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________________ ३७४ `चत्थो उद्देसो : चौथा उद्देशक ४३. जे भिक्खू तिहि वत्थह परिवसिते पायचउत्थेहिं, तस्स णं णो एवं भवति - चउत्थं वत्थं जाइस्सामि । सं० - यो भिक्षुः त्रिभिः वस्त्रैः पर्युषितः पात्रचतुर्थेः, तस्य नो एवं भवति --- चतुर्थं वस्त्रं याचिष्ये । जो भिक्षु तीन वस्त्र और एक पात्र रखने की मर्यादा में स्थित है, करूंगा । त्रिवस्त्रपर्युषितः जिनकल्पो वा स्थविरकल्पो वा भवति, किन्तु द्विवस्त्रपर्युषितः पुननियमतः जिनकल्पिक परिहारविशुद्धि चारित्रमाश्रितः यथालन्दकः, प्रतिमाप्रति पन्नो वा भवति । एकवस्त्रपर्युषितः त्रिवस्त्रद्विवस्त्रपर्युषितेभ्यो बलवान् संहननयुक्तश्च भवति । । भाष्यम् ४३ - प्रस्तुताध्ययने वस्त्रादेशेन चतुविधा प्रस्तुत अध्ययन में वस्त्रों की अपेक्षा से चार प्रकार के मुनियों भिक्षवः निरूपिताः सन्ति--त्रिभिर्द्वाभ्यां एकेन वा एकेन वा का निरूपण है- १. तीन वस्त्र रखने वाले मुनि, २. दो वस्त्र वस्त्रेण पर्युषिता अचेलाश्य वस्त्रग्रहणं द्विविधं रखने वाले भूमि ३ एक वस्त्र रखने वाले मुनि, ४. निर्वस्त्र मुनि । अधिक ओपग्रहिकं च प्रतिमाप्रतिपन्नो भिक्षुः त्रीणि वस्त्र-ग्रहण दो प्रकार । का होता है औधिक - सामान्य तथा वस्त्राणि धारयति । अत्र प्राचीनपरम्परा अनु- औपग्रहिक - ऋतुसापेक्ष प्रतिमा की साधना में संलग्न मुनि तीन सरणीया । " वस्त्र धारण करता है। इस विषय में प्राचीन परम्परा का अनुसरण करना चाहिए । , चतुर्थवस्त्रवाचनं औपग्रहिकमस्ति सत्यपि महाशीते प्रतिमाप्रतिपन्नो भिक्षुः औपग्रहिकवस्त्रयाचनस्य संकल्पं न करोति । भाष्यम् ४४ -- आपतितः शीतकालः । वस्त्रत्रयं न विद्यते । तदानीं स जिनकल्पिकादिः यथैषणीयानि वस्त्राणि याचेत - जिनकल्पिकस्य यथा एषणा भणितास्ति तथा वाचेत तत्र चतस्रो वस्त्रेषणाः सन्ति। तप्यमाणो अंतेपुरपरि बरगदगीतोवरमे कचितं साहू बहूं कंपमाणं चितयति किमयं साहू सोतेण कंपति ? उत एयाओ ममित्थोओ अलंकियाओ दठ्ठे मणस्स खोभो जातो ? जेण से वाताविधूतमिव कदलीपत्रं थरथरेति इति, एवं साहूं सीयफासेण वेबमाणगायं दट्ठ आसणा ओवद्वाय तमुदकाम्यब्रवीति । ( आचारांग पूर्ण, पृष्ठ २७१) १. आचारांग भूणि, पृष्ठ २७३ परिसितोपज्जुसितो : चितोत्ति वा एगट्ठा । Jain Education International आचारांग माध्यम उसका मन ऐसा नहीं होता कि मैं चौथे वस्त्र की याचना ४४. से अहेस णिज्जाई बस्थाई जाएजा । सं० --- स यथैषणीयानि वस्त्राणि याचेत । वह यथा- एषणीय -- अपनी-अपनी कल्प-मर्यादा के अनुसार ग्रहणीय वस्त्रों की याचना करे । तीन वस्त्र रखने वाला मुनि जिनकल्पी अथवा स्थविरकल्पी होता है। किन्तु दो वस्त्र रखने वाला मुनि नियमतः जिनकल्पी, परिहारविशुद्धिचारित्र का अनुपालन करने वाला यथालंदक अथवा प्रतिमा प्रतिपन्न होता है। एक वस्त्र रखने वाला मुनि तीन या दो वस्त्र रखने वाले मुनियों से शक्ति सम्पन्न और विशेष संहनन युक्त होता है । चौथे वस्त्र की याचना करना औपग्रहिक ऋतुसापेक्ष है। अत्यधिक शीत होने पर भी प्रतिमा प्रतिपन्न भिक्षु औपग्रहिक वस्त्र की याचना का संकल्प नहीं करता । शीतकाल आ गया। तीन वस्त्र नहीं हैं। उस स्थिति में जिनकल्पिक आदि मुनि पाएपनीय वस्त्रों की याचना करेजिनकल्पिक मुनि के लिए वस्त्र एवणा की जो मर्यादा निरूपित है उसके अनुसार याचना करे वस्या के चार प्रकार है। २. आचारांग भूमि, पृष्ठ २७३ ते पुण हो सोतिया एक्को उष्णती, याणं तु पमाणं संडास अहवा दो व वीओ चिटु पाउणति, पहलं एक्कं पाउयंति खोमियं पड़ा अतिसीतेण बिइज्जयं तस्सुर्वार, तहावि अतिसीते ततियं पाउणति, सम्बत् उन्नितं वाहि ततो परं महासीले उत्यं न मिति । ३. आचारांग चूर्ण, पृष्ठ २७६ ॥ ४. द्रष्टव्यम् - आयारचूला ५।१६।२१ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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