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________________ १६८ आचारांगभाष्यम् उपशा ___ भाष्यम् ५२-शस्त्रं परेण परं-उत्तरोत्तरं तीक्ष्णतरं शस्त्र उत्तरोत्तर तीक्ष्णतर, तीक्ष्णतम होता जाता है। आज तीक्ष्णतमं भवति । प्रत्यक्षमस्ति पाषाणयुगीनशस्त्रात् पाषाणयुगीन शस्त्रों से परमाणुशस्त्रों की अतिशय तीक्ष्णता प्रत्यक्ष प माणुशस्त्राणां तीक्ष्णतमता। अशस्त्र अस्ति एक- है। अशस्त्र में एकरूपता होती है, इसलिए उसमें तरतमता नहीं रूपता, तेन तत्र नास्ति तारतम्यम् । प्रकरणवशादिह रहती। प्रकरण के अनुसार यहां शस्त्र है-कषाय । वह तीव्र, तीव्रतर शस्त्रम्-कषायः स च तीव्रः तीव्रतरस्तीव्रतमश्च और तीव्रतम होता है, इसलिए उसकी व्याख्या अनन्तानुबंधी आदि भवति। अत एव स अनन्तानुबंध्यादिभेदैर्व्याख्यातः।' भेदों के रूप में की गई है। भशस्त्रम्-अकषायः, स संयमः समता अहिंसा वा । तत्र अशस्त्र है-अकषाय । दूसरे शब्दों में संयम, समता अथवा कञ्चित् प्राणिनं प्रति मन्दाऽहिंसा, कञ्चित् प्रति तीव्रा, अहिंसा अशस्त्र हैं । अहिंसा किसी प्राणी के प्रति मंद, किसी के प्रति कञ्चित् प्रति तीव्रतरा, कञ्चित् प्रति तीव्रतमा च न तीव्र, किसी के प्रति तीव्रतर और किसी के प्रति तीव्रतम नहीं होती, भवति किन्तु सा प्राणिमात्र प्रति समाना एव भवति। किन्तु वह प्राणी मात्र के प्रति समान ही होती है। तात्पर्यमस्य यत्किचिद् वैषम्यमस्ति तत् कषायकृत- इसका तात्पर्य है कि जो कुछ विषमता है वह कषायकृत है । मस्ति । शस्त्राणां विकासोऽपि कषायकृत एव । यावत् शस्त्रों का विकास भी कषायकृत ही है। जब तक कषाय का उपशमन तस्योपशमः क्षयो वा न स्यात् तावत् मनःशान्तेः विश्व- या क्षय नहीं होता तब तक मानसिक शांति और विश्वशांति की बात शान्तेश्च कथापि वृथा । ही व्यर्थ है। ८३. जे कोहदंसी से माणदंसी, जे माणदंसी से मायदंसी। जे मायदंसी से लोभदंसी, जे लोभदंसी से पेज्जदंसी। जे पेज्जदंसो से दोसदंसी, जे बोसवंसो से मोहदंसी। जे मोहदंसी से गम्भदंसी, जे गब्भवंसी से जम्मदंसी। जे जम्मदंसी से मारदंसी, जे मारदंसी से निरयवंसी। जे निरयदंसी से तिरियदंसी, जे तिरियदंसी से दुक्खदंसी। सं० --- यः क्रोधदर्शी स मानदर्शी, यः मानदर्शी स मायादर्शी। यः मायादर्शी स लोभदर्शी, यः लोभदर्शी स प्रेयोदर्शी । यः प्रेयोदर्शी स दोषदर्शी, यः दोषदर्शी स मोहदर्शी । यः मोहदी स गर्भदर्शी, यः गर्भदर्शी स जन्मदर्शी । यः जन्मदर्शी स भारदर्शी, यः मारदर्शी स निरयदर्शी । यः निरयदर्शी स तिर्यग्दर्शी, यः तिर्यग्दर्शी स दुःखदर्शी। जो क्रोधवी है वह मानदर्शी है। जो मानवी है वह मायादर्शी है। जो मायावी है वह लोमदर्शी है। जो लोमदर्शी है वह प्रेयदर्शी है । जो प्रेयवर्शी है वह द्वेषदर्शी है। जो द्वेषदर्शी है वह मोहदी है। जो मोहदी है वह गर्भदर्शी है। जो गर्मदर्शी है वह जन्मदर्शी है । जो जन्मदर्शी है वह मृत्युदर्शी है । जो मृत्युदर्शी है वह नरकदर्शी है। जो नरकदर्शी है वह तिर्यचदर्शी है। जो तियंचदर्शी है वह दुःखदर्शी है। भाष्यम् ८३-पूर्व (सूत्र ३७७) 'दुःखं लोयस्स जाणित्ता' पहले (सूत्र ३७७ में) 'लोक के दुःख को जानकर'-ऐसा इति निरूपितम् । प्रस्तुतसूत्रे दुःखस्य मूलकारणानि निरूपित है। प्रस्तुत सूत्र में दुःख के मूल कारणों का निरूपण है। सन्ति निरूपितानि । पूर्वस्मिन् सूत्र शस्त्रस्य परम्परायाः इससे पूर्व ८२वें सूत्र में शस्त्र की परंपरा का सूचनमात्र किया गया सूचनं कृतम् । इह सा साक्षात् प्रदर्शिता अस्ति। है । प्रस्तुत आलापक में उस परंपरा का स्पष्ट निर्देश है। यः क्रोधं पश्यति-करोति स मानं पश्यति । एवं जो क्रोध करता है, वह मान करता है । इसी प्रकार मान का मानेन मायायाः, मायया लोभस्य, लोभेन प्रेयसः, माया से, माया का लोभ से, लोभ का राग से, राग का द्वेष से तथा प्रेयसा द्वेषस्य, द्वेषेन मोहस्य च नियतः संबंध । एषा द्वेष का मोह से नियत संबंध है। यह शस्त्र की परंपरा है। इसके शस्त्रस्य परम्परा । अस्याः प्रभावेण प्राणी गर्भ पश्यति। प्रभाव से ही प्राणी गर्भ में जाता है । इसका यह परिणाम है -गर्भ से १ अंगसुत्ताणि १, ठाण, ४१८४.८७ । होता है । यह 'अ' के प्रति मंच और 'ब' के प्रति तीव्र नहीं २. द्वेष, घणा, क्रोध-ये शस्त्र हैं। मैत्री, क्षमा-ये अशस्त्र हो सकता। हिंसा शस्त्र से ही नहीं होती। वह स्वयं हैं । शस्त्र में विषमता होती है। विषमता अर्थात् अपकर्ष शस्त्र है । हिंसा का अर्थ है-असंयम । जिसकी इंद्रियां और और उत्कर्ष । अत कोई मनुष्य 'अ' के प्रति मंच द्वेष मन असंयत होते हैं, वह प्राणीमात्र के लिए शस्त्र होता करता है । 'ब' के प्रति तीव्र द्वेष करता है। 'क' के प्रति तीव्रतर द्वेष करता है। 'ख' के प्रति तीवतम द्वेष करता अहिंसा अशस्त्र है। प्राणीमात्र के प्रति संयम होना है। इस प्रकार शस्त्र मंद, तीव्र, तीव्रतर और तीव्रतम अहिंसा है। जिसकी इंद्रियां और मन संयत होते हैं, वह होता है। अशस्त्र में समता होती है। समभाव एकरूप प्राणीमात्र के लिए अशस्त्र होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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