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आचारांगभाष्यम गण्डकुष्ठराजयक्ष्मादीन् रोगान् बहूनुत्पन्नानिति ज्ञात्वा उत्पन्न हुआ जान कर उन रोगों की वेदना से आकुल-व्याकुल व्यक्ति तद्रोगवेदनया आतुराः सन्त: चिकित्साय प्राणिन: रोगोपशमन की चिकित्सा के लिए प्राणियों को परिताप देते हैं। परितापतेयुः, लावकादिपिशिताशिनः किल क्षयव्याध्यु- 'बटेर' आदि पक्षी का मांस खाने से क्षय रोग उपशांत होता हैं'-ऐसे पशमः स्यात् इत्यादिवाक्याकर्णनाज्जीविताशया वाक्यों को सुन कर व्यक्ति जीने की आकांक्षा से महान् जीवहिंसा में गरीयस्यपि प्राण्युपमर्दे प्रवर्तेरन, नैतदवधारयेयुः यथा- प्रवृत्त हो जाते हैं। वे यह नहीं जानते कि अपने द्वारा किए हुए अवश्यस्वकृतावन्ध्यकर्मविपाकोदयादेतत्, तदुपशमाच्चोपशमः, वेदनीय कर्मों के विपाक के उदय से ये रोग उत्पन्न हुए हैं। उन कर्मों प्राण्युपमर्दचिकित्सया च किल्बिषानुषङ्ग एवेति, के उपशमन से ही रोग का उपशमन होगा। जीवहिंसा कारक एतदेवाह-पश्यैतद्विमलविवेकावलोकनेन यथा नालं- चिकित्सा से तो पुनः पाप का बंध ही होगा। यही कहा गया है-तुम न समर्थाः चिकित्साविधयः कर्मोदयोपशमं विमल विवेक की आंखों से यह देखो कि ये चिकित्सा-विधियां कर्मों विधातुम् ।'
के उदय को उपशांत करने में समर्थ नहीं हैं। २१. अलं तवेएहि। सं०-अलं तव एतैः। इन चिकित्सा-विधियों का तू परित्याग कर ।
भाष्यम् २१-हे मुने! तव एतैः चिकित्सा- हे मुने! तुम्हें इन चिकित्सा-विधियों से क्या लेना-देना। प्रकारैरलम् । अत्र 'अलं' निवारणे । त्वमेतान् चिकित्सा- यहां 'अलं' शब्द निवारण के अर्थ में प्रयुक्त है। तुम इन चिकित्सा विधीन परित्यजेति तात्पर्यम् ।
विधियों का परित्याग करो-यही इसका तात्पर्य है। २२. एयं पास मुणी! महब्भयं ।
सं० --एतत् पश्य मुने ! महाभयम् । मुने ! तुम देखो, यह हिंसामूलक चिकित्सा महान् भय उत्पन्न करने वाली है।
भाष्यम् २२-मुने! त्वं पश्य चिकित्सायै एतत् हे मुनि ! तुम देखो, चिकित्सा के लिए प्राणियों का यह प्राणिनां परितापनं महाभयं वर्तते । रोगा असातवेदनीय- परिताप महान् भयकारक है। रोग असातवेदनीय कर्म के विपाक में कर्म विपाकहेतवो भवन्ति । तेषामुपशमनाय हिंसाजनितः हेतु बनते हैं। उन रोगों के उपशमन के लिए हिंसाजनित पुनः कर्मपुनः कर्मबन्ध इत्येतद् महाभयमस्ति ।
बन्ध करना-यह महान् भय है। विषयनिगमनार्थमुच्यते
विषय का निगमन करने के लिए कहते हैं२३. णातिवाएज्ज कंचणं । सं०- नातिपातयेत् कञ्चन । मुनि चिकित्सा के निमित्त भी किसी प्राणी का वध न करे।
भाष्यम् २३--प्राणिनां परितापनं महाभयमस्ति, प्राणियों को परिताप देना महान् भय है । इसलिए संयमी तेन संयतो मुनिः रोगप्रतिकारार्थ कमपि प्राणिनं मुनि रोग के प्रतिकार के लिए किसी भी प्राणी का वध न करे । नातिपातयेत् ।
एतेषु सूत्रेषु (८-२३) अचिकित्साधुतं प्रतिपादित- इन सूत्रों (८ से २३) में 'अचिकित्सा धुत' का प्रतिपादन किया मस्ति । अस्य स्पष्टतायै उत्तराध्ययनस्य रोगपरीषहः' गया है । इसकी स्पष्टता के लिए उत्तराध्ययन सूत्र का रोगपरीषह १. आचारांग वृत्ति, पत्र २१६ ।
तेगिच्छं नामिनवेज्जा, संचिक्खत्तगवेसए।
एवं खु तस्स सामण्णं, जंन कुज्जा न कारवे॥ २. उत्तरायणाणि, २१३२,३३ :
उत्तराध्ययने एतस्य टिप्पणमपि पठनीयं विद्यते । बसवेनच्चा उप्पइयं दुक्खं, वेयणाए दुहट्टिए।
आलियसूत्रे (३।४) 'तेगिच्छ' इति शब्दस्य टिप्पणमपि अवीणो थावए पन्नं, पुट्ठो तत्थहियासए ।
द्रष्टव्यमस्ति।
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