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________________ अ० २. लोकविचय, उ० ६. सूत्र १४८-१५१ यस्य कस्यापि जीवनिकायस्य हिंसायां प्रवर्तितुं जिस-किसी जीव-निकाय की हिंसा करने में प्रवृत्त हो सकता है। सावकाशः। विपरामृशति-हिनस्ति। विपरामृशति का अर्थ है-हिंसा करना। कल्पते-वर्तते। कल्पते का अर्थ है-है। १५१. सुहट्ठी लालप्पमाणे सएण दुक्खेण मूढे विप्परियासमुवेति । सं०-सुखार्थी लालप्यमानः स्वकेन दुःखेन मूढः विपर्यासमुपैति । सुख का अर्थी बार-बार सुख की कामना करता है । वह अपने द्वारा कृत दुःख-कर्म से मूढ होकर विपर्यास को प्राप्त होता है-- सुख का अर्थी होकर दुःख को प्राप्त होता है। माध्यम १५१–किमर्थं पुरुषः हिंसायां प्रवर्तते इति पुरुष हिंसा क्यों करता है-इस जिज्ञासा के समाधान में जिज्ञासां समाधत्ते सूत्रकारः-द्विविधाः पुरुषाः सूत्रकार कहते हैं-पुरुष दो प्रकार के होते हैं-आत्मार्थी और भवन्ति-आत्मार्थिनः सुखार्थिनश्च । तत्र यः सुखार्थी सुखार्थी । जो सुखार्थी है, वह हिंसा में प्रवृत्त होता है । वह बारभवति स हिंसायां प्रवर्तते । स वारं वारं सुखं बार सुख (सुविधा) की आकांक्षा करता है । वह सुख की आकांक्षा करता प्रार्थयते । स सुखं प्रार्थयमानः दुःखमर्जयति । हुमा दुःख का अर्जन करता है, कर्म-बंध करता है । कर्म दुःख है, क्योंकि १.जो एक जीव-निकाय की हिंसा करता है, वह छहों जीवनिकायों की हिंसा करता है। इस सूत्र की पृष्ठभूमी में अहिंसा अथवा मैत्री का दर्शन छिपा हुआ है। साधक के लिए सब जीवों की हिंसा निषिद्ध है। यह सर्व निषेध अहिंसा के चित्त का निर्माण करता है। एक जीव-निकाय की हिंसा विहित और अन्य जीव-निकायों की हिसा निषिद्ध हो तो अहिंसा के चित्त का निर्माण नहीं हो सकता । जो व्यक्ति एक जीव-निकाय की हिंसा करता है, उसके चित्त में अन्य जीव-निकायों के प्रति मंत्री सघन नहीं हो सकती। भगवान महावीर के युग में कुछ परिव्राजक यह प्रतिपादित करते थे-हम केवल पानी के जीवों की हिंसा करते हैं, अन्य जीवों की हिंसा नहीं करते । कुछ श्रमण निरूपित करते थे-हम भोजन के लिए जीव-हिंसा करते हैं, अन्य प्रयोजन के लिए जीव-हिंसा नहीं करते। भगवान् महावीर के शिष्य जंगल के मार्ग में विहार करते, तब बीच में अचित्त पानी नहीं मिलता । अनेक मुनि प्यास से आकुल हो स्वर्गवासी हो जाते। ऐसी स्थिति में यह प्रश्न उठा हो कि कदाचित् विकट परिस्थिति आने पर सचित्त पानी पी लिया जाए तो क्या आपत्ति है? इन सब निरूपणों और प्रश्नों को सामने रखकर भगवान् ने यह प्रतिपादित किया कि जिस साधक के चित्त में किसी एक जीव-निकाय को हिंसा की भावना अव्यक्त रहती है, उसका सर्वजीव-अहिंसा के पथ में प्रस्थान नहीं होता। अतः साधक की मैत्री सघन होनी चाहिए। उसके चित्त में कभी भी किसी जीव-निकाय की हिंसा की भावना शेष नहीं रहनी चाहिए। यह सूत्र परिग्रह के प्रकरण में है। अतः परिग्रह के संदर्भ में भी इस सूत्र की व्याख्या की जा सकती है । हिंसा, असत्य, अस्तेय, अब्रह्मचर्य, परिग्रह और रात्रि-भोजन-ये छह अव्रत हैं। क्या एक अव्रत का आचरण करने वाला दूसरे अव्रत के आचरण से बच सकता है ? क्या परिग्रह रखने वाला हिंसा से बच सकता है ? क्या हिंसा करने वाला परिग्रह से बच सकता है ? इन प्रश्नों के उत्तर में भगवान महावीर ने इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया-मूल दोष दो हैं-राग और द्वेष । हिंसा, परिग्रह आदि दोष उनके पर्याय हैं। राग-द्वेष से प्रेरित होकर जो पुरुष परिग्रह का स्पर्श करता है, वह हिंसा आदि का भी स्पर्श करता है। छहों अवतों का पूर्ण त्याग संयुक्त होता है, वियुक्त नहीं होता। कोई मुनि अहिंसा का पालन करे और अपरिग्रह का पालन न करे, अपरिग्रह का पालन करे और अहिंसा का पालन न करे-ऐसा नहीं हो सकता। महाव्रत एक साथ ही प्राप्त होते हैं और एक साथ ही भंग होते हैं। प्रत्याख्यानावरण कषाय के प्रशांत होने पर महावत उपलब्ध होते हैं और उसके उदीर्ण होने पर उनका भंग हो जाता है। ये एक, दो या अपूर्ण संख्या में न उपलब्ध होते हैं, और न विनष्ट । इसलिए परिग्रह के प्रकरण में इस सिद्धांत को इस भाषा में प्रस्तुत किया जा सकता है-परिग्रह का स्पर्श करने वाला हिंसा आदि सभी अव्रतों का स्पर्श करता है। २. आप्टे, परामर्शः-Violence. ३. द्रष्टव्यम्-आयारो २१६०,६९ । ४. आचारांग चूणि, पृष्ठ ९० : अच्चत्थं-पुणो पुणो लप्पमाणो लालप्पमाणो, जं भणितं सुहं पत्थेमाणो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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