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________________ २५६ आचारांगभाष्यम् अस्य सूत्रस्य ऐदंपर्याथं बोद्ध मननं अस्ति आवश्यकम् । को जानने के लिए मनन आवश्यक है। केवल सुनने मात्र से उसका मर्म केवलं श्रवणमात्रेण न तस्य मर्म हृदयंगमं भवति । श्रुतः हृदयंगम नहीं होता । जब तक सुने हुए और पढ़े हुए विषय का बारपठितो वा विषयः यावद् नानुवासितो भवति तावद् बार अभ्यास कर मन को उससे भावित नहीं किया जाता तब तक न तदनुरूपस्य आचरणस्य कल्पना कर्त शक्या। एतत् उसके अनुरूप आचरण की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इस सत्यं हृदि निधाय सूत्रकारः निगमनवाक्येन उपदिशति, सत्य को हृदय में स्थापित कर सूत्रकार उपसंहार करते हुए उपदेश एतद् मौनं त्वं सम्यक् अनुवासये:-प्रतिपालयेः। देते हैं-इस मौन का तू सम्यक् परिपालन कर । मौनम्-अपरिग्रहस्य ज्ञान संयमानुष्ठानं वा । मौन का अर्थ है-अपरिग्रह का ज्ञान अथवा संयम का अनुष्ठान । तइओ उद्देसो : तीसरा उद्देशक ३९. आवंती केआवंती लोयंसि अपरिग्गहावंती, एएसु चेव अपरिग्गहावंती। सं०-यावन्तः केचन लोके अपरिग्रहवन्तः, एतेषु चैव अपरिग्रहवन्तः । इस जगत् में जितने मनुष्य अपरिग्रही हैं, वे इन वस्तुओं में मूर्छा न रखने के कारण ही अपरिग्रही हैं। भाष्यम ३९-यावन्तः केचन लोके अपरिग्रहिणः ते इस संसार में जितने मनुष्य अपरिग्रही हैं वे इन पदार्थों में एतेषु पदार्थेषु चैव निर्ममत्वाद् अपरिग्रहवन्तः । अपरि- ममत्व न करने (और इनका संग्रह न करने) के कारण ही अपरिग्रही ग्रहस्य तत्त्वमासाद्य जीवनदिशापरिवर्तनं कर्तुं शक्यम्। हैं। अपरिग्रह के तत्त्व को प्राप्त कर व्यक्ति अपनी जीवनदिशा का पदार्थ प्रति मूर्छा नापसरति तावद् हिंसायाः असत्यस्य परिवर्तन कर सकता है। जब तक पदार्थ के प्रति मूर्छा का भाव च अपसरणं भवति दुःशकम् । तेन सूक्तमिदं-ये पदार्थ दूर नहीं होता तब तक हिंसा और असत्य का भाव भी दूर नहीं नैव संगणन्ति न तेषु मूच्छी कुर्वन्ति त एव अपरिग्रहिणो हो सकता। इसलिए यह ठीक कहा है-जो न पदार्थ का संग्रहण भवितुमर्हन्ति । करते हैं और न उनमें मूर्छा भाव रखते हैं, वे ही अपरिग्रही बन सकते हैं। ४०. सोच्चा वई मेहावी, पंडियाणं णिसामिया। समियाए' धम्मे, आरिएहि पवेदिते। सं०-श्रुत्वा वाचं मेधावी, पंडितानां निशम्य । समतायां धर्मः आयें प्रवेदितः ।। 'तीर्थंकरों ने समता में धर्म कहा है'-आचार्य की यह वाणी सुन कर, मेधावी साधक उसे हृदयंगम करे। भाष्यम् ४०–'आर्यैः समतायां धर्मः प्रवेदितः' तीर्थंकरों ने समता में धर्म कहा है-आचार्य की यह वाणी मेधावी पण्डितानां इमां वार्ती श्रुत्वा निशम्य'-अवधार्य सुन कर मेधावी साधक उसको हृदयंगम कर समता का अनुपालन च समतामनुपालयेत् । करे। १. समिया-अस्य पदस्य संस्कृतरूपद्वयं भवति-सम्यक् शमिता च । सम्यक् इति यथार्थम् । शमिता इति कषायस्य उपशमः। चूर्णिकारेण 'सम्यग्' अर्थः स्वीकृतः-सम्म केवलनाणेण बळं (पृष्ठ १७२) । वृत्तिकारेण अस्य पदस्य अर्थः समता इति विहितः-समय त्ति समता समशत्रुमित्रता तया आर्यैः धर्मः प्रवेदित इति (पत्र १८९)। पाठान्तरे 'समया' इति रूपं लभ्यते । अस्य सम्यक्, शमिता, समता-त्रयोऽपि अर्थाः संगताः सन्ति । तथापि 'समता' इति मुख्यत्वेन भाष्ये व्याख्यातम् । २. आचारांग चूणि, पृष्ठ १७२ : णिसामिया णाम सुणित्ता, सोच्चाणिसामणाणं को विसेसो? सोच्चा किंचि केवलं सुत्तमेव, ण पुवावरेण ऊहित्ता हितपट्ठवियं, इमं पुण सोच्चा हितपट्टवितम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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