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________________ ४६ आचारांगभाष्यम् - भाष्यम् ३६-अप्कायिकजीवानां हिंसापरित्यागो अप्कायिक जीवों की हिंसा का परित्याग दुष्कर है। इस वस्तुदुष्करोऽस्ति । इदं वस्तुसत्यं परिलक्ष्यीकृत्य सूत्रकार सत्य को परिलक्षित कर सूत्रकार कहते हैं-जिस श्रद्धा से अभिनिष्क्रमण उपदिशति यया श्रद्धया निष्क्रान्तः तामेवानुपालयेत् । करे, उसी श्रद्धा को बनाए रखे। ___अस्य तात्पर्यमिदं-प्रव्रज्यासमये मुनिः वर्धमान- इसका तात्पर्य यह है--प्रव्रज्या के समय मुनि के परिणाम परिणामो भवति । स दीर्घकालपर्यन्तमपि तादृशीमेव वर्धमान होते हैं । वह लम्बे समय तक उसी परिणामधारा को सुरक्षित परिणामधारां सुरक्षेत्, न तु हीयमानपरिणामो भवेत् । रखे, परिणामों में न्यूनता न लाए। यदि परिणामों में उत्कृष्ट वृद्धि हो यदि उत्कृष्टा परिणामवृद्धिः स्यात् तद् वरं, किन्तु तो और अच्छा है, किन्तु परिणामों में हानि तो उपयुक्त है ही नहीं। परिणामहानिस्तु नैव युक्तास्ति । यदि लाभो नास्ति, यदि लाभ न भी हो तो कोई बात नहीं, किन्तु मूल की हानि तो उचित तावत् मूलस्य हानिस्तु नोचिता। नहीं होती। विस्रोतसिका-चेतसश्चंचलता शंका च। विस्रोतसिका' का अर्थ है- चित्त की चंचलता और शंका । अहिंसाया मार्गेऽनेकाः शङ्काः अनेके चातरौद्रध्यान- अहिंसा के मार्ग में अनेक शंकाएं और अनेक आतं-रौद्र ध्यान के प्रसंग प्रसंगा आयान्ति । ते च श्रद्धाहाने: प्रसंगाः। ते आते रहते हैं । वे श्रद्धा की हानि के प्रसंग हैं । वे छोड़ने योग्य हैं । यही विहातव्या इति मार्गदर्शनम् । मार्गदर्शन दिया गया है। ३७. पणया वीरा महावीहिं। सं० -प्रणता वीरा महावीथिम् । वीर पुरुष महापथ के प्रति प्रणत (समर्पित) होते हैं। भाष्यम् ३७-अहिंसा महती वीथिविद्यते। तां अहिंसा एक महान मार्ग है। हर कोई उस महान् मार्ग के प्रति महावीथि प्रति ये केऽपि प्रणता न भवन्ति, किन्तु ये समर्पित नहीं होता, किन्तु जो पराक्रमशाली वीर हैं, वे ही उस महान् पराक्रमशालिनो वीरा: सन्ति त एव तं महापथं प्रति पथ के प्रति प्रणत-समर्पित होते हैं । प्रणता: --समर्पिता भवन्ति । ___अस्य तात्पर्य मिदं-अहिंसा न तु कातराणां इसका तात्पर्य यह है-अहिंसा कायरों का मार्ग नहीं है, किन्तु मार्गः, किन्तु पन्था अयं पराक्रमशालिनाम् । यह पराक्रमशालियों का मार्ग है। ३८. लोगं च आणाए अभिसमेच्चा अकुतोभयं । सं०-लोकं च आज्ञया अभिसमेत्य अकुतोभयम् । मुनि जलकायिक लोक को आज्ञा से जानकर उसे अकुतोभय बना दे। भाष्यम् ३८--येषामकायिकजीवानां हिंसापरि- जिन अप्कायिक जीवों की हिंसा के परित्याग के लिए उपदेश त्यागाय प्रवचनमस्ति, ते न सन्ति मनुष्याणां प्रत्यक्षं, है, वे जीव मनुष्यों के प्रत्यक्ष नहीं हैं। अतः उन जीवों के जीवत्व की १. आचारांग चूणि, पृष्ठ २५,२६ : सवतीति सोत्तिया, समर्पित हो जाता है-पृष्ठरज्जु के माध्यम से प्राणधारा विसोत्तिया दवे णदी निक्कादिसु वा अणुलोमवाहिणी को मस्तिष्क की ओर प्रवाहित कर देता है। उसके हिंसा सोत्तिया, इतरी विसोतिया, भावतो अणुसोत्तं, नाणदसण के संस्कार समाप्त हो जाते हैं। चरित्ततवविणयसमाहाणं अणुसोत्तं, तग्विवरीयं कोहादि, अह जो आचरण देश-काल से सीमित होता है, वह पथ है। अट्टरोद्दज्ञाणिया भावविसोत्तिया, अहवा संका विसोत्तिया, समता देशकाल की सीमा से अतीत आचरण है । वह प्रत्येक कि आउक्काओ जीवो ण जीवोत्ति ? देश और प्रत्येक काल में आचरणीय है। इसलिए वह २. अहिंसा मोक्ष का पथ है। यह सर्वत्र, सर्वदा और सबके महापथ है। लिए है. इसलिए यह महापय है। जो इसके प्रति समर्पित समता कोई सम्प्रदाय नहीं है। वह स्वयं धर्म है। हुए हैं और होंगे, उन सबको मोक्ष प्राप्त होगा। शान्ति की आराधना करने वाले जितने पुरुष हुए हैं, वे महापथ का अर्थ कुण्डलिनी-प्राणधारा भी है। सब इस पथ पर चले हैं, चलते हैं और चलेंगे। फिर भी पराक्रमी साधक ऊर्ध्वगमन के लिए इस प्राणधारा के प्रति यह संकीर्ण नहीं होता। इसलिए यह महापय है। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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