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अ० ६.धुत, उ०१. सूत्र-१३
३०५ १२. संति पाणा वासगा, रसगा, उदए उदयचरा, आगासगामिणो।
सं०-सन्ति प्राणाः वर्षजाः रसजाः उदके उदकचराः आकाशगामिनः । अनेक प्रकार के प्राणी होते हैं-वर्षज-स्थल में उत्पन्न होने वाले, रसज-रस में उत्पन्न होने वाले, जल में जलरूप जीव, जल में रहने वाले जलचर जीव और आकाशगामी--पक्षी। भाष्यम् १२-कर्मविपाकवैचित्र्येण
कर्म विपाक की विविधता के कारण प्राणी भी नाना प्रकार नानाविधाः सन्ति', यथा-वर्षजा:-स्थलचराः, रसजा: के हैं। जैसे-वर्षज-स्थल में पैदा होने वाले स्थलचर, रसज-कृमि -कृम्यादयः।
आदि । चौं वासगा रसगा इति व्याख्यातमस्ति । चूणि में 'वासग और रसग'-व्याख्यात हैं। वृत्तिकार ने वत्तिकारेणापि चूणिव्याख्यानमनुसृतम् । किन्तु भी चुणिगत व्याख्या का अनुसरण किया है। किन्तु दशवकालिक दसवेआलियसूत्रे 'रसया' इति पदं दृश्यते । तस्य सूत्र में 'रसया' का प्रयोग मिलता है। उसका अर्थ है ---रसज । यहां व्याख्यानमस्ति' रसजाः । अत्र जकारस्य गकारा- 'जकार' को 'गकार' आदेश हुआ है, इसलिए 'रसगा' पद का प्रयोग देशो जातः, तेन रसगा इति पदं दृश्यते, तथा स्थानांगे प्राप्त होता है। उसी प्रकार स्थानांग में 'हरिवासग' (सं० हरिवर्षक) 'हरिवासग' पदे जकारस्य गकारत्वम् ।' एवं वासगा पद प्राप्त है । यहां भी 'जकार' के स्थान पर 'गकार' हुआ है। इसी इति पदेऽपि जकारस्य गकारादेशः संभाव्यते।
प्रकार 'वासग' पद में भी 'जकार' के स्थान पर 'गकार' की संभावना
की जा सकती है। उदके-उदकरूपा एव एकेन्द्रिया जीवाः। 'उदक' (पानी) में उदकरूप ही एकेन्द्रिय जीव होते हैं । उदकचराः-मत्स्यकच्छपादयः। स्थले जाता अपि उदकचर वे जीव हैं जो पानी में विचरण करते हैं, जैसे-मत्स्य, केचन उदके चरन्ति ते उदकचराः, यथा-महोरगाः। कच्छप आदि । स्थल में उत्पन्न होने वाले भी कुछ जीव उदक में रहते
हैं, वे उदकचर कहलाते हैं, जैसे-सर्प आदि । आकाशगामिनः-पक्षिणः। केचित् पक्षिण : आकाशगामी-आकाश में उड़ने वाले पक्षी। कुछ पक्षी उदकचरा अपि भवन्ति ।
उदकचर भी होते हैं। १३. पाणा पाणे किलेसंति । सं०-प्राणाः प्राणान् क्लेशयन्ति । प्राणी प्राणियों को कष्ट देते हैं ।
१. आचारांग चूणि, पृष्ठ २०४ : संति तिसुवि कालेसु
छक्काया, ण तुच्छिज्जति । २. वही, पृष्ठ २०४ : पाणिणो इति वत्तव्वे सरीरे आओवतारं . काउं पाणा वुच्चंति। ३. वही, पृष्ठ २०४: वासंतीति वासगा-भासालद्धीसंपण्णा
बेइंदियादि वासगा, रसगा णाम जे जिभिवियलद्धिसंपन्ना, तिता तित्तादिरसे उवलमंति, किमिगजलोगराजगादी, केयि रसगा चेव ण तु वासा, एगिदिया ण वासगा ण रसगा, बॅदियत्तेऽवि सति केइ णिव्वत्तिया ण वासगा भवंति, रसआसादलद्धी पुण सम्वेसि, सावि कस्सइ उवहम्मति, एवं जस्स जति इंदिया ते भावयन्वा जाव पंचिदियतिरिया, तेसिपि केसिंचि उवहताणि इंदियाणि, बुद्धि सरीरं वा, अहवा..."वासंतीति वासगा, कोइलमदणसलागसूयादि, तत्थ तु जे जस्स गुणो तस्स विणासमो काउं, वासितदोसेणं पंजरत्था सइरपतारवियोगाओ णिरोधादीणि दुक्खाणि
अणुभवंति, रसिता रसगा' महिसवराहमिगससगतित्तिर
बद्धाति । ४. आचारांग वृत्ति, पत्र २१५ : वासकाः 'वासू शब्दकुत्सायो'
वासन्तीति वासका:-भाषालब्धिसम्पन्ना द्वीन्द्रियावयः, रसमनुगच्छन्तीति रसगा:-कटुतिक्तकषायादिरसवेविनः,
संजिन इत्यर्थः। ५. वसवे आलियं, ४/सूत्र ९: (क) अगस्त्य चूणि, पृष्ठ ७७ : रसा ते भवंति रसजा,
तक्रादौ सुहुमसरीरा। (ख) जिनदास चूणि, पृष्ठ १४० : रसया नाम तक्कं
बिलमाइसु भवंति। (ग) हारिभद्रीया वृत्ति, पत्र १४१ : रसाज्जाता रसजाः
तक्रारनालवधितीमनादिषु पायुकृम्याकृतयोऽतिसूक्ष्मा
भवन्ति। ६. अंगसुत्ताणि १, ठाणं ६।२२ : हरिवासगा।
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