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________________ ३७२ आचारांगभाध्यम ३६. पासहेगे सव्विदिएहि परिगिलायमाहि । सं०-पश्यत, एके सर्वेन्द्रियः परिग्लायमानः । तुम देखो, आहार के बिना कुछ मुनि सभी इन्द्रियों की शक्ति से हीन हो जाते हैं। भाष्यम् ३६-पश्यत, एके केचित् आहारेण विना देखो, कुछेक मुनि आहार के बिना श्रोत्र आदि सभी इन्द्रियों सर्वैः श्रोत्रादिभिरिन्द्रियैः परिग्लायमानैः क्षीणशक्तयो की शक्ति से क्षीण दिखाई देते हैं । 'एके' शब्द से यह ध्वनित होता है दृश्यन्ते । 'एके' शब्देन इति ध्वन्यते-सर्वेषां नायं नियमो कि यह नियम सब पर निरपवाद रूप से लागू नहीं होता। कुछ मुनि निरपवादः । केचित् आहारं अकुर्वाणा अपि आहार- आहार न करते हुए भी इन्द्रियों की शक्ति से क्षीण नहीं होते, पुद्गलानामाकर्षणवैचित्र्यात् अपरिग्लायन्तो दृश्यन्ते। क्योंकि उनमें आहार योग्य पुद्गलों को आकृष्ट करने की विचित्र योग्यता होती है। ३७. ओए दयं दयइ। सं०-ओजः दयां दयते । अहिंसक और अपरिग्रही मुनि दया का पालन करता है। भाष्यम् ३७-ओजः भिक्षुः शरीरधारणार्थ आहारं ओज-अहिंसक और अपरिग्रही मुनि शरीर धारण के लिए करोति, यथा-तहा भोत्तध्वं जहा से जायमाता ३ भवति', आहार ग्रहण करता है । जैसे कहा है-मुनि को उतना भोजन करना तथा च पुत्वकम्मखयट्ठाए इमं देहं समुद्धरे । तथापि स चाहिए जिससे जीवन-यात्रा चल सके, तथा यह भी कहा है-मुनि सर्वेषां प्राणिनां दयां दयते, दयां पालयतीति यावत् । कर्मों को क्षीण करने के लिए इस शरीर को धारण करे। फिर भी वह भिक्षु सभी जीवों के प्रति दया करता है अर्थात् दया का पालन करता है। ३८. जे सन्निहाण-सत्यस्स खेयण्णे । सं०-यः सन्निधानशस्त्रस्य क्षेत्रज्ञः । जो सन्निधान के शस्त्र को जानता है। भाष्यम ३५-यो भिक्षुः सन्निधानशस्त्रस्य' जो भिक्षु सन्निधान-संचय या संग्रह के शस्त्र का ज्ञाता है, ज्ञाताऽस्ति स एव दयां पालयितुं हिंसादोषदुष्टमाहारं वही दया का पालन करने के लिए हिंसा के दोष से दूषित आहार का वर्जयेत् । वर्जन कर सकता है। कर्म' (आचारांग वृत्ति, पत्र २४९ ।) किन्तु वह प्रसंगानुसारी नहीं लगता। यहां सन्निधान का अर्थ 'भोजन आदि पदार्थों का संग्रह' होना चाहिए। इसी आगम के दूसरे अध्ययन 'लोकविचय' (१०४-१११) में इस विषय का विस्तृत वर्णन है । यहां उसी का संक्षेप है। उसके सन्दर्भ में सन्निधान का यही अर्थ घटित होता १. अंगसुत्ताणि १, पण्हावागरणाई, ९।११। २. उत्तरायणाणि ६।१३।। ३. शरीर अनित्य है, तब मुनि को आहार क्यों करना चाहिए? यह प्रश्न सहज ही उत्पन्न होता है । इसके उत्तर में सूत्रकार ने बताया कर्म-मुक्ति के लिए शरीर-धारण आवश्यक है और शरीर-धारण के लिए आहार आवश्यक है। अतः आहार का निषेध नहीं किया जा सकता । किन्तु आहार करने में अहिंसा की अनिवार्यता बतलाई गई है। ४. चूर्णिकार और वृत्तिकार ने सन्निधान का अर्थ कर्म किया है 'सन्निधि सन्निहाणं, जेण पुण जोनिग्गहणे चउगइए संसारे तासु तासु गतिसु सन्निधीयते तं सण्णिहाणं-कम्म' (आचारांग चूणि, पृष्ठ २७०)। 'सम्यक निधीयते नारकादिगतिषु येन तत्सग्निधानं .. चणि और वृत्ति में 'सस्थ' का अर्थ शास्त्र किया है। वृत्तिकार ने वैकल्पिक रूप में शस्त्र भी किया है। तस्स सत्थं नाणाविपंचगं (आचारांग चूणि पृष्ठ, २७०) तस्य स्वरूपनिरूपकं शास्त्रं, यदिवा सन्निधानस्य कर्मणः शस्त्रं संयमः सन्निधानशस्त्रम् ।' (आचारांग वृत्ति, पत्र २४९) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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