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________________ अ० ६. उपधानश्रुत, उ०१. गाथा ३-५ ४१३ संसप्पगा य जे पाणा, जे य उड्ढमहेचरा। संसर्पण करने वाली चींटी आदि, आकाशचारी गीध आदि तथा भुजंति मंस-सोणियं, ण छणे ण पमज्जए ।' बिलवासी सर्प आदि शरीर का मांस खाएं, मच्छर आदि रक्त पीएं, तब भी साधक न उनकी हिंसा करे और न उनका निवारण करे । ४. संवच्छरं साहियं मासं, जंग रिक्कासि वत्थगं भगवं । अचेलए ततो चाई, तं वोसज्ज वत्थमणगारे ॥ सं०-संवत्सरं साधिक मासं यत् न 'रिक्कासि वस्त्रकं भगवान् । अचेलकः ततः त्यागी तद् व्युत्सृज्य वस्त्रमनगारः । भगवान् ने तेरह महीनों तक उस वस्त्र को नहीं छोड़ा। फिर अनगार और त्यागी महावीर उस वस्त्र को छोड़कर अचेलक हो गए। भाष्यम् ४-पूर्वोक्तासु परम्परासु ग्रीष्मर्ती अचेलत्वस्य पूर्वोक्त परम्पराओं में ग्रीष्म ऋतु में अचेल रहने का विधान विधानमस्ति, किन्तु भगवता त्रयोदशमासानन्तरं अचेलत्वं है, किन्तु भगवान् महावीर तेरह महीनों के पश्चात् अचेल बने । तब स्वीकृतम्।' तक वे एकशाटक रहे । ५. अदु पोरिसिं तिरियं भित्ति, चक्खुमासज्ज अंतसो झाइ । अह चक्खु-भीया सहिया, तं 'हता हंता' बहवे कंदिसु ॥ सं० - 'अदु' पौरुषी तिर्यभित्ति, चक्षुरासाद्य अन्तशः ध्यायति । अथ चक्षुर्भीताः संहिताः, हन्त हन्त ! बहवः अक्रन्दिषुः । भगवान् प्रहर-प्रहर तक आंखों को अपलक रख तिरछी भीत पर मन को केन्द्रित कर ध्यान करते थे। (लम्बे समय तक अपलक रहीं आंखों की पुतलियां ऊपर की ओर चली जाती)। उन्हें देखकर भयभीत बनी हुई बच्चों की टोली 'हंत ! हंत !' कहकर चिल्लाती-दूसरे बच्चों को बुला लेती। भाष्यम् ५-प्रस्तुतगाथायां भगवतोऽनिमेष- प्रस्तुत गाथा में भगवान् महावीर की अनिमेषदृष्टिध्यान दृष्ट्यात्मकस्य (त्राटकस्य') ध्यानस्य सूचना कृतास्ति । (नाटक) की सूचना दी गई है। भगवान् प्रहर-प्रहर तक तिरछी भींत भगवता पौरुषीपर्यन्तं तिर्यग्भित्तौ चक्षः स्थापयित्वा पर आंखें स्थिर कर आत्मलक्षित ध्यान करते थे। इसका तात्पर्य हैअन्तर्लक्ष्यं ध्यानं कृतम्। अस्य तात्पर्यम्-दृष्टि: दृष्टि तिरछी भींत पर स्थिर थी और ध्यान-मन अन्तरात्मा में लीन तिर्यग्भित्तौ स्थिरा अभूत, ध्यानं अन्तरात्मनि । अनेन था। इस अन्तर्लक्ष्यी अनिमेष प्रेक्षाध्यान से निर्विकल्प समाधि सिद्ध अन्तर्लक्ष्यात्मकेन अनिमेषप्रेक्षाध्यानेन निर्विकल्पसमाधिः होती है । चूर्णी और वृत्ति में ईर्यापथ से संबंधित अनिमेषध्यान की सिद्धयति । चूर्णी वृत्तौ च ईपिथानुगतं अनिमेषध्यानं व्याख्या है। व्याख्यातमस्ति । १. आयारो ८/गाथा ९ । २. देशीयधातुः, अत्याक्षीत् इत्यर्थः । ३. भगवान् पहले वस्त्र-सहित दीक्षित हुए, फिर निर्वस्त्र हो गए । यह सिद्धांत के आधार पर किया गया था। किन्तु उत्तरकालीन परम्परा के अनुसार-भगवान् सुवर्णवालुका नदी के तट पर जा रहे थे । नदी के प्रवाह में बहकर आए हुए कांटों में उनका वस्त्र उलझ कर गिर गया। एक ब्राह्मण ने वह वस्त्र उठा लिया। वह वस्त्र भगवान् के कंधे पर तेरह महीनों तक रहा । दीक्षा के समय जैसे रखा वैसे ही पड़ा रहा और जब कांटों में उलझ कर गिर पड़ा, तब भगवान् ने उसे छोड़ दिया। (आचारांग चूणि, पृष्ठ ३००) यह कल्पना स्वाभाविक नहीं लगती। स्वाभाविक कल्पना यह हो सकती है - भगवान् ने सर्दी से बचाव के लिए नहीं अपितु लज्जा-निवारण के लिए बस्त्र रखा। निर्ग्रन्थ परम्परा में ऐसा होता रहा है। लज्जा-निवारण के लिए एकशाटक निर्ग्रन्थों का उल्लेख बौद्ध साहित्य में मिलता है। कन्धे के आधार से शरीर पर एक वस्त्र धारण करने वाले एकशाटक कहलाते थे। भगवान् की साधना एकशाटक की भूमिका से आगे बढ़ गई, तब वे वस्त्र का सर्वथा परित्याग कर पूर्णतः अचेल हो गए। ४. गोरक्षपद्धति ११३: षट्चक्रं षोडशाधार, द्विलक्ष्यं व्योमपञ्चकम् । स्वदेहे ये न जानन्ति, कथं सिद्धयन्ति योगिनः॥ घेरण्डसंहिता ११५३ : निमेषोन्मेषकं त्यक्त्वा, सूक्ष्मलक्ष्यं निरीक्षयेत् । पतन्ति यावदधूणि, त्राटकं प्रोच्यते बुधः॥ ५. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ ३००-३०१: पुरिसा णिप्फण्णा पौरुसी, यदुक्तं भवति-सरीरप्पमाणा पोरिसी, पुणतो तिरियं पुण भित्ति, सण्णित्ता विट्ठी, को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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