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________________ ३०४ आचारांगभाष्यम् एते षोडश रोगा अनुपूर्वशः-क्रमेण आख्याताः । एतैः ये सोलह रोग क्रमशः कहे गए हैं। इन रोगों से आक्रान्त रोगैराक्रान्ता: मनुष्या गृहे स्थिता अपि भोगान् भोक्तुं न व्यक्ति घर में रह कर भी भोगों का उपभोग करने में समर्थ नहीं शक्नुवन्ति । कदाचित् तान् आतङ्का:-सद्योघातिरोगाः, होते। कभी उन मनुष्यों को सद्योघाती रोग और अनिष्ट स्पर्श-- असमञ्जसा: स्पर्शा:-प्रहारादिजनिता दुःखविशेषाश्च प्रहार आदि से उत्पन्न कष्ट-विशेष प्राप्त होते हैं। स्पृशन्ति । तेषां मनुष्याणां मरणं संप्रेक्ष्य, उपपात:-उन्नता- उन मनुष्यों की मृत्यु की पर्यालोचना कर, उपपात-उन्नत वस्थायां गमनं, च्यवनम्-निम्नावस्थायां प्रतिगमनं,' अवस्था में गमन और च्यवन-निम्न अवस्था में गमन-को जान तद् ज्ञात्वा एताः सर्वा अवस्थाः कर्मविपाकजनिता कर तथा ये सारी अवस्थाएं कर्म के विपाक से पैदा होती हैं, यह भवन्ति इति संप्रेक्ष्य, स परिपाकः यथा भवति तं तथा सोच कर वह विपाक जैसा होता है वैसा तुम सुनो, सुन कर भोगों से शृणुत, श्रुत्वा भोगेभ्यो निर्वेदं कुरुत । विरक्ति करो। १. संति पाणा अंधा तमंसि वियाहिया। सं०-सन्ति प्राणाः अन्धाः तमसि व्याहृताः । अन्धकार में होने वाले प्राणी अन्ध कहलाते हैं। भाष्यम् ९-मिथ्यात्वाद्याश्रवसंयुताः प्राणिनः तमसि मिथ्यात्व आदि आश्रवों से संयुक्त प्राणी अंधकार में रहते हैं, वर्तन्ते अतस्ते अन्धाः व्याहृताः। यथार्थदर्शनाक्षमत्वात् इसलिए वे अंधे कहलाते हैं। वे यथार्थ दर्शन करने में अक्षम होने के तेषामन्धत्वं नास्त्यसंगतम् ।' कारण उनका अंधापन असंगत नहीं है । १०. तामेव सई असई अतिअच्च उच्चावयफासे पडिसंवेवेंति। सं0-तामेव सकृद् असकृद् अतिगत्य उच्चावचस्पर्शान् प्रतिसंवेदयन्ति । प्राणी उसी (क्लेशपूर्ण अवस्था) को एक या अनेक बार प्राप्त कर तीन और मंद स्पों का प्रतिसंवेवन करते हैं। भाष्यम् १० ते तां कर्मविपाकावस्थां सकृद् असकृद् वे उस कर्म-विपाक की अवस्था को एक बार या अनेक वा अतिगत्य उच्चावचान स्पर्शान-कष्टानि प्रतिसंवेद- बार प्राप्त कर तीव्र और मंद स्पों-कष्टों का बार-बार अनुभव यन्ति -वारं वारमनुभवन्ति । करते हैं। ११. बुद्धेहिं एवं पवेदितं । सं०-बुद्धः एतत् प्रवेदितम् । तीर्थकरों ने इसका प्रतिपादन किया है। भाष्यम् ११-अनात्मप्रज्ञाः विषयेषु आसक्ता अनात्मप्रज्ञ पुरुष विषयों में आसक्त होते हैं। उन आसक्त भवन्ति । तेषामासक्तानां नानाविधाः कर्मविपाका पुरुषों के कर्म-विपाक नाना प्रकार के होते हैं, यह तीर्थंकरों ने कहा भवन्ति । एतद् बुद्धैः प्रवेदितमस्ति । है। वातजाश्चत्वार इति, सर्वेऽपि चैतेऽसाध्यावस्थायां मधुमेहत्वमुपयान्तीति, उक्तं च सर्व एव प्रमेहास्तु, कालेनाप्रतिकारिणः । मधुमेहत्वमायान्ति, तदाऽसाध्या भवन्ति ते ॥ १. चूणों (पृष्ठ २०३) उपपातच्यवनयोख्यिा एवं कृतास्ति--उवायायाओ चयणं, दोण्हं मरणं तिरियमणुयाणं, उम्बट्टणा नेरइयभवणवासिवाणमंतराणं, उववाओ सम्वदेवाणं, चयणं जोइसियवेमाणियाणं । २. अंधकार दो प्रकार का होता है : १. द्रव्य अंधकार-यह प्रकाश के अभाव में होता है। २. भाव अन्धकारमिथ्यात्व और अज्ञान । अंध भी दो प्रकार के होते हैं : १. द्रव्य अन्ध-चक्षरहित । २. भाव अन्ध-विवेक रहित । मिथ्यात्व और अज्ञान में रहने वाले मनुष्य विवेकशून्य होते हैं । वे कर्म के उपादान और परिपाक को नहीं देख पाते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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