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अ० २. लोक विचय, उ० ५. सूत्र १४२-१४७ ___ भाष्यम् १४५-यो हिंसायां प्रवृत्तः स अविरतो जो हिंसा में प्रवृत्त होता है, वह अविरत होता है। वही भवति । स एव बालपदवाच्यः। तादृशो बालः कथं 'बाल'-अल्पज्ञ कहलाता है। वैसा बाल व्यक्ति काम-विरति की कामविरतेः चिकित्सां कर्तुमर्हेत् ? तेन तस्य सङ्गेन किं चिकित्सा कैसे कर सकता है ? इसलिए उसके संग से प्रयोजन ही प्रयोजनम् ? इति उपदिशति सूत्रकारः।'
क्या? यही सूत्रकार बतलाते हैं। १४६. जे वा से कारेइ बाले ।
सं०--यो वा स कारयति बालः । जो ऐसी चिकित्सा करवाता है, वह बाल है।
भाष्यम् १४६-यो वा तादृशीं हिंसानुबन्धां जो वैसी हिंसानुबन्धी काम-चिकित्सा कराता है, वह बाल है। कामचिकित्सां कारयति स बालः। तस्यापि एतादृशेन उसको भी ऐसी प्रवृत्ति से क्या प्रयोजन ? कर्मणा किं प्रयोजनम् ? १४७. ण एवं अणगारस्स जायति । -त्ति बेमि ।
सं०-न एवं अनगारस्य जायते । -इति ब्रवीमि । अनगार ऐसी चिकित्सा नहीं करा सकता। ---ऐसा मैं कहता हूं।
भाष्यम् १४७-अनगारस्य नैवं जायते । स ध्यानेन अनगार ऐसी चिकित्सा नहीं करा सकता । वह ध्यान तथा तपसा च काम-चिकित्सां करोति, न तु तान्त्रिकपद्धत्या तपस्या के द्वारा काम-चिकित्सा करता है । वह तांत्रिक पद्धति से कामस तां कर्तुमर्हति।
चिकित्सा नहीं कर सकता। व्याधिचिकित्साक्षेत्रेऽपि हननछेदनभेदनादिक्रिया व्याधि की चिकित्सा के क्षेत्र में भी हनन, छेदन, भेदन आदि प्रयुज्यमाना आसीत् । तस्मिन् विषये भगवतो महावीरस्य क्रियाएं प्रयुक्त होती थीं। उस विषय में भगवान् महावीर का दृष्टिकोण दष्टिरियमासीत्-यो जीवोपमर्देन व्याधिचिकित्सां यह था-जो जीवहिंसायुक्त रोग-चिकित्सा का प्रतिपादन करता है, वह प्रतिपादयति स बाल:--अविज्ञाततत्त्वोऽस्ति । विदेह- 'बाल' है। वह तत्त्व को नहीं जानता। विदेह की साधना करने वाले साधनां कुर्वाणस्थानगारस्य तादृश्या चिकित्सया अनगार को वैसी चिकित्सा से क्या प्रयोजन ? यदि कोई अनगार रोग कि प्रयोजनम? यदि कश्चिदपि अनगारश्चिकित्सा- को चिकित्सा कराना चाहे तो उसे भी निरवद्य उपाय से चिकित्सा मिच्छेत सोऽपि निरवद्येन उपायेन।'
करानी चाहिए। १. इस सूत्र के वैकल्पिक अनुवाद इस प्रकार किए जा
आदि की हिंसा को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। सकते हैं
शरीर का ममत्व भी परिग्रह है। अपरिग्रही को उसके (क) यह (चिकित्सा-हेतु किया हुआ वध) उस अज्ञानी के प्रति भी निर्ममत्व होना चाहिए। जिसने शरीर और संग (कर्म-बंध) के लिए पर्याप्त है।
उसका ममत्व विसजित कर दिया, जो आत्मा में लीन हो (ख) अज्ञानी के संग से क्या ?
गया, वह चिकित्सा की अपेक्षा नहीं रखता। वह शरीर में २. मुनि-जीवन की दो भूमिकाएं थीं-संघवासी और संघ
जो घटित होता है, उसे होने देता है। वह उसे कर्म का मुक्त । संघवासी शरीर का प्रतिकर्म-सार-संभाल करते थे।
प्रतिफल मान सह लेता है। जीवन और मृत्यु के प्रति समभाव गच्छ-मुक्त मुनि शरीर का प्रतिकर्म नहीं करते थे। वे रोग
रखने के कारण जीवन का प्रयत्न और मृत्यु से बचाव नहीं उत्पन्न होने पर उसकी चिकित्सा भी नहीं करवाते थे।
करता, इसलिए उसके मन में चिकित्सा का संकल्प नहीं यह भूमिका-भेद भगवान् महावीर के उत्तरकाल में हुआ
होता। प्रतीत होता है । प्रारंभ में भगवान् ने मुनि के लिए
भगवान् महावीर के उत्तरकाल में इस चिंतनधारा में चिकित्सा का विधान नहीं किया था। उसके सम्भावित
परिवर्तन हुआ। उस समय साधना की दो भूमिकाएं कारण दो हैं-अहिंसा और अपरिग्रह।
निमित हुई और प्रथम भूमिका की साधना में उस चिकित्सा में हिंसा के अनेक प्रसंग आते हैं। वैद्य
चिकित्सा को मान्यता दी गई, जिसमें वैद्य-कृत हिंसा का चिकित्सा के लिए हिंसा करता है, उसका सूत्र १४२ में
प्रसंग न हो। स्पष्ट निर्देश है। औषधि के प्रयोग से होने वाली कृमि
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