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आचारांगभाष्यम्
दुःखहेतुत्वात् दुःखं कर्म । तेन स्वकेन--स्वाजितेन दुःखेन वह दुःख का हेतु है। वह पुरुष अपने द्वारा अजित दुःख से मूढ़ होकर मूढः सन् विपर्यासमुपैति-सुखार्थी सन् दुःखं प्राप्नोति। विपर्यास को प्राप्त होता है-सुख की आकांक्षा करता है, पर दुःख पाता है।
हिताहितयोः कार्याकार्ययोः वावययोरविवेकः हित और अहित, कार्य और अकार्य, वयं और अवयं का मोहः । मोहं प्राप्तो मूढः। स मूढत्वात् नाभिजानाति अविवेक मोह है । जो मोहग्रस्त होता है वह मूढ है। मूढता के कारण सुखाय क्रियमाणः प्रयत्नः दुःखाय भविष्यति । अत एव वह पुरुष नहीं जानता कि सुख के लिए किया जाने वाला प्रयत्न वस्तुतः स आत्मनः परस्य वा सुखार्थ पृथ्वीकायादीनां समारम्भं दुःख के लिए होगा। इसीलिए वह अपने तथा दूसरों के सुख के लिए करोति । ततश्च दीर्घकालं दुःखमनुभवति ।'
पृथ्वीकाय आदि जीवनिकायों की हिंसा करता है। उसका परिणाम है कि वह दीर्घकाल तक दुःख का अनुभव करता है।
१५२. सएण विप्पमाएण, पुढो वयं पकुव्वति ।
सं०-स्वकेन विप्रमादेन पृथग् वयः प्रकरोति । वह अपने अतिप्रमाव के कारण विविध प्रकार के गतिचक्र का निर्माण करता है।
भाष्यम् १५२-सुखाकांक्षा प्रमादं जनयति । स सुख की आकांक्षा प्रमाद को उत्पन्न करतो है । वह पुरुष अपन स्वकीयेन विप्रमादेन पृथग् वयःप्रकरोति । वयः-संसारः अतिप्रमाद के कारण विविध प्रकार के वय का निर्माण करता है। गतिचक्र वा।
वय का अर्थ है-संसार अथवा गतिचक्र (जन्म-शृंखला)। १५३. जंसिमे पाणा पवहिया । पडिलेहाए णो णिकरणाए।
सं०-यस्मिन् इमे प्राणाः प्रव्यथिताः । प्रतिलिख्यः नो निकरणाय । ये प्राणी जिसमें व्यथित होते हैं, यह जानकर हिंसा और परिग्रह का संकल्प न करे।
भाष्यम् १५३-यस्मिन् स्वकृतेन प्रमादेन आपादिते अपने द्वारा कृत प्रमाद से संप्राप्त जिस गतिचक्र अथवा ससार में गतिचक्रे संसारे वा प्राणाः प्रव्यथिता भवन्ति- प्राणी प्रव्यथित होते हैं-शारीरिक तथा मानसिक दुःखों से पीड़ित होते शारीरैश्च मानसश्च दुःखैः पीडिताः भवन्ति, तत् हैं, उसको सम्यग् प्रकार से जानकर हिंसा तथा उसके हेतुभूत परिग्रह के प्रतिलिख्य-सम्यग् ज्ञात्वा हिंसाया तहेतुभूतस्य निकरण के लिए प्रवृत्ति न करे । परिग्रहस्य च निकरणाय नो प्रवर्तेत ।
निकरण-निश्चितं करणं, आवश्यकमिदमिति निकरण का अर्थ है-निश्चित रूप से करना, 'यह आवश्यक बुद्ध्या करणम् ।
है'-इस बुद्धि से करना। १५४. एस परिण्णा पवुच्चइ ।
सं०-एतत् परिज्ञा प्रोच्यते । इसे परिज्ञा कहा जाता है।
भाष्यम् १५४-एतत्-हिंसायाः परिग्रहस्य च इस-हिंसा और परिग्रह के अनिकरण को परिज्ञा (विवेक) अनिकरणं 'परिज्ञा" इति उच्यते।
कहा जाता है। १. आचारांग चूणि, पृष्ठ ९१ : सो मूढत्ता णाभियाणति जहा ३. ऐतरेयब्राह्मण, अध्याय १२, खण्ड ८: 'वयः सुवर्णा अप्पस्स सुहस्स कारणा पुढविक्कायातिसमारंभेण अणंतकालं
उपसेदुरिन्द्रमित्युत्तमया परिदधाति ।' सायणाचायण संसारे अणुभवति दुक्खं, जहा अत्तट्ठा तहा परहावि, माता
स्वभाष्ये वेतेर्धातोर्गत्यर्थस्य वय इति रूपं सम्मतम् । पितिमादीणं कारणा पुढविमावी समारभति ततो विपरियासं ४. तुलना, आयारो-१६१। एति।
५. आचारांग चूणि, पृष्ठ ९१ : जा एसा वुत्ता पाणाइवायाईणं २. वही, पृष्ठ ९१ : विच्छिण्णो वयो असुभदीहाउयं अणेगविहं
अकरणा। वा वयं पत्तेयं पत्तेयं छसु जीवनिकाएसु आउयं, पुणो पुणो
६. द्रष्टव्यम्-आयारो, १।९। वा वयं पुढोवयं-भिसं कुव्वति ।
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