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________________ ३०६ आचारांगभाज्यम् भाष्यम् १३-प्राणाःप्राणान् क्लेशयन्ति-उपघ्नन्ति. प्राणी प्राणियों को क्लेश देते हैं-उपघात करते हैं, संघट्टन संघट्टन्ते यावत् जीविताद् व्यपरोपयन्ति । चिकित्सा- करते हैं यावत् जीवन से मार डालते हैं। चिकित्सा-शास्त्र में इन शास्त्रे अमीषां स्थलचरादीनां त्रिविधानामपि प्राणिनां स्थलचर आदि तीनों प्रकार के प्राणियों के मांस-भक्षण का निर्देश है। मांसाशनस्य निर्देशो विद्यते, अतः स्वस्य आरोग्यार्थं इसलिए मनुष्य अपने आरोग्य के लिए उन प्राणियों को क्लेश पहुंचाते मनुष्याः तेषां प्राणिनां क्लेशं जनयन्ति । १४. पास लोए महाभयं । सं०-पश्य लोके महाभयम् । तू देख, लोक में महान् भय है। भाष्यम् १४-त्वं पश्य, लोके स्वप्राणानां रक्षायै तू देख, संसार में अपने प्राणों की रक्षा के लिए दूसरे प्राणियों अन्येषां प्राणानामपहरणं कर्मबन्धकारकत्वात् महाभयं' के प्राणों का अपहरण करना कर्मबन्ध का हेतु होने के कारण महान् विद्यते। भय है। १५. बहुदुक्खा हु जंतवो। सं०-बहुदुःखाः खलु जन्तवः । जीवों के नाना प्रकार के दुःख होते हैं। ३. भाष्यम् १५-प्राणिनां दुःखाद् भयं भवति । दुःखं प्राणियों को दुःख से भय होता है। दुःख है-रोग आदि । च रोगादयः, यथा जैसे'जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं रोगा य मरणाणि य२ जन्म दुःख है, जरा दुःख है, रोग और मरण दुःख है। अमी जन्तवः-मनुष्याः बहुदुःखाः, प्रकरणवशाद् ये प्राणी-मनुष्य दुःखबहुल हैं। प्रकरण के अनुसार ये रोगबहुरोगा दृश्यन्ते। बहुल देखे जाते हैं। १६. सत्ता कामेहि माणवा। सं०-सक्ताः कामेषु मानवाः । मनुष्य कामनाओं में आसक्त होते हैं। माष्यम् १६-रोगाणां मूलमस्ति आसक्तिः । मानवाः रोगों का मूल है-आसक्ति । मनुष्य काम में आसक्त हैं। कामेषु आसक्ता वर्तन्ते। अत एव ते बहुदुःखाः अथवा इसीलिए वे दुःखबहुल अथवा रोगबहुल हैं। उनके जन्म, मरण, रोग बहरोगाः सन्ति । जन्ममरणरोगादीनां वेदनापि तेषां आदि की वेदना भी उतनी ही होती है, जिनकी जितनी आसक्ति तावती येषामस्ति यावती आसक्तिः । होती है। १७. अबलेण वहं गच्छंति, सरीरेण पभंगुरेण । सं०-अबलेन व्यथां गच्छन्ति शरीरेण प्रभंगुरेण । उस शक्तिहीन और प्रभंगुर शरीर से वे व्यथा को प्राप्त होते हैं। भाष्यम् १७-कामासक्तं शरीरं अबलं भवति। तेन कामासक्त शरीर निर्बल होता है। उस निर्बल और प्रभंगुर १. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २०५ : महतं भयं महम्मयं, जं भणितं मरणं । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २१५ : महद्भयं नानागति दुःखक्लेशविपाकात्मकमिति । २. उत्तरज्मयणाणि, १९।१५ । ३. आचारांग चूणि, पृष्ठ २०५ : अप्पसस्थिच्छाकामेसु मवनकामेसु । Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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