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________________ अ० २. लोकविचय, उ०६. सूत्र १७१-१७४ निर्मलचैतन्यं पश्यति स कर्मभ्यो मुक्तो भवति। को देखता है, वह कर्मों से मुक्त होता है । जो चैतन्य को देखता है, वह यश्चैतन्यं पश्यति स तत्रैव रमते, न अन्येषु कर्मबन्धहेतुषु उसी में रमण करता है। वह कर्मबंध के अन्यान्य हेतुभूत विषय-कषाय विषयकषायादिषु इति अनन्यदर्शी अनन्यारामो भवति। आदि में रमण नहीं करता, इसलिए वह मनन्यदर्शी होता है, अनन्याराम होता है। गतप्रत्यागतलक्षणेन इत्थमपि वक्तुं शक्यम्-यः गत-प्रत्यागत शैली में राचत इस सूत्र का व्याख्या इस प्रकार अनन्ये रमते, स एव अनन्यं पश्यति । भी की जा सकती है जो अनन्य (आत्मा) में रमण करता है वही अनन्य (आत्मा) को देखता है। 'अणण्णदंसी' इति पदस्य आशयः ‘णिक्कम्मदंसी' 'अनन्यदर्शी' पद का आशय 'निष्कामदर्शी' पद से स्पष्ट होता इति पदेन स्पष्टं भवति'पलिच्छिदिया णं णिक्कम्मदंसी।" संयम और तप के द्वारा राग-द्वेष को छिन्न कर पुरुष आत्मदर्शी हो जाता है। 'पलिछिदिय बाहिरगं च सोयं, णिक्कम्मदंसी इह इन्द्रियों की बहिर्मुखी प्रवृत्ति को रोककर इस मरणधर्मा जगत मच्चिएहि ।" में तुम निष्कर्मदर्शी बनो। १७४. जहा पुण्णस्स कत्थइ, तहा तुच्छस्स कत्थइ । जहा तुच्छस्स कत्थइ, तहा पुण्णस्स कत्थइ । सं०-यथा पुण्यस्य कथयति तथा तुच्छस्य कथयति । यथा तुच्छस्य कथयति तथा पुण्यस्य कथयति । धर्मकथी जैसे सम्पन्न को उपदेश देता है, वैसे ही विपन्न को देता है। जैसे विपन्न को उपदेश देता है, वैसे ही सम्पन्न को देता भाष्यम् १७४-आत्मदर्शनमन्तरेण व्यवहारेऽपि आत्मदर्शन के बिना व्यवहार में भी समता का अवतरण नहीं समत्वं नावतरति । यः आत्मदर्शी भवति स नान्यार्थं होता। जो आत्मदर्शी होता है, वह अन्य प्रयोजनों के लिए प्रयत्न नहीं प्रयतते, केवलं आत्मार्थमेव प्रयतते। अत एव स करता, केवल आत्म-प्रयोजन के लिए ही प्रयत्न करता है। इसीलिए १. चूणों वृत्तौ च एतत् सूत्रं व्यावहारिक-सम्यग्दर्शन दर्शन के बाद रमण और रमण के बाद फिर स्पष्ट दृष्ट्या व्याख्यातमस्ति । दर्शन-यह क्रम चलता रहता है। वासना और (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ ९६ : अण्ण इति परिवज्जणे कषाय (कोध, अभिमान, माया, लोभ) ये आत्मा से तिष्णि तिसट्ठा पावातियसया अण्णदिट्ठी, अणण्णदरिसी अन्य हैं। आत्मा को देखने वाला अन्य में रमण नहीं वताई तत्त्वबुद्धीए पेक्खति, इमं एक्कं जइणं तत्त करता। बुद्धीए पासति, जो अणण्णट्ठिी सो नियमा 'अणण्णा आत्मा को जानना ही सम्यगज्ञान है । आत्मा को रामों' ण अण्णत्यारमतीति अणण्णारामो, गति देखना ही सम्यग्दर्शन है। आत्मा में रमण करना पच्चागतिलक्खणेणं भण्णति-जे 'अणण्णारामों' से ही सम्यगचारित्र है । यही मुक्ति का मार्ग है। णियमा अण्णदिट्ठी, जं भणितं सम्मदिट्ठी, ण य अण्ण ___ अप्रमाद का दूसरा सूत्र है-वर्तमान में जीनादिट्ठीए रमति, तहा विसयकसायादिलक्खणे अचरित्ते क्रियमाण क्रिया से अभिन्न होकर जीना। वर्तमान अतवे ण य रमति । क्रिया में तन्मय होने वाला अन्य क्रिया को नहीं (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १३१। देखता। जो अतीत की स्मृति और भविष्य की (ग) भगवान महावीर की साधना का मौलिक आधार कल्पना में खोया रहता है, वह वर्तमान में नहीं रह है-अप्रमाद-निरन्तर जागरूक रहना। अप्रमाद सकता। का पहला सूत्र है-आत्म-दर्शन । भगवान् ने जो व्यक्ति एक क्रिया करता है और उसका कहा-आत्मा से आत्मा को देखो-'संपिक्खए मन दूसरी क्रिया में दौड़ता है, तब वह वर्तमान के अप्पगमप्पएणं ।' प्रति जागरूक नहीं रह पाता।" अनन्य-दर्शन का अर्थ हे-आत्म-दर्शन । जो आत्मा २. आयारो, ३१३५॥ को देखता है, वह आत्मा में रमण करता है । जो ३. वही, ४॥५०॥ आत्मा में रमण करता है, वह आत्मा को देखता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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