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________________ २४२ आचारांगभाष्यम् संशयो नास्ति स संसारम् -जन्ममरणचक्रं हेयबुद्धया प्रकार दोनों अंशों का अवलंबन लेने वाला प्रत्यय संशय है। जिस परित्यक्तुमर्हति, येन येन कारणेन संसारो वर्धते तस्य पुरुष के मन में पुनर्जन्म के विषय में संशय नहीं होता, वह संसार को तस्य परित्यागं कर्तुमर्हति । यस्य पुनर्जन्मनि संशयो हेय समझ कर उसे छोड़ने में समर्थ होता है। संसार का अर्थ हैविद्यते तस्य संसार: अपरिज्ञातो भवति । न तादृशस्य जन्म-मरण का चक्र । जिस जिस कारण से संसार बढ़ता है, उससंसारपरित्यागाय आत्मस्वरूपोपलब्धये वा मतिरपि उस का वह परित्याग कर सकता है। जिसके मन में पुनर्जन्म के प्रति प्रवर्तते । संशय है, उसके लिए संसार अपरिज्ञात होता है, वह संसार को हेय समझ कर छोड़ नहीं सकता। वैसे व्यक्ति में संसार को छोड़ने अथवा आत्मस्वरूप की उपलब्धि करने की बुद्धि भी नहीं जागती। १०. जे छेए से सागारियं ण सेवए। सं०-यः छेकः स सागारिकं न सेवते । जो इन्द्रियजयी है, वह मैथुन का सेवन नहीं करता। भाष्यम् १०-संसारस्य हेतुरस्ति आश्रवः। तस्य संसार का हेतु है-आश्रव । उसका मुख्य कारण है-राग। मुख्य कारणमस्ति रागः। मैथुनं च भवति रागात्मकं, मैथुन रागात्मक होता है, इसलिए कहा है-जो छेक-इन्द्रियजयी है तेन निर्दिष्टं यश्छेक: स सागारिकं न सेवते । प्राय: वह मैथुन का सेवन नहीं करता। प्रायः काम-सेवन के लिए मनुष्य तन्निमित्तं हिंसाऽसत्यस्तेयपरिग्रहाद्याश्रवेषु मनुष्यः हिंसा, असत्य, स्तेय, परिग्रह आदि आश्रवों में प्रवृत्त होता है । चूणि प्रवर्तते । चणों छेकः-अनुपहतः, नास्ति तस्य किञ्चिद् में छेक का अर्थ है-अनुपहत, इन्द्रियजयी, जिसका कोई अपवाद वचनोयम् । वृत्तौ छेकः-निपुण उपलब्धपुण्यपापः। नहीं है। वृत्ति में छेक का अर्थ है-निपुण, पुण्य-पाप को जानने वाला। सागारिकम्---मैथनम् । सागारिक का अर्थ है - मैथुन । ११. कटु एवं अविजाणओ, बितिया मंदस्स बालया। सं.--कृत्वा एवं अविजानतः द्वितीया मन्दस्य बालता। जो मथुन का सेवन कर लेता है और पूछने पर 'मैं नहीं जानता' यह कह कर उसे अस्वीकार कर देता है, यह उस मन्दमति की दोहरी मूर्खता है। भाष्यम् ११-कश्चित् पुरुषः रहसि मैथुनप्रसंगं कृत्वा कोई मनुष्य एकांत में मैथुन का सेवन करता है। दूसरे के परेण पृष्टः सन् न जानामोति ब्रूते, तस्य अपलापं कुरुते। पूछने पर कहता है - मैं नहीं जानता। उसका अपलाप करता है। इस एवमविजानतस्तस्य मन्दस्य एषा द्वितीया बालता प्रकार अस्वीकार करने वाले उस मंदमति की यह दोहरी मूर्खता है। १. संशय दर्शन का मूल है-यही तथ्य प्रस्तुत सूत्र में उसके प्रति मन में संशय नहीं होता, वह सुखद है या प्रतिपादित है। जिसके मन में संशय नहीं होता, जिज्ञासा दुःखब है-ऐसा विकल्प उत्पन्न नहीं होता, तब तक वह नहीं होती, वह सत्य को प्राप्त नहीं कर सकता। भगवान् चलता रहेगा । उसके प्रति संशय उत्पन्न होना ही उसकी महावीर के ज्येष्ठ शिष्य गौतम के मन में जब-जब संशय जड़ में प्रहार करना है। होता, तब वे भगवान् के पास जाकर उसका समाधान २. आचारांग चूणि, पृष्ठ १६० : छेओ अणुवहओ, पत्थि से लेते। किंचि वयणिज्ज। _'संशयात्मा विनश्यति'-संशयालु नष्ट होता है। इस. ३. आचारांग वृत्ति, पत्र १८१ । पद में 'संशय का अर्थ सन्देह है। प्रस्तुत आगम के ५२९३ ४. आचारांग चूणि, पृष्ठ १६० : अगारेहिं सह भवतीति सूत्र में कहा है कि सन्देहशील मनुष्य समाधि को प्राप्त सागारियं-मेहुणं । इदं देशीपदं प्रतीयते सामयिकी संज्ञा नहीं होता। वा। __'न संशयमनारुह्य नरो भद्राणि पश्यति'-संशय का ५. चूणिकृता 'अवजानतः' इति पाठो मूले व्याख्यातः-अव सहारा लिए बिना मनुष्य कल्याण को नहीं देखता। इस परिवर्जने, अबयाणति, जं भणितं-हवति, तं कहं तुम अर्धश्लोक में प्रस्तुत सूत्र ही प्रतिध्वनि है। एवं करेसित्ति चोदितो परेणं ण अहं एवं करोमि अवयाणति संसार का अर्थ है-जन्म-मरण की परंपरा । जब तक अवयाणंति वा बुच्चति । (पृष्ठ १६१) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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