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________________ २६३ रायामरतीनपलक्षितं जग इन्द्रियविषयक पद से । अ०५. लोकसार, उ० ६. सूत्र १२६-१४० १२८-स नास्ति कृष्णादिवर्णवान् । वह कृष्ण आदि वर्णों से युक्त नहीं है। १२९-स नास्ति गन्धवान् । वह गन्धवान् नहीं है। १३०–स नास्ति रसवान् । वह रसवान् नहीं है। १३१--स नास्ति स्पर्शवान । वह स्पर्शवान नहीं है। एतेषु पञ्चसु (१२७-१३१) सत्रेषु 'नेति नेति' पदेन इन पांच सूत्रों (१२७-१३१) में नेति-नेति (नहीं है, नहीं है) आत्मा निरूपितः। अत्र निरूपितानि संस्थानानि वर्णादयो पद से आत्मा का निरूपण किया गया है। इन में निरूपित गुणाश्च पुद्गलद्रव्ये विद्यमानाः सन्ति। इन्द्रियविषये संस्थान, वर्ण आदि गुण पुद्गल द्रव्य में पाए जाते हैं। इन्द्रियों का जगति वयं त्रिभिरायामैरुपलक्षितं जगत् जानीमहे। विषयभूत जगत् तीन आयामों-ऊंचा, नीचा और तिरछा है। आत्मास्ति सर्वैरायामैरतीतः, अतः पुद्गलद्रव्यात् तस्य हम इसे जानते हैं। आत्मा सभी आयामों से अतीत है। इसलिए भिन्नत्वप्रतिपादनाय नेतिपदस्य प्रयोगः कृतः। अनेन पौद्गलिक द्रव्य से उसकी भिन्नता प्रतिपादित करने के लिए 'नेति' सिद्धमिदं-यस्मिन् संस्थानादयो भवन्ति तद् द्रव्यं पद का प्रयोग किया गया है। इससे यह सिद्ध होता है जिसमें मूर्तम् । आत्मनि एते न विद्यन्ते तेन सोऽस्ति अमूर्तः। संस्थान आदि होते हैं वह पदार्थ मूर्त है। आत्मा में ये सब नहीं होते, इसलिए वह अमूर्त है। १३२-स नास्ति कायवान्, न च तस्मात् कश्चि- आत्मा अशरीरी है। उससे न कोई आत्मा अवतरित होती दात्मा अवतरति, न च तस्मिन् कश्चिल्लीयते । है और न कोई आत्मा उसमें लय प्राप्त करती है। १३३–स नास्ति रुहः अग्निदग्धबीजवत् । दग्धकर्म- वह जन्मधर्मा नहीं है। जैसे अग्नि से दग्ध बीज पुन: अंकुरित बीजत्वात् न पुनर्भवांकुरो रोहति । नहीं होता, वैसे ही आत्मा के कर्म बीज दग्ध हो जाने के कारण पुनः उसमें जन्म-मरण का अंकुर उत्पन्न नहीं होता। १३४-स नास्ति संगः ।' यस्य आसक्तेर्लेशोऽपि वह असंग है-लेपमुक्त है। जिसमें आसक्ति का लेशमात्र भी अवशिष्टः स्यात् स पुनरवतरति । मुक्तात्मा सर्वथा शेष रह जाता है वह पुनः जन्म लेता है, मुक्त आत्मा सर्वथा लेपमुक्त असंगत्वात् न पुनर्भवमेति । होता है, इसलिए वह पुनः संसार में नहीं आता। १३५–लिंगं शरीरमाश्रितं भवति। लिंगस्य वेदः लिंग का आश्रय है-शरीर । लिंग से संबंधित वेद मोहकर्म मोहकर्माश्रितो भवति। आत्मस्वरूपस्थितः आत्मा के आधार पर होता है। जो आत्मा अपने मूल स्वरूप में स्थित है अशरीरः अकर्मा च भवति। तेन सोऽस्ति लिंगातीतः। वह अशरीरी और अकर्मा होती है, इसलिए वह लिंगातीत होती स नास्ति स्त्री, नास्ति पुरुषः, न च नपुंसकः । स लिंगाद् है। वह न स्त्री है, न पुरुष है और न नपुंसक । वह लिंग अथवा वेद वेदाद् वा अतीतः। से अतीत है। श्वेताश्वतरोपनिषदि आत्मनः लिंगमुक्तावस्था _ श्वेताश्वतर उपनिषद् में आत्मा की लिंगमुक्त अवस्था तथा तदितरा च द्वयमपि अस्ति प्रतिपादितम् लिंगयुक्त अवस्था-दोनों का प्रतिपादन है। वहां कहा है-आत्मा न नेष स्त्री न पुमानेष, न चैवायं नपुंसकः । स्त्री है, न पुरुष है और न नपुंसक । जिस लिंग वाले शरीर को वह यद् यद् शरीरमादत्ते, तेन तेन स रक्ष्यते ॥ प्राप्त होती है, उसी लिंग से वह पहचानी जाती है। १३६–स परितः समन्ताद जानातीति परिज्ञः। वह परिज्ञ है-सर्वतः जानता है । साधारण पुरुष इन्द्रियों के साधारणो जनः इन्द्रियैरेकदेशेन जानाति, किन्तु निरा- एक भाग से जानता है, किन्तु निरावरण आत्मा सर्वतोभाव से जानता १. आचारांग चूणि, पृष्ठ १९९, ण संगे इति जहा आजीवणगे, ३. नंदी चूणि, पृष्ठ ५६ : सोय अणंतभागो पुढवादिएगि'पुणो किड्डापवोसेणं से तत्थ अवरज्मति' (सूयगडो दियाण वि पंचण्हं निच्चुग्घाडो, अहवा सव्वजहण्णो ११७०)। अगंतभागो निच्चुग्घाडो पुढविक्काइए, चैतन्यमात्रमात्मनः । २. श्वेताश्वतरोपनिषद्, १० । तं च उक्कोसथीणिद्धिसहितनाणदंसणावरणोदए विणो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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