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________________ १६६ आचारांगमाध्यम एक्कारसमासपरियाए समणे निग्गंथे गेवेज्जगाणं ग्यारह मास की संयम-पर्याय वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ ग्रैवेयक देवाणं तेयलेस्सं वीईवयइ। देवों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण कर देता है। बारसमासपरियाए समणे निग्गंथे अणुत्तरोववाइ- बारह मास की संयम-पर्याय बाला श्रमण-निर्ग्रन्थ अनुत्तरोपयाणं देवाणं तेयलेस्सं वीईवयइ। पातिक देवों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण कर देता है। तेण परं सुक्के सुक्काभिजाए भवित्ता तओ पच्छा इसके पश्चात् वह शुक्ल, शुक्लाभिजाति होकर फिर सिद्ध, सिज्झति बुज्झति मुच्चति परिनिव्वायति सव्वदुक्खाणं बुद्ध, मुक्त और परिनिवृत हो जाता है तथा समस्त दुःखों का अंतं करेति । अन्त कर देता है। एतादशाः जीवितं नावकांक्षन्ति । जीविताशंसा ऐसे पुरुष जीने की आकांक्षा नहीं करते। संसार में सबसे लोके सर्वतो बलवती भवति । ते ततोऽपि मुक्ता भवन्ति, बलवती है-जीने की आकांक्षा । वे पुरुष उससे भी मुक्त हो जाते हैं। न दीर्घजीवित्वं अभिलषन्ति न च विषयकषायासंयमयुतं वे न दीर्घजीवन की अभिलाषा करते हैं और न विषय-कषाययुक्त जीवितम् । असंयममय जीवन की आकांक्षा करते हैं। ७९. एगं बिगिचमाणे पुढो विगिचइ, पुढो विगिचमाणे एग विगिबइ। सं० --एक विविञ्चानः पृथक् विविनक्ति पृथक् विविञ्चानः एक विविनक्ति । एक का विवेक करने वाला अनेक का विवेक करता है । अनेक का विवेक करने वाला एक का विवेक करता है। भाष्यम् ७९-क्षपणक्रियामारूढः पुरुषः एक क्रोधं क्षपणक्रिया में आरूढ अनगार एक क्रोध कषाय का क्षय करता क्षपयन अन्यानपि कषायभेदान क्षपयति । अत्र कर्म- हुआ कषाय के अन्यान्य भेदों को भी क्षीण कर डालता है । कर्मशास्त्रशास्त्रगता सम्पूर्णा क्षपणप्रक्रिया अवतारणीया। गत- गत क्षपण प्रक्रिया की सम्पूर्ण अवतारणा यहां कर लेनी चाहिए। प्रत्यागतकमेण उच्यते-कषायस्य बहून् भेदान् क्षपयन् गतप्रत्यागतक्रम से भी कहा जा सकता है--कषायों के अनेक भेदों का तस्यैक भेदं क्षपयति । क्षय करता हुआ अनगार कषाय के एक भेद का भी क्षय कर डालता ८०. सड्डी आणाए मेहावी। सं०-श्रद्धी आज्ञया मेधावी। श्रद्धावान् आगम के उपदेश के अनुसार मेधावी होता है। भाष्यम् ८० - इदानीं क्षपकश्रेणि प्रति जिगमिषो प्रस्तुत आलापक में सूत्रकार क्षपकश्रेणी में आरूढ होने के रहतां दर्शयति सूत्रकार:—यः श्रद्धी भवति सोऽर्हति इच्छुक अनगार की योग्यता का निर्देश करते हैं जो श्रद्धावान् होता महायानमुपलब्धुम् । है, वह महायान को उपलब्ध कर सकता है। श्रया-मोक्षाभिलाषः । श्रद्धावान् पुरुष एव संवेगं श्रद्धा का अर्थ है-मोक्ष की अभिलाषा। श्रद्धावान पुरुष ही प्राप्य कर्मक्षयाय प्रवर्तते, यथा उत्तराध्ययने संवेग-वैराग्य को प्राप्त कर कर्मक्षय के लिए प्रयत्न करता है। जैसे संवेगेणं भंते ! जीवे कि जणयइ ?५ उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है- गौतम ने पूछा-भंते ! संवेग से जीव क्या संवेगेणं अणुत्तरं धम्मसद्धं जणयइ। अणुत्तराए प्राप्त करता है ? भगवान ने कहा-गौतम ! संवेग से जीव अनुत्तर धम्मसद्धाए संवेगं हव्वमागच्छइ, अणंताणुबंधिकोह- धर्म श्रद्धा को प्राप्त होता है। अनुत्तर धर्मश्रद्धा से तीव्र संवेग को माणमायालोभे खवेइ, कम्मं न बंधइ, तप्पच्चइयं च णं प्राप्त करता है, अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया और लोभ को क्षीण मिच्छत्तविसोहि काऊण दंसणाराहए भवइ । दंसणविसो- करता है, नए कमों का संग्रह नहीं करता, कषाय के क्षीण होने से १. अंगसुत्ताणि २, भगवई १४११३६ । २. आचारांग चूणि, पृष्ठ १२७ : एगं अणंताणुधि कोहं सम्वआयप्पदेसेहि विगिचितो, विगिचिणंति वा विवेगोत्ति वा खवणत्ति वा एगट्ठा। ३. पंचम कर्मग्रन्थ, अपकणि द्वार, गापा ९९,१००। ४. पातञ्जलयोगदर्शन १२० भाष्यं-अदा चेतसः संप्रसादः, सा हि जननीव कल्याणी योगिनं पाति । ५. उत्तरायणाणि, २९।२ । Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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