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________________ २६४ आचारांगभाष्यम् वरणः आत्मा सर्वतोभावेन जानाति । सम्यग जानातीति है । वह संश है-सम्यग् जानता है। संज्ञः। चैतन्यलक्षणः आत्मा। मुक्तः संसारी वा कोऽपि आत्मा का लक्षण है--चैतन्य। कोई भी आत्मा, चाहे वह आत्मा चैतन्यविरहितो न भवति। जैनदर्शने मुक्ता- मुक्त हो या संसारी, चैतन्य से रहित नहीं होती। जैन दर्शन के वस्थायामपि ज्ञानं तस्योपयोगश्च अस्ति सम्मतः। अनुसार मुक्त अवस्था में भी ज्ञान और उसका उपयोग सम्मत है। १३७-आत्मा एव परिज्ञः संज्ञश्च । नान्यः आत्मा ही परिज्ञ है, संज्ञ है। दूसरा कोई भी पदार्थ परिज्ञ कश्चित् पदार्थः परिज्ञः संज्ञो विद्यते । तेन नात्मनः या संज्ञ नहीं है। इसलिए आत्मा के लिए कोई उपमा नहीं है । काचिदुपमा विद्यते । अथवा सांसारिकेण केनापि भावेन अथवा किसी भी सांसारिक पदार्थ से आत्मा को उपमित नहीं किया आत्मा नोपमातुं शक्यते । जा सकता। १३८-सत्ता-अस्तित्वम्। आत्मनः सत्ता विद्यते, सत्ता का अर्थ है-अस्तित्व । आत्मा का अस्तित्व है, किन्तु किन्तु स अरूपी अस्ति, अतस्तस्य अस्तित्वं केवलं वह अरूपी है, इसलिए उसका अस्तित्व केवल केवलज्ञानी के ही केवलज्ञानप्रत्यक्षं, नास्ति इन्द्रियज्ञानिनां प्रत्यक्षम् । प्रत्यक्ष होता है । इन्द्रियज्ञानी उसको साक्षात् नहीं जान सकते । १३९–स अपदो विद्यते । नास्ति तस्य वाचक वह अपद है, पदातीत है। उसका बोध कराने वाला कोई किञ्चित् पदम्। यथा सांख्यानां 'तस्य वाचकः प्रणवः पद नहीं है। जैसे सांख्यदर्शन में 'आत्मा का वाचक प्रणव है'-ऐसा इति सम्मतमस्ति तथा मुक्तात्मनां किञ्चिद् वाचकं सम्मत है। किन्तु मुक्त आत्माओं का कोई वाचक पद नहीं है। चूर्णि नास्ति। चूणों 'पदं' इति पदचिह्नम् । यथा-अपदो के अनुसार 'पद' का अर्थ है-पदचिह्न । जैसे—सर्प अपद होता है । हि दोहजाइओ तस्स गच्छओ दीहं वटै परिमंडलं वा वह जब चलता है तब दीर्घ, वृत्त या परिमंडल कोई भी पदचिह्न पदं णत्थि ।' नहीं होता। १४०-पदं शब्दात्मकं भवति । स आत्मा नास्ति पद शब्दात्मक होता है। वह आत्मा न शब्द है, न रूप है, शब्दः, रूपं, गन्धः, रसः, स्पर्शो वा।' न गंध है, न रस है और न स्पर्श है। --इति ब्रवीमि। ---ऐसा मैं कहता हूं। आवरिज्जति ।""""ततो य से अश्वत्तं नाणमक्खरं सवजहणं भवति । ततो पुढविकाइतेहितो आउक्कातियाण अणंतभागेण विसुद्धतरं नाणमक्खरं, एवं कमेणं तेउ-बाउ वणस्सति-बेइंदिय - तेइंदिय-चरिदिय-असण्णिपंचेंदिय सण्णिपंचेंदियाण य विसुद्धतरं भवतीत्यर्थः । १. आचारांग चूणि, पृष्ठ १९९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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