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________________ १४८ आचारांगभाष्यम १७१. जं दुक्खं पवेदितं इह माणवाणं, तस्स दुक्खस्स कुसला परिण्णमुदाहरति । सं०-यद् दुःखं प्रवेदितं इह मानवानां, तस्य दुःखस्य कुशलाः परिज्ञा उदाहरन्ति । इस जगत् में मनुष्यों के द्वारा दुःख प्रवेदित है । कुशल पुरुष उस दुःख की परिज्ञा बतलाते हैं। भाष्यम् १७१-मानवानां इह-संसारे दुःखं संसार में मनुष्यों के द्वारा दुःख प्रवेदित-अनुभूत है। कुशल प्रवेदितम्-अनुभूतमस्ति, तस्य दुःखस्य कुशलाः व्यक्ति उस दुःख की परिज्ञा (विवेक) बतलाते हैं। परिज्ञामुदाहरन्ति । अत्र कुशलपदेन गणधरादीनां संकेतः कृतोऽस्ति। यहां 'कुशल' पद से गणधर आदि का ग्रहण किया गया है। वे ते ज्ञातार: धर्यकथालब्धिसम्पन्ना यथावादिनस्तथा- ज्ञाता, धर्मकथा करने की लब्धि से सम्पन्न, कथनी और करनी की कारिणः जितनिद्राः जितेन्द्रियाः जितपरीषहाः देश- समानता से युक्त, निद्राविजयी, जितेन्द्रिय, परिषहों पर विजय प्राप्त कालज्ञाः भवन्ति । करने वाले तथा देश और काल को जानने वाले होते हैं। परिज्ञा-विवेकः दुःखमुक्तेरुपायो वा। परिक्षा के दो अर्थ हैं-विवेक अथवा दुःख-मुक्ति का उपाय । परिज्ञा के चार चरण हैंसा चतुष्पादा भवति-अस्ति बन्धः, अस्ति बन्ध- १. कर्म-बंध है। ३. मोक्ष है। हेतुः, अस्ति मोक्षः, अस्ति मोक्षहेतुः'। २. कर्म-बंध का हेतु है। ४. मोक्ष का हेतु है। १७२. इति कम्म परिणाय सम्बसो। सं०-इति कर्म परिज्ञाय सर्वशः । पुरुष कर्म की सर्व प्रकार से परिज्ञा करे। भाष्यम् १७२–दुःखस्य हेतुरस्ति कर्म । तेन तत् दुःख का हेतु है कर्म । इसलिए कर्म का सर्वाङ्गीण ज्ञान कर उसकी सर्वशः परिज्ञाय तस्य परिज्ञा करणीया, यथा-कथं परिज्ञा करनी चाहिए। जैसे-कर्म का बन्ध कैसे होता है ? कर्म कौन तस्य बन्धो भवति ? को बध्नाति ? कदा तस्य विपाको बांधता है ? उसका विपाक कब होता है और कब नहीं होता? कर्म भवति कदाच न भवति? कियत तत, चिरकालस्थितिक की स्थिति कितनी होती है-वह दीर्घकाल की स्थिति वाला होता भवति अल्पकालस्थितिकं वा? इति कर्मणो है या अल्पकाल की स्थिति वाला? इस प्रकार कर्म के विषय को सभी विषये सर्वशः-सर्वप्रकारैः ज्ञात्वा तस्य परिज्ञा कर्तुं पहलुओं से जानने के पश्चात् उसकी परिज्ञा की जा सकती है। शक्या । १७३. जे अणण्णदंसी, से अणण्णारामे । जे अणण्णाराम, से अणण्णदंसी। सं०-यः अनन्यदर्शी स अनन्याराम: । य: अनन्यारामः स अनन्यदर्शी । जो अनन्य को देखता है, वह अनन्य में रमण करता है । जो अनन्य में रमण करता है, वह अनन्य को देखता है। माप्यम् १७३-प्रस्तुतसूत्रे कर्मपरिज्ञायाः उपायः प्रस्तुत सूत्र में कर्म-परिज्ञा का उपाय निर्दिष्ट है। जो केवल संदर्शितः । यः केवलं निष्कर्माणमेव पश्यति न ततोऽन्यत् निष्कर्मा को देखता है, उसके अतिरिक्त दूसरा कुछ नहीं देखता, वह किञ्चित पश्यति, स अनन्यदर्शी भवति । यः कर्म अनन्यदर्शी होता है। जो कर्म को देखता है अर्थात् कर्म के हेतुओं में पश्यति स कर्मणा बद्धो भवति, यश्च निष्कर्माणं- रमण करता है, वह कर्म से बंधता है। जो निष्कर्मा-निर्मल चैतन्य १. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ ९५ : परिण्णा दुविहा... उवविसंति, तंजहा बंधो बंधहेतु मुक्को मोक्खो मोक्खहेतुश्च । (ख) लौकिक भाषा में अप्रिय वेदना को दुःख कहा जाता है। धर्म को भाषा में दुःख का हेतु भी दुःख कह लाता है। दुःख का हेतु कर्म-बंध है। भगवान ने जनता को यह विवेक दिया-बंध है और बंध का हेतु है । मोक्ष है और मोक्ष का हेतु है। (ग) इसकी तुलना बौद्ध दर्शन सम्मत चार आर्यसत्यों से होती है। Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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