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________________ अ० ५. लोकसार, उ०१-२. सूत्र १५-१६ २४५ सम्मतोऽपि यस्य क्रोधमानमायालोभात्मकस्य कषायस्य सम्मत भी नहीं है जिसमें क्रोध, मान, माया और लोभ रूपी कषाय प्रबलता भवति, यश्च कामभोगान् प्रति आसक्तो भवति, की प्रबलता होती है, जो कामभोगों के प्रति आसक्त होता है, जो नट यश्च नटवन्नटति-बहुविधान् अभिनयान् करोति, बहु- की भांति नाना प्रकार के अभिनय करता है-रूप बदलता है, नाना विधानि शठाचरणानि करोति, बहुविधान् संकल्पान् प्रकार की शठता का आचरण करता है, बहुविध संकल्प करता हैकरोति-आहारादीन् पदार्थान प्रार्थयति, आस्रवे वा आहार आदि पदार्थों की आकांक्षा करता है, आस्रव में आसक्त होता आसक्तो भवति, पलितैः-कर्मभिरवच्छन्नः अहमुत्थि- है, कर्मों से आच्छन्न होता है, 'मैं प्रवजित हूं' ऐसा कहता हुआ तोऽस्मि-प्रव्रजितोऽस्मि इति वादं प्रवदन् प्रतिषिद्धमा- प्रतिषिद्ध आचरण करता है, किन्तु वैसा आचरण करते हुए मुझे कोई चरणं करोति, किन्तु तादशमाचरणं कुर्वाणं मां कश्चिन्न देख न ले इस आशंका से सतत उद्विग्न रहता है। इस प्रकार अज्ञान पश्येदिति सततमुद्विग्नो भवति । एवं अज्ञानप्रमाददोषेन और प्रमाद के दोष से सतत मूढ बना हुआ वह कर्मक्षय के हेतुभूत सततं मूढः कर्मक्षयकारणं श्रुतधर्म चारित्रधर्म च नाभि- श्रुतधर्म और चारित्रधर्म को नहीं जानता। जानाति। १८. अट्टा पया माणव! कम्मकोविया जे अणुवरया, अविज्जाए पलिमोक्खमाहु, आवटें अणुपरियति ।-त्ति बेमि । सं०-आर्ताः प्रजाः मानव ! कर्मकोविदाः ये अनुपरताः अविद्यया परिमोक्षमाहुः आवर्त अनुपरिवर्तन्ते। -इति ब्रवीमि । हे मानव ! जो लोग (विषयों से) पोडित हैं, प्रवत्ति-कुशल हैं, आस्रवों से विरत नहीं हैं और जो अविद्या से मोक्ष होना बतलाते हैं, वे संसार के भंवर-जाल में चक्कर लगाते रहते हैं। -ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् १५-दरिद्रतया बाधित: मानसिकसंताप- जो मनुष्य दरिद्रता से बाधित, मानसिक संताप से संतप्त और संतप्तः विषयकषायैः पीडितश्च मनुष्यः आर्त इत्युच्यते। विषय तथा कषायों से पीड़ित है, वह आर्त कहलाता है । हे मनुष्य ! हे मनुष्य ! एषा प्रजा आर्ता-विषयकषायः पीडिता यह प्रजा आत-विषय तथा कषायों से पीड़ित है । वह अत्ति को दूर विद्यते। सा अर्तेरपनयनाय नानाविधेषु कर्मसु प्रवर्तते, करने के लिए अनेक प्रकार की प्रवृत्तियां करती है। फलस्वरूप वह फलतः कर्मसु कुशला' भवति। अतरपनयनस्य कर्म--प्रवृत्ति में कुशल हो जाती है । अत्ति को दूर करने के दो उपाय उपायोऽस्ति विषयकषायेभ्यः उपरति : विद्या च। ये हैं-विषय और कषायों से उपरति और विद्या । जो व्यक्ति तत्त्व को तत्त्वं अजानानाः, आस्रवेभ्यः अनुपरताः, अविद्यया परि- नहीं जानते, जो आस्रवों से अनुपरत हैं, अविद्या से मोक्ष होना बतलाते मोक्ष वदन्ति ते भवावर्त अनुपरिवर्तन्ते । -इति ब्रवीमि । हैं, वे जन्म-मरण के आवर्त में घूमते रहते हैं। ऐसा मैं कहता हूं। बीओ उद्देसो : दूसरा उद्देशक १९. आवंती केआवंती लोयंसि अणारंभजीवी, एतेसु चेव मणारंभजीवी। सं०-यावन्तः केचन लोके अनारंभजीविनः एतेषु चैव अनारम्भजीविनः । इस जगत् में जितने मनुष्य अनारंमजीवी हैं, वे इन विषयों में अनासक्त होने के कारण ही अनारंभजीबी हैं। भाष्यम् १९-अत्र अनारंभपदेन संयमः अप्रमादो प्रस्तुत आलापक में 'अनारंभ' पद से संयम अथवा अप्रमाद वा विवक्षितोऽस्ति। यः इन्द्रियविषयकषायेषु प्रवृत्ति विवक्षित है । जो इन्द्रिय-विषयों तथा कषायों में प्रवृत्त नहीं होता, न करोति स अनारम्भजीवी भवति । अस्मिन लोके वह अनारंभजीवी- अहिंसाजीवी होता है, संयमी होता है। इस जगत् १. आचारांग चूणि, पृष्ठ १६५ : 'कम्मअकोविता' कहं कम्म एकत्ता पलिमोक्खो भवति, आहु-भणंति, मंतेहि बज्झति मुच्चति वा? विसणिग्घातविठंता विज्जाये पलिमोक्खं इच्छंति, जहा २. अत्र चूर्णिकारसम्मतः विज्जाए' इति पाठः अधिक संखाति, तं कि सच्चं ? ण सच्चं । ध्यानमाकर्षति–'विज्जा पलिमोक्खमाहु' परि समंता लयो (आचारांग चूणि, पृष्ठ १६५) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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