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________________ २४६ 1 यावन्त: केचन अनारम्भजीविनः सन्ति ते इन्द्रियविषय कपायेषु अप्रवर्तमानत्वादेव अनारम्भजोविनः सन्ति । २०. एस्थोवरए तं भोसमाने अयं संघो ति अवलु । मत्रोपरतः तं जोषयन् 'अयं संधि:' इति मद्रासीत् । सं० जो आरंभ से उपरत है, उसने अनारंभ की साधना करते हुए 'यह संधि है' ऐसा देखा है। भाष्यम् २० - अत्र अनारम्भजीवने य आरम्भादअसंयमात् प्रमादाद् वा उपरतो भवति, तमिति अनारम्भं जोषयन् 'अन्वेषयन् आसेवमानो वा अयं सन्धिरिति अद्राक्षीत् । अत्र सन्धिपदस्य द्वावच प्रासङ्गिकौ स्तः (१) अतीन्द्रियचैतन्योदयहेतुभूतं कर्मविवरम् । (२) अप्रमादाध्यवसायसन्धानभूतं शरीरवर्तिकरण चैतन्यकेन्द्र चक्रमिति यावत् । प्राचीनग्रन्थेषु सन्धि विवर- रन्ध्र-चक्र-कमल-करणादीनां समानार्थक प्रयोगो दृश्यते सन्धिः सुषुम्णा' । । सन्धिः - विवरम्' | सुषुम्णायाः कृते यथा सन्धिपदं व्यवहुतं तथा विचरपदमपि व्यवहृतमस्ति । विवर रन्ध्र-कमलानां समानार्थकता शिवसंहितायामित्यं दृश्यते तस्य मध्ये सुषुम्णाया मूलं सविवरं स्थितम् । बान्ध तदेवोक्तमामूलाधारजम् ।। - रश्मीनां कर्म विवरादेव अतीन्द्रियज्ञानस्य विनिर्गमो भवति नन्दीयमिदमुल्लिखितमस्ति । 'जहा जलतं वर्णतं पव्वर्ततं अविसिद्धो अंतसो | १. (क) आचारांग चूर्णि, पृष्ठ १६५ : अणारंभी नाम संजमो, अभारंभजीवणसीला, एते चैव छक्काए आरंमेण ण जीवति महवा इंदियविसयकसाए आरंभजीवी, तव्विवरीयजीवणसीला अणारंभजीवी, जं मणितं संजता । (ख) आचारांग वृत्ति पत्र १८५: आरम्भः - सावधानुष्ठानं प्रमत्तयोगो वा, उक्तं च 'आदाणे विक्वे भारसमो अडानयमणाई सव्वो पमत्तजोगो समणस्सऽवि होइ आरंभो ॥' तद्विपर्ययेण त्वनारम्भस्तेन जीवितुं शीलं येषां इत्यनारम्भजीविनो यतयः समस्तारम्भनिवृत्ताः ।' 2. n, ga (stafa, ataufe-)-To Investigate, examine; जुष् (जुषते ) = to devote or attach oneself to. Jain Education International आचारांगभाव्यम् में जो कोई अनारंभजीबी हैं, वे अनारंभजीवी इसीलिए है कि वे इन्द्रिय-विषयों तथा कषायों में प्रवृत्त नहीं होते । अनारंभ जीवन जीने वाला व्यक्ति आरंभ - असंयम अथवा प्रमाद से उपरत रहता है। अनारंभ की खोज या साधना करते हुए उसने 'यह संधि है' ऐसा देखा है। 'संधि' के दो अर्थ है (१) अतीन्द्रिय चेतना के उदय में हेतुभूत कर्म-विवर । (२) अप्रमाद के अध्यवसाय को जोड़ने वाला शरीरवर्ती साधन जिसे चैतन्यकेन्द्र या चक्र कहा जाता है । प्राचीन ग्रन्थों में संधि, विवर, रन्ध्र, चक्र, कमल, करण आदि शब्दों का प्रयोग समान अर्थ में देखा जाता है संधि अर्थात् सुषुम्ना संधि अर्थात् विवर सुषुम्ना के लिए जैसे 'संधि' पद व्यवहुत । हुआ है वैसे ही 'विवर' पद भी व्यवहृत हुआ है। और कमल इन शब्दों की शिवसंहिता में विचर एकार्यकता प्रतिपादित है (सहस्रार पद्म के कन्द में जो योनि है) उसके मध्य में सुषुम्ना का विवर सहित मूल स्थित है। उसे ही ब्रह्मरन्ध कहा गया गया है और वही मूलाधार कमल कहलाता है । कर्म-विवर (चैतन्यकेन्द्र) से ही अतीन्द्रिय ज्ञान की रश्मियां बाहर निकलती है। नदी भूमि में ऐसा उल्लेख है जैसे जल का चूर्णि - अन्त जलांत, वन का अन्त वनांत और पर्वत का अन्त पर्वतान्त होता ३. शिवस्वरोदय, १३६,१३८ : (क) अनादिविषमः सन्धिनिराहारो निराकुलः । परेलीपेत हा संध्या सषिच्यते । न सन्ध्या सन्धिरित्याहुः सन्ध्या सन्धिनिगद्यते । विषमः सन्धिगः प्राणः स सन्धिः सन्धिरुच्यते ॥ (ख) शिवसंहिता, ५७७: सुप्ता नागोपमा ह्येषा, स्फुरन्ती प्रभया स्वया । अहिवत् संधिसंस्थाना, वाग्देवी बीजसंज्ञिका । ४. (क) आचारांग चूर्णि, पृष्ठ १६५: भावसंधी कम्मविवरं 1 *********** (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १८५ : "सम्यक्त्वावाप्तिहेतुभूतविवरलक्षणः सन्धिः। ५. शिवसंहिता, २००६ संवेष्ट्य सकला नाही साहिति मुखे निवेश्य सा पुच्छं, सुषुम्णाविवरे स्थिता । ६. शिवसंहिता ५।१५३ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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