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________________ अ० ५. लोकसार, उ० १. सूत्र १०-१४ २४३ भवति । प्रथमा चतुर्थमहाव्रतस्य भङ्गः कृतः, द्वितीया पहली मूर्खता है-चौथे महाव्रत का भंग करना और दूसरी मूर्खता च सत्यमहाव्रतस्य भङ्गः कृतः । है-सत्य महाव्रत का भंग करना। १२. लद्धा हरत्था पडिलेहाए आगमित्ता आणविज्जा अणासेवणयाए-त्ति बेमि। सं० लब्धान् 'हुरत्था' प्रतिलिख्य आगम्य आज्ञापयेत् अनासेवनाय-इति ब्रवीमि । प्राप्त काम-भोग 'बाह्य' हैं, यह पर्यालोचनापूर्वक जान कर उनके अनासेवन की आज्ञा दे-ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् १२-संयतपुरुषेण न केवलं अलब्धाः भोगा संयमी पुरुष के लिए केवल अप्राप्त भोग ही अनासेवनीय नहीं अनासेवनीयाः, किन्तु ये लब्धाः सन्ति तेऽपि न हैं, किन्तु जो प्राप्त हैं, वे भी अनासेवनीय हैं। ये कामभोग धर्म के सेवनीयाः। एते हुरत्था'-धर्मस्य बहिर्वर्तन्ते' इति बाहिर हैं, ऐसा पर्यालोचनापूर्वक जानकर उनके अनासेवन के लिए प्रतिलिख्य-पर्यालोच्य, आगम्य ज्ञात्वा च तेषां आज्ञा दे-भोगे हुए उन काम-भोगों का परिणाम सुन्दर नहीं होता-- अनासेवनाय आज्ञापयेत्-तेषां भुक्तभोगानां परिणामः इस प्रकार शिष्यों को प्रतिबोध दे, ऐसा मैं कहता हूं। सुन्दरो न भवतीति शिष्यान् प्रतिबोधयेत्-इति ब्रवीमि । १३. पासह एगे रूवेसु गिद्धे परिणिज्जमाणे । सं०-पश्यत एकान रूपेषु गृद्धान् परिणीयमानान् । तुम देखो ! जो मनुष्य शरीर में आसक्त हैं, वे विषयों से खिचे जा रहे हैं। भाष्यम् १३–यूयं पश्यत, एके केचिज्जनाः रूपेषु'- तुम देखो, कुछेक मनुष्य रूपों-पदार्थों अथवा शरीरों में पदार्थेषु शरीरेषु वा गुद्धा:-मूच्छिताः सन्ति परिणीय- मूच्छित हैं। वे राग-द्वेष से बद्ध होकर विषयों के प्रति खिचे जा रहे मानाः-रागद्वेषाभ्यां बद्धाः, तत्रैव तत्रैव परिणीयमानाः हैं अथवा वे विषयों के प्रवाह में बहे जा रहे हैं अथवा वे इन्द्रियों अथवा विषयस्रोतसि उह्यमानाः अथवा इन्द्रियैः के द्वारा विषयों की ओर उन्मुख किए जा रहे हैं। विषयाभिमुखं परिणीयमानाः सन्ति । १४. एत्थ फासे पुणो-पुणो। सं०-अत्र स्पर्शः पुनः पुनः । इसमें वे बार-बार दुःख को प्राप्त होते हैं। भाष्यम् १४-अस्मिन्नासक्तिचक्रे पुनः पुनः स्पर्श:कष्टं भवति। आसक्तो मनुष्यः० पदार्थसंग्रहं प्रति चेष्टते । ० तस्य रक्षण नियोगे च चिन्तां वितनोति । इस आसक्ति के चक्र में बार-बार कष्ट होता है । आसक्त मनुष्य • पदार्थ-संग्रह के प्रति सचेष्ट रहता है। • पदार्थ के संरक्षण और उपयोग की चिन्ता करता रहता ० व्यये वियोगे च दुःखमनुभवति । ० उसके व्यय और वियोग में दुःख का अनुभव करता है। १. आचारांग चूणि, पृष्ठ १६१: हरत्था णाम देसीभासातो बहिद्धा। २. वही, पृष्ठ १६१ : धम्मस्स, णवि तं आसेवंतस्स धम्मो भवति, तेण एते धम्मोवरोधगत्तिकाउं साहू चरित्तातो चित्तातो वा बाहिं कुज्जा। ३. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ १६१ : रूवग्गहणा सेसिदिय गाण गहणं, रूव तत्थ पहाणं हारितं च तेण तम्गहणं, अहवा रूव इति सम्वविसयाणं मुत्तिमत्तं अक्खातं भवति। (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १८२ : 'रूपेषु' रूपाविषु इन्द्रियविषयेषु । (ग) चूी वृत्तौ च रूपशवेन इन्द्रियविषयग्रहणं कृतम् । किन्तु सर्वत्र अस्य प्रयोगः इन्द्रियविषयेषु नैव दृश्यते । द्रष्टव्यम्-३३५७; ५।२९ । Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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