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________________ अ० ८. विमोक्ष, उ० ३. सूत्र ३६-४२ ३६. से भिक्खु कालण्णे बलण्णे मायण्णे खणण्णे विणयण्णे समयण्णे परिग्गहं अममायमाणे कालेणदाई अपडिण्णे। सं०-स भिक्षुः कालश: बलज्ञः मात्राज्ञः क्षणज्ञः विनयज्ञः समयज्ञः परिग्रह अममायमानः काले उत्थायी अप्रतिज्ञः । वह भिक्षु कालज्ञ, बलज्ञ, मात्राज्ञ, क्षणज्ञ, विनयज्ञ, समयज्ञ, परिग्रह पर ममत्व नहीं करने वाला, उचित समय पर अनुष्ठान करने वाला और अप्रतिज्ञ होता है। भाष्यम् ३९-द्रष्टव्यम्-२।११० । देखें--२।११०। ४०. दुहओ छेत्ता नियाइ। सं०-द्विधा छेत्ता निर्याति । वह राग और द्वेष- दोनों बन्धनों को छिन्न कर नियमित जीवन जीता है। भाष्यम् ४०--द्रष्टव्यम्-२।१११ । देखें-२।१११ । ४१.तं भिक्ख सोयफास-परिवेवमाणगाय उवसंकमित्त गाहावई बूया--आउसंतो समणा! णो खलु ते गामधम्मा उब्वाहंति? आउसंतो गाहावई ! णो खलु मम गामधम्मा उव्वाहति । सोयफास णो खलु अहं संचाएमि अहियासित्तए। णो खलु मे कप्पति अगणिकायं उज्जालेत्तए वा पज्जालेत्तए वा, कायं आयावेत्तए वा पयावेत्तए वा अण्णेसि वा वयणाओ। सं०-तं भिक्षु शीतस्पर्श-परिवेपमानगात्रं उपसंक्रम्य गृहपतिः ब्रूयाद्-आयुष्मन् श्रमण ! नो खलु ते ग्रामधर्माः उद्बाधन्ते ? आयुष्मन् गृहपते ! नो खलु मम ग्रामधर्माः उद्बाधन्ते । शीतस्पर्श नो खलु अहं संशक्नोमि अधिसोढुम् । नो खलु मम कल्पते अग्निकार्य उज्ज्वलयितुं वा प्रज्वलयितुं वा कायं आतापयितुं वा प्रतापयितुं वा अन्येषा वा वचनात् । शीत स्पर्श से प्रकम्पमान शरीर वाले भिक्षु के पास आकर गृहपति कहे-आयुष्मान् श्रमण ! क्या तुम्हें प्राम्य-धर्म (इन्द्रिय-वासना) बाधित नहीं कर रहे हैं ? आयुष्मान् गृहपति ! मुझे ग्राम्य-धर्म बाधित नहीं कर रहे हैं। मैं शीत-स्पर्श को सहन करने में समर्थ नहीं हूं। इसलिए मेरा शरीर प्रकम्पित हो रहा है । मैं अग्निकाय को उज्ज्वलित और प्रज्वलित नहीं कर सकता और दूसरों के कहने से स्वतः प्रज्वलित अग्नि के द्वारा अपने शरीर को आतापित और प्रतापित नहीं कर सकता। भाष्यम् ४१-स्पष्टम् । स्पष्ट है। ४२. सिया से एवं वदंतस्स परो अगणिकायं उज्जालेत्ता पज्जालेत्ता कायं आयावेज्ज वा पयावेज्ज वा, तं च भिक्ख पडिलेहाए आगमेत्ता आणवेज्जा अणासेवणाए।-त्ति बेमि । सं०-स्यात् तस्य एवं वदतः परः अग्निकार्य उज्ज्वलय्य प्रज्वलय्य कायं आतापयेत् वा प्रतापयेत् वा, तं च भिक्षुः प्रतिलिख्य आगम्य आज्ञापयेत् अनासेवनाय । इति ब्रवीमि । भिक्षु के द्वारा ऐसा कहने पर भी कदाचित् वह गृहपति अग्नि-काय को उज्ज्वलित और प्रज्वलित कर उसके शरीर को आतापित और प्रतापित करे, तो भिक्षु आगम की आज्ञा को ध्यान में रखकर, उस गृहपति से कहे--मैं अग्निकाय का सेवन नहीं कर सकता। ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् ४२-स्पष्टम् । स्पष्ट है। १. चूर्णिकार ने प्रस्तुत सूत्र का काव्यशैली में वर्णन किया सो य उच्चनीयमजिसमाई अडतो एगस्स ईश्वरस्य गिहं है-सो य मजिसमवओ अधिकृतो साहू, अभिगतस्थो, णवि पविसित्ता बाहिरे ठितो, सीतवाया य ते ण बारेण पविसह, अतितरुणो णवि अतिविद्धो य, तरुणस्स बलवन्तसरीरस्स तस्स अंग सव्वं कंपति, सो य इग्मो मियलोमपाउयो ण सीतेण अंग थरथरेति, विद्धे तु कंपमाणेवि वरो ण कुंकुमाणुगतअगरविलित्तगत्तो इसित्ति सुराए व मत्तो मेहुणसंकाए संकिज्जति, तेण मज्झिमवतो अधिकृतो साहू, इस्सरियउण्हाए अणुगतो, पुणो य अंगारसगडियाए अणु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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