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________________ अ० ३. शीतोष्णीय, उ० ४. सूत्र ७९-८२ हीए य णं विसुद्धाए अत्थेगइए तेणेव भवग्गहणेणं प्रकट होने वाली मिथ्यात्व-विशुद्धि कर दर्शन (सम्यक् श्रद्धान) की सिज्झइ । सोहीए य णं विसुद्धाए तच्चं पुणो भवग्गहणं आराधना करता है । दर्शन-विशोधि के विशुद्ध होने पर कई एक जीव नाइक्कमइ। उसी जन्म से सिद्ध हो जाते हैं और कुछ उसके विशुद्ध होने पर तीसरे जन्म का अतिक्रमण नहीं करते- उसमें अवश्य ही सिद्ध हो जाते हैं । द्वितीयाहता यः आज्ञया मेधावी भवति । आज्ञा- दूसरी योग्यता है जो आज्ञा से मेधावी होता है। आज्ञा का श्रतज्ञानमागमो वा। सूक्ष्मार्थेषु यस्य मेधा आज्ञामनु- अर्थ है- श्रुतज्ञान अथवा आगम । सूक्ष्म अर्थों में जिसकी मेधा आज्ञा सरति सोर्हति महायानमुपलब्धुम् । यः श्रद्धी न का अनुसरण करती है वह व्यक्ति महायान प्राप्त कर सकता है । जो भवति स स्वेच्छया स्वमेधया वा आगमगम्यान् सूक्ष्मान- श्रद्धावान् नहीं होता वह अपनी इच्छा या अपनी मेधा से आगमगम्य र्थान हेतुप्रयोगेण प्रतिपादयन् सिद्धान्तविराधको भवति। सूक्ष्म अर्थों का हेतु-प्रयोग के द्वारा प्रतिपादन करता हुआ सिद्धान्त उक्तं च सन्मत्यां का विराधक होता है । सन्मति प्रकरण में कहा है-- जो हेउवायपक्खम्मि हेउमो आगमे य आगमिओ। दो प्रकार के पदार्थ होते हैं - हेतुगम्य और अहेतुगम्य अर्थात् जो ससमयपण्णवओ सिद्धंतविराहओ अन्नो॥" श्रद्धागम्य। जो साधक हेतुगम्य पदार्थों के लिए हेतुओं का और आगमिक अर्थात् श्रद्धागम्य पदार्थों के लिए श्रद्धा का उपयोग करता है वह अपने सिद्धान्त का प्रज्ञापक होता है। जो हेतुगम्य के पक्ष में श्रद्धा और अहेतुगम्य के पक्ष में हेतु का प्रयोग करता है वह सिद्धान्त का विराधक होता है । समुच्चयार्थ:-श्रद्धावान् आगमोपदेशेन मेधावी समुच्चयार्थ है-श्रद्धावान् पुरुष आगम के उपदेश से मेधावी भवति । होता है। ८१.लोगं च आणाए अभिसमेच्चा अकुतोभयं । सं०-लोकं च आज्ञया अभिसमेत्य अकुतोभयम् । पुरुष आज्ञा से कषायलोक को जान कर अकुतोभय हो जाता है-उसे किसी भी दिशा से भय नहीं होता। भाष्यम् ८१-लोकमिति प्रकरणात् कषायलोक, प्रस्तुत आलापक में लोक-कषायलोक का प्रकरण है। जो आज्ञया-आप्तवचनेन ज्ञात्वा यः प्रवर्तते तस्य न साधक आज्ञा--आप्तवचन से कषायलोक को जानकर प्रवृत्ति करता है कुतोपि भयं भवति, अतः सोऽकुतोभयं पर्यायमनु- उसको कहीं से भी भय नहीं होता। इसलिए वह अकुतोभय-अभय भवति । भयस्य हेतुर्दःखं, दुःखस्य हेतुः कषायः प्रमादो की पर्याय का अनुभव करता है। भय का हेतु है-दुःख और दुःख वा, यथा च स्थानांगसूत्रे - का हेतु है--कषाय अथवा प्रमाद । स्थानांग सूत्र का एक प्रसंग है---- भगवान् ने गौतम आदि श्रमणों से पूछा-आयुष्मान् ! श्रमणो ! किभया पाणा? समणाउसो ! ...... प्राणी किससे भय खाते हैं ? (गौतम आदि श्रमणों ने कहा हम नहीं जानते) । तब"" दुक्खभया पाणा समणाउसो ! भगवान् ने कहा-प्राणी दुःख से भय खाते हैं । से णं भंते दुक्खे केण कडे ? दुःख का कर्ता कौन है ? जीवेणं कडे पमादेणं । प्राणी ने अपने ही प्रमाद से दुःख का सर्जन किया है। येन कषायः उपशमं क्षयं वा नीतः तस्य दुःखं न जिसने कषाय को उपशांत या क्षीण कर दिया है, उसके भवति । यस्य नास्ति दुःखं स सर्वथा अभयो भवति । दुःख नहीं होता। जिसके दुःख नहीं होता वह सर्वथा अभय होता है। ८२. अत्थि सत्थं परेण परं, णत्थि असत्थं परेण परं। सं०-अस्ति शस्त्रं परेण परं, नास्ति अशस्त्र परेण परम् । शस्त्र उत्तरोत्तर तीक्ष्ण होता है । अशस्त्र उत्तरोत्तर तीक्ष्ण नहीं होता-वह एकरूप होता है। १. सन्मतितर्कप्रकरण ३॥४५ (ख) उत्तरायणाणि २८।३० : नावंसणिस्स नाणं । २. (क) गीता ४।३९ : श्रद्धावान् लभते ज्ञानम् । ३. अंगसुत्ताणि १, ठाणं, ३१३३६ । Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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