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________________ भ० २. लोकविचय, उ. ६. सूत्र १६५-१७० १४७ चरित्रहीनभावो वा असत्यप्रतिपादनस्य मुख्य कारण- यदि वह उत्तरगुणों की साधना में कमजोर है तो उत्तरगुणों के विषय मस्ति। अत एव मिथ्यातर्काणां प्रपञ्चो विरचितो में विपरीत प्ररूपणा करता है। यह तुच्छभाव अथवा चारित्रिक भवति। हीनता का भाव असत्य के प्रतिपादन का मुख्य कारण है। इसीलिए झूठे तर्कों का जाल बिछाया जाता है। १६८. एस वीरे पसंसिए । सं०-~-एष धीरः प्रशंसितः । यह आज्ञा का पालन करने वाला बोर पुरुष प्रशंसित होता है। भाष्यम् १६८ --एष वीरः आज्ञायां वर्तमानः वसुमान् यह वीर और तीर्थकर की आज्ञा में वर्तमान पुरुष चरित्रचरित्रसम्पन्नत्वाद् अतुच्छः पुरुषः पृष्टो वा अपृष्टो वा सम्पन्न होने के कारण वैभवशाली और पुरुषार्थी होता है। वह पूछने शुद्ध अपरिग्रहमार्ग वक्तुं न ग्लायति । चरित्रवान पर या बिना पूछे ही विशुद्ध अपरिग्रह का मार्ग निर्दिष्ट करने में ग्लानि नासत्यं वक्तीति ध्रुवं सत्यम् । अत एव स यथार्थप्रति- का अनुभव नहीं करता । चरित्रवान् व्यक्ति असत्य नहीं बोलता-यह पादने लब्धपराक्रमत्वात् वीरः सन् प्रशंसित:-जनानां सनातन सत्य है । इसलिए वह यथार्थ का प्रतिपादन करने के लिए हृदये प्रतिष्ठितो भवति । पराक्रमशाली होने के कारण वीर होता है। उसको प्रशंसा होती है और वह लोगों के हृदय में प्रतिष्ठित हो जाता है । १६६. अच्चेइ लोयसंजोयं । सं०-अत्येति लोकसंयोगम् । सुवसु मुनि लोक-संयोग का अतिक्रमण कर देता है। भाष्यम् १६९-एतादृशो वीरपुरुष एव लोकसंयोगं ऐसा वीर पुरुष ही लोक-संयोग का अतिक्रमण करता है। अत्येति । लोकः-स्वर्णादिपदार्थ: मातृपित्रादिपरिवारः ममत्वं लोक का अर्थ है-स्वर्ण आदि पदार्थ, माता-पिता आदि वा । एभिः नानाविधाः सम्बन्धाः सन्ति सम्पादिताः। परिवार अथवा ममकार । इनके साथ अनेक प्रकार के सम्बन्ध स्थापित ते येन केनचित् न सन्ति सुपरिहार्याः । वीरपुरुष एव किए जाते हैं । वे सम्बन्ध जिस-किसी व्यक्ति के द्वारा सहजरूप से छोड़े तान् अतिक्रमितुमर्हति । नहीं जा सकते । वीर पुरुष ही उनका अतिक्रमण कर सकता है। १७०. एस णाए पवुच्चद। सं०-एष नायः प्रोच्यते । सुवसु मुनि नायक कहलाता है। भाष्यम् १७०-यो लोकसंयोगमतिकामति स एष जो लोक-संयोग का अतिक्रमण करता है वह सुवसु मुनि नायकः प्रोच्यते । यो धने परिवारे च लिप्तो भवति नायक कहलाता है। जो धन और परिवार में लिप्त होता है वह स न नायको भवितुमर्हति । नायकस्य प्रधानो गुणोऽस्ति नायक नहीं हो सकता । नायक का मुख्य गुण है-त्याग । त्यागः । नाय एव नायकः।' जो स्वयं को और दूसरों को मोक्ष की ओर ले जाता है, वह नाय-नायक है। १. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ ९५ : एस इति जो भणितो अप्पाणं परं च मोक्खं, णाति णाया, जंभणितं उभयत्रातो। (ख) आप्टे नायः-A leader, guide. (ग) वृत्तिकारेण अस्य द्वाक्यों कृतौ स्तः १. एष न्यायः-एष सन्मार्गः मुमुक्षूणामयमाचारः । २. परं आत्मानं च मोक्षं नयतीति छान्वसत्वात् कर्तरि अन्नायः (आचारांग वृत्ति, पत्र १३१)। Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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