SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 351
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अ० ६. धुत, उ० १. सूत्र १४-२० ३०७ अबलेन प्रभङ्गुरेण शरीरेण ते व्यथां गच्छन्ति, पीडामनु- शरीर से वे मनुष्य व्यथा को प्राप्त होते हैं, पीड़ा का अनुभव करते भवन्तीति यावत् । चूणौ वृत्तौ च वधं गच्छन्तीति व्याख्यातम् । चूणि और वृत्ति में 'वे वध को प्राप्त होते हैं'—यह व्याख्या उपलब्ध है। १८. अट्टे से बहुदुक्खे, इति बाले पगभइ । सं०-आतः स बहुदुःखः इति बालः प्रगल्भते । वेदना से पीडित मनुष्य बहुत दुःख वाला होता है । इसलिए वह अज्ञानी धष्ट हो जाता है। भाष्यम १८-रोगजनिताभिः वेदनाभिः आर्तः स बह पुरुष रोग से उत्पन्न वेदनाओं से आर्त होकर बहुत दुःख बहुदुःखो भवति । तादृशः वेदनोपशमनार्थं प्राणिनः वाला होता है । वैसा पुरुष वेदना को शांत करने के लिए प्राणियों को क्लेशयति । स बालः प्राणिनां क्लेशं जनयन् 'जीवो क्लेश उत्पन्न करता है । वह अज्ञानी प्राणियों को क्लेश देता हुमा 'एक जीवस्य जीवनं' इति कृत्वा प्रगल्भते --धृष्टो भवति। जीव दूसरे जीव का जीवन है'-ऐसा मान कर धृष्ट हो जाता है। १९. एते रोगे बहू णच्चा, आउरा परितावए। सं०-एतान् रोगान् बहून ज्ञात्वा आतुराः परितापयन्ति । इन नाना प्रकार के रोगों को उत्पन्न हुआ जान कर आतुर मनुष्य दूसरे जीवों को परिताप देते हैं। २०. णालं पास। सं०-नालं पश्य । तू देख, ये चिकित्सा-विधियां पर्याप्त नहीं हैं। भाष्यम् १९-२०-एतान् पूर्वोक्तान् बहुन् रोगान् इन पूर्वोक्त अनेक रोगों को उत्पन्न हुआ जानकर, उनका उत्पन्नान् ज्ञात्वा तेषां संवेदनं कुर्वाणा आतुराः स्थल- संवेदन करने वाले आतुर पुरुष (रोग के उपशमन के लिए) स्थलचर चरादीन् प्राणिनः परितापयन्ति । 'पाणा पाणे किलेसंति' आदि प्राणियों को परिताप देते हैं । प्राणी प्राणियों को कष्ट देते हैं(६।१३) इति निगमनम् । यह उपसंहार है। त्वं पश्य, एषा प्राणिपरितापजननी चिकित्सा- तू देख, प्राणियों को परिताप देने वाली यह चिकित्सा पद्धति पद्धतिः रोगोन्मूलनाय अलं-पर्याप्तं नास्ति । रोगों के उन्मूलन के लिए पर्याप्त नहीं है । वृत्तिकार ने इस विषय की वृत्तिकारेण एष विषयः सम्यग् विवेचितः-'एतान् सम्यक् विवेचना की है. इन गंड, कुष्ठ, राजयक्ष्मा आदि अनेक रोगों को १. आचारांग चूणि, पृष्ठ २०५ : केण छुहादिपमंगुरेण करण पाणे किलेसति जोगत्रिककरणत्रिकेण, पढिज्जा मूतेण तप्पगारेण वहं एगेंदियादीणं सत्ताणं जाव पंचिबियाण य 'इति बाले पगम्मति' पाणाणं किलेसावि करतो तित्तिरादिणं, कंखंति पत्थंति गच्छंति एगट्ठा । ....... पगभं गच्छति, जं भणितं धारिठं, तं जहा-को जुद्धाविअसहं अबलं, तब्बलणिमित्तं अहंम का वधो जाणइ परलोगे, परलोगरूवस्स ण विमेति । संसारो तं गच्छति । (माचारांग चूणि, पृष्ठ २०५-२०६) २. आचारांग वृत्ति, पत्र २१५, २१६ : प्रमंगुरेण स्वत (ख) वृत्तावपि प्रकरोति इति व्याख्यातम् -यदि वा एव भंगशीलेन तत्सुखाधानाय कर्मोपचित्याऽनेकशी वधं रोगेषु सत्सु इत्येतद् वक्ष्यमाणं बालः-अज्ञः प्रकरोति । गच्छन्ति। (आचारांग वृत्ति, पत्र २१६) ३. (क) चूों 'पकुव्वई' इति पाठः, पगम्भई इति पाठान्तरं (ग) प्रगल्भपदानुगामि चिन्तनं उत्तराध्ययनेऽपि लभ्यतेवर्तते-सो एवं अट्टो दुक्खउवसमणिमित्तं कायवहे ५७ आदि । पसज्जति, जतो बुच्चति 'इति बाले पकुम्वई' इति ४. श्रीभिक्षन्यायकणिका, ३।२८ : साध्यधर्मस्य धर्मिणि एवं, जेण अट्टो रोगायंकेहिं रागदोसेहिं वा तेण उपसहारो निगमनम्, यथा-तस्माद् अनित्यः । दोहि आगलितो बालो भिसं कुम्वइ, जं वृत्तं पाणा Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy