ।' का निर्देश किया 'भगवान् समाधि में लीन रहते। उनके मन में प्रतिकार का कोई संकल्प भी नहीं उठता।' प्रस्तुताध्ययने भगवतः साधनाकालस्य अत्यन्तं प्रस्तुत अध्ययन में भगवान के साधनाकाल का अत्यंत स्वाभाविकं वर्णनमस्ति कृतम् । भगवतः दुःखक्षमत्वं स्वाभाविक वर्णन किया गया है। इसमें भगवान् की दुःख सहने की सहिष्णुत्वं च अत्रास्ति निदर्शितम्। मनुष्यतिर्यग्कृतानामुप- क्षमता और सहिष्णुता निदर्शित है तथा मानुषिक और तैरश्चिक सर्गाणामप्यस्ति निर्देशः । किन्तु देवैः कृतानामुपसर्गाणां उपसर्गों का भी उल्लेख है, किन्तु दैविक उपसर्गों का कोई उल्लेख नहीं नास्ति कश्चिदुल्लेखः । उत्तरवर्तिसाहित्ये तस्य महान् है। उत्तरवर्ती साहित्य में उसका बहुत विस्तार प्राप्त होता है । विस्तरो लभ्यते। शीतातपयोः सहनेऽपि क्षमता भगवान् की शीत और आतप सहने की क्षमता का भी इस अध्ययन में निदर्शितास्ति । निदर्शन है । भगवतो जीवनदर्शनस्य अध्ययनार्थ प्रस्तुताध्ययन- भगवान महावीर के जीवन-दर्शन के अध्ययन के लिए यह मत्यन्तं प्रामाणिक स्रोतो वर्तते इत्यस्माकं मतिः । अध्ययन अत्यंत प्रामाणिक स्रोत है, यह हमारा अभिमत है । ३. वही. ९।२।१३-१५ । १. आयारो, ९।२।११। २. वही, ९।२१७-१०। Jain Education international Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमं अज्झयणं : उवहाणसुयं नौवां अध्ययन : उपधानश्रुत पढमो उद्देसो : पहला उद्देशक १. अहासुयं वदिस्सामि, जहा से समणे भगवं उट्ठाय । संखाए तंसि हेमंते, अहणा पव्वइए रीयत्था । सं०-यथा श्रुतं वदिष्यामि, यथा स श्रमणो भगवानुत्थाय । संख्याय तस्मिन् हेमन्ते, अधुना प्रवजितः अरैषीत् । (सुधर्मा ने कहा-जम्बू !) श्रमण भगवान् महावीर की विहार-चर्या के विषय में मैंने जैसा सुना है, वैसा मैं तुम्हें बताऊंगा। भगवान् ने वस्तु-सत्य को जानकर घर से अभिनिष्क्रमण किया। वे हेमन्त ऋतु में दीक्षित होकर क्षत्रियकुण्डपुर से तत्काल विहार कर गए। भाष्यम् १–उपधानम्-तपः। भगवता वर्धमान- उपधान का अर्थ है-तप । भगवान् वर्धमान स्वामी ने जिस स्वामिना यत्तपोऽनुचीर्णं, तदत्र वर्ण्यते। भगवता न तप का आचरण किया, वह यहां बताया जा रहा है। भगवान् ने केवल केवलमुपदिष्टं, किन्तु स्वयं तपस्तप्तम् । एष महान् योगः तपस्या का उपदेश ही नहीं दिया, किन्तु स्वयं ने तपस्याएं की। यह दर्शनस्य आचारेण । आचारशून्यं दर्शनं दर्शनशून्यश्च दर्शन और आचार की महान् संयुति है । आचार-शून्य दर्शन अथवा आचारः न सार्थकतामेति, तेनैष योगः श्रेयान् । दर्शन-शून्य आचार-दोनों सार्थक नहीं होते। इसलिए दर्शन और आचार का यह योग श्रेयस्कर है। आर्यसुधर्मा जम्बूस्वामिनं वक्ति-भगवतस्तपोविषये आर्य सुधर्मा जम्बू स्वामी को कहते हैं-भगवान् महावीर के मया यथा श्रुतं तथा तव वदिष्यामि । यथा स श्रमणो तप के विषय में मैंने जैसा सुना है, वैसे ही मैं तुम्हें बताऊंगा। श्रमण भगवान तस्मिन हेमन्ते मृगशीर्षकृष्णाया दशम्या दिने भगवान् उस हेमन्त ऋतु की मृगसिर कृष्णा दशमी के दिन प्रजित प्रव्रजितोऽभूत् । प्रव्रज्यातः पूर्व तस्य उत्थानं संख्यानं च हुए । प्रव्रज्या से पूर्व उनमें उत्थान और संख्यान हुआ। उत्थान का संवत्तम । उत्थानमिति प्रव्रज्यार्थ पूर्णः जागरूकभावः अर्थ है-प्रव्रज्या के लिए पूर्ण जागरूकभाव का उदय और संख्यान समपद्यत । संख्यानमिति अस्ति आत्मा, अस्ति च का अर्थ है-आत्मा है, मोक्ष है, इसका पूर्ण बोध । भगवान् प्रव्रजित मोक्ष इत्यस्य संपरिज्ञानम् । स भगवान् प्रव्रज्यां प्रतिपद्य होकर तत्काल पाद-विहार कर गए। अधुना-तत्कालमेव पादविहारं कृतवान् । ' २. जो चेविमेण वत्थेण, पिहिस्सामि तंसि हेमंते । से पारए आवकहाए, एयं खु अणुधम्मियं तस्स ॥ सं०-नो चैवानेन वस्त्रेण, पिधास्यामि तस्मिन् हेमन्ते । स पारगः यावत्कथं, एवं खलु अनुधार्मिकं तस्य । दीक्षा के समय भगवान् एक शाटक थे कंधे पर एक वस्त्र धारण किए हुए थे। भगवान् ने संकल्प किया-'मैं हेमन्त ऋतु में इस वस्त्र से शरीर को आच्छादित नहीं करूंगा।' वे जीवन-पर्यन्त सर्दी के कष्ट को सहने का निश्चय कर चुके थे। यह उनकी अनुमिता-धर्मानुगामिता है। भाष्यम् २-यद् वस्त्रं स्कन्धे धृतं तद् अनुधार्मिकं भगवान् ने जो वस्त्र कंधे पर धारण किया था वह एकशाटकपरम्परानुकूलं वर्तते। एकशाटको मुनिः अनुधार्मिक-एकशाटक की परंपरा के अनुकूल था। एकशाटक एनामेव परम्परां निर्वहते। एतेन सहिष्णुतापि मुनि इसी परम्परा का निर्वहन करते हैं। इससे सहिष्णुता भी अनुधर्मान्तर्गता भवति, यथा सूत्रकृताङ्गे अनुधर्मान्तर्गत होती है । जैसे सूत्रकृतांग में कहा है Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ आचारांगभाष्यम् स्त्रधारणस्य विभवन्ति । तिसवाचद् द्वाभ्या, वद्यन्ते। 'अविहिंसामेव पव्वए, अणुधम्मो मुणिणा पवेइओ।" 'अहिंसा में प्रव्रजन कर । महावीर के द्वारा प्रवेदित अहिंसा धर्म __ अनुधर्म है-पूर्ववर्ती ऋषभ आदि सभी तीर्थंकरों द्वारा प्रवेदित है।' प्रस्तुतागमे वस्त्रविषये तिस्रः परम्परा विद्यन्ते। प्रस्तुत आगम में वस्त्र-विषयक तीन परम्पराएं प्रतिपादित हैं । केचिद् भिक्षवः त्रिभिर्वस्त्रः, केचिद् द्वाभ्यां, केचिच्च कुछ भिक्षु तीन वस्त्र, कुछ दो वस्त्र और कुछ केवल एक ही वस्त्र एकेन पर्यषिता भवन्ति । तिसृष्वपि परम्परासु हेमन्ते रखते थे। तीनों परम्पराओं में हेमन्त ऋतु में वस्त्र धारण करने का वस्त्रधारणस्य विधानं प्रतिपन्ने च ग्रीष्मे एकशाटकस्य विधान था और ग्रीष्म ऋतु में एकशाटक रखने अथवा अचेल रहने अचेलस्य वा विधानमस्ति। अस्मिन् श्लोके एषा का विधान था। प्रस्तुत श्लोक में यह विशेषता प्रतिपादित हैविशिष्टता प्रतिपादिता अस्ति-भगवान् हेमन्तेऽपि भगवान् महावीर हेमन्त ऋतु में भी शीत-निवारण के लिए वस्त्र का शीतनिवारणार्थ वस्त्रप्रयोगं न कृतवान् । संभाव्यते, प्रयोग नहीं करते थे। संभव है, भगवान् पार्श्वनाथ के शासन में ये भगवतः पार्श्वनाथस्य शासने एतास्तिस्रोऽपि परम्पराः तीनों परम्पराएं प्रचलित थीं। उनमें से भगवान् महावीर ने एकशाटक प्रचलिता आसन् । तासु भगवता एकशाटकस्य की परम्परा का अनुपालन किया । पद्धतिराचीर्णा। ३. चत्तारि साहिए मासे, बहवे पाण-जाइया आगम्म । अभिरुज्झ कायं विहरिसु, आरुसियाणं तत्थ हिसिसु ॥ सं०-चतुरः साधिकान् मासान्, बहवः प्राणजातय आगम्य । अभिरुह्य कायं विजह, आरुष्य तत्र अहिंसिषुः । अभिनिष्क्रमण के समय भगवान का शरीर दिव्य गोशीर्षचन्दन और सुगन्धी चूर्ण से सुगन्धित किया गया था। उससे आकर्षित होकर भ्रमर आदि प्राणी आते, भगवान् के शरीर पर बैठकर रसपान का प्रयत्न करते। रस प्राप्त न होने पर वे क्रुद्ध होकर भगवान के शरीर पर डंक लगाते । यह क्रम चार मास से अधिक समय तक चलता रहा। भाष्यम ३-तीर्थकरस्य देहः अद्भुतगन्धयुक्तो तीर्थकर का शरीर अद्भुत गंधयुक्त होता है। यह जन्मजात भवति । जन्मजातोऽयमतिशयः । भगवतो महावीरस्य अतिशय है। भगवान महावीर के शरीर पर लगी हुई गंधयुक्त द्रव्यों द्रव्यकृतः परिमलोऽपि अतिशायी आसीत् । तेन की सुगन्धि भी विशिष्ट थी। इसलिए सुगंधि के रसिक मधुकर आदि परिमलरसिकाः मधुकरादयः प्राणिनः परागाशंकया प्राणी पराग की आशंका से भगवान् के शरीर के चारों ओर मंडराते भगवतो देहस्य परितः प्रदक्षिणां कुर्वाणा आसन् । रहते थे। अस्यानुसारी उपदेशः इसका संवादी उपदेश है १. अंगसुत्ताणि १, सूयगडो १२.१४ । आचारांगचूणा (पृष्ठ २९९) तीर्थकराणां गतानुगतं इति व्याख्यातमस्ति-जं पुण तं वत्थं खंधे ठितं धरितं वा तं अणुधम्मियं तस्स अणु पच्छाभावे अन्नेहिवि तित्थगरेहिं तहा धरियं तं अणुधम्मियमेव एतं, जं भणितं-गताणुगतं, अहवा तित्थगराणं अयं अणुकालधम्मो-से बेमि जे य अतीता जे य पडुपण्णा जे य आगमिस्सा अरहंता भगवंतो जे य पव्वइया जे य पव्वयंति जे य पव्वइस्संति सव्वे सोवहिगो धम्मो देसियत्वत्तिक? तित्थच्चयाए एसा अणुधम्मियत्ति एगं देवदूसमादाय पव्वइंसु वा पव्वइंति वा पम्वइस्संति वा, भणियं च गरीयस्त्वात् सचेलस्स, धर्मस्यान्यः तथागतः । शिष्यसंप्रत्ययाच्चैव, वस्त्रं दधे न लज्जया ॥ २. आयारो, ८।४३,६२,८५ । ३. वही, ८.५२,५३,७०,७१,९३ । ४. भगवान् के शरीर पर अनुवासित सुगन्धी द्रव्यों की गंध बहुत मोहक थी। उसमें आसक्त होकर बहुत सारे तरुण भगवान् के पास आते और सुगंधी द्रव्य की याचना करते। भगवान् मौन थे, इसलिए उन्हें कोई उत्तर नहीं देते। इससे रुष्ट होकर वे भगवान् के प्रति आक्रोश प्रकट करते-- 'क्या देखते हो, देते नहीं ?' भगवान् फिर मौन रहते । वे मौन से खिसिया कर अप्रिय व्यवहार करते । भगवान् ध्यान-मुद्रा में खडे रहते । उनके स्वेद और मल से रहित सुन्दर शरीर तथा सुगंधित निःश्वास वाले मुख से स्त्रियां आकृष्ट हो जाती। वे आकर पूछतीआप कहां रहते हैं ? यह सुगन्धित द्रव्य कहां मिलता है ? कौन बनाता है ? भगवान् मौन रहते। इस प्रकार उनका शरीर तथा पूर्वकृत अनुवासन उनके लिए उपसर्ग का हेतु बन रहा था। (आचारांग चूणि, पृष्ठ ३००) Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ६. उपधानश्रुत, उ०१. गाथा ३-५ ४१३ संसप्पगा य जे पाणा, जे य उड्ढमहेचरा। संसर्पण करने वाली चींटी आदि, आकाशचारी गीध आदि तथा भुजंति मंस-सोणियं, ण छणे ण पमज्जए ।' बिलवासी सर्प आदि शरीर का मांस खाएं, मच्छर आदि रक्त पीएं, तब भी साधक न उनकी हिंसा करे और न उनका निवारण करे । ४. संवच्छरं साहियं मासं, जंग रिक्कासि वत्थगं भगवं । अचेलए ततो चाई, तं वोसज्ज वत्थमणगारे ॥ सं०-संवत्सरं साधिक मासं यत् न 'रिक्कासि वस्त्रकं भगवान् । अचेलकः ततः त्यागी तद् व्युत्सृज्य वस्त्रमनगारः । भगवान् ने तेरह महीनों तक उस वस्त्र को नहीं छोड़ा। फिर अनगार और त्यागी महावीर उस वस्त्र को छोड़कर अचेलक हो गए। भाष्यम् ४-पूर्वोक्तासु परम्परासु ग्रीष्मर्ती अचेलत्वस्य पूर्वोक्त परम्पराओं में ग्रीष्म ऋतु में अचेल रहने का विधान विधानमस्ति, किन्तु भगवता त्रयोदशमासानन्तरं अचेलत्वं है, किन्तु भगवान् महावीर तेरह महीनों के पश्चात् अचेल बने । तब स्वीकृतम्।' तक वे एकशाटक रहे । ५. अदु पोरिसिं तिरियं भित्ति, चक्खुमासज्ज अंतसो झाइ । अह चक्खु-भीया सहिया, तं 'हता हंता' बहवे कंदिसु ॥ सं० - 'अदु' पौरुषी तिर्यभित्ति, चक्षुरासाद्य अन्तशः ध्यायति । अथ चक्षुर्भीताः संहिताः, हन्त हन्त ! बहवः अक्रन्दिषुः । भगवान् प्रहर-प्रहर तक आंखों को अपलक रख तिरछी भीत पर मन को केन्द्रित कर ध्यान करते थे। (लम्बे समय तक अपलक रहीं आंखों की पुतलियां ऊपर की ओर चली जाती)। उन्हें देखकर भयभीत बनी हुई बच्चों की टोली 'हंत ! हंत !' कहकर चिल्लाती-दूसरे बच्चों को बुला लेती। भाष्यम् ५-प्रस्तुतगाथायां भगवतोऽनिमेष- प्रस्तुत गाथा में भगवान् महावीर की अनिमेषदृष्टिध्यान दृष्ट्यात्मकस्य (त्राटकस्य') ध्यानस्य सूचना कृतास्ति । (नाटक) की सूचना दी गई है। भगवान् प्रहर-प्रहर तक तिरछी भींत भगवता पौरुषीपर्यन्तं तिर्यग्भित्तौ चक्षः स्थापयित्वा पर आंखें स्थिर कर आत्मलक्षित ध्यान करते थे। इसका तात्पर्य हैअन्तर्लक्ष्यं ध्यानं कृतम्। अस्य तात्पर्यम्-दृष्टि: दृष्टि तिरछी भींत पर स्थिर थी और ध्यान-मन अन्तरात्मा में लीन तिर्यग्भित्तौ स्थिरा अभूत, ध्यानं अन्तरात्मनि । अनेन था। इस अन्तर्लक्ष्यी अनिमेष प्रेक्षाध्यान से निर्विकल्प समाधि सिद्ध अन्तर्लक्ष्यात्मकेन अनिमेषप्रेक्षाध्यानेन निर्विकल्पसमाधिः होती है । चूर्णी और वृत्ति में ईर्यापथ से संबंधित अनिमेषध्यान की सिद्धयति । चूर्णी वृत्तौ च ईपिथानुगतं अनिमेषध्यानं व्याख्या है। व्याख्यातमस्ति । १. आयारो ८/गाथा ९ । २. देशीयधातुः, अत्याक्षीत् इत्यर्थः । ३. भगवान् पहले वस्त्र-सहित दीक्षित हुए, फिर निर्वस्त्र हो गए । यह सिद्धांत के आधार पर किया गया था। किन्तु उत्तरकालीन परम्परा के अनुसार-भगवान् सुवर्णवालुका नदी के तट पर जा रहे थे । नदी के प्रवाह में बहकर आए हुए कांटों में उनका वस्त्र उलझ कर गिर गया। एक ब्राह्मण ने वह वस्त्र उठा लिया। वह वस्त्र भगवान् के कंधे पर तेरह महीनों तक रहा । दीक्षा के समय जैसे रखा वैसे ही पड़ा रहा और जब कांटों में उलझ कर गिर पड़ा, तब भगवान् ने उसे छोड़ दिया। (आचारांग चूणि, पृष्ठ ३००) यह कल्पना स्वाभाविक नहीं लगती। स्वाभाविक कल्पना यह हो सकती है - भगवान् ने सर्दी से बचाव के लिए नहीं अपितु लज्जा-निवारण के लिए बस्त्र रखा। निर्ग्रन्थ परम्परा में ऐसा होता रहा है। लज्जा-निवारण के लिए एकशाटक निर्ग्रन्थों का उल्लेख बौद्ध साहित्य में मिलता है। कन्धे के आधार से शरीर पर एक वस्त्र धारण करने वाले एकशाटक कहलाते थे। भगवान् की साधना एकशाटक की भूमिका से आगे बढ़ गई, तब वे वस्त्र का सर्वथा परित्याग कर पूर्णतः अचेल हो गए। ४. गोरक्षपद्धति ११३: षट्चक्रं षोडशाधार, द्विलक्ष्यं व्योमपञ्चकम् । स्वदेहे ये न जानन्ति, कथं सिद्धयन्ति योगिनः॥ घेरण्डसंहिता ११५३ : निमेषोन्मेषकं त्यक्त्वा, सूक्ष्मलक्ष्यं निरीक्षयेत् । पतन्ति यावदधूणि, त्राटकं प्रोच्यते बुधः॥ ५. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ ३००-३०१: पुरिसा णिप्फण्णा पौरुसी, यदुक्तं भवति-सरीरप्पमाणा पोरिसी, पुणतो तिरियं पुण भित्ति, सण्णित्ता विट्ठी, को Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ आचारांगभाष्यम् ६. सयहि वितिमिस्सेहि, इत्थीओ तत्थ से परिणाय । सागारियं ण सेवे, इति से सयं पवेसिया झाति ॥ सं०--शयनेषु व्यतिमिश्रेषु स्त्रियः तत्र स परिज्ञाय । सागारिकं न सेवते, इति स स्वयं प्रविश्य ध्यायति । भगवान् जनसंकुल स्थानों में नहीं ठहरते थे । (कभी-कभी ऐसा होता कि वे एकान्त स्थान देखकर ठहरते), पर एकांत की खोज में कुछ स्त्रियां वहां आ जातीं। भगवान् की प्रज्ञा जागृत थी, इसलिए उनके द्वारा भोग की प्रार्थना किये जाने पर भी भगवान् भोग का सेवन नहीं करते थे। वे अपनी आत्मा की गहराइयों में पैठकर ध्यान में लीन रहते थे। भाष्यम् ६–धतिमतः पुरुषस्य निमित्तमासाद्यापि न धृतिमान् पुरुष का चित्त निमित्त के मिलने पर भी विचलित विचलति चित्तम् । भगवान् धृतिमतां वरेण्यः । तेन नहीं होता। भगवान् धृतिमान् पुरुषों में अग्रणी थे। इसलिए उनका तस्याऽविचलने नास्ति आश्चर्यम् । ऋषभस्तुतौ उक्तं चित्त विचलित नहीं हुआ, इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। मानतुंग मानतुंगसूरिणा आचार्य ने ऋषभ की स्तुति में कहा है'चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशांगनाभि __ यदि देवांगनाओं ने आपके मन को विकार-युक्त नहीं बनाया नीतं मनागपि मनो न विकारमार्गम् । तो इसमें आश्चर्य ही क्या ! पर्वत को प्रकंपित करने वाले कल्पान्तकाल कल्पान्तकालमरुता चलिताचलेन, के पवन से क्या मेरु पर्वत कभी प्रकंपित होता है ? कि मन्दराद्रि शिखरं चलितं कदाचित् ॥' भगवता एतद् आचीर्णं अत एव एतत् प्रतिपादितम् । भगवान महावीर ने इसका आचरण किया, इसीलिए इसका अस्यानुसारी उपदेशः प्रतिपादन किया। इसका संवादी उपदेश है'जे छेए से सागारियं ण सेवए।" 'जो इन्द्रियजयी है, वह मैथुन का सेवन नहीं करता' । 'जे महं अबहिमणे ।" 'जो महान् अर्थात् मोक्षलक्षी होता है, वह मन को असंयम में न ले जाए।' 'लढे कामे नाभिगाहइ ।" 'वह प्राप्त कामों में निमग्न नहीं होता।' अत्यो ? पुरतो संकुडा अंतो वित्थडा सा तिरिय (तिर्यग्भित्ति) शरीर-प्रमाण वीथी (पौरुषी) पर भित्तिसंठिता वुच्चति, सगडुद्धिसंठिता वा जतिवि ध्यानपूर्वक चक्षु टिकाकर चलते थे। इस प्रकार ओहिणा वा पासति तहावि सीसाणं उद्देसतो तहा अनिमिषदृष्टि से चलते हुए भगवान् को देखकर करेति जेण निरुभति दिदि, ण य णिच्चकालमेव डरे हुए बच्चे हंत ! हंत! कहकर चिल्लाते -- ओधीणाणोवओगो अस्थि, चक्खुमासज्ज अंतसो दूसरे बच्चों को बुला लेते। झायति पस्सति अनेण चक्खू, चक्खुसा आसज्ज, ___डॉ. हर्मन् जेकोबी ने अंग्रेजी अनुवाद टीका के यदुक्तं भवति-पुरओ अंतो मज्झे यातीति पश्यति, आधार पर किया है पर तिर्यग् भित्ति के अर्थ पर तदेव तस्स झाणं जं रिउवयोगो अणिमिसाए विट्ठीए उन्होंने संदेह प्रकट किया है। उनके अनुसार :बद्धेहि अच्छीहि, तं एवं बद्धअच्छी जुगंतरणिरिक्खणं 'I can not make out the exact meaning of It, perhaps; 'So that he was a wall for the बटुं।' animals' (अर्थात् संभवतः इसका अर्थ है-जिससे आचारांग वृत्ति, पत्र २७४ : 'पुरुषप्रमाणा पौरुषी कि भगवान् तियंचों के लिए भित्ति के समान थे)। आत्मप्रमाणा वीथी तां गच्छन् ध्यायतीर्यासमितो भित्ति पर ध्यान करने की पद्धति बौद्ध साधकों गच्छति, तदेव चात्र ध्यानं यदीर्यासमितस्य गमन में रही है। प्रस्तुत सूत्र में भी उल्लेख है-भगवान् मिति भावः, किंभूतां तां?–तिर्यग्भित्ति ऊर्ध्व, अधः और तिर्यक् ध्यान करते थे (२।१२५)। शकटोद्धिवदादौ सङ्कटामग्रतो विस्तीर्णामित्यर्थः, भगवती सूत्र के टीकाकार अभयदेवसूरि ने “तिर्यग् कथं ध्यायति ? –'चक्षुरासाद्य' चक्षुर्दत्त्वाऽन्तः भित्ति' का अर्थ प्राकार, वरण्डिका आदि की भित्ति मध्ये दत्तावधानो भूत्वेति, तं च तथा रीयमाणं अथवा 'पर्वत-खण्ड' किया है। दृष्ट्वा । (भगवती वृत्ति, पत्र ६४३-६४४) चूणिकार (पृष्ठ ३००-३०१) और टीकाकार १. आयारो, ॥१०॥ (पत्र २७४) ने इस गाथा का अर्थ इस प्रकार किया २. वही, ५११२। है-भगवान् प्रारंभ से संकड़ी और आगे चौड़ी ३. वही, २१३६ । Jain Education international Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ६. उपधानश्रुत, उ० १. गाथा ६-१० ७. जे के इमे अगारत्था, मोसीभावं पहाय से झाति । पुट्ठो वि णाभिभासिसु, गच्छति णाइवत्तई अंजू ॥ सं०—ये के इमे अगारस्थाः, मिश्रीभावं प्रहाय स ध्यायति । पृष्टोऽपि नाभ्यभाषिष्ट, गच्छति नातिवर्तते ऋजुः । गृहस्यों से संकुल स्थान प्राप्त होने पर भी भगवान् अपने मन को किसी में न लगाते हुए ध्यान करते थे। ये पूछने पर भी नहीं बोलते। उन्हें कोई बाध्य करता तो वे वहां से मौनपूर्वक दूसरे स्थान में चले जाते । वे ध्यान का अतिक्रमण नहीं करते और प्रत्येक स्थिति में मध्यस्थ रहते ।" ८. जो सुगरमेतमेसि णामिमासे अभिवायमाणे । हयपुग्यो तत्थ दंडेहि लूसियपुध्वो अप्यपुण्णेहिं ॥ सं० - नो सुकरमेतदेकेषां नाभिभाषते अभिवादयतः । हतपूर्वः तत्र दण्डे, लूषितपूर्वः अल्पपुण्यैः । , भगवान् अभिवादन करने वालों को आशीर्वाद नहीं देते थे। डंडे से पीटने और अंग-भंग करने वाले अभागे लोगों को वे शाप नहीं देते थे । साधना की यह भूमिका हर किसी साधक के लिए सुलभ नहीं है । भाष्यम् ७,८ स्पष्टम् । स्पष्ट है । ६. फरसाई दुतितिखाई, अतिअच्च गुणी परक्कममाणे आधाय जट्ट गोसाई, डाई मुट्टाई ।। सं० परुषाणि दुस्तितिक्षाणि अतिगत्य मुनिः पराक्रममाणः । आख्यात नाट्यगीतानि दण्डयुद्धानि मुष्टियुद्धानि । भगवान् दुःसह रूखे वचनों पर ध्यान ही नहीं देते थे। उनका पराक्रम आत्मा में ही लगा रहता था। भगवान् आख्यायिका, नाट्य, गीत, दण्डयुद्ध और मुष्टियुद्ध –इन कौतुकपूर्ण प्रवृत्तियों में रस नहीं लेते थे । भाष्यम् ९ - अस्यानुसारी उपदेश:'णिविद दि इह जीवियस्स । २ 'अवि से हासमासज्ज, हंता गंदीति मन्नति । " 'णिविद मंदि अरते पयासु ।" 'हा परिन आलीणगुत्तो परिवाए। १. भगवान् ध्यान के लिए एकान्त स्थान का चुनाव करते थे । यदि एकांत स्थान प्राप्त नहीं होता, तो मन को एकान्त बना लेते थे - बाह्य स्थितियों से हटाकर अन्तरात्मा में लीन कर लेते थे । क्षेत्र से एकान्त होना और एकांत क्षेत्र की सुविधा न हो तो मन को एकांत कर लेनादोनों ध्यान के लिए उपयोगी हैं। ४१५ इसका संवादी उपदेश है 'पुरुष ! तू जीवन में होने वाले प्रमोद से अपना आकर्षण हटा ले ।' 'आसक्त मनुष्य हास्य-विनोद में जीवों का वध कर हर्षित होता है।' 'तू कामभोग के आनन्द से उदासीन बन । स्त्रियों में अनुरक्त मत बन ।' । १०. गढिए मिहो कहासु, समयंमि णायसुए बिसोगे अवक्खू एताई सो उरालाई गण्ड णायपुले असरणाए । सं० ग्रथितान् मिथःकथासु, समये ज्ञातसुतः विशोक अद्राक्षीत् । एतानि स उदाराणि, गच्छति ज्ञातपुत्रः अस्मरणाय । कामकथा और सांकेतिक बातों में आसक्त व्यक्तियों को भगवान् हर्ष और शोक से अतीत होकर मध्यस्थ भाव से देखते थे । भगवान् इन दुःसह अनुकूल और प्रतिकूल उपसगों में स्मृति भी नहीं लगाते, इसलिए उनका पार पा जाते । 'हास्य आदि सब प्रमादों को त्याग कर, इन्द्रिय - विजय और मन-वचन काया का संवरण कर परिव्रजन कर ।' २. आयारो, २।१६२ । ३. वही, ३।३२ । ४. वही, ३।४७ । ५. वही, ३६१ । Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ आचारांगभाष्यम् भाष्यम् १०-ग्रथितः-अवबद्धः।' मिथःकथा - प्रथित का अर्थ है-अवबद्ध । मिथःकथा का अर्थ हैकामकथा, परस्परं जायमाना भक्तादीनां कथा वा। कामकथा अथवा आपस में होने वाली आहार आदि की कथा । समय समयः-संकेतः, सांकेतिकी कथेति यावत् । असरणं- का अर्थ है- संकेत । इसका तात्पर्य है सांकेतिक कथा। असरण का अस्मरणम् । अर्थ है-अस्मरण । । अस्यानुसारी उपदेश: इसका संवादी उपदेश है'णारति सहते वीरे, वीरे णो सहते रति ।४ 'वीर पुरुष संयम में उत्पन्न अरति और असंयम में उत्पन्न रति को सहन नहीं करता।' 'अरइरइसहे फरुसियं णो वेदेति । ५ 'जो अरति और रति को सहन करता है, उनसे विचलित नहीं होता, वह कष्ट का वेदन नहीं करता।' 'का अरई ? के आणंदे ? एत्थंपि अग्गहे चरे।" 'साधक के लिए क्या अरति और क्या आनन्द ? वह अरति और आनन्द के विकल्प को ग्रहण न करे।' ११. अविसाहिए दुवे वासे, सीतोदं अभोच्चा णिक्खंते । एगत्तगए पिहियच्चे, से अहिण्णायदंसणे संते ॥ सं०-अपि साधिको द्वौ मासो, शीतोदं अभुक्त्वा निष्क्रान्तः । एकत्वगतः पिहितार्चः, स अभिज्ञातदर्शनः शान्तः । भगवान् माता-पिता के स्वर्गवास के पश्चात् दो वर्ष से कुछ अधिक समय तक गृहवास में रहे। उस समय उन्होंने सचित्त भोजन और जल का सेवन नहीं किया। वे परिवार के साथ रहते हुए भी अन्तःकरण में अकेले रहे। उनका शरीर, वाणी, मन और इन्द्रिय-सभी सुरक्षित थे । वे सत्य का दर्शन और शान्ति का अनुभव कर रहे थे। इस गृहवासी साधना के बाद उन्होंने अभिनिष्क्रमण किया। भाष्यम् ११-अभुक्त्वा--अपीत्वा। बंगभाषायां अभोच्चा (सं० अभुक्त्वा) का अर्थ है-बिना पीए । बंग भाषा पानार्थेऽपि भोजनार्थधातोः प्रयोगो दृश्यते । स भगवान् में पीने के अर्थ में भी भोजन अर्थ वाली धातु का प्रयोग होता है । अभिज्ञातदर्शन:-क्षायिकसम्यग्दर्शन आसीत् । स भगवान् महावीर क्षायिक सम्यग्दर्शन के धारक थे। वे समूह के मध्य १. भगवान् प्रतिकूल और अनुकूल दोनों प्रकार के परीषहों ५. वही, ३७। को सहन करते थे। एक वीणा-बादक वीणा बजा रहा था। ६. वही, ३।६१ । भगवान् परिव्रजन करते हुए वहां आ पहुंचे। वीणा-वादक ७. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ ३०४-३०५ । ने भगवान् को देखकर कहा-'देवार्य ! कुछ ठहरो और (ख) भगवान् के माता-पिता का स्वर्गवास हुआ, तब वे मेरा वीणा-वादन सुनो।' भगवान् ने उसका अनुरोध अट्ठाइस वर्ष के थे। भगवान् ने श्रमण होने की इच्छा स्वीकार नहीं किया। वे कुछ उत्तर दिए बिना ही चले प्रकट की। उस समय नन्दीवर्द्धन आदि पारिवारिक गये। साधक के लिए यह एक अनुकूल कष्ट है लोगों ने भगवान से प्रार्थना की-'कुमार! इस __ से तंति चोएन्तो अच्छति, भगवं च हिंडमाणो आगतो, समय ऐसी बात कहकर, जले पर नमक मत डालो। सो तं आगतं पेच्छेत्ता भणइ-भगवं देवज्जगा! इमं ता इधर माता-पिता का वियोग और उधर तुम घर सुणेहि, अमुगं कलं वा पेच्छाहि, तत्थवि मोणेणं चैव छोड़कर श्रमण होना चाहते हो, यह उचित नहीं गच्छति ।' (आचारांग चूणि, पृष्ठ ३०३) है।' भगवान् ने इस बात पर ध्यान दिया। उन्होंने २. आचारांग चूणि पृष्ठ ३०३ : 'मिहोकहासमयोत्ति जे केवि इत्थिकहाति कहेंति, भत्तकहा देसकहा रायकहा दोन्नि जणा सोचा- 'यदि मैं इस समय दीक्षित होऊंगा, तो बहू वा, तहिं गच्छति, जातिवत्तति अंजू, अहवा रीयंतं बहुत सारे लोग शोकाकुल होकर विक्षिप्त हो अच्छतं वा पुच्छइ-तुम किंजाइत्थिया संदरी ? कि जाएंगे। कुछ लोग प्राण त्याग देंगे । यह ठीक नहीं बंभणी खत्तियाणी वतिस्सिी सुद्धी व ?एवमादी मिहुकहा।' होगा।' भगवान् ने बातचीत को मोड़ देते हुए ३. वही, पृष्ठ ३०३ : 'असरणं अचितणं अणाढायमाणंति कहा-'आप बतलाएं, मैं कितने समय तक यहां एगट्ठा, अहवा सरणं गिह, णऽस्स तं सरणं विज्जतीति रहूं ?' नन्दीवर्धन ने कहा-'महाराज और असरणगो, ण य सरणंति अतिक्कताणि पुव्यरयाणीति ।' महारानी की मृत्यु का शोक दो वर्ष तक मनाया ४. आयारो, २११६०॥ जाएगा। इसलिए दो वर्ष तक तुम घर में रहो।' Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ६. उपधानश्रुत, उ० १. गाथा ११-१३ समूहमध्यस्थितोऽपि एकत्वानुप्रेक्षया भावित एकत्वगत आसीत् । अर्चा - शरीरम् । भगवता कार्यसिद्धिः कृता । प्रायेण काविक्या: प्रवृत्तेः संवरणं कृतम् । तेन स पिहितार्थोऽभवत् । अस्यानुसारी उपदेश: 'एगो अहमंसि, न मे अस्थि कोइ, न याहमवि कस्सइ, एवं से एगरगिणमेव अप्पाणं समभिजाणिज्जा ।" 'अइअच्च सव्वतोसंगं, ण महं अस्थित्ति इति एगोहमंसि । 'अहेगे धम्म मादाय आयाणप्यभि सुपणिहिए चरे ।" 1 १२. पुढच आउकार्य, उकार्य च वाउकायं च पणगाई बीय-हरियाई, तसकार्य च सव्वसो णच्वा ।। सं० - पृथ्वीं च अप्कायं, तेजस्कायं च वायुकायं च । पनकानि बीजहरितानि, त्रसकायं च सर्वशः ज्ञात्वा । पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, पनक ( फफूंदी), बीज, हरियाली और त्रसकाय - इन्हें सब प्रकार से जानकर भाष्यम् १२ – प्रथमाध्ययने षड्जीवनिकायस्य क्रमः प्रस्तुत आगम के पहले अध्ययन में षड्जीवनिकाय का क्रम कुछ किञ्चिद् भिन्नोस्ति । पनकबीजहरितानि - एते सन्ति भिन्न है । पनक, बीज और हरित - ये वनस्पति के भेद हैं । वनस्पतेर्भदाः । ४१७ रहते हुए भी एकत्व अनुप्रेक्षा से भावित होने के कारण अन्तःकरण में अकेले थे । अर्चा का अर्थ है - शरीर । भगवान् ने कार्यसिद्धि उपलब्ध कर ली थी। उन्होंने कायिक प्रवृत्तियों का प्रायः संवरण किया था, इसलिए वे 'पिहिता' बन गए अर्थात् आत्ममुप्त हो गए। इसका संवादी उपदेश है- 'मैं अकेला हूं, मेरा कोई नहीं है, मैं भी किसी का नहीं हूं । इस प्रकार वह भिक्षु अपनी आत्मा को एकाकी ही अनुभव करे ।' १३. एवाई संति पडिले, चित्तमताई से अभिण्णाय परिवज्जियाण विहरिस्था, इति संखाए से महावीरे ॥ सं० एतानि सन्ति प्रतिलिख्य, चित्तवन्ति स अभिज्ञाय । परिवर्ण्य व्यहार्षीत् इति संख्याय स महावीरः । इनके अस्तित्व को देखकर, ये 'चेतनावान् हैं' यह निर्णय कर, विवेक कर, भगवान् महावीर इनके आरम्भ का वर्जन करते हुए विहार करते थे । एतदनुसारी उपदेश: 'समय लोग जाणता एव सत्योबरए ।" 'भिक्षु सब प्रकार से संग का परित्याग कर यह सोचे- मेरा कोई नहीं है, इसलिए मैं अकेला हूं ।' 'कोई व्यक्ति मुनि-धर्म में दीक्षित हो, वस्त्र - पात्र आदि में अनासक्त होकर विचरण करता है ।' भाष्यम् १३ – एते षड्जीवनिकायाः सन्ति । अस्ति ये छह जीवनिकाय हैं। इनका अस्तित्व है - यह देखकर, वे एषां अस्तित्वं इति प्रतिलेखनां कृत्वा, ते च चित्तवन्त चेतनावान् हैं - यह जानकर भगवान् महावीर ने उनके वध का परिइति अभिज्ञाय स भगवान् महावीरः तेषां वधं परिवर्जन किया भगवान् महावीर का इस विषयक कहा जाने वाला ज्ञान वजितवान । तस्य भगवतः वक्ष्यमाणं संख्यानं स्पष्टमासीत् । स्पष्ट था । भगवान् ने उनका अनुरोध स्वीकार कर लिया । भगवान् ने कहा 'एक बात मेरी भी माननी होगी। मैं भोजन आदि के विषय में स्वतंत्र रहूंगा । उसमें कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा। यह बात मान्य हो तभी मैं दो वर्ष तक रह सकता हूं।' नन्दीबर्द्धन आदि ने इसे स्वीकार कर लिया । इस अवधि में भगवान् ने सजीव वस्तु का भोजन नहीं किया और सभी पानी नहीं पिया। उन्होंने निर्जीव से हार आदि की शुद्धि की, किन्तु इसका संवादी उपदेश है 'सब आत्माएं समान हैं—यह जानकर पुरुष समूचे जीव-लोक की हिंसा से उपरत हो जाए ।' पूरा स्नान नहीं किया । भगवान् ने उस अवधि में अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचयं और अपरिग्रह का जीवन जिया । वे रात्रिभोजन नहीं करते थे । वे परिवार के प्रति भी अनासक्त रहे। यह गृहवास में साधुत्व का प्रयोग था । १. आयारो, ८ ९७ । २. वही, ६२ ३. वही, ६।३५ । ४. आयारो, ३३, द्रष्टव्यानि च १।१५-१७७ सूत्राणि । Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ आचारांगभाष्यम् १४. अदु थावरा तसत्ताए, तसजीवा य थावरत्ताए । अदु सव्वजोणिया सत्ता, कम्मुणा कप्पिया पुढो बाला ॥ सं० ---- 'अदु' स्थावराः सतायां, सजीवाश्च स्थावरतायाम् । 'अदु' सर्वयोनिकाः सत्त्वाः, कर्मणा कल्पिताः पृथक् बालाः। स्थावर जीव प्रस-योनि में उत्पन्न हो जाते हैं। त्रस जीव स्थावर-योनि में उत्पन्न हो जाते हैं। जीव सर्वयोनिक हैं प्रत्येक जीव प्रत्येक योनि में उत्पन्न हो सकता है । अज्ञानी जीव अपने ही कर्मों के द्वारा विविध रूपों की रचना करते रहते हैं। भाष्यम् १४ --सत्त्वाः सर्वयोनिकाः सन्ति । स्थावराः जीव सर्वयोनिक हैं- प्रत्येक जीव प्रत्येक योनि में उत्पन्न हो सकाये उत्पद्यन्ते, प्रसाश्च स्थावरकाये उत्पद्यन्ते । ते सकता है । स्थावर जीव त्रसकाय में उत्पन्न हो सकते हैं और त्रसजीव बाला: स्वकीयेन अज्ञानेन कर्मणां रचनां कुर्वन्ति स्व- स्थावरकाय में उत्पन्न हो सकते हैं। वे अज्ञानी जीव अपने अज्ञान से कर्मानुरूपां गतिं च प्रविशन्ति ।' कर्मों की रचना करते हैं और अपने कर्म के अनुरूप गति में प्रवेश करते १५. भगवं च एवं मन्नेसि, सोवहिए ह लुप्पती बाले। कम्मं च सव्वसो णच्चा, तं पडियाइक्खे पावगं भगवं ॥ सं०-भगवान् च एवममन्यत, सोपधिकः खलु लुप्यते बालः । कर्म च सर्वशः ज्ञात्वा, तं प्रत्याख्यात् पापकं भगवान् । 'अज्ञानी मनुष्य परिग्रह का संचय कर छिन्न-भिन्न होता है, इस प्रकार अनुचिन्तन कर तथा सब प्रकार से कर्म को जानकर भगवान् ने पाप का प्रत्याख्यान किया। भाष्यम् १५-भगवानेवं अमन्यत-सोपधिक: बालः भगवान् ऐसा मानते थे-अज्ञानी मनुष्य परिग्रह के कारण चौरादिभिलप्यते -मार्गादिषु अपहृतो लुण्टितो वा चोर आदि के द्वारा मार्ग में अपहृत होता है अथवा लूटा जाता है। भवति । उपधिः --वस्त्रादि । कर्म-प्रवृत्तिः, सर्वशः- उपधि का अर्थ है- वस्त्र आदि । कायवाङ्मनोभेदेन तद् ज्ञात्वा भगवान् पापकं कर्म कर्म का अर्थ है-प्रवृत्ति । उसके तीन प्रकार हैं-कायिक, वाचिक, प्रत्याख्यातवान् । और मानसिक । उसको सब प्रकार से जानकर भगवान् ने पापकर्म का प्रत्याख्यान कर दिया। पापक कर्म-हिंसादि। पापकर्म अर्थात् हिंसा आदि । अस्यानुसारी उपदेशः इसका संवादी उपदेश है'णिहाय दंडं पाणेहि, पावं कम्मं अकुब्वमाणे, एस महं 'जो प्राणियों के प्रति अहिंसक है और पाप-कर्म नहीं करता, अगथे वियाहिए।" वह महान् अग्रन्थ-ग्रन्थिमुक्त कहलाता है।' १६. विहं समिच्च मेहावी, किरियमक्खायणेलिसि जाणी। आयाणसोयमतिवायसोयं, जोगं च सव्वसो णच्चा ॥ सं०-द्विविधं समेत्य मेधावी, क्रियामाख्याय अनीदृशीं ज्ञानी । आदानस्रोतः अतिपातस्रोतः, योगं च सर्वशः ज्ञात्वा । ज्ञानी और मेधावी भगवान् ने क्रियावाद -आत्मवाद और अक्रियावाद-अनात्मवाद-दोनों की समीक्षा कर तथा इन्द्रियों के स्रोत, हिंसा के स्रोत और योग (मन, वचन और काया की प्रवृत्ति) को सब प्रकार से जानकर दूसरों के द्वारा अप्रतिपादित क्रिया का प्रतिपादन किया। १. उस समय यह लौकिक मान्यता प्रचलित थी कि स्त्री अगले जन्म में भी स्त्री होती है और पुरुष पुरुष होता है, धनी अगले जन्म में भी धनी और मुनि मुनि होता है। भगवान् महावीर ने इस लौकिक मान्यता को अस्वीकार कर 'सर्वयोनिक-उत्पाद' के सिद्धांत की स्थापना की। उसके अनुसार कर्म की विविधता के कारण भावी जन्म में योनि-परिवर्तन होता रहता है। २. आचारांग चूणि, पृष्ठ ३०६ : मणूसा लुप्पंति, चोरराय अग्गिमावीहि आलुष्पति, परत्थ कम्मोवहीमादाय नगरा दिएसु लुप्पति, कम्मग्गाओ लुप्पति, मोक्खसुहायो य लुप्पति। ३. वही, पृष्ठ ३०६ : कम्मं अट्ठविहं, तं सव्वसो सव्वपगारेहि पदिसठितिअणुभावतो जच्चा, जो य जस्स बंधहेऊ कम्प्रफलविवागं च । ४. वही, पृष्ठ ३०६-३०७ : पावगं हिंसादि, अणवज्जो तवो कम्मादि, ण तं पच्चक्खंति । ५. आयारो, ८।३३। Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ६. उपधानश्रुत, उ० १. गाथा १४- १७ भाग्यम् १६ मेधावी भगवान् द्विविधं क्रियावाद' अपवादं च समेत्य आयकाश्यपेन अर्हता पऋषभेण आख्यातां अनीदृशीं कर्मक्षयहेतुभूतां क्रियां समादृतवान् । आदानम् इन्द्रियाणि परिग्रहो वा अतिपातः हिंसा । योगः प्रवृत्तिः आदानातिपातयोः श्रोतांसि प्रवृत्तिच सर्वप्रकारेण ज्ञात्वा तत् परिहृतवान् । - १७. अयातिषं अणाउट्टे सयमण्णेस अकरणवाए जस्सित्थिओ परिणाया, सम्यकम्मावहाओ से अवक्लू ।। सं०- अतिपातिकां न आवर्तेत, स्वयमन्येषां अकरणतया । यस्य स्त्रियः परिज्ञाताः सर्वकर्मावहाः स अद्राक्षीत् । भगवान् स्वयं प्राणवध नहीं करते और दूसरों से नहीं करवाते थे । भगवान् ने देखा -- स्त्रियां सब कर्मों का आवहन करने वाली हैं, इसलिए उन्होंने स्त्रियों का परिहार किया। भाष्यम् १७ अतिपातिका हिंसा, तो अाउट्टे न आवर्तेत न कुर्यादित्यर्थः स्त्रियः सर्वकर्माविहाः एवं करे स अद्राक्षीत् । अतिपातिक का अर्थ है हिंसा । अणाउट्ट का अर्थ है-न स्त्रियां सब कर्मों का आवहन करने वाली है ऐसा भगवान् ने I देखा । १. सूत्रकृतांग १।१२।२०, २१ : अत्ताण जो जाणइ जो य लोगं, जो सासयं जाण असासयं च अहो वि सत्ताण विउट्टणं च जो आर्गात जाणइऽणागति च । जाति मरणं च चयणोववातं ॥ जो आसवं जाणति संवरं च । दुक्खं च जो जाणइ णिज्जरं च, सो मासिउमरिहति किरियवादं ॥ २. (क) भगवान् गृहवास में रहते हुए अनासक्त जीवन जी रहे थे, तब उनके चाचा सुपावं, भाई नन्दीवर्द्धन तथा अन्य मित्रों ने कहा- 'तुम शब्द, रूप आदि विषयों का भोग क्यों नहीं करते ?' 1 भगवान् ने कहा 'इन्द्रियां स्रोत हैं। इनसे बन्धन आता है । मेरी आत्मा स्वतन्त्रता के लिए छटपटा रही है । इसलिए में इन विषयों का भोग करने में असमर्थ हूं।' यह सुनकर उन्होंने कहा 'कुमार तुम ठंडा पानी क्यों नहीं पीते ? सचित्त आहार क्यों नहीं करते ?' भगवान् ने उत्तर दिया- 'हिंसा स्रोत है। उससे बन्धन आता है । मेरी आत्मा स्वतन्त्रता के लिए छटपटा रही है इसलिए मैं मेरे ही जैसे जीवों का प्राण-वियोजन करने में असमर्थ हूं ।' ४१६ मेधावी भगवान ने श्रियावाद और अभियाबाद —दोनों की समीक्षा कर आकाश्यप अर्हत् रूपम के द्वारा प्ररूपित, दूसरों के द्वारा अप्रतिपादित कर्मक्षय की हेतुभूत क्रिया को स्वीकार किया था आदान - का अर्थ है - इन्द्रियां अथवा परिग्रह । अतिपात अर्थात् हिंसा योग का अर्थ है-प्रवृति आदान और बतिपात के स्रोतों तथा प्रवृत्ति को सब प्रकार से जानकर भगवान् ने उनका परिहार किया । में उन्होंने कहा 'कुमार ! तुम हर समय ध्यान की मुद्रा बैठे रहते हो। मनोरंजन क्यों नहीं करते ?' भगवान् ने कहा – 'मन, वाणी और शरीर—ये तीनों स्त्रोत हैं। उनसे बन्धन आता है। मेरी आत्मा स्वतंत्रता के लिए छटपटा रही है। इसलिए मैं उनकी चंचलता को सहारा देने में असमर्थ हूं ।' उन्होंने कहा 'कुमार तुम स्नान क्यों नहीं करते है भूमि पर वर्षो सोते हो ?" भगवान् ने कहा-'देहासक्ति और आराम ये दोनों खत हैं। मैं स्रोत का संवरण चाहता हूं। इसलिए मैंने इस चर्या को स्वीकार किया है। (ख) आचारांग चूणि, पृष्ठ ३०७ : केति भणति - जया फिर सो बंधूहि पम्मविओ परिसे चिट्ठति तदा फागुआहारो, सुपासनं दिवचणप्रभृतीहि सुहीहि भणितो कि पहासि ण व सौतोद पियसि ? भूमिए सुवसिय सचि आहारं आहारेसि, पुच्छितो परिणति 'मादाणतोतं अतिवातसोत' तब बच्चो, 'अतिपत्तियं अगा' तहेच, अह इत्थीओ कि परिहारसित्ति भणितो यदि भणतिजस्सित्यीओ परिणाला अहवा उपदेशगमेव । ' ३. (क) आचारांग चूर्णि पृष्ठ ३०७ : अतिवादिज्जति जेण सो अतिवादो हिसाब, आउट्टणं करणं तं अतिवात भाउवृति सयं, अण्णेहि अविकरणाएत्ति ण करेति अन्नेहि नाणुमोदति । (ख) वृत्तिकृता प्रथमपादस्य मिनोर्थः कृतोस्ति आकुट्टिः हिसा नाकुट्टित्वाद्धिरहियर्थः किमुताम् अतिकान्ता पातकादतिपातिका निर्दोषा तामाथित्य स्वतोऽन्येषां चाकरणतया - - अध्यापारतया प्रवृत्त इति ।' ( आचारांग वृत्ति, पत्र २७७ ) Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० आचारांगभाष्यम् अस्यानुसारी उपदेश: इसका संबादी उपदेश है-- 'तं परिणाय मेहावी व सयं एतेहि काएहि दंड समारं- 'मेधावी उस कर्म-समारम्भ का विवेक कर इन सूक्ष्म जीवभेज्जा, जेवण्णेहि एतेहिं काहि दंड समारंभावेज्जा, नेवण्णे कायों के प्रति स्वयं दण्ड का प्रयोग न करे, दूसरों से न करवाए और एतेहिं काएहि दंड समारंभंते वि समणुजाणेज्जा ।" करने वालों का अनुमोदन न करे।' 'जहेत्थ कुसले णोवलिपिज्जासि ।। 'जिससे कुशल पुरुष इस परिग्रह में लिप्त न हो।' 'मा तेसु तिरिच्छमप्पाणमावातए । 'साधक अपने आपको कामभोगों के मध्य में न फंसाए।' १८. अहाकडं न से सेवे, सव्वसो कम्मुणा य अदक्खू । जं किचि पावगं भगवं, तं अकुव्वं वियर्ड भंजित्था ॥ सं० आधाकृतं न स सेवते, सर्वशः कर्मणा च अद्राक्षीत् । यत्किञ्चिद् पापकं भगवान्, तमकुर्वन् विकटमभुक्त ।। भगवान् ने देखा कि मुनि के लिए बना हुआ भोजन लेने से सब प्रकार से कर्म का बंध होता है, इसलिए उसका सेवन नहीं किया। भगवान् आहार-सम्बन्धी किसी भी पाप का सेवन नहीं करते थे। वे प्रासुक भोजन करते थे। भाष्यम् १८ इदानीं आहारचर्या । 'अहाकडं' इति अब भगवान् महावीर की आहारचर्या का प्रकरण प्रस्तुत है। आहाकडस्य हस्वीकृतं रूपमस्ति । भिक्षु आधाय- 'अहाकड' यह 'आहाकड' का ह्रस्वीकृत रूप है । आधाकृत भोजन का मनसीकृत्य कृत आहार आधाकृत इत्युच्यते । भगवान् अर्थ है-मुनि को लक्ष्य कर बनाया हुआ भोजन । भगवान् ने आधाकृत आधाकृतं न गृहीतवान् । तद्ग्रहणे सर्वशः इति सर्वभावेन आहार नहीं लिया। उन्होंने देखा कि उसको ग्रहण करने से सब प्रकार कर्मबन्धमद्राक्षीत् । पापक-अशुद्धम् । भगवता से कर्मबंध होता है । पापक का अर्थ है-अशुद्ध । जो कुछ पापक था, यत्किञ्चित् पापकं तत् परिहृतम् । विकटं विकृतमिति भगवान् ने उसका परिहार किया। भगवान् ने विकट अर्थात् प्रासुक प्रासुकं भोजनं कृतम् । भोजन किया। अस्यानुसारी उपदेशः इसका संवादी उपदेश है'से णाइए, णाइआवए, ण समणुजाणइ ।'५ 'मुनि आसक्ति बढाने वाले आहार को स्वयं ग्रहण न करे, दूसरे से ग्रहण न करवाए और ग्रहण करने वाले का अनुमोदन न करे।' 'सव्वामगंधं परिण्णाय, णिरामगंधो परिव्वए।" 'मुनि सब प्रकार की भोजन की आसक्ति का परित्याग कर अनासक्त रहता हुआ परिव्रजन करे।' १६. णो सेवतीय परवत्थं, परपाए वि से ण मुंजित्था। परिवज्जियाण ओमाणं, गच्छति संखडि' असरणाए॥ सं.-नो सेवते यः परवस्त्रं, परपात्रेऽपि स नाऽभुक्त। परिवावमानं गच्छति 'संखडि' अस्मरणाय । भगवान् स्वयं अवस्त्र थे और किसी दूसरे के वस्त्र का सेवन नहीं करते थे। वे स्वयं पात्र नहीं रखते थे और किसी दूसरे के पात्र में नहीं खाते थे। वे 'अवमान-मोज' में आहार के लिए नहीं जाते थे। वे सरस भोजन की स्मृति नहीं करते थे। भाष्यम् १९. साम्प्रतं उपकरणचर्या भिक्षाचर्या च। अब उपकरणचर्या तथा भिक्षाचर्या का प्रकरण है । प्रव्रज्या भगवतः प्रव्रज्याकाले एकशाटकत्वमासीत् इति के समय भगवान् एकशाटक थे, यह चौथे श्लोक में प्रतिपादित है। चतुर्थश्लोके प्रतिपादितमस्ति । अत्र परवस्त्रं न सेवितमिति प्रस्तुत आलापक में यह सूचित किया गया है कि भगवान् ने परवस्त्र सूचितम् । का उपयोग नहीं किया। १. आयारो, ८1१८ । २. वही, २०४८ । ३. वही, २११३३ । ४. (क) चू! 'पावग' पदस्य अनेके अर्थाः कृताः सन्तिपावगमिति असुद्धं ....... अहवा पावगमिति मंसमज्जादि, तत्थ अकुटवं ण आसति, जं च अण्णं संजोयणादिपमाणइंगालधूमणिक्कारणादि आहारअस्सितं पावं तं अकुव्वं । (आचारांग चूणि, पृष्ठ ३०८) (ख) वृत्तौ पापकं पापोपादानकारणं इत्येव उल्लिखितमस्ति । (आचारांग वृत्ति, पत्र २७७) ५. आयारो, २११०७॥ ६. वही, २।१०८। ७. देशीयशब्दः। Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ६. उपधानश्रुत, उ० १. गाथा १८-२० परः गृहस्य | परपात्रे भोजनमपि न कृतम् । स्वयं च पात्रं न धृतम् ।' यस्मिन् भोगे भोजनस्य प्रमाणं अवमं भवति स अवमान मित्युच्यते । भगवान् तादृशं भोगं परिवर्जितवान्, सरसभोजनस्य स्मरणमपि न कृतवान् । 'संघ' भोगः । अच्छि को मज्जिया णोवि य कंद्रयये मुणी गावं ॥ २०. मायणे असण- पाणस्स, णाणुगिछे रसे अपडणे सं०-- मात्राश: अन्नपानस्य नानुमृद्ध रसेषु अप्रतितः। अयपि को प्रामाक्षत्, नोषि च कण्डूविष्ट मुनिः गात्रम् । , भाष्यम् २० - भगवान् अशनपानयोर्मात्रां ज्ञात्वा भुक्तवान् पीतवान् । स रसेषु अनुगृद्धः नासीत्, अत एव मात्राश आसीत् । स रसेषु नानुएद्धः, अत एव अप्रतिश' १. (क) अत्र पूणिनिदिष्टा परम्परा दिवं देवा संपवणं हितं तं साहियं पर बंधे देव धरितं गति पायं तं मुदा परवत्यं परिहारितमविण घरि वा केंद्र इच्छति से वत्वं तस्स तत् सेसं परवत्यं जं गाहितं णासेवितंपि तहा सपत्तं तस्स पाणिपत्तं, सेसं परपत्तं, तत्थ भगवान् अशन और पान की मात्रा को जानते थे । वे रसों में लोलुप नहीं थे। वे भोजन के प्रति संकल्प नहीं करते थे । वे आंख का भी प्रमार्जन नहीं करते थे। वे शरीर को भी नहीं खुजलाते थे। ण जित, तो केद्र इच्छति सपत्तो धम्मो पणपति भुंजितं, तेण पढमपारणं परपत्ते भुत्तं, तेण परं पाणिपत्ते, पगारो तहेव, अतिक्कतं वावि, गोसालेण किर तंतुवायसालाए मणियं अहं तव भोवणं आणेमि पिते का पि भगवता निच्छितं उप्पण्णनाणस्स लोहज्जो आणेति'धन्नो सो लोधज्जो खंतिखमो'। किं तत्थ ता ण अडियवं ? भणियं देविदचकवट्टी मंडलिया ईसरा तलवरा य अभिगच्छति जिणिदं गोयरचरितं ण सो अडति ।। छउमत्थकाले अडियं । (आचारांग चूर्णि, पृष्ठ ३०८-३०९ ) (ख) वृत्ती परशन्दस्य प्रधानमित्यर्थः कृतोस्ति परवस्त्रंप्रधानं वस्त्रं परस्य वा वस्त्रं परवस्त्रं नासेवते तथा परपात्रेस न भुङ्क्ते । ( आचारांग वृत्ति पत्र २७७) (ग) चूर्णि के अनुसार भगवान् ने दीक्षा के समय एक वस्त्र रखा था। तेरह मास बाद उसे विसर्जित कर दिया। फिर उन्होंने किसी वस्त्र का सेवन नहीं किया। - ४२१ 'पर' का अर्थ है – गृहस्थ । उन्होंने परपात्र गृहस्थ के पात्र में भोजन भी नहीं किया। स्वयं ने पात्र नहीं रखा । " भगवान् ने दीक्षित होने के बाद प्रथम पारण में गृहस्थ के पात्र में भोजन किया था। उसके बाद वे 'पाणिपात्र' हो गए । फिर किसी के पात्र में भोजन नहीं किया। एक बार भगवान् नालन्दा की तन्तुवायशाला में विहार कर रहे थे। उस समय गोशालक ने कहा- 'भंते! मैं आपके लिए भोजन लाई' 'यह गृहस्थ के पात्र में भोजन लाएगा' ऐसा सोचकर भगवान् ने उसका निषेध कर दिया । केवलज्ञान जिस भोज में भोजन का प्रमाण न्यून हो जाता है, वह अवमान भोज कहलाता है । भगवान् ने वैसे भोज का परिवर्जन किया और सरस भोजन की स्मृति भी नहीं की । 'संखडि' का अर्थ है- जीमनवार । भगवान् अशन और पान की मात्रा को जानकर भोजन करते थे, पानी पीते थे। वे रसों में लोलुप नहीं थे, इसीलिए वे मात्रज्ञ थे । ने रसों में आयुक्त नहीं थे, इसीलिए वे अप्रतिज्ञ थे मुझे इस प्रकार उत्पन्न होने पर भगवान् तीर्थंकर हो गये । तब उनके लिए लोहा नाम का मुनि गृहस्थों के घर से भोजन लाता था । किन्तु भगवान् उसे हाथ में लेकर ही भोजन करते थेपात्र में नहीं करते थे । प्रस्तुत वर्णन साधना कालीन चर्या का है। इसलिए लोहायें द्वारा लाया जाने वाला भोजन यहां विवक्षित नहीं है । ( द्रष्टव्य-- आचारांग चूर्णि, पृष्ठ ३०९ ) २. (क) आचारांग चूर्ण, पृष्ठ ३०९ : 'ओमं माणं करेति, ओमाणं जं जस्स दिन्नति तं जणं विज्जति सह सुपदचखप्यवादीहि आहारकंखीहि संतेहि परिपुन्नेहि चरति ।' (ख) वृत्तौ ( पत्र २७७ ) अवमानपदस्यार्थः समीचीनः नास्ति । (ग) आचारचूलायां ( ११३४-३५) दशर्वकालिकचूलायां (२६) भूमिकृतस्यार्थस्य समर्थन प्राप्यते'वह भोज जहां गणना से अधिक खाने वालों की उपस्थिति होने के कारण खाद्य कम हो जाए, अवमान कहलाता है। जहां 'परिगणित' लोगों के लिए भोजन बने वहां से भिक्षा लेने पर भोजकर अपने निमंत्रित अतिथियों के लिए फिर से दूसरा भोजन बनाता है या भिक्षु के लिए दूसरा भोजन बनाता है या देता ही नहीं, इस प्रकार अनेक दोषों की संभावना से इसका निषेध है । 1 (दसवेलियं भूलिका २६ का टिप्पण ३. आचारांग चूर्णि, पृष्ठ ३०९-१० : 'अपडणे ण तस्स एवं पडिण्णा आसी जहा मते एवं विहा भिक्खा भोज्जा ण वा मोठ्या इति तत्र अभिमाहपदमा आसी जहा कुम्मासा मए भोत्तव्वा इति ।' Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ आचारांगभाष्यम् आसोत । एवंविधं भोजनं मया भोक्तव्यं अथवा एवंविधं का भोजन करना चाहिए अथवा इस प्रकार का नहीं करना चाहिए न भोक्तव्यं, अस्मिन् विषये संकल्पमुक्त आसीत् । अनेन इस विषय में भगवान् संकल्प-मुक्त थे। इसके द्वारा भगवान् का रसभगवतो रसपरित्यागसंज्ञकं तपः अभिहितम् । १. आभाहतम्। परित्याग नामक तप का कथन हुआ है। ___इदानीं कायक्लेशाभिधं तपः उच्यते । भगवान् रेणौ अब कायक्लेश तप बताया जा रहा है। आंख में मिट्टी बा रजसि पतितेऽपि अक्षि न प्रमाजितवान् ।' मशका- का कण अथवा रज गिर जाने पर भी भगवान् आंख का प्रमार्जन नहीं दिभिः दष्टोपि न गात्रं कण्डयितवान् । करते थे। मच्छर आदि के काटने पर भी वे शरीर को नहीं खुजलाते थे। अस्यानुसारी उपदेशः इसका संवादी उपदेश है'से भिक्खू कालण्णे बलण्णे मायण्णे खेयण्णे खणयण्णे विण- 'वह भिक्षु कालज्ञ, बलज्ञ, मात्रज्ञ, क्षेत्रज्ञ, क्षणज्ञ, विनयज्ञ, यण्ण समयण्णे भावणे, परिग्गहं अममायमाणे, कालेणदाई, समयज्ञ, भावज्ञ, परिग्रह पर ममत्व न करने वाला, काल में उत्थान अपडिण्णे ।३ करने वाला और अप्रतिज्ञ होता है।' ___ 'लद्धे आहारे अणगारे मायं जाणेज्जा, से जहेयं भगवया 'आहार प्राप्त होने पर मुनि मात्रा को जाने, भगवान् ने जैसे पवेइयं । इसका निर्देश किया है।' 'से भिवखू वा भिक्खुणी वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा 'भिक्षु या भिक्षुणी अशन, पान, खाद्य या स्वाध का सेवन साइमं वा आहारेमाणे णो वामाओ हणुयाओ दाहिणं हणुयं करती हुई बाएं जबड़े से दाहिने जबड़े में न ले जाए, आस्वाद लेती संचारज्जा आसाएमाणे, दाहिणाओ वाहणुयाओ वामं हणुयं णो हुई तथा दाएं जबड़े से बाएं जबड़े में न ले जाए, आस्वाद लेती हुई। संचारज्जा आसाएमाणे, से अणासापमाणे । ५ वह अनास्वादवृत्ति से आहार करे।' २१. अप्पं तिरियं पेहाए, अप्पं पिट्टओ उपेहाए । अप्पं वुइएऽपडिभाणी, पंथपेही चरे जयमाणे॥ सं०-अल्पं तिर्यक् प्रेक्षते, अल्पं पृष्ठतः उत्प्रेक्षते । अल्पमुक्तेप्रतिभाषी, पन्थप्रेक्षी चरति यतमानः । भगवान् चलते हुए न तिरछे (दाएं-बाएं) देखते थे और न पीछे देखते थे । वे मौन चलते थे। पूछने पर भी बहुत कम बोलते थे। वे पंथ को देखते हुए प्राणियों की अहिंसा के प्रति जागरूक होकर चलते थे। भाष्यन् २१-अस्मिन् पद्ये भगवतो गमनविधि: इस पद्य में भगवान् की गमनविधि निरूपित है। गमनविधि निरूपितोऽस्ति । पुरतो दष्टि विन्यास: मौनं च-सूत्रद्वय- के दो सूत्र हैं-सामने दृष्टि का विन्यास करना और चलते समय मौन १. अत्र चूर्णी किञ्चिदधिकं व्याख्यातमस्ति-न वा पाये की दृष्टि से वे संकल्प करते थे, जैसे—'आज मुझे उड़द धुवति, हत्थे परे लेवाडं भोत्तुं मणिबंधाओ जाव धोवति । का भोजन करना है।' (आचारांग चूणि, पृष्ठ ३१०) भगवान् की आंखें अनिमिष थीं। वे पलक नहीं झपकाते । २. भगवान् का शरीर विशिष्ट स्वास्थ्य-शक्ति से युक्त था। उनकी आंखों में कोई रजकण गिर जाता, तो वे उसे उनके शरीर में साधारणतया अजीर्ण आदि दोष होने की निकालते नहीं थे। चींटी, मच्छर या जानवर आदि के सम्भावना नहीं थी। फिर भी वे मात्रा-युक्त भोजन करते काटने पर वे शरीर को खुजलाते नहीं थे। यह सब वे सहज थे । मात्रा से अतिरिक्त भोजन करने वाला शुभ ध्यान साधना के लिए करते थे। 'जो जैसा घटित होता है, वैसा आदि क्रियाओं का विधिवत् आचरण नहीं कर सकता। हो, उसमें मैं कोई हस्तक्षेप न करूं'-इस सहज साधना भगवान् शुभ ध्यान आदि के लिए मात्रा-युक्त भोजन करते का प्रयोग वे कर रहे थे। ३. आयारो, २१११०। भगवान् गृहवास में भी भोजन के प्रति उत्सुक नहीं थे। ४. वही, २१११३। वे प्रारम्भ से ही इस विषय में अनासक्त थे। प्रवजित होने ५. वही, ८१०१। पर साधना-काल में वह अनासक्ति चरम बिन्दु पर पहुंच ६. आचारांग चूणि, पृष्ठ ३१० : 'कयो एहि ? जाहि वा ? गई। कतो वा मग्गो ? एवं पुच्छितो अप्पं पडिभणति, अमावे 'मुझे इस प्रकार का भोजन करना है और इस प्रकार का दट्ठव्वो अप्पसद्दो, मोणेण अच्छति।' नहीं करना,' ऐसा संकल्प भगवान् नहीं करते थे। साधना Jain Education international Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ६. उपधानश्रुत, उ० १. गाथा २१-२३. उ० २. गाथा १ ४२३ मिदं गमन विधेः । भगवान् न प्रतिभणति-पृष्टोऽपि न रहना । भगवान् पूछने पर भी नहीं बोलते थे। ब्रूते । अस्यानुसारी उपदेशः इसका संवादी उपदेश है'जयंबिहारी चित्तणिवाती पंथणिज्झाती पलीवाहरे, पासिय 'मुनि संयमपूर्वक चित्त को गति में एकान कर पथ पर दृष्टि पाणे गच्छेज्जा।" टिका कर चले। जीव-जन्तु को देखकर पैर को संकुचित कर ले और मार्ग में आने वाले प्राणियों को देखकर चले।' २२. सिसिरंसि अद्धपडिबन्ने, तं वोसज्ज वत्थमणगारे । पसारित्त बाहं परक्कमे, णो अवलंबियाण कंधंसि ॥ सं०-शिशिरे अध्वप्रतिपन्नः, तत् व्युत्सृज्य वस्त्रमनगारः । प्रसार्य बाहु पराक्रमते, नोऽवलम्ब्य स्कन्धे । भगवान् वस्त्र का विसर्जन कर चुके थे। वे शिशिर ऋतु में चलते, तब हाथों को फैलाकर चलते थे। उन्हें कंधों में समेट कर नहीं चलते। २३. एस विही अणुक्कतो, माहणेण मईमया । अपडिण्णेण वीरेण, कासवेण महेसिणा।।-त्ति बेमि । सं०-एषः विधिः अनुक्रान्तः, माहनेन मतिमता । अप्रतिज्ञेन वीरेण काश्यपेन महर्षिणा । इति ब्रवीमि । मतिमान् माहन काश्यपगोत्री महर्षि महावीर ने संकल्प-मुक्त होकर पूर्व प्रतिपादित विधि का आचरण किया। --ऐसा मैं कहता भाष्यम् २२-२३ - स्पष्टम् ।। स्पष्ट है। बोओ उद्देसो : दूसरा उद्देशक १. चरियासणाई सेज्जाओ, एगतियाओ जाओ बुइयाओ। आइक्ख ताई सयणासणाई, जाई सेवित्था से महावीरा ॥ सं०-चर्यासनानि शय्याः एककाः याः उक्ताः । आख्याहि तानि शयनासनानि यानि असेबिष्ट स महावीरः । (जम्बू ने सुधर्मा से पूछा--) भंते ! चर्या के प्रसंग में कुछ आसन और वास-स्थान बतलाए गए हैं, किन्तु अब उन सब आसनों और वास-स्थानों को बताएं, जिनका महावीर भगवान् ने उपयोग किया था। भाष्यम् १–इदानीं शय्याप्रकरणम् । भगवान् महावीरः अब शय्या का प्रकरण है। शिष्य ने पूछा-भगवान् महावीर यानि शयनासनानि सेवितवान् तानि ज्ञातुमिच्छामि इति ने जिन शयन-आसनों का सेवन किया उनके विषय में जानना चाहता पृष्टे आचार्य आह ... हूं। यह पूछने पर आचार्य ने कहा १. आयारो, २६९ । २. भगवान् ने गृहवास के दो वर्ष तथा साधनाकाल के साढे बारह वर्षों में संकल्प-मुक्ति की साधना की। मैं अमुक भोजन करूंगा, अमुक नहीं करूंगा। मैं अमुक स्थान में रहूंगा, अमुक स्थान में नहीं रहूंगा। अमुक समय में नोंद लूंगा, अमुक समय में नहीं लूंगा'- इस प्रकार शरीर और उसकी आवश्यकतापूर्ति के प्रति उनके मन में कोई प्रतिज्ञा नहीं थी, कोई संकल्प नहीं था। साधना के अनुकूल सहज भाव से जो घटित होता, उसी को वे स्वीकार कर लेते। ३. अत्र चूणौ शय्याविषये किञ्चिद् विशिष्टमुल्लिखितमस्ति'ण वि भगवतो आहारवत् सेज्जाभिग्गहा णियमा आसी, पडिमाभिग्गहकाले तु सिज्जाभिग्गहो आसी, जहा एगराईयाए बहिया गामादीणं ठिओ आसी, सुसाणे अन्नयरे वा ठाणे, अहाभावकमेण जत्थेव तत्थ चउत्थी पोरिसी ओगाढा भवति तत्थेव अणुन्नवित्ता ठितवान्, तंजहा - आसणसभापवासु ।' (आचारांग चूणि, पृष्ठ ३११) Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ आचारांगभाष्यम २. आवेसण-सभा-पवासु, पणियसालासु एगदा वासो । अदुवा पलियट्ठाणेसु, पलालपुंजेसु एगदा वासो । सं०-आवेशन-सभा-प्रपासु, पण्यशालासु एकदा वासः । अथवा 'पलिय" स्थानेषु, पलालपुजेषु एकदा वासः । भगवान् कभी शिल्प-शालाओं (कुम्भकार-शाला, लोहकार-शाला आदि) में रहते थे, कभी सभाओं, प्याउओं, पण्य-शालाओं (दुकानों) में रहते थे । वे कभी कारखानों में और कभी पलाल-मण्डपों में रहते थे। भाष्यम् २ --आवेशनम्-शिल्पशाला। सभा-ग्राम- गाथागत शब्दों के अर्थसंसत् ।' प्रपा-पानीयशाला। पण्यशाला --आपणः । ० आवेशन-शिल्पशाला। सकुड्यं गृहम्,' कुड्यरहिता शाला । वासः-ऋतुबद्धे काले ० सभा- गांव की संसद् । रात्र्यां वसनं वर्षासु च । पलियं-कर्म, कर्मान्त:- ० प्रपा- प्याऊ । स्थानेषु । पलालपुञ्जेषु-पलालमण्डपेषु ।' ०पण्यशाला-दुकान । ० शाला-भीत सहित आवास को घर और भींत रहित को शाला कहा जाता है। • वास-ऋतुबद्धकाल में रात्री में रहना तथा वर्षाऋतु में रहना। • पलियट्ठाण-कर्मान्तस्थान-कारखाना। • पलालपुञ्ज–पलालमंडप । ३. आगंतारे आरामागारे, गामे णगरेवि एगदा वासो। सुसाणे सुण्णगारे वा, रुक्खमूले वि एगदा वासो॥ सं०-आगन्तारे आरामागारे, ग्रामे नगरेऽपि एकदा वासः । श्मशाने शून्यागारे वा, रूक्षमूलेऽपि एकदा वासः । भगवान् कभी यात्री-गृहों और कभी आरामगृहों में रहते थे। कभी गांव में रहते थे और कभी नगर में, कभी श्मशान में और कभी शून्यगृह में रहते थे तथा कभी-कभी वृक्ष के नीचे भी रहते थे। भाष्यम् ३–आगन्तारं-यात्रिगृहमिति । आरामागारं- आगन्तार का अर्थ है- आने वालों का घर अर्थात् यात्रीगृह । आरामगृहम् ।" कदाचिद् ग्रामे कदाचिन्नगरेऽपि भगवतो आरामागार अर्थात् आरामगृह । भगवान् कभी गांव में और कभी १. देशीयशब्दः। २. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ ३११: 'आगंतुं विसति जहियं आवेसणं' जं भणियं गिहं लोगप्पसिद्ध, जहा कुंभारावेसणं लोहारावेसणं एवमादि । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २७८ : आवेशनं-शून्यगृहम् । ३. (क) आचारांग चूणि पृष्ठ ३११-३१२ : सभा नाम नगरा दीणं मझे देसे कोरंति, गामे पउरसमागमा य भवंति, सेणिमादीणं तु पत्तेयं सभा भवंति। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २७८ : सभा नाम ग्रामनगरा दीनां तद्वासिलोकास्थायिकार्थमागन्तुकशयनार्थं च कुड्याधाकृतिः क्रियते। ४. आचारांग चूणि, पृष्ठ ३१२ : जत्थ रुद्दादिपडिमाओ ठविज्जंति, पिविस्संति पेहियादि सा पवा, तंजहा - उदगप्पवा गुलउदकप्पवा खंडप्पवा सक्करप्पवा एवमादि । ५. वही, पृष्ठ ३१२ : पणियगिहं आवणो पणियसालत्ति । ६. वही, पृष्ठ ३१२ : पढंति सालघराणं विसेसो, सकुडं घरं कडुरहिता साला, जंवा लोगसिद्ध णाम, जहा सकुड्डावि हत्थिसाला बुच्चति । ७. वही, पृष्ठ ३१२ : वास इति राईगहिता उडुबद्ध, वासासु। ८. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ ३१२ : पलियं नाम कम्म, यदुक्तं भवति-कम्मतट्ठाणेसु, दम्भकम्मंतादिसु, अहवा पलिगाति ठाणं, तंजहा-गोसाला, गोबद्धो वा करीसरहितो, ण अज्झावगासं। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २७९ : पलियन्ति कर्म तस्य स्थानं कर्मस्थानं-अयस्कारवर्द्धकिकुड्यादिकं । ९. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ ३१२ : पलियं तु पलालं, पुंजो संघातो, पलालमंडवस्स हेट्ठासु सिरत्ताणे पलालपुंजेसु पविसति। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २७९ : पलालपुजेषु मञ्चो परि व्यवस्थितेष्वधो, न पुनस्तेष्वेव, शुषिरत्वादिति । १०. आचारांग चूणि पृष्ठ ३१२ : आगंतु जत्य आगारा चिट्ठति तं आगंतारं। ११. वही, पृष्ठ ३१२ : आरामे आगारं आरामागारं । Jain Education international Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ६. उपधानश्रुत, उ० २. गाथा २-४ वासो जातः । एकदा - ऋतुबद्धे काले' श्मशाने - श्मशानस्य पार्श्वे । ४. एहि मुणी सह, समणे आसी पतेरस वासे । राई दिवं पि जयमाणे, अप्पमत्ते समाहिए झाति || सं० -- एतेषु मुनिः शयनेषु, श्रमणः आसीत् प्रत्रयोदशवर्षम् । रात्रि दिवा अपि यतमानः, अप्रमत्तः समाहितः ध्यायति । भगवान् साधनाकाल के उत्कृष्ट तेरह वर्षों में इन वास-स्थानों में प्रसन्नमना रहते थे। वे रात और दिन स्थिर और एकाग्र तथा अप्रमत्त रह कर समाहित अवस्था में ध्यान करते थे । भाष्यम् ४ एतेषु निर्दिष्टेषु शयनेषु तथा अन्येष्वपि शैलगृहादिषु श्रमण भगवान् महावीरः । अथवा समना: - सममनाः । पतरेस वासे प्रत्रयोदशवर्षं प्रकर्षेण त्रयोदशवर्षं यावत् । रात्रौ दिवापि यतमानः भगवान् यथा दिवा' तथा रात्रौ सर्वदा यतमान:मनोवाक्कायैः एकाग्रः, अप्रमतः- जितेन्द्रियः कषायरहितश्च समाहितः सन् धर्मं शुक्लं वा ध्यायति । अस्थानुसारी उपदेश: 'अलं कुसलस्स पमाएणं । " 'संति मरणं संपेहाए, भेउरधम्मं संपेहाए ।" - 'पासिय आउरे पाणे, अप्पमत्तो परिब्वए ।" 'अहो य राओ य जयमाणे, वीरे सया आगयपण्णाणे । पमत्ते बहिया पास, अप्पमते सया परक्कमेज्जासि ।" वा १. अत्र चूर्णिपरम्परा – अयं तु विसेसो—गामे एगरतं नगरे पंचरतं, एवं उदुबद्धे, वासासु नियमा चत्तारि मासे वासो, गामादीनं पुण कमाई अंतो का माह मा । ( आचारांग चूर्णि, पृष्ठ ३१२) २. श्मशानादिविषये बूर्णिपरम्परा सबसणं सुसाणं सुलगा सुन्न अवारं सुन्नागार हवा धमात्थ पुष्कफलाई नपति, एगतत्ति उडुबद्धे, न तु वस्सासु, सुसाणरुक्खस्स तले वा वसति, सुन्नागारं वा जं न गलति । ( आचारांग चूणि, पृष्ठ ३१२ ) ३. आचारांग चूणि, पृष्ठ ३१२ : समणेत्ति स एव वद्धमाणसामी, अहवा ते पवातनिवातसमसिमे सोच निरुवसग्ये वसतिसु समन एव आसी अतो समणे, न्हा दुखासी तहा तहा मिसतरं समण आती। ४. वही, पृष्ठ ३१२ पगतं पत्थियं वा तेरसमं वरिसं जेसि वरिसाणं ताणिमाणि पतेरसवरिसाणि छउमत्थकाले । ४२५ नगर में भी रहते थे। एकदा का अर्थ है— ऋतुबद्धकाल में। यहां श्मशान का तात्पर्य है - श्मशान के पार्श्ववर्ती क्षेत्र में । । भगवान् इन निर्दिष्ट वास स्थानों में तथा अन्य पर्वतीय आवासों पर्वत पर उत्कीर्ण भवन, गुफा आदि में भी रहते थे । श्रमण अर्थात् — श्रमण महावीर अथवा समतायुक्त मन वाले पतरेस वासे का अर्थ है - उत्कृष्ट तेरह वर्ष । भगवान् रात में और दिन में भी यतमान रहते थे। जिस प्रकार दिन में उसी प्रकार रात में सदा यतमान अर्थात् मन, वचन और शरीर को स्थिर और एकाग्र कर अप्रमत्त अर्थात् इन्द्रियों को शांत कर कवायसून्य होकर समाहित अवस्था में धर्मध्यान अथवा शुक्लध्यान में तन्मय हो जाते थे । संवादी उपदेश - 'कुशल प्रमाद न करे ।' 'शांति और मरण की संप्रेक्षा करने तथा अनित्य शरीर की संप्रेक्षा करने पर अप्रमाद की वृद्धि होती है ।' 'सुप्त मनुष्यों को आतुर देखकर जागृत पुरुष निरन्तर अप्रमत रहे।' 'दिन-रात यत्न करने देखता है कि जो प्रमत्त हैं, वे होकर सदा पराक्रम करे ।' वाला और सदा लब्धप्रज्ञ वीर साधक धर्म से बाहर हैं। इसलिए वह अप्रमत्त ५. वही, पृष्ठ ३१२-३१३ : जहा रति तहा दिवा, उभयग्गहणमवि सामत्यं ण तु जहा अन् याणमोणादीए जला रति सारक्खणत्थं गिद्दं भजंति, सो तु भगवं जहा दिवा तहा रात पि जयमाणेत्ति मणोवाक्काएहिं एगग्गो अप्पमत्त इति जितिदियो कसायरहितो, कहं ? मम एवे पमादा ण भविज्ज, ठाणाइएसु अप्पमत्ते ज्झाणे य, सम्मं आहितो समाहितो धम्मे सुपके पति भगवं ६. आचारांग वृत्ति, पत्र २७९ : यतमानः संयमानुष्ठान ज्युक्तवान् तथाऽप्रमत्ती निद्राविप्रमादरहितः 'समाहित मना' विस्रोतसिकारहितो धर्मध्यानं शुक्लध्यानं वा ध्यायतीति । ७. आयारो, २।९५ । ८. वही, २९६ । ९. वही, ३।११। १०. वही, ४।११। Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ आचारांगभाष्यम् ५. णिई पि णो पगामाए, सेवइ भगवं उदाए । जग्गावती य अप्पाणं, ईसि साई या सी अपडिण्णे ॥ सं०-निद्रामपि नो प्रकाम, सेवते भगवानुत्थाय । जागरयति च आत्मानं, ईषच्छायी चासीद् अप्रतिज्ञः । भगवान् शरीर-सुख के लिए अधिक नींद नहीं लेते थे। निद्रा का अवसर आने पर वे खड़े होकर अपने-आप को जागृत कर लेते थे। वे (चिर जागरण के बाद शरीर-धारण के लिए) कभी-कभी थोड़ी नींद लेते थे। उनके मन में निद्रा-सुख की आकांक्षा नहीं थी। भाष्यम ५-भगवान निद्रां न प्रकामं सेवते । यदा भगवान् अधिक नींद नहीं लेते थे। जब कभी नींद का प्रसंग कदा निद्राप्रसङ्गोऽभूत् तदा अनित्यजागरिकया तत्क्षणं आता तब वे अनित्य-जागरिका से तत्क्षण उठकर अपने-आपको जागृत उत्थाय आत्मानं जागरयति। कदाचिद् ईषत्-- कर लेते थे। कभी पलभर नींद लेते, फिर भी निद्रा-सुख के प्रति निमेषमात्र शेते, तथापि निद्रासुखं प्रति अप्रतिज्ञ आसीत् । अप्रतिज्ञ रहते थे, उसकी आकांक्षा नहीं करते थे। ६. संबुज्झमाणे पुणरवि, आसिसु भगवं उट्ठाए । णिक्खम्म एगया राओ, बहिं चंकमिया मुहत्तागं ।। सं०-संबुध्यमानः पुनरपि, आसिष्ट भगवानुत्थाय । निष्क्रम्यैकदा रात्री बहिश्चंक्रम्य मुहूर्तकम् ।। भगवान् पलभर की नींद के बाद फिर जागृत होकर आन्तरिक जागरूकतापूर्वक ध्यान में बैठ जाते थे। कभी-कभी रात्री में नींद अधिक सताने लगती तब वे उपाश्रय से बाहर निकलकर मुहूर्त्तभर चंक्रमण करते, (फिर अपने स्थान में आकर ध्यान-लीन हो जाते)। भाष्यम् ६-भगवान् निमेषमात्रं निद्राय तत्क्षणं भगवान् पलभर की नींद लेकर भी तत्क्षण पुनः जाग जाते थे । पुनरपि संबुध्यते। कदाचित् निद्रां जेतुं रात्रौ स्थानाद् कभी-कभी निद्रा पर विजय पाने के लिए रात में अपने स्थान से बाहर बहिर्महत्तं चक्रमणं करोति ।' आकर मुहूर्त भर चंक्रमण करते । ७. सयहिं तस्सुवसग्गा, भीमा आसी अणेगरूवा य । संसप्पगाय जे पाणा, अदुवा जे पविखणो उवचरंति ॥ सं०-शयनेषु तस्योपसर्गाः, भीमाः आसन्ननेकरूपाश्च। संसर्पकाः च ये प्राणाः, अथवा ये पक्षिणः उपचरन्ति । भगवान को उन आवास-स्थानों में अनेक प्रकार के भयंकर उपसर्ग झेलने पड़े। (वे ध्यान में रहते, तब) कभी सांप और नेवला काट खाते, कभी कुत्ते काट खाते। कभी चींटियां शरीर को लहूलुहान कर देतीं, कभी डांस, मच्छर और मक्खियां सताती, (फिर भी भगवान् आत्म-ध्यान में लीन रहते)। १. (क) भगवान् ने अपने साढ़े बारह वर्ष के साधना-काल में जग्गवइ भगवां अप्पाणं ज्झाणेण पमादाओ, सरीरकेवल अन्तर्मुहूर्त (४८ मिनिट से कम) नींद ली। संधारणत्थं वा चिरं जग्गित्ता इसि सइयासि इत्तरवह भी एक बार में नहीं, किन्तु अनेक बार में । वे कालं णिमेसउम्मेसमेत्तं लवमित्तं वा ईसं सइतवां लेटते नहीं थे । खड़े-खड़े या बैठे-बैठे पलभर के लिए आसी जहा अट्ठीयग्गामे, निद्दासुहं प्रति अपडिण्णे, झपकी ले लेते और फिर ध्यान में लग जाते। यदुक्तं भवति अणभिलासी, सब्वं किर छउमत्थअस्थिकग्राम में उन्होंने कुछ क्षणों की नींद ली कालं निद्दापमादो अंतोमुहुत्तं आसी, सो एवं थी। उसमें उन्होंने दस स्वप्न देखे थे। भट्टारओ निद्दापमादा अणंतरं संजममाणे पुणरवि भगवान् की साधना के मुख्य तीन अंग हैं -- सयं संमं वा बुज्झमाणो, ण परेहि विबोधिज्जमाणे, १. आहार-संयम, २. इन्द्रिय-संयम, ३. निद्रा-संयम । बुज्झमाणो एव बुट्ठो, ण पडिसेहो, तेण य ज्झायति, वे आन्तरिक अनुभूति की सरसता के द्वारा आहार ण णिद्दापमादं चिरं करेति, सो एवं उमाणेण निदं संयम या रस-संयम करते थे। जिणिज्जमाणो जति कदाइ निदाए अभिभूयति ततो वे आत्म-दर्शन को तन्मयता के द्वारा इन्द्रिय-संयम निक्खम्म एगता रातो बहिं चंकमिया मुहुत्तागं णिच्छितं कम्म णिक्कम्म उवस्सगाओ निक्खंमिओ, करते थे। एगयादि गिम्हे अतिणिद्दा भवति हेमंते वा जिघांसुवे ध्यान के द्वारा निद्रा-संयम करते थे। ग्रीष्म और रादिसु, तवो पुश्वरत्ते अवरत्ते वा पुण्वपडिलेहियहेमन्त में नोंद अधिक सताती थी। उस समय उवासयगतो, तत्थ णिहाविमोयणहेतु मुहत्तागं भगवान् चंक्रमण के द्वारा उस पर विजय पाते थे। चंकमिओ, णि अंतो पविणेत्ता पुणो अंतो पविस्स (ख) आचारांग चूणि, पृष्ठ ३१३ : पायसो छउमस्थकाले पडिमागतो उझाइयवान् । Jain Education international Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ६. उपधानश्रुत, उ० २. गाथा ५-६ भाग्यम् ७ ----अस्मिन्नुपसर्गाधिकारे मनुष्यतिर्यञ्च्संबंधिनः उपसर्गाः सन्ति निर्दिष्टा देवकृतोपसर्गाणां । नात्र कोप्युल्लेखोऽस्ति । संपर्का अह्निकुलादयः पक्षिणः - दंशमशकमक्षिकादयः गृधादयो वा उपचरन्ति वर्तन्ते अथवा समीपं आगत्य मांसादिकमश्नन्ति | भाष्यम् ८ कुत्सितं चरन्तीति कुचरा:- चौरपारदारिकादय: । उपचरन्ति समीपमागच्छन्ति । कदाचित् । - शक्तिहस्ता ग्रामरक्षकाः चोरग्राहाः चोराशंकया भगवन्तं उपचरन्ति । ८. अदु कुचरा उवचरंति, गामरक्खा य सत्तिहत्या य । अवु गामिया उवसग्गा, इत्थी एगतिया पुरिसा य ॥ सं० 'अदु' कुचरा: उपचरन्ति, ग्रामरक्षाश्च शक्तिहस्ताश्च । 'अदु' ग्राम्या उपसर्गाः, स्त्रियः एककाः पुरुषाश्च । सूने घर में ध्यान करते, तब उन्हें चोर या पारवारिक सतातें, जब वे तिराहे चौराहे पर ध्यान करते, तब हाथ में माले लिए हुए ग्राम रक्षक उन्हें सताते । भगवान् को कभी स्त्रियों और कभी पुरुषों के द्वारा कृत काम सम्बन्धी उपसर्ग सहने होते । अथवा ग्राम्या: ग्राम्यधर्म संबंधिनः उपसर्गा: " अभूवन् । कदाचित् स्त्रीभिः कृताः कदाचित् पुरुषः कृताश्च अस्थानुसारी उपदेश: 'णिविद द अरते पयासु १. आचारांग वृति पत्र २७९ कुत्सितं चरन्तीति कुचरा:चौरपारदारिकादयस्ते च श्वचिन्धून्यगृहावौ उपचरन्ति' उपसर्गयन्ति । ४२७ भगवान् महावीर के उपसर्गों के इस प्रकरण में मनुष्य और तिर्यञ्च संबंधी उपसर्ग निर्दिष्ट है। देवकृत उपसर्गों का यहां कोई उल्लेख नहीं है। २. वही, पत्र २७९ तथा ग्रामरक्षादयश्च त्रिकचत्वरादिव्यवस्थितं शक्तिकुन्तादिहस्ता उपचरन्तीति । ३. (क) आचारांग चूर्ण, पृ० ३१४ : गामा जाता गामिता । वामो नाम खलजो, मणोवाक्काथिए तिविहेवि उवसग्गे, बतिमगसा अंती तर तं रूवं जहा जातं. पदोसारहगणेण जणी भयं करेति, अयसत्या णं वायाए अक्कोसंति, कारणं तालंति, इच्चे ते उवसग्गे साहितातिया, अहवा तिविहेवि गामिते गामधम्मसमुत्था गामिता, ता तु इत्थि एगतरा पुरिसाय इत्थतं उपसम्पति पुंसगाप, कम्मोदया अभिवंति मणसावि भणवंतो णपति अहवा एस अम्हंतथियाओ इत्थीओ संसर्पक - सांप, नेवले आदि । पक्षी डांस, मच्छर, मक्खियां आदि अथवा गीध आदि। उपचरति का अर्थ है होना अथवा ये सब तिर्यञ्च पास में आकर मांस आदि खाते हैं । जो बुरे आचरण करते हैं, वे कुचर कहलाते हैं। चोर, पारदारिक आदि कुचर होते हैं। उपचरति का अर्थ है - समीप आना कभी हाथ में भाले लिए हुए ग्रामरक्षक तथा चोरों को पकड़ने वाले चोरग्राह चोर की आशंका से भगवान् के समीप आते थे । ६. इहलोइयाइं परलोइयाई, भीमाई अणेगरूवाइं । अवि सुब्भि-दुब्भि-गंधाई, सद्दाई अणेगरूवाई ॥ सं० ऐहलौकिकान् पारलौकिकान्, भीमान् अनेकरूपान् । अपि 'सुब्भि-दुब्भि' गंधान्, शब्दाननेकरूपान् । भगवान् ने मनुष्य और तिथंच (पशु) सम्बन्धी नाना प्रकार के भयानक कष्ट सहन किए। वे अनेक प्रकार के सुगंध और दुर्गंध तथा प्रिय और अप्रिय शब्दों में संतुलित रहे । अथवा कभी स्त्रियों द्वारा कृत और कभी पुरुषों द्वारा कृत ग्राम्यधर्म काम संबंधी उपसर्ग भगवान् को हुए। इसका संवादी उपदेश है 'तू कामभोगों के आनन्द से उदासीन बन । स्त्रियों में अनुरक्त मत बन ।' पत्येमागो अहं अम्मासे वा समुवागतोत्ति पुरिसा तं चाहणंति णिच्छुभंति पिट्ठति वा । (ख) आचारांग वृत्ति पत्र २७९ 'प्रामिका' ग्रामधर्माश्रिता उपसर्गा एकाकिन : स्युः, तथाहि-- काचित् स्त्री रूपदर्शनाभ्युपपन्ना उपसगंयेत् पुरुषो वेति । ४. भगवान् के रूप को देखकर स्त्रियां मुग्ध हो जातीं। वे रात्री के समय उनके पास आ उन्हें विचलित करने का प्रयत्न करतीं । भगवान् का ध्यान भंग नहीं होता, तब वे रुष्ट होकर गालियां देतीं। इस बात का उनके पतियों को पता चलता तब वे भगवान् के पास आकर व्यंग की भाषा में बोलते - 'इसी भिक्षु ने हमारी रमणियों को अपने मोह जाल में फंसाया है । हमें इसका प्रतिकार करना चाहिए।' वे भगवान् को गालियां देते और ताड़ना तर्जना भी करते । भगवान् आत्म-ध्यान में लीन रहते। इसलिए वे इन दोनों स्थितियों की ओर ध्यान नहीं देते । ५. आयारो, ३।४७ । Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ आचारांगभाष्यम् १०. अहियासए सया समिए, फासाइं विरूवरूवाइं। अरइं रइं अभिभूय, रीयई माहण अबहवाई॥ सं०-- अधिसहते सदा समितः, स्पर्शान् विरूपरूपान् । अरति रतिमभिभूय, रीयते माहनः अबहुवादी । उन्होंने अपनी समीचीन प्रवृत्ति के द्वारा नाना प्रकार के स्पर्शों को झेला । वे संयम में होने वाली अरति और असंयम में होने वाली रति को अभिभूत कर चलते थे । वे प्रायः मौन रहते थे--आवश्यकता होने पर ही कुछ-कुछ बोलते थे। भाष्यम् ९,१०-इह द्विविधानां उपसर्गाणां संसूचनं यहां दो प्रकार के उपसर्गों का सूचन किया गया हैकृतमस्ति-ऐहलौकिकाः पारलौकिकाश्च । तत्र मनुष्य- इहलौकिक और पारलौकिक । मनुष्यों द्वारा कृत उपसर्ग इहलौकिक कृता उपसर्गाः ऐहलौकिकाः, तिर्यग्भिः कृताश्च पार- और तिर्यञ्चों द्वारा कृत उपसर्ग पारलौकिक कहलाते हैं । लौकिका उच्यन्ते।' ___अनुलोमान् प्रतिलोमान् उपसर्गान् सहमानस्य कर्म- जो साधक अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्गों को सहन करता है निर्जरा भवति, असहमानस्य च कर्मबन्धो जायते इत्या- उसके कर्म-निर्जरा होती है। जो उन उपसर्गों को सहन नहीं करता लम्बनं कृत्वा भगवता सर्व सोढम् । अनुलोमप्रतिलोमैः उसके कर्म-बंध होता है-यह आलंबन लेकर भगवान् ने सब प्रकार के उपसर्गः संयमे अरतिः असंयमे च रतिरुत्पद्यते। उपसर्ग सहन किए । अनुलोम और प्रतिलोम उपसगों से संयम में तयोरपि सद्ध्यानेन अभिभवः कृतः। स अबहवादी अरति और असंयम में रति उत्पन्न होती है। भगवान् ने सद्ध्यान के आसीत् । जीवनयात्रानिर्वाहयोग्यां वाचं विहाय भगवता माध्यम से रति और अरति का अभिभव किया। भगवान् बहुत कम प्रायो मौनमासेवितम् । बोलते थे । जीवन-यात्रा के निर्वहन योग्य वाणी को छोड़कर भगवान् प्रायः मौन रहते थे। अनयोरनुसारी उपदेश: इन दोनों (९,१०) का संवादी उपदेश है'उवेहमाणो सद्द-रूवेसु अंजू....... २ 'शब्द और रूप की उपेक्षा करने वाला ऋजु-संयमी होता है।' 'जस्सिमे सद्दा य रूवा य गंधा य रसा य फासा य अभि- 'जो पुरुष इन--- शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्शों को भलीभांति समन्नागया भवंति, से आयवं नाणवं वेयवं धम्मवं बंभवं।" जान लेता है उनमें राग-द्वेष नहीं करता, वह आत्मवान्, ज्ञानवान्, वेदवान्, धर्मवान् और ब्रह्मवान् होता है।' 'अभिभूय अदक्खू, अणभिभूते पमू निरालंबणयाए।" ___'पातिकर्मों को अभिभूत कर महावीर ने देखा कि जो बाधाओं से अभिभूत नहीं होता, वही निरालंबी होने में समर्थ होता है।' ११. स जहिं तत्थ पुच्छिसु, एगचरा वि एगदा राओ। अन्वाहिए कसाइस्था, पेहमाणे समाहिं अपडिण्णे ॥ सं०-स जनैः तत्र अपृच्छयत, एकचराः अपि एकदा रात्रौ । अव्याहृते अकषायिषुः, प्रेक्षमाणः समाधिमप्रतिज्ञः । (भगवान् एकान्त में ध्यान करते, तब) कुछ अकेले घूमने वाले लोग, कभी-कभी रात्रि में पारदारिक लोग आकर पूछते-'तुम सूने घर में क्या करते हो? भगवान् उन्हें उत्तर नहीं देते, तब वे रुष्ट होकर दुर्व्यवहार करते । ऐसा होने पर भी भगवान समाधि में लीन रहते, उनके मन में प्रतिकार का कोई संकल्प नहीं उठता। भाष्यम् ११–कस्त्वम् ? कुत आगतः ? किमर्थमत्र- तुम कौन हो? कहां से आए हो? यहां क्यों खडे हो? इस स्थितोऽसि ? अस्मिन् शून्यगृहे किं करोषि ? इत्यादीन् सूने घर में क्या कर रहे हो ? इस प्रकार एकचर-अकेले घूमने वाले अनेकान् प्रश्नान् अप्राक्षुः एकचराः- उद्मामकाः पार- पारदारिक आदि मनुष्य अनेक प्रश्न पूछते । पूछने पर भी भगवान दारिकादयः। पृच्छायां कृतायां भगवान् मौनमेव मौन रहते । उससे रुष्ट होकर वे भगवान् को गालियां देते, कटुवचन १. चूर्णी अनयोः पदयोाख्या नयद्वयेन कृतास्ति-तत्थ अणुलोमे परलोमे य करेंति जहा अभयसुदरिसणस्स । इहलोइयाई माणुस्सग्गा, पारलोइया सेसा, अहवा (आचारांग चूणि, पृष्ठ ३१४-३१४) इहलोइया इहलोगदुक्खउप्पायगा पहारअक्कोसदसमसगा- २. आयारो, ३.१५ । दिया, यदुक्तं भवति-पडिलोमा, परलोइया, परलोक- ३. वही, ३।४। दुक्खुप्पायगा, यदुक्तं भवति - अणुलोमा, केइ ४. वही, ५१११। उभयलोइया, तंजहा.... अस्सगतो पुरिसो, अतिणेति, तहा Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ अ०६. उपधानश्रुत, उ० २. गाथा १०-१३ आललंबे। ततो रोषमापन्नस्तैः आक्रुष्टो भगवान् । कहते । ऐसे अवसर पर सामान्य व्यक्ति क्रोधित हो सकता है, किन्तु तस्यामवस्थायां सामान्यजनः क्रुध्येत्, किन्तु भगवान् भगवान् समाधि अथवा आत्मा की प्रेक्षा में लगे रहते थे। इसलिए वे समाधि आत्मानं वा प्रेक्षमाणः आसीत् । अत एव स सदा अप्रतिज्ञ थे अर्थात् उनके मन में प्रतिकार करने का संकल्प कभी सदा अप्रतिज्ञः-प्रतिकारसंकल्परहितः ।' नहीं जागा। 'कसाइत्था'-इदं कषायपदस्य नामधातुरूपम् । ___ 'कसाइत्था'-यह कषायपद का नामधातु का रूप है। १२. अयमंतरंसि को एत्थ, अहमंसि त्ति भिक्खू आहट्ट । अयमुत्तमे से धम्मे, तुसिणीए स कसाइए झाति ॥ सं०-अयमन्तरे कोऽत्र, अहमस्मि इति भिक्षुः आहृत्य । अयमुत्तमस्तस्य धर्मः, तूष्णीकः स कषायिते ध्यायति । भगवान् ने उपवन के अन्तर-आवास में ध्यान किया, तब प्रतिदिन आने वाले व्यक्तियों ने वहां आकर पूछा-'यह भीतर कौन है ?' भगवान् ने कहा-'मैं भिक्षु हूं।' 'हमारी क्रीड़ा-भूमि में क्यों खड़े हो?' अप्रीतिकर भूमि जान भगवान् वहां से चले जाते। यह उनका उत्तम धर्म है। उन व्यक्तियों के उत्तेजित होने पर भी भगवान् मौन और ध्यान में लीन रहते। भाष्यम् १२-अन्तरम्-विवरं, शून्यप्रदेशः, गृहस्य अंतर का अर्थ है-विवर, शून्यप्रदेश अथवा घर का गुप्तगुप्तप्रदेशो वा । अत्र अन्तरे कोऽयं विद्यते ? एवं पृष्टे प्रदेश । भीतर कौन है ? ऐसा पूछने पर भगवान् कहते-मैं भिक्षु हूं। भगवान् 'अहं भिक्षुरस्मि' इति उक्त्वा मौनं भजते । एवं यह कहकर वे मौन हो जाते । यह सुनकर आगन्तुक व्यक्ति शान्त हो श्रुत्वा आगन्तुका: शाम्यन्ति तदा भगवता तत्रैव जाते तो भगवान् वहीं रह जाते । यदि वे रुष्ट होते तो भगवान् उस स्थितम । यदि ते कषायिता अभवन् तदा भगवान् तत् स्थान को छोड़कर अन्यत्र चले जाते । यह उनका उत्तम धर्म था। उन स्थानं परित्यक्तवान् । अयं तस्य उत्तमः धर्मः। स व्यक्तियों के उत्तेजित होने पर भी भगवान् अपने ध्यान को भंग नहीं कषायितेऽपि जने ध्यानं भङ्ग न कृतवान् । स्थानत्यागेऽपि करते । स्थान का त्याग कर देने पर भी ध्यान का त्याग नहीं होता ध्यानत्यागो नाभूत् । था। १३. जंसिप्पेगे पवेयंति, सिसिरे मारुए पवायंते । तंसिप्पेगे अणगारा, हिमवाए णिवायमेसंति ॥ सं०----यस्मिन्नप्येके प्रवेपन्ते, शिशिरे मारुते प्रवाति । तस्मिन्नप्येके अनगाराः, हिमवाते निवातमेषयन्ति । जिस शिशिर ऋतु में ठंडी हवा चलने पर (अल्प वस्त्र वाले लोग) कांप उठते थे, उस ऋतु में हिमपात होने पर कुछ अनगार भी हवा रहित मकान की खोज करते थे। १. (क) चूणौं अस्य त्रयोऽर्था उपलभ्यन्ते-इह परत्थ य पडिपन्ने, तंजहा- णो इहलोगट्ठयाए तवं अणुचिट्ठिस्सामि, विसयसुहेसु य अपडिन्नो, सव्वप्पमादेसु वा । (आचारांग चूणि पृष्ठ ३१६) (ख) वृत्ती अप्रतिज्ञो नास्य वैरनिर्यातनप्रतिज्ञा विद्यत इत्य प्रतिज्ञः । (आचारांग वृत्ति, पत्र २८०) २. चूर्णी वृत्तौ च व्याख्याभेदो दृश्यते(क) आचारांग चूणि, पृष्ठ ३१६ : अयं अस्मिन् अंतरे अम्हसंतगे को एत्थ ? एवं वुत्तेहिं अहं भिक्खुत्ति एवं वृत्तेवि रुस्सति, केण तव दिन्नं ? किं वा तुम अम्हं विहारट्टाणे चिट्ठसि ? अक्कोसेहिंति वा कम्मारगस्स वा ठाओ सामिएण दिन्नो होज्जा, पच्छा रन्नो भण्णति-को एस ? सामी द्वितो, तुसिणीओ चिट्ठति, तत्थ गिहत्थे ममत्त, कसाइते संका य, ते सकसाइते णातुं मातिमेव ण भवति, पढमं दाऊणं एत्ताहे रुस्सह, असंकिते चेव उझाति । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २८० : अयमन्तः–मध्ये कोऽत्र व्यवस्थितः ? एवं सङ्कतागता दुश्चारिणः पृच्छन्ति कर्मकरादयो वा, तत्र नित्यवासिनो दुष्प्रणिहितमानसाः पृच्छन्ति, तत्र चवं पृच्छतामेषां भगवांस्तूष्णीभावमेव भजते, क्वचिबहुतरदोषापनयनाय जल्पत्यपि, कथमिति दर्शयति-अहं भिक्षुरस्मीति, एवमुक्ते यदि तेऽवधारयन्ति ततस्तिष्ठत्येव, अयाभिप्रेतार्थव्याघातात् कषायिता मोहान्धाः साम्प्रतेक्षितयैवं ब्रूयुः, यथा तूर्णमस्मात्स्थानान्निर्गच्छ, ततो भगवानचियत्तावग्रह इतिकृत्वा निर्गच्छत्येव, यदिवा न निर्गच्छत्येव भगवान्, किन्तु सोऽयमुत्तमः प्रधानो धर्म आचार इतिकृत्वा स कषायितेऽपि तस्मिन् गृहस्थे तूष्णीभावव्यवस्थितो यद्भविष्यत्तया ध्यायत्येव न ध्यानात्प्रच्यवते ।' Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगभाष्यम् भाष्यम् १३–यद्यपि अनगारपदं गृहत्यागिनां यद्यपि 'अनगार पद गृहत्यागी भिक्षुओं का वाचक है, फिर भी भिक्षणां वाचकमस्ति तथापि वैशिष्टयन जैनमुनीनां यह शब्द विशेषरूप से जैन मुनियों के प्रसंग में प्रयुक्त होता है। संभव प्रसने प्रयुज्यते । अत्र संभवति भगवतः पार्श्वस्य है कि यह शब्द भगवान् पार्श्वनाथ के शिष्यों के उद्देश्य से प्रयुक्त हुआ शिष्यानुद्दिश्य प्रयुक्तम् । अथवा अन्येषां तीथिकानां हो। अथवा यह शब्द अन्यतीर्थिक भिक्षुओं के लिए भी प्रयुक्त हुआ कृतेऽपि प्रयुक्तं स्यात् ।' अस्यानुसारी उपदेशः इसका संवादी उपदेश है--- सीओसिणच्चाई से निग्गंथे अरइ-रइ-सहे फरुसियं णो 'निर्ग्रन्थ सर्दी और गर्मी को सहन करता है। वह संयम में वेदेति ।" अरति और असंयम में रति को सहन करता है, उनसे विचलित नहीं होता। वह कष्ट का वेदन नहीं करता।' १४. संघाडिओ पविसिस्सामो, एहा य समादहमाणा। पिहिया वा सक्खामो, अतिदुक्खं हिमग-संफासा॥ सं०-संघाटी: प्रवेक्ष्यामः, एधान् समादहन्तः । पिहिताः वा शक्ष्यामः अतिदुःखं हिमकसंस्पर्शाः। वे वस्त्रों में लिपट जाने का संकल्प करते थे। कुछ संन्यासी 'इंधन जला, किवाड़ों को बन्द कर उस सर्दी को सह सकेंगे', इस संकल्प से ऐसा करते थे, क्योंकि हिम के स्पर्श को सहन करना बहुत ही कष्टदायी है। भाष्यम् १४-संघाडिओ-कम्बलादिवस्त्राणि ।' एधसां संघाटी का अर्थ है-कंबल आदि वस्त्र । ईंधन जलाने की समादहनं अन्यतीथिकानां कृते, न तु पापित्य- बात अन्यतीथिकों की अपेक्षा से है । भगवान् पार्श्व के शिष्य अग्नि का राचीर्णमिदम् । कम्बलादीनां परिधानं, एधसां समा- प्रयोग नहीं करते थे । कंबल आदि वस्त्रों का परिधान पहन कर, दहनं, कपाटयोः पिधानं च कृत्वा गृहस्थैरन्यतीथिकैर्वा ईंधन जलाकर तथा किवाड़ों को बंद कर गृहस्थ अथवा अन्यतीर्थिक शीतप्रतिकारः कृतः । तस्यामवस्थायां भगवता हिममये भिक्षु सर्दी का प्रतिकार करते थे। उस स्थिति में भगवान् ने हिममय प्रदेशेऽपि उक्तत्रयीं विनापि शीतं सोढम् । प्रदेश में भी उक्त तीनों साधनों का अवलम्बन नहीं लिया, उन्होंने इन साधनों के बिना भी सर्दी को सहन किया । १५. तंसि भगवं अपडिण्णे, अहे वियडे अहियासए दविए। णिक्खम्म एगदा राओ, चाएइ भगवं समियाए । सं0-तस्मिन् भगवान् अप्रतिज्ञः अधोविवृते अधिसहते द्रव्यः । निष्क्रम्य एकदा रात्रौ, शक्नोति भगवान् सम्यक्तया । उस शिशिर ऋतु में भी भगवान् अप्रतिज्ञ थे-संकल्प रहित थे। वे समभाव में एकाग्न होकर खुले मंडप में (खड़े-खड़े) सर्दी को सहन करते थे । रात को सर्वी प्रगाढ़ हो जाती, तब भगवान् उस मंडप से बाहर चले जाते । (वहाँ से फिर मंडप में आ जाते और फिर बाहर चले जाते ।) इस प्रकार भगवान् सम्यक्तया उसे सहन करने में समर्थ होते। १. चूणा वृत्तौ च अनगारपदेन अन्यतीथिकाणां पार्वापत्यानां च ग्रहणमस्ति(क) आचारांग चूणि, पृष्ठ ३१७ : तंपि एगा अण्णतित्थिया वसहीओ निवाता करेंति, पाउरणाइं फंफुगाई, उप्फ आहारयं, चुण्णं एत्यं भुंजंति, जतिवि कुंचियाविज्झे (छिद्दे) ण सीतं एति तेणेति भणति-दुक्खाविओ, जेवि पासावच्चिज्जा तेवि ण संजमे रमंति। आचारांग वृत्ति, पत्र २८१ : 'एके न सर्वे 'अनगाराः' तीथिकप्रवजिता हिमवाते सति शीतपीडितास्तदपनोदाय पावकं प्रज्वालयन्तिअङ्गारशकटिकामन्वेषयन्ति, प्रावारादिकं याचन्ते, यदिवाऽनगारा इतिपार्श्वनाथतीर्थप्रव्रजिता गच्छवासिन एवं शीतादिता निवातमेषन्ति घङ्घशाला दिका वसतीर्वातायनादिरहिताः प्रार्थयन्ति ।' २. आयारो, ३७॥ ३. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ ३१७ : वत्थाणि कंबलगादि पहिरिस्सामो, पाउणिस्सामो, समिहातो कट्ठाई, ताई समाडहमाणा गिहत्थअण्णउत्थिय, एवं सीतपडिगारं करेमाणो तहावि दुक्खं शीतं अहियासेइ । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २८१ : इह संघाटीशब्देन शीता पनोवक्षम कल्पवयं त्रयं वा गृहचते, ताः सङ्काटीः शीतादिता वयं प्रवेक्ष्यामः, एवं शीतादिता अनगारा अपि विदधति, तीथिकप्रजितास्त्वेधाः समिधः काष्ठानोतियावद् एताश्च समादहन्तः शीतस्पर्श सो, शक्ष्यामः, तथा संघाट्या वा पिहिताः-स्थगिताः कम्बलाद्यावृतशरीरा इति। Jain Education international Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ६. उपधानश्रुत, उ० २. गाथा १४-१६. उ० ३. गाथा १ भाष्यम् १५-तस्मिन् शिशिरर्तुकालेऽपि भगवान् उस शिशिर ऋतु में भी भगवान् अप्रतिज्ञ थे-हवा-रहित अप्रतिज्ञ आसीत्-निवाता वसतिं न संकल्पितवान् वसति का संकल्प नहीं किया। किन्तु वे राग-द्वेष से रहित मध्यस्थ किन्तु स द्रव्यः-रागद्वेषविरहाद् मध्यस्थः सन् अधो- होकर खुले मण्डप में सर्दी को सहन करते थे। सर्दी यदि अत्यधिक हो विवृते मण्डपे शीतमधिसहते । अत्यर्थं शीते सति भगवान् जाती तो भगवान् निम्न निर्दिष्ट विधि से सर्दी को सहन करते थे । निम्ननिर्दिष्टविधिना शीतं सोढवान् । कदाचिद् रात्री कभी रात्री में उस मंडप से निकलकर मुहर्तभर के लिए बाहर खड़े रह तस्मात् मण्डपात् निष्क्रम्य मुहूर्त बहिःस्थितवान् पुनश्च जाते, फिर मंडप में आ जाते। इस प्रकार भगवान् ने सर्दी का कष्ट मण्डपं प्रविष्टवान् । एवं भगवता सम्यक्तया शीतस्पर्शः सम्यक्-रूप से सहन किया । अधिसहितः ।' अस्यानुसारी उपदेश: इसका संवादी उपदेश है'सीओसिणच्चाई से निग्गंथे. फरुसियं नो वेदेति ।" 'सर्दी और गर्मी को सहन करने वाला निर्ग्रन्थ कष्ट का वेदन नहीं करता।' १६. एस विही अणुक कंतो, माहणेण मईमया। अपडिण्णण वीरेण, कासवेण महेसिणा।। -त्ति बेमि । सं०-एष विधिरनुक्रान्तः, माहने मतिमता। अप्रतिजेन वीरेण, काश्यपेन महर्षिणा। -इति ब्रवीमि । मतिमान् माहन काश्यपगोत्री महर्षि महावीर ने संकल्प-मुक्त होकर पूर्व प्रतिपादित विधि का आचरण किया। ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् १६-स्पष्टमेव । स्पष्ट है। तइओ उद्देसो : तीसरा उद्देशक १. तण फासे सीयफासे य, तेउफासे य दंस-मसगे य । अहियासए सया समिए, फासाइं विरूवरूवाई। सं०-तृणस्पर्शान् शीतस्पर्शान् च, तेजस्स्पर्शान् च दंशमशकान् च । अधिसहते सदा समितः, स्पर्शान् विरूपरूपान् । भगवान् (लाढ देश में) घास की चुभन, सर्दी, भयंकर गर्मी, डांस और मच्छर का काटना-इन नाना प्रकार के कष्टों को सदा सम्यग् भाव से सहन करते थे। भाष्यम् १-- इदानीं भगवतो निषद्या तत्र जनिताश्च अब भगवान् की निषद्या तथा वहां उत्पन्न उपसर्गों का कथन उपसर्गा निगद्यन्ते । एकदा भगवान् लाढप्रदेशं प्रविष्ट- किया जा रहा है । एक बार भगवान् लाढ प्रदेश में गए। वहां तृणों वान । तत्र तृणानां स्पर्श: अतीव कठोरो विद्यते। का स्पर्श अत्यन्त कठोर था। भगवान् खडे रहते या बैठते तो बहुत भगवान् स्थितो निषण्णो वा तृणैः बहुधा विद्धः । तस्मिन् बार तृण उन्हें बींध डालते । वह प्रदेश पर्वतों से आकीर्ण था। वहां पर्वताकीर्णे प्रदेशे प्रचुरं शीतम् । तस्य स्पर्शोऽपि जातः। सर्दी की प्रचुरता थी। उस सर्दी का कष्ट भी हुआ। वहां सूर्य का तत्र सूर्यातपोऽपि भयंकरो विद्यते । तस्य स्पर्शोऽपि आतप भी भयंकर था। उसका कष्ट भी हुआ। वहां डांस, मच्छर भी १. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ ३१७ : अह अच्चत्थं शीतं णाद् वा द्रवः-संयमः य विद्यते यस्यासौ द्रविकः, स ताहे णिक्खमं एगता राओ बसहीओ रातो-राईए च तथाऽध्यासयन् यद्यत्यन्तं शीतेन बाध्यते ततस्तस्मात् मुहत्तं अच्छित्ता पुणो पविसति रासमदिळंतणं, पुणो छन्नान्निष्क्रम्य बहिरेकदा-- रात्री मुहूर्त्तमात्रं य वसतिं च एति, स हि भगवं समियाए सम्ममणगारे, स्थित्वा पुनः प्रविश्य स भगवान् शमितया सम्यग्वा न भयट्टाए वा सहति । समतया वा व्यवस्थितः सन् तं शीतस्पर्श रासभ(ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २८१ : अधो विकटे अधः-- दृष्टान्तेन सोढुं शक्नोति-अधिसहत इति । कुड्यादिरहिते छन्नेऽप्युपरि तदभावेऽपि चेति, पुनरपि २. आयारो, ३७ । विशिनिष्टि-रागद्वेषविरहाद् द्रव्यभूतः कर्मग्रन्यिद्राव Jain Education international Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगभाष्यम् सञ्जातः । तत्र प्रचुरा भवन्ति दंशमशका अपि । तेषां प्रचुर होते थे । उनका कष्ट भी भगवान ने समभाव से सहा । स्पर्शोऽपि समतया सोढवान् ।' २. अह दुच्चर-लाढमचारी, वज्जभूमि च सुब्भ (म्ह ?) भूमि च । पंतं सेज्जं सेविंसु, आसणगाणि चेव पंताई। सं०-अथ दुश्चरलाढमचारीत्, वज्रभूमि शुभ्रभूमि च । प्रान्तां शय्यामसेविष्ट, आसनकानि चैव प्रान्तानि । दुर्गम लाढ देश के बज्रभूमि और सुम्हभूमि नामक प्रदेशों में भगवान् ने बिहार किया। वहां उन्होंने तुच्छ बस्ती और तुच्छ आसनों का सेवन किया। भाष्यम् २-लाढप्रदेशे उपसर्गबहुलत्वात् चरणं लाढ प्रदेश उपसर्गबहुल था। वहां विचरण करना दुष्कर होता दुष्करमासीत्, तेन स दुश्चरः प्रोक्तः। भगवान् अष्टमं था। इसलिए वह प्रदेश दुश्चर कहलाता था। भगवान् ने आठवां वर्षावासं राजगृहे कृतवान् । ततो विहारं कृत्वा वज्रभूमौ चातुर्मास राजगृह में बिताया । वहां से विहार कर वे वज्रभूमि गए । गतवान् । अनेन ज्ञायते साधनाकालस्य नवमे वर्षे अनार्य- इससे ज्ञात होता है कि साधनाकाल के नौंवे वर्ष में भगवान का देशे भगवतो विहारः जातः'। विहार अनार्य-देश में हुआ। __तत्र भगवान् षण्मासावधि तस्थिवान् इति चूणि- चूर्णिकार के अनुसार वे वहां छह महीने तक रहे । आवश्यक निर्देशः । आवश्यकचूर्ण्यनुसारेण ज्ञायते भगवान् अनार्य- चूणि के अनुसार यह ज्ञात होता है कि भगवान् ने अनार्य देश से देशात प्रथमशरदि-आश्विनमासे निष्क्रमणं कृतवान् । आश्विन मास में निष्क्रमण किया था। भगवान् नवमं चतुर्मासं वज्रभूमी कृतवानिति भगवान ने नौवां चातुर्मास बज्रभूमि में किया था, ऐसा प्रतीत प्रतीयते । पर्युषणाकल्पे 'एगं पणियभूमीए' इति निर्देशो होता है। पर्युषणाकल्प में 'एगं पणियभूमीए' ऐसा निर्देश है। दृश्यते । 'पंत' तुच्छार्थे देशीपदं, प्रान्तं प्रान्त्यं वा । प्रान्ता शय्या- 'पंत' (प्रान्त अथवा प्रान्त्य) देशी शब्द है। इसका अर्थ है ... शुन्यागारादयः, प्रान्तानि आसनानि -पांस्वादिनोपलि- तुच्छ । प्रांत शय्या अर्थात् शून्यगृह आदि। प्रांत आसन अर्थात् वैसे प्तानि ।' स्थान जो मिट्टी से लिपे-पुते हों। १. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ ३१७-३१८ : 'तत्थ पहुंजय हालदुग में भगवान् को अग्नि का स्पर्श सहना पड़ा। मादी तणा लगंडसीतफासेण ठितं विधति, णिसन्नं वा ___ लाढ प्रदेश में डांस, मच्छर, जलोका आदि जीवकडगकिसासरदब्भादि, सीतं पुण पव्वयाइन्नदेसे जन्तु भी बहुत थे । भगवान् इन सब स्थितियों को अतीव पडति, तेउत्ति उण्हंति, आतावणभूमी जं व जानते हुए भी समभाव की कसौटी के लिए वहां हालदामाए अग्गिमेव आसी, उल्लुएण वा कोइ, गए थे। दंसमसगा य जलोयाओ एवमादि उवसग्गे २. आवश्यकचूणि पूर्वभाग, पृष्ठ २९६ : ततो विहरंता अहियासए। रायगिहं गता । तत्थ अट्ठमं वासारत्तं । ......"ताहे लाढा (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २८१ : तृणानां कुशादीनां वज्जभूमि सुद्धभूमि च वच्चति । स्पर्शास्तृणस्पर्शाः तथा शीतस्पर्शाः तथा तेजःस्पर्शा ३. आचारांग चूणि, पृष्ठ ३१९ : एवं तत्थ छम्मासे अच्छितो उष्णस्पर्शाश्चातापनाविकाले आसन्, यदिवा गच्छतः भगवं। किल भगवतस्तेजःकाय एवासीत्, तथा दंश ४. आवश्मक चूणि, पूर्वभाग, पृष्ठ २९७ : ततो निग्गया पढममशकादयश्च । सरयदे, सिद्धत्थपुरं गता, सिद्धत्थपुराओ य कुंमागाम (ग) भगवान साधना-काल में लाढ देश (पश्चिम बंगाल संपत्थिया। के तमलुक, मिदनापुर, हुगली तथा वर्द्धवान जिले ५. पज्जोसवणाकप्पो, सूत्र ८३ । का हिस्सा) में गए थे। उस प्रदेश में घास बहुत ६. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ ३१८ : पंताओ णाम सुन्नाहोती थी। इसलिए बार-बार उसके चुभन के प्रसंग गारावीओ, सडियपडियभग्गलग्गाओ, आसणाणि आते । वह प्रदेश पर्वतों से आकीर्ण था। इसलिए पंताणि पंसुकरीससक्करालीगाबिउवचिन्नाणि, वहां सर्दी बहुत पड़ती थी। कट्ठासणा वा णिच्चलाणि फलहपट्टयादीहि । ग्रीष्म में भगवान सूर्य के आतप को सहन करते थे। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २८१-२८२: तत्र च प्रान्तां Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ६. उपधानश्रुत, उ० ३. गाथा २-४ ३. लाढेहि तस्सुवसग्गा, बहवे जाणवया लूसिंसु । अह सूहदेसिए भत्ते, कुक्कुरा तत्थ हिंसिंसु णिवतिंसु || सं० - लाढेषु तस्योपसर्गाः, बहवो जानपदाः अलोषिषुः । अथ रूक्षदेश्यं भक्तं कुर्कुराः तत्राऽहिसिषुः न्यपप्तन् । लाढ के जनपदों में भगवान् ने अनेक उपसर्गों का सामना किया। उन जनपदों के लोगों ने भगवान् पर अनेक प्रहार किए। वहां का भोजन प्राय: रूखा था । कुत्ते भगवान् को काट खाते और आक्रमण करते । " - भाष्यम् ३ - जानपदाः— जनपदे भवाः जानपदाः । तैर्भगवान् काष्ठमुष्टिप्रहारादिभिर्जुषितः । तत्र प्रदेशे भक्तं रूक्षदेश्य – रूक्ष कल्पं, प्रायो घृतादिविवजितमासीत्।' तेन तत्रत्याः लोका: अत्यन्तं क्रोधपरायणाः अभवन् । तेनायमुपद्रवो जातः । तत्रत्यानां शुनामपि परीवह समुपजनितः । 'शय्यां' वर्सात शून्यगृहादिकामनेोपद्रवोपद्रुतां सेवितवान् तथा प्रान्तानि चासनानि पशूकरशर्करालोष्टाद्युपचितानि च काष्ठानि च दुर्घटितान्यासेवितवानिति । ४. अप्पे जणे निवारे, लूसणए सुणए दसमाणे छुछुकारंति आहंसु, समणं कुक्कुरा उसंतुति । सं० - अल्पः जनः निवारयति, लूषनकान् शुनकान् दशतः । छुछुकारयन्ति आहुः श्रमणं कुर्कुरा: दशन्तु इति । वहां कुत्ते काटने आते या भौंकते, तब कोई-कोई व्यक्ति उन्हें रोकता, किंतु बहुत सारे लोग भ्रमण को कुत्ते काट खाएं इस भावना से 'छू-छू' कर कुत्तों को बुलाते और भगवान् के पीछे लगाते । १. (क) आचारांग चूर्णि, पृष्ठ ३१८ : जणवते भवा जाणपदा, यदुक्तं भवति - अणगरजणवओ पायं सो विसओ, ण तत्थ नगरादीणि संति । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २८२ : जनपदे भवा जानपदाःअनscarfरण लोकाः ते भगवन्तं भूषितवन्तोदन्तभक्षणोल्मुकदण्डप्रहारादिभिजिहिंसुः । २. आचारांग चूर्णि पृष्ठ ३१८ : लूसह सो कट्टुमुट्टप्पहाराएहि अहम सूति, एगे हि वातेति। ३. (क) चूर्णिकारेण (पृष्ठ ३१८) मक्वेश इति व्याख्यातम् तसे पाएण रुक्खाहारा तैलघृतविवजिता रूक्षा, भदेस] इति बब्बे बंधानुलोमओ उपक्कमकरणं । छन्दोदृष्ट्या लूहदेसीए भत्ते इति सूत्रितं सूषकारेण अह लूहदेखिए मते (ख) वृत्तिकारण (पत्र २०२ ) रूक्षदेश्यं मक्तमिति व्याख्यातम् अयम्योऽपिशब्दार्थ स पंवं द्रष्टव्यः, भक्तमपि तत्र रूक्षवेश्यं रूक्षकल्पमन्तप्रान्तमितियावत् । ४. आचारांग चूर्णि पृष्ठ ३१८ 'मेह गोवांगरसीरहिणि रूक्षं गोवालहलवाहादीणं सीतकूरो, आमंतेकणं अंबिलेण अलोणेण एए दिज्जति मज्झरहे लुक्खएहि, माससहाएहि तं पिणात प्रकामं, ण तत्थ तिला संति, ण गावीतो बहुगीतो, कप्पासो या तणपाउरणातो ते परक्खाहारता अतीव ४३३ जानपद का अर्थ है - जनपद में होने वाले अर्थात् नागरिक । लाढ देश के लोगों ने भगवान् पर काष्ठ, मुट्ठी आदि से प्रहार किए। उस प्रदेश में भोजन प्रायः रुवा, घी आदि से रहित होता था । इसलिए वहां के लोग अत्यंत क्रोधी होते थे इसलिए यह उपद्रव हुआ। यहां के कुत्तों का परीवह भी भगवान् को सहना पड़ा। कोहणा, रस्सिता अक्कोसादी य उवसग्गे करेंति । ' ५. (क) आचारांग चूर्ण, पृष्ठ ३१८ : 'तत्थ बहवे, कुक्कुरादी हितीति हिंसि नियतिति सम्म तं निवसति, महारस मनत्य इंड िजेण ते पुण पवारेहिति ते एवं जिम्मा चिया पिकांता ।' (ख) लाढ प्रदेश पर्वतों और बीहड़ जंगलों के कारण बहुत दुर्गम था, फिर भी भगवान् वहां गए। वहां भगवान् को रहने के लिए प्रायः सूने और टूटे-फूटे घर मिले। उन्हें बैठने के लिए काष्ठासन, फलक और पट्ट मिले। वे भी धूल, उपले और मिट्टी से सने हुए थे, फिर भी भगवान् के समभाव में कोई अन्तर नहीं आया । लाढ प्रदेश के वज्र और सुम्ह प्रदेशों में प्रायः नगर नहीं थे । वहां तिल नहीं होते थे, गाएं भी बहुत कम थीं, इसलिए तेल और मृत सुलम नहीं थे। फलतः वहां के निवासी रूखा भोजन करते थे। रूखा आहार करने के कारण वे बहुत क्रोधी थे, बात-बात में रुष्ट होना, गाली देना, प्रहार करना उनके लिए सहज था। वे घास के द्वारा शरीर का प्रावरण करते थे । भगवान् मध्याह्न में भोजन लेते थे। वहां उन्हें चावल (पानी में भिगोकर रखे हुए) और उड़द की दाल मिलती थी, अम्ल रस मिलता था, नमक नहीं । वहाँ मुझे बहुत बुंधार होते थे वहां के निवासी तों से बचाव करने के लिए लाठी और डंडे रखते थे। भगवान् के पास न कोई लाठी थी और न कोई डंडा । इसलिए कुत्तों को आक्रमण करने में कोई रुकावट नहीं होती थी । Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ आचारांगभाष्यम् भाष्यम् ४–अल्प:-स्तोकः कश्चिदेको वा ।' आहंसु-- अल्प का अर्थ है-थोड़ा अथवा कोई एक । आहंसु अर्थात् आहुः। बुलाना। . ५. एलिक्खए जणे मुज्जो, बहवे वज्जभूमि फरसासी । लट्ठि गहाय णालीयं, समणा तत्थ एव विहरिसु ॥ सं०-ईदृक्षे जने भूयो, बहवः वज्रभूमौ परुषाशिनः । यष्टिं गृहीत्वा नालिका, श्रमणाः तत्र एव व्यहार्षुः । भगवान् ने ऐसे जनपद में (बार-बार) विहार किया। वनभूमि के बहुत लोग सक्षमोजी होने के कारण कठोर स्वभाव वाले थे। उस जनपद में कुछ श्रमण लाठी और नालिका पास में रखकर विहार करते थे। भाष्यम् ५ -- भगवान् ईदक्षे जने भूयः पुनः पुनः भगवान् ने ऐसे जनपद में बार-बार विहरण किया। उस विहृतवान् । तत्र वज्रभूमौ बहवो लोकाः परुषाशिनः- ववभूमि में अधिकतर लोग रूक्षभोजी थे, इसीलिए वे अत्यंत क्रोधी रूक्षभोजिनः आसन् । अत एव ते अत्यन्तं क्रोधना होते थे। वहां श्रमण हाथ में लाठी (शरीर-प्रमाण) या नालिका अभवन् । तत्र श्रमणाः यष्टिं नालिका वा गृहीत्वा (शरीर से चार अंगुल बड़ी) लेकर बिहार करते थे। किन्तु भगवान् व्यहार्षुः । किन्तु भगवान् अयष्टिक: अनालिक: एवा- के पास न लाठी थी और न नालिका। सीत् । ६. एवं पि तत्थ विहरंता, पुट्ठपुव्वा अहेसि सुणएहि । संलुचमाणा सुणएहि, दुच्चरगाणि तत्थ लाहिं ॥ सं०-एवमपि तत्र विहरन्तः, स्पृष्टपूर्वाः अथासन् शुनकैः । संलुच्यमानाः शुनकः, दुश्चरकाणि तत्र लाढेषु । इस प्रकार वहां विहार करने वाले श्रमणों को भी कुत्ते काट खाते और नोंच डालते। लाढ देश के गांवों में विहार करना सचमुच कठिन था। भाष्यम् ६-दुश्चरकाणि ग्रामादीनि इति 'दुश्चरक' के साथ ग्राम आदि का अध्याहार कर लेना चाहिए । अध्याहार्यम् । ७. निधाय वंडं पाणेहि, तं कायं वोसज्जमणगारे । अह गामकंटए भगवं, ते अहियासए अभिसमेच्चा। सं०-निधाय दण्डं प्राणेषु, तं कायं व्युत्सृज्यानगारः । अथ ग्रामकण्टकान् भगवान् , तानधिसहते अभिसमेत्य । भगवान् प्राणियों के प्रति होने वाले दण्ड (हिंसा) का परित्याग और अपने शरीर का विसर्जन कर लाढ प्रदेश में विहार कर रहे थे। वहां भगवान् तीखे वचनों को सहन करते थे। भाष्यम् ७ निधाय -निक्षिप्य। ग्रामकण्टकाः-श्रोत्रा- निधाय का अर्थ है-परिहार करके । प्रामकंटक अर्थात् श्रोत्र दीन्द्रियग्रामकण्टकाः । अभिसमेत्य इति लाढविषयं प्राप्य। आदि इन्द्रियों के लिए कांटे की तरह चुभने वाले विषय । अभिसमेत्य भगवान् तत्र वज्रभूमौ कायव्युत्सर्गप्रयोगमाचीर्णवान् । अर्थात् लाढ देश को प्राप्त कर। भगवान् ने वज्रभूमि में काय-व्युत्सर्ग मानुषान् तैरश्चांश्च उपसर्गान् अधिसोढवान् । दंडप्रयोगं का प्रयोग किया और मनुष्यकृत तथा तिर्यञ्चकृत उपसर्गों को सहा। निक्षिप्तवान्–'शुनो निवारय' इत्यपि नोक्तवान् ।' उन्होंने दंड का प्रयोग भी नहीं किया-'कुत्तों का निवारण करो' यह भी किसी से नहीं कहा। १. आचारांग वृत्ति, पत्र २८२ : अल्पः स्तोकः स जनो यदि ३. आचारांग चूणि, पृष्ठ ३१९ : बंडो सरीरप्पमाणा ऊणो परं सहस्राणामेको यदिवा नास्त्येवासाविति यस्तान् शुनो लट्ठी सरीरप्पमाणा दूरतर एवायरति, नालिया चउरंगुल'लूषकान् दशतो 'निवारयति' निषेधयति । अतिरित्ता। २. चूर्णी वृत्तौ च अत्र 'हन्' धातुपदं व्याख्यातमस्ति ४. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ ३१९ : 'णिधायेति णिक्खिप्प, (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ ३१८-३१९ : आहंसुत्ति आह डंडं ण भणति सुणए वारेहि, उवाएण डवति, मणत्ता केति चोरं चारियंति च मण्णमाणा, केइ सावि ते णावखंति, सो एवं विहरमाणो अवि पदेसणेण। गामकंटए भगवं गामकंटगा सोतादिइंदियगाम(ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २८२ : अपि तु दण्डप्रहारा कंटगा, जं भणितं होति-चउम्विहा उवसग्गा, दिभिर्भगवन्तं हत्वा। लाढेसु पुण माणुसतिरिच्छिएसु अहिगारो, तेरिच्छगा Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०६. उपधानश्रुत, उ०३. गाथा ५-१० ४३५ ८. जाओ संगामसोसे वा, पारए तत्थ से महावीरे। एवं पि तत्थ लाहिं, अलसपुव्वो वि एगया गामो॥ सं०-नागः संग्रामशीर्षे वा, पारगः तत्र स महावीरः । एवमपि तत्र लाढेषु, अलब्धपूर्वोऽपि एकदा ग्रामः । जैसे हाथी संग्राम-शीर्ष में शस्त्र से विद्ध होने पर भी खिन्न नहीं होता, किन्तु युद्ध का पार पा जाता है, वैसे ही भगवान महावीर ने लाढ प्रदेशों में परीषहों का पार पा लिया। उन्हें वहां कभी-कभी प्राम नहीं मिला, निवास के लिए स्थान भी नहीं मिला। भाष्यम् ८-यथा कृतयोगी हस्ती बाणादिभिर्विद्धोपि जैसे कृतयोगी-कवच से सन्नद्ध हाथी बाण आदि शस्त्रों से नावसीदति, किन्तु युद्धस्य पारं गच्छति ।' एवं भगवान् विद्ध होने पर भी खिन्न नहीं होता, किन्तु युद्ध का पार पा जाता है, कृतयोगत्वात् कायव्युत्सर्गप्रयोगस्य पारं प्रगतः । वैसे ही भगवान् भी योग में निष्णात होने के कारण काय-व्युत्सर्ग के __ प्रयोग का पार पा गए। एकदा भगवान् प्रामं तात्पर्यार्थे निवासं न लब्धवान् एकबार भगवान् को गांव अर्थात् निवासस्थान नहीं मिला तथापि न विचलनमभूत् ।' फिर भी भगवान् उस स्थिति से विचलित नहीं हुए। ६. उवसंकमंतमपडिण्णं, गामंतियं पि अप्पत्तं । पडिणिक्खमित्त लूसिसु, एत्तो परं पलेहित्ति । सं०-उपसंक्रामन्तमप्रतिज्ञं ग्रामान्तिकमपि अप्राप्तम् । प्रतिनिष्क्रम्य अलूलुषन्, इतो परं प्रतिलिख इति । भगवान् नियत वास और नियत आहार का संकल्प नहीं करते थे। वे प्रयोजन होने पर निवास या आहार के लिए गांव में जाते । उसके भीतर प्रवेश से पूर्व ही कुछ लोग उन्हें रोक देते, प्रहार करते और कहते-यहां से आगे कोई दूसरा स्थान देखो। भाष्यम् ९-भिक्षायै वसतिनिमित्तं वा ग्रामं उपसं- भगवान् भिक्षा या आवास के लिए गांव में जाते, किन्तु क्रामन्तं अप्रतिज्ञं-नियतवासं नियतमाहारं चासंकल्प- नियत वास और नियत आहार का संकल्प नहीं करते। भगवान् गांव मानं भगवन्तं प्रामान्तिकं-ग्राममप्राप्तमपि ग्रामवासिनः के पास पहुंचते, किन्तु भीतर प्रवेश करने से पूर्व ही गांववासी लोग अललुषन्-ताडनां तर्जना प्रहारं वा अकार्षः । ताड़ना, तर्जना और प्रहार करते और कहते-हे नग्नभिक्षो! हमारे अवादिष:-हे नग्नभिक्षो ! किमस्माकं ग्राम प्रविशसि? गांव में क्यों प्रवेश कर रहे हो ! तुम यहां से आगे किसी दूसरे गांव को त्वं अतः परं प्रतिलिख इति । देखो। १०. हयपुवो तत्थ वंडेण, अदुवा मुट्टिणा अदु कुंताइ-फलेणं । अदु लेलुणा कवालेणं, हंता हंसा बहवे कंदिसु ॥ सं०-हतपूर्वः तत्र दण्डेन, अथवा मुष्टिना 'अदु' कुन्तादिफलेन । 'अदु' लेष्टुना कपालेन, हत्वा हत्वा बहवः अक्रन्दिषुः । वहां कुछ लोग दण्ड, मुष्टि, भाला आदि शस्त्र, चपेटा, मिट्टी के ढेले और कपाल (खप्पर) से भगवान् पर प्रहार कर खुशी से चिल्लाते। सुणगावयो, माणुस्सगावि ते अणारिया पायं आहणंति, अभिसमेच्चत्ति तं लाढविसयं, यदुक्तं भवति-प्राप्य।' (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २८२ : "णिधाय-त्यक्त्वा । दण्ड के तीन प्रकार हैं-मन-दण्ड, वाणी-दण्ड और शरीर-दण्ड । भगवान् कष्ट देने वाले जीवजन्तुओं व प्राणियों का स्वयं निवारण नहीं करते थे, उनका निवारण करने के लिए दूसरों से नहीं कहते थे, उनके निवारण के लिए मानसिक संकल्प भी नहीं करते थे। वे मन, वचन और शरीर-तीनों को आत्मलीन रखते थे। १. आचारांग चूणि, पृष्ठ ३१९ : सोहि अग्गतो ठितो दूरत्येहि चेव उसुमादीहिं विमति, समीवत्येहि य असिमादीहि य, सो य कृतयोगत्ता तह हण्णमाणोऽवि ण सीतति, पारमेव गच्छति । २. वही, पृष्ठ ३१९-३२० : एगया कदायि, गामि पविट्ठण णिवासो लद्धपुत्वो, जेण उवस्सतो ण लखो तेण गामो ण लद्धो चेव भवति। ३. वही, पृष्ठ ३२० : णग्गा तुम कि अम्हं गामं पविससि ? ४. (क) आचारांग चूणि पृष्ठ ३२० : एत्तो परं पलेहेति एत्तो चेव परेण लेहेति । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २८३ : 'पहि' गच्छति । (ग) भगवान् निर्वस्त्र थे। लाडवासी लोगों को यह नग्नता पसन्द नहीं थी। इसलिए वे भगवान् के प्राम-प्रवेश को पसंद नहीं करते थे। Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३.६ भाष्यम् १० तत्र भगवान् दण्डादिभिः हतपूर्व आसीत् । कुन्ताविफलम् कुन्तादिना फलेन च। लोकाः भगवन्तं दण्डादिभिर्हत्वा हत्वा पक्रन्दुः परोसहाई लुंचिसु अहवा पंसुणा अवकिरिंसु ।। ११. मंसानि छिन्नपुण्याई, उद्ठमंति एगयाई कार्य सं०-- मांसानि छिन्नपूर्वाणि, अवष्ठीवन्ति एकदा कायम् । परीषहान् अलुञ्चिषु, अथवा पांसुना अवाकारिषुः । कुछ लोग मांस काट लेते। कभी-कभी शरीर पर थूक देते, प्रतिकूल परीवह देते और कभी-कभी उन पर धूल डाल देते । ११ केचिज्जनाः भगवतो मांसमपि छिन्दन्ति, केचित् शरीरे अवष्ठीवन्ति, केचित् परीषहान् - नानावि धानि कष्टानि अलुञ्चिषुः केचिच्च पांसोरवकीर्णमकाः । तथापि भगवान् अविचलः आसीत्, काय व्युत्सर्गप्रयोगः उत्तरोत्तरं विकासमासादयत् । भाग्यम् १२ केचिज्जना ध्यानस्थितं भगवन्तं ऊर्ध्वमुत्क्षिप्य भूमी निहतवन्तः । केचित् आसनात् स्खलित । वन्तः । भगवान् व्युत्सृष्टकाय: आत्मानं प्रति प्रणत आसीत्, तेन सर्वान् दुःखकरान् उपसर्गान् अधिसोढवान् । १२. उच्चाइय हिणिसु, अदुवा आसणाओ बलहंसु वोसटुकाए पणयासी, दुक्ख सहे भगवं अपडणे || सं० उच्चाल्य व्यवधिः, अथवा आसनादचिस्खलन् । भ्युत्सृष्टकायः प्रणतः आसीत्, दुःखसहः भगवान् अप्रतिशः । कुछ लोग ध्यान में स्थित भगवान् को ऊंचा उठाकर नीचे गिरा देते। कुछ लोग आसन से स्खलित कर देते। किंतु भगवान् शरीर का विसर्जन किए हुए, आत्मा के लिए समर्पित, कष्ट-सहिष्णु और सुख प्राप्ति के संकल्प से मुक्त थे । अतएव उनका समभाव विचलित नहीं होता था । १. एतत् समस्तपदं विभाव्यते । आचारांगचूर्णे (पृष्ठ ३२० ) फलपदं चपेटार्थे व्याख्यातमस्ति फलमिति चवेडा । आचारांग भाष्यम् वहां भगवान् ने लाठी आदि के प्रहार सहन किए। कुन्तादिफलम् का अर्थ है-भाला आदि शस्त्र तथा चपेटा। इनके प्रहारों को भी भगवान् ने सहा । बहुत सारे लोग भगवान् पर लाठी आदि का प्रहार कर (खुशी से चिल्लाते उत्तराध्ययनचूर्ण (पृष्ठ २०७) तु फलं पाणिक प्रहारार्थे विद्यते फलं तु पापातः । आचारांगवृत्तौ (पत्र २८३) 'कुन्तादिफलेन' इत्येव लभ्यते । १३. सूरो संगामसीसे वा, संवुडे तत्थ से महावोरे । पडिसेवमाणे फरुसाई, अचले भगवं रीइत्था ॥ सं० - शूरः संग्रामशीर्षे वा, संवृतः तत्र स महावीरः । प्रतिसेवमानः परुषान्, अचलः भगवान् अरैषीत् । जैसे कवच पहना हुआ योद्धा संग्राम-शीर्ष में विचलित नहीं होता, वैसे ही संवर का कवच पहने हुए भगवान् महावीर कष्टों को झेलते हुए ध्यान से विचलित नहीं होते थे। वे अविचलित भाव से घूमते रहे । २. हन्त । हन्त इत्यपि व्याख्यातुं शक्यते । ' ३. आचारांग वृत्ति, पत्र २८३ : 'चक्रन्दुः — पश्यत यूयं किभूतोऽयमित्येवं कललं चः। चक्रुः ४. अत्र वृत्तिकारेण ( पत्र २८३ ) 'कायमवष्टभ्य' इति व्यापातम् । किन्तु व्याकरणदृष्ट्या एतद् विमर्शमर्हति । कुछ लोग भगवान के शरीर से मांस भी काट लेते । कुछ लोग शरीर पर थूक भी देते, कुछ लोग उन्हें नाना प्रकार से कष्ट देते और कुछ लोग भगवान् पर धूल उछालते। फिर भी भगवान् अविल रहते उनका कायार्ग का प्रयोग उत्तरोत्तर विकसित हो रहा था । । कुछ लोग ध्यान में अवस्थित भगवान् को ऊंचा उठाकर नीचे भूमि पर गिरा देते थे। कुछ लोग भगवान् को आसन से स्वलित कर देते भगवान् शरीर का विसर्जन किए हुए थे, वे आत्मा के प्रति समर्पित थे, इसलिए उन्होंने इन अत्यन्त कष्टदायी सभी उपसर्गों को समभाव से सहा । । 'उ' पर्व ष्ठीवनायें 'औपपातिके' अपि दृश्यते'अहिए (सूत्र ३६) चूर्णावपि अवष्ठीवनायें एव एतद् व्याख्यातमस्ति 'केवि भूमाते उति पुक्करिति य। ( आचारांग चूणि, पृष्ठ ३२० ) ५. आचारांग चूणि, पृष्ठ ३२० : पंसुणाइ कयाइ व करेंसु, धूलिए वा छारेण वा भति, तहावि भगवन्तो अपविण णिमल्लति । ६. वही, पृष्ठ ३२० केइ आसणातो खलति आपावणभूमीतो वा, जत्थ वा अन्नत्थ ठिओ पिसण्णो वा, केति पुण एवं वेवमाणो हणेत्ता आसणातो वा खलिता पच्छा पाएसु पखिमिति । Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ६. उपधानश्रुत, उ० ३. गाथा ११-१४. उ० ४. गाथा १ ४३७ भगवान् भाष्यम् १३ - संवरपरिणामेन संवृतो संदर के परिणामों से संत भगवान् कष्टों को सहते हुए, परुषान् प्रतिसेवमानः ध्यानात् न चलितोऽभूत् स ध्यान से कभी विचलित नहीं हुए। वे अचल ही रहे । अचल एव आसीत् । ' १४. एस विही अणुक्कतो, माहणेण मईमया । अपडिण्णेण वीरेण, कासवेण महेसिणा ॥ सं० एष विधिरनुकान्तः माहनेन मतिमता अप्रतिज्ञेन वीरेण काश्यपेन महर्षिणा । 1 , मतिमान् माहन काश्यपगोत्री महर्षि महावीर ने संकल्प-मुक्त होकर पूर्व प्रतिपादित विधि का आचरण किया। ऐसा मैं कहता हूं । भाष्यम् १४ स्पष्टम् । स्पष्ट है । माध्यम् १- भगवान् रोगंरस्पृष्टोऽपि अवमौदयं कृतवान्। बुभुक्षायाः परीषहः सोढुं अतीव दुःशकोऽस्ति तथापि भगवान् अत्यन्तपराक्रमं मुपयुञ्जानः अतिप्रमाणभोजिरवं वजितवान् । भगवान् धातुक्षोभजनित रोगे स्पृष्टो न भवति इति पारम्पर्यम् । आगन्तुकैः रोगैः स्पृष्टो भवत्यपि, तेनोक्तं स शेरस्पृष्टः स्पृष्टो वा चैकित्स्यं नाभिलषति न च परं कुर्वाणमनुमोदते । चउत्थो उद्देसो चौथा उद्देशक १. ओमोदरियं चाएति, अपुट्ठे व भगवं रोगेहि [सं०] अवमौदर्य मनोति अस्पृष्टोऽपि भगवान् रोगः भगवान् रोग से अस्पृष्ट होने पर भी अयमौदर्य (अल्पाहार) करते थे। वे रोग से स्पृष्ठ या अस्पृष्ट होने पर चिकित्सा का अनुमोदन नहीं करते थे। थे । १. लाढ देश के निवासियों में कुछ लोग मद्र प्रकृति के कुछ लोग सहसा - सोचे समझे बिना काम करने वाले थे । वे भगवान् को आसन से स्खलित कर देते, किन्तु ऐसा करने पर भगवान् रुष्ट नहीं होते । भगवान् के समभाव को देखकर उनका मानस बदल जाता और वे भगवान् के पास आकर अपने अशिष्ट आचरण के लिए क्षमा-याचना करते जो रचित वाले वे उनका हृदय परिवर्तन नहीं होता था । । पुट्ठो २. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ ३२१ : वातातिएहि रोगेहि अद्रोवि ओमोदरियं कृतवान् लोगो तुजतो पो रोगेहि भवति ततो पडिक्कारणनिमित्तं ओमं करेति, भगवं पुण अपुट्टो बातावीएहि मोमोदरियं चाति, सुभुजंगं वा जहा आहारेति । त्ति बेमि । - पुट्ठे वा से अपुट्ठे वा, जो से सातिज्जति तेहच्छं ।। स्पृष्टो वा सोऽस्पृष्टो वा नो स स्वादयति चैकित्स्यम् । इति ब्रवीमि । । भगवान् रोगों से अस्पृष्ट होने पर भी अवमोदर्य करते थे । भूख के परीषद्द को सहना अतीव दुष्कर है। फिर भी भगवान् अत्यन्त पराक्रम का उपयोग कर प्रमाणातिरिक्त भोजन का वजन करते थे । भगवान् या तीर्थंकर धातुओं के क्षोभ से उत्पन्न होने वाले रोगों से स्पृष्ट नहीं होते । यह परम्परागत तथ्य है । वे आगंतुक रोगो से स्पृष्ट होते भी है, इसलिए कहा है कि वे रोगों से अस्पृष्ट या स्पृष्ट होने पर चिकित्सा की चाह नहीं करते और करने वाले दूसरे का अनुमोदन भी नहीं करते । (ख) अल्पाहार करना सरल कार्य नहीं है । साधारणतया मनुष्य बहुमोजी होते हैं। वे जब रोग से घिर जाते हैं, तब उससे छुटकारा पाने के लिए अल्पाहार करते हैं। भगवान् के शरीर में कोई रोग नहीं था, फिर भी वे साधना की दृष्टि से सर्प की भांति अल्पाहार करते थे । ३. (क) आचारांग भूमि, पृष्ठ ३२१ मा किमितमेगंतो रोगेहि ण सो सिज्जति ? मन्नति धातुनखोमितेहि ण फुसिज्जति, जइ कोवा कडं सलागं पवेसए तहा, तह (हत) पुण्वो वंडेणं, अतो वुच्चति - पुट्ठे व से अपुट्ठे वा पुट्ठे वा पुट्ठे तेहि आगंतुहि पो सतं स करेति, जोवि अण्णो करेति तंपि ण च करेgत्ति साइज्जइ । Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ आचारांगमाष्यम् अचिकित्सा कायव्युत्सर्गस्य प्रयोग एव । यथा यथा अचिकित्सा काय-व्युत्सर्ग का ही प्रयोग है। जैसे-जैसे अन्तअन्तरात्मनि अनुप्रवेशो भवति तथा तथा चिकित्सायाः रात्मा में प्रवेश होता है, वैसे-वैसे चिकित्सा की भावना भी दूर होती भावः अपगतो भवति। केचित रोगैरस्पृष्टा अपि बल- जाती है। कुछ लोग रोगों से अस्पृष्ट होने पर भी बल, वीर्य और वीर्यकान्त्याद्य भिवर्धनाथ' रोगसंभावनानिवारणार्थमपि कान्ति आदि की अभिवृद्धि के लिए तथा रोग की संभावना के निवारण च आयुर्वेदोक्तां पञ्चकर्मस्वरूपां चिकित्सां कुर्वन्ति ।। के लिए आयुर्वेद में प्रतिपादित 'पंचकर्म' चिकित्सा करते हैं। भगवान् भगवान् तामपि वर्जितवान् । ने उस चिकित्सा का भी वर्जन किया । अस्यानुसारी उपदेश: इसका संवादी उपदेश है'लखे आहारे अणगारे मायं जाणेज्जा। 'आहार प्राप्त होने पर मुनि मात्रा को जाने ।' 'एते रोगे बहू णच्चा, आउरा परितावए।" 'इन नाना प्रकार के रोगों को उत्पन्न हुआ जान कर आतुर मनुष्य (चिकित्सा के लिए) दूसरे जीवों को परिताप देते हैं।' 'णालं पास ।५ 'तू देख, ये चिकित्सा-विधियां पर्याप्त नहीं हैं।' 'अलं तवेएहि ।" 'इन चिकित्सा-विधियों का तू परित्याग कर।' 'एयं पास मुणी ! महन्मयं ।" 'मुने ! तुम देखो, यह हिंसामूलक चिकित्सा महान् भय उत्पन्न करने वाली है।' 'णातिवाएज्ज कंचणं।" 'मुनि चिकित्सा के निमित्त भी किसी प्राणी का वध न करे ।' २. पञ्चकर्म ये हैं-वमन, विरेचन, स्नेहन, स्वेदन और नस्य । चरक में इनका मूल स्रोत मिलता है- . 'लंघनं बृंहणं काले, रूक्षणं स्नेहनं तथा । स्वेदनं स्तम्भनं चैव, जानीते यः स वै भिषग् ॥' . (चरक, सूत्रस्थान, २२।४) प्रकारान्तर से पञ्चकर्म का उल्लेख शाङ्गधर में मिलता (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २८४ : भगवतो हि न प्राकृत स्येव देहजाः कासश्वासादयो भवन्ति, आगन्तुकास्तु शस्त्रप्रहारजा भवेयुः, इत्येतदेव दर्शयति सच भगवान् स्पृष्टो वा श्वमणादिभिः अस्पृष्टो वा कासश्वासादिभिर्नासौ चिकित्सामभिलषति, न द्रव्योषधाधुपयोगतः पोडोपशमं प्रार्थयतीति । १. आयुर्वेद के अनुसार संशोधन से निम्नोक्त गुण प्राप्त होते हैं - १. कायाग्नि तीक्ष्ण होती है। २. व्याधियां प्रशमित होती हैं। ३. स्वास्थ्य का अनुवर्तन होता है। ४. इन्द्रियां प्रसन्न रहती हैं। ५. मन और बुद्धि के कार्यों का प्रकर्ष होता है। ६. वर्ण-प्रसादन होता है। ७. बल बढ़ता है। ८. शरीर पुष्ट होता है। ९. अपत्य या सन्तानोत्पत्ति होती है। १०. वीर्य की वृद्धि होती है। ११. वृद्धावस्था देर से आती है। १२. रोग रहित दीर्घ आयुष्य प्राप्त होता है। ‘एवं विशुद्धकोष्ठस्य, कायाग्निरभिवर्धते । व्याधयश्चोपशाम्यन्ते, प्रकृतिश्चानुवर्तते ॥' 'इन्द्रियाणि मनो बुद्धिवर्णश्चास्य प्रसीदति । बलं पुष्टिरपत्यं च वृषता चास्य जायते ॥' 'जरां कृच्छेण लभते, चिरं जीवत्यनामयः।' (चरक, सूत्रस्थान १६.१९) 'वमनं रेचनं नस्य, निरुदृश्चानुवासनम् । एतानि पञ्चकर्माणि, कथितानि मुनीश्वरैः॥' ३. आयारो, २।११३। ४-८. (क) आयारो, ६।१९-२३ । (ख) रोग के दो प्रकार होते हैं-धातु-क्षोभ से उत्पन्न और आगन्तुक । भगवान् के शरीर में धातु-क्षोभ से होने वाले रोग नहीं थे। मनुष्य और जीव-जन्तुओं द्वारा घाव आदि (आगन्तुक रोग) किए जाते । उनके शमन के लिए भी भगवान् चिकित्सा नहीं करते थे। ग्वाले ने भगवान् के कान में शलाका प्रविष्ट कर दी। खरक वैद्य ने उसे निकाला और औषधि का लेपन किया। भगवान् ने मन से भी उसका अनुमोदन नहीं किया। Jain Education international Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ६. उपधानश्रुत, उ० ४. गाथा २-४ २. संसोहणं च वमणं च, गाय मंगणं सिणाणं च । संबाहणं ण से कप्पे, वंतपक्खालणं परिण्णाए || सं० - संशोधनं च वमनं, गात्राभ्यङ्गनं स्नानं च संबाधनं न स कल्पयति, दन्तप्रक्षालनं परिज्ञाय । वे विरेचन, वमन, तैल-मर्दन, स्नान, मर्दन नहीं करते थे और दन्त-प्रक्षालन भी नहीं करते थे । भाष्यम् २ -- इदानीं चिकित्सांगानां निरूपणम् संशोधनम् - विरेचनम् । निर्हरणम् । वमनम् - औषध प्रयोगेण निर्हरणम् । गात्रस्य अभ्यङ्गनम् तैलमर्दनम् । स्नानम् - जलेन गात्रस्य अभिसिञ्चनम् । संबाधनम् —–मर्दनम् । अधोमार्गाद् दोष ऊर्ध्वमार्गाद् दोष दन्तप्रक्षालनम् - दन्तकाष्ठेन अंगुल्या उदकेन वा दन्तानां शोधनम् । भगवता एषां सर्वेषां उपयोगो नादृतः । P 1 भाष्यम् ३ – भगवान् शरीरचिकित्सां न कृतवान् किन्तु मोहचिकित्सां आवृतवान्। अत एवोक्तं स ग्राम्यधर्माणां विरति कृतवान् । मोहचिकित्सायाः प्रथम मंगमस्ति अबहुवादित्वम् अन्तर्लीनः पुरुषः न बहू वक्तुमर्हति । अत एव भगवान् अबहुवादी आसीत् । द्वितीयमंगमस्ति कायक्लेशः । स द्विविधः शीताताप सहनभेदात् । तत्र शीतसहनम् - भगवान् शिशिरकाले छायायां ध्यानं विहितवान् । अब चिकित्सा के अंगों का निरूपण करते हैंसंशोधन - विरेचन । गुदा मार्ग से दोषों का निर्हरण । ३. विरए गामधम्मेहि, रोयति माहणे अबहुवाई । सिसिरंमि एगदा भगवं, छायाए भाइ आसी य ॥ सं० – विरतः ग्राम्यधर्मेभ्यो रीयते माहून अबहुवादी शिशिरे एकदा भगवान्, छायायां ध्यायी आसीत् च । भगवान् शब्द आदि इन्द्रिय-विषयों से विरत होकर विहार करते थे। वे बहुत नहीं बोलते थे। वे शिशिर ऋतु में छाया में ध्यान करते थे । १. भगवान् ने दीक्षित होते ही एक संकल्प किया था-'मैं साधना काल में शरीर का विसर्जन कर रहूंगा' इस संकल्प के अनुसार वे शरीर के परिकर्म से मुक्त रहते थे। जो साधक आत्मा के लिए समर्पित हो जाता है, उसके लिए शरीर की सार-संभाल और साज-सज्जा से मुक्त होना आवश्यक है ही, साथ-साथ शरीर की विस्मृति भी आवश्यक है। यह चर्या उसकी विस्मृति का अंग है । वमन – औषध के प्रयोग से ऊर्ध्वमार्ग- मुंह से दोषों का निर्हरण | गात्र - अभ्यंगन - शरीर पर तैलमर्दन । स्नान—पानी से शरीर का अभिसिंचन । संबाधन मर्दन । दन्तप्रक्षालन - दतीन, अंगुली अथवा पानी से दांतों को साफ करना । भगवान् महावीर ने इन सबके उपयोग का परिहार किया । ४. आयावई य गिम्हाणं, अच्छइ उक्कुडुए अभिवाते । अदु जावइत्थं लूहेणं, ओयण-मंथु कुम्मासेणं ॥ सं० - आतापयति च ग्रीष्मेषु, आस्ते उत्कुटुकोऽभिवाते । अथाऽयापयत् रूक्षेण, ओदनमंकुथुल्माषेण । भगवान् ग्रीष्म ऋतु में सूर्य का आतप लेते थे । ठकडू आसन में वायु के अभिमुख होकर बैठते थे । वे कभी-कभी रूले कोदो, और उड़द से जीवन-यापन करते थे । की भगवान् ने शरीर चिकित्सा नहीं की, किन्तु मोह - चिकित्सा इसीलिए कहा है भगवान् ग्राम्यधर्म-मैथुन अथवा इन्द्रियविषयों से विरत हो गए थे मोह-चिकित्सा का पहला अंग हैअबहुवादी होना अर्थात् बहुत नहीं बोलना अन्तलींग पुरुष बहुत नहीं बोल सकता। इसीलिए भगवान् अबहुवादी थे । मोह-चिकित्सा का दूसरा अंग है— कायक्लेश का अभ्यास कायक्लेश के दो प्रकार हैं—शीत सहन करना तथा आतप सहन करना। शीत सहन करने का तात्पर्य है - भगवान् शिशिर ऋतु में भी छाया में ध्यान करते थे । ૪૩૨ २. (क) ग्राम्यधर्मो निधुवनं कामकेलिः पशुक्रिया ॥ व्यवायो मैथुन..... HONOURINORING ME ---- सत्तू ( अभिधान चिन्तामणि नामामाला, ३।२०१-२०२ ) (ख) आचारांग चूणि, पृष्ठ ३२२ : गामा इंदियगामा, धम्मा सद्दाति । (ग) आचारांग वृत्ति, पत्र २८४ : 'ग्रामधर्मेभ्यो' यथास्वमिन्द्रियाणां शब्दादिभ्यो विषयेभ्यः । Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगभाष्यम ५. एयाणि तिण्णि पडिसेवे, अट्ठ मासे य जावए भगवं। अपिइत्थ एगया भगवं, अद्धमासं अदुवा मासं पि॥ सं०-एतानि त्रीणि प्रतिसेवते, अष्टो मासान् च यापयते भगवान् । अपीत्वा एकदा भगवान्, अर्द्धमासं अथवा मासमपि । भगवान् ने इन तीनों का सेवन कर आठ महीने तक जीवन-यापन किया। उन्होंने कभी-कभी अर्ध मास या एक मास तक भी पानी नहीं पिया। ६. अवि साहिए दुवे मासे, छप्पि मासे अदुवा अपिवित्ता। रायोवरायं अपडिण्णे, अन्नगिलायमेगया भुजे॥ सं०-अपि साधिको द्वो मासौ, षडपि मासान् अथवाऽपीत्वा । रान्युपरात्रमप्रतिज्ञः, अन्नग्लायं एकदा भुङ्क्ते । उन्होंने कभी-कभी दो मास से अधिक और छह मास तक पानी नहीं पिया। उनके मन में नींद लेने का संकल्प नहीं होता था। वे रात भर जागृत रहते थे। कभी-कभी वे वासी भोजन भी करते थे। भाष्यम् ४-६--सूर्यातापस्य च सहनम्-अतिक्रान्ते सूर्य का आतप सहने का तात्पर्य है-हेमन्त के बीत जाने पर हेमन्ते भगवान् उत्कुटुकासनिक: वाताभिमुखं' स्थित्वा भगवान् उत्कटुक आसन में वायु के अभिमुख बैठकर सूर्य के आतप का आतपमासेवितवान् ।' सेवन करते थे। - तृतीयमंगम्-रसपरित्यागः रूक्षभोजनेन यापनं च। मोह-चिकित्सा का तीसरा अंग है-रस परित्याग तथा रूक्षअस्मिन् अष्टमासिके प्रयोगे भगवता ओदनमन्थकूल्मा- भोजन से जीवन-यापन । आठ महीनों के इस प्रयोग में भगवान ने षानां एषां त्रयाणामेव आहारः कृतः ।' कोदो, सत्तू और उड़द-इन तीनों का ही भोजन किया। भगवान् कदाचिद् अर्धमासं मासं वा पानकं न भगवान् ने कभी पन्द्रह दिन अथवा महीने तक पानी नहीं पीतवान् । सर्वं च तपःकर्म अपानकं भवति भगवतः इति पिया। भगवान् की सारी तपस्या अपानक-पानी रहित होती है, इस परम्परानुसारेण भगवान् साधिकं मासद्वयं षडपि मासान् परम्परा के अनुसार भगवान महावीर ने कभी-कभी दो मास से अधिक यावत पानकं न पीतवान् । रात्रिः-पूर्वरात्रम्-प्रथमो और छह मास पर्यन्त भी पानी नहीं पिया। रात्रि के दो विभाग हैंद्वौ यामी, उपरात्रम्-पश्चिमी द्वौ यामी। भगवान् पूर्वरात्र अर्थात् रात्री के प्रथम दो प्रहर और उपरात्र अर्थात् रात्री के रात्रेर्यामचतुष्टयेऽपि जागति, न निद्रा प्रतिज्ञाता तस्य । अन्तिम दो प्रहर । भगवान् रात के चारों प्रहरों में जागते रहते। उनके आहारपानकयोः प्रयोगानन्तरं जागरणप्रयोगः दर्शितः। नींद लेने का संकल्प ही नहीं होता। आहार-पानक के प्रयोग के पश्चात् इदानों पुनरपि आहारप्रयोगः प्रदर्श्यते। भगवान भगवान् के जागरण का प्रयोग बतलाया गया है। अब पुनः आहार का कदाचित् ग्लानमन्न-पर्यषितं भुक्तवान् । प्रयोग बताया जा रहा है। भगवान् ने कभी-कभी वासी भोजन भी किया। ७. छटठेणं एगया भुंजे, अदुवा अट्टमेण दसमेणं । दुवालसमेण एगया मंजे, पेहमाणे समाहि अपडिण्णे ॥ सं०-षष्ठेनैकदा भुङ्क्ते, अथवाष्टमेन दशमेन । द्वादशमेन एकदा भुङ्क्ते, प्रेक्षमाणः समाधिमप्रतिज्ञः ।। वे कभी दो दिन, कभी तीन दिन, चार दिन या पांच दिन के उपवास के बाद भोजन करते थे। उनकी दृष्टि तपःसमाधि पर टिकी हुई थी और भोजन के प्रति उनके मन में कोई संकल्प नहीं था। १. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ ३२२ : 'उक्कुडपासणेण अभि- ३. वही, पृष्ठ ३२२ : 'अपियत्य एगता भगवं जो पाणगं ण मुहवाते उन्हे रुक्खे य वायंते, एवं ताव कायकिलेसो।' पियति सो पावेण आहारं आहारेति, एवं च सम्वं च (ख) वृत्तौ 'अभितावं' पाठः व्याख्यातोस्ति –'तिष्ठत्युत्कुट तवोकम्मं अप्पाणगं ।' कासनोऽभितापं---तापाभिमुख मिति'। ४. भगवती सूत्र वृत्ति (पत्र ७०५) में 'अन्नगिलाय' शब्द की (आचारांग वृत्ति, पत्र २८३) व्याख्या मिलती है । जो अन्न के बिना ग्लान हो जाता हैं, २. आचारांग चूणि, पृष्ठ ३२२ : 'दम्वरुक्खं ओदणं विरहितं, वह अन्नग्लायक कहलाता है । वह भूख से आतुर होने के मंथु इति मंथसत्तुया णग्गोहमंथुमादी वा भुज्जितएहि तएहि, कारण ताजा भोजन बने तब तक प्रतीक्षा नहीं कर सकता, कुम्मासा कुम्मासा एव, सम्वत्थ रुक्खसद्दो अणुयत्तत्ति इसलिए प्रातःकाल होते ही जो कुछ वासी भोजन मिलता एयाई तिणि पडिसेवे अट्ठ मासे य जावते भगवं एतेहि है, उसे खा लेता है। ओदणमंथुकुम्मासेहि, अट्ठमासेत्ति उडुबद्धिते अट्ठ मासे ।' Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०६. उपधानश्रुत, उ०४. गाथा ५-१२ ४४१ भाष्यम् ७-कदाचिद् दिनद्वयानन्तरं, कदाचिद् भगवान् ने कभी दो दिन, कभी तीन दिन, कभी चार दिन और दिनत्रयानन्तरं, कदाचिद् दिनचतुष्कानन्तरं, कदाचिच्च कभी पांच दिन के बाद भोजन करते थे। समाधि अर्थात् तपःसमाधि । दिनपञ्चकानन्तरं भुक्तवान् । समाधिः-तपःसमाधिः, तं तपःसमाधि की प्रेक्षा करते हुए भगवान् आहार के प्रति उत्सुक नहीं प्रेक्षमाणो भगवान् आहारं प्रति नौत्सुक्यमादृतवान्। रहते थे। ८. णच्चाणं से महावीरे, णो वि य पावगं सयमकासी । अण्णेहि वा ण कारित्था, कोरंतं पिणाणुजाणित्या ।। सं० ज्ञात्वा स महावीरः, नोऽपि च पापकं स्वयमकार्षीत् । अन्यैर्वा नाऽचीकरत्, कुर्वन्तमपि नान्वज्ञासीत् । भगवान महावीर आहार के दोषों को जानकर स्वयं पाप (आरम्भ-समारम्भ) नहीं करते थे, दूसरों से नहीं करवाते थे और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करते थे। भाप्यम् ८-अग्निसमारम्भे दोषं ज्ञात्वा आहारसंबंधे . अग्नि-समारम्भ के दोष को जानकर भगवान् महावीर आहार भगवान महावीरः न पापकं स्वयमकार्षीत्, नान्यः तत् से संबंधित पाप-आरम्भ-समारम्भ न स्वयं करते थे, न उसे दूसरों से कारितवान्, कुर्वन्तमपि नानुज्ञातवान् । नवकोटिपरिशुद्ध- करवाते थे और करने वाले का भी अनुमोदन नहीं करते थे । नवकोटि भिक्षायां पचनपाचनादिकं वजितमस्ति ।' भगवान् परिशुद्ध भिक्षा में पचन-पाचन आदि वजित है। भगवान् ने स्वयं स्वयमपि तद् नादतवान्, तदानीं कथं जीवनयात्रा- उसको स्वीकार नहीं किया तो फिर जीवन-यात्रा का निर्वाह कैसे निर्वाहः स्यात् इत्याशंका सञ्जायते । तस्याः समाधानं संभव हुआ, यह आशंका उत्पन्न होती है। उसका समाधान आगे के अनन्तरश्लोके कृतमस्ति । श्लोक में किया गया है। ९. गामं पविसे णयरं वा, घासमेसे कडं परट्राए। सुविसुद्धमेसिया भगवं, आयत-जोगयाए सेवित्था । सं०-ग्रामं प्रविश्य नगरं वा, घासमेषते कृतं परार्थाय । सुविशुद्धमेषित्वा भगवान्, आयतयोगेन असे विष्ट । भगवान् ग्राम या नगर में प्रवेश कर गृहस्थ के लिए बने हुए आहार को एषणा करते थे। सुविशुद्ध आहार ग्रहण कर संयत योग से उसका सेवन करते थे। भाष्यम् ९-आहारविषये त्रिविधा एषणा प्रति- आहार के विषय में तीन प्रकार की एषणाओं का प्रतिपादन पादितास्ति-गवेषणा, ग्रहणेषणा, परिभोगैषणा च । ग्रामं किया गया है-गवेषणा, ग्रहणैषणा, परिभोगैषणा। भगवान् महावीर नगरं वा प्रविश्य पराथं कृतस्य आहारस्य एषणां कृतवान् गांव या नगर में प्रवेश कर गृहस्थों के लिए बने हुए आहार की एषणा इति गवेषणा। सुविशुद्धस्य आहारस्य ग्रहणं कृतवान् करते थे। यह गवेषणा है। वे सुविशुद्ध आहार का ग्रहण करते थे। इति ग्रहणषणा। संयतेन योगेन तमाहारं सेवितवान् यह ग्रहणषणा है। वे संयत योग से उस आहार का सेवन करते थे। इति परिभोगैषणा। - यह परिभोगषणा है। १०. अदुवायसा दिगिछत्ता, जे अण्णे रसेसिणो सत्ता । घासेसणाए चिट्ठते, सययं णिवतिते य पेहाए। सं०-'अदु' वायसाः बुभुक्षार्ताः, येऽन्ये रसैषिणः सत्त्वाः । घासैषणाय तिष्ठन्ति, सततं निपतितान् च प्रेक्ष्य । भूख और प्यास से पीड़ित काक आदि तथा अन्य पक्षी पान और भोजन की एषणा के लिए चेष्टा करते हैं, उन्हें निरन्तर बैठे हुए देखकर ११. अद् माहणं व समणं वा, गामपिंडोलगं च अतिर्हि वा । सोवागं मुसियारं वा, कुक्कुरं वावि विहं ठियं पुरतो।। सं०-'अदु' माहनं वा श्रमणं वा, ग्रामपिण्डोलकं चातिथि वा । श्वपाकं मूषकारिं वा, कुकुरं वापि 'विहं' स्थितं पुरतः । ब्राह्मण, श्रमण, भिक्षु या अतिथि, चाण्डाल, बिल्ली या कुत्ते को आगे मार्ग में बैठे हुए देखकर १. ठाणं, ९।३०। २. देशीयशब्दः । ... Jain Education international Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगभाष्यम् १२. वित्तिच्छेदं वज्जतो, तेसप्पत्तियं परिहरंतो। मंद परक्कमे भगवं, अहिंसमाणो घासमेसित्था ॥ (त्रिभिः कुलकम) सं०-वृत्तिच्छेदं वर्जयन्, तेषामप्रीतिकं परिहरन् । मन्दं पराक्रमते भगवान्, अहिंसन् घासमैषिष्ट । उनकी आजीविका का विच्छेद न हो, उनके मन में भय उत्पन्न न हो, इसे ध्यान में रखकर भगवान् धीमे-धीमे चलते थे। वे किसी को त्रास न देते हुए आहार की एषणा करते थे। भाष्यम् १०-१२--स्पष्टमेव । स्पष्ट है। १३. अवि सूइयं व सुक्कं वा, सोयपिंडं पुराणकुम्मासं । अदु बक्कसं पुलागं वा, लद्धे पिडे अलद्धए दविए। सं०-अपि सूपिकं वा शुष्कं वा, शीतपिण्डं पुराणकुल्माषम् । 'अदु' बक्कसं पुलाकं वा, लन्धे पिण्डेऽलब्धे द्रव्यः । भोजन व्यंजन-सहित हो या व्यंजन-रहित, ठण्डा भात हो या वासी उड़द, सत्तू हो या चने आदि का रूक्ष आहार हो, भोजन प्राप्त हो या न हो-इन सब स्थितियों में भगवान् राग या द्वेष नहीं करते थे। भाष्यम् १३–स्पष्टमेव । स्पष्ट है। अस्यानुसारी उपदेश: संवादी उपदेश'ण मे वेति ण कुप्पिज्जा, थोवं लान खिसए।" 'यह मुझे भिक्षा नहीं देता-यह सोचकर उस पर क्रोध न करे । थोड़ा प्राप्त होने पर निन्दा न करे।' 'पंतं लहं सेवंति वीरा समत्तदसिणो।" 'समत्वदर्शी वीर प्रान्त-मीरस, वासी और रूक्ष आहार आदि का सेवन करते हैं।' १४. अवि झाति से महावीरे, आसणस्थे अकुक्कुए माणं । उडमहे तिरियं च, पेहमाणे समाहिमपडिण्णे ॥ सं०-अपि ध्यायति स महावीरः, आसनस्थोऽकुत्कुचः ध्यानम् । ऊर्ध्वमध: तिर्यक् च, प्रेक्षमाणः समाधिमप्रतिज्ञः । भगवान् ऊकड़ आदि आसनों में स्थित और स्थिर होकर ध्यान करते थे। वे ऊंचे, नीचे और तिरछे लोक में होने वाले पदार्थों को ध्येय बनाते थे । उनकी दृष्टि आत्म-समाधि पर टिकी हुई थी। वे संकल्प से मुक्त थे। भाष्यम् १४-इदानीं भगवतो ध्यानमुद्रा निरूप्यते। अब भगवान महावीर की ध्यानमुद्रा का निरूपण किया जाता भगवान् आसनस्थ: ध्यानं करोति । उत्कटुक-वीरासन- है। भगवान् आसन में बैठकर ध्यान करते थे। उनके ये प्रमुख आसन गोदोहिका-ऊर्ध्वस्थानादीनि प्रमुखानि आसनानि । थे-उत्कटुक आसन, वीरासन, गोदोहिका आसन अथवा ऊर्ध्वस्थान आदि । 'अकुक्कुए'पदेन कायोत्सर्गमुद्रा कायगुप्तिर्वा 'अकुत्कुच' पद से कायोत्सर्ग मुद्रा अथवा कायगुप्ति की सूचना सूचितास्ति । ध्यानपदेन धर्मविचयस्य शुक्लस्य वा ग्रहण- दी गई है । 'ध्यान' पद से धर्मविचय अथवा शुक्लध्यान का ग्रहण किया मस्ति । गया है। ध्यानक्षेत्रदृष्ट्या ऊर्वादिपदानां संग्रहः । ध्यान-क्षेत्र की दृष्टि से ऊर्ध्व आदि पदों का संग्रह किया गया है। . भगवान् ऊर्ध्वलोकवतिभावानामभिगमाय ऊर्ध्वध्यानं भगवान् ऊर्ध्वलोकवर्ती भावों को जानने के लिए ऊर्ध्वध्यान करोति । अधोलोकवतिभावानामभिगमाय अधोध्यानं करते थे। अधोलोकवर्ती भावों को जानने के लिए अधोध्यान करते करोति । तिर्यगलोकवतिभावानामभिगमाय तिर्यग्ध्यानं थे। तिर्यग्लोकवर्ती भावों को जानने के लिए तिर्यग्ध्यान करते थे । करोति । १. आयारो, २११०२। झियाति ? उड्डं अहेयं तिरियं च सव्वलोए झायति २. वही, २१६४ । समितं, उड्ढलोए जे भावा एवं अहेवि तिरिएवि, ३. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ ३२४ : माइति धर्म सुक्क जेहिं वा कम्मावाणेहि उड्ढं गंमति एवं अहे तिरियं वा, आसणं उक्कुडुओ वा वीरासणेणं वा, अकुकुओ च, अहे संसार संसारहेडं च कम्मविपागं च णाम निच्चलो, दम्वतो सरीरेण निच्चलो भावओ ज्झायति, एवं मोक्खं मोक्खहेऊं मोक्खसुहं च अकुकुओ पसत्थज्माणोवगतो झियाति, कि जमायति। समित, उबलोर के माया एक अवि निरिक, Jain Education international Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० ६. उपधानश्रुत, उ० ४. गाथा १३-१६ भगवान् अप्रतिज्ञः सन् समाधि प्रेक्षमाणः शरीरस्य वा ऊर्ध्वाधिस्तिर्वग्भागे समाधि प्रेक्षमाणः ध्यानं करोति । अस्पानुसारी उपदेश: 'आयतचक्खू लोग-विपस्सी लोगस्स अहो भागं जाणइ, उड़ भागं जाणइ, तिरियं भागं जाणइ ।" छउमत्ये वि परक्कममाणे, णो पमायं सई पि कुव्विथा ॥ प्रस्वोपि पराक्रममाणः, नो प्रमादं सकृदप्यकार्षीत् । १५. अकलाई विगयो, सद्दरूबेसुमुच्छिए शाति सं० वी विगतगृद्धि, शब्दरुपयोः अमूच्छितः ध्यायति । भगवान् क्रोध, मान, माया और लोभ को शांत कर आसक्ति को छोड़, शब्द और रूप में अमूच्छित होकर ध्यान करते थे। उन्होंने ज्ञानावरण आदि कर्म से आवृत दशा में पराक्रम करते हुए भी एक बार भी प्रमाद नहीं किया । - माध्यम् १५ इदानीं भगवतो ध्यानस्य उद्देश्य निरूप्यते । केचित् कषायोपतप्ताः परानभिशप्तुं केचिद् आसक्ताः पदार्थोपलब्धये केचिच्च शब्दरूपयोः मूच्छि तास्तयोः संग्रहाय ध्यानं कुर्वन्ति किन्तु भगवान् केवलं विशुद्धये ध्यानं कृतवान्। अत एव सोऽकषायी विगत वृद्धि: शब्दरूपयोरमूच्छितश्व ध्यानमुद्रामुपास्थितः । । - न भगवान् छद्मस्थावस्थायामपि पराक्रममाणः सकृदपि प्रमादं अकार्षीत्, सततं जागरूकत्वमन्वभवत्, न च साधनावा: भावो विचलितोऽभवत् । ' (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २८६ : 'किमवस्थो ध्यायतीति दर्शयति -- आसनस्थ :- उत्कटुकगोदोहिकावीरासनाद्यवस्थोऽकौत्कुचः सन् - मुखविकारादिरहितो ध्यानंधम्मं शुक्लयोरन्यतरबारोहति कि पुनस्तत्र ध्येयं घ्यावतीति दर्शयितुमाह ऊठ मधस्तिर्यग्लोकस्य ये जीवपरमाण्वादिका भावा व्यवस्थितास्तान् व्य पर्याय नित्यानित्यादिरूपतया ध्यायति' । (ग) 'ध्यानविचारे' अस्मिन् प्रकरणे उत्साहादीनां संबंध: प्रशितोऽस्ति उत्साहस्य लोकवस्तुचिन्ता । पराक्रमस्य अधोलोकचिन्ता । चेष्टायाः तिर्यग्लोकचिन्तनम् । ध्यानविचार, पृष्ठ १३९) १. आयारो, २।१२५ । २. (क) अत्र चूर्णिकारेण निद्राप्रमादो विवक्षितः - 'छउमत्थ काले विहरते भगवता जयंतेणं धुवंतेणं परवकमंतेणं ण कमाइ पमाली कयतो अविसहा जब एक्स ४४३ भगवान् संकल्प से मुक्त होकर समाधि की प्रेक्षा करते हुए अथवा शरीर के कार्य अधस् और तिरंग् भाग में समाधि की प्रेक्षा करते हुए ध्यान करते थे । , इसका संवादी उपदेश है 'संयतचक्षु पुरुष लोकदर्शी होता है। वह लोक के अधोभाग को जानता है, ऊध्वंभाग को जानता है और तिरछे भाग को जानता अब भगवान् महावीर के ध्यान के उद्देश्य का निरूपण किया जा रहा है । कुछ पुरुष कषायों से उत्तप्त होकर दूसरों को अभिशाप देने के लिए ध्यान करते थे। कुछ पुरुष पदार्थ में आसक्त होकर उसकी उपलब्धि के लिए कुछ शब्द और रूप में मूच्छित होकर उनके संग्रह के लिए ध्यान करते थे। किन्तु भगवान् महावीर केवल विशुद्धि के लिए ध्यान करते थे । इसलिए वे कषाय और आसक्ति से मुक्त तथा शब्द और रूप के प्रति अमूच्छित होकर ध्यानमुद्रा में स्थित होते थे। । भगवान् ने छद्मस्थ अवस्था में भी संयम में पराक्रम करते हुए एक बार भी प्रमाद नहीं किया, सतत जागरूकता का अनुभव किया । वे साधना के भाव से विचलित नहीं हुए । एक्को तो अबिनामे।" ( आचारांग चूर्ण, पृष्ठ ३२४) (ख) वृत्तिकारेण कषायादिप्रमादो विवक्षितः - सबनुष्ठाने पराक्रममाणो न प्रमादं प्रमादं कथावादिकं सकृदपि कृतवानिति । ( आचारांग वृत्ति, पत्र २०६) ( ग ) प्रमाद छह प्रकार का होता है- १. मद्य प्रमाद, २. निद्रा प्रमाद, ३. विषय प्रमाद, ४. कषाय-प्रमाद, ५. यूत प्रमाद, और ६. निरीक्षण (प्रतिलेखना) (ठाणं, ६२४४) भूमिकार के अनुसार भगवान् ने अन्तर्मुहुर्त को छोड़कर निद्रा प्रमाद का सेवन नहीं किया । प्रमाद । वृतिकार के अनुसार भगवान् ने रुपाय आदि प्रभावों का सेवन नहीं किया । इस पाठ का आशय यह है कि भगवान् जीवन-चर्या चलाते हुए भी प्रतिक्षण अप्रमत्त रहते थे । Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ आचारांगभाध्यम १६. सयमेव अभिसमागम्म, आयतजोगमायसोहीए। अभिणिवडे अमाइल्ले, आवकहं भगवं समिआसी। सं०-स्वयमेव अभिसमागम्य आयतयोगमात्मशुद्धया। अभिनित: अमायी, यावत्कथं भगवान् समित आसीत् । स्वयंबुद्ध भगवान् आत्म-शुद्धि के द्वारा आयत-योग-मन, वचन और शरीर की संयत प्रवृत्ति को प्राप्त होकर उपशांत हो गए। उन्होंने ऋजुभाव से तप की साधना की । वे सम्पूर्ण साधना-काल में समित रहे। - भाष्यम् १६-भगवान स्वयमेव तत्त्वं अभिसमागम्य- भगवान् स्वयं तत्त्व को जानकर, आत्म-शुद्धि के द्वारा आयतज्ञात्वा आत्मशुद्धया आयतयोग-संयतयोगं दृष्ट्वा योग अर्थात् संयतयोग को देखकर, जानकर प्रवृत्तयोग-मन, वचन प्रवृत्तयोगं वा अधिगतवान् । तेन स अभिनिवतः-- और शरीर की संयत प्रवृत्ति को प्राप्त हो गए। इससे वे अभिनित विषयकषायेषु शीतीभूतो जातः। भगवता अमायिना हो गए-विषय और कषायों से सर्वथा उपशांत हो गए । भगवान् ने तपस्तप्तम् । न क्वचिदपि मायार्थ तपोऽनुष्ठितम् ।' एवं ऋजु-भाव से तप तपा। उन्होंने कहीं भी माया के लिए तप नहीं यावज्जीवं भगवान् समित आसीत् । किया। इस प्रकार भगवान् यावज्जीवन समित रहे। १७. एस विही अणुक्कतो, माहणेण मईमया । अपडिण्णेण वीरेण, कासवेण महेसिणा ।। -त्ति बेमि । सं०-एष विधिरनुक्रान्तः, माहनेन मतिमता । अप्रतिज्ञेन वीरेण, काश्यपेन महर्षिणा।- इति ब्रवीमि । मतिमान् माहन काश्यपगोत्री महर्षि महावीर ने संकल्प-मुक्त होकर पूर्व प्रतिपादित विधि का आचरण किया। ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् १७-स्पष्टमेव । स्पष्ट है। इति आचार्यमहाप्रज्ञविरचितं आचारांगभाव्यं पूर्णतामगमत् । १. आचारांग चुणि, पृष्ठ ३२५ : 'अमाइल्ले, ण माइट्ठाणेण तवो कतो भगवता वरं देवो वा दाणवो मणुस्सो वा तुस्सिहिति, वरं कम्मक्खयट्ठाए।' Jain Education international Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशस्तिश्लोकाः १. आचार आत्मा च समन्वितौ स्तः, तत्रैव वीरः खलु वश्यमानः । सा भारती वीरजिनेश्वरस्य, त्राणं मम स्यात् समुवाच भिक्षुः ॥ २.भिक्षोर्वचासि प्रथिताशयानि, चक्रे जयोऽसौ विजयाय भूयात् । श्रीकालुनोप्तं च विकासबीजं, प्राप्नोतु शश्वत् शतशाखिरूपम् ।। ३. भाष्यं पुरा संस्कृतभाषितेषु, विनिर्मितं लब्धमिहास्ति विजः । आचारभाष्यं महनीयमुच्चैः, गीर्वाणवाण्यां कुरु पुण्यकाम ! ४. आचार्यस्तुलसी प्रबोधकुशलः संकल्पमल्पेतरं, प्रादुष्कृत्य निजात्मभावरुचिभिः संप्रेरितोऽहं मुवा। तत् किं भाति भुवस्तले सुललितं यत् प्रेरणां सद्गुरोः, संप्राप्याल्पमतिश्रुतोऽपि मनुजो न स्यात् धमे सार्थकः ? ५. चूणि च वृत्ति समवेक्ष्य सम्यक, 'जोड' जयाचार्यकृतां प्रपुण्याम् । सूत्रं च साक्षात् प्रविधाय भाष्ये, जाता महाप्रज्ञमनःप्रवृत्तिः ।। ६. चत्वारिंशत्तमे वर्षे, द्विसहस्र नभस्यसौ। भाष्यारंभोऽभवत् पुण्यः, पुरे बालोतराभिधे। ७. संपूतिरस्य संजाता, हिसारनगरे वरे। नवमी चैत्रकृष्णस्य, त्रिचत्वारिंशति श्रिये ॥ Jain Education international Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education international Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १. सूत्रानुक्रम २. (क) अध्ययनगत पद्यांश तथा पद्य (ख) दाद तथा वे अध्ययन का पदानुक्रम ३. विशेष शब्दार्थ ४. परिभाषापद ५. टिप्पणों में उल्लिखित विशेष विवरण ६. देशीशब्द ७. धातु और धातुपद ८. तुलना २. आचारांग चूर्णि में उद्धृत श्लोक १०. आचारांग वृत्ति में उद्धृत श्लोक ११. सूक्त और सुभाषित १२. संधानपद Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education international Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ सूत्रानुक्रम ६।२७ २।१०९ ८.५२ ८।२७ अणोमदंसी णिसन्ने पावेहि कम्मेहिं । ३।४८ अप्पेगे पायमन्भे, अप्पेगे पायमच्छे । १११११ अइअच्च सव्वतो. ६।३८ अणोहंतरा एते नो... २७१ अप्पेगे पायमन्भे, अप्पेगे पायमच्छे । १११३८ बंजू चेय पडिबुद्ध-जीवी। ५॥१०२ अण्णहा णं पासए परिहरेज्जा। २।११८ अप्पेगे पायमन्भे, अप्पेगे पायमच्छे । १।१६२ अंतरं च खलु" २२११ अतहेहिं सद्द-फासेहि अप्पेगे संपमारए, अप्पेगे उद्दवए। १३० अंतो अंतो पूतिदेहंत राणि २१३० अतारिसे मुणी णो.... अप्पेगे संपमारए, अप्पेगे उद्दवए। ११५३ अकडं करिस्सामित्ति मण्णमाणे। २०१५ अत्थि सत्थं परेण परं.. ३१८२ अप्पेगे संपमारए, अप्पेगे उद्दवए। श८४ अकडं करिस्सामित्ति मण्णमाणे। २।१४३ अदिस्समाणे कय-विक्कएसु अप्पेगे संपमारए अप्पेगे उद्दवए। १।११२ अकम्मस्स ववहारो न विज्जइ। ३६१८ अदुवा अचेले । ८.५३ अप्पेगे संपमारए, अप्पेगे उद्दवए । १।१३९ अकरिस्सं चहं, कारवेसुं चहं, १६ अदुवा अचेले । ८७१ अप्पेगे संपमारए, अप्पेगे उद्दवए। १।१६३ अग्गं च मूलं च विगिंच धीरे। ३३३४ अदुवा अचेले। ८।९३ अबलेण वहं गच्छंति... ६।१७ अग्घायं तु सोच्चा" ६७९ अदुवा अदिण्णादाणं । ११५८ अभिक्कत च खलु वयं संपेहाए । २।५ अच्चेइ जाइ-मरणस्स" ५।१२२ अदुवा अदिन्नमाइयंति । ८४ अभिभूय अदक्खू ५।१११ अच्चेइ लोयसंजोयं। २।१६९ अदुवा आयार-गोयरमाइक्खे । ८।२६ अभिसमेच्चा पंडिए" ६.९८ अट्टमेतं पेहाए । २११३८ अदुवा आसंसाए। २।४५ अमरायइ महासड्ढी । २११३७ अट्टा पया माणव !.... ५१८ अदुवा एगसाडे । अरई आउट्टे से मेहावी। २।२७ अट्टा वि संता अदुआ पमत्ता। ४।१४ अदुवा एगसाडे । ८७० अरूवी सत्ता। ५।१३८ अट्टे लोए परिजुष्णे. ११३ अदुवा गुत्ती गोयरस्स। अलं कुसलस्स पमाएणं। २१९५ अट्टे से बहुदुक्खे ६।१८ अदुवा गुत्ती वओगोयरस्स त्ति बेमि । ८।१० अलं तवेएहि । ६२१ अणगारा मोत्ति एगे पवयमाणा। ११८ अदुवा तत्थ परक्कमंतं" अलं ते एएहिं । २।९८ अणगारा मोत्ति एगे पवयमाणा। १४१ अदवा तत्थ परक्कमंतं" ८.११२ अलं बालस्स संगेणं । २।१४५ अणगारा मोत्ति एगे पवयमाणा। १७२ अदुवा तत्थ भेरवा । अलाभो त्ति ण सोयए। २१११५ अणगारा मोत्ति एगे पवयमाणा। ११०० अदुवा बायाओ विजंति... ८.५ अवरेण पुव्वं ण" ३२५९ अणगारा मोत्ति एगे पक्यमाणा। १।१२७ अदुवा संतरुत्तरे। अवि आहारं वोच्छिदेज्जा । ५८३ अणगारा मोत्ति एगे पवयमाणा। १११५१ अपयस्स पयं णत्थि। अवि उड्ढं ठाणं ठाइज्जा । ५८१ ५२१३९ अणण्णपरमं नाणी.. ३१५६ अपरिग्गहा भविस्सामो.... अवि ओमोयरियं कुज्जा। ५८० २।३१ अणभिक्कंतं च खलु वयं संपेहाए। २।२३ अपरिणाए कंदति । अवि गामाणुगाम दूइज्जेज्जा। २११३९ ५८२ अणाणाए एगे. ५१०७ अपरिण्णाय-कम्मे खलु अयं पुरिसे.... ११८ अवि चए इत्थीसु मणं । ५८४ अणाणाए पुट्ठा २।२९ अपलिउंचमाणे गामंतरेसु । अवि णिब्बलासए । ५७९ अणाणाए मुणिणो पडिलेहति । २३२ अपलिउंचमाणे गामंतरेसु । ८६६ अवि य इणे अणादियमाणे। २।१७५ अणारियवयणमेयं । ४१२१ अपलिउंचमाणे गामंतरेसु । ८८९ अवि से हासमासज्ज" ३१३२ अणुपविसित्ता गाम ८।१०६ अपलीयमाणे दढे। अस्सिं चेयं पवुच्चति.. अणुपविसित्ता गाम.... ८।१२६ अप्पं च खलु आउं.... २४ अस्सिं लोए पव्वहिए । १।१४ अणुपुब्वेण अणहियासेमाणा... ६.३२ अप्पमत्तो कामेहि.... ३।१६ अहं च खलु तेण'' ८.१२० अणुवीइ भिक्खु. १।१०४ अप्पेगे पायमन्भे, अप्पेगे पायमच्छ। १२२९ अहं वावि तेण... ८.१२१ अणुसंवेयणमप्पाणेणं... ६।१०३ अप्पेगे पायमन्भे, अप्पेगे पायमच्छे । १२५२ अह पास तेहि-तेहिं" अणे गचित्ते खलु अयं पुरिसे... ३४२ अप्पेगे पायमन्भे, अप्पेगे पायमच्छे। श८३ अह पुण एवं जाणेज्जा" ८.५० ६६१ ८.५१ ८४७ ६८ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० २१८६ ६।३० आचारांगभाष्यम् अह पुण एवं जाणेज्जा.. ८६९ आवट्टसोए संगमभिजाणति । ३।६ इहमेगेसि आयार-गोयरे... ८३ अह पुण एवं जाणेज्जा.... ८1९२ आवीलए पवीलए निप्पीलए... ४।४० इहमेगेसि एगचरिया भवति" ५।१७ अहमेगेसि सिलोए पावए भवइ । आसं च छंदं च विगिंच धीरे ।। इहमेगेसि एगचरिया होति। ६।५२ अहम्मट्ठी तुमंसि णाम बाले ६९१ आसेवित्ता एतमट्ठ.. इहमेगेसि तत्थ-तत्थ. ४११७ अहापरिग्गहियं वत्थं धारेज्जा। ८९७ आहट्ट पइण्णं आणक्रोस्सामि". ८७७ इहमेगेसिं माणवाणं २८० अहापरिगहियाई वत्थाइंधारेज्जा। ८४५ आहारोवचया देहा.... ८.३५ इहलोग-वेयण वेज्जावडियं । ५७२ अहापरिग्गहियाई वत्थाई धारेज्जा। ८.६४ इह संतिगया दविया".. १११४९ अहासच्चमिणं ति बेमि । ४/१५ इच्चत्थं गढिए लोए। १।२६ इहारामं परिणाय" ५।११७ अहेगे धम्ममादाय... ६।३५ इच्चत्थं गढिए लोए। ११४९ अहेगे पस्स दीणे उप्पइए पडिवयमाणे । ६।९४ इच्चत्तं गढिए लोए। १८० उठ्ठिए णोपमायए । ५२२३ अहे संभवंता विद्दायमाणा। ६८७ इच्चत्थं गढिए लोए। १।१०८ उट्ठियस्स ठियस्स"" अहो य राओ य जयमाण । ४।११ इच्चत्थं गढिए लोए। १११३५ उड्ढं अहं तिरियं... २९४ अहो य राओ य परितप्पमाणे । २१३ इच्चत्थं गढिए लोए। १११५९ उड्ढं अहं तिरियं " १२९५ अहो य राओ य परितप्पमाणे इच्चेतं विमोहायतणं....... ८।६१ उड्ढं अहं तिरियं." २।१७९ आ इच्चेतं विमोहायतणं सा८४ उड्ढं अहं तिरियं... ८।१७ आगति गति परिण्णाय".. ३१५८ इच्चेतं विमोहायतणं ८।११० उड्ढे सोता अहे सोता. ५१११८ आगयपण्णाणाणं किसा बाहा.' ६।६७ इच्चेतं विमोहायतणं" ८.१३० उदासीणे फरुसं वदंति। ६८८ आघाइ णाणी इह माणवाणं.... ४१३ इच्चेते कलहासंगकरा" ५।८६ उदाहु वीरे. २।९४ आणाए मामगं धम्म। ६.४८ इच्चेतेहिं विरूवरूवेहिं" २।२६ उद्देसो पासगस्स णत्थि । २१७३ आतुरं लोयमायाए इच्चेतेहिं विरूवरूवेहिं" २१४२ उद्देसो पासगस्स णत्थि । २११८५ आयो बहिया पास। ३३५२ इच्चेवं तत्थ संधी झोसितो भवति । ५।९८ । उन्नयमाणे य गरे. आयंकदंसी अहियं ति नच्चा।। १११४६ इच्चेव समुट्ठिए अहोविहाराए। २१० उम्मुंच पासं इह मच्चिएहि । आयतचक्ख लोग-विपस्सी... २।१२५ इणमेव णावखंति......... २।६१ उवमा ण विज्जए। ५।१३७ इणमेव णावबुज्झति" २२८९ आयाणं (णिसिद्धा?) सगडब्भि। ३७३ उवाइय-सेसेण वा. २०१८ आयाणं णिसिद्धा सगडब्भि। इति कम्मं परिण्णाय.. ५२५१ उवेह एणं बहिया ४१२७ ३८६ इति कम्म परिण्णाय.. उवेहमाणो अणुवेहमाणं... आयाण भो! सुस्सूस भो !.... ६।२४ आयाणिज्जं च आयाय" इति कम्म परिणाय सव्वसो २०७२ उवेहमाणो पत्तेयं सायं २।१५२ ५१५२ आयाणिज्जं परिण्णाय".. २१५० इति संखाय के गोयावादी. उवेहमाणो सद्द-रूवेसु" ३११५ ६३५१ इति से गुणट्ठी" २२ आरंभजं दुक्खमिणं ति णच्चा" ४१३ आरंभ दुक्खमिणं ति णच्चा इति से परस्स अट्ठाए." ३।२९ २२६९ एए संगे अविजाणतो। आरंभजीवी उ भयाणुपस्सी। इति से परस्स अट्ठाए"" २२८५ एग विगिचमाणे... ३१७९ आरंभमाणा विणयं वयंति। १११७१ इमस्स चेव जीवियस्स. १११० एगतरे अण्णयरे" ६.४४ आरंभसत्ता पकरेंति संग। १११७३ इमस्स चेव जीवियस्स" २४४ एगप्पमुहे विदिसप्पइपणे..." आरत्तं विरत्तं मणिकुंडलं... इमस्स चेव जीवियस्स" ११७५ एगयरे अण्णयरे.." ६।६२ २०५८ आरियवयणमेयं । ४।२४ इमस्स चेव जीवियस्स" १।१०३ एगया गुणसमियस्स" श७१ आवंती केआवंती.. ४।२० इमस्स चेव जीवियस्स" १६१३० एगे वयंति अदुवा" आवंती केआवंती" ५१ इमस्स चेव जीवियस्स" १२१५४ एतं ते मा होउ । ५।१०८ आवंती केआवंती" इमस्स चेव जीवियस्स ५८८ २।२१ एतं मोणं समणुवासिज्जासि । ५।१५ आवंती केआवंती. ५।१९ इमेणं चेव जुज्झाहि.. २४५ एतदेवेगेसि महन्भयं भवति". आवंती केआवंती" ।३१ इह आणाकंखी पंडिए""" ४॥३२ ६४७ एते भो ! णगिणा वुत्ता... आवंती केआवंती ५॥३९ इहं च खलु भो ! अणगाराणं.... १०५५ एते रोगे बहू णच्चा, आउरा." ६।१९ आवटें तु उवेहाए" ५५११९ इह खलु अत्तत्ताए " ६।२५ एतेसु चेव बंभचेरं ति बेमि । ५३५ ५२६४ ३१२९ ३३० ५३२ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१४८ ३११९ १७ २३१ परिशिष्ट १: सूत्रानुक्रम ४५१ एत्थ अगुत्ते अणाणाए। १।९७ एयावंति सव्वावंति लोगंसि. १७ ओए जुतिमस्स खेयणे. ८१३४ एत्थंपि जाण सेयंति णत्थि ।। २।१७६ एयावंति सव्वावंति लोगंसि ११११ ओए दयं दयइ । ८।३७ एत्थं पि जाणे उवादीयमाणा। ११६९ एवं तेसि णो सुअक्खाए ८८ ओए समियदसणे । ६।१०० एत्थ फासे पुणो-पुणो। ५१४ एवं तेसि भगवओ अणुट्ठाणे ६७४ ओबुज्झमाणे इह" एत्थ मोहे पुणो-पुणो। . एवं तेसि महावीराणं चिरराइयं. ६६६ ओमचेलिए। ८।६७ एत्थ मोहे पुणो-पुणो सण्णा। १३३ एवं ते सिस्सा दिया य राओ य"" ६७५ ओमचेलिए। ८.९० एत्थवि जाणह अकस्मात् । ८७ एवं ते सिस्सा दिया... ६७६ ओमचे लिए। एत्थवि तेसि णो णिकरणाए । एवं दुक्खा पमोक्खसि । एत्थवि बालभावे अप्पाणं " श१०० एवं पेगे महावीरा विपरक्कमंति। ६।४ कट्ट एवं अविजाणओ. एत्थ वि बाले परिपच्चमाणे... १६ एवं से अंतराइएहिं." ६।३४ कप्पइ णे, कप्पइ णे पाउं..." ११५९ एत्थ विरते अणगारे " ५।३७ एवं से अप्पमाएणं ... ५७४ कम्ममूलं च जं छणं । ३।२१ एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स" ११३२ एवं से अहाकिट्टियमेव दा८१ कम्मुणा उवाही जायइ। एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स " ११६३ एवं से उट्ठिए ठियप्पा अणिहे " ६१०६ कम्मुणा सफलं दह्र ४१५१ एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स। एवमेगेसि ज णातं भवइ""" ११४ कम्मोवसंती। २११५५ एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स" ११११५ एवमेगेसि णो णातं भवति"" २२ का अरई ? के आणंदे... ३.६१ एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स" १३१४२ एस अणगारेत्ति पवुच्चति । २।३९ कामंकमे खलु अयं पुरिसे" २२१३४ एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स' १११६६ एस आयावादी समियाए-परियाए""५।१०६ कामकामी खलु अयं पुरिसे। २।१२३ एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स एस उत्तरवादे... ६.४९ कामा दुरतिक्कमा। २।१२१ एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स श६२ एस ओघंतरे मुणी" २।१६५ कामे ममायमाणस्स" ६।३३ एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स" ११८६ एस ओहंतरे मुणी . श६१ कामेसु गिद्धा णिचयं करेंति - ३।३१ एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स" एस णाए पवुच्चइ । २११७० कायस्स विओवाए".. ६।११३ एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स .. ६/६९ कालस्स कंखाए परिव्वयंति त्ति बेमि। ५।९२ एस तिण्णे मुत्ते । ११४१ एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स". १२१६५ एस तुट्टे वियाहिते .. ६।११२ किमणेण भो! जणेण"" एत्थोवरए तं झोसमाणे" श२० एस धम्मे सुद्धे णिइए सासए .. ४२ किमत्थि उवाधी पासगस्स""" एत्थोवरए तं झोसमाणे । ६१५० एस परिण्णा पवुच्चइ। २।१५४ किमत्थि उवाही पासगस्स" एत्थोवरए मेहावी. ३१४१ एस पुरिसे दविए वीरे".. ४४४ किमेस जणो करिस्सति ? ५७६ एयं कुसलस्स दंसणं। ५१६७ एस मग्गे आरिएहिं पवेइए । २.४७ कुसले ण णो बढे, णो मुक्के। २।१८२ एवं कुसलस्स दंसणं । २१०९ एस मग्गे आरिएहिं पवेइए । २१११९ कुराणि कम्माणि .. एयं खु तस्स भिक्खुस्स सामग्गियं । ८।६८ एस मग्गे आरिएहिं पवेदिते । ५।२२ के यं पुरिसे ? कं च णए ? २।१७७ एवं खु मुणी आयाणं सया.. ६५९ एस मरणा पमुच्चइ। ३।३६ कोहाइयमाणं हणिया" ३।४९ एस महं विवेगे वियाहिते। ८।१३ एयं खु वत्थधारिस्स सामग्गियं । ८।४९ एस लोए वियाहिए। एवं खु वत्थधारिस्स सामग्गियं । ८९१ १।९६ खणं जाणाहि पंडिए । २।२४ एस विसण्णे वितद्दे वियाहिते. एयं णाणं सया समणुवासिज्जासि ६।२९ ६।९२ खणसि मुक्के । २०२८ एयं णियाय मुणिणा पवेदितं....। एस वीरे पसंसिए" २।१०१ एयं तुलमण्णेसि । १३१४८ एस वीरे पसंसिए । २।१२८ गंथं परिणाय इहज्जेव वीरे. ३३५० एयं ते मा होउ। एस वीरे पसंसिए। गथेहिं गढिया णरा." ६।१०९ एयं पासगस्स दसणं ... ३१७२ एस वीरे पसंसिए २११७८ गढिए अणुपरियट्टमाणे । एस संसारेत्ति पवुच्चति । २२१२६ एयं पासगस्स दंसणं... ११११९ गामाणुगामं दूइज्जमाणस्स.. ५।६२ एयं पास मुणी ! महन्भयं । २०९९ एस समिया-परियाए वियाहिते। श२७ गामे वा अदुवा रणे ८।१४ एयं पास मुणी ! महन्भयं । एस से परमारामो" ५७७ गुरू से कामा। ५।२ एवं मोणं समणुवासेज्जासि। २०१०३ ओ एयं मोणं सम्म अणुवासिज्जासि। ५॥३८ ओए अप्पतिट्ठाणस्स खेयण्णे । ५।१२६ चिच्चा सब्वं विसोत्तियं. ६१४६ ११११४ ४१५३ ३१८७ ५६ ५४४ ५२६६ २।१६८ ३८५ Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ ३१६३ ३४ २।१ आचारांगमाच्यम् चिट्ठ कूरेहि कम्मेहि" ४।१८ जस्स णं भिक्खुस्स" ८।१०५ जे अचेले परिवुसिए संचिक्खति... ६४० चुए हु बाले गन्भाइसु रज्जइ। ५४८ जस्स णं भिक्खुस्स" ८।११६ जे अज्झत्थं जाणइ. ११४७ जस्स णं भिक्खुस्स ८।११७ जे अणण्णदंसी, से अणण्णारामे... २११७३ छंदोवणीया अज्झोववण्णा । जस्स णं भिक्खुस्स ८।११८ १११७२ जे असत्ता पावेहिं कम्मेहिं । १२८ छणं छणं परिणाय २।१८४ जस्स णं भिक्खुस्स ८।११९ जे आयारे न रमंति । १११७० जस्स णं भिक्खुस्स" ८।१२५ जे आया से विण्णाया... ५१०४ जस्स णत्थि इमा णाई... ४८ जे आसवा ते परिसव्वा, .... जं आउट्टिकयं कम्म.... ४।१२ जस्स नत्थि पुरा पच्छा" ४।४६ जे इमस्स विग्गहस्स अयं खणे त्ति" ५२२१ जं जाणेज्जा उच्चालइयं .. जस्स वि य णं करेइ। २११४४ जे एग जाणइ, से सव्वं जाणइ" ३७४ जं दुक्खं पवेदितं इह माणवाणं" २।१७१ जस्सिमाओ जाईओ... ७।२ जे एगं नामे से बहुं नामे.. ३७६ जं सम्म ति पासहा" ५५७ जस्सिमे आरंभा. जे कोहदंसी से माणदंसी... ३१८३ जंसिमे पाणा पवहिया" २०१५३ जस्सिमे सहा य रूवा जे खलु भो ! वीरा समिता... ४।५२ जमिणं परिकहिज्जइ"" २।१३६ जस्सेते अगणि-कम्म-समारंभा " श८९ जे गुणे से आवट्टे. ११९३ जमिणं विप्पडिवण्णा मामगं धम्म'. ६ जस्सेते उदय-सत्थ-समारंभा- २६५ जे गुणे से मूलट्ठाणे जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहि " ११९ जस्सेते छज्जीव-णिकाय... १११७७ जे छए से सागारियं ण सेवए.. जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहि... १।२७ - जस्सेते तसकाय-सत्थ-समारंभा. ११४४ जेण बंधं वहं घोरं... ४।४९ जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं" ११४२ जस्सेते पुढविकम्मसमारंभा... ११३४ जेण सिया तेण णो सिया । २१८८ जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं ... ११५० जस्सेते लोगंसि कम्म-समारंभा. १।१२ जे णिवुडा पावेहिं कम्मेहि." ४१३८ जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहि""" ११७३ जस्सेते वणस्सइ-सत्थ-समारंभा"" १।११७ जे णिवुया पावेहि कम्मेहिं" ८।१६ जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहि"" १।१०१ जस्सेते बाउ-सत्थ-समारंभा १।१६८ जे दीहलोग-सत्थस्स खेयण्णे. ११६७ जमिग विरूवरूवेहि सत्थेहिं"" " ११०९ १।१०९ जहा अंतो तहा बाहिं . २।१२९ जे पज्जवजाय सत्थस्स खेयण्णे... ३।१७ जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहि" १।१२८ जहा जुण्णाई कट्ठाई" ४१३३ जे पमत्ते गुणट्ठिए. ११६९ जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहिं"" १।१३६ जहा पुण्णस्स कत्थइ .. २।१७४ जे पुवढाई णो पच्छा-णिवाई.... जमिणं विरूवेरूवेहि सत्थेहि... १३१५२ जहा से दीवे असंदीणे. ६७२ जे भिक्ख अचेले परिवुसिते ८।१११ जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहिं. २१६० जहेत्थ कुसले णोवलिपिज्जासि. २०४८ जे भिक्खू एगेण वत्थेण.. ८.८५ जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहि. २०१०४ जहेत्थ कुसले णोवलिपिज्जासि २।१२० जे भिक्ख तिहिं वत्थेहि ८।४३ जमियं अण्णमण्णवितिगिच्छाए" ३२५४ जहेत्थ कुसलेहिं" ५१४७ जे भिक्खू दोहिं वत्थेहि ८।६२ जमेयं भगवता पवेइयं." ८।१०४ जहेत्थ मए संधी झोसिए ५.४१ जे ममाइय-मतिं जहाति... २११५६ जमेयं भगवता पवेदितं.... ८.५६ जहेयं भगवता पवेदितं. ६।६५ जे महं अबहिमणे । ५।११२ जमेयं भगवता पवेदितं. ८७४ जाए सद्धाए णिक्खंतो""" ११३६ जे य हिरी, जेय अहिरीमणा .... ६।४५ जमेयं भगवता पवेदितं. ८८० जागर-वेरोवरए वीरे। ३८ जेवण्णे एतेहिं काएहिं. जमेयं भगवता पवेदितं." ८.९६ __ जाणित्त दुक्खं पत्तेयं सायं । २।२२ जे वा से कारेइ बाले । २।१४६ जमेयं भगवता पवेदितं... ८।१०० जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं । २१७८ जे सन्निहाण सत्थस्स खेयण्णे... जमेयं भगवता पवेदितं... ८.११५ जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं । ५।२४ जेहिं वा सद्धि संवसति.. २७ जमेयं भगवया पवेदितं.. ८।१२४ जाति च बुढि च इहज्ज ! पासे। ३२६ जेहिं वा सद्धि संवसति २।१६ जयंविहारी चित्तणिवाती जामा तिणि उदाहिया" का१५ जेहिं वा सद्धि संवसति".. २०२० जयमाणे एत्थ विरते अणगारे.. जाव सोय-पण्णाणा २।२५ जेहिं वा सद्धि संवसति... २१७६ जरामच्चुवसोवणीए गरे .. ३१० जीविए इह जे पमत्ता २।१३ जस्स णं भिक्खुस्स.. ८.५७ जीवियं दुप्पडिवूहणं । २।१२२ ण इत्थी ण पुरिसे... ५।१३५ जस्स णं भिक्खुस्स" ८७५ जीवियं पुढो पियं... २२५७ ण इमं सक्कं सिढिलेहिं... ५२५८ जस्स णं भिक्खस्स ... जुद्धारिहं खलु दुल्लहं। ५।४६ ण एत्थ तवो वा. २०५९ जस्स णं भिक्खुस्स"" ८१९७ जे अचेले परिवुसिए, तस्स.. ६६. ण एवं अणगारस्स जायति । २११४७ ५२४२ रह ८।१९ ८।३८ ६।३९ जावत Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ सूत्रानुक्रम ण कक्खडे ण मउए ण काऊ । ण किण्हे न णीले..." ण तित्ते ण कडुए णत्थि कालस्स णागमो । णममाणा एगे.... न मे देति ण कुपिज्जा ण रुहे । ण लिप्पई छणपण वीरे । ण संगे । सुगंधेदुरभिगंधे । णाइवाएज्ज कंचणं । जातिवाकंचणं । पातीतम ण .... पारति सहते वीरे णालं पास | णालं पास | णिक्खतं पि तेसि भाता पहिलेहिता जिस णाशिवा पियट्टमाया... निव्विद मंदि निव्विद गंदि अरते पयासु 1 णिस्सारं पासिय णाणी... निहाय दहं पाहि तेहि पनिखिन्नेि व से अंतो, णेव से दूरे । णो धोएज्जा णो... जो धोना पो णो धोएमा णो... णो लोगस्सेसणं चरे । जो हब्वाए णो पाराए । ส तओ से एगया मूढभावं जणयंति तब से एगया रोग समुप्पावा... तब से एगवा रोग समुपाया तब से एगया विपरिसि तओ से मारस्स अंतो ... तं जहा - अंधत्तं बहिरतं ... तं जड़ा उडिएम वा ५।१३१ ५।१३२ ५।१२९ ५।१३० २६२ ६१८३ २१०२ ५।१३३ २।१८० ५।१३४ ५।१२९ २।१०० ६।२३ ३।६० २।१६० २।९७ ६।२० ६।८५ १।१२१ ५।११५ ६।८२ तं आइइत्तु ण णिहे णणिक्खवे..... तं च भिक्खू जाणेज्जा... २।१६२ ३।४७ ३।४५ ८३३ ४/४५ ५।४ ८।४६ ८।६५ ८८८ ४७ २।३४ २६ २।१९ २२७५ २/६७ ५।३ ४५ ८/२४ २।५४ ४३ तं जे जो करए एसोवरए तं णो अण्णेसि। तं णो अन्नेसि । तं णो करिस्मामि समुट्ठाए । तं पडुच्च परिसंखाए । तं परक्कमेतं परिदेवमाणा... तं परिनिज्भ दुपयं " तं परिण्णाय मेहावी तं परिण्णाय मेहावी ... तं परिष्णाय मेहावी" तं परिण्णाय मेहावी... परिणाम मेहावी" तं परिण्णाय मेहावी''' तं परिण्णाय मेहावी." तं परिण्णाय मेहावी तं परिणाय मेहावी तं परिण्णाय मेहावी । तं परिणाय मेहावी । तं परिण्णाय मेहावी" तं परिण्णाय मेहावी ... तं पि से एगया दायाया" तं पि से एगया दायाया भिक्खु सीमास तं मेहावी जाणिज्जा धम्मं । तं सच्च सच्चावादी .. तं सच्च सच्चावादी... तं से अहियाए तं से अबोहीए। तं से अहियाए, तं से अबोहीए । तं से अहियाए तं से अबोहीए। तं से अहियाए, तं से अबोहीए । तं से अहियाए, तं से अबोहिए । तसे अहिवार से अबोहीए। तक्का जत्थ ण विज्जइ । तत्थ खलु भगवया परिण्णा तत्थ खलु भगवया परिण्णा तत्थ खलु भगवया परिण्णा... १९२ १।१७५ ५।५६ ११९० ५।१०५ ६।२६ २।६५ १।३३ १६४ १७० ११८८ १।११६ १।१४३ १।१६७ १।१७६ २४६ २।१५८ ३।२४ ८१८ ८।२० २।६८ २१८४ ८४१ १।१५६ ५।१२४ तच्चं चेयं तहा चेयं.... ४४ ततो से एगया" २२८३ १९ तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया । तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया । १।२० तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया । १।४३ तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया । १।७४ ६।९० ८।१०७ ८।१२७ १।२३ १/४६ १७७ १।१०५ १।१३२ १।१०२ १।१२९ १।१५३ तत्थ जे ते आरिया .... तत्थ तत्थ पुढो पास, आउरा तत्थ तस्थ पुढो पास, आतुरा तत्थावि तस्य कालपरिणाए । तत्थावि तस्स कालपरियाए । तत्थावि तत्थ कालपरियाए । तत्थावि तस्स कालपरियाए । तत्थियराइवरेह कुहि तद्दिट्ठीए तम्मुत्तीए तद्दिट्ठीए तम्मोत्तीए तमेव उवाइकम्म । तमेव सच्च णीसंकं तम्हा अविमणे वीरे सारए'''' तवे से अभिसमण्णागए भवइ । तवे से अभिसमण्णागए भवइ । तवे से अभिसमयागए भवति । तवे से अभिसमण्णागए भवति । तवे से अभिसमण्णा गए भवति । तवे से अभिसमन्नागए भवति । तबे से अभिमन्नागए भवति । तवे से अभिसमन्नागए भवति । तवे से अभिसमन्नागए भवति । सति पाना पदिसोदिसामु य । तामेव सइ असई ૪:૩ ४२२ १।१२४ १।१५ ८५९ ६८२ ८१०८ ८।१२८ ६।५३ तिविहेण जावि से तत्थ मत्ता" तुच्छए गिलाइ वत्तए । तुमं चैव तं सल्लमा हट्टु । तुमसि नाम सच्चेव जं हंतव्वं ते अणवकंखमाणा ... ते अणवकखमाणा ... तेइच्छं पंडिते पवयमाणे । ५।११० ५।६८ तम्हा ण हंता ण विघायए । तम्हा तिविज्जो णो..... तम्हा तिविज्जो परमंति णच्चा तम्हा तिविज्जो परमंति णच्चा ३।३३ तम्हा पंडिए णो हरिसे, णो कुज्झे । २।५१ तम्हा पावं कम्मं णेव कुज्जा न २/१४९ तम्हा लूहाओ णो परिवित्तसेज्जा । ६ । ११० तम्हा संगं ति पासह । तवस्सिणो हु तं सेयं जमेगे.... ८।१२ ५।९५ ४४१ ३।५३ ४३९ ३।२८ ६।१०८ ८५८ ६।६४ ८७९ ८।९५ ८१२३ ८।७३ ८५५ ८ ९९ ८।१०३ ८।११४ १।१२३ ६।१० २८१ २।१६७ २८७ ५।१०१ ६/७३ ८।३२ २१४१ ते फासे दो हीरो.... ६।५८ ते भो वयंति - एयाई आयतणाई । २९१ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ ते सब्वे पावाइया दुक्खस्स कुसला तेसितिए पण्णाणमुवलब्भ हिच्चा थीभि लोए पहिए दयं लोगस्स जाणित्ता... दिट्ठ सुयं मयं विष्णाय दिट्ठेहि णिव्वेयं गच्छेज्जा । दुक्खं च जाण अदुवागमेस्स दुक्खं लोयस्स जाणित्ता । दुरणुचरो मम्मो वीराणं दुव्वसु मुणी अणःणाए । दुबो देता निवाह दुहओ छेत्ता नियाइ । दुवो जीवियस्स परिवंदण..... दोहि तेहि अविस्समाणे । थ द ध .... धम्ममायाणह पवेइयं माहणेण ... धुवं चेयं जाणेज्जा..." न नरा मुयच्चा धम्मविदु त्ति अंजू । नाणागमो मच्चुमुहस्स अतिथ नालं ते तब ताणाए वा नालं ते तव ताणाए वा नालं ते तव ताणाए वा नालं ते तव ताणाए वा प पंडिए पडिलेहाए । पंत गृह सेवंति, वीरा पंतं लूहं सेवंति, वीरा पढिहाए गावखति । पहिलेहाए पावकंति पडिले हिय सव्वं समायाय । पणया वीरा महावीहि । पाहि परियाणड़ लो... पलिच्छिदिया णं णिक्कम्मदंसी । पलिडिदिय बाहिर व सोय ४/३० ६।७७ २ ९० ६।१०१ ४/९ ४।६ ४।३५ ३।७७ ४४२ २।१६६ २।१११ ८४० ३२६८ ३।२३ पवाएणं पवायं जाणेज्जा । पहू एजस्स दुगंछणाए । पाणा पाणे किलेसंति । पाणा पाणे किलेसंति । पाव मोक्खत्ति मण्णमाणे पास लोए महन्भयं । पास एगे वे मि पासह एगेवसीयमाने अणतपणे । पासने समयागह ४१२८ ४।१६ २८ २।१७ २।२१ २/७७ पासहेंगे सव्बिदिएहि पासि दविए पासिय आउरे पाणे, अप्पमत्तो " पुडा गेयत पुढोछंदा इह माणवा पुढो फासाई च फासे । पुढो सत्थं पवेइयं । ८२९ पुढो सत्थेहि विउट्ठति । पुणो-गुणो गुणासाए." ८२ पुरिसा ! अत्ताणमेव .... पुव्वं दंडा पच्छा फासा ... पुव्वं निकाय समयं पत्तेयं ब २।१३१ २।१६४ ५।६० बितिया मंदस्स बालया । बुद्धेहि एयं पवेदितं । ५१२१ बुदेह एवं पवेि २१३८ ३।२२ १।३७ ३।५ परिग्गहाओ अप्पाणं अवसक्केज्जा । २।११७ परिणे सण्णे । ५१३६ ३।३५ ४५० 1 बहुं च खलु पावकम्मं पगडं । बहु पि ल णणिहे । बहुदुक्खा हु जंतवो । बालवयणिज्जा हु ते नरा," वाले पुण जिहे कामसमपुणे बाले पुण णिहे कामसमणुण्णे" पुरिसा ! तुममेव तुम मित ३६२ पुरिसा ! सच्चमेव समभिजाणाहि । ३।६५ ५।८५ ४२५ पलियं पगंथे अदुवा पगंथे । ६।४२ ਸ पलियं पगंथे अदुवा पगंथे अतहि । ६६९ मई तत्थ ण गाहिया । भ भंजगा इव सन्निवेसं णो चयंति भिक्खं च खलु पुट्ठा वा अपुट्ठा वा भिक्खू गाहावत भूएहि जाण पडिलेह सातं । तेहि जाण पडिले सात | भोगामेव असोति । ५।११३ १।१४५ ६।१३ ६।५७ २४४ ६।१४ ५।१३ ६।५ ६।९७ ८।३६ ३।७० ३।११ ६।८४ ५।२५ ४।३६ १।५७ ११६० १९८ ३।६४ ३।३९ २।११६ ६।१५ ६८६ २।७४ २।१८६ ६।८१ ६।११ ६२८ ६।७ ८२५ ८२२ २५२ ३।२७ २।७९ ५।१२६ मंता एवं मइमं ! पास मंता मइमं अभयं विदित्ता । मंदस्स अवियाणओ । ३।१२ १९१ १।१२० २।३० ८३० माई पमाई पुणरेइ गब्भं । ३।१४ मा तेसु तिरिच्छम पाणमावातए । २।१३३ मुणिणा हु एतं पवेदितं ... मुणिणा हु एयं पवेइयं । मुणी मोणं समादाय धुणे मंदा मोहेण पाउडा | मज्झिमेणं वयसा एगे... मुणी मोणं समायाए, " मोहेण गब्भं मरणाति एति । ल लज्जमाणा पुढो पास । लज्जमाणा पुढो पास । लज्जमाणा पुढो पास । आचारांग भाव्यम् लज्जमाणा पुढो पास । लज्जाणा पुढो पास | लज्जमाना पुढो पास । लढा हुरत्या पडिलेहाए ... लढे आहारे अणगारे मायं." लाघवं आगममाणे । लाघवियं आगममाणे । लाघवियं आगममाणे । लाघवियं आगममाणे । लाघवियं आगममाणे । लाघवियं आगममाणे । लाघवियं आगममाणे । लाघवियं आगममाणे । लाघवियं आगममाणे । लाभो त्ति न मज्जेजा । लोगं च आणाए अभिसमेच्चा" लोगं च आणाए अभिसमेच्चा" नोम अलोभेण दुर्गमाणे ... लोयं च पास विप्फंदमाणं । लोयंसि जाण अहियाय दुक्खं । लोयंसी परमहंसी विवितजीवी ५७८ २।७० २।१६३ ५। ५९ ५१७ १।१७ १/४० १७१ १९९ १।१२६ १११५० ५।१२ २।११३ ६/६३ ८५४ ८।७२ ८७८ ८।९४ ८१९८ ८१०२ ८११३ ८१२२ २।११४ ११३८ ३।८१ २।३६ ४।३७ ३।२ ३।३८ व वंता लोगस्स संजोगं, ... ३।७८ वण्णाएसी णारभे कंचणं सव्वलोए । ५।५३ वत्थं पडिग्गहूं, कंबलं पायपुंछणं पहिलं पाय २।११२ ६।३१ Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५५ १६४ १४७ परिशिष्ट १ : सूत्रानुक्रम वयं पुण एवमाइक्खामो. ४।२३ सपेहाए भया कज्जति । २०४३ से अहेसणिज्जाई वत्थाई जाएज्जा""८६३ वयसा वि एगे बुइया कुप्पंति" श६३ समयं तत्थुवेहाए. अप्पाणं... ३।५५ से आय-बले से णाइ-बले... २१४१ २।१२ समयं लोगस्स जाणित्ता ३।३ से आयावाई, लोगावाई, कम्मावाई" ११५ वसट्टा कायरा जणा लूसगा भवंति । ६९५ समिते एयाणुपस्सी। २१५३ से उट्ठिएसु वा अणुट्ठिएसु वा ६।१०२ बसित्ता बंभचेरंसि आणं तं" ६७८ समिया पडिवन्ने यावि एवं बूया. ४।१६ से किट्टति तेसि समुट्ठियाण. ६३ विगिंच कोहं अविकंपमाणे.. ४१३४ समुट्ठिए अणगारे आरिए"" २१०६ से गिहेसु वा गिहतरेसु वा... ६.९९ विगिंच मंस-सोणियं । ४।४३ समेमाणा पलेमाणा, पुणो-पुणो ४।१० से जं च आरभे जं च णारभे" २।१८३ विणइत्तु लोभं निक्खम्म" २॥३७ सम्ममेयंति पासह । ४।४८ से जहेय भगवया पवेदितं.... ८९ विणएतु सोयं णिक्खम्म"" श१२० सम्ममेयंति पासह। ५।९१ सेज्ज पुण जाणेज्जा... ११३ वितिगिच्छ-समावन्नेणं अप्पाणेणं" ५९३ सरणं तत्थ णो समेति" ६।२८ से ण छणे ण छणावए.. विदित्ता लोग, वंता लोगसण्णं .. २११५९ सव्वं गेहिं परिणाय ६।७ से ण दीहे ण हस्से ण व?" ५११२७ विदित्ता लोग, वंता लोगसण्णं" ३१२५ सव्वतो पमत्तस्स भयं.. ३७५ से ण सहे, ण रूवे, ण गंधे"" ५।१४० विमुक्का हु ते जणा, जे जणा". २०३५ सव्वत्थ सम्मयं पावं । ८।११ से ण हस्साए, ण किड्डाए २२९ विरयं भिक्खु रीयंतं चिररातोसियं ६७० सव्वामगंधं परिण्णाय... २।१०८ से जाइए, णाइआवए, ण २११०७ विरागं रूवेहिं गच्छेज्जा.. ३१५७ सव्वे पाणा पियाउया " २०६३ से णो काहिए णो पासणिए श८७ विस्सेणि कटु, परिण्णाए। ६।६८ सव्वे सरा णियटति । २१२३ से तं जाणह जमहं बेमि । २११४० वीरेहिं एवं अभिभूय दिट्ठ,.. १६८ सव्वेसि जीवियं पियं । से तं संबुज्झमाणे, आयाणीयं. ११२४ वेरं वड्ढे ति अप्पणो। २।१३५ सम्वेसिं पाणाणं सब्वेसि भूयाणं" १२१२२ से तं संबुज्झमाणे, आयाणीयं. सम्वेसि पाणाणं सम्वेसि भूयाणं ... ६१०३ से तं संबुज्झमाणे, आयाणीयं .. १७८ सएण विप्पमाएण, पुढो वयं" २११५२ सहपमाएणं अणेगरूवाओ" २०५५ से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं. १११०६ संखाय पेसलं धम्म, दिदिम.... ६१०७ सहसम्मइयाए परवागरणेणं... ५११४ से तं संबुज्झमाणे, आयाणीय"" १।१३३ संति पाणा अंधा तमंसि .. ६९ सहिए दुक्खमत्ताए पुट्ठो णो " ३।६९ से त सबुज्झमाण, आयाणाय ११५७ संति पाणा पुढो सिया। १।१६ सहिए धम्ममादाय सेयं.... से तं संबुज्झमाणे आयाणीय.. १४८ संति पाणा पुढो सिया । १।१२५ सिया वेगे अणुगच्छंति , असिया'... ५९४ से तत्थ गढिए चिट्ठइ, भोयणाए। २०६६ संति पाणा वासगा" ६।१२ सिया से एगयरं विप्परामुसइ"" २।१५० से तत्थ गढिए चिट्ठति, भोयणाए। २।८२ संति-मरणं संपेहाए भेउरधम्म... २९६ सिया से एवं वदंतस्स परो... ८।४२ से तत्थ विअंतिकारए । ८८३ संधि लोगस्स जाणित्ता। ३.५१ सीओसिणच्चाई से निग्गंथे.. ७ से तत्थ विअंतिकारए। ८।१०९ संधि विदित्ता इह मच्चिएहिं । २११२७ सीलमंता उवसंता संखाए" ६।८० से तत्थ विअंतिकारए। ८।१२९ संधि समुप्पेहमाणस्स" ५।३० सुत्ता अमुणी सया, मुणिणो" से दुक्खाए मोहाए माराए" १९२ संधेमाणे समुट्टिए। ६७१ सुपडिलेहिय सव्वतो सव्वयाए" ५।११६ से पभूयदंसी पभूयपरिण्णाणे. ७५ संपुण्णं बाले जीविउकामे." २०६० सुभि अदुवा दुभि । ६५५ से पासति फुसियमिव, कुसग्गे" ५५ संबाहा बहवे भुज्जो-भुज्जो "" ५।६५ सुयं मे आउसं !.... ११ से पास सब्वतो गुत्ते, पास लोए"" ५९० संसयं परिजाणतो, संसारे.. ५९ सुहट्ठी लालप्पमाणे सएण"" २।१५१ से पुत्वं पेयं पच्छा पेयं भेउर-धम्म'..५२९ सच्चसि धिति कुव्वह । से अक्कुठे व हए व लूसिए वा । ६४१ से बेमि-अप्पेगे अंधमन्भे, अप्पेगे... ११२८ सच्चस्स आणाए उवट्ठिए से से अणासादए अणासादमाणे"" ६१०५ से बेमि-अप्पेगे अंधमन्भे, अप्पेगे' १३५१ सड्ढिस्स णं समणुण्णस्स." २९६ से अण्णवहाए अण्ण ३।४३ से बेमि -अप्पेगे अंधमब्भे, अप्पेगे.... ११८२ सड्डी आणाए मेहावी। से अबुज्झमाणे हतोवहते. २१५६ से बेमि-अप्पेगे अंधमन्भे, अप्पेगे"१।११० सततं मूढे धम्म णाभिजाणइ । २।९३ से अभिक्कममाणे पडिक्कममाणे... ५७० से बेमि-अप्पेगे अंधमब्भे, अप्पेगे....१११३७ सत्ता कामेहिं माणवा। ६।१६ से अविहिंसमाणे अणवयमाणे... ५।२६ से बेमि-अप्पेगे अंधमन्भे १११६१ सत्थं चेत्थ अणुवीइ पासा। ११५६ से असई उच्चागोए" २०४९ से बेमि -अप्पेगे अच्चाए २१४० सद्दे य फासे अहियासमाणे । २१६१ से अहेसणिज्ज वत्थं जाएज्जा। ८८६ से बेमि-इमंपि जाइधम्मयं"" १२११३ सन्निहि-सन्निचओ कज्जइ .. २।१०५ से अहेसणिज्जाई वत्थाई जाएज्जा" ८।४४ से बेमि-जे अईया, जे य" ३।६७ ३८० Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६६ १२५४ ४५६ आचारांगमाध्यम् से बेमि–णेव सयं लोग.... ११३९ से मइमं परिण्णाय, मा यह"" २०१३२ से सुपडिबुद्धं सूवणीयं ति णच्चा" २३४ से बेमि –णेव सयं लोगं". से मेहावी अणुग्घायणस्स खेयण्णे" २०११ से सुयं च मे अज्झत्थियं च मे ॥३६ से बेमि-तं जहा। से मेहावी अभिनिवटेज्जा.. ३८४ से सोयति जूरति तिप्पति". २।१२४ से बेमि -संति पाणा उदय.. से मेहावी परिव्वए। ६१५५ से हंता छेत्ता भेत्ता लुपइत्ता २।१४ से बेमि --संतिमे तसा पाणा'" ११११८ सवता काह च, माण च ३१७१ से हंता छेत्ता भेत्ता लुपित्ता... २।१४२ से बेमि–संति संपाइमा पाणा".. १११६४ से वसुमं सम्व-समन्नागय" १११७४ से हु एगे संविद्धपहे मुणी ... ५२५० से बेमि–समणुण्णस्स वा " १ से वसुमं सब्व-समन्नागय-पण्णाणेणं "५१५५ से हु दिट्ठपहे मुणी। ३।३७ से बेमि-से जहावि अणगारे " श३५ से वि तत्थ विअंतिकारए । ६० से हु दिट्ठपहे मुणी, जस्स णस्थि. २११५७ से बेमि-से जहा वि कुम्मे हरए .. ६६ सेवि तारिसए सिया, जे परिण्णाय' ५५४३ से हु पण्णाणमंते बुद्धे आरंभोवरए । ४।४७ से भिक्खू अचेले परिवुसिते .. ८।१११ से सयमेव अगणि-सत्थं. सोच्चा खलु भगवओ अणगाराणं. २२५ से भिक्खू कालण्णे बलण्णे... सोच्चा खलु भगवओ अणगाराणं... ११४८ २।११० से सयमेव उदय-सत्थं" ११४५ सोच्चा भगवओ अणगाराणं वा ११०७ से भिक्खू कालण्णे बलण्णे... ८.३९ से सयमेव तसकाय-सत्थं.. १।१३१ सोच्चा भगवओ अणगाराणं वा" १२१३४ से भिक्खू परक्कमेज्ज "" पा२१ से सयमेव पुढविसत्थं"" १२२२ सोच्चा भगवओ अणगाराणं वा. १२१५८ से भिक्खू परक्कमेज्ज"" ८।२३ से सयमेव वणस्सइ-सत्थं." १।१०४ सोच्चा वई मेहावी, पंडियाणं" ५४० से भिक्खू वा भिक्खुणी वा... ८१०१ से सयमेव वाउसत्थं. १।१५५ सोच्चा वई मेहावी, पंडियाणं... ८३१ १७६ Jain Education international Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ (क) अध्ययनगत पद्यांश तथा पद्य पढमं अज्झयणं १३ अट्टे लोए परिजुण्णे, दुस्संबोहे अविजाणए । १४ अस्सि लोए पव्वहिए। १५ तत्थ तत्थ पुढो पास, आतुरा परितार्वेति । १६ संति पाणा पुढो सिया। १७ लज्जमाणा पुढो पास । २४ आयाणीयं समुट्ठाए। २६ इच्चत्थं गढिए लोए । ३३ तं परिण्णाय मेहावी । ३६ जाए सद्धाए णिक्खंतो, तमेव अणुपालिया। विजहित्तु विसोत्तियं । ३७ पणया वीरा महावीहिं । ४० लज्जमाणा पुढो पास । ४७ आयाणीयं समुट्ठाए। ४९ इच्चत्थं गढिए लोए । ५७ पुढो सत्थं पवेइयं । ५८ अदुवा अदिण्णादाणं । ६४ तं परिण्णाय मेहावी । ६८ वीरेहिं एवं अभिभूय दिह्र । ६९ जे पमत्ते गुणट्ठिए, से हु दंडे पवुच्चति । ७० तं परिणाय मेहावी। ७१ लज्जमाणा पुढो पास । ७८ आयाणीयं समुट्ठाए। ८० इच्चत्थं गढिए लोए। ८८ तं परिण्णाय मेहावी। ९० तं णो करिस्सामि समुट्ठाए। ९१ मंता मइमं अभयं विदित्ता। ९२ अणगारेत्ति पवुच्चइ । ९३ जे गुणे से आवट्टे, जे आवट्टे से गुणे । ९८ पुणो-पुणो गुणासाए । पमत्ते गारमावसे । ९९ लज्जमाणा पुढो पास । १०६ आयाणीयं समुट्ठाए । १०८ इच्चत्थं गढिए लोए। ११६ तं परिण्णाय मेहावी। ११९ संसारेत्ति पवुच्चति । १२० मंदस्स अवियाणओ। १२३ तसंति पाणा पदिसोदिसासु य । १२४ तत्थ-तत्थ पुढो पास, आउरा परितार्वेति । १२५ संति पाणा पुढो सिया। १२६ लज्जमाणा पुढो पास । १३३ आयाणीयं समुट्ठाए । १३५ इच्चत्यं गढिए लोए । १४३ तं परिणाय मेहावी। १४५ पहू एजस्स दुगंछणाए । १४६ आयंकदंसी अहियं ति नच्चा । १४८ एयं तुलमण्णेसि । १४९ इह संतिगया दविया, णावखंति वीजिउं । १५० लज्जमाणा पुढो पास। १५७ आयाणीयं समुट्ठाए । १५९ इच्चत्थं गढिए लोए। १६४ संति संपाइमा पाणा, आहच्च संपयंति य । फरिसं च खलु पुट्ठा, एगे संघायमावज्जति ॥ १६७ तं परिण्णाय मेहावी। १६९ एत्थं पि जाणे उवादीयमाणा । जे आयारे न रमंति। १७१ आरंभमाणा विणयं वयंति । १७२ छंदोवणीया अज्झोववण्णा । १७३ आरंभसत्ता पकरेंति संगं । १७६ तं परिण्णाय मेहावी । बीअं अज्झयणं २ इच्चत्थं गढिए लोए। ३ अहो य.राओ य परितप्पमाणे, कालाकालसमुट्ठाई, संजोगट्ठी अट्ठालोभी, आलुपे सहसक्कारे, एत्थ सत्थे पुणो-पुणो। ८ नालं ते तव ताणाए । १२ वयो अच्चेइ जोवणं व । १३ जीविए इह जे पमत्ता। १७ नालं ते तव ताणाए । २४ खणं जाणाहि पंडिए । मंदा मोहेण पाउडा। अपरिग्गहा भविस्सामो। लद्धे कामेहिगाहंति । Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगभाष्यम ४५८ ७१ ३३ एत्थ मोहे पुणो-पुणो। ३४ णो हव्वाए णो पाराए । ३५ विमुक्का हु ते जणा, जे जणा पारगामिणो । ३६ लोभं अलोभेण दुगंछमाणे, लद्धे कामे नाभिगाहइ । ३७ विणइत्तु लोभं निक्खम्म । ३९ अणगारेति पवुच्चति । ४० अहो य राओ ग परितप्पमाणे, कालाकालसमुद्राई, संजोगट्ठी अट्ठालोभी, आलंपे सहसक्कारे, एत्थ सत्थे पुणो-पुणो। ४६ तं परिण्णाय मेहावी। ४७ आरिएहिं पवेइए। ५२ भूएहिं जाण पडिलेह सातं । ५३ समिते एयाणुपस्सी। ६१ इणमेव णावखंति, जे जणा धुवचारिणो । जाती-मरणं परिण्णाय, चरे संकमणे दढे । ६२ णत्थि कालस्स णागमो। ६३ सव्वे पाणा पियाउया। ६४ सव्वेसि जीवियं पियं । अणोहंतरा एते, नो य ओहं तरित्तए । अतीरंगमा एते, नो य तीरं गमित्तए। अपारंगमा एते, नो य पारं गमित्तए । ७२ आयाणिज्जं च आयाय, तम्मि ठाणे ण चिट्ठइ । वितहं पप्पखेयण्णे, तम्मि ठाणम्मि चिट्ठइ ।। ७७ नालं ते तव ताणाए। ७८ जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं । आसं च छंदं च विगिच धीरे । इणमेव णावबुझंति, जे जणा मोहपाउडा। ९० थीभि लोए पव्वहिए । ९४ अप्पमादो महामोहे । १०० णाइवाएज्ज कंचणं । १०१ एस वीरे पसंसिए । १०२ ण मे देति ण कुप्पिज्जा, थोवं लधु न खिसए । १०८ सव्वामगंधं परिण्णाय, णिरामगंधो परिव्वए । १०९ अदिस्समाणे कय-विक्कएसु । ११२ कंबलं पायपुंछणं, उग्गहं च कहासणं । एतेसु चेव जाएज्जा। ११४ लाभो तिन मज्जेज्जा। ११५ अलाभो त्ति ण सोयए। ११६ बहुं पि लधु ण णिहे। ११९ आरिएहिं पवेइए। १२१ कामा दुरतिक्कमा। १२२ जीवियं दुप्पडिवूहणं । १२५ आयतचक्खु लोग-विपस्सी। १२७ संधि विदित्ता इह मच्चिएहिं । १२८ एस वीरे पसंसिए, जे बद्धे पडिमोयए । १२९ जहा अंतो तहा बाहिं, जहा बाहिं तहा अंतो। १३० अंतो अंतो पूतिदेहतराणि । १३१ पंडिए पडिलेहाए । १३२ से मइमं परिणाय, मा य ह लाल पच्चासी। १३४ कडेण मूढे पुणो तं करेइ । १३५ वरं वड्ढेति अप्पणो। १३६ जमिणं परिकहिज्जइ । १३७ अमरायइ महासड्ढी । १३८ अट्टमेतं पेहाए। १३९ अपरिणाए कंदति । १४४ जस्स वि य णं करेइ । १४५ अलं बालस्स संगेणं । १४६ जे वा से कारेइ बाले । १४८ आयाणीयं समुट्ठाए । १४९ तम्हा पावं कम्म, णेव कुज्जा न कारवे । १५२ सएण विप्पमाएण, पुढो वयं पकुव्वति । १५६ से जहाति ममाइयं । १५७ से हु दिट्ठपहे मुणी, जस्स णत्थि ममाइयं । १५८ तं परिण्णाय मेहावी। १६० णारति सहते वीरे, वीरे णो सहते रति । जम्हा अविमणे वीरे, तम्हा वीरे ण रज्जति ।। १६१ सद्दे य फासे अहियासमाणे । १६२ णिविद णंदि इह जीवियस्स । १६३ मुणी मोणं समादाय, धुणे कम्म-सरीरगं । १६४ पंतं लुहं सेवंति, वीरा समत्तदंसिणो । १६५ एस ओघंतरे मुणी, तिण्णे मुत्ते विरते । १६६ दुव्वसु मुणी अणाणाए। १६७ तुच्छए गिलाइ वत्तए । १६८ एस वीरे पसंसिए । १६९ अच्चेइ लोयसंजोयं । १७० एस णाए पवुच्चइ । १७४ जहा पुण्णस्स कत्थइ, तहा तुच्छस्स कत्थई। जहा तुच्छस्स कत्थइ, तहा पुण्णस्स कत्थइ।। १७७ के यं पुरिसे ? कं च णए ? १७८ एस वीरे पसंसिए, जे बद्धे पडिमोयए। १७९ उड्ढे अहं तिरियं दिसासु, से सव्वतो सव्वपरिणचारी। १८० ण लिप्पई छणपएण वीरे। १८१ बंधप्पमोक्खमण्णेसी। १८३ अणारखं च णारभे । १८४ छणं छणं परिण्णाय, लोगसण्णं च सव्वसो। Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ (क) अध्ययनगत पद्यांश तथा पद्य ४५६ तइयं अज्झयणं १ सुत्ता अमुणी सया, मुणिणो सया जागरंति । २ लोयंसि जाण अहियाय दुक्खं । ३ समयं लोगस्स जाणित्ता। ९ एवं दुक्खा पमोक्खसि । ११ पासिय आउरे पाणे, अप्पमत्तो परिव्वए। १२ मंता एयं मइमं ! पास । १३ आरंभजं दुक्खमिणं ति णच्चा। १४ माई पमाई पुणरेइ गब्भं । १५ उबेहमाणो सद्द-रूवेसु अंजू, माराभिसंकी मरणा पमुच्चति । २० कम्मं च पडिलेहाए। __कम्ममूलं च जं छणं । २४ तं परिण्णाय मेहावी। २६ जाति च बुढि च इहज्ज! पासे। २७ भूतेहिं जाण पडिलेह सातं । २८ तम्हा तिविज्जो परमंति णच्चा, समत्तदंसी ण करेति पावं । २९ उम्मुंच पास इह मच्चिएहिं । ३० आरंभजीवी उ भयाणुपस्सी। ३१ कामेसु गिद्धा णिचयं करेंति, संसिच्चमाणा पुणरेति गम्भं । ३२ अवि से हासमासज्ज, हंता णंदीति मन्नति । अलं बालस्स संगणं, वेरं वड्ढे ति अप्पणो॥ ३३ तम्हा तिविज्जो परमंति णच्चा, आयंकदंसी ण करेति पावं ॥ ३४ अग्गं च मूलं च विगिच धीरे । ३५ पलिच्छिदिया णं णिक्कम्मदंसी। ३६ एस मरणा पमुच्चइ। ३७ से हु दिट्ठपहे मुणी ३८ लोयंसी परमदंसी विवित्तजीवी उवसंते, समिते सहिते सया जए कालकंखी परिव्वए । ४० सच्चंसि धिर्ति कुव्वह । ४४ आसेवित्ता एतमट्ठ इच्चेवेगे समुट्ठिया। ४५ णिस्सारं पासिय णाणी, उववायं चवणं णच्चा । अणण्णं चर माहणे !। से ण छणे ण छणावए, छणतं णाणुजाणइ । ४७ णिविद णंदि अरते पयासु । ४९ कोहाइमाणं हणिया य वीरे, लोभस्स पासे णिरयं महंत । तम्हा हि वीरे विरते वहाओ, छिदेज्ज सोयं लहुभूयगामी ॥ ५० गंथं परिणाय इहज्जेव वीरे, सोयं परिणाय चरेज्ज दंते । उम्मग्ग लद्ध इह माणवेहिं, णो पाणिणं पाणे समारभेज्जासि ॥ ५१ संधि लोगस्स जाणित्ता। ५२ आयओ बहिया पास । ५५ समयं तत्थुवेहाए, अप्पाणं विप्पसायए। ५६ अणण्णपरमं नाणी, णो पमाए कयाइ वि । आयगुत्ते सया वीरे, जायामायाए जावए। ५७ विरागं रूवेहिं गच्छेज्जा, महया खुएहि वा। ५८ आगति गति परिण्णाय, दोहिं वि अंतेहिं अदिस्समाणे । से छिज्जइ ण भिज्जइ ण डन्झइ, ण हम्मइ कंचणं सव्वलोए ॥ ५९ अवरेण पुव्वं ण सरंति एगे, किमस्सतीतं ? किं वागमिस्सं? भासंति एगे इह माणवा उ, जमस्सतीतं आगमिस्सं ॥ ६० णातीतमट्ठ ण य आगमिस्सं, अट्ठ नियच्छति तहागया उ । विधूत-कप्पे एयाणुपस्सी, णिज्झोसइत्ता खवगे महेसी ।। ६१ का अरई ? के आणंदे ? एत्थंपि अग्गहे चरे। सव्वं हासं परिच्चज्ज, आलीण-गुत्तो परिव्वए । ६२ पुरिसा! तुममेव तुम मित्तं, कि बहिया मित्तमिच्छसि ? ६३ जं जाणेज्जा उच्चालइयं, तं जाणेज्जा दूरालइयं । जं जाणेज्जा दूरालइयं, तं जाणेज्जा उच्चालइयं ॥ ६४ पुरिसा ! अत्ताणमेव अभिणिगिज्झ, एवं दुक्खा पमोक्खसि । ६७ सहिए धम्ममादाय, सेयं समणुपस्सति । ६९ सहिए दुक्खमत्ताए पुट्ठो णो झंझाए । ७७ दुक्खं लोयस्स जाणित्ता। ७८ वंता लोगस्स संजोगं, जंति वीरा महाजाणं । परेण परं जंति, नावखंति जीवियं ॥ ८० सड्ढी आणाए मेहावी। ८२ अत्थि सत्थं परेण पर, णत्थि असत्थं परेण परं।। जे कोहदंसी से माणदंसी, जे माणदंसी से मायदंसी।। जे मायदंसी से लोभदंसी, जे लोभदंसी से पेज्जदंसी। जे पेज्जदंसी से दोसदंसी, जे दोसदंसी से मोहदंसी। जे मोहदंसी से गब्भदंसी, जे गब्भदंसी से जम्मदंसी। जे जम्मदंसी से मारदंसी, जे मारदंसी से निरयदंसी । जे निरयदंसी से तिरियदंसी, जे तिरियदंसी से दुक्खदंसी । चउत्थं अज्झयणं २ खेयपणेहिं पवेइए। ४ तच्चं चेयं तहा चेयं, अस्सि चेयं पवुच्चइ । ७ णो लोगस्सेसणं चरे। ८ जस्स णत्थि इमा णाई, अण्णा तस्स कओ सिया ? १० समेमाणा पलेमाणा। ११ अहो य राओ जयमाणे, वीरे सया आगयपण्णाणे । पगत्ते बहिया पास, अप्पमत्ते सया परक्कमेग्जासि ।। १३ आघाइ णाणी इह माणवाणं । १४ अट्टा वि संता अदुआ पमत्ता। नाणागमो मच्चुमुहस्स अत्थि, इच्छापणीया वंकाणिकया। कालग्गहीआ णिचए णिविट्ठा, पुढो-पुढो जाइं पकप्पयंति ॥ १८ चिट्ठ कूरेहि कम्मेहि, चिट्ठ परिचिट्ठति । अचिट्ठ कूरेहि कम्मे हिं. णो चिट्ठ परिचिट्ठति ॥ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० १९ एगे वयंति अदुवा वि णाणी, णाणी वयंति अदुवा बि एगे । २० उड्ढं अहं तिरियं दिसासु । एत्थ वि जाणह णत्थित्थ दोसो । २२ उ अतिरियं दिसा एत्थ वि जाणह णत्थित्थ दोसो । एत्थ वि जाणह णत्थित्थ दोसो । २३ २७ उवेह एवं बहिया य लोयं, से सव्वलोगंसि जे केइ विष्णू । अणुवीs पास णिक्खिदंडा, जे केइ सत्ता पलियं चयंति ॥ २० नरा मुमच्या धम्मविदुत मंजू २९ जारंभ समिति बच्चा, एवमाहू समत्तदसिणो ॥ जहा जुगाई कट्ठाई, हब्ववाहो पमत्पति एवं अत्तसमाहिए बनिहे। ३४ विगिच कोई अधिकंपमाणे इमं निरुद्धायं संपेहाए।" ३५ दुक्खं च जाण अदुवागमेस्सं । ३६ पुढो फासाइं च फासे । ३७ लोयं च पास विप्कंदमाणं । २८ जे गिबुडा पाहि कामेहि, अभिदाना ते वियाहिया । ४० जहित्ता पुग्वसंजोगं । ४१ तम्हा अविमणे वीरे । ४३ विगिंच मंस-सोणियं । ४४ एस पुरिसे दविए वीरे, आयाणिज्जे वियाहिए । 'घुणा समुस्समं बचित्ता बंधचेरंसि ॥ ४५ तेहि पलिछिन्नेहि आयाणसोय-गढिए बाले । योनिबंध अभिक्तसंजोए । , तसि अविभाणो । ४६ जस्स नत्थि पुरा पच्छा, मज्झे तस्स कओ सिया ? ४८ सम्ममेयंति पासह । ४९ जेण बंधं वहं घोरं परितावं च दारुणं । ५० पलिछिदिय बाहिरगं च सोयं, णिक्कम्मदंसी इह मच्चिएहि ॥ ५१ कम्मुणा सफलं दट्टु, तओ णिज्जाइ वेयवी । पंचमं अज्झयणं ५. से पासति फुसियमिव कुसग्मे पगुन्नं पिवतितं वातेरितं । एवं बालस्स जीवियं, मंदस्स अविजाणओ । ७ मोहेण गन्धं मरणाति एति । ८ एत्थ मोहे पुणो- पुणो । ११ कट्टु एवं अविजाण, वितिया मंदस्य बालया १४ एत्थ फासे पुणो- पुणो । १७ आसवसक्की पलिउच्छन्ने । उट्टियवायं पवयमाणे, मा मे केइ अदक्खू । १८ अट्टा पया माणव ! कम्मकोविया । २२ आरए पवेदिते । २३ उट्टिए णो पमायए । २४ जाणित्तु दुखं पत्ते सायं २५ पुढोदा इह माणवा, पुढो दुनखं पवेदितं । २८ इति उदाहुवीरे ते फासे पुट्ठो हिपासए । ३६ से सुपं च मे अत्थियं च मे बंध- पमोरखो तुम्भ ज्यत्येव ।। " ३७ एत्थ विरते अणगारे, दीहरायं तितिक्खए । पत्ते बहिया पास, अध्यमतो परिवार ॥ सोच्ला वई मेहावी, पंडियाणं णिसामिया । समिया धम्बे आरिएहि पवेदिते। ४० ४१ ४३ ४४ ४५ ४६ ४९ ५१ ८० आचारांग भाष्यम् णो हिज्ज वीरिय देवि तारिसए सिया के परिणाय लोगमस्सियो । ८५ एवं णियाय मुणिणा पवेदितं - इह आणाखी पंडिए अणिहे, पुव्यावर जयमाणे समासीनं सहाए, सुशिया भवे अकामे ज ५४ एमप्यमुहे विदिसण्यइणे, निब्बिन्नचारी भए पयासु । जं सम्मं ति पासहा, तं मोणं ति पासहा । ५७ ८९ मे काहि कि ते योग बन्? बुद्धारि दुल्लहं अस्सि चेयं पव्वुच्चति, रूवंसि वा छणंसि वा । इति कम्मं परिण्णाय, सव्वसो से ण हिंसति । संजमति णो पगन्भति । ५९ ६० ६१ ६२ ६४ ६६ एयं ते मा होउ । ६७ एवं कुसलस्स दंसणं । ६८ तद्दिट्ठीए तम्मोत्तीए । तस्सण्णी तन्निवेसणं । ६९ जयंविहारी वित्तनिवाती, पंथणकाती पलीवाहरे, पासिय पाणे गच्छेज्जा । जं मोणं ति पासहा, तं सम्मं ति पासा ॥ मुणी मोणं समायाए, धुणे कम्म- सरीरगं । पंसू सेति वीरा समसदसिणो । ७४ एवं से अपमानं विवेगं किट्टति देववी । ७७ एस से परमारामो, जाओ लोगम्मि इत्थीओ। अवि ओमोयरियं कुज्जा । एस मोहंतरे णी, तिष्णे मुझे बिरए विपाहिए। अवियत्तस्स भिषणो उन्नयमाणे य परे, महता मोहेण मुज्झति । पुव्वं दंडा पच्छा फासा, पुव्वं फासा पच्छा दंडा । अवि हरए पडिपुणे, चिट्ठइ समंसि भोमे । उवसंतरए सारक्खमाणे से चिट्ठति सोयमज्झगए || से पास सव्वतो गुत्ते, पास लोए महेसिणो । सम्ममेयंति पासह । तमेव सच्च णीसंक, जंजिगेहि पवेश्य ९० ९१ ९५ ९७ उवेहाहि समियाए । १०२ ण हंता ण विषायए । Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ (क) अध्ययनगत पाश तथा पत्र १०३ अणुसंवेयणमप्पाणेणं, जं हतब्वं ति णाभिपत्थए । १०४ जे आया से विण्णाया, जे विण्णाया से आया। जेण विजाणति से आया। १०५ तं पडुच्च पडिसंखाए। १०९ एयं कुसलस्स दसणं । ११० तद्दिट्ठीए तम्मुत्तीए । तस्सण्णी तन्निवेसणे। ११५ णिद्देसं णातिवट्टेज्जा। ११७ इहारामं परिण्णाय, अल्लीण-गुत्तो परिव्वए। णिट्ठियट्ठी वीरे, आगमेण सदा परक्कमेज्जासि । ११८ उड्ढं सोता अहे सोता, तिरियं सोता वियाहिया । एते सोता वियक्खाया, जेहिं संगति पासहा ॥ ११९ आवटें तु उवेहाए, एत्थ विरमेज्ज वेयवी। १२० विणएत्तु सोयं णिक्खम्म । १२३ सव्वे सरा णियटॅति । १२४ तक्का जत्थ ण विज्जइ । १२५ मई तत्थ ण गाहिया। १३० अपयस्स पयं णत्थि । छठं अज्झयणं १ ओबुज्झमाणे इह माणवेसु । २ अक्खाइ से णाणमणेलिसं । ४ एवं पेगे महावीरा । ७ अणेगरूवेहिं कुलेहिं जाया, रूवेहिं सत्ता कलुणं थणंति, णियाणओ ते ण लभंति मोक्वं । गंडी अदुवा कोढी, रायंसी अवमारियं । काणियं झिमियं चेव, कुणियं खुज्जियं तहा ।। उरि पास मूयं च, सूणिअं च गिलासिणि । वेवई पीढसप्पि च, सिलिवयं महुमेहणि ॥ सोलस एते रोगा, अक्खाया अणुपुब्वसो। अह णं फुसंति आयंका, फासा य असमंजसा । मरणं तेसि संपेहाए. उववायं चयणं च णच्चा । परिपागं च संपेहाए, तं सुणेह जहा तहा ।। १३ पाणा पाणे किलेसंति । १४ पास लोए महन्भयं । १५ बहुदुक्खा हु जंतवो। १६ सत्ता कामेहि माणवा। १७ अबलेण वहं गच्छंति, सरीरेण पभंगुरेण । १८ अट्टे से बहुदुक्खे, इति बाले पगब्भइ। १९ एते रोगे बहू णच्चा, आउरा परितावए। २३ णातिवाएज्ज कंचणं । २५ अणुपुब्वेण महामुणी।। २६ त परक्कमत परिदेवमाणा, मा णे चयाहि इति ते वदति । छंदोवणीया अज्झोववन्ना, अक्कंदकारी जणगा रुवंति ॥ ३० आतुरं लोयमायाए, चइत्ता पुव्वसंजोगं । अहेगे तमचाइ कुसीला। ३३ कामे ममायमाणस्स इयाणि वा मुहुत्ते वा। ३५ अहेगे धम्म मादाय । ३६ अपलीयमाणे दढे । ३७ सम्वं गेहिं परिण्णाय, एस पणए महामुणी। ३८ अइअच्च सव्वतो संगं ।। ४१ अक्कुठे व हए व लूसिए वा । ४२ पलियं पगंथे अदुवा पगंथे। ४४ तितिक्खमाणे परिब्बए । ४६ चिच्चा सन्वं विसोत्तियं, फासे फासे समियदसणे । एते भो ! णगिणा वुत्ता, जे लोगंसि अणागमणधम्मिणो। ४८ आणाए मामगं धम्म । ४९ एस उत्तरवादे, इह माणवाणं वियाहिते। ५. आयाणिज्जं परिण्णाय, परियाएण विगिचइ । ५४ से मेहावी परिव्वए। ५५ सुभि अदुवा दुभि । ५६ अदुवा तत्थ भेरवा । ५७ पाणा पाणे किलेसंति । ७० विरयं भिक्खु रीयंतं । ७१ संधेमाणे समुट्ठिए। ७२ जहा से दीवे असंदीणे । आयरिय-पदेसिए। ७५ सिस्सा दिया य राओ य, अणुपुव्वेण वाइय । ७६ सिस्सा दिया य राओ य, अणुपुब्वेण वाइया । ७८ वसित्ता बंभचेरंसि। ७९ समणुण्णा जीविस्सामो। असंभवंता विरज्झमाणा, कामेहिं गिद्धा अज्झोववण्णा । समाहिमाधायमझोसयंता, सत्यारमेव फरुसं वदंति ।। ८० सीलमंता उवसंता, संखाए रीयमाणा । असीला अणुवयमाणा । ८१ बितिया मंदस्स बालया। ८४ पुट्ठा वेगे णियटृति, जीवियस्सेव कारणा। ८६ बालवयणिज्जा हु ते नरा, पुणो-पुणो जाति पकप्पेंति । ८७ अहमंसी विउक्कसे, ८८ उदासीणे फरुसं वदंति । ८९ पलियं पगंथे अदुवा पगंथे । ९१ घोरे धम्मे उदीरिए, उवेहइ णं अणाणाए। ९३ मातरं पितरं हिच्चा, णातओ य परिग्गहं । वीरायमाणा समुद्राए, अविहिंसा सुव्वया दंता ॥ Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ ९९ फासा फुसंति ते फासे, पुट्ठो वीरोहियासए। १००. ओए समियदंसणे। १०१ दयं लोगस्स जाणित्ता। १०५ जहा से दीवे असंदीणे । भवइ सरणं महामुणी। १०६ एवं से उट्ठिए ठियप्पा, अणिहे अचले चले, अबहिलेस्से परिव्वए। १०७ संखाय पेसलं धम्म, दिट्ठिमं परिणिव्वुडे । १०८ तम्हा संगं ति पासह । १०९ गंथेहिं गठिया णरा, विसण्णा कामविप्पिया। ११२ एस तुट्टे वियाहिते । ११३ कायस्स विओवाए, एस संगामसीसे वियाहिए। से हु पारंगमे मुणी, अवि हम्ममाणे फलगावयट्ठि । कालोवणीते कंखेज्ज कालं। अट्ठमं अज्झयणं ११ सव्वत्थ सम्मयं पावं । १४ गामे वा अदुवा रण्णे ? व गामे व रणे। माहणेण मईभया। १५ जामा तिण्णि उदाहिया । संबुज्झमाणा समुट्ठिया। आचारांगभाज्यम १६ जे णिब्वुया पावेहि कम्मेहि, अणियाणा ते वियाहिया । १७ उड्ढं अहं तिरिय दिसासु । १८ तं परिण्णाय मेहावी । २० तं परिण्णाय मेहाषी। २५ धीरो पुट्ठो अहियासए। २६ आयार-गोयरमाइक्खे, तक्किया ण मणेलिसं । २८ बुद्धेहिं एवं पवेदितं । २९ धम्ममायाणह, पवेइयं माहणेण मतिमया। मज्झिमेणं वयसा एगे, संबुज्झमाणा समुट्ठिता। ३१ सोच्चा वई मेहावी, पंडियाणं निसामिया । समियाए धम्मे, आरिएहिं पवेदिते । ३३ णिहाय दंडं पाणेहिं । ३४ ओए जुतिमस्स खेयण्णे उववायं चवणं च णच्चा। ३५ आहारोवचया देहा, परिसह-पभंगुरा । ५८ तवस्सिणो हु तं सेयं, जमेगे विहमाइए । १०५ कसाए पयणुए किच्चा, समाहियच्चे फलगावयट्ठी। उट्ठाय भिक्खू अभिनिव्वुडच्चे । १०७ वेच्चाण भेउरं कायं । १२५ कसाए पयणुए किच्चा समाहिमच्चे फलगावयट्ठी। उट्ठाय भिक्खू अभिनिव्वुडच्चे। १२७ वेच्चाण भेउरं कार्य । ख) ८1८ तथा हवें अध्ययन का पदानुक्रम अइवातियं अणाउट्टे अंतो बहिं विउसिज्ज अकसाई विगयगेही अचले जे समाहिए अचले भगवं रीइत्था अचित्तं तु समासज्ज अचिरं पडिले हित्ता अचेलए ततो चाई अच्छइ उक्कुडुए अभिवाते अच्छिपि णो पमज्जिया अज्झत्थं सुद्धमेसए अट्ठ मासे य जावए भगवं अणाहारो तुअर्टेज्जा अणुपुवीए संखाए अण्णेहिं वा ण कारित्था ९.१।१७ ८1८1५ ९।४।१५ ८1८।१४ ९।३।१३ सामा२१ दादा२० ९।११४ अतिअच्च मुणी परक्कममाणे अतिदुक्खं हिमग-संफासा अदु कुचरा उवचरति अदु गामिया उवसग्गा अदु जावइत्थ लहेणं अदु थावरा तसत्ताए अदु पोरिसिं तिरियं भित्ति अदु बक्कसं पुलागं वा अदु माहणं व समणं वा अदु लेलुणा कवालेणं अदुवा अट्ठमेण दसमेणं अदुवा आसणाओ खलइंसु अदुवा चिट्टे अहायते अदुवा जे पक्खिणो उवचरंति अदुवा पलियट्ठाणेसु ९।११९ ९।२।१४ ९।२।८ ९२।८ ९।४।४ ९।१।१४ ९।१५ ९।४।१३ ९।४।११ ९।३।१० ९।४७ ९।३।१२ ८।८।१६ ९।२७ ९।२।२ ९।४।४ ९।०२० ८1८1५ ९४१५ दादा दादा२ ९/४/८ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ (ख)८८ तथा ६ में अध्ययन का पदानुक्रम ९।३।१० अदुवा मुट्ठिणा अदु कुंताइ-फलेणं अदुवायसा दिगिता ९।४।१० ९।१।१४ ९।४।५ ९।४।६ ९।१।२३ ९।२।१६ ९।३।१४ ९।४।१७ ९।४।५ ९।४।१ अदु सव्वजोणिया सत्ता अद्धमासं अदुवा मासं पि अन्नगिलायमेगया भुंजे अपडणेण वीरेण अपडणेण वीरेण अपडणेन वीरेण अपडणेण वीरेण अपिइत्थ एगया भगवं अपुट्ठे वि भगवं रोगेहि अयं तिरियं पेहाए अप्पं उपेहाए अप्पं बुइysपडिभाणी अप्पाणं तु विष्णाय अप्पमत्ते समाहिए भाति अप्पाहारो तितिखए अप्पे जणे णिवारेs भिमे पक्किमे अभिfrogs अमाइल्ले अभि अयं चायततरे सिया अयं से अवरे धम्मे अयं से उत्तमे धम्मे अयमंतरंसि को एत्थ अयमुत्तमे से धम्मे कार्य बिरिमु अरह रहे अभिभूय अलपुथ्यो वि एगया गामो अविभाति से महावीरे वि साहिए दुवे मासे नवसाहिए दुवे वासे अवि सुम-भि-गंधाई अवि सूइयं व सुक्कं वा अन्वाहिए साइत्था अह नामकंटए भगवं अह चम्बु भीया सहिया अह दुच्चर - लाढमचारी अह भिक्खु गिलाएज्जा अहमंसि त्ति भिक्खू आहट्ट यह लहदेखिए भत्ते अवा पंगा अवकरि बहाकडं न से सेवे ९।१२१ ९।१।२१ ९।१।२१ ८१८|७ ९४२२४ તાકા ९२३/४ दादा१५ ९।४।१६ ९।१।३ ८८१९ १२ दाद|२० ९।२।१२ ९।२।१२ ९२ १० ९१३३८ ९।४।१४ ९।४।६ ९।१।११ ९४२१९ ९।४।१३ ९।२।११ ९।३।७ ९११।५ ९।३।२ दादा३ ९।२।१२ ९।३।३ ९।३।११ ९।१।१८ अहासुयं वदिस्सामि अहंमाणो घासमे सित्था अहियासए सया समिए अहियासए सया समिए अहुणा पव्वइए रयत्था अहे वियडे अहियासए दविए आघाय णट्ट- गीताई आणुपुब्वी-विमोहाई आवकहं भगवं समिआसी आइक्ख ताई सयणासणाई आउक्खेमस्स अप्पणो आउकालस्स पारए आउकालस्स पारए आगंतारे आरामागारे आयतजोगमायसोहीए आयत जोगाए सेवित्था आयवज्जं पडीयारं आयावई व सिम्हाणं आयाणसोयम तिवायसोयं आरंभाओ तिउवृति आरुसियाणं तत्थ हिंसिसु आवेसण सभा पवा आसणगाणि चैव पंताई आसणत्ये अकुक्कुए झाणं आसवेहि विविहि सि भवं उडाए आसीणे पेलिए मरणं बहारस्सेय अंतियं इंदिएहि गिलायंते इंदियाणि समीरए इच्छा-लोग सेवेज्जा इति पणे हिवास इति संखाए से महावीरे इति से सर्व पवेखिया भाति इत्थी एगतिया पुरिसा य इत्थीओ तत्थ से परिण्णाय इहलोइयाइं परलोइयाई ईसि साई या सी अपडणे उच्चालइय णिणिसु उभंति एगया कार्य उद्महे तिरियं च उवसंकमंतमपडणं ४६३ ९।१११ ९।४।१२ ९।२।१० ९।३।१ ९।११ ९।२।१५ ९/१९ दादा ९।४।१६ ९।२।१ बाबा६ दादा११ २५ ९/२/३ ९|४|१६ ९।४।९ ८८१२ ९|४|४ ९।१।१६ दादार ९।१३ ९२२ ९।३।२ smer दादा १० ९।२।६ दादा१७ दादा३ १४ दादा१७ दादा२३ २२ ९।१।१३ ९ १४६ ९२८ ९ १६ ९२४९ १९२२५ ९।३।१२ ९।३।११ ९।४।१४ ९/३१९ Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगभाष्यम् सामा२२ ९।२।११ ९।२।१ ९।१।११ ९।१।१० ९।२।४ ९।२९ ८।८।१५ ९।१।२ उवसग्गा य संखाय एगचरा वि एगदा राओ एगतियाओ जाओ बुइयाओ एगत्तगए पिहियच्चे एताई सो उरालाई एतेहिं मुणी सयणेहिं एत्तो परं पलेहित्ति एत्थं वावि अचेयणे । एवं खलु अणुम्मियं तस्स एयाई संति पडिलेहे एयाणि तिण्णि पडिसेवे एलिक्खए जणे भुज्जो एवं पि तत्थ लाहिं एवं पि तत्थ विहरता एस विही अणुक्कतो एस विही अणुक्कतो एस विही अणुक्कतो एस विही अणुक्कतो एहा य समादहमाणा ओयण-मंथु-कुम्मासेणं ओमोदरियं चाएति कम्मं च सव्वसो णच्चा कम्मुणा कप्पिया पुढो बाला कसाए पयणुए किच्चा कामेसु बहुतरेसु वि काय-साहारणट्ठाए कासवेण महेसिणा कासवेण महेसिणा कासवेण महेसिणा कासवेण महेसिणा किरियमक्खायणेलिसिं गाणी कीरतं पि णाणुजाणित्या "कुक्कुरं वावि विहं ठियं पुरतो कुक्कुरा तत्थ हिसिसु णिवर्तिसु कोलावासं समासज्ज खिप्पं सिक्खेज्ज पंडिए गंथेहिं विवित्तेहि गच्छइ णायपुत्ते असरणाए गच्छति णाइवत्तई अंजू गच्छति संखडिं असरणाए गढिए मिहो-कहासु गामंतियं पि अप्पत्तं ९।४१५ ९।३१५ ९॥३॥ ९।३।६ ९।१२३ ९।२।१६ ९/३।१४ ९।४।१७ ९।२।१४ ९।४।४ ९४१ ९।१।१५ ९।१।१४ ८८३ ८८२३ ८।८।१५ ९।१२२३ ९/२०१६ ९।३।१४ ९।४।१७ ९१।१६ ९।४१८ ९।४।११ ९।२३ ८1८।१७ दादा ८८।११ ९।१।१० ९।११७ गामं पविसे णयरं वा गामपिंडोलगं च अतिहिं वा गामरक्खा य सत्तिहत्था य गामे णगरेवि एगदा वासो गामे वा अदुवा रणे गायन्भंगणं सिणाणं च घासमेसे कडं परट्ठाए घासेसणाए चिट्ठते चक्खुमासज्ज अंतसो झाइ चत्तारि साहिए मासे चरियासणाई सेज्जाओ चाएइ भगवं समियाए चित्तमंताई से अभिण्णाय छउमत्थे वि परक्कममाणे छठेणं एगया भुंजे छप्पि मासे अदुवा अपिवित्ता छायाए झाइ आसीय छुछकारंति आहंसु जओ वज्ज समुप्पज्जे जं किंचि पावगं भगवं जं किंचुवक्कम जाणे जं ण रिक्कासि वत्थगं भगवं जंसिप्पेगे पवेयंति जग्गावती य अप्पाणं जस्सिस्थिओ परिण्णाया जहा से समणे भगवं उट्ठाय जाइं धीरा समासज्ज जाई सेवित्था से महावीरो जावज्जीवं परीसहा जीविते मरणे तहा जीवियं णाभिकखेज्जा जे अण्णे रसेसिणो सत्ता ने के इमे अगारत्था, जे य उड्ढमहेचरा जो एवं अणुवालए जोगं च सव्वसो णच्चा ठाणाओ ण विउन्ममे ठाणातो ण विउन्भमे ठाणेण परिकिलते ठावए तत्थ अप्पगं णच्चाणं से महावीरे ण छणे ण पमज्जए ९।४।९ ९।४।११ ९।२।८ ९।२।३ दादा ९।४।२ ९।४।९ ९।४।१० ९।११५ ९।११३ ९।२।१ ९।२।१५ ९।१११३ ९।४।१५ ९।४७ ९।४६ ९।४।३ ९।३४ ८।८।१८ ९।१११८ दादा ९।११४ ९।२।१३ ९।२।५ ९।११७ ९।११ कामा ९।२।१ ८।८।२२ ८1८४ ८८४ ९।४।१० ९१७ ८।८९ ८।८।१९ ९।१२१६ ८।८।१० ८।८।१९ दा८।१६ ८।८।२१ ९।४८ ९।१२१९ ९।११० ९।३९ ८९ Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ (ख) ८1८ तथा वें अध्ययन का पदानुक्रम ४६५ ण तत्थ अवलंबए ण में देहे परीसहा णाओ संगामसीसे वा णाणुगिद्धे रसेसु अपडिणे णातिवेलं उवचरे णाभिभासे अभिवायमाणे णायपुत्तेण साहिए णिक्खम्म एगदा राओ णिक्खम्म एगया राओ णि पि णो पगामाए णिसिएज्जा य अंतसो णो अवलंबियाण कंधंसि णो चेविमेण वत्थेण णोपमायं सई पि कुम्वित्था णोवि य कंडूयये मुणी गायं णो वि य पावगं सयमकासी णो सुगरमेतमेगेसि णो सेवती य परवत्थं णो से सातिज्जति तेइच्छं तं अकुब्वं वियर्ड भुंजित्था तं कायं वोसज्जमणगारे तं पडिबुज्झ माहणे तं पडियाइक्खे पावगं भगवं तं वोसज्ज वत्थमणगारे तं बोसज्ज वत्थमणगारे तंसिप्पेगे अणगारा तंसि भगवं अपडिण्णे तं "हंता हंता" बहवे कंदिसु ॥ तणफासे सीयफासे य तणाई संथरे मुणी ततो उक्कसे अप्पाणं तसकायं च सव्वसो णच्चा तसजीवा य थावरत्ताए तस्सेव अंतरद्धाए तहावि से अगरिहे तितिक्खं परमं णच्चा तिप्पमाणेऽहियासए तुसिणीए स कसाइए झाति ते अहियासए अभिसमेच्चा तेउकायं च वाउकायं च तेउफासे य दंस-मसगे य तेसप्पत्तियं परिहरतो यंडिलं पडिलेहिया का।१८ दादा२१ ९।३८ ९।११२० ८1८1८ ९।१८ ८।८।१२ ९।२।१५ ९।२।६ ९।२।५ ८।८।१६ ९।११२२ ९।१२ ९।४।१५ ९।११२० ९।४।८ ९।१८ ९।११९ ९।४।१ ९।१।१८ ९।३७ दादा२४ ९।१११५ ९।११४ ९।११२२ ९।२।१३ ९।२।१५ ९।११५ ९।३।१ ८1८७ ८।८।१८ ९।१११२ ९।१।१४ ८1८६ ८।८।१४ ८।८।२५ ८।८।१० ९।२।१२ ९/३१७ ९।१११२ ९।३।१ ९।४।१२ ८८७ थंडिल मुणिआ सए दंडजुद्धाई मुट्ठिजुद्धाई दंत-पक्खालणं परिण्णाए दवियस्य वियाणतो दिव्वं मायं ण सद्दहे दुक्खसहे भगवं अपडिण्णे दुच्चरगाणि तत्थ लाहिं दुवालसमेण एगया भुंजे दुविहं पि विदित्ताणं दुविहं समिच्च मेहावी दुहतोवि ण सज्जेज्जा निधाय दंड पाणेहिं पंतं सेज्ज सेविसु पंथपेही चरे जयमाणे पग्गहियतरगं चेयं पडिणिक्खमित्तु लूसिंसु पडिसेवमाणे फरुसाई पणगाइं बीय-हरियाई पणियसालासु एगदा वासो परक्कमे परिकिलंते परपाए वि से ण भुंजित्था परिवज्जियाण ओमाणं परिवज्जिया ण विहरित्था परीसहाई लुचिसु पलालपुंजेसु एगदा वासो पसारित्तु बाहुं परक्कमे पाणा देहं विहिंसंति पारए तत्थ से महावीरे पिहिया वा सक्खामो पिहिस्सामि तसि हेमंते पुट्ठपुव्वा अहेसि सुणएहिं पुढे वा से अपुढे वा पुट्ठो तत्थहियासए पुट्ठो तत्थहियासए पुट्ठो वि णाभिभासिंसु पुढवि च आउकायं पुन्वट्ठाणस्स पग्गहे पेहमाणे समाहिं अपडिण्णे पेहमाणे समाहिं अपडिण्णे पेहमाणे समाहिमपडिण्णे फरुसाई दुत्तितिक्खाई फासाइं विरूवरूवाई ८ामा१३ ९।११९ ९।४।२ ८।८।११ दादा२४ ९।३।१२ ९।३१६ ९।४७ ८।८।२ ९।११६ ८.८।४ ९।३१७ ९।३।२ ९।१२१ ८।८।११ ९।३।९ ९।३।१३ ९।१।१२ ९।२।२ ८।१६ ९.१११९ ९।१११९ ९।१।१३ ९।३।११ ९।२।२ ९।१२२२ ८।८।१० ९।३।८ ९।२।१४ ९।१२ ९।३।६ ९।४।१ ८८1८ ८1८1१३ ९।१७ ९।१।१२ ८।८।२० ९।२।११ ९।४७ ९।४।१४ ९।११९ ९।२।१० Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ आचारांगभाष्यम् फासाइं विरूवरूवाई बहवे जाणवया लूसिंसु बहवे पाण-जाइया आगम्म बहवे वज्जभूमि फरुसासी बहिं चंकमिया मुहुत्तागं बुद्धा धम्मस्स पारगा भगवं च एवं मन्नेसि भीमा आसी अणेगरूवा य भीमाई अणेगरूवाई भुंजंति मंस-सोणियं भेउरेसु न रज्जेज्जा मंदं परक्कमे भगवं मंसाणि छिन्नपुवाई मज्झत्थो णिज्जरापेही मरणं णोवि पत्थए माणुस्सेहिं वि पुटुओ मायण्णे असण-पाणस्स माहणेण मईमया माहणेण मईमया माहणेण मईमया माहणेणं मईमया मीसीभावं पहाय से झाति राइं दिव पि जयमाणे रायोवरायं अपडिण्णे रीयई माहणे अबहुवाई रीयति माहणे अबहुवाई रुक्खमूले वि एगदा वासो ल४ि गहाय णालीयं लद्धे पिंडे अलद्धए दविए लाहिं तस्सुवसग्गा लूसणए सुणए दसमाणे लूसियपुवो अप्पपुण्णे हिं वज्जभूमि च सुब्भभूमि च वसुमंतो मइमंतो विउसिज्ज अणाहारो विजहिज्जा तिहा तिहा वितहं पाउरेसए वित्तिच्छेदं वज्जंतो विमोहण्णतरं हितं विरए गामधम्मेहि विहरे चिट्ठ माहणे वोसट्टकाए पणयासी ९।३।१ ९।३।३ ९।१०३ ९।३१५ ९।२६ ८।८।२ ९२१५ ९।२७ ९।२।९ ८८९ ८-२३ ९।४।१२ ९।३।११ ८८५ કાકાજ ८८८ ९।२२० ९।१२२३ ९।२।१६ ९।३।१४ ९।४।१७ ९।१७ ९।२।४ ९।४।६ ९।२।१० ९४३ ९।२।३ ९।३१५ ९।४।१३ ९।३।३ ९।३।४ ९.१८ ९।३।२ ८८१ ८८८।१३ ८।८।१२ ८८।१७ ९।४।१२ दादा२५ ९।४।३ ८८८।२० ९।३।१२ वोसिरे सव्वसो कार्य संकुचए पसारए संखाए तंसि हेमंते संघाडिओ पविसिस्सामो संबाहणं ण से कप्पे संबुज्झमाणे पुणरवि संलुंचमाणा सुणएहिं संवच्छरं साहियं मास संवुडे तत्थ से महावीरे संवुडे देहभेयाए संसप्पगा य जे पाणा संसप्पगा य जे पाणा संसोहणं च वमणं च स जणेहिं तत्थ पुच्छिसु सदरूवेसुऽमुच्छिए झाति सद्दाई अणेगरूवाई समणं कुक्कुरा डसतुत्ति समणा तत्थ एव विहरिंसु समणे आसी पतेरस वासे समयंमि णायसुए विसोगे अदक्खू समाहिमणुपालए समियं साहरे मुणी सयणेहिं तस्सुबसग्गा सयहिं वितिमिस्सेहि सयमण्णेसि अकरणयाए सयमेव अभिसमागम्म सययं णिवतिते य पेहाए सव्वं णच्चा अणे लिसं सव्वं नूमं विधूणिया सव्वकम्मावहाओ से अदक्खू सव्वगायणिरोधेवि सव्वठेहिं अमुच्छिए सव्वसो कम्मुणा य अदक्खू सव्वे फासेहियासए सागारियं ण सेवे सासएहिं णिमंतेज्जा सिसिरंमि एगदा भगवं सिसिरंसि अद्धपडिवन्ने सिसिरे मारुए पवायते सीतोदं अभोच्चा णिक्वंते सीयपिंडं पुराणकुम्मासं सुविसुद्धमेसिया भगवं ८।८।२१ ८1८।१५ ९।११ ९।२।१४ ९।४।२ ९।२।६ ९।३।६ ९।१४ ९।३।१३ ८८।२२ कामा९ ९।२।७ ९।४।२ ९।२।११ ९।४।१५ ९/२।९ ९।३।४ ९।३३५ Bરાજ ९।१।१० ८८५ सामा१४ ९।२।७ ९।११६ ९।१।१७ ९।४।१६ ९।४।१० काका ८८२४ ९।१११७ दादा१९ ८।८।२५ ९।१।१८ ८८१८ ८।८।२४ ९।४।३ ९।१२२२ ९।२।१३ ९।१।११ ९।४।१३ ९।४।९ Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६७ परिशिष्ट २ (ख) ८८ तथा ६ वें अध्ययन का पदानुक्रम सुसाणे सुण्णगारे वा ९।२।३ सुहुमं वणं सपेहिया सामा२३ सूरो संगामसीसे वा ९।३।१३ से अहिण्णायदंसणे संते ९।११११ से पारए आवकहाए ९।१२ सेवइ भगवं उठाए ९।२।५ सोवहिए हु लुप्पती बाले ९।१४१५ सोवागं मूसियारं वा हंता-हंता बहवे कंदिसु हयपुव्वो तत्थ दंडेण हयपुवो तत्थ दंडेहि हरिएसु ण णिवज्जेज्जा हिमवाए णिवायमेसंति; ९।४।११ ९।३।१० ९।३।१० ९।११८ ८८।१३ ९।२।१३ Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ विशेष शब्दार्थ ४॥२१ २०११ अंजु-ऋजु, कल्याणकारी ० अहिंसक ५।१०२ ० मध्यस्थ ९।१७ अंत-स्वभाव, निश्चय ३१२३ अंतर-अन्तरात्मा विवर, शून्य प्रदेश, घर का गुप्त प्रदेश ९.१११२ अंतिय -मरणासन्नकाल ८।८।३ अकम्म-ध्यानस्थ, ज्ञानावरण तथा दर्शनावरण कर्मों से मुक्त २१३७ ० कर्ममुक्त, शुद्ध आत्मा ३११८ अकस्मात्- अहेतुक ८७ अकाम--अलुब्ध, इच्छाकाम से मुक्त १४४ अकुक्कुय -अकुतूहल, अचपल ९।४।४ अकुतोभय---अभय ११३८ अखेयण्ण-अनात्मज्ञ २०७२ अग्ग -राग-द्वेष के हेतुभूत कर्म अथवा मोह के अतिरिक्त सभी कर्म ३३३४ अचिर-समुचित स्थान ८1८।२० अचेयण -क्रियारहित ८।८।१५ अज्ज-आर्य ३।२६ अज्झत्थ-कषायों का उपशमन १११४७ अज्झोववण्ण-रसलोलुपता, सुखलोलुपता ६७९ अझंझ-कलहमुक्त ५१४४ 'अट्ट-पीडित १११३ अट्ठम-तीन दिन की तपस्या, तेला ९।४७ अणइवत्तिय-ज्ञान आदि का अनतिक्रमण, अहिंसा ६।१०२ अणण्ण-आत्मा, चैतन्य ३।४५ अणण्णदंसि-निष्कामदर्शी, निर्मल चैतन्यदर्शी अणण्णपरम -आत्मोपलब्धि, संयम, समता ३१५६ अणण्णाराम - चैतन्य में रमण करने वाला २।१७३ अणाणा-अनात्मभाव २।२९ ० तीर्थंकर का अनुपदेश, अपनी बुद्धि से किया हुआ आचरण ५।१०७ अणातीत-परिस्थिति से अप्रभावित ८.१०७ अणादियमाण-अनादृत २।१७५ अणारद्ध-अनाचीर्ण २।१८३ अणारिय-हिंसाधर्मी अणिदाण-बन्धन-मुक्त ४१३८ अणिह–अप्रताडित ४।३२ • अस्नेह ५२४ • राग-द्वेष से अपराजित ६।१०६ अणुग्घायण-अहिंसा २।१८१ ० (अण-कर्म, उग्घायण-उत्पादन, ___ अणुग्घायण-कर्म का उत्पादन--चूर्णि) अणुधम्मिय-धर्मानुगामिता ९।१२२ अणुवसु-सराग-संयम ६।३० अणुवीइ-विवेक या चिन्तनपूर्वक ६।१०३ अणुवेहमाण-अमध्यस्थ भाव रखने वाला ५२९७ अणेलिस-अन्तःप्रज्ञागम्य ६।२ अणोमदंसि-उत्तमदर्शी, आत्मदर्शी, उत्तम सम्यग्दृष्टि ३।४८ अतिवेल-मर्यादा का अतिक्रमण दादा अदिस्समाण-प्रवृत्ति न करता हुआ २।१०९ अदु (दे) अथ ९।११५ अन्नगिलाय - बासी भोजन ९।४।६ अपडिण्ण-अप्रतिज्ञ-केवल अपने लिए ही नहीं किन्तु ___ सामुदायिक भिक्षा लाने वाला २।११० ० प्रतिकार के संकल्प से रहित ९।२।११ अपरिनिव्वाण-अशांति ४१२६ अपलीयमाण-अनासक्त ६॥३६ अपिइत्थ-बिना पानी पीए ९।४।५ अप्पतिट्ठाण-निरालंबन ५।१२६ अहिलेस्स-संयम में अथवा आत्मा में रमण करने वाला ६।१०६ अभिजुंजिय-बलात् सेवा में नियोजित कर २०६५ अभिणिव्वट्ट-अंग-उपांग का निवर्तन ६।२५ अभिसंजात-पेशी तक की अवस्था ६२५ अभिसंभूत-कलल तक की अवस्था ६।२५ अभिसमेच्च-प्राप्त कर १/३१७ अभिसेय-शुक्र और शोणित का निषेक ६२५ अभोच्चा-पानी पीए बिना ९।१११ अमरायइ-अमर की भांति आचरण करता है २।१३७ अमुणि-अज्ञानी ३।१ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ : विशेष शब्दार्थ २१४१ ५११८ ४.४१ भोजन अरई-इष्ट की अप्राप्ति और इष्ट के विनाश से होने वाला मानसिक भाव ३।६१ अवसक्केज्जादूर रहे २१११७ अविज्जा-अज्ञान अविमण -प्रसन्न मन वाला असंदीण-आश्वास द्वीप ६।७२ असमणुण्ण-अन्यतीर्थिक ८१ असरण-अस्मरण ९।१।१० असिय-तत्त्वज्ञान रहित ५।९४ अहाकड-मुनि के लिए बनाया हुआ आधाकर्मी आदि ९।१।१८ अहासच्च-यथार्थ ४१५ अहिण्णायवंसण क्षायिक सम्यग्दर्शन, सत्य-दर्शन ९.११११ अहियासमाण--सहता हुआ २।१६१ अहिरिमण-अलज्जाकारी ६।४५ अहेसणिज्ज-अपनी-अपनी कल्प-मर्यादा के अनुसार ग्रहणीय ८१४४ अहोववाइय-अधोलोक में होने वाले ४११७ अहोविहार-संयम २।१० आउट्ट-निवर्तन करना २।२७ आउट्टिकय-अविधिपूर्वक कृत श७३ आएस-आतिथ्य, यज्ञ २०१०४ आगंतार-यात्रीगृह ९।२।३ आगतिगति-संसार-भ्रमण ३१५८ आगम-आज्ञा, चिन्तन आगयपण्णाण-लब्धप्रज्ञ आघाय-आख्यापिका ९।११९ आढायमाण-आदर प्रदर्शित करता हुआ ८.१ आणंद-इष्ट की प्राप्ति से होने वाला मानसिक भाव ३६१ आणक्खेस्सामि (दे)-लाऊंगा ८७७ आणा-सूक्ष्मतत्त्वावबोध, अतीन्द्रियबोध २९७ • आत्मभाव, आत्मज्ञान, अर्हत् उपदेश २।२९ • श्रुत ४|४५ ० सूत्र का आदेश ६१७८ आणगामिय-भविष्य में साथ देने वाला ८.६१ आतीतट्ठ-कृतार्थ ८।१०७ आमगंध - भोजन की आसक्ति २।१०८ आयंक-शारीरिक-मानसिक दुःख १२१४६ __ • शीघ्रघाती रोग ५२८ आयंकदंसि-हिंसा में आतंक देखने वाला ३३३३ आयतचरख-संयतचक्षु, अनिमेषदृष्टिवाला २११३५ आयतजोग - मन,वचन और काया की संयत प्रवृत्ति ९।४।१६ आयतण-भोगसामग्री २।९१ आयततर-महत्तर पा८.१९ आयबल-शारीरिकबल आयाण-कषाय ३१७३ ० वस्त्र ६।३५ ० इन्द्रियां, परिग्रह ९।१।१६ आयाण-जानो ६।२४ आयाणसोय---इन्द्रिय-विषय आयाणिज्ज-अपरिग्रह २१७२ ० अनुकरणीय, ग्रहणीय ४१४४ ० वस्त्र, कर्म आयाणीय-संयम १।२४ आयारगोयर-आचार-व्यवहार आरंभ-हिसाजनित प्रवृत्ति ३।१३ ० अज्ञान, कषाय, नो-कषाय, असंयम ५१९० • वैयावृत्य-स्वाध्याय आदि करना, प्रवृत्ति ८।८।२ आरंभजीवि-हिंसाजीवी ३।३० आराम-आत्म-रमण ५।११७ आरामागार-आरामगृह ९।२।३ आरिय-आचार्य २।४७ ० तीर्थंकर २।११९ • अहिंसाधर्मविद् ४।२२ आलीण-इन्द्रिय-संवत आलुंप-चोर या लुटेरा २१३ आवकह-यावज्जीवन । ९।४।१६ आवकहा-जीवनपर्यन्त ९।१२२ आवट्ट संसार ११९३ • मन की चंचलता, मन का भ्रमण ३१६ ० आवर्त, चक्राकार गति ५।१८ आवीलए-साधना की पहली भूमिका ४।४० आवेसण-शिल्पशाला ९।२२ आस भोगाभिलाषा २।८६ आसंसा-अभिलाषा २१४५ आसव-आश्रव, कर्माकर्षक आत्म-परिणाम ४।१२ .पीडा, छिद्र काम।१० आसवसक्कि आस्रवों में आसक्त ५।१७ आसायणा-बाधा, परिहानि ६।१०४ आसुपण्ण-सर्वज्ञ आहंसु-बुलाया ९।३।४ इच्छाकाम-स्वर्ण आदि पदार्थ प्राप्त करने की कामना २।१२१ इच्छापणीय--इन्द्रिय और मन की विषयानुकूल प्रवृत्ति के द्वारा संचालित ४११६ इच्छालोम-निदान बाबा२३ इत्तरिय -इंगिनीमरण अनशन ८।१०६ ८९ Jain Education international Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० इहलोइय ( उवसग्ग) - मनुष्यों द्वारा कृत ( उपसर्ग ) उग्गह- अवग्रह, स्थान उच्चागोय सरकार-सम्मानाई गोत्र ९।२।९ २११२ २४९ उच्चालइय-परमतत्त्व में लीन ३६२ उज्जुकड - संयमकारी १।३५ उट्ठियवाय ' मैं उद्यत हुआ हूं' ऐसी घोषणा करने वाला ५।१७ उत्तरवाद - उत्कृष्ट सिद्धान्त ६/४९ उदरि-जलोदर रोग से ग्रस्त ६८ २१४ उवित्ता प्राणवधक, उत्त्रासक उद्देस - व्यपदेश, कथन २।७३ उच्यमाण -- अहंकारग्रस्त ५।६४ उम्मग्ग- उन्मज्जन-स्रोतों का निरोध और अपरिग्रह ३२५० ० विवर ६।६ -- उवक्कम - आयुष्य-विधातक वस्तु दादा६ उवरय-संयत, विरत अथवा संयम में निकटता से रत ३।४१ उवराय - उपरात्र-रात्री के अंतिम दो प्रहर ९।४।६ उबवाय जन्म ३।४५ ६।३० २।१८ ३।१९ ३१८७ ५। ५२ ३ ५५ ५।९६ ८५२ ९।२।११ ५।१७ उवसम-संयम उवाइयसेस - उपभोग के बाद बचा हुआ वाहि-व्यवहार व्यपदेश, विशेषण ० कषाय-जनित आत्म-परिणाम उवेहमाण -- निकटता से देखने वाला उवेहा—समझ, पर्यालोचन • मध्यस्थभाव एकसाड - एक शाटक वाला मुनि एगचर- अकेला घूमने वाला पारदारिक एगचरिया - एकलविहार, एकाकी चर्या एगत्तगय-- एकत्व - अनुप्रेक्षा से भावित एगप्पमुह-लक्ष्याभिमुख एगायतण- देहातीत चैतन्य एज-वायु एयाणुपत्ति कर्मविपाक को देखने वाला • वर्तमानदर्शी ९।१।११ ५। ५४ ५।३० १।१४५ २०५३ ३।६० १७ २।१६५ एयावंति इतने ओघ प्रवाह ओघंतर - कर्मजनितसंस्कार अथवा संसार के प्रवाह को तैरने वाला ओमचेलिय- अतिसाधारण या अल्प वस्त्र धारण करने वाला ओमाण - ऐसा भोज, जहां गणना से अधिक खाने वालों की उपस्थिति हो जाने के कारण भोजन कम हो जाए २।१६५ ८४८ ९।१।१९ ओमोरिय - अल्पीकरण ओय - अकेला • एक, वीतराग, मध्यस्थ अहिंसक, अपरिग्रही " ओववाह पुनर्जन्म लेने वाले o ओह प्रवाह ओहंतरप - संसार - समुद्र का पारगामी कप्पति — करता है कम्म – प्रवृत्ति, कर्म-पुद्गल कम्मकोविय – प्रवृत्ति-कुशल कम्मसमारंभ हिंसात्मक प्रवृत्ति विशेष कम्मोवसंति नए कर्मों को न करना और पुराने कर्मों का क्षय करना कयकिरिय- शरीर की साज-सज्जा करने वाला कसाइत्था - रुष्ट होकर दुर्व्यवहार करना कहकह- संशय करना काम-कामना कामंकम - कामाभिलाषी कामकामि विषयों की कामना करने वाला -- • भगवान् महावीर आचारांग माध्यम् ६/४० ५।१२६ ६।१०० केयण चलनी कामसमपुण्य कामप्रार्थी काल - समाधिमरण काल कालकंखि मृत्यु के प्रति अनुद्विग्न तटस्थ भाव से मृत्यु को देखने वाला कालपरियाय - मृत्यु कालेणुट्ठाइ - पराक्रम - काल में पराक्रम करने वाला कुंताइ - भाला आदि शस्त्र कुचर-चोर, पारदारिक कुसल - वीतराग, वीतरागता का साधक ● सर्वपरिज्ञाचारी, केवली खण-क्षण, मध्य खणयण्ण -क्षण को जानने वाला खम - कालोचित खेत्त-अनाच्छादित भूमि खेम - सम्यक् पालन खेयण्ण क्षेत्र को जानने वाला • क्षेत्र का अर्थ है - शरीर, काम, इन्द्रियविषय, हिंसा और मन-वचन काया की प्रवृत्ति । जो इन सबको जानता है, वह क्षेत्रज्ञ कहलाता है बंध परिवह • बन्धन ८।३७ १२ २।७१ ६।२७ २।१५० ४।५१ ५।१८ १०७ २।१५५ ५।८७ ९।२।११ ८।१०७ २१२१ २।१३४ २।१२३ २।७४ ५।९२ ३।३८ ५।५९ २1११० ९।३।१० ९।२८ २।९५ २।१८२ ५।६७ ३।४२ ५।२१ २।११० ८।६१ २५७ दादा६ २1११० ३।१६ ३।५० ८२५ Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ : विशेष शब्दार्थ ४७१ ४।२७ ५७१ २७ ३१४७ ३१४८ गढिय-बद्ध २।१२६ गति-प्रतिष्ठा, पदवी गामकंटय-इन्द्रिय-विषय ९/३७ गामधम्म-इन्द्रिय-विषय ९।४।३ गापिंडोलग-भिक्षु या अतिथि ९।४।११ गामिय-काम सम्बन्धी ९।। गिलासिणी-भस्मक रोग गुण-इन्द्रिय-विषय ११९३ गुणट्ठि-विषयार्थी १२६९ गुणसमिय–ईयासमिति आदि गुणों में युक्त गुणासाय--विषयलोलुप ५१५८ गुरु-दुस्त्यज, अनतिक्रमणीय ५।२ गेहि --कामासक्ति गोयावावी-जाति, कुल, बल आदि से युक्त गोत्र का अभिमान २०५० घासेसणा-आहार की एषणा ९।४।१० घोर (धम्म)—सभी आस्रवों का निरोधक संवर धर्म ६९१ चवण-मृत्यु ३।४५ चाई (वे)-सहन करने वाला ३७ चिट्ठे (दे)-गाढ, सघन ४।१८ चित्तणिवाति-चित्त को एकाग्र करने वाला ५।६९ चिरराइ—यावज्जीवन छउमत्थ-घनघाति कर्म से आवृत दशा ९।४११५ छंद-आसक्ति, स्वेच्छाचारिता ११७२ • इन्द्रिय सुखों की पराधीनता, दूसरों के अधीन रहना २१८६ ० इच्छा, अध्यवसाय, संकल्प श२५ छ8--दो दिन की तपस्या, बेला ९।४७ छण-हिंसा ३।२१ छणपय–हिंसात्मक कर्म २।१८० छय-इन्द्रियजयी, अनुपहत ५।१० जाति-जन्म, उत्पत्ति ३।२६ जाम-- अवस्था, वयोविभाग ८.१५ जायामाया--संयम-निर्वाह के योग्य आहार की मात्रा जीव-जीवत्व और आयुष्य कर्म के उपजीवी जुतिम-संयम जुद्धारिह-युद्ध के योग्य सामग्री ५२४६ झंझा (दे)-व्याकुलता ३२६९ झोसिए-आराधना की ५।४१ शोसित-सेवित, आचीणं ५१९८ गंदि-मानसिक तुष्टि, प्रमोद २।१६२ णाअ-हाथी ९।३।८ णाइ-ज्ञान ४८ णाय-नायक २११७० णालीया-शरीर से चार अंगुल बड़ी लाठी ९।३।५ णिइय--अपरिवर्तनीय स्वरूप ४/२ णिकरण -हिंसा का परिहार १२६१ निश्चित रूप से करना २।१५३ णिक्कम्मदंसि-आत्मदर्शी, मोक्षदर्शी णिक्खित्तदंड-हिंसा को छोड़ने वाला णिचय--संग्रह, संचय ३२३१ णिट्टियट्टि-कृतार्थ ५।११७ णिब्बलासय-निर्बल भोजन ५७९ णियग-आत्मीय जन णियम-परिमित काल के लिए भोग-उपभोग की वस्तुओं का प्रत्याख्यान २०५९ णियाग-मोक्ष ११३५ णिवाण-सहज आनन्द, चित्त की स्थिरता ६।१०२ णिविद-विरक्त हो, निश्चित जान णीयागोय-असत्कारार्ह गोत्र २०४९ णियाय-जानकर ५१४४ णिरुद्ध-परिमित, अल्पकालिक ४।३४ णिविज्ज-उदासीन होना ५९४ णिसन्न-- अनुन्नत, कृत-अनादर णिह-स्नेहवान् २११८६ णिह (३)-संग्रह करना २।११६ • छलना करना ४१५ णिहेज्ज-गोपन करना ५१४१ णूम (नम) (दे)-कर्म, माया ८1८।२४ त्त-इन्द्रियां तव-तप, स्वाद-विजय, आसन-विजय २०५९ तन्निवेसण-तनिष्ठ तस्सण्णी-स्मृति में एकाग्र ५२६८ ताण-क्रिया, चिकित्सा २१७७ तिप्पति-रोता है २११२४ तिप्पमाण-पीडित होता हुआ ८1८।१० तिरिच्छ-मध्यगत २।१३३ तिविज्ज-त्रिविद्य-पूर्वजन्म, जन्म-मरण और आस्रवक्षय-इन तीनों का ज्ञाता ३१२८ तुच्छ-विपन्न, दरिद्र २।१७४ तुट्ट-त्रोटक ६।११२ दइय-सम्मत ६७३ दंड-घात, हिंसा २।४२ ० कष्ट ५८५ वंत-इन्द्रिय और मन पर विजय पाने वाला ६।९३ दम-इन्द्रिय-विजय, कषाय-विजय २१५९ ४१४५ ४१ ८.३४ Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ आचारांगभाष्यम् १११४९ ३१७० ९४७ ५।३७ श६७ ३२ १११४५ २०३६ ९।३।६ ६१५५ ९।४।७ २।१६६ ३।६२ ३३५ २०६१ ६।२४ ४।२५ दविय -संयम के योग्य • राग-द्वेष से अपराजित दसम-चार दिन की तपस्या, चोला दिट्ठ-इन्द्रिय-विषय दोहराय-आजीवन दीहलोग-वनस्पति जगत् बुक्ख---अज्ञान, कर्म दुगुंछणा- जुगुप्सा दुगुंछमाण-प्रतिकार करता हुआ दुच्चरग - ऐसा गांव जहां विहार करना ___ कठिन होता है दुभि (दे)-अमनोज्ञ दुवालसम-पांच दिन की तपस्या, पंचोला दुस्वसु--दरिद्र दूरालइय-कामनाओं से दूर धम्म विउ-द्रव्य के स्वभाव को जानने वाला धुवचारि ---शाश्वत की ओर गतिशील धूयवाद-साधना की विशेष पद्धति निकाय स्थापित कर निधाय-परिहार निप्पीलए-साधना की तीसरी भूमिका निरामगंध-भोजन के प्रति अनासक्त नूम-माया पंत (दे)-तुच्छ पगंथ (दे)-आक्रोश करना पगप्प-मर्यादा पगम्भति-उच्छृखल व्यवहार करना पच्चासी-पुनः चाहना पज्जवजायसस्थ असंयम पडिग्गह-पात्र पडिलेहंति -विषयों में चित्त को स्थापित करते हैं पडिलेहा ---पर्यालोचना पडुच्च-- अपेक्षा से पण्णाणमंत-निश्चय दृष्टिकोण • चौदहपूर्वी, आचारांगधर पणियसाला-दुकान पंत-बासी भोजन, पर्युषित आहार तुच्छ ०पंतआसण-मिट्टी से लिपे-पुते स्थान • पंतसेज्जा-शून्यगृह पतेरस-तेरहवां पबुद्ध-अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, आगम-विशारद ९।३७ ४१४० २।१०८ ८1८।२४ ९।३।२ पया-स्त्री ५१५४ पर-श्रावक, संज्ञी, यथाभद्रक ८७५ ० गृहस्थ ९।१।१९ परम-पारिणामिक भाव, मोक्ष ३१२८ परमवंसि-पारिणामिकभावदर्शी, चैतन्यदर्शी ३२३८ परमाराम-परम सुखदायी ५७७ परलोइय (उवसग्ग)-तिर्यञ्चों द्वारा कृत (उपसर्ग) ९।२।९ परवागरण-आप्त-निरूपण ११३ परिजुण्ण-अभावग्रस्त १११३ परिण्णा -विवेक ११९ • दुःखमुक्ति का उपाय २।१७१ परिण्णायकम्म-कर्मत्यागी १।१२ परिणिवुड-शान्तचित्त ६।१०७ परितप्पति-संतप्त होता है २।१२४ परिघासेउ-भोजन कराने के लिए ८।२३ परिनिव्वाण-सुख ११२१ परिवएज्जा-तिरस्कार करता है २७ परिस्सव-कर्म-निर्जरण का हेतुभूत आत्म-परिणाम ४।१२ परिहरेज्जा-परिभोग करे २।११५ पलिउच्छन्न-कर्मों से आच्छादित ५।१७ पलिच्छिदिय–छिन्न कर ३।३५ पलिछिन्न-विजित ४।४५ पलिबाहरे (दे)-संकुचित करना ५।६९ पलियं (दे)-कर्म . प्रवृत्ति ६१४२ पलियंतकर-घात्यकर्मों का अंत करने वाला ३२७२ पलियट्ठाण-कारखाना ९।२।२ पवीलए-साधना की दूसरी भूमिका ४/४० पहेण (दे)-उपहारस्वरूप दी जाने वाली मिठाई २।१०४ पाण-आन-अपान, उच्छ्वास-निःश्वास से युक्त प्राणी पायपुंछण-रजोहरण ६।३१ पार-संयम २१३४ पारगामि-संयम के आराधक २।३५ पावग-अशुद्ध ९।१।१८ पावाइय--प्रवचनकार ४१३० पास-पाश-प्रेमानुबंधन पासय-द्रष्टा, वस्तुसत्य को देखने वाला २०७३ • अहिंसक, भगवान् महावीर ३७२ पासणिय--वासनोद्दीपक पदार्थों को देखने वाला ५२८७ पासिय-दृष्टिमान् ३७० पिहियच्च-कायिक प्रवृत्ति का संवरण करने वाला ९।१।११ पीढसप्पि-पंगुता ४।२७ ६।४२ ८७६ ५।५१ २।१३२ ३।१७ २।३२ २१३८ ५।१०५ ४.४७ ५९० ९।२।२ २।१६४ ९३२ ३।२९ ९।३।२ ९।२।४ ५।९० ६८ Jain Education international Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३: विशेष शब्दार्थ ३।४५ ३३४ पुढो-विस्तीर्ण २०५७ पुण्ण-संपन्न २।१७४ पुराणकुम्मास -बासी उडद ९।४।१३ पुलाक ---चने आदि का रूखा भोजन ९।४।१३ पेसल-कषायों का उपशमन ६।१०७ फरुस --कष्ट ९।३।१३ फरुसिय-कष्ट ३७ फल-चपेटा ९।३।१० फलगावयट्ठि-फलक की भांति छिला जाता हुआ ६।११३ फारुसिय-ज्ञान के अहं से गुरु की अवमानना ६७७ फास-आघात २१५५ ० कष्ट २।१६१ • इन्द्रियसुख ५.८५ • शीत, उष्ण आदि परीषह ६।९९ फुसिय--जल-कण, बूंद ५५ बंभ-आचार, सत्य, तप बंभचेर-आचार, मैथुन-विरति, गुरुकुलवास ४।४४ • आत्मरमण, उपस्थ संयम, गुरुकुलवास ५॥३५ ० चारित्र, गुरुकुलवास ६।३० बंभव-आचारनिष्ठ, सत्यनिष्ठ, तपोनिष्ठ बक्कस -सत्तू या चने का भोजन ९।४।१३ बाल-अज्ञानी २०७४ • हिंसा में प्रवृत्त २।१४५ बालभाव-अज्ञान ५११०० बालवयणिज्ज-साधारण जन के द्वारा भी निन्दनीय ६५६ बुद्ध--विवेकसंपन्न ४।४७ भंजग (३) वृक्ष ६७ भूत--जो थे, हैं और रहेंगे, वे प्राणी ४१ भेउरधम्म -- अनित्य २२९६ ० नष्ट होने के स्वभाव वाला ५२२९ भेरव - भयानक रूप मत्ता-मात्रा २०६५ मद्दविय --मार्दव, अहंकार-विवेक ६।१०२ ममाइय--ममीकार, ममत्व २।१५६ मरण-संसार, बाधासहित प्रवृत्ति २२९६ मह-महान् अर्थात् मोक्षलक्षी ५।११२ महाजाण-महापथ, क्षपकश्रेणी ३१७८ महामोह-अब्रह्मचर्य, विषयाभिलाषा २२९४ महावीहि-महापथ (अहिंसा, समता) ११३७ माइ-विषय-कषाय से संस्कारित चित्त वाला ३।१४ माणावादि-अपने गुणों की परिकल्पना से उत्पन्न मानवाद २२५० मायण्ण-मात्रज्ञ २।११० मार-मृत्यु अथवा काम ३१६६ • मदनकाम-विषयाभिलाषा ५३ माहण-अहिंसक मिहोकहा-कामकथा, भोजनकथा ९।१।१० मुणि-परम ज्ञानी, भगवान् महावीर २०७० ०ज्ञानी २।९९ मुयच्च-देह के प्रति अनासक्त ४।२८ मूढ-मोह से ग्रस्त, वयं और अवयं के विवेक से शून्य २११५१ मूल-राग-द्वेष, मोहनीय कर्म २३४ मूलट्ठाण-आधार २।१ मूसियार-बिल्ली ९।४।११ मेहावि-मर्यादावान् ११७० मोण--ज्ञान, संयम २।१०३ • अपरिग्रह का ज्ञान, संयम का अनुष्ठान ५।३८ • काम विरति ५८८ रायंस-राजयक्ष्मा राय-रात्र-रात्रि के प्रथम दो प्रहर ९।४१६ रायोवराय-पूरी रात ९।४।६ रिक्कासि (वे)-छोडना ९।१४ रह-जन्म-धर्मा ५।१३३ रूव-शरीर ५।२९ ० चक्षु इन्द्रिय का विषय, इन्द्रिय-विषय, पदार्थ ४९ लज्जमाण-हिंसा-विरत १।१७ लटि-शरीर-प्रमाण लाठी ९।३१५ लहुभूयकामि-लघुभूत-संयम, संयम की कामना करने वाला ३।४९ लहुभूयगामि लघुभूत अर्थात् वायु । वायु की भांति गमनशील, अप्रतिबद्धविहारी ३१४९ लाविय-लाधव, वस्त्र आदि की अल्पता ६।१०२ लाढ-अनार्य देश, पश्चिम बंगाल के तमलुक, मिदनापुर, हुगली तथा वर्दवान जिल्ले का हिस्सा ९।३२ लुपित्ता-प्रहार करने वाला २।१४ लूसग-उपद्रवकारी ६।९९ लूह-संयम ६।११० लूहदेसिय--रूक्ष भोजन ९।२३ लोग-शरीर २।१२५ ० लोभ, ममत्व २।१५९ • जीव समूह ३३३ लोगवित्त-लोक का चारित्र ५॥३२ Jain Education international Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ लोग लोभमति, ममत्व संज्ञा ० परिग्रह, पदार्थासक्ति लोकप्रवाहसम्मत, विषयाभिमुखता शरीर लोय - जगत्, लोयसंजोय-स्वर्ण आदि पदार्थ तथा परिवार का संयोग लोयालोयपवंच - लोक का दृष्ट प्रपंच बंकसमायार - मायापूर्ण आचरण काणिकेय - माया के आधारभूत वक्खायरय - सूत्रागम और अर्थागम में लीन भूमि-अनार्य देश बट्टमा वर्तुलाकार मार्ग वडमत्त - पृष्ठग्रन्थि का बाहर निकलना वण्ण यश, रूप • संयम बण्णाएसि वशलिप्सु वत्थु - आच्छादित भूमि, गृह आदि वत्थग (दे ) -- वस्त्र का भाव वय -अवस्था • संसार, गतिचक्र ववहार - व्यपदेश, विभाग वसट्ट - इन्द्रिय विषय तथा कषाय की अधीनता से पीडित वीतराग संयम वसुम - संयमी वासग-स्थलचर प्राणी विअंतिकारय – अन्तक्रिया करने वाला, सम्पूर्ण कर्मक्षय करने वाला विओवाय - व्यवपात, गिरना विगिचमाण - विवेक करने वाला विगह शरीर विषय - आचार, अनुशासन विणयण्ण - आचार तथा अनुशासन का ज्ञाता वितद्द - संवर धर्म के प्रतिकूल वितिगिच्छ समावन्न शंकाशील वितिगिच्छा - आशंका वितिमिस जन-संकुल विद्दायमाण - अपने आपको विद्वान् मानने वाला विधूतकप्प - धुताचार की साधना करने वाला • धुत का आचार विपरिसिह भोज के बाद बची हुई सामग्री विप्पणोल्लए -- समभाव से सहन करे दिपरामुख हिंसा करता है २।१५९ २।१८४ ३।२५ ५।५३ २।१६९ ३७० ५।५८ ४|१६ ५।१२२ ९।३।२ ५।१२२ ५।५४ ५५३ दादा२३ ५।५३ २५७ ९/१४ २।१२ २।१५२ ३।१८ ६।९५ ६।३० १।१७४ ६।१२ ८।६० ६।११३ ३।७९ ५।२१ १।१७१ २।११० ६।९२ ५।९३ ३।५४ ९ १४६ ८८७ ३।६० ६॥५९ २/६७ ५।२६ २।१५० विपसाय - चित्त की प्रसन्नता, चित्त की निर्मलता विपिया (३) चित विभए विभज्यवाद से कथन करना विमोह - अनशन विमोहायतण - प्राण- विमोह की साधना का आयतन अर्थात् अनशन aियड (दे ) – प्रासुक, निर्जीव विराग वैराग्य, चित्त की वितृष्णावस्था, निर्वेद विषिता ग्रामपातक विवित्तजीवि - राग-द्वेषमुक्तजीवी, एकान्तजीवी विवेग निर्ममत्व विसोत्तिया-चित्त की चंचलता (३) पृथ विस्से णि - छिन्न विह (वे) आकाश, फांसी वीर-पराक्रमी, सहिष्णु बुड्ढ – बुढापा वेयव - शास्त्रज्ञ वेयवि -- शास्त्रविद् संकमण-सेतु संघडि (वे) - जीमनवार संग-राम-द्वेष, बंधन ० राग ० आसक्ति, शांति का विघ्न संगंथ --- स्वजन का स्वजन संगामसीस-युद्ध का अग्रिम मोर्चा संघड (वे ) -- निरंतर संघडवंसि - प्रतिक्षण उपयुक्त, सतत जागरूक संघाडि कंबल आदि वस्त्र संतदत्तर - एक अन्तर वस्त्र और एक उत्तरीय वस्त्र संति - निर्वाण, बाधारहित प्रवृत्ति संथय-सहवासी संधि - विवर आचारांग भाष्यम् o • हड्डियों की जोड़ • अभिप्राय • अतीन्द्रिय चेतना में हेतुभूत कर्म - विवर • शरीरवर्ती करण चैतन्य- केन्द्र, चक्र • ज्ञान दर्शन - चरित्र की समन्वित आराधना संपमारय मूर्च्छा संवाहण - मर्दन 2 संवाहा बाधा, परीषह उपसर्ग संविद्धपह स्वीकृत मार्ग से अच्युत संसोहण - विरेचन - } ३।५५ ६।१०९ ६।१०१ २५ ८।६१ ९।१।१८ ३। ५.७ २।१४ ३।३८ ५।४७ १।३६ ८१०७ ६/६८ ८५८ ६।९८ ३।२६ ३१४ ४५१ २६१ ९।१।१९ ११७३ ३।६ ६।१०८ २२ ६।११३ ४५२ ४५२ ९।२।१४ ८५१ २९६ २२ २।१०६ २।१२७ ३।५१ ५।२० ५।३०,४१ १।३० ९/४/२ ५।६५ ५.५० ९/४/२ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T रिशिष्ट ३ विशेष शब्दार्थ सगडभि अपने द्वारा कृत कर्मों को भेदन करने वाला ३।७३ सच्च - सत्य, सद्भाव, सार्वभौम नियम, ऋजुता आदि ३।४० • वस्तु का यथार्थ स्वरूप मोक्षामतापी ३।६५ सहिद ३१८० २/३३ ५।१३६ ११ ४। १ सण्ण-निमग्न • सर्वतः चैतन्यमय सण्णा - संज्ञा, अवबोध सत्त-- सत्त्व - शुभ - अशुभ कर्मों की सत्ता वाले प्राणी सन्निवय- अनाज, घृत आदि किंचित् कालस्थायी पदार्थों का संग्रह सन्निहि ओदन, राधे हुए चावल आदि शीघ्रविनाशी पदार्थों का संग्रह सबलत्त - सफेद कोढ सभा - ग्राम - संसद् समष्णमुनिपद की बर्हता प्राप्त • उद्यत विहारी • दार्शनिक दृष्टि तथा वेश से समान समण्णागय - जागरूक समय - सांकेतिक कथा समयण्ण-स्व पर सिद्धान्त का ज्ञाता समाधि - मन की एकाग्रता, चित्त का समाधान समित लक्ष्यगामी समिय – सम्यक् प्रवृत्त समियापरियाय- समता का पारगामी समुट्ठाय प्रव्रजित होकर समुस्सय - शरीर सम्म सम्यक्त्व २।१८ २1१८ २।५४ ९/२/२ ५।९६ ६७८ ८। १ ६९७ ९।१।१० २११० ५।९३ ३।३८ ४/४१ ५।२७ २।३१ ४ ४४ ५। ५७ ५।११६ २७७ २८७ ० सत्य सरण --- शरण अर्थात् व्याधि का उपशमन सल्ल - कर्म, कर्म विपाक सव्वकम्मावह सब कर्मों का आवहन करने वाला सव्वजोणिय – प्रत्येक योनि में उत्पन्न होने के योग्य सम्वतो - सर्वत्र, सर्वथा, सर्वकाल सम्वपरिणचारि - सम्पूर्ण रूप से विवेक से आचरण करने वाला २।१७९ ९।१।१७ ९।१।१४ ६।३८ सव्वसमण्णागयपण्णाण - सर्व विषयग्राही ज्ञान, सर्वेशान ० पूर्ण सत्यप्रज्ञ सायंति सभी सव्वेसणा-सात प्रकार की पिण्डेषणाएं सहसरकार अविश्यकारी सहसम्मुइ स्वस्मृति सहिअ सहनशील सामारियमंयुन भूमि-अनार्य देश सोयविय - शौच, अलोभ सोवाग - चांडाल हृम्यगार्हस्थ्य ४७५ सामयि सामग्री, उपकरण-समूह - सामत्त कोढ का रोग सामास -- सायंकालीन भोजन साय-सुख साला भींत रहित आवास - सासय — त्रिकालावस्थित सिय-तत्त्वज्ञान से युक्त सिविषय हाथीपगा सिलोय - श्लाघा, सीओसिणच्चाइ - अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थति को सहने वाला प्रसिद्धि ३७ सीतोब सचित्त जल तथा भोजन ९।१।११ ९।४।१३ सीर्यापिड - बासी भोजन सीवकास स्त्री परिषद् तथा सत्कार पुरस्कार परीषह ८५७ मुसा अलेपकृत भोजन ६।५३ ९।३।२ ६.५५ ९।४।१३ हास आमोद-प्रमोद हिरी लग्नाकारी हुरत्या (वे) – बाह्य, बाहिर १७४ ५।५५ १७८१७ ६।५३ २३ १।३ ३।६७ सुब्मि (वे) - मनोज सूइय--- व्यंजन सहित भोजन सूणिम-शोष ६८ सेय - इन्द्रियातीत या पदार्थातीत सुख, हित, कामना ३६७ सोत-इन्द्रिय ५।११८ ५।१० ८४९ २।५४ २1१०४ ५।५२ ९।२।२ ४२ ५।९४ ६।८ ६।९६ ६११०२ ९।४।११ २/३४ ३।३२ ६।४५ ५।१२; ८२१ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ४ परिभाषापद २०५१ १९२ १५. महामुनि ४।१० १. अंधा १३. पंडित • संति पाणा अंधा तमंसि वियाहिया । • खणं जाणाहि पंडिए । રા૨૪ २. अग्रन्थ ० पंडिए णो हरिसे णो कुज्झे। ० णिहायदंडं माणेहिं, पावं कम्मं अकुव्वमाणे एस महं ० ते अणवकंखमाणा अणतिवाएमाणा दइया मेहाविणो अगंथे वियाहिए। पंडिया। ८.३३ ६.७३ १४. परिजातकर्मा ३. अनगार ० तं जे णो करए एसोवरए, एत्थोवरए एस अणगारेत्ति • जस्सेते छज्जीव-णिकायसत्थसमारंभा परिणाया भवंति, से हु मुणी परिण्णायकम्मे । २१७७ पवुच्चइ। ४. अनिवान . सव्वं गेहिं परिण्णाय, एस पणए महामुणी। • जे णिव्वुडा पावहिं कम्मे हि, अणिदाणा ते वियाहिया। ४।३८ १६. मनि 1. अमायी . पण्णाणेणं परियाणइ लोयं, मुणीति वच्चे..." । ० उज्जुकडे नियागपडिवन्ने अमायं कुब्वमाणे वियाहिए। १।३५ . सुत्ता अमुणी सया, मुणिणो सया जागरंति । ६. कुशल १७. मेधावी • कुसले पुण णो बद्धे णो मुक्के । २।१८२ ० अरई आउट्टे से मेधावी। २२७ ० जे छेए से सागारियं ण सेवए। ० से मेहावी अणुग्घायणस्स खेयण्णे........। २।१०१ ७. त्रिविद्य • मेहावी सव्वं पावकम्मं झोसेति । ३१४१ ० तम्हा तिविज्जो परमं ति णच्चा। ३२८ • सच्चस्स आणाए उवट्ठिए से मेहावी । ३।६६ ८. बंड ० सड्डी आणाए मेहावी। ३८० • जे पमत्ते गुणट्ठिए, से हु दंडे पच्चति । ११६९ १८. लूषक ९. वृष्टपथ ० वसट्टा कायरा जणा लसगा भवति । ६।९५ • से हु दिलृपहे मुणी, जस्स णत्थि ममाइयं । • से हु दिट्ठपहे मुणी। ० से वसुमं सव्वसमन्नागयपण्णाणेणं अप्पाणेणं अकरणिज्ज पावं कम्म। १०. धर्मविद् ५५५ • णरा मुयच्चा धम्मविदु त्ति.......। • पण्णाणेहिं परियाणइ लोयं....."धम्मविउ ति । . पणया वीरा महावीहि । ३२५ ११३७ • एस वीरे पसंसिए, जे बद्धे पडिमोयए। २।१२० ११. नग्न •णारति सहते वीरे, वीरे णो सहते रति । २११६० • एते भो ! णगिणा वुत्ता, जे लोगंसि अणागमणधम्मिणो। ६।४७ • पंतं लूह सेवंति वीरा"..." । २।१६४ १२. निर्ग्रन्थ • ण लिप्पइ छणपएण वीरे। २।१८० • सीओसिणच्चाई से निग्गंथे.... । • जागर-वेरोवरए वीरे। २११५७ १९. वसुमान २०.वीर १२. Jain Education international Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ५ टिप्पणों में उल्लिखित विशेष विवरण १८५ १९३ our २२६ १२१ १२३ २२८ २४२ सहसम्मुइ-स्वस्मृति सोऽहं-कालिक अस्तित्व का सूचक दिशा : भेद-प्रभेद महापथ जल के तीन प्रकार मूर्छा : भेद-प्रभेद वनस्पति की ज्ञानात्मकता प्रवृत्ति का मुख्य स्रोत-अन्त:करण इन्द्रिय-परिज्ञान की परिहानि के विषय में डा० कार्लसन का मत वय के आधार पर शक्ति-हानि का क्रम परिग्रह के संबंध में सुख-दुःख भोजन : भोग भी, त्याग भी दोषपूर्ण भोजन से चारित्र की अविपक्वता पुनरुक्त कब ? कैसे ? धर्मोपकरण के प्रति भी अनासक्त १२६ शरीर की ब्रह्मांड से तुलना काम-मुक्ति के आलंबन त्राटक तथा ध्यान की तीन पद्धतियां १२९ सन्धि-दर्शन-विभिन्न मत मूढ की मनोदशा १३४ अर्थलोलुप और मृत्यु चिकित्सा : एक अनुचिंतन - १३७ एक जीव की हिंसा : सब जीवों की हिंसा १३९ एक अव्रत का आचरण : सभी अव्रतों का आचरण १३९ कर्म नहीं तो कर्म-बंध भी नहीं। १४१ अरति और रति को सहने का विवेक १४३ रूक्ष आहार बलप्राप्ति का साधन : महाभारत के अनुसार १४५ व्यावहारिक सम्यग्दर्शन अप्रमाद के सूत्र १४९ क्षेत्रज्ञ: गीता के संदर्भ में उपधि पारिणामिक भाव १७२ आतंकदर्शनपूर्वक पाप-वर्जन : बौद्ध दर्शन के आधार पर १७४ निष्कर्म आत्मा १२८ १२९ उपेक्षा का विशेष अर्थ १८३ F३५९-६० की विशेष व्याख्या १८६,१८७ यथार्थ ज्ञान है निग्रह स्वपर्याय परपर्याय शस्त्र अशस्त्र कुमारिलभट्ट का प्रश्न २०७ क्षेत्रज्ञ कौन ? २०८ ज्ञाति का अर्थ २११ दृष्ट, श्रुत, मत और विज्ञान के अर्थ में भिन्नता २११,२१२ 'णिह" की मीमांसा २२२ एकत्व भावना २२२ कर्म-शरीर का प्रकंपन कैसे ? २२३ ४१३४ की प्रकारांतर से व्याख्या २२६ तीसरी भूमिका है शरीर-त्याग की २२६ 'शारद' शब्द की मीमांसा 'जस्स नत्थि पुरा पच्छा' निष्कर्म-दर्शन २३० संशय : सत्य प्राप्ति का हेतु 'रूप' शब्द की मीमांसा २४३,२६१ 'विद्या' शब्द की मीमांसा 'संधि' विषयक आयुर्वेद की मान्यता २४७,२४० मर्म-स्थान २४८ अन्तर्मुखता का उपाय-शरीर-दर्शन २४९ 'अप्रमत्त' के विभिन्न अर्थ २५५ 'समिया' के तीन अर्थ २५६ 'सोच्चा' और 'णिसामिया' में भेद २५६ उठना-गिरना-चार विकल्प 'यतमान' की चूर्णिगत प्राचीन परम्परा २५९ पातंजल योगदर्शन के अनुसार 'यतमान' वैराग्य की एक अवस्था २५९ साधु-जीवन की स्थिरता के सात सूत्र आत्मयुद्ध गर्भ-दुःख 'एकात्म-मुख' की मीमांसा ज्ञान और आचार का अविनाभाव २६४ 'दूइज्जमाण' की अर्थ-मीमांसा २६५ २४५ १३१ १३५ २५८ १४९ १६५ WWWWW mmm * १७० Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ आचारांगभाष्यम ३६१ ३६२ ३०४ ३०४ ३७९ व्यक्त-अव्यक्त कौन ? २६५ तद्दिट्टीए तम्मोत्तीए""का व्याख्या भेद २६७ कर्म-बन्ध विषयक पर्यालोचन २६९ प्रभूतदर्शी कौन ? .२७० सनिमित्त और अनिमित्त कामोदय की मीमांसा २७२ 'व्याख्यातरत' का अर्थ २८९ चैतन्य का जघन्यतम भाग २९३ आयुर्वेद के अनुसार विभिन्न रोगों की मीमांसा ३०२,३०३ आचारांग चूणि और वृत्ति के अनुसार रोग-मीमांसा ३०३,३०४ उपपात और च्यवन अंधकार अचिकित्सा धुत ३०८,३०९ परीषह-सहन की विधि ३१३ काम का पार पाना असम्भव ३१४ अप्रमादसूत्र ३१४ एकत्वानुभव ३१५,३१६ मुंड के प्रकार ३१७ पलिय की व्याख्या ३१७ सम्यक् चिन्तन के प्रकार आणाए मामगं धम्म उत्तरवाद क्या ? ३२० श्मशान प्रतिमा ३२२ स्वाख्यातधर्म ३२३ समत्त और सम्मत्त की व्याख्या ३२५,३२६ विभिन्न तीर्थंकरों के काल में आयुष्य-परिमाण ३२७ प्रज्ञान का विशेष विवरण ३२७,३२८ अवज्ञा करने का निषेध ३२८ संयम-स्थानों का संधान ३२९ संदीन-असंदीन द्वीप ३२९ दिन में वाचना की प्राचीन परम्परा ३३१ . उपशम के तीन प्रकार ३३१ ज्ञान के अहं से गुरुजनों के निरूपण की अवमानना ३३२ आरम्भार्थी की व्याख्याद्वय ३३६ अनुवदमान लूषक ३३९ दान की प्रशंसा और निषेध ३४३ प्रवचनकार की अर्हताएं :४३ बहिर्लेश्य-अबहिर्लेश्य ३४४ आसक्ति को छोड़ने का अर्थ है आसक्ति को देखना ३४५ 'विप्पिय' की व्याख्या मृत्यु के समय मूढता न हो समनुज्ञ : असमनुज्ञ ३५७,३५८ हिंसा अदत्तादान भी है ३५९ विभिन्न दर्शनों की 'लोक' विषयक मान्यताएं एकांतवाद आशुप्रज्ञ की व्याख्या गुप्ति है भाषासमिति ३६२ धर्म ग्राम में या अरण्य में ? ३६३ 'याम' पद के विभिन्न अर्थ ३६४ प्रव्रज्या-ग्रहण की अवस्था के विषय में विभिन्न मत ३६४,३६५ कर्म-समारम्भ विभिन्न मतों में ३६५ श्मशान आदि पदों की जानकारी ३६७ ८/२४ चूर्णि की भिन्न परम्परा मध्यमवय में प्रव्रज्या क्यों ? ३७० उपपात-च्यवन ३७१ आहार क्यों ? ३७२ सन्निधान का यथार्थ अर्थ ३७२ तीन वस्त्र की प्राचीन परम्परा ३७३ शीत स्पर्श से प्रकंपमान का काव्यशैली में वर्णन ३७३,३७४ वस्त्र धोने, न धोने की प्राचीन परंपरा ३७५ अवमचेलिक कौन ? ३७६ शीत परीषह है स्त्रीपरीषह या कामभोग ३७९ मुनि फांसी लगाकर प्राण त्याग कर दे, कब ? सदृशकल्पिक कौन ? ३८२ भाव-संलेखना और द्रव्य-संलेखना की विधि ३८७ समाहितार्च कौन ? ३८८ संलेखना कब ? तीन प्रकार का उत्थान ३८८ इत्वरिक अनशन कब? कैसे? ३८९,४००,४०१ वसुमान् कौन ? ३९५ समाधि-मरण-अनशन के तीन प्रकार ३९५,३९६ आनुपूर्वी अनशन का स्वरूप ३९६ अनशन में आहार के समीप जाने का निषेध ३९६ अनशन काल में मुनि का कर्तव्य ३९७ अध्यात्म की एषणा का पहला चरण ३९७ उपशम की अवगति होने पर क्या करे ? ३९७ अनशन काल में प्राणी शरीर का भक्षण करते हों, तो ___ मुनि क्या सोचे? ३९९ प्रायोपगमन या पादपोपगमन ? पादपोपगमन की श्रेष्ठता भावाभिव्यञ्जना से) जब तक प्राण तब तक परीषह और उपसर्ग आशंसा के प्रकार देव द्वारा शाश्वत काम-भोग का प्रलोभन अनुमिता शरीर का अनुवासन उपसर्ग का हेतु ४१२ ३८८ ४०२ or . ० ० 200 ० ३४५ ४१२ Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ५ : टिप्पणों में उल्लिखित विशेष विवरण ४७६ ४२७ ४२८ ४२९ एकशाटक की परम्परा त्राटक ध्यान तिर्यगभित्ति ध्यान ४१३,४१४ डा. जेकोबी का संदेह और अर्थ-विपर्यास वीणा-वादक और भगवान महावीर भगवान् के अभिनिष्क्रमण पर पारिवारिक लोगों की प्रार्थना ४१६ सर्वयोनिक उत्पाद दो स्रोत-इन्द्रियां और हिंसा । ४१९ दो स्रोत-देहासक्ति और आराम । भगवान् करपात्री : चूणि निर्दिष्ट परम्परा अवमान भोज भगवान् की अनासक्ति भगवान् अप्रतिज्ञ थे, कैसे? ४२३ प्रपा-प्याऊ के प्रकार ४२४ श्मशान-वास की चूणि परम्परा ४२५ भगवान् की साधना के तीन अंग ४२६ ग्राम्य उपसर्ग ऐहलौकिक पारलौकिक उपसर्ग भगवान् की अकषायित वृत्ति अनगारपद से अन्यतीर्थिक तथा पार्वापत्य का ग्रहण ४३० भगवान् का लाढ प्रदेश में उपसर्ग ४३२ लाढ प्रदेश तथा जनता का परिचय ४३२,४३३,४३४,४३७ आयुर्वेद के अनुसार संशोधन के लाभ ४३८ पंचकर्म चिकित्सा भगवान् चिकित्सा नहीं करते ४३८,४३९ अन्नग्लायक ४४४ भगवान का ध्यान ४१८ ४२१ ४२२ Jain Education international Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-६ देशीशब्द (अर्थ के लिए देखें परिशिष्ट-३) अदु'-९।११५,१४; ९।२।८; ९।३।१०।९।४।४,१०,११,१३ आणक्खेस्सामि-८७७ एयावंति सम्वावंति'-१७ गेहि-६।३७ चाई-३७ चिट्ठ-४११८ झंझा-३१६९ णिह-४१५ गूम (नूम)--८।८।२४ दुम्मि-६५५ पंत-९३२ पगंच-६।४२ पलियं-४१२७ पलीबाहरें-५२६९ पहेण-२११०४ पाएज्ज-८१ पासणिअ-५८७ भंजग-६७ रिवकासि-९।१४ वत्थर्ग-९।११४ विप्पिया-६१०९ वियर्ड-९।१।१८ विस्सं-८१०७ विह-८५८ संखडि-९१२१९ संघड-४।५२ सुमि --६।५५ हुरत्था-५॥१२; चा२१ १. आचारांग चूणि, पृष्ठ ३०० : अदुत्ति सुत्तभणितीते अह इति वुत्तं भवति । २. आचारांग वृत्ति, पत्र २५६ : एतत् क्रियापदं देशीपद___ संबद्धमेव संभाव्यते। ३. आचारांग वृत्ति, पत्र २५ : एतौ द्वौ शब्दो मागधदेशी भाषाप्रसिद्धचा एतावन्तः सर्वेऽपीत्येतत्पर्यायौ। ४. देशीशब्दोऽयम् । ५. आचारांग चूणि, पृष्ठ १८४ : प्रतीपं आहरे जंतुं दृष्ट्वा संकोचए देसीभासाए । ६. आचारांग चूर्णि, पृष्ठ २४९ : पाएज्ज तहा पादिज्ज ___ भोइज्जा, तीयग्गहणं देसीभासाओ असित पीतं भण्णति । ७. आचारांग चूणि, पृष्ठ ३०० : वत्थभावो वत्थता, देसी___ भासाए वा सुत्तभणितीए । ८. आचारांग चूणि, पृष्ठ २८३ : देसीभासाओ विहं पिहं । ९. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ १६१ : हुरत्या णाम देसी भासातो बहिद्धा। (ख) वही, पृष्ठ २६१ : हुरत्थं बहिता गामादीणं देसीभासा उज्जाणादिसु । Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ७ धात : धातुपद ३।६२ पप्प उवेह ४।५२ ६.९१ अच्छ (आस्) अब्भाइक्खेज्जा ११३९,६६ समेति ६।२८ अच्छइ ९।४।४ आढा (आ+दृ) अइअच्च अट्ट (अ) आढायमाणे ८.१,२,२८,२९ समेमाणे अणुपरियट्टमाणे २१५६,१२६ आणव (आ+ज्ञप) इन्छ (इष्) अणुपरियट्टइ २०७४,१८६ आणविज्जा ५॥१२ इच्छसि अणुपरियटॅति ५।१८ आणवेज्जा ५।८६; ८।२४,४२ ईर (ईर्) अत्थ (अर्थ) आव (आप) उदीरिए ६१९१ अभिपत्थए ५।१०३ २१७२ समीरए ८1८।१७ पत्थए ८८४ आस (आस) ईह (ईक्ष) अरिह (अहं.) अहियासमाणे २११६१ संपेहाए २१५,११,२३,९६ ; ४।३२, अरिहए ३१४२ अहियासए ५।२८, ६।९९; ८।२५ ३४; १४४; ६८ अस (अस्) अहियासए ८।८।८.१०,१३,१८, पेहाए ।१३८% ९१२१९।४।१० अंसि १११,३, ६।३८,९१, २२; ९।२।१०,१५; उहाए ३।५५ ५।३२,९६,११९ ८।५७,७५,९७; ९।३।१,७ ४२७ ९।२।१२ अणहियासेमाणा ६.३२ उवेहमाणा अस्थि ११२, २०६२,७३, अहियासेज्जासि ६।५८ उवेहमाणे ५५० १५७,१७६,१८५; अहियासेति ६।६२,८।११२ उवेहाहि ५२९७ ३१७५,८२,८५% अहियासित्तए ८१४१,५७,१११ उवेहइ ४।८,१६,२०,२२,२३, आसिसु ९।२।६ सपेहिया दादा२३ ४५,४६,५३,५३०, आह (ब) ९।१२१ १३९,६३८८९७ आहु ४।२९; ५:१८ पेहमाणे ९।२।११।९।४।७,१४ संति ११६,५४,८५,११८,१२५, आहंसु ९।३१४ उट्ठभ (अव+ष्ठीव) १६४६।९, ९।११३ इ (इ) उभंति ९।३।११ मो श८,४१,७२,१००,१२७,१५१ १८५७.७३ एस (इष्) सिया २१८८ ३.५४,४८,४६,५५४३ अभिसमेच्चा ११३८3३८१४।१२; अण्णेसि ११७५ संता ४।१४ ६।६५,९८, ८।५६,७४, अन्नेसिं अंसी ६।८७ ८०,९६,१००,१०४,११५, एसए ८1८1५ आसी श२९।२।४,७; ९।४।३,१६ १२४; ९।३७ पाउरेसए ८1८।१७ आइक्ख (आ+चक्ष) अच्चेइ २।१२,१६९; २१२२ एसंति ९।२।१३ आइक्खंति ४।१६८२ उवेइ २१६०,६९, ५६ एसे ९।४।९ आइक्खह ४।२२ उवेति २११५१ एसिया ९।४।९ आइक्खामो ४।२३ ३।१४ एसिस्था ९।४।१२ आइक्खमाणे ६।१०४ ३१३१ कंख (कांक्ष) आइक्खे ६।१०१,८।२६ समिच्च ४।२९।१।१६ अवकखंति १३१४९; २०६१, ३७८ आइक्खेज्जा ६।१०३ समेमाणा ४१० अवकंखति १३८ अब्भाइक्खइ अतिअच्च ६।१०।९।१६९ अणवकंखमाणा ६७३८।३२ उपेहाए एति एंति Jain Education international Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ आचारांगभाष्यम् कारेइ कुज्झे कंखेज्ज ६।११३ कर (कृ) किट्टे ६।१०१ अभिकंख ८।१२०,१२१ अकरिस्सं १६ किण (को) अभिकखेज्जा ८1८४ कुव्वमाणे १६३५ किणे २।१०९ कंड्य (कण्डूय्) पकुव्वमाणे २।६९,८५,२६ किणावए २११०९ ___कंडूयये ९।११२० कारवेसुं १६ किर (क) कंद (क्रन्द) अकासी ११७०९।४।८ अवकिरिसु ९।३।११ कंदति २।१३९ करिस्सामि २९०,२१५,१४३ किलेस (क्लिश) कंदिसु ९।११५९।३।१० ६।९३ किलेसति ६।१३ कंप (कम्प्) कज्जइ २।१८,१०५ किलेसंति ६५७ अविकंपमाणे ४१३४ पकरेंति १११७३ कत्थ (कथ) कज्जति २।४३ अपलिउंचमाणे ८।४७,६६ कत्थइ २११७४ कज्जति २११०४ कच (कुच्) करेइ कप्प (कृप्) २११३४,१४४; ३३५४ संकुचेमाणे ५७. कप्पइ २०१४६ संकुचए दादा१५ कप्पति २।१५०८१४१,१११ कुज्जा २१४९, ५८०८।१,२, कुज्झ (क्रुध्) पकप्पेंति ४।१० २८,२९,१०६ २०५१ पकप्पयंति ४।१६ कारवे २।१४९ पकप्पेति ६।८६ पकुव्वति २११५२ विउटैंति १२६० कप्पे ९।४।२ णिकरणाए २।१५३ आउट्टे २।२७ कम (क्रम) करेति ३।२८,३३ अणाउट्टे ९।१।१७ णिक्खम्म २।३७, ५॥१२०; करेंति ३।३१ कुप्प (कुप्) ६७९,९।२।६,१५ किच्चा ८।१०५,१२५, ८।८।३ कुप्पिज्जा २।१०२ परककमज्जासि २।१५९, ३३२५; अकुव्वं ९।१।१८ कुप्पंति ५१६३ ४।११,५२११७; ६।९८ कारित्था ९।४।८ खण (खन्) विपरक्कमा ५२३४ कुग्वित्था ९।४।१५ ८२५ अभिक्कममाणे ५७० पगड ३।३९ खल (स्खल) पडिक्कममाणे ५७० कुव्वह ३१४० खलइंसु ९।३।१२ विपरक्कमंति ५।११,६६८ खा (ख्या) विउकम्म ८२ करिस्सति ५७६ अक्खायं ११ उवाइकम्म ८।१२ अकुव्वमाणे ८.३३ संखाय २१५०६१०७ परक्कमेज्ज ८।२१,२३ सहसाकारह ८.२५ आघाइ ४।१३; ६३१ उवसंकमित्तु ८.२१,२३,४१ कस (कृश्) पडिसंखाए ५१०५ अवक्कमेज्जा ८।१०६,१२६ कसेहि ४।३२ अक्खाइ ६४२ अवक्कमेत्ता ८.१०६.१२६ कस (कृष्) संखाए ६।४३, ८/८२, ९।२१,१३ परक्कमे ८।८।१६।९।१।२२, उक्कसिस्सामि पच्चक्खाएज्जा ८।१२६ ९।४।१२ वोक्कसिस्सामि ६६० पडियाइक्खे ९।१२१५ अभिक्कमे ८।८।१५ उक्कसे कामा१८ आइक्ख ९।२।१ पडिक्कमे ८।८।१५ विउक्कसे ६८७ अक्खाया णिक्खते ९।१।११ कह (कथ) खिस (खिस्) परक्कममाणे ९।११९, ९।४।१५ परिकहिज्जइ २११३६,४।९ खिसए २११०२ चंकमिया ९।२।६ किट्ट (कृत्) खिव (क्षिप) पडिणिक्खमित्त ९।३।९ ५७४; ६३ णिक्खिवे खणह कटु Jain Education international Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ७ : धातु : धातुपद ४८३ ५२५१ ६।१८ गम्भ (गल्म्) पगब्भति पगभइ गम (गम्) आगओ गमित्तए गच्छेज्जा आगमित्ता आगमेत्ता अणुगच्छंति गच्छति आगममाणे ४।४१ चइत्ता चिच्चा चय (शक्) संचाएमि चाएमि चाएइ चाएति चर (चर्) अणुसंचरइ चरे ११ २०७१ ३१५७; ४१६; २६९ २१२ ५८६८।२४,४२ ५९४ ४॥३९ ६।६३,८५४,७२, ७८,९४,९८,१०२, ११३,१२२ ९१२३ ९।११७,१९ ९।१।१० ९।४।१६ ६।३० जम (यम्) ६।४६ संजमति ५५१ . जय (यत्) ८।४१,१११ जयमाणे ४।११, ६.३९; ९।१।२१, ८.१११ ९।२।४ ९।२।१५ ९।४१ जर (ज) जरेहि ४।३२ ११४,८ जल (ज्वल) २।६१, ३।६१,४७; पडिसंजलिज्जासि ६।३५; ९।१२१ उज्जालेत्तए ८.४१ ३१४५ पज्जालेत्तए ८.४१ ३३५० उज्जालेत्ता ८४२ ८।१०१ पज्जालेत्ता ८।४२ ८८८ जा (जन्) ९।२।७,८ जायति २११४७ जायइ ३११९ २।६६५८९ जा (या) ४।१८ नियाइ २।१११,८।४० ४।५२ जंति णिज्जाइ ४१५१ ८।२१,२३ ८।८।१६ जागर (जागृ) ८।८।२० जागरंति चरेज्ज संचारेज्जा उवचरे उवचरंति चिट्ठ (स्था) चिट्ठ परिचिट्ठति परिचिटुिंसु चिट्ठति चिट्ठज्ज चिठे ८८२० ९।३३५ ३७८ ५८९ २।३१ २०३६ ३१ चिट्ठ चिट्ठते ९।४।१० जाण (ज्ञा) २१५८,६५ आगम्म गच्छति गच्छइ अभिसमागम्म गह (ग्रह) पग्गहे गहाय गाह (गाह) अहिगाहंति अभिगाहइ गिज्य (ग्रह) परिगिज्झ अभिणिगिज्झ गिज्झ (गृध्) गिज्झे अणुगिद्धे गिला (ग्ल) गिलाइ गिलामि गिलाएज्जा घास (घस्) परिघासेउ चय (त्यज्) परिच्चज्ज चयंति (यु) चओ १२ जाणे १११६९, ३३२७ परिजाणियव्वा जाणइ १।१४७ , २०१२५,३७४ जाणित्तु २२२,७८; ४१५,५२२४; १७ २१५० ९.१२० ८।२१ ८.२२ ८।२३,२४ २।१६७ ८।१०५,१२५ ३१४६ ३१४६ ८८।३ चेअ (चित्, चेतय) चेतेमि चेएसि चेएइ छण (क्षण) छणे छणावए छिद (छिद्) पलिच्छिदिया छिदेज्ज छिज्जइ पलिछिदिय वोच्छिदेज्जा छिदह जण (जन्) जणयंति ८०३ ३।३२ :४९ ३१५८ जाणाहि २।२४ जाण २०५२,१७६; ३३२,४१३५ जाणेज्जा १३; २।११३,३।६३; ५।११३;८१२,५०,६९,९२ समहिजाणमाणे ८८१ समभिजाणिया ५११६, ६।६५; ८।५६८।७४,८०,९६, १००,१०४,११५,१२४ समभिजाणिज्जा ८.९७ अणुजाणित्था ९/४८ समणुजाणइ ११२२,४५.७६, १०४,१३१,१५५; २।१०७,१०९ ४।५० ५८३ ८।२५ चए ४।२७ ५८४६७ ६२६ ६।२७ चयाहि विप्पजढा २०६ Jain Education international Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ आचारांगमाध्यम ४११ ४/२२ ४/२३ ६।४४; ९।१११३ ८६ ८/८७ ९।४।२ १४४ ४।५ विण इत्तु २०३७ ५।१३ ५।१२० ५।२६ २।२,४० २।१२४ ३७६ समणुजाणेज्जा ११३३,६४,८८, ११६,१४३,१६७, १७६; २।४६, ८।१८ अभिजाणइ २।९३ अभिजाणति ३१६,१० जाणित्ता ३।३,५१,७७ परियाणइ समणुजाणमाणा ८.३ जाणति २।३७,५।१२० अणजाणइ ३।४६ समभिजाणाहि ३१६५ जाणह ४।२०,२२,२३,८७ अभिजाणइ ५।१७ विजाणति ५२१०४ आयाण ६.२४ जाणिज्जा ६।९० समणुजाणमाणे ६।९१ जाय (याच्) जाएज्जा २२११२,८।४४,६३,८६; ८।१०६,१२६ जाइस्सामि ६६०८।४३,६२,८५ जाएता ८।१०६,१२६ जाव (यापय्) जावए ३।५८, ९।४।५ जावइत्थ ९।४।४ जीव (जीव) जीविस्सामो .६७९ जुज्म (युध्) जुज्झाहि ५।४५ जूर (खिन्) २।१२४ झा (व्य) णिज्झाइत्ता १६१२१ झाइ ९।१५; ९।४३ झाति ९।१।६,७,९।२।४,१२, ९।४।१४,१५ झोस (जुष्) झोसेति ३.४१ णिज्झोस इत्ता ३।६०, ६।५९ झोसिए ५.४१ दुज्झोसिए ५।४१ झोसमाणे ५।२०६५० अझोसयंता झोसेमाणे ठा (स्था) पण्णवेंति समुट्टिए २।१० पण्णवेह समुट्ठिया ३।४४।८।१५ पण्णवेमो उट्ठिए श२३ अभिण्णाय ठाइज्जा ५२८१ पण्णवेमाणा समुट्ठाए ६।९३ विण्णाय समुट्ठिता ८।३० परिण्णाए परिट्ठवेज्ज ८.५०,६९,९२ णिह (स्निह) परिवेत्ता ८.५०,६९,९२ अणिहे उट्ठाय ८।१०५,१२५; ९।१११ णिहा (देशी) ठावए दादा२१ णिहे उट्टाए ९।२।५,६ गो (नी) डज्झ (दह.) डज्झइ २।६८,८४,३१५८ परिणिज्जमाणे विडज्झमाणा ६७९ विणएत्तु डस (दंश) णोल्ल (नुद्) डसंतु ९।३।४ विप्पणोल्लए णम (नम्) तप्प (तप) परिणमिज्जा २।१०२ परितप्पमाणे नामे परितप्पति णममाणा ६।८३ तर (त) विप्परिणामेंति ६।८३ तरित्तए अणममाणे ६।९७ तव (तप्) णस (नश) परिताति णस्सति २।६८ परितावए विणस्सति २०६८ आयावेत्तए णा (ज्ञा) पयावेत्तए श२,४,२५ आयावेज्ज नच्चा १२१४६ पयावेज्ज णायं ११४८,७९,१०७,१३४,१५८ आयावई णच्चा ३।१३,२८,३३,४५; ४।२९; तस (त्रस्) ५२३४६८,१९, ८।३४; तसंति ८८७,२५, ९।१।१२,१५, परिवित्तसंति १६ तिउट्ट (७) णच्चाणं ९।४।८ तिउट्टति परिण्णाय ११३३,६४,७०,८८, तितिक्ख (तितिक्ष) ११६,१४३,१६७,१७६; तितिक्खए २।४६,६१,१०८,१३२, तितिक्खमाणे १५८,१७२,१८४; ३२४, तिप्प (तप्) ५०, ४१३१, ५।४३,५१, तिप्पमाणे ११७,१२१, ६।३७,५१, तिप्प (तिप) ८.१८,२०, ९।१६ तिप्पति २०७१, ३६६ १६१५,१२४ ६।१९ ८.४१ ८.४१ णातं ४२ जूरति ८१४२ ९।४।४ १।१२३ ६।१११ दादार ५।३७, ८1८।३ ६.४४ ८।८।१० ६७९ ८।२ २।१२४ Jain Education international Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५।१६ २।५९ पय (पत्) २०३६ ६।२३ परिशिष्ट ७ : धातु : धातुपद ४८५ तुयट्ट (त्वक् + वृत्) दिस (दिश्) पय (पच्) तुयट्टेज्ज ८।२१,२३ समुद्दिस्स ८।२१-२४ परिपच्चमाणे तुअर्टेज्जा ८८८ विस्स (दृश्) पचह ८.२५ थण (स्तन) दिस्सति थणंति ६७ अदिस्समाणे २।१०९, ३।२३,५८ संपयंति ११८५ बंस (दृश्) दुगुंछ (जुगुप्स्) अइवाएज्ज २।१०० उवदंसेज्जा ५१०० दुगुंछमाणे आवातए २।१३३ दक्ख (दृश्) दूइज्ज (द्रु) अतिवाएज्ज अदक्ख २।१०६,५।२० दूइज्जेज्जा ५८२ अणतिवाएमाणा ६७३; ८।३२ ५।१७,१११; अदक्ख पडिवयमाणे देव (देव) ६।९३ ९।३।३ परिदेवमाणा ९।१।१०,१७,१८ णिवतिसु ६।२६ पा (पा) दय (दय्) धर (धू) पाउं १२५९ दयइ ८.३७ विधारए ६७० अपिइत्थ ९।४।५ दल (दा) धारेज्जा ८।४५,४६,६४,६५,८७,८८ अपिवित्ता ९।४।६ दलइस्सामि ८।११६,११७,११८, धारित्तए ८।१११ पाउण (प्रा+वृ) ११९ धा (धा) पाउणिस्सामि दलएज्जा ८७५ संधेइ . १८ . पार (पार्) दस (दंश्) संधाति २१५५ पारए ८८।११:९।११२; ९।३।८ दसमाणे ९।३।४ णिहे २।११६,४।५ पाल (पल्) दह (वह) णिहेज्ज ५१४१ अणपालए ८।८।५,१९ दहह दा२५ संधिस्सामि ६।६० पास (दृश्) समादहमाणा ९।२।१४ परिहिस्सामि ६।६० पास २१७,४०,७१,९९,१२४, दा (वा) ८1८।२४ १२६,१५०; २।९७,९९; उवादीयमाणा १११६९ पिहिस्सामि ९१२ ३।१२,५२, ४११,२७, आयाय २०७२ पिहिया ९।२।१४ ३७, ५३७,९०, ६८, देति २।१०२ निधाय ९।३७ १४,२०,२२,६६ आइए पासा २।१०७, ८1५८ धुण (धू) - ११५६ पासति आइआवए २।१०७ २।१६२४॥३२,५।५९ १२९४; २।३७,१३० समादाय २११६२ धुणाइ ५१५,१२० ४१४४ पासमाणे समायाय संविहूणिय ३१२२ १२९४ ८।१०७,१२७ आदाय विधूणिया पासए ३।६७, ६॥३५ ८८।२४ २।११८ पासिय आइइत्तु ४५ धोअ (धाव) ३।११,४५; १६९ पासे णियाय ५।४४ धोएज्जा ८.४६,६५.८८ ३।२६,४९ समणुपस्सति ३२६७ समायाए ५१५९ नियच्छ (दृश्) दटुं ४१५१,५७५ आयाए ६।३० नियच्छति पासह समादियंति ५।१३,२९,९१, ६।५,९७, ६७७ पगंथ (देशी) १०८,८।३६ आइयंति पगंथे ६।४२,८९ पासहा ५।५७,११८ पाएज्जा ८.१,२८,२९ पज्ज (पद) समणुपासह ५.९९ पाएज्ज ८२ समुप्पज्जति २।१९,७५ पस्स दा (द्रा) ८८१८ पिड्ड (पीड़) उद्दायति १८५,१६४; ५७१ णिवज्जेज्जा ८1८।१३ पिड्डति २११२४ सद्दहे धुणे ८४ ६.९४ समुप्पज्जे Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ आचारांगमाष्यम् ४।४० ४।४० ४१४० २१४९ पील (पीड) आवीलए पवीलए निप्पीलए पीह (स्पृह) पीहए पुच्छ (प्रच्छ) पुच्छिस्सामो - पुच्छिसु पूर (पूर) पूरइत्तए पोस (पुष्) पोसेंति पोसेज्जा फास (स्पृश्) फासे फुस (स्पृश्) ४/२५ ९।२।११ ३१४२ २०१६ २०१६ ४।३६६।४६ फुसति ५२८६८,६१,९९; ८।२५,११२ बुज्म (बुध्) संबुज्झमाणे ९।११२३, ९।२।१६,९।३।१४; अभोच्चा ९।१।११ ९।४।१७ ९।४।६,७ बूया ४।२६,५२९७, ८।२१,४१ मत (मन्त्र) भम (भ्रम्) णिमंतेज्जा ८।१,२८,२९८1८।२४ विउन्भमे ८।८।१०,१९ णिमंतेज्ज ८२ भय (भज) मज्ज (मृज्) विभयंति २२६८,८४ पमज्जिय ८।१०६,१२६ विभए ६।१०१ पमज्जए ८८९ भइत्ता ८।१०७,१२७ पमज्जिया ९।१२० भव (५) संपलिमज्जमाणे ५७० भवइ १११,४,१३४,१५८,२१६५, मण (मन्) ६७,८१, ६।६०,९६,१०५; मंता १२९१,३।१२ ८८५,९७,९९,१०३ मण्णमाणे २०१५,४४,१४३; ५१६ भविस्सामि १२,४ मन्नति ३१३२ भवंति १७,११,१२,३१,३२,३४,६२, मन्नेसी ५।२१ ६३,६५,८६,८७,८९,११४, मन्नसि ५१.१ ११५,११७,१४१,१४२, मण्णमाणा ६७८,९३ १४४,१६५,१६६,१६८, मन्नेसि ९।१५१५ १७७, ३।४; १८६,६२, मत्थ (मन्थ्) ६७,९५,९९,१११ पमत्थति ४१३३ भवति १२२,२५,४८,७९,१०७, मय (मद) श६३,४।१७:५९,१७, पमायए २।११,५२३ ३२,४१,६२, ६।६४,८५; मज्जेज्जा २।११४ ८.३,८,४३,५५,५७,६२, पमाए ३१५६ ७३,७५,७९,९५,९९,१०५, पमादेंति ३१६८ १११,११४,११६,११७, मिला (म्ल) ११९,१२३,१२५ भविस्सामो मिलाति २।३१ १।११३ अभिभूय ११६८,५२१११:९।२।१० मुच्च (मुञ्च) भास (भाष्) पमुच्चति ३।१५ भासंति ३२५९,४।१ उम्मुंच ३१२९ भासह ४।२२ पमुच्चइ ३।३६ भासामो ४।२३ मुच्चइ ३७. अभिभासिंसु ९।११७ मुच्छ (मूर्छ) अभिभासे ९.११८ मुच्छमाणे १९५ भिव (भिद्) मुच्छति १।९५ भिज्जइ ३॥५८ मुज्झ (मुह.) भुंज (भुज्) मुज्झति भुंजिय ८२ मुस (मृश्) भुजह ८।२१ विप्परामुसइ २।१५० ८९ विप्परामुसंति ५१ भुंजित्था ९।१।१८,१९ विप्परामुसह ८/२५ १।२४,४७,७८,१०६, १३३,१५७; २।१४८ ४।१२, ९।२।६ २०५६ २१८९ ६१ ८।१५,३० ८1८।२४ अबुज्झमाणे अवबुझंति ओबुज्झमाणे संबुज्झमाणा पडिबुज्झ बेमि २८,३५,३९,५१,५४,६५, ६६,८२,८५,८९,११०,११३, ११७,११८,१२२,१३७.१४०, १४४,१६१,१६४,१७७; २।२६, ४८,७४,१०३,१२०,१४०,१४७, १५९,१६५,१८६; ३।२५,५०, . श६४ भंजित ३९,४५,५३, ५।१२,१८,३०, - ३५,३८,४१,६१,८८,८९,९२, १०६,११७,१४०; ६६,२९,५८, ६९,७५,९२,९८,११२,११३; ८।१,२,१०,२०,२४,२८,२९. ४२,६१,८४,११०,१३०,८।८।२५; भुंजति Jain Education international Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ७:धातु : धातुपद ४८७ ६।८० ९।११ ९।२।१० ९।३।१३ ९।४।३ ६।२६ ९।११३ ४।१ ४।२२ ४।२३ ८1८1१८ ९२२२२ ८.१९ मोक्ख (मोक्ष) रीयमाणा . पमोक्खसि ३१९,६४ रीयत्था मोय (मुच्) रीयई पडिमोयए २।१२८,१७८ रीइत्था युंज (युज्) रीयति विउंजंति ८५ रुव (रुन्) रंभ (रभ) रुवंति समारंभमाणे १३५०,७३,७६,८१, रुह (रुह.) ८८,१०१,१०४,१३१, अभिरुज्झ १३६,१५२,१६० रुव (रूप) समारंभेमाणे १९,२७,४२,१०९ परूवेंति समारंभइ २२२,४५,७६,१०४, परूवेह १३१,१५५ परूवेमो समारंभावेइ ११२२,४५,७६,१०४, लंब (लम्ब) १३१,१५५ अवलंबए अवलंबियाण समारंभेज्जा ११३३,६४,८८,११६, १४३,१६७,१७६; लज्ज (लस्ज) लज्जामो २।४६;८।१८ 'समारंभावेज्जा ११३३,६४,८८,११६, लम (लम्) १४३,१६७,१७६; लद्धं २०४६,८१८ लभति १११७१ आरंभमाणा लहइ आरभे २११८३,५१५३ लभंति समारभेज्जासि ३२५० उवलब्भ समारब्भ ८।२१-२४ लभिय समारंभंति ८।१९ समारंभेज्जासि ८१२० लव (लप) लालप्पमाणे रक्ख (रक्ष) लिप (लिप्) सारक्खमाणे २८९ उलिपिज्जासि लिप्प (लिप्) रज्जति २।१६० लिप्पई रज्जेज्जा ८८।२३ ली (ली) रम (रम्) पलेमाणा रमंति १।१७० अपलीयमाणे रमंति ५।१६, ६।२८ पलेमाणे विरमेज्ज ५।११९ लुंच (लुञ्च्) संलंचमाणा रएज्जा ८।४६,६५,८८ लुचिसु रिक्क (वेशी) लुप (लुप्) रिक्कासि ९।१४ विलुपंति री (री) आलुपह रीयंते विलुपह लुप्प (लुप्) लुप्पती ९.१२१५ लूस (लूष) लूसिंसु ९।३।३,९ लेह (लिख्) पडिलेहित्ता १११२१८८२० पडिलेहंति २।३२ पडिलेह २०५२,३।२७ पडिलेहाए २।१३१.१५३; ३२० पडिलेहिय २२८।१०६,१३६ सुपडिलेहिय ५११६ पडिलेहिया ८८७ पडिलेहे ९।१।१३ पलेहि ९।३।९ वज्ज (वर्ज) परिवज्जिया ९।१।१३ परिवज्जियाण ९१२१९ बज्ज (पद्) आवजंति १.९५,१६४ परियावज्जति १८५,१६४ परिवज्जए ५८७ वट्ट (वृत्) णियति २।२९,५११२३; ६.८४ अभिनिवटेज्जा । ३८४ णिव्वुडा ४।३८ अतिवटेज्जा ५।११५ णियट्टमाणा ६।८२ परिणिव्वुडे ६।१०७ विणियट्टमाणे आउट्टे ८५७ संवटेज्जा ८।१०५,१२५ संवदे॒त्ता ८.१०५,१२५ वड्ढ (वृध्) वड्ढे ति २।१३५, ३।३२ वत्त (वर्त्तय) वि उत्ता अइवत्तई ९१७ लद्धे २।१०२,११६, ३१५० २।११३ ५।९३ ६७ ६७७ ८२ २१६०,१५१ २।४८,१२० २।१८० ४।१० ६।३६ सार ८२ ९।३६ वद (वद्) पवयमाणा ९।३।११ २१६८,८४ ८२५ ८/२५ वयंति परिवयंति परिवएज्जा १११८,४१.७२.१००, १२७,१५१ १।१७१, २२९१,४।१९ २१७,७६ २२७,७६ Jain Education international Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ वदंति वयासी पवयमाणे अपवयमाणे अणुवयमाणा अणुवयमाणे वइत्ता वदिस्सा मि अभिवायमाणे दम (च) वंता वय (व्रज्) परिव्वए परिव्ययंति पव्वइए बस (स) वसे संवसति आवसे समवासिज्जास पहिए पहिया समणुवासेज्यासि वसित्ता अणुवा सियास वसह वह (व्यम्) परिवहित्तए वार ( वारम् ) शिवारेह उव्वाहंति उन्हमाणे विद (चिदि) गिविज्जति ४२०; ६।२६,७९,८८ ४.२२ ५।१७ ५।२६ ६।८० ८ ३ ६।९१ ६।९३ ९।१।१ ९।११८ मिि fathre विधि (वि+वि विगिंच २१०८ ३।११,३८, ६१; ५।३७, ११७ ६ ४४,५४, १०६ ५।९२ ९।१।१ २। १५९ ३ २५,७८ २२ २७,१६,२०,७६ १९८ २१२६ ५८८; ६।२९ २।१०३ ४४४ ६।३०, ७८ ५।३८ ८२१ १।१४; २।९० २।१५३ ८१०५, १२५ ९/३/४ ८४१ ५।७८ २१०१ ५।९४ २।१६२ ३।४७ २१८६; ३।३४; ४।३४, ४३ विगिचमाणे विगिचइ बिज्ज (विद्) विश्वद विजए (ब) पडिसंवेदेइ परिसंवेदयंति परिसंवेति पवेदिता पवेइया पवेइए पवेइयं पवेदितं पवेदिते विप्पडिवेदेति पवेदरसाम पवेदए वेदेति विदित्ता वेच्चाण विदित्ताणं ( अणुविसित्ता पवेसिया पविसिस्सामो पविसे बीज (यजम् वीजिउं पश्यति ३।७९ ३।७९, ६।५१ बुइया वृत्ता वुइए ३।१८, ८७ ५११२४ ११८ २५५ ४|१७ संचिक्खति ५।१३७ संथ (सं+स्तृ संचरेज्जा संथरेता संथ Ras (carom ) ६।१० १४३, १०२ १९,२०,७४, १२९, १५३ २४७, ११९, ४/२ २ ७०, ११३, ४ । १२; ५।९५८२९,१०४ २।१७१ ५ २५, ४४; ५।७८ ६।११,६५ ८१९, १४,२८,५६,८०,९६, १००, ११५,१२४ ५।२२,४० ८ ३१ ५।७५ ६।२४ ६।१०२ ३/७ १।९१ २११२७,१५९; ३।२५ ८ १०७,१२७ ८८२ ८१०६,१२६ ९ १६ ९।२।१४ ९।४/९ १।१४९ ११६९,११९; २/३९; ५।४९ पवुच्चइ १।९२ २।१५४, १७० ४/४ बच्चे ३।५ ५।६३ ६॥४७ ९।१।२१ वेय (वेप्) पवेयंति (संस्था) अवसक्के ज्जा सब ( (शक् सक्खामो सज्ज ( स ) सज्जेज्जा णिसन्ने णिसीएज्ज णिसिएज्जा आसज्ज विप्पसायए समासज्ज सम ( शम्) णिसामिया णिसम्म सप (शी स्वप सए सरंति सर (सू) पसारेमाणे पसारए पसारितु सह (सह ) सहते साइज्ज (सात्मी + कृ ) सातिविस्वाभि सातिज्जति साय (स्वद् ) आसाएमा अणासायमाणे आचारांगभाष्यम् ९।२।१३ ६।४० १०६,१२६ ८।१०६,१२६ ८|८|७ २।११७ ९।२।१४ 51516 ३१४८ ८२१,२३ दादा १ ३।३२ ९ ११५ ३।५५ ८८१,१७,२१ ५४०; ६१३१ ६/७९ १३ ३।५९ ५/७० ८८१५ ९।१।२२ २।१६० ८७६,७७,११६ ११६०१२१ ९।४।१ ८१०१ ८१०१ Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट धातु धातुपद ४८६ सेवे ४।५२ साय (शद्) आसाएज्जा ६।१०४ अणासादमाणे ६।१०५ साह (कथ) साहिस्सामो साहिए ८।८।१२ सिंच (सिच्) संसिच्चमाणा ३।३१ सिक्ख (शिक्ष) सिक्खेज्ज साचा सिर (सृज्) विउसिज्जा विउसिज्ज ८।८।५,१३ वोसिरे ८८।२१ वोसज्ज ९।१४,२२, ९:३७ सीव (सीव) सीवीस्सामि ६६० सुण (श्रु) १११,५३६ सोच्चा २३,२५,४८,७९,१०७, १३४,१५८, ५।४०,११४; ६७९,८।३१ सुणमाणे १९४ श९४ सुणिया ५।४४ सुणेह ६।८ सुस्सूस समणुस्सिणोमि दा२१ समणुस्सिणासि ८.२२ समणुस्सिणाति पा२३,२४ सेव (सेव) सेवंति २११६४;५६० आसेवित्ता ३१४४ ३।४४।५।१०,८८१२३ ९.११६,१८ ६।४९ सेवती ९।१।१९ उदाहरंति २।१७१, ४१३० से वित्था ९।२।१, ९४९ वियाहिए ४।४४; ६।११३; ८।३३ सेवइ ९।२।५ विवाहिते ८।१३ पडिसेवमाणे ९।३।१३ उदाहिया ८.१५ पडिसेवे ९।४।५ आहारेमाणे ८.१०१ सोय (शुच्) साहरे ८।८।१४ अणुसोयंति २१७९ विहरे ८८।२० सोयए २।११५ विहरिंसु ९।११३; ९:३३५ सोयति २।१२४ विहरित्था ९।१।१३ हण (हन्) हरिस (हर्ष) वहंति १३१४०. हरिसे २०५१ हणे २।१७५ हा (हा) हणिया ३१४९ विजहित्तु ११३६ ३१५८ जहाति २।१५६ हंता ३१५३ जहित्ता ४।४० हणमाणे ६।९१ हिच्चा ४।४०६।३०,७७,९३ हम्ममाणे ६।११३ विजहिज्जा पा८।१२ हणमाणा ८३ ९१७ हणह ८.२५ हिंस (हिसि) णिहणिसु ९।३।१२ हिंसिसु १।१४०, ९।११३; ९४३३३ ३३५३ हिंसंति १२१४० घायमाणे हिसिस्संति ११४० घायमाणा ८३ हिंसति विहिंसंति ८८।१० हर (ह) अहिंसमाणो ९।४।१२ परिहरंति २०२० विहिंसति १११९,४२,५०,७३,८१, परिहरेज्जा २।२०,११८ १०१,१०९,१२८,१३६, अवहरति २।६८,८४ १५२,१६० वियाहिया १२५५:४।३८,५२११८; विहिंसइ ६।९।८।१६ अविहिंसमाणे ५।२६ आहट्ट २।८७,८।११६-११९, हो (भ) ९।२।१२ होउ ५.६६,१०८ उदाहु २।९४४।२५,५२८ होइ ५९६ वियाहिते २।१६५५२२७,१०६ होति सुयं पहाय विधायए सुणेति ५२५१ ६।२४ ११२७ सेवए ६।५२ Jain Education international Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ८ तुलना पहला अध्ययन विजहित्तु पुश्वसंजोगं........ (उत्तरज्झयणाणि ८१२) सुयं मे आउसं ! तेणं भगवया एवमक्खायं । (११) पणया वीरा महावीहिं। (१।३७) सुयं मे आउसं ! ते णं भगवया एवमक्खायं" (आयारचूला ७।५७) । ..."पणए वीरे महाविहि........ (सूयगडो १।२।२१) सुयं मे आउसं ! तेणं भगवया एवमक्खाय"" एस लोए वियाहिए। (सूयगडो २।१११; २।२।१; २।३।१, २।४११) (१९६) सुयं मे आउसं ! तेणं भगवया एवमक्खायं एस लोए वियाहिए। (उत्तरज्झयणाणि ३६॥२) (दसवेआलियं ४।१ सूत्र ; ९।४।१) .."तसा पाणा, तं जहा-अंडया पोयया जराउया रसया संसेयया एवमेगेसि णो णातं भवति --अस्थि मे आया ओववाइए, णत्थि मे समुच्छिमा उम्भिया ओववाइया। (११११८) आया ओववाइए........ (१२) तसा पाणा, तं जहा-अंडया, पोयया, जराउया, रसया संसे इमा, 'येयं' प्रेते विचिकित्सा मनुष्येऽस्तीत्येके चके । (कठोपनिषद् ११।२०) सम्मुच्छिमा, उब्भिया, उववाइया'' '" (दसवेआलियं ४।९) सेज्जं पुण जाणेज्जा -सहसम्मुइयाए" (१३) ......"अप्पेगे अच्चाए 'अप्पेगे हिसिस्संति मेत्ति वा वहति । (१।१४०) अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथन्तासंबोधः। (पातञ्जलयोगदर्शन २०३९) ......"तं जो अच्चाए.......णो हिसिस्संति मेत्ति.......। अस्य भवति । कोऽहमासम् ? कथमहमासम् ? ........ (व्यासभाष्यम्) (सूयगडो २।२।४) अपरिण्णाय-कम्मे .. .."अणुदिसाओ वा अणुसंचरइ... (१८) दूसरा अध्ययन तांस्ते प्रेत्याभिगच्छति ये के चात्महनो जनाः । .."माया मे पिया मे..."सहि-सयण-संगंथ-संथया मे... (२२) a (ईशावास्योपनिषद् १/३) इह चेदशकत् बोद्ध प्राक्शरीरस्य विस्रसः ।। ........"माता मे पिता मे......"सयणसंगथसंथ्या मे....... तत: सर्गेषु लोकेषु शरीरत्वाय कल्पते ।। (कठोपनिषद् २।३।४) (सूयगडो २०१३५१) जमिणं विरूवरूवेहिं सत्येहिं पुढवि-कम्म-संभारंभेणं पुढवि-सत्थं संभार- अहो य राओ य परितप्पमाणे ....... (२॥३,४०) मेमाणे अण्णे वगेणरूवे पाणे विहिंसति । (११९) ......."अहो य राओ य परितप्पमाणा'...... (सूयगडो ११५४४५) पुढविकायं विहिंसंतो, हिंसई उ तयस्सिए । .....अहो य राओ परितप्पमाणे......... (सूयगडो १।१०।१८) तसे य विविहे पाणे चक्खुसे अचक्खुसे ।। (दसवेआलियं ॥२७) "अहो य राओं परितप्पमाणे....'' (उत्तरज्झयणाणि १४/१४) जस्सेते पुढवि-कम्म-समारंभा परिण्णाता... (१३३४) नालं ते तव ताणाए........ (२८) पढमं नाणं तओ दया.........। (दसवेआलियं ४।१०) णालं ते मम ताणाए...... (सूयगडो ११९।५) .... "उज्जुकडे, णियागपडिवन्ने, अमायं कुब्वमाणे........ (१३५) णालं ते मम ताणाए" (उत्तरज्झयणाणि ६।३) न सन्ति पुत्ता ताणाय न पिता नापि बन्धवा । ....."उज्जुया णियागपडिवन्ना अमायं कुब्वमाणा........ अन्तकेनाधिपन्नस्स नत्थि भाति सुताणता ।। (धम्मपद २०८) (सूयगडो २।२।७७) न मीयमानस्स भवन्ति ताणा, जाए सद्धाए निक्खंतो, तमेव अणुपालिया। (१३३६) मोतीध मित्ता अथ वा सहाया। (मज्झिमनिकाय भाग-२ पृष्ठ २९८) जाए सद्धाए निक्खंतो"तमेव अणुपालेज्जा। (दसवेआलियं ८।६०) से हंता छेत्ता भेत्ता लुपिता विलुपिता उत्तासइत्ता" (२।१४,१४२) विजहित्तु विसोत्तियं । (१३३६) से हंता, छेत्ता, भेत्ता, लुपइत्ता, विलुपइत्ता, ओदवइत्ता हिच्चा णं पुव्वसंजोगं......... (सूयगडो १।१।७६) (सूयगडो २।२।४,१९,२०) Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ८ : तुलना ४९१ (धम्मपद १३०) जाणित्त दुक्खं पत्तेयं सायं । (२।२२) अविस्समाणे कय-विक्कएसु । से ण किणे, ण किणावए, किणतं ण अण्णस्स दुक्खं" "पत्तेयं वेदना । (सूयगडो २१११५१) समणुजाणइ। (२।१०९) मंदा मोहेण पाउडा। (२।३०) सुक्कीयं वा सुविक्कीयं, अकेज्ज केज्जमेव वा । मंदा मोहेण पाउडा। इमं गिण्ह इमं मुंच, पणियं नो वियागरे ।। (सूयगडो १।३।११) अपग्धे वा महग्धे वा, कए वा विक्कए वि वा। एत्थ मोहे पुणो पुणो सण्णा । (२।३३) पणिय? समुप्पन्ने, अणवज्जं वियागरे ॥ (दसवेआलियं ७४४५,४६) ध्यायतो विषयान् पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते। (गीता २।६२) से मिक्ख कालण्णे .........."कालेणुट्ठाई ...."। (२।११०) णो हव्वाए णो पाराए। (२।३४) अकाले चरसि भिक्खु..."च गरिहसि ॥ (दसवेआलियं ५।२।५) णो हव्वाए णो पाराए (सूयगडो २।११६ से १०,२२,३१,३८,४७,४८) अलाभो ति ण सोयए। (२।११५) भूएहि जाण पडिलेह सातं। (२०५२) अलाभो त्ति न सोएज्जा........ (दसवेआलियं ५।२।६) ......"एतेसु जाणे पडिलेह सायं (सूयगडो १७१२) स सोयति जूरति तिप्पति पिडुति परितप्पति। (२१२४) ....... भूतेहिं जाण पडिलेह सातं (सूयगडो ११७।१९) सोयइ वा जूरइ वा तिप्पइ वा पीडइ वा परितप्पइ वा सव्वेसि जीवियं पियं (२०६४) (सूयगडो २।११४२,४३,५०,५१; २॥२॥३४,३५, २।४।१७) सव्वेसं जीवितं पियं । ......."वेरं बड्ढइ अप्पणो। (२।१३५) ....""वेरं वड्ढइ अप्पणो । बाले पुण णिहे........."आवट्ट अणुपरिपट्टइ। (२०७४,१८६) (सूयगडो १.११३) पंतं लुहं सेवंति वीरा समत्तवंसिणो । कामान् यः कामयते मन्यमानः, स कामभिर्जायते तत्र तत्र । (२।१६४) (मुण्डकोपनिषद् ३।२।२) त्तित्तगं व कडुयं व कसायं, अंबिलं व महुरं लवणं वा । एय लद्धमन्न?पउत्तं, महुघयं व भुजेज्ज संजए। आसं च छंदं च विगिच धीरे। (२८६) (दसवेआलियं ५।१।९७) कम्मं च छंदं च विगिच धीरे....... (सूयगडो २१३।२१) जहा पुण्णस्स कत्थइ, तहा तुच्छस्स कत्थइ । जहा तुच्छस्स कत्थइ, तहा पुण्णस्स कत्थइ । जेण सिया तेण णो सिया (२।१७४) (२।८८) से भिक्खू धम्म किट्टेमाणे---णो अण्णस्स हेउ धम्ममाइक्खेज्जा । णो एत्थ वि सिया एत्थ वि णो सिया। (सूयगडो २।११६०) पाणस्स हेउं धम्ममाइक्खेज्जा । णो वत्थस्स हेउं धम्ममाइक्खेज्जा । ... ..."थोवं लधु न खिसए । (२।१०२) णो लेणस्स हेउ धम्ममाइक्खेज्जा । णो सयणस्सहेउं धम्ममाइक्खेज्जा । णो अण्णेसिं विरूवरूवाणं कामभोगाणं हेउं धम्ममाइक्खेज्जा । अगिलाए थोवं लधु न खिसए। (दसवेआलियं ८।२९) धम्ममाइक्खेज्जा । णण्णत्य कम्मणिज्जरट्ठयाए धम्ममाइक्खेज्जा। ...."तं जहा-अप्पणो से पुत्ताणं धूयाणं सुण्हाणं णातीणं धातीणं राईणं (सूयगडो २।२।५३) दासाणं दासीणं कम्मकराणं कम्मकरीणं आएसाए, पुढो पहेणाए, बलि आएसाए, पुढा पहणाए, ण लिप्पई छणपएण वीरे। (२१८०) सामासाए, पायरासाए। अभोगी नोवलिप्पइ। (उत्तरज्झयणाणि २५२३९) सन्निहि-सन्निचओ कज्जइ इहमेगेसि माणवाणं भोयणाए। तस्यैव स्यात् पदवित्, तं विदित्वा न लिप्यते कर्मणा पापकेन । (२।१०४,१०५) (बृहदारण्यकोपनिषद् ४।४।२३) ......."तं जहा-अप्पणो पुत्ताणं धूयाणं सुण्हाणं धातीणं णातीणं योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः । राईणं दासाणं दासीणं कम्मकराणं कम्मकरीणं आएसाणं पुढो पहेणाए सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ।। (गीता ५७) MRI मणिहि-मणिचओ कज्जति. वृद्ध पासिं माण- स तंत्रव वर्तमानोपि लोकसंग्रहाय कर्म कुर्वन्नपि न लिप्यते ....."। . वाणं भोयणाए। (सूयगडो २११६६; २।२।५०) . (शांकरभाष्य पृष्ठ २१७) कुसले पुण णो बढे, णो मुक्के। परिग्गहं अममायमाणे........ (२।११०) (२॥१८२) क्लेशकर्मनिवत्तो जीवन्नेव विद्वान् विमुक्तो भवति । परिग्गहं चेव ममायमाणा....... उता (सूयगडो २।६।२१) .. - (पातञ्जलयोगदर्शन ४।३० भाष्य ) Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३।१६) (३।१८) ४६२ आचारांगभाष्यम् तीसरा अध्ययन पलिच्छिदिया गं णिक्कम्मदंसी । एस मरणा पमुच्चइ (३॥३५,३६) सुत्ता अमुणी सया, मुणिणो सया जागरंति । (३१) ज्ञात्वा देवं सर्वपाशापहानिः, क्षीणः क्लेशर्जन्ममृत्युप्रहाणिः । या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागति संयमी । (श्वेताश्वतरोपनिषद् ११११) यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ।। (गीता २०६९) पराभिध्यानात्तु तिरोहितं ततो ह्यस्य बन्धविपर्ययौ ॥ (ब्रह्मसूत्र ३.२१५) ...अप्पमत्तो परिव्वए। __(३।११) .."कालकंखी परिव्वए। (३३३८) .... अप्पमत्तो परिव्वए। (उत्तरज्झयणाणि ६।१२) कालकंखी परिव्वए....... (उत्तरज्झयणाणि ६।१४) अप्पमत्तो कामेहि, उवरतो पावकम्मेहि, वीरे आयगुत्ते जे खेयणे । समिते सहिए सया जए... (३।३८,४।४१,५२, ५३७५), इदं शरीरं कौन्तेय ? क्षेत्रमित्यभिधीयते । समिए सहिए सया जए... एतद् यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः ॥ (गीता १३।१) (सूयगडो १।१६।३; २।१।७२; २।३।१०२) विशेष तुलना के लिए देखें बहुं च खलु पाव-कम्मं पगडं। (३॥३९) (गीता १३।१-११; आचारांगभाष्य पृष्ठ १६८) बहुं च खलु पावं कम्मं पगडं । (दसवेआलियं, चू० १।१७) ववहारो न विज्जइ। अणेगचित्ते खलु अयं पुरिसे, से केयणं अरिहए पूरइत्तए। (३।४२) ववहारो न विज्जइ। (सूयगडो २।५।३,५,७,९,११,२९) जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्ढइ । दोहिं अंतेहि अविस्समाणे। । (३३२३,५८) (उत्तरज्झयणाणि ८।१७) दोहि वि अंतेहि अदिस्समाणो। (सूयगडो २१११५४,२।२।३८) इच्छा हु आगाससमा अणंतिया । (उत्तरज्झयणाणि ९।४९) उभे उ हैवैष एते तरति ।। (वृहदारण्यकोपनिषद् ४।४।२२) आयओ बहिया पास । जाति च बुड्ढि च इहज्ज पासे । (३।२६) सहाहताचाच तम्हा ण हंता ण विधायए। (३३५२,५३) जाइं च वुड्ढि च विणासयंति । (सूयगडो ११७।९) आयतुलं पाणेहि संजए। (सूयगडो १।२६६) तम्हा तिविज्जो परमं ति..... । आयतुले पयासु। (३।२८) (सूयगडो १।१०३) सव्वभूयप्पभूयस्स सम्म भूयाइ पासओ। (दसवेआलियं ४।९ गाथा) तिस्सो विज्जा-पुव्वे निवासानुस्सरति...... अत्तसमे मन्नेज्ज छप्पिकाए । (दसवेआलियं १०१५) .................."आसवाणं खये जाणं विज्जा । यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति । (दीघनिकाय भाग ३, पृष्ठ १६२) सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ॥ (ईशावास्योपनिषद् ६) उम्मच पासं इह मच्चिएहि । (३।२९) सवंभूतस्थमात्मानं, सर्वभूतानि चात्मनि । णेहपासा भयंकर । (उत्सरज्झयणाणि, २३॥४३) ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ।। (गीता ६।२९) आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन !। तम्हा तिविज्जो परमं ति णच्चा, आयंकदंसी करेति पावं। सुखं वा यदि वा दुःखं, स योगी परमो मतः । (गीता ६।३२) (३३३३) समयं तत्युवेहाए, अप्पाणं विप्पसायए। कतमं च भिक्खवे, साम्परायिकं वज्जं? इध, भिक्खवे, एकच्चो इति (३॥५५) .............."साम्परायिकं वज्जं । निविचारवशारद्ये अध्यात्मप्रसादः। (पातञ्जलयोगदर्शन १।४७) (अंगुत्तरनिकाय २।१, भाग १, पृष्ठ ४७) विराग स्वेहिं गच्छेज्जा, महया खुड्डएहि वा। (३३५७) अम्गं च मूलं च विगिच धीरे। (३३३४) वीयरागयाए णं भंते ! जीवे कि जणयइ ? वीयरागयाए णं नेहाणरागो य दोसो वि य कम्मबीयं । (उत्तरज्झयणाणि ३२१५) बंधणाणि तण्हाणुबंधणाणि.........."विरज्जइ । जहा मत्थए सूईए, हताए हम्मती तले। (उत्तरज्झयणाणि २९।४६) एवं कम्माणि हम्मंति, मोहणिज्जे खयं गते ॥ से न छिज्जइ ण भिज्जइ ण उन्मइ, ण हम्मइ कंचणं सव्वलोए ॥ सुक्कमूले जधा रुक्खे, सिच्चमाणे ण रोहति । (३॥५८) एवं कम्मा ण रोहंति, मोहणिज्जे खयं गते ॥ (दसाओ, ५१११,१४) ण हिंसए कंचणं सव्वलोए । (सूयगडो ११५१५१) Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ८ : तुलना ४६३ नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः । चौथा अध्ययन न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ।। अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च । जे अईया, जे य पडुप्पन्ना, जे य आगमेस्सा अरहंता भगवंतो ते सम्वेण परितावेयव्वा ण उद्दवेयव्वा। नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥ (गीता २।२३,२४) (४१) जे य अईया जे य पडुप्पन्ना जे य आगमेस्सा अरहता भगवंता का अरई ? के आनंदो? (३६१) सब्वे ते ण परितावेयव्वा ण उद्दवेयव्वा । को नु हासो किमानन्दो....। (धम्मपद १४६) (सूयगडो २।१।५७; २।२।४१) सहिए धम्ममादाय, सेयं समणुपस्सति । (३।६७) .."सव्वे पाणा सम्वे भूता सब्वे जीवा सम्वे सत्ता"। सोच्चा जाणइ कल्लाण, सोचा जाणइ पावगं । (४१,२०,२२,२३,२६, ६।१०३ से १०५,८२१ से २६) उभयं पि जाणई सोच्चा, जंछेयं तं समायरे । .."सव्वे पाणा, सव्वे भूया, सब्वे जीवा, सब्वे सत्ता" (दसवेआलियं ४, गाथा ११) (सूयगडो २।१।५६,५७; २।२।४०,४१,७८ आदि) जे एग जाणइ, से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ, से एग जाण । एस धम्मे सुद्धे णिइए सासए समिच्च लोयं खेयण्णेहि पवेइए। (४।२) (३.७४) एस धम्मे धुवे णितिए सासए समेच्च लोग खेयण्णेहिं पवेइए । एग जाणं सव्वं जाणइ, सव्वं च जाणमेग ति । (सूयगडो २१११५८) इय सव्वमजाणतो, नागारं सव्वहा मुणइ ।। णो लोगस्सेसणं चरे। (विशेषावश्यकभाष्य, गाथा ४८४) (४७) आत्मनो वा अरे दर्शनेन, श्रवणेन, मत्या, विज्ञानेन, इदं सर्वविदितं ।। जणेण सद्धि होक्खामि, इइ बाले पगब्भई। (उत्तरज्झयणाणि ५७) (वृहदारण्यकोपनिषद् २।४।५) अट्टा वि संता अदुवा पमत्ता। (४१४) सब्बतो पमतस्स भयं, सव्वतो अपमत्तस्स पत्थि भयं । (३७५) चतुविधा भजन्ते मां, जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ! अप्पमादो अमतपदं पमादो मच्चुनो पदं" """" (धम्मपद २१) आत्तॊ जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ !॥ (गीता ७।१६) न बिभेति कुतश्चनेति" (तैत्तिरीय उपनिषद् २।९।१) ....समणा य माहणा य पुढो विवाद वदंति "सब्वे पाणा सव्वे भूया दुक्खं लोयस्स जाणित्ता। का सम्वे जीवा सव्वे सत्ता हतब्वा, अज्जावेयम्वा, परिघेतब्वा, परियावेयव्वा, उद्दवेयव्वा । (४।२०) हेयं दुक्खमनाग तम् । द्रष्टदृश्ययोः संयोगो हेयहेतुः ।....."तत् संयोगहेतुवर्जनात् स्यादयमात्यन्तिको दुःखप्रतीकारः ।। ..."जे ते समणमाहणा"एवं परूवेंति-सव्वे पाणा सव्वे भूया सब्वे (पातञ्जलयोगदर्शन २०१७ व्यासभाष्य) जीवा सम्वे सत्ता हंतव्वा अज्जावेयव्वा परिघेतव्वा परियावेयव्वा उद्दवेयव्वा', (सूयगडो २।२।७८) वंता लोगस्स संजोग, जति वीरा महाजाणं । परेण परं जंति, नावखंति जीवियं ॥ उड्ढं अहं तिरियं दिसासु....... (४।२०,२२) ..."उड्ढं अहं यं तिरियं दिसासु जे इमे भंते ! अज्जत्ताए समणा निग्गंथा विहरंति......"परिनि व्वायंति (सूयगडो १।५।११, १।६।४; १।१०।२१।१४।१४; २।६।१४,३१) सव्वदुक्खाणं अतं करेंति । (भगवई १४।१३६) देखें -आचारांगभाष्यं, पृष्ठ १९५,१९६ । एत्थ वि जाणह णस्थित्थ दोसो। (४।२२) ..."नावकखंति जीवियं । (३।७८) ..."एत्थं पि जाणाहि' णत्थित्थ दोसो। (सूयगडो २।१२८) णावकखंति जीवियं । (सूयगडो ११३७५; १।९।३४; १।१५।१) लोयं च पास विष्फंदमाणं । (४।३६) सड्ढी आणाए मेहावी। का परिफन्दत्ति द चित्तं मारधेय्यं पहातवे । (धम्मपद ३४) नादंसणिस्स नाणं......" (उत्तरज्झयणाणि २८।३०) जस्स नत्थि पुरा पच्छा, मझे तस्स को सिया ? (४१४६) श्रद्धा चेतसः संप्रसादः, सा हि जननीव कल्याणी योगिनं पाति । आदावन्ते च यन्नास्ति, वर्तमानेऽपि तत्तथा । (पातञ्जलयोगदर्शन ११२० भाष्य) (माण्डुक्यकारिका २६) श्रद्धावान् लभते ज्ञानम् । (गीता ४।३९) नवाग्रं नावरं यस्य, तस्य मध्यं कुतो भवेत् । (माध्यमकारिका ११०२) Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ आचारांगभाध्यम जेण बंधं वहं घोरं, परितावं च दारणं । (४।४९) तम्मोत्तीए तप्पुरक्कारे......। (५२६८) जेण बंधं वहं घोरं परियावं च दारुणं ....."। (दसवेआलियं ९।२।१४) तम्मुत्ती तप्पुरक्कारे....। (उत्तरज्झयणाणि २४१८) . पलिछिदिय बाहिरगं च सोयं, णिक्कम्मदंसी इह मच्चिएहि । (४५०) से अभिक्कममाणे पडिक्कममाणे संकुचेमाणे पसारेमाणे.......। (७०) कृतकारितानुमननस्त्रिकालविषयं मनोवचनकायैः । ..."अभिक्कतं पडिक्कतं संकुचियं पसारियं........ (दसवेआलियं ४।९) परिहृत्य कर्म सर्वं परमं नैष्कर्म्यमवलम्बे ॥ इहलोग-वेयण-वेज्जावडियं । (१७२) ........"निष्कर्मणि मित्यमात्मना वर्ते ।। क्लेशमूलः कर्माशयो दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः । ......"निष्कर्मणि नित्यमात्मना वर्ते ॥ (पातञ्जलयोगदर्शन २०१२) (समयसार, अमृतचन्द्राचार्यकृत आत्मख्याति टीका, श्लोक २२५- जाओ लोगम्मि इत्थीओ। (५७७) २२७।-देखें- आचारांगभाष्यं पृ० २३०) जाओ लोगंमि इथिओ........ (उत्तरज्झयणाणि २०१६) न कर्मणामनारम्भान्नैष्कयं पुरुषोऽश्नुते । पुष्वं दंडा पच्छा फासा, पुव्वं फासा पच्छा वंडा। न च संन्यसनादेव सिद्धि समधिगच्छति ॥ (गीता ३१४) (८५) असक्तबुद्धिः सर्वत्र, जितात्मा विगतस्पृहः । आरम्भे तापकान् प्राप्तौ, अतृप्तिप्रतिपादकान् । नैष्कर्म्यसिद्धि परमा, संन्यासेनाधिगच्छति ।। अन्ते सुदुस्त्यजान् कामान्, कामं क: सेवते सुधीः ।।। (इष्टोपदेश, श्लोक १७) कम्मुणा सफलं दद्रु, तओ णिज्जाइ वेयवी। (४॥५१) वइगुत्ते अज्झप्प-संवुडे .....। कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि। (उत्तरज्झयणाणि ४।३) (५।८७) वइगुत्ते अज्झत्थसंवुडे......... वासनामात्रसारत्वात्, अज्ञस्य सफला: क्रिया। (सूयगडो ११२।३४) सर्वा एवाफला ज्ञस्य, वासनामात्रसंक्षयात ।। से णो काहिए णो पासणिए णो संपसारए णो ममाए णो कयकिरिए. (योगवाशिष्ठ, ६-१-८७,१८) परिवज्जए सदा पावं । (२८७) पांचवा अध्ययन णो काहिए संजए, पासणिए ण य संपसारए। णच्चा धम्म अणुत्तरं, कयकिरिए य ण यावि मामए ।। ......."से अप्पं वा, बहुं वा, अणुं वा, थूलं वा, अचित्तमंतं वा.....। (सूयगडो १०२।५०) (५३३१) अप्पं वा, बहुं वा" ...."अचित्तमंतं वा..........." वितिगिच्छ-समावन्नेणं अप्पाणेणं णो लभति समाधि। (५९३) (आयारचूला १५१५७,७१) अस्थि णं भंते ! समणा वि निग्गंथा कंखामोहणिज्ज कम्मं वेएंति ? अप्पं वा बहुं वा........."अचित्तमंतं वा......." .......'कम्मं वेदेति । (भगवई १११६९,१७०) (दसवेआलियं ४।१३, १५) ........"संशयात्मा विनश्यति । सोच्चा वई मेहावी, पंडियाणं णिसामिया। नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ।। (गीता ४।४०) समियाए धम्मे, आरिएहिं पवेदिते ।। तमेव सच्चं णीसंके, जं जिणेहिं पवेइयं । (५।९५) सव्वभूयप्पभूयस्स सम्मं भूयाइ पासओ। (दसवेआलियं ४, गाथा ९) तमेव सच्चं णीसंक, जं जिणेहिं पवेइयं । (भगवई १११३१) अत्तसमे मन्नेज्ज छप्पिकाए । (दसवेआलियं १०५) जे आया से विण्णाया, जे विण्णाया से आया। जेण विजाणति से समया सव्वभूएसु सत्तुमित्तेसु वा जगे। (उत्तरज्झयणाणि १९।२५) आया। (५१०४) लाभालाभे सुहे दुक्खे ........ "माणावमाणओ।। जीवे णं भंते ! जीवे ? जीवे जीवे ? (उत्तरज्झयणाणि १९१९०) गोयमा ! जीवे ताव नियमा जीवे, जीवे वि नियमा जीवे । एवं ससंकप्पविकप्पणासो, संजायई समयमुवट्ठियस्स । (भगवई ६।१७४) (उत्तरज्झयणाणि ३२।१०७) यो वेदेदं जिघ्राणीति स आत्मा..." (छान्दोग्योपनिषद् ८।१२।४) कि ते जुज्झेण बज्झओ? (५॥४५) अभिभूय अदक्खू, अणभिभूते पभू निरालंबणयाए। (५१११) .........किं ते जुज्झेण बज्झओ।........... (उत्तरज्झयणाणि ९।३५) संभोगपच्चक्खाणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? वयसा वि एगे बुइया कुप्पंति माणवा। (२६३) संभोगपच्चक्खाणेणं आलंबणाई खवेइ ।......"विहरइ । बुइया बुइया कुप्पंति माणवा । (आयारचूला ४।१९) (उत्तरज्झयणाणि २९।३४) Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ८ : तुलना ४६५ उड्ढं सोता अहे सोता, तिरियं सोता वियाहिया। गंडी अदुवा कोढी...."महुमेहणि। (६८) एते सोया वियक्खाया जेहि संगति पासहा । (५।११८) गंडी गंडी ति वा"...'मेहणि महुमेहणि त्ति वा (आयारचूला ४।१९) श्रवण-नयन-वदन-प्राण-गुद-मेढ़ाणि नव स्रोतांसि नराणां बहिर्मुखानि, बहुदुक्खा हु जंतवो। (६।१५) एतान्येव स्त्रीणामपराणि च त्रीणि द्वे स्तनयोरधस्ताद् रक्तवहं च ।। (सुश्रुतसंहिता, शारीरस्थानं ५।१०) जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा य मरणाणि य । अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसंति जंतवो॥ सब्वे सरा नियटॅति। (५॥१२३) (उत्तरज्झयणाणि १९।१५) यतो वाचो निवर्तन्ते, अप्राप्य मनसा सह । (तैतरीय उपनिषद् २२) सत्ता कामेहि माणवा। (६१६) नेव वाचा न मनसा प्राप्तुं शक्यो..." (कठोपनिषद् २।३।१२) न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग् गच्छति नो मनः । (केनोपनिषद् ११३) """सत्ता कामेहिं माणवा (सूयगडो शश६) न चक्षुषा गृह्यते नापि वाचा...! (मुण्डकोपनिषद् ३।३।२) इति बाले पगभइ । (६।१८) तक्का जत्थ ण विज्जइ। (२१२४) इति बाले पगभइ । (उत्तरज्झयणाणि श७) नैषा तर्केन मतिरापनेया......। (कठोपनिषद् १।२।९) अहेगे धम्ममादाय आयाणप्पभिई सुपणिहिए चरे। (६।३५) मई तत्थ ण गाहिया। (१२५) चउब्विहे सुप्पणिहाणे...."उवगरणसुप्पणिहाणे। (ठाणं ४।१०५) नो इंदियग्गेज्ज अमुत्तभावा....। (उत्तरज्झयणाणि १४।१९) अइअच्च सव्वतो संगं 'ण महं अत्यित्ति इति एगोहमंसि।' (६३८) से ण दोहे, ण हस्से, ण वडे...."ण परिमंडले। (१२७) एगत्तमेवं अभिपत्थएज्जा, एतं पमोक्खे ण मुसंति पास । एसप्पमोक्खे अमुसेऽवरे वी अकोहणे सच्चरए तवस्सी ।। अंगुष्ठमात्रो रवितुल्यरूपः । (श्वेताश्वतरोपनिषद् श८,९) एष मे आत्माऽन्तर्हृदये अणीयान् ब्रीहेर्वा यवाद वा सर्षपाद् वा (सूयगडो १।१०।१२) श्यामाकाद् वा श्यामाकतण्डुलाद् वा, एष मे आत्मा अन्तर्ह दये से अक्कुठे व हए व लूसिए। (६।४१) ज्यायान् पृथिव्या ज्यायान् अन्तरिक्षाद् ज्यायान् दिवो ज्यायानेभ्यो ......."अक्कूठे व हए व लुसिए वा। (दसवेआलियं १०१३) लोकेभ्यः । (छान्दोग्य उपनिषद् ३।१४।३) अक्कोसेज्ज परो........."एवं पेहेज्ज संजए। से ण दोहे ण हस्से......."ण गिद्धे, ण लुक्खे। (५१२७ से १३१) (उत्तरज्झयणाणि २।२४-२७) कण्हे त्ति णीलेत्ति वा.........."रुक्खाणि वा। (आयारचूला ४।३७) जे य हिरी, जे य अहिरीमणा । ___(६।४५) दीहेत्ति वा हस्से त्ति वा"...""लुक्खे त्ति वा। (सूयगडो २।१।१६) पंच परिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-हिरिसत्ते, हिरिमणसत्ते,.....। ण इत्थी, ण पुरिसे, ण अण्णहा । (५॥१३५) (ठाणं ५।१९८) नैष स्त्री न पुमानेष, न चैवायं नपुंसकः । (श्वेताश्वतरोपनिषद् ५।१०) अदुवा तत्व भेरवा। (६५६) परिणे सणे। १३६) नो भायए भयभेरवाइं दिस्स । (दसवेआलियं १०।१२) प्रज्ञानघन एव.....। (बृहदारण्यकोपनिषद् ४।५।१३) समाहिमाघायमझोसयंता सत्यारमेव फरसं ववंति । फरस ववति। (६७९) ज्ञोऽत एव । (ब्रह्मसूत्र २।३।१८) समाहिमाघातमजोसयंता सत्थारमेवं फरसं वयंति । आह च तन्मात्रम् । (ब्रह्मसूत्र ३।२।१६) (सूयगडो श१३॥२) से ण सद्दे, ण रूवे, ण गंधे, ण रसे, ण फासे इच्चेताव। (५।१४०) णातओ य परिग्गहं। , (६३९६) अशब्दमस्पर्शमरूपमव्यय तथारसं नित्यमगन्धवच्चयत् । .."णाइओ य परिग्गहं । (सूयगडो ११९७) (ईशावास्योपनिषद् ११३५) आइक्खे विभए किट्टे वेयवी। (६।१०१) छठा अध्ययन पासह एगेवसीयमाणे अणत्तपणे । आइक्खामि विभयामि किट्टेमि पवेदेमि ....... (सूयगडो २०१।११) पण्णा समिक्खए धम्म, तत्तं तत्तविणिच्छयं । संखाय पेसलं धम्म, दिट्टिमं परिणिव्वुडे । (६।१०७) (उत्तरज्झयणाणि २३।२५) संखाय पेसलं धम्म, दिट्ठिम परिणिव्वुडे । (सूयगडो ११३१६०,८२) Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ आचारांगभाष्यम् अवि हम्ममाणे फलगावटि. (६।११३) ......."णेव सयं एतेहि काएहि दंडं समारंभेज्जा, णेवणेहि एतेहि अवि हम्ममाणे फलगावतट्ठि... ... (सूयगडो ११७।३०) काएहि वंडं समारंभावेज्जा, नेवण्णे एतेहिं काएहिं दंडं समारंभंते वि समणुजाणेज्जा। कंखेज्ज कालं जाव सरीरभेउ । (८1१८) (६।११३) इच्चेसि छण्हं जीवनिकायाणं नेव सयं दंड समारंभेज्जा नेवन्नेहिं दंडं .""कखेज्ज कालं धुयमायरते । (सूयगडो १२५५२) समारंभावेज्जा दंड समारंभंते वि अन्ने न समणुजाणेज्जा' ...." कालोवणीते......."जाव सरीरभेउ । (६।११३) (दसवेआलियं ४।सूत्र १०) (उत्तरज्झयणाणि ४।९) कालोवणीए सरीरस्स भेए। """"से हंता! हणह, खणह, छिदह, दहह, पचह, आलुंपह, विलुपह, सहसाकारेह, विप्परामुसह। (८।२५) आठवां अध्ययन से हंता हणह खणह छणह डहह पयह आलंपह विलुपह सहसक्कारेह असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा विप्परामुसह... (सूयगडो २।१।१९) (८.१,२,२१ से २६,२८,२९,७५,१०१,११६ से १२१) णिहाय दंडं पाणेहि, पावं कम्मं अकुवमाणे"। (३३) असणं वा पाणं वा खाइयं वा साइयं वा । निहाय दंडं भूतेसु तसेसु थावरेसु च... ... ... । (धम्मपद ४०५) (आयारचूला १।१२।२८४१२ आदि) असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा। से अहेसणिज्जाइं वत्थाई जाएज्जा..."सामग्गियं । (८।४४ से ४९) (सूयगडो २१११२१, २।२।३१, २०७४ आदि) अहेसणिज्जाइं.........."सामग्गियं । (आयारचूला ५।४१) लभिय णो लभिय, मुंजिय णो भुंजिय.. (२) अणुपविसित्ता गाम वा, णगरं वा, खेडं वा, कब्बडं वा, मडंबं वा, पट्टणं वा, दोणमुहं वा, आगरं वा, आसमं वा, सण्णिवेसं वा, णिगमं लभिय णो लभिय, भुंजिय णो भुंजिय............ (आयारचूला ४१२) वा, रायहाणि वा । (१०६) आयारगोयरे णो सुणिसंते भवति" (३) ..........' तं जहा-गामंसि वा, णगरंसि वा, खेडंसि वा, कव्वडंसि आयारगोयरे णो सुणिसंते भवइ...... वा""."रायहाणिसि वा ...' (आयारचूला श२८ आदि) (आयारचूला २।३६,३७,३९ से ४२) गामे नगरे तह रायहाणि निगमे य आगरे पल्ली। खेडे कब्बडदोणमुहपट्टणमडंबसंबाहे ।। अदवा वायाओ विउंजंति, तं जहा""""सुकडत्ति वा दुक्कडत्ति वा, .........."संवद्रकोटे य॥ (उत्तरज्झयणाणि ३०1१६,१७) कल्लाणेत्ति वा पावेत्ति वा, साहुत्ति वा असाहुत्ति वा, सिद्धीति वा असिद्धीति वा, णिरएत्ति वा अणिरएत्ति वा। (८1५) जं किंचुवक्कम जाणे, आउखेमस्स अप्पणो । तस्सेव अंतरद्धाए, खिप्पं सिक्खेज्ज पंडिए । (८1८६) ते णो एवं विप्पडिवेदेति, तं जहा......""सुकडे इ वा दुक्कड़े इ वा, जं किंचुवक्कम जाणे, आउखेमस्स अप्पणो । कल्लाणे इ वा पावए इ वा, साहू इ वा असाहू इ वा, सिद्धी इ वा तस्सेव अंतरा खिप्पं, सिक्खं सिक्खेज्ज पंडिए । (सूयगडो १।८।१५) असिद्धी इवा, णिरए इ वा अणिरए इ वा'''' .." । "पुट्ठो तत्थ हियासए।.. (सूयगडो २।१।२०, २९,३६,४५ (८1८1८) ""पुट्ठो तत्थ हियासए ।.... (सूयगडो १९:३०) गामे वा अदुवा रण्णे ?.... (८।१४) पुट्ठो तत्थ हियासए। (उत्तरज्झयणाणि २।३२) सेवा नगरे वा रणे वा.......... (दसवेआलियं ४ सूत्र १३.१५) संसप्पगा य जे पाणा. जे य उडढमहेचरा। गामे वा यदि वारजे........... (धम्मपद ९८) तिसरी भुजंति मंस-सोणिय, ण छणे ण पमज्जए॥ गामे वा यदि वारजे ........... (थेरगाथा ९९१) न संतसे न वारेज्जा, मणं पि न पओसए । गामे वा यदि वार ........... (अंगुत्तरनिकाय ११२८१; ३।३५४) उवेहे न हणे पाणे, भुंजते मंससोणियं ।। (उत्तरज्झयणाणि २०११) गामे वा यदि वारजे ........" (संयुतनिकाय ११६९,२३३) सव्वं नूमं विधूणिया (८।८।२४) व गामे व रणे धम्ममायाणह" (८1१४) सव्वं णूमं विहूणिया। (सूयगडो १।११३९) ग्रामोऽरण्यमिति द्वेधा, निवासोऽनात्मशिनाम् । तितिक्खं परमं णच्चा। (८।८।२४) दृष्टात्मनां निवासस्तु, विविक्तात्मेव निश्चलः ।। तितिक्खं परमं णच्चा ॥ (सूयगडो १।८।२७) (समाधिशतक, श्लोक ७३) तितिक्खं परमं नच्चा ।। (उत्तरज्झयणाणि २।२६) (दादा) Jain Education international Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : तुलना नौवां अध्ययन .....एवं खु अणुधम्मियं तस्स । "अणुधम्मो मुणिणा पवेइओ || अरई रई अभिभूय... अरति रति च अभिभूव ( ९1१/२) (सूयगडो १।२।१४ ) (812190) (सूयगडो १।१०।१४ १३०१८ ) हयपुण्वो तत्थ दंडेण, अबुवा मुट्ठिणा अनुकुंताइ-फलेणं । (313190) तत्थ दंडेण संवीते, मुट्ठिणा अदु फलेण वा । (१।३।१६) अवि सूद व सुवर्क वा सीयपि पुराणकुम्भासं । अनु बक्कसं लागं वा, लढे पिंडे अलए दबिए । पंताणि चैव सेवेज्जा, सीर्यापिडं पुराणकुम्मासं । अदु बुक्कसं पुलागं वा, जवणट्ठाए निसेवए मंथुं ॥ ૪૨૭ (९।४।१३ ) (उत्तरम्भपणानि ८।१२) Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट । आचारांग चूणि में उद्धृत श्लोक चू० पृष्ठ चरणकरणानुयोग के व्याख्या-द्वार १. णिक्खेवेगट्ठ णिरुत्त विही पवत्ती अ केण वा कस्स । तद्दारभेदलक्खणतदरिहपरिसा य सुत्तत्थो । ग्रीष्मकाल की उपयोगी वस्तुएं २. सरसो चंदणपंको अग्धति उल्ला य गंधकासाई । पाडल-सिरीस-मल्लिय-पियंगु काले निदाहमि ।। आचारांग के अध्ययनों के विवरण की प्रतिज्ञा ३. एसो उ बंभचेरे पिंडत्थो वण्णिओ समासेणं । एताहे एक्वेक्कं अज्झयणं वण्णइस्सामि || अर्थ और सूत्र के कर्ता ४. अत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गंथंति गणहरा निउणा। सासणस्स हियट्ठाए, ततो सुत्तं पवत्तइ ।। चू० पृष्ठ ज्ञाति-संबंधों की अस्थिरता ९. जह सउणगणा बहवे समागया एगपादवे रत्ति । वसिऊण जंति विविहा दिसा तह सव्वणाइजणो । (१।३६) २५ श्रुत और संवेग का साहचर्य १०. जह-जह सुतमोगाहति अइसयरसपसरसंजुयमपुवं । तह-तह पह्लाइ मुणी नवनवसंवेगसद्धाए । (११३६) जीवों का सदृश संवेदन ११. कट्टेण कंटएण व पाए विद्धस्स वेयणट्टस्स । जा होति अणिव्वाणी णायव्वा सव्वजीवाणं ।। (१११४८) पचासवें वर्ष से इन्द्रिय-परिहानी १२. पंचासगस्स चक्खू, हायती मज्झिम वयं । अभिक्कंतं संपेहाए, ततो से एति मूढतं ॥ (२।५) जुगुप्सनीय है वृद्धावस्था १३. बलिसंततमस्थिशेषितं, शिथिलस्नायुधृतं कडेवरम् । स्वयमेव पुमान् जुगुप्सते, किमु कांता कमनीयविग्रहा ?।। (२७) ५२ वृद्धवस्था में हास्य, भूषा आदि हास्यास्पद १४. ण तु भूषणमस्य युज्यते, न च हास्य कुत एव विभ्रमः । अथ तेषु प्रवर्तते जतो, धुवमायाति परां प्रपञ्चनाम् ।। तीन पुरुषार्थ : योग्य-अयोग्य-वय १५. अत्थो धम्मो कामो तिण्णि य एयाइं तरुणजोग्गाई। गतजुब्वणस्स पुरिसस्स होंति कंतारभूताई। (२।९) धन है प्रियतर १६. प्राणः प्रियतराः पुत्राः, पुत्रः प्रियतरं धनम् । स तस्य हरते प्राणान्, यो यस्स हरते धनम् ।। (२।१७) 'मग' शब्द के छह अर्थ ५. माहात्म्यस्य समग्रस्य, रूपस्य यशस: श्रियः । धर्मस्याथ प्रयत्नस्य, षण्णां भग इतींगणा ।। आत्मा के आठ प्रकार ६. दविए कसाय जोगे उवजोगे नाण दंसणे चरणे । विरिये आता (य) तथा अदुविहो होइ नायव्वो ॥ (१२) मल्लिकुमारी का छह राजाओं को कथन ७. किंथ तयं पम्हुठं ? जत्थ गयाओ विमाणपवरेसु । बुच्छा समयणिबद्ध देवा ! तं संभरह जाति ।। आज्ञा से अतीन्द्रिय पदार्थों का ग्रहण ८. जिनेन्द्रवचनं सूक्ष्महेतुभिर्यदि गृह्यते । आज्ञया तद्ग्रहीतव्यं, नान्यथावादिनो जिनाः ।। २० Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ९ : आचारांग चूणि में उद्धृत श्लोक ४९९ चू० पृष्ठ धर्म किसको? १७. तस्मै धर्मभृते देयं, यस्य नास्ति परिग्रहः । परिग्रहे तु ये सक्ता, न ते तारयितुं क्षमाः ।। (२।३५) लोम का त्याग : असंतोष की औषधि १८. यथाहारपरित्यागो, ज्वरितस्यौषधं तथा । लोभस्यैवं परित्यागः, असंतोषस्य भेषजम् ।। भौतिक उच्चता अनन्त बार १९. सर्वसुखाण्यपि बहुशः प्राप्तान्यटता मया तु संसारे । उच्चस्थानानि तथा तेन न मे विस्मयस्तेषु ।। (२०५०) नाथ अनाथ हो जाता है २०. होऊण चक्कवट्टी पुहविपती विमलमंडलच्छन्नो। सो चेव णाम तुच्छो अणाहसालोवगो होति ।। (२०५०) सर्व-क्षेत्रग्राही जन्म-मरण २१. वालग्गकोडिमित्तोवि पदेसो पत्थि कोयि लोगंमि । संसारसंसरंतो जत्थ ण जातं मतं वावि ॥ (२०५६) भोग तृप्ति देने में असमर्थ २२. नाग्निस्तृप्यति काष्ठानां, नापगानां महोदधिः । नान्तकृत्सर्वभूतानां, न पुंसां वामलोचना ।। (२२९६) काम-व्याधि की दाहकता २३. एत्तो य उण्हतरीया अण्णा का वेयणा गणिज्जती ?। जं कामवाहिगहितो डज्झति किर चंदकिरणेहिं ।। (२२९९) अदान से मुनि कुपित न हो २४. बहुं परघरे अत्थि, विविहं खाइमसाइमं । ण तत्थ पंडितो कुप्पे, इच्छा दिज्ज परो व णो॥ (२।१०२) अदान से विमनस्कता का निषेध २५. दिट्ठा हि कसेरुमती अणुभूयासि कसेरुमती । पीतं च ते पाणियतं वरि तव णाम न दंसणयं ।।। (२२१०२) चू० पृष्ठ लाभ-अलाम में चिन्तन २६. लभ्यते लभ्यते साधु, साधु एव न लभ्यते । अलब्धे तपसो वृद्धिलब्धे देहस्य धारणा ।। (२।११४,११५) पृ. ८१ बीता समय नहीं लौटता २७. जहीहि विषयान् सौम्य ! त्वरितं यान्ति रात्रयः । गताश्वो (श्च) न निवर्त्तते, वह्निज्वाला इवाम्बरम् ।। (२।१२१,१२२) ८२,८३ यह करूंगा, वह करूंगा २८. इमं तावत्करोम्यद्य, श्वः करिष्यामि वा परम् । चिंतयन् कार्यकार्याणि, प्रेत्यार्थ नाववृद्धयते ॥ (२११३४) लोभी व्यक्ति का चिन्तन २९. कि मे कियं किं च मे किच्चसेसं, कि मे विण8 व हरं व दव्वं । दातव्वलद्धं च विचिंतणेण, तेसिं ण संदेहमुवेति मंदे ॥ (२।१३४) ८५,८६ काम-सेवन का निषेध ३०. दुःखातः सेवते कामान्, सेवितास्ते च दुःखदाः । यदि ते न प्रियं दुःखं, प्रसंगस्तेषु न क्षमः ।। (२।१३५) कामजित् विश्वजित् ३१. शिश्नोदरकृते पार्थ !, पृथिवीं जेतुमच्छसि । जय शिश्नोदरं पार्थ !, ततस्ते पृथिवी जिता ॥ (२।१३६) काम : किंपाक फल के समान ३२. किंपाकफलसमाना विषया हि निसेव्यमाणरमणीयाः । पश्चाद् भवन्ति कटुका त्रपुषिफलनिबन्धनैस्तुल्याः ॥ (२११५९) वीर का निरुक्त ३३. विदारयति तत्कर्म, तपसा च विराजते । तपोवीर्येण युक्तश्च, वीरो वीरेण दर्शितः ॥ (२।१६०) दशवेश्यासमो नृपः ३४. दशसूना समं चक्रं, दशचक्रसमो ध्वजः । दशध्वजसमा वेश्या, दशवेश्यासमो नृपः । (२।१७४) ७६ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० आचारांगभाष्यम् चू० पृष्ठ प्रवचन के अविवेक का परिणाम ३५. तत्थेव य निट्ठवणं बंधण निच्छुभण कडगमद्दो य । णिव्विसयं व नरिंदो करिज्ज संघपि सो छुट्टो ।। (२११७५) अज्ञान की दुर्जेयता ३६. न ते कष्टतरं मन्ये, जगतो दुःखकारणम् । यथाऽज्ञानं महारोगं, दुरन्तमतिदुर्जयम् ॥ (३१) १२० प्रमाद से भव-भ्रमण ३७. रागद्वेषवशाविद्धे, मिथ्यादर्शनदुस्तरम् । जन्मावर्ते जगत् सर्वं, प्रमादात् भ्राम्यते भृशम् ॥ (३।६) कर्म से कर्म और भव से भव ३८. कर्मणो जायते कर्म, ततः संजायते भवः । भवाच्छरीरदुःखं च, ततश्चान्यतरो भवः ।। (३।१९) १०९,११० जातिस्मृति न होने का कारण ३९. जातमाणस्स जं दुक्खं, मरमाणस्स जंतुणो। तेण दुक्खेण संमूढो, जाति ण सरति अप्पणो॥ (३।२६) आत्मनः प्रतिकूलानि ४०. यथेष्टविषयात्सातमनिष्टादितरत् तव । अन्यतरो (अपरे) ऽपि विदित्वैवं, न कुर्यादप्रियं परे ।। . (३२६) मोक्ष कब ? ४१. सुयनाणम्मि वि जीवो वट्टतो सो ण पाउणइ मुक्खं । जह छेतलद्धणिज्जामओवि ण पाउणइ मुक्खं ॥ (३।२८) दर्शन की प्रधानता ४२. भट्टेण चरित्ताओ सुट्ट्यरं दसणं गहेयव्वं । सिझंति चरणरहिया दसणरहिया ण सिझति।। (३१२८) हंसने से हानि ४३. हसता किल शंबेन, दुर्वासा कोपितो ऋषिः । तेन विष्णु कुलं दग्धं, हसंतं पितृघातकम् ॥ (३॥३२) ११२ आगमों की आप्तता ४४. वीतरागा हि सर्वज्ञा, मिथ्या न ब्रुवते क्वचित् । आगमो हयाप्तवचनं, आप्तं दोषक्षयाद्विदुः ।। वीतरागोऽनृतं वाक्यं, न याद् हेत्वसंभवात् ।। (३।४०) कामना का जाल ४५. न शयानो जयेन्निद्रा, न भुंजानो जयेत् क्षुधाम् । ___ न काममानः कामानां, लोभेनेह प्रशाम्यति ।। (३।४२) विषय किंपाकफल सदृश ४६. किंपाकफलसमाना विषया हि निषेव्यमानरमणीयाः । पश्चाद्भवन्ति कटुकास्त्रपुषिफलनिबन्धनस्तुल्याः ।। (३।४५) प्रवृत्ति क्यों ? ४७. आहाराद्यर्थं कर्म कुर्यादनिन्द्यं, कुर्यादाहारं तु प्राणसंधारणार्थम् । प्राणाः संधार्यास्तत्त्वजिज्ञासनाथ, तत्त्वं जिज्ञास्यं येन दुःखाद्विमुच्ये ।। (३।५६) आत्मगुप्त की अजेयता ४८. यस्य हस्तौ च पादौ च, जिह्वाग्रं च सुसंयतम् । इंद्रियाणि च गुप्तानि, राजा तस्य करोति किम् ।। (३।५८) वैराग्य की श्रेष्ठता ४९. न तृप्तोऽसि यदा कामैः, सेवितरप्यनेकशः । स नाम तेषु वृत्तेऽन्तो, यतो वैराग्यमाप्नुहि ॥ (३।६१) कर्म का अन्त : भव का अन्त ५०. दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं, प्रादुर्भवति नाङ कुरः । कर्मवीजे तथा दग्धे, न रोहति भवाङ कुरः ।। (३८७) जो आस्रव वे ही परित्रव ५१. यथा प्रकारा यावन्तः, संसारावेशहेतवः । तावंतस्तद्विपर्यासा, निर्वाणसुखहेतवः ।। (४।१२) कर्ता ही भोक्ता ५२. एक: प्रकुरुते कर्म, भुंक्ते एकश्च तत्फलम् । जायत्येको म्रियत्येको, एको याति भवान्तरम् । (४।३२) १४५,१४६ Jain Education international Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ए : आचारांग चूणि में उद्धृत श्लोक ५०१ चू० पृष्ठ (५॥६०) १८१ १८६ चू० पृष्ठ कर्म या भव है मृत्यु वीर कौन? ५३. मां मारयते यस्मान्ममारिभूतश्च मारयति । ६२. विदारयति यत्कर्म, तपसा च विराजति । वान्तो अनुसमयं मरणादपि कर्म भवो वा भवेन्मारः ।। तपोवीर्येण युक्तश्च, वीरो वीरेण कीर्त्यते ।। (१३) १५८ संसार के प्रकार और हेतु एकाको विहरण के अपाय ५४. दम्वे खित्ते काले भावे य भवे होति संसारों'। ६३. साहम्मिएहि संबुद्धतेहिं एगाणियो तु जो विहरे । तस्स पुण हेतुभूतं संसारे कम्ममट्टविहं । आयंकपउरताए छक्कायवहो तु भइयव्वो ।। (२९) (१६२) कर्म है प्रलीन संघ-निर्गत का विनाश ५५. प्रलीयते भयं येन, यच्च भूत्वा प्रलीयते । । ६४. गच्छंमि केइ पुरिसा सारणवीयीहि चोदतिा संता। प्रतीनमुच्यते कर्म, भृशं लीनं यदात्मनि ।। णिति ततो सुहकामी णिग्गयमेत्ता विणस्संति ।। १६४ (५२६२) पराक्रम की विशेषता काम और संकल्प का साहचर्य ५६. जालस्सेण समं सोक्खं, ण विज्जा सव्वणिद्दया । ६५. काम ! जानामि ते मूलं, संकल्पात् किल जायसे । ण वेरग्गं ममत्तेणं, णालभेसु दयालुया । संकल्पं न करिष्यामि, तेन मे न भविष्यसि ।। (५४४१) १७३ (२४) प्रतिद्वन्द्विता ५७. आविः परिषदि धम्म काञ्चनसिंहासने वाणस्य (मुनेः)। सत्य है वीतराग वचन योजननिर्झरिरवो योऽभून्नोच्चः कथं स सिहनिनाद: ? ६६. वीतरागा हि सर्वज्ञा, मिथ्या न ब्रुवते वचः । (५२४१) यस्मात् तस्माद्वचस्तेषां, सत्यं भूतार्थदर्शनम् ॥ शील के लक्षण (५३९५) ५८. महाव्रतसमाधानं, तथैवेन्द्रियसंवरः । कामभोग की अतृप्ति त्रिदंडविरतित्वं च, कषायानां च निग्रहः ।। ६७. तणकट्टेण व अग्गी लवणजलो वा णदीसहस्सेसुं । (५।४४) ण तिसा जीवस्स सक्का, तिप्पेउं कामभोगेहिं ।। रूप की प्रधानता (६।२१) ५९. चाक्षुषा चक्षुषा येन, विषया रूपिणिस्सिता । सुत्रार्थी का सिंहावलोकन रूपप्रेष्ठाश्च सर्वेऽपि, रूपस्य ग्रहणं ततः ॥ ६८. गंतु गंतुं सीहो पुणो पुणो मग्गओ पलोएइ । (४९) सुत्तत्थीवि हु एवं गतंपि सुत्तं पलोएति । प्रवचन के उद्भावक (६।२२) ६०. प्रावचनी धर्मकथी वादी नैमित्तिकस्तपस्वी च । कुटुम्ब के पंक में निमग्न विज्जासिद्धः ख्यातः कविरपि चोद्भावकास्त्वष्टौ ।। (१५३) ६९. पुत्रदारकुटुंबेषु, सक्ता मोदंति जन्तवः । सरःपाणवे मग्ना, जीर्णा वनगजा इव ।। त्रियाचरित्र (६।२८) ६१. एता हसंति च रुदंति च अर्थहेतोः विश्वासयंति च नरं च न विश्वसंति। मनुष्यों के आयतन तस्मान्नरेण कुलशीलसमन्वितेन, ७०. गिहाणि धनधान्यं च, कषाया विषयास्तथा । नार्य : श्मशानसुमना इव वर्जनीयाः ।। अत्थो वाऽसंयमो ह्यते, सर्वमायतनं नृणां ॥ (५१५४) १७९ (६।३०) १९१ १७५ २०६ १७६ २०७ २०९ Jain Education international Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ आचारांगभाष्यम् चू० पृष्ठ (६।३०) चू० पृष्ठ वसु : अनुवसु ७१. वीतरागो वसुज्ञेयो, जिनो वा संयतोऽथवा । सरागोऽनुवसुः प्रोक्तः, स्थविरः श्रावकोऽथवा ।। २१० ७२. यस्त्वप्रमादेन तिरो प्रमादः, स्याद्वापि यत्तेन पुनः प्रमादः । विपर्ययेणापि पठति यत्र, सूत्राण्यधीगारवशाद् विधिज्ञाः ॥ २१२ क्रोध क्यों ? ७३. आक्रुष्टेन मतिमता तत्त्वार्थविचारणे मतिः कार्या । यदि सत्यं क: कोप: ? स्यादनृतं किं नु कोपेन ? (६।४३) सम्यक्त्व ७४. प्रशस्तः शोभनश्चैव, एकः संगत एव वा । इत्येतै रुपसृष्टस्तु, भावः सम्यक्त्वमुच्यते ॥ (६।६५) धर्म की परिभाषा ७५. दुर्गतिप्रवृत्तं जीवं, यस्माद् धारयते ततः । धत्ते चैनान् शुभे स्थाने, तस्मात् धर्म इति स्मृतः ।। (६।९१) २३० आत्मनः प्रतिकूलानि" ७६. न तत्परस्य संदध्यात्, प्रतिकूलं यदात्मनः । एषः संग्राहिको धर्मः, कामादन्यत्प्रवर्तते ।। सत्कार्यवाद ७७. असदकरणात् उपादानग्रहणात्सर्वसम्भवाभावात् । शक्यस्य शक्यकरणात् कारणभावाच्च सत्कार्यम् ।। (८1५) श्रुत का प्रवर्तन ७८. अत्थं भासइ अरहा सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं । सासणस्स हियट्ठाए, ततो सुत्तं पवत्तति ।। (८।३१) वसुमान् कौन ? ७९. संजमे वसता तु वसुर्वसी वा, येनेन्द्रियाणि तस्य वशे । वसु च धनं ज्ञानाद्यं, तस्यास्तित्वान् मुनिर्वसुमां ।। ___ २१९ वस्त्र धारण का प्रयोजन ८०. गरीयस्त्वात् सचेलस्स, धर्मस्यान्यः तथागतः । शिष्यसंप्रत्ययाच्चव, वस्त्रं दधे न लज्जया ।। (९।११२) उपधि की उपाधि ८१. कतिया वच्चति सत्थो ? कि भंडं ? कत्थ ? कित्तिया भूमी ? को कयविक्कयकालो ? णिव्विसति को ? कहिं ? केण? ॥ (९।१०१५) अर्हत् गोचरी क्यों नहीं जाते ? ८२. देविंदचक्कवट्टी मंडलिया ईसरा तलवरा य । अभिगच्छंति जिणिदं गोयरचरितं ण सो अडति ॥ (९।१।१९) ३०९ २३६ Jain Education international Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १० आचारांग वृत्ति में उद्धृत श्लोक . वृत्ति पत्र वृत्ति पत्र प्रावचनी की योग्यता (८ से ११) ८. देसकुलजाइरूवी संघयणी धिइजुओ अणासंसी। अविकत्थणो अमाई थिरपरिवाडी गहियवक्को ।। पहला अध्ययन तीर्थ की महिमा १. जयति समस्तवस्तुपर्यायविचारापास्ततीथिक, विहितककतीर्थनयवादसमूहवशात्प्रतिष्ठितम् । बहुविधभङ्गिसिद्धसिद्धान्तविधूनितमलमलीमसं, तीर्थमनादिनिधनगतमनुपममादिनतं जिनेश्वरैः ।। ९. जियपरिसो जियनिद्दो मज्झत्थो देसकालभावन्न । आसन्नलद्धपइभो णाणाविहदेसभासण्णू ।। १०. पंचविहे आयारे जुत्तो सुत्तत्थतदुभयविहिन्न । . आहरणहेउकारणणयणि उणो गाहणाकुसलो ॥ आचारशास्त्र का निरूपण २. आचारशास्त्रं सुविनिश्चितं यथा, जगाद वीरो जगते हिताय यः । तथैव किञ्चिद् गदत: स एव मे, पुनातु धीमान् विनयापिता गिरः ।। ११. ससमयपरसमयविऊ गंभीरो दित्तिमं सिवो सोमो । गुणसयकलिओ जुत्तो पवयणसारं परिकहेउं ।। व्याख्या-द्वार १२. उद्देसे णिद्देसे य णिग्गमे खेत्तकालपुरिसे य। कारणपच्चयलक्खण णए समोयारणाऽणुमए।। गंधहस्ति की बहुश्रुतता ३. शस्त्रपरिज्ञाविवरणमतिबहुगहनं च गन्धहस्तिकृतम् । तस्मात् सुखबोधार्थ गृह्णाम्यहमञ्जसा सारम् ।। ३ दर्शन की विशुद्धि से चरण-विशुद्धि ४. चरणपडिवत्तिहेउं धम्मकहाकालदिक्खमादीया । दविए दंसणसोही सणसुद्धस्स चरणं तु ।। १३. कि कतिविहं कस्स कहि केसु कहं केच्चिरं हवइकालं । कइ संतरमविरहियं भवागरिस फासणणिरुत्ती॥ (विशे० भा० ९७३,९७४) द्रव्य-आचार १४. णामणधोयणवासणसिक्खावणसुकरणाविरोहीणि । दव्वाणि जाणि लोए दवायारं वियाणाहि ।। धेयस् निर्विघ्न नहीं ५. श्रेयांसि बहुविघ्नानि, भवन्ति महतामपि । अश्रेयसि प्रवृत्तानां, क्वापि यान्ति विनायकाः ।। जान-आचार १५. काले विणए बहुमाणे उवहाणे तहा अणिण्हवणे । वंजणअत्थतदुभए अट्ठविहो णाणमायरो ।। अज्ञानी और ज्ञानी ६. जं अन्नाणी कम्म खवेइ बहुयाहिं वासकोडीहिं । तं नाणी तिहिं गुत्तो खवेइ उस्सासमित्तेणं ।। दर्शन-आचार १६. निस्संकिय निक्कंखिय निवितिगिच्छा अमूढदिट्ठी य । उववूहथिरीकरणे वच्छल्ल पभावणे अट्ठ॥ व्याख्या-द्वार ७. निक्खेवेगट्ठनिरुत्तिविहिपवित्ती य केण वा कस्स । तद्दारभेयलक्खण तदरिहपरिसा य सुत्तत्थो॥ आठ प्रवचन माताएं १७. तिन्नेव य गुत्तीओ पंच समिइओ अट्ठ मिलियाओ। पवयणमाईउ इमा तासु ठिओ चरणसंपन्नो॥ Jain Education international Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ वृत्ति पत्र बाह्य तप १८. अणसण मूणोयरिया वित्तीसंखेवणं रसच्चाओ। कायकिलेसो संलीणया य बज्झो तवो होइ।। आचारांगभाष्यम् वृत्ति पत्र पुरुषार्थ सबके लिए २९. किं पुण अवसेसेहिं दुक्खक्खयकारणा सुविहिएहिं । होंति न उज्जमियव्वं सपच्चवायंमि माणुस्से ।। आभ्यन्तर तप सूत्र के आठ गुण १९. पायच्छित्तं विणओ वेयावच्चं तहेव सज्झाओ। ३०. अप्पग्गंथमहत्थं बत्तीसादोसविरहियं जं च । झाणं उस्सग्गोऽवि य अभितरओ तवो होइ । लक्खणजुत्तं सुत्तं अट्ठहि य गुणेहिं उववेयं । वीर्य-आचार २०. अणिगृहियबलविरिओ परक्कमइ जो जहुत्तमाउत्तो । 'नो' शब्द की अर्थवत्ता जुंजइ य जहाथाम नायव्वो वीरियायारो॥ ३१. प्रतिषेधयति समस्तं प्रसक्तमर्थं च जगति नोशब्दः । स पुनस्तदवयवो वा तस्मादर्थान्तरं वा स्याद् ।। ग्रीष्म ऋतु में (१११) २१. सरसो चंदणपंको अग्घइ सरसा य गंधकासाई। अन्यतीथिकों के ३६३ भेद पाडलि सिरीस मल्लिय पियाइं काले निदाहमि ।। ३२. असियसयं किरियाणं अकिरियवाईण होइ चुलसीई। एकार्थक क्यों ? अन्नाणिय सत्तट्ठी वेण इयाणं च बत्तीसा ॥ २२. बंधाणुलोमया खलु सत्थंमि य लाघवं असम्मोहो। (१२) मंतगुण दीवणावि य एगट्ठगुणा हवंतेए। कालवादी ३३. कालः पचति भूतानि, कालः संहरते प्रजाः । षट्स्थानपतित कालः सुप्तेषु जागत्ति, कालो हि दुरतिक्रमः ॥ २३. णणु सव्वणभपएसाणंतगुणं पढमसंजमट्ठाणं । (१२) छविहपरिवुड्ढीए छट्ठाणासंख या सेढी ।। नियतिवादी समवतार-द्वार ३४. प्राप्तव्यो नियतिबलाश्रयेण योऽर्थः, २४. अन्ने के पज्जाया ? जे णुवउत्ता चरित्तविसयम्मि। सोऽवश्यं भवति नृणां शुभोऽशुभो वा । जे तत्तोऽणंतगुणा जेसि तमणंतभागम्मि । भूतानां महति कृतेऽपि हि प्रयत्ने, नाभाव्यं भवति न भाविनोऽस्ति नाशः ॥ २५. अन्ने केवलगम्मत्ति ते मई, ते य के तदन्भहिया ?। (११२) एवंपि होज्ज तुल्ला णाणंतगुणत्तणं जुत्तं । . स्वभाववादी २६. सेढीसु णाणदंसणपज्जाया तेण तत्पमाणेसा । ३५. कः कण्टकानां प्रकरोति तेक्षण्यं, विचित्रभावं मृगपक्षिणां च । इह पुण चरित्तमेत्तोवओगिणो तेण ते थोवा ।। स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्तं, न कामचारोऽस्ति कुतः प्रयत्न: ?॥ (१२) ब्रह्मचर्य के अठारह विकल्प ३६. स्वभावतः प्रवृत्तानां, निवृत्तानां स्वभावतः । २७. दिव्यात्कामरतिसुखात् त्रिविधं त्रिविधेन विरतिरिति नवकम् । नाहं कर्तेति भूतानां, यः पश्यति स पश्यति ।। __औदारिकादपि तथा तद् ब्रह्माष्टादश विकल्पम् । (१२) ८. ३७. केनाञ्चितानि नयनानि मृगाङ्गनानां ?, तीर्थकर का पुरुषार्थ कोऽलङ्करोति रुचिराङ्गरुहान् मयूरान् ?। २८. तित्थयरो चउणाणी सुरमहिओ सिज्झियव्वय धुवंमि । कश्चोत्पलेषु दलसन्निचयं करोति ?, अणिगृहियबलविरिओ सव्वत्थामेसु उज्जमइ ॥ को वा दधाति विनयं कुलजेषु पुंस्सु ?।। (१२) Jain Education international Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १.: आचारांग वृत्ति में उद्धृत श्लोक वृत्ति पत्र वृत्ति पत्र २२ ४. विगलिदिएसु दो दो चउरो चउरो य णारयसुरेसुं। तिरिएसु हुंति चउरो चोद्दस लक्खा य मणएसु । (१८) गुम-अशुभ योनियां ४९. सीयादी जोणीओ चउरासीती य सयसहस्साई । असुभाओ य सुभाओ तत्थ सुभाओ इमा जाण ॥ ५०. अस्संखाउमणुस्सा राईसर संखमादिआऊणं । तित्थगरनामगोत्तं सव्वसुहं होइ नायव्वं ।। (१०८) ५१. तत्थवि य जाइसंपन्नतादि सेसा उ हुंति असुभाओ। देवेस किविसादी सेसाओ हुंति उ सुभाओ। (१०) ५२. पंचिदियतिरिएसुं हयगयरयणे हवं ति उ सुभाओ। सेसाओ असुभाओ सुभवण्णेगिदियादीया । ईश्वरवादी ३८. अज्ञो जन्तुरनीशः स्यादात्मनः सुखदुख योः । ईश्वरप्रेरितो गच्छेच्छ्वध्र वा स्वर्गमेव वा ।। (१२) १६ आत्माद्वैतवादी ३९. एक एव हि भूतात्मा, भूते भूते व्यवस्थितः । एकधा बहुधा चैव, दृश्यते जलचन्द्रवत् ।। (१२) यवृच्छावादी ४०. अतक्कितोपस्थितमेव सर्व, चित्रं जनानां सुखदुःखजातम् । काकस्य तालेन यथाऽभिघातो, न बुद्धिपूर्वोऽत्र वृथाऽभिमानः ।। १७ ४१. सत्यं पिशाचाः स्म वने वसामो, भेरि कराग्रैरपि न स्पृशामः । यदृच्छया सिद्धयति लोकयात्रा, भेरी पिशाचाः परिताडयन्ति ॥ (१२) विनयवादी ४२. विणया णाणं णाणाओ दसणं दंसणाहि चरणं च । चरणाहिंतो मोक्खो मोक्खे सोक्खं अणाबाहं ॥ (१२) १७ आत्मा की अस्वीकृति के दोष ४३. शास्ता शास्त्रं शिष्यः प्रयोजनं वचनहेतुदृष्टान्ताः । सन्ति न शून्यं ब्रुवतस्तदभावाच्चाप्रमाणं स्यात् ॥ १८ ४४. प्रतिषेद्धप्रतिषेधो स्तश्चेच्छ्न्यं कथं भवेत्सर्वम् ?। तदभावेन तु सिद्धा अप्रतिषिद्धा जगत्यर्थाः ।। (१२) परव्याकरण से जातिस्मृति ४५. किं थ तयं पम्हुठं जं च तया भो ! जयंतपवरंमि । वुच्छा समयनिबद्धं देवा ! तं संभरह जाति ।। ५३. देविंदचक्कवट्टित्तणाई मोत्तुं च तित्थगरभावं । अणगारभाविताविय सेसा उ अणंतसो पत्ता ।। (१२) कर्म से संसार-चक्र ५४. तैः कर्मभिः स जीवो विवशः संसारचक्रमुपयाति । द्रव्यक्षेत्राद्धाभावभिन्नमावर्तते बहुशः ।। (१०८) चतुर्गति में भ्रमण ५५. नरकेषु देवयोनिषु तिर्यग्योनिषु च मनुजयोनिषु च । पर्यटति घटीयन्त्रवदात्मा बिभ्रच्छरीराणि ।। (१८) नारक-तिर्यञ्चों के दुःख ५६. सततानुबद्धमुक्तं दुःखं नरकेषु तीव्रपरिणामम् ।। तिर्यक्षु भयक्षुत्तृड्वधादिदुःखं सुखं चाल्पम् ॥ (१८) मनुष्य और देवों के सुख-दुःख का विमर्श ५७. सुखदुःखे मनुजानां मनः शरीराश्रये बहुविकल्पे । सुखमेव हि देवानां दुःखं स्वल्पं च मनसि भवम् ।। (१८) कर्म का प्रभाव ५८. कर्मानुभावदुःखित एवं मोहान्धकारगहनवति । __ अन्ध इव दुर्गमार्गे भ्रमति हि संसारकान्तारे ॥ (१८) २३ अहंकार से कृत कार्यों का शल्य ४६. विहवावलेवनडिएहि जाई कीरंति जोव्वणमएणं । वयपरिणामे सरियाई ताई हियए खुडुक्कंति ॥ (१६) चौरासी लाख जीव-योनियां ४७. पुढवीजलजलणमारुय एक्कक्के सत्त सत्त लक्खाओ। वण पत्तेय अणंते दस चोद्दस जोणिलक्खाओ ।। (१८) २३ Jain Education international Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ मोह से दुःख की परम्परा ५९. दुःखप्रतिक्रियार्थं सुखाभिलाषाच्च पुनरपि तु जीवः । प्राणिवधादीन् दोषानधितिष्ठति मोहसंयमः || (815) ६०. नाति ततो बहुविधमन्यत्पुनरपि नवं सुबह कर्म । तेनाथ पच्यते पुनरग्नेरन प्रविश्येव ।। (१1० ) ६१. एवं कर्माणि पुनः पुनः स बध्नन् तथैव सुखकामो बहुदुःखं संचारमनादिक भ्रमति ॥ (214) मनुष्यत्व आदि की दुर्लभता ६२. एवं भ्रमतः संसारसागरे दुर्लभं मनुष्यत्वम् । संसारमहत्त्वाधामिकर दुष्कर्म्मबाहयैः ॥ (815) ६३. आर्यो देश : कुलरूपसम्पदायुश्च दीर्घमारोग्यम् । यतिसंसर्गः श्रद्धा धम्मंश्रवणं च मतिर्तश्श्यम् ॥ (१८) ६४. एतानि दुर्लभानि प्राप्तवतोऽपि दृढमोहनीयस्य । कुपथाकुलेऽर्हदुक्तोऽतिदुर्लभो जगति सन्मार्गः ॥ (१1८) अल्प सुख के लिए अनत्य हिंसा और परिग्रह ६५. द्वे वाससी प्रवरयोषिदपायशुद्धा, शय्यासनं करिवरस्तुरगो रथो वा काले भिषनियमिताशनपानमात्रा, राज्ञः परानयमिव (पराको रोग) सर्वमवेहि शेषम् ॥ (8180) ६६. पुष्ट्यर्थमन्नमिह यत् प्रणिधिप्रयोगः, संत्रासदोष कलुषो नृपतिस्तु भुंक्ते । यद निर्भयः प्रशमसौख्यरतिश्य भे तत् स्वादुतां भृशमुपैति न पार्थिवानम् ॥ (8180) ६७. भृत्येषु मन्त्रिषु सुतेषु मनोरमेषु, कान्तासु वा मधुमदांकुरितेक्षणासु । विश्रम्भमेति न कदाचिदपि क्षितीशः, सर्वाभिशङ्कितमतेः कतरतु सौख्यम् ॥ (8180) च । जो देता है वही पाता है ६८. वारिदस्तृप्तिमाप्नोति, सुखमक्षयमन्नदः । तिलप्रदः प्रजामिष्टामायुष्कमभयप्रदः ॥ (१1१० ) (मनुस्मृति ) वृत्ति पत्र २३ २३ २३ २३ २३ २३ २४ २४ २४ २४ उत्तरोत्तर पापकर्म का आसेवन ६९. आदी प्रतिष्ठाऽधिगमे प्रयासो, दारेषु पश्चात् गुणः सुतेषु तु पुनस्तेषु गुणप्रकर्षं, चेष्टा तदुच्चैः पदलंघनाय || (१1१०) पर्याप्ति की परिभाषा ७०. आहारसरी रिन्दिय ऊसासवओमणोऽहिनिव्वत्ती । होति जतो दलियाओ करणं पइ सा उ पज्जत्ती ॥ (१०१२) आर्त बनने के कारण ७१. रागोसकसाएहि इंदिएहि पहि । दुहा वा मोहणिज्जेण, अट्टा संसारिणो जिया || (१०१३) जघन्यतम ज्ञान के धनी ७२. सर्वनिकृष्ट जीवस्य दृष्ट उपयोग एष वीरेण । सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तकानां स च भवति विज्ञेयः ॥ (१।१३) ज्ञान की क्रमशः वृद्धि ७३. तस्मात्प्रभृति ज्ञानविवृद्धिदृष्टा जिनेन जीवानाम | लब्धिनिमित्तैः करणैः कायेन्द्रियवाङ मनोभिः ॥ (१।१३) आचारांगभाष्यम् वृत्ति पत्र निर्जीव और सजीव ७४. तणोऽतिविगार सजाइतोऽणिताउ । सत्यासत्यहयाओ निज्जीवसजीवरूवाओ || (१।३५) अन्धा कौन ? ७५. एक हि चक्षुरम सहवो विवेकः, तद्वद्भिरेव सह संवसतिद्वितीयम् । एतद्वयं भूवि न यस्य वस्तोः ? तस्यापमा चलने खलु कोऽपराधः १ ॥ (१/३५) परिणामों के उतार-चढाव का कालमान ७६. नान्तर्मुहूर्त्त कालमतिवृत्य शक्यं हि जगति संक्लेष्टुम् । नापि विमोट शक्यं प्रत्यक्षो ह्यात्मनः सोऽर्थः ॥ (२०२६) ७७. उपयोग परिवृत्तिः सा निर्हेतुका स्वभावत्वात् । प्रत्यक्ष हि स्वभावो व्यर्थान हेतुक्तिः ॥ (१३९) २४ २७ ३२ ३२ ३२ ३७ ३८ ३९ ३९ Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १० : आचारांग वृत्ति में उद्धृत श्लोक श्रुत और संवेग का साहचर्य ७८. जह जह सुयमवगाहइ अइसयरसपसरसंजुयमउव्वं । तह तह पल्हाद मुणी नवनवसंवेगसढाए || (१/३६) देव क्या ? ७९. यत् स्वयमदुःखितं स्यान्न च परदुःखे निमित्तभूतमपि । केवलमुपग्रहकरं धर्मकृते तद् भवेद्देयम् ॥ (२०४८) स्नान है कामांग ८०. स्नानं मदद करं, कामाङ्ग प्रथमं स्मृतम् । तस्मात्कामं परित्यज्य, नैव स्नान्ति दमे रताः ॥ (१।६१) अग्निशस्त्र की तीक्ष्णता ८१. जायतेयं न इच्छन्ति, पावगं जलइत्तए । तिखमवरं सत्यं सम्वओऽवि दुराशयं ।। (१०६७) २. पा पनि उह अदिसामवि अहे दागिनानि दहे उत्तरजोऽवि य ॥ (१/६७) ८३. भूपापमेसमा पालो हव्यवाहीन संसो पवार, संजओ किमि नारभे ॥ (१.६७) वनस्पतिका की सचेतना ८४. वृक्षादयोऽक्षाद्युपलब्धिभावात्, पाण्यादिसङ्घातवदेव देहाः । तद्वत् सजीवा अपि देहतायाः, सुप्तादिवत् ज्ञानसुखादिमन्तः ॥ (0312) निगोद: अनन्त जीवों का संघात ८५. गोलाय असंखेज्जा हुति णिओआ असङ्ख्या गोले एक्केक्को य निओओ अनंतजीवो मुणेयव्वो । (8180) वृत्ति पत्र ऐकान्तिक ज्ञान-क्रिया निष्फल ६६. नाणं किरियारहियं किरियामेत्तं च दोऽवि एगन्ता । न समत्था दाउ जे जम्ममरणदुक्खदाहाई || (१1९० ) ३९ ४२ ४३ ४७ (दसवेल ६३२-३४) ४७ ४७ ५३ ૪ ५६ वर्जनीय : इन्द्रियविषय या रागद्वेष ? ८७. न शक्यं रूपमद्रष्टुं चक्षुर्गोचरमागतम् । रागद्वेषौ तु यो तत्र, तौ बुधः परिवर्जयेत् ॥ (११९३) चौरासी लाख जीवयोनि ८८. पुढविदगअगणिमा रुयपत्ते यनिओयजीव जोणीणं । सत्तर सत्ता सत्ता सत्तग दस चोट्स य लक्खा || (१।११८) ८९. विगलिदिए दो दो चउरो चउरो य नारयसुरेसु । तिरियाण होन्ति चउरो चोट्स मणुआण लक्खाई || (१।११०) जीवों की कुलकोटियां (उन्नीस नील पचहत्तर खरब) ९०. कुल कोडिसयसहस्सा बत्तीसदृट्ठनव य पणवीसा । एगिदिय वितिदिवचउरिदियहरियकायाणं ॥ (१९१८) ९१. अद्धतेरस बारस दस दस नव चेव कोडिलक्खाई । जलय रपक्खच उप्पयउरभुयपरिसप्पजीवाणं ॥ ( ११११८) ९२. पणुवीसं छब्बीसं च सयसहस्साई नारयसुराणं । बारस य सयसहस्सा कुलकोडीणं मणुस्साणं ॥ (१।११८) ९३. एगा कोडाकोडी सत्ताणउति च सयसहस्साइं । पचा च सहस्सा कुलकोडीणं मुणेयब्बा || (११११८) प्राण-सत्व आदि की परिभाषा ९४. प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ता, भूतास्तु तरवः स्मृताः । जीवाः पञ्चेन्द्रियाः प्रोक्ताः शेषाः सत्त्वा उदीरिताः ॥ (१।१२१) 9 द्रव्य आतंक का उदाहरण (९५ से १०९ ) ९५. जंबुद्दीवे दीवे भरहे वासंमि अत्थि सुपसिद्धं । बहुगवरगुणसमिदं रामहिं नाम गयति । ( १११४६) ९६. तत्यासि मयारिमट्गो भुवणनिग्यवपावो । अभिगवनीवाजीव राया गामेण जवस || ( १/१४६) ९७. अणवरयगरुयसंवेगभाविओ धम्मघोसपायमूले । सो अन्नया कयाई पमाइणं पासए सेहं ॥ (१११४६) ५०७ वृत्ति पत्र ५७ ६१ ६१ ६१ ६१ ६१ ६१ ૬૪ ६८ ६८,६९ ६९ Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ आचारांगभाव्यम् वृत्ति पत्र वृत्ति पत्र ९८. चोइज्जतमभिक्खं अवराहं तं पुणोऽवि कुणमाणं । . . तस्स हियठें राया सेसाण य रक्खणट्टाए । (१११४६) ९९. आयरियाणुण्णाए आणावइ सो उणिययपुरिसेहिं ।। तिव्वुक्कडदव्वेहिं संधियपुव्वं तहिं खारं ।। (१।१४६) १०.. पक्खित्तो जत्थ णरो णवरं गोदोहमेत्तकालेणं । णिज्जिण्णमंससोणिय अट्ठियसेसत्तणमुवेइ ।। (१।१४६) १०१. दो ताहे पुव्वमए पुरिसे आणावए तहिं राया। एगं गिहत्थवेसं बीयं पासंडिणवत्थं ॥ (१।१४६) १०२. पुव्वं चिय सिक्खविए ते पुरिसे पुच्छए तहिं राया। को अवराहो एसिं ? भणंति आणं अइक्कमइ ।। (१३१४६) १०३. पासंडिओ जहुत्ते ण वट्टइ अत्तणो य आयारे । पक्खिवह खारमझे खित्ता गोदोहमेत्तस्स । (१।१४६) १०४. दळूणऽट्ठिवसेसे ते पुरिसे अलियरोसरत्तच्छो। सेसं आलोयंतो राया तो भणइ आयरियं ।। (१।१४६) १०५. तुम्हवि कोऽवि पमादी? सासेमि य तंपि णत्थि भणइ गुरु । जइ होही तो साहे तुम्हे च्चिय तस्स जाणिहिह ।। (१।४६) १०६. सेहो गए णिवंमी भणई ते साहुणो उ ण पुणत्ति । होहं पमायसीलो तुम्हं सरणागओ धणियं ।। (१३१४६) १०७. जइ पुण होज्ज पमाओ पुणो ममं सडुभावरहियस्स । तुम्ह गुणेहिं सुविहिय ! तो सावगरक्खसा मुच्चे ।। (१२१४६) १०८. आयंकभओविग्गो ताहे सो णिच्चउज्जुओ जाओ। कोवियमती य समए रण्णा मरिसाविओ पच्छा ।। (१३१३६) १०९. दव्वायंकादंसी अत्ताणं सव्वहा णियत्तेइ । अहियारंभाउ सया जह सीसो धम्मघोसस्स ॥ ६९ कष्टानुभूति की समानता ११९. कट्टेण कटएण व पाए विद्धस्स वेयणट्टस्स । जह होइ अनिव्वाणी सव्वत्थ जिएसु तं जाण ॥ (१।१४८) आयतुले पयासु १११. मरिष्यामीति यद् दुःखं, पुरुषस्योपजायते । शक्यस्तेनानुमानेन, परोऽिप परिरक्षितुम् ।। (१११४६) ज्ञान और क्रिया : पंगु और अन्धे का दृष्टांत ११२. हयं नाणं कियाहीणं, या अन्नाणओ किया। पासंतो पंगुलो दड्ढो, धावमाणो य अंधओ।। (१३१७७) नय : सम्यक् या मिथ्या? ११३. एवं सव्वेऽवि णया मिच्छादिट्ठी सपक्खपडिबद्धा । अण्णोण्णणिस्सिया पुण हवंति ते चेव सम्मत्तं ।। (१११७७) सर्वनय की सार्थकता ११४. सव्वेसिपि णयाणं बहुविधवत्तव्वयं णिसामेत्ता। तं सव्वणयविसुद्धं जं चरणगुणट्ठिओ साहू ।। (१११७७) दूसरा अध्ययन मंगलाचरण ११५. नमः श्री वर्धमानाय, वर्धमानाय पर्ययैः । उक्ताचारप्रपञ्चाय, निष्प्रपञ्चाय तायिने ।। लोकविचय के विवरण की प्रतिज्ञा ११६. शस्त्रपरिज्ञाविवरणमतिगहनमितीव किल वृतं पूज्यः । श्रीगन्धहस्तिमिविवृणोमि ततोऽहमवशिष्टम् ।। द्रव्य का लक्षण ११७. दव्वं पज्जवविजुयं दध्वविउत्ता य पज्जवा णत्थि । उप्पायट्ठिइभंगा हंदि दवियलक्खणं एयं ।। नय का स्वरूप और माहात्म्य ११८. नयास्तव स्यात्पदलाञ्छिता इमे, रसोपविद्धा इव लोहधातवः । भवन्त्यभिप्रेतफला यतस्ततो, भवन्तमार्याः प्रणता हितैषिणः॥ ७७ गुण का अगुण में रूपान्तरण? ११९. शाठ्यं ह्रीमति गण्यते व्रतरुची दम्भः शुचौ कैतवं, शूरे निघणता ऋजो विमतिता दैन्यं प्रियाभाषिणि । तेजस्विन्यवलिप्तता मुखरता वक्तर्यशक्तिः स्थिरे, तत् को नाम गुणो भवेत् स विदुषां यो दुर्जन ङ्कित: ?॥ ७८ Jain Education international Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १० : आचारांग वृत्ति में उद्धृत श्लोक अगुणी दुष्ट बेस १२०. गुणानामेव दौर्जन्याद्धरि धुर्यो नियुज्यते । असञ्जातकिणस्कन्धः, सुखं जीवति गौर्गलिः ॥ विनय से मोक्ष १२१. विजया गाणं णाणाउ दंसणं दंसणाहि चरणं तु । चरणाहितो मोक्यो मुखे सुखं क्षणावाहं ॥ विनय की परिणति और माहात्म्य १२२. विषा भूषाफलं श्रुतज्ञानम् । ज्ञानस्य फलं विरतिविरतिफलं चाश्रवनिरोधः ॥ १२२. संचरफलं तपोबलमय तपसो निरा फलं दृष्टम् । तस्मात्क्रियानिवृत्तिः क्रियानिवृत्तेरयोगित्वम् ॥ १२४. योगनिरोधाद् भयसन्ततिज्ञयः सन्ततिक्षयान्मोक्षः । तस्मात्कल्याणानां सर्वेषां भाजनं विनयः ॥ रागान्ध व्यक्ति की मनोदशा १२५. दृश्यं वस्तु परं न पश्यति जगत्यन्धः पुरोऽवस्थितं, रागांधस्तु यदस्ति तत्परिहरन् वन्नास्ति तत् पश्यति । कुन्देन्दीवरपूर्ण चंद्रकलशश्रीमल्लतापल्लवानारोप्याशुचिराशि प्रियतमागात्रेषु यन्मोदते । मोक्षय से कर्ममुक्ति १२६. जह मत्थयसूईए, हयाए हम्मए तलो । तहा कम्माणि हम्मति मोहणिजे स्वयं गए । " मूढ की मूढता १२७. किं एतो कटुयरं जं मूढो थाणुअम्मि आवडियो । धाणुस तस्स रूस न अप्पणो दुप्पओगस्स || कषायों का स्वरूप और अनुबन्ध-फल १२८. जलरेण पुढविपव्वयराईसरिसो चउव्विहो कोहो । तिमिसपाकट्रियसेत्थंभोवमो माणो ॥ १२९. मायावलेहिगोमुत्तिमेंढसिंगघणवं समूलसमा । लोमो हलिक जगकिमिवामागो ॥ वृत्ति पत्र ७८ ७९ ७९ ८० ८० ८१ ८२ ८२ ८३ ८३ १३०. पक्खचउमासवच्छरजावज्जीवाणुगामिणो कमसो । देवणरतिरियणारयगइसाहण हेयवो भणिया || विविध कर्मबन्ध के कारण (१३१ से १४० ) १२१. पचिणीयमंतराइ उवषाए तप्पनोसहिवने । आवरणदुगं बन्धइ भूभो अच्चासणाए य ॥ १३२. भूयाणुकंपवयजोगउज्जुओ खंतिदाण गुरु भत्तो । बन्ध भूम सायं दिवरीए बंधई इधर ।। १३३. अरहंत सिद्धचेइयतवसुअगुरुसाधुसंघपडिणीओ । बंध सगमोहं अनंतसंसारियो जेणं ॥ १३४. तिब्वकसाओ बहुमोहपरिणतो रागदोससंजुत्तो । बंध चरितमोहं विधि परितगुणधाई ॥ १३५. मिट्टी महारंभपरिगहो तिव्वलोम मिस्सीलो । निरलायं निबंध पावमती रोपरिणामो ॥ १३६ उम्मदेओ मग्गणासओ गूढहियय माइल्लो । सढसीलो अ ससल्लो तिरिआउं बंधई जीवो ॥ १३७. अणुव्वयमन्वएहि य बालतवोऽकामनिज्जराए य । देवाउयं णिबंधइ सम्मद्द्द्दिट्ठी उ जो जीवो ॥ १३०. मणवणकायको माइल्लो गारवेहि पविद्धो । असुमं बंध नामं तपडिपनहि सुचना | १३९. अरिहंतादिभत्तो सुत्तरुई पयणुमाण गुणपेही । बंधइ उच्चागोयं विवरीए बंधई इयरं ॥ १४०. पाणबहादीसुरतो विपूयामोखमग्गविग्धवरो अछेद अंतरावं न लहर भिन्नाभं ॥ ईर्यापथिकी कर्म का स्वरूप १४१. अप्पं बायरमउयं बहुं च लुक्खं च सुक्किलं चेव । मंद महम्यतं तिय साताबहुलं च तं कम्म । असुख में सुख का आरोपण १४२. दुःखात्मकेषु विषयेषु सुखाभिमान, सौख्यात्मकेषु नियमादिषु दुःखद्धिः । उत्कीर्णवर्णपदतिरिवान्यरूपा सारूप्यमेति विपरीतमतिप्रयोगात् ॥ 'मे' (ममत्व) की परिणति १४३. पुत्रा मे भ्राता मे स्वजना मे गृहकलत्रवर्गो मे । इति कृतमेमेशब्दं पशुमिव मृत्युर्जनं हरति ॥ (२/२) ५०६ वृत्ति पत्र ८३ ८६ ८८ .८९ ९१ Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. आचारानमा (२।४) २ (२१३) ५१० आचारांगभाष्यम् वृत्ति पत्र वृत्ति पत्र परिग्रह से दुःख १५३. उच्छ्वासावधयः प्राणाः, स चोच्छ्वासः समीरणः । १४. पुत्रकलत्रपरिग्रहममत्वदोषैर्नरो व्रजति नाशम् ।। समीरणाच्चलं नान्यत्, क्षणमप्यायुरद्भुतम् ।। कृमिक इव कोशकारः, परिग्रहाद् दुःखमाप्नोति ॥ (२॥३) (२।२) आत्मा और मन की सहगामिता अर्थार्जन की परितप्ति १५४. आत्मा सहै ति मनसा मन इन्द्रियेण, १४५. कइया वच्चइ सत्थो ? कि भण्डं ? कत्थ कित्तिया भूमी ?। स्वार्थेन चेन्द्रियमिति क्रम एष शीघ्रः । को कयविक्कयकालो ? निविसइ किं कहिं केण?" योगोऽयमेव मनसः किमगम्यमस्ति?, (२।२) यस्मिन मनो व्रजति तत्र गतोऽयमात्मा ।। कालोचित क्रिया १४६. मासैरष्टभिरह्ना च, पूर्वेण वयसाऽऽयुषा । चार प्रकार की अवस्थाएं तत् कर्त्तव्यं मनुष्येण, येनान्ते सुखमेधते ॥ १६५. प्रथमे वयसि नाधीतं, द्वितीये नार्जितं धनम् । (२१३) तृतीये न तपस्तप्तं, चतुर्थे किं करिष्यति ?॥ अर्थलोलुप की प्रवृत्ति (२१५) १४७. उक्खणइ खणइ निहणइ रति ण सुमति दियावि य ससंको। स्त्री स्वतंत्रता के योग्य नहीं लिंपइ ठएइ सययं लंछियपडिलंछियं कुणइ । ९२ १५६. पिता रक्षति कौमारे, भर्ता रक्षति यौवने । पुत्राश्च स्थाविरे भावे, न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति ।। १४८. मुंजसु न ताव रिक्को जेमेउं नवि य अज्ज मज्जीहं । नविय वसीहामि घरे कायव्वमिणं बहु अज्ज ।। (२१५) (२३३) ९२ वर्षों के आधार पर तीन अवस्थाएं आयुष्य का अपवर्तन १५७. आषोडशाद् भवेद् बालो, यावत् क्षीरान्नवर्तकः । १४९. अद्धा जोगुक्कोसे बंधित्ता भोगभूमिएसु लहुं । मध्यमः सप्तति यावत् परतो वृद्ध उच्यते ।। सवप्पजीवियं वज्जइत्त उव्वट्टिया दोण्हं ॥ (२५) (२।३) ९३ वृद्धत्व की जुगुप्सा आयुष्य-उपक्रम के कारण १५८. वलिसन्ततमस्थिशेषितं, शिथिलस्नायुधृतं कडेवरम् । १५०. दंडकससत्थरज्जू अग्गी उदगपडणं विसं वाला। स्वयमेव पुमान् जुगुप्सते, किमु कान्ता कमनीयविग्रहा ?।। सीउण्हं अरइ भयं खुहा पिवासा य वाही य ।। (२।७) (२॥३) १२ बुढ़ापे की अवमानना १५१. मुत्तपुरीसनिरोहे जिण्णाजिण्णे य भोयणे बहुसो। १५९. गात्रं सङ्कुचितं गतिविगलिता दन्ताश्च नाश गता, घंसणघोलणपीलण आउस्स उवक्कमा एते ।। दृष्टिभ्रंश्यति रूपमेव हसते वक्त्रं च लालायते । (२।३) वाक्यं नैव करोति बान्धवजनः पत्नी न शुश्रूषते, आयुष्य की क्षणभंगुरता धिक्कष्टं जरयाऽभिभूतपुरुषं पुत्रोऽप्यवज्ञायते ।। (२१७) १५२. स्वतोऽन्यत इतस्ततोऽभिमुखधावमानापदामहो निपुणता नृणां क्षणमपीह यज्जीव्यते । शरण कौन? मुखे फलमतिक्षुधा सरसमल्पमायोजितं, १६०. जन्मजरामरणभयरभिद्रुते व्याधिवेदनाग्रस्ते। कियच्चिरमचबितं दशनसङ्कटे स्थास्यति । जिनवरवचनादन्यत्र नास्ति शरणं क्वचिल्लोके । (२१३) (२८) Jain Education international Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १० : आचारांग वृत्ति में उद्धृत श्लोक ५११ १६ वृत्ति पत्र वृत्ति पत्र वृद्ध का उपहास कहां संयमी ? कहां चक्रवर्ती ? १६१. न विभूषणमस्य युज्यते, न च हास्यं कुत एव विभ्रमः ?। १७०. तणसंथारनिसण्णोऽवि मुणिवरो भट्टरागमयमोहो । अथ तेषु च वर्तते जनो, ध्रुवमायाति परां विडम्बनाम् ।। जं पावइ मुत्तिसुहं तं कत्तो चक्कवट्टीवि ?॥ (२१९) (२।२७) बुढापे की शोभा है धर्म वह ज्ञान ज्ञान नहीं १६२. जं जं करेइ तं तं न सोहए जोव्वणे अतिक्कते। १७१. तज्ज्ञानमेव न भवति यस्मिन्नुदिते विभाति रागगणः । पुरिसस्स महिलियाइ व एक्कं धम्म पमुत्तूणं ॥ तमसः कुतोऽस्ति शक्तिदिनकरकिरणाग्रतः स्थातुम् ?।। (२९) (२।२७) समयं मा पमायए महान् लक्ष्य : महान् साधन १६३. सम्प्राप्य मानुषत्वं संसारासारतां च विज्ञाय । हे जीव ! किं प्रमादान्न चेष्टसे शान्तये सततम् ?॥ १७२. अज्ञानान्धाश्चटुलवनितापाङ्गविक्षेपितास्ते, (२।११) कामे सक्ति दधति विभवाभोगतुङ्गार्जने वा। विद्वच्चितं भवति हि महन्मोक्षमार्गकतानं, अप्रमाद का हेतु नाल्पस्कन्धे विटपिनि कषत्यसभित्ति गजेन्द्रः॥ १६४. ननु पुनरिदमतिदुर्लभमगाधसंसारजलधिविभ्रष्टम् । (२।२७) मानुष्यं खद्योतकतडिल्लताविलसितप्रतिमम् ।। अपने-अपने विषय की इयत्ता (२०११) तीनों चपल हैं १७३. ज्ञानं भूरि यथार्थवस्तुविषयं स्वस्य द्विषो बाधक, रागारातिशमाय हेतुमपरं युंक्ते न कर्तृ स्वयम् । १६५. नइवेगसमं चवलं च जीवियं जोव्वणं च कुसुमसमं । दीपो यत्तमसि व्यनक्ति किमु नो रूपं स एवेक्षतां, सोक्खं च जं अणिच्चं तिण्णिवि तुरमाणभोज्जाई । सर्वः स्वं विषयं प्रसाधयति हि प्रासङ्गिकोऽन्यो विधिः ।। (२०१२) (२।२७) १०१ स्ववशता को दुर्लभता अज्ञान की विकटता १६६. सह कलेवर ! दुःखमचिन्तयन्, स्ववशता हि पुनस्तव दुर्लभा । १७४. अज्ञानं खलु कष्टं क्रोधादिभ्योऽपि सर्वपापेभ्यः । अर्थ हितमहितं वा न वेत्ति येनावृतो लोकः ।। बहुतरं च सहिष्यसि जीव हे !, परवशो न च तत्र गुणोऽस्ति ते ।। (२।३०) (२।२२) ९८ पाषंडियों की चर्या श्रुति-दुर्लभता के हेतु १७५. स्वेच्छाविरचितशास्त्रः प्रव्रज्यावेषधारिभिः क्षुद्रः । १६७. आलस्समोहऽवन्ना थंभा कोहा पमाय किविणत्ता। नानाविधैरुपायैरनाथवन्मुष्यते लोकः । भयसोगा अन्नाणा विक्खेव कुऊहला रमणा ॥ (२।३१) (२०२४) १६८. एएहिं कारणेहि लढूण सुदुल्लहंपि माणुस्सं। णो हत्याए णो पाराए न लहइ सुइं हिअरिं संसारुत्तारणि जीवो।। १७६. इन्द्रियाणि न गुप्तानि, लालितानि न चेच्छया। (२।२४) मानुष्यं दुर्लभं प्राप्य, न भुक्तं नापि शोषितम् ॥ संयम में रति : दुःख-निवृत्ति (२।३४) १६९. क्षितितलशयनं वा प्रान्तभक्षाशनं वा, धनलुग्ध क्या-क्या नहीं करता ? सहजपरिभवो वा नीचदुर्भाषितं वा। १७७. धावेइ रोहणं तरइ सायर भमइ गिरिणिगुंजेसुं । महति फलविशेषे नित्यमभ्युद्यतानां, न मनसि न शरीरे दुःखमुत्पादयन्ति ॥ मारेइ बंधवंपि हु पुरिसो जो होइ धणलुद्धो॥ (२।२७) २ (२२३६) १०३ Jain Education international Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगभाष्यम् वृत्ति पत्र १०३ १०८ १०४ १.८ वृत्ति पत्र लोभार्थी की दशा अन्धा कौन ? १७८, अडइ बहुं वहइ भरं सहइ छुहं पावमायरइ धिट्ठो। १८७. एकं हि चक्षुरमलं सह जो विवेकः कुलसीलजाइपच्चयधिइं च लोभद्दुओ चयइ । तद्वद्भिरेव सह संवसतिद्वितीयम् । (२।३६) एतद्द्वयं भुवि न यस्य स तत्त्वतोऽन्धअतिथि और अभ्यागत स्तस्यापमार्गचलने खलु कोऽपराधः ?।। १७९. तिथिपर्वोत्सवाः सर्वे, त्यक्ता येन महात्मना। (२०५४) अतिथि तं विजानीयाच्छेषमभ्यागतं विदुः ।। जीता हुआ भी मृत (२।४१) १८८. जीवन्नेव मृतोऽन्धो यस्मात्सर्वक्रियासु परतन्त्रः । धन की आशंसा नित्यास्तमितदिवाकरस्तमोऽन्धकारार्णवनिमग्नः ।। १८०. आराध्य भूपतिमवाप्य ततो धनानि, (२०५४) भोक्ष्यामहे किल वयं सततं सुखानि । इत्याशया धनविमोहितमानसानां, अन्धत्व : दुःख का हेतु कालः प्रयाति मरणावधिरेव पंसाम् ।। १८९. लोकद्वयव्यसनवह्निविदीपिताङ्ग(२०४५) मन्धं समीक्ष्य कृपणं परयष्टिनेयम् । धनिक और याचक को नोद्विजेत भयकृज्जननादिवोग्रात्, १८१. एहि गच्छ पतोत्तिष्ठ, वद मौनं समाचर । कृष्णाहिनकनिचितादिव चान्धगर्तात् ?॥ इत्याद्याशाग्रहग्रस्तः, क्रीडन्ति धनिनोऽथिभिः ।। (२१५४) (२।४५) १०४ बधिर का जीवन निष्फल भौतिक उच्चता अनन्त वार १९०. धर्मश्रुतिश्रवणमङ्गलवज्जितो हि, १८२. सर्वसुखान्यपि बहुशः, प्राप्तान्यटता मयाऽत्र संसारे। लोकश्रुतिश्रवणसंव्यवहारबाह्यः । उच्चैःस्थानानि तथा, तेन न मे विस्मयस्तेषु ॥ किं जीवतीह बधिरो? भुवि यस्य शब्दाः, (२०५०) स्वप्नोपलब्धधननिष्फलता प्रयान्ति ?।। मदस्थानों का परिहार (२०५४) १८३. जइ सोऽवि णिज्जरमओ पडिसिद्धो अट्ठमाणमहणेहि। बधिर जीता हुआ भी मृत अवसेस मयट्ठाणा परिहरिअन्वा पयत्तेणं ॥ १९१. स्वकलत्रबालपुत्रकमधुरवचःश्रवणबाह्यकरणस्य । (२०५१) बधिरस्य जीवितं कि जीवन्मृतकाकृतिधरस्य ?।। जन्म-जन्म में रोग-शोक (२०५४) १८४. अवमानात्परिभ्रशाद्वधबन्धधनक्षयात् । प्राप्ता रोगाश्च शोकाश्च, जात्यन्तरशतेष्वपि ।। मूकत्व दुःखकर (२०५१) १९२. दुःखकरमकीत्तिकर मूकत्वं सर्वलोकपरिभूतम् । सत्-मसत् प्रत्यादेशं मूढाः कर्मकृतं किं न पश्यन्ति ?" १५. संते य अविम्हइउं असोइउं पंडिएण य असंते। (२०५४) सक्का हु दुमोवमिअं हिमएण हि धरतेण ॥ वैराग्य का हेतु काणत्व (२०५१) १०७ १९३. काणो निमग्नविषमोन्नतदृष्टिरेकः, नाथ अनाथ हो जाता है शक्तो विरागजनने जननातुराणाम् । १८६. होऊण चक्कवट्टी पुहइवई विमलपंडरच्छत्तो। यो नैव कस्यचिदुपैति मन:प्रियत्वसो चेव नाम भुज्जो अणाहसालालओ होइ ।। मालेख्यकमलिखितोऽपि किमु स्वरूपः ।। (२०५१) (२०५४) १०७ १०८ १०७ Jain Education international Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १०: आचारांग वृत्ति में उद्धृत श्लोक ५१३ वृत्ति पत्र विपर्यास १९४. दारा: परिभवकारा बन्धुजनो बन्धनं विषं विषयाः । कोऽयं जनस्य मोहो? ये रिपवस्तेषु सुहृदाशाः ।। (२०६०) १०९ अशुभ का परिहार १९५. संदिग्धेऽपि परे लोके, त्याज्यमेवाशुभं बुधैः । यदि नास्ति ततः किं स्यादस्ति चेन्नास्तिको हतः ।। (२०६१) मृत्यु का मुख सर्वत्र १९६. शिशुमशिशुं कठोरमकठोरमपण्डितमपि च पण्डितं, धीरमधीरं मानिनममानिनमपगुणमपि च बहुगुणम् । यतिमयति प्रकाशमवलीनमचेतनमथ सचेतनं, निशि दिवसेऽपि सान्ध्यसमयेऽपि विनश्यति कोऽपि कथमपि ॥ (२०६२) वृत्ति पत्र कर्मभोग अवश्यंभावी २०१. पुनरपि सहनीयो दुःखपाकस्त्वयाऽयं, न खलु भवति नाशः कर्मणां संचितानाम् । इति सह गणयित्वा यद्यदायाति सम्यग्, सदसदिति विवेकोऽन्यत्र भूयः कुतस्त्यः ? (२०६०) तृप्ति संभव नहीं २०२. यल्लोके व्रीहियवं, हिरण्यं पशवः स्त्रियः । नालमेकस्य तत्सर्वमिति मत्वा शमं कुरु ॥ (२।९७,९९) उपभोग से उपशांति नहीं २०३. उपभोगोपायपरो वाञ्छति यः शमयितुं विषयतृष्णाम् । धावत्याक्रमितुमसौ, पुरोऽपराह्न निजच्छायाम् ॥ (२।९७,९८) अदान से आक्रोश नहीं २०४. दिट्ठाऽसि कसेरुमई ! अणुभूयासि कसेरुमई !। पीयं चिय ते पाणिययं वरि तुह नाम न सणं । (२।१०२) ११६-११७ पांच निश्रापद २.५. धर्म चरतः साधोलॊके निश्रापदानि पञ्चापि । राजा गृहपतिरपरः षटकाया गणशरीरे च ।। र० जिजीविषा १९७. रमइ विहवी विसेसे ठितिमित्तं थेववित्थरो महई । मग्गइ सरीरमहणो रोगी जीए च्चिय कयत्थो॥ (२०६३) १११ लोभी की मनोदशा १९८. कृमिकुलचितं लालाक्लिन्नं विगन्धि जुगुप्सितं, निरुपमरसप्रीत्या खादन्नरास्थि निरामिषम् । सुरपतिमपि श्वा पावस्थं सशङ्कितमीक्षते, न हि गणयति क्षुद्रो लोकः परिग्रहफल्गुताम् ।। (२०६६) मूढ कौन ? १९९. रागद्वेषाभिभूतत्वात्कार्याकार्यपराङ मुखः । एष मूढ इति ज्ञेयो, विपरीतविधायकः ॥ (२०६९) संसार-पर्यटन का खेद २०६. जरामरणदौर्गत्यव्याधयस्तावदासताम् । मन्ये जन्मैव धीरस्य, भूयो भूयस्त्रपाकरम् ।। (२।११०) १११ स्नान है कामांग २०७. स्नानं मददर्पकरं, कामांगं प्रथम स्मृतम् । तस्मात्कामं परित्यज्य, नैव स्नान्ति दमे रताः ॥ (२।११०) मथुनभाव की प्रधानता २०६. न य किंचि अणुण्णायं पडिसिद्धं वावि जिणवरिंदेहि । मोत्तुं मेहुणभावं न तं विणा रागदोसेहिं ।। (२।११०) मोक्ष का उपाय २०९. दोसा जेण निरुज्झति जेण जिझंति पुवकम्माई। सो सो मुक्खोवाओ, रोगावत्थासु समणं व ॥ (२।११०) कर्म स्वकृत है २००. उप्तो यः स्वत एव मोहसलिलो जन्मालवालोऽशुभो, रागद्वेषकषायसन्ततिमहान्निविघ्नबीजस्त्वया । रोगैरङ कुरितो विपत्कुसुमितः कर्मद्रुमः साम्प्रतं, सोढा नो यदि सम्यगेष फलितो दुःखैरधोगामिभिः ।। (२।८०) ११४ Jain Education international Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ जे आसवा ते परिस्सवा २१०. जे जत्तिया उ हेऊ भवस्स ते चेव तत्तिया मुक्खे । गणणाईया लोया दुहवि पुण्णा भवे तुला ।। (21880) लाभ-अलाभ में मध्यस्थता २११. लभ्यते लभ्यते साधु, साधु एव न लभ्यते । अलब्धं तपसो बुद्धिलब्धे तु प्राणधारणम् ।। (२०११४.११५) धर्मोपकरण परिग्रह नहीं 2 २१२. ममाहमिति चैव यावदभिमानवाज्वरः कृतान्यचमेव तावदिति न प्रशान्त्युन्नयः । यशः सुखपिपासित रयमसावनथोत्तरे:, परसदः कुतोऽपि कथमध्यपाकृष्यते ॥ (२।११७) धर्मोपकरण पारगमन में सहयोगी २१३. साध्यं यथा कथञ्चित् स्वल्पं कार्य महच्च न तथेति । प्लवनमृते न हि शक्यं पारं गन्तुं समुद्रस्य ।। (२।११० ) प्रतिज्ञा से अविचलन २१४. सगुणोपजननी जननीमिवायांमत्यन्तशुद्ध हृदयामनुवर्त्तमानाः । तेजस्विनः सुखमसूनपि सन्त्यजन्ति, सत्यस्थितिव्यसनिनो न पुनः प्रतिज्ञाम् ।। (२।१२०) काम की दुर्लभ्यता २१५. आगा गोप परियोउम्ब दुत्तरो बाहाहि देव गंभीरो तरिच्यो महोबही ॥ (२।१२२) २१६ , " व निरासा मो हु जवा लोहमया चेव, चावेयव्वा सुदुक्करं । (२।१२२) कामकामी का शोक २१७ गते प्रेमबन्धे प्रणयमाने च गलिते निवृत्ते सद्भावे जन इव जाने शच्छति पुरः । तमुत्प्रेक्ष्यप्रियसखि गतांस्तांश्च दिवसान्, न जाने को हेतुर्दति शतधा यन्न हृदयम् ? ॥ (२।१२४) वृति पत्र १२० १२१ १२२ १२२ १२२ १२३ १२३ १२३ पालिः कथं बध्यते ? २१८. प्रथमतरमथेदं चिन्तनीयं तवासीद्, बहुजनदयितेन प्रेम कृत्वा जनेन । हृतहृदय ! निराश ! क्लीब ! संतप्यसे कि ?, न हि जड ! गततोये सेतुबन्धाः क्रियन्ते || (२।१२४) आचारांग माध्यम वृत्ति पत्र कामकामी का सोचना २१९. भवित्रीं भूतानां परिणतिमनालोच्य नियतां, पुरा यद्यत्किञ्चिद्विहितमशुभं यौवनमदात् । पुनः प्रत्यासन्ने महति परलोके कगमने, तदेवैकं पुंसां व्यथयति जराजीवपुषाम् ।। (२।१२४) विचारणीय है कार्य परिणति २२०. सगुणमपगुणं वा कुर्वता कार्यजातं परिणतिरवधार्या यत्नतः पण्डितेन । अतिरमस्कृतानां कर्मणामाविपतेभवति हृदयदाही शत्यतुल्यो विपाकः ॥ (२।१२४) यदि बाहर होता तो ? २२१. यदि नामास्य कायस्य, यदन्तस्तद्बहिर्भवेत् । दण्डामादाय लोकोऽयं, शुनः काकांश्च वारयेत् ॥ ( २०१२९) शरीर की बीभत्सता २२२. मंसद्विरुहिरावणढकललमयमेयमज्जा । पुण्णमिचम्मकोसे दुग्गंधे असुइबीभच्छे || (२०१३१) शरीर की अशुचिता २२३. संचारिमजंतगलंतवच्चमुत्तंतसे अपुण्णंमि । देहे हुज्जा कि रागकारणं असुइहेउम्मि ? || (२०१३१) चिन्तन का अस्वास्थ्य २२४. इदं तावत् करोम्यद्य श्वः कर्त्ताऽस्मीति चापरम् । चिन्तयन्निह कार्याणि प्रेत्वार्थ नावबुध्यते ॥ (२।१३४) , १२३ १२३ १२३ १२४ १२४ १२४ १२५ Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १० आचारांग वृत्ति में उद्धृत श्लोक कामकामी का विपर्यास २२५. सोउं सोवणकाले मज्जणकाले य मज्जिउं लोलो । जेमेउं च वराओ जेमणकाले न चाएइ || (२।१३४) दुःख से दुःख २२६. दुःखार्त्तः सेवते कामान् सेवितास्ते च दुःखदा । यदि ते न त्रियं दुःखं प्रसङ्गस्तेषु न क्षमः ॥ (२/१३५) धनी की दशा २२७. चिन्ता गते भवति साध्वसमन्तिकस्थे, मुक्ते तु तप्तिरधिका रमितेऽप्यतृप्तिः । द्वेषोऽन्यभाजि वशवर्तिनि दग्धमानः, प्राप्तिः सुखस्य दयिते न कथञ्चिदस्ति । (२/१३९) विपर्यास २२८. दु: खद्विट् सुखलिप्सुर्मोहान्धत्वाददृष्टगुणदोषः । यां यां करोति चेष्टां तया तया दुःखमादत्ते ।। (२/१५१) शब्द आदि इन्द्रिय-विषयों को सहना २२९. सपावर सोपविसायमुवगएमु । तुट्ठेण व रुट्ठेण व समणेण सया न होअव्वं २३० रुवे अ भट्टपावएतु चक्बुसियमुवगएगु वरुद्वेग व समर्पण सया न होअव्वं ॥ गंधे अभयपावसु पाणविस्यमुचगए। द्वेष व रुद्वेग व समर्पण सवा न होअन्नं ॥ रसे न भयपावए श्रीहाविसय मुवगएसु । तुट्ठेव व समणेण सया न होमब्वं । फासे अभयपावन फासविसायमुदनए । तुट्ठेवरु न समणेण सया न होअयं ॥ (२०१६१) अनन्याराम २३२. शिवमस्तुशास्त्राणां वैशेषिकषष्टितम्बवद्धानाम् । येषां दुविहितत्वाद् भगवत्यनुरज्यते चेतः ॥ (२।१७३) वृत्ति पत्र १२५ १२५ १२६ १२८ विभव का मद क्यों ? २३१. भवइति कि दस्ते ?, च्युतविभव कि विषादमुपयासि ? करनिहितकन्दुकसमा पातोत्पाता मनुष्याणाम् ॥ (२/१६२) १३० १३० १३२ पूर्ण (पुण्य) और तुच्छ २३३. ज्ञानैश्वर्यधनोपेतो, जात्यन्वयबलान्वितः । तेजस्वी मतिमान् ख्यातः पूर्णस्तुच्छो विपर्ययात् ॥ (२।१७४) प्रवचन - विवेक , २३४. दशसुनासमाची दत्तचत्रितमो ध्वजः । दशध्वजसमा वेश्या, दशवेश्यासमो नृपः ॥ (२।१७३) शुद्ध नृपति का आकोश २५. निवणं बंधण निमण कडवा निव्विस व नरिंदो करेज्ज संघपि सो कुद्धो ॥ (२।१७५) अच्छे-बुरे का ज्ञान २३६. सावज्जणवज्जाणं वयणाणं जो न याणइ विसेसं । वृत्तुंपि तस्स न खमं किमंग पुण देसणं काउं ? ॥ (२२१७६) धर्मकथा का विवेक २३७. जो हेउवायपक्खंमि हेउओ आगमम्मि आगमिओ । सो समयपण तिवराही अण्णो ॥ (२1१७७ ) तीसरा अध्ययन अज्ञान महारोग २३. नातः परमहं मन्ये जगतो दुःखकारणम् । यथाऽज्ञानमहारोगो, दुरन्तः सर्वदेहिनाम् ॥ (318) धन्य है जागना २३९. जागरह णरा णिच्चं जागरमाणस्स वड्ढए बुद्धी । जो सुअइ न सो धण्णो जो जग्गइ सो सया धन्नो || (३१) जागृति का लाभ २४०. सुअइ सुअंतस्स सुअं संकिय खलियं भवे पमत्तस्स । जागरमाणस्स सुअं थिरपरिचिअमप्पमत्तस्स ॥ (३१) नेति नेति २४१. नालस्सेण समं सुक्खं, न विज्जा सह निद्दया । न वेरग्गं पमाएणं, नारंभेण दयालुया ॥ (३१) ५१५ वृत्ति पत्र १३२ १३२ १३२ १३३ १३३ १३७ १३८ १३८ १३८ Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ आचारांगभाष्यम् वृत्ति पत्र अप्रिय न करे ___१४ २५१. यथेष्टविषयाः सातम निष्टा इतरत्तव । अन्यत्रापि विदित्वैवं, न कुर्यादप्रियं जने ।। (३।२७) प्रकृतिबंध : अनादिभव का हेतु २५२. न मोहमतिवृत्त्य बन्ध उदितस्त्वया कर्मणां, न चैकविधबन्धनं प्रकृतिबंधविभवो महान् । अनादिभवहेतुरेष न च बध्यते नासकृत्त्वयाऽतिकुटिलागतिः कुशल ! कर्मणां दर्शिता ।। (३।३४) कर्मनायक है मोहनीय २५३. नायगंमि हते संते, जहा सेणा विणस्सई । एवं कम्माणि णस्संति, मोहणिज्जे खयं गए । वृत्ति पत्र जागना अच्छा या सोना ? २४२. जागरिआ धम्मीणं आहम्मीणं तु सुत्तया सेआ। वच्छाहिवभगिणीए अहिंसु जिणो जयंतीए । (३३१) सोने के अलाभ २४३. सुयइ य अयगरभूओ सुअंपि से नासई अमयभूअं । होहिइ गोणभूओ न→मि सुए अमयभूए । (३३१) १३८ इन्द्रिय-विषयों से विनाश २४४. रक्तः शब्दे हरिणः स्पर्श नागो रसे च वारिचरः । कृपणपतङ्गो रूपे भुजगो गन्धे ननु विनष्टः ।। (३।४) १३९ आसक्ति का परिणाम २४५. पञ्चसु रक्ताः पञ्च विनष्टा यत्रागृहीतपरमार्थाः । एक: पञ्चसु रक्तः प्रयाति भस्मान्ततामबुधः ।। (३।४) माव आवर्त २४६. रागद्वेषवशाविद्धं, मिथ्यादर्शनदुस्तरम् । जन्मावर्ने जगत् क्षिप्तं, प्रमादाद् भ्राम्यते भृशम् ।। (३।६) १४० देवता के च्यवन के चिह्न २४७. माल्यम्लानिः कल्पवृक्षप्रकम्पः, श्रीह्रीनाशो वाससां चोपरागः । दैन्यं तन्द्रा कामरागाङ्गभङ्गो, दृष्टिभ्रान्तिर्वेपथश्चारतिश्च ॥ (३।१०) १४० जाति-स्मरण क्यों नहीं ? २४८. जायमाणस्स जं दुक्खं, मरमाणस्स जंतुणो । तेण दुक्खेण संतत्तो, न सरइ जाइमप्पणो॥ (३।२६) ____१४४ जन्मकाल का दुःख २४९. विरसरसियं रसंतो तो सो जोणीमुहाउ निप्फिडइ । माऊए अप्पणोऽविअ वेअणमउलं जणेमाणो॥ (३।२६) वृद्धावस्था के दुःख २५०. हीणभिण्णसरो दीणो, विवरीओ विचित्तओ। दुब्बलो दुक्खिओ वसइ, संपत्तो चरिमं दस ॥ (३।२६) १४४ आहार क्यों ? २५४. आहारार्थ कर्म कुर्यादनिन्द्यं, स्यादाहारः प्राणसंधारणार्थम् । प्राणा धार्यास्तत्त्वजिज्ञासनाय, तत्त्वं ज्ञेयं येन भूयो न भूयात् ।। (३६५६) इंद्रिय-विषयों में अलिप्तता २५५. विसयंमि पंचगंमीवि, दुविहंमि तियं तियं । भावाओ सुठ्ठ जाणित्ता, से न लिप्पइ दोसुवि ।। (३६५७) क्या सोचे ? २५६. केण ममेत्थुप्पत्ती ? कहं इओ तह पुणोऽवि गंतव्वं ?। जो एत्तियंपि चितइ इत्थं सो को न निविण्णो ?॥ (३।५९) जैसा अतीत वसा भविष्य ? २५७. अवरेण पुव्वं किह से अतीतं, किह आगमिस्सं न सरंति एगे। भासन्ति एगे इह माणवाओ, जह स अईअं तह आगमिस्सं ।। (३३५९) आत्मा ही मित्र और अमित्र २५८. दुप्पत्थिओ अमित्तं अप्पा सुप्पत्थिओ अ ते मित्तं । सुहदुक्खकारणाओ अप्पा मित्तं अमित्तं च ।। (३६२). Jain Education international Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १० आचारांग वृत्ति में उद्धृत श्लोक अमित्र आत्मा का परिणाम २५९. अप्येकं मरणं कुर्यात् संक्रुद्धो बलवानरिः । मरणानि त्वनन्तानि जन्मनि च करोत्ययम् ॥ (३६२) 1 श्रामण्य की निस्सारता २६०. सामण्णमणुचरंतरस कसाया जस्स उक्कडा हुंति । मन्नामि उच्छपुष्कं व निष्फलं तस्स सामण्णं ।। (२०७१) कषाय की उत्कटता २६१. जं अज्जियं चरितं देसूणाएवि पुव्दकोडीए । तंपि कसाइयतो हारे नरो मुहत्तेन ॥ (३।७१) द्रव्य क्या ? २६२. एगदवियस्स जे अत्थपज्जवा वयणपज्जवा वावि । तीयाणामपया तावश्यं तं हव दबे ।। (२०७४) चौथा अध्ययन उपशम सम्यक्त्व २६३. ऊसरदेसं दड्ढेल्लयं च विज्झाइ वणदवो पप्प । इव मिष्यत्ताणुदए जबसमसम्म सहर जीवो ॥ समयपवर्ती तीर्थकर २६४. सत्तरियको इमरे दस समय तजिणनाणं । चोत्तीस पहमदीये अणांतर व ते दुगुणा । (४१) आनव ही हैं परिस्रव २६५. यथाप्रकारा यावन्तः, संसारावे शहेतवः । तावन्तस्तद्विपर्यासान्निर्वाणसुखहेतवः ॥ (४)१२) मृत्यु की सर्वगामिता २६६. वदत यदीह कश्चिदनु संततसुखपरिभोगलालितः । प्रयत्नशतपरोऽपि विगतव्यचमायुरवाप्तवान्नरः ॥ (४)१६) २६७. न खलु नरः सुपसिद्धासुर किन्नरनायकोऽपि यः । सोऽपि कृतान्तदन्ताकुलिशामेण कृतो न नश्यति ॥ (४/१६) वृत्ति पत्र १५२ १५४ १५४ १५५ १५९ १६२ १६४ १६६ १६६ मृत्यु से बचाव नहीं २६८. नश्यति नौति याति वितनोति करोति रसायनक्रियां, चरति गुरुवतानि विवराष्यपि विशति विशेषकातरः । तपति तपांसि खादति मितानि करोति च मन्त्रसाधनं, तदपि कृतान्तदन्तयन्त्र क्रकचक्रमणैविदार्यते ॥ (४/१६) नास्तिक का कथन २६३. पिब खाद च चारुलोचने! यदतीतं वरगात्रि ! तन्न ते । न हि भीरु ! गतं निवर्त्तते, समुदयमात्रमिदं कलेवरम् ।। (४/१७) १६७ हिंसा विषयक बौद्ध मत २७०. प्राणि प्राणिज्ञानं घातका चित्तं च तद्गता चेष्टा प्राणश्च विप्रयोगः पञ्चभिरापद्यते हिंसा ॥ (४/२० ) 1 न मेऽस्ति कचित्पुरतो न पश्चात् । स्वकम्भन्तिरिम म पुरस्तादहमेव पश्चात् ।। (४/३२) मैं अकेला है संसार का स्वभाव २७१. संसार एवायमनर्थसारः, कः कस्य कोऽत्र स्वजनः परो वा ? | सर्वे भ्रमन्तः स्वजनाः परे च भवन्ति भूत्वा न भवन्ति भूयः ॥ (४३२) १७३ एकत्व भावना २७२. विचिन्त्यमेतद्भवताऽहमेको, २७३. सदैकोऽहं न मे कश्चित्, नाहमन्यस्य कस्यचित् । न तं पश्यामि यस्याहं, नासौ भावीति यो मम ॥ (४३२) अकेला ही आता-जाता है २०४. एक प्रकुरुते कम्मं भुनवत्येकश्च तत्फलम् । जायते म्रियते चैक, एको याति भवान्तरम् ॥ (४१३२) ५१७ वृत्ति पत्र पांचवां अध्ययन स्थापना लोक का स्वरूप २७५. तिरिअं चउरो दोसुं छद्दोसुं अट्ठ दस य एक्केक्के । बारसं दोनुं सोलस दो वीसा व च तु ॥ १६६ १६८ १७३ १७३ १७३ १७८ Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ आचारांगभाष्यम् वृत्ति पत्र वृत्ति पत्र २७६. पुणरवि सोलस दोसुं बारस दोसु तु हुंति नायव्वा । गण-निर्गत को दशा तिसु दस तिसु अट्ठच्छ य दोसुं दोसुं तु चत्तारि ।। १७८ १८६. जह सायरंमि मीणा संखोहं साअरस्स असहंता। २७७. ओयरिय लोअमज्झा चउरो चउरो य सबहिं णेया। णिति तओ सुहकामीणग्गयमित्ता विणस्संति ।। तिअ तिग दुग दुग एक्केक्कगं च जा सत्तमीए उ ।। (५।६२) १७८ २८७. एवं गच्छसमुहे सारणवीईहिं चोइया संता। गृहस्थाश्रम की कीर्तना णिति तओ सुहकामी मीणा व जहा विणस्संति ।। २७८. गृहाश्रमसमो धर्मो, न भूतो न भविष्यति । (१६२) पालयन्ति नराः शूराः, क्लीबा: पाषण्डमाश्रिताः ।। २८८. गच्छंमि केइ पुरिसा सउणी जह पंजरंतरणिरुद्धा। कृतकर्म का भोग सारणवारण चोइय पासत्थगया परिहरंति ।। (श६२) २७९. स्वकृतपरिणतानां दुर्नयनां विपाकः, २८९. जहा दियापोयमपक्खाजायं, सवासया पविउमणं मणागं । पुनरपि सहनीयोऽन्यत्र ते निर्गुणस्य । तमचाइया तरुणमपत्तजायं, ढंकादि अव्वत्तगम हरेज्जा ॥ स्वयमनुभवतोऽसौ दुःखमोक्षाय सद्यो, (श६२) भवशतगतिहेतुर्जायतेऽनिच्छतस्ते ।। १९५ (श२९) १८६,१८७ तत्त्वार्य चिन्तन समताभाव २९०. आक्रुष्टेन मतिमता, तत्त्वार्थान्वेषणे मतिः कार्या । २८०, जो चंद गे ग बाहुं आलिंपइ वासिणा व तच्छेति । यदि सत्यं क: कोपः ? स्यादनृतं किं नु कोपेन ?॥ मथुणइ जो अणिदति महेसिणो तत्थ समभावा ।। (५॥६३) १९५ १८९ क्रोध है मोक्ष का शत्रु शरीर की प्राप्ति दुर्लभ २९१. अपकारिणि कोपश्चेत्, कोपे कोपः कथं न ते? २८१. ननु पुनरिदमतिदुर्लभमगाधसंसारजलधिविभ्रष्टम् । धर्मार्थकाममोक्षाणां, प्रसह्य परिपन्थिनि ।। मानुष्यं खद्योतकतडिल्लताविलसितप्रतिमम् ॥ (५२६३) (५१४६) अनुकंपा के योग्य प्रवचन-प्रभावक २८२. प्रावचनी धर्म कथी वादी नैमित्तिकस्तपस्वी च । २९२. आत्मद्रोहममर्याद, मूढमुज्झितसत्पथम् । सुतरामनुकम्पेत, नरकाच्चिष्मदिन्धनम् ॥ विद्यासिद्धः ख्यातः कविरपि चोद्भावकास्त्वष्टौ ।। (५।६५) (५॥५३) १९२ धीर व्यक्ति का चिन्तन काम और संकल्प २८३. अक्कोसहणणमारणधम्मभंसाण बालसुलभाणं । २९३. काम ! जानामि ते रूपं, संकल्पास्किल जायसे । लाभं मण्णइ धीरो जहुत्तराणं अभावंमि ॥ न त्वां संकल्पयिष्यामि, ततो मे न भविष्यसि ।। (५।६२) १९४ : (१८४) एकलविहार के दोष स्त्री के दृष्टिबाण २८४. साहमिएहि संमुज्जएहिं एगागिओ अ जो विहरे । २९४. सन्मार्गे तावदास्ते प्रभवति पुरुषस्तावदेवेन्द्रियाणां, आयंकपउरयाए छक्कायवहंमि आवडइ ॥ लज्जा तावद्विधत्ते विनयमपि समालम्बते तावदेव। . (५२६२) १९४ भ्र चापाकृष्टमुक्ताः श्रवणपथजुषो नीलपक्ष्माण एते, २८५. एगामिअस्स दोसा इत्थी साणे तहेव पडिणीए। यावल्लीलावतीनां न हृदि धृतिमुषो दृष्टिबाणा: पतन्ति ॥ . भिक्खऽविसोहि महन्वय तम्हा सबिइज्जए गमणं ॥ (१८७) (श६२) १९४ Jain Education international Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १० : आचारांग वृति मैं उद्धृत श्लोक ५१६ १९९ स्त्री के साथ बैठने का निषेध २९५. मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा, न विविक्तासनो भवेत् । बलवानिन्द्रियग्रामः, पण्डितोऽप्यत्र मुह्यति ॥ (५।८७) आचार्य की आठ संपदाएं २९६. आयार सुअ सरीरे वयणे वायण मई पओगमई । एए सुसंपया खलु अट्ठमिआ संगहपरिन्ना ॥ (श८९) यथार्थ है वीतराग दर्शन २९७. वीतरागा हि सर्वज्ञा, मिथ्या न ब्रुवते क्वचित् । यस्मात्तस्माद्वचस्तेषां, तथ्यं भूतार्थदर्शनम् ।। (५२९५) हेतुगम्य और श्रद्धागम्य २९८. सर्वैर्नयनियतनगमसंग्रहाद्य रेकैकशो विहिततीथिकशासनयंत् । निष्ठां गतं बहुविधर्गमपर्ययस्ते, श्रद्धेयमेव वचनं न तु हेतुगम्यम् ।। (श९६) आत्मा का स्वरूप २९९. नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः । न चैनं क्लेदयन्त्यापो, न शोषयति मारुतः ।। (१००) ३००. अच्छेद्योऽयमभेद्योऽयमविकारी स उच्यते । नित्यः सततगः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ।। (५।१००) बस प्राणों का वियोजन : हिंसा ३०१. पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च, उच्छ्वासनिःश्वासमथान्यदायुः । प्राणा दशैते भगवद्भिरुक्तास्तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा ।। (५।१०१) ईश्वर प्रेरित ३०२. अन्यो जन्तुरनीशः स्यादात्मनः सुखदुःखयोः । ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्, स्वर्ग वा श्वभ्रमेव च ॥ (५।११३) वृत्ति पत्र वृत्ति पज्ञ सांख्याभिमत पुरुष निष्क्रिय ३०३. न विरक्तो न निविण्णो, न भीतो भवबन्धनात् । न मोक्षसुखकाङ्क्षी वा, पुरुषो निष्क्रियात्मकः ।। (५।११३) २०६ सांख्यदर्शन ३०४. कः प्रव्रजति साङ्ख्यानां, निष्क्रिये क्षेत्रभोक्तरि। निष्क्रियत्वात्कथं वाऽस्य, क्षेत्रभोक्तृत्वमिष्यते ?। (५।११३) २०६ २०० बौद्धमत का निरसन ३०५. यज्जातमात्रमेव प्रध्वस्तं तस्य का क्रिया कुम्भे?। नोत्पन्नमात्रभग्ने क्षिप्तं सन्तिष्ठते वारि ॥ (५।११३) २०७ २०२ ३०६. कर्तरि जातविनष्टे धर्माधर्मक्रिया न सम्भवति । तदभावे बन्धः को ? बन्धाभावे च को मोक्षः?॥ (५।११३) २०७ भूतवादियों का मत ३०७. अब्रह्मचर्य रक्तैर्मू:, परदारधर्षणाभिरतः। मायेन्द्रजालविषवत्, प्रवर्तितमसत्किमप्येतत् ॥ (५२११३) २०७ २०२ ३०८. मिथ्या च दृष्टिर्भवदुःखधात्री, मिथ्या मतिश्चापि विवेकशून्या । धर्माय येषां पुरुषाधमामां, तेषामधर्मो भुवि कीदृशोऽन्यः ?। (५।११३) २०४ बौद्धमत : मुक्तात्मा का पुनर्जन्म ३०९. दग्धेन्धनः पुनरुपति भवं प्रमथ्य, निर्वाणमप्यनवधारितभीरुनिष्ठम् । २०४ मुक्तः स्वयंकृतभवश्च परार्थशूरस्त्वच्छासनप्रतिहतेविह मोहराज्यम् ।। (५।१३३) छठा अध्ययन कष्ट में करण क्रन्दन ३१०. किमिदमचिन्तितमसदृशमनिष्टमतिकष्टमनुपमं दुःखम् । सहसवोपनतं मे नैरयिकस्येव सत्त्वस्य ॥ (६७) २१२ राजयक्ष्मा की उत्पत्ति ३११. त्रिदोषो जायते यक्ष्मा, गदो हेतुचतुष्टयात् । वेगरोधात् क्षयाच्चव, साहसाद्विषमाशनात् ॥ ०. २०४ २०६ २१३ Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० अपस्मार रोग २१२. भ्रमावेशः ससंरम्भो, द्वेषो को हतस्मृतिः । अपस्मार इति शेो गदो पोराचतुविधः ॥ (६८) नेत्र रोग के कारण ३१३. वातापित्तात्कफा द्रक्तादभिष्यन्दश्चतुर्विधः । प्रायेण जायते पोर सर्वनेत्रामयाकरः ॥ (414) शरीर-विकलता के कारण ३१४. गर्भे वातप्रकोपेन, दौहृदे वाऽपमानिते । भवेत् कुब्जः कुणिः पंगुर्मूको मन्मन एव वा । (६८) T सूजन रोग की उत्पत्ति ३१६. शोफः स्यात् षड्विधो घोरो, दोषेरुत्सेधलक्षणः । व्यस्तैः समस्तैश्चापीह, तथा रक्ताभिघातजः ॥ (६८) कम्पन रोग ३१७. प्रकामं वेपते यस्तु, कम्पमानश्च गच्छति । कलाप विद्यान्मुक्तसन्धिनिबन्धनम् ॥ (६८) श्लीपद रोग किस देश में ? ३१८. पुराणोदकभूमिष्ठाः सर्वर्तुषु च शीतलाः । ये देशास्तेषु जायन्ते स्लीपदानि विशेषतः ॥ (६८) जलोदर की उत्पत्ति ३१५. पृथक् समस्तैरपि चानिलाद्यैः, प्लीहोदरं बद्धगुदं तथैव । आगन्तुकं सप्तममष्टमं तु, जलोदरं चेति भवन्ति तानि ॥ (६८) २१३ श्लीपद : शरीर के किस भाग में ? ३१९. पादयोर्हस्यापि श्लीपदं जायते नृणाम् । कर्णोष्ठनाशास्वपि च केचिदिति सदि । (६८) मधुमेह रोग की असाध्यता ३२०. सर्व एव प्रमेहास्तु कालेनाप्रतिकारिणः । मधुमेहत्वमायान्ति तदाऽसाध्या भवन्ति ते ।। (६८) T वृत्ति पत्र २१३ २१३ २१३ २१३ २१३ २१३ २१३ २१३ नारकीय बेदना का दिग्दर्शन (३२१ से ३२६) ३२१. श्रवणलवनं नेत्रोद्धारं करक्रमपाटनं, हृदयदहनं नासाच्छेद प्रतिक्षणदारुणम् । कविदनं तीक्ष्णपतत्रिविभेदनं दहनवदनः परैः समन्तविभक्षणम् ॥ (६८) ३२२. सप्ते कुर्मः परश्वः । परशुत्रिशूलमुद्गरतोमरवासीमुषण्ढीभिः ॥ आचारांग भाष्यम् वृत्ति पत्र (EIN) ३२३. सम्भिन्नतालुशिरस श्छिन्नभुजा श्छिन्नकणं नासौष्ठाः । भिन्नहृदयोदरान्त्रा भिन्नाक्षिपुटाः सुदुःखार्त्ताः ॥ (१८) ३२४. निपतन्त उत्पतन्तो विचेष्टमाना महीतले दीनाः । नेक्षन्ते त्रातारं नैरयिकाः कर्म्मपटलान्धाः ।। (६८) ३२५. छिद्यन्ते कृपणाः कृतान्तपरशोस्तीक्ष्णेन धारासिना, कन्दन्तो विषवीचिभिः परिवृताः संभक्षणव्यावृतैः । पाटयन्ते कवेन दास्वदखिना निवाहू या, कुम्भीषु त्रपुपानदग्धतनवो मूषासु चान्तर्गताः ॥ (ध) ३२६. भृज्ज्यन्ते ज्वलदम्बरीषहुतभुग्ज्वालाभिराराविणो, दीप्ताङ्गारनिभेषु वज्रभवनेष्वङ्गारकेषूत्थिताः । दह्यन्ते विकृतो बाहुवदनाः क्रन्दन्त आर्त्तस्वनाः, पश्यंतः कृपणा दिशो विशरणास्त्राणाय को नो भवेत् ? ॥ (६८) २१४ तिर्यञ्चगति में वेदना ३२७. श्रृत्तृहिमात्युष्णभयादितानां पराभियोगव्यसनातुराणाम् । अहो ! तिरश्चामतिदुःखितानां सुखानुषङ्गः किल बामेतद् ।। वार्त्तमेतद् (६८) २१५ मनुष्यगति में वेदना ३२८. दुःखं स्त्रीकुक्षिमध्ये प्रथममिह भवे गर्भवासे नराणां, बालत्वे चापि दुःखं मललुलिततनुः स्त्रीपयःपानमिश्रम् । तारुण्ये चापि दुःखं भवति विरहजं वृद्धभावोऽप्यसारः, संसारे रे मनुष्या ! वदत यदि सुखं स्वल्पमप्यस्ति किञ्चित् ।। (६८) २१५ ३२९. वायात्प्रभृति च रोगंदंष्टोऽभिभवश्च यावदिह मृत्युः । शोकवियोगायोगे तदोपैश्च नैकविधैः ।। (६८) २१५ २३०. क्षुहिमोग्यानिलशी तदा हदारिद्रचोकप्रियप्रयोगः । दौर्भाग्यमनभिजात्यदास्य वैरूप्यरोगादिभिरस्वतन्त्रः ॥ २१५ (६८) Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ २२६ परिशिष्ट १० माचारांग वृत्ति में उद्धृत श्लोक ५२१ वृत्ति पत्र वृत्ति पत्र देवगति में वेदना अचेल सचेल : सभी जिनाज्ञा में ३३१. देवेषु च्यवनवियोगदुःखितेषु, ३४०. जोवि दुवत्थतिवत्थो एगेण अचेलगो व संयरइ । क्रोधेामदमदनातितापितेषु । न हु ते हीलेंति परं सव्वेवि हु ते जिणाणाए । आर्या ! नस्तदिह विचार्य संगिरन्तु, (६।६८) २२३ यत्सौख्यं किमपि निवेदनीयमस्ति ।। विचित्र कर्मपरिणति गर्म-क्रम ३४१. कम्माणि णूणं घणचिक्कणाई गरुयाइं वइरसाराई । णाणट्ठिअंपि पुरिसं पंथाओ उप्पह णिति ।। ३३२. सप्ताहं कललं विद्यात्ततः सप्ताहमर्बुदम् । (६७०) अर्बुदाज्जायते पेशी, पेशीतोऽपि धनं भवेत् । (६।२५) २१६ ज्ञान का मद वसु-अनुवसु ३४२. पृष्टा गुरवः स्वयमपि परीक्षितं निश्चितं पुनरिदं नः । ३३३. वीतरागो वसुर्जेयो, जिनो वा संयतोऽथवा । वादिनि च मल्ल मुख्य च मादृगेवान्तरं गच्छेत् ।। सरागो ह्यऽनुवसुः प्रोक्तः, स्थविरः श्रावकोऽपि वा ।। (६७७) २२६ २१७ ज्ञान की उद्धतता प्रमाव : अप्रमाद ३४३. अन्यैः स्वेच्छारचितानर्थविशेषान् श्रमेण विज्ञाय । ३३४. यत्र प्रमादेन तिरोऽप्रमादः, स्याद्वाऽपि यत्नेन पुनः प्रमादः । कृत्स्नं वाङमयमित इति खादत्यनानि दर्पण ।। विपर्ययेणापि पठन्ति तत्र, सूत्राण्यधीकारवशाद्विधिज्ञाः ।। (६।३५) २१९ अल्पज्ञ से शास्त्रहानि सम्यक्त्व ३४४. क्रीडनकमीश्वराणां कुक्कुटलावकसमानवाल्लभ्यः । ३३५. प्रशस्तः शोभनश्चव, एकः सङ्गत एव च । - शास्त्राण्यपि हास्यकथां लघुतां वा क्षुल्लको नयति ।। इत्येतरुपसृष्टस्तु, भावः सम्यक्त्वमुच्यते ॥ (६७७) (६६५) २२२ योग : सर्वत्र पूजित अचेल सचेल की हीलना न करे ३४५. नात्यायतं न शिथिलं, यथा युञ्जीत सारथिः । ३३६. जोऽवि दुवत्थतिवत्यो एगेण अचेलगो व संथरह । तथा भद्रं वहन्त्यश्वा, योगः सर्वत्र पूजितः ।। ण हु ते हीलंति पर सब्वेऽपि य ते जिणाणाए । (६८२) गो होणे णो अइरित्ते अज्ञानी का कार्य ३३७. जे खलु विसरिसकप्पा संघयणधिइयादिकारणं पप्प । ३४६. जो जत्थ होइ भग्गो, ओवासं सो परं अविदंतो। णऽवमन्नइ ण य हीणं अप्पाणं मन्नई तेहिं ॥ गंतुं तत्थऽचयंतो, इमं पहाणंति घोसेति ।। (६।६५) (६८२) जिनाज्ञा की प्रधानता शरीर है धर्म का साधन ३३८. सव्वेऽवि जिणाणाए जहाविहिं कम्मखवणअट्ठाए। ३४७. शरीरं धर्मसंयुक्तं, रक्षणीयं प्रयत्नतः । विहरंति उज्जया खलु सम्म अभिजाणई एवं ॥ शरीराज्जायते धर्मों, यथा बीजात् सदङ कुरः ।। (६।६५) (६।९१) । दुःख शरीर को, आत्मा को नहीं आत्मा का अनुसंधान ३३९. णिम्माणेइ परो च्चिय अप्पा ण उ वेयणं सरीराणं । ३४८. परलोकविरुद्धानि, कुर्वाणं दूरतस्त्यजेत् । अप्पाणो च्चिअ हिअयस्स ण उण दुक्खं परो देइ ।। आत्मानं यो न संधत्ते, सोऽन्यस्मै स्यात्कथं हित: ?॥ (६।६७) २२३ २२६ २२२ २२२ २२२ २३० Jain Education international Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ आत्मनः प्रतिकूलानि ३४९. न तत्परस्य संध्यात्, प्रतिकूलं यदात्मनः । एष संग्रहिको धर्म्मः कामादन्यः प्रवर्तते ॥ (६/१०१) दान की न प्रशंसा न निषेध ३५०. जे उ दाणं पसंसंति, वहमिच्छंति पाणिणं । जेवणं पडिसेहिति वित्तिच्छेवं करिति ते ।। (६।१०५) आठवां अध्ययन कर्मबंध कैसे ? ३५१. , तुपगतस्स रेनो सम्बई जहा अंगे । तह रागदोसणेहानियस्स कम्मपि जीवस्य ।। भौतिकवाद का चितन ३५२. यथा यथाऽर्थास्चिन्त्यन्ते, विविच्यन्ते तथा तथा । यद्येतत्स्वयमर्थेभ्यो रोचते तत्र के वयम् ॥ (512) ३५३. भौतिकानि शरीराणि विषयाः करणानि च । तथापि मन्दरन्यस्य तत्त्वं समुपदिश्यते ॥ (512) लोक सादि है ( ३५४ से ३५९ ) ३५४. आसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम् । अतक्र्यमविज्ञेयं प्रसुप्तमिव सर्वतः ॥ (512) ३५५. तस्मिन्नेकार्णवीभूते, नष्टस्थावरजङ्गमे । नष्टामरनरे चैव प्रनष्टोमराक्षसे। , (घर) ३५६. भूते महाभूतविवज्जिते । अचिन्त्यात्मा विभुस्तत्र शयानस्तप्यते तपः ॥ (बार) ३५७. तस्य तत्र शयानस्य नाभेः पद्मं विनिर्गतम् । तरुणरविमण्डलनिभं हृद्यं काञ्चनकणिकम् ।। (512) 1 ३५८. तस्मिन् पद्मे तु भगवान् दण्डी यज्ञोपवीत संयुक्तः । ब्रह्मा तत्रोत्पन्नस्तेन जगन्मातरः सृष्टाः ।। (बार) ३५८. अदिति: सुरसङ्घानां दितिरसुराणां मनुर्मनुष्याणाम् । विनता विहङ्गमानां माता विश्वप्रकाराणाम् ।। (चार) वृत्ति पत्र २३२ २३३ २३६ २४१ २४१ ३५९ रुद्रः सरीसृपाणां तुलसा माता तु नागजातीनाम् । सुरभिश्चतुष्पदामामिला पुनः सर्वबीजानाम् || आचारांगभाष्यम् वृत्ति पत्र (चार) सादि : अनादि ३६०. द्वावेव पुरुषी लोके, क्षरश्चाक्षर एव च । क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥ (८५) 1 लोकसृष्टि की विभिन्न मान्यताएं ३६१. इच्छंति कृत्रिमं सृष्टिवादिनः सर्वमेवमितिलिङ्गम् । कृत्स्नं लोकं माहेश्वरादयः सादिपर्यन्तम् ॥ (बार) ३६२. नारीश्वरजं केचित् केचित्सोमाग्निसम्भवं लोकम् । द्रव्यादिषविकल्प जगदेतत्केचिदिच्छन्ति ॥ (51x) ३६३. ईश्वरप्रेरित केचित् केचिद् बह्मकृतं जगत् । अव्यक्तप्रभवं सर्व विश्वमिन्ति कापिताः ॥ (चार) २६४. यादृच्छिकमिदं सर्व केचिद् भूतविकारजम् । केचिच्चानेकरूपं तु, बहुधा संप्रधाविता: 31 । (518) स्यादवाद में अविवाद २६४. लोकनियाऽऽत्मतत्त्वे विवदन्तेवादिन विभिन अविदितपूर्वं येषां स्याद्वादविनिश्चितं तत्त्वम् ।। (=1x) अस्ति नास्ति ३६६. सदेव सर्वको नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्टया ?। असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते ॥ (घर) विशुद्ध कोटि आहार ३३०. महारुम्मुद्देसिज मीसज्जा बायरा य पाहुडिया पूइअ अज्भोयरगो उग्गमकोडी अ खन्भेआ । बार) दान का माहात्म्य ३६८. काले देवं श्रद्धायुक्तेन शुद्धमनसा च । सत्कृत्य च दातव्यं दानं प्रयतात्मना सद्द्भ्यः ॥ (२४) २६९. दानं सत्पुरुषेषु स्वल्पमपि गुणाधिकेषु विनयेन । कणिकेव महान् यो सत्फलं कुरुते ॥ ( ८२४) २४१ २४२ २४२ २४२ २४२ २४२ २४२ २४३ २४५ २४६ २४६ Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १० : आचारांग वृति में उद्धृत श्लोक ५२३ वृत्ति पत्र २४६ वृत्ति पत्र ३७०. दुःखसमुद्रं प्राज्ञास्तरन्ति पात्रापितेन दानेन । तीर्य-प्रवर्तन लघुनेव मकरनिलयं वणिजः सद्यानपात्रेण ॥ ३७८. आदित्यादिविबुधविसरः सारमस्यां त्रिलोक्या(८।२४) मास्कन्दन्तं पदमनुपमं यच्छिवं त्वामुवाच । देय क्या? तीयं नाथो लघुभवभयच्छेदि तूणं विधत्स्वेत्ये३७१. यत्स्वयमदुःखितं स्यान्न च परदुःखे निमित्तभूतमपि । तद्वाक्यं त्वदधिगतये नो किमु स्यान्नियोगः ?।। केवलमुपग्रहकरं धर्मकृते तद्भवेद्देयम् ॥ (९।४।१६) (८।२५) २४७ सद्ज्ञान की सफलता पात्र-निर्योग ३७९. विज्ञप्तिः फलदा पुंसां, न क्रिया फलदा मता। ३७२. पत्तं पत्ताबंधो पायट्ठवणं च पायकेसरिआ । मिथ्याज्ञानात् प्रवृत्तस्य, फलासंवाददर्शनाद् ।। पडलाइ रयत्ताणं च गोच्छओ पायणिज्जोगो॥ (९।४१७) (८।४३) २५१ क्रिया की प्रधानता इंगिनीमरण अनशन ३८०. शास्त्राण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खा, ३७३. पच्चक्खइ आहारं चउन्विहं णियमओ गुरुसमीवे । यस्तु क्रियावान् पुरुषः स विद्वान् । इंगियदेसंमि तहा चिट्ठपि हु नियमो कुणइ ॥ संचिन्त्यतामौषधमातुरं हि, (८।१०६) २५९ किं ज्ञानमात्रेण करोत्यरोगम् ?॥ ३७४. उब्वत्तइ परिअत्तइ काइगमाईवि अप्पणा कुणइ । (९।४।१७) सव्वमिह अप्पणच्चिअ अन्नजोगेण धितिबलिओ। ३८१. क्रियेव फलदा पुसां, न ज्ञानं फलदं मतम् । (८।१०६) २५९ यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानात्सुखितो भवेत् ॥ (९।४।१७) नौवां अध्ययन ३८२. चेइयकुलगणसङ्घ आयरियाणं च पवयण सुए य । वस्त्र धारण का प्रयोजन सव्वेसुऽवि तेण कयं तवसंजममुज्जमन्तेणं ॥ ३७५. गरीयस्त्वात्सचेलस्य, धर्मस्यान्यस्तथागतः। (९।४।१७) शिष्यस्य प्रत्ययाच्चैव, वस्त्रं दधे न लज्जया ॥ क्रियारहित ज्ञान की विफलता (९।१।२) २७४ ६८३. सुबहुंपि सुअमहीयं किं काही चरणविप्पहूणस्स ? सर्वत्र जन्म-मृत्यु अंधस्स जह पलिता दीवसतसहस्सकोडीवि ॥ ३७६. णत्थि किर सो पएसो लोए वालग्गकोडिमित्तोऽवि । (९।४।१७) जम्मणमरणाबाहा अणेगसो जत्थ णवि पत्ता ॥ सर्वनयविशुद्ध का ग्रहण (९।१।१४) २७६ ३५४. सव्वेसिपि णयाणं बहुविहवत्तव्वयं णिसामेत्ता । संसार है रंगभूमि तं सम्वणयविसुद्ध जं चरणगुणट्ठिओ साहु ॥ ३७७. रंगभूमिर्न सा काचिच्छुद्धा जगति विद्यते । (९।४।१७) विचित्रः कर्मनेपथ्यैर्यत्र सत्त्व नाटितम् ।। (९।१।१४) २७६ Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ११ सूक्त और सुभाषित अट्टे लोए परिजुण्णे, दुस्संबोहे अविजाणत । ११३ मनुष्य आर्त और अभावग्रस्त है। वह सत्य को सरलता से समझ नहीं पाता, अतः अज्ञानी बना रहता है। अस्सि लोए पम्वहिए। १।१४ अज्ञानी व्यथा का अनुभव करता है । पणया वीरा महावीहि । ११३७ वीर पुरुष महापथ के प्रति प्रणत होते हैं। जे लोयं अन्माइक्खइ, से अत्ताणं अन्माइक्खइ । जे अत्ताणं अभाइक्खइ, से लोयं अन्भाइक्खइ । १।३९ जो जीवों के अस्तित्व को अस्वीकार करता है, वह अपनी आत्मा के अस्तित्व को अस्वीकार करता है। जो अपनी आत्मा के अस्तित्व को अस्वीकार करता है, वह जीवों के अस्तित्व को अस्वीकार करता है। तं से अहियाए, तं से अबोहोए । ११४६ हिंसा अहित और अबोधि के लिए होती है। एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु नरए। १४८ हिंसा ग्रन्थि है, मोह है, मृत्यु है, नरक है ।। जे पमत्ते गुणट्ठिए, से हु दंडे पच्चति । १६९ जो प्रमत्त है, विषयार्थी है, वह दंड है। इयाणि णो जमहं पुत्वमकासी पमाएणं । १७० वह अब नहीं करूंगा जो मैंने प्रमादवश पहले किया था। इच्चत्यं गढिए लोए । १८० सुख-सुविधा में मूच्छित मनुष्य हिंसा करता है। जे गुणे से आवट्टे, जे आवट्टे से गुणे। १९३ जो विषय है वह आवत्तं है। जो आवर्त है वह विषय जे अज्मत्थं जाणइ, से बहिया जाणइ । जे बहिया जाणइ, से अज्झत्थं जाणइ । १।१४७ जो अध्यात्म को जानता है, वह बाह्य को जानता है । जो बाह्य को जानता है, वह अध्यात्म को जानता है। संतिगया दविया। ११४९ मुनि शात और संयमी होते हैं । आरंभमाणा विणयं वयंति । ११७१ आश्चर्य है, स्वयं हिंसा करते हैं और दूसरों को अहिंसा का उपदेश देते हैं। जे गुणे से मूलढाणे, जे मूलढाणे से गुणे । २।१ जो इन्द्रिय-विषय है वह लोभ है। जो लोभ है, वह इन्द्रिय-विषय है। अभिक्कतं च खलु वयं संपेहाए । २१५ अवस्था बुढ़ापे की ओर जा रही है, यह देखकर पुरुष चिन्ताग्रस्त हो जाता है । नालं ते तव ताणाए वा, सरणाए वा। तुमं पि तेसि नालं ताणाए वा, सरणाए वा । २१८ हे पुरुष ! संसार में कोई तुम्हें त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं हैं । तुम भी किसी को त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं हो। धीरे मुहत्तमवि णो पमायए । २०११ धीर पुरुष क्षणभर भी प्रमाद न करे । वयो अच्चेइ जोग्वणं च । २।१२ अवस्था और यौवन बीत रहे हैं। अकडं करिस्सामित्ति... । २।१५ मैं वह करूंगा, जो आज तक किसी ने नहीं किया-यह अहंमन्यता है। दुक्खं पत्तेयं सायं । २।२२।। दुःख और सुख अपना-अपना होता है। खणं जाणाहि पंडिए। २।२४ तू क्षण को पहिचान। पण्णाणेहि अपरिहीणेहि आयलैं सम्मं समणुवासिज्जासि । २।२६ इन्द्रिय-प्रज्ञानों के पूर्ण रहते हुए तू आत्महित का सम्यक अनुशीलन कर। एत्थ अगुत्ते अणाणाए। १३९७ जो अगुप्त है-असंयत है, वह आज्ञा में नहीं है । आयंकदंसी अहियं ति नच्चा । ११४६ जो हिंसा में आतंक और अहित देखता है, वही उससे निवृत्त होता है। Jain Education international Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२५ परिशिष्ट ११ : सूक्त और सुभाषित अरई आउट्टे से मेहावी । २।२७ मेधावी वह है जो अरति का निवर्तन करता है। खणंसि मुक्के । २।२८ मेधावी क्षणभर में मुक्त हो जाता है। मंदा मोहेण पाउडा । २०३० अज्ञानी मोह से आवृत होते हैं । एत्य मोहे पुणो-पुणो सण्णा । २।३३ मोह से मूढ व्यक्ति विषयों के दलदल में फंस जाते हैं। णो हव्वाए णो पाराए । २।३४ विषयासक्त व्यक्ति न इधर के रहते हैं और न उधर के । विमुक्का हु ते जणा, जे जणा पारगामिणो। २१३५ जो पारगामी (संयमी) होते हैं, वे कामभोगों से विमुक्त होते हैं। लोमं अलोभेण दुगंछमाणो, लद्धे कामे नाभिगाहइ । २०३६ जो अलोभ से लोभ को पराजित कर देता है, वह प्राप्त कामों में नहीं डूबता। सपेहाए भया कज्जति । पावमोक्खोत्ति मण्णमाणे । अदुवा आसंसाए । २०४३-४५ हिंसा में प्रवृत्त होने के चार कारण हैं-(१) अपने चिंतन से, (२) भय से, (३) पाप की मुक्ति के लिए, (४) अप्राप्त को पाने की अभिलाषा से । समिते एयाणपस्सी । २०५३ सम्यग्दर्शी पुरुष कर्म-विपाक को देखता है। ण एत्य तवो वा, वमो वा, णियमो वा दिस्सति । २०५९ परिग्रही पुरुष में न तप होता है, न दम और न नियम । उसमें न स्वादविजय, न इन्द्रियविजय और न प्रत्याख्यान होता है। इणमेव गावकखंति जे जणा धुवचारिणो । २०६१ जो शाश्वत की ओर गतिशील हैं, वे अशाश्वत की आकांक्षा नहीं करते। णत्यि कालस्स णागमो। २०६२ मृत्यु के लिए कोई भी क्षण अनवसर नहीं है। सव्वेसि जीवियं पियं। २०६४ सभी प्राणियों को जीवन प्रिय है। सब्वे पाणा पियाउया सुहसाया दुक्खपडिकूला अप्पियवहा पियजीविणो जीविउकामा । २०६३ सब प्राणियों को आयुष्य प्रिय है। वे सुख का आस्वाद करना चाहते हैं। उन्हें दुःख प्रतिकूल लगता है । उन्हें वध अप्रिय है। उन्हें जीवन प्रिय है । वे जीवित रहना चाहते हैं । अणोहंतरा एते, नो य ओहं तरित्तए। अतीरंगमा एते, नो य तीरं गमित्तए । अपारंगमा एते, नो य पारं गमित्तए । २०७१ हिंसक मनुष्य दुःख के प्रवाह को तैरने में समर्थ नहीं हैं। वे तीर तक पहुंचने में समर्थ नहीं हैं । वे पार तक पहुंचने में समर्थ नहीं हैं। उद्देसो पासगस्स पत्थि। २०७३ द्रष्टा के लिए कोई व्यपदेश नहीं होता। आसं च छंदं च विगिच धीरे । २०१६ हे धीर पुरुष! तू आशा और इन्द्रिय-पराधीनता को छोड । जेण सिया तेण णो सिया । २८८ जिससे होता है, उससे नहीं भी होता । थीभि लोए पव्वहिए। २।९० पुरुष स्त्रियों के द्वारा वशीकृत है । सततं मूढे धम्म णाभिजाणइ । २१९३ सतत मूढ व्यक्ति धर्म को नहीं जानता। अप्पमादो महामोहे । २।९४ साधक विषय-विकारों में प्रमत्त न हो। अलं कुसलस्स पमाएणं । २।९५ कुशल व्यक्ति प्रमाद न करे । गाइवाएज्ज कंचणं । २।१०० किसी भी जीव का अतिपात न करे । एयं पास मुणी ! महाभयं । २।९९ ज्ञानिन् ! तू देख, विषयाभिलाषा महाभयंकर है। लामोत्ति ण मज्जेज्जा । अलामो त्ति ण सोयए । २।११४,११५ लाभ होने पर मद मत करो। लाभ न होने पर शोक मत करो। बहू पि लधु ण णिहे । २११६ प्रचुर लाभ होने पर भी संग्रह मत करो। परिग्गहाओ अप्पाणं अवसक्केज्जा । २११७ परिग्रह से अपने-आपको दूर रखो। अण्णहा णं पासए परिहरेज्जा । २११८ तत्त्वदर्शी वस्तुओं का परिभोग अन्यथा करो। कामा दुरतिक्कमा । २।१२१ काम दुर्लघ्य हैं। जीवियं दुष्पडिवूहणं । २।१२२ जीवन को बढाया नहीं जा सकता। Jain Education international Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगभाष्यम् एस णाए पवुच्चइ । २।१७० नेता वह होता है जो लोक-संयोग का अतिक्रमण करता ५२६ कामकामी खलु अयं पुरिसे । २।१२३ यह पुरुष कामकामी-काम का अभिलाषी है। आयतचक्खू लोगविपस्सी । २।१५ संयतचक्षु पुरुष लोकदर्शी होता है। गढिए अणुपरियट्टमाणे । २।१२६ कामासक्त व्यक्ति भव-भ्रमण कर रहा है। एस बीरे पसंसिए, जे बद्धे पडिमोयए । २।१२८ जो बंधे हुए को मुक्त करता है, वह वीर प्रशंसित होता जहा अंतो तहा बाहिं, जहा बाहिं तहा अंतो। २।१२९ यह शरीर जैसा भीतर है, वैसा बाहर है और जैसा बाहर है, वैसा भीतर है। मा यहु लालं पच्चासी । २।१३२ तुम लार को मत चाटो। कामंकमे खलु अयं पुरिसे । २१३४ पुरुष कामंकाम है-काम की अभिलाषा करता है। वेरं वड्ढेति अप्पणो । २।१३५ कामात पुरुष अपने वैर को बढाता है । अमरायइ महासड्ढी । २।१३७ काम और अर्थ में जिसकी महान् श्रद्धा होती है, वह अमर की भांति आचरण करता है। तम्हा पावं कम्मं व कुज्जा न कारवे । २।१४९ __पापकर्म स्वयं न करे और न दूसरों से करवाए। जे ममाइयमति जहाति, से जहाति ममाइयं । २१५६ जो परिग्रह-बुद्धि का त्याग करता है, वह परिग्रह का त्याग कर सकता है। से हु दिट्ठपहे मुणी, जस्स पत्थि ममाइयं । २।१५७ जिसके पास परिग्रह नहीं है, उसी ज्ञानी ने पथ को देखा जे अणण्णदंसी, से अणण्णारामे। जे अणण्णारामे, से अणण्णदंसी । २।१७३ जो चैतन्य को देखता है, वह चैतन्य में रमण करता है। जो चैतन्य में रमण करता है, वह चैतन्य को देखता है । जहा पुण्णस्स कत्थइ, तहा तुच्छस्स कत्थइ । जहा तुच्छस्स कत्थइ, तहा पुण्णस्स कत्थइ ।। २।१७४ धर्मकथी जैसे संपन्न को उपदेश दे, वैसे ही विपन्न को दे और जैसे विपन्न को दे, वैसे ही सम्पन्न को दे। ण लिप्पई छणपएण वीरे । २।१८० __वीर पुरुष हिंसा-कर्म से लिप्त नहीं होता। कुसले पुण णो बद्धे, णो मुक्के । २।१८२ कुशल-जीवनमुक्त व्यक्ति न बद्ध होता है और न मुक्त होता है। सुत्ता अमुणी सया, मुणिणो सया जागरंति । ३।१ अज्ञानी सदा सोते हैं । ज्ञानी सदा जागते हैं । लोयंसि जाण अहियाय दुक्खं । ३२ ..तुम जानो, दुःख-अज्ञान अहित के लिए होता है । समयं लोगस्स जाणित्ता, एत्थ सत्थोवरए । ३।३ सब आत्माएं समान हैं-यह जानकर जीवलोक की हिंसा से उपरत हो जाओ। आवट्टसोए संगमभिजाणति । २६ संग-राग आवर्त है, स्रोत है। जागर-वेरोवरए वीरे । ३८ वीर वह है जो जागृत है, वैर से उपरत है । आरंभजं दुक्खमिणं ति णच्चा। ३.१३ दुःख हिंसा से उत्पन्न होता है। माई पमाई पुणरेइ गन्मं । ३।१४ मायावी और प्रमादी पुरुष बार-बार जन्म लेता है। मारामिसंकी मरणा पमुच्चति । ३३१५ मृत्यु से आशंकित रहने वाला मृत्यु से मुक्त हो जाता है। अकम्मस्स ववहारो न विज्जइ । ३।१८ कर्ममुक्त आत्मा के लिए कोई व्यवहार-नाम और गोत्र का व्यपदेश नहीं होता। कम्मु णा उवाही जायइ । ३.१९ उपाधि व्यपदेश कर्म से होता है। णारति सहते वीरे, वीरे णो सहते रति । २।१६० साधक संयम में अरति को और असंयम में रति का सहन नहीं करता। णिविद दि इह जीवियस्स । २।१६२ तू आमोद-प्रमोद से अपने आकर्षण को हटा। बुटवसु मुणी अणाणाए। २।१६६ आज्ञा का पालन नहीं करने वाला दरिद्र होता है। तुच्छए गिलाइ वत्तए । २।१६७ साधना-शून्य पुरुष साधना-पथ का निरूपण करने में ग्लानि का अनुभव करता है। Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ११ : सूक्त और सुभाषित ५२७ पुरिसा! तुम मेव तुम मित्तं, कि बहिया मित्तमिच्छसि ? २६२ पुरुष ! तू ही तेरा मित्र है। फिर बाहर मित्र क्यों खोजता कम्ममूलं च जंछणं । ३२१ हिंसा का मूल कर्म है। समत्तदंसी ण करेति पावं । ३।२८ सम्यक्त्वदर्शी पाप नहीं करता । आरंमजीवी उ भयाणुपस्सी । ३३३० हिंसाजीवी मनुष्य सर्वत्र भय देखता है कामेसु गिद्धा णिचयं करेंति । ३।३१ कामासक्त व्यक्ति संचय करता है। आयंकदंसी ण करेति पावं । ३।३३ हिंसा में आतंक देखने वाला पाप नहीं करता। अग्गं च मूलं च विगिच धीरे। ३१३४ हे धीर ! तू अग्र और मूल का विवेक कर। कर्म अग्र है और राग-द्वेष मूल है। एस मरणा पमुच्चइ । ३।३६ आत्मदर्शी मृत्यु से मुक्त हो जाता है। कालखी परिव्वए। ३।३८ जीवन पर्यन्त अनुकूल और प्रतिकूल स्थितियों को सहन करता हुआ परिव्रजन कर। सच्चंसि धिति कुन्वह । ३।४० तू सत्य में धृति कर। अणेगचित्ते खलु अयं पुरिसे । ३।४२ यह पुरुष अनेक चित्तवाला है। से केयणं अरिहइ पूरइत्तए। ३।४२ वह चलनी को पानी से भरना चाहता है। णिविद दि । ३।४७ तू कामभोग के आनन्द से उदासीन बन । अणोमदंसी णिसन्ने पावेहि कम्मेहिं । ३।४८ आत्मा को देखने वाला पापकर्म का आदर नहीं करता। आयओ बहिया पास । ३।५२ स्वयं से भिन्न प्राणियों को अपनी आत्मा के समान देख । समयं तत्थुवेहाए, अप्पाणं विप्पसायए । ३१५५ समता का आचरण चित्त की प्रसन्नता का हेतु है। अणण्णपरमं नाणी, णो पमाए कयाइ वि । ३५६ ज्ञानी पुरुष आत्मोपलब्धि के प्रति क्षणभर भी प्रमाद न करे। विरागं वेहि गच्छेज्जा । ३१५७ सभी प्रकार के रूपों-पदार्थों के प्रति वैराग्य धारण कर । का अरई ? के आणंदे ? ३६१ साधक के लिए क्या अरति और क्या आनन्द ? जं जाणेज्जा उच्चालइयं, तं जाणेज्जा दूरालइयं । जं जाणेज्जा दूरालइयं, तं जाणेज्जा उच्चालइयं । ३।६३ जिसे तुम परमतत्त्व के प्रति लगा हुआ जानते हो, उसे कामनाओं से दूर हुआ जानो। जिसे तुम कामनाओं से दूर हुआ जानते हो, उसे परम तत्त्व के प्रति लगा हुआ जानो। पुरिसा! अत्ताणमेव अभिणिगिज्म, एवं दुक्खा पमोक्खसि । ३१६४ पुरुष ! आत्मा का ही निग्रह कर। इस प्रकार तू दुःख से मुक्त हो जाएगा। पुरिसा! सच्चमेव समभिजाणाहि । ३।६५ पुरुष ! तू सत्य का ही अनुशीलन कर । सच्चस्स आणाए उवट्ठिए से मेहावी मारं तरति । ३१६६ जो सत्य की आज्ञा में उपस्थित है, वह मेधावी मृत्यु को तर जाता है। सहिए धम्ममादाय, सेयं समणुपस्सति । ३।६७ . सहिष्णु साधक धर्म को स्वीकार कर श्रेय को साक्षात् कर लेता है। सहिए दुक्खमत्ताए पुट्ठो णो झंझाए । ३।६९ सहिष्णु साधक कष्टों से स्पृष्ट होने पर व्याकुल न हो। आयाणं (णिसिद्धा) सगडमि । ३१७३ जो कर्म को रोकता है वही कर्म का भेदन कर पाता है । जे एगं जाणइ, से सम्वं जाणइ। जे सव्वं जाणइ, से एगं जाणइ । ३।७४ जो एक को जानता है, वह सबको जानता है। जो सबको जानता है, वह एक को जानता है। सव्वतो पमत्तस्स भयं, सम्वतो अप्पमत्तस्स पत्थि भयं । ३७५ प्रमत्त को सब ओर से भय होता है । अप्रमत्त को कहीं से भी भय नहीं होता। जे एगं नामे, से बहुं नामे । जे बहुं नामे, से एगं नामे । ३७६ जो एक को झुकाता है, वह बहुतों को झुकाता है। जो बहुतों को झुकाता है, वह एक को झुकाता है । वंता लोगस्स संजोग, जंति वीरा महाजाणं । ३७८ वीर साधक लोक-संयोग को छोड़कर महायान-महापथ पर चल पड़ते हैं। एग विगिचमाणे पुढो विगिचइ । पुढो विगिचमाणे एगं विगिचइ । ३७९ एक का विवेक करने वाला अनेक का विवेक करता है। अनेक का विवेक करने वाला एक का विवेक करता है। Jain Education international Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ सड्डी आणाए मेहावी । ३१८० श्रद्धावान् आगम के उपदेश के अनुसार मेधावी होता है । अत्थि सत्यं परेण परं, णत्थि असत्यं परेण परं । ३८२ शस्त्र उत्तरोत्तर तीक्ष्ण होता है। अशस्त्र उत्तरोत्तर तीक्ष्ण नहीं होता, वह एकरूप रहता है । किमत्थि उवाही पासगस्स ण विज्जई ! णत्थि । ३३८७ इष्टा के कोई (कर्मजन्य) उपाधि नहीं होती। दिट्ठेहि णिव्वेयं गच्छेज्जा । ४।६ विषयों से विरक्त रहो । णो लोगस्सेसणं चरे । ४।७ लोकंषणा में मत फंसो । जस्स णत्थि इमा णाई, अण्णा तस्स कओ सिया ? जिसे अहिंसा धर्म का ज्ञान नहीं है, उसे अन्य तत्त्वों का ज्ञान कहाँ से होगा ? पत्ते बहिया पास। ४।११ जो प्रमत्त हैं, वे धर्म से बाहर हैं। जे आसवा ते परिस्सवा, जे परिस्सवा ते आसवा । ४।१२ जो आस्रव हैं, वे ही परिस्रव हैं। जो परिस्रव हैं, वे ही आस्रव हैं । नाणागमो मच्चमुहस्स अस्थि । ४।१६ मौत किसी भी मार्ग से आ सकती है। नरा मुयच्चा धम्मविदु त्ति अंजू । ४।२८ शरीर के प्रति अनासक्त मनुष्य ही धर्म को जान पाते हैं। धर्म को जानने वाला ही ऋजु होता है। आरंभजं दुक्खमिति जच्चा । ४।२९ दु:ख हिंसा से उत्पन्न होता है । पुढो फासाइं च फासे । ४।३६ क्रोधी मनुष्य नाना प्रकार के दुःखों और रोगों को भोगता है । लोयं च पास विष्कंदमाणं । ४।३७ तू देख ! यह लोक क्रोध से चारों ओर प्रकंपित हो रहा है। पावेहिमेहि, अभिदाना ते विपाहिया ४३८ जो पाप कर्मों को शांत कर देते हैं, वे अनिदान कहलाते हैं। विगिच मंस-सोणियं । ४।४३ मांस और रक्त का अपचय कर, अधिक उपचय मत कर। जस्स णत्थि पुरा पच्छा, मज्झे तस्स कओ सिया ? ४।४६ जिसका आदि अंत नहीं है, उसका मध्य कहाँ से होगा ? गुरु से कामा । ५॥२ मनुष्य की कामनाएं विशाल होती हैं। णेव से अंतो, णेव से दूरे । ५४ जिसने विषयों को छोड़ दिया वह उनके बीच नहीं है । उसने विषयों की कामनाओं को नहीं छोड़ा, अतः वह उनसे दूर भी नहीं है। मोहेण गन्धं मरणाति एति । ५७ मोह के कारण बार-बार जन्म-मरण प्राप्त होता है । संसयं परिजाणतो संसारे परिण्णाते भवति । जो संशय को जानता है, वह संसार को जान लेता है। आचारांगभाष्यम् संसयं अपरिजाणतो संसारे अपरिण्णाते भवति । ५९ जो संशय को नहीं जानता, वह संसार को नहीं जान पाता । उट्टिए जो पमायए । ५२३ उत्थित होकर प्रमाद मत करो । जाणित दुक्खं पत्तेयं सायं । ५२४ सुख-दुःख अपना-अपना होता है । पुट्टो का विमोल्लए ५।२६ जो कष्ट प्राप्ट प्राप्त हों, उन्हें समभाव से सहन करो। एए संगे अविजाणतो । ५।३३ अज्ञानी के लिए पदार्थ आसक्ति के कारण होते हैं । पुरिसा! परमच विपरक्कमा ५।३४ परमचक्षुष्मान् पुरुष परिग्रह-संयम के लिए पराक्रम ! कर । से सुयं च मे अज्झत्थियं च मे, बंध- पमोक्खो तुज्झ अज्झत्येव । ५।३६ मैंने सुना है, अनुभव किया है-बंध और मोक्ष तुम्हारी आत्मा में ही है । समिया धम्मे आरिएहि वेदए। ५४० तीर्थंकरों ने समता में धर्म कहा है । जो जिहेज्ज वीरियं । ५।४१ शक्ति का गोपन मत करो । इमेष शाह, कि ते शेण वा ? ५४५ इस कर्म शरीर के साथ युद्ध करो, दूसरों के साथ युद्ध करने से क्या लाभ ? जुद्धारिहं खलु दुल्लहं । ५२४६ युद्ध के लिए योग्य सामग्री ( औदारिक शरीर आदि) निश्चित ही दुर्लभ है। Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२९ परिशिष्ट ११ : सूक्त और सुभाषित उवेहमाणो पत्तेयं सायं । ॥५२ सुख अपना-अपना होता है-साधक इसको निकटता से अपयस्स पयं णत्थि।।१३९ आत्मा अपद है । उसका बोध कराने वाला कोई पद नहीं देखे। वण्णाएसी णारभे कंचणं सम्वलोए । ०५३ यश की इच्छा से किसी भी क्षेत्र में कुछ भी मत करो। जं सम्मं ति पासहा, तं मोणं ति पासहा । जं मोणं ति पासहा, तं सम्म ति पासहा । ५४५७ जो सम्यक् है, वह ज्ञान है । जो ज्ञान है, वह सम्यक् है । वयसा वि एगे बुइया कुप्पंति माणवा । ५२६३ अज्ञानी मनुष्य थोडे-से प्रतिकूल वचन से भी कुपित हो जाते हैं। उन्नयमाणे य गरे, महता मोहेण मुमति । ५।६४ ___ अहंकारग्रस्त मनुष्य महान् मोह से मूढ हो जाता है। इच्चेते कलहासंगकरा भवंति । २९६ ये काम कलह और आसक्ति उत्पन्न करने वाले होते हैं । वितिगिच्छ-समावन्नेणं अप्पाणेणं णो लमति समाधि । ५।९३ शंकाशील आत्मा समाधि को प्राप्त नहीं होता। तमेव सच्चं णीसंक, जंजिणेहि पवेइयं । २९५ वही सत्य और निःशंक है, जो तीर्थंकरों ने कहा है। अंजू चेय पडिबुद्धजीवी । ५॥१०२ ज्ञानी पुरुष ऋजु तथा समझ कर जीने वाला होता है। जे आया से विण्णाया, जे विण्णाया से आया। ॥१०४ जो आत्मा है, वह ज्ञाता है और जो ज्ञाता है, वह आत्मा पासह एगेवसीयमाणे अणत्तपण्णे । ६।५ आत्मप्रज्ञा से शून्य व्यक्ति अवसाद को प्राप्त हो रहे हैं। पाणा पाणे किलेसंति । ६।१३ प्राणी प्राणियों को कष्ट देते हैं। बहुदुक्खा हु जंतवो। ६.१५ जीवों के नाना प्रकार के दुःख हैं। सत्ता कामेहि माणवा । ६।१६ मनुष्य कामनाओं में आसक्त हैं । ण महं अत्थित्ति इति एगोहमंसि । ६।३८ __ मेरा कोई नहीं है, इसलिए मैं अकेला हूं। विस्सेणि कट्ट परिणाए । ६६८ समत्व की प्रज्ञा से मूर्छा को छिन्न कर डालो। वसट्टा कायरा जणा लूसगा भवंति । ६।९५ वशार्त और कायर मनुष्य व्रतों का विध्वंस करने वाले होते हैं। तम्हा लहाओ णो परिवित्तसेज्जा । ६११० संयम से उद्विग्न मत बनो। कसाए पयणुए चिच्चा । ८।१२५ कषायों को कृश करो। जीवियं णाभिकखेज्जा, मरणं णोवि पत्थए । बुहतोवि ण सज्जेज्जा, जीविते मरणे तहा ॥८८४ न जीने की आकांक्षा करो और न मरने की इच्छा करो। जीवन और मरण-दोनों में आसक्त मत बनो। भेउरेसु न रज्जेज्जा, कामेसु बहुतरेसु वि।) इच्छा-लोभं ण सेवेज्जा, सुहुमं वणं सपेहिया ॥८८।२३ । क्षणभंगुर कामभोगों में अनुरक्त मत बनो । इच्छा-लोभ का सेवन मत करो। संयम बहुत सूक्ष्म होता है। सोवहिए हु लुप्पती बाले । ९।१।१३ अज्ञानी मनुष्य परिग्रह का संचय कर छिन्न-भिन्न होता है। अदु सव्वजोणिया सत्ता। ९।१।१४ जीव सर्वयोनिक हैं—प्रत्येक जीब प्रत्येक योनि में उत्पन्न हो सकता है। कम्मुणा कप्पिया पुढो बाला । ९।१।१४ अज्ञानी जीव अपने ही कर्मों के द्वारा विविध रूपों की रचना करते रहते हैं। इथिओ"सब्वकम्मावहाओ।९।११७ स्त्रियां सब कर्मों का आह्वान करने वाली हैं। अणाणाए एगे सोवट्ठाणा, आणाए एगे निस्वट्ठाणा । ।१०७ कुछ पुरुष अनाज्ञा (अनुपदेश) में उद्यमी और आज्ञा (उपदेश) में अनुद्यमी होते हैं । अणभिभूते पभू निरालंबणयाए । ५।१११ जो बाधाओं से अभिभूत नहीं होता, वही निरालंबी हो सकता है। जे महं अबहिमणे । ५।११२ जो मोक्षलक्षी है, वह मन को असंयम में न ले जाए। णिद्देसं णातिवटेज्जा मेहावी। ५११५ मेधावी व्यक्ति निर्देश का अतिक्रमण न करे । सच्चमेव समभिजाणिया। ५११६ सत्य का ही अनुशीलन कर। अच्चेइ जाइमरणस्स वट्टमग्गं वक्खायरए। २१२२ वही व्यक्ति जन्म और मृत्यु के वृत्तमार्ग का अतिक्रमण कर देता है जो वीतराग के उपदेश में रत है। Jain Education international Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १२ सन्धान पद पहला अध्ययन ६६. जे लोग अब्भाइक्खइ, से अत्ताणं अन्भाइक्खइ। जे अत्ताणं अब्भाइक्खइ, से लोगं अब्भाइक्खइ । ६७. जे दीहलोगसत्थस्स खेयण्णे, से असत्थस्स खेयण्णे । जे असत्थस्स खेयण्णे, से दीहलोगसत्थस्स खेयण्णे । ९३. जे गुणे से आवट्टे, जे आवट्टे से गुणे । १४७. जे अज्झत्थं जाणइ, से बहिया जाणइ । जे बहिया जाणइ, से अज्झत्थं जाणइ । दूसरा अध्ययन १. जे गुणे स मूलट्ठाणे, जे मूलट्ठाणे से गुणे । ७१. अणोहंतरा एते, नो य ओहं तरित्तए । अतीरंगमा एते, नो य तीरं गमित्तए । अपारंगमा एते, नो य पारं गमित्तए । ५८. जेण सिया तेण नो सिया । १२९. जहा अंतो तहा बाहिं, जहा बाहिं तहा अंतो। १७३. जे अणण्णदंसी, से अणण्णारामे । ____जे अणण्णारामे, से अणण्णदंसी। १७४. जहा पुण्णस्स कत्थइ, तहा तुच्छस्स कत्थइ । जहा तुच्छस्स कत्थइ, तहा पुण्णस्स कत्थइ । तीसरा अध्ययन १७. जे पज्जवजात-सत्थस्स खेयण्णे, से असत्थस्स खेयण्णे । जे असत्थस्स खेयण्णे, से पज्जवजात-सत्यस्स खेयण्णे । ६३. जं जाणेज्जा उच्चालइयं, तं जाणेज्जा दूरालइयं । जं जाणेज्जा दूरालइयं, तं जाणेज्जा उच्चालइयं । ७४. जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ। जे सव्वं जाणइ, से एगं जाणइ । ७६. जे एग नामे, से बहुं नामे । जे बहुं नामे, से एगं नामे । ७९. एगं विगिंचमाणे पुढो विगिचइ। पुढो विगिंचमाणे एगं विगिंचइ । चौथा अध्ययन १८. चिट्ठ कूरेहिं कम्मेहि, चिट्ठ परिचिट्ठति । अचिट्ठ कूरेहिं कम्मेहिं, णो चिट्ठ परिचिट्ठति । १९. एगे वयंति अदुवा वि णाणी, __णाणी वयंति अदुवा वि एगे। पांचवां अध्ययन ९. संसयं परिजाणतो, संसारे परिण्णाते भवति । संसयं अपरिजाणतो, संसारे अपरिण्णाते भवति । ४२. जे पुन्बुढाई, णो पच्छा-णिवाई, जे पुन्बुट्ठाई, पच्छा-णिवाई, जे णो पुवुट्ठाई, णो पच्छा-णिवाई । ५७. जं सम्म ति पासहा, तं मोणं ति पासहा । ____ जं मोणं ति पासहा, तं सम्म ति पासहा । ८५. पुव्वं दंडा पच्छा फासा, पुव्वं फासा पच्छा दंडा। १०४. जे आया से विण्णाया, जे विण्णाया से आया। जेण विजाणति से आया। Jain Education international Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयुक्त ग्रन्थ-सूचि प्रकाशक जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) प्रन्य-नाम लेखक, संपादक, अनुवादक संस्करण अंगसुत्ताणि (भाग-१,२,३) वा० प्र० आचार्य तुलसी प्रथम सं० २०३१ सं० मुनि नथमल (आचार्य महाप्रज्ञ) अंगुत्तरनिकाय (भाग १) सं० भिक्खु जगदीस कस्सपो सन् १९६० अथर्ववेद सं० श्रीराम शर्मा पंचम सं० १९६९ अभिधम्मकोश, भाष्यम् आचार्य वसुबन्धु सन् १९६७ सं० मुनि नय अभिधान चिन्तामणि आचारांग की जोड़ आचारांग चूर्णि हेमचन्द्राचार्य आचार्य जीतमलजी जिनदासगणि सं० २०१३ सं० १९०५ सं० १९९८ पालि प्रकाशन मण्डल, (बिहार राज्य) संस्कृति संस्थान, बरेली काशीप्रसाद जायसवाल अनुशीलन संस्थान, पटना जैन प्रकाशन मन्दिर, अहमदाबाद अप्रकाशित ऋषभदेवजी केसरीमलजी श्वेतांबर संस्था रत्नपुर (मालवा) आगमोदय समिति, बम्बई सिद्धचक्र साहित्य प्रचारक समिति, बम्बई जैन विश्व भारती, लाडनूं आचारांग नियुक्ति आचारांग वृत्ति भद्रबाहु शीलांकाचार्य सन् १९२८ सं० १९९१ आयारो सं० २०३१ वा० प्र० : आचार्य तुलसी सं० मुनि नथमल (आचार्य महाप्रज्ञ) Mc Dougaly London, Metheun & Co. Introduction to Social Psychology इष्टोपदेश आचार्य पूज्यपाद सन् १९७३ द्वितीय सं० १९९३ उत्तरज्झयणाणि (भाग १,२) वा०प्र० आचार्य तुलसी संपा०-विवे० युवाचार्य महाप्रज्ञ उत्तराध्ययन चूर्णि श्री गोपालगणि महत्तर शिष्य परमश्रुत प्रभावक मंडल श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास जैन विश्वभारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय) लाडनूं, राज० ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेतांबर संस्था, रत्नपुर (मालवा) जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) सं० १९८९ प्रथम सं० २०४५ प्रथम सं० २००६ उवंगसुत्ताणि (खंड २)पन्नवणा वा० प्र० : आचार्य तुलसी संपा० युवाचार्य महाप्रज्ञ ऐतरेयब्राह्मण श्री पं० गंगाप्रसाद उपाध्याय ऐतरेयोपनिषद् ओधनियुक्ति आचार्य भद्रबाहु कर्मग्रन्थ (पंचम) अनु० पं० सुखलालजी सं०१९७५ हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग गीता प्रेस, गोरखपुर आगमोदय समिति, मेहसाणा भरतेश जैन धार्मिक पारमार्थिक संस्था, रतलाम (म० प्र०) बम्बई विश्वविद्यालय, बम्बई. गीता प्रेस, गोरखपुर श्री वेंकटेश्वर प्रेस प्रकाशन, बम्बई संपा०-आर० पी० कांगले सन् १९६० कौटिलीयार्थशास्त्र गीता, शांकरभाष्य गोरक्ष पद्धति Great Books of the western world-Vol-54 अनु०-५० महीधरशर्मा Jain Education international Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ आचारांगभाष्यम संस्करण ग्रन्थ-नाम घेरण्ड संहिता लेखक, सम्पादक, अनुवादक भाष्य-सद्गुरु स्वामीजी महाराज प्रकाशक पीताम्बर पीठ संस्कृत परिषद बनखण्डेश्वर–दतिया (म०प्र०) मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली गीता प्रेस, गोरखपुर जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) सन् १९५४ सं० २०१३ प्रथम सं० २०३३ चरक संहिता महर्षि अग्निवेश एवं चरक छान्दोग्योपनिषद् (शाङ्करभाष्य) ठाणं वा० प्र० आचार्य तुलसी संपा०-मुनि नथमल तंत्रसंग्रह (भाग २) संपा०-महामहोपाध्याय पं० गोपीनाथ कविराज तंदुलवेयालियं आचार्य विजयविमल तत्त्वार्थ सूत्र उमास्वाति प्रथमसं० २०२६ वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी सन् १९७८ आगमोदय समिति, बम्बई सं० १९८९ सेठ मणीलाल रेवाशंकर जगजीवन जौहरी बम्बई-२ सेठ मणीलाल रेवाशंकर जगजीवन जौहरी, बम्बई-२ पन्द्रहवां सं० २०५० गीता प्रेस, गोरखपुर तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् तैतरीय उपनिषद् (सानुवाद शाङ्करभाष्यसहित) दशवकालिक चूर्णि अगस्त्यसिंह स्थविर सन् १९७३ दशवकालिक चूणि जिनदास महत्तर सं० १९८४ ला० द. भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर, अहमदाबाद श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी पेढी, रतलाम देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार भण्डागार संस्था, बम्बई जैन विश्व भारती, लाडनूं दशवकालिक वृत्ति आचार्य हरिभद्रसूरि सं० १९१८ दसवेआलियं दूसरा सन् १९७४ दीघनिकाय (भाग ३) धवला वा० प्र०-आचार्य तुलसी संपा०-मुनि नथमल अनु०-राहुल सांकृत्यायन ले०-वीरसेन आचार्य संपा०-डा० हीरालाल जैन संपा-पं० फूलचन्द सिद्धांत शास्त्री सन् १९३६ महाबोधि सभा, सारनाथ, बनारस सन् १९३९-१९५९ जैन साहित्योद्धारक-फंड कार्यालय, अमरावती (बरार) संशोधित सन् १९८५ जैन संस्कृति संरक्षक संघ, संतोष भवन, फल्टन गली, सोलापुर-२ सन् १९६६ प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, अहमदाबाद धवला नंदी चूणि नंदी वृत्ति नमस्कार स्वाध्याय सं० १९८० प्रथम सन् १९६२ आगमोदय समिति, मेहसाणा जैन साहित्य विकास मंडल, बम्बई नयचक्र नयचक्र जिनदासगणि महत्तर संपा-मुनि पुण्यविजयजी आचार्य मलयगिरि श्री जंबूविजयजी श्री तत्त्वानंद विजयजी देवसेन विरचित मायल्लधवलविरचित अनु०-५० कैलाशचन्द्र शास्त्री वा० प्र०-आचार्य तुलसी संपा०-युवाचार्य महाप्रज्ञ जिनदास महत्तर आचार्य कुन्दकुन्द संपा०-पंडित मनोहरलाल प्रथम सन् १९७१ भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली नवसुत्ताणि, (दसाओ) प्रथम सं० २०४४ जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) निशीथभाष्यचूणि पंचास्तिकाय सन् १९५७ सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा तृतीय सन् १९६९ श्रीमद्राजचन्द्र आश्रम, अगास Jain Education international Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३३ प्रयुक्त ग्रन्थ-सूची प्रन्थ-नाम लेखक, सम्पादक, अनुवादक संस्करण प्रकाशक पातंजल योगदर्शन संपा०-व्या० यशोविजय सन् १९१२ श्री आत्मानन्द जैन पुस्तक प्रचारक मण्डल, आगरा प्रमाणमीमांसा हेमचन्द्राचार्य सन् १९५८ श्री तिलोक रत्न संस्थान, जैन धार्मिक संपा०-५० शोभाचन्द्र भारिल्ल परीक्षा बोर्ड, पापर्डी प्रवचनसार आचार्य कुन्दकुन्द सं० २०४० श्रीपरमश्रुत प्रभावक मण्डल, श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास प्राकृत व्याकरण हेमचन्द्राचार्य सं० २०३१ आचार्यश्री आत्माराम जैन मॉडल स्कूल (संस्कृत-हिन्दी-टीका-युक्त) बृहत्कल्पभाष्य आचार्य भद्रबाहु सन् १९३३ से १९३८ श्री जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर संपा०- मुनि पुण्यविजयजी बृहदारण्यकोपनिषद् सं० २०१४ गीता प्रेस, गोरखपुर भगवद्गीता सं० २०१६ गीता प्रेस, गोरखपुर भगवती वृत्ति अभयदेवसूरि आगमोदय समिति मेहसाणा भामिनीविलास लेखक-जगन्नाथ कलकत्ता, जीवानंद विद्यासागर महाभारत शान्तिपर्व संपा०-हनुमान प्रसाद पोद्दार १९५८ गीता प्रेस, गोरखपुर माण्डूक्यकारिका दशम सं० २०२६ गीता प्रेस, गोरखपुर (माण्डुक्योपनिषद्) माधवनिदान संपा.-उधवजी जामनगर Motivation and Maslow, A. H. 1954 Newyork, Harper Personality योगरसायन योगवाशिष्ठ ले०-श्री कृष्णपन्त शास्त्री अच्युत ग्रन्थमाला काशी रत्नकरण्ड श्रावकाचार स्वामी समन्तभद्र सं० १९८२ माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला समिति, बम्बई विनयपिटक राहुल सांकृत्यायन सन् १९३५ महाबोधि सभा, सारनाथ, वाराणसी विशुद्धिमग्ग (भाग १) आचार्य बुद्धघोष प्रथम सन् १९५६ महाबोधि सभा, सारनाथ, वाराणसी अनु०-त्रिपिटकाचार्य भिक्षु धर्मरक्षित विष्णुपुराण पं० श्रीराम शर्मा संस्कृति संस्थान, बरेली (उ० प्र०) शतपथब्राह्मण (सायणभाष्य) चौखम्भा संस्कृत सीरीज, वाराणसी शिवसंहिता सं०-डा० चमनलाल गौतम सन् १९८२ संस्कृत संस्थाम, ख्वाजा कुतुब, बरेली (उ० प्र०) शिव स्वरोदय विष्णु सहाय सन् १८९२ श्रीधर शिवलाल, बम्बई श्री भिक्षुन्यायकणिका ले०-आचार्य तुलसी, मुनि नथमल प्रथम सन् १९७० - आदर्श साहित्य संघ, चूरू (राज.) श्वेताश्वतरोपनिषद् बारहवां सं० २०५० गीता प्रेस, गोरखपुर (सानुवाद शाङ्करभाष्यसहित) षट्खण्डागम जैन संस्कृति संरक्षक संघ सोलापुर Sanskrit-English V. S. APTE 1958 Prasad Prakashan, Poona Dictionary सन्मतितर्क आचार्य सिद्धसेन दिवाकर सन् १९६३ अहमदाबाद संपा०-५० सुखलाल संघवी एवं बेचरदास दोशी Jain Education international Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ प्रन्थ-नाम समयप्राभृत ( जयसेनटीका ) समयसार समयसार (अमृतचन्द्राचार्य कृत आत्मख्याति टीका) समाज समाधिशतक सुश्रुत संहिता सूषांग चूर्णि सूडो सेनप्रश्न स्याद्वादमंजरी सुखबोधा (उत्तरा• वृत्ति) नेमिचन्द्राचार्य पत्र-पत्रिकाएं कादम्बिनी धर्मयुग नवभारत टाइम्स संदेश (गुजराती पत्र ) लेखक, सम्पादक, अनुवादक संपा०-पं० पन्नालाल जैन कुन्दकुन्दाचार्यं संपा०- ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद बा० प्र०-जाचार्य तुलसी संपा० विवे० युवाचार्य महाप्रज्ञ आचार्य पूज्यपाद अनु० - फतेहचन्द कर्पूरचन्द संपा०-विजयमंगर अनु०-अत्रिदेव जिनदास गणि बा० प्र० आचार्य तुलसी संपा० विवे० युवाचार्य महाप्रज्ञ भक्तिसेणसूरि अनु० जगदीशचन्द्र एम० ए० वार्षिक अंक पराविद्या के रहस्य संस्करण सन् १९७४ वी० सं० २४४४ आठवां सन् १९८६ सन् १९८४ सन् १९३७ पंचम सन् १९७५ सं० १९९८ सन् १९८४ वी० सं० २४५३ आचारांग भाष्यम् प्रकाशक परमश्रुत प्रभावक मण्डल, अगास मूलचन्द किसनदास कापड़िया, सूरत श्री कुन्दकुन्द कहान दिगम्बर जैन तीर्थं सुरक्षा ट्रस्ट, जयपुर जैन विश्व भारती, लाड लाडनूं भोगीलाल नगीनदास मा फार्मेसी, अहमदाबाद पुष्पचन्द्र बेमचन्द्र वलाद मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली ऋषभदेवजी, केशरीमलजी श्वेतांबर संस्था, रत्नपुर ( मालवा ) जैन विश्वभारती, लाडनूं सितम्बर, १९८५ १३ दिसम्बर १९०१ १९७६ पृ० ४३ २४ जुलाई १९०३ पृ० ८ मोतीलाल साम्राजी, पूना Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्गीकृत विषय-सूची अध्यात्म अनुप्रेक्षा' का अर्थ १।१४७ आधारभूत तत्त्व ४८ चिन्तन में सार पृ. २३६ शास्त्र का महत्त्व पृ. २३७ साधक का व्यवहार २०११८ अनगार अग्निकायिक जीव का वेदना-बोध १०८२-८४ समारम्भ १८६ के शस्त्र ११७३ दीर्घलोक का शस्त्र ११६७ अग्निकायिक जीव का अस्तित्व १९६६ तीर्थंकरों द्वारा साक्षात्कार ११६८ नियुक्तिकार का मत ११६६ वृत्तिकार का मत श६६ वैज्ञानिक मत १२६६ अग्निकायिक जीव की हिंसा १०६९,७२,७३, ७६,८०,८१ का कारण १२६९,७४,७६ निषेध श८८-८९ न करने का संकल्प १७० अग्नि में अन्य प्राणियों की मृत्यु १८५ अग्नि-सेवन का निषेध १४१-४२ अचेल का तात्पर्य ८।५३ की आराधना ६।५०-५१ चर्या ६।४० शक्यता ६०६६ के गूण ६६० लाभ ६।६५ नग्न का तात्पर्य ६।४७ साधना का स्वीकार ६७४ है उत्तरवाद ६।४९ अचेल मुनि और लज्जा परीषह ६।४५ का तप ६१६४; ८।११४ लाघव ६।६३; ८।११३ की मर्यादा ८।१११-११२ के परीषह ६।४१-४४, ६१-६२ द्वारा चैतसिक चंचलता का परिहार દા૪૬ द्वारा समत्व का सेवन ६।६५, ८।११५ अतीत और अनागत का सम्बन्ध ३१५९ ६०, ४१४६ का गृहवासी जैसा आचरण १११८ तात्पर्य ११९२, २।३९ स्वरूप ११३५ की चिकित्सा पद्धति २।१४७ के खाद्य का परिमाण २।११३ दर्शन में जल स्वयं जीव ११५५ द्वारा अनियतवास ६३९ क्रय-विक्रय का निषेध २११०९ परीषह सहन ॥३७ वस्त्र का विसर्जन ९।१।४,२२ शरीर-विसर्जन ९।३।७ अनशन, देखें-मृत्यु इंगिनीमरण ८।१०६-११०; दादा२-६ प्रायोपगमन १२६-१३० भक्त प्रत्याख्यान दादा७-१८ संलेखना विधि ८।१०५ अनात्म-प्रज्ञ, देखें-आत्मा का अवसाद ६५ गृहवास से मुक्त नहीं ६७ द्वारा बार-बार कष्टों का अनुभव ६।१० विषयों में आसक्त ६।११ साधुत्व दुर्लभ २०७२; ६६ अनारम्भजीवी, देखें-अहिंसा अहिंसाजीवी ५११९ आरम्भ का अर्थ ५२९० द्वारा संधि का साक्षात्कार २२० सूक्ष्मजीवी लोक ५।२६ अनित्य ५२९ अनुपरिवर्तन २०१२६ अन्यत्व ४१३२ अशरण २१७-८, १६-१७, २०-२१, ७६-७७ अशुचितानुप्रेक्षा २०१३० एकत्व ४१३२; ६।३८-३९,८९७-१०० ममत्व विसर्जन २१५ अपरिग्रह और अमूर्छा का तादात्म्य ५।३९ का उपदेश २।१७४ __ मर्मवेत्ता ८।३२ की आराधना के हेतु ८।३४ के मार्ग का स्वरूप २।११९-१२० जनित परीषह-सहन ॥३७ सिद्धि के लिए पराक्रम ५॥३४ सिद्धि के लिए प्रयोग २।१५९ अप्काय, देखें--जलकायिक जीव अप्रमत्त आत्मा ही मित्र ३१६२ और अभय ३७५ का अर्थ १६६८, ५।३७ के कर्म-बन्ध ५१७१ मृत्यु के प्रति जागरूक २०६२ अप्रमाद और अहिंसा ४।११ का मार्ग ५२२१-२२ के आलम्बन सूत्र २।११-१२, ९६-९७ के निर्देश २।९४-९५ में उदीरणा एवं संक्रमण ५२२३ साधना का रहस्य २।१६० अरति और रति के रेचन के उपाय ३३६१ निवारण का फल २।२८ पर विजय पाने का उपाय ६७०-७१ से निवर्तन २०२७-३५ Jain Education international Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगभाष्यम् अवमौदर्य और आहार ५८० ९।४१। और ब्रह्मचर्य श८० और वस्त्र ८६७,९० के प्रकार ६४० अव्यक्त मुनि, देखें-एकाकी विहार अवस्था में एकल विहार ५२६६ का अर्थ ५।६२ की असमर्थता श६५ प्रशंसा से पराजित २६४ असमनुज्ञ का अर्थ ८१ के प्रति आदर का व्यवहार ८।२८ भिक्ष का निमन्त्रण ८२ से आदान-प्रदान का निषेध का२ आदान प्रदान के निषेध का कारण ८।३-४ अहिंसक अहिंसाजीवी ५११९, देखें-अनारंभजीवी ग्रन्थि-मुक्त ८।३३ व्रती का संकल्प ११९० अहिंसा का आचारण १३५ आधारभूत तत्व ४८ प्रवर्तक वचन ४।२४ मर्मज्ञ २॥१८१ मूल ५१५१ सिद्धांत एवं अन्य दार्शनिक ४१२०, २१ सूत्र ४।४ स्वीकार ४।१४ हृदय २११८० की साधना ८।१७-१८ के आचरण का हेतु ८०२० पांच आदेश ४१ प्रतिपादक-अर्हत् ४१ में आत्मा का स्वरूपगत अद्वैत २१००- अहिंसा धर्म ४९ का ज्ञाता-आर्य ४।२२ प्रतिपादन सबके लिए ४।३ शुद्ध, नित्य, शाश्वत ४।२ अहिंसा व्रत का आजीवन पालन ४१५ की अनुपालना में बाधाएं ४।६-७ अहोविहार, देखें-प्रव्रज्या आचार्य का अनुशासन ६९१ की सरोवर से तुलना श८९ साधना एवं गुण ५।९०-९२ द्वारा प्रशिक्षण ६।७४-७६ आत्मज्ञ का स्वरूप ६७३ ही सर्वज्ञ ४२ आत्म-तुला का अवबोध-हिंसा विरति का हेतु १।१४८; ३३५२ आत्म-दर्शन का परिणाम २।१७४; ३१४८ आत्मदर्शी का स्वरूप एवं परिणाम २:१७४; ३२३५-३७ आत्म-निग्रह के साधन ३३६५ दुःख-मुक्ति का उपाय ३६४ आत्म-प्रज्ञा-धुत-साधना का कारण पृ.२९७ आत्म-रमण की परिज्ञा ॥११७ के लक्षण ३।४६-४७ हेतु ३।४५ आत्म-युद्ध का निर्देश ५१४५ की सामग्री ५४६ के शस्त्र ५१४७ में अप्रवृत्ति का परिणाम ५१४८ आत्मवादी ११५ सम्यक् पर्याय, सत्य का पारगामी ५।१०६ आत्मवान् ३।४ आत्म-समाधि और महावीर ९।४।१४ देखें-महावीर और ध्यान से वंचित ५२९३ आत्मा अनन्यदर्शी और अनन्य-रमण २।१७३ एक आत्माभिमुखता ५२५४ और चैतन्य पृ. ३ ज्ञान का अभेद ५११०५ का अस्तित्व-बोध १११-४ कालिक अस्तित्व १०१-४, पृ. १९, १२५ का परम स्वरूप ५।१२३-१४० का लक्षण ११४, पृ. २३ प्रसाद ३।५५ स्वतंत्र अस्तित्व पृ. १-२ ज्ञाता और ज्ञान दोनों ५५१०४-१०६ धर्म का मूल स्रोत ४१२ पुनर्जन्म-धर्मा है या नहीं १११-४ बन्ध और प्रमोक्ष की कर्ता ५।३६ आत्मानुभूति ५।३७-३८ आत्मानुसंधान ६।२९ आत्मोपलब्धि ३६५६ आध्यात्मिक आलम्बन ३१६२ ज्ञान ३३५४ आतपुरुष का अर्थ १।१३ परिणाम १११४; ५।१८६१८ के प्रकार ४।१४ आश्रव १२६, देखें-क्रिया, प्रवृत्ति और परिश्रव का तात्पर्य ४१२ का अर्थ ४।१२ परिणाम ११८ संसार का हेतु ५॥१० आहार अनास्वाद-वृत्ति एवं परिणाम ८.१०१-१०४ अन्वेषक भिक्षु की विशेषताएं २।११०, ८.३९-४० और इन्द्रिय-शक्ति ८।३६ ब्रह्मचर्य २७९-८० शरीर का उपचय ८.३५ का परिहार ग्लान द्वारा ८७५ प्रयोजन ८।३७ की गवेषणा न करने के हेतु श६३ मात्रा का परिज्ञान २।११३ सन्निधि-सन्निचय २।१०५ सिद्धांत की स्थापना ४।२५-२६ से विमुख जगत् की उपेक्षा ४१२७ Jain Education international Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्गीकृत विषय-सूची के क्रय-विक्रय का निषेध २०१०९ पचन-पाचन का प्रयोजन २।१०४ लाभ-अलाभ में समता २।१०१ १०३, ११४-११५ संग्रह और ममत्व का निषेध २।११६-११७ ग्रहण का निषेध २।१०७-१०८ ग्रहण की व्यवस्था २।१०६ दूषित का वर्जन ८।३८,७५ आहार-संयम २११६४ से जीवन यात्रा ३३५६ इंद्रिय और अतीन्द्रिय चेतना श२ इन्द्रियातीत का साक्षात्कार २६७ की मूढ़ता १६ ग्रहण शक्ति की क्षीणता २।४ चक्षु और श्रोत्र की प्रधानता १९५ चेतना श२ जयी, मैथुन से विरत ५१० विषय की आसक्ति से जन्म-मरण ५।१२१ में आसक्ति का परिणाम ४।४५ विषयों का आसेवन २।१८६ की मूर्छा १९५ सुख और दण्ड की व्याप्ति ५८५ सुखों की पराधीनता २८६ गच्छनिर्गत मुनि की एषणा-विधि को कृश करना ४४४ ६५३ क्षीण करने के उपाय पृ.८-१० निरालम्बी होने में समर्थ मुनि श१११ कर्म-समारम्भ प्रतिमा व अचेलत्व की योग्यता की परिज्ञा १७,११ ६७४-७५ के हेतु १२१० में अव्यक्त के होने वाले दोष ५।६२-६५ कषाय देखें-अव्यक्त मुनि का क्षपण वमन ३१७७ श्मशान प्रतिमा और परीषह निरोध ३१७३ ६५५-५८ वमन ६।१११ के प्रकार एवं अर्थ ३७१ का अर्थ १०१२; ३३५; ४१५१ वमन के प्रकार ३१७६ निरीक्षण ३२०,२२ क्षय की प्रक्रिया ३१७९ पीड़न ४१४० मुक्ति, साधक का उद्देश्य ३७१ बन्ध और विवेक ५७१-७४; विरति ३७१-८७ ९।१११८ विरेचन ३७२ भेदन ३३७३,८६ क्रोध की अवन्ध्यता ४।५१ का क्रमिक दर्शन और छेदन उपशांति २।१५५ ३८३-८४ गवेषणा ३२७ विवेक ४।३४ परिज्ञा पृ.६ से कष्ट एवं रोग ४३६-३७ परिज्ञा के उपाय २११७३ मानसिक दुःख ४१३५ के प्रत्याख्यान से तात्पर्य १८४१५१ लोभ दुःख का हेतु २०१७२ अलोभ से पराजित २।३६ विषयक धारणाएं ४।५१ . में प्रवृत्ति का हेतु २११३४ से उपाधि ३।१९ से अभिभूत पुरुष ३४२ हिंसा का मूल ३१२१ कर्मक्षय इच्छाकाम और मदनकाम के का उपाय ४१३२ निमित्त ६।१०९ का परिहार २।१३२ के लिए धृति ३४० स्वरूप ६।३४ कर्मबंध, देखें-कर्म की अनासक्ति २।१२१ ऐहिकभवानुबन्धी ७२ दुस्त्यजता २।१२१ की विचित्रता ५७१ के दुरतिक्रमण के दो हेतु २२१२२-१२३ निलेपतावाद १८० कर्मवाद दुष्परिणाम श८५-८६ प्रकार २।१२१ के रहस्य ४११२ चिन्ता का परिणाम २।१३८ कर्मवादी १२५ पृ. २५ मार-मदनकाम ५३ कर्मविपाक का निदर्शन २०५४ में आसक्त-हिंसा में प्रवृत्त २।१०० की गवेषणा २१५५ निमग्न न होने का समाधान २।३६ के अज्ञान से भव-भ्रमण २०५६ महाश्रद्धा वाले का आचरण २।१३७ कर्मशरीर वासना का उदय ५८४ के धुनने के उपाय २११६३, १६४; काम-आसेवन ५५९ के लिए आश्रवों में प्रवृत्ति ५।१० ई पथ और महावीर ९।११२१ की विधि २६९-७० समिति से युक्त के कर्मबन्ध १७१ उपकरण, देखें-वस्त्र-पात्र उपधानश्रुत अध्ययन के अर्थाधिकार पृ. ४०७-४०८ का अर्थ पृ.४०७ और अमरत्व ३।१५ का अर्थ ३१५ एकाकी/एकलविहार अप्रतिबद्धविहारी ६५४ एकचारी भी धर्म से अनजान ॥१७ की चर्या ६१५२-५८ चर्या का स्वीकार ६३५२ Jain Education international Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगभाष्यम् से तृप्ति या अतृप्ति २।१३६ परिणाम २।६९,८५; ४।१८१६ सबको न होने का कारण पृ. २२-२३, ___ रोग २१७५ क्रोध, देखें-कषाय ३२६ कामकामी क्षेत्रज्ञ ३।१६-१७ से अनुसंचरण के हेतु का ज्ञान ११६ की मन:स्थिति का चित्रण २११२४ । गृहत्यागी चिन्तन क्रम में परिवर्तन १७ ___ वैर-वृद्धि २।१३५ एवं गृहवासी के लक्षण ५५४३ परिज्ञात कर्मा बनने का प्रयत्न शर के क्रिया-कलाप २०१३४ का गृहस्थ जैसा आचरण १९८; ज्ञानयोग की फलश्रुति ३१ कामचिकित्सा १४३; ६८६ ज्ञानवान् ३४ के उपाय ५७८-८४ पुन: गहवासी बनने के कारण २।३० ज्ञानी की जीवन-चर्या के सात सत्र ३१३८ ध्यान एवं तपस्या द्वारा २११४७ चारित्र धर्म पालने में असमर्थ ६।३० तप में हिंसा का निषेध २११४०-१४४, मुनिधर्म से च्युत ६।३३ उपकरण अवमौदर्य तथा कायक्लेश १४७ में न गार्हस्थ्य न अनगारता २।३४ ८५५,७३,७९,९५ कामभोग पुनः गृहवासी २।२९; ४।४५, ६।३१, एकत्व अनुप्रेक्षा ८९९ और अचेल मुनि ६।६४ का परिणाम २१७५-७९ ८४-८५ के अतिक्रमण का उपाय-विपश्यना चिकित्सा परिग्रही पुरुष २०५९ २।१२५ काम की, देखें-काम-चिकित्सा स्वाद अवमोदर्य तथा कायक्लेश तृप्ति देने में असमर्थ २।९७-९९ निरवद्य उपाय से २११४७ ८।१०३ धर्म के बाहर ५।१२ हिंसानुबंधी, देखें-हिंसानुबंधी तंजसकायिक जीव, देखें-अग्निकायिक में चित्त की स्थापना और परिणाम चिकित्सा जीव २१३२-३४ जन्म त्रसकायिक जीव से विमुक्त-पारगामी २१३४ और जरा को देखने का निर्देश ३।२६ और कुछ अनगार १११२७ कर्म-समारम्भ का हेतु १।१० काममुक्ति का उपाय संसार ११११९ काल की विभिन्न अवस्थाएं ६।२५ का ज्ञान १११२० अनुपरिवर्तनानुप्रेक्षा २।१२६ -मरण का अतिक्रमण ५।१२२ की वेदना का बोध ११३७-१३९ अशुचि अनुप्रेक्षा २।१२९-१३० पराक्रम २०१२८ जलकायिक जीव के प्रकार ११११८ विचार विचयात्मक आलम्बन २२१३२ और अन्य दार्शनिक ११५५ लक्षण १२१२३ विपाक दर्शन २।१३१ का अस्तित्व ११३८,५५ पृथक्-पृथक् शरीर में १३१२५ शरीर के प्रति विरक्ति २।१२९ की हिंसा २४१,४२,४५,५० प्रसकायिक जीव की हिंसा १२१२४,१२८, संधि को देखना २२१२७ हिंसा-विवेक श६२-६५ १३१,१३६,१४१ कामासक्त हिंसा के परिणाम ११४६,४८ का परिणाम १११३२,१३४ के शरीर की निर्बलता एवं व्यथा ६.१७ हिंसा के हेतु ११४४,४९ प्रयोजन १११३०,१३५,१४० जीवन की अनित्यता से अनजान ५१५ के प्रति व्यवहार २३८ विवेक १११४२-१४४ कामासक्ति शस्त्र ११५६-५७ से विरति १२१२१,१२२ की ओर मानसिक दौड़ २११३३ जलारम्भ और अन्य दार्शनिक त्रिविद्य के प्रतिकार का उपाय ४/४३ ११५८-६१ का स्वरूप ३१२८ रोग का मूल ६।१६ जीवत्व संसिद्धि ११३९ पुरुष का कर्तव्य ४१३९ क्रिया, देखें-आश्रव, प्रवृत्ति 'वेदना-बोध ११५१-५३ दंड, देखें-हिंसा का दूसरा नाम आश्रब ११६ वैज्ञानिक मत ११५५ का प्रयोग २।४२ परिणाम ११६ जातिस्मृति के प्रयोजन २१४२-४५ के प्रकार श६ और प्रत्यक्षवादी पृ. १८ समारम्भ का निषेध २०४६ क्रियावाद ९।१।१६ का मुख्य फल १५ वर्शन की परीक्षा क्रियावादी ११५ पृ. २५ के कारण पृ. २१ और अन्य दर्शन ॥११३ विचय सूत्र १११-४ एकांगीवादों का निरूपण ८५-८ का अर्थ २०६९ शक्यता के तीन हेतु ११३,पृ. १९-२० तीर्थकर के सिद्धांत ५।११६ कर-कर्म Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्गीकृत विषय-सूची ५३६ के तीन साधन ५॥११४ आरम्भ से उत्पन्न ३११३; ४।२९ कष्ट-वेदन की तरतमता ४।१८ का चक्र पृ.५ परिहार ३८४ हेतु ३८१, ४१३१ की कारण शृंखला ३८३ परिज्ञा २।१७१; ४।३० मीमांसा ३।२ के आवर्त में अनुपरिवर्तन २०७४,१८६ नाना रूप वाला श२५ प्रतिकार के लिए कर्म-समारम्भ २९-१० मुक्ति से उपाय ३।९,६४ द्रष्टा उपाधि मुक्त ३१८७; ४१५३ का दर्शन ३७२,८५ स्वरूप २०११८,१८५ के व्यपदेश नहीं २।७३,१८५ द्वारा पदार्थों का परिभोग २०११८ धर्मोपदेश अहिंसा धर्म का ४।३ करने में श्रेष्ठ २११७८ किसका ६।१०२ किसको ४।३,१३, ६।१०२ की विधि २११७६; ६।१०१, ८१९-१० प्रतिपादक की अर्हता ६।१०० मुक्तिमार्ग के आख्यान का ६।३ में अभेद भाव २११७४ पराक्रम ६।४ पुरुष और नय का विवेक २।१७७ सावधानी २११७५ विवेक पूर्वक ६।१०३-१०४ धर्मोपदेशक असन्दीन द्वीप ६।१०५ आख्याता का स्वरूप ६।१-२ धुत अचिकित्सा धुत ६।२३, आचार की साधना ३।६० आचार सेवी मुनि ६।५९ का अर्थ ६।२४ काम्य परित्याग धुत ६।३० वाद का प्रतिज्ञा सूत्र ६।२४ साधना का प्रथम कारण-आत्म-प्रज्ञा पृ. २९७ ध्यान अकर्मा की साधना २।३७; ५।१२० अनन्य दर्शन २०१७३ अन्तरात्मा की संप्रेक्षा २।११ अनिमेष प्रेक्षा या त्राटक २।१२५ अपाय विचय २।१६१ अल्पायुष्य का विचय सूत्र २।४ आत्म-संप्रेक्षा ४१३२ आत्म-समाधि ४१३३ और चैतन्य केन्द्र ५।२०,२१,४१ निरुद्धायष्क संप्रेक्षा ४।३४ निष्कर्म दर्शन ३।३५ परम दर्शन पृ. ९, ३३३३, ३८ प्रकम्पन दर्शन ४।३७ प्रतिपक्ष भावना २०३६ प्रेक्षा करना २।१६० भेद विज्ञान ३।४; ८।१०७,१२७ महावीर का, देखें --महावीर मार्ग की अपेक्षा ? ॥३० विचयात्मक २।१६० विपश्यना का २।१२५ शरीर संप्रेक्षा श२१ संधि को देखना ५।३० पंडित आत्मज्ञ ६७३ विपाक दर्शन २०१३१ विरतिमान ४।३२; ५५४४ समत्वदर्शी २०५१, ५।४०% ८।३१ पथ का द्रष्टा २।१५७; ३।३७ कुमार्ग का निषेध ११०८ पर आरोहण २५० परम का अर्थ ३।२८ तत्त्व में लीन-उच्चालयिक ३२६३ मोक्षलक्षी, अबहिर्मना ५२११२ परम आत्मा ५।१२३-१४० परिग्रह और काम की एकसूत्रता २।३१ क्रूरता का परिणाम २०७१ हिंसा का कार्य-कारण भाव धन २११८४ काम का साधन २०७५ की तीन अवस्थाएं २०६८ बहुलता के हेतु २०६५ के प्रति मूर्छा २०६६-६७ देखें-परिग्रह धन-अर्जन और लोभ ३१४२ विनाश की मीमांसा २०८०-८५ का मानसिक हेतु २०१५ के पीछे चितन २१८० लिए क्रूर कर्म २६९ का असंग्रह २।१५५ त्याग २११५६ मूल २।१२१ स्वरूप ५।३१ के परिणाम २१५६-६१ परिहार में असमर्थ २१७२ प्रकार ५१३२ लिए हिंसा और निग्रह २०६५ संयम-हेतु पराक्रम ५॥३४ सूत्र पृ.८५-८६ धन के प्रति मूर्छा २१६६-६७ देखें-धन पदार्थ और अज्ञानी २३३ - पदार्थगत एवं बुद्धिगत २।१५६ महान भय का हेतु ५।३२ में प्रमत्त की आत्मानुभूति ५।३७-३८ विचार का आग्रह या ममत्व २।१७६ आश्वासन स्थान ६७२ का ज्ञाता ४२८ पालन ६१४८ गांव में या अरण्य में ८।१४ । से अनजान २९३ च्युत का जन्म-मरण २४८-४९ धर्मवान् ३।४ Jain Education international Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० विमुक्ति का विचय सूत्र २।४९ संचय का प्रकार ३।३१ सम्मान की वांछा भी २।४९ से इच्छा की अपूर्ति ३।४२ परिक्षा और सर्वपरिज्ञाचारिता २।१७९ परिचारी २१०२ का अर्थ १।७;२।१४५, १७१ के चार चरण २।१७१ प्रकार ५१९ से कर्मोपशान्ति २।१५५ परिजातकर्मा और गीता १।१२ महावीर १।१२ का अर्थ १।१२ मुनि का स्वरूप १।३४ परीषह और उपसर्गों का मंथन ८।१०७, १२७ दृष्टिमान् ३७० महावीर देखें महावीर सहन का क्रमिक अभ्यास ६ । ३२ पुरुष पापकर्म मुनि का परम धर्म ६।९९ में अक्षम का दुर्निष्क्रमण ६।८५ से देह की भग्नता ८३५ अकरणीय १।१७४; ५।५५-५६ का आचरण न करने के हेतु ३।५४ निषेध २।१४९ क्षय दीर्घकाल सापेक्ष ३।३९ के क्षय का उपाय ३।४१ को दूर करने का प्रयोग १।१७५ न करने वाला महान् अग्रन्थ ८।३३ में आसक्त नहीं, उन्हें भी रोग २० से उपरत ३।१६ निवृत्त अनिदान ४३८ पुनर्जन्म-जातिस्मृति अनेक चित्तवाला ३।४२ का अर्थ १।७ परिताप २।४० कामकामी २।१२३, १३४ के प्रकार २।२३ ५। १५; ६१४५ जातिस्मृति सम्पन्न १ परमचक्षुष्मान् ४।३४ स्वयं अपना मित्र ३।६२ पूर्वजन्म, देखें जातिस्मृति पृथ्वी के आश्रित जीव १८५ पृथ्वीकायिक जीव का भोगित्व १२८ की इन्द्रियान से १२८ पृ.४१ दृश्यता १२८ पृ. ३८ विवक्षा १।१६ के पृथक्-पृथक् शरीर १।१६ शरीर की अवगाहना १२८ पृ. ३८ में आभामण्डल का अस्तित्व १२० पृ. ४१ आश्रव १२८ पृ. ३९ आहाराविता १२८ पृ. ४० उन्माद १२८ पृ. ३९ कारण १।२८ पृ. ३७ कषाय १२८ पृ. ४१ जरा और शोक ११२८ पृ. ३९ ज्ञान १२८ पृ. ४० पर्यव १२८ पृ. ४१ लेश्या ११२८ पृ. ४१ वेदना १२८ पृ. ३७ श्वासोच्छ्वास १२८ पृ. ३७ संज्ञा १२८ पृ. ४० पृथ्वीकायिक जीव का अस्तित्व अतीन्द्रिय ज्ञान प्रमाण १।२८ आचार्य कुन्दकुन्द का मन्तव्य ११२८ भूवैज्ञानिकों का मन्तब्य ११२८ पृथ्वीकायिक जीव की हिंसा ११९,२२, २७,३१ का विवेक १।३१-३४ के कारण १।१५,२१,२६ परिणाम १।२३, २५ से अन्य जीवों की हिंसा १।२७ प्रज्ञान अविरत १।१८ विरत १।१७ विरति का कारण १।३२ और प्रज्ञानवान ४।४७ आचारांग भाष्यम् का अर्थ ; १।१७४, २।२५-२६; ४ ४७; ६/६७ कर्तव्य ६६८ के शरीर का लाघव ६।६७,७७ विरत २६० तीर्ण, मुक्त, सर्व-समन्वागत - प्रज्ञा ५।५५ प्रमत्त का अर्थ ४।१४ चित्त ३।४२ भावपरिवर्तन ४।१५ दशा में उदीरणा और संक्रमण ५।२३ मुनि के कर्म-बन्ध ५७२ व्यक्ति धर्म से बाहर ४।११ प्रभाव और हिंसा की अनुस्यूति ४।११ के कारण २।५५, १५२ हेतु ३६८ न करने का कारण ५।२३ प्रवृत्ति देखें-कर्म कर्म समारम्भ; आयव अकरणीय या करणीय १५ और अनुवृत्ति का सिद्धान्त २।१३४ के तीन विकल्प १।३३ निष्कर्मदर्शी बनने का उपाय ४।५० देखें- आत्मदर्शी प्रव्रज्या अभिनिष्क्रमण के समय की स्थिति ६।२६-२८ अहो विहार का क्षण २।२४ के लिए प्रस्थान २।१०, २३-२६ लिए अवस्था २।२३ ग्रहण की अवस्था ८।१५ के पश्चात् कर्तव्य ४|४० मध्यम अवस्था में ८ ३०-३१ निष्क्रमण का उद्देश्य ६८५ में असम्यक् प्रवर्तन ५। १०७ विहरण के हेतु ६९८ प्राणी श्रद्धा को बनाए रखना १९३६ का तात्पर्य ४।१ के प्रकार ६।१२ प्राणों का अपहरण ६।१४ लिए अशांति महाभयंकर १।१२२ दुःख से भय ६।१५ को Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४१ वर्गीकृत विषय-सूची द्वारा प्राणियों को क्लेश ६।१३ बन्धन-मुक्ति की खोज २११८१-१८२ के विधि-निषेध का ज्ञान २११८३ पाश का विमोचन ३१२९ ब्रह्मचर्य इन्द्रिय जय की साधना ५७५ और अपरिग्रह की अनुस्यूति ५।३५ का अर्थ पृ. १५; ४।४४; १३५ काम चिकित्सा के उपाय ५७८-८४ मुक्ति के आलम्बन सूत्र ५८५-८६ की रक्षा के लिए प्राण विसर्जन ८५७-६१ के आलम्बन सूत्र ५१७६-७७ गुरुकुलवास के लाभ ५२९९ मैथुनसेवी की मूर्खता ५।११ ब्रह्मचारी के कर्तव्य और अकर्तव्य १८७ ब्रह्मवान ३।४ मन साधना पद्धति के मूल तत्व पृ. १६२ मृत्यु के परीषह और उपसर्ग ९।१३, कर्म समारम्भ का हेतु ११० ९।२७-१५; ९।३।१-११ ग्लान द्वारा प्राण विसर्जन ८८२-४४ द्वारा सेवित निवास ९।२।१-३ जीवन की कसौटी ६।११३ ध्यान और समाधि ९।११५,६,७; ब्रह्मचारी द्वारा प्राण विसर्जन ९।२।४,११,१२, ९।३।१२,१३, ८.५७-६१ ९।४।३,१४-१६, पृ. ४०८, पृ. ४०९ मुनि पर वैज्ञानिक मत २।४ और पंडित ११११,१२ सूत्रकार का मत २।४ का अर्थ ३।१ शाश्वत की ओर गति २०६२ __ अहंकार एवं हेतु ६।८७ संबोधि का आलम्बन ४११६ की निन्दनीय प्रसिद्धि ६९६ समाधि मरण ८।१२५-१२८3८1८१ प्रशंसात्मक प्रसिद्धि ६।९७ देखें-अनशन के लिए करणीय ५१४४ मेधावी आस्रव-पंक में निमग्न ६।९२ अरति का निवर्तक २७ जागृत, अमुनि सुप्त ३।१ आगम में श्रद्धा ३१८० जीवन का परम धर्म ६।९९ का अर्थ ११७० तीर्ण, मुक्त एवं विरत २।१६५,५२६१, मोह अप्रमाद और महामोह २।९४ दृढ़धर्मा ६॥३६ और विषयासक्ति २१३३ द्वारा परीषह-सहन ३।६९ विसर्जन का आलम्बन ।' परुष आचरण ६७७-७८,८०, मोहावृत मनुष्य का अज्ञान २८९ परुष आचरण के हेतु ६७९ मोहासक्ति से भवचक्र ५१६-८ पुनः शृगाल वृत्ति का आचरण ६९४ और उसका सम्यक् अनुपालन ५८८ यश की कामना का निषेध ५।५३ सम्यक्त्व का अविनाभाव ५।५७ धर्म का पालन ६१४८ का अर्थ एवं अनुपालन २११०३५।३८ धर्मविद् और ऋजु ३५ की साधना की योग्यता ५५८ मन्दमति की मूर्खता ६८१ वीरवृत्ति से प्रवजित ६।९३ का मूल ६.१६ संयम से अनुद्विग्न ६।११० की उत्पत्ति, उपभोग में बाधक २०१९ मुनि के पर्याय के उन्मूलन में चिकित्सा ६१९-२० अनिदान ८।१६ कारण तिरस्कार २७६ ऋजु ३३५ सोलह रोग ६ त्रोटक ६११२ लोक दृष्टिमान ३७०, ६१०७ का ज्ञान २।१५९, ३३२५ नायक २।१७० तात्पर्य १२९६ निग्रन्थ ३७ के वृत्त को देखना ५।३२ पण्डित ६१७३; ८।३१ परिज्ञातकर्मा १२१२ को भिन्न दृष्टि से देखना श५० विचय का अर्थ पृ. ८५ पारगामी ६।११३ लोकवादी १५ महामुनि ६।३७ मेधावी ११७० लोकसंज्ञा वीर २१६० मौर लोक २११५९; ३१२५ ८८,८९ का त्याग १८४ की दो विशिष्ट अवस्थाएं २।१६० मनोवृत्ति ११९-१० का परिष्कार २८७ युद्ध की पृ. २३६ महावीर और अचिकित्सा ९।४।१,२ आसन ९।४।४,१४ आहार ९।११८-२००९।४।१, मौन रोग तपस्या ९।४।४-७,१६, पृ. ४०९ निद्रा ९।२।५,६९।४।६, पृ. ४०९ वस्त्र ९।२२,४,१९,२२ का आचरण पृ. ४०८ दर्शन ५।६७,१०८-१०९ मार्ग दुरनुचर ४१४२ विहार ९।१११,१२,१३, ९।३२,५; ९।४।३ की गमन विधि ९।१।२१ गृहवासी साधना ९।११११ मौन साधना ९।२।१०,११; ९।४।३, पृ. ४०९ Jain Education international Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ का परित्याग २।१५९, १८४ ३ २५ लोकसंयोग का अतिक्रमण २।१६९ त्याग एवं परिणाम ३७८ लोकसार ५४४ पर विमर्श पृ. २३५ लोकंणा का परिहार ४७ लोभ, देखें कषाय वनस्पतिकायिक जीव वस्त्र और अणगार १।९२ की मनुष्य से तुलना १।११३ वेदना का बोध १।११०-११२ के क्रम का विचार पृ. ५९ शस्त्र १।१०१ वनस्पतिकायिक जीव की हिंसा १।१००, १०१, १०९,११४ अनाज्ञा में १ ९७ और गृहवासी १९३,९८ का विवेक १।१०६, ११५, ११७ के परिणाम १।१०४,१०७ परित्याग के हेतु १९१ हेतु १।१०२, १०८ न करने का संकल्प १९० एक वस्त्र और एक पात्र ८८५ एक शाटक ८।५२ का क्रमिक विसर्जन ७७८-८०; ८६९-७४, ९२-९६ की अपेक्षा मुनियों के प्रकार ८१४३ श्रमिक अल्पता एवं परिणाम ८५४-५६ याचना ८|४४ याचना एवं धारण ८१६३-६८, ८६-९१ के प्रति अनासक्ति ६।३६ तीन वस्त्र और एक पात्र ८४३ दो वस्त्र और एक पात्र ८६२ धारण ८।४५-४९ धारण के तीन प्रयोजन ८५३ विषयक प्राचीन परम्परा ८।५०-५१ - सामाचारी एवं परिणाम ८८१ काधिक जीव अचित्त वायु और अणगार १।१५१ की वेदना का बोध १।१६१-१६३ के शस्त्र १।१५२ वायुकाधिक जीव की हिंसा ११५२,१५२, १५९,१६० वीर वायु विमोक्ष पृ. ३५५ विषय के प्रकार १।१५२ का विवेक ११५७. १६५,१६८ की विरति १।१४९ - १५० विरति का आलम्बन १।१४६-१४८ के निवारण की शक्यता १।१४५ परिणाम १।१५६, १५८ हेतु १।१५४, १६९,१७० से अन्य प्राणियों की मृत्यु १।१६४ और आवर्त १९३ की अभिलाषा महाभयंकर २९८-९९ आकांक्षा से पाप कर्म १ १६ आसक्ति का परिणाम १।१४-१५ ओर उन्मुख ५।१३ के लिए परिताप और परिणाम २।२-३ गुण और मूल स्थान २।१३, १४ में प्रवृत्त पुरुष २।१३, १४ रूप और शब्द १९४ लोभ के हेतु २।१ से प्रेरित मनुष्य की दशा ४ ४९ का कर्त्तव्य ३।५० स्वरूप २।१६० के लक्षण ३८ महापथ के प्रति समर्पित १।३७ बेदवित् और महावीर का दृष्टिकोण पृ. २९० और वेदवान् ३|४ का अर्थ ६।१०१ शास्त्रज्ञ पुरुष ५।७४, ११९, ६ १०१ वैराग्य का आलम्बन एवं फल ३।५८ धारण रूपों के प्रति ३ । ५७; ४।६ व्यक्त मुनि ५६२ शक्ति का नानात्व ५।४२ शस्त्र संग शिष्य ५।९३ संग्रह संधि आचारांग माध्यम के गोपन का निषेध ५१४१, ४५ संयम के प्रकार १।१९ ३७२ उत्तरोत्तर तीक्ष्ण ३८२ की उदासीनता का निरसन ५।९५ के प्रकार एवं मनोवृत्ति २०९४ द्वारा परुष आचरण ६।७७-७९ विहगपोत के समान ६।७४ आवर्त और स्रोत ३ ६ ५।११८ का अर्थ १।१७३ ३ ६ ६ १०८ परित्याग ६।३८ तात्पर्य ५।३३ को देखने का निर्देश ५।११८ ६।१०८ अनेक बलों का २४५ और संचय के परिणाम ३।३१ एक मूल मनोवृत्ति २।१०५ बल प्राप्ति के हेतु २।४५ भोजन के लिए २।१८ और अतीन्द्रिय ज्ञान ५।२० चैतन्य केन्द्र या चक्र ५१२०, ४१ सन्निधि-संचय २१०६ सम्यग्दर्शन का संधान १९० के अर्थ २।१२७ को शरीर में देखना ५।३० में महान पराक्रम ५।४१ और असंयम का ज्ञान ३।१७ गौरवत्रयी ६५३ वसुमान ५।५५ शीघ्रघाती रोग ५।२६ की तीन भूमिकाएं ४ ४० साधना ३।४४ पूर्वक कर्म अकर्म १८ से तेजोलेश्या का संवर्धन ३७८ भ्रष्ट होने के कारण ६।९५ विपन्न २।१६६, १६७ Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्गीकृत विषय-सूची ५४३ संसार ११११८-१२२ का अर्थ ५१९ ज्ञान ५२९ सत्य का अनुशीलन ३१६५; ५।११६ के अर्थ ३४. के लिए मध्यस्थ भाव ५२९७ सूत्र पृ. १६१ से मृत्यु का अन्त ३१६६ समता और गोत्रवाद २।४९-५२ का अर्थ ३१३,५५, ५४० अनुपालन १४० की सिद्धि के उपाय पृ. १०-११ के प्रकार पृ.६ चित्त की प्रसन्नता का हेतु ३३५५ सामायिक के तीन प्रकार २४० समत्वदर्शी का आहार श६० समनुज्ञ के साथ व्यवहार ८।२९ सम्यक्त्व अहिंसा सिद्धान्त की परीक्षा ४।१६-२६ और मौन का अविनाभाव १५७ सम्यग् दर्शन ४।४।। का फल ४१५२-५३ की विदिशा २५४ और प्रमाद ५।२४ प्रवर्तक वचन-अनार्य वचन ४।२१ की कल्पना भिन्न-भिन्न ५२२५ प्रयोजन १११३०,१३५,१४०%; के आस्वादी प्राणी २।६३-६४ २।४३-४५, १४३,१५१, ५२ एकार्थक शब्द १२१२१ मूल ३२१ प्राणी का इष्ट १११२१,१२२ विवेक १२३१-३४,६२-६५,१०६, सुप्त ११५,११७,१४२-१४४,१५७, और जागृत ३।११-१३ १६५,१६८, २१४६-४८; ३३५३ के प्रयोग का निषेध २०४६ के अज्ञान में वृद्धि ३२ प्रकार ३११ विषय में अन्य मत ४।२० ५१००।८।११-१३ परतन्त्र ३११० संकल्प का निषेध ११७० २।१५३ में विशिष्ट पुरुषार्थ नहीं ३।८ जलकायिक की, देखें-जलकायिक जीव सेवा त्रसकाय की, देखें-त्रसकाय जीव की प्राचीन परम्परा ८७६ पृथ्वीकायिक की, देखें-पृथ्वीकायिक के विभिन्न प्रकल्प ८।११६-१२४ जीव निमित्त भिक्षु की प्रतिज्ञाएं ८७७ प्रयोजनवश या निष्प्रयोजन ५११ फल का प्रतिपादन ४।१९ की वशवर्तिता का परिणाम २।९०-९४ में आतंक का दर्शन ३।३३ परीषह में मुनि का कर्तव्य ८।५७-६१ लीनता से गतिचक्र ४।१० वनस्पतिकाय की, देखें-- वनस्पतिका छेदन ३४९ कायिक जीव निरोध ३.५० वायुकायिक की, देखें- वायुकायिक साक्षात्कार ॥१२० जीव के अर्थ ३१६ समर्थक दार्शनिकों से प्रश्नोत्तर ४१२५प्रकार ५।११८ विस्रोतसिका का परिहार १।३६ से उपरत ४।४७,४८ स्त्री एवं पुरुष के २।१३० विरति १।१७,३२,१२१,१२२, हिसा १४९-१५०, ३।३,५१-५२ अग्निकायिक की, देखें-अग्निकायिक जीव हिंसानुबंधी चिकित्सा आमोद प्रमोद के लिए ३३२ और चिकित्सक २११४२,१४३ एक का अतिपात सबका अतिपात संयम में सावधानी २।१४८% २११५० ६२१,२३ करने वाले के प्रति दया ८।१९ करानेवाला 'बाल' २२१४५-१४६ कर्म से अलिप्त २।१८० का निषेध २।१४७, ६२१-२३ का परिणाम १२२३,२५,४६,४८,१०५, से कर्मोपशम नहीं ६।१९-२० १०७,१३२,१३४,१५६,१५८ महान भय ६।२२ स्रोत २६ के अधिकार प्र. २०३ पर विमर्श पृ. २०३-२०५ सम्यक् का हेतु मध्यस्थता ५०९६ के निक्षेप पृ. २०३-२०४ सर्वज्ञवाद की चर्चा पृ. १६१ और अशरणता २०२२ आसक्ति २१७८-७९ दुःख अपना-अपना २५२ दुःख का विवेक पृ.७ पदार्थ २१८८ Jain Education international Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धाशुद्धि पत्र लाइन कस्यचिद् अशुद्ध कश्चिद् संधते कृष्यादि कर्मषु एयावन्तः १७ सूत्रम् संधत्ते Mr.rM 9 इत्यर्थ १०४ कृष्यादि कर्मसु एतावन्तः १९ सूत्रम् इत्यत्र वा एकः संपूर्ण परिग्रहबुद्धया प्रतिलिख्य धर्म ... स्रोतःशब्देन दुक्ख" वाए कः संपूर्णा परिग्रहबुद्धया प्रतिलिख्यः धर्य.. स्रोतशब्देन १२६ १४० १४८ १७१ १६५ १६७ १९७ २०७ सो २० २१७ २१८ २१८ 20xxur x Mrm २२ २३ जो परिगृहीतव्याः अध्यात्मस्य परिगृहीतव्या: परिगृहीतव्याः परिगृहीतव्याः पराक्रा मेत् पराक्रामेत् ..."मंकुथु" परिग्रहीतव्याः अध्यात्म परिग्रहीतव्याः परिग्रहीतव्या: परिग्रहीतव्याः पराक्रमेत पराक्रमेत ३३८ ३३९ ४३९ ४ गा० "मंथुकु Jain Education international Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणाधिपति तुलसी के वाचनाप्रमुखत्व में आचार्य महाप्रज्ञ द्वारा संपादित / विवेचित आगम ग्रन्थ मूल पाठ, अनुवाद तथा तुलनात्मक टिप्पणों से युक्त १. आयारो (आचारांग ) २. सूयगडो (सूत्रकृतांग ) भाग १,२ ३. ठाणं (स्थानांग) ४. समवाओ (समवायांग) ५. भगवई (भगवती) ६. भगवती भाष्य, भाग १ ७. उत्तरज्झयणाणि (उत्तराध्ययन) भाग १,२ ८. दसवेआलियं (दशवैकालिक) ९. अणुओगदाराई (अणुयोगद्वार ) } प्रेस में १०. नंदी (नंदी) मूल पाठ, पाठान्तर तथा शब्द-सूची से युक्त १. अंगसुत्ताणि, भाग १,२,३ २. आगम शब्दकोश (अंगसुत्ताणि की शब्द सूची) ३. उवंगसुत्ताणि, भाग १, २ ४. नवसुत्ताणि Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अावाज्यम अथातो भाष्यकार: प्रारभते भाष्यम् / सुधर्मा गणधरः जम्बूस्वामिनं एवमाह-आयुष्मन् ! मया साक्षाद् भगवतः सकाशात् श्रुतम्। यदहं ब्रवीमि तन्न स्वमनीषिकाप्रकल्पितं, किन्तु तत् तेन भगवता महावीरेण स्वयमेवमाख्यातम्। 'पणया वीरा महावीहिं' (आयारो 1/37) भाष्यम्-अहिंसा महती वीथिर्विद्यते। तां महावीथिं प्रति ये केऽपि प्रणता न भवन्ति, किन्तु ये पराक्रमशालिनो वीराः सन्ति त एव तं महापथं प्रति समर्पिता भवन्ति। तात्पर्यमिदम्-अहिंसा न तु कातराणां मार्गः, किन्तु पन्था अयं पराक्रमशालिनाम्। आचार्यमहाप्रज्ञः Jain Education Intematon For private & Personal use only .