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________________ ४१४ आचारांगभाष्यम् ६. सयहि वितिमिस्सेहि, इत्थीओ तत्थ से परिणाय । सागारियं ण सेवे, इति से सयं पवेसिया झाति ॥ सं०--शयनेषु व्यतिमिश्रेषु स्त्रियः तत्र स परिज्ञाय । सागारिकं न सेवते, इति स स्वयं प्रविश्य ध्यायति । भगवान् जनसंकुल स्थानों में नहीं ठहरते थे । (कभी-कभी ऐसा होता कि वे एकान्त स्थान देखकर ठहरते), पर एकांत की खोज में कुछ स्त्रियां वहां आ जातीं। भगवान् की प्रज्ञा जागृत थी, इसलिए उनके द्वारा भोग की प्रार्थना किये जाने पर भी भगवान् भोग का सेवन नहीं करते थे। वे अपनी आत्मा की गहराइयों में पैठकर ध्यान में लीन रहते थे। भाष्यम् ६–धतिमतः पुरुषस्य निमित्तमासाद्यापि न धृतिमान् पुरुष का चित्त निमित्त के मिलने पर भी विचलित विचलति चित्तम् । भगवान् धृतिमतां वरेण्यः । तेन नहीं होता। भगवान् धृतिमान् पुरुषों में अग्रणी थे। इसलिए उनका तस्याऽविचलने नास्ति आश्चर्यम् । ऋषभस्तुतौ उक्तं चित्त विचलित नहीं हुआ, इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। मानतुंग मानतुंगसूरिणा आचार्य ने ऋषभ की स्तुति में कहा है'चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशांगनाभि __ यदि देवांगनाओं ने आपके मन को विकार-युक्त नहीं बनाया नीतं मनागपि मनो न विकारमार्गम् । तो इसमें आश्चर्य ही क्या ! पर्वत को प्रकंपित करने वाले कल्पान्तकाल कल्पान्तकालमरुता चलिताचलेन, के पवन से क्या मेरु पर्वत कभी प्रकंपित होता है ? कि मन्दराद्रि शिखरं चलितं कदाचित् ॥' भगवता एतद् आचीर्णं अत एव एतत् प्रतिपादितम् । भगवान महावीर ने इसका आचरण किया, इसीलिए इसका अस्यानुसारी उपदेशः प्रतिपादन किया। इसका संवादी उपदेश है'जे छेए से सागारियं ण सेवए।" 'जो इन्द्रियजयी है, वह मैथुन का सेवन नहीं करता' । 'जे महं अबहिमणे ।" 'जो महान् अर्थात् मोक्षलक्षी होता है, वह मन को असंयम में न ले जाए।' 'लढे कामे नाभिगाहइ ।" 'वह प्राप्त कामों में निमग्न नहीं होता।' अत्यो ? पुरतो संकुडा अंतो वित्थडा सा तिरिय (तिर्यग्भित्ति) शरीर-प्रमाण वीथी (पौरुषी) पर भित्तिसंठिता वुच्चति, सगडुद्धिसंठिता वा जतिवि ध्यानपूर्वक चक्षु टिकाकर चलते थे। इस प्रकार ओहिणा वा पासति तहावि सीसाणं उद्देसतो तहा अनिमिषदृष्टि से चलते हुए भगवान् को देखकर करेति जेण निरुभति दिदि, ण य णिच्चकालमेव डरे हुए बच्चे हंत ! हंत! कहकर चिल्लाते -- ओधीणाणोवओगो अस्थि, चक्खुमासज्ज अंतसो दूसरे बच्चों को बुला लेते। झायति पस्सति अनेण चक्खू, चक्खुसा आसज्ज, ___डॉ. हर्मन् जेकोबी ने अंग्रेजी अनुवाद टीका के यदुक्तं भवति-पुरओ अंतो मज्झे यातीति पश्यति, आधार पर किया है पर तिर्यग् भित्ति के अर्थ पर तदेव तस्स झाणं जं रिउवयोगो अणिमिसाए विट्ठीए उन्होंने संदेह प्रकट किया है। उनके अनुसार :बद्धेहि अच्छीहि, तं एवं बद्धअच्छी जुगंतरणिरिक्खणं 'I can not make out the exact meaning of It, perhaps; 'So that he was a wall for the बटुं।' animals' (अर्थात् संभवतः इसका अर्थ है-जिससे आचारांग वृत्ति, पत्र २७४ : 'पुरुषप्रमाणा पौरुषी कि भगवान् तियंचों के लिए भित्ति के समान थे)। आत्मप्रमाणा वीथी तां गच्छन् ध्यायतीर्यासमितो भित्ति पर ध्यान करने की पद्धति बौद्ध साधकों गच्छति, तदेव चात्र ध्यानं यदीर्यासमितस्य गमन में रही है। प्रस्तुत सूत्र में भी उल्लेख है-भगवान् मिति भावः, किंभूतां तां?–तिर्यग्भित्ति ऊर्ध्व, अधः और तिर्यक् ध्यान करते थे (२।१२५)। शकटोद्धिवदादौ सङ्कटामग्रतो विस्तीर्णामित्यर्थः, भगवती सूत्र के टीकाकार अभयदेवसूरि ने “तिर्यग् कथं ध्यायति ? –'चक्षुरासाद्य' चक्षुर्दत्त्वाऽन्तः भित्ति' का अर्थ प्राकार, वरण्डिका आदि की भित्ति मध्ये दत्तावधानो भूत्वेति, तं च तथा रीयमाणं अथवा 'पर्वत-खण्ड' किया है। दृष्ट्वा । (भगवती वृत्ति, पत्र ६४३-६४४) चूणिकार (पृष्ठ ३००-३०१) और टीकाकार १. आयारो, ॥१०॥ (पत्र २७४) ने इस गाथा का अर्थ इस प्रकार किया २. वही, ५११२। है-भगवान् प्रारंभ से संकड़ी और आगे चौड़ी ३. वही, २१३६ । Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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