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आचारांगभाष्यम् ३१. एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिष्णाता भवति ।
सं०-अत्र शस्त्रं समारभमाणस्य इत्येते आरम्भा अपरिज्ञाता भवन्ति । जो पृथ्वीकायिक जीव पर शस्त्र का समारंभ करता है, उसके ये आरंभ (तत्सम्बन्धी तथा तदाश्रित जीव-हिंसा की प्रवृत्तियां) अप्रत्याख्यात होते हैं।
३२. एत्थ सत्यं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिष्णाता भवति ।
सं०-अत्र शस्त्रं असमारभमाणस्य इत्येते आरंभाः परिज्ञाता भवन्ति । जो पृथ्वीकायिक जीव पर शस्त्र का समारंभ नहीं करता उसके ये आरंभ प्रत्याख्यात होते हैं।
भाष्यम् ३१.३२-पृथ्वीकायिकजीवानां जीवत्वं . जो व्यक्ति पृथ्वीकायिक जीवों के जीवत्व और वेदना को जाने वेदनाञ्च अविदित्वा यस्तेषां समारंभे प्रवर्तते, तस्य बिना उनके समारम्भ में प्रवृत्त होता है, उसके पृथ्वीकायिक सम्बन्धी पृथ्वीकायिकविषयका एते सर्वेऽप्यारंभा अप्रत्याख्याता ये सभी आरम्भ अप्रत्याख्यात होते हैं । भवन्ति।
पृथ्वीकाधिकजीवानां जीवत्वं वेदनाञ्च विदित्वा जो पृथ्वीकायिक जीवों के जीवत्व और वेदना को जानकर चस्तान न समारभते, तस्यैते सर्वेऽप्यारम्भाः प्रत्याख्याता उनका समारम्भ नहीं करता, उसके ये सभी आरम्भ प्रत्याख्यात होते भवन्ति । ___भगवतो महावीरस्य शासने दीक्षितो मुनिः पृथ्वी- भगवान् महावीर के शासन में दीक्षित मुनि पृथ्वीकायिक जीवों कायिकजीवानां हिंसातो विरमति, तस्य कारणं तेषां की हिंसा से विरत होता है, क्योंकि उसमें उन जीवों की सजीवता और जीवानां सजीवताया वेदनायाश्च स्पष्टावबोध एव उनको होने वाली बेदना का स्पष्ट अवबोध है। मन्तव्यः । ३३. तं परिण्णाय मेहावी नेव सयं पुढवि-सत्थं समारंभेज्जा, नेवणेहिं पुढवि-सत्थं समारंभावेज्जा, नेवण्णे पुढवि-सत्थं
समारंभंते समणुजाणेज्जा । सं०-तं परिज्ञाय मेधावी नैव स्वयं पृथ्वीशस्त्रं समारभेत, नैव अन्यः पृथ्वीशस्त्र समारम्भयेत्, नैव अन्यान् पृथ्वीशस्त्रं समारभमाणान् समनुजानीत। यह जानकर मेधावी मनुष्य स्वयं पृथ्वी-शस्त्र का समारंभ न करे, दूसरों से उसका समारम्भ न करवाए और उसका समारंभ करने वाले दूसरों का अनुमोदन न करे।
भाष्यम् ३३ --प्रवृत्तेः अनेके विकल्पा भवन्ति । तत्र प्रवृत्ति के अनेक विकल्प होते हैं। जैन परम्परा में तीन विकल्प जैनानां त्रयो विकल्पाः सम्मताः सन्ति—करणं कारापणं सम्मत हैं-करना, करवाना और अनुमोदन करना । इसलिए प्रस्तुत अनुमोदनं च । तेनात्र कृतकारितानुमतिभिः पृथ्वीकाय- प्रसंग में करना, करवाना तथा अनुमोदन करना-इन तीनों प्रकार से वधात विरमणं कार्यमिति निर्देशः ।
पृथ्वीकायिक जीवों के वध से विरत रहने का निर्देश है। ३४. जस्सेते पुढवि-कम्म-समारंभा परिपणाता भवंति, से ह मुणी परिण्णात-कम्मे ।-त्ति बेमि।
सं०-यस्यैते पृथ्वीकर्मसमारम्भाः परिज्ञाता भवन्ति, स खलु मुनिः परिज्ञातकर्मा । -इति ब्रवीमि । जिसके पृथ्वी सम्बन्धी कर्म-समारम्भ परिजात होते हैं, वही मुनि परिजातकर्मा होता है। ऐसा मैं कहता हूं।
मेहावी निउणे निउणसिप्पोवगए एगं पुरिसं जुण्णं जराजज्जरियदेहं आउरं झूसियं पिवासियं दुब्बलं किलंतं जमलपाणिणा मुद्धाणंसि अभिहणेज्जा, से णं गोयमा ! पुरिसे तेणं पुरिसेणं जमलपाणिणा मुद्धाणंसि अभिहए समाणे केरिसियं वेदणं पच्चणुन्भवमाणे विहरति ?
अणिठें समणाउसो! तस्स गं गोयमा ! पुरिसस्स बेदणाहितो पुढविकाइए अक्कंते समाणे एत्तो अणिद्वतरियं चेव अकंततरिय अप्पियतरियं असुहतरियं अमणुण्णतरियं अमणामतरिय चेव वेदणं पच्चणुब्भवमाणे विहरह।
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