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आचारांगभाष्यम
छट्ठो उद्देसो : छठा उद्देशक
१४८. से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाए।
सं०-स तं संबुध्यमानः आदानीयं समुत्थाय । वह उस चिकित्सा को समीचीन दृष्टि से समझकर संयम की साधना में सावधान हो जाता है।
भाष्यम् १४०-सः पुरुषःतं चिकित्साप्रसङ्ग संबुध्य- वह पुरुष उस चिकित्सा प्रसंग को जानकर यह निश्चय करे कि मानः इति निश्चिनुयात्-नैष संयमिनामाचरणीयः। ऐसी सावध चिकित्सा मुनियों के लिए आचरणीय नहीं है। इसलिए तेन आदानीयं समुत्थाय प्रवर्तेत ।।
मादानीय-संयम में अप्रमत्त होकर प्रवृत्त हो। आदानीय-ज्ञानदर्शनचारित्रात्मकं संयमम् ।
आदानीय-ज्ञान-दर्शन-चारित्रात्मक संयम । समुत्याय-ज्ञानादीनामाराधनाये अप्रमादयोग- समुत्थाय-ज्ञान आदि की आराधना के लिए अप्रमाद योग का मालम्ब्य ।
आलंबन लेकर । १४६. तम्हा पावं कम्म, णेव कुज्जा न कारवे।
सं०-तस्मात् पापं कर्म नैव कुर्यात् न कारयेत् । इसलिए वह पापकर्म स्वयं न करे और न दूसरों से करवाए।
भाष्यम् १४९-आदानीयाय समुत्थानं कृतं तस्मात् वह मुनि संयम की साधना में सावधान हुआ है, इसलिए वह । कारणात पापं कर्म नैव कुर्यात्, न च कारयेत् । अत्र कभी पाप-कर्म न करे, न दूसरों से करवाए । 'चूर्णिकार के अनुसार यहां ची पावं-हिसादि जाव मिच्छादसणसल्लं ।' इति प्राणातिपात से मिथ्यादर्शनशल्य तक के अठारह पाप संगृहीत हैं । किन्तु पाठेन अष्टादशपापानि संगृहीतानि, किन्तु प्रक्रान्तमिह यहां हिंसात्मक चिकित्सा का प्रसंग है। सूत्र में अनुमोदन का कोई हिंसानबद्धं चिकित्सितम्। सूत्रे अनुमोदनस्य नास्ति उल्लेख नहीं है। चणि में उसका भी उल्लेख है। उल्लेखः, चूणों तस्यापि समायोजन लभ्यते ।
१५०. सिया से एगयरं विप्परामुसइ, छसु अण्णयरंसि कप्पति ।
सं०-स्यात् स एकतरं विपरामृशति षट्सु अन्यतरस्मिन् कल्पते । यह सम्भव है कि जो एक जीव-निकाय की हिंसा करता है, वह छहों जीव-निकायों की हिंसा करता है।
भाष्यम १५०-स्यात्-कदाचित् प्रमादवसंगतः कदाचित् प्रमाद के वशीभूत होकर व्यक्ति किसी एक जीवएकतरं जीवनिकायं हिनस्ति, तदा स षण्णामपि जीव- निकाय को हिंसा करता है, तब भी वह छहों जीव-निकायों की हिंसा निकायानां समारम्भे वर्तते। यथा घटनिर्माणकाले में प्रवृत्त होता है । जैसे कुंभकार घट का निर्माण करते हुए पृथ्वीकाय कुम्भकारः पृथ्वीकायजीवान् हिंसन् अग्नेः वायोः के जीवों की हिंसा करता है, तब भी वह पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति वनस्पतेः त्रसप्राणिनाञ्च समारम्भेऽपि वर्तते।
तथा त्रसकाय के जीवों की हिंसा करता है। व्याख्याया द्वितीयो नयः-यः एकजीवातिपाती प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या का दूसरा प्रकार यह है-जो एक भवति, स वस्तूतः सर्वजीवातिपाती भवति, जीव की हिंसा करता है, वह वास्तव में सभी जीवों की हिंसा करता अविरतत्वात् । यस्य जीवहिंसाविरतिर्नास्ति स है, क्योंकि वह अविरत है। जिसके जोव-हिंसा की विरति नहीं है, वह
१. आचारांग चूणि, पृष्ठ ८९ । २. वही, पृष्ठ ८९ : सतं ण कुज्जा णो अण्णेहि कारवे करेंतंऽपण्णं
णाणुमोदए, अणुमोदणा अकरणाकारणेण गहिता, णवए णवभेदेण।
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