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________________ २४४ आचारांगभाष्यम् ० तस्य भोगे अतृप्तिजनितां वेदनां आप्नोति । • पदार्थ के भोग से अतृप्ति की वेदना को प्राप्त होता है। ० अतुष्टिदोषेण दुःखी सन् लोभाविलो भूत्वा परस्य • वह अतृप्ति के दोष से दुःखी होकर लोभ से आकुल हो अदत्तं आदत्ते। जाता है और तब दूसरे के पदार्थों की चोरी करता है । एवं दुःखस्य चक्रं न क्वापि विरामं गच्छति। इस प्रकार दुःख का चक्र कहीं भी विराम नहीं लेता। १५. आवंती केआवंती लोयंसि आरंभजीवी, एएसु चेव आरंभजीवो। सं.--यावन्तः केचन लोके आरंभजीविनः, एतेषु चैव आरंभजीविनः । इस जगत् में जितने मनुष्य आरंमजीवी हैं, वे इन विषयों में आसक्त होने के कारण ही आरंमजीवी हैं। भाष्यम् १५–अस्ति मनुष्येषु कामः । कामपूर्तेः मनुष्यों में 'काम' है। कामपूर्ति का साधन हैं अर्थ । अर्थ साधनं अर्थः। तदर्थं मनुष्यः आरंभे प्रवर्तते, अत के लिए मनुष्य आरंभ में प्रवृत्त होता है। इसीलिए कहा हैउक्तम्-यावन्तः कियन्तः लोके आरंभजीविनः सन्ति ते इस जगत् में जितने मनुष्य हिंसाजीवी हैं, वे इन्हीं विषयों में आसक्त एतेषु विषयेषु आसक्ति आसाद्यैव आरंभजीविनो होकर ही हिंसाजीवी होते हैं । आरंभजीवी व्यक्तियों की दो श्रेणियां वर्तन्ते । आरंभजीविनां कोटिद्वयं विद्यते। केचिद् भवन्ति होती हैं । कुछ व्यक्ति अल्प इच्छावाले होते हैं और कुछ व्यक्ति महान् अल्पेच्छाः केचिच्च महेच्छाः। अल्पेच्छाः मनुष्याः इच्छावाले । अल्प इच्छावाले मनुष्य आवश्यकतापूर्ति मात्र के लिए आवश्यकतापूर्तिमात्रे आरम्भे प्रवर्तन्ते । महेच्छानां यथा आरंभ में प्रवृत्त होते हैं। महान् इच्छावाले मनुष्यों के जैसे-जैसे लाभ लाभः तथा लोभः प्रवर्धते । ते न क्वापि विश्राम्यन्ति। होता है, वैसे-वैसे लोभ बढता है । वे कहीं भी विश्राम नहीं लेते । एक एका तृतीया कोटि: विद्यते इच्छाविरहितानाम्। ते तीसरी श्रेणी है । इस श्रेणी में वे मनुष्य आते हैं जो इच्छाओं से रहित विषयेषु आसक्तिमपहाय जीवनयात्रायां प्रवर्तन्ते, अतस्ते हैं। वे विषयों में होनेवाली आसक्ति को छोड़कर जीवनयात्रा के नारंभजी विनो भवन्ति । निर्वाह में प्रवृत्त होते हैं, इसलिए वे आरंभजीवी नहीं होते। आरंभः -प्रवृत्तिः जीवोपमर्दो वा। आरंम का अर्थ है-प्रवृत्त अथवा हिंसा । १६. एत्थ वि बाले परिपच्चमाणे रमति पाहिं कम्महिं, असरणे सरणं ति मण्णमाणे। सं०-अत्रापि बालः परिपच्यमानो रमते पापेषु कर्मसु, अशरणान् शरणं इति मन्यमानः । अज्ञानी साधक संयम जीवन में भी विषयाकांक्षा से छटपटाता हुआ अशरण को शरण मानता हुआ पापकर्मों में रमण करता है। भाष्यम् १६-अज्ञानी पुरुषः अत्र संयमेऽपि विषया- अज्ञानी पुरुष संयम जीवन में भी विषयों की आकांक्षा से कांक्षया परिपच्यमानः पापेषु कर्मसु रमते। अनित्या छटपटाता हुआ पापकर्मों में रमण करता है। संसार के सारे पदार्थ अमी पदार्थाः । नेते शरणं भवन्ति । तथापि मूछौं अनित्य हैं । वे शरण नहीं दे सकते। फिर भी मनुष्य मूर्छा के प्राप्तः पुरुषः तान् शरणं मन्यमानः पापेषु कर्मसु रमते। कारण उन पदार्थों को शरण मानता हुआ पापकर्मों में रमण करता १७. इहमेगेसि एगचरिया भवति–से बहुकोहे बहुमाणे बहुमाए बहुलोहे बहुरए बहुनडे बहुसढे बहुसंकप्पे, आसवसक्को पलिउच्छन्ने, उट्ठियवायं पवयमाणे मा मे केइ अदक्खू अण्णाण-पमाय-दोसेणं, सययं मूढे धम्म णाभिजाणइ। सं०-इहैकेषां एकचर्या भवनि-स बहुक्रोधः, बहुमानः बहुमायः, बहुलोभः, बहुरतः, बहुनटः, बहुशठः, बहुसंकल्पः, आश्रवसक्ती, पलितावच्छन्नः उत्थितवादं प्रवदन् मा मां केचित् अद्राक्षुः अज्ञानप्रमाददोषेण सततं मूढः धर्म नाभिजानाति । कुछ साधु अकेले रह कर साधना करते हैं। किन्तु कोई भी एकचारी साधु जो अति क्रोधी, अति मानी, अति मायी, अति लोभी, अति आसक्त, नट की भांति बहुत रूप बदलने वाला, नाना प्रकार की शठता और संकल्प करने वाला, आस्रवों में मासक्त और कर्म से आच्छन्न होता है 'मैं (धर्म करने के लिए) उद्यत हुआ हूं', ऐसी घोषणा करने वाला कोई देख न ले', (इस आशंका से छिप कर अनावरण करता है) वह अज्ञान और प्रमाद के दोष से सतत मूढ बना हुआ एकचारी होकर भी धर्म को नहीं जानता। भाष्यम् १७-इह एकेषां एकचर्या भवति । एकल- कुछ साधु एकचारी होते हैं, अकेले रह कर साधना करते हैं। विहारो नास्ति सर्वथा असम्मत:, किन्तु तादृशस्य नास्ति एकलविहार सर्वथा असम्मत नहीं है, किन्तु वैसे व्यक्ति के लिए वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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