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________________ ४५ अ० १. शस्त्रपरिज्ञा, उ० २,३. सूत्र ३१-३६ भाष्यम् ३४-'पढमं नाणं तओ क्या".--इतिसिद्धान्त- 'पहले ज्ञान फिर दया'-इस सिद्धांत का अनुसरण पर सबसे मनुसत्य पूर्वं पृथ्वीकर्मसमारम्भः ज्ञपरिज्ञया ज्ञातव्यः, पहले ज्ञ-परिज्ञा से पृथ्वीकर्मसमारंभ को जानना चाहिए, फिर ततश्च प्रत्याख्यानपरिज्ञया प्रत्याख्यातव्यः । यस्य पृथ्वी- प्रत्याख्यानपरिज्ञा से पृथ्वीकर्मसभारंभ का प्रत्याख्यान करना चाहिए। कर्मसमारम्भः परिज्ञात: प्रत्याख्यातश्च भवति स मुनिः जिसके पृथ्वीकर्मसमारम्भ परिज्ञात और प्रत्याख्यात होता है वही परिज्ञातकर्मा उच्यते।' मुनि परिज्ञातकर्मा (कर्मत्यागी) कहलाता है। तइओ उद्देसो : तीसरा उद्देशक ३५. से बेमि-से जहावि अणगारे उज्जुकडे, णियागपडिवरणे, अमायं कुव्वमाणे वियाहिए। सं०-तद् ब्रवीमि-स यथापि अनगारः ऋजुकृतः, नियागप्रतिपन्नः, अमायां कुर्वाणः व्याहृतः । मैं कहता हूं-जिस प्रकार पृथ्वीकायिक जीवों को हिंसा का परिहार करने वाला अनगार होता है, वैसे ही अप्कायिक जीवों की हिंसा का परिहार करने वाला भी अनगार होता है। जो संयम करता है, जो मुक्ति के मार्ग पर चलता है, जो माया नहीं करता (शक्ति का संगोपन नहीं करता) वह अनगार होता है। भाष्यम् ३५-प्रस्तुताध्ययने गहत्यागिन: अहिंसायाः प्रस्तुत अध्ययन में गृहत्यागी (अनगार) की अहिंसा का सूक्ष्म सूक्ष्मविवेचनमस्ति, तेनावानगारस्य स्वरूपदर्शनं सहज- विवेचन हुआ है, इसलिए यहां अनगार का स्वरूप-दर्शन (लक्षण) सहज लब्धं जातम् । कश्चानगारो भवति ? सूत्रकारो वक्त- उपलब्ध हो जाता है। अनगार कौन होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में अस्मिन विषये अथाहं ब्रवीमि, यथा पृथ्वीकायिक जीव- सूत्रकार कहते हैं-जिस प्रकार वह पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा का हिंसां परिहरति तथा य अप्कायिकजीवहिंसामपि परिहार करता है, वैसे ही जो अप्कायिक जीवों की हिंसा का भी परिहरन विहरति सोऽनगारः। एतद् 'अपि' पदेन परिहार कर विहरण करता है, वह अनगार होता है। 'अपि' पद से सूचितमस्ति । इसकी सूचना मिलती है। ऋजः-संयमः। यश्च संयमं करोति, नियागः- ऋजु का अर्थ है-संयम । नियाग का अर्थ है-मोक्षमार्ग। मोक्षमार्गः तं च प्रतिपद्यते, मायाशल्यं च न करोति जो संयम की साधना करता है, मोक्षमार्ग को स्वोकार करता है और सोऽनगारो व्याहृतः । अस्य हार्दमिदं यस्य सर्वभूतसंयमे मायाशल्य नहीं करता, उसे अनगार कहा गया है। इसका हार्द यह मोक्षे च आस्था विद्यते, यश्च स्वशक्तेः संगोपनं न है-जिसका सब प्राणियों के प्रति संयम और मोक्ष में आस्था होती है करोति, स एव सूक्ष्मजीवानामहिंसामाचरितुं और जो अपनी शक्ति का गोपन नहीं करता, वही सूक्ष्म जीवों की संकल्पते।' अहिंसा के आचरण का संकल्प करता है। ३६. जाए सद्धाए णिक्खंतो, तमेव अणुपालिया। विजहित्तु विसोत्तियं । सं०-यया श्रद्धया निष्क्रान्तः तामेव अनुपालयेद् । विहाय विस्रोतसिकाम् । वह जिस श्रद्धा से अभिनिष्क्रमण करे, उसी श्रद्धा को बनाए रखे। चित्त की चंचलता के स्रोत में न बहे । १. दसवे आलियं, ४।१०। २. साध्य की प्राप्ति के तीन सूत्र हैं-१. आचरण की ऋजुता, २. साध्य-निष्ठा, ३. साध्य प्राप्ति के लिए उचित प्रयत्न । सूत्रकारों ने इन्हीं तीन सूत्रों से अनगार की कसौटी को है। ऋजुता धर्म का मूल आधार है। वक्र मनुष्य धार्मिक नहीं हो सकता। धर्म शुद्ध आस्मा में रहता है । वह शुद्ध है जो ऋजु है। बता उसे करनी होती है, जो सत्य को उलटना चाहता है। जो सत्य को यथार्थ रूप में प्रकट करना चाहता है, वह शरीर, भाव और भाषा से ऋजु होगा। उसकी करनी और कथनी में संवादिता होगी। इसी आधार पर भगवान् ने सत्य के चार प्रकार प्रतिपादित किए हैं१. शरीर को ऋजुता, २. भाव को ऋजुता, ३. भाषा की ऋजुता, ४. प्रवृत्ति में संवादिता । (स्थानांग ४।१०२)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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